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सोमवार, 28 अक्तूबर 2013

सर्वसार-उपनिषद--प्रवचन-08


सुख—दुःख का स्‍वरूप—आठवां प्रवचन

ध्‍यान योग शिविर,
दिनांक 12 जनवरी, 1972 प्रात:
माथेरान।

सूत्र:

                  सुखदुःख बुद्धयाश्रयोऽन्त: कर्ता यदा
                    तदा इष्ट विषये बुद्धि: सुखबुद्धि:
                     अनिष्ट विषये बुद्धिदु:खबुद्धि:।
                  शब्दस्पर्शरूपरसगधा: सुखदुःखहेतव:।
                        पुण्यपापकर्मानुसारी
                    भूत्वा प्राप्त शरीरसयोगमप्राप्त-
                  शरीरसयोगमिव कुर्वाणो यदा दृश्यते
                    तदोपहितजीव इत्युच्यते ।। 6 ।।


            सुख-दुख की दृष्टि-अंतर में रुचिकर वस्तु की जो इच्छा है
          यह सुख-बुद्धि है और अरूचिकर वस्तु की कल्पना दुख-बुद्धि है ।
      सुख को प्राप्त करने और दुख को त्यागने के लिए जीव जो क्रियाएं करता है,
                  उन्हीं के कारण उसे कर्ता कह जाता है ।
         शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध-ये पांच विषय सुख दुख के कारण हैं ।
              पुण्य और पाप कर्मों का अनुसरण करनेवाला आला,
               प्राप्त हुए शरीर के संयोग को अप्राप्त होते हुए भी
                      स्वयं की तरह समझने लगता है,
                     तब उसे उपाधियुक्त जीव कहते हैं ।


रीरों के बीच में घिरा है जो शून्य, शरीरों की पर्तों के बीच बंध गया है जो अस्तित्व, उस तक पहुंचने के लिए सुख-दुख को समझ लेना अत्यंत जरूरी है, क्योंकि सुख-दुख के कारण ही बंधा है।

शरीर नहीं बांधता है, शरीर नहीं बांध सकता है; लेकिन शरीर से सुख मिल सकता है, यह धारणा ही बांधती है। और अगर कारागृह से भी सुख मिल सकता है तो कारागृह भी बांध लेगा।
यहां एक बात समझ लेनी जरूरी है कि कारागृह में तो कोई और आपको बंधन में डालता है, जिस कारागृह की हम यहां चर्चा कर रहे हैं, उसमें कोई और आपको बंधन में नही डालता, आप ही अपने को बंधन में डालते हैं। इसलिए बंधन तोड़ना बहुत मुश्किल भी है और आसान भी। मुश्किल इसलिए कि जब आपने ही अपने को बांधा है, तो बांधने में जरूर रस पा रहे होंगे, नहीं तो बौधने का कोई कारण नहीं। कोई दूसरा बांधता, तो आपको उस बंधन में रस नहीं होता; आपने ही बांधा है, तो बंधन को प्रीतिकर समझ कर बांधा है, इसलिए तोड़ना मुश्किल है। आसान भी है, क्योंकि आपने ही बांधा है; इसलिए जिस क्षण निर्णय करें उसी क्षण टूट भी सकता है। किसी और ने बांधा होता तो आपके मुक्त होने की आकांक्षा पर्याप्त नहीं थी, बंधन को तोड़ने के लिए संघर्ष करना पड़ता-- और फिर भी निर्णय इससे होता कि कौन शक्तिशाली है। अगर बांधने वाला शक्तिशाली होता तो बंधन से छूटना जरूरी नहीं था कि हो ही जाता।
हमने ही बांधा है अपने को, तो बंधन में जरूर कोई रस होगा; बंधन नीरस नहीं हो सकता। चाहे रस आत ही क्यों न हो! चाहे रस प्रतीत ही क्यों न होता हो, वस्तुत: न ही हो, फिर भी होगा--स्वभवत ही सही, चाहे मरीचिका दिखाई पड़ती हो मरुस्थल में, न हो वहां जल, लेकिन दिखाई पड़ता है। और प्यासे को दिखाई पड़ना भी काफी है। और प्यासे को यह निर्णय करने की सुविधा नहीं है कि वह तय करे कि जो जल दूर दिखाई पड़ता है वह है भी या नहीं? दौड़ेगा।
यह सारी दौड़ सुख-दुख के आस-पास है। इसलिए सुख-दुख के तत्व में भीतर प्रवेश कर जाना जरूरी है। शायद सुख-दुख की संभावना ही बंधन का कारण है।
सुख क्या है? और दुख क्या है? ऊपर से देखने पर लगता है, दोनों बड़े विपरीत हैं; एक-दूसरे के बिलकुल दुश्मन हैं। ऐसा है नहीं। सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसलिए एक मजे की घटना घटती है लेकिन हम खयाल नहीं कर पाते कि जिसे हम आज सुख कहते हैं वही कभी कल दुख हो जाता है; और जिसे आज हम दुख कहते हैं वह कल सुख हो सकता है। कल तो बहुत दूर है, जिसे हम सुख कहते हैं, वह क्षण भर बाद दुख हो सकता है। यह भी हो सकता है कि जब हम कह रहे हैं यह सुख है, तभी वह दुख हो गया हो।
जो गहन खोज करते हैं मनुष्य के मन की, वे तो यह कहते हैं कि जब कोई व्यक्ति कहता है, यह सुख है, तभी वह दुख हो गया होता है। क्योंकि जब तक वह सुख होता है, तब तक यह कहने की भी सुविधा नहीं मिलती कि यह सुख है। वह जब क्षीण होने लगता है तभी।
सुख-दुख के संबंध में पहली बात समझ लेनी जरूरी है कि वे विपरीत नहीं हैं; वे एक-दूसरे में रूपातरित होते रहते हैं, लहर की भांति हैं--कभी इस किनारे, कभी उस किनारे। हम सब जानते हैं; हमने अपने सुखों को दुखों में परिवर्तित होते देखा है। लेकिन देख कर भी हमने निष्कर्ष नहीं लिए। शायद निष्कर्ष लेने के लिए हम अपने मन को अवसर नही देते हैं। एक सुख दुख बन जाता है, तब हम तत्काल दूसरे सुख की तालाश में चल पड़ते हैं। रुकते नहीं, ठहर कर देखते नहीं कि जिसे कल सुख जाना था, वह आज दुख हो गया, तो ऐसा तो नहीं है कि हम जिसे भी सुख जानेंगे, वह फिर दुख हो जाएगा? ऐसा मन कहता है कि यह हो गया दुख, कोई बात नहीं, कहीं कोई भूल हो गई, यह दुख रहा ही होगा, हमने भ्रांति से सुख समझ लिया था।
इसलिए और एक मजे की बात है कि जिस चीज को आप जितना बड़ा सुख मानते हैं, वह उतना बड़ा दुख बदलेगा, जब बदलेगा। जिस चीज को आप ज्यादा सुख नहीं मानते वह बदल कर ज्यादा दुख नहीं हो सकता। अनुपात वही होगा। इसलिए उदाहरण के लिए कहता हूं : अगर किसी का विवाह उसके माता-पिता ने कर दिया है, तो उसमें बहुत सुख की अपेक्षा ही नहीं होती, इसलिए दुख भी बहुत फलित नहीं होता।
प्रेम-विवाह जितना दुख लाता है, उतना दुख आयोजित विवाह नहीं ला सकता; क्योंकि आयोजित विवाह में कभी बहुत सुख की आशा ही नहीं थी। तो टूटेगा क्या? बिगड़ेगा क्या? बिखरेगा क्या? जितनी बड़ी अपेक्षा, उतना बड़ा दुख फलित हो सकता है। इसलिए पश्चिम ने सोचा था इधर पचास-सौ वर्षों में कि प्रेम-विवाह बहुत सुख ले आएगा। उन्होंने ठीक सोचा था। लेकिन उन्हें दूसरी बात का पता नहीं था कि प्रेम- विवाह बहुत दुख भी ले आएगा। और अनुपात सदा बराबर होगा। जितना बड़ा सुख अपेक्षा में होगा, जब रूपांतरण होगा, उतना ही बड़ा दुख होगा।
पूरब के लोग होशियार थे एक लिहाज से; उन्होंने एक दूसरी कोशिश की... उन्होंने कोशिश यह की कि सुख की अपेक्षा को ही कम करो ताकि जब परिवर्तन हो-- और परिवर्तन तो होगा ही--तो बहुत दुख फलित न हो।
आयोजित विवाह न तो सुख दे सकता है ज्यादा, न दुख दे सकता है ज्यादा। इसलिए आयोजित विवाह चल सकता है, प्रेम-विवाह चल नहीं सकता; क्योंकि इतने बड़े सुख की आशा जब इतने बड़े दुख में बदल जाती है--चाहा था शिखर और खाई उपलब्ध हो जाती है, तो टूटना निश्चित है।
आदमी चल सकता है समतल जमीन पर, जहां बहुत खाइयां और बहुत शिखर नहीं हैं। जहा शिखरों से खाइयों में गिरना पड़ता हो, उस पर ज्यादा देर चला नहीं जा सकता। इसलिए सिर्फ सौ वर्ष के प्रयोग में पश्चिम प्रेम-विवाह के बाद न-विवाह की हालत में आया चला जा रहा है। पांच हजार वर्ष तक पूरब बिना प्रेम-विवाह के बराबर विवाह को चलाया। समतल भूमि थी--न बड़ी खाइयां थीं, न बड़े शिखर थे। लेकिन पश्चिम सौ वर्ष भी प्रेम-विवाह की धारणा को चलाने में समर्थ नहीं हो पाया। अब वहां का विचारशील आदमी कह रहा है, यह विवाह ही छोड़ देने जैसा है; यह विवाह को रखने की जरूरत नहीं है। अगर सुख ज्यादा चाहिए तो विवाह छोड़ दो।
अब फिर वही भूल हो रही है। क्योंकि खयाल यह था कि सुख अगर ज्यादा चाहिए तो आयोजित विवाह छोड़ दो, प्रेम-विवाह ज्यादा सुख देगा। अब प्रेम-विवाह ने ज्यादा सुख तो क्षण भर को दिया और पीछे बड़े दुख की खाई छोड़ गया। और उस सुख की तुलना में यह खाई बहुत बड़ी मालूम पड़ती है।
अब फिर वही भूल पश्चिम की बुद्धि कर रही है, वह यह कि अगर और ज्यादा सुख चाहिए तो विवाह ही छोड़ दो। उन्हें पता नहीं किं वह और ज्यादा सुख और बड़े दुख. में छोड़ जाएगा। पर वह भूल स्वाभाविक है, क्योंकि हम सुख-दुख को विपरीत मानते हैं, कनवर्टिबल नहीं--कि वे एक-दूसरे में बदल जाते हैं। बदलते ही रहते हैं। एक क्षण को भी बदलाहट रुकती नहीं।
इस समझ के कारण पूरब ने एक और प्रयोग किया। उसने यह प्रयोग किया कि जब सुख दुख में बदल जाता है, तो क्या हम दुख को सुख में नहीं बदल सकते?
तपश्चर्या का सूत्र इस समझ से निकला। बहुत अनूठा सूत्र है तपश्चर्या का... यह इस समझ से निकला है कि जब सुख दुख में बदल जाता है तो कौन सी अड़चन है कि दुख सुख में न बदल जाए? और हमने दुख को भी सुख में बदल कर देखा। अगर आप दुख में रहने को राजी हो जाएं, तो दुख सुख में बदलने को तैयार हो जाता है। अगर आप सुख में रहने को राजी हो जाएं, तो सुख दुख में बदलने को तैयार हो जाता है।
आपके राजी होने से बदलाहट होती है। आपके राजी होने से बदलाहट होती है-- आप जिसमें भी रहने को राजी हो जाएं, वही बदलने को तत्पर हो जाता है। असल में आपके राजी होते ही बदलाहट शुरू हो जाती है। जैसे ही आपने कहा कि बस सुख मिल गया, अब मैं इसमें ही रहना चाहता हूं; अब मैं इसको बदलना नहीं चाहता.. बस समझिए कि बदलाहट शुरू हुई। अगर आप दुख में भी यही कह सके कि दुख मिल गया, मैं इसमें राजी हूं; अब मैं इसे बदलना नहीं चाहता--यही तपश्चर्या का सूत्र है कि दुख आया, मैं राजी हूं मैं बदलना नहीं चाहता।
और बड़े मजे की बात है कि दुख सुख में बदल जाता है। और अगर इन दोनों में ही चुनना हो, तो सुख को दुख में बदलने की कला के बजाय दुख को सुख में बदलने की कला ज्यादा बुद्धिमानी है। क्यों? उसका कारण है, क्योंकि दुख को जो सुख में बदल लेता है.. जो दुख को सुख में बदल लेता है, उसका सुख फिर दुख में नहीं बदल सकता। उसका कारण है कि जो दुख तक को सुख में बदल लेता है, उसका सुख कैसे दुख बन सकेगा? जो दुख तक को सुख में बदल लेता है, उसका सुख अब उस पर काम नहीं कर पाएगा, बदलाहट होगी नहीं उसे। असल में जो दुख को सुख में बदल लेता है, वह सुख की आकांक्षा ही छोड़ देता है, तभी बदल पाता है। और जब सुख की कोई आकांक्षा नहीं होती, तो सुख दुख में बदलने की क्षमता खो देता है।
आकांक्षा से क्षमता निर्मित होती है। इसे कभी प्रयोग करके देखें और आप बहुत हैरान हो जाएंगे। यह मनुष्य के भीतर रूपांतरण की गहरी कीमिया के सूत्रों में से एक है। जब दुख आपके ऊपर आए, तो उसे स्वीकार कर लें। इनकार से ही वह दुख है, अस्वीकार से ही वह दुख है; उसे स्वीकार कर लें समग्र मन से--राजी हो जाएं, आलिंगन कर लें और कह दें कि अब तुझे छोड़ने का कोई मन नहीं, तेरे साथ ही रहेंगे। और आप अचानक पाएंगे कि सब बदल गया जिसे आपने दुख की तरह देखा था, वह सुख हो गया है।
सुख दुख में बदल सकता है, दुख सुख में--क्यों? क्योंकि वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। और बदल क्यों जाते हैं?... और बदल क्यों जाते हैं--इस बदलने का क्या कारण है?
असल में जब एक आदमी सुख में जीता है, तो सुख से भी ऊब जाता है। जो चीज भी निरंतर मिलती है उससे ऊब पैदा हो जाती है। ऊब स्वाभाविक है। सुख भी ऊबाने लगता है।
जिसको आप प्रेम करते हैं, और चाहते हैं कि चौबीस घंटे उसके साथ रहें, और अगर चौबीस घंटे साथ रहना मिल जाए, तो मन करने लगेगा. कुछ देर तो फुर्सत मिले!
कुछ देर तो एकांत मिले। कुछ देर को तो पीछा छूटे! यह, यह बिलकुल स्वाभाविक हो जाएगा। जिसके साथ कभी सुख चाहा था, आज उससे थोड़े अलग होगें तो सुख मिलेगा। ऊब खड़ी हो जाती है। चित ऊबने लगता है। असल में जिसे भी आप जान लेते हैं, उसी से चित्त ऊबने लगता है, जिसे भी आप पूरा जान लेते हैं उसी से चित्त ऊबने लगता है। चित्त नये की तलाश पर निकल जाता है, रुचिकर भी अरुचिकर हो जाता है। आज जो भोजन अच्छा लगा है, भूल कर कल उसे मत करना, परसों उसे मत दोहराना, नहीं तो रुचि अरुचि बन जाएगी।
यह ऋषि कहता है

''जो रुचिकर वस्तु की इच्छा है, वही सुख है; और जो अरुचिकर वस्तु की कल्पना है, वही दुख है।''
किसी वस्तु को रुचिकर कल्पित करना सुख है, और किसी वस्तु को अरुचिकर कल्पित करना दुख है। और रुचि अरुचि में बदल जाती है, अरुचि रुचि में बदल जाती है।
शराब पीने वाले जानते हैं कि शराब पीने में शुरू में स्वाद तो अरुचिकर ही होता है, स्वाद को, वे कहते हैं, विकसित करना पड़ता है। वे कहते हैं, विकसित करना पड़ता है; जो जानते हैं, वे कहते हैं, विकृत करना पड़ता है, स्वाद की बुद्धि ही नष्ट करनी पड़ती है। अगर एक आदमी काँफी पीना शुरू करता है, तो काँफी रुचिकर नहीं मालूम पड़ती, लेकिन पीने वाले कहते हैं, घबड़ाओ मत, अभ्यास से रुचिकर हो जाएगी; स्वाद विकसित करना पड़ता है।
और आदमी कैसे भी स्वाद विकसित कर लेता है। एक आदमी धूम्रपान शुरू करता है, सिवाय कष्ट के कुछ भी नहीं मालूम पड़ता पहले दिन, लेकिन कल्पना रुचिकर की कि इतने लोग पी रहे हैं तो बहुत आनंद पा ही रहे होंगे, क्योंकि इतने लोग नासमझ नहीं हो सकते। और जब पीने वाला.. नया पीने वाला देखता है कि जो कहते हैं कि पीना बुरा है, वे भी पी रहे हैं--वे कहते हैं, मजबूरी है, लेकिन तुम मत पीओ--तब उसे लगता है कि जरूर कोई गहरा राज है; कोई छिपी हुई बात है; कोई सुख जरूर पाया जा रहा है जिससे मैं रोका जा रहा हूं। जब वह पहली दफे पीता है तो दुखद ही अनुभव है; पहला अनुभव सुखद नहीं हो सकता। तिक्त है स्वाद, धुआं ही शरीर में डाल रहा है, जो किसी कारण सुखद नहीं हो सकता--खांसी आएगी, बेचैनी होगी, माथा गर्म हो जाएगा, लेकिन इस आशा में, रुचिकर की आशा में, वह सुख की कल्पना किए चला जाएगा। धीरे- धीरे यह दुख सुख बन जाएगा। धीरे- धीरे यह दुख सुख बन जाएगा!
अभ्यास से दुख सुख हो जाता है; अभ्यास से ही सुख दुख हो जाता है।
दुख को भी कोई झेलता चला जाए तो संवेदनशीलता क्षीण हो जाती है और आदत बन जाती है; दुख की भी आदतें होती हैं। सुख को अगर कोई.. -झेलना ही पड़े सुख किसी को, तो ऊब पैदा हो जाती है; उससे भी बेचैनी और छुटकारे की आकांक्षा हो जाती है।
रुचिकर क्या है, अरुचिकर क्या है, इसे हम समझें तो सुख दुख कैसे रूपांतरित होते रहते हैं, और एक ही चीज के दो पहलू हैं, खयाल में आ जाएगा।
रुचिकर क्या है? किस बात को आप रुचिकर कहते हैं?
ऋषि ने कहा है इंद्रियों के लिए जो अनुकूल है, सानुकूल है, वह रुचिकर है। आपके लिए नहीं, इंद्रियों के लिए जो अनुकूल है वह रुचिकर है, और इंद्रियों के लिए जो अनुकूल नहीं है वह अरुचिकर है।
संगीत बज रहा है, कान को रुचिकर है; क्योंकि उस संगीत की जो चोट है, वह कान के लिए अनुकूल है। उससे व्याघात पैदा नहीं होता, उपद्रव पैदा नहीं होता, बल्कि विपरीत मन के भीतर चलता हुआ उपद्रव शिथिल होता है, शांत होता है। लेकिन जरूरी नहीं है। अगर बहुत शांत व्यक्ति हो, तो संगीत भी अरुचिकर है; क्योंकि तब संगीत भी एक व्याघात है, तब संगीत भी एक उपद्रव है।
पश्चिम का एक बहुत बड़ा संगीतज्ञ सुबर्ट कहा करता था--कहा करता था संगीत के संबंध में, खुद बड़ा संगीतज्ञ था वह.. कहा करता था कि संगीत जो है, वह सबसे कम अरुचिकर ध्वनियों का समूह है--सबसे कम अरुचिकर! सबसे कम उपद्रव है उसमें। है तो उपद्रव, क्योंकि है तो आखिर स्वरों का आघात ही। इसलिए परम संगीत तो शून्य है, लेकिन जिसने शून्य को जाना, उसे संगीत भी अरुचिकर मालूम पड़ेगा.. उसके कान को।
चीन का एक बहुत बड़ा संगीतज्ञ हुआ, हुई हाई। जैसे-जैसे संगीत उसका गहरा होता चला गया, वैसे-वैसे उसका वाद्य शांत होता चला गया। फिर एक दिन उसने अपने वाद्य को उठा कर फेंक दिया। दूर-दूर लोक-लोकांतर तक उसकी खबर पहुंच गई थी, हजारों मील चल कर लोग उसके पास आते थे। और जब दूसरे दिन सुबह नये यात्री आए उसका संगीत सुनने, और उसे उन्होंने बैठा वृक्ष के नीचे देखा बिना वाद्य के, तो उन्होंने पूछा. तुम्हारा वाद्य कहां है? तो हुई हाई ने कहा : अब वाद्य भी संगीत में बाधा हो गया। और हुई हाई ने कहा कि जब संगीत पूर्ण हो जाता है तो वीणा तोड़ देनी पड़ती है।
उसका कारण है, अगर बहुत ठीक से समझें तो कान के लिए जो ध्वनियां प्रीतिकर लगती हैं, वे इसीलिए प्रीतिकर लगती हैं कि भीतर और अप्रीतिकर ध्वनियां चल रही हैं, भीतर और उपद्रव, अराजकता है। उस अराजकता में यह सुलाने वाली दवा की तरह मालूम पड़ता है। सुखद लगता है, सांत्वना देता है; एक तरह की शाति को जन्म देता है। रुचिकर है।
लेकिन, अगर संगीत अस्तव्यस्त हो, सिर्फ शोरगुल हो आवाजों का तो अरुचिकर हो जाता है, क्योंकि कान को पीड़ा होती है। पीड़ा इसलिए होती है कि कान को ध्वनियां सिर्फ बेचैन करती हैं, शांत नहीं करतीं। सारे शरीर में जब हमने... इंद्रियों की जो व्यवस्था है हमारी--इंद्रियां हैं ग्राहक, बाहर के जगत में जो घटित हो रहा है उसे भीतर ले जाने के द्वार हैं। इन इंद्रियों को जो प्रीतिकर मालूम होता है वह वही है जो इन इंद्रियों को शांत करता है, अप्रीतिकर वही मालूम पड़ता है जो इन इंद्रियों को अशात करता है। बस, इससे ज्यादा प्रीतिकर, अप्रीतिकर का कोई अर्थ नहीं है। लेकिन जो चीज इंद्रियों को आज शांत करती है, कल अशांत कर सकती है; क्योंकि इंद्रियां स्वयं सरित-प्रवाह हैं, वे भी बदली जा रही हैं।
जैसे, एक आदमी नया रेलवे की नौकरी पर जाता है, स्टेशन पर सोता है, नींद नहीं आती--ट्रेन की आवाजें हैं, इंजन की आवाजें हैं, शंटिंग है और शोरगुल है, और सब तरह का उपद्रव है--नींद नहीं आती, बड़ा बेचैन होता है कान। लेकिन नींद एक जरूरी चीज है। आज नहीं कल, इस बेचैनी को एक तरफ रख कर नींद आनी शुरू हो जाती है, लेकिन बहुत जल्दी वह वक्त आ जाता है कि यह आदमी अब अपने घर नहीं सो सकता, क्योंकि यह सब उपद्रव इसकी नींद का अनिवार्य हिस्सा हो गया। यह हो तो ही यह सो सकता है, यह न हो तो यह नहीं सो सकता। यह इसका क्रियाकांड का हिस्सा हो गया। इतना उपद्रव चाहिए ही।
बहुत लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं कि बड़ी मुसीबत है, बड़ी बेचैनी है, बड़ी अशांति है। मैं भलीभांति जानता हूं कि अगर उनकी सब बेचैनी और सब अशाति छीन ली जाए तो फौरन परमात्मा से वे प्रार्थना करेंगे, बेचैनी वापस दो, अशांति वापस दो। उनको पता नहीं है कि वह उनका क्रियाकांड है, वे उसके बीच ही जी सकते हैं। इसलिए अगर उन्हें एकांत में भेज दिया जाए, तो दो-चार दिन में वे कहते हैं कि वापस जाना है; यहां बहुत खाली-खाली लगता है; यहां कोई सार नहीं है। सार वहीं है जहां सारा उपद्रव चल रहा है। क्यों?
इंद्रियां अगर आप उनको अरुचिकर का भी भोजन दिए चले जाएं तो थोड़े दिन में राजी हो जाती हैं, क्योंकि मजबूरी है। और जब राजी हो जाती हैं तो वही प्रीतिकर हो जाता है जो अरुचिकर मालूम पड़ा था, अप्रीतिकर मालूम पड़ा था। अगर आप रुचिकर का भोजन दिए चले जाएं तो रुचिकर बार-बार लेने से धीरे- धीरे इंद्रिय का स्वाद मर जाता है... वही- वही रोज देने से उसकी संवेदना क्षीण हो जाती है; वही अरुचिकर मालूम पड़ने लगता है।
एक बड़े कवि मुझे मिलने आए थे। बातचीत चलती थी, तभी एक संगीतज्ञ भी आ गए। उन संगीतज्ञ ने कवि को कहा कि कोई एकाध कविता सुनाएं। उन कवि ने कहा:
क्षमा करें। कविता से इस बुरी तरह ऊब गया हूं कि कुछ और.. कुछ और चलेगा, कविता नहीं। बड़े कवि हैं, कविता से ऊब गए हैं। ऊब ही जाएंगे।
और इसलिए अक्सर दुनिया में एक अनूठी घटना घटती है कि आदमी जिंदगी में कई बार छलांगें ले लेता है। बड़े बुद्धिमान आदमी कई बार बड़े गैर-बुद्धिमानी के काम करने में लग जाते हैं; वह सिर्फ बदलाव है, वह सिर्फ बदलाहट है; ऊब गए हैं। इसलिए कभी-कभी दिखाई पड़ता है कि गांव का एक साधारण आदमी है--कुछ कीमत नहीं है, कोई अनुभव नहीं है, कोई गहराई नहीं है, लेकिन हाई कोर्ट का चीफ जस्टिस उसके चरणों में बैठा हुआ है। क्या हो गया है इस हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस को? यह ऊब गया है बुद्धिमानी से। काफी बुद्धि इसने झेल ली। अब यह कोई गैर-बुद्धिमानी का काम न करे, तो इसे अपने से ही छुटकारा नहीं है। और फिर इसको देख कर न मालूम कितने नासमझ इसके पीछे आएंगे, क्योंकि वे इसे बुद्धिमान समझ कर चले आ रहे हैं.. कि जब यह बुद्धिमान जा रहा है कहीं, तो अब तो गैर-बुद्धिमानों को जाने के लिए रास्ता खुल गया। और उन्हें पता नहीं कि यह जा रहा है सिर्फ इसलिए कि अब यह बुद्धि से बुरी तरह ऊब गया है 1 बुरी तरह ऊब गया है!
रुचिकर सदा रुचिकर नहीं रहता। इसके और भी कारण हैं, क्योंकि आप पूरे समय विकसित हो रहे हैं। बच्चा है, खिलौना रुचिकर लगता है; लेकिन एक उम्र आ जाएगी कि खिलौना रुचिकर नहीं लगेगा, क्योंकि बच्चा बच्चा नहीं रहा। खिलौने फेंकने ही पड़ेंगे। और ये वे ही खिलौने हैं जो अगर टूट जाते तो बच्चा समझता कि जैसे उसका कोई प्रियजन मर गया है। इन्हीं को वह छोड कर एक दिन हट जाएगा; क्योंकि उसकी चेतना विकसित हो रही है।
जो कल रुचिकर था, वह आज रुचिकर नहीं रहा। आज वह नये खिलौने खोजेगा, हालांकि उसे खयाल में नहीं होगा, ये भी खिलौने हैं। कल उसने गुड़िया सजाई थी, आज वह पत्नी सजाका। सजावट वही होगी, ढंग वही होगा। लोग उसकी गुड़िया की प्रशंसा करें, यह कल चाहा था; आज उसकी पत्नी की प्रशंसा करें, यह चाहा जाएगा। लेकिन गुड़िया थी गुड़िया, इसलिए किसी दिन फेंक दिया तो कठिनाई नहीं हुई। अब यह पत्नी को फेंकना इतना आसान पड़ने वाला नहीं है। और आज नहीं कल, इसके भी पार हो जाएगा मन, तब बेचैनी खड़ी होगी; तब पुराने किए वायदे और आश्वासन बाधा बनेंने। तब अपने से ही बंधा हुआ आदमी पाता है कि यह तो मैन ही कहा था, अब इसको मुकरना भी मुश्किल है। और बात भी खो गई, यह सजावट भई ब्रो गई, अब इसमें भी कोई रस न रहा। तो रोज हम बदल रहे हैं। रोज हम बदल रहे हैं। जवान आदमी था, मंदिर रुचिकर नहीं मालूम पड़ता था। निकला था उसके सामने से, समझता था पागल उसके भीतर गए होंगे। अभी वेश्यागृह ज्यादा सुखद और प्रीतिकर था। अभी मंदिर बिलकुल नासमझों की जमात दिखाई पड़ती थी। लेकिन आज नहीं कल, मंदिर सार्थक हो जाएगा।
कार्ल गुस्ताव जुग ने अपने जीवन के संस्मरणों में लिखा है कि मेरे पास इलाज कराने वाले हजारों मरीज मन के जो आए हैं, उनमें अधिकतम वे हैं जो चालीस साल के ऊपर हैं, और उनकी एक ही तकलीफ यह है कि वे मंदिर का द्वार भूल गए हैं, और कोई उनकी अड़चन नहीं। एक ही उनकी बीमारी है कि उन्हें मंदिर का कोई पता ही नहीं कि मंदिर भी है, और चालीस साल की उम्र के बाद मंदिर का द्वार सार्थक होना शुरू हो जाता है। लेकिन वह भी खिलौना है।
बच्चे के खिलौने हैं, जवान के खिलौने हैं, बूढ़े के खिलौने हैं। और एक दिन उससे भी ऊब आ जाती है। और जब तक खिलौनों से ही कोई मुक्त नहीं हो जाता, तब तक उपद्रव में बदलाहट होती रहती है लेकिन उपद्रव समाप्त नहीं होता।
तो एक आदमी अपनी पत्नी को सजाने से अब ऊब गया है, तो रामचंद्र जी को सजा रहा है! अब उनका जुलूस निकाल रहा है, शोभायात्रा चल रही है। मगर यह आदमी यह नहीं समझ पा रहा कि यह सजावट कब तक? यह कब तक जारी रखनी है? सिर्फ गुड़िया बदलते चले जाना है? खयाल ही नहीं आता कि आज जो सुखद है, कल वह.. कल अरुचिकर हो जाएगा।
क्या, किया क्या जाए? रुचि और अरुचि क्या है, इसे ठीक से समझ लिया जाए। जो आज मेरी इंद्रिय को इस क्षण में सुखद मालूम पड़ता है, संगतिपूर्ण मालूम पड़ता है, अनुकूल मालूम पड़ता है, उसे मैं कहता हूं 'सुख', जो आज इस क्षण में इसके विपरीत पड़ता है, उसे मैं कहता हूं 'दुख।' सुख को मैं चाहता हूं दुख को मैं नहीं चाहता हूं सुख मुझे मिल जाए पूरा और दुख मुझे बिलकुल न मिले, यह मेरी आकांक्षा है। यह आकांक्षा ही शरीर से बंधने का कारण बन जाती है; क्योंकि शरीर में ही इंद्रियों के द्वार हैं, उन्हीं से सुख मिलता है, और उन्हीं से दुख रोका जा सकता है। इसलिए चेतना शरीर के साथ सम्मिश्रित होकर बंध जाती है। और जब तक कोई सुख-दुख दोनों को ठीक से समझ कर पार न हो, तब तक शरीर के पार नहीं हो सकता।
इसलिए पांच शरीरों के बाद तत्काल ऋषि ने सुख-दुख की चर्चा शुरू की है। यह सुख-दुख की चर्चा अर्थपूर्ण है इसलिए कि यह पांच शरीर की चर्चा से कुछ भी न होगा, जब तक कि शरीर के बंधने का राज ही हमारे खयाल में न आ जाए कि हम बंधते क्यों हैं? इससे विपरीत अगर हम कर सकें, उसी का नाम तप है।
सुख की आकांक्षा न करें, दुख को हटाने का खयाल न करें; सुख को मागें न, दुःख को हटाएं न। सुख को जो मांगेगा, दुख से जो बचेगा, वह शरीर से बंधा रहेगा। सुख की जो मांग नहीं करेगा, दुख मिल जाए तो राजी हो जाएगा, वह शख्स.. वह व्यक्ति शरीर से छूटने लगेगा।

सुख की अपेक्षा, दुख से भय--शरीर के बाहर ले जाता है; सुख की अपेक्षा नहीं, दुख से निर्भय--शरीर के भीतर ले जाता है। भोग और तप का यही भेद है।
सुख मांगते हैं तो बाहर संघर्ष करना पड़ेगा--सुख को बचाना पड़ेगा, दुख से बचना पड़ेगा; गहन संघर्ष होगा बाहर। इसलिए चेतना को सदा शरीर के बाहर भटकना पड़ेगा--मकानों में, धनों में, पदों में, दूसरों में।
तप का अर्थ है.. कि नहीं, सुख की कोई आकांक्षा नहीं है, क्योंकि बहुत सुख जाने और उनको दुखों में बदलते देखा। अब सुख को नहीं जानना; और अब दुख को भी हटाने की कोई इच्छा नहीं है। क्योंकि दुख को हटा-हटा कर देख लिया, वह हटता कहां है! वह बना ही रहा चला जाता है। उलटे उसे हटाने में और दुख भोगना पड़ता है... और वह फिर लौट-लौट कर आ जाता है। न ही दुख को हटाते हैं, न ही सुख को मांगते हैं; अब हम राजी हैं, जो जैसा है। यात्रा भीतर की तरफ शुरू हो गई; बाहर कोई संघर्ष न रहा। यह अंतर्यात्रा ही शरीरों से छुटकारा दिला सकती है।
सुख-दुख के लिए जो क्रियाएं करता है व्यक्ति, ऋषि ने उसे ही कर्ता कहा है--दि डुअर; जो सुख-दुख के लिए क्रियाएं करता है--जो मांगता है कि सुख मुझे मिले और दुख मुझे न मिले, यह कर्ता है। लेकिन जो कहता है कि जो मिले, ठीक; न मिले, ठीक; दोनों में भेद ही नहीं करता, यह अकर्ता हो जाता है; यह नॉन-डुअर हो जाता है। और जब व्यक्ति अकर्ता होता है तो परमात्मा कर्ता हो जाता है। इसी से भाग्य की कीमती धारणा पैदा हुई।
भाग्य का मतलब ज्योतिषी से नहीं है; भाग्य का खयाल बहुत आध्यात्मिक है। उसका हाथ की रेखाओं से कुछ लेना-देना नहीं; उसका भविष्य से कोई संबंध नहीं; उससे रास्ते के किनारे पर बैठे हुए ज्योतिषी से कोई संदर्भ ही नहीं है उसका। भाग्य की धारणा इससे पैदा हुई कि जब मैं कर्ता नहीं हूं और चीजें तो हो ही रही हैं, चीजें तो घटित हो ही रही हैं और मैं कर्ता नहीं हूं क्योंकि कर्ता तभी तक मैं होता हूं जब तक मैं मांगता हूं कि सुख मिले और दुख न मिले; तब तक संघर्ष करता हूं तो कर्ता होता हूं। अब कर्ता नहीं रहा; अब जो मिल जाए ठीक है, न मिल जाए ठीक है, मैंने फिकर ही छोड़ दी मिलने-न मिलने की। सुख आए तो मैं फिकर नहीं करता कि सुख है, दुख आए तो मैं फिकर नहीं करता कि दुख है-- धीरे- धीरे भेद ही गिर जाता है और पहचानना ही मुश्किल हो जाता है कि क्या सुख है और क्या दुख है; दोनों के बीच आदमी निर्लिप्त हो जाता है।
ऐसी जो निर्लिप्ता है, इसमें कर्ता तो खो जाएगा, क्योंकि करने को कुछ बचा नहीं। करना था ही क्या? एक ही था : सुख कैसे पाएं और दुख से कैसे बचें.. वही करना था। अब कर्म का कोई उपाय न रहा.. फिर भी चीजें तो होती ही चली जाती हैं। जब व्यक्ति कर्ता नहीं रह जाता तो परमात्मा कर्ता हो जाता है। और जब परमात्मा कर्ता हो जाता है, इस भाव-दशा का नाम ही भाग्य है, विधि है।
ऐसे व्यक्ति की गर्दन काट दो, तो वह कहता है, कटनी थी। वह इसमें उसको भी दोषी नहीं ठहराता है जिसने काटी, क्योंकि अब वह मानता है, कर्ता कोई है नहीं। कटनी थी; कर्ता विलीन हो गया। ऐसे व्यक्ति को जहर पिला दो, तो वह कहता है, पीना था, होना था। और जो व्यक्ति जहर पिलाते वक्त भी जानता हो कि होना था, क्या उसके मन में क्षण भर को भी क्रोध आ सकता है उसके प्रति जिसने जहर पिला दिया? क्योंकि अब वह मानता ही नहीं कि कोई कर्ता है; इसलिए अब दोषारोपण समाप्त हुआ; इसलिए अब कोई जिम्मेवार है यह बात ही खत्म हुई--अब जो भी हो रहा है, वह परम नियति है; उसमें व्यक्ति का कोई लेना-देना नहीं है। ऐसा व्यक्ति अगर परम शांति को, परम संतोष को उपलब्ध हो जाए तो आश्चर्य क्या है?
जो सुख-दुख के बीच चुनाव करता है, वह कभी संतोष को उपलब्ध नहीं हो सकता; जो सुख-दुख में भेद करता है वह कभी संतोष नहीं पा सकता। जिसने सुख-दुख का भेद ही छोड़ दिया, वह संतुष्ट है। इसलिए लोग जो समझाते रहते हैं--बड़ी कीमती बातें भी कभी बहुत नासमझी के आधार बन जाती हैं।
लोग कहते हैं : संतोष में ही सुख है। पागल हैं बिलकुल, उन्हें संतोष का पता ही नहीं; अभी भी वे सुख को ही संतोष के साथ एक कर रहे हैं! और वे जिसको समझा रहे हैं, इसलिए समझा रहे हैं कि अगर सुख चाहते हो तो संतोष रखो। और जो सुख चाहता है वह संतुष्ट हो नहीं सकता, क्योंकि सुख असंतोष का सूत्र है। जो सुख चाहता है वह दुख से बचेगा ही; नहीं तो सुख चाह नहीं सकता। तो संतुष्ट कैसे होगा? सुख संतोष नहीं है। संतोष सुख नहीं है; संतोष सुख-दुख के पार है। और संतुष्ट वही है, जिसने सुख-दुख का भेद ही त्यागा। संतोष दोनों का अतिक्रमण करता है। इसलिए आप अगर कभी सुख मान कर संतोष कर रहे हों तो भ्रांति में मत पड़ना, आपका संतोष निपट धोखा है।
नियति, भाग्य, विधि परम आध्यात्मिक शब्द हैं। व्यक्ति अहंकार से मुक्त हुआ, यह उनका प्रयोजन है। अस्मिता नहीं है अब, शिकायत नहीं है अब, जो हो रहा है उसकी परम स्वीकृति है, टोटल एक्सेप्टेंस है। उससे अन्यथा होने का कोई कारण ही नहीं है। उससे अन्यथा हो ही नहीं सकता था। उससे अन्यथा की कोई चाह भी नहीं है। उससे अन्यथा होना चाहिए था इसका कोई स्वप्न भी नहीं है।
ऐसी जो तथाता है, ऐसा जो भाव है स्वीकार का, यह अगर आपके भीतर सारी लहरों को शांत कर जाए तो आश्चर्य है? सब लहरें खो जाएं तो आश्चर्य है? और इस लहर के खोने में ही आप भीतर... और भीतर... और भीतर प्रवेश करते चले जाते हैं।
इंद्रियां ही सुख और दुख के कारण हैं।
''शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध--ये ही सुख-दुख के कारण हैं।''

''पुण्य और पाप कर्मों का अनुसरण करने वाला आत्मा प्राप्त हुए शरीर के संयोग को अप्राप्त होते हुए भी स्वयं की तरह समझने लगता है, तब उसे उपाधिग्रस्त जीव कहते हैं। '' शरीर में हूं मैं, लेकिन शरीर नहीं हूं। शरीर में होना एक बात है, शरीर हो जाना बिलकुल दूसरी। शरीर में हूं ऐसा जो जानता है, वह आत्मा है; शरीर ही हूं ऐसा जो जानता है, वह जीव है--उपाधिग्रस्त हो गया, भ्रम में पड़ गया, भूल में पड़ गया; भ्रांति में पड़ गया; जो है, नहीं समझ रहा अपने को और जो नहीं है वह समझने लगा।
शरीर हूं मैं, यह क्यों पैदा हो जाता है? वही सुख-दुख के कारण, क्योंकि जिससे सुख-दुख मिलते हैं, जब सुख-दुख की.. सुख की आकांक्षा और दुख से बचने का भाव प्रबल होता है, तो जिससे मिलते हैं उसके साथ हम एकात्म अनुभव करने लगते हैं। प्रेमी अपनी प्रेयसी से कहता है, मुझमें और तुझमें अब कोई भेद नहीं, हम बिलकुल एक हो गए.. कभी हो नहीं सकते.. हम बिलकुल एक हो गए--क्यों? क्योंकि जिससे सुख मिलता है, हम उससे एकता साधना चाहते हैं, फासला नहीं रखना चाहते, क्योंकि फासले से कहीं सुख चूक न जाए। जरा सा भी फासला हुआ तो सुख पार कैसे आएगा--तो हम सब रंध्र-रंध्र तोड़ देना चाहते हैं, स्थान मिटा देना चाहते हैं, बिलकुल पास हो जाना चाहते हैं। इतने पास हो जाना चाहते हैं कि बीच में कोई जगह खाली न रह जाए, नहीं तो सुख के आने में बाधा पड़ेगी।
इसलिए जिससे हमें सुख मिलता है उससे हम अपने को एक कर लेते हैं। जिससे दुख मिलता है, उससे बड़ा फासला करते हैं, उससे बचते हैं, उसे देखना भी नहीं चाहते; उसके पास नहीं होना चाहते, उससे दूर होना चाहते हैं। इसलिए जिससे दुख मिलता है उसकी हम हत्या तक करने का विचार करते हैं, उसका जीवित होना भी हमारे लिए निकटता मालूम पड़ती है। वह कहीं भी जीए--हिमालय पर रहे, तिब्बत चला जाए, लेकिन जिंदा है, तो लगता है कि उसी हवा को छू रहा है जिसको हम छू रहे हैं, उसी आकाश के नीचे है जिसके नीचे हम हैं। उसको हम इतना भी बर्दाश्त नहीं करना चाहते, उसको मिटा ही डालना चाहते हैं--वह रह ही न जाए; वह कहीं न हो, तभी हमें चैन मिलेगा। फासला इतना हो जाना चाहिए, जितना जिंदा और मुर्दें के बीच होता है।
जिससे दुख मिलता है उसे हम दूर करना चाहते हैं, जिससे सुख मिलता है उसे हम पास करना चाहते हैं।
अब यह बहुत मजे की बात है : जब भी हमें सुख मिलता है तो हम समझते हैं वह हमारे शरीर से मिल रहा है; और जब भी दुख मिलता है हम समझते हैं वह दूसरे के शरीर से मिल रहा है। यह बहुत मजे का मामला है। यह बहुत ही मजे का राज है. जब भी हमें सुख मिलता है, तो हम समझते हैं हमारे शरीर से मिल रहा है। सुख के लिए हम कभी किसी दूसरे को जिम्मेवार नहीं ठहराते, सुख के लिए हम सदा स्वयं ही जिम्मेवार होते हैं; और दुख के लिए हम सदा दूसरे को जिम्मेवार ठहराते हैं।
अगर मुझे कोई प्रेम करता है, तो मैं समझता हूं कि मैं प्रेम करने योग्य हूं ही। होना ही चाहिए, जैसा हो रहा है, इसमें कोई.. इसमें कोई धन्यवाद देने तक का कारण नहीं है; मैं प्रेम करने योग्य हूं ही। और जब मुझ पर कोई क्रोध करता है तो मैं समझता हूं यह आदमी दुष्ट है, क्रोधी है। तब मैं ऐसा नहीं सोचता कि मैं क्रोध करने योग्य हूं ही।
और दोनों बातें एक साथ हैं। यह विभाजन तरकीब है, और धोखा है। या तो मैं दोनों हूं या मैं दोनों नहीं हूं। दो में से कुछ भी आदमी चुन ले तो सत्य की तरफ आसानी हो जाती है। दो में से कुछ भी चुन ले : या तो मैं दोनों हूं--प्रेम करने योग्य भी और घृणा करने योग्य भी। अगर मैं दोनों चुन लूं तो दोनों काट देते हैं एक-दूसरे को, क्योंकि मैं दोनों एक साथ कैसे हो सकता हूं? या मैं यह चुन लूं कि मैं दोनों नहीं हूं--न घृणा करने योग्य, न प्रेम करने योग्य; तब भी मैं खालीरह जाता हूं।
लेकिन हमारी तरकीब यह है कि हम अपने को समझ लेते हैं कि मैं समस्त सुखों को पाने का अधिकारी हूं और अगर मुझे दुख मिलते हैं तो दूसरों की कृपा से, सदा दूसरे कारणभूत हैं।
इसलिए कोई आदमी यह नहीं पूछता कि संसार में सुख क्यों है। मुझसे लोग आकर पूछते हैं, संसार में इतना दुख क्यों है? अभी मुझे एक ऐसा आदमी नहीं मिला जिसने आकर पूछा हो कि संसार में इतना सुख क्यों है? उसको तो वह मानता ही है कि अधिकारी है, उसमें कोई पूछने का सवाल ही नहीं.. टेकन फॉर ग्रांटेड। होना ही चाहिए, ऐसा है। दुख क्यों है, यह सवाल है। कोई मुझसे आकर नहीं पूछता कि आदमी जीता क्यों हैं? लोग पूछते हैं कि आदमी मरता क्यों है? मृत्यु क्यों है? जीवन तो होना ही चाहिए, लेकिन मृत्यु क्यों है? ऐसा लगता है कि जीवन तो हमारे भीतर है, मृत्यु कहीं बाहर से 'मती है। यह मजा है। तो मृत्यु को हम सदा दूर सोचते हैं.. कहीं बाहर से आती है और हमको मार डालती है। और जीवन हम हैं, और मृत्यु कहीं बाहर है--कभी बीमारी की उससे हम अपने को एक मानने लगते हैं; जिससे दुख मिल रहा है, उससे हम अपने को तोड़ना चाहते हैं। और चूंकि हम अपने शरीर को समझते हैं कि इससे सुख मिल रहा है, हम शरीर के साथ बंध जाते हैं।
आत्मा जब शरीर को समझने लगती है कि मैं शरीर ही हूं तो इसको ही उपाधि, बीमारी, दि वेरी डिज़ीज़, दि ओनली डिज़ीज़--एकमात्र बीमारी, ज्ञानियों ने कहा है। यही है उपाधि, यही है बीमारी। इस बीमारी से छूटने का एक ही उपाय है.. कि शरीर से सुख भी मिलता है तो दुख भी मिलता है--इस पूरे सत्य को देख लें; तो सुख और दुख एक- दूसरे को काट देंगे, निगेट कर देंगे--और आपको लगेगा कि अब हम उसकी तलाश करें, जिससे न दुख मिलता, न सुख मिलता, जिससे आनंद मिलता है।
आनंद न दुख है, न सुख; आनंद दोनों का अभाव है। उस खोज पर हम निकलें।

आज इतना ही।

अब हम... अब हम कोशिश करें शरीर से थोड़ा पीछे हटने की।...

 

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