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मंगलवार, 8 अक्तूबर 2013

निर्वाण-उपनिषद--(प्रवचन-10)


दसवां—प्रवचन

आनंद और आलोक की अभीप्‍सा, उन्‍मनी गति और परमात्‍मा–आलंबन





                        योगेनसदानदस्वरूप दर्शनम्।
                              आनंद भिक्षाशी।
                        महाश्मशानेऽप्यानंद वने वास:।
                              एकांतस्थान मठम्।
                        उनमन्यवस्था शारदा चेष्टा।
                              उन्मनी गति:।
                        निर्मलगात्रम् निरालंब पीठम्।
                          अमृतकल्लोलानंद क्रिया।
         
         योग द्वारा वे सदैव आनंद—स्वरूप का दर्शन करते हैं।
                  आनंद—रूप भिक्षा का भोजन करते हैं।
         महाश्मशान में भी आनंददायक वन के समान निवास करते हैं।
                        एकांत ही उनका मठ है।
            प्रकाश—अवस्था के लिए वे नित—नूतन चेष्टा करते हैं।
                      अ—मन में ही वे गति करते हैं।
                  उनका शरीर निर्मल है, निरालंब आसन है।
          जैसे निनाद करती अमृत—सरिता बहती है, ऐसी उनकी क्रिया है।



आनंद और आलोक की अभीप्‍सा, उमनी गति और परमात्म—आलंबन

आनंद सदैव न हो तो आनंद नहीं है। दुख आता है, जाता है। सुख भी आता है और जाता है। जो न आता कभी और जो न कभी जाता है, उसका नाम ही आनंद है। जो है ही हमारे भीतर, जो हमारा स्वभाव है, स्वरूप है। जो भी आता है और जाता है, वह पर भाव है। वह स्वभाव नहीं है। वह हम नहीं हैं। जो भी हम पर आ जाता है और चला जाता है, वह हम नहीं हैं। हम तो वह हैं, जिस पर दुख आता है, जिस पर सुख आता है। हम भिन्न हैं। जिस पर सुख—दुख आते हैं, वह स्वभाव आनंद—स्वरूप है।
पर हमें उस स्वभाव का पता ही नहीं चलता। हम उसमें ही उलझे रहते हैं, जो आता है और जाता है। झेन फकीर कहते हैं, द होस्ट इज लॉस्ट इन द गेस्ट्स। वह जो मेजबान है, वह मेहमानों में खो गया है। घर का जो मालिक है, जो आतिथेय है, वह अतिथियों की सेवा करते—करते यह भूल ही गया है कि मैं भी हूं—अतिथियों से अलग, भिन्न, पृथक।
ऐसे ही हम अतिथियों की सेवा करते—करते भूल ही गए हैं कि हम कौन हैं। दुख जिसमें निवास कर लेता है, सुख जिसमें निवास कर लेता है, वह कौन है? वह कौन है जो अनुभव करता है कि मैं दुखी हो रहा हूं? वह कौन है जो अनुभव करता है कि मैं सुखी हो रहा हूं?
निश्चित ही, वह सुख और दुख से अलग है, क्योंकि अनुभव करने वाला अलग ही होगा। अनुभोक्ता पृथक ही होगा। मैं इस वृक्ष को देखता हूं तो मैं वृक्ष से अलग हो गया। मैं आपको देखता हूं तो मैं आपसे अलग हो गया। मैं अपने शरीर को देखता हूं तो मैं अपने शरीर से अलग हो गया। वह जो देखने वाला है, वह दृश्य से अलग हो गया। हो ही जाएगा, नहीं तो देख नहीं पाएगा। अगर द्रष्टा दृश्य से अलग न हो, तो देखेगा कैसे! देखने के लिए फासला चाहिए, डिस्टेंस चाहिए, दूरी चाहिए। तो जिसे भी हम देख पाते हैं, उससे हम भिन्न हो जाते हैं। इसीलिए हम परमात्मा को देख नहीं पाते। क्योंकि उससे हम भिन्न नहीं हैं। उससे हम अभिन्न हैं। देखेगा कौन? देखेगा किसको? उसके साथ हम एक हैं। जिसे हम छू पाते हैं, उससे अलग हो जाते हैं; जिसे सुन पाते हैं, उससे अलग हो जाते हैं। इंद्रियां जो भी जानती हैं, उससे हम अलग हो जाते हैं। मन जो भी पहचानता है, उससे हम अलग हो जाते हैं। सुख को भी जानते हैं। जब सुख आता है, तब आप भलीभांति जानते हैं कि सुख आया। दुख आता है, भलीभांति जानते हैं, दुख आया। जाता है, तब भी जानते हैं कि दुख जा रहा है। यह जो जानने वाला है, यह अलग है, यह भिन्न है। यही स्वरूप है।
इस स्वरूप में वे योग के द्वारा थिर हो जाते और सदैव आनंद का अनुभव करते हैं।
और जो व्यक्ति भी इस भीतर के स्वरूप में थिर हो जाता है, रमण को उपलब्ध हो जाता है, स्वयं में स्वस्थ हो जाता है, स्वयं में स्थित हो जाता है, ऐसा व्यक्ति सदैव, उपनिषद का ऋषि कहता है, सदैव आनंद में डूबा रहता है। क्या फिर उसके ऊपर दुख नहीं आते? क्या फिर बीमारी नहीं आती? क्या फिर जरा नहीं आती? क्या फिर मृत्यु नहीं आती?
नहीं, मृत्यु तो फिर भी आती है, लेकिन उस पर नहीं आती अब। वह पार और दूर और अछूता, अनटच्‍ड खड़ा रह जाता है। दुख तो अब भी आते हैं, बीमारियां अब भी आती हैं, पैरों में अब भी काटे गड़ते हैं, बुढ़ापा अब भी आता है, लेकिन अब उस पर नहीं आता। वह दूर खड़ा रह जाता है, अस्पर्शित, कमल के पत्ते जैसा। पानी की बूंद उस पर पड़ी है, लेकिन फिर भी छूती नहीं। पानी में डूबा है पत्ता, फिर भी दूर। पानी और पत्ते के बीच एक बारीक फासला है।
जीसस को सूली लगती है, तो शरीर तो मर जाता है, पर जीसस दूर खड़े रह जाते हैं। मैसूर काटा जाता है, तो शरीर तो टुकड़े—टुकड़े हो जाता है, लेकिन मंसूर हंसता रहता है। और जब कोई भीड़ में से पूछता है कि मैसूर, हंसने जैसा इसमें कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। हाथ—पैर काटे जा रहे हैं। मैसूर कहता है, तुम जिसे काटते हो, अगर वह मैं होता, तो निश्चित न हंसता, न हंस पाता। हंस रहा हूं इसलिए कि तुम जिसे समझ रहे हो कि मैं हूं वह मैं नहीं हूं। और जो मैं हूं उसे तुम काट न पाओगे।
स्वरूप को, आनंद को अनुभव करने वाला व्यक्ति दुख से घिर सकता है, लेकिन दुख के तादात्म में नहीं पड़ता। अंधेरा उसे घेर ले सकता है, लेकिन वह स्वयं अंधकार कभी नहीं होता। हमारे और उसके बीच एक ही फर्क है। जो हमें घेरता है, हम उसके साथ अपने को एक ही मान लेते हैं। ऐसा नहीं कहते हम कि मुझ पर दुख आया, कहते हैं, मैं दुखी हो गया। एक आइडेंटिटी बना लेते हैं।
गुरजिएफ की सारी साधना एक ही बात की थी। वह कहता था, नान—आइडेंटिफिकेशन, तादात्म तोड़ना—बस यही साधना है। हम चीजों से जुड़ जाते हैं। और इतने जुड़ जाते हैं कि लगने लगता है, यही मैं हूं। जैसे दर्पण में कोई तस्वीर बने और दर्पण समझ ले कि यह तस्वीर ही मैं हूं। जैसे झील में चांद दिखाई पड़े और झील कहने लगे, चांद मैं हूं ऐसे हम हो जाते हैं।
दुख छलकता है भीतर, छाया बनती है दुख की, मैं दुख हो जाता। सुख आता है, मैं सुख हो जाता। अशांति आती है, मैं अशांति हो जाता। शाति आती है, मैं शाति हो जाता। अपने को पार नहीं रख पाता, दूर नहीं रख पाता कि जो आ रहा है, वह मैं नहीं हो सकता, क्योंकि मैं तो उसके आने के पहले से ही मौजूद हूं। जब नहीं दुख आया था, तब भी मैं था; और जब दुख चला जाएगा, तब भी मैं होऊंगा, तो मेरा होना दुख के साथ एक नहीं हो सकता। कितना ही, कितना ही दुख घेर ले, तब भी मैं किसी तल पर दूर ही खड़ा रह जाता हूं।
इस दूरी की प्रतीति, इस तादाम्‍य का टूट जाना, नान—आइडेंटिफिकेशन योग है।
और ऋषि कहता है, योगेन योग के द्वारा वे सदैव आनंद— स्वरूप में स्थित सदैव आनंद का दर्शन करते रहते हैं।
क्षणभर को भी फिर आनंद स्खलित नहीं होता। क्षणभर को भी आनंद से संबंध नहीं टूटता। अभी भी टूटा नहीं है। सिर्फ स्मरण नहीं है। आइडेंटिफिकेशन, तादाक्य स्मृति को नष्ट करता है, स्‍थिति को नहीं।
विवेकानंद निरंतर एक कहानी कहा करते थे। बहुत पुरानी कथा है भारतीय मनीषियों की। एक सिंहनी ने छलांग लगाई एक पर्वत से। छलांग के बीच ही उसको बच्चा हो गया। वह गर्भिणी थी। नीचे भेड़ों की एक भीड़ गुजरती थी, वह बच्चा उसमें गिर गया। भेड़ों ने उसे बड़ा किया। भेड़ों के बीच ही वह रहा, भेड़ों का ही दूध पीया, भेड़ें ही उसकी मां थीं, पिता थे, संगी—साथी थे, मित्र थे। उस सिंह को कभी पता ही नहीं चला कि वह सिंह है। पता चलता भी कैसे! पता चलने का कोई उपाय भी न था। वह सिंह अपने को भेड़ मानकर बड़ा हुआ। हालांकि उसके मानने से कुछ फर्क न पड़ा। रहा वह सिंह ही। लेकिन फिर भी फर्क पड़ा। फर्क यह पड़ा कि वह भेड़ जैसा वर्तन करने लगा। भेड़ तो था नहीं, हो भी नहीं सकता था। लेकिन भेड़ जैसा वर्तन आविष्ट हो गया।
एक दिन बड़ी अनूठी घटना घटी। एक सिंह ने उस भेड़ों की भीड़ पर हमला किया। तो वह सिंह देखकर चकित हुआ कि उस भेड़ों की भीड़ में भेड़ों से बहुत ऊपर उठा हुआ एक सिंह भी चल रहा है। भेड़ों जैसा ही घसर—पसर, उनके साथ ही। न भेड़ें भागती हैं उससे, न वह सिंह। इस सिंह को देखकर भेड़ें भागी, वह सिंह भी भागा। सिंह तो बहुत चकित हुआ कि इस सिंह को क्या हो गया!
आइडेंटिफिकेशन, तादात्म हो गया। भेड़ों के बीच रहते—रहते, रहते—रहते, भेड़ों की आकृति मन में बनते—बनते दर्पण ने समझा कि मैं भेड़ हूं।
सिंह ने भेड़ों की तो फिक्र छोड़ दी—इस दूसरे सिंह ने—उस सिंह को पकड़ने की चेष्टा की। बामुश्किल पकड़ पाया, क्योंकि था तो वह सिंह, तो भागता सिंह की तरह था। गति उसकी सिंह की थी, मान्यता उसकी भेड़ की थी। बाकी तो किसी भी भेड़ को पकड़ लेना उस दूसरे सिंह को बड़ा आसान था, इस सिंह को तो वह घंटों के बाद बामुश्किल पकड़ पाया। पकड़ते से ही वह सिंह तो मिमियाने लगा, जैसा भेड़ें मिमियाती हैं।
उसको तो गर्जना का कोई पता ही न था। गर्जना अब भी उसके हृदय के किसी कोने में पड़ी थी, अभी भी बीज थी, अभी भी अंकुरित नहीं हुई थी। उसे सिंह—गर्जन का कोई अनुभव ही नहीं था। कर सकता था, कैपेसिटी थी, क्षमता थी, लेकिन योग्यता न थी। कैपेबिलिटी और एबिलिटी का फर्क। कैपेबल था। कोई कारण न था, जब चाहे तब सिंह—गर्जना कर सकता था। लेकिन योग्यता न थी, क्योंकि योग्यता को तादात्म्य ने नष्ट कर दी थी। खयाल में ही नहीं था।
दूसरे सिंह ने पकड़ा, तो हाथ—पैर जोड़ने लगा, सिर रखने लगा उसके पैरों पर, मिमियाने लगा। आंखों से आंसू बहने लगे। कहने लगा, क्षमा करो। छोड़ दो। उस दूसरे सिंह ने कहा, तुझे हो क्या गया है? तू भेड़ नहीं है! उसने कहा, नहीं, मैं भेड़ हूं। मैं भेड़ ही हूं। तुम भूल में पड़े हो। सिंह ने बहुत समझाने की कोशिश की, लेकिन समझाने से कहीं कुछ समझ में आता है? जितना वह समझाने लगा, उतना वह और घबराने लगा। वह कहने लगा, तुम मुझे सिर्फ छोड़ दो। मुझे ज्ञान की कोई जरूरत नहीं है। मुझे मेरे मित्रों के पास जाने दो। उनके बिना मैं बहुत घबरा रहा हूं।
भेड़ भीड़ के बिना नहीं जी सकती। स्वात में तो सिंह ही जी सकता है। भेड़ तो भीड़ में ही जी सकती है। क्योंकि उसे सुरक्षा मालूम पड़ती है, सब तरफ अपने हैं। परिवार, प्रियजन, मित्र, पत्नी, बेटे, सब अपने हैं। तो भीड़ के बीच में भेड़ सुरक्षित है, कोई डर नहीं है। अपने पर जिसे भरोसा नहीं है, उसे सदा भीड़ पर भरोसा होता है। भीड़ ही उसका सहारा है। सिंह अकेला जी सकता है, लेकिन सिंह होने का पता हो तब न। सिंह को भीड़ में नहीं रखा जा सकता।
कोई उपाय न देखकर उस सिंह ने उसको घसीटा। घसिट गया, क्योंकि वह भेड़ था। ऐसे जवान था और यह का था। लेकिन जवान सिंह बूढ़े सिंह से घसिट गया, क्योंकि का हो तो भी सिंह था। यह जवान हो तो भी भेड़ था। घसीट लिया उसने उसे। नदी के किनारे ले गया और कहा कि देख पानी में मेरी शकल और तेरी शकल में कोई फर्क है? झांका, झांकते ही गर्जना निकल गई। वह बीज की तरह जो पड़ी थी, अंकुरित हो गई। झांककर देखा, दोनों शकलें एक सी थीं। रोमांच हो गया होगा, रोएं खड़े हो गए। भूल गया कि भेड़ हूं गर्जना फूट पड़ी भीतर से।
गुरु का काम समझाना कम, दिखाना ज्यादा है। कहीं किसी प्रतिबिंब में समझाना ज्यादा है कि जो मेरी शकल है, वही तुम्हारी भी शकल है। जो मेरे भीतर छिपा है, वही तुम्हारे भीतर भी छिपा है। किसी भी क्षण गर्जना निकल सकती है, क्योंकि वह भीतर का स्वभाव है।
ऋषि कहता है, सदैव उस आनंद का अनुभव हो सकता है, लेकिन योग के द्वारा। योग का अर्थ है वे प्रक्रियाएं, जिनके द्वारा आप अपनी असली शकल को पहचान लेंगे। अपनी मौलिक दशा को ओरिजनल स्टेट को समझ लेंगे।
बड़े आइडेंटिफिकेशन हैं। उस सिंह पर तो ज्यादा मुसीबत न थी, एक ही उसका तादात्म्य था कि मैं भेड़ हूं। हमारे तादात्म्य का कोई अंत नहीं। हजार—हजार तादाम्‍य हैं। मैं हिंदू हूं; मैं मुसलमान हूं; मैं स्त्री हूं मैं पुरुष हूं; मैं शरीर हूं; मैं मन हूं; मैं यह हूं; मैं वह हूं। कितने हजार! मैं धनी हूं; मैं निर्धन हूं; मैं सुंदर हूं; मैं कुरूप हूं; मैं दुर्बल हूं; मैं सबल हूं। कितने! उस सिंह की तो ज्यादा कठिनाई न थी, इसलिए गुरु को बहुत आसानी पड़ी। सिर्फ नदी में चेहरा दिखा दिया। आपके इतने चेहरे हैं कि आपको पक्का पता ही नहीं कि आपका असली चेहरा क्या है। अगर नदी में भी आपको झुकाया जाए, तो आप कोई दूसरी ही मास्क जो उस वक्त अपने चेहरे पर ओढ़े होंगे, वही दिखाई पड़ेगी पानी में भी। और चेहरे इतने हैं हमारे पास कि हम चेहरों का एक संग्रह हैं।
सब तादात्म्य तोड़ने पड़े, तो स्वरूप का पता चलता है। सब मुखौटे उतारने पड़े, तो स्वरूप का पता चलता है।
योग प्रक्रिया है हमारे चेहरों को तोड़ डालने की, फाड़ डालने की—सब चेहरों को, जो चेहरे भी हटाए जा सकते हैं, उन्हें हटा डालने की। जो नहीं हटाया जा सकता, वही हमारा ओरिजनल फेस, वही हमारा मौलिक चेहरा है। जो नहीं हटाया जा सकता। जो नहीं काटा जा सकता। न कोई योग काट सकता, न कोई तलवार काट सकती, न कोई विधि मिटा सकती। सब उपाय मिटाने के करने के बाद भी जो पीछे सदा शेष रह जाता है, जिसको मिटाने का कोई उपाय नहीं, हटाने का कोई उपाय नहीं, वही मेरा स्वभाव है।
तो जिसको भी आप हटा सकते हैं, समझना, वह चेहरा है। आप कहते हैं, मैं हिंदू हूं मैं मुसलमान हूं मैं ईसाई हूं। इसे हटाने में कोई दिक्कत है! ईसाई को हिंदू होने में कोई अड़चन है? हिंदू को मुसलमान होने में कोई दिक्कत है? जाकर चोटी कटा ले, मस्जिद में चला जाए, मुसलमान हो गए। नमाज पढ़ने लगे, कल तक प्रार्थना पढ़ रहे थे। चेहरे के बदलने में जहा इतनी सुविधा हो, वह ओरिजनल फेस नहीं हो सकता। वह मुखौटा है। अभी हिंदू का मुखौटा लगाए थे, अभी मुसलमान का मुखौटा लगा लिया। गरीब को अमीर होने में कोई बड़ी अड़चन है? डाका डालना भर आना चाहिए। और तो कोई अड़चन नहीं है। अमीर को गरीब होने में कोई अड़चन है?
मुल्ला नसरुद्दीन के दरवाजे पर एक भिखारी एक सुबह खड़ा हुआ भीख मांग रहा है। मुल्ला ने उससे कहा, तेरी यह हालत कैसे हो गई? ऐसे तो स्वस्थ दिखाई पड़ता है। तेरी यह हालत कैसे हो गई? जार—जार आंख से उस भिखारी के आंसू गिरने लगे। उसने कहा, मत पूछो मेरा हाल। बड़ी बेहाली का है। मुल्ला ने जल्दी से सौ रुपए का एक नोट निकाला और उसको दिया। उसने आंसू पोंछकर खीसे में नोट रख लिया और मुल्ला से कहा, यही कर—करके मैं भी गरीब हो गया हूं। सावधान रहना! ऐसे ही बांट—बांटकर फंस गया।
तो जरा सरलता हो, तो अमीर के गरीब होने में कोई दिक्कत है? जरा बेईमानी हो, तो गरीब के अमीर होने में कोई कठिनाई है? चेहरा बदलना जहां इतना आसान हो, वह चेहरा हमारा मौलिक चेहरा नहीं हो सकता। वह हमारा स्वरूप नहीं हो सकता। तो एक बात ध्यान रखें कि जो भी बदला जा सकता है, वह हमारा स्वभाव नहीं है।
लेकिन कुछ बातें हम सोचते हैं, नहीं बदली जा सकतीं, जैसे मैं पुरुष हूं आप गलती में हैं। गरीब का अमीर होना मुश्किल है, हिंदू का मुसलमान होना मुश्किल, आपका स्त्री हो जाना बहुत ही सुगम है। एक इंजेक्यान से हो सकता है। एक ग्लैडं काटंदेने से हो सकता है। और जल्दी ही, जो अभी जवान हैं, पैंतीस साल के इस तरफ हैं, वे अपनी जिंदगी में यह देख पाएंगे कि आदमी के लिए सुविधा हो जाएगी अल्टरनेटिव कि कोई आदमी पुरुष होने से थक गया, तो स्त्री हो जाएगा; स्त्री होने से थक गया, तो पुरुष हो जाएगा। थक तो जाते हैं सभी। स्त्रियां सोचती हैं, पता नहीं पुरुष कौन सा आनंद ले रहे हैं। पुरुष सोचते हैं, स्त्रियां पता नहीं कौन सा आनंद ले रही हैं। बदलाहट जल्दी हो जाएगी।
अब तो उपाय खोज लिए गए हैं, अब कठिनाई नहीं है। जरा सा ही हार्मोन्स का फर्क है, और कुछ बात नहीं है। हार्मोन भी बहुत ज्यादा नहीं हैं, एक सिरिंज में समा जाएं, इतने। उनको डाल देने से पुरुष स्त्री हो सकता है, स्त्री पुरुष हो सकती है। यह चेहरा फिर मौलिक नहीं रह गया। यह स्त्री या पुरुष होना कोई बड़ी मतलब की बात नहीं है। यह बडी ऊपरी है, कपड़ों की है। अब तक हम कपड़े बदलना नहीं जानते थे, यह बात दूसरी है। अब हम जानते हैं।
लेकिन ऋषि तो बहुत पहले से कहते रहे हैं, जब कि स्त्री पुरुष नहीं बनाई जा सकती थी, तब भी वे कहते थे कि तुम न स्त्री हो, न तुम पुरुष हो। तुम तो वह हो, जो भीतर से जानता है कि मैं स्त्री हूं मैं पुरुष हूं। तुम तो वह ज्ञाता हो।
प्रवेश करना है भीतर वहा, जहा कोई आवरण नहीं रह जाता। जहां सिर्फ वही रह जाता है, जो जानने की क्षमता है। बस, जानना मात्र एक ऐसी चीज है जिससे हम अपने को अलग नहीं कर सकते, जिससे हमारा तादात्म्य नहीं है, जिससे हमारा स्वरूपगत, जो हमारा स्वरूप है, स्वरूप ही है। और जिस दिन कोई जानने की शुद्ध क्षमता को उपलब्ध होता है, उसी दिन आनंद से भर जाता है। और उसी दिन अमृत से भर जाता है।
इसलिए ऋषियों ने उस स्थिति के लिए कहा है, सच्चिदानंद। सत, चित, आनंद। सत का अर्थ है, वह जो सदा रहेगा—द इटरनल, द इटरनली टू, शाश्वत रूप से जो सत्य होगा। सत का अर्थ है, जो कभी भी अन्यथा नहीं होगा। चित का अर्थ है चैतन्य, ज्ञान, बोध। जो सदा बोध से भरा रहेगा, जिसका बोध कभी नहीं खोएगा। और आनंद का अर्थ है ब्लिस, जो सदा सुख—दुख के पार, एक परम रहस्य में, आनंद में, मस्ती में डूबा रहेगा। एक ऐसी मस्ती में, जो बाहर से नहीं आती, जिसके स्रोत भीतर हैं। उस स्वभाव को कहा है सच्चिदानंद।
उपनिषद का यह ऋषि कहता है, वे आनंद— रूप भिक्षा का ही भोजन करते हैं। आनंद भिक्षाशी।     बस, भोजन उनका आनंद ही है। एक ही चीज मांगते हैं भिक्षा में, आनंद, और कुछ भी नहीं मांगते हैं। एक ही मांग है, एक ही अभीप्सा है—आनंद। और एक ही भोजन है, एक ही आहार है—आनंद। इसे दो तरह से खयाल में ले लेना जरूरी है। हम भी मांगते हैं, लेकिन हम आनंद कभी नहीं मांगते। हम वे वस्तुएं मांगते हैं जिनसे आनंद मिल सके। इसमें फर्क है। हम मांगते हैं वे वस्तुएं, जिनसे आनंद मिल सके, जिनसे हमें खयाल है, आनंद मिलेगा। सीधा आनंद हम कभी नहीं मांगते।
इसलिए कुछ विचारक हुए हैं, जिनका कहना है कि यह बात ही गलत है कि आदमी आनंद चाहता है। जैसे पश्चिम में डेविड ह्मूम, वह कहता है कि नहीं, कोई आदमी आनंद नहीं चाहता। मैंने आदमी ही नहीं देखा, जो आनंद चाहता हो। कोई आदमी कार चाहता है, कोई आदमी बंगला चाहता है, कोई आदमी पत्नी चाहता है, कोई आदमी बेटा चाहता है, कोई आदमी स्वास्थ्य चाहता है, आनंद तो मैंने किसी आदमी को चाहते नहीं देखा।
वह ठीक कहता है। क्योंकि उपनिषद के ऋषि से मिलना तो बहुत मुश्किल है, हम ही मिल जाते हैं। हम ही मिल जाते हैं सब तरफ। तो झूम ठीक कहता है। जिससे भी पूछता है, कोई कहता है, जमीन चाहिए; कोई कहता है, धन चाहिए; कोई कहता है, पद चाहिए; आनंद तो कोई भी नहीं चाहता है। कोई मिलता नहीं जो कहता है आनंद चाहिए। पर क्यों? कोई कार क्यों चाहता है? मकान क्यों चाहता है? धन क्यों चाहता है? पद क्यों चाहता है? क्या कारण है?
खयाल है उसका कि इसको चाहने से आनंद मिलेगा। कार तो मिल जाती है, आनंद नहीं मिलता। मकान मिल जाता है, आनंद नहीं मिलता। धन मिल जाता है, आनंद नहीं मिलता। साधन तो मिल जाते हैं, जो हमने सोचा था साध्य, वह नहीं मिलता। असल में आनंद का कोई भी साधन नहीं है। इसे थोड़ा समझ लें।
आनंद का कोई भी साधन नहीं है। क्योंकि साधन उसके लिए होते हैं, जो हमसे दूर हो। अगर मुझे उस पहाड़ की चोटी पर जाना है, तो साधन की जरूरत पड़ेगी ही। चढ़ने के लिए, जाने के लिए, पहुंचने के लिए मार्ग चाहिए, विधि चाहिए, कोई बताने वाला चाहिए, कोई गाड़ी चाहिए, घोड़ा चाहिए, पैर चाहिए—कोई साधन चाहिए पड़ेंगे उस पार तक। लेकिन मुझे अपने ही भीतर जाना है, तो कोई साधन नहीं चाहिए पड़ेंगे। अगर पराए के पास पहुंचना है, पर के पास पहुंचना है, तो बीच में सेतु चाहिए। लेकिन अगर अपने ही पास पहुंचना है, तो किसी सेतु की कोई जरूरत नहीं है। अगर दूर जाना है, तो चलना पड़ेगा, और अगर अपने ही पास आना है, तो चलने की कोई भी जरूरत नहीं। चले कि भटक जाएंगे। चले कि दूर निकल जाएंगे। जो. अपने को खोजने के लिए चलेगा, वह दूर निकल जाएगा, पास नहीं आएगा।
आनंद सीधा ही चाहा जा सकता है, उसका कोई साधन नहीं है। क्योंकि वह हमारा स्वभाव है। हमें मिला ही हुआ है—आलरेडी गिवेन। जो मिला ही हुआ है उसे सिर्फ पहचानना पड़ता है, उसे पाना नहीं पड़ता।
लेकिन मकान तो मिला ही हुआ नहीं है, जमीन तो मिली ही हुई नहीं है, धन तो मिला ही हुआ नहीं है। उसे मिलाना पड़ेगा, लाना पड़ेगा, खोजना पड़ेगा, बनाना पड़ेगा, निर्मित करना पडेगा, अर्जित करना पड़ेगा। एंड आल दैट कैन बी अर्न्द, कैन नेवर बी ब्लिस। और जो भी कमाया जा सकता है, वह आनंद नहीं हो सकता। आनंद तो अनअर्न्‍ड, आलरेडी गिवेन है।
नहीं, उसे अर्जित नहीं करना होता, वह है ही। सिर्फ उस तल पर जाकर देखना भर काफी है। आंख भर भीतर मुड़ जाए तो काफी है। खजाना घर में ही गड़ा है। हम बाहर खोज रहे हैं। मकान के चारों तरफ दौड़ रहे हैं, पूरी जमीन का चक्कर लगा रहे हैं। वह नहीं मिल रहा है। मिलेगा भी नहीं। जितना चक्कर में हम पड़ते जाएंगे, उतना ही मिलने की संभावना क्षीण होने लगेगी। क्योंकि चक्कर का एक तर्क है। जब आदमी दौड़ता है उसे खोजने जो उसके भीतर है और दौड़कर नहीं पाता—क्योंकि दौड़कर पा नहीं सकता, ठहरकर पा सकता है—जब दौड़ता है और नहीं पाता है, तो दौड़ का तर्क यह कहता है कि तुम जरा धीरे दौड़ रहे हो, इसलिए नहीं मिल रहा है। तेजी से दौड़ता है, पूरी ताकत लगा देता है।
दौड़ने का दूसरा तर्क भी है। जब वह पूरी ताकत लगा देता है और तब भी नहीं मिलता, तो दौड़ने का तर्क कहता है कि तुम गलत रास्ते पर दौड़ रहे हो। रास्ता बदलो।
रास्ता बदल दे और तेजी से दौड़ता रहे, अनेक रास्तों की पहचान कर ले, तब भी दौड़ने का एक आखिरी तर्क है। अगर फिर भी आनंद न मिले—मिलेगा ही नहीं, मिलने का तो कोई कारण नहीं है—तो दौड़ने का तर्क कहता है, आनंद है ही नहीं, इसलिए नहीं मिलता है।
ये तीन तर्क हैं दौड़ने के। पहले वह कहता है, जोर से दौड़ो तो मिलेगा, ऐसे धीरे— धीरे चलने से कहीं मिलता है? देखो, पड़ोस के लोग कितने तेजी से दौड़ रहे हैं। देखो, फलां आदमी को मिल गया, वह दिल्ली पहुंच गया। उसको मिल गया आनंद, तुम भी तेजी से दौड़ो, तो तुमको भी मिल जाएगा। तो तेजी से दौडों।
फिर अगर तेजी से दौड़कर दिल्ली भी पहुंच जाओ और वहां न मिले, तो उसका मतलब है, रास्ता बदलों। तुम गलत रास्ते पर दौड़ रहे हो। फिर रास्ते जन्म—जन्म बदलोगे, क्योंकि अनंत रास्ते हैं जो कहीं नहीं ले जाते। जो कहीं नहीं ले जाते। कम से कम आनंद तक तो नहीं ले जाते। क्योंकि आनंद तक किसी रास्ते की जरूरत नहीं है। वह है भीतर, वहां आप खड़े हैं। सिर्फ आपकी नजर बहुत दूर के रास्तों पर भटक गई है, बहुत दूर चली गई है—अपने से बहुत दूर चली गई है।
तो फिर आखिर में थका हुआ तर्क कहता है कि आनंद होगा ही नहीं, इसलिए नहीं मिलता है। क्योंकि अगर होता, तो हमने सब रास्ते खोज डाले, सब साधन प्रयोग कर लिए, सब राजधानियां तलाश डालीं, सब महलों में रह चुके। नहीं, आनंद है ही नहीं।
नीत्से ने कहा है, आनंद है ही नहीं। जिसे तुम खोजते हो, वह है ही नहीं, इसलिए मिलेगा कैसे! आनंद सिर्फ आशा है, नीत्से ने कहा है, सिर्फ कल्पना है। नीत्से ने कहा है, लेकिन जरूरी कल्पना है, क्योंकि उसके बिना आदमी को जीना बहुत मुश्किल पड़ेगा—ए नेसेसरी अनट्रुथ। नीत्से का शब्द है, एक आवश्यक झूठ। है नहीं कहीं आनंद। लेकिन अगर ऐसा पता चल जाए कि है नहीं कहीं आनंद, तो आदमी यहीं गिरकर मिट्टी का ढेर हो जाएगा। चलेगा कैसे! उठेगा कैसे! दौड़ेगा कैसे! नीत्से ने कहा है, सत्य से नहीं जीता है आदमी, आदमी असत्य से जीता है। असत्य जरूरी है, अनट्रुथ्‍स। नहीं तो जी नहीं सकता। उन्हीं के सहारे तो जीता है।
पर नीत्से पागल होकर मरा। मरेगा ही, क्योंकि यह आखिरी तर्क है दौड़ का, तीसरा तर्क है —अल्टीमेट। और नीत्से बहुत विचारशील व्यक्ति था, बहुत विचारशील, अति विचारशील। कहा जा सकता है, इन सौ वर्षों में इतना तर्कयुक्त और इतना गहन विचार करने वाला व्यक्ति दूसरा नहीं हुआ। लेकिन मरा बहुत दुख में। दुख में जीया, विक्षिप्त हुआ। इन सौ वर्षों में इतनी पेनिट्रेटिंग, इतनी गहरे प्रवेश कर जाने वाली बातें किसी दूसरे आदमी ने नहीं कहीं। लेकिन इस आदमी का फल क्या? वह आखिरी तर्क पर था। प्रतिभा थी, तो तर्क को उसने बिलकुल साफ—सुथरा कर लिया। उसने कहा, जो नहीं मिलता है इतना खोजे से, वह है ही नहीं। मिलेगा कैसे?
ऋषि कहते हैं, नहीं मिलता है, फिर भी है। नहीं मिलता, क्योंकि तुम खोजते हो, क्योंकि तुम दौड़ते हो। मिल सकता है, रुक जाओ, ठहर जाओ। मत दौड़ो, मत भागो, दृष्टि को मत भटकाओ। रोक लो, दृष्टि को भीतर डूब जाने दो। मिलता है, लेकिन खोजने से नहीं। क्योंकि वह पहले से ही मिला हुआ है। स्वरूप का यह अर्थ होता है, जो है ही।
इसलिए आनंद ही मांगना चाहिए, साधन नहीं। जो साधन मांगेगा, वह दौड़ता रहेगा, दौड के तर्कों में उलझा रहेगा। और अनंत जन्मों तक यह दौड़ चल सकती है। इस दौड़ का कोई अंत नहीं आता। और बुद्धि हो, विवेक हो, तो क्षण में यह दौड़ छूट सकती है और आदमी उसी क्षण में भीतर प्रवेश कर सकता है। एक क्षण में भी यह घटना घट सकती है। और अनंत काल में भी न घटे। अगर आप गलत दिशा में निकल पड़े हैं, तो अनंत काल चलने पर भी नहीं पहुंचेंगे और ठीक दिशा में एक कदम उठा लेने से भी पहुंचना हो जाता है। मंजिल दूर नहीं है। मंजिल बिलकुल भीतर है।
यही उपद्रव है। अगर मंजिल दूर होती, तो हम पहाड़ चढ़ लेते, एवरेस्ट चढ़ जाते। प्रशांत महासागर में दबी होती, डूब जाते। चांद पर होती, पहुंच जाते। उपद्रव यही है कि मंजिल हमारे भीतर है। खोजी के भीतर गंतव्य है। वही तकलीफ है।
तो ऋषि साधन नहीं मांगता। वह यह नहीं कहता कि हे प्रभु, मुझे धन दो, ताकि मैं आनंद पा सकूं; कि मुझे बड़ा भवन दो कि मैं आनंदित हो सकूं। वह कहता है, न भवन, न धन, तुम मुझे आनंद ही दो। मुझे सीधा आनंद ही दो। और जब साधन से कोई आनंद मिलता है, तो वह आनंद नहीं होता है, सुख होता है।
ध्यान रखना, साधन से जब भी कुछ मिलता है, वह सुख होता है। और सुख थिर नहीं हो सकता। आता है, जाता है। इसलिए साधन से जो भी मिलता है, उससे दुख पैदा होता है, क्योंकि सुख आएगा और जब जाएगा तो दुख छोड़ जाएगा। असाधन से, बिना साधन के जो मिलता है, वह आनंद है।
इसलिए ध्यान को साधन मत समझना। ध्यान साधन नहीं है—नाट ए मेथड। कहते हैं, क्योंकि कहने की अपनी तकलीफें हैं, कोई उपाय नहीं है। कहते हैं, साधना कर रहे हैं। साधना का मतलब, साधन का उपयोग कर रहे हैं। कहते हैं कि ध्यान एक साधन है। तो कहने की तकलीफें हैं, कोई उपाय नहीं, लेकिन ध्यान असाधन है—नो—मेथड।
ध्यान कोई साधन नहीं है, कोई विधि नहीं है वस्तुत:। ध्यान सब विधियों को छोड्कर अपने भीतर डूब जाने का नाम है। इसलिए जब तक विधि चलती है, तब तक ध्यान नहीं होता। विधि सिर्फ जंपिंग बोर्ड है। एक आदमी नदी में कूदता है, तख्ते पर खड़ा है, उछल रहा है। अभी नदी नहीं आ गई, अभी जंपिंग बोर्ड पर है। फिर जंपिंग बोर्ड ने उसे फेंक दिया, छलांग मारी, वह नदी में चला गया। लेकिन एक मजे की बात है कि जंपिंग बोर्ड नदी में छलांग लगाने के लिए सहयोगी बनता है। लेकिन अगर जंपिंग बोर्ड पर ही कूदते रहें, तो जिंदगी नहीं, अनंत जिंदगी कूदते रहें, नदी में न पहुंचेंगे। मेथड कैन बी यूज्‍ड ओनली टु जंप इनटु द नो—मेथड। विधि का उपयोग करना पड़ता है, अ—विधि में कूदने के लिए।
इसलिए हम जो ध्यान करते हैं, उसमें जो तीन चरण हैं, वे सिर्फ जंपिंग बोर्ड हैं। चौथा चरण ध्यान है। तीन तो सिर्फ तैयारी है उछलने की, कूदने की, इतने जोश से भर जाने की कि कूद ही जाएं हिम्मत जुटाकर, तो पानी में पहुंच जाएं। जहां ध्यान है, वहा कोई साधन नहीं, और जब तक साधन है, तब तक ध्यान नहीं। लेकिन ध्यान के लिए भी साधन का उपयोग करना पड़ता है। पर ध्यान स्वयं साधन नहीं है, ध्यान अवस्था है—स्टेट आफ माइंड।
ऋषि कहता है, आनंद की ही वे भिक्षा मांगते हैं। वही उनका भोजन है, वही उनका आहार है, वही उनका जीवन है। साधन वे नहीं मलते। जिसने साधन मांगा, वह गृहस्थ है। जिसने साध्य मांगा, वह संन्यासी है। जिसने रास्ते मांगे, उसे मंजिल कभी न मिलेगी। जिसने मंजिल मांगी, मंजिल यहीं है।
मगर अगर आपसे कोई कहे कि आनंद सीधा ही मिल जाता है, मत मांगो मकान, मत मांगो कार। तो जरा आंख बंद करके भीतर सोचना। मन कहेगा, छोड़ो ऐसे आनंद को, जो बिना कार के ही मिल जाता है। हम तो कार वाला, मकान वाला? महल वाला, स्त्री वाला, पुरुष वाला आनंद चाहते हैं। छोड़ो ऐसे आनंद को। ऐसे आनंद में क्या रस होगा? करोगे क्या ऐसे आनंद को? ऐसे आनंद से विवाह करोगे? ऐसे आनंद के साथ रहोगे? करोगे क्या ऐसे आनंद को, छोड़ो! ऐसे आनंद में क्या हो सकता है जो बिना ही किसी चीज के मिल जाता है! चीज तो चाहिए ही। कंटेनर तो चाहिए ही। डब्बा तो चाहिए ही, चाहे वह खाली ही हो। कंटेंट से किसी को प्रयोजन नहीं है।
संन्यासी आत्मा ही मांगता है, काया नहीं। साधन नहीं, साध्य ही मांगता है। वस्तु नहीं, अस्तित्व ही मांगता है।
महाश्मशान में भी वे ऐसे विचरण करते हैं जैसे आनंद—वन में हों
मरघट में भी वे ऐसे जीते, जैसे महल में हों। असल में मरघट और महल का फासला उनके लिए ही है, जिनके मन में महल की आकांक्षा है। ध्यान रखना, मरघट और महल में कोई फासला नहीं है। फासला हमारी आकांक्षा का है। महल हम चाहते हैं, मरघट हम नहीं चाहते। इसी से फासला है, अन्यथा महल और मरघट में क्या फासला है! जहां महल खड़े हैं, वहा मरघट बहुत दफे बन चुके। और जहा मरघट बने हैं, वहा बहुत दफे महल बनकर गिर चुके। और सब महल अंततः मरघट बन जाते हैं और सब मरघटों पर महल खड़े हो जाते हैं। फर्क क्या है? फासला क्या है?
हमारी आकांक्षा में फासला है। महल हम चाहते हैं, मरघट हम नहीं चाहते। इसलिए महल तो हम बस्ती के बीच में बनाते हैं और मरघट गाव के बाहर कि दिखाई भी न पड़े, उधर से गुजरना भी न पड़े। ऐसी जगह बनाते हैं, जहा से कोई रास्ता भी न गुजरता हो, आगे न जाता हो, मरघट पर ही खतम हो जाता हो। और मरघट हम सदा दूसरों को पहुंचाने जाते हैं—सदा। दूसरों को पहुंचाने में तो बड़ा रस भी आता है। अपने को पहुंचाने का तो मौका नहीं आता। वह दूसरे करते हैं वह काम। जब हमने उनकी इतनी सेवा की, तो वे भी हमारी कुछ सेवा तो करेंगे ही।
मुल्ला नसरुद्दीन के पड़ोस में किसी की पत्नी मर गई। यह तीसरी पत्नी थी। पहले दो और मर चुकी थीं। ऐसी अच्छी पत्‍निया मुश्किल से मिलती हैं। मुल्ला दो पत्नियों को मरघट तक पहुंचा आया था मित्र की। तीसरी मर गई। मरघट पर ले जाने की तैयारी हो गई। मुल्ला की पत्नी बार—बार देखती है कि यह मुल्ला बैठा ही हुआ है। उसने कहा कि जाना नहीं है! लोग बिलकुल तैयार हो गए बैंड—बाजा बजने लगा। मुल्ला ने कहा कि मैं बार—बार जाता हूं और उसको मैंने अभी तक एक भी मौका नहीं दिया—नाट ए सिंगल अपरचुनिटी। तो अच्छा भी तो नहीं लगता, संकोच भी होता है। उसकी पत्‍निया मैं दो बार पहुंचा आया और मैंने उसे एक भी मौका नहीं दिया, तो बार—बार जाना अच्छा नहीं लगता, जब तक चुका न दें। एकाध तो कम से कम हम भी मौका दें। फिर जाना ठीक होगा। काफी ऋणी हो गया हूं उसका।
तो दूसरों को हम पहुंचाते हैं, बड़े सुख से पहुंचाते हैं। बड़ा दुख प्रकट करते हुए पहुंचाते हैं, लेकिन एक भीतरी सुख मन में मिलता है कि मैं अभी भी जिंदा हूं। यह सदा दूसरा ही मर रहा है। हम तो जिंदा ही हैं। आज अ मरा, कल ब मरा, परसों स मरा, लेकिन हम? हम जिंदा हैं! न मालूम कितनों को मरते हुए देखा, लेकिन हम नहीं मरते। एक भीतरी रस मिलता है कि फिर कोई दूसरा मरा। अपने मरने का तो पता भी नहीं चलता, क्योंकि जब आप मर ही गए! इसलिए अपने मरने का किसी को पता नहीं चलता। अपने को मरघट कोई नहीं पहुंचाता।
पर संन्यासी वही है, जो अपने को मरघट पहुंचा देता है। जो कहता है, मरघट भी अब हमारा आवास है। महल और मरघट में उसे फर्क नहीं रह जाता। मरघट भी उसके लिए आनंद—विहार हो जाता है। आ भी ऐसे जीने लगता है, जैसे घर हो।
मृत्यु और जीवन में फर्क गिरे, तभी महल और मरघट का फर्क गिर सकता है। जिसे हम जीवन कहते हैं, वह मृत्यु ही मालूम होने लगे, तभी जिसे हम मरघट कहते हैं, वह आवास बन सकता है। जिसे हम दुख कहते हैं, जिसे हम सुख कहते हैं, जब उनके बीच का फासला गिर जाए और दुख सुख मालूम होने लगे, और सुख दुख मालूम होने लगे, दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू मालूम होने लगें, उस दिन मरघट आनंद—वन हो सकता है। उसके पहले नहीं। तो यह केवल सूचना है कि संन्यासी को महाश्मशान भी आवास ही मालूम पड़ता है, आनंद—विहार ही मालूम पड़ता है। कोई फर्क नहीं रह जाता।
एकांत ही उनका मठ है।
एकांत के दो अर्थ हैं। एक तो टु बी लोनली, अकेलापन। और दूसरा एकाकी, टु बी अलोन। दोनों में बड़ा फर्क है। यहां ऋषि जब कहता है, एकांत ही उनका मठ है, तो इट मीन्स, टु बी अलोन, नाट लोनलीनेस।
ध्यान रहे जब हमें अकेलापन लगता है, लोनलीनेस लगती है, तो उसका मतलब है कि दूसरे की अभीप्सा मौजूद है। इसीलिए तो अकेलापन लगता है। एक आदमी कहता है कि बहुत अकेलापन लग रहा है। कल मुझे किसी ने खबर दी कि एक साधिका—मैं कहता हूं साधिका, अपनी तरफ से वह साधिका नहीं हो सकती—एक साधिका —रोती हुई पाई गई, क्योंकि उसकी बाकी साथिनें चुप और मौन हो गई हैं। और उसने कहा, जब कोई बात ही न करेगा, तो यहां सात दिन कैसे गुजरेंगे! सात दिन बिना बात किए एकाकीपन लगेगा, अकेलापन लगेगा। मुश्किल मालूम पड़ेगी, क्योंकि हम दूसरे में अपने को उलझाए रखते हैं। इसलिए कोई अकेला नहीं होना चाहता।
यह बहुत मजे की बात है, आप अपना साथ कभी पसंद नहीं करते। आप खुद ही अपने को इतना पसंद नहीं करते कि अपना साथ पसंद करें। अपने साथ आनंदित होने का मतलब तो तभी हो सकता है, अब मैं अपने को चाहूं प्रेम करूं, अपने को पसंद करूं। हम सब अपने को घृणा करते हैं। कहते हैं लोग, लेकिन सब अपने को घृणा करते हैं। इसलिए_ कोई अकेला नहीं होना चाहता, क्योंकि अकेले में अपने से ही साथ रह जाता है।
मुल्ला नसरुद्दीन कम बात करना पसंद करता था। लोग लेकिन चकित थे, क्योंकि वह अकेले में भी कभी—कभी बहुत बात करता था। मित्र चिंतित हुए किं उसका दिमाग तो खराब नहीं हुआ जाता है। क्योंकि जब भी लोग होते, तब वह चुप बैठा रहता; और जब भी अकेला होता, तो बात करता। मित्रों ने एक दिन इकट्ठा होकर 'मुल्ला से पूछा कि बात तो बताओ, राज क्या है इसका? दिमाग तो खराब नहीं हो गया! जब हम आते हैं, तुम चुप हो जाते हो। जब हम चले जाते हैं, तो हमने दीवार और खिड़कियों से झांककर देखा है कि तुम अकेले में बात करते हो। तो मुल्ला ने कहा, आई वान्ट टु टाक विद ए वाइज मैन। एक बुद्धिमान आदमी से बात करना चाहता हूं। एंड आई वान्ट टु हियर ए वाइज मैन आलसो। और मैं एक बुद्धिमान की ही बात सुनना चाहता हूँ। इसलिए अपने से ही बात करता हूं।
पर अपने साथ हम होना नहीं चाहते। और कोई अपने साथ हो, तो वह हमें पागल लगेगा। वह मुल्ला नसरुद्दीन पागल लगा मित्रों को। अपने साथ मजा ले रहे हो, यह भी कोई बात हुई? मजा सदा दूसरे के साथ लिया जाता है। अपने ही साथ मजा ले रहे हो, दिमाग खराब हो गया मालूम होता है।
लेकिन संन्यासी वही है, जो अपने साथ मजा लेने में समर्थ हो गया है। दूसरे की जरूरत न रही। अकेला ही काफी है—इनफ। इसका नाम है एकांत। अकेला ही काफी है, टु बी अलोन इज इनफ। और लोनलीनेस का कहीं कोई पता ही नहीं है। अकेलेपन का कहीं कोई पता ही नहीं है कि मैं अकेला हूं। यह तो पता तभी चलता है, जब दूसरे की आकांक्षा मन में सरकती है कि दूसरा होना चाहिए था और नहीं है। दूसरे का अभाव अकेलापन पैदा करता है। अपना आविर्भाव स्वात पैदा करता है। दूसरे की मौजूदगी नहीं है, तो खलती है—तो अकेलापन लगता है। और मैं मौजूद हूं पूरी तरह, इसका आनंद प्रकट होता है—तो फौत।
भाषाकोश में तो लोनलीनेस और अलोननेस एक ही हैं। लेकिन जीवन के कोश में एक नहीं हैं। जीवन के कोश में बड़ी उलटी बातें हैं। अगर कोई आदमी कहता है कि अकेलापन लगता है, तो जानना कि उसे एकांत का पता ही नहीं चला है। और कोई आदमी कहता है कि एकांत में हूं दूसरे की याद ही नहीं आती, अपना ही होना पर्याप्त है, तो ऐसा एकांत मठ है संन्यासी का। वही उसका मंदिर है। वही उसका आवास है।
प्रकाश के लिए सतत उनकी चेष्टा है नित—नूतन
वे निरंतर—निरंतर, रोज, प्रतिपल प्रकाश के लिए ही आतुर और चेष्टा में रत हैं।
यह बड़े मजे की बात कही है ऋषि ने, नित—नृतन। यह थोड़ा कठिन पड़ेगा समझना। क्योंकि हम जो भी करते हैं, उसे हम सदा कल किए हुए से जोड़ लेते हैं, तो वह पुराना हो जाता है। कल भी किया था ध्यान, आज भी कर रहे हैं ध्यान। तो कल जो ध्यान किया था, वह अतीत की स्मृति बन गई। उसी से इसको भी जोड़ लेते हैं।
एक मित्र मुझसे पूछने आए थे कि क्या सात दिन यही ध्यान करना है कि कुछ दूसरा भी होगा? अगर अतीत से जोड़ेंगे, तो सब पुराना हो जाता है। अगर अतीत से नहीं जोड़ेंगे और पल—पल जीएंगे, मोमेंट टु मोमेंट, तो सब नया है। कल जो ध्यान किया था, वह आज किया ही कैसे जा सकता है? क्योंकि न आज वह आकाश है, न आज वे किरणें हैं, न आज वह आप हैं, सब तो बदल गया। कल जो किया था, आज उसे करने का उपाय कहां है! सब बदल गया है। इस जगत में पुराने को करने का उपाय कहां है।
तो संन्यासी नित—नूतन चेष्टा करता है। उसकी कोई चेष्टा पुरानी नहीं पड़ती। पुरानी पड़ने से ऊब भी पैदा हो जाती है कि इसी—इसी को कब तक करते रहेंगे! वह जानता है कि यहौ तो सब प्रवाह है, सब बहा जा रहा है। और जो अप्रवाह है, उसका अभी हमें पता नहीं, उसकी हम खोज कर रहे हैं। संसार तो परिवर्तन है और संसार में जो भी किया जाता है, वह भी परिवर्तनशील है। सब चेष्टाएं परिवर्तित हैं, वही फिर नहीं किया जा सकता।
बुद्ध कहते थे—कोई उनसे मिलने आता, नमस्कार करता, जाते वक्त विदा लेता, तो बुद्ध कहते —ध्यान रखना! जिसने नमस्कार किया था, वही विदा नहीं ले रहा है। घंटेभर में नदी का बहुत पानी बह गया। संन्यासी वह है, जो मोमेंट टु मोमेंट, क्षण—क्षण जीता है। एक क्षण काफी है। न पीछे के क्षण से जोड़ता है, न आगे के क्षण से जोड़ता है। तब सब चेष्टा नई है। जब वह सुबह उठकर फिर हाथ जोड़कर परमात्मा के सामने खड़ा होता है, बिलकुल नया, ताजा, फ्रेश। कुछ पुराना नहीं, कल की धूल है ही नहीं। कल भी हाथ जोड़े थे, इसका खयाल किसको है? इसका हिसाब किसको है? लेकिन हम बड़ा हिसाब रखते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन ने किसी मेहमान को निमंत्रण दिया था भोजन के लिए। काफी देर चल चुका था भोजन। मुल्ला नसरुद्दीन फिर भी आग्रह कर रहा था कि एक, एक पूड़ी तो और ले लें। मेहमान ने कहा कि मैं कोई पांच—सात पूड़ी ले चुका, अब बहुत है। मुल्ला ने कहा, पांच—सात नहीं, बाईस हो गई हैं। बट हू इज कैलक्यूलेटिंग—हिसाब कौन रख रहा है? हिसाब ही कौन रख रहा है! बाईस हो गई हैं, मजे से खाओ।
मगर हिसाब भीतर चलता ही रहता है। तीन दिन हो गए ध्यान करते, अभी कुछ नहीं हुआ। हू इज कैलक्यूलेटिंग न: लेकिन तीन दिन हो गए। कैलक्यूलेशन चलता ही रहता है। माइंड इज कनिग एंड कैलअलेटिंग। मन चालाक है, बहुत चालाक है। और सब चालाकी कैलक्यूलेशन होती है हिसाब—किताब होती है।
संन्यासी कुछ जोड़ता नहीं, वह परमात्मा से यह नहीं कहता कि पंद्रह दिन हो गए प्रार्थना करते, अब कहां हो? नित—नूतन चेष्टा करता रहता है। कल की बात ही छोड़ देता है। कल का कोई सवाल नहीं है, यह क्षण काफी है। और सवाल यह नहीं है कि ध्यान से कुछ मिले, ध्यान ही काफी है। यह भी सवाल नहीं है कि कोई फल मिले, ध्यान ही फल है। इसलिए वह रोज नई—नई चेष्टा करता चला जाता है। उसकी चेष्टा कभी पुरानी नहीं पड़ती। वह जन्मों —जन्मों तक प्रतीक्षा करता है, चेष्टा करता है। कभी यह नहीं कहता कि कितना मैं कर चुका, अभी तक दर्शन नहीं, अन्याय हो रहा है। इतने उपवास किए, इतने ध्यान किए, इतनी प्रार्थनाएं हो चुकीं, अभी तक, अभी तक कुछ फल नहीं मिला।
नहीं, जिसने ऐसा सोचा, वह गृहस्थ है, वह संन्यासो नहीं है। वह हिसाब—किताब रख रहा है। वही दुकान का हिसाब है। वही खाता—बही है। वह बैलेंस कर रहा है कि इतना नुकसान, इतना लाभ। इतना दिया, इतना लिया। वह लगा है हिसाब—किताब में।
नहीं, संन्यासी सब हिसाब—किताब छोड्कर जीता है। कोई हिसाब—किताब नहीं है। और अगर किसी दिन परमात्मा उसे मिले, तो वह कहेगा, कैसे मिल गए तुम, मैंने कुछ भी तो नहीं किया!
इसीलिए जिन्होंने परमात्मा को जाना, उन्होंने कहा, वह प्रसाद रूप मिलता है—जस्ट प्ले ए ग्रेस। हमारे करने का उससे कोई संबंध नहीं है। हमने जो किया, उससे कुछ संबंध नहीं बनता। वह तो उसकी अनुकंपा है, इसलिए मिलता है। वह उसकी दया है, करुणा है, इसलिए मिलता है। हमारे किए हुए का क्या मूल्य? लेकिन यह वही कह सकता है, जिसने हिसाब न रखा हो, नहीं तो किए हुए का मूल्य मालूम पड़ता है।
प्रकाश के लिए है उनकी चेष्टा
एक ऐसी अवस्था के लिए, जहा कोई अंधकार न हो। क्योंकि अंधकार के कारण ही तो सारा भटकाव है। अंधकार के कारण ही तो हमें टटोलकर जीना पड़ता है। और अंधकार के कारण ही तो कुछ पता नहीं चलता कि हम कहां खड़े हैं, क्यों खड़े हैं; कहां जा रहे हैं, कहां से आ रहे हैं। अंधकार के कारण ही तो जीवन के सारे विकार हैं। अंधकार के कारण ही तो सारी उलझन और सारा उपद्रव है, सारा रोग और सारी विक्षिप्तता है।
प्रकाश का अर्थ है, एक ऐसी चित्त की दशा जहा सब साफ है—क्रिस्टल क्लियर—सब दिखाई पड़ता है। जैसा है, वैसा दिखाई पड़ता है। सब स्वच्छ, निर्मल है, आलोकित है। कहां जा रहे हैं, दिखाई पड़ता है; कहां से आ रहे हैं, दिखाई पड़ता है; कहां खड़े हैं, दिखाई पड़ता है; कौन हैं, दिखाई पड़ता है; क्या है चारों तरफ, दिखाई पड़ता है। प्रकाश की आकांक्षा मूलत: सत्य के दर्शन की आकांक्षा है। क्योंकि दर्शन प्रकाश के बिना नहीं हो सकेगा।
बाहर प्रकाश होता है, तो चीजें दिखाई पड़ती हैं; और जब भीतर प्रकाश होता है, तो परमात्मा दिखाई पड़ता है। बाहर अंधेरा हो जाता है, तो पदार्थ नहीं दिखाई पड़ता; भीतर अंधेरा छा जाता है, तो परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता।
तो प्रकाश की आकांक्षा, भीतर जो छिपा है, उसके दर्शन की आकांक्षा है। और जिसे भीतर का  छिपा हुआ दिखाई पड़ गया, अपने भीतर का, उसे सबके भीतर का दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है। क्योंकि हम दूसरे के भीतर वहीं तक देख सकते हैं, जहा तक अपने भीतर देख सकते हैं। हम दूसरे के भीतर उससे ज्यादा गहरा कभी नहीं देख सकते, जितनी गहराई में हमने अपने भीतर झांका है। चूंकि हम अपने को शरीर ही मालूम पड़ते हैं, दूसरा भी शरीर ही दिखाई पड़ता है। जो हम अपने को जानते हैं, वही हम दूसरे में देख भी पाते हैं। जिस दिन हम अपने भीतर परमात्मा को देख लेते हैं, उस दिन इस जगत में कोई कण परमात्मा से खाली नहीं रह जाता। वह सबकी आंतरिकता में दिखाई पड़ जाता है।
लेकिन भीतर प्रकाश चाहिए। उस प्रकाश की आकांक्षा, अभीप्सा, उसकी ही पुकार, उसकी ही प्यास, उनकी नित—नूतन चेष्टा है। वे थकते नहीं—अथक। ऐसा कोई दिन नहीं आता कि वे निराश हो जाएं और कहें कि बस, हो गया बहुत। अब तक नहीं हुआ, तो आगे क्या होगा? नहीं, वे थकते नहीं।
सूफी फकीर हसन जब मरा तो उसके मित्रों ने, उसके शिष्यों ने पूछा कि हसन, तुमने कभी बताया नहीं तुम्हारा गुरु कौन था। और जानने का मन होता है कि तुम इतने आलोकित, तुम्हारा गुरु कौन था? हसन ने कहा, नहीं बताने का कारण यह नहीं है कि गुरु को छिपाना चाहता हूं। नहीं बताने का कारण है कि इतने गुरु थे कि बताना मुश्किल है ' और ऐसे—ऐसे गुरु थे कि बताने में थोड़ी दुविधा भी होती है। तो उन्होंने कहा कि पहली बात तो समझ में आई, दूसरी समझ में नहीं आती। बहुत गुरु हों तो बताना मुश्किल मालूम पड़ता है, किस—किस का नाम लें! लेकिन यह दूसरी बात समझ में नहीं आती कि बताने में थोड़ी दुविधा भी होती है।
हसन ने कहा, होती है। अब जैसे उदाहरण के लिए—एक गांव में आधी रात पहुंचा। भटक गया रास्ता। सारा गांव सो गया था। सराय का दरवाजा खटखटाया, कोई उठा नहीं। कहां ठहरूं! एक मकान के पास से गुजरता था। एक चोर दीवार में सेंध लगाता था। वही अकेला जागा हुआ आदमी था। उससे मैंने कहा कि भाई, बड़ी मुश्किल में पड़ा हूं। ठहरने की कोई जगह है? उसने कहा, जरूर ठहरा दूंगा। फकीर मालूम पड़ते हो। मेरे घर ठहरने की हिम्मत हो, तो मेरे घर ही ठहर जाओ। मैं एक चोर हूं।
लेकिन, हसन ने कहा, इतना ईमानदार आदमी मुझे इससे पहले नहीं मिला था, जिसने कहा, मैं एक चोर हूं। हसन ने कहा कि मेरा मन भी डरा कि ठहरूं इसके घर कि नहीं, क्योंकि कल सुबह गांव के लोग क्या कहेंगे! मगर जब चोर ने आमंत्रण इतने प्रेम से दिया है और कहकर दिया कि मैं चोर हूं तो इंकार करते नहीं बना। चोर के घर जाकर ठहर गया। चोर ने कहा, तुम विश्राम करो। मैं भोर होते—होते आ जाऊंगा और तुम्हारी सेवा में उपस्थित हो जाऊंगा।
कोई पांच बजे चोर आया, हसन ने दरवाजा खोला। हसन ने पूछा, कुछ पाया? चोर ने कहा, आज तो नहीं। लेकिन जिंदगी लंबी है और रातों की क्या कमी है। हसन ने कहा है कि मैं महीने भर उस चोर के घर था। और रोज चोर आता और मैं पूछता, कुछ मिला? वह कहता, नहीं। लेकिन कल मिलेगा। जिंदगी लंबी है और रातों की क्या कमी है। महीने भर बाद जिस दिन हसन ने उसका घर छोड़ा, उस दिन भी यही बात थी, उस दिन भी कुछ नहीं मिला था।
और हसन ने कहा कि जब मैं परमात्मा को खोजता था, तो बार—बार थक जाता था। और सोचता था, अब तक नहीं मिला—वह चोर मेरे सामने खड़ा हो जाती और वह कहता, रातों की क्या कमी है, जिंदगी लंबी है। तब फिर मैं हैरान होता कि जब एक चोर नहीं थकता, साधारण धन की तलाश, इतनी आशा से, इतना अथक, तो मैं परम धन को खोजने निकला हूं और इतनी जल्दी!
तो जिस दिन मुझे परमात्मा की प्रतीति हुई, मैंने परमात्मा को पहले धन्यवाद नहीं दिया, पहले उस चोर को आंख बंद करके नमस्कार किया कि तुझे मिला हो या न मिला हो, बाकी तू मेरा गुरु है। इसलिए दुविधा होती है।
अथक—थकते नहीं वे, वे निरंतर उस प्रकाश की खोज में लगे रहते हैं।
और अ—मन में वे गति करते है—उन्मनी गति:।
यह बड़ा अदभुत सूत्र है। यह सूत्र वैसा ही है जैसा कि आइंस्टीन ने एनर्जी का फार्मूला खोजा। यह सूत्र उतना ही कीमती है, उससे भी ज्यादा। क्योंकि आइंस्टीन के बिना दुनिया में कुछ बड़ा फर्क न पड़ेगा। अगर एनर्जी का फार्मूला न हो, तो भी आदमी हो सकता है। मजे से था। एनर्जी के फार्मूले के बाद ही दिक्कत शुरू हुई है। हिरोशिमा नहीं होता, अगर एनर्जी का फार्मूला नहीं होता। नागासाकी नहीं बनता। लेकिन, अ—मन में ही वे गति करते हैं—उन्मनी गति:
एक ही उनकी गति है, उस दिशा में, जहां मन नहीं। एक ही उनकी यात्रा है, उस तरफ जहां मन नहीं। वे मन को छोड्कर, छोड्कर, छोड़कर बढ़ते चले जाते हैं। एक दिन आता है कि वे मन से बिलकुल नग्न हो जाते हैं। मन गिर जाता है।
हम भी गति करते हैं, पर मन में, और—और मन के लिए। हम जो भी करते हैं, वह मन का पोषण है। मन को हम बढ़ाते हैं, मजबूत करते हैं। हमारे अनुभव, हमारा ज्ञान, हमारा संग्रह, सब हमारे मन को मजबूत और शक्तिशाली करने के लिए है। का देखें, का आदमी कहता है, मुझे सत्तर साल का अनुभव है। मतलब? उनके पास सत्तर साल पुराना मजबूत मन है। और जैसे शराब पुरानी अच्छी होती है, लोग सोचते हैं, पुराना मन भी अच्छा होता है। वैसे शराब और मन में कुछ तादाक्य है, एकरसता है। जैसे शराब और नशीली हो जाती है, वैसे ही मन जितना पुराना होता है, उतना नशीला हो जाता है। चेतना नहीं बदलती, चेतना तो वही बनी रहती है। मन की पर्त चारों तरफ घिर जाती है। मांग वही बनी रहती है, वासना वही बनी रहती है।
सुना है मैंने कि एक रात मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी ने कहा कि चालीस साल हो गए विवाह हुए। जब शुरू—शुरू में विवाह हुआ था, तो तुम मुझे इतना प्रेम करते थे कि कभी मेरी अंगुलियां काट लेते थे, कभी मेरे ओंठों पर घाव हो जाता था। लेकिन अब तुम वैसा प्रेम नहीं करते। और कल मेरा जन्म—दिन है, तो आज तो कुछ वैसा प्रेम करो। मुल्ला ने कहा, सो भी जा। अब रात खराब मत करवा। तो पत्नी नाराज हो गई। उसने कहा, मेरा कल जन्म—दिन है! मुल्ला ने कहा, बाहर बहुत सर्दी है, उठना ठीक नहीं। पत्नी ने कहा, उठने की जरूरत क्या है! मैं यहां पास ही हूं। एक बार तो तुम मेरी अंगुलियों को फिर वैसा काटो, जैसा चालीस साल पहले प्रेम में तुमने काटा था। मुल्ला ने कहा, ठीक, नहीं मानती। तो मुल्ला बिस्तर से उठा। पत्नी ने कहा, कहां जाते हो? उसने कहा, बाथरूम से दात तो ले आऊं।
उम्र ढल जाती, वासनाएं वही चली जातीं। दात गिर जाते, काटने का मन, कटवाने का मन नहीं गिरता। शरीर सूख जाता, वासना हरी ही बनी रहती है।
नहीं, अनुभव वगैरह से कुछ नहीं। जिसको संसार का अनुभव कहते हैं, वह मन का पोषण है सिर्फ। संन्यासी अ—मन की तरफ चलता। गृहस्थ मन की तरफ चलता।
सभी लोग मन लेकर पैदा होते हैं, लेकिन धन्य हैं वे, जो मन के बिना मर जाते हैं। सभी लोग मन लेकर जन्मते हैं, लेकिन अभागे हैं वे, जो मन को लेकर ही मर जाते हैं। फिर जीवन में कोई फायदा न हुआ। फिर यह यात्रा बेकार गई। अगर मृत्यु के पहले मन खो जाए, तो मृत्यु समाधि बन जाती है। और अगर मृत्यु के पहले मन खो जाए, तो मृत्यु के बाद फिर दूसरा जन्म नहीं होता, क्योंकि जन्म के लिए मन जरूरी है। मन ही जन्मता है। मन ही अपूर्ण वासनाओं के कारण, जो वासनाएं पूरी नहीं हो सकीं, उनके लिए पुन:—पुन: जन्म की आकांक्षा करवाता है। जब मन ही नहीं रहता, तो जन्म नहीं रहता। मृत्यु पूर्ण हो जाती है।
हम सब भी मरते हैं, हम अधूरे मरते हैं, क्योंकि वहां जन्म की आकांक्षा भीतर जीती चली जाती है। वह जन्म की वासना फिर नया शरीर ग्रहण कर लेती है। संन्यासी जब मरता है, तो पूरा मरता है—टोटल डेथ। शरीर ही नहीं मरता, मन भी मरता है। भीतर कोई और जीने की वासना नहीं रह जाती है। और जो पूरा मर जाता है, वह उस जीवन को उपल्बध हो जाता है, जिसका फिर कोई अंत नहीं।
लेकिन मार्ग क्या है? मार्ग है अ—मन, नो—माइंड। धीरे— धीरे मन को गलाना, छुड़ाना, हटाना, मिटाना है। ऐसा कर लेना है कि भीतर चेतना तो रहे, मन न रह जाए। चेतना और बात है। चेतना हमारा स्वभाव है। मन हमारा संग्रह है।
इसलिए दुनिया जितनी सुशिक्षित और सभ्य होती जाती है, ध्यान उतना ही मुश्किल होता चला जाता है। क्योंकि सुशिक्षा और सभ्यता का मतलब क्या है? एक ही मतलब है कि ट्रेनिंग आफ द माइंड। मन और ट्रेण्ड हो जाता है। इसलिए जितना सुशिक्षित और जितना सभ्य होता जाता है मनुष्य, उतना ही मन से छूटना मुश्किल होता जाता है, क्योंकि मन का इतना प्रशिक्षण हो जाता है।
हमारी सारी शिक्षा, हमारी सारी व्यवस्था, हमारा सारा अनुशासन मन की तैयारी है मजबूती के लिए। कि बाजार में मन सफल हो सके, कि धंधे में मन सफल हो सके, कि संघर्ष में, प्रतियोगिता में, प्रतिस्पर्धा में मन सफल हो सके र तो उसको हम ट्रेण्ड कर रहे हैं। और ऋषि तो उलटी बात कहते हैं। वे कहते हैं, मन को विसर्जित करना है, डिसपर्स द माइंड।
यह ठीक है। अगर संसार में गति करनी हो, तो मन प्रशिक्षित होना चाहिए। अगर परमात्मा में गति करनी हो, तो मन विसर्जित होना चाहिए। अगर पदार्थ को पाने जाना हो, तो बहुत सुशिक्षित मन चाहिए। सुआयोजित, सुसंगठित, वेल आर्गनाइब्द मन चाहिए। लेकिन अगर परमात्मा में जाना हो, तो मन चाहिए ही नहीं —शिक्षित—अशिक्षित कोई भी नहीं, संगठित—असंगठित कोई भी नहीं—मन चाहिए ही नहीं। अ—मन उनकी गति है।
वे निरंतर इस चेष्टा में ही लगे रहते हैं कि मन कैसे कम होता चला जाए।
बढ़ता कैसे है मन? बढ़ने का ढंग क्या है मन का? उसे समझ लें, तो घटने का ढंग खयाल में आ जाए। बढ़ता कैसे है मन?
मन को हम सहारा देते हैं, पहली बात। वी कोआपरेट विद इट। रास्ते से गुजर रहे हैं, भूख बिलकुल नहीं है, लेकिन रेस्तरां दिखाई पड़ गया। मन कहता है, भूख लगी है। पैर रेस्तरां की तरफ बढ़ने लगते हैं। पूछते भी नहीं अपने से कि भूख तो जरा भी न लगी थी, जब तक यह बोर्ड नहीं दिखाई पड़ा था। यह बोर्ड दिखाई पड़ने से भूख लगती है! यह मन है। मन से भूख का कोई संबंध नहीं है, स्वाद की आकांक्षा है। मन को प्रयोजन नहीं है शरीर से, मन को स्वाद से प्रयोजन है।
तो भूख तो बिलकुल नहीं लगी थी, लेकिन इसको देखकर भूख लग गई। यह भूख झूठी है। अब आप अगर पैर रेस्तरां की तरफ बढ़ाते हैं, तो मन को आप बढ़ाते हैं, मजबूत करते हैं।
अंकुशो मार्ग:। सोच से, विवेक से खड़े होकर ठहर जाएं एक क्षण। भीतर खोजें, भूख है? एक क्षण भी अगर रुक सकें, तो रेस्तरां में प्रवेश नहीं करना पड़ेगा। क्योंकि मन कितना ही शक्तिशाली दिखाई पड़े, बहुत निर्बल है विवेक के सामने। लेकिन विवेक हो ही न, तो फिर मन बहुत सबल है। जैसे अंधेरा कितना ही हो, एक छोटा सा दीया पर्याप्त है। ही, दीया हो ही न, तो अंधेरा बहुत सघन है। एक क्षण के लिए भी विवेक, तो पैर ठहर जाएंगे।
शरीर में कहीं कोई कामवासना की लहर न थी, एक सुंदर स्त्री दिखाई पड़ गई, या सुंदर पुरुष दिखाई पड़ गया और लहर उठ गई। यह मन है। इसलिए आदमी को छोड्कर इस पृथ्वी पर कोई भी जानवर सेक्यूअलिटी, कामुकता से पीड़ित नहीं है। कामवासना है, कामुकता नहीं है। सेक्स है, सेक्यूअलिटी नहीं है। इसलिए मनुष्य को छोड्कर सभी जानवरों का सेक्स पीरिआडिकल है। उसकी एक अवस्था है। वर्ष में महीने, दो महीने, तीन महीने काम आता है, बाकी नौ महीने काम से रिक्त हो जाते हैं। लेकिन आदमी चौबीस घंटे कामुक है—चौबीस घंटे, तीन सौ पैंसठ दिन! और दुखी होता है कि साल में तीन सौ पैंसठ दिन ही क्यों होते हैं! थोड़े ज्यादा भी हो सकते थे, ऐसी इतनी कृपणता की क्या जरूरत थी?
क्या बात क्या होगी? मनुष्य अकेला कामवासना को मन से जी रहा है, शरीर से नहीं। शरीर से सारे पशु जी रहे हैं, पौधे जी रहे हैं, वृक्ष जी रहे हैं, सारी प्रकृति जी रही है, मनुष्य मन से भी जी रहा है। तो कामवासना तो प्राकृतिक है, लेकिन कामुकता विकृति है। कामवासना से ऊपर उठ जाना तो परम क्रांति है। लेकिन आदमी कामवासना से भी नीचे गिर गया है, वह कामुकता में है। सेक्स से भी नीचे, सेक्यूअलिटी में है। मन है।
तो जब एक सुंदर स्त्री या सुंदर पुरुष को देखकर मन में कामवासना जगने लगती है, तब एक क्षण खड़े हो जाना और कहना कि यह बायलाजिकल है, यह कहीं कोई जैविक—प्राण की कोई गति है या मन का ही खेल है?
मन का ही खेल है। और जहां—जहां मन का खेल दिखे, डोंट कोआपरेट विद इट, नान—कोआपरेशन विल डू। सहयोग न करें। असहयोग। सिर्फ खड़े रह जाएं और कहें कि यह मन की बात है। एकदम गिर जाएगी। और ऐसे मन क्षीण होगा, नहीं तो सहयोग से मन बढ़ता चला जाएगा।
बैठे हैं खाली। मन बेकार के विचार कर रहा है, जिनसे कुछ लेना—देना नहीं; और आप उसमें भी सहयोग दिए चले जा रहे हैं। रुके और कहें कि इस सबकी क्या जरूरत है? यह सब मैं क्या कर रहा हूं? यह कैसा पागलपन है, जो मेरे भीतर मैं ही चलाता हूं? असहयोग—और मन धीरे—धीरे विसर्जित होता है। और अगर चौबीस घंटे असहयोग चले और उसके साथ ध्यान हो, तो अ—मन में गति हो जाती है।
उनका शरीर निर्मल निरालंब उनका आसन है।
और जिसका मन शांत हो जाए, मन अ—मन हो जाए, उसका शरीर बड़ा निर्मल हो जाता है। क्योंकि शरीर में सब मल मन से आता है। इसे थोड़ा खयाल में ले लें। शरीर बिलकुल स्वच्छ चीज है। शरीर में कोई मल नहीं है। शरीर में जो भी विकार आते हैं, वे मन से आते हैं। लेकिन हम बड़े होशियार हैं। हम कहते हैं कि शरीर हममें विकार पैदा करवाता है।
नहीं, गलत है यह बात। शरीर विकार पैदा नहीं करवाता। विकार तो मन शरीर में डालता है। ही, शरीर सहयोग देता है। क्योंकि शरीर आपका सेवक है। आप जो चाहते हैं उससे...। आप कहते हैं, चोरी करनी है, तो पैर खजाने की तरफ चल पड़ते हैं। आप कहते हैं, प्रार्थना करनी है, पैर मंदिर की तरफ चल पड़ते हैं। न तो पैरों का आग्रह है कि हम चोरी करने जाएंगे, न पैरों का आग्रह है कि हम प्रार्थना करने जाएंगे। पैसे का कोई आग्रह ही नहीं है। अगर आप कामवासना में उत्सुक होते हैं, शरीर की ग्रंथियां कामवासना के लिए तैयार हो जाती हैं। अगर आप ब्रह्म की तरफ यात्रा करते हैं, शरीर की वे ही ग्रंथियां ब्रह्म—यात्रा के लिए, ब्रह्मचर्य के लिए तैयार हो जाती हैं।
शरीर को कोई भी आग्रह नहीं है। शरीर बिलकुल तटस्थ शक्ति है—ऐब्सल्युटली च्यल। जो भी होता है, वह मन से होता है।
इसलिए अ—मन के बाद ऋषि कहता है, शरीर उनका निर्मल है। क्योंकि जब मन न बचा, तो शरीर में कौन सा पाप बच जाएगा। शरीर ने कोई पाप कभी किया ही नहीं है। सब पाप मन के हैं। शरीर ने कोई पुण्य भी नहीं किया। ध्यान रखना, सब पुण्य मन के हैं। शरीर ने न शुभ किया है, न अशुभ किया है। लेकिन शरीर को बड़े दंड भोगने पड़ते हैं अकारण। और हम शरीर को ही जिम्मेवार ठहराते हैं।
सुना है मैंने कि मुल्ला नसरुद्दीन पर चोरी का एक मुकदमा चला। उसके वकील ने बड़ी जिरह की। मुल्ला तो चुप ही खड़ा रहा। आखिर में वकील ने एक दलील दी और उसने मजिस्ट्रेट को कहा कि आप यह तो मानेंगे कि मेरा मुवक्किल, पूरा का पूरा, चोरी के लिए जिम्मेवार नहीं है, सिर्फ उसका दाया हाथ जिम्मेवार है। यह निकलता था खिड़की के पास से और खिड़की में कोई चीज रखी दिखाई पड़ गई। दायां हाथ बढ़ा और उसने खिड़की से चीज निकाल ली। इसके पैरों का तो कोई कसूर नहीं है। मजिस्ट्रेट ने कहा कि यह बात तो तर्कयुक्त है। और वकील ने कहा कि आप पूरे मुल्ला नसरुद्दीन को दो साल की सजा दे रहे हैं, यह अन्याय है। सिर्फ इसके दाएं हाथ को सजा मिलनी चाहिए। मजिस्ट्रेट ने कहा, यह बात भी ठीक है। लेकिन वह भी होशियार आदमी था। उसने कहा, ठीक है। तो हम तुम पर छोड़ते हैं। हम सिर्फ दाएं हाथ को दो साल की सजा देते हैं। मुल्ला नसरुद्दीन दाएं हाथ के साथ जेल में रहना चाहे रहे, न रहना चाहे न रहे। तत्काल नसरुद्दीन ने दायां हाथ निकालकर टेबिल पर रख दिया और दरवाजे के बाहर हो गया। वह लकड़ी का हाथ था।
मन कुछ करे, तो हमारा मन यह भी कहता है कि जिम्मेवार वह नहीं है। शरीर पर जिम्मेवारी ठहराता है। जो अ —मन में पहुंच गए, उनका शरीर निर्मल हो जाता है, स्वच्छ जल की भांति। शरीर बहुत ही निर्मल है। मन ही सारा विकार पैदा करता है।
निर्मल उनका शरीर निरालंब उनका आसन है
और जब मन नहीं रह जाता, तो उनका कोई आलंबन नहीं रह जाता। वे किसी चीज का सहारा नहीं लेते, वे किसी चीज के सहारे नहीं जीते, वे किसी चीज को साधन नहीं बनाते। और जब कोई व्यक्ति सब भांति निरालंब हो जाता है, तो उसे परमात्मा का आलंबन मिलता है, उसके पहले नहीं। जब तक हम सोचते हैं, हम ही अपने सहारे खड़े कर लेंगे, तब तक परमात्मा प्रतीक्षा करता है। ठीक भी है। सहारा तभी मिल सकता है हमें, जब हम बिलकुल बेसहारे हो जाए—टोटली हेल्पलेस—उसके पहले नहीं।
लेकिन मन कहता है, क्या जरूरत है बेसहारा होने की? सहारा हम देते हैं। क्या चाहिए तुम्हें? शान चाहिए न: तो चलो शास्त्र का अध्ययन कर लो, ज्ञान मिल जाएगा। मन कहता है, शास्त्र का अध्ययन कर लो, ज्ञान मिल जाएगा।
नहीं मिलेगा। मन शास्त्र से जो इकट्ठा करेगा, वह सिर्फ स्मृति होगी, ज्ञान नहीं; मेमोरी होगी, ज्ञान नहीं। वह आत्म—अनुभव नहीं होगा। वह पराए का अनुभव होगा। मन धोखा दे देगा, कहेगा कि अपना ही अनुभव है।
मन सब सहारे देने को तैयार है। वह कहता है कि क्या जरूरत है? मैं तो हूं! मैं सब कर दूंगा। मन परमात्मा बनने को तैयार है सदा। वह कहता है कि क्या जरूरत है! हम पूरा करने को तैयार हैं। परमात्मा के लिए प्रार्थना करने जाने की क्या जरूरत है!
एक नाव डूबने के करीब है। सभी यात्री हाथ जोड़कर, घुटने टेककर प्रार्थना कर रहे हैं। सिर्फ मुल्ला नसरुद्दीन शात बैठा हुआ है। कोई यात्री कह रहा है कि हे प्रभु, बचाओ। मेरा जो मकान है, वह मैं दान कर दूंगा। कोई कह रहा है कि बचाओ, अब मैं व्रत—उपवास रखूंगा, नियम से जीऊंगा, कोई बुराई न करूंगा। कोई कुछ कह रहा है, कोई कुछ कह रहा है। आखिर में मुल्ला नसरुद्दीन जोर से चिल्लाया कि ठहरो, जरूरत से ज्यादा वचन मत दे देना। जमीन दिखाई पड़ रही है। नमाज—प्रार्थना टूट गई। लोग उठ गए, सामान—बिस्तर बांधने लगे। वे वचन, वे प्रतिज्ञाएं भूल गईं।
एक बार मुल्ला खुद ऐसी मुसीबत में पड़ गया था। उस वक्त उसने प्रॉमिस दे दी थी। उसने कहा, उसी अनुभव से मैंने तुमको रोका। एक बार मेरी नाव भी इसी तरह डूबने लगी थी, तो मैं कह फंसा कि अगर मैं बच जाऊंगा तो अपना मकान बेच दूंगा और बेचकर सारा धन गरीबों को बांट दूंगा। बड़ा मकान था, दस लाख उसके दाम थे। बच गया। मुल्ला ने कहा, कहने के बाद तो मैं सोचने लगा कि अब न ही बचूं, तो अच्छा। लेकिन बच गया—दुर्भाग्य। झंझट सिर आ गई। मकान बेचना पड़ा और धन गरीबों में बांटना पड़ा।
लेकिन मुल्ला ने तरकीब की। मकान जब उसने नीलाम किया और सारा गांव इकट्ठा हुआ, तो उसने मकान के साथ एक छोटी सी बिल्ली भी बांध दी। और उसने कहा कि दोनों साथ बिकेंगे। मकान का दाम तो एक रुपया है, बिल्ली का दाम दस लाख रुपया है। कई लोगों ने कहा, हम तो मकान खरीदने आए हैं। मुल्ला ने कहा, हम को दोनों साथ ही बेचने हैं। फिर लोगों ने देखा कि कोई हर्जा तो है नहीं, दस लाख में बिल्ली खरीद लो, एक रुपए में मकान मिल रहा है। मकान के दाम इतने थे ही। मुल्ला ने दस लाख में बिल्ली बेच दी, एक रुपए में मकान। एक रुपया गरीबों में बांट दिया।
उसने कहा, एक दफे मैं भी फंस गया था, तो बड़ी झंझट हुई थी। जरूरत से ज्यादा वचन मत दे देना। जमीन दिखाई पड़ रही है।
मन सब भांति के सहारे देता है। जो मन से रहित हो जाते हैं, वे ही निरालंब हो पाते हैं। वे कहते हैं, अब परमात्मा ही है। अब वह जो करे ठीक। अब अपनी तरफ से करने को कुछ नहीं बचता।
और जैसे निनाद करती अमृत— सरिता बहती है ऐसे ही उनके जीवन की सब क्रियाएं हो जाती हैं। जैसे निनाद करती हुई गंगा उतरती है हिमालय सें—गीत गाती हुई, नाचती, आनंदमग्न, जैसे अपने प्रियतम से मिलने जाती हो, अर बंधे उसके पैरों में, छाती में उसके गीत, ऐसा ही उनका सारा जीवन है। आनंद, अमृत के किल्लोल करता हुआ। उनका उठना, उनका बैठना सब प्रभु —मिलन है। उनका चलना, उनका बोलना, उनका चुप होना, सब प्रभु —मिलन है। उनका होना एक अमृत की सरिता है, जो किल्लोल करती, आनंद के गीत गाती सागर की ओर भागती रहती है।

आज इतना ही।

अब हम ध्यान में उतरें।
दूर—दूर फैल जाएं! दूर—दूर फैल जाएं! दूर—दूर फैल जाएं, ताकि किसी को किसी का धक्का न लगे। पहले से खयाल कर लें, पीछे अड़चन होती है, आपको ही अड़चन होती है। दूर—दूर फैल जाएं। पूरे ग्राउंड का उपयोग करना है, दूर—दूर फैल जाएं। मेरी आवाज आप तक पहुंचेगी, इसलिए कोई पास होने की जरूरत नहीं है।
आंख पर पट्टियां बांध लेनी हैं। आंख पर पट्टियां बांध लें, दूर—दूर फैल जाएं। अपनी जगह बना लें। आज तो बहुत जोर से होगा ध्यान, इसलिए काफी जगह बना लें।
शुरू करें!


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