ब्रह्मचर्य
शांति
संग्रहणम्।
ब्रह्मचर्याश्रमैऽधीत्य वानप्रस्थाश्रमेऽधीत्य स सर्वविन्यासं संन्यासम्।
ब्रह्मचर्याश्रमैऽधीत्य वानप्रस्थाश्रमेऽधीत्य स सर्वविन्यासं संन्यासम्।
अते
ब्रह्माखंडाकारम्
नित्यं सर्व
देहनाशनम्।
एतन्निर्वाणदर्शन
शिष्य विना
पुत्र विना न देयम।
इत्युपनिषत्।
ब्रह्मचर्य
और शांति
जिनकी
संपत्ति या
संग्रह है।
ब्रह्मचर्याश्रम
में, फिर
वानप्रस्थाश्रम
में अध्ययन से
फलित सर्व
त्याग ही
संन्यास है।
अंत
में जहां
समस्त शरीरों
का नाश हो
जाता है
और
ब्रह्मरूप
अखंड आकार में
प्रतिष्ठा
होती है।
शिष्य
या पुत्र के
अतिरिक्त
अन्य किसी को
इसका उपदेश
नहीं करना,
ऐसा
यह रहस्य है।
निर्वाण
उपनिषद समाप्त।
निर्वाण
रहस्य अर्थात
समक संन्यास,
ब्रह्म जैसी
चर्या और सर्व
देहनाश
ब्रह्मचर्य
और शांति
जिनकी संपदा
है।
संपदा
किसे कहें? हम जिसे
कहते हैं, वह
हम से छीनी जा
सकती है। हम
जिसे कहते हैं,
मृल्र तो
निश्चित ही
हमें उससे अलग
कर देती है।
और हम जिसे
संपदा कहते
हैं, उसके
कारण सिवाय
विपदाओं के
हमारे ऊपर और
कुछ आता हुआ
मालूम नहीं
पड़ता है। ऋषि
भी किसी बात
को संपदा कहते
है। वे उसे
संपदा कहते
हैं, जो
हमसे छीनी न
जा सके। वही
संपत्ति है, उसी के हम
मालिक हैं, जो हमसे
छीनी न जा सके।
जो हमसे छीनी
जा सकती है, उसकी
मालकियत
नासमझी का
दावा है।
लेकिन हम तो
जिन—जिन
संपत्तियो को
जानते हैं, वे सभी हमसे
छीनी जा सकती
हैं। क्या ऐसी
किसी संपत्ति
का हमें पता
है, जो
हमसे छीनी न
जा सके?
बहुत
उपनिषदयुगीन
कथा है कि
याज्ञवल्ल
अपनी सारी
संपत्ति अपनी
दोनों
पत्नियों को सहैग, संन्यस्त
होना चाहता है।
उसकी एक पत्नी
तो राजी हो गई।
आधी संपत्ति
बहुत संपत्ति
थी। लेकिन
दूसरी पत्नी
ने पूछा कि जो
आप मुझे दे जा
रहे हैं, यह
क्या है? याज्ञवल्ल
ने कहा, यह
संपदा है।
पर्लो न कहा, संपदा को
छोड्कर आप
क्यों जा रहे
हैं? और
अगर आप छोड्कर
जा रहे हैं, तो आप किसकी
तलाश में जा
रहे हैं? पति
ने कहा, मैंने
तो समझ लिया
कि यह संपदा
नहीं है। और
असली संपदा की
खोज में जाता
हूं। तो पत्नी
ने कहा, फिर
असली संपदा की
खोज में मुझे
भी ले चलें।
इस कचरे को
मेरे लिए
क्यों छोड
जाते हैं? और
अगर आपको पता
ही चल गया है
कि यह संपदा
नहीं है, तो
मुझे देने की
बात ही क्यों
उठाते हैं?
संपदा
जिनके पास है, वे भलीभांति
जान लेते हैं,
उससे कुछ भी
मिलता नहीं है,
जो मूल्यवान
है। जो भी
उससे खरीदा जा
सकता है, वस्तुत:
उसका कोई
मूल्य नहीं है।
संपत्ति से जो
खरीदा जा सकता
है, उसका
कोई भी ऐसा
मूल्य नहीं है
जो शाश्वत हो,
नित्य हो, ठहरने वाला
हो। लेकिन हम
अपने खाली मन
को भर लेते
हैं।
ऋषि
कहता है, संन्यासी
की संपदा क्या
है? उसकी
संपदा को वह
कहता है, एक
तो
ब्रह्मचर्य
है। उसका आचरण
ऐसा होगा, जैसे
स्वयं
परमात्मा
उसके भीतर
विराजमान होकर
आचरण करता हो।
यह
ब्रह्मचर्य
शब्द बहुत
कीमती है। इसे
तथाकथित
नीतिवादियों
ने बुरी तरह
विकृत किया है, करप्ट किया
है। क्योंकि
जब भी कोई
कहता है
ब्रह्मचर्य, तो हमें
तत्काल खयाल
आता है, सेक्स
कंट्रोल, कामवासना
का नियंत्रण।
ब्रह्मचर्य
बहुत बड़ा शब्द
है और कामवासना
का नियंत्रण
बहुत क्षुद्र
और साधारण सी
बात है।
ब्रह्मचर्य
बड़ा शब्द है।
ब्रह्मचर्य
शब्द का अर्थ
होता है, ब्रह्म
जैसी चर्या।
ऐसे जीना, जैसे
परमात्मा ही
जी रहा हो।
ब्रह्मचर्य
बहुत विराट
शब्द है और
कामवासना का
नियंत्रण अति
क्षुद्र और साधारण
सी बात है।
लेकिन हमने इस
विराट शब्द को
इस बुरी तरह
बिगाड़ा है कि
पश्चिम में जब
अंग्रेजी भी।
में अनुवाद
करते हैं वे
ब्रह्मचर्य
का, तो कर
देते हैं
सेलिबेसी। पर
उसका अर्थ
बहुत और है।
अगर
परमात्मा की
कोई चर्या
होगी, तो
वैसी ही चर्या
संन्यासी की
चर्या है। असल
में संन्यासी
इस बोध से ही उठता
है कि
परमात्मा उठा
मेरे भीतर, इस बोध से ही
चलता है कि
परमात्मा चला
मेरे भीतर, इस बोध से ही
बोलता है कि
परमात्मा
बोला मेरे भीतर,
इस बोध से
ही जीता है कि
परमात्मा
जीया मेरे भीतर।
संन्यासी
स्वयं को तो
विदा कर देता
है और परमात्मा
को
प्रतिष्ठित
कर देता है।
उसका जो भी है,
वह सब
परमात्मा का
है।
ऐसे
अपने भीतर
परमात्मा को
जिसने
प्रतिष्ठित
किया हो, जो
परमात्मा का
मंदिर ही बन
गया हो, उसके
आचरण का नाम
ब्रह्मचर्य
है। निश्चित
ही, उसमें
काम—नियंत्रण
तो आ ही जाता
है। उसकी
चर्चा करने की
भी कोई जरूरत
नहीं रह जाती।
लेकिन
ब्रह्मचर्य
मात्र काम—नियंत्रण
नहीं है, काम—नियंत्रण
एक छोटा सा
अंग है, ब्रह्मचर्य
बहुत बड़ी बात
है।
ऋषि
कहता है, ब्रह्मचर्य
संपदा है।
क्योंकि
जिसने यह
अनुभव कर लिया
कि मेरे भीतर
परमात्मा है,
उससे अब कुछ
भी छीना नहीं
जा सकता। एक
ही है सत्व, जो हमसे
छीना नहीं जा
सकता। वह सत्व
ऐसा होना
चाहिए, जो
हमारा स्वरूप
भी हो। जिसे
हमसे अलग करने
का उपाय ही
नहीं है, वह
केवल
परमात्मा है।
बाकी सब हमसे
अलग किया जा
सकता है।
मित्र हो, पत्नी
हो, बेटा
हो, सब
हमसे जुदा किए
जा सकते हैं।
अपना शरीर भी
अपने साथ नहीं
होगा। अपना मन
भी अपने साथ
नहीं होगा।
सिर्फ एक ही
सत्य है, एक
ही अस्तित्व
परमात्मा का,
जो हमसे
छीना नहीं जा
सकता। जो
हमारा होना ही
है, द वेरी
बीइंग, उसे
अलग करने का
कोई मार्ग
नहीं है। उसे
यह ऋषि कहता
है, संपदा
है।
आचरण
ब्रह्म जैसा!
लेकिन आचरण तो
बाहर होता है।
आचरण का अर्थ
ही होता है, बाहर। चर्या
का अर्थ ही
होता है, बाहर।
चर्या का अर्थ
ही होता है, दूसरों के
संबंध में।
अकेले कोई
आचरण नहीं
होता। आचरण का
अर्थ है, इन
रिलेशनशिप टु
समवन।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
बार जुए में
पकड़ गया था।
एक राजधानी
में
धर्मगुरुओं
की एक बड़ी समिति
थी। एक यहूदी
धर्मगुरु, एक ईसाई
धर्मगुरु, एक
हिंदू
धर्मगुरु और
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
ही होटल में
ठहराए गए थे।
लेकिन रात जुए
में पकड़े गए
चारों। अदालत
में जब सुबह
मौजूद किए गए
तो मजिस्ट्रेट
भी थोड़ा संकोच
से भर गया। कल
सांझ ही इनके
प्रवचन उसने
सुने थे। और बड़ा
प्रभावित हुआ
था। लेकिन
पुलिस का आदमी
ले आया था
अदालत में, तो अब
मुकदमा तो
चलता ही। फिर
भी उसने सोचा,
जल्दी
निपटा देने
जैसा है। इसे
आगे खींचने
जैसा नहीं है।
पूछा
उसने ईसाई
पुरोहित से कि
क्या आप जुआ
खेल रहे थे? ईसाई
पुरोहित ने
कहा, क्षमा
करें, इट
डिपेंड्स ऑन
हाउ यू डिफाइन।
यह बहुत सी
बातों पर
निर्भर करेगा
कि आप जुए की
व्याख्या
क्या करते हैं।
ऐसे तो पूरी
जिंदगी ही जुआ
है।
मजिस्ट्रेट
जल्दी मुक्त
करना चाहता था।
उसने देखा, यह तो लंबा
थियोलाजी का
मामला हो
जाएगा। उसने
कहा, साफ—साफ
कहिए आप जुआ
नहीं खेल रहे
थे? ईसाई
पादरी ने कहा,
पूरी
जिंदगी ही जुआ
है जहां, वहां
जुए से बचा
कैसे जा सकता
है! फिर भी जज
ने कहा, मैं
समझ गया कि आप
जुआ नहीं खेल
रहे थे, आप
बरी किए जाते
हैं। ईसाई
पादरी बाहर
चला गया।
यहूदी
रबी से पूछा, आप जुआ खेल
रहे थे? क्योंकि
आपके सामने
टेबिल पर रुपए
रखे थे और ताश
पीटे जा रहे
थे। यहूदी रबी
ने कहा, क्षमा
करें, अभिप्राय
अपराध नहीं है।
अभी जुआ शुरू
नहीं हुआ था, अभी सिर्फ
आशय था। हम
शुरू करने को
ही थे जरूर, लेकिन अभी
शुरू नहीं हुआ
था। और जो
शुरू नहीं हुआ
है, अभी
अदालत के
कानून के बाहर
है। जज ने कहा,
माना। आप
बरी किए जाते
हैं, आप
जुआ नहीं खेल
रहे थे, सिर्फ
अभिप्राय, अभिप्राय
पर कोई कानून
नहीं लग सकता।
आप जाए। हिंदू
धर्मगुरु से
पूछा, आप
भी इसमें
सम्मिलित थे?
हिंदू
धर्मगुरु ने
कहा, यह जगत
माया है। जो
दिखाई पड़ता है,
वैसा है
नहीं—इट जस्ट
एपियर्स।
कैसा जुआ? कैसे
पत्ते? कौन
पकड़ा गया? किसने
पकड़ा पू
मजिस्ट्रेट
ने कहा, मैं
समझा। आप जाएं।
जब जगत ही
असत्य है, तो
कैसा जुआ? बिलकुर।
ठीक कहते हैं।
लेकिन
मुल्ला बहुत
मुसीबत में था, क्योंकि उसी
के हाथ में
पत्ते पीटते
हुए पकड़े गए
थे, और उसी
के सामने
पैसों का ढेर
भी लगा था।
मजिस्ट्रेट
ने कहा कि इन
तीनों को छोड़
देना तो आसान
था, नसरुद्दीन
तुम्हारे लिए
क्या करें? तुम क्या
जुआ खेल रहे
थे? नसरुद्दीन
ने पूछा, क्या
मैं पूछ सकता
हूं विद इम? किसके साथ? क्योंकि वे
तीनों तो जा
ही चुके थे, बरी हो चुके
थे।
नसरुद्दीन ने
कहा, अकेले
भी जूआ अगर खेला
जा सकता है, तो जरूर खेल
रहा था।
हमारा
सारा आचरण
दूसरे के
संबंध में है।
अकेले के आचरण
का कोई अर्थ
नहीं है। सत्य
बोरने तो किसी
से, झूठ
बोलें तो किसी
से, चोरी
करें तो किसी
की, अचोर
रहें तो किसी
के संबंध में।
हमारा सब आचरण
दूसरे से
संबंध है।
इसलिए ऋषि ने
पहले तो कहा, ब्रह्मचर्य
संपदा है
संन्यासी की।
ब्रह्मच'!, दूसरे
के साथ ऐसा
संबंधित होना,
जैसे ईश्वर
संबंधित होता
हो।
और
दूसरी बात कही, शाति। भीतर!
आचरण तो बाहर
है। भीतर, भीतर
परम मौन, सन्नाटा,
शांति। वहा
कोई तरंग भी न
उठे, वहां
कोई लहर न उठे,
वहा जीवन की
जो ऊर्जा है, चेतना है, वह कंपित न
हो। ऐसी
निष्कंप मौन
शाति, जहां
हवा का एक
झोंका भी नहीं,
उसे आतरिक
संपदा कहा है।
आचरण
ईश्वर जैसा, अंतस
निर्वाण जैसा—शून्य,
शांत, मौन।
ऋषि कहता है, यही संपदा
हे, जो छीनी
नहीं जा सकती।
इसके
अतिरिक्त जो
किसी और चीज
को संपदा
समझकर बैठे
हैं, वे
अति दीन हैं, दरिद्र हैं।
उनकी
दरिद्रता को
वे कितना ही
छिपाने की
कोशिश करें, वह जगह—जगह
से प्रकट होती
रहती है। धन
उनके पास होता
है, वे
स्वयं धनी
नहीं हो पाते,
क्योंकि धन
उनसे किसी भी
क्षण छीना जा
सकता है। और
धन न भी छीना
जाए, तो भी
धन सिर्फ धनी
होने का धोखा
है। क्योंकि
भीतर की दीनता
तब तक नहीं
मिटती, जब
तक तनाव न मिट
जाए। जब तक अशांति
न मिट जाए, तब
तक भीतर
समृद्धी का
जन्म नहीं
होता। जब तक
इतना भीतर सघन
परमात्मा
प्रकट न होने
लगे कि चारों
तरफ उसकी किरणें
बिखरने लगें,
तब तक
व्यक्ति
सम्राट नहीं
है। तब तक
व्यक्ति हजार—हजार
रूपों में
गुलाम ही होता
है। संन्यासी
तो सम्राट है।
स्वामी
राम कहा करते
थे कि एक गरीब
फकीर ने घोषणा
कर दी थी कि अब
मैं मरने के
करीब हूं। और
लोग बहुत—बहुत
धन मेरे पास
चढ़ाते चले गए
हैं, वह इकट्ठा
हो गया है।
मैं उसे किसी
गरीब को दे
देना चाहता
हूं।
गांवभर
के गरीब घोषणा
सुनकर इकट्ठे
हो गए। गरीबों
की क्या कमी
थी! जो नहीं थे
गरीब, वे
पूर्र अपनी
पगडी—वगडी घर
रखकर हाजिर हो
गए थे। फकीर
तो चकित हुआ।
उसमें कई लोग
तो ऐसे थे, जो
उसको चढ़ा गए
थे दान। भीड़ में
खड़े थे छिपे
हुए। सबको
अंदाज था, फकीर
पर पैसा तो
बहुत होगा, जिंदगीभर
लोग चढ़ाते रहे
थे। था भी
बहुत। एक बड़ी
झोली में उसने
सब भर रखा था।
कई हीरे भी थे,
मोती भी थे,
सब थे। सोने
के सिक्के भी
थे, वह सब
उसने भर रखा
था।
लेकिन
उसने कहा कि
भाग जाओ यहां
से। मैंने सबसे
ज्यादा गरीब
आदमी को देने
का दिल किया
है। एक भिखारी
ने कहा, लेकिन
मुझसे ज्यादा
गरीब कौन होगा?
मेरे पास कल
के लिए भी
खाना नहीं है।
तो उसने कहा
कि मुझे जांच
करनी पड़ेगी।
तब मैं तय
करूंगा।
और इसी
बीच सम्राट की
सवारी निकली।
हाथी पर
सम्राट जा रहा
है। फकीर ने
चिल्लाकर कहा
कि रुक।
सम्राट रुका
और उसने वह
थैली उन
भिखारियों की
भीड़ के सामने
सम्राट के
हाथी पर फेंक
दी। सम्राट ने
कहा, क्या
मजाक कर रहे
हैं? मैंने
तो सुना था, आपने सबसे
ज्यादा गरीब
को देने का तय
किया है। फकीर
ने कहा, तुमसे
ज्यादा गरीब
और कौन होगा? क्योंकि
यहां जितने
लोग खड़े हैं, इनकी आशाएं
और
आकांक्षाएं
बहुत बड़ी नहीं
हैं।
तुम्हारे पास
इतना बड़ा
साम्राज्य है,
लेकिन अभी
भी तुम्हारी
इच्छा का कोई
अंत नहीं है, वह और आगे
दौड़ी चली जा
रही है। तुम
बड़े से बड़े
भिखारी हो, तुम्हारी
भिक्षा कभी
पूरी न होगी।
तुम्हारा
भिक्षा—पात्र
ऐसा है कि कभी
भर न पाएगा।
तुम्हीं सबसे
बड़े गरीब हो।
यह मैं
तुम्हें दे
देता हूं।
गरीब
कौन है? जिसकी
वासनाएं
दुघूर हैं।
अमीर कौन है? जिसकी कोई
वासना नहीं।
गरीब कौन है? जिसकी मांग
का कोई अंत
नहीं। अमीर
कौन है ई जो
कहता है, अब
मांगने को कुछ
भी न बचा। राम
जब अमरीका गए,
तो वे अपने
को बादशाह
कहते थे। एक
लंगोटी थी पास
में, लेकिन
कहते थे
बादशाह राम।
उन्होंने एक
किताब लिखी है,
उसका नाम है,
बादशाह राम
के छह
हुक्मनामे।
एक लंगोटी थी
पास, हुक्मनामे
बादशाह राम
के!
अमरीका
का
प्रेसिडेंट
मिलने आया था
राम को। और तो
उसे सब ठीक
लगा, एक बात
जरा उसे बेचैन
करने लगी। और
उसने कहा कि
और सब तो ठीक
है, मगर आप
अपने को खुद
अपने मुंह से
कहते हैं बादशाह
राम।
क्योंकि
वे ऐसा कहते
थे। वे ऐसा
कहते थे कि
बादशाह राम कल
वहां गए।
तो
उसने कहा कि
जरा पूछना
चाहता हूं कि
यह बादशाहत
कौन सी है
जिसकी आप बात
कर रहे हैं? क्या है
आपके पास, जिसके
आप बादशाह हैं?
राम ने कहा,
जब तक कुछ
भी मेरे पास
था, तब तक
मैं गुलाम था।
क्योंकि जो भी
मेरे पास था, वह मेरा
मालिक हो गया
था। अब मैं
बिलकुल
बादशाह हूं
क्योंकि अब
मेरी कोई
गुलामी न बची।
और जब तक मेरे
पास कुछ था, तब तक मेरी
मांग कायम थी,
अब मेरी कोई
भी मांग नहीं
है। अब तुम
हीरे—जवाहरातों
के ढेर लगा दो,
तो मैं उन
पर ऐसे चल
सकता हूं जैसे
धूल पर चल रहा
हूं। अब तुम
मुझे महलों
में ठहरा दो, तो मैं ऐसे
ठहर सकता हूं
जैसे झोपड़े
में सो रहा
हूं। अब तुम
दुनिया का
मुझे बादशाह
भी बना दो, तो
मुझे ऐसा न
लगेगा कि
समथिंग हैज
बीव ऐडेड; कुछ
जुड़ गया मुझसे
नया, ऐसा
नहीं लगेगा, थे ही।
सिर्फ आपको
पता नहीं था, तो आपको
सिंहासन पर
बैठ जाने से
पता चल गया।
संन्यासी
सदा ही संपदा
उसे कहता रहा
है, जो
परिपूर्ण
तृप्ति से, टोटल
फुलफिलमेंट
से जन्मती है।
ऋषि कह
रहा है, ब्रह्मचर्य
आश्रम में फिर
वानप्रस्थ
में अध्ययन से
फलित सर्व
त्याग ही
संन्यास है।
इस देश में
हमने आदमी के
जीवन को
आश्रमों में विभक्त
किया था। शायद
मनुष्य जाति
के इतिहास में
हमारा प्रयोग
अकेला और
अनूठा था
जिसमें हमने
आदमी की
जिंदगी को
खंडों में
बाटा था और
बड़ी
वैज्ञानिक
व्यवस्था से
बांटा था। अगर
सौ वर्ष हम
आदमी की औसत
उम्र मान लें,
तो हमने चार
टुकड़े तोड़ दिए
थे पच्चीस—पच्चीस
वर्षों के।
पच्चीस वर्ष
के पहले टुकड़े
को हम
ब्रह्मचर्य आश्रम
कहते थे। इन
पच्चीस
वर्षों में व्यक्ति
को अपनी समस्त
शक्ति को
जगाकर संगृहीत
करना ही
लक्ष्य था।
इसलिए कि जब
वह गृहस्थ
बनेगा, तो
उसके पास इतनी
ऊर्जा होनी
चाहिए कि वह
जीवन के समस्त
भोगों को जान
पाए।
ये
भारत के मनीषी
दुस्साहसी थे, भगोड़े नहीं
थे। यह पच्चीस
वर्ष के
ब्रह्मचर्य
का समय इसलिए कि
ताकि व्यक्ति
इतनी शक्ति—संपन्नता
से भोग के
जीवन में जाए
कि भोग को अंतिम
किनारे तक छू
सके—टु द
आप्टीमम।
क्योंकि
ऋषियों ने
जाना था यह
सत्य कि जिस
बात को हम
पूरा जान लें,
उससे
छुटकारा हो
जाता है। अगर
पाप से भी
छुटकारा
चाहिए हो, तो
उसे पूरा जान
लेना जरूरी है।
आधा जिसने
जाना है, उसके
मन में लगाव
कायम रह ही
जाता है कि
पता नहीं, वह
जो आधा शेष था,
वहां न
मालूम क्या
होगा।
मुल्ला
नसरुद्दीन मर
रहा है।
पुरोहित आ गए
हैं उसे विदा
करने को। वे
उससे कहते है, पश्चात हा
करो। तुमने जो
पाप किए हों, उनके लिए
पश्चात्ताप
करो। नसरुद्दीन
आंख खोलता है
और कहता है, पश्चात्ताप
मैं कर रहा
हूं आलरेडी
देयर इज रिपेन्टेंस
इन मी। लेकिन
थोड़ा सा फर्क
है मुझमें और
आप में। मैं
उन पापों का
पश्चात्ताप
कर रहा हूं, जो मैं नहीं
कर पाया। मन
में बड़ी पीड़ा
रह गई है कि
शायर: उनको भी
कर लेता, तो
पता नहीं क्या
पा जाता। जो
किए, उनसे
तो कुछ नहीं
मिला। लेकिन
क्या यह जरूरी
है कि जो नहीं
किए, उन्हें
करता तो उनसे
भी न मिलता? जो किए उनसे
नहीं मिला।
लेकिन जो नहीं
किए उनमें
खजाने नहीं
छिपे होंगे, यह कौन मुझे
आज मरते क्षण
में आश्वासन
देगा! पश्चाताप
कर रहा हूं।
नसरुद्दीन
जब सौ वर्ष का
हुआ था, तो
उसकी सौवीं
वर्षगांठ
मनाई जा रही
है। गांव के
पत्रकार उसके
पास आए थे। और
उन्होंने
नसरुद्दीन से
कहा कि अगर
तुम्हें
दुबारा
जिंदगी मिले,
तो क्या तुम
वे ही भूलें
फिर करोगे जो
तुमने इस
जिंदगी में
कीं? नसरुद्दीन
ने कहा, वे
तो करूंगा ही,
जो नहीं कर
पाया, वे
भी करूंगा। एक
बात में फर्क
करूंगा कि
मैंने इस बार
जिंदगी में
भूलें बड़ी देर
से शुरू की
थीं। अगली बार
मैं जल्दी
शुरू कर दूंगा।
पत्रकारों
ने पूछा कि
तुम्हारी
इतनी लंबी उम्र
का राज क्या
है? सौ वर्ष!
तो नसरुद्दीन
ने कहा कि
मैने शराब भी नहीं
छुई, मैंने
धूम्रपान भी
नहीं किया, मैंने किसी
लड़की का
स्पर्श भी
नहीं किया—जब
तक कि मैं दस
वर्ष का नहीं
हो गया। इसके
सिवाय और तो
मुझे लंबी
उम्र का कोई
रहस्य मालूम
नहीं पड़ता। जब
तक कि मैं दस
वर्ष का नहीं
हो गया! और
कहता है कि
अगर दोबारा
जिंदगी मिले,
तो जो भूलें
मैंने देर से
शुरू की हैं, वे जरा मैं
जल्दी शुरू
करूंगा!
आदमी
पछताता है उन
पापों के लिए, जो उसने
नहीं किए। आप
उन पापों की
याद नहीं करते,
जो आपने किए।
उन पापों की
याद मन को
घेरे रखती है,
जो आपने
नहीं किए।
भारतीय
मनीषी बहुत
समझदार थे, बुद्धिमान
थे, प्रशावान
थे। वे कहते
थे, पच्चीस
वर्ष ऊर्जा को
इकट्ठा कर लो,
समस्त
शक्ति को जरा
भी बहने मत दो।
ताकि जब तुम
कूदो जीवन के
भोग के जगत
में, तो
तुम्हारी
शक्ति से भरी
हुए ऊर्जा के
तीर तुम्हें
वासनाओं के
आखिरी तल तक
पहुंचा दें।
तुम वह सब देख
लो, जो
संसार दिखा
सकता है, ताकि
संसार से पीठ
मोड़ते वक्त मन
में एक बार भी
पीछे लौटकर
देखने का भाव
न आए। यह
ब्रह्मचर्य—आश्रम
का अर्थ था।
इसका यह अर्थ
नहीं था कि
लोगों को साधु
बनाना है, इसलिए
ब्रह्मचर्य।
नहीं, लोगों
को भोग की
इतनी स्पष्ट
प्रतीति हो
जानी चाहिए कि
भोग व्यर्थ हो
जाए। तभी तो
साधुता का
जन्म होता है।
इसलिए
ब्रह्मचर्य
के पच्चीस
वर्ष के बाद
हम भेज देते
थे व्यक्ति को
गृहस्थ—आश्रम
में। अजीब सी
बात थी कि
पच्चीस साल तक
उसे रखते थे दूर
वासनाओं के
जगत से और
पच्चीस साल के
बाद बैड—बाजे
बजाकर उसे
वासनाओं के
जगत में
प्रवेश कराते
थे। बड़े गुणी
लोग थे, जिन्होंने
यह सोचा।
उन्होंने
सोचा कि शक्ति
पहले तो
संगृहीत होनी
चाहिए!
आज अगर
पश्चिम में या
पूरब में भी
कोई भी व्यक्ति
तृप्त नहीं है, कामवासना से
भी तृप्त नहीं
है—यद्यपि आज
के युग में
जितनी
कामवासना को
तृप्त करने के
उपाय हैं और
आज के युग में
जितना
कामवासना को
तृप्त करने का
प्रचार है और
आज के युग में
कामवासना को
जितना
प्रदर्शित
किया जाता है,
उतना
दुनिया में
कभी भी नहीं
था, फिर भी
कोई आदमी
तृप्त नहीं
मालूम होता—उसका
कारण है कि
शक्ति इसके
पहले संगृहीत
हो, विसर्जित
होनी शुरू हो
जाती है। इसके
पहले कि फल
पके, जड़ें
रस को मिट्टी
में खोना शुरू
कर देती हैं।
फल कभी पक ही
नहीं पाता। और
जो फल कच्चा
ही रह जाता है,
वह वृक्ष से
कैसे त्याग कर
दे वृक्ष का।
कच्चे फल कहीं
वृक्ष का
त्याग करते
हैं? पके
फल गिरते हैं,
चुपचाप गिर
जाते हैं।
वृक्ष को भी
पता नहीं चलता,
कब! लेकिन
पकने के लिए
ऊर्जा चाहिए।
जीवन के अनुभव
के पकने के
लिए भी ऊर्जा
चाहिए।
तो
पच्चीस वर्ष
तक तो हम
समस्त रूपों
में शक्ति को
संगृहीत और
शक्ति को
जन्माने और
शक्ति को पैदा
करने का उपाय
करते थे। और
एक—एक आदमी को
हम एक
रिजर्वायर
बना देते थे
कि वह ऊर्जा से
आदोलित, शक्ति—संपन्न,
भरा हुआ जगत
में आता था।
ध्यान
रहे, जितना
शक्तिशाली
पुरुष हो, उतनी
जल्दी
वासनाओं से
मुक्त हो जाता
है। जितना
निर्बल पुरुष
हो, उतनी
देर लंग जाती
है। क्योंकि
निर्बल कभी
भोग का अनुभव
ही नहीं कर पाता,
और जिसका
अनुभव नहीं, उससे
छुटकारा कैसे
होगा? जिसे
जाना ही नहीं,
वह व्यर्थ
है, यह
कैसे जाना
जाएगा? व्यर्थता
का ज्ञान तो
पूरे जानने से
ही उपलब्ध
होता है।
इसलिए
दुनिया जब तक
भारतीय मनीषा
के द्वारा विभाजित
मनुष्य के
खंडों को पुन:
स्वीकार नहीं कर
लेती, हम
मनुष्य को
वासनाओं से
मुक्त करने
में समर्थ न
हो सकेंगे।
ऋषि
कहता है, पच्चीस
वर्ष
ब्रह्मचर्य
के आवास में
जो जाना, गृहस्थ
जीवन में जो
अनुभव किया...।
पचास वर्ष की
उम्र तक
व्यक्ति
गृहस्थ रहेगा।
पच्चीस वर्ष
वह गृहस्थ
जीवन का अनुभव
करेगा। और जब
वह पचास वर्ष
का होने के
करीब होगा, तब उसके
बेटे आश्रम से
लौटने के करीब
हो जाएंगे।
उसके बेटे
पच्चीस वर्ष
के करीब होने
लगेंगे।
भारत
के ऋषि कहते
थे कि जब बेटा
घर में पत्नी
के साथ आ जाए, तब भी पिता
बच्चे पैदा
करता जाए, इससे
बेहूदी और कोई
बात नहीं हो
सकती। है भी
बेहूदी बात।
बेटा जब भोग
में उतर जाए, तब बाप
भोगना जारी
रखे, असंगत
है। जरा भी
इसमें
समझदारी नहीं
दिखाई पड़ती।
और फिर भी बाप
चाहे कि बेटा
आदर दे, तो
मूढ़ता की हद
हो गई। कोई
वजह नहीं।
लगता तो ऐसा
है, बेटा
आपके कंधे में
हाथ रखे और
ट्विस्ट करे,
क्योंकि
दोनों की
योग्यता
बराबर है।
बेटा भी वही
कर रहा है, बाप
भी वही कर रहा है।
बेटा भी खड़ा
है क्यू में
सिनेमाघर के,
बाप भी खड़े
हैं क्यू में
सिनेमाघर के।
फिर आदर, फिर
श्रद्धा, फिर
सम्मान, वह
अगर खो जाएं, तो कसूर
किसका है?
नहीं, नियम यह था
कि बेटा जिस
दिन विवाहित
होकर घर आए, उस दिन बाप
का वानप्रस्थ
हे। गया, उस
दिन मां का
वानप्रस्थ हो
गया। उसी दिन
हो गया। बात
खतम हो गई। जब
बेटे भोगने के
जगत में आ गए, तो बाप को अब
त्यागने के
जगत में जाना
चाहिए। नहीं
तो फासला क्या
है? फर्क
क्या है ' भेद
क्या है?
पचास
वर्ष में
व्यक्ति
वानप्रस्थ हो
जाएगा।
वानप्रस्थ का
अर्थ है, जिसका
मुंह वन की
तरफ से। गया।
अभी वन में
गया नहीं है।
अभी जंगल चला
नहीं गया, क्योंकि
जो बेटे अभी
गुरुकुल से
वापस आए हैं, बाप की कुछ
जिम्मेवारी
है कि उनको वह
अपने जीवन के
अनुभव दे दे।
अभी अगर वह
जंगल भाग जाए,
तो बेटों और
बाप के बीच, पीढ़ियों के
बीच जो ज्ञान
का संक्रमण
होना चाहिए, ट्रासमिश न
होना चाहिए वह
नहीं हो पाएगा।
अभी बेटे
गुरुकुल से आए
हैं, अभी
वे ज्ञान की
बातें लेकर आए
है, शब्द
सीखकर आए हैं,
शास्त्र
सीखकर आए हैं,
शक्ति लेकर
आए हैं, अभी
चमत्कृत हैं
जीवन से, अभी
ऊर्जा से भरे
हैं युवा
अवस्था के, अभी पिता ने
जो पच्चीस
वर्षों में और
जाना है, वह
सब उसे सिखा
दे। तो पच्चीस
वर्ष तक माता
और पिता
वानप्रस्थ होंगे,
वन की तरफ
जाते हुए।
चेहरा उनका अब
जंगल की तरफ
होगा, पीठ
घर की तरफ हो
जाएगी।
पच्चीस वर्ष
वे रुकेंगे
ऐज़ ए ट्रस्टी,
कि बेटे को,
जो
उन्होंने
जाना है, सौंप
दें।
लेकिन
जब वे पचहत्तर
वर्ष के होंगे, तब तक तो
बेटों के बेटे
गुरुकुल से
लौट रहे होंगे।
तब उनके रुकने
की कोई जरूरत
नहीं रही, क्योंकि
उनके बेटे ही
अब अनुभवी
पिता हो गए हैं,
वे पचास साल
के हो गए हैं।
अब वे ज्ञान
को, अनुभव
को दे सकेंगे।
अब उनके
संन्यास का
क्षण आया, अब
वे छोड़ ऐं और जंगल
चले जाएं।
और एक
बहुत अदभुत
सर्किल हमने
निर्मित किया
था। ये जो
पचहत्तर वर्ष
के वृद्ध—जन
जंगल चले
जाएंगे, ये
आने वाले
बच्चों के लिए
गुरु का काम
करेंगे। यह एक
सर्किल था
हमारा।
और
ध्यान रहे, हमने कभी यह
स्वीकार नहीं
किया कि
विद्यार्थी
और गुरु के
बीच इससे कम
उम्र का फासला
उचित है। पचास
साल की उम्र
का फासला
जरूरी है।
क्योंकि एक तो
वृद्ध की सब
वासनाएं क्षीण
हो गई होती
हैं। केवल वे
वृद्ध ही
जिनकी
वासनाएं
समस्त क्षीण हो
गईं, जो
अनुभव से
वासनाओ के पार
हो गए हैं, अपने
बच्चों को
ब्रह्मचर्य
में दीक्षित
कर सकते हैं, नहीं तो
नहीं। कैसे
करेंगे? अब
यह गुरु खुद
गीता में काम—शास्त्र
छिपाकर पढ़ता
हो, फिर
ठीक है, फिर
बच्चे भी
पहचान जाते
हैं। पहचानने में
देर नहीं लगती।
फिर यही गुरु
उनको
ब्रह्मचर्य
की बात करता
हो। तो देख
लेते, सुन
लेते, लेकिन
जान जाते कि
ये सब बातें
करने की हैं।
आज तो
यूनिवर्सिटी
में ऐसा होता
है कि अक्सर ऐसा
हो जाता है—मैं
कोई दस वर्ष
तक
अइनवर्सिटी
में था—अक्सर
ऐसा हो जाता
है कि एक ही
लड़की के लिए
प्रोफेसर भी
दीवाना है और
लड़के भी
दीवाने हैं।
भारी
प्रतिस्पर्धा
हो जाती है।
अब, अब
ब्रह्मचर्य
की बात करने
की भी तो जरूरत
नहीं रह गई, शोभा भी
नहीं देती।
पचास साल का
फासला हमने
माना था कि
विद्यार्थी
और गुरु में
होना चाहिए।
इतना
डिस्टेंस कई
अर्थों में
जरूरी है।
एक तो
वार्धक्य का
अपना सौंदर्य
है, अपनी
गरिमा है। अगर
कोई व्यक्ति
सच में ढंग से
का हुआ हो, तो
बुढ़ापे का जो
सौंदर्य है, वह किसी भी
स्थिति में
कभी नहीं होता।
क्योंकि
जवानी में तो
एक उत्तेजना
होती है, इसलिए
सौंदर्य में
शांति नहीं
होती, स्निग्धता
नहीं होती, चांद जैसा
नहीं होता
सौंदर्य। और
जवानी में तो
एक उतावलापन
होता है, जल्दी
होती है।
जल्दी कुरूप
होती है।
जल्दी में कभी
भी सौंदर्य
नहीं होता।
सौंदर्य तो
बहुत धीरे से
बहने वाली नदी
की दशा है। और
जवानी इतनी
ऊर्जा से भरी
होती है कि
उसे फेंकने के
लिए पागल होती
है, विक्षिप्त
होती है।
जवानी कभी भी
स्वस्थ नहीं
होती।
हालांकि हम
कहते हैं कि
जवान बहुत
स्वस्थ होते
हैं शरीर से, लेकिन मन से
जवानी बहुत
अस्वस्थ
अवस्था है। के
ही स्वस्थ हो
पाते हैं।
रवींद्रनाथ
ने कहा है कि
अगर कोई ठीक
से वृद्ध हो..
और ठीक से
वृद्ध होने का
मतलब यही है
कि भीतर जवानी
सरकती न रह
जाए और तो कोई
अर्थ ही नहीं होता।
नहीं तो शरीर
का हो जाता है
और मन जवान रह
जाता है। तब
बूढ़े से
ज्यादा कुरूप
इस जमीन पर
कोई घटना नहीं
होती, द
मोस्ट, द
अग्लीएस्ट, जब का शरीर
होता है और मन
जवान की तरह
बेताब, पागल
और रुग्ण और
वासनाग्रस्त
होता है।
यह बड़े
मजे की बात है, बच्चे अब भी
सुंदर होते
हैं, जवान
अब भी सुंदर
होते हैं, बूढ़े
अब सुंदर होना
बंद हो गए।
कभी मुश्किल
से कभी कोई
वृद्ध
व्यक्ति
सुंदर दिखाई
पड़ता है।
रवींद्रनाथ
ने कहा है कि
जब सचमुच कोई
का जीवन के
अनुभव से पककर
सुंदर
वार्धक्य को
उपलब्ध होता
है, तो
उसके सिर पर आ
गए सफेद बाल
ऐसे मालूम
पड़ते हैं जैसे
गौरीशंकर पर
जम गई शुभ्र
बर्फ—शांत
शिखर को छूता
हुआ, आसमान
को छूता हुआ।
जहां बादल भी
शर्म से झुक
जाते हैं और
नीचे पड़ जाते
हैं। ऐसे
बूढ़ों को हम
कहते थे गुरु।
इतना
फासला न हो तो
गुरु और शिष्य
के बीच जो श्रद्धा
का जन्म होना
चाहिए, वह
नहीं हो सकता।
और फिर ये जो
सब जान चुके
हैं, यही
देने में
समर्थ हो सकते
हैं। आज करीब—करीब
जिन्होंने
कुछ भी नहीं
जाना—शब्द
जाने हैं, परीक्षापत्र
जाने हैं, सर्टिफिकेट
जाने हैं—जिनका
अनुभव से कोई
संबंध नहीं, वे उनको
ज्ञान देते
रहते हैं, जो
करीब—करीब
उनकी ही
मनोदशा में
हैं। कोई भेद
नहीं है। और
अगर
विद्यार्थी
थोड़ा होशियार
हो, तो
शिक्षक से
ज्यादा जान
सकता है आज।
पहले यह असंभव
था।
विद्यार्थी
थोड़ा होशियार
हो, तो
शिक्षक से
ज्यादा जान
सकता है। और
अक्सर कुछ
विद्यार्थी
तो थोड़े
होशियार होंगे
ही और शिक्षक
से थोड़े
ज्यादा ही
होंगे।
क्योंकि
शिक्षक की तरफ
जाने वाला जो
वर्ग है समाज
का, वह सबसे
कम होशियार
वर्ग होता है।
उसके
कारण हैं।
क्योंकि
शिक्षक को न
तनख्वाह है
ठीक, न कोई
सम्मान है।
लोग पूछते हैं,
अच्छा
मास्टर हो गए!
यानी मतलब
बेकार हो गए!
आदमी डरता है
बताने में कि
हम मास्टर हैं।
इससे तो
कास्टेबल
कहता है, तो
भी रीढ़ अकड़
जाती कि
कास्टेबल हैं।
मास्टर हैं, तो वह ऐसा
कहता है कि
पिट गए, बेकार
हो गए, जिंदगी
बेकार गई, मास्टरी
में गंवा दी।
तो जाता ही
मीडियाकर
वर्ग' है, मध्य—वृत्
वाला वर्ग
जाता है। और
जरा सा
विद्यार्थी
होशियार हो, तो शिक्षक
पीछे पड़ जाता
है।
लेकिन
भारत की
दृष्टि यह थी
कि शिक्षक
किसी भी
स्थिति में विद्यार्थी
से पीछे नहीं
पड़ना चाहिए यह
तभी हो सकता
है, जब इतना
लंबा जीवन का
अनुभव हो।
ऋषि कह
रहा है कि
जिन्होंने
ब्रह्मचर्य
जाना, गार्हस्थ्य
जाना, जिन्होंने
वानप्रस्थ
जाना, इस
जानने से ही
वे जिस त्याग
को उपलब्ध
होते हैं, उसका
नाम संन्यास
है। इस जानने
से ही, दिस
वेरी नोइंग
लीड्स टु
रिनसिएशन, यह
जानना ही
संन्यास बन
जाता है।
जिसने जान
लिया जीवन को
इतने —इतने
पहलूओं से, वह जीवन से
चिपका नहीं रह
जाता। वह जान
लेता है कि
असार को पकड़कर
रखने का क्या प्रयोज
न है, तो
छूट जाता है।
और अंत
में समस्त
शरीरों का नाश
हो जाता है और
ब्रह्मरूप
अखंडाकार में प्रतिष्ठा
होती है।
मनुष्य
के सात शरीर
हैं। एक शरीर, जो हमें
दिखाई पड़ता है,
यह है। फिर
इसके भीतर और,
और, और, सात शरीरों
की पर्तें हैं।
एक शरीर तो
भौतिक है, जो
हमें दिखाई
पड़ता है। और
सूक्ष्म शरीर
है, जो
हमें दिखाई नहीं
पड़ते, लेकिन
जब कोई योग
में प्रवेश
करता है, तो
वे दिखाई पड़ने
शुरू होते हैं।
एक—एक आदमी
सात पर्तों से
घिरा हुआ है, सेवेन
लेयर्स।
ये जो
सात शरीर हैं
हमारे, जब
तक ये सातों
के सातों न
गिर जाएं, तब
तक अखंड
ब्रह्माकार
स्थिति नहीं
बनती है। अगर
एक शरीर भी बच जाए
पीछे, तो
वह यात्रा
जारी रखता है।
अगर सातों
शरीर हो, तो
जन्म होता है
अलग ढंग से।
अगर एक ही
शरीर रह जाए, तो भी जन्म
होता है अलग
ढंग से। भौतिक
शरीर निर्मित
नहीं होता, लेकिन जन्म
की यात्रा
जारी रहती है।
जन्म तो उसी
दिन मिटते हैं,
जिस हमारे
भीतर कोई शरीर
ही नहीं रह
जाता।
लेकिन
कब यह घटना
घटती है, जब
कोई शरीर न रह
जाए? 'यह
तभी घटती है, जब भीतर कोई
वासना न रह
जाए। क्योंकि
वासना शरीर को
संगृहीत करती
है, क्रिस्टलाइज
करती है।
वासना ही शरीर
को संगृहीत
करती है, इकट्ठा
करती है। और
हमारे भीतर
वासनाओं के भी
सात तल हैं, इसलिए हमारे
भीतर सात शरीर
हैं। उन सात
शरीरों का
विनाश हो जाता
है। जब कोई
व्यक्ति
जानकर जीवन का
त्याग कर देता
है, तब वे
सातों शरीर
भस्मीभूत हो
जाते हैं।
वैसे व्यक्ति
की फिर अखंड
ब्रह्म के साथ
सत्ता एक हो
जाती है। फिर
जन्म का कोई
उपाय न रहा, क्योंकि
जन्म लेगा
कहां? जाएगा
कहां?
आवागमन की कोई
सुविधा न रही।
फिर तो
प्रतिष्ठा
उसमें हो गई, जो सरल है, आकाश की
भांति जो फैला
है सब ओर।
उसके साथ एक
होना हो गया।
यही
क्षण परम
अनुभूति और
परम आनंद का
क्षण है, जब
हमें जन्मने
की जरूरत नहीं
रह जाती, क्योंकि
फिर मरने का
कोई कारण नहीं
रह जाता। और
जब हमें शरीर
ग्रहण नहीं
करने पड़ते, तब हमें
शरीरों से
पैदा होने
वाले कष्ट भी
नहीं झेलने
पड़ते। और जब
इंद्रियां
हमें नहीं
मिलतीं, तब
इंद्रियों से
जो भ्रांतियां
पैदा होती हैं,
वे
भ्रांतियां
भी पैदा नहीं
होतीं। तब हम
शुद्ध चैतन्य
में, शुद्ध
सत्य में, शुद्ध
अस्तित्व के
साथ एक हो
जाते हैं। इस
एकता का जो
ज्ञान है, इस
एकता का जो
दिशा—निर्देश
है, इस परम
ऐक्य की जो
इंगित
व्यवस्था है,
ऋषि कहता है,
यही
निर्वाण
दर्शन है।
जिसका—एक
बहुत अदभुत
बात इस सूत्र
में कही है
अंत में—
जिसका शिष्य
या पुत्र के
अतिरिक्त
अन्य किसी को
उपदेश नहीं
करना ऐसा यह
रहस्य है।
यह
बहुत अजीब
लगेगा। इतनी
अदभुत बातों
के बाद, इतने
परम
ज्योतिर्मय
की ओर इशारे
करने के बाद एक
बात ऋषि कहता
है कि यह
ज्ञान ऐसा है
कि इसे अपने
पुत्र या अपने
शिष्य के
अतिरिक्त और
किसी से मत
कहना।
उपनिषद
का अर्थ होता
है, द
सीक्रेट
डाक्ट्रिन।
उपनिषद का
अर्थ होता है,
गुह्य
रहस्य।
उपनिषद शब्द
का अर्थ होता
है, जिसे
गुरु के पास
चरणों में
बैठकर सुना।
रहस्य
इतना गुह्य है
कि ऐसे ही राह
चलते नहीं कहा
जाता। रहस्य
इतना गुह्य है
कि हर किसी से
नहीं कहा जाता।
बहुत इटिमेसी
चाहिए, बडा
आतरिक संबंध
चाहिए। रहस्य
ऐसा गुह्य है
कि जहां तर्क
और वितर्क और
विवाद चलता हो,
वहां नहीं
कहा जा सकता
है। जहां
प्रेम की
अंतर्धारा
बहती हो, वहीं
कहा जा सकता
है। जहा संवाद
संभव हो, कम्यूनिकेशन
जहां संभव हो,
जहा हृदय
हृदय से बोल
सके, हार्ट
टु हार्ट, वहीं
कहना। ऋषि ने
यह सूचना दी
है।
बेटे
या शिष्य को
कहने का भी
कारण है। असल
में बेटे से
मतलब है, जो
इतना अपना हो
कि अपनी ही
मास—मज्जा
मालूम पड़े।
जरूरी नहीं है
कि वह आपके
शरीर से पैदा
ही हुआ हो। यह
जरूरी नहीं है।
यह जरूर जरूरी
है कि वह आपको
ऐसा लगे कि
अगर वह मर जाए,
तो आपका कोई
हिस्सा मर
जाएगा; कि
अगर वह खो जाए
तो आपका कोई
अंग खो जाएगा;
कि वह डूब
जाए, नष्ट
हो जाए तो
आपके हृदय की
धड़कनें कुछ
नष्ट हो
जाएंगी; आप
फिर कभी उतने
पूरे न होंगे,
जितने उसके
होने से थे।
जिसके साथ ऐसी
आत्मीयता
मालूम हो, जो
इतना आत्मज
मालूम पड़े, उससे कहना, क्योंकि यह
रहस्य गुह्य
है। या उससे
कहना जो शिष्य
हो। शिष्य का
अर्थ होता है,
वन हू इज
रेडी टु लर्न,
जो सीखने को
तैयार है।
बहुत
कम लोग दुनिया
में सीखने को
तैयार होते हैं, मुश्किल से।
सिखाने की
उत्सुकता
बहुत आसान है,
सीखने की
तैयारी बहुत
कठिन है।
क्योंकि
सीखने के लिए
झुकना पड़ता है।
इस
शिष्य शब्द से
मुझे खयाल आया।
हमारे मुल्क
में पांच सौ
वर्ष पहले
नानक के शब्दों
से एक धर्म का
जन्म हुआ, जिसको हम
कहते हैं सिख।
लेकिन सिख
केवल शिष्य का
पंजाबी
रूपांतरण है।
शिष्य का
पंजाबी रूप है
सिख—जो सीखने
को तैयार है।
इतना ही उसका
मतलब है। सिख
कोई पंथ नहीं,
कोई मजहब
नहीं। जो भी
सीखने को
तैयार है, वही
शिष्य है।
ऋषि
कहता है, यह
जो सीखने की
तैयारी न हो
अगर, तो मत
कहना।
क्योंकि ये
बातें ऐसी हैं
कि सीखने को
जो तैयार न हो,
उससे कहो, तो उसके
कानों में भी
प्रवेश नहीं होगा
और खतरा यह है
कि वह इनके
गलत अर्थ
निकाल लेगा।
क्योंकि यह
रहस्य गुह्य
है, यह
सीक्रेट है।
यह ऐसी बात
नहीं है
बोलचाल की कि
कह दी। यह
कहना सोच—समझकर।
निश्चित
ही, हम पूरा
शास्त्र देख
गए हैं, सोच—समझकर
कहने जैसा है।
स्वेच्छाचार
संन्यास है, यह जरा सोच—समझकर
कहना उससे, जो समझ सके, समझने की
जिसकी तैयारी
हो। नहीं तो
वह समझेगा कि
बिलकुल ठीक।
स्वेच्छाचार
का मतलब
समझेगा कि
लाइसेंस मिल गया।
अब कुछ भी करो।
उगैर अगर कोई
कुछ कहे, तो
कहना, संन्यासी
हैं, क्या
समझते हो? स्वेच्छाचार
करेंगे ही, संन्यासी जो
हैं।
हम देख
गए हैं पूरा
निर्वाण
उपनिषद। जो
बातें कही हैं, वे निश्चित
ऐसी हैं कि
ऋषि को यh वक्तत्य
पीछे दे ही
देना चाहिए कि
उससे ही कहना,
जो इतना
निकट हो कि
मिसअंडरस्टैंड
न कर पाए, गलत
न समझ जाए।
उससे ही कहना,
जो सीखने को
इतना तैयार हो
कि अपनी तरफ
से जोड़े न। जो
कहा जाए, वही
समझे। जो
चरणों में
बैठकर झुक सके।
जो सिर्फ
प्रश्न ही न
कर रहा हो, जो
केवल जवाब ही
न चाहता हो; जो समाधान
की तलाश में
निकला हो, जो
समाधि पाना
चाहता हो, उससे
कहना।
निर्वाण
उपनिषद
समाप्त।
ऋषि
कहता है, बस
यह आखिरी बात
कहनी थी कि जब
किसी से कहो, सोच—समझकर कहना।
इतना ही मुझे
कहना है, ऋषि
कहता है। और
निर्वाण
उपनिषद
समाप्त हो
जाता है।
निर्वाण
उपनिषद तो
समाप्त हो
जाता है, लेकिन
निर्वाण निर्वाण
उपनिषद के
समाप्त होने
से—नहीं मिल
जाता है।
निर्वाण
उपनिषद जहां
समाप्त होता
है, वहीं
से निर्वाण की
यात्रा शुरू
होती है।
उपनिषद
समाप्त हो गया।
इस आशा
के साथ अपनी
बात पूरी करता
हूं कि आप निर्वाण
की यात्रा पर
चलेंगे, बढ़ेंगे।
और यह भरोसा
रखकर मैंने ये
बातें कही हैं
कि आप सुनने
को, समझने
को तैयार होकर
आए थे। अगर
कोइ? शिष्य
के भाव से न
आया हो, तो
उसके कारण
मुझे ऋषि से
क्षमा मांगनी
पड़ेगी, क्योंकि
फिर ऋषि के
इशारे के
विपरीत बात हो
गई। कोई अगर
मन में विवाद
लेकर इन बातों
को सुना और
समझा हो, तो
उससे मैं
प्रार्थना
करूंगा, वह
भूल जाए कि
मैंने उससे
कुछ भी कहा है।
मैंने
जैसा कहा है
और जो कहा है, उसमें अगर
रत्तीभर भी
अपनी तरफ से
जोड़ने का खयाल
आए, तो
स्मरण रखना कि
वह अन्याय
होगा—मेरे साथ
ही नहीं, जिसने
निर्वाण
उपनिषद कहा है,
उस ऋषि के
साथ भी।
यही
मानकर मैं चला
हूं कि जो यहा
इकट्ठे हुए हैं, वे आत्मीय
हैं, एंड
कम्युनिकेशन
इज पासिबत्।,
और संवाद हो
सकता है।
इसलिए
सिर्फ चर्चा
नहीं रखी, साथ में आपके
ध्यान के गहन
प्रयोग रखे
हैं। क्योंकि
मैं मानता हूं
कि चर्चा में
वे लोग भी
उत्सुक हो
जाते हैं, जो
शब्दों को
विलास समझते
हैं। चर्चा
में वे लोग भी
उत्सुक हो
जाते हैं, जो
शब्दों को
मनोरंजन
समझते हैं, लेकिन ध्यान
में वे लोग
उत्सुक नहीं
होते। और दिन
में तीन बार
अथक श्रम करना
पड़े ध्यान के
लिए, तो जो
चर्चा में
उत्सुक थे, वे भाग गए
होंगे। भाग
जाएंगे।
इसलिए ध्यान
को 'अनिवार्य
रूप से पीछे
जोड़कर रखा था।
और मैं, आप
जब मुझे सुनते
हैं, तब
आपकी फिक्र
नहीं कर रहा
हूं जब आप
ध्यान करते
हैं, तब
आपकी फिक्र करता
हूं।
आपके
ध्यान करने की
चेष्टा ने
मुझे भरोसा
दिलाया है कि
जिनसे मैंने
बात कही है, वे कहने
योग्य थे।
निर्वाण
उपनिषद
समाप्त !'
निर्वाण
की यात्रा
प्रारंभ!!
आज
इतना ही।
अब हम
रात्रि के
अंतिम ध्यान
में लग जाएं।
यह अंतिम
ध्यान है, इसलिए पूरी
शक्ति लगा देनी
जरूरी है। जो
लोग बहुत तेजी
से करेंगे वे
मेरे सामने रहें,
बाकी लोग
पीछे हट जाएं।
एक
पांच मिनट
पहले तीव्र
श्वास ले
लेंगे, ताकि
शक्ति जग जाए!
ओशो
ध्यान
योग साधाना
शिविर,
माऊंट
आबू,
राजस्थान।
THANK YOU GURUJI
जवाब देंहटाएं