ध्यान
योग शिविर
26
मार्च 1972,
रात्रि
माऊंट
आबू, राजस्थान।
सूत्र
:
न
कर्मणा न
प्रजया धनेन
त्यागेनैके
अमृतत्वमानशु:।
परेण
नाकं निहित
गुहायां
विभ्राजते
यद्यतयो
विशान्ति ।।3।।
उस
परमतत्व को धन, संतान, अथवा
कर्म के
द्वारा
प्राप्त नहीं
किया जा सकता।
त्याग ही एक
ऐसा मार्ग है,
जिसके
द्वारा ब्रह्मज्ञानियों
ने अमृतत्व को
प्राप्त किया
है।
स्वर्गलोक से
ऊपर हृदय की
गुफा
ब्रह्मलोक में
स्थित वह
परमतत्व
आलोकित है, जिसे
निष्ठावान
साधक ही
प्राप्त कर
सकते हैं।। 3।।
मृत्यु
मनुष्य को
घेरे हुए है, चारों ओर, सब दिशाओं
में। कहीं भी
मनुष्य चले, अंततः मृत्यु
को उपलब्ध हो
जाता है। चाहे
हम सोचें, चाहे
न सोचे; यह
कौन मित्र बात
कर रहे हैं
वहां, बात
बंद करें...
चाहे सचेतन हो
हमारा मन, या
न हो, मृत्यु
का भय प्रतिपल
खड़ा रहता है।
वस्तुत: शेष
सारे भय
मृत्यु के ही
भय की छायायें
हैं।
चाहे
कोई निर्धनता
से डरता हो, चाहे कोई
बीमारी से
डरता हो; और
चाहे अपयश से
डरता हो, असफलता
से डरता हो, लेकिन समस्त
भय के पीछे, गहरे में
मृत्यु का ही
भय खड़ा हुआ है।
निर्धनता से
इसलिए मन डरता
है कि धन होगा,
तो मृत्यु
से सुरक्षा की
'जा सकती
है। असफलता से
इसलिए मन डरता
है कि सफलता
होगी, तो
शायद हम सबल
होंगे और मृत्यु
से लड़ सकेंगे।
मृत्यु
का भय एक पहलू
है जीवन के
सिक्के का। और
दूसरा पहलू है
जीवन को पकड़
रखने की तीव्र
लालसा। जिस
मात्रा में
लालसा तीव्र
होती है कि
जीवन को हम
पकड़ रखें, उसी मात्रा
में भय भी
तीव्र हो जाता
है कि जीवन
कहीं हमारे हाथ
से छूट न जाए।
जितनी होती है
पकड़, उतना
ही भय भी हो
जाता है।
यह
मृत्यु का भय
मनुष्य को न—मालूम
कितने
प्रयत्नों
में ले जाता
है। जीवन भर
हम जीते कम
हैं, मृत्यु
से बचने के
उपाय ज्यादा
करते हैं।
शायद जीने का
अवसर ही नहीं
मिल पाता।
मृत्यु से भय
इस बुरी तरह
छिदा रहता है
हृदय में कि
हृदय में जीवन
का रसूल भी
खिले तो कैसे
खिले। दौड़ते
हैं, भागते
हैं, धन
कमाते हैं, यश कमाते
हैं, दीवालें
बनाते हैं, तिजोडिया
निर्मित करते
हैं, सुरक्षा
का इंतजाम
करते हैं, सिर्फ
इसलिए कि कहीं
मिट न जाएं।
और फिर भी मिट
तो जाते हैं।
सब उपाय पड़े
रह जाते हैं।
सब आयोजन
व्यर्थ हो
जाता है। सब
प्रयत्न, सब
प्रयास, सब
चेष्टाएं
शून्य सिद्ध
होती हैं। और
मृत्यु द्वार
पर एक दिन आ ही
जाती है।
अरबों—खरबों
लोगों ने
मृत्यु से
लड़कर ऐसे ही
जीवन को नष्ट
किया है। फिर
भी हम भी वैसा
ही करते हैं।
बिना यह खयाल
किये कि जिस
मृत्यु से हम
लड़ रहे हैं, उससे कभी भी
कोई जीत नहीं
सका है। कैसे
ही उपाय किये
हों। कोई
सोचता है कि
मैं तो मर
जाऊंगा, लेकिन
मेरी संतान तो
रहेगी। तो
व्यक्ति
संतान को
संभालता है।
जिनके बेटे
नहीं हैं, वे
पीड़ित होते
हैं कि हमारे
साथ ही हमारी
शृंखला टूट
जाएगी। तो
बेटे हैं, तो
मैं मर जाऊंगा
कोई चिंता
नहीं, लेकिन
किसी के
द्वारा मैं
जीता रहूंगा।
किसी में मेरा
कोई अंश जीवित
रहेगा। संतति
में भी आदमी
मृत्यु से
बचाव ही खोजता
है। मैं तो मर
जाऊंगा, लेकिन
मेरा कोई
हिस्सा जीवित
रहेगा, तो
भी एक अर्थ
में मैं अमर
हुआ। नहीं, कोई संतान
में खोजता है,
तो कोई
व्यक्ति अमर
कृतियों में
खोजता है।
एक
चित्रकार
सोचता है, मैं मिट
जाऊंगा, मेरे
चित्र तो
रहेंगे।
मूर्तिकार
सोचता है, मैं
मिट जाऊंगा, मेरी मूर्ति
तो रहेगी।
संगीतज्ञ
सोचता है, मैं
मिट जाऊंगा, लेकिन मेरा
संगीत रहेगा।
यह भी अमरता
को खोजने की
विधियां हैं।
लेकिन जब मैं
ही मिट जाऊंगा,
मैं पूरा—का—पूरा
मिट जाता हूं
तो मेरा जो
अंश है, मेरी
जो संतान है, वह भी कितनी
देर बच सकेगी?
और जब मैं
ही मिट जाता
हूं तो मेरा
चित्र, और
मेरी बनायी
मूर्ति और
मेरे हाथ से
निर्मित
साहित्य और
मेरा काव्य, वह भी कितनी
देर बच सकेगा?
वह भी मिट
जाएगा।
वस्तुत:
इस जगत में
समय की धारा
में जो भी
पैदा होता है, वह मिटेगा
ही। समय के
भीतर मृत्यु
शुनिश्रित
घटना है। समय
के भीतर
मृत्यु होगी
ही। समय में
जो भी घटेगा, वह मिटेगा
ही।
असल
में बनना और
मिटना एक ही
चीज के दो छोर
हैं। जब कोई
चीज बनती है, तो मिटना
शुरू हो जाती
है। और जब कोई
जन्मता है, तो मृत्यु
की यात्रा
शुरू हो जाती
है। जब
प्रारंभ हो
गया, तो
अंत भी होगा
ही। वह अंत
कितनी देर से
होगा, यह
गौण है। इसका
मूल्य भी नहीं।
कितनी ही देर
से हो, लेकिन
अंत होगा ही।
बुद्ध ने कहा
है, फिर
मैं सात वर्ष
में मरूं, कि
सत्तर वर्ष
में, कि
सात सौ वर्ष
में, इससे
कोई बहुत फर्क
नहीं पड़ता। जब
मैं मरूंगा ही,
तो जन्म के
साथ ही मेरे
भीतर मृत्यु
का बीज भी आ ही
गया। कितनी
देर, यह
गौण है। और
देर में भी
मैं क्या करूंगा?
अगर मृत्यु
पीछे खड़ी ही
है, तो कोई
सात वर्ष
मृत्यु से
भयभीत होकर
जिएगा, कोई
सत्तर वर्ष, कोई सात सौ
वर्ष, लेकिन
इस जीने में
हम करेंगे
क्या? जब
द्वार पर
मृत्यु
निरंतर खड़ी ही
हो, और
किसी भी क्षण
घटित हो सकती
हो, तो यह
जीवन एक कंपता
हुआ जीवन होगा।
महावीर
ने कहा है कि
जैसे ओस की
बूंद घास के
पत्ते पर सुबह
पड़ी हो, हवा
के झोंके में
कंपती हो।
कितनी देर सधी
रहेगी? कितनी
देर हवा के
झोंकों से
बचेगी? कितनी
देर अपने को
संभालेगी घास
की पत्ती की नोक
पर? गिरेगी
ही। अभी, थोड़ी
देर बाद कभी, गिरेगी ही।
महावीर ने कहा
है, आदमी
का जीवन भी
ऐसा ही पत्ते
की नोक पर सधी
हुई ओस की
बूंद के जैसा
है। अभी, अभी,
अभी गिरता
ही है। गिर ही
जाएगा।
आदमी
ने जितने भी
उपाय किये हैं
अमृत को पाने के, वे सभी
निष्फल जाते
हैं। सिर्फ एक
उपाय निष्फल
नहीं गया है, इस सूत्र
में उसकी
चर्चा है
'उस
परमतत्व को धन,
संतान अथवा
कर्म के
द्वारा
प्राप्त नहीं
किया जा सकता।
त्याग ही एक
ऐसा मार्ग है,
जिसके द्वारा
ब्रह्मज्ञानियों
ने अमृत को
प्राप्त किया
है।
स्वर्गलोक से
भी ऊपर हृदय
की गुफा में
स्थित वह परम
तत्व आलोकित
है, जिसे
निष्ठावान
साधक ही
प्राप्त कर
सकते हैं।'
इस सूत्र
में कुछ बातें
समझें।
वह जो
अमृत है, वह
जो जीवन की
गहन पिपासा है,
उसे पा लेने
की जो कभी
नष्ट न हो, जो
कभी मिटे नहीं—जो
मिट ही जाता
है, उसे
पाकर भी क्या
करेंगे! उसे
पा भी लिया तो
क्या पाया! जो
हाथ में आकर
छूट ही जाएगा,
उसके हाथ
में आने की
घटना का मूल्य
क्या है! जो
मुझे मिलेगा,
मिल भी नहीं
पाएगा और
बिछुड़ ही
जाएगा, उसके
लिए जो मैंने
श्रम किया वह
व्यर्थ ही गया।
इसलिए
ब्रह्मज्ञानी
कहते ही हम उस
व्यक्ति को
हैं जो उसकी
खोज कर रहा है
जो मिलेगा तो
फिर मिला ही
रहेगा। जिसके
मिलन में फिर
बिछोह नहीं।
और जिसका
प्रारंभ तो है
लेकिन जिसका
अंत नहीं। यह
बड़ी कठिन बात
है। क्योंकि
जिसका भी
प्रारंभ होगा, उसका अंत
होते हम देखते
हैं। इस जगत
में ऐसा कुछ
भी दिखायी
नहीं पड़ता है
जो प्रारंभ तो
हो, लेकिन
अंत न हो। सभी
चीजें बनती और
मिटती हुई
दिखायी पड़ती
हैं। क्या ऐसा
कोई अनुभव हो
सकता है, क्या
कोई ऐसी
प्रतीति, अनुभूति
हो सकती है, जिसके ऊपर
हम खड़े हों
और वह शाश्वत
हो? फिर
उससे हमारा
अलग होना न हो?
यही खोज
ब्रह्मज्ञान
की खोज है।
ब्रह्म
की खोज का
अर्थ है, उसकी
खोज जो शाश्वत
है, अनादि
है, अनंत
है। जो सदा है,
जो कभी भी
मिटता नहीं।
मरेगा नहीं, समाप्त नहीं
होगा। अगर हम
उसे पा लें, तो ही हमने
जीवन को जाना।
यदि हम उसके
साथ एक हो
जाएं तो ही
हमने अमृत को जाना।
और जब तक हम
उसके साथ एक न
हो जाएं तब तक
हमारा जीवन भय
में कांपता
हुआ एक पत्ता
ही होगा।
क्योंकि
मृत्यु चारों
तरफ कंपाती
रहेगी। मृत्यु
के झोंके आते
ही रहेंगे। उस
परम तत्व को
जानकर ही, उसके
साथ एक होकर
ही भय समाप्त
होता है। और
जहां भय है
समाप्त, अभय
का है प्रारंभ,
वहीं जीवन
का सूर्योदय
है। वहीं सुबह
होती है जीवन
की।
लेकिन
इसको क्या धन
से पाया जा
सकता है।
क्योंकि
व्यक्ति पूरा
जीवन धन इकट्ठा
करने में लगा
देता है। आशा
यही होती है
कि शायद धन से
कुछ ऐसा मिल
जाए जो मिटे
नहीं। लेकिन
जिन हाथों से
धन कमाया जाता
है वे हाथ ही
मिट जायेंगे, तो उन हाथों
से कमाया गया
धन कैसे बच
सकता है? जिनको
बनानेवाला ही
इतना निर्बल
है, उससे
बनी हुई चीजें
और भी निर्बल
होगी।
धन एक
धोखा है।
लेकिन धन से
स्थायित्व का
धोखा पैदा
होता है। ऐसा
लगता है कि धन
मेरे पास है
तो कोई स्थिर
चीज मेरे पास
है, जिसके
सहारे मैं इस
क्षणभंगुरता
से लड़ सकूंगा।
जिसके सहारे
शायद मैं मौत
के खिलाफ भी
इंतजाम कर
पाऊं। इसीलिए
तो आदमी इतना
पागल होकर धन
को इकट्ठा
करता है। और
यह पागलपन उस
सीमा पर पहुंच
जाता है, जब
वह भूल ही
जाता है कि
किसलिए धन को
इकट्ठा करना
शुरू किया था।
फिर धन इकट्ठा
ही करता चला
जाता है। अपने
को गंवा देता
है उस धन के
इकट्ठा करने
में, जिसे
उसने इसलिए
कमाना शुरू
किया था कि
अपने को बचा
सके। कब साधन
साध्य बन जाता
है, पता ही
नहीं चलता।
मनुष्य की मूल
बीमारियों
में एक बीमारी
यही है—साधन
साध्य बन जाता
है। जिसे हमने
सोचा था कि
इसका उपयोग
करेंगे, वही
हमारा मालिक
हो जाता है।
जिसे हमने
सोचा था कि
इससे हम फलां
चीज पा लेंगे,
आखिर में हम
पाते हैं कि
जिसे पाने के
लिए हमने
चेष्टा की थी,
वही साधन के
पाने में खो
गया है।
जीवन
के लिए आदमी
धन कमाता है।
लेकिन अगर
धनियों की तरफ
हम देखें तो
पता चलेगा कि
वे धन कमाने
के लिए ही
जीते हैं।
क्योंकि
हैरानी की बात
मालूम पड़ती है, उनसे भी हम
पूछें तो वे
भी कहेंगे कि
जीवन के लिए
धन को कमा रहे
हैं।
एंडूर
कारनेगी मरा
तो अरबों
रुपये छोड़ गया।
लेकिन मरते
समय तक, आखिरी
समय तक फोन पर
कमाई की ही
बात कर रहा था।
आखिरी क्षण, श्वांस उसकी
टूटी है तो
हाथ में उसका
फोन था, सौदे
की बात हो रही
थी। एंडूर
कारनेगी के
जीवन—लेखक ने
लिखा है कि
ऐसा मैंने एक
भी क्षण नहीं
देखा कारनेगी
के जीवन में, जब हम कहें
कि वह जी रहा
है। हर क्षण
वह कमा रहा था।
संभवत: पृथ्वी
पर सबसे बड़ा
धनी आदमी था, लेकिन एक
अर्थ में उससे
निर्धन कोई भी
नहीं।
क्योंकि जीवन
की कोई पुलक
उसे मिली नहीं।
जीवन की कोई
लहर उसे मिली
नहीं। अनेक
बार मित्रों
ने उसे कहा भी
कि इतना कमा लोगे,
लेकिन
करोगे क्या? तो वह कहता
था रुको, एक
बार कमाई पूरी
हो जाए तो मैं
जीना शुरू करूं।
लेकिन
कमाई कभी पूरी
नहीं होती, और जीना कभी
शुरू नहीं
होता। किसकी
कमाई कभी पूरी
हुई है? कभी
ऐसा कोई धनी
आदमी देखा है,
जिसने कहा
हो, मैं उस
जगह आ गया
जहां कमाई
पूरी हो जाती
है? नहीं, कुछ कमाई का
अपना तर्क है।
कमाई कोई ऐसी
चीज नहीं है
कि जिसकी हम
एक सीमा—रेखा
बना लें कि
वहा पहुच
जाएंगे तो
पूरी हो जाएगी।
कमाई हटती है
क्षितिज की
भांति। जितना
हम आगे बढ़ते
हैं, क्षितिज
भी आगे हट जाता
है। लगता है
कि वह पास, बहुत
पास, ज्यादा
दूर नहीं, आकाश
को छू रहा है, पृथ्वी आकाश
मिल रहे हैं, आकाश पृथ्वी
को छू रहा है।
ऐसा लगता है
कि दस—पांच
मील की ही
यात्रा की बात
है और हम उस
जगह पहुंच
जायेंगे जहां
आकाश मिलता है
पृथ्वी से।
आकाश
कहीं भी
पृथ्वी से मिलता
नहीं। सिर्फ
मिलता हुआ
मालूम पडता है।
जितना हम बढ़ते
हैं, उतना ही
वह जो प्रतीति
का बिंदु है, वह भी आगे बढ़
जाता है। हम
पूरी पृथ्वी
का चक्कर लगा
आएं आकाश हमें
कहीं भी मिला
हुआ नहीं
मिलेगा।
यद्यपि हर जगह
मालूम पड़ेगा
कि थोड़ी ही
दूर और, आकाश
पृथ्वी से मिल
रहा है। पूरी
पृथ्वी का
चक्कर लगाकर
भी, आकाश
थोड़ी ही दूर
मिलता हुआ
मालूम पड़ता
रहेगा।
जीवन
में अहंकार
जहां—जहां
दौड़ता है, वहां—वहां
भी अहंकार ऐसी
ही क्षितिज—रेखा
निर्मित करता
है। धन भी एक
क्षितिज रेखा
है। कहीं भी
पहुंच जाएं
पहुंचना नहीं
होता। रेखा
आगे हट जाती
है, दौड़
जारी रहती है।
और यह अंतहीन
है। और जीवन
तो चुक जाता
है।
धनी
आदमी अक्सर
निर्धन का
जीवन जीते हैं।
निर्धन जीता
है, वह उसकी
मजबूरी है।
धनी जीते हैं,
उनको क्षमा
नहीं किया जा
सकता। और तब, इस धन से ही
जिन्होंने
जीवन के
सारतत्व को
पाने को सोचा
हो, उन्हें
हम विक्षिप्त
ही कह सकते
हैं। न धन से
मिलेगा, न
संतान से
मिलेगा।
कुछ
लोग अपना सारा
जीवन इसमें ही
व्यतीत करते हैं
कि उनके बच्चे
बड़े हों, उनके
बच्चे
शिक्षित हों,
उनके बच्चे
विवाहित हों,
उनके बच्चे
व्यवस्थित हो
जाएं। उनसे
कोई पूछे कि
यही तुम्हारे
पिता कर रहे थे
तुम्हारे लिए,
यही
तुम्हारे
बच्चे उनके
बच्चों के लिए
करेंगे, यह
गोरखधंधा
किसलिए है? तुम्हारे
पिता इसलिए
जिए कि तुम
बड़े हो जाओ, शिक्षित हो
जाओ, व्यवस्थित
हो जाओ; तुम
इसलिए जी रहे
हो कि
तुम्हारे
बच्चे बड़े हो
जाएं; तुम्हारे
बच्चे भी
इसलिए जिएंगे।
इस जीने का प्रयोजन
क्या है?
कहीं
ऐसा तो नहीं
कि जीने का
ढंग समझ में
नहीं आता है, इसलिए कहीं
भी लगाकर मन
को व्यस्त रख
लेते हैं? बच्चों
में लगाकर
व्यस्त रख
लेते हैं।
जिनके बच्चे
हैं, वे
परेशान हैं कि
इनकी वजह से
जी नहीं पाते;
जिनके
बच्चे नहीं
हैं, वे
परेशान हैं कि
जिएं कैसे, बच्चे हैं
ही नहीं?
ऐसा
मालूम पड़ता है
कि हमें पता
ही नहीं कि
जीवन की रसधार
कहां है। और
ऐसा नहीं है
कि जो जीवन की
रसधार को पा
लेगा, वह धन
नहीं कमाएगा।
और ऐसा भी
नहीं है कि जो
जीवन की रसधार
को पा लेगा, वह अपने
बच्चों की
फिक्र न करेगा।
लेकिन उसकी
फिक्र बदल
जाएगी। उसके
धन' के
कमाने का सारा
आधार बदल
जाएगा। जिसने
जीवन की रसधार
पा ली है, वह
भी अपने
बच्चों के लिए
फिकिर करेगा,
लेकिन अब यह
फिकिर उसकी
व्यस्तता
नहीं है और पोस्टपोनमेंट
नहीं है। यह
वह स्थगित
नहीं कर रहा
है अपना जीवन।
वह यह नहीं कह
रहा है कि मैं
तुम्हारे लिए
जिऊंगा।
लेकिन
कोई किसी के
लिए जी सकता
है। जिसने
अपने जीवन की
रसधार पायी, वह स्वयं
जिएगा; उसके
जीवन से उसके
बच्चों को भी
जीवन मिलेगा,
यह बिलकुल
दूसरी बात है।
लेकिन अपने
जीवन को
बच्चों के
कंधों पर रखकर
नहीं वह जिएगा
कि इनके
द्वारा मैं जी
लूंगा। ऐसे तो
हर व्यक्ति एक—दूसरे
पर स्थगित
करता चला जाता
है और कोई भी नहीं
जी पाता।
कुछ
हैं, जो सोचते
हैं कि कर्म
के द्वारा, विराट कर्म
के द्वारा, सतत कर्म के
द्वारा हम उस
अमृत तत्व को
पा लेंगे। सतत
लगे रहते हैं।
सुबह से सांझ
तक, जन्म
से मृत्यु तक,
कुछ—न—कुछ
करते रहते हैं।
सोचते हैं कि
करेंगे, तो
मिल सकेगा।
लेकिन कर्म उन
चीजों को हमें
दे सकता है जो
कर्म से पैदा
होती हैं।
अमृत कर्म से
पैदा नहीं
होता। कभी
पैदा नहीं हुआ।
अमृत कहीं
छिपा है।
मौजूद है।
अमृत कोई
उत्पत्ति
नहीं है जो हम
अपने कर्म से
पैदा कर लेंगे।
अमृत कहीं
मौजूद है, उसे
पैदा नहीं
करना, उघाड़ना
है। उसे
डिस्कवर करना
है। उसे
निर्मित नहीं
करना है।
हमारे कर्म की
कोई भी
व्यवस्था उसे
पैदा न कर पाएगी।
वह है ही। और
ध्यान रहे, हम मरणधर्मा
हैं, हमारे
कर्म से अमृत
कैसे पैदा
होगा? हम
अज्ञानी हैं,
हमारे कर्म
से ज्ञान का
जन्म कैसे
होगा? हम
मृत्यु से
घिरे हैं, हमारा
कर्म भी
मृत्यु से
घिरा है।
हमारा सब कुछ
मृत्यु से
घिरा है। हम
अंधेरा हैं, तो हमसे
प्रकाश का
जन्म कैसे
होगा?
वह परम
तल हमसे पैदा
नहीं होता। वस्तुत:
उस परम तत्व
से ही हम पैदा
होते हैं। उस
परम तत्व को
हमें पैदा
नहीं करना, उस परम तत्व
से ही हम आए
हैं, इसकी
हमें खोज करनी
है। वह परम
तत्व भविष्य
में होनेवाली
कोई घटना नहीं,
अतीत में, हमारे पीछे,
हमारे
अस्तित्व में
ही छिपा हुआ
मूल आधार है।
कर्म से हम दूसरे
को पा सकते
हैं, स्वयं
को नहीं। मैं
अपने हाथ से
आपको पकड़ सकता
हूं स्वयं को
नहीं। मैं
अपनी आंख से
आपको देख सकता
हूं स्वयं को
नहीं। सब
कर्मों के
पीछे मेरा
छिपा है रूप।
कर्म न हों, तो भी मैं
हूं। मैं
कर्मों से
गहरा हूं। तो
मुझे अगर
स्वयं के मूल
तत्व को पाना
हो, तो
किसी भी कर्म
से उसे पाया
नहीं जा सकता।
फिर
कैसे पाया जा
सकता है?
'त्याग
ही एक ऐसा
मार्ग है, जिसके
द्वारा
ब्रह्मज्ञानियों
ने उस अमृत को
जाना। ' यह
त्याग शब्द
बहुत जटिल है।
और सुनते ही
जो खयाल आएगा,
वह त्याग का
अर्थ नहीं है।
त्याग का
साधारण अर्थ
होता है— धन को
छोड़ देना। इसे
थोड़ा समझें।
हम
कहते हैं, एक आदमी
त्यागी है। हम
कहते हैं, महावीर
त्यागी हैं, उन्होंने
इतना—इतना धन
छोड़ दिया। हम
कहते हैं, बुद्ध
त्यागी हैं; उन्होंने
राजमहल छोड़ा,
राज्य छोड़ा,
सुख—संपदा
छोड़ी, सब छोड़
दिया। हमारे
मन में त्याग
का अर्थ होता
है, छोड़ना।
लेकिन वस्तुत:
त्याग का अर्थ
होता है.
पकड़ना ही नहीं।
महावीर ने धन
छोड़ा, ऐसा
हम सोचते हैं,
लेकिन
महावीर ने
केवल पकड़ छोड़ी
है।
इसे
थोड़ा ठीक से
समझ लें।
महावीर
ने धन छोड़ा, ऐसा हम
सोचते है, महावीर
ने केवल पकड़
छोड़ी? धन
तो महावीर का
कभी था नहीं, उसे छोड़ा
कैसे जा सकता
है? पकड़
उनकी थी। धन
तो महावीर का
नहीं था।
क्योंकि
महावीर नहीं
थे, तब भी
धन था। महावीर
नहीं रहे, तब
भी वह धन रहा।
साम्राज्य
तो बुद्ध का
नहीं था। वह
तो बुद्ध के
पहले भी था।
बुद्ध के बाप
के पास भी था।
बुद्ध के बाप
के बाप के पास
भी था। बुद्ध
ने छोड़ दिया
तो भी किसी के
पास था। बुद्ध
ने राज्य नहीं
छोड़ा, राज्य
की पकड़ छोड़ी।
पकड़ बुद्ध की
थी।
मेरे
हाथ में मैं
धन पकड़े हुए
हूं सभी को
दिखायी पड़ता
है मैं धन
पक्के हुए हूं
सच तो बात यह है
कि मैं सिर्फ
अपनी मुट्ठी बांधे
हुए हू। धन को
पता भी नहीं
होगा कि मेरी
मुट्ठी में है।
और जब मैं धन
को छोड़ दूंगा
तब भी उसे पता
नहीं चलेगा कि
मुट्ठी से छोड़
दिया गया हूं।
धन कितने
लोगों की
मुट्ठियों
में रह चुका
है। उसके पास
कोई हिसाब भी
नहीं है।
सिर्फ मेरी
मुट्ठी बंधती
और खुलती है।
त्याग
का अर्थ है.
पकड़ का छूट
जाना। या
त्याग का अर्थ
है, पकड़ना ही
नहीं। त्याग
का अर्थ है, इस बात को
जान लेना कि
जो मेरा नहीं
है, वह
मेरा नहीं है।
लेकिन हमारे
मन में त्याग
का कुछ और
अर्थ है। एक
आदमी के पास
धन है, तो
वह कहता है धन
मेरा है। फिर
वह त्याग करता
है—हमारे
अर्थों में—तो
वह कहता है कि
मैंने मेरे धन
का त्याग कर
दिया। लेकिन
त्याग करके भी
वह धन की
मालकियत नहीं
छोड़ता। अभी भी
वह मानता है
कि मैंने मेरा
धन छोड़ा।
तो मैं
ऐसे
त्यागियों को
जानता हूं
जिनको वर्षों
हो गये—कोई
तीस वर्ष हो
गये, किसी को
चालीस वर्ष हो
गये छोड़े, लेकिन
हिसाब नहीं
छोड़ा है
उन्होंने।
अभी भी वह
कहते हैं कि
मैंने लाखों
रुपयों पर लात
मार दी। यह
चालीस साल
पहले लात मारी
थी! और अगर धन
तुम्हारा था
ही नहीं, तो
तुम्हें
क्षमा मांगनी
चाहिए धन से
कि मैंने
तुम्हें लात
मारी। धन
तुम्हारा था
ही नहीं।
लेकिन नहीं, धन उनका था!
अब धन की जगह
त्याग उनका
है! इसे थोड़ा
ठीक से समझें।
उन्होंने
अब त्याग को
भी धन बना
लिया। अब वह
चालीस साल से
उनकी क्रेडिट
है, यह पूंजी
है उनकी कि
हमने लाखों
रुपये छोड़े हैं।
ये जो लाखों
रुपये छोड़े
हैं, यह
त्याग अब उनकी
संपदा है। अगर
आप अब उनसे कहें
कि नहीं, लाख
नहीं थे, कुछ
कम थे, तो
उनको वैसी ही
पीड़ा होगी।
एक
मित्र मेरे
पास आए। पत्नी
को साथ लेकर
आए थे।
क्योंकि जरा
उन्हें
मुश्किल लगा
होगा कि अपना
परिचय खुद ही
कैसे दें। तो
पत्नी ने
परिचय उनका
कराया।
उन्होंने
पत्नी का
परिचय कराया।
पत्नी ने कहा
कि यह बड़े
दानी हैं। कोई
लाख रुपया तो
अब तक दान कर
चुके हैं। पति
ने तिरछी आंख
से पली को
देखा और कहा, लाख! अब तो एक
लाख दस हजार
पर संख्या
पहुंच चुकी है।
यह जो त्याग
है—यह धन ही है।
यह नये तरह का
धन है। और यह
ज्यादा
सुविधापूर्ण
है। इसको चोर
चुरा नहीं
सकते। इसको
सरकारें बदल
जाएं तो इस पर
कोई असर नहीं पड़ेगा।
और यह
धन ऐसा है कि
मैंने उन
मित्र से कहा
कि आपने बड़ी
होशियारी की, आप बड़े कुशल
हैं। जो आपके
पास एक लाख दस
हजार रुपये थे,
वे तो चोर
भी ले जा सकते
थे, डाका
भी पड़ सकता था,
सरकार
टैक्स लगा
सकती थी, समाजवाद
आ सकता था, कुछ
भी हो सकता था;
अब आप पर
कोई डाका नहीं
पड़ सकता। कोई
साम्यवाद—समाजवाद
आपसे छीन नहीं
सकता। रीढ़
उनकी टिकी थी
कुर्सी से, सीधी हो गयी।
उन्होंने कहा
आप बिलकुल ठीक
कहते हैं।
इसीलिए तो
त्यागा है कि
इसको मृत्यु
भी नहीं छीन
सकती। यह
पुण्य है।
इसको अब संसार
की कोई शक्ति
नहीं छीन सकती।
धन को
उन्होंने
पुण्य में बदल
लिया।
पुण्य
का अर्थ है :
ऐसा धन जो
परलोक में भी
चलेगा। और
क्या अर्थ
होता है!
पुण्य का अर्थ
है. ऐसा धन जिसका
सिक्का यहीं
मान्य नहीं है, परलोक में
भी चलेगा। अब
यह इस पूंजी
को लेकर, इस
बैलेंस को
लेकर परलोक
में प्रवेश
करेंगे।
और
समस्त शाख—तथाकथित
शाख—लोगों को
यही समझाते है
कि यहां छोड़ो
तो वहां मिलेगा।
यहां छोड़ोगे
तो वहां दस
हजार गुना, हजार गुना
वहां मिलेगा।
उस मिलने की
आशा में लोग
छोड़ते हैं।
लोभ के लिए
लोग त्याग
करते हैं।
पाने के लिए
लोग छोड़ते हैं।
तो छोड़ना ही
नहीं हुआ, छोड़ना
असंभव है। इस
व्यवस्था में
छोड़ना असंभव
है। छोड़ने का
अर्थ त्याग को
धन बना लेना
नहीं है।
छोड़ने
का अर्थ यह
जानना है कि
धन धन ही नहीं
है। छोड़ने का
अर्थ, त्याग
का अर्थ है कि
ऐसी कोई संपदा
नहीं है जो यहां
संपदा हो, या
परलोक में
संपदा हो।
संपदा है ही
नहीं। इस भाव
में
प्रतिष्ठित
हो जाना कि
कोई धन नहीं
है मेरे पास, और कोई धन
मेरा नहीं है,
मैं निपट
निर्धन हूं।
जीसस ने इसके
लिए जो शब्द
प्रयोग किया
है, वह कहा
है— 'पुअर
इन स्पिट'।
'पुअर इन
स्पिट'। जो
आत्मा में
अपनी
दरिद्रता को
अनुभव करते हैं,
वे त्यागी
हैं। जो जानते
हैं कि आत्मा
के पास संपदा
है ही नहीं।
कोई धन नहीं
है आत्मा के
पास।
और मजा
यह है कि जिस
क्षण कोई
आत्मा ऐसा जान
पाती है कि
कोई धन मेरे
पास नहीं है, उसी क्षण
अमृत उपलब्ध
हो जाता है।
उसी क्षण!
क्योंकि जिस
मुट्ठी में हम
धन को पक्के
हैं, वही
मुट्ठी पूरी
निर्भय होकर
खुल जाए तो
अमृत की वर्षा
उसी मुट्ठी
में हो जाती
है। लेकिन
ध्यान रहे, धन को पकड़ना
हो तो मुट्ठी
बांधनी पड़ती
है और अमृत को
पक्कुना हो तो
मुट्ठी खोलनी
पड़ती है। अमृत
बरसता है खुले
हुए हाथ पर।
बंधे हुए हाथ
पर तो सिर्फ
जहर इकट्ठा
होता है।
इसलिए
जिसको हम
संपत्ति कहते
हैं, वह
संपत्ति कम और
विपत्ति ही
ज्यादा होती
है। इसलिए
संपत्ति के
साथ—साथ
विपत्तियां
आती हैं और
घनी होती चली
जाती हैं और
बढ़ती चली जाती
हैं।
खुला
हाथ, अगर अमृत
भी बरस रहा हो
तो पकड़ने की
इच्छा नहीं है।
बस जिस दिन, अमृत भी हो
और पकड़ने की
इच्छा न हो, और परम धन भी
हो और मुट्ठी
बांधने की
इच्छा न हो, उसी दिन
व्यक्ति
त्याग को
उपलब्ध हुआ।
जहां पकड़ने की
आकांक्षा न
रही, वहां
त्याग को
उपलब्ध हुआ।
त्याग
का अर्थ है, पकड़ने की
वृत्ति का खो
जाना—समस्त
आयामों में—न
किसी व्यक्ति
को पकड़े, न
किसी धन को
पकड़े, न
किसी शाख को
पक्के, न
किसी पुण्य को
पक्के; यह
भी सवाल नहीं
है कि क्या
पकड़े।
क्योंकि हम
इतने कुशल हैं
कि हम यह कर
सकते हैं कि
एक चीज को
छोड्कर दूसरी
को पकड़ लें, लेकिन पकड़ना
जारी रखें।
हमारी मुसीबत
हमारी पकड में
है, हमारी
चीजों में
नहीं। एक आदमी
धन छोड़ देता
है, तो
त्याग को पकड़
लेता है। एक
आदमी घर छोड़
देता है, तो
आश्रम को पकड़
लेता है। एक
आदमी
गार्हस्थ्य
को छोड़ देता
है तो संन्यास
को पकड़ लेता
है। पल्लूने
की वृत्ति!
संन्यासी
का अर्थ ही
होता है कि
जिसने पकड़ना
छोड़ दिया। यही
अर्थ है उसका।
उसने पकड़ना
छोड़ दिया।
जिसने निर्णय
किया कि अब
नहीं पकडूंगा
कुछ; यही
संन्यास का
अर्थ है। अब
बिना पकडे
जियूंगा। इस
संकल्प का नाम
संन्यास है।
लेकिन बारीक
है मामला। हम
चाहें तो
संन्यास को भी
पकड़ ले सकते
हैं। वह भी
हमारी मुट्ठी
बन सकती है।
हमारी मुट्ठी
इतनी कुशल है
कि किसी भी
चीज पर बंध
सकती है। इससे
कोई संबंध
नहीं कि वह
चीज क्या है।
यहां इतनी
कुशल हो गयी
है कि चीज न भी
हो तो शून्य
पर भी हम
मुट्ठी को
बांध सकते है।
मुट्ठी की
बांधने की' आदत छूट जाए
तो त्याग है।
नॉन—क्लिगिंग,
कोई पकड़ने
का भाव न आए।
तो
त्याग का मतलब
धन का त्याग
नहीं होता।
त्याग का मतलब
घर का त्याग
नहीं होता।
त्याग का मतलब
किसी चीज के
छोड़ने से नहीं, त्याग का
मतलब मेरी
पकड़ने की
वृत्ति को छोड़
देने से है।
मेरी पकड़ने
की वृत्ति
विसर्जित हो
जाए, इस
विसर्जन का
नाम त्याग है।
ऐसे
त्याग से
ब्रह्मज्ञानियों
ने उस अमृत को पाया
है। यह त्याग
बहुत सचेत
होकर जिएं तो
ही संभव हो पाएगा।
और यह त्याग
अब कोई बाहरी
कृत्य न रहा, एक आंतरिक
दशा हो गयी।
मैं पकडूं और
सजग रहूं और
जागता रहूं कि
मेरी मुट्ठी
किसी चीज पर
बंध न जाए।
कहीं भी ऐसा न
हो कि मैं
पकडूं और बंध
जाऊं। किसी भी
चीज से न बंध
जाऊं। इतनी
सजगता से कोई
जिए तो त्याग
में जीता है।
बुद्ध
के पास हजारों
लोगों ने
संन्यास में
दीक्षा ली।
बुद्ध कहते थे
उन
संन्यासियों
को कि तुम जो कर
रहे हो ध्यान
रखना, जो
तुम्हारे पास
था उसे छोड़
रहे हो, लेकिन
मैं तुम्हें
कुछ दे नहीं
रहा हूं। अनेक
बार तो अनेक
लोग वापस
बुद्ध के पास
से लौट जाते
थे। क्योंकि
आदमी के तर्क
के बाहर हो
गयी यह बात।
आदमी छोड़ने को
राजी है, अगर
कुछ मिलता हो।
बुद्ध
से लोग पूछते
थे कि हम घर
छोड़ देंगे, मिलेगा क्या?
हम धन छोड़
देंगे, मिलेगा
क्या? हम
सब छोड़ने को
तैयार है, फल
क्या होगा? हम सारा
जीवन लगा
देंगे ध्यान
में, योग
में, तप
में, इसकी
फलश्रुति
क्या है, निष्पत्ति
क्या है? लाभ
क्या है, यह
तो बता दें।
तो बुद्ध कहते
थे, जब तक
तुम लाभ पूछते
हो तब तक तुम
जहां हो वहीं रहो,
वही बेहतर
है। क्योंकि
लाभ को
पूछनेवाला मन
ही संसार है।
लाभ को खोजने वाला
मन ही संसार
है। तुम यहां
मेरे पास भी
आए हो तो तुम
लाभ को ही खोजते
आए हो!
लेकिन
यही व्यक्ति
अगर किसी और
साधारण साधु—संन्यासी
के पास गये
होते तो वह
कहता, ठीक
है, इस सी
में क्या रखा
है, यह
क्षणभंगुर है,
असली
स्त्रियां तो
स्वर्ग में
हैं, उनको
पाना हो तो
इनको छोड़ो। यह
तू जो भोजन का
सुख ले रहा है,
इसमें क्या
रखा है! यह तो
साधारण—सा
स्वाद है, फिर
कल भूख लग
आएगी, असली
स्वाद लेना हो
तो कल्पवृक्ष
हैं स्वर्ग में,
उनके नीचे
बैठो। और यह
धन तू क्या
पकड़ रहा है!
इस धन में कुछ
भी नहीं, ठीकरे
हैं। असली धन
पाना हो, तो
पुण्य कमाओ।
और यहां क्या
मकान बना रहा
है! यह तो सब
रेत पर बनाये
गये मकान हैं।
अगर स्थायी
सीमेंट—कांक्रीट
के ही बनाने
हों तो स्वर्ग
में बनाओ।
वहां फिर कभी,
जो बन गया
बन गया, फिर
कभी मिटता
नहीं। यह जो
साधारण साधु—संन्यासी
लोगों को समझा
रहे है, यह
मोक्ष की भाषा
नहीं है, यह
लोभ की ही
भाषा है। यह
संसार की ही
भाषा है। यह
गणित बिलकुल
सांसारिक है।
इसीलिए हमको
जंचता भी है।
इसीलिए हमें
पकड़ में भी आ
जाता है।
लेकिन
बुद्ध के पास
जब कोई जाता
था ऐसी ही भाषा
पूछने, तो
बुद्ध से लोग
पूछते थे—और
हमें लगता है
कि ठीक ही
पूछते हैं—वे
पूछते हैं कि
हम जीवनभर तप
करें, ध्यान
करें, योग
करें, फिर
होगा क्या? मोक्ष में
मिलेगा क्या?
और बुद्ध
कहते हैं कि
मोक्ष में!
मोक्ष में मिलने
की बात ही मत
पूछो।
क्योंकि
तुमने मिलने
की बात पूछी
कि तुम संसार
में चले गये।
तुमने मिलने
की बात पूछी
कि तुम्हारा
ध्यान ही
संसार में हो
गया, मोक्ष
से कोई संबंध
न रहा। मोक्ष
की बात तो तुम
उस दिन पूछो, जिस दिन
तुम्हारी
तैयारी हो
छोड़ने की, और
पाने की नहीं।
जिस दिन तुम
तैयार हो कि
मैं छोड़ता तो
हूं और पाने
के लिए नहीं
पूछता, उस
दिन तुम्हें
मोक्ष मिल
जाएगा। और
क्या मिलेगा
मोक्ष में, यह मुझसे मत
पूछो, यह
तुम पा लो और
जानो।
बहुत
लोग लौट गये।
आते थे, लौट
जाते थे। यह
आदमी बेबूझ
मालूम पड़ने
लगा। लोगों ने
कहा, कुछ
भी नं हो, कम—से—कम
आनंद तो
मिलेगा।
बुद्ध कहते थे,
आनंद भी
नहीं, इतना
ही कहता हूं—वहां
दुख न होगा।
बुद्ध की सारी—की—सारी
भाषा संसार से
उठी हुई भाषा
है। और शायद
पृथ्वी पर
किसी दूसरे
आदमी ने इतनी
गैर—सांसारिक
भाषा का
प्रयोग नहीं
किया। इसलिए
हमारे इस बहुत
बड़े धार्मिक
मुल्क में भी
बुद्ध के पैर
न जम पाए। इस
बड़े धार्मिक
मुल्क में, जो हजारों
साल से
धार्मिक है।
लेकिन उसके
धर्म की
तथाकथित भाषा
बिलकुल सांसारिक
है। तो बुद्ध
जैसा व्यक्ति,
पैर नहीं जम
पाए, बुद्ध
की जड़ें नहीं
जम पायीं, क्योंकि
बुद्ध हमारी
भाषा में नहीं
बोल पाए। और
चीन और जापान
में जाकर
बुद्ध की जड़ें
जमीं, उसका
कारण यह नहीं
कि चीन और
जापान में लोग
उनकी भाषा समझ
पाए, बौद्ध
भिक्षु अनुभव
से समझ गये कि
यह भाषा बोलनी
ही नहीं बुद्ध
की। उन्होंने
जाकर वहां लोभ
की भाषा बोलनी
शुरू कर दी।
चीन में
और जापान मैं
बुद्ध के पैर
जमे उन बौद्ध
भिक्षुओं की
वजह से, जिन्होंने
बुद्ध की भाषा
छोड़ दी।
उन्होंने फिर
संसार की भाषा
बोलनी शुरू कर
दी। उन्होंने
कहा, आनंद
मिलेगा, सुख
मिलेगा, महासुख
मिलेगा और यह
मिलेगा, और
यह मिलेगा और
मिलने की भाषा
की, तो चीन
और —जापान और
बर्मा और लंका
— भारत के बाहर
पूरे एशिया
में—बुद्ध के
पैर जमे; लेकिन
वे बुद्ध के
पैर ही नहीं
हैं। बुद्ध के
पैर थे, वह
जमे नहीं। जो
जमे, वह
बुद्ध के पैर
नहीं हैं।
बुद्ध
कहते थे, आनंद?
नहीं आनंद
नहीं, 'दुख—निरोध।
लोग पूछते थे,
न सही आनंद,
कम—सै—कम
आत्मा तो
बचेगी? मैं
तो बचूंगा? इतना तो
आश्वासन दे
दें। बुद्ध
कहते थे, तुम
तो हो एक
बीमारी, तुम
कैसे बचोगे? तुम तो मिट
जाओगे, तुम
तो खो जाओगे।
और जो बचेगा, वह तुम नहीं हो।
यह कठिन था
समझना। बुद्ध
ठीक ही कहते
हैं। वे कहते
हैं कि आदमी
का लोभ इतना
तीव्र है कि वह
यह भी राजी हो
जाता है कि
कोई हर्ज नहीं
है कुछ भी न
मिले, लेकिन
कम—से—कम मैं
तो बचूं। मैं
बचा रहा तो
कुछ—न—कुछ
उपाय, इंतजाम
वहां भी कर ही
लेंगे। लेकिन
अगर मैं ही न
बचा, तब तो
सारी. सारी
साधना ही
व्यर्थ हो 'जाती है।
साधना
भी हमें
सार्थक मालूम
होती है यदि
कोई प्रयोजन, कोई फल, कोई
निष्पत्ति
आती हो, कोई
लाभ मिलता हो।
लाभ की भाषा
लोभ की भाषा
है। और जहां
तक लाभ की
भाषा चलती है
वहां तक लोभ
चलता है। जहां
तक लोभ चलता
है, वहां
तक क्षोभ होता
ही रहेगा।
क्यों? क्योंकि हम
एक बिलकुल ही
गलत दिशा में
निकल गये हैं,
जहां मौलिक जीवन
का स्रोत नहीं
है। मौलिक
जीवन का स्रोत
वहां है, जिसे
पकड़ने की
जरूरत ही नहीं
है, जो
हमारे भीतर
मौजूद है, अभी
और यहीं।
सिर्फ हम अगर
सब छोडकर खड़े
हो जाएं सब
पकड़ छोड्कर
खड़े हो जाएं
तो वह द्वार
अभी खुल जाए।
जिसे हम खोज—खोजकर
नहीं खोज पाते
हैं, वह
हमें अभी मिल
जाए। वह मिला
ही हुआ है; वह
यहीं, अभी,
हमारे भीतर
ही मौजूद है।
लेकिन हम बाहर
पकड़ने में
इतने व्यस्त
हैं!
सुना
है मैंने, एक अंधेरी
रात में एक
आदमी एक पहाड़
के कगार से तीर
गया। अंधेरा
था भयंकर।
नीचे खाई थी
बड़ी। जड़ों को
पकड़कर किसी
वृक्ष की लटका
रहा।
चिल्लाया, चीखा,
रोया। घना
था अंधकार।
दूर—दूर तक
कोई भी न था, निर्जन था।
सर्द थी रात, कोई उपाय
नहीं सूझता था।
जड़ें हाथ से
छूटती मालूम
पड़ती थीं। हाथ
ठंडे होने लगे,
बर्फीले
होने लगे। रात
गहराने लगी।
वह आदमी चीखता
है, चिल्लाता
है पक्के है, सारी ताकत
लगा रहा है।
ठीक उसकी हालत
वैसी थी जैसी
हमारी है।
पकड़े हैं, जोर
से पकड़े हुए
हैं कि छूट न
जाए कुछ। और
उसको तो खतरा निश्चित
ही भारी था।
हमें मौत का
पता भी न हो, उसको तो
नीचे सामने ही
मौत थी। ये
हाथ छूटे जड़ों
से कि उसके
प्राण समाप्त
हुए।
लेकिन
कब तक पक्के
रहता! आखिर
पकड़ भी तो थक
जाती है। और
मजा यह है कि
जितने जोर से
पकड़ो उतने
जल्दी थक जाते
हैं। जोर से
पकड़ा था, अंगुलियों
ने जवाब देना
शुरू कर दिया।
धीरे—धीरे आंखों
के सामने ही
हाथ खिसकने
लगे, जड़ें
हाथ से छूटने
लगीं।
चिल्लाया, रोया,
लेकिन कोई
उपाय न था।
आखिर हाथ से
जड़ें छूट गयीं।
लेकिन
तब उस घाटी
में हंसी की
आवाज गज उठी।
क्योंकि नीचे
कोई गड्डा न
था, जमीन थी।
अंधेरे में
दिखायी नहीं
पड़ती थी। वह
नाहक ही
परेशान हो रहे
थे इतनी देर
तक! नीचे जमीन
थी, कोई
गड्डा न था।
और इतनी देर
जो कष्ट
उन्होंने
उठाया, वह
अपनी पकड़ के
कारण ही उठाया,
वहां कोई
गड्डा था ही
नहीं। वह घाटी
जो चीख—पुकार
से गज रही थी, हंसी की
आवाज से गज
उठी। वह आदमी
अपने पर हंसा
था।
जिन
लोगों ने भी
यह पकड़ के
पागलपन को
छोड्कर देखा
है, वे हंसे
हैं। क्योंकि
जिससे वह
भयभीत हो रहे
थे, वह है
ही नहीं। जिस
मृत्यु से हम
भयभीत हो रहे
हैं, वह
हमारी पकड़ के
कारण ही
प्रतीत होती
है। पकड़
छूटते ही वह
नहीं है। जिस
दुख से हम
भयभीत हो रहे
हैं, वह
दुख हमारी पकड़
का हिस्सा है,
पकड़ से पैदा
होता है। पकड़
छूटते ही खो
जाता है। और
जिस अंधेरे
में हम पता
नहीं लगा पा
रहे हैं कि
कहां खड़े
होंगे, वहीं
हमारी
अंतरात्मा है।
सब पकड़ छूटती
है, हम
अपने में ही
प्रतिष्ठित
हो जाते हैं।
उपनिषद
ने कहा है: 'स्वर्गलोग
से ऊपर, हृदय
की गुफा में
स्थित वह
परमतत्व
आलोकित है।'
'स्वर्ग
से ऊपर। 'अजीब
लगता है। 'स्वर्ग
से ऊपर हृदय
की गुफा में। 'स्वर्ग और
हृदय की गुफा
में क्या ऊपर—नीचे
का संबंध है? कहां
हृदय की गुफा,
कहां
स्वर्ग! लेकिन
ठीक कहता है।
स्वर्ग से ऊपर
अर्थात लोभ से
ऊपर। स्वर्ग
अर्थात लोभ।
स्वर्ग लोभ का
गहनतम प्रतीक
है। स्वर्ग
लोभ का साकार
रूप है।
स्वर्ग लोभी
की आत्यंतिक
आकांक्षा है।
स्वर्ग की
जिन्होंने
चर्चा की है
वे धार्मिक लोग
नहीं हैं।
धार्मिक
व्यक्ति तो
सिवाय मुक्ति
के, सिवाय
मोक्ष के और
कोई चर्चा
नहीं करता।
स्वर्ग की
चर्चा तो
सांसारिक मन
का फैलाव है।
मृत्यु के भी
पार हम अपने
लोभ को बचाने
की चेष्टा में
लगे हैं। शरीर
मिटे मिट जाए,
कम—से—कम
लोभ तो बचे।
कम—से—कम
वासना तो बचे।
कम—से—कम
वासना की
तृप्ति का कोई
क्षेत्र तो
बचे। स्वर्ग
हमारी
वासनाओं का
संग्रह, हमारी
कामनाओं का
जोड़ है।
तो ऋषि
ठीक कहता है, स्वर्ग से
ऊपर। जो नहीं
उठा है इस लोभ
और वासना और
कामना के जाल
से, वह
हृदय की गुफा
में प्रवेश न
कर पाएगा। असल
में हृदय की
गुफा में
प्रवेश करने
में स्वर्ग और
नरक ही बाधा
हैं।
एक
सूफी फकीर औरत
हुई है राबिया।
राबिया एक दिन
गुजरी है गांव
से, एक हाथ
में पानी का
एक बर्तन और
एक हाथ में
जलती मशाल
लेकर, भागती
हुई। लोगों ने
समझा कि क्या
राबिया पागल
हो गयी! ऐसे शक
तो लोगों को
था ही। राबिया
पर शक तो था ही!
क्योंकि
जिसने भी कभी
ईश्वर को
प्रेम किया है,
उसे दूसरों
ने पागल की
नजर से देखा
है।
यह भी
उनका बचाव है।
क्योंकि अगर
राबिया पागल
नहीं है, तो
फिर उनको शक
होगा कि फिर हम
क्या हैं? तो
भीड़ राबिया को
पागल बनाकर
अपने को बचा
लेती है। तो
भीड़ कहती है
कि यह औरत
पागल हो गयी
है। कैसा
ईश्वर? ठीक
है, है एक
ईश्वर मस्जिद
में; तो हर
सप्ताह में एक
बार जाकर उसके
चरणों में सिर
झुका आना
चाहिए। है
मंदिर में, तो ठीक है, एक औपचारिक
नियम है वह
पूरा कर देना
चाहिए। है
चर्च में, तो
वह संडे—गॉड
है, वह
रविवार के दिन
का है, उस
दिन जैसे
फुरसत के दिन
और सब चीजें
निबटा लेते
हैं, उसे
भी निबटा देते
हैं। लेकिन
बाकी छह दिन
में जो ईश्वर
की बात करे, वह पागल है।
यह राबिया
चौबीस घंटे
ईश्वर—ईश्वर
लगाए रखती है,
यह पागल हो
गयी है।
लेकिन
उस दिन तो साफ
ही हो गया।
बाजार भरा हुआ
था और राबिया
हाथ में मशाल
लिये और एक
हाथ में पानी
का बर्तन लिये
बीच बाजार से
भागने लगी। तो
लोगों ने कहा
कि राबिया, अब तक तो हम
सोचते थे मन—ही—मन
में, अब तो
तुमसे प्रगट
भी कहना पड़ेगा—क्या
दिमाग खराब हो
गया है? यह
क्या कर रही
हो? तो
राबिया ने कहा
कि मैं यह
पानी ले जा
रही हूं ताकि
तुम्हारे नरक
को डुबा दूं।
और यह आग की
लपट ले जा रही
हूं ताकि
तुम्हारे स्वर्ग
में आग लगा
दूं। क्योंकि
तुम्हारे
स्वर्ग और
तुम्हारे नरक
के कारण ही
तुम स्वयं से
चूक गये हो।
लेकिन
उस बाजार में
शायद ही कोई
उसकी बात समझा
हो। जीसस के
जीवन में भी
ऐसा एक उल्लेख
है कि जीसस एक
गांव से
गुजरते हैं।
और उन्होंने
एक जगह बैठे
कुछ फकीरों को
देखा, जो
पीले पड़ गये
हैं और भय से
कांप रहे हैं।
तो जीसस ने
उनसे पूछा कि
तुम्हें क्या
हो गया है? तुम
पर कैसी
विपत्ति आयी
है? यह कौन—सी
मुसीबत, कौन—सा
दुर्भाग्य कि
तुम पीले पड़
गये हो पत्तों
जैसे, और
कांप रहे हो? क्या हो गया
है? उन
सबने कहा, हम
नरक से भयभीत
हैं। हम पापी
हैं, हमने
बड़े पाप किये
हैं। और हम डर
रहे हैं, अब
नरक में पड़ना
पड़ेगा। गांव
के लोगों ने
कहा कि ये बड़े
धार्मिक लोग हैं।
ये पीले पड़
गये लोग, ये
भय से कांपते
हुए लोग, ये
नरक से कंपित—ये
बड़े धार्मिक
लोग हैं!
जीसस
आगे बड़े तो
उसी गांव के
दूसरे हिस्से
में उन्हें
कुछ और लोग
बैठे दिखायी
पड़े। वे भी
त्याग और तपस्चर्या
से अपने को
जला डाले थे, राख कर दिये
थे, सूख
गये थे, कांटे
हो गये थे।
जीसस ने पूछा,
तुम पर कौन—सी
महामारी आ गयी?
तुम्हें
क्या हुआ? उन्होंने
कहा कि हम
स्वर्ग से
लालायित हैं,
स्वर्ग को
पाने की
आकांक्षा से
पीड़ित हैं। हम
कुछ भी करने
को तैयार हैं,
लेकिन
स्वर्ग चाहिए।
जीसस बहुत हैरान
हुए।
उन्होंने
अपने शिष्यों
से कहा कि बड़ी
हैरानी की बात
है, स्वर्ग
और नरक में
कोई संबंध
मालूम पड़ता है।
स्वर्ग से जो
लालायित हैं,
वे भी सूख
कर पीले पड़
गये हैं और
कांप रहे हैं;
और नरक से
जो भयभीत हैं,
वे भी पीले
पड़ गये हैं और
कांप रहे हैं।
और अगर दोनों को
हम ऊपर से
देखें तो फर्क
बिलकुल मालूम
नहीं पड़ता। जब
तक वे बताएं न
कि उनका कारण
क्या है? दोनों
में कोई संबंध
मालूम पड़ता है।
संबंध
है। स्वर्ग और
नरक एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं। लोभ
और भय एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं।
लोभी आदमी कभी
भय के बाहर
नहीं हो सकता; भयभीत आदमी
कभी लोभ के
बाहर नहीं हो
सकता। भय लोभ
का निषेधात्मक
रूप है—निगेटिव।
लोभ भय का
पाजिटिव रूप
है—विधायक। भय
और लोभ एक ही
घटना के दो
छोर हैं।
ठीक
कहता है ऋषि
कि स्वर्गलोक
से ऊपर। नरक
की उसने बात
नहीं की।
क्योंकि जब:
स्वर्ग के ऊपर
है, तो नरक के
ऊपर तो होगा
ही। इसकी
चर्चा नहीं की।
और जानकर नहीं
की। क्योंकि
आदमी नरक के
ऊपर हो इससे
परेशान नहीं
होगा; स्वर्ग
के ऊपर हो, इससे
परेशान होता
है। नरक के
ऊपर तो हम सब
चाहते ही हैं
कि हों। वह
कोई कठिनाई
नहीं है।
हम सभी
चाहते हैं कि
वह परमतत्व
दुख के ऊपर हो; लेकिन सुख के
भी ऊपर हो, यह
हम न चाहेंगे।
हम भी छोड़ने
को तैयार हो
जायेंगे, कोई
हमसे कहे, छोड़
दो सब दुख, मिल
जाएगा वह। तो
हम भी कहेंगे,
हम तो छोड़ने
को सदा तैयार
हैं, ये
दुख ही हमें
नहीं छोड़ रहे
हैं। और कोई
हमसे कहे छोड़
दो अपने सुख, तो हम
कहेंगे, यह
बहुत मुश्किल
बात है। छोड़ने
का उपाय कहां?
सुख ही हमें
छोड्कर भागे
चले जाते हैं।
हम पक्कते हैं
और पकड़ में
नहीं आते। सुख
हम न छोड़
सकेंगे। दुख
तो हम छोड़ने
को तैयार हैं।
लेकिन
ऋषि कहता है, स्वर्ग के
ऊपर। सुखों की
वासना के ऊपर।
जिसने अभी सुख
की वासना नहीं
छोड़ी वह दुख
में गिरता ही रहेगा।
दुख में गिरना
सुख की वासना
का परिणाम है।
जिसने सुख
नहीं छोड़ा, उससे दुख
नहीं छूटेगा।
लेकिन दुख तो
हम सब छोड़ना
चाहते हैं।
फिर भी दुख
नहीं छूटता, क्योंकि हम
सुख नहीं
छोड़ना चाहते।
जिसने सुख
नहीं छोड़ा, उसका दुख तो
जारी रहेगा।
क्योंकि सुख
को पक्के हुए
है। सुख के
साथ—साथ दुख
की छाया बनती
रहेगी।
दुख को
केवल वही छोड़
सकता है जिसने
सुख छोड़ा। फिर
दुख का कोई
उपाय न रहा।
दुख के खड़े
होने की भूमि
न रही। सुख के
छूटते ही दुख
छूट जाता है।
इसलिए
ऋषि ने कहा है, स्वर्ग के
ऊपर, हृदय
की गुफा में, ब्रह्मलोक
में.... इस हृदय की
गुफा को
ब्रह्मलोक भी
कहा. स्थित वह
परमतत्व
आलोकित है, जिसे
निष्ठावान
साधक प्राप्त
कर सकते हैं।
हृदय
की गुफा को हम
थोड़ा हम समझ
लें, क्या
प्रयोजन है? साधारणत:
हृदय का हमें
बोध ही नहीं
होता। इसीलिए
उसे गुफा कहते
हैं, क्योंकि
वह गुप्त है।
हमें हृदय का
पता ही नहीं
चलता। ऐसे हम
जानते हैं कि
हृदय कहां है—जहां
धड़कन होती है
वहां, और
जहां श्वास
चलती है वहां।
लेकिन वहा
फेफड़ा है, हृदय
नहीं है। फुफस
है।
अगर वैज्ञानिक
से कहेंगे तो
आपकी छाती
काटकर वह
निकालकर रख देगा
कि यह 'पंपिंग
सिस्टम' है।
यह भीतर जो
श्वास को
चलाने का
इंतजाम है, वहां है।
इसलिए
वैज्ञानिक तो
कहता है हृदय
जैसी कोई चीज
ही आदमी के
शरीर में नहीं
है; कवियों
की कल्पना है।
है भी नहीं।
जहां हम हाथ
रखते हैं, वहां
फुफस, फेफड़ा
ही है अभी तो
हृदय तो उसके
पीछे बहुत गहरे
में छिपा है।
हृदय
तो गुफा है।
गुफा का मतलब
है, गुप्त है,
गुह्य है, छिपा है; हिडन
है। गुफा का
मतलब ही यह है
कि हम उसके
बाहर के ही रूप
से परिचित हो
पाते हैं, भीतर
का पता नहीं
चलता। बाहर
घूम आते हैं, उसकी
दीवालों का
पता चल जाता
है, हृदय
का पता नहीं
चलता। फुफस
सिर्फ बाहर की
दीवाल है; वैज्ञानिक
तोड़ेगा।
ऐसा
समझ लें कि आप
अगर किसी मकान
की दीवालें तोड़
लें तो क्या
भीतर आपको
मकान मिलेगा
फिर?
दीवालें
गिर जाएंगी, मकान आकाश
में खो जाएगा।
अगर मकान
खोजना है तो
दीवालों के
रहते मकान खोजना
पड़ेगा।
वैज्ञानिक
यही भूल करता
है। वह कहता
है, लाओ, हम चीर—फाड़कर
बताए देते हैं
कि यहां कोई
हृदय नहीं है।
ऐसे ही वह
कहता है, हम
मस्तिष्क को
काटकर बताए
देते हैं, यहां
कोई मन नहीं
है। मस्तिष्क
है, मन
नहीं है।
क्योंकि मन
भीतरी अंतर—गुहा
है।
मस्तिष्क
दीवाल है, मन भीतर का
स्थान है।
फेफड़ा बाहर की
दीवाल है, हृदय
भीतर का स्थान
है। काटकर तो
दीवाल हाथ में
आती है, भीतर
का शून्य तो
विराट शून्य
में खो जाता
है। बिना काटे
प्रवेश करें,
तो ह्दय
मिलेगा।
इसलिए वैज्ञानिक
हृदय को कभी
नहीं खोज सकता।
सिर्फ योगी
खोज पाता है।
क्योंकि वह इस
हृदय को तोड़ता
नहीं है, बिना
तोड़े प्रवेश
करता है। इसकी
दीवाल को नहीं
मिटाता। इसकी
दीवाल को बना
रहने देता है
और जिसको इस दीवाल
ने घेरा है, उस रिक्त
स्थान में
प्रवेश करता
है।
उस
रिक्त स्थान
में प्रवेश के
मार्ग हैं।
मार्ग कहना
शायद ठीक नहीं
है। क्योंकि
मार्ग से
लगेगा कि कोई
दरवाजा है।
अगर दरवाजा है
तो यह फिर
गुफा नहीं है।
यह फिर गुह्य—स्थान
न रहा। लेकिन
कुछ ऐसे
प्रवेश द्वार
हैं जहां
दरवाजे नहीं
होते। जैसे अगर
एक्स-रे की
किरण आपके
भीतर डालें, तो कोई
दरवाजे की
जरूरत नहीं
होती, एक्स-रे
की किरण भीतर
प्रवेश कर
जाती है, कोई
छेद भी नहीं
करती। जब तक
एक्स-रे की
किरण नहीं थी
तो हम यह मान
ही नहीं सकते
थे कि हमारे
भीतर कोई चीज
प्रवेश कर
सकती है और छेद
न करे।
क्योंकि
हमारा अनुभव
यही था कि
छुरा प्रवेश कर
सकता है लेकिन
छुरा छेद कर
जाएगा। अब
एक्स-रे की
किरण प्रवेश
करती है, छेद
नहीं करती।
छेद तो बहुत
दूर की बात है,
एक्स-रे की
किरण प्रवेश
करती है तो
आपको पता भी
नहीं चलता कि
वह प्रवेश कर
गयी। वह तो
फोटो—प्लेट
में पता चलता
है कि किरण
प्रवेश कर गयी,
भीतर के
चित्र भी ले
आयी है। आपको
तो पता ही
नहीं चलता।
अगर आपसे पूछा
जाए कि कुछ
पता चला, तो
कुछ भी पता
नहीं चलता।
इसका
अर्थ हुआ कि
अगर.. और
एक्स-रे किरण
तो बिलकुल
भौतिक, मटेरियल
वस्तु है, ध्यान
उस किरण का
नाम है जो
भीतर प्रवेश
कर सकती है और
कहीं कोई चोट
नहीं, कहीं
कोई दरवाजा
नहीं टूटता, कहीं कोई
ताले नहीं
खोलने पड़ते, कहीं कोई
चाबी नहीं
लगती। फेफड़े
की दीवालों को
पता ही नहीं
चलता कि कब भीतर
प्रवेश हो गया।
ध्यान
उस किरण का
नाम है जो इस
अंतर—गुहा में
प्रवेश करती
है। इस अंतर—गुहा
को ब्रह्मलोक
भी कहा है।
क्योंकि यह
अंतर—गुहा में
जो प्रवेश कर
जाता है, जिससे
वहां मुलाकात
होती है, जिस
अनुभूति का
वहां अनुभव
होता है, वह
अनुभूति ही
समस्त
ब्रह्मांड के
हृदय में भी
छिपी हुई है।
जैसे मेरे
छोटे—से हृदय
में जो छिपा
है, वही इस
विराट
ब्रह्मांड के
हृदय में भी
छिपा है। जो
मेरे
मस्तिष्क के
भीतर छिपा है,
वही इस
विराट
मस्तिष्क के
भीतर भी छिपा
है।
व्यक्ति
एक छोटा अणु है।
इस विराट का
एक छोटा जीवित
प्रतिरूप है।
इसलिए उसे
हृदय की गुफा
भी कहा, उसे
ब्रह्मलोक भी
कहा। आण्विक
अर्थों में हम
उसे जानेंगे
अपने भीतर, और तब हम परम
अर्थों में
उसे विराट के
भीतर अनुभव कर
लेंगे। अपने
हृदय में
प्रवेश परम
हृदय में
प्रवेश का
पहला चरण है।
कला हमें आ
गयी। हम समझ
गये।
करीब—करीब
वैसा ही है
जैसे किसी
बच्चे को अगर
नदी में तैरना
सिखाना होता
है, तो नदी के
किनारे तैरना
सिखाते हैं, जहां डूबने
का डर न हो।
उथले में
तैरना सिखाते
हैं। मतलब यह
हुआ कि वहां
तैरना सिखाते
हैं जहां तैरने
की कोई जरूरत
न हो। क्योंकि
तैरने की
जरूरत हो तब
तो खतरा आ जाए।
तैरना वहां
सिखाते हैं
जहां तैरने की
कोई जरूरत न
हो। किनारे पर
तैरना सिखा
देते हैं। फिर
एक बार तैरना
आ गया तो फिर
कितनी ही
गहराई पर तैरा
जा सकता है।
क्योंकि
तैरने से
गहराई का कोई
संबंध नहीं है।
तैरना तो एक
कला है। फिर
कहीं भी तैरा
जा सकता है।
एक बार तैरना
आ गया तो फिर
यह सवाल नहीं
है कि नदी में,
कि नाले में,
कि कहां।
कहीं भी तैरा
जा सकता है।
फिर यह भी
सवाल नहीं है
कि मैं कितने
गहरे में तैरूंगा।
कि हजार फीट
गहरा होगा तो
तैर सकता हूं
दस हजार फीट
गहरा होगा तो
नहीं तैर
सकूंगा।
गहराई का फिर
कोई संबंध
नहीं है।
तैरना एक कला है।
ध्यान
भी एक कला है।
इस हृदय की
गुफा में तो
हम किनारे पर
तैरना सीख लेते
हैं, फिर उस
विराट के सागर
में उतरने में
कोई कठिनाई
नहीं रह जाती।
यह किनारा है—हमारा
हृदय जो है उस
विराट के लिए
जरा—सा किनारा
है। एक तट है, जिस पर बिना
खतरे के तैरना
सीखा जा सकता
है। एक बार यह
आ जाए तो ठीक
तैरने ही जैसी
बात है। जिसे
एक दफा तैरना
आ जाए पानी
में तो आदमी
फिर कभी भूलता
नहीं है। आपने
कभी कोई ऐसा
आदमी देखा है
जो तैरना भूल
गया हो? दुनिया
में सब चीजें
भूली जा सकती
हैं, लेकिन
कोई आदमी
तैरना नहीं
भूलता। यह मजे
की बात है।
क्योंकि इस
तैरने की
स्मृति में
कुछ भेद है क्या?
जब सब चीजें
भूल जाती हैं...
अगर पांच साल
का मैं था तो
जो बातें मुझे
सिखायी गयी
थीं, वह
मैं भूल गया, लेकिन तैरना
मैं नहीं भूला।
चाहे फिर तीस
वर्ष तक तैरा
ही नहीं, छुआ
ही नहीं, पानी
में नहीं गया।
लेकिन तीस साल
बाद फेंक दो
मुझे पानी में
तो मैं फिर
तैरने लगता, और उस वक्त
ऐसा नहीं होगा
कि मुझे याद
करना पड़े कि
कैसा तैरते थे?
बस तैरना आ
जाएगा। क्या
बात है?
तैरना
स्मृति अगर है, तो और
स्मृतियां जब
मिट जाती हैं,
तैरना भी
मिट जाना
चाहिए। जब और
स्मृतियां
प्रयोग न करने
से विस्मृत हो
जाती हैं, तैरना
भी विस्मृत हो
जाना चाहिए।
लेकिन तैरना
नहीं मिटता, नहीं
विस्मृत होता।
इसका एक ही
अर्थ होता है
और वह अर्थ यह
है कि तैरना
वस्तुत: हम
सीखते नहीं।
क्योंकि जो भी
चीज सीखी जाए,
वह भूल जाती
है। भूल सकती
है। लेकिन यह
बात अजीब
लगेगी, क्योंकि
तैरना हम
सीखते तो हैं।
तब फिर ऐसा
समझें कि तैरने
में हम शायद
तैरना नहीं
सीखते, केवल
साहस सीखते
हैं।
जब हम
एक दफा, पहली
दफा किसी
व्यक्ति को
पानी में
फेंकते हैं
तैरने के लिए,
तब भी वह
हाथ—पैर
फेंकता है—थोड़े
अव्यवस्थित।
और वह जो
अव्यवस्था
होती है, वह
भय के कारण
होती है कि
कहीं डूब न
जाऊं। दस—पांच
बार हाथ—पैर
फेंककर वह समझ
जाता है कि
डूबता नहीं
हूं कोई भय का
कारण नहीं है।
भय मिट जाता
है, हाथ—पैर
व्यवस्थित
फेंकने लगता
है, तैरना
आ जाता है।
तैरना जैसे
उसे आता ही था,
सिर्फ
डूबने के भय
के कारण
व्यवस्थित
नहीं हो पाता
था। तैरना
जैसे उसे
मालूम ही था, सिर्फ उसके
प्रयोग करने
की जरूरत थी।
तो तैरना हम
शायद सीखते
नहीं, पुनर्स्मरण
करते हैं। यह
मैं उदाहरण के
लिए कह रहा
हूं।
क्योंकि
ठीक ऐसा ही
ध्यान के
संबंध में
होता है। और
ठीक ऐसा ही
हृदय की गुफा
में होता है।
एक बार ध्यान
आ जाए, तो
फिर नहीं भूला
जाता। एक किरण
ध्यान की
उपलब्ध हो जाए,
एक झलक तो
फिर उसे कभी नहीं
भुलाया जा
सकता। फिर कोई
उपाय नहीं है।
फिर आप वही
आदमी नहीं हो
सकेंगे, जो
इस ध्यान के
अनुभव के पहले
थे। यह अनुभव
अब आपकी आत्मा
हो जाएगा। और
यह भी इसीलिए
कि ध्यान भी
सीखना कम है, शायद
पुनर्स्मरण
है। शायद
ध्यान को हम
जानते ही हैं
किसी गहरे तल
में। सिर्फ
थोड़े—से
अभ्यास की
जरूरत है कि
जिसे हम जानते
ही हैं, वह
प्रगट होकर
जाना जा सके।
शायद जो छिपा
ही है, थोड़ी
धूल—धवांस हटा
दी जाए और वह
निखर जाए और
ताजा हो जाए।
शायद कोई
दर्पण, जिस
पर धूल जम गयी
है, पोंछ
दिया जाए और
दर्पण में
तस्वीर बन जाए।
जब
दर्पण में धूल
जमी थी तब भी
दर्पण दर्पण
ही था। धूल से
दर्पण मिटता
नहीं। लेकिन
धूल से मेरा
प्रतिबिंब
बनना तो बंद
हो जाता है। धूल
हट जाती है, दर्पण तो
पहले भी दर्पण
था, अब भी
दर्पण है, लेकिन
अब प्रतिबिंब
बनता है।
ध्यान भी ऐसी
ही प्रक्रिया
है, जिससे
हम भीतर
इकट्ठी हो गयी
धूल हो हटा
देते हैं, दर्पण
साफ हो जाता
है। तैरना आ
जाता है। और
एक बार आ जाए, साफ हो जाए, तो फिर कला
हमें आ गयी।
फिर हम किसी
बड़े—से—बड़े
सागर में भी
उतर सकते हैं।
और दर्पण हमें
मिल गया, उसमें
हम—हम अब अपना
ही नहीं, परमात्मा
का भी
प्रतिबिंब
उपलब्ध कर
सकते हैं। ' इसलिए उसे
ब्रह्मलोक भी
कहा। और कहा, वह परमतत्व
भीतर इस गुफा
में आलोकित है।
जैसे कोई दीया
जल रहा हो, चारों
तरफ गुफा घिरी
हो, गुफा
के बाहर
अंधेरा हो और
हम अंधेरे में
जी रहे हों; और गुफा के
भीतर दीया जल
रहा हो। और
गुफा के भीतर
हम जाएं तो हम
हैरान हों कि
यह दीया तो
सदा ही जल रहा
था, यह
ज्योति तो कभी
बुझी न थी।
इस
अंतर—गुहा में
जलनेवाली
ज्योति के ही
कारण पारसियों
ने निरंतर
अपने मंदिर
में आग को
जलाने का
प्रतीक चुना।
लेकिन भूल गये
कि यह आग
किसलिए जला
रहे हैं चौबीस
घंटे। आग बुझे
न, जलती ही
रहे, यह
सिर्फ प्रतीक
था। उस भीतर
की गुफा में
जरथुस्र को
पता चला था, जरथुस्त्र
ने जाना था कि
भीतर की गुहा
में जाकर देखा
कि वहां जो ज्योति
जलती है बिना
ईंधन के, बिना
तेल के, और
शाश्वत है, और कभी बुझी
नहीं वह जीवन
का स्वरूप है,
वही जीवन है।
जरथुस्त्र को
जो प्रतीत हुआ
था, वह
जरथुस्र के
अनुयायियों
ने मंदिर में
स्थापित किया।
सुंदर था। यह
स्थापित करना
सिंबालिक था।
कलात्मक था।
लेकिन हमारे
सब सत्य
संकेतों में
खो जाते हैं।
फिर अब
वे रोज दीया
जलाए चले जा
रहे है, या
आग जलाए चले
जा रहे हैं।
मंदिर उनका
अगियारी हो
गया; उसमें
आग जलती रहती
हैं चौबीस
घंटे; आग न
बुझ पाए, इसकी
बड़ी चेष्टा
करते हैं; लेकिन
वह भीतर का
मंदिर जिस आग
की यह खबर देता
था, उसकी
कोई स्मृति ही
नहीं है। यह
आग तो जलानी
ही पड़ती है।
और जिस आग को
जलाना ही पड़ता
है, वह न
बुझनेवाली आग
नहीं। और इसको
तो चौबीस घंटे
संभालना ही
पड़ता है। और
जिसको
संभालना ही
पड़ता है, वह
जीवन की आग
नहीं।
एक ऐसी
आग, एक ऐसी
ज्योति भीतर
है, जो
जलती ही रहती
है बिना
संभाले, बिना
ईंधन के, बिना
तेल के, बिना
किसी सहारे के।
जो जीवंत, शाश्वत
जीवंत है। उस,
उस ज्योति
को कहा कि वह
परमतत्व भीतर
आलोकित ही है
और निष्ठावान
साधक उसे पा
लेता है।
निष्ठावान
साधक के संबंध
में भी दो
शब्द समझ लेने
चाहिए।
निष्ठावान
साधक का क्या
अर्थ है? श्रद्धा
और निष्ठा में
क्या फर्क है?
सुबह हमने
श्रद्धा की
बात की।
निष्ठा दूसरा
तत्व है, बहुत
भिन्न। आमतौर
से हम श्रद्धा
और निष्ठा को
एक ही तरह
प्रयोग कर
लेते हैं।
निष्ठा
का अर्थ है यह
जो खोज है, यह दुरूह है;
और यह जो
खोज है, एक
दिन में पूरी होनेवाली
नहीं है; और
यह जो खोज है, अनेक—अनेक
असफलताएं
इसमें
अनिवार्य हैं।
इसमें बहुत
बार हारना
पड़ेगा। बहुत
बार टूट जाना
पड़ेगा। बहुत
बार ऐसा होगा
कि लगेगा—हाथ
में कुछ भी
नहीं आता, छोड़े,
बंद करें।
निष्ठा का
अर्थ है : जब
असफलता हाथ
लगे तब भी प्रयास
जारी रहे। निष्ठा
का अर्थ है. जब
असफलता हाथ
लगे तब भी प्रयास
में रत्ती—भर
फर्क न हो।
जब
सफलता हाथ
लगती है तब तो
निष्ठा की कोई
जरूरत ही नहीं
होती। तब तो
सफलता ही चलवा
देती है। जब
कोई आदमी किसी
काम में सफल
होता है, तो
निष्ठा की
बिलकुल जरूरत
नहीं होती, क्योंकि
सफलता ही धक्का
देती है, अगले
कदम को उठवा
देती है।
लेकिन जब
असफलता हाथ
लगती है, तब
पैर उठते नहीं।
असफलता भारी
हो जाती है।
पैरों पर
पत्थर बंध
जाते हैं। पैर
उठने से इनकार
कर देते हैं।
तब तो निष्ठा
ही पैर उठा
सकती है। तो
निष्ठा का
अर्थ हुआ कि
असफलता को जो
असफलता न माने,
हार को जो
हार न माने, पराजय को जो
पराजय न माने,
और उठाता ही
चला जाए, उठाता
ही चला जाए
कदम; कितनी
ही हो हार, लेकिन
किसी हार को
हार न माने।
मैंने
सुना है, एडीसन
अपनी
अन्वेषणशाला
में एक प्रयोग
कर रहा था। और
उसने एक नये
युवक वैज्ञानिक
को सहयोगी की
तरह रखा था।
बहुत
विचारशील
युवक था, तर्कनिष्ठ
था, वैज्ञानिक
प्रतिभा का था।
और जिस प्रयोग
में वे लगे थे,
रोज उस पर
प्रयोग करते।
अठारह—अठारह
घंटे उस पर
नष्ट करते, और रात असफल
होकर वापिस
लौटते। बूढ़ा
एडीसन और वह
युवक। तीन
महीने हो गये,
रोज यह चला।
तीन महीने बाद
उस युवक ने
जवाब दे दिया।
जवाब तो वह
बहुत दिन पहले
से देना चाहता
था, लेकिन
एडीसन—बूढ़े
एडीसन की आंखों
में जो—जो
निष्ठा का
दिया जलता था,
उसकी वजह से
उसकी हिम्मत
नहीं पड़ती थी।
रोज
एडीसन सुबह
होते से ऐसा
चला आता था
जैसे ताजा
बच्चा भागा
हुआ अपनी
प्रयोगशाला
में आ रहा हो।
वह युवक तय
करके आता था
घर से कि आज कह
देंगे कि अब
क्षमा करो, यह काम अपने
बस का नहीं, और यह कभी
पूरा होगा
नहीं, और
ऐसा लगता है
कि हमने कुछ
गलत ही चुन
लिया है, यह,
यह प्रयोग
होनेवाला
नहीं है। और
इतने हार चुके
हो—इतनी बार, इतनी दिशाओं
से प्रयोग कर
चुके, राख हाथ
में लगती है, फिर भी पागल
हो कि लगे ही
चले जा रहे हो।
छोड़ो भी! कुछ
और करें, जिसमें
सफलता मिले।
लेकिन एडीसन
की आंखों में
जलती हुई
ज्योति को
देखकर उसकी
हिम्मत न पड़ती
थी। क्योंकि
उसे ऐसा लगता
कि यह बूढ़ा और
अभी इतना जवान
है और मैं
जवान और इतने
बुढ़ापे की बात
करूं, यह
ठीक नहीं है।
लेकिन तीन
महीने बहुत हो
गया। न रात सो
पाता था, न
दिन चैन थी। न
प्रयोग पूरा
होता था, न
प्रयोग
समाप्त करता
था एडीसन। आज
हार जाते, कल
फिर दूसरे ढंग
से शुरू होता।
तीन
महीने बाद एक
दिन उसने सुबह
एडीसन की आंख
की तरफ नहीं
देखा, नीचे
ही आंखें रखकर
उसने एडीसन से
कहा कि क्षमा
करें.. एडीसन ने
कहा, कि आंख
ऊपर करो। उसने
कहा आंख ऊपर
करके ही मैं
झंझट में पड़ा
हूं तीन महीने
से निरंतर आंख
ऊपर करता हूं
उसी में तो..
नहीं, आज आंख
ऊपर करनी ही
नहीं है। यह
प्रयोग सफल
होनेवाला
नहीं है।
एडीसन ने कहा,
क्या तू
पागल है? सफलता
के इतने करीब
आकर!
उस
युवक ने कहा, सफलता के
करीब? पहले
दिन जितने
करीब थे, उतने
भी करीब अब
नहीं हैं। तीन
महीने, हर
तरफ से खोज
लिया, सब
रास्ते बेकार
हो गये!
एडीसन
ने कहा कि
तुझे गणित
नहीं आता।
इतने रास्ते
हमने देख लिये, ये बेकार हो
गये, इसका
मतलब यह हुआ
कि अब बेकार
रास्ते कम रह
गये। अगर हमने
दो सौ रास्ते
देख लिये, अगर
तीन सौ रास्ते
होंगे, तो
अब सौ ही बचे।
सफलता के हम
करीब आ रहे
हैं। आज नहीं
कल, आज
नहीं कल हार—हारकर
हम जीत ही
जाएंगे।
क्योंकि
अंततः कोई एक
रास्ता होगा,
जो सही होगा।
हम गलत को
काटते जा रहे
हैं कि यह भी
गलत हुआ; जीत
करीब आ रही है।
तू कैसा पागल
है। तीन महीने
मेहनत करके और
लौटने की बात
सोचता है। अब
तो हम बिलकुल
करीब हैं।
यह
निष्ठा है!
निष्ठा
का अर्थ है.
पराजय के
समक्ष विजय की
आस्था। हार के
समक्ष, असफलता
के समक्ष भी
सफलता का ही
सूत्र। मेरे
रास्ते पर एक
पत्थर पड़ा हो,
तो मैं
चाहूं तो समझ
लूं कि यह
बाधा है और
रास्ता
समाप्त हुआ।
यह निष्ठाहीन
आदमी का लक्षण
है। चाहूं तो
मैं यह समझूं
कि रास्ते पर
एक सीढ़ी मिल
गयी, अब
मैं इस पर
चढूंगा, और
रास्ता अब थोड़ी
ऊंचाई पर शुरू
होगा। तो जो पत्थर
है रास्ते का,
वह सीडी भी
हो सकता है, वह बाधा भी
हो सकता है।
वह स्वयं में
न तो बाधा है
और न सीढ़ी। वह
बाधा बन जाती
है, अगर
मेरे भीतर
निष्ठा न हो।
और वह सीढी बन
जाती है, अगर
मेरे भीतर
निष्ठा हो।
यह जो
परमतत्व है, यह जो गुहा
में छिपा हुआ
अमृत है, यह
जो स्वर्ग के
पार हृदय की
गहनता में
डूबा हुआ
ब्रह्मलोक है,
इसे पाना
अनंत—अनंत
असफलताओं के
बीच से निखरी
हुई सफलता से
होता है। बहुत
बार हार कर
इसमें जीत
मिलती है।
बहुत बार
टूटकर इसमें
व्यक्ति
जुड़ता है, इकट्ठा
होता है। बहुत
बार चूककर यह
मिलन होता है।
बहुत बार करीब—करीब
से गुजर जाते
है—इतने करीब
से, कि
लगता है कि अब
बंद करो। अब
नहीं हो सकेगा।
और जब भी ऐसा
लगता हो, तभी
निष्ठा की
जरूरत पड़ती है।
श्रद्धा के
बिना कोई
प्रारंभ नहीं
करता, निष्ठा
के बिना कोई
अंत को उपलब्ध
नहीं होता।
श्रद्धा से
शुरुआत होती
है, निष्ठा
से पूर्णता
होती है।
इसलिए कहा कि
निष्ठावान
साधक इस तत्व
को पा लेता है।
इतना
ही।
अब हम
रात्रि के
ध्यान के लिए
तैयार हों। दो—तीन
बातें खयाल
में ले लें।
रात्रि के
ध्यान में कोई
वस्त्र नहीं
निकालें।
सिर्फ सुबह के
ध्यान में
किसी को वस्र
निकालना हो तो
निकाले।
रात्रि के ध्यान
में कोई वस्र
न निकाले, खयाल रखें।
रात्रि
के ध्यान में
जिन मित्रों
को बहुत तीव्रता
से करना हो, वे मेरे
आसपास आ
जाएंगे।
जिनको उतनी
तीव्रता से न
करना हो, वे
पीछे के घेरे
में खड़े
होंगे। वैसे
कोशिश
प्रत्येक करे,
जितनी
तीव्रता से हो
सके उतना ही
परिणामकारी है।
मेरी तरफ अपलक
आंखों से
देखना है। पलक
न झपे। और
नाचकर, कूदकर
शक्ति को
जगाना है, और
शक्ति जागती
है तो उसको 'हू हू, की
आवाज से चोट
करना है।
thank you guruji
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