ध्यान
योग शिविर
1
अप्रैल 1972, प्रात:
माऊंट
आबू,
राजस्थान।
सूत्र :
अणोरणीयानहमेव
तद्वन्महानहं
विश्वमहं
विचित्रम् ।
पुरातनोऽहं
पुरुषोऽहमीशो
हिरण्मयोऽहं शिवरूपमस्मि।।
20।।
मैं
छोटे—से—छोटा
और
बड़े—से—बड़ा
हूं। इस विचित्र
संसार को मेरा
ही रूप मानना
चाहिए। मैं ही
पुरातन पुरुष
हूं जो सबका
आधार है। मैं
ही शिव का रूप
हूं और मैं ही
हिरण्यमय
हूं।। 2०।।
जीवन
खंडों में
विभाजित नहीं, अखंड है।
खंडों में
विभाजित
दिखायी पड़ता
है तो भी अखंड
है। बहुत तरह
के खंड दिखायी
पड़ते हैं, लेकिन
सभी खंड मूल
आधार में
संयुक्त हैं
और इकट्ठे हैं।
अन्यथा जगत के होने की संभावना ही नहीं है, अस्तित्व के होने की संभावना ही नहीं है। अस्तित्व बिखर जाए, अगर खंडों में हो। अस्तित्व बिखरता नहीं क्योंकि खंडों में बंटा हुआ नहीं है, अखंड है।
अन्यथा जगत के होने की संभावना ही नहीं है, अस्तित्व के होने की संभावना ही नहीं है। अस्तित्व बिखर जाए, अगर खंडों में हो। अस्तित्व बिखरता नहीं क्योंकि खंडों में बंटा हुआ नहीं है, अखंड है।
इसे
हम ऐसा समझें।
मेरा हाथ है, एक खंड है;
मेरी आंख है,
एक खंड है; मेरे पैर
हैं, एक
खंड हैं; लेकिन
मैं अखंड हूं।
और मेरी आंख
और मेरा हाथ
गहरे में जुडे
हैं, संयुक्त
हैं। मेरी आंख
देखती है और मेरा
हाथ चीज को
उठाने को
बढ़ेगा। मेरी आंख
देखती है सड़क
पर सांप को और
मेरा पैर
छलांग लगा
लेता है। फिर
भी पैर अलग है,
पैर देख
नहीं सकता, आंख छलांग
नहीं लगा सकती।
हाथ छू सकते
हैं, कान
सुन सकते हैं।
हृदय धड़कता है,
मस्तिष्क
सोचता है। खून
बहता है, हड्डी—मांस—मज्जा
बनती है, ये
सब खंड हैं।
और एक—एक खंड
अलग से समझने
की हम कोशिश
करें तो अलग दिखायी
पड़ता है।
लेकिन
गहरे में
उतरें तो सभी
खंडों के भीतर
कोई एक भी
छाया हुआ है, जो सभी को
घेरे हुए है।
अन्यथा आंख
देखे और पैर
छलांग लगा जाए,
यह कैसे हो?
कहीं—न—कहीं
आंख और पैर
जुड़े होने
चाहिए। कहीं—न—कहीं
आंख और पैर एक
ही चीज के दो
रूप होने
चाहिए। कहीं
गहरे में जहां
हृदय धड़कता है,
वहीं
मस्तिष्क का
विचार भी जुडा
होना चाहिए।
क्योंकि
मस्तिष्क में
विचार का फर्क
होता है, हृदय
की धड़कन बदल
जाती है।
मस्तिष्क में
विचार का फर्क
होता है, खून
की चाल बदल
जाती है।
मस्तिष्क में
क्रोध होता है,
रक्तचाप बढ
जाता है।
मस्तिष्क में
वासना जगती है,
सारा शरीर
प्रभावित हो
जाता है, आदोंलित
हो जाता है।
पैर में कांटा
गड़ता है, आंख
में आंसू आ
जाते हैं।
कहीं—न—कहीं
पैर और आंख, कहीं—न—कहीं
हृदय और
मस्तिष्क, कहीं—न—कहीं
इस शरीर का
अणु—अणु
संयुक्त होना
चाहिए।
वह
संयुक्तता
दिखायी नहीं
पड़ती। दिखायी
तो ये खंड
पड़ते हैं। वह
संयुक्तता
ओझल है आंख से।
होगी ही। गहरे
में छिपी है।
ठीक ऐसे ही, जैसे यह
व्यक्ति, हमारा
व्यक्ति
संयुक्त है
ऐसे ही यह
पूरा विराट भी
संयुक्त है।
इसे हम एक तरह
से समझें तो
शायद खयाल में
आ जाए।
एक—एक
आदमी के शरीर
में कोई सात
करोड जीवकोश, अर्थ
होता है कि एक
व्यक्ति के
शरीर को बनाने
में सात करोड़
जीवंत कोश काम
करते हैं।
मतलब सात करोड़
जीवन आपके
भीतर बसे हैं।
आप एक बड़ी
बस्ती हैं।
इसलिए
भारतीयों ने
आपके शरीर को
पुर कहा है और
आपको पुरुष
कहा है। आप एक
बड़ी बस्ती है।
सात करोड़
व्यक्ति आपके
भीतर है।
प्रत्येक 'सेल'
अपने—अपने
में अपनी
नियति रखता है,
अपना
व्यक्तित्व
रखता है। आपके
शरीर का एक—एक 'सेल' एक—एक
व्यक्ति है, अपनी हैसियत
से। आपकी
हैसियत से
नहीं, अपनी
ही हैसियत से
एक—एक व्यक्ति
है। आपके 'सेल'
को बाहर
निकाल लिया
जाए तो वह
जिंदा रहेगा,
आपके बिना
भी और करोड़ों
वर्ष तक जिंदा
रह सकता है।
आप सत्तर वर्ष
में समाप्त हो
जाएंगे, वह
करोड़ों वर्ष
तक जिंदा रह
सकता है, अपनी
हैसियत से।
उनका अपना
छोटा—सा हृदय
है और अपना
छोटा—सा
मस्तिष्क है।
और वैज्ञानिक
कहते हैं, आज
नहीं कल शायद
हमें पता चले
कि उसका अपना
अनुभव, उसके
अपने विचार, उसका अपना
अहंकार है।
क्यों? क्योंकि
वह अपनी आत्मरक्षा
करता है। वह
अपने जीवन को
बचाने की
चेष्टा करता
है। राम हमले
में सिकुड़ जाता
है, प्रेम
में फैल जाता
है। वह भी
प्रेम करता है।
और
उस जीवकोश को
आपका कोई भी
पता नहीं है
कि आप भी हैं!
यह जो सात
करोड़ जीवकोश
हैं आपके शरीर
में, इनको
बिलकुल भी पता
नहीं कि इनका
जुड़कर भी कोई
एक व्यक्ति है।
इन सबके जोड़
से भी कोई एक
समग्र
व्यक्तित्व निर्मित
हो रहा है, इसका
इन्हें कोई
पता नहीं है।
उपनिषद
मानते हैं, रहस्यवादी
मानते हैं—कहना
ठीक नहीं कि
मानते हैं, वे जानते ही
है—कि ठीक हम
भी इस विराट
जगत में छोटे—छोटे
जीवकोश हैं और
हम सबसे मिलकर
भी जो निर्मित
हो रहा है, उसका
हमें पता नहीं
है। जिस दिन
पता चल जाता
है उसी दिन
उसका नाम परमात्मा
है। हम सब भी
इस विराट में
जीवकोश हैं।
हम अपनी
हैसियत से
जीते हैं।
जैसे हमारे
शरिर का
जीवकोश अपनी
हैसियत से
जीता है। शायद
किसी दिन
सूक्ष्म
निरीक्षण से
पता चलेगा कि
उस जीवकोश के
भीतर भी छोटे
जीवकोश हैं, जो अपनी
हैसियत से
जीते हैं।
जैसे
अणु हैं
भौतिकविद के
लिए, परमाणु
हैं, 'इलेक्ट्रॉन'
हैं, इनसे
मिलकर सारा
पदार्थ बना है।
ठीक ऐसे ही
चैतन्य के भी
कण हैं, जीवकोश
हैं, उनसे
मिलकर समस्त
जीवन बना है।
इस विराट जीवन
को खंड—खंड
में देखना ही
विज्ञान है, इसको अखंड
देख पाना धर्म
है।
अगर
आपके शरीर को
भी वैज्ञानिक
छुएगा तो वह
खंड—खंड कर
लेगा। तोड़
लेगा टुकड़ो
में। एक—एक 'सेल' को
अलग करके
समझने की
कोशिश करेगा। निश्चित
ही। क्योंकि
आपके शरीर के
किसी 'सेल'
को आपका पता
नहीं है, आपके
शरीर का कोई
भी 'सेल' आपकी खबर
नहीं दे सकता
है। इसलिए वैज्ञानिक
कहेगा आदमी के
भीतर कोई
आत्मा नहीं है।
आदमी करोड़ों 'सेलों' का
एक जोडूमात्र
है। इकाई नहीं,
सिर्फ जोड़।
आदमी अलग से
कुछ भी नहीं
है। आत्मा अलग
से कुछ भी
नहीं है। इन
सात करोड़
जीवनकोशों का
जोड़ है। फिर
वह एक जीवनकोश
को भी काटेगा
तो पाएगा, उसमें
कुछ रासायनिक
तत्त्व हैं, पाएगा कि
कुछ धातुएं
हैं पाएगा कि
कुछ रस हैं, पाएगा कि
कुछ पदार्थ
हैं। वह
पदार्थ के कण
भी उसे खबर
नहीं देंगे कि
हमसे मिलकर जो
बनता था, वह
एक जीवन था।
वे भी सिर्फ
अपनी ही खबर
देंगे, उन्हें
भी जीवन का
कोई पता नहीं
है।
तो
अंततः विज्ञानिक
कहेगा कि
जीवकोश
रासायनिक
पदार्थों का
जोड़ है और
व्यक्ति की
आत्मा इन
जीवकोशो का
जोड़ है। जोड़
है! इसको ठीक
से समझ लेना।
अलग कोई
व्यक्तित्व
नहीं है जीवन
में, सिर्फ
जोड़ है! खंडों
का जोड़ है, अखंड
है।
धर्म
इसकी ठीक
विपरीत
मान्यता है।
धर्म कहता है, खंड का
जोड़ नहीं है
अखंड। खंड
अखंड का भाग
है। अखंड
खंडों का जोड़
नहीं है। खंड
अखंड का भाग
है। खंडों के
जोड़ से अखंड
नहीं बनता, अखंड अपनी हैसियत
से है। वह कोई
गाणितिक जोड़
नहीं है, सावयव
एकता है। अखंड
अपनी हैसियत
से है, खंडों
को उसका पता
नहीं है।
क्योंकि खंड
को अखंड का
पता इसलिए
नहीं होता कि
खंड अपने भीतर
ही बंधकर जीता
है। उसे पता
नहीं है। जब
खंड अपने से
बाहर निकलता
है, अपने
से ऊपर उठता
है, जागकर
अपने से पार
देखता है, तब
उसे अखंड की
प्रतीति शुरू
होती है।
इस
अपने से ऊपर
उठने का ही
सूत्र साक्षी
है। इस अपने
से पार उठने
का सूत्र
साक्षी है। जब
भी कोई अपने
प्रति भी
साक्षी होकर
देखता है, तो उसके
भीतर अखंड का
स्मरण शुरू हो
जाता है।
क्योंकि यह सब
जोड़ तो उसे
दिखायी पड़ता
है—हाथ दिखायी
पड़ता है, पैर
दिखायी पड़ते
हैं, आंख
दिखायी पड़ती
है, इन
सबको वह
देखनेवाला
कौन है? वह
अलग हो जाता
है। अलग होते
से ही खंड के
ऊपर अखंड की
छाया पड़नी
शुरू हो जाती
है, या खंड
के भीतर अखंड
का अंकुरण
शुरू हो जाता
है। या खंड के
भीतर जो सोया
हुआ भाव था वह
टूट जाता है, जागरण पकड़ता
है और अपने से
पार आंख उठती
है।
ऐसा
हम समझें कि
मां के पेट
में एक बच्चा
है गर्भ में, उसे इस
जगत का कोई भी
पता नहीं है।
क्यों पता
नहीं है? क्योंकि
मां के पेट
में जो बच्चा
है, वह
अपनी ही
हैसियत से एक
इकाई है। और
उसका जगत से
कोई सीधा
संबंध नहीं है।
उसे पता भी
नहीं है कि
सूरज निकलता
है, चांद—तारे
हैं; उसे
पता भी नहीं
कि लोग हैं, विराट जगत
है, उसे
कुछ भी पता
नहीं है। और
गर्भ के भीतर
बच्चा इतना सुनिश्रित
इकाई में बंधा
हुआ है कि वह
अपने को ही जगत
मान ले तो कोई
आश्रर्य नहीं
है। क्योंकि न
उसे खाने के
लिए आयोजन
करना पड़ता है,
न उसे पीने
के लिए आयोजन
करना पड़ता है,
न उसे आत्मरक्षा
के लिए आयोजन
करना पड़ता है,
उसे कुछ
करना ही नहीं
पड़ता है, वह
सिर्फ होता है।
और परिपूर्ण
होता है। उसको
कहीं कोई कमी
नहीं होती।
उसे खयाल भी
नहीं आ सकता
कि मुझसे अलग
भी कुछ है।
लेकिन गर्भ के
बाहर आएगा, अपनी सीमाओं
को तोड़ेगा तो
जगत का
प्रारंभ होगा।
इसलिए
वैज्ञानिक—मनोविज्ञानिक
कहते हैं कि
बच्चे का जन्म
जो है, बहुत
'ट्रामेटिक'
है, उसे
बड़ा धक्का
लगता है। एकदम
एक सीमा में
बंधा हुआ
अस्तित्व था,
एकदम से टूट
जाता है और एक
असीम जगत में
खड़ा हो जाता
है जहां कुछ
भी सूझता नहीं
है। पहली बार
पता चलता है, मैं ही नहीं
हूं और भी
बहुत कुछ है।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
यह धक्का इतना
गहरा है कि
जिंदगी भर इस
धक्के से आदमी
संभल नहीं
पाता। और
मनोवैज्ञानिक
तो यह भी कहते
हैं—इसमें
थोड़ी सचाई है—कि
आदमी जो शांति
की खोज करता
है, आनंद
की खोज करता
है, स्वतंत्रता
की खोज करता
है, आत्मा
की खोज करता
है, परमात्मा
की खोज करता
है, यह
उसके गर्भ के अनुभव
के कारण करता
है। क्योंकि
गर्भ में वह
परम स्वतंत्र
था, परम
आनंदित था, परम शांत था,
कोई तनाव न
था, कोई
सीमा न थी, जीवन
पूरा—का—पूरा
उपलब्ध था, उसमें कहीं
कोई बाधा न थी;
कोई
जिम्मेवारी न
थी, कोई
बोझ न था, कोई
चिंता न थी।
मनोविज्ञानिक
कहते हैं कि
यह जो मोक्ष
की खोज है, यह उस
गर्भ में जो
अनुभव हुई है
शांति, उसके
ही कारण है।
इसमें थोड़ी
दूर तक सचाई
है। क्योंकि
वह अनुभव गहरा
है और फिर
उसके बाद जगत
का धक्का गहरा
है। अभी किसी
मनोवैज्ञानिक
ने इस बात को
और भारतीय
चिंतन को जोड़ा
नहीं, नहीं
तो उन्हें बड़ी
हैरानी होगी।
अगर वे उस
चिंतन को
जोड़ेंगे तो
भारतीय मन की
यह आकांक्षा
कि जन्म से
कैसे छुटकारा
हो, मरण से
कैसे छुटकारा हो,
तत्काल
उनको खयाल में
आ जाएगी कि यह
जन्म से छुटकारे
का मतलब है कि
गर्भ से जो
धक्का लगा है,
उससे कैसे
छुटकारा हो? जन्म लेने
से जो धक्का
लगा है, उससे
कैसे छुटकारा
हो?
मोक्ष
की जो हमारी
धारणा है, वह विराट
गर्भ की है।
उसे हमने
हिरण्यमय
गर्भ कहा भी
है, 'दि अं
आफ दि डिवाइन'। वह जो
परमात्मा का
गर्भ है, उसमें
मैं ऐसे लीन
हो जाऊं जैसे
मां के गर्भ में
था। न कोई
चिंता, न
कोई पीडा, न
पराये का पता।
लेकिन बच्चा
बाहर आता है
तो उसे जगत
दिखायी पड़ता
है।
बीज
टूटता है, अंकुरित
होता है तो
उसे सूरज के
दर्शन होते हैं।
जहां तक हमारी
स्थिति है, जैसे हम हैं,
अभी हम
अहंकार की खोल
में बंद हैं।
उसके पार हमें
कुछ नहीं
दिखायी पड़ता।
मैं—ही—मैं
दिखायी पड़ता
हूं। अगर कभी
थोड़ी बहुत झलक
किसी की मिलती
भी है तो वह भी 'मेरे' होने
के कारण मिलती
है। 'मेरा'
मित्र है, 'मेरा ' भाई
है, 'मेरी' पत्नी है, 'मेरा' पति
है। तो मेरे
से कहीं थोड़ा—सा
संबंध जुड़ता
है तो थोड़ी—सी
झलक मुझे
मिलती है। बस
यही मेरा जगत
है। इसके पार
जो विराट फैला
हुआ है, उसका
मुझे कोई पता
नहीं है। धर्म
एक पुनर्जन्म
है, एक 'रिबर्थ
'। एक और
गर्भ को तोडना
है। यह अहंकार
को भी तोड़
देना है।
लेकिन यह
अहंकार तभी
टूटे, जब
मेरे खंडों का
जो जोड़ है
उसके पार
मुझमें कोई
अंकुरण शुरू
हो जाए। कुछ
भिन्न मेरे
भीतर जागने
लगे, मेरे
जोड़ से ज्यादा।
जिस दिन
व्यक्ति को
खंडों के बीच
अखंड की प्रतीति
शुरू होती है,
उसी दिन
ब्रह्म की
यात्रा पर हम
निकले, ऐसा
जानना।
पहली
बात कि अखंड
खंडों का जोड़
नहीं है। इसे
हम और थोड़ा इस
तरह से समझ
लें तो शायद
खयाल में आ
जाए। क्योंकि
बात तो कठिन
है। और अनुभव
की न होने से
और कठिन हो
जाती है समझना।
एक
से दस तक की
गिनती है, यह सिर्फ
जोड़ है। एक—एक
को दस बार जोड़
देने से दस हो
गया। अगर एक—एक
को दस बार
निकाल लेंगे
तो पीछे शून्य
हो जाएगा, कुछ
बचेगा नहीं।
तो दस खंडों
का जोड़ है।
जोड़ से ज्यादा
कुछ भी नहीं
है दस में।
लेकिन
एक कविता है, उसमें
जितने शब्द
हैं उनका जोड़
ही नहीं है
वहां, उनसे
थोड़ी ज्यादा
है। वह जो
थोड़ी ज्यादा
है, वही
गणित और काव्य
का फर्क है।
अगर कोई कहे
कि यह सिर्फ
शब्दों का जोड़
है तो वह गलत
कह रहा है। जब
एक कविता को
आप पढ़ते हैं, उसके शब्द
भूल भी जाएं
तो भी कुछ भनक
आपके भीतर शेष
रह जाती है।
शब्द याद भी न
रह जाएं तो भी
उस काव्य का
जिस भांति से
हृदय में
स्पर्श हुआ था,
वह पीछे छूट
जाता है। अगर
कविता के सारे
शब्दों को अलग
निकाल कर रख लें,
एक कागज पर
क्रमवार लिख
दें, तो
उनको पढ़ने से
कुछ भी भाव
पैदा नहीं
होता। वह
कविता के
उन्हीं
शब्दों को
दूसरे ढंग से
जमा दें, सब
काव्य बिखर
जाता है, विसर्जित
हो जाता है।
कविता को पढ़ते
वक्त जो आपके
भीतर अनुभूति
होती है वह
शब्दों का जोड़
नहीं है, जोड़
से कुछ ज्यादा
है। शायद इसे
भी समझना थोड़ा
कठिन हो।
तो
ऐसा समझें, एक
चित्रकार
केनवस पर
चित्र बनाता
है, रंगों
से बनाता है, लेकिन चित्र
रंगों का जोड़
नहीं है। वे
ही रंग पिकासो
के हाथ में
कुछ और हो
जाते हैं। वे
ही रंग वानगॉग
के हाथों में
कुछ और हो
जाते हैं। वे
ही रंग आप भी
पोत डालें तो
कुछ भी नहीं
होते। यह भी
हो सकता है कि
आप ज्यादा
कीमती रंग और
ज्यादा रंग
केनवस पर पोत
डालें, और
पिकासो
साधारण से रंग
को उठाकर
केनवस पर फेंक
दे तो भी
केनवस कुछ और
हो जाता है।
निश्रय ही
रंगों का जोड
नहीं है।
चित्र जोड़ से
कुछ ज्यादा है।
रंग से प्रकट
होता है, लेकिन
रंग ही नहीं है।
कविता शब्द से
प्रकट होती है,
लेकिन वह
शब्द ही नहीं
है।
एक
वीणावादक
वीणा पर चोट
कर रहा है, यह सिर्फ
तार पर की गयी
चोट नहीं है।
यह चोट कोई भी
कर सकता है, संगीत उससे
पैदा नहीं
होता। इस चोट
में भी एक
भीतरी समन्वय
है। इस चोट
में भी चोट से
ज्यादा एक गुण
है। यह संगीत
जो सुनायी पड़
रहा है, इस
सुनायी
पड़नेवाले
संगीत में एक
छिपा हुआ संगीत
भी है। वह
छिपा हुआ
संगीत प्रकट
हो रहा है इस
संगीत से, लेकिन
इसका जोड़ नहीं
है।
जोड़
का मतलब होता
है, खंडों
में जितना है,
जोड़ में भी
उतना ही होगा।
जोड़ से ज्यादा
का अर्थ होता
है, खंडों
में जो नहीं
दिखायी पड़ता
था, वह जोड़
में प्रगट
होता है। जोड़
खंडों के जोड़
से ज्यादा अगर
हो तो सावयव, 'आर्गनिक यूनिटी'
पैदा हो
जाती है।
कई
बार ऐसा होता
है कि इन
दोनों में हम
फर्क नहीं कर
पाते हैं। और
अगर फर्क न कर
पाएं तो जीवन
का एक
बहुमूल्य आयाम
खो जाता है।
हम फर्क नहीं
कर पाते हैं।
पहली बात तो
हमारी समझ में
आ जाती है, दूसरी
बात हमारी समझ
में नहीं आती।
इसे ऐसा समझें।
मेरे
शरीर को काट
डाला जाए, सब खंड
अलग रख लिए
जाएं और फिर
सारे खंडों को
जोड़ कर मुझे
खड़ा कर दिया
जाए। मेरे
सारे खंड अलग
कर लिये जाएं
और फिर सारे खंडों
को जोड़कर खड़ा
कर दिया जाए।
फिर उस मोटर
का इंजिन है, उसको खोलकर
एक—एक टुकड़ा
अलग कर दिया
जाए और फिर
सारे टुकड़े जोड़
दिये जाएं। तो
फर्क पता
चलेगा कि मोटर
का इंजिन
अंगों का एक
जोड़मात्र था।
तोड़ दो, फिर
जोड़ दो। फिर
इंजिन शुरू हो
जाता है।
लेकिन आदमी के
शरीर को तोड़
दो, फिर
बिलकुल वैसा
ही जोड़ दो, कुछ
भी शुरू नहीं
होता। कोई चीज
खो गयी। जो
जोड़ से ज्यादा
थी वह खो गयी।
इसका
मतलब यह हुआ
कि जो जोड़मात्र
है, उसको
हम विश्लेषण
से समझ सकते
हैं। जो जोड़
से ज्यादा है,
उसे हम विश्लेषण
से कभी नहीं
समझ सकते।
इसलिए अनेक
बार ऐसा हो
जाता है कि
व्याकरण में
जो बहुत गहरा
निष्णात है वह
काव्य को
समझने में
असमर्थ हो
जाता है।
क्योंकि वह
केवल जोड़
जानता है।
भाषा के नियम
जानता है, भाषा
का गणित जानता
है, सब
जानता है, लेकिन
भाषा में कुछ
ऐसा भी प्रकट
होता है जो
नियम के पार
है, जो
गणित से दूर
है, जो
व्यवस्था का
हिस्सा नहीं
है—व्यवस्था
में भीतर
प्रकट जरूर
होता है लेकिन
व्यवस्था के
बाहर से आता
है, उतरता
है—वह चूक
जाता है।
इसलिए
भाषाशास्त्री
जितना ज्यादा
भाषा को जानता
है, उतना
ही मुश्किल हो
जाता है उसे काव्य
को समझना।
क्योंकि
काव्य की समझ
एक दूसरे ही
आयाम की मांग
करती है। वह
आयाम है कि
जीवन—इकाई खंड
का जोड नहीं
होती, जोड़
से ज्यादा
होती है। और
वह जो ज्यादा
है वह सिर्फ
प्रकट होता है।
अगर आपने तोड़
दिया तो वह
अप्रकट हो
जाता है, वह
खो जाता है।
इस
सूत्र में इस गहन
सत्य की
उद्घोषणा की
गयी है। ऋषि
ने कहा है— 'मैं छोटे—से—छोटा
और बड़े—से—बड़ा
हूं। दोनों
मैं ही हूं।
ऐसा मत सोचना
कि मैं छोटे—से—छोटा
हूं तो मैं बड़े—से—बड़ा
कैसे हो
सकूंगा? इस
सूत्र में ऋषि
कह रहा है कि
खंड भी मैं ही
हूं। और अखंड
भी मैं ही हूं।
क्षुद्रतम
में भी मैं ही
हूं और
विराटतम में
भी मैं हूं।
इसका मतलब हुआ
कि क्षुद्र और
विराट दो
चीजें नहीं
हैं, संयुक्त
हैं। नहीं तो
मैं दोनों में
कैसे हो
सकूंगा? इस
अंगुली में
मैं ही हूं और
इस पूरे शरीर
में भी मैं ही
हूं। असल में
मेरा होना एक
विस्तार है, जो क्षुद्र से
लेकर विराट तक
फैला हुआ है।
या ऐसा कहें
कि क्षुद्र और
विराट मेरे ही
दो छोर हैं, सूक्ष्म—से—सूक्ष्म,
जहां दर्शन
समाप्त हो
जाता है और
दिखायी नहीं पड़ता,
वहां भी मैं
हूं। और विराट—से—विराट,
जहां दर्शन
को सीमा नहीं
मिलती, अनंत
हो जाता है, वहां भी मैं
ही हूं। यहां 'मैं' से
अर्थ ऋषि का
नहीं है। यहां
'मैं' से
अर्थ अहंकार
का नहीं है।
यहां ‘मैं'
से अर्थ उस
साक्षी का है,
जिसकी
पिछले सूत्र
में चर्चा की
गयी है। उस
साक्षी का है।
उस साक्षी का
अनुभव होते ही
क्षुद्र और
विराट दोनों
मेरे छोर हैं।
और
यह क्षुद्र और
विराट— अनेक
दिशाओं में
फैला हुआ है।
जिसे जीसस ने
कहा है 'बिफोर
अब्राहम आइ
वॉज' — अब्राहम
था, उसके
पहले भी मैं
था। अब्राहम
को हुए हजारों
वर्ष हो चुके
थे जीसस के
वक्त में।
अब्राहम के
पहले मैं था, इसका क्या
मतलब? अर्जुन
से कृष्ण ने
कहा है कि इस
गीता को जो मैं
तुझे कहता हूं
मैंने पहले
फलां ऋषि को
कहा था। उसके
पहले फलां ऋषि
को कहा था।
उसके पहले
फलां ऋषि को
कहा था। और इन
ऋषियों को हुए
हजारों वर्ष
हो चुके थे।
यह
कृष्ण और जीसस
क्या कह रहे
हैं? ये
यह कह रहे हैं
कि समय के
आयाम में जो
प्रथम है वह
भी मैं हूं और
समय के आयाम
में जो अंतिम होगा
वह भी मैं हूं।
यह जो समय की
धारा है, इसमें
प्रथम और
अंतिम जुड़े
हैं। यह समय
की पूरी धारा
मेरी ही धारा
है।
क्षुद्रतम कण
है, उसमें
भी मैं हूं।
और एक विराट
सूर्य है, उसमें
भी मैं हूं।
यह क्षेत्र, 'स्पेस ' के
दो छोर हैं.
छोटे—से—छोटा,
बड़ा—से—बड़ा।
पहला, अंतिम
: ये समय के छोर
हैं। हर आयाम
में एक का ही
विस्तार है।
ऊपर
से देखने से
बहुत कठिन
होगा मालूम कि
एक क्षुद्र कण
पड़ा है आपके आंगन
में, वह
भी वही है, और
यह विराट जगत
भी वही है।
गणित मुश्किल
में पड़ेगा।
क्योंकि गणित
कैसे मान सकता
है कि यह छोटा—सा
कण और यह
विराट जगत, दोनों एक
हैं। गणित
कहेगा यह छोटा—सा
कण है, कहां
यह विराट जगत!
कहां यह विराट
जगत, कहां
यह छोटा—सा कण!
कहां यह घास
की दूब और
कहां यह विराट
जीवन! लेकिन
घास के एक
छोटे—से तिनके
में भी वही
जीवन प्रगट हो
रहा है जो एक
महासूर्य में
जल रहा है।
इसे
अगर हम वैज्ञानिक
ढंग से भी
समझना चाहें, तो समझ
सकते हैं।
थोड़ी सहायता
मिलेगी।
कभी
आपने खयाल न
किया होगा कि
अगर वैज्ञानिक
गणनाओं को भी
हम थोड़ी—सी
गहराई में
खोजना शुरू
करें और वितान
को सीमा में न
बांधें और वैज्ञानिक
बुद्धि को एक
मतांधता न
बनाएं तो
विज्ञान से भी
झलकें धर्म की
ही मिलना शुरू
हो जाती हैं।
क्योंकि अंतत:
विज्ञान भी
उसी जगह तो
काम कर रहा है, उसी जीवन
पर, जिस पर
धर्म। कहीं—न—कहीं
उसकी प्रतीतियां
भी धर्म की
अनुभूतियों
से कुछ—न—कुछ
संबंध तो
बनाएंगी ही।
क्योंकि
दोनों का काम
तो एक ही जगह
चल रहा है, एक
ही जीवन पर।
एक छोटा—सा
घास का तिनका
है, उसके
भीतर जीवन का
विज्ञान में
क्या अर्थ है?
उसके भीतर
भी जीवन का
अर्थ वही है
जो आपके भीतर
है, एक
महासूर्य के
भीतर है।
महासूर्य
के भीतर क्या
हो रहा है? बड़े
पैमाने पर हो
रहा है। हमारी
पृथ्वी जितनी
बड़ी है, हमारा
सूर्य उससे
साठ हजार गुना
बड़ा है। लेकिन
यह बहुत छोटा,
'मीडियाकर'
सूर्य है।
सूर्य यह कोई
बहुत बड़ा नहीं
है। इससे बहुत
बड़े—बड़े सूर्य
जगत में हैं।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
कोई दो अरब
सूर्य सारे
जगत में हैं।
जिनको आप रात
में तारे कहते
हैं वे
महासूर्य हैं।
सिर्फ फासला इतना
ज्यादा है कि
वे छोटे तारे
दिखायी पड़ते
हैं। यह हमारा
सूर्य उनके सामने
बहुत छोटा है।
इसकी कोई गणना
नहीं है। इस
विराट जगत में
अगर इस सूर्य
का आप पता
पूछने जाएं तो
पता लगाना
बहुत मुश्किल
होगा कि आप
किस सूर्य की
बात कर रहे
हैं।
जिस
दिन हम
अंतरिक्ष
यात्रा में
सफल हो
जाएंगें और
दूर की यात्रा
पर आदमी निकलेगा, उस दिन
अगर हमें कहीं
किन्हीं
दूसरी
पृथ्वियों पर—
और वैज्ञानिक
कहते हैं कि
कम—से—कम पचास
हजार ग्रहों
पर जीवन है, कम—से—कम
होना चाहिए—तो
उन ग्रहों पर
अगर हम कभी
पहुंचेंगे तब
उनको पहली दफा
पता चलेगा कि
एक सूरज और भी
है जिसके पास
एक छोटी—सी
पृथ्वी पर
जीवन है। यह
जो दो—तीन अरब
सूर्यों का
विस्तार है, इनमें भी
जीवन का जो
सूत्र है वह
वही है जो एक छोटे—से
घास के तिनके
में है। वैज्ञानिक
उसे कहते हैं,
'आक्सीडाइजेशन
'। वे कहते
हैं कि छोटा—सा
तिनका भी हवा
से आक्सीजन को
पीता है और
भीतर जलाता है।
उसके जलने से
ही जीवन चलता
है। जैसे दीया
आपका जल रहा
है। आपने कभी
खयाल किया कि
तूफानी हवा चल
रही है और
दीया जल रहा
हो तो यह हो
सकता है कि
तूफानी हवा
में दीया बच
जाए, लेकिन
बचाने के लिए
अगर आप एक
बर्तन उस पर
ढांक दें, तो
जल्दी बुझ जाएगा।
क्योंकि
बर्तन के भीतर
की आक्सीजन
जैसे ही दीया
पी लेगा, जला
लेगा, फिर
मरेगा, फिर
बच नहीं सकता।
वह दीया पूरे
वक्त हवा की
आक्सीजन को
लेकर जला रहा
है।
आप
भी वही कर रहे
हैं। पूरे
वक्त जो श्वास
चल रही है, वह
आक्सीजन लेने
के लिए चल रही
है, और आप
के भीतर एक
अग्रि है जो
उस आक्सीजन को
जला रही है।
इसलिए आपकी
श्वास बंद कर
दें और प्राण
छूट गये। जब
आप दीये पर
बर्तन ढांक
देते हैं, आपने
उसकी श्वास
बंद कर दी, प्राण
छूट गये। एक
घास के ऊपर
बर्तन को ढांक
दें, आपने
उसकी श्वास
बंद कर दी।
प्राण छूट
जाएंगे।
एक
खूबसूरत पौधे
को घर के भीतर
लगाकर रख लें, दो दिन
में पाएंगे कि
उसका प्राण
जाने लगा।
क्योंकि उसे
जो जीवंत, जो
प्रक्रिया थी
उसके भीतर
वितान के
हिसाब से वह
इतनी थी कि वह
अपने भीतर हवा
को ले जाकर
उसमें से
आक्सीजन जला
रहा है। और जब
आक्सीजन जल
जाती है, तब
जो कार्बन बच
जाता है उसको
बाहर फेंक रहा
है। हम भी
फेंक रहे हैं,
पूरे वक्त।
इसलिए अगर एक
भीड़— भरे कमरे
में आप सो
जाएं और सब
तरफ से कमरा
बंद हो, तो
रात— भर में
सारे लोग मर
सकते हैं।
क्योंकि अगर
कमरे की
आक्सीजन चुक
जाए और सब कार्बन
को फेंकते चले
जाएं और फिर
मजबूरी में कार्बन
ही पीना पड़े, तो आप मर
जाएंगे।
चाहे
महासूर्य जल
रहा हो और
चाहे एक घास
का तिनका जी
रहा हो, और चाहे एक
बुद्ध जी रहे
हों, जीने
का नियम एक ही
है। सब अपने—अपने
पैमाने पर
प्राणवायु को
जला रहे हैं, विज्ञान के
हिसाब से। तो
अगर हम यह भी
समझें तो भी
पता लगेगा कि
क्षुद्र—से—
क्षुद्र में
और विराट—से—विराट
में एक ही
जीवन है।
कुछ
वैज्ञानिकों
को संदेह है
कि पृथ्वी भी
श्वास लेती है।
पृथ्वी भी
श्वास लेती है; रोएं—रोएं
छिद्र—छिद्र से।
और इसीलिए कोई
भी पृथ्वी
जीवित नहीं हो
सकती अगर उसके
पास कम—से—कम
दो सौ मील का
वायु का घेरा
न हो। यह
हमारी पृथ्वी
भी, दो सौ
मील तक वायु
का घेरा है
इसके चारों
तरफ। इसलिए अब
तो
वैज्ञानिकों
को सूत्र मिल
गया है कि जिस
मह के पास भी
वायु का घेरा
है, अगर
उसमें कार्बन
और आक्सीजन की
एक निश्चित
मात्रा है, तो वहां
जीवन होगा।
क्योंकि वह
पृथ्वी जीवित
है। इसका मतलब
हुआ कि कुछ पृथ्वियां
जीवित हैं, कुछ पृथ्वियां
मृत हैं।
लेकिन जो आज
मृत है, वह
कभी जीवित थी।
और आज जो
जीवित हैं, वह कभी मृत
हो जाएंगी।
इनकी जीवन—प्रक्रिया
लंबी है, यह
दूसरी बात है
कि हम कई बार
मरते हैं और
जीते हैं—अनेक—अनेक
बार— और
पृथ्वी जीती
रहती है।
पहाड़
भी श्वास लेते
हैं। पहाड़ों
में भी मुर्दा
पहाड़ हैं और
जिंदा पहाड़
हैं। जिस
पहाड़ी पर हम
बैठे हुए हैं, यह एक मरी
हुई पहाड़ी है।
यह कभी जीवित
थी। यह जगत की
पुरानी—से—पुरानी
पहाड़ी है।
हिमालय इस
पहाड़ी के
सामने बच्चा
है। लेकिन
हिमालय अभी
जीवित है। यह
जानकर आप
हैरान होंगे
कि हिमालय पर
भागने का
संन्यासी का
आकर्षण गहरे
में कुछ और है।
हिमालय इस
पृथ्वी पर
थोड़े—से जीवित
पर्वतों में
से एक है। अभी
जीवित है, अभी
बढ़ रहा है, अभी
आस ले रहा है।
हिमालय रोज बढ़
रहा है। ऊंचा
होता जा रहा
है। अभी उसमें
गति है, 'ग्रोथ'
है, बढ़ाव
है। जो जीवित
होता है, उस
पर साधना बहुत
आसान हो जाती
है। लेकिन
साधना की
पद्धति पर
निर्भर करेगा।
साधना की
पद्धति पर
निर्भर करेगा
कि कौन—सा
पहाड़? कुछ
साधना की पद्धतियां
ऐसी हैं कि
मुर्दा पहाड़
सहयोगी होता
है।
जैनों
ने जहां—जहां
अपने तीर्थ
चुने हैं, वे सब
मुर्दा पहाड़
हैं। जानकर
चुने हैं।
जैनों की जो
साधना की
पद्धति है, यह मुर्दा
पहाड़ पर
सहयोगी है।
इसलिए जैनों
ने हिमालय को
बिलकुल छोड़
दिया। हैरानी
की बात मालूम
पड़ती है।
हिमालय जैसा
पर्वत जिस देश
में हो, उसमें
एक धर्म उसको
बिलकुल छोड़ दे,
कहीं उससे
संपर्क ही
नहीं बनाए, जरूर कुछ
गहरा कारण
होगा। कारण है।
हिमालय जिंदा
पहाड़ है।
जैनों की जो
पद्धति है, वह गहरे में
तप पर निर्भर
है। जितनी
मुर्दा जगह हो,
तप उतना गहन
हो जाता है।
हिंदुओं
की जो जीवन—पद्धति
है, वह
जीवन को घटाने
की तरफ नहीं
है, बढ़ाने
की तरफ है।
दोनों एक अंत
पर पहुंच जाते
हैं। अगर जीवन
बिलकुल घट कर
शून्य हो जाए,
तो आदमी
विराट में
प्रवेश कर
जाता है। या
जीवन बढ़कर
बिलकुल पूर्ण
हो जाए, तो
भी आदमी विराट
में प्रवेश कर
जाता है। तो
हिंदुओं ने
जितने तीर्थ
चुने हैं, जितने
स्थान बनाए
साधना के, वह
जीवित पहाड़
चुने हैं। और
अगर जीवित
पहाड़ न मिला
तो नदी चुनी
है। यह मजे की
बात है कि कोई
मुर्दा नदी
नहीं होती।
सभी नदियां
जिंदा होती
हैं। क्योंकि
मुर्दा नदी का
मतलब होता है
कि सिर्फ नदी
का रास्ता रह
जाता है।
क्योंकि
मुर्दा नदी का
मतलब होता है
कि सिर्फ नदी
का रास्ता रह
जाता है, पानी
तो सूख जाता
है। तो मुर्दा
नदी का मतलब
होता है कि वह
खो गयी, वह
नहीं है।
जहां
जीवन मिल सकता
था, हिंदुओं
ने वहां, वहां—वहां
अपने साधना के
स्थल चुने।
जहां जीवन खो
गया था, वहां—वहां
जैनों ने अपने
साधना के स्थल
चुने, ताकि
वहां तप में
और गहनता हो
सके, तप
में और गहरा
उतरा जा सके।
जैन—पद्धति
पूर्ण मृत्यु
को उपलब्ध
करने की पद्धति
है। इसलिए 'संघात ' की आशा दी जा
सकी। हिंदू—पद्धति
पूर्ण जीवन को
पाने की
पद्धति है।
परिणाम एक है।
क्योंकि चाहे
जीवन शून्य हो
जाए और चाहे
जीवन पूर्ण हो
जाए—दो छोर
हैं—इनसे आप
बाहर गिर जाते
हैं। पूर्णता
के छोर से
गिरते हैं तो
भी, शून्यता
के छोर से
गिरते हैं तो
भी, बाहर
गिर जाते हैं।
पृथ्वी
भी श्वास ले
रही है, पहाड़ भी
श्वास ले रहा
है, उनकी
प्रक्रिया भी
वही है। जमीन
के भीतर कोयले
की खदानें हैं।
विज्ञान कहता
है कि वह जमीन
के द्वारा जो
कार्बन
इकट्ठा होता
है, वही है।
आपके भीतर भी
कोयला इकट्ठा
होता है। वही
कोयला इकट्ठा
हो—होकर आपको
बूढ़ा करता है।
जितना कार्बन
इकट्ठा होता
जाता है, उतने
आप बूढ़े होते
चले जाते हैं।
जिस दिन
कार्बन की
मात्रा इतनी
हो जाती है कि
वह आपके जीवन
से ज्यादा हो
जाता है, उस
दिन आप मरने
के करीब पहुंच
जाते हैं। जिस
दिन आप मरते
हैं, विज्ञान
की भाषा में, उस दिन आप
कार्बन हो गये।
उस दिन आप में
आक्सीजन न रही,
बात समाप्त
हो गयी। आपका
यंत्र टूट गया।
अगर हम इसे
जीवन की
प्रक्रिया
मान लें, है
यह जीवन की
प्रक्रिया—कम—कम—कम
जीवन के प्रकट
होने की; जीवन
यही नहीं है, लेकिन जीवन
के प्रकट होने
का अवसर यही
है कि वहां एक
विशेष संतुलन 'आक्सीडाइजेशन'
का, आक्सीकरण
का एक विशेष
संतुलन चाहिए—तो
सारा विराट
जगत इसी एक ही
प्रक्रिया से
जीता है। और
सारा विराट
जगत एक ही आंदोलन
से जीता है।
पृथ्वी श्वास
लेती है तो
ठीक है।
इधर
कुछ रूसी
वैज्ञानिकों
का खयाल बनना
शुरू हुआ है
कि जैसे हमारी
छाती फूलती है
और सिकुड़ती है
श्वास लेने
में, ऐसे
पृथ्वी
प्रतिपल थोड़ी
बड़ी और छोटी
होती है। बहुत
बार शायद
पृथ्वी के इसी
हड़कंप से बहुत
से हलन—चलन
पैदा हो जाते
हैं। आज नहीं
कल यह बात
शायद साफ हो
जाएगी कि
पृथ्वी पर भी
हृदय के दौरे
पड़ जाते हैं।
न केवल पृथ्वी
बल्कि पूरा
विश्व भी, 'यूनिवर्स'
भी श्वांस
लेता है और
पूरा विश्व भी
छोटा और बड़ा
होता है। जैसे
हमारी छाती
फूलती और....। निश्चित
ही उसके छोटे—बड़े
होने का समय
बड़ा लंबा होगा।
क्योंकि उसकी
श्वास बड़ी
गहरी होगी।
हिंदुओं ने
इसको प्रतीक
में कहा है कि
जो हमारे लिए
एक कल्प है, वह ब्रह्मा
के लिए एक दिन
है। तो जो
हमारे लिए
करोड़ों श्वास
होगी, वह
ब्रह्मा के
लिए शायद एक
श्वास हो।
शायद वह श्वास
इतनी लंबी
होगी कि हम उस
श्वास में
अनेक बार
जन्मेंगे और
मरेंगे।
इसलिए हमें
उसका पता भी
नहीं चलेगा।
जब
हम श्वास ले
रहे हैं तब
उसमें भी
जीवाणु मर रहे
हैं, उनको
कभी पता नहीं
चलेगा। हमारी
एक श्वास भीतर
जाती है, उस
बीच हमारी
श्वास में न—मालूम
कितने करोड़
जीवाणु जी
लेते हैं, मर
जाते हैं।
हमारा होंठ एक
बार दूसरे
होंठ से मिलता
है, उस
मिलने के क्षण
में न—मालूम
कितने करोड़
जीवाणु जी
लेते हैं—जन्म
लेते हैं, मर
जाते हैं।
उन्हें पता भी
नहीं चलेगा कि
यह होंठ वापिस
खुलेगा। जो
हमारी श्वास
में जन्मा, जिआ, जन्म
दे गया दूसरों
को, मर गया,
उसे कैसे
पता चलेगा कि
यह श्वास अब
बाहर भी लौटेगी?
पूरा
विश्व श्वास
ले रहा है।
इसी को
हिंदुओं ने
कहा है कि जो
अंड में है, जो पिंड
में है, वही
ब्रह्मांड
में है।
विस्तार है।
जो अणु में है,
वही विराट
में है।
विस्तार का
फर्क है।
लेकिन ऋषि
कहता है, 'मैं
छोटे—से—छोटा
और बड़े—से—बड़ा
हूं। इस
विचित्र
संसार को मेरा
ही रूप मानना
चाहिए। मैं ही
पुरातन पुरुष
हूं जो सबका
आधार है। मैं
ही शिव का रूप
हूं और मैं ही
हिरण्यमय हूं।'
इस
विचित्र
संसार को मेरा
ही रूप मानना।
विचित्र
जानकर कहा है।
विचित्र
इसलिए कहा है
कि गणित इसे
समझा न पाएगा।
तर्क इसे हल न
कर पाएगा। यही
इसकी
विचित्रता है।
और जो इसे
तर्क से हल कर
लेता है, वह विचित्र
नहीं है। गणित
जिसे निबटा
लेता है, वह
विचित्र नहीं
है। विचित्र
का मतलब ही
होता है कि
गणित जहां असमर्थ
है, तर्क
जहां व्यर्थ
है, हिसाब—किताब
से कुछ पकड़
में नहीं आता
है—बल्कि उसकी
पकड़ में आ
जाता है जो सब
हिसाब—किताब
छोड्कर छलांग
लगा जाता है।
यह संसार
विचित्र
इसलिए है कि
कभी—कभी पागल
इसे समझ लेते
हैं और
बुद्धिमान
इसे चूक जाते
हैं।
शायद
हमारी सभी की
पीड़ा ही यही
है कि अति बुद्धिमत्ता
है। शायद पीड़ा
ही यही है कि
हमने सब नियम खोज
लिए हैं कि
ठीक क्या है, सत्य
क्या है, सही
क्या है, और
जो उसमें नहीं
बैठता तो हम
मुश्किल में
पड़ जाते
यूनान
ने तर्क को
जन्म दिया और
दो—ढाई हजार
वर्षों में
उसकी काफी
प्रक्रिया को
विकसित किया।
लेकिन मजे की
घटना यूरोप
में घटी। और
वह घटना यह
घटी कि यूनान
ने तर्क के
आधार से सत्य
को खोजने की
जो चेष्टा की
थी, सत्य
तो नहीं मिला
दो हजार
वर्षों की
चेष्टा में, मिला कुछ और।
और पश्चिम में
यूनान की जड़ों
पर बढ़े हुए
पौधे का जो आज
फूल खिला है, वह कहता है, जीवन में
कोई सत्य है
ही नहीं; जीवन
अर्थहीन है 'मीनिंगलेस'
है। जीवन 'एब्सर्ड' है, बेमानी
है। सत्य तो
मिला नहीं, अर्थ तो
मिला नहीं, जीवन का
अभिप्राय तो
मिला नहीं, जीवन का
प्रयोजन तो
मिला नहीं, किसलिए है
इसका उत्तर तो
मिला नहीं, लेकिन तर्क
जैसे—जैसे
बढ़ता चला गया
वैसे—वैसे
निष्पत्ति
हाथ में यह
आयी कि सत्य
है ही नहीं और
सत्य की सारी
बातचीत केवल
शब्दों का खेल
है।
इसलिए
पश्चिम में
अनुभव किया जा
रहा है कि
दर्शन मर गया
है।
ऑक्सफोर्ड हो
या कैंब्रिज
हो, या
हार्वर्ड हो,
वहां जो आज
पढ़ाया जा रहा
है दर्शन के
नाम पर, वह
दर्शन बिलकुल
नहीं है। वहां
आज यह पढ़ाया
जा रहा है कि
दर्शन का जन्म
ही भाषागत भूल
से हुआ है। 'लिंग्विस्टिक'
है मामला, भाषा का
मामला है। यह
गलती भाषा की
हो गयी है। यह
भाषा की वजह
से आदमी ऐसे—ऐसे
सवाल उठा लेता
है, फिर
उनके प्रश्र
पूछने लगता है।
कोई सत्य नहीं
है। सत्य केवल
भाषागत खेल है।
और कोई अर्थ
नहीं है जीवन
में, अर्थ
सब कल्पित है।
और जीवन में
शृंखलाबद्ध
सूत्र नहीं है,
जीवन एक
अराजकता है।
तर्क
यहां ले जाएगा।
उसका कारण है, क्योंकि
जीवन विचित्र
है। जीवन एक
रहस्य है। और
रहस्य को
समझने जब भी
कोई तर्क से
चलेगा तो असल
में वह नहीं
समझने का तय
करके चला। मैं
कहता हूं कि
मुझे किसी से
प्रेम है। अब
प्रेम एक
विचित्रता है।
आप कहेंगे, कहां है
दिखा दें, तब
मैं मुश्किल
में पडूंगा।
अगर मैं
दिखाने की भी
कोशिश करूं तो
क्या करूंगा?
यही कर सकता
हूं कि
प्रेमपूर्ण
व्यवहार करूं।
आप कह सकते
हैं यह नाटक
नहीं होगा, इसका क्या
भरोसा? यह
नाटक हो सकता
है। और हम
प्रेम के इतने
नाटक देख रहे
हैं कि संभावना
यही है कि
नाटक हो।
इसमें भीतर
कोई 'आथेंटिक',
कोई
प्रामाणिकता
है, इसका
क्या सबूत है?
हनुमान
से कोई पूछता
है, तो
अपनी छाती
फाड़कर बता
देते हैं। मगर
अगर अभी इस
वक्त बताएंगे
तो हम पकड़कर
उनकी जांच
करवाएंगे कि
जरूर कोई
चालबाजी है।
इसमें राम जो
अंदर दिखायी
पड़ते हैं, पहले से कुछ
इंतजाम किया
हुआ है। 'प्रि—अरेंज्ड'
है, होना
चाहिए।
अन्यथा हृदय
में कहां राम
होनेवाले हैं।
क्या प्रमाण
है कि प्रेम
है? अब तक
तो कोई प्रमाण
दिया नहीं जा
सका। यह भी
मजे की बात है
कि आप सब
विचार करते
हैं— भला सब
प्रेम न करते
हों, विचार
तो करते हैं—लेकिन
इसे अब तक भी
सिद्ध नहीं
किया जा सकता
कि आप विचार
करते हैं।
क्योंकि क्या
प्रमाण है? आपके
मस्तिष्क को
काटा—पीटा जाए,
वहां कोई
विचार नहीं
मिलते.। आपके
हृदय को काटा—पीटा
जाए, वहां
कोई प्रेम
नहीं मिलता।
आपके हृदय में
फुकस मिलता है
जो श्वास को
चलाने का
यंत्र है।
आपके
मस्तिष्क में
बहुत—बहुत
सूक्ष्म
स्रायुओं का
जाल मिलता है,
विचार तो
कोई मिलते नहीं।
इन स्रायुओं
के जाल में
विचार कहां
होते होंगे, यह भी साफ
नहीं हो पाता।
कैसे होते
होंगे, यह
भी कठिनाई
मालूम पड़ती
है। क्योंकि
विचार और
स्नायु इनका
कोई तालमेल नहीं
दिखता।
यह
बिजली का तार
फैला हुआ है।
इस तार को अगर
कोई काटकर
जांच करे तो
बिजली नहीं
मिलेगी। तार
की जांच से
तार ही मिलेगा, बिजली न
मिलेगी।
बिजली थी जरूर,
बल्व जलता
था जरूर, लेकिन
तार के काटने
से नहीं मिलती
है। तार से
कुछ भिन्न
उसमें
प्रवाहित
होता है।
काटते से ही
प्रवाह बंद हो
जाता है। जैसे
ही मस्तिष्क
को काटते हैं,
प्रवाह बंद
हो जाता है।
एक
नयी चिकित्सा
की दिशा पैदा
होनी शुरू हुई
है जो कहती है
कि आदमी के
संबंध में
जितने भी अभी
तक के निदान
हैं, 'डाइग्रोसिस'
का ढंग है, वह सब गलत है।
जैसे समझ लें
कि आप बीमार
हैं और आपके
खून को निकालकर
जांच की जाती
है, तो नये
विचारक यह कह
रहे हैं कि जो
खून भीतर बहता
है वह जीवित
था, और
आपने बाहर
निकाल लिया वह
मर गया। मरे
की जांच करके
जीवित के
संबंध में जो
निर्णय लिया
जा रहा है, वह
ठीक नहीं है।
शरीर के भीतर
वह खून जिंदा
था, उसका
गुणधर्म और था,
वह जीवन की
धारा में
प्रवाहित था,
उसमें एक
बिजली दौड़ रही
थी जो जीवन था;
आपने उसे
शरीर के बाहर
निकाल लिया, वह बिजली तो
पीछे छूट गयी।
तार हाथ में
आया। बिजली
पीछे छूट गयी,
अब तार की
जांच करके आप
जो निर्णय ले
रहे हैं, उस
निर्णय से आप
बिजली को
प्रवाहित
करने की कोशिश
करेंगे। यह सब
प्रांत है।
शायद
आज नहीं कल
हमें आदमी के
भीतर ही शरीर
को जांचने के
उपाय खोजने
पड़ेंगे। बाहर
मुर्दा हो
जाता है। उसका
गुणधर्म ही
बदल गया।
जीवन
विचित्र है, क्योंकि
तर्क से समझ
में नहीं आता।
और तर्क से जो
समझ में आता
है, उसमें
से जीवन चूक
जाता है, छूट
जाता है, छिटक
जाता है। जैसे
पारे पर कोई
मुट्ठी बांधे
और पारा छिटक जाए,
ऐसा ही जीवन
छिटक जाता है।
मगर अगर हम
जिद्द करते
जाएं कि चाहे
जीवन छिटके, लेकिन हम
तर्क को तो
पूरा करके ही
रहेंगे, तो
आखिर में हम
पाएंगे कि
जीवन व्यर्थ
है। जीवन है
ही नहीं। सब
धोखा है, सब
असत्य है।
फिर
भी इससे कोई
मर तो नहीं
जाता है।
सार्त्र
कितना ही कहता
हो कि जीवन
अर्थहीन है, फिर भी
जिएगा। और
मार्क्सियन
कितना ही कहे
जीवन बेबूझ है,
व्यर्थ है,
जिएगा। और
कोई कुछ भी
कहे, बेबूझ
होने से, व्यर्थ
होने से, अकारण
होने से, अराजक
होने से कोई
मर तो जाता
नहीं। लेकिन
तब उदासी से
जीता है। और
तब जीवन एक
संताप बन जाता
है। तब जीवन
एक बोझ है, जिसे
खींचना पड़ता
है।
यूनान
में एक विचारक
हुआ, पिरहो।
वह कहता था
जीवन इतना
व्यर्थ है कि
आत्महत्या के
सिवाय कोई
सार्थकता
नहीं है।
लेकिन पिरहो
नब्बे वर्ष तक
जिआ, और जब
नब्बे वर्ष का
बूढ़ा हो गया
तो किसी ने
पिरहो से पूछा
कि तुम जिंदगी
भर समझाते रहे
कि जीवन
व्यर्थ है और
आत्महत्या के सिवाय
कोई मार्ग
नहीं दिखायी
पड़ता इससे
छूटने का, तुम
अब तक मरे
क्यों नहीं? तो पिरहो ने
कहा मामला ऐसा
है कि लोगों
को समझाने के
लिए मुझे जीना
पड़ा। कई लोग
मर गये, ऐसी
कथा है कि
पिरहो की मान
कर कई लोगों
ने आत्महत्या कर
ली, कई
शिष्य
आत्महत्या कर
लिये, लेकिन
पिरहो को
मजबूरी में, लोगों को
समझाने के
निमित्त जीना
पड़ा। लेकिन
लोगों को
समझाने की
जरूरत ही क्या
है अगर जीवन
व्यर्थ है? और समझाकर
भी क्या समझ
में आएगा?
कम—से—कम
पिरहो का जीवन
तो सार्थक
मालूम पड़ता है।
समझा रहे हैं।
सफल हो रहे
हैं, कोई
मर रहा है और
वह बेचारे इस
सब के लिए जी
रहे हैं! उनका
जीवन कम—से—कम
सार्थक मालूम
होता है, भला
दूसरों को
उन्होंने
समझा दिया हो
कि व्यर्थ है!
और पिरहो
प्रसन्नता से
जी रहे हैं, क्योंकि
तमाम भक्त उन्हें
मिलते हैं, शिष्य मिलते
हैं। वह
प्रसन्नता से
जी रहे हैं।
अगर
सार्त्र भी जी
रहा है, और जीवन
व्यर्थ है, तो फिर जीना
भारी हो जाएगा।
अल्वर्ट
कामू ने अपनी
एक बहुत
महत्वपूर्ण
किताब इस
वक्तव्य से
शुरू की है कि
एक ही दार्शनिक
प्रश्र है
मनुष्य के
सामने, वह है आत्मघात।
'दि ओनली
मेटाफिजिकल
पालम बिफोर
मैनकाइंड इज सूसाइड'। जीवन नहीं
है सवाल, आत्मघात
है सवाल। और
यह यूनान के
तर्क की दो
हजार साल की
निष्पत्ति, यह भूल है।
भारत
एक दूसरी दिशा
से काम करता
रहा। भारत की
दिशा है जीवन
के रहस्य को, उसकी
विचित्रता को
तर्क से हल
करने की नहीं,
अनुभूति से
प्रवेश करने
की। विचार
करके कोई उपाय
नहीं है
विचित्र को
समझने का।
विचार
दुश्मनी है।
चिंतन से कोई
द्वार नहीं
खुलता। रहस्थ
के समक्ष
चिंतन छूता है।
चिंतन का अपना
मार्ग है।
जहां
रहस्य न हो, वहां
चिंतन का उपाय
है। लेकिन
जहां रहस्य हो,
वहां चिंतन
के कपड़े बाहर
ही उतारकर
नग्न प्रवेश
करना उचित है।
जहां चिंतन का
क्षेत्र न हो—कहा
है वह क्षेत्र
जो चिंतन का
नहीं है? खंड
को जानना हो
तो विचार
उपयोगी है, अखंड को
जानना हो तो
निर्विचार
उपयोगी है।
टुकड़े को
समझना हो तो
तर्क उपयोगी
है; विराट
को, समग्र को
समझना हो, तर्क
उपयोगी नहीं
है।
क्यों? क्योंकि
तर्क काटकर ही
समझता है, विश्लेषण
करके ही समझता
है। तर्क की
पद्धति ही
तोड़ना है।
इसलिए अगर जोड़
को समझना है
तो तर्क से
समझना एकदम
बेमानी है।
अगर तलवार का
काम काटना है,
तो किसी चीज
को जोड़ने के
लिए तलवार का
उपयोग करना
छूता है।
क्योंकि
उसमें तलवार
का कोई कसूर
नहीं है।
तलवार का काम
ही काटना है।
वह है ही
काटने के लिए।
उठायी तलवार
और चले कोई
चीज जोड़ने, तो आखिर में
जोड़ और
मुश्किल हो
जाएगा। जो
जुड़ा था वह और
टूट जाएगा।
तर्क
तलवार है, किसी भी
तथ्य को तोड़ने
के लिए। निश्चित
तोड़ने से भी
बहुत बातें
समझ में आती
हैं। विज्ञान
उस प्रक्रिया
का उपयोग करता
है। वितान है
विश्लेषण, 'एनालिसिस ' तोड़ना, इसलिए
तर्क उपाय है।
धर्म है
संश्लेषण, 'सिंथेसिस', जोड़ना, इसलिए
तर्क नहीं है
उपाय। और अगर
तर्क उपाय
नहीं है तो
फिर यह सूत्र
ठीक कहता है—इस
विचित्र
संसार को मेरा
ही रूप मानना
चाहिए।
विचित्र है
संसार।
अतर्क्य है। 'इल्लाजिकल'
है, 'इर्रेशनल'
है। बुद्धि
की जिद्द करें
तो बाहर ही
खड़े रह जाते हैं।
बुद्धि को
छोड़े, तो
ही भीतर
प्रवेश है।
इसलिए मैंने
कहा कि कभी—कभी
पागल पहुंच
जाते हैं और
बुद्धिमान
अटक जाते हैं।
इसलिए बुद्धिमानों
की नजरों में
जीसस पागल ही
हैं। कुछ
लोगों ने
पश्रिम में
ऐसी किताबें
लिखी हैं, जिनमें
सिद्ध करने की
कोशिश की है
कि जीसस विक्षिप्त
थे। क्योंकि
कोई आदमी अपने
होश में यह
कैसे कह सकता
है कि मैं
ईश्वर का
पुत्र हू!
क्या मतलब इसका?
हिदुस्तान
इतना
हिम्मतवर
नहीं है, नहीं तो हम
कृष्ण को भी
कहेंगे—इस
आदमी का दिमाग
खराब था।
क्योंकि कोई
आदमी कैसे कह
सकता है कि सब
छोड्कर मेरी
शरण में आ! यह
तो निपट
अहंकार मालूम
पड़ता है, यह
तो पागलपन की
आखिरी ऊंचाई
है कि एक आदमी
कहे कि सब
छोड्कर मेरी
शरण में आ; मैं
ही सब कुछ हूं।
अगर
यह सूत्र भी
हम फ्रायडियन
मनस्विद से
पूछेंगे इसका
अर्थ क्या है, तो वह
कहेगा—मैं, छोटे—से—छोटा
और बड़े—से—बड़ा
भी मैं ही हूं—यह
दिमाग खराब हो
गया है! 'न्यूरोसिस'
है। या तो
छोटे हो सकते
हो, या बड़े
हो सकते हो।
दोनों तो एक—साथ
होने की बात
ही गलत है। और
अगर वह सुने
कि यह भी कह
रहा है ऋषि कि
इस विचित्र
संसार को मेरा
ही रूप मानना;
और मैं ही
पुरातन पुरुष
हूं; जिससे
यह सब जन्मा, वह मैं ही
हूं और जिसमें
यह सब लीन
होगा, वह
अंतिम भी मैं
ही हू; तो
वह कहेगा कि
यह आखिरी बात
हो गयी। इस
आदमी ने सब होश
खो दिये। यह
जो 'इगो' है, इतनी
बड़ी हो गयी कि
पुरातन को भी
घेर रही है।
यह अहंकार
इतना बड़ा
गुब्बारा हो
गया कि इसने सब
घेर लिया।
फ्रायडियन
मनस्विद 'अहं
ब्रह्मास्मि'—मैं ब्रह्म
हूं—इस घोषणा
को अहंकार की
आखिरी
विक्षिप्तता
कहेगा। इसके
आगे कुछ भी
नहीं मान सकता।
और अगर तर्क
से चलें, तो
वह ठीक कहता
है। अगर हम यह
मान लें कि
तर्क ही चलने
का एक उपाय है,
तो वह
बिलकुल ठीक
कहता है।
लेकिन बड़े मजे
की बात है कि
जो ऐसा कह
पाता है, उसके
जीवन में ऐसे
फूल खिलते हैं—जो
कह पाता है ' अहं
ब्रह्मास्मि',
उसके जीवन
में ऐसे फूल
खिलते हैं, उसके जीवन
से ऐसा संगीत
बहता है, उसके
जीवन से ऐसी
आनंद की
किरणें फूटने
लगती हैं, उसके
जीवन में
चारों तरफ
शीतल हवाएं
बहने लगती हैं,
न केवल वह
आनंद से भर
जाता है, उसको
जो छू लेता है
निकट से, उसके
पास जो आ जाता
है, वह भी
किसी अपूर्व
प्रसाद का
भागीदार हो जाता
है। लेकिन
फ्रायड, जो
कहता है कि ये
सब पागल हैं, वह रात
अंधेरे में
बिना बिजली
जलाए नहीं सो
सकता। सदा
भयभीत है। जरा—सा
कोई उसके
खिलाफ बोल दे
तो वह इतना
क्रोधित हो
जाता है कि उस
क्रोध में कुछ
भी कर सकता है।
बुद्ध को वह
समझेगा कि वह 'एनार्मल ' हैं, वह
थोड़े चूक गये।
खुद को वह
समझता है 'नार्मल'!
अगर
बुद्ध 'एज्जार्मल '
हैं, तो
फिर 'एज्जार्मल'
होना ही
उचित है। अगर
बुद्ध पागल
हैं, तो
फिर पागल होना
ही उचित है।
अगर फ्रायड
बुद्धिमान है,
तो फिर ऐसी
बुद्धिमानी
सिर्फ
बुद्धिहीन ही
चुनेंगे।
लेकिन
तर्क! फ्रायड
का कसूर नहीं
है। फ्रायड विज्ञानिक
है। बुद्धि
उसके पास
विश्लेषण की
है। संश्लेषण
का उसके पास
कोई उपाय नहीं
है। हाथ में
उसके तलवार है।
चीजों को
काटता है।
काटकर खंड हाथ
लगते हैं, अखंड खो
जाता है। फूल
के टुकड़े हाथ
लगते हैं, फूल
का सौदर्य खो
जाता है; कविता
के शब्द हाथ लगते
हैं, काव्य
खो जाता है।
चित्र के
टुकड़े हाथ
लगते हैं, रंग
केनवस हाथ
लगता है, चित्र
की समपता खो
जाती है। वह
भी क्या करे!
उसकी टेबल पर,
जिस
प्रयोगशाला
की टेबल पर वह
बैठा है, वहां
काटने के
सिवाय कोई
उपाय नहीं है।
काट—काटकर
टुकड़े हाथ
लगते हैं। एक
सुंदरतम
चित्र भी
टुकड़ों में
कुरूप हो जाता
है, बेमानी
हो जाता है।
मेरी
अपनी दृष्टि
यह है कि
सार्त्र और उस
तरह के सारे
विचारक, जो कहते हैं
जीवन 'मीनिंगलेस'
है, उसका
कारण यही है
कि टुकड़े उनके
हाथ में हैं जीवन
के। एक कविता
के पच्चीस
टुकड़े करके
बांट दें लोगों
को, अर्थहीन
हो जाएगी।
अर्थ तो जोड़
में था।
एक
मजेदार घटना
घटी है वानगाग
के जीवन में—एक
डच पेंटर था, अद्भुत।
किसी सी ने
कभी उसको
प्रेम नहीं
किया, चेहरा
उसका कुरूप था।
एक वेश्या ने
सिर्फ दयावश—चेहरे
में और तो कोई
चीज उसको
दिखायी नहीं
पड़ी जिसकी वह
प्रशंसा करे—वानगाग
के कान की
प्रशंसा कर दी
कि तुम्हारे कान
बड़े सुंदर हैं।
यह
पहला मौका था
जीवन में कि
वानगाग के
किसी हिस्से
की किसी ने
प्रशंसा की, किसी
सुंदर सी ने।
वानगाग ऐसा
अभिभूत हो गया
कि घर गया, कान
काटा, कपड़े
में लपेटा और
वेश्या को
भेंट कर आया।
वेश्या तो घबड़ा
गयी। उसने कहा,
यह तुमने
क्या किया? उसने कहा कि
किसी ने कभी
मेरी किसी भी
चीज की तो
प्रशंसा नहीं
कि, तुम्हें
कान इतना पसंद
आ गया तो
मैंने सोचा भेंट
ही कर आऊं।
लेकिन कटा हुआ
कान है, बेमानी
है, अर्थहीन
है। उसमें अगर
कोई अर्थ था
भी तो सारे
शरीर की संयुक्तता
में था। यह
वेश्या इसको
फेंकने से
सिवाय और क्या
कर सकती है?
करीब—करीब
पूरे जीवन के
साथ वैज्ञानिक
के प्रभाव में, तर्कशास्त्री
के प्रभाव में
हमने यही किया
है। सब चीजें
काट डाली हैं।
काटकर सब
चीजें व्यर्थ
हो गयी हैं।
किसी चीज में
कोई अर्थ और
किसी चीज में
कोई अभिप्राय
नहीं रहा है।
और किसी चीज
में कोई रस
नहीं रह गया
है, क्योंकि
जीवन की धार
ही कट गयी है
और सूख गयी है।
सब मुर्दा—मुर्दा
हो गया है।
मृत्यु
हो सकती है
खंडों में, जीवन सदा
अखंड में है।
और यह अखंडता
समस्त आयामों
में है। इसलिए
सूत्र कहता है—पुरातन
पुरुष मैं ही
हूं। सबसे
पहले जो था, वह मैं ही
हूं। सबसे अंत
में जो होगा, वह भी मैं ही
हूं। जिसने
सबको
आच्छादित
किया है, वह
भी मैं ही हूं।
जो सबसे
आच्छादित
होकर भीतर
छिपा है, वह
भी मैं ही हूं।
ये
'मैं' की घोषणाएं
नहीं। इनका 'मैं' से
कोई संबंध
नहीं है। ये
केवल अनुभूत
तथ्य हैं। जो
उन्होंने
जाने
जिन्होंने
तर्क को फेंका
और रहस्य को
अंगीकार किया।
और जिन्होंने
बुद्धि को, बहुत बुद्धि
के साथ प्रयोग
करके देखा और
पाया कि
बुद्धि जीवन
को छीन लेती
है, मृत्यु
को हाथ में दे
देती है। अगर
बुद्धि के हाथ
में सब कुछ
रहा तो जगत एक
मरघट के अतिरिक्त
और कुछ भी
नहीं हो सकता।
जीवन बुद्धि
से बड़ा है। और
जीवन बुद्धि
के पार है। और
बुद्धि का कोई
तालमेल जीवन
से नहीं हो
पाता।
असल
बात यह है कि
बुद्धि केवल
जीवन का एक
उपकरण है, उपादेय।
सीमाओं में, मर्यादाओं
में। जीवन बड़ा
है और विराट
है। क्षुद्र
से जब भी हम
विराट को
समझने चलेंगे
तो क्षुद्र
अपनी सीमाएं
विराट पर भी
थोप देता है।
जीवन को जीकर
जाना जा सकता
है, सोचकर
नहीं। जीवन को
जीवन होकर
जाना जा सकता
है, विचार
कर नहीं। और
जीवन जैसा है,
उसे वैसा ही
जानने की
हिम्मत हो तो
ही जाना जा
सकता है। अगर
पहले से ही हम
तय कर के चलें
कि जीवन ऐसा
होना चाहिए तो
ही स्वीकार
करेंगे, तो
फिर कभी नहीं
जाना जा सकता।
बुद्धि पहले
ही तय करके
चलती है।
बुद्धि
निर्णय पहले
ले लेती है। बुद्धि
कहती है जो
संगत है, वही
सत्य होगा। और
सत्य बिलकुल
असंगत मालूम
होता है। तब
मुश्किल खड़ी
हो जाती है।
बुद्धि
कहती है दो और
दो मिलकर चार
होने ही चाहिए।
और जिंदगी बड़ी
विचित्र है, यहां कभी
दो और दो
मिलकर पांच भी
हो जाते हैं, और कभी दो और
दो मिलकर तीन
भी रह जाते
हैं। जिंदगी
जीवंत है।
मुर्दा चीजों
को अगर जोड़ो
तो दो और दो
मिलकर चार ही
होती हैं।
लेकिन जिंदा
चीजों को जोड़ो
तो कुछ भी हो
सकता है, कुछ
कहा नहीं जा
सकता। कुछ कहा
नहीं जा सकता!
अगर हम दो
प्रेमियों को अलग—अलग
नापे, और
फिर वह प्रेम
में पड़ जाएं
तब नापे, तो
क्या आप समझते
हैं कि दो
मिलकर वह
सिर्फ दो ही
होंगे। वे
हजार गुना बढ़
जाते हैं, दो
ही नहीं होते।
अगर कभी आपने
प्रेम का क्षण
जाना है, तो
आप पाएंगे कि
प्रेम के क्षण
में आपकी न
मालूम कितनी
ऊर्जाएं जग
जाती हैं जो
कभी जगी नहीं
थीं। तो जब दो
प्रेमी मिलते
है तब दो
व्यक्ति नहीं मिलते
है, दो जगत
मिल जाते हैं।
और जोड़ दो
नहीं होता, जोड़ कुछ भी
हो सकता है।
और प्रतिपल
जोड़ बदलता
रहेगा। सुबह
कुछ होगा, दोपहर
कुछ होगा।
सांझ कुछ होगा।
आज कुछ होगा, कल कुछ होगा,
कुछ कहा
नहीं जा सकता।
जिंदगी
बेबूझ है।
तर्क की पकड़
के बाहर है।
तर्क मुर्दा
ढांचे है।
जिंदगी किसी
ढांचे को
मानती नहीं।
जिंदगी सब
ढांचों को
तोड़कर बहती है।
जिंदगी बहती
चली जाती है, कोई नियम
नहीं मानती।
लेकिन अराजक
नहीं है। यह
नियम न मानना
उसकी गहन
स्वतंत्रता
है, अराजकता
नहीं। इस गैर—नियम
में भी एक
गहरी संगति है।
लेकिन वह
संगति उन्हीं
को दिखायी
पड़ेगी जो कि
तर्क की संगति
का ढांचा
जबरदस्ती
बिठाने की
कोशिश न करें।
मैंने
सुना है, एक यूनानी
लोककथा है कि
एक आदमी के
पास एक बहुत
बहुमूल्य
बिस्तर था। एक
बहुमूल्य
चारपाई थी, स्वर्ण की, हीरे—जवाहरातों
से जड़ी। इतनी
महंगी थी
चारपाई, बिस्तर
इतना महंगा था
कि उसे तो
छोटा—बड़ा
नहीं किया जा
सकता था, तो
जब कोई मेहमान
उसके घर आता, उसपर वह उसे
सुलाता, वह
मेहमान को
छोटा—बड़ा कर
देता था। अगर
मेहमान की
टांग बाहर
निकलती तो रात
काट देता।
चारपाई बहुत
कीमती थी और
चारपाई को
छोटा—बड़ा नहीं
किया जा सकता
था। और मेहमान
की सेवा की
दृष्टि से कि
मेहमान को तकलीफ
न हो, अगर
पैर लंबे होते
तो पैर छांट
देता; अगर
गर्दन बाहर
जाती तो गर्दन
छांट देता।
अगर पैर छोटे
होते, तो
दो पहलवान
लगाकर
खिंचायी करवा
देता, ताकि
ठीक से बिस्तर
पर वह आदमी आ
जाए।
वह
आदमी बिलकुल
तर्कयुक्त था।
यह आदमी
बुद्धिमानी
की आखिरी सीमा
था। वही कर
रहा था जो सभी
बुद्धिमान
करते हैं। वही
कर रहा था जो
सभी
तर्कशास्त्री
करते हैं।
ढांचा तय है, आपको हम
छोटा—बड़ा कर
लेंगे। आपके
साथ ढांचा
बदलने वाला
नहीं है।
धर्म
का यही भेद है।
धर्म कहता है
कि हम जीवन
जैसा है उसे
स्वीकार करते
है। और जैसा
है जीवन वैसा
ही उसे
जानेंगे।
जैसा है जीवन
वैसा ही उसे
जिएंगे। हम
कोई बुद्धि को
ऊपर से आरोपित
करने का आग्रह
हमारा नहीं है।
तभी अखंड जाना
जा सकता है।
और तभी रहस्य
में प्रवेश है।
thank you guruji
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