ध्यान
योग शिविर,
दिनांक
10 जनवरी 1972,
प्रात:
माथेरान।
सूत्र
:
मन
आदि चदुर्दश
करणै:
पुष्कलैरादित्याद्यनगृहीतै:
शब्दादीन्
विषयान् स्थूलान्
यदोपलभते
तदाssत्मनो
जागरणम्।
तद्वासनासहितैश्यचतुर्दशकरणै:
शब्दाद्यभावेsपि
वासनामयान्छब्दादीन्
यदोपलभते
तदाssत्मन:
स्वप्नम्।
सुर्यादि
देवताओं की
शीक्यों
द्वारा मन, बुद्धि,
चित्त, अहंकाम
और दस इंद्रियां
–
इन चौदह
करणों द्वारा
जिस अवसथा में
आत्मा शब्द, स्पर्श
आदि स्थूल विषय
को
ग्रहण करती है, उसे
आत्मा की
जाग्रत अवस्था
कहते हैं। शब्द
आदि स्थूल
विषय
न होने पर भी
जाग्रत
अवस्था की शेष
रह गई
वासना के कारण
मन, बुद्धि और
चौदह करणों
द्वारा
शब्दादि
वासनामय
विषयों को जीव
ग्रहण करता है,
मनुष्य
की चेतना की
चार अवस्थाएं
हैं। जाग्रत
से उन पर
विचार
प्रारंभ करते
हैं।
ऋषि
ने कहा है : 'इंद्रियों
और मन के
द्वारा चारों
ओर फैले हुए सूर्य
आदि देवताओं
के प्रति जो
संवेदनशील बोध
की अवस्था है,
वह जाग्रत
है। '
''सूर्य आदि
देवताओं की
शक्तियों के
द्वारा मन, बुद्धि, चित्त,
अहंकार और
दस इंद्रियों
के द्वारा जिस
अवस्था में
आत्मा शब्द, स्पर्श आदि
स्थूल विषय को
ग्रहण करती है,
उसे आत्मा
की जाग्रत
अवस्था कहते
हैं।''
भीतर
है चैतन्य का
वास,
बाहर है
विराट का
विस्तार। इस
विराट से
संबंधित होने
के दो उपाय
हैं। यह जो
बाहर फैला हुआ
है और यह जो
भीतर निवास कर
रहा है, इन
दोनों के मिलन
की दो
यात्राएं हैं।
एक यात्रा है
परोक्ष, इनडायरेक्ट;
वह यात्रा
होती है
इंद्रियों के
द्वार से। एक
यात्रा है
प्रत्यक्ष, डायरेक्ट, इमिजिएट, माध्यमहीन;
वह यात्रा
होती है
अतींद्रिय
अवस्था से।
यदि
बाहर जो जगत
है उसे जानना
है तो दो
द्वार हैं, एक
द्वार है कि
मैं शरीर का
उपयोग करूं और
उसे जानूं और
एक उपाय है कि
मैं समस्त
माध्यम छोड़ दूं
और उसे जानूं।
साधारणत:
बाहर प्रकाश
है तो हम आंख
के बिना नहीं
जान सकते हैं; और
बाहर ध्वनि है
तो कान के
बिना नहीं जान
सकते हैं; और
बाहर रंग हैं
तो इंद्रियों
का उपयोग करना
पड़े--इंद्रियों
से हम जानते
हैं कि बाहर
क्या है, इंद्रियां
हमारे ज्ञान
के माध्यम हैं।
स्वभावत:
इंद्रियों से
मिला हुआ यह
शान वैसा ही
है,
जैसे कहीं
कोई घटना घटे
और कोई मुझे
आकर खबर दे--मैं
सीधा वहां मौजूद
नहीं हूं कोई
बीच में खबर
लाने वाला
संदेशवाहक है।
निश्चित ही
खबर मुझे वैसी
ही नहीं
मिलेगी जैसी
घटी है, क्योंकि
संदेशवाहक की
व्याख्या भी
सम्मिलित हो
जाएगी।
जब
मेरी आंख मुझे
खबर देती है
कि वृक्ष पर
फूल खिला है--बहुत
सुंदर, बहुत
प्यारा; यह
खबर मुझे
मिलती है, यह
वृक्ष के फूल
के संबंध में
तो है ही, यह
आंख के
रुझानों के
संबंध में भी
है, आंख ने
अपनी
व्याख्या भी
जोड़ दी है। और
वृक्ष पर जो
फूल खिला है, उसमें जो
रंग दिखाई पड़
रहे हैं, वे
वृक्ष के फूल
में तो हैं ही,
उन रंगों के
संबंध में आंख
ने भी बहुत
कुछ जोड़ दिया
है जो वृक्ष
के फूल पर नहीं
है।
यह
जान कर आपको
हैरानी होगी
कि कोई पांच
हजार साल पहले
आदमी तीन ही
रंग देख पाता
था। इसलिए
पांच हजार साल
पुराने
ग्रंथों में
तीन से ज्यादा
रंगों के नाम
उपलब्ध नहीं
हैं। फिर आदमी
की आंखें और
संवेदनशील
होती चली गईं, तो
वह अब सात रंग
देख पाता है।
कोलिन
विलसन ने अपने
एक बहुत अदभुत
ग्रंथ में घोषणा
की है कि
शीघ्र ही, दो-
चार-पांच सौ
वर्षों में
आदमी ऐसे रंग
देख पाएगा
जिनकी हम
कल्पना भी
नहीं कर सकते;
आंखें और
विकसित होती
चली जाती हैं।
आंख
विकसित होती
है तो रंग दिखाई
पड़ते हैं। आंख
न हो तो रंग
दिखाई नहीं
पड़ते; रंगहीन
हो जाता है
जगत। जो आदमी
अंधा ही पैदा
हुआ है उसे
रंग का कोई बोध
ही नहीं होता;
जो आदमी
बहरा पैदा हुआ
है उसे ध्वनि
का कोई जगत
नहीं होता--जगत
उसके लिए
शून्य है
ध्वनि से।
हमारा
जानना
इंद्रियों के
माध्यम से है।
फिर
इंद्रियां
हमें जो खबर
देती हैं वही
मानने के लिए
हम मजबूर हैं, क्योंकि
हमारे पास और
खबर पाने का
कोई उपाय नहीं।
पर इंद्रियों
की खबर में
इंद्रियों की
व्याख्या
संयुक्त हो
जाती है।
एक
चेहरा आप
देखते हैं, सुंदर
मालूम पड़ता है।
फिर एक
खुर्दबीन से
उसी चेहरे को
देखें, तो
बहुत घबड़ाहट
होगी; वह
चेहरा बहुत
ऊबड़-खाबड़ गों
वाला.. पहाड़ी
और झीलें भी
उसमें दिखाई
पड़ने लगेंगी;
उसके छिद्र
बड़े-बड़े गे हो
जाएंगे। क्या
खुर्दबीन गलत
कह रही है? नहीं,
खुर्दबीन
अपनी
व्याख्या दे
रही है; वह
आपकी आंखों से
ज्यादा गहरा
देख पाती है।
फिर
एक्सरे की
मशीन से देखें
उसी चेहरे को, तो
चमड़ी खो जाएगी,
हड्डियों
का ढांचा भीतर
रह जाएगा।
क्या एक्सरे
की मशीन गलत
खबर दे रही है?
नहीं, एक्सरे
की मशीन अपनी
व्याख्या दे
रही है। फिर
जो चेहरा आपने
अपनी खाली आंख
से देखा था वह
सही था, कि
जो खुर्दबीन
से देखा वह
सही है, कि
जो एक्सरे से
देखा वह सही
है? वे सभी
एक ही चेहरे
की खबर दे रहे
हैं। सभी सही
हैं, लेकिन
प्रत्येक
व्याख्या
आशिक है, और
जिस माध्यम से
पाई गई है उस
माध्यम पर
निर्भर है।
लेकिन
क्या ऐसा भी
हो सकता है कि
हम बिना माध्यम
के जगत को देख
सकें? क्योंकि
जब हम बिना
माध्यम से जगत
को देखेंगे
तभी सत्य दिखाई
पड़ेगा। इसलिए
ऋषियों की जो
गहनतम खोज है
वह यह है कि जब
तक इंद्रियों
से हम जगत को
जानते हैं, तब तक जिसे
हम जानते हैं
वह जगत के ऊपर
इंद्रियों के
द्वारा
आरोपित
प्रक्षेपण है;
उसी का नाम
माया है। जो
आपने देखा है
वह दृश्य ही
नहीं है, देखने
वाला भी उसमें
संयुक्त हो
गया है।
जब
मजनू किसी को
कहता है कि
लैला बहुत
सुंदर है, तो
यह सिर्फ लैला
के संबंध में
नहीं कहता है,
यह मजनू के
संबंध में भी
कहता है। असल
में यह मजनू
की आंख है जो
लैला को सुंदर
देख पाती है।
यह जरूरी नहीं
है कि लैला
सभी को सुंदर
दिखाई पड़े।
जिनको नहीं
सुंदर दिखाई
पड़ती, उनकी
व्याख्या भी
लैला के संबंध
में ही है; और
जिसे सुंदर
दिखाई पड़ती है,
उसकी
व्याख्या भी
लैला के संबंध
में है--वे
दोनों एक ही
व्यक्ति के
संबंध में बोल
रहे हैं, पर
उन दोनों ने
जिस माध्यम से--मन
और इंद्रियों
के जिस माध्यम
से लैला को खोजा
है, वह माध्यम
भी संयुक्त हो
गया उनकी
व्याख्या में।
तो
जब कोई आदमी
आपको किसी के
संबंध में खबर
देता है कि वह
आदमी बहुत
अच्छा है, तो
वह सिर्फ उस
आदमी के संबंध
में खबर नहीं
देता, अपने
संबंध में भी
खबर देता है।
और जब कोई आदमी
कहता है कि
फलां आदमी
बहुत बुरा है,
तो वह उस
आदमी के संबंध
में ही खबर
नहीं देता, अपने संबंध
में भी खबर
देता है। शायद
दूसरे के
संबंध में
उसकी खबर गलत
भी निकल जाए, लेकिन खुद
के संबंध में
गलत नहीं निकल
सकती।
हमारी
इंद्रियां
व्याख्या को
संयुक्त करती हैं।
वे निष्कि्रय
हैं--द्वार
नहीं हैं, सक्रिय
प्रक्षेपक भी
हैं।
तो
एक तो मार्ग
है इंद्रियों
के द्वार से, जो
सत्य का
विस्तार है
उसे जानने का।
इस सत्य को
जानने सै जो
शान हमारी पकड़
में आता है, जिन्होंने
इंद्रियों के
पार भी जगत को
देखा है वे
कहते हैं, वह
शान हमारा
इलूजरी है, माया है। जब
शंकर जैसा
व्यक्ति कहता
है यह जगत
माया है, तो
आप यह मत
समझना कि वह
यह कहता है कि
यह जगत नहीं
है। ऐसे
पागलपन की बात
शंकर नहीं कह
सकते कि यह जगत
नहीं है। यह
जगत बिलकुल है,
लेकिन जैसा
आपको दिखाई पड़
रहा है, वैसा
नहीं है। वैसा
दिखाई पड़ना
आपकी दृष्टि
है, वही
दृष्टि इस जगत
को माया बनाए
दे रही है।
जैसा जगत आपको
दिखाई पड़ रहा
है, वह
आपकी
व्याख्या है।
और
इसलिए ठीक
होगा यह कहना
कि इस जगत में
एक माया नहीं
है,
जितने इस
जगत को जानने
वाले हैं उतनी
मायाएं हैं।
हर आदमी अपना
जगत निर्मित
किए हुए जी
रहा है; हर
आदमी के
इर्द-गिर्द एक
जगत है। आप
अपने जगत में
घिरे हुए जीते
हैं, आपका
पड़ोसी अपने
जगत में घिरा
हुआ जीता है; इन दोनों
जगत का कहीं
कोई तालमेल
नहीं होता। और
जब भी दो जगत
को हम एक साथ
बांधते हैं तो
कलह होती है, कोलिज़न
होता है। एक
पत्नी और पति
के बीच जो
संघर्ष है वह
दो जगत का
संघर्ष है; एक बाप और
बेटे के बीच
जो संघर्ष है
वह दो जगत का
संघर्ष है।
बेटा अपना जगत
निर्मित कर
रहा है, बाप
का जगत
निर्मित है; इन दोनों के
बीच कलह होना
अनिवार्य है।
कोई और उपाय
भी नहीं है।
हम अपनी ही
व्याख्या में
घिरे हुए जीते
हैं।
ऋषि
कहता है : 'इस
जगत को
इंद्रियों के
द्वारा जानने
की जो स्थिति
है, वह
जाग्रत है।
इंद्रियों के
माध्यम से इस जगत
को जानने की
जो अवस्था है,
उसे जाग्रत
कहेंगे। 'इसमें
दो-तीन बातें
और खयाल में
ले लेनी जरूरी
हैं।
ऋषि
ने कहा है : ''सूर्य
आदि देवताओं
को।''
सूर्य
केंद्र है। हम
अपने चारों
तरफ जो भी
देखते हैं, अगर
उस सबके
केंद्र को हम
खोजें, तो
सूर्य केंद्र
है। सूर्य बुझ
जाए तो हमारा
पूरा जगत अभी
राख हो जाए।
जीवन सूर्य है।
चाहे वृक्ष पर
हरे पत्ते
आनंद में मग्न
हों, नाचते
हों, और
चाहे आकाश में
बादल सरकते
हों; और
चाहे जमीन पर
कोई गीत गाता
हो, बांसुरी
बजाता हो; और
चाहे बीज में
अंकुर टूटता
हो; और
चाहे झरने
पहाड़ से उतर
कर सागर की
तरफ बहते हों,
इस सबके
आधार में
सूर्य है।
सूर्य बुझ जाए
तो सब जीवन
बुझ जाएगा।
इसलिए सूर्य
आदि देवता कहा
है; बाकी
सब गौण हैं, सूर्य
प्रमुख है।
सूर्य यानी
जीवन।
आपके
भीतर श्वास चल
रही है और खून
में गर्मी है
और हृदय में
धड़कन है.. -सूरज
का हाथ है।
अगर सूरज बुझ
जाए तो हमें
यह भी पता न
चलेगा कि वह
कब बुझ गया, क्योंकि
उसके बुझने के
साथ हम बुझ गए
होंगे। कोई
इतिहास लिखने
को बचेगा नहीं
जो लिखे कि फलां
तारीख को सूरज
बुझ गया; क्योंकि
सूरज के बुझने
के साथ हम सब
तत्काल बुझ जाएंगे।
इसलिए
सूर्य को सदा
ही केंद्र पर
स्वीकृति मिली
है--पर इसे ' देवता
' क्यों
कहते हैं? विज्ञान
इसे देवता
नहीं कहता। और
वैज्ञानिक को
चिंता होती है
कि यह.. यह
पैंथिइज्म है,
यह हर चीज
में भगवान को
देखने की क्या
जरूरत है? सूरज
सूरज है, इसमें
देवता को
देखने की क्या
जरूरत है? लेकिन
भारतीय मनीषा
कुछ और ढंग से
सोचती है।
भारतीय
मनीषा के
सोचने का ढंग
यह है कि
जिससे हमें
कुछ भी मिले, उसके
प्रति अनुगृहीत
होना
अनिवार्य है,
क्योंकि
अनुग्रह के
बिना हमारे
भीतर जो श्रेष्ठतम
है उसका
आविर्भाव
नहीं होता।
मनुष्य के
भीतर जो भी
श्रेष्ठतम है
वह अनुग्रह के
भाव से ही
विकसित होता
है। जितना
अनुग्रह का
भाव भीतर होगा,
उतनी ही
मनुष्य की
आत्मा
विकासमान
होती है।
तो
सूरज सिर्फ
सूरज है.. जब हम
ऐसा कहते हैं, ठीक
है--तो
अनुग्रह का
कोई संबंध
निर्मित नहीं
होता। ऐसा
नहीं लगता कि
सूरज से हमें
कुछ मिला है; ऐसा भी नहीं
लगता कि हम
सूरज की फैली
हुई किरणें
हैं, ऐसा
भी नहीं लगता
कि सूरज से
हमारे हृदय की
धड़कनों का कोई
संबंध है; ऐसा
नहीं लगता कि
हम सूरज के ही
फैले हुए हाथ
हैं-- दस करोड़
मील दूर, लेकिन
हैं हम सूरज
की ही किरणें।
वही धड़कता है
हमारे भीतर, वही जीता है;
उसकी ही
ऊष्मा है, उसकी
ही गर्मी है।
तो
कोई संबंध
निर्मित नहीं
होता। लेकिन
यह बड़ी नासमझी
की बात है; क्योंकि
जिससे हमें
जीवन मिलता हो,
उसके प्रति
अनुग्रह का
भाव न हो तो
हमारे भीतर जो
श्रेष्ठतम है
उसका विकास न
हो सकेगा।
अनुग्रह
का भाव
धार्मिक
चित्त का
आधारभूत लक्षण
है। उसी
अनुग्रह के
भाव पर उसे
प्रभु का
प्रसाद उपलब्ध
होता है।
इसलिए सूर्य
को,
सिर्फ
प्रभावित
होकर कि वह
अग्नि का
महापिंड है, किन्हीं ने
हाथ जोड़ कर
नमस्कार कर
लिए होंगे, ऐसा नहीं है।
जिन्होंने
नमस्कार किया
था, वे इस
सत्य को
भलीभांति
जानने और
पहचानने लगे थे..
कि उस नमस्कार
से सूरज को
कुछ भी नहीं
मिलता, लेकिन
नमस्कार करने
वाले को बहुत
कुछ मिलता है।
वह अनुग्रह की
संवेदना पैदा
होनी शुरू
होती है, वह
ग्रेटिटयूड!
और उसमें ही
सरलता जन्म
जाती है, उसमें
ही निर्दोष
चित्त हो जाता
है।
और
यह सवाल सूरज
के प्रति ही
नहीं है, यह
फिर सवाल तो
बड़ा है। इसलिए
जिन्होंने
सूरज को
नमस्कार किया
था, उन्होंने
नदियों को भी
नमस्कार किया
था, उन्होंने
को भी नमस्कार
वृक्षों
किया था।
कभी-कभी
बहुत मजे की
घटनाएं घटती
हैं। बौद्ध
पच्चीस सौ
वर्ष से
बोधिवृक्ष की
पूजा करते आ
रहे हैं। कोई
भी कहेगा, नासमझी
की बात है।
संयोग की बात
थी कि बुद्ध
उस वृक्ष के
नीचे बैठे थे,
इसमें पूजा
जैसा क्या है?
कहीं और भी
बैठे हो सकते
थे! लेकिन अभी
बीस वर्षों
में विज्ञान
ने कुछ खोजें
की हैं तो बड़ी
हैरानी का
तथ्य प्रकट
हुआ है। वह
तथ्य यह है कि
मनुष्य के
मस्तिष्क में,
जिसे हम योग
में थर्ड आई, तीसरा नेत्र,
या
शिवनेत्र
कहते रहे हैं..
वितान और
भौतिकवादी
चिंतक इस पर
हंसते रहे थे
कि तीसरी आंख
जैसी कोई चीज
आदमी के भीतर
नहीं है; ये
सब कल्पनाएं
हैं। लेकिन
इधर पचास
वर्षों में, दोनों आंखों
के बीच
में एक ग्रंथि
को विज्ञान
खोज पाया है, जो कि शरीर
में सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
है। मनुष्य के
भीतर जो भी
चैतन्य का
आविर्भाव हुआ
है, वह उसी
ग्रंथि में
पैदा होने वाले
रसों से होता
है। और वह
ग्रंथि वही है
जिसे सदा से
पूरब के मनीषी
तीसरा नेत्र
कहते रहे हैं।
उस ग्रंथि से
जिस रस का
आविर्भाव
होता है, और
जिस रस के
बिना मनुष्य
के भीतर चेतना
पैदा नहीं
होती, बुद्धि
का आविर्भाव
नहीं होता, बड़ी हैरानी
की बात है कि
वह रस वटवृक्ष
में सर्वाधिक
मात्रा में
उपलब्ध है..
सारे जगत की
वनस्पतियों
में सर्वाधिक!
कॉलिन
विलसन ने अपनी
एक नई किताब 'दि
ऑकल्ट' में
लिखा है.. कि
कुछ हैरानी न
होगी कि बुद्ध
का उस वृक्ष
के नीचे बैठना
और बोधि को
उपलब्ध होना,
इसमें उस
वृक्ष का भी
हाथ हो! इस
वृक्ष का भी हाथ
हो; यह
वृक्ष सिर्फ
सांयोगिक
नहीं है; इस
वृक्ष का हाथ
हो सकता है।
वटवृक्ष
की ही जाति के
पीपल वृक्ष को
भारत सदा से
पूजता रहा है।
पीपल अकेला
वृक्ष है पूरी
पृथ्वी की
वनस्पतियों
में.. सारे
वृक्ष इस अर्थ
में पीपल से
बिलकुल भिन्न
हैं। रात को
वृक्षों के
नीचे सोना या
बैठना--पीपल
को छोड़ कर--खतरनाक
है। दिन भर
वृक्ष
ऑक्सीजन
छोड़ते हैं, तो
उनके पास होना
जीवन के लिए
हितकर है। और
रात वृक्ष
कॉर्बन डाइऑक्साइड
छोड़ते हैं, उनके पास
रहना खतरनाक
है; वे
जीवन को हानि
पहुंचाते हैं।
सिर्फ पीपल
अकेला वृक्ष
है जो चौबीस
घंटे ऑक्सीजन
छोड़ता है।
उसके पास किसी
भी समय रहें, वह जीवनदायी
है।
तो
जिन्होंने
इतने वृक्षों
के बीच पीपल
को अचानक पूजा
के लिए चुन
लिया होगा...
किसी अनुग्रह के
भाव के कारण।
और बुद्ध का
इस वृक्ष के
नीचे बैठ कर
बोधि को उपलब्ध
होना, सिर्फ
संयोग नहीं है,
यह भी चुनाव
है। इस वृक्ष
के नीचे बैठ
कर ध्यान करना
एक वैज्ञानिक
प्रक्रिया का
हिस्सा है।
इस
जगत में
जिन्होंने
अनुग्रह की
किरणें खोजनी
चाही हैं, उन्हें
कण-कण से वे
किरणें मिलती
हुई मालूम पड़ी
हैं। जहां से
भी अनुग्रह का
संबंध जुड़ जाता
है, हमने
उसी जगह को 'देवता' कहा
है।
देवता
का अर्थ है.
जिसने हमें
दिया ही है और
हमसे लिया
नहीं। देवता
का अर्थ है
जिससे हमें
मिला ही है, सदा
मिलता रहा है;
नहीं मांगा
है तो भी
मिलता रहा है,
हमने
धन्यवाद नहीं
दिया तो भी
मिलता रहा है।
उसका मिलना, उससे मिलना
बेशर्त है, तो हमने
देवता कहा है।
और हम उसे और
कुछ भी नहीं
दे सकते लौटा
कर, लेकिन
धन्यवाद तो दे
ही सकते हैं।
यह
जो चारों तरफ
फैला हुआ
प्रभु का
विस्तार है, और
इससे हमारे
तार-तार जुड़े
हैं, इस
जोड़ का बोध जब
इंद्रियों के
द्वारा चेतना
को होता रहता
है, तो उसे
जाग्रत कहा है।
इस
अवस्था को
जाग्रत कहना
सिर्फ
प्रतीकात्मक
है,
क्योंकि
हमने और बड़ी
जागृति नहीं
जानी इसीलिए
इसे जाग्रत
कहते हैं। तो
रिलेटिव, सापेक्ष
है; क्योंकि
हम तीन
अवस्थाएं
जानते हैं। एक
अवस्था
इंद्रियों के
द्वारा जगत से
संबंधित होना;
दूसरी
अवस्था हम जानते
हैं स्वप्न की,
और तीसरी
अवस्था हम
जानते हैं
सुषुप्ति की।
चौथी अवस्था
का हमें कोई
पता नहीं। जिस
दिन हमें चौथी
अवस्था का पता
चलता है, उस
दिन हमें यह
भी पता चलता
है कि जिसे
हमने जाग्रत
समझा था, वह
भी स्वप्न की
और निद्रा की
ही एक अवस्था
थी।
श्री
अरविंद ने कहा
है कि जब मैं
जागा तब मुझे
पता चला कि अब
तक मैं सोया
ही हुआ था; और
जब मैंने
वास्तविक
जीवन जाना तब
मुझे पता चला
कि जिसे मैं
जीवन समझता था
वह तो मृत्यु
थी। लेकिन
स्वाभाविक है
कि जिसे हम
नहीं जानते उसका
हमें कोई खयाल
भी नहीं हो
सकता; और
उससे हम कोई
तुलना भी नहीं
कर सकते।
इसे
जाग्रत कहते
हैं आपकी बाकी
दो अवस्थाओं की
तुलना में।
तीन अवस्थाओं
से हम परिचित
हैं--स्वप्न, सुषुप्ति,
जाग्रत। इन
तीनों में यही
अवस्था
जाग्रत कही जा
सकती है। जिस
दिन हम चौथी
से परिचित
होते हैं उस
दिन ये तीनों
अवस्थाएं
निद्रा की
अवस्थाएं हो
जाती हैं; उस
दिन फिर हमें
दूसरे ढंग से
कहना पड़ता है--उस
दिन हमें कहना
पड़ता है : गहरी
सुषुप्ति, कम
गहरी
सुषुप्ति, और
कम गहरी
सुषुप्ति।
जिसे अभी हम
जाग्रत कहते
हैं वह सबसे
कम गहरी सुषुप्ति
है; जिसे
हम स्वप्न
कहते हैं वह
और गहरी
सुषुप्ति; और
जिसे हम सुषुप्ति
कहते हैं वह
पूरी गहरी
सुषुप्ति। ये
तीनों नींद की
ही अवस्थाएं
हैं, लेकिन
अभी इसे हम
जाग्रत
कहेंगे।
दूसरी
अवस्था है.
स्वप्न।
''शब्द आदि
स्थूल विषय न
होने पर भी
जाग्रत अवस्था
की शेष रह गई
वासना के कारण
मन इंद्रियों
द्वारा शब्द
आदि वासनामय
विषयों को ग्रहण
करता है, उस
अवस्था को
स्वप्न
अवस्था कहते
हैं। ''
कभी-कभी
बहुत हैरानी
होती है। कहते
तो हैं हम कि
जगत अब एक बड़ा
गांव भर हो
गया है।
मार्शल
मैक्लुहान
कहता है : ए
ग्लोबल विलेज; यह
सारी जमीन एक
बडा गांव हो
गई है। लेकिन
यह बात बहुत
गहरी नहीं
मालूम पड़ती।
हम करीब मालूम
पड़ते हैं, क्योंकि
यात्रा के
साधन बढ़ गए
हैं, लेकिन
फिर भी चेतना
अभी भी बहुत
करीब एक- दूसरे
के मालूम नहीं
पड़ती।
इस
उपनिषद ने
हजारों साल
पहले यह
स्वप्न की व्याख्या
की है, और
पश्चिम अभी इन
पचास सालों
में इस
व्याख्या को
पूरा नहीं कर
पा रहा है, अभी
टटोल रहा है।
हैरानी होती
है यह बात जान
कर कि मनुष्य
की सभ्यताएं
खोज लेती हैं
किन्हीं
बातों को, तो
भी वे बातें
स्थानिक और
लोकल रह जाती
हैं—सारी मनुष्य-चेतना
तक नहीं फैल पातीं।
यह
उपनिषद
हजारों साल
पहले कहता है
कि हम उसे स्वप्न
कहते हैं--इंद्रियां
बंद हो गईं, आंखें
बंद
हैं, फिर
भी दृश्य देखे
जा सकते हैं।
सो गए, कान
शिथिल पड़ गए, बाहर की
ध्वनि सुनाई
नहीं पड़ती, फिर भी भीतर
ध्वनियां
सुनी जा सकती
हैं। हाथ
निढाल पड़े हैं
मुर्दे की तरह,
हाथ कुछ भी नहीं
छूते, भीतर
अब भी स्पर्श
जाना जा सकता है।
तो
ऋषि कहता है. 'जाग्रत
में जो
वासनाएं
अपूर्ण रह गईं,
पूरी नहीं
हो पाईं, जाग्रत
में जो अधूरा
छूट गया, स्वप्न
उसे पूरा कर लेता
है।'
तो
स्वप्न जो है
वह जाग्रत की
पूर्ति है--सप्लीमेंट।
और
दिन में बहुत
कुछ अधूरा रह
जाता है। राह
से निकलते हैं, एक
सुंदर स्त्री
दिखाई पड़ती है,
लेकिन घूर कर
नहीं देख सकते
हैं; अशोभन
है। मन की
वासना रह जाती
है देखने की
शेष। रात
स्वप्न में
उसे देख लेते
हैं। भोजन
करने बैठे हैं,
पूरा भोजन
नहीं कर पाते
हैं-- भाग-दौड़
है, हजार
काम हैं, संकोच
है, शिष्टाचार
है। रात
स्वप्न भोजन
को पूरा करवा
देता है।
जाग्रत में जो
अधूरा रह गया,
अनफुलफिल्ड,
पूरा नहीं
हो पाया, स्वप्न
उस लीक को पकड़
कर उसे पूरा
कर देता है।
इसलिए
जो आदमी अपने
दिन में पूरी
तरह जी लेगा, उसके
स्वप्न खो
जाते हैं। जो
आदमी अपने दिन
में पूरी तरह
जी लेता है--पूरी
तरह--जो भी
करता है, पूरी
तरह कर लेता
है, अधूरा-अधूरा
नहीं जीता, हर क्षण को
पूरा जी लेता
है, उसके
स्वप्न खो
जाते हैं।
बुद्ध जैसे
व्यक्ति को
स्वप्न नहीं
आएंगे। न आने
का कारण है, क्योंकि कुछ
अधूरा बचता
नहीं जिसे रात
में चलाना पड़े।
ऋषि
कहता है. 'इंद्रियां
जब बंद हों और
तब भी चेतना
इंद्रियों के
ही रूपों को
पुन:- पुन:
देखती रहे, उसे स्वप्न
कहते हैं। '
स्वप्न
और जाग्रत में
एक फर्क हुआ.
जाग्रत में
वस्तु बाहर
होती है, रूप
भीतर होता है,
स्वप्न में
वस्तु बाहर
नहीं होती, लेकिन रूप
भीतर होता है।
तो स्वप्न
शुद्ध आकार है,
कोई वस्तु
नहीं है वहां।
जिस व्यक्ति
को आप स्वप्न
में देख रहे
हैं वह बाहर
मौजूद नहीं है,
लेकिन उसकी
आकृति भीतर
मौजूद है। यह
आकृति भी
इंद्रियां ही
पैदा करती हैं।
ध्यान रहे, यह आकृति भी
इंद्रियां ही
पैदा करती हैं,
यह भी
इंद्रियजन्य
ही है।
इंद्रियां
इसे किस भांति
पैदा करती हैं?
प्रत्येक
इंद्रिय अपने
अनुभव को संगृहीत
करती है। आपने
जितने रंग
देखे हैं अभी
तक,
जितनी बार
देखे हैं, आपकी
रंग देखने की
जो-जो
स्मृतियां
हैं वे आपकी आंख
के पीछे
संगृहीत हैं।
स्वप्न में
वही संग्रह
काम में आता
है, आंख
फिर से उन
रंगों को भीतर
खोल लेती है।
आपने जिन-जिन
को कभी छुआ है,
स्पर्श किया
है, वे सब
स्पर्श
संगृहीत हैं।
मनुष्य की इस
छोटी सी खोपड़ी
के भीतर इस
जगत का विशाल
से विशाल
संग्रह है। इस
छोटे से सिर
के भीतर कोई
सात करोड़
सेल्स हैं। और
एक-एक सेल, एक-एक
बड़ी दुनिया को
संगृहीत किए
हुए है।
और
यह संग्रह इस
जन्म का ही
नहीं है, यह
संग्रह अनंत- अनंत
जन्मों का है।
इसलिए आप ऐसे
रूप देख सकते
हैं स्वप्न
में जो आपने
इस जन्म में
देखे ही नहीं;
आप ऐसे
चेहरे देख
सकते हैं, जिनसे
आपकी कोई
मुलाकात ही
नहीं, जिनका
आपको कोई
स्मरण ही नहीं;
आप ऐसे
दृश्य देख
सकते हैं, जिनका
आपकी इस जन्म
की स्मृति से
कोई लेना-देना
नहीं। इसलिए
स्वप्न बहुत
भौचक्का कर
जाता है कभी; बड़ी बिगूचन
में डाल जाता
है, कुछ
सोच-समझ में
नहीं आता कि
यह स्वप्न
क्या है? यह
कैसा है? जन्मों-
जन्मों का
संस्कार
इकट्ठा है--जो
भी जाना है
आपने, वह
सब इकट्ठा है।
मन उसे फिर
खोल लेता है; वह रिकॉडेंड
है।
संस्कार
का अर्थ होता
है : संगृहीत।
संस्कार का
अर्थ होता है :
जो,
जो आपके
मस्तिष्क के
सेल्स में, कोष्ठों में
इकट्ठा हो गया
है।
अब
तो
वैज्ञानिकों
ने ऐसे उपाय
खोजे हैं कि
आपके सिर के
भीतर
इलेक्ट्रोड
डाल कर आपके
किसी भी भीतर
के संग्रह को
सक्रिय किया
जा सकता है, आपकी
बिना इजाजत के।
आप कितना ही
कहें कि मुझे
रंग नहीं
देखने, आप
कुछ कर न
पाएंगे। आपकी
खोपड़ी के भीतर
इलेक्ट्रोड
डाल कर, आपका
रंग का जो
संग्रह है, उसको बिजली
से छुआ दिया
जाए, तो
आपके भीतर रंग
ही रंग फैल
जाएंगे। आप
कितना ही कहें
कि यह मैं
नहीं देखना
चाहता, आपके
बस के बाहर की
बात है, क्योंकि
वह उस संग्रह
को छू दिया।
और एक और मजे
की बात है कि
उस संग्रह को
जब भी छुआ
जाएगा, पुनरुक्ति
होगी उन्हीं
रंगों की, क्योंकि
वह तो सिर्फ
रिकॉडेंड है।
जैसे
आप.. -एक
ग्रामोफोन
रिकॉर्ड है, उसको
आप कितनी ही
बार बजाएं, वह फिर वही
गीत गा देगा।
ठीक वैसा ही
एक-एक सेल
आपके
मस्तिष्क का
रिकॉर्ड है, उसको जब भी
बिजली से
छुएने, उस
पर नीडल रख ली
आपने, अब
फिर से सुई रख
दी रिकॉर्ड की,
वह फिर वही
का वही बजा
देगा--फिर वही
का वही। हजार
दफे ऐसा करिए,
वह सेल जो
उसमें
रिकॉर्ड है, उसको फिर से
दोहरा देगा।
इसलिए अब एक
बात
सुनिश्चित हो
गई है वैज्ञानिक
अर्थों में भी
कि मस्तिष्क
आपका एक
संगृहीत संस्कार,
एक
कंडिशनिंग है।
स्वप्न में आप
इसी संग्रह
में से
खोज-खोज कर चीजें
फिर-फिर देखते
रहते हैं। वह
जुगाली है।
भैंस घास चर
लेती है दिन
में, चबाने
की फुर्सत
नहीं होती, क्योंकि पता
नहीं, जब
वह इसे चबाने
में लग जाए तो
यह घास तब तक
कोई और चर जाए।
तो पहले वह
उसे चर लेती
है, फिर
फुर्सत में
बैठ कर जुगाली
करती है--फिर
निकाल लेती, और फिर उसे
चबा लेती है।
दिन
भर हम संग्रह
करते रहते हैं--जन्म
भर,
जन्मों हम
संग्रह करते
रहते हैं, फिर
स्वप्न में
जुगाली चलती
है। जहां-जहां
मन पूरा नहीं
हो पाया था, उसको हम फिर
खोल लेते हैं--उस
रिकॉर्ड को हम
फिर खोल लेते
हैं; उस
संस्कार को हम
फिर पर्दे पर
फैला देते हैं।
ऐसा
समझें कि
स्वप्न हमारे
संस्कारों को
बिना
इंद्रियों की
सहायता के, बिना
जगत की सहायता
के फिर से
प्रक्षेपित
कर लेने का, प्रोजेक्ट
कर लेने का
इंतजाम है। यह
हमारी निजी
संपदा है। हम
अपने भीतर फिर
एक जगत को
फैला लेते हैं।
पूरा जगत आप
निर्मित कर ले
सकते हैं।
इसलिए स्वप्न
में कभी भी
पता नहीं चलता
कि मैं स्वप्न
देख रहा हूं।
स्वप्न में
पता चलता है
कि जो मैं देख
रहा हूं वह
सत्य है।
स्वप्न से जाग
कर ही पता
चलता है कि वह
स्वप्न था।
स्वप्न के
भीतर पता नहीं
चलता है कि वह
स्वप्न है।
जिसको
स्वप्न के
भीतर पता चल
जाए कि वह
स्वप्न है, समझना
कि स्वप्न टूट
गया। क्योंकि
यह पता चलने
वाला जो है, इसके मौजूद
होते ही
रिकॉर्ड वापस
अपनी खोहों
में छिप जाते
हैं; क्योंकि
यह आदमी जाग
गया; जागृति
शुरू हो गई, स्वप्न की
अवस्था टूट गई।
स्वप्न
की अवस्था का
अर्थ है :
इंद्रियों ने
संग्रह किया
है भीतर, हम
बिना जगत की
सहायता के भी
अपने भीतर
फिल्म की एक
दुनिया पैदा
कर सकते हैं; वह हम रोज
करते हैं। यह
हमारे चित्त
की दूसरी
अवस्था है। यह
हमारी गहरी
अवस्था है; क्योंकि
जाग्रत में तो
हमें चुनाव भी
करने पड़ते हैं--समाज
है, सभ्यता
है, संस्कृति
है, हमें
हजार तरह की
रुकावटें
डालनी पड़ती
हैं। लेकिन
स्वप्न में हम
मुक्त हैं। अब
तक थे, पता
नहीं भविष्य
में हम हो
सकेंगे कि
नहीं हो
सकैंगे, क्योंकि
धीरे- धीरे
मनुष्य के
स्वप्नों में
भी प्रवेश
करने की
क्षमता
वैज्ञानिक को
मिलती चली
जाती है।
तो
जैसा अभी
पिछले दो सौ
वर्षों में
सारी दुनिया
में राजनैतिक
चिल्लाते थे
कि विचार की
स्वतंत्रता
चाहिए, कोई
आश्चर्य न होगा
कि इस सदी के
बाद दुनिया
में
क्रांतियां खड़ी
हों और लोग
कहें कि 'स्वप्न
की
स्वतंत्रता
चाहिए; हमारे
स्वप्नों को
मत छेड़ो। 'क्योंकि
आज नहीं कल, सरकारों के
हाथ में यह
ताकत आ जाएगी
कि वे जो स्वप्न
आपको दिखाना
चाहें वहीं
दिखाएं, और
जो न दिखाना
चाहें उसमें
रुकावट डाल
दें।
अणुबम
से भी बड़ा
खतरा जो है वह
यह है कि
मनस्विद वैसी
व्यवस्थाएं
किए दे रहे
हैं और
विधियां खोजे
ले रहे हैं कि
आपके भीतरी मन
पर भी बाहर से
नियंत्रण
किया जा सके।
अणुबम आदमी के
शरीर को नष्ट
कर सकता है, लेकिन
ये जो विधियां
हैं, ज्यादा
खतरनाक हैं, क्योंकि
उसकी मन की
गहरी गुलामी
पैदा कर सकती
हैं। और किसी
दिन आश्चर्य न
होगा कि आपको
पुलिस के दफ्तर
में बुलाया
जाए और पूछा
जाए कि ' रात
यह स्वप्न
आपने क्यों
देखा? 'सरकार
इसके बिलकुल
खिलाफ है। यह
स्वप्न
बिलकुल ही
अराष्ट्रीय
है; तुम
देशद्रोही
मालूम पड़ते
हो। क्योंकि
स्वप्न जांचे
जा सकते हैं।
और कोई हैरानी
न होगी कि
तानाशाही
सरकारें उसका
उपयोग करना
शुरू करें।
और
आदमी के
स्वप्नों को
भी गतिमान
किया जा सकता
है। छोटा-मोटा
गतिमान तो आप
भी कर सकते
हैं,
अगर आपको वह
थोड़ी तरकीब
खयाल में आ
जाए। कोई बहुत
बड़े यंत्रों
की जरूरत नहीं
है। एक आदमी
सो रहा है, आप
उसके पैरों के
पास थोड़े बर्फ
के टुकड़े रख दें,
थोड़ी दूरी
पर, उसके
पैरों में
ठंडक शुरू हो
जाए। उस आदमी
के भीतर
स्वप्न
शुरूहो जाएगा
कि वह नदी में
चल रहा है। या
करीब ऐसा कोई
स्वप्न शुरू
हो जाएगा कि
वर्षा हो रही
है जोर से और पैर
भीगे जा रहे
हैं। स्वप्न
देखना शुरू कर
देगा। यह बाहर
से जो पैर में
ठंडक मिली, यह भीतर
उसके
मस्तिष्क के
ठंडक के जो-जो
संग्रह हैं
उनको सक्रिय
कर देगी।
आप
अक्सर... जब भी
नाइटमेयर
होता है, कभी
बहुत
दुख-स्वप्न
होता है, तो
उसका कुल कारण
होता है कि आप
अपनी छाती पर
हाथ रखे होते
हैं, और
कोई कारण नहीं
होता। छाती पर
हाथ रखे होते
हैं तो भीतर
सपना होता है
कि कोई छाती
पर चढ़ गया।
फिर स्वप्न
शुरू हो गया।
तो एक आदमी की
छाती पर एक
तकिया रख दें,
तो आप उसके
भीतर स्वप्न
को थोड़ा सा
मैनेज कर सकते
हैं-- थोड़ा सा!
आप उसके
स्वप्न को
दिशा दे सकते
हैं।
यह
तो बहुत
सामान्य है।
लेकिन यंत्र
अब खोज लिए गए
हैं जिनसे
गहरी दिशा दी
जा सकती है; क्योंकि
सीधे आपके
मस्तिष्क के
कोष छुए जा सकते
हैं, और
उनसे कुछ
निकाला जा
सकता है।
इंद्रियों
के बिना ही, बाहर
जो विराट जगत
है, उससे
संबंधित हुए
बिना ही, अतीत
संबंधों के
आधार पर
मनुष्य अपने
भीतर जो जगत
निर्मित कर
लेता है, उस
अवस्था का नाम
स्वप्न है। ये
दो अवस्थाएं--जाग्रत,
स्वप्न।
स्वप्न
को समझ लेना
और पार कर
लेना जरूरी है, स्वप्न
से मुक्त हो
जाना जरूरी है,
तो ही
जाग्रत में
हमारी आंखें निर्दोष,
निष्पक्ष, साफ, धूम्ररहित
हो पाती हैं।
जानवरों
की आंखों में एक
निर्दोषता
दिखाई पड़ती है
जो आदमी की आंखों
में
नहीं दिखाई
पड़ती। उसका
कुल कारण इतना
है कि जानवर
स्वप्न कम देखते
हैं--करीब-
करीब नहीं
देखते हैं। जो
जानवर
आदमियों के
पास रहते हैं
वे स्वप्न
देखने लगते
हैं--जैसे कि
कुत्ते और
बिल्लियां
देखने लगते
हैं। क्योंकि
आदमी के पास
रह कर आदमी की
बीमारियां
जानवरों को भी
लग जाती हैं।
स्वप्न
एक सतत बेचैनी
है... आपके भीतर--एक
सतत बेचैनी, एक
सतत परेशानी,
एक तनाव; वह आपकी आंखों
को
प्रभावित
करता है। एक
गाय की आंखों में
झांकें, ये
आंखें बिलकुल
ही करहित हैं।
ये आंखें वैसी
हैं जैसे कोई
शांत नीली झील
होती, जिसमें
नीचे तलहटी
में पड़े हुए
पत्थर भी दिखाई
पड़ जाते हैं।
तो इस गाय की आंख
में उतरें, तो कितना ही
उतरते चले
जाएं, यह
बिलकुल खाली
है; इसमें
कहीं कोई पर्त
नहीं है। पर
आदमी की आंख!...
आदमी की आंख
में बड़ी
पर्तें हैं।
वे सब पर्तें
स्वप्न से
निर्मित है।
इसलिए
जितना
महत्वाकांक्षी
आदमी होगा
उतनी उथली आंख
हो जाएगी; क्योंकि
जितना
महत्वाकांक्षी
होगा उतने सपने
देखेगा।
क्योंकि
मैंने कहा कि
जो अधूरा रह
जाता है उससे
सपना पैदा
होता है। और
महत्वाकांक्षा
तो कभी पूरी
होती ही नहीं;
वह सदा ही
अधूरी है। तो
वह अधूरी
महत्वाकांक्षा
सपनों से भर
देती है आदमी
को। वे सपने
इतने गहन हो
जा सकते हैं
कि उस आदमी को जगाना
मुश्किल हो
जाए।
जैसे
हिटलर जैसे
आदमी को, जिसे
हमने जाग्रत
कहा है शायद
वैसा जाग्रत
भी नहीं होता
हिटलर जैसे आदमी
के पास; वैसी
अवस्था भी
नहीं होती। यह
तो अनुभव पीछे
हुआ, हिटलर
के दूसरे
महायुद्ध की
समाप्ति के
करीब-करीब
मनोवैज्ञानिकों
को यह अनुभव
हुआ कि जिस आदमी
से हम लड़ रहे
थे, वह
मालूम होता है
नींद में है, जागा हुआ
नहीं है।
क्योंकि
बर्लिन पर बम
गिरने लगे और
बर्लिन की
सड्कों पर
युद्ध हो रहा
है, और
हिटलर सब तरफ
हार चुका है
और अब कोई
बचने का उपाय
नहीं है, और
हिटलर जिस
बंकर में छिपा
है, उसके
सामने
गोलियां बरस
रही हैं, और
हिटलर रेडियो
से घोषणाएं कर
रहा है कि हम मास्को
में जीत रहे
हैं।
यह
आदमी सपने में
रहा होगा! इस
आदमी को.. इस
आदमी को, यह
गोलियां जो
इसके दरवाजे
पर बरस रही
हैं, नहीं
सुनाई पड़ रही
हैं। नहीं तो
यह, यह कोई
उपाय नहीं समझ
में आता, यह
कह रहा है कि
हम जीत रहे
हैं! हिटलर के
सेनापति ने
आकर उसे खबर
दी कि हम हार
रहे हैं, तो
उसने कहा, इसे
गोली मार दो, यह पागल हो
गया है; हम
हार ही नहीं
सकते। यह सवाल
ही नहीं।
घड़ी-दों घड़ी
की बात है
हिटलर ने कहा
कि मास्को सरेंडर
कर चुका होगा,
समर्पण कर
चुका होगा। वह
सब जगह हार
चुका है--
लेकिन स्वप्न
में है; जागा
हुआ आदमी नहीं
है।
महत्वाकांक्षी
शायद स्वप्न
में ही होता
है। जितनी
महत्वाकांक्षा
उतना गहरा
स्वप्न।
इसलिए अगर
सबसे उथली आंख
देखनी हो तो
राजनैतिक के
पास मिल सकती
है। सबसे गहरी
आंख देखनी हो
तो वह
संन्यासी के
पास मिलती है; क्योंकि
संन्यासी का
मतलब ही यह है
कि अब कोई महत्वाकांक्षा
नहीं, अब
कोई स्वप्न
नहीं। अगर कोई
एकाध स्वप्न
बचा भी है
आखिरी तो वह
यही है कि
कैसे स्वप्न
से पार हो
जाएं! कैसे
सपने से हट
जाएं और अलग
हो जाएं! अगर
कोई एकाध
महत्वाकांक्षा
बची भी है तो
वह यही कि
महत्वाकांक्षा
से कैसे
छुटकारा--बस!
स्वप्न
को बिखेर दें
तो जाग्रत सजग
हो जाता है।
या जाग्रत को
सजग कर लें तो
स्वप्न
बिखरने लगता
है। जाग्रत
होकर जीने
लगें तो सपने
कम हो जाएंगे, सपने
कम कर लें तो
जागृति बढ़
जाएगी; ये
सब जुड़ी हुई, संयुक्त
घटनाएं हैं।
और
अगर स्वप्न कम
हो जाएं और
जाग्रत गहरा
हो जाए, तो ही
आपको पहली बार
पता चलेगा कि
सुषुप्ति
क्या है, नहीं
तो सुषुप्ति
का पता नहीं
चलेगा। गहरी
सुषुप्ति
क्या है? हम
सोते हैं जरूर,
लेकिन
सुषुप्ति का
हमें पता नहीं।
क्योंकि जो
जागने तक में
सोया हुआ है, वह सोने में
कैसे जाग
सकेगा? जो
जागने में
नहीं जाग पा
रहा है, वह
सोने में कैसे
जाग सकेगा? तो सुबह हम
उठ कर इतना ही
कह सकते हैं
कि खूब अच्छी
नींद आई, लेकिन
हमें कोई भी
पता नहीं कि
वह नींद क्या
थी?
आप
जिंदगी भर से
सो रहे हैं, लेकिन
आपकी नींद से
कभी मुलाकात
नहीं हुई।
आपने कभी नींद
को उतरते देखा?
जैसे रात
उतरती है सांझ,
सूरज ढल
जाता है, और
अंधेरा
पर्त-पर्त
जमीन को घेरने
लगता है, ऐसा
कभी आपने अपनी
चेतना पर नींद
को उतरते देखा?
नहीं देखा।
क्योंकि नींद
जब उतरती है, तब आप मौजूद
ही नहीं होते।
और जब तक आप
मौजूद होते
हैं तब तक
नींद उतरती नहीं।
तो
सोते हैं रोज, लेकिन
सोने से कोई
परिचय नहीं है।
और जो अपनी
नींद से ही
परिचित नहीं
हो पाया, वह
स्वयं से क्या
परिचित हो
पाएगा? जिसके
भीतर इतना बड़ा
अंधेरा छाया
हुआ है, इतना
बड़ा महाद्वीप
नींद का-- आठ
घंटा रोज सोता
है, और सब
होश खो देता
है--वह आदमी
कैसे उस गहरे
तल पर पहुंच
पाएगा जहां होश
कभी खोया नहीं
जाता? नहीं
पहुंच सकेगा।
स्वप्न
तोड़ना पड़े।
साधना की
प्रक्रिया है
: स्वप्नों को
तोड़ना, बिखेरना,
ताकि
जाग्रत और
जाग्रत हो, और एक घड़ी आ
जाए कि जाग्रत
इतना जाग्रत
हो जाए कि
स्वप्न विलीन
हो जाएं। जिस
दिन जाग्रत
इतना जाग्रत
हो जाता है कि
स्वप्न विलीन
हो जाते हैं, उसी दिन
पहली बार
सुषुप्ति का
अनुभव होता है;
सुषुप्ति
का दर्शन होता
है--तब हम सोते
भी हैं और
जानते भी हैं
कि सोए हैं।
और
जिस दिन कोई
आदमी सोते में
भी जानता है
कि मैं सो रहा
हूं अब इस
आदमी को
सुलाने का कोई
उपाय न रहा, अब
इसको बेहोश
नहीं किया जा
सकता। अब
क्रोध असंभव
है। अब यह
हत्या नहीं कर
सकता, अब
यह चोरी कर
नहीं सकता, अब यह झूठ
नहीं बोल सकता।
अब यह सब
असंभव है; क्योंकि
अब वह निद्रा
का स्रोत ही
टूट गया जिससे
यह बेहोश हो
सकता था; वह
जहर समाप्त
हुआ जिसमें
मूर्च्छा
पकड़ती थी, तंद्रा
आती थी।
जब
कोई व्यक्ति
सुषुप्ति में
जागता है, तभी
तुरीय को
उपलब्ध हो
पाता है--चौथी
अवस्था को।
सोने में जो
जाग गया, वह
तुरीय में
पहुंच गया।
अब
हम सुबह के
ध्यान के लिए
तैयार हों।
दों-तीन बातें
समझ लें। एक
थोड़े- थोड़े
श्रम से नहीं
कुछ होता; श्रम
पूरा लेना
जरूरी है।
स्वप्न मजबूत
हैं, जन्मों-जन्मों
के हैं, तोड़ना
है तो गहरा
प्रहार करना
पड़े।
आंख
पर पट्टी
रहेगी, और दस
मिनट फास्ट
ब्रीदिंग, तेज
श्वास लेनी है।
तेज... जैसे कि
धौंकनी चलती
है लोहार की।
यह चोट करनी
है भीतर
कुंडलिनी पर
कि वह जागे।
दस मिनट पागल
की तरह श्वास
लेनी है।
नाचना-कूदना
जारी हो जाएगा, क्योंकि
इतनी जोर से
श्वास चलेगी,
शक्ति
जगेगी। फिर
दूसरे चरण में
दस मिनट नाचना
है, कूदना
है, चिल्लाना
है, हंसना
है--जो भी करने
का हो, पूरी
ताकत से करना
है; खाली
खड़े नहीं रहना
है, कुछ न
कुछ करना ही
है--जो भी खयाल
में आ जाए, वह
करना है। और
फिर तीसरे चरण
में ' हू ' का हुंकार
करना है...
और
'हू’ के
द्वारा चोट
करनी है। और
चौथे चरण में
हम विश्राम
करेंगे।
स्वप्न के संबंध मे संम्बुदध रहस्यदर्शी ओशो की अंतरदृष्टि अदभुत हैं। आपने इसे सबके साथ साझा किया उसके लिए धन्यवाद।
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