ध्यान
योग शिविर,
दिनांक
11 जनवरी,
रात्रि:
माथेरान।
सूत्र
:
एतत्कोशद्वयसंसक्त
मन आदि
चतुर्दशकरणैरात्मा
शब्दादि विषय
संकल्पादिधर्मान्
यदा करोति तदा
मनोमयकोष
इत्युच्यते ।
एतत्कोशत्रयसंसक्त
तद्गतीवशेषज्ञो
यदा भासते
तदा
विज्ञानमयकोश
इत्युव्यते ।
एतत्कोशचतुष्टयसंसक्त
स्वकारणाज्ञाने
वटकणिकायामिव
वृक्षो यदा
वर्तते तदा
इन
दो कोषों के
भीतर
रहनेवाली
मन आदि
चौदह
इंद्रियों
द्वारा
जब
आत्मा शब्दादि
विषयों का
विचार करती है,
तब
उसे मनोमय कोष
कहते हैं ।
आत्मा
इन तीनों
कोषों के साथ
संयुक्त होकर
बुद्धि
के द्वारा जो
कुछ जानती है,
उसके
उस बुद्धिमय
स्वरूप को
विज्ञानमय
कोष कहा जाता
है ।
इन
चारों कोषों
के साथ आत्मा.
बरगद
के बीज में
वृक्ष की तरह.
अपने
कारण स्वरूप
अज्ञान में
रहती है,
उसे
आनंदमय कोष
कहते है ।
पहला
शरीर है स्थूल, भौतिक,
अन्नमय।
दूसरा
शरीर है
प्राणमय, ऊर्जा-शरीर।
इन दो की सुबह
हमने बात की।
ऊर्जा-शरीर
को,
प्राणमय
कोष को जो
शुद्ध कर ले
वही तीसरे
शरीर के प्रति
जाग्रत हो
पाता है.. -एक पर्त
पारदर्शी हो
जाए तो दूसरी
पर्त की झलक
मिलनी शुरू हो
जाती है। जैसे
हमने समझा, अन्न से
बनता है पहला
शरीर, प्राणवायु
से निर्मित
होता है दूसरा
शरीर, तीसरा
शरीर निर्मित
होता है विचार
की तरंगों से।
विचार भी भोजन
है। विचार भी
वस्तु है।
विचार भी
शक्ति है।
बुद्ध
ने कहा है. तुम
जैसा सोचोगे
वैसे ही हो जाओगे; या
तुम जैसे हो
गए हो, वह
तुम्हारे
सोचने का ही
परिणाम है।
मन
तक यह बात सही
है.. मनोमय कोष
तक यह बात सही
है। और बुद्ध
का यह वक्तव्य
सही है, क्योंकि
जिनसे
उन्होंने कहा होगा,
उन्हें मन
के पार का और
कुछ भी पता
नहीं है।
लेकिन विचार
को कभी हम
भोजन की तरह
नहीं समझते
हैं कि विचार
भी भोजन है; और विचार भी
भीतर प्रवेश
करके एक देह
का निर्माण
करता है। इसे
थोड़ा समझेंगे
तो खयाल में आ
जाएगा।
कलकत्ता
में उन्नीस सौ
में एक बच्चा
खो गया। कोई
सात वर्ष बाद
पता चला कि वह
बच्चा जंगल में
है और एक
शिकारी उसे
वापस ले आया।
एक भेड़िया उस
बच्चे को उठा
कर ले गया था।
बहुत कोशिश की
गई उस बच्चे
को आदमी बनाने
की,
बहुत
मुश्किल हुआ।
वह चार
हाथ-पैर से
चलता था, जैसे
भेड़िए चलते
हैं; आवाज
करता था, जैसे
भेड़िए करते
हैं। भेड़िए
जैसा ही
खूंखार भी हो
गया था। उतनी
ही तेजी से
दौड़ भी लेता
था, लेकिन
रीढ़ के बल खड़ा
करना उसे
मुश्किल हो
गया। मन उसका
विकसित ही न
हुआ था, क्योंकि
मन को कोई
भोजन न मिला
था। बहुत
चेष्टा में वह
बच्चा मर गया।
ऐसा
तीन-चार बार
हुआ। अभी कोई
दस वर्ष पहले
उत्तर प्रदेश
में फिर एक
बच्चा चौदह
वर्ष का, भेड़ियों
से वापस लाया
गया। चौदह
वर्ष तो काफी
उम्र है।
लेकिन वह एक
शब्द भी नहीं
बोल सकता था।
और छह महीने
कोशिश करके
सिर्फ उसे
उसका नाम बोलना
सिखाया जा सका--
'राम। 'उसका
नाम रख लिया
था राम, तो
उसे छह महीने
कोशिश करके
सिर्फ इतनी
आवाज सिखाई जा
सकी। वह बच्चा
भी मर गया।
स्वस्थ लाते
हैं, लेकिन
वह बच्चा भी
सारा इंतजाम
करके भी जिंदा
नहीं रखा जा
सका, क्योंकि
अब मन को पैदा
करना उसे इतना
दुष्कर हुआ, और आदमी
बनना इतना
कठिन मालूम
हुआ, क्योंकि
मनोमय कोष ही
विकसित नहीं
हो पाया।
आप
एक भाषा बोलते
हैं,
वह भोजन है
जो आपको बचपन
से दिया गया
है। दूसरे घर
में बड़े होते,
दूसरी भाषा
बोलते। गहरी
पर्त बन जाती
है।
मेरे
एक मित्र
जर्मनी में थे
बीस वर्षों तक।
बहुत कम उम्र
में भारत से
चले गए। उनकी
मातृभाषा
मराठी है, वे
भूल गए। बीस
वर्ष जर्मन
बोलते-बोलते
उन्हें मराठी
का कोई खयाल
ही नहीं रहा--पढ़
भी नहीं सकते,
बोल भी नहीं
सकते, समझ
भी नहीं सकते।
फिर
अचानक एक
दुर्घटना हुई
और वे बीमार
पड़े। उनके भाई
यहां से
जर्मनी गए।
जिस अस्पताल
में उनको
भर्ती किया था, उस
अस्पताल के
लोगों ने
प्रार्थना की
उनके भाई को
कि आप रुक
जाएं; वैसे
अस्पताल का
नियम नहीं कि
कोई यहां रुके
रात, लेकिन
आपको रुकना ही
पड़ेगा, क्योंकि
जब भी
तुम्हारे भाई
बेहोशी में
बोलते हैं तो
पता नहीं किस
भाषा में
बोलते हैं, जब होश में
बोलते हैं तब
तो जर्मन में
बोलते हैं।
भाई चकित हुए।
जब वह उनका
भाई बेहोशी
में बोलता था
तो मराठी में
बोलता था। होश
में मराठी समझ
नहीं आती थी; बेहोशी में
मराठी ही
बोलता था, जर्मन
नहीं बोल सकता
था। बेहोशी
में जर्मन समझ
भी नहीं सकता
था।
वह
मनोमय कोष की
पहली पर्त जिस
भोजन से बनी
है,
वह गहरा है।
इसलिए आदमी
कितनी ही कोई
दूसरी भाषा
सीख ले, कभी
भी ठीक
मातृभाषा की
गहराई उपलब्ध
नहीं हो पाती।
असंभव है, कोई
उपाय नहीं है;
क्योंकि जो
पर्त पहली बन
गई है मनोमय
कोष में, अब
वह पहली ही
रहेगी, अब
सबपर्तें
उसके बाद ही
निर्मित
होंगी।
भाषा
है,
शब्द है, विचार है, इनसे एक देह
हमारे भीतर
निर्मित होती
है। जितना
सुसंस्कृत और
सुशिक्षित
व्यक्ति होता
है, उतनी
बड़ी मनोमय देह
होती है।
लेकिन यह देह
भी देह की तरह
हमें दिखाई
नहीं पड़ती, और इसलिए हम
बिना फिकर किए
कुछ भी मनोमय
कोष में डाले
चले जाते हैं।
एक
आदमी सुबह से
अखबार पढ़ रहा
है,
उसे खयाल भी
नहीं हो सकता
कि यह अखबार
भी उसकी मनोमय
देह का
निर्माण
करेगा।
रास्ते पर
चलते दीवालों
पर लगे पोस्टर
पढ़ रहा है, उसे
खयाल भी नहीं
हो सकता कि ये
जो शब्द उसके
भीतर जा रहे
हैं, ये भी
उसका मन
निर्मित कर
रहे हैं।
हम
अपने मन के
निर्माण में
इतने असावधान
हैं,
इसलिए हमारी
जिंदगी एक
उपद्रव है।
अगर इतनी ही
असावधानी हम
शरीर के
निर्माण में
भी बरतें तो
शरीर भी एक
उपद्रव हो जाए।
हम कंकड़-पत्थर
नहीं खाते हैं;
लेकिन जहा
मन का सवाल है,
हम
कंकड़-पत्थर से
भी व्यर्थ की
चीजें खाते
हैं; वे सब
हमारे मन को
निर्मित करती
हैं। जाने-
अनजाने हमारे
मन में जो भी
प्रवेश कर
जाता है वह
उसका हिस्सा
हो जाता है।
लेकिन
हमें इसका बोध
ही नहीं है कि
मनोकाया प्रतिपल
निर्मित होती
रहती है--जो
सुनते हैं, जो
पढ़ते हैं, जो
सोचते हैं, जो भी शब्द
भीतर
गुंजारित हो
जाता है, वह
सब मनोमय कोष
को निर्मित
करता है। अगर
आपसे आपका
पड़ोसी कुछ भी
कह रहा है तो
आप कभी उससे यह
नहीं कहते कि
इस व्यर्थ को
मेरे भीतर मत
डालो।
हालांकि आपको
खयाल में हो
या न हो, डाल
लेना आसान है,
निकालना
बहुत मुश्किल
है।
अगर
मैंने एक शब्द
आपके भीतर डाल
दिया तो उसे निकालना
अब इतना आसान
नहीं है।
कोशिश करके देखें
तो पता चल
जाएगा। मैं
आपसे कह देता
हूं '
राम ', रात
भर इसे
निकालने की
कोशिश करके
देख लें, आप
न निकाल
पाएंगे; बल्कि
यह और गहरा
होकर भीतर बैठ
जाएगा; क्योंकि
जितना
निकालने की
कोशिश करेंगे,
उतना ही इसे
याद करना
पड़ेगा। जिसे
हम भुलाना
चाहते हैं, उसे भुलाने के
लिए भी तो याद
करना पड़ता है।
और हर बार याद
करके हम उसे
और मजबूत किए
चले जाते हैं।
इसीलिए
तो इस दुनिया
में जब किसी
को कोई भुलाना
चाहता है तो
भुलाना असंभव
हो जाता है।
कोई भूल जाए, बात
अलग, भुलाना
बहुत मुश्किल
है। और जो भूल
जाता है वह भी
केवल ऊपर-ऊपर
से भूल गया है,
भीतर से
मिटता नहीं; चित्त कुछ
भी खोता नहीं,
चित्त बहुत
संग्राहक है।
यह मनोमय कोष
बहुत सूक्ष्म
संग्रह करती
चली जाती है।
यह
जन्मों-जन्मों
तक जो भी इसने
विचार की तरंग
की तरह पाया
है, इकट्ठा
कर लिया है।
इस देह को ठीक
से समझ लेना
जरूरी है तो
ही इसके पार जाया
जा सकता है।
इधर
दो बातें और
खयाल ले लेनी
जरूरी हैं।
पहले
मैंने आपसे
कहा,
स्थूल देह
है, शरीर
हमारा, भौतिक
काया, बीच
में दोनों के
है वाइटल बॉडी,
प्राण-शरीर;
और पीछे है
मन-शरीर।
मन
और शरीर के
बीच में जो
सेतु है, वह
प्राण काया का
है। इन दोनों
को जोड़ने वाला
जो सेतु है वह
प्राण का है।
इसलिए श्वास
बंद हो गई, शरीर
यहीं पड़ा रह
जाता है, मनोमय
कोष नई यात्रा
पर निकल जाता
है।
मृत्यु
में स्थूल देह
नष्ट होती है, मनोदेह
नष्ट नहीं
होती। मनोदेह
तो केवल
समाधिस्थ
व्यक्ति की नष्ट
होती है। जब
एक आदमी मरता
है तो उसका मन
नहीं मरता, सिर्फ शरीर
मरता है; और
वह मन नई
यात्रा पर
निकल जाता है
सब पुराने संस्कारों
को साथ लिए।
वह मन फिर नये
शरीर को उसी
तरह ग्रहण कर
लेता है और
करीब-करीब
पुरानी शक्ल
के ही ढांचे
पर फिर से
निर्माण कर
लेता है--फिर
खोज लेता है
नया शरीर, फिर
नये गर्भ को
धारण कर लेता
है।
इन
दोनों के बीच
में जो जोड़ है
वह प्राण का
है। इसलिए
आदमी बेहोश हो
जाए,
तो भी हम
नहीं कहते, मर गया, बिलकुल
कोमा में पड़
जाए, महीनों
पड़ा रहे, तो
भी हम नहीं
कहते कि मर
गया, लेकिन
श्वास बंद हो
जाए तो हम
कहते हैं, मर
गया, क्योंकि
श्वास के साथ
ही शरीर और मन
का संबंध टूट
जाता है।
और
यह भी ध्यान
रखें कि श्वास
के साथ ही
शरीर और मन का
संबंध
प्रतिपल
परिवर्तित
होता है। जब
आप क्रोध में
होते हैं तब
श्वास की लय
बदल जाती है..
तत्काल, जब आप
कामवासना से
भरते हैं तो
श्वास की लय
बदल जाती है...
तत्काल; जब
आप शांत होते
हैं तो श्वास
की लय बदल
जाती है...
तत्काल। अगर
मन अशांत है
तो भी श्वास
की लय बदल
जाती है, अगर
शरीर बेचैन है
तो भी श्वास
की लय बदल
जाती है।
श्वास का जो
रिदम है वह
पूरे समय
परिवर्तित होता
रहता है, क्योंकि
इधर शरीर बदला
तो, उधर मन
बदला तो।
इसलिए जो लोग
श्वास की रिदम
को, श्वास
की लयबद्धता
को ठीक से समझ
लेते हैं, वे
मन और शरीर की
बड़ी गहरी
मालकियत को
उपलब्ध हो
जाते हैं।
जापान
में छोटे-छोटे
बच्चों को
सिखाया जाता है
कि जब भी
क्रोध आए तो
तुम श्वास को
शांत करो, क्रोध
को नहीं, क्योंकि
क्रोध को कोई
शांत नहीं कर
सकता सीधा।
दबा सकते हैं
आप, शांत
नहीं कर सकते।
और दबाया हुआ
आज नहीं कल
फिर निकलेगा--शायद
और भी जहरीला
होकर निकलेगा।
जापान में वे
बच्चों को
कहते हैं, क्रोध
आए तो श्वास
को शांत करो, क्योंकि
जैसे ही श्वास
शांत हो जाए, क्रोध मन
में उठता है
लेकिन शरीर तक
नहीं पहुंच
पाता, क्योंकि
श्वास के सेतु
के बिना शरीर
तक पहुंचना
असंभव है। और
जब तक शरीर तक
न पहुंचे, तब
तक दबाने की
कोई भी जरूरत
नहीं है और
प्रकट करने की
भी कोई जरूरत
नहीं है। अगर
मन तक ही रह
जाए तो विलीन
हो जाता है, शरीर तक
पहुंचे तो फिर
आपकी
सामर्थ्य के
बाहर हो जाता
है। मन से
सीधे विलीन
होने के उपाय
हैं, लेकिन
शरीर बहुत
स्थूल चीज है।
उसमें जब कोई
चीज पकड़ जाती
है तो या तो
उसे प्रकट करो
और या दबाओ।
प्रकट करो तो
भी उपद्रव
होता है, दबाओं
तो भी शरीर
में
ग्रंथियां
निर्मित हो जाती
हैं।
अमरीका
का एक बहुत
अदभुत
मनोवैज्ञानिक
कुछ समय पहले
मरा,
उस आदमी का
नाम था, विलहम
रैक। उसने
जीवन भर
मरीजों पर जो
अनुभव किए, उसका कहना
था कि जब कोई
आदमी अपने
क्रोध को दबा
लेता है तो
क्रोध शरीर
में गाठें बना
कर ठहर जाता
है। और बड़े
आश्चर्य की
बात है कि वह
गांठों को दबा
कर आदमी को
पुन: क्रोधित
कर लेता था।
जीवन भर
मरीजों के
शरीर का
अध्ययन करके...
अगर एक मरीज
को वह अनुभव
करता है कि
इसकी बीमारी
क्रोध का दमन
है, तो वह
शरीर के उन
हिस्सों को
जोर से दबाता
था जहां वह
सोचता था कि
क्रोध संगृहीत
है; फौरन
वह आदमी क्रोध
से भर जाता।
दूसरा आदमी
उसी जगह दबाए
जाने पर क्रोध
से नहीं भरता,
सिर्फ वही
आदमी। और
तत्काल क्रोध
से जलने लगता,
अकारण, क्योंकि
अभी क्रोध का
कोई कारण नहीं
था; अभी
क्रोध की कोई
वजह ही नहीं
थी।
तो
अगर दबाएं तो
शरीर में
ग्रंथियां बन
जाती हैं, कांप्लेक्सेस
निर्मित हो
जाते हैं।
आदमी की सौ
में से नब्बे
बीमारियां
उसके दमित
शरीरों में
छिप गए वेगों
का परिणाम हैं।
इसलिए
चिकित्सक
उन्हें केवल
बदल पाता है, ठीक नहीं कर
पाता। आज यह
बीमारी है, चिकित्सक
दवा देता है, वहां से
रोकता है, बीमारी
कल दूसरी जगह
से शुरू हो
जाती है।
चिकित्सक
केवल
ट्रांसफर
करता रहता है
बीमारियों का।
थोड़ी राहत
मिलती है। एक
बीमारी से
छूटे, दूसरी
के प्रकट होने
में थोड़ा वक्त
लगता है।
जो
ग्रंथियां
भीतर इकट्ठी
हैं,
जो जहर भीतर
इकट्ठा है, सूक्ष्म
ग्रंथियां बन
गया है, उसका
निकल जाना
जरूरी है।
लेकिन न आए
शरीर तक, तो
मन से सीधे
वाष्पीभूत हो
जाने के उपाय
हैं।
श्वास
सेतु है।
इसलिए जो कुछ
भी संवेदित
होता है वह
श्वास से संवेदित
होता है। अगर
आप कामवासना
से भरे हुए
हैं,
और मात्र
श्वास शांत रह
जाए, तो
शरीर तक
कामवासना को
पहुंचाना
मुश्किल है, श्वास से ही
शरीर तक
पहुंचेगी।
रूस
का एक बहुत
अदभुत फिल्म
निर्देशक था--इस
सदी का सबसे
विचारशील
फिल्म
निर्देशक था, स्तानिस्लावस्की।
उसने अभिनय पर
गहनतम खोजें
कीं। वे खोजें
बड़ी काम की
हैं। हर आदमी
के काम की हैं।
उसकी एक गहरी
से गहरी खोज
है और वह यह है
कि वह अपने
अभिनेताओं को
श्वास की लयबद्धताएं
सिखाता था। वह
कहता था, जब
तुम्हें
क्रोध लाना हो,
तुम क्रोध
की फिकर मत
करो, तुम
श्वास की यह
लय पैदा कर लो,
क्रोध आ
जाएगा। जब
तुम्हें
प्रेम प्रकट
करना हो तो
तुम प्रेम
प्रकट करने की
कोशिश मत करो,
क्योंकि
प्रेम प्रकट
करने की कोशिश
में जो कृत्रिमता
आ जाती है, जो
आर्टिफिशियलिटि
आ जाती है, वह
अभिनय को नष्ट
कर देती है।
वह कहता था, तुम श्वास
की यह
व्यवस्था बना
लो भीतर, इस
गति से श्वास
लो, शीघ्र
तुम्हारे
चेहरे पर
प्रेम झलकने
लगेगा। और तब
वह जो झलक
होगी वह
बिलकुल
वास्तविक के निकट
होगी, वह
अभिनय जैसी
नहीं होगी।
स्तानिस्लावस्की
कहता था, अभिनेता
को अपने शरीर
और प्राणदेह
का मालिक होना
चाहिए--ही
मस्ट बी ए
मास्टर ऑफ हिज
वाइटल बॉडी
पर्टिकुलरली--तो
ही अभिनय में
कुशल हो सकता
है, नहीं
तो कुशल नहीं
हो सकता।
जर्मन
एक नर्तक था, निजिंस्की।
वह जब नाचता
था तो सभी को
ऐसा भ्रम होता
था-- भ्रम थोड़ी
दूर तक सही था--कि
दुनिया में
बहुत
अच्छे-अच्छे
नर्तक उसके मुकाबले
थे, लेकिन
कहते हैं, निजिंस्की
जैसा नर्तक
पहले कभी नहीं
हुआ, और
शायद फिर कभी
न हो सके। और
खूबी जो थी वह
यह थी कि जब वह
जमीन से नाचने
में कभी छलांग
लगाता था तो
लौटने में
ज्यादा वक्त
लेता था। इतना
वक्त कोई
नर्तक नहीं ले
सकता था। जैसे
ग्रेविटेशन
का असर उस पर
कम होता हो, जमीन की
कशिश कम काम
करती हो। जब
वह उठ जाता तो
ऐसा लगता जैसे
तैर रहा है
हवा में, और
लौटने में समय
ज्यादा लेता
था। उसके साथ
ही छलांग
लगाया हुआ
आदमी कब का
नीचे पहुंच
गया होता, लेकिन
वह देर लेता
था।
बहुत
खोज-बीन की गई
कि उसका राज
क्या है। सब
तरफ
जांच-पड़ताल
करके एक ही
बात पता चली
कि उसकी श्वास
की रिदम में
खूबी है, उसकी
श्वास की रिदम
बहुत भिन्न है,
सामान्य
नहीं है। और
इधर पचास
वर्षों में
जितने लोगों
के संबंध में
खबर मिली है
कि वे जमीन से
ऊपर उठ सकते
हैं--जैसे अभी
बोलिविया में
एक स्त्री है
जो चार फीट
जमीन से ऊपर
कभी-कभी, वर्ष
में दों-चार
बार उठ जाती
है। तो उसके
तो बड़े
वैज्ञानिक
परीक्षण हुए,
फिल्म बनाई
गई है, सारी
मेहनत हुई है,
कोई
शक-शुबहा का
कारण नहीं रह
गया है, लेकिन
उसकी भी रिदम
वही है जो
निजिंस्की की
थी, उसकी
भी श्वास की
गति वही है।
प्राणायाम
में,
और प्राण के
विज्ञान में
श्वास की बहुत
सी गतियां
खोजी थीं। और
उन श्वास की
गतियों के साथ
शरीर और मन
दोनों में
परिवर्तन होता
है। श्वास, प्राण-शरीर
सेतु है। इस
तरफ है देह
भौतिक, उस
तरफ है देह
विचार की।
विचार
हमारे अनुभव
में सबसे
सूक्ष्मतम
चीज है। लेकिन
विचार भी 'है।'
और अब तक
जैसा सोचा
जाता था कि
विचार का कोई
पदार्थगत
अस्तित्व
नहीं है वह
गलत सिद्ध हो
गया है। विचार
भी पदार्थगत
अस्तित्व है।
एडिंग्टन
ने अपनी
आत्म-कथा में
लिखा है--तब तो
वह कल्पना थी--उसने
लिखा है कि
मैं बहुत बार
इस विचार से
अभिभूत हो
जाता हूं और
वह यह कि
थॉट्स आर
थिंग्स; विचार
भी वस्तुएं
हैं। लेकिन
इसके लिए तब
तक कोई प्रमाण
नहीं था, लेकिन
अब इसके लिए
बहुत
वैज्ञानिक
प्रमाण
उपलब्ध हैं।
अब
तो कुछ यंत्र
भी विकसित हो
गए हैं इधर दस
वर्षों में, जो
आपके विचार की
तरंगों से भी
प्रभावित
होते हैं। अगर
आप एक उस
यंत्र के
सामने खड़े
होकर तीव्रता
से एकाग्रता
करें, तो
यंत्र खबर
देता है कि यह
आदमी एकाग्र
हो रहा है--सिर्फ
आप सामने खड़े
हैं, जैसे
एक्सरे की
मशीन के सामने
खड़े हैं। अगर
आप अपने को
रिलैक्स करें,
और विचार
शिथिल छोड़ दें,
तो यंत्र
खबर देता है
कि इस आदमी के
विचार शिथिल
हो गए हैं।
अमरीका
में एक आदमी
है : टेड
सीरियो। शायद
इस आज की
मौजूद दुनिया
में,
विचार भी
पदार्थ हैं, इसका सबसे
बड़ा प्रमाण यह
आदमी टेड
सीरियो है।
टेड सीरियो को
आकस्मिक रूप
से एक विशेष
शक्ति प्रकट
होनी शुरू हो
गई। टेड
सीरियो किसी
भी विचार पर
ध्यान करके
इतना एकाग्र
हो जाता है कि
उस विचार का
चित्र उसकी आंख
में आ जाता है,
और उस चित्र
को कैमरे से
उतारा जा सकता
है। जैसे टेड
सीरियो अगर
बैठ कर शांत
अपने मन में
ताजमहल का
विचार करे तो
उसकी आंख पर
ताजमहल का
चित्र उभर आता
है--उस ताजमहल
का जो उसने
कभी देखा ही
नहीं। और यह
केवल उभर नहीं
आता उसकी
कल्पना में, इसको बाहर
के कैमरे से
फोटो भी ली जा
सकती है। टेड सीरियो
के कोई दस
हजार फोटोग्राफ
लिए गए। कई
बार बहुत
मजेदार अनुभव
हुए; टेड
सीरियो के
फोटोग्राफ अब
प्रकाशित हो
गए हैं।
सैकड़ों
वैज्ञानिको
ने मेहनत ली
है अलग-अलग तरकीब
से कि कोई
धोखा तो नहीं
है? लेकिन
धोखे का कोई
उपाय नहीं है।
क्योंकि
वैज्ञानिक को
भी उसकी आंख
में ताजमहल
दिखाई पडता है।
फिर वैतानिक
को किसी तरह
का धोखा भी
दिया जा सकता
है, लेकिन
कैमरे को धोखा
देना बहुत
मुश्किल है।
और कैमरे में
जो चित्र पकड़
जाता है, वह
क्या कहता है?
वह यह कहता
है कि अगर
विचार सघनभूत
होकर आंख में
ताजमहल बन
सकता है, तो
विचार सिर्फ
विचार नहीं है,
विचार भी
वस्तु है, पोद्गलिक
है, मैटीरियल
है; क्योंकि
पदार्थ के ही
चित्र लिए जा
सकते हैं, विचार
के कैसे चित्र
लिए जा सकते
हैं! चित्र तो
पदार्थ के ही
लिए जा सकते
हैं। जिसका
चित्र लिया जा
सकता है, वह
काफी
सन्क्रेंशियल
है, वह
काफी
पदार्थगत है।
और
बहुत बार तो
बहुत मजे की
घटना घटी।
जैसे टेड
सीरियो कोशिश
कर रहा है
ताजमहल बनाने
की अपनी आंख
में,
अचानक वह आंख
बंद करके कहता
है कि ठीक है, ताजमहल पकड़
लिया, कैमरे
को तैयार कर
लो। आंख खोलता
है, कैमरे
की क्लिक होती
है, और टेड
सीरियो कहता
है कि माफ करो,
चूक गए, यह
तो हिल्टन
होटल आ गई-- विचार
बदल गया भीतर।
क्षमा कर दो।
और मजे की बात
यह है कि
कैमरा ताजमहल
का चित्र नहीं
पकड़ता, हिल्टन
होटल का पकड़ता
है। और कई बार
तो ऐसा हुआ कि
ताजमहल के ऊपर
हिल्टन होटल
इम्पोज हो गई;
दोनों ही
पकड़े गए--ताजमहल
जाता- जाता था
और हिल्टन
होटल आती- आती थी।
विचार
भी वस्तुगत है, अत्यंत
सूक्ष्म है।
पर हम उसका भी
भोजन कर रहे
हैं। और
प्रतिपल हम
अपने भीतर
विचार को ले
जा रहे हैं।
वह विचार
हमारे भीतर एक
काया को
निर्मित कर रहा
है; एक
शरीर निर्मित
हो रहा है।
विचार की
ईंटों से बना
हुआ वह भवन है।
इसीलिए कैसा
विचार आप अपने
भीतर ले जा
रहे हैं वैसी
आपकी मनोकाया
होगी।
आदमी
बहुत
असुरक्षित है
इस लिहाज से।
इस सदी में तो
बहुत
असुरक्षित है।
रेडिया
विचार डाल रहा
है,
अखबार
विचार डाल रहे
हैं, नेता
विचार डाल रहे
हैं, विज्ञापनदाता
विचार डाल रहे
हैं--सब तरफ से
विचार डाले जा
रहे हैं आदमी
में, और कई
बार आप सोचते
हैं कि आप
निर्णय कर रहे
हैं, आप
बड़ी गलती में
हैं।
वीन
पेकार्ड ने एक
किताब लिखी
है. दि हिडन
परसुएडर्स।
आप सोचते हैं...
दुकान पर जाकर
आप कहते हैं
कि मुझे बर्कल
सिगरेट चाहिए।
आप सोचते हैं, आपने
चुनी है, तो
आप बड़ी गलती
में हैं। हिडन
परसुएडर्स
हैं चारों तरफ।
अखबार से आपको
कह रहे हैं, बर्कले
सिगरेट खरीदो।
तख्ती लगी हैं--दुकानों
पर, दीवालों
पर; नाम
लिखा है; फिल्म
देखने जाते
हैं वहां
बर्कले
सिगरेट है; रेडियो में
सुनते हैं
वहां बर्कले
सिगरेट है..
जहां देखें
वहां बर्कले
सिगरेट है, वह आपके
दिमाग में डाल
दी गई है बात।
अमरीकन
विज्ञापनदाता
कहते हैं कि
जो भी आदमी खरीदता
है उसमें
नब्बे परसेंट
हम खरीदवाते हैं; और
दस परसेंट वह
जो खरीद रहा
है, वह
उसकी कला नहीं
है, वह
केवल
विज्ञापन की
कला का अभी
पूरा विकास नहीं
हुआ; उसमें
कुछ आदमी की
वह नहीं है...
अभी हम पूरा...
जैसे-जैसे हम
विकास कर
लेंगे, हंड्रेड
परसेंट--हम
जानते हैं कि
यह आदमी को हम
क्या खरीदवा
देंगे; यह
क्या खरीदेगा।
इससे
बचने की कुछ
फिकर करनी
जरूरी है, नहीं
तो आप
स्वतंत्र
नहीं हैं, अगर
आपका मन दूसरे
निर्मित कर
रहे हैं तो आप
स्वतंत्र
नहीं हैं।
आपके मां-बाप
आपको धमई दे
देते हैं, आपके
गुरु स्कूल
में आपको शान
दे देते हैं, फिर अखबार
और
विज्ञापनदाता
और बाजार के
लोग आपको
चीजें खरीदने
के सुझाव दे
देते हैं, फिर
इनके आस-पास
आप जिंदगी भर
जीए चले जाते
हैं।
अब
अमरीका में
मोटरें
ज्यादा
उत्पादित हो
रही हैं और
खरीददार कम हो
गए हैं, क्योंकि
सभी के पास
गाड़ियां
करीब-करीब हो
गई हैं। तो
चिंतित हैं
दुकानदार कि
अब क्या करना
है। तो पिछले
पांच सालों से
एक नये विचार
को प्रमोशन
दिया जा रहा
है और वह यह कि
अमीर आदमी वही
है जिसके पास
दो गाड़ियां
हैं। अब दो
गाड़ियां लोग
रखना शुरू कर
दिए हैं। एक
गाड़ी गरीब
आदमी का सबूत
है। सिर्फ एक
ही गाड़ी है
आपके पास! वह
गरीब आदमी का सबूत
है। और एक दफा
गरीबी और एक
गाड़ी को जोड़ने
भर की बात है
कि फिर दो
गाड़ी के बिना
काम नही चल
सकता। अमीर
आदमी के पास
कम से कम दो
मकान होने ही
चाहिए--एक शहर
में, एक बीच
पर या पहाड़ पर।
गरीब आदमी के
पास एक ही
मकान होता है।
बस, एक बार
विचार भीतर
पहुंचा देने
की जरूरत है
कि फिर आप
दीवाने होने
शुरू हो जाते
हैं... और सोचते
हैं सदा आप यह
कि यह मैं सोच
रहा हूं यहीं
धोखा है।
मनोकाया
शब्द-निर्मित
है। हम सब
जानते हैं, नाम-जप
के संबंध में
हमने बहुत कुछ
सुना है, सबने
जाना है, लोगों
को करते भी
देखते हैं, लेकिन आपको
पता नहीं होगा
: इट इज
सिम्पली ए प्रोटेक्टिव
मेथड एंड
नथिंग एल्म; नाम-जप जो है,
वह एक
सुरक्षा का
उपाय है। अगर
एक व्यक्ति
रास्ते पर
राम-राम भीतर
जपता हुआ
गुजरे, तो
दूसरे शब्द उसके
भीतर प्रवेश
नहीं कर
पाएंगे; क्योंकि
शब्द-प्रवेश
के लिए अंतराल
चाहिए, खाली
जगह चाहिए।
एक
आदमी चौबीस
घंटे अगर भीतर
राम-जप करता
रहे--बुहारी
लगाता हो, भीतर
राम-राम चलता
हो; खाना
खाता हो, भीतर
राम-राम चलता
हो; दुकान
जाता हो, भीतर
राम-राम चलता
हो; किसी
से बात भी
करता हो तो भी
भीतर राम-राम
चलता हो, तो
उसने एक
प्रोटेक्टिव
मेजर खड़ा कर
लिया; अब
आप हर कुछ
उसके भीतर
नहीं डाल सकते।
अब एक सघन
पर्त, उसके
भीतर राम की
दीवाल खड़ी है।
अब इस राम की
दीवाल को पार
करके आसान
नहीं है कि
कुछ भी चला
जाए। वह आदमी
अपनी मनोकाया
को एक विशेष
रूप और आकृति
देने की कोशिश
में लगा है।
और
यह भी बड़े मजे
की बात है कि
यह राम की जो
दीवाल अगर खड़ी
हो जाए, तो
इसमें से अगर
कभी कुछ
प्रवेश भी
करेगा, तो
वह प्रवेश वही
चीज कर पाएगी
जो राम की
धारणा से
तालमेल खा सके,
अन्यथा
नहीं कर पाएगी।
एक एफिनिटि
चाहिए तो भीतर
प्रवेश हो
जाएगी। जैसे
अगर कोई ऐसे
आदमी के पास
जोर से कहे, रावण, तो
दीवाल से टकरा
कर शब्द वापस
लौट जाएगा; और कोई कहे, सीता, तो
भीतर प्रवेश
कर जाएगा। यह
जो पर्त है, यह अब अपने
अनुकूल जो है
उसे गति दे
देगी और प्रतिकूल
जो है उसे रोक
देगी। और यह
व्यक्ति अपने
भीतर की
मनोकाया का एक
अर्थों में
मालिक होना
शुरू हो जाएगा--जिसको
द्वार देना
होगा, देगा,
जिसको
द्वार नहीं
देना होगा, नहीं देगा।
और
अगर हम अपने
मन के भी
मालिक नहीं
हैं तो फिर हम
किस बात के
मालिक हो सकते
हैं?
यह जो मन है,
यह हमारा तो
करीब-करीब
विक्षिप्त है,
क्योंकि हम
विरोधी चीजों
को मन में एक
साथ ले जा रहे
हैं--अनंत
विरोधी चीजों
को! लौग कहते
हैं, बड़ा
चित्त बेचैन
है, विभ्रम
में है, कनक्यूब्द
है। बड़ी
हैरानी की बात
है कि वे इसको
समझते हैं कि यह
कोई बीमारी है
जिसको ठीक
करना पड़े! यह
आपकी साधना है,
आप चौबीस
घंटे साध रहे
हैं इसे; आप
समस्त तरह के
विरोधी
विचारों को
भीतर ले जा
रहे हैं। एक
विचार भीतर
डालते हैं, उसका विरोधी
भी भीतर डाल
लेते हैं; उन
दोनों के भीतर
बेचैनी है। एक
पोलैरिटी है,
एक
ध्रुवीयता है;
वे दोनों
एक-दूसरे के
साथ संघर्ष
करते हैं और आप
संघर्ष में पड़
जाते हैं।
आप
संघर्ष में
नहीं हैं, आपके
भीतर के विचार
संघर्ष में
हैं। और अनंत
विचार हैं
भीतर और अनंत
विचारों के बीच
बड़ा संघर्ष है।
कोई पूरब जाना
चाहता है, कोई
पश्चिम जाना
चाहता है, कोई
कहीं जाना ही
नहीं चाहता; इन सबके
भीतर भारी
संघर्ष है और
आपकी हालत
करीब-करीब
वैसी है जैसे
किसी बैलगाड़ी में
हमने चारों
तरफ बैल बांध
दिए हों। कभी
बैलगाड़ी दो
इंच पूरब सरक
जाती है, कभी
चार इंच
पश्चिम सरक
जाती है। जब
जहां के बैल
जरा ताकतवर पड़
जाते हैं, या
जब जहां के
बैल जरा आलस
खा जाते हैं...
लेकिन यह
कशमकश चलती
रहती और
बैलगाडी कहीं
पहुंच नहीं
सकती। आखिर
में उसके
अस्थिपंजर
बिखर जाएंगे
और कुछ होने
वाला नहीं है।
हम सब ऐसी
हालत में हैं।
एक आंतरिक बिगूचन
है, एक आंतरिक
विडंबना है।
एक
व्यक्ति मेरे
पास अभी आए, उन्होंने
कहा कि संतोष
चाहिए जीवन
में... संतोष
चाहिए जीवन
में, लेकिन
मैं किसी पर
विश्वास नहीं
कर सकता हूं।
तो आपके पास
आया हूं
विश्वास मेरा
आप पर बिलकुल
नहीं है; कोई
संतोष का
रास्ता बताएं।
मैंने उनसे
कहा मैं
रास्ता
बताऊंगा, लेकिन
विश्वास तो उस
पर आएगा नहीं!
तो मैंने उनसे
कहा तुम संतोष
खोजना छोड़ दो।
तुम खोज तो
असंतोष रहे हो,
क्योंकि जो
आदमी कहता है
मुझे किसी पर
भरोसा नहीं है,
वह संतोष
नहीं पा सकता,
क्योंकि
जिसे गैर-
भरोसा रखना है,
उसे सदा ही
सजग रहना
पड़ेगा, डरा
हुआ रहना
पड़ेगा, भयभीत
रहना पड़ेगा--वह
सदा खतरे में
है, क्योंकि
चारों तरफ जो
भी हैं, सब
पर अविश्वास
है, कहीं
कोई ट्रस्ट
नहीं। अगर ऐसा
आदमी ठीक-ठीक
विकास करे तो
वह मकान के भीतर
नहीं बैठ सकता,
क्योंकि
मकान पता नहीं
कब गिर जाए; वह मकान के
बाहर खड़ा नहीं
हो सकता, क्योंकि
पता नहीं क्या
दुर्घटना हो
जाए। वैसा
आदमी अगर गैर-
भरोसे को
बढ़ाता चला जाए
तो अपना भी
भरोसा नहीं कर
सकेगा।
मैं
एक
युनिवर्सिटी
के बहुत
बुद्धिमान
प्रोफेसर को
जानता हूं
जिनकी आखिर
में हालत यह
हो गई कि वे
अपने पर भरोसा
नहीं कर सकते
थे। तो कमरे
में
छुरी-कांटा या
ऐसी कोई चीज
नहीं रख सकते
थे रात को, क्योंकि
कब उठा कर वे
छाती में भोंक
लें, इसका
उन्हें भरोसा
नहीं रहा था।
तो या तो रात
उनके कमरे में
कोई रहे--लेकिन
उसका भी उनको
भरोसा नहीं
आता था--या
बाहर... रहे तो
कमरे में कोई
चीज नहीं रहनी
चाहिए, क्योंकि
खुद का भी
भरोसा नहीं था।
असल में जो
किसी का भी
भरोसा नहीं
करता, एक
दिन वह घड़ी आ
ही जाती है कि
खुद का भी
भरोसा नहीं कर
सकता। असल में
भरोसा ही नहीं
कर सकता, असली
सवाल यह है...
खुद का और
दूसरे का नहीं
है। फिर संतोष
की कोई
संभावना नहीं।
संतोष
तो उस व्यक्ति
को फलित होता
है,
जो भरोसे की
स्थिति
बिलकुल न होने
पर भी भरोसा
कर सकता है।
एक छोटा सा
बच्चा अपने
बाप का हाथ
पकड़ कर जा रहा है।
उसके संतोष की
कोई सीमा नहीं
है, हालांकि
पक्का नहीं है
कि बाप उसको
रास्ते पर नहीं
गिरा देगा, कोई पक्का
नहीं है कि
बाप खुद नहीं
गिर जाएगा; कोई पक्का
नहीं है, क्योंकि
बाप हो सकता
है खुद ही
लड़के का हाथ
जोर से इसीलिए
पकड़े हो कि
सहारा रहे।
लेकिन लड़का
संतुष्ट है।
मैंने
सुना है, मुल्ला
नसरुद्दीन
अपने लड़के
को... अपने लड़के
को एक सीडी पर
चढ़ा दिया है।
छोटा लड़का है,
आठ-दस साल
का होगा। सीढ़ी
पर खड़ा करके
नीचे हाथ फैला
कर खड़ा हो गया है
और उससे कहा
कि बेटा, कूद
जा। उसने कहा
कि अगर गिर
गया? नसरुद्दीन
ने कहा : पागल!
मैं तेरा बाप
तुझे
सम्हालने को
खड़ा हूं
गिरेगा क्यों?
उसने कहा.
बहुत डर लगता
है।
नसरुद्दीन ने
कहा. जब मैं
यहां खड़ा हूं
तो डर की
जरूरत क्या है?
बहुत लड़के
ने झिझक खाई, लेकिन जब
बाप नहीं माना
तो लडका कूद
पड़ा।
नसरुद्दीन
छोड़ कर जगह हट
कर खड़ा हो गया।
जमीन पर गिरा,
घुटने टूट
गए; उस
लड़के ने कहा.
यह आपने क्या
किया? नसरुद्दीन
ने कहा. यह
तुझे जिंदगी
का पाठ दिया; अपने बाप का
भी भरोसा मत
करना। इस
दुनिया में
भरोसा करना ही
मत; सिवाय
धोखेबाजों के
और कोई नहीं
है।
इस
मनोदशा का अगर
भीतर प्रवेश
हो,
तो संतोष
संभव नहीं है।
संतोष
किसी
व्यवस्था में
संभव है; वह एक
भरोसे की
व्यवस्था है।
असंतोष संदेह
की एक
व्यवस्था है।
अगर दोनों साथ
चाहते हैं तो
कठिनाई खड़ी हो
जाती है।
एक
मित्र आए थे, वे
कहते हैं कि
मुझे मृत्यु
का बड़ा भय है
और आत्मा में
मेरा कोई.. जरा
भी आस्था नहीं
बैठती कि आत्मा
है। मैंने
उनसे कहा. अगर
आत्मा बिलकुल
नहीं है तो
मृत्यु के भय
की क्या
जरूरत है? आप
मरे हुए हैं
ही; अब और
मरने को बचा
क्या? और
अगर आत्मा में
भरोसा है तो
फिर मृत्यु के
भी भय की कोई
जरूरत नहीं, क्योंकि वह
नहीं मरेगी।
आप दो में से
कुछ एक तय कर
लें। अगर यह
बिलकुल पक्का
आपका खयाल हो
गया है कि
आत्मा नहीं है,
तो मृत्यु
का भय अब
बिलकुल
पागलपन है--जो
है ही नहीं वह
मरेगा क्या? आप खाली एक
जोड़ हो, बिखर
जाओगे। और जोड़
बिखरेगा तो
दर्द किसको
होने वाला है?
किसी को भी
नहीं। एक घड़ी
को जब हम
बिखेर कर रख
देते हैं, तो
किसको पीड़ा
होती है? कुछ
नहीं, सिर्फ
जोड़ था, बिखर
गया। कोई पीछे
तो बचता नहीं
जिसको पीड़ा हो।
पक्का समझ लें
कि कुछ नहीं
है आत्मा तो
फिर तो आपको
मृत्यु का कोई
कारण ही नहीं
है।
उन्होंने
कहा. और अगर
आत्मा है?
अगर...!
अगर आत्मा है, इसका
कोई मतलब नहीं
होता। मतलब आप
अपने मृत्यु
के. भय को कायम
ही रखना चाहते
हैं। अगर
आत्मा है..
उनका मतलब यह
कि मृत्यु का
भय तो है ही।
अगर आत्मा न
मानने से नहीं
रखा जा सकता
है भय, तो
हम इस तक के
लिए
राजी हैं कि
आत्मा है, लेकिन
भय का क्या
करें? मैंने
उनको कहा. अगर
आत्मा है तब
तो भय की कोई जरूरत
ही नहीं, क्योंकि
आत्मा का अर्थ
ही इतना होता
है कि मृत्यु
नहीं है।
पर
इनकी तकलीफ
क्या है? इनकी
तकलीफ यह है
कि कहीं गहरे
में ये बचना
भी चाहते हैं,
कहीं गहरे
में जीना भी
चाहते हैं, सदा, फिर
भरोसा भी नहीं
कर पाते कि
सदा जीना हो
भी सकता है।
स्वयं के
विरोध में
स्वर हैं। तो
ऐसा व्यक्ति
अपने को ही
काटता चला
जाता है।
मन, एक
भ्रमणा हो
जाती है, क्योंकि
हम विरोधी
विचारों को
इकट्ठा कर लेते
हैं। अगर मन
की काया को
शुद्ध करना है,
तो मन की
काया को शुद्ध
करने का एक ही
उपाय है और वह
है. विचारों
में एक तरह का
सामंजस्य
चाहिए, एक संगीतबद्धता
चाहिए, एकस्वरता
चाहिए, एक
हार्मनी
चाहिए, तो
मन की काया
शुद्ध होती है
और आदमी भीतर
प्रवेश करता
है।
चौथा
शरीर है. ''विज्ञानमय
कोष।''
तीसरा
शरीर निर्मित
है विचारों से; चौथा
शरीर निर्मित
है चेतना से, होश से, बोध
से; वह बोध
शरीर है। जब
हम विचार के जानने
में समर्थ हो
जाते हैं, जब
हम विचार को
भी ऐसे देख
सकते हैं जैसे
कोई आदमी आकाश
में सरकती हुई
बदलियों को
देखे, जब
हम विचार को
भी ऐसे देख
सकते हैं जैसे
कोई आकाश में
उड़ते हुए
बगुलों की
कतार को देखे..
ऐसे ही अपने
चैतन्य के
आकाश में
विचार को उड़ते
देखे, दूर खड़ा
हो सके, तो
चौथे शरीर का
पता चलता है।
लेकिन
हम तो पहले
शरीर से इस
बुरी तरह बंधे
हैं कि दूसरे
तक का पता
नहीं चलता।
फिर हम तीसरे
शरीर में इस
बुरी तरह
ग्रसित हैं, हम
इस बुरी तरह
मन में डूबे
हैं कि मन के
पार भी हम हो
सकते हैं, इसका
हमें पता भी
नहीं चलता।
बोधिधर्म
गया चीन कोई
चौदह सौ वर्ष
पहले। चीन के
सम्राट बू ने
उससे कहा.
मेरा मन बड़ा
अशांत है.. कुछ
मार्ग? बोधिधर्म
ने कहा. तुम
कहते हो
तुम्हारा मन
बड़ा अशांत है,
क्या तुमने
कभी कोई शांत
मन भी देखा है?
बू हैरान
हुआ। उसने
कहा. शांत मन
तो कभी मैंने
नहीं जाना। तो
बोधिधर्म ने
कहा. तुम
अशांत मन
क्यों कहते हो?
सच तो यह है
कि अशांति का
नाम मन है।
अशांत मन! तुम
दोहरे शब्द
क्यों प्रयोग
कर रहे हो? अशांति
का नाम मन है, और तुम मन को
शांत करने चले
हो? पागल
हो जाओगे, कभी
मन शांत न
होगा।
तो
बू ने कहा. तो
फिर क्या ऐसी
अशांति में ही
मर जाना होगा?
बोधिधर्म
ने कहा : नहीं, लेकिन
मन के पार हो
सकते हो; और
मन के पार जो
है वह शांत है।
मन को शांत
नहीं कर पाओगे,
लेकिन मन के
पार हो जाओ तो
जो है वह शांत
है; और अगर
वह मिल जाए तो
मन भी शांत हो
जाता है।
असल
में मन
तिरोहित हो
जाता है। जैसे
ही चौथा शरीर
विकसित होता
है,
तीसरा शरीर
बिखरने लगता
है। और जैसे
ही चौथा शरीर
विकसित हो
जाता है, तीसरा
शरीर जो है वह
केवल
उपयोगिता
मात्र रह जाती
है उसकी।
चौथे
शरीर को
विकसित जिसने
किया है, वह
व्यक्ति
विचारों से
घिरा नहीं
रहता, जब
उसे जरूरत
होती है तब
विचार का उपयोग
कर लेता है--ठीक
वैसे, जैसे
हमें जरूरत
होती है हम
पैर से चल
लेते हैं; आप
यह तो नहीं
कहते कि हम
बैठे रहेंगे
कुर्सी पर
लेकिन पैर
चलाते रहेंगे।
कुछ लोग चलाते
रहते हैं! कुछ
लोग चलाते
रहते हैं... वह
उसका कारण कुल
इतना ही है कि
अगर अभी पैर न
चलाए तो चलते
वक्त क्या
करेंगे? अभ्यास
जारी रखना
चाहिए! या
उन्हें पता ही
नहीं है.. जहां
तक संभावना तो
यह है कि
उन्हें पता ही
नहीं है कि
उनके पैर हिल
रहे हैं।
मालिक ही नहीं
है तो पता
किसको हो? पैर
को हिलना है
तो पैर हिलते
हैं, सिर
को चलना है तो
सिर चलता है--जिसको
जो करना है, वह कर रहा है,
सब गुलाम
हैं और मालिक
कोई भी नहीं
है। और कोई
किसी की आज्ञा
मानने को, सुनने
को तैयार भी
नहीं है।
ठीक
विचार भी, जब
चौथा शरीर
अनुभव में आता
है, तो
विचार भी केवल
उपयोगी रह
जाते हैं--जब
जरूरत होती है
तब आप विचार
करते हैं, जब
जरूरत नहीं
होती तो नहीं
करते। अगर
गैर-जरूरत
विचार करते
हैं, तो
आपको चौथे
शरीर का पता
होना बहुत
मुश्किल है।
खयाल में नहीं
आएगा, क्योंकि
विचार चलते ही
रहेंगे--आप
कितना ही कहो,
रुको, वे
नहीं रुकते।
उसका कारण है।
आपने कभी खयाल
न किया होगा
कि मैं कितनी
तो कोशिश करता
हूं विचार के
लिए कि रुको, ठहर जाओ, शांत
हो जाओ, वे
नहीं होते।
आपको यह पता
नहीं है कि जो
यह आप कह रहे
हैं, रुको!
यह भी एक
विचार मात्र
है, नहीं
तो फौरन रुक
जाते। और एक
विचार दूसरे
विचार को नहीं
रोक सकता; वे
बराबर ताकत के
हैं। बल्कि जब
एक विचार
कहेगा, रुको,
तो दूसरा
विचार और तेजी
से चलेगा कि
तू कौन हमें
रोकने वाला? एक गुलाम
दूसर गुलाम से
कहेगा कि
रुको! तो दूसरा
गुलाम कहेगा,
दौड़ेंगे।
तुम कौन? मालिक
मैं हूं! आपकी
जो सारी
चेष्टा है कि
शांत हो जाए
विचार, फलां
हो जाए, यह
सब विचार है।
और एक विचार
दूसरे विचार
को नहीं रोक
सकता।
असल
में जब भी कोई
आज्ञा मिलती
है वह ऊपर के
तल से हो तो ही
काम करती है, नहीं
तो नहीं करती।
जब विज्ञानमय
शरीर से आज्ञा
आती है--रुको, तो कोई
विचार की
हैसियत नहीं
कि इंच भर सरक
जाए। वह वहीं
ठहर जाता है।
लेकिन आशा सदा
ऊपर से माननी
पड़ती है, समतल
आशा नहीं हो
सकती।
यह
चौथा शरीर है।
इसको थोड़ा
विकसित करें
तो खयाल में
आएगा। और तब
ऐसा परेशान
नहीं होना
पड़ता है कि
विचार, रुको!
यह कोई सवाल
ही नहीं है।
यह ठीक ऐसी
घटना घट जाती
है कि समझो
मालिक लौट आया,
सब गुलाम
जल्दी से
पैरों में पड
कर नमस्कार कर
लेते हैं--अपनी-अपनी
जगह खड़े हो
जाते हैं कि
आशा। ये सब
अभी कह रहे थे
कि मैं मालिक
हूं! मालिक वापस
आ गया; ये
सब हाथ जोड़ कर
खड़े हैं कि
आशा।
ठीक
विज्ञानमय
कोष विकसित
होते ही विचार
ऐसे ही गुलाम
की तरह खड़े हो
जाते--जरूरत
हो तो उपयोग
कर लें अन्यथा
उनको टाल दें
अलग,
स्मृति के
संग्रह में वे
पड़े रहते हैं,
लेकिन आपको
पागल नहीं
बनाए रखते
चौबीस घंटे.. कि
रात को आप कह
रहे हैं कि
क्षमा करो, थोड़ा सो
जाने दो, मत
चलो, मगर
वे आपकी सुन
ही नहीं रहे।
आप हैं ही
नहीं जिसकी
सुनी जा सके; आप उसी दिन
होते हैं जिस
दिन विज्ञानमय
कोष की झलक
आपको मिलनी
शुरू होती है।
मन
को पार करें
अगर तो मन को
रोकें मत--रोक
नहीं सकते, लेकिन
मन को
हारमोनियस कर
सकते हैं, संगीतबद्ध
कर सकते हैं।
क्योंकि मन
खुद भी परेशान
है। वह आपके
हाथ में है, मन को
स्वस्थ कर
सकते हैं।
लेकिन जैसे ही
मन स्वस्थ हो
जाए, पीछे
की पर्त दिखाई
पड़नी शुरू हो
जाती है--या
फिर पीछे की
पर्त को
जन्माने की
कोशिश करें।
इसलिए मन से
यह मत कहें कि
विचार बंद
करो.. कुछ करें,
जिससे
विचार बंद हो
जाते हो।
ध्यान
चौथे शरीर को
जगाने का उपाय
है--क्योंकि
ध्यान चैतन्य
को बढ़ाता है; ध्यान
विज्ञान को
बढ़ाता है; ध्यान
बोध को जगाता
है। तो ध्यान
चौथे शरीर को
बढ़ाने की
व्यवस्था है।
मैंने
आपसे कहा, चौथा
शरीर है विज्ञानमय;
ध्यान उसका
भोजन है।
विचार तीसरे
शरीर का भोजन
है, ध्यान
चौथे शरीर का
भोजन है।
ध्यान
भी ऊर्जा है, ध्यान
भी शक्ति है; और ध्यान
वैसी ही शक्ति
है जैसी कोई
भी शक्ति... अति
सूक्ष्म। इसे
कभी थोड़ा
प्रयोग करके
देखें तो खयाल
में आए। कभी
अपनी नाड़ी को
नाप लें; जांच
लें, कितनी
चल रही है।
फिर पांच मिनट
आंख बंद करके
नाड़ी पर ध्यान
करें--सिर्फ
ध्यान करें, जस्ट बी
अवेयर-- और फिर
नापे। आप
पाएंगे, नाड़ी
में फर्क पड़
गया? नाड़ी
वही नहीं चल
रही जैसे पहले
चल रही थी।
ध्यान ने क्या
किया? ध्यान
की ऊर्जा नाड़ी
की तरफ
प्रवाहित हो
गई, नाड़ी
की गति बढ़ गई।
ध्यान
एक ऊर्जा है।
कभी रास्ते पर
कोई आदमी जा
रहा हो, उसके
पीछे
चलते-चलते, उसके माथे
के पीछे सिर
पर, गले पर
दोनों आंखें गड़ा लें--और
सिर्फ ध्यान
करें, कुछ
न करें--उसके
पीछे की गले
की हड्डी पर
ध्यान भर करते
रहें। एकाध-दो
सेकेंड में आप
पाएंगे, वह
आदमी बेचैन
होने लगा। सौ
में नब्बे
मौकों पर वह
आदमी दो मिनट
के भीतर लौट
कर देखेगा।
आपने कुछ किया
नहीं, लेकिन
सिर्फ ध्यान...
और एक बहुत
सूक्ष्म ऊर्जा
आपके शरीर से
उस आदमी को
छूने लगी।
बहुत
सूक्षातम
ऊर्जा है
ध्यान।
और
अभी उनको रूस
में फिकर करनी
पड़ रही है
ध्यान की, क्योंकि
जैसे-जैसे
अंतरिक्ष की
यात्रा है, वैसे-वैसे
ध्यान पर
ध्यान देना
पड़ेगा--वैज्ञानिक
कारणों से
उन्हैं; क्योंकि
यंत्र भरोसे
के नहीं हैं।
अभी
अंतरिक्ष
यात्री मरे।
यंत्र भरोसे
के नहीं हैं।
रेडियो-संयंत्र
अगर असफल हो
गया,
तो उनसे हम
तक कोई खबर
नहीं आ सकेगी,
हम भी
उन्हें कोई
खबर नहीं दे
सकेंगे। और
अगर उनका
अंतरिक्ष-यान
खो गया अनंत
में तो हमें
यह भी पता
नहीं लगेगा कि
वह कहां गया; वे अब जीवित
हैं कि नहीं
हैं, उनके
बाबत हम कुछ
भी न कह
सकेंगे।
अमरीका
की एक
इंश्योरेंस
कंपनी ने ज़ाहिरात
की है कि हम
अंतरिक्ष
यात्रियों का
बीमा तो
करेंगे, लेकिन
बीमा
चुकाएंगे तभी
जब पक्की खबर
मिल जाए कि वे
मर गए। नहीं
तो ऐसा वे
कहीं भी खो
जाएं और जिंदा
हों! डेफिनिट
पूफ चाहिए कि
वे मर गए, तो
हम चुकाएंगे।
लेकिन अगर
अंतरिक्ष-यान
खो जाए और
रेडियो-संयंत्र
काम न करे तो
यात्री जिंदा
रहें, या न
रहें, या
कहां जाएं, या क्या हुआ,
या क्या
नहीं हुआ, हमारे
पास कोई खबर न
होगी।
तो
यंत्र के साथ-साथ
कोई और चीज
संयुक्त हो--एज
ए सब्स्टीटयूट
मेजर, उसके
लिए रूस बहुत
जोर से ध्यान
पर काम करता है।
और यह कोशिश
की जा रही है, और इसमें
थोड़ी दूर तक
सफलता मिली है,
कि जब
रेडियो-संयंत्र
काम न करे, तो
एक अंतरिक्ष
यात्री तो
ध्यान में
निष्णात
चाहिए जो केवल
ध्यान की
ऊर्जा से
संदेश पहुंचा
सके। और इसमें
काफी दूर तक
सफलता मिली है,
ध्यान की
ऊर्जा से
संदेश
पहुंचाए जा
सकते हैं। और
बड़े आश्चर्य
की बात यह है
कि अगर
पहुंचाए जा
सकते हैं तो
वे सौ प्रतिशत
पहुंचाए जा
सकते हैं, फिर
भूल-चूक नहीं
होगी, नहीं
पहुंचाए जा
सकते तो नहीं
पहुंचाए जा
सकते।
ध्यान
भी एक ऊर्जा
है;
सूक्ष्मतम
शायद।
फिजिसिस्ट भी
अनुभव करते
हैं कि ध्यान
ऊर्जा होनी
चाहिए।
शरीरशास्त्री
ही नहीं, मनसशास्त्री
ही नहीं, भौतिकशास्त्र
के जाता भी अब
अनुभव करते
हैं कि ध्यान
जरूर ऊर्जा
होनी चाहिए; क्योंकि यह
खयाल धीरे-
धीरे साफ हो
गया है कि अगर
हम किसी वस्तु
को ध्यान से
देखते हैं तो
देखने के कारण
ही उस वस्तु
में रूपांतरण
हो जाते हैं--वस्तु
में भी! अगर
हम एटम को
निरीक्षण
करें, तो
निरीक्षण
करने के बाद
एटम जो
व्यवहार करता है,
वह व्यवहार
वही नहीं होता
जो
गैर-निरीक्षण
की हालत में
करता है।
ऑज्जवेंशन, निरीक्षण
कुछ फर्क लाता
है। ठीक वैसे
ही जैसे एक
आदमी रास्ते
पर अकेला चला
जा रहा है, तो
उसकी चाल और
होती; अचानक
उसी रास्ते पर
एक आदमी और
निकल आया, तो
उसकी चाल और
हो जाती है--चाहे
कितना ही
सूक्ष्म फर्क
पड़ता हो, लेकिन
फौरन पड़ जाता
है। आप अपने
बाथरूम में
स्नान कर रहे
हैं तब आपकी हालत
और होती है, अचानक आपको
पता चला कि
की-होल में से
कोई झांक रहा
है... क्या, हो
क्या गया?
लेकिन
आदमी में हो, समझ
में आता है, लेकिन अब
वैज्ञानिक
कहते हैं, वस्तु
में भी अंतर
पड़ता है.
वस्तु भी थोड़ी
भिन्न हो जाती
है। डिलाबार
प्रयोगशाला
में, ऑक्सफर्ड
में, फूलों
पर ध्यान के
प्रयोग किए गए
हैं। और कोई
प्रेमपूर्ण
रूप से फूल पर
ध्यान करता है,
और दूसरा
फूल-- ठीक वैसा
ही फूल--बिना
ध्यान के छोड़
दिया जाता है,
कोई उस पर
ध्यान नहीं
करता--उसको
पानी दिया
जाता है, धूप
दी जाती है, सब पूरी एक
सी व्यवस्था;
लेकिन जिस
फूल पर ध्यान
किया जाता है
वह बड़ा हो
जाता है; और
जिस फूल पर
ध्यान नहीं
किया जाता वह
छोटा रह जाता
है। जिस बीज
पर ध्यान करके
बोया जाए, वह
जल्दी
अंकुरित हो
जाता है; जिस
पर ध्यान करके
न बोया जाए, वह देर से
अंकुरित होता
है। क्या बीज
में कोई अंतर
पड़ता है? क्या
फूल भी कुछ
ध्यान की
ऊर्जा से
प्रभावित होता
है? कोई
ऊर्जा जाती-
आती नहीं
मालूम पड़ती, लेकिन कहीं
कुछ ऊर्जा
जरूर काम करती
है। यह
ध्यान भोजन है
चौथे शरीर का।
तो हम जो
ध्यान कर रहे
हैं, वह भी
इस चौथे शरीर
को जगाने की
चेष्टा है।
इन
चारों कोषों
के पार
पांचवीं देह
है,
उसे ऋषियों
ने कहा है : ''आनंदमय
कोष''-- ब्लिस
बॉडी। जब कोई
विज्ञानमय
कोष में खड़ा
होता है और
विज्ञानमय
कोष को शुद्ध
कर लेता है, ध्यान से
भरपूर कर देता
है, तो
सबसे
पारदर्शी
शरीर पैदा
होता है।
स्थूल
शरीर इतना
पारदर्शी कभी
नहीं हो सकता, क्योंकि
दि वेरी मैटर,
वह जिस चीज
से बना है, उसको
कितना ही रगड़ो,
कितना ही
लाडो, तो
भी वह पूरी
पारदर्शी
नहीं हो पाती;
उसका
स्वभाव है।
प्राण-ऊर्जा
उससे ज्यादा
पारदर्शी हो
पाती है, लेकिन
फिर भी पूरी
पारदर्शी
नहीं हो पाती।
मन और ज्यादा
पारदर्शी हो
पाता है, लेकिन
फिर भी पूरा
पारदर्शी
नहीं हो पाता।
सर्वाधिक
पारदर्शी
होती है
विज्ञान
काया.. एकदम
पारदर्शी हो
जाती है--कहना
चाहिए इतनी
पारदर्शी हो
जाती है कि आप
आप आर-पार देख
ही नहीं सकते,
आर-पार जा
सकते हैं; इतनी
पारदर्शी हो
जाती है कि आप
आर-पार देख ही नहीं
सकते, आर-पार
जा सकते हैं!
इतनी
पारदर्शी हो
जाती है कि
उसका कोई
रेसिस्टेंस
नहीं होता; फिर उसका
कोई प्रतिरोध
नहीं होता।
शुद्धतम
ऊर्जा है
ध्यान, दि
मोस्ट
प्युरिफाइड
एनर्जी
पॉसिबल।
उसमें से आप
पार गुजर जाएं
तो कहीं कोई
धक्का नहीं
लगता, कहीं
कोई चोट नहीं
होती.. कहीं
कोई पता ही
नहीं चलेगा।
अगर आप
शुद्धतम
विज्ञान
ऊर्जा में खड़े
हैं, तो
आपको पता ही
नहीं चलेगा कि
चौथा शरीर है
भी। इसलिए मजे
की बात घटती
है और वह यह कि
जैसे ही कोई विज्ञान
काया में खड़ा
होता है, उसे
विज्ञान काया
का पता नहीं
चलता, उसे
आनंद काया का
पता चलता है।
इसे
ठीक से समझ
लें।
क्योंकि
चौथा शरीर
इतना शुद्धतम
शरीर है कि उसमें
वह दिखाई ही
नहीं पड़ता कि
चौथा भी है।
जैसे कांच अगर
बिलकुल शुद्ध
हो तो दिखाई
नहीं पड़ेगा।
अगर दिखाई
पड़ता है तो
उसका मतलब
थोड़ा अशुद्ध है।
अगर कांच
दिखाई पड़ता है
तो उसका मतलब
ही है कि थोड़ा
अशुद्ध है।
अगर बिलकुल
दिखाई नहीं
पड़ता, तो ही
शुद्ध है।
लेकिन कांच
फिर भी पदार्थ
है.. दिखाई भले
ही न पड़े, आंख
के लिए बाधा न
हो, लेकिन
अगर आप जाएंगे
तो टक्कर
खाएंगे।
लेकिन
विज्ञान
ऊर्जा
शुद्धतम
ऊर्जा है--अब
तक जानी गई, अब तक
पहचानी गई।
विज्ञान से या
योग से जो
सबसे ज्यादा
सूक्ष्म
शक्ति उपलब्ध
हो सकी है, वह
ध्यान है, विज्ञान
है। इसलिए
जैसे ही कोई
आदमी
परिपूर्ण
जागरूक हो जाता
है तो उसे यह
पता नहीं चलता
कि मैं जागरूक
हूं उसे यह
पता चलता है
कि मैं आनंद
से भर गया हूं
वह जो पीछे की
देह है आनंद
काया, वही
झलकती है, वही
दिखाई पड़ती है।
यह
पांचवीं आनंद
काया है, लेकिन
इसे भी ऋषि
काया ही कहते
हैं, इसे
भी आत्मा नहीं
कहते, यह
भी काया है।
ऋषि कहते हैं,
आनंद भी
काया है।
इस
संबंध में
दो-तीन बातें
खयाल में ले
लें तभी समझ
में आ सकेगा।
एक, जैसा
मैंने आपसे
कहा, चौथी
काया शुद्धतम
है; लेकिन
चौथी काया
अशुद्ध हो
सकती है--शुद्धतम
है; अशुद्ध
हो सकती है।
अशुद्ध है, जैसी हमारे
पास है, बिलकुल
अशुद्ध है।
ध्यान से
शुद्ध होती है,
प्रमाद से
अशुद्ध होती
है, होश से
शुद्ध होती है,
बेहोशी से
अशुद्ध होती
है। इसलिए
जितने
इनटॉक्सिकेंट्स
हैं, वे
मूलत: विज्ञान
काया को
नुकसान
पहुंचाते हैं,
और किसी
काया को
पहुंचाते हैं
वह बिलकुल
दूसरी बात है।
और यह भी हो
सकता है, दूसरी
काया को लाभ
भी पहुंचा
सकें, लेकिन
विज्ञान काया
को नुकसान ही
पहुंचाते हैं।
हो सकता है
शरीर को लाभ
भी पहुंचा सके
अलकोहल। एक
मात्रा में
लाभ पहुंचा
सकती है। और
यह भी हो सकता
है--और होता है
कि अलकोहल
लेने पर आपकी
प्राण-ऊर्जा
जो है, बहुत
त्वरा से
प्रकट होती है।
इसलिए अक्सर
जो रस का
अनुभव होता है
कि कोई ताकत
दौड़ गई, वह
अनुभव आपको
प्राण-ऊर्जा
में होता है।
विचार
को भी लाभ
पहुंचा सकती
है किसी अर्थ
में। इसलिए जो
लोग विचार से
ही जीते हैं--कवि
हैं,
लेखक हैं, चित्रकार
हैं, मूर्तिकार
हैं, जो
विचार को ही
आकृति देकर
जीते हैं, अक्सर
शराब उन्हें
हितकर मालूम
पड़ती है। एक
मात्रा में
लाभ शायद
पहुंचा सकती
है। लेकिन
चौथे शरीर को
निश्चित रूप
से हानि
पहुंचाती है,
किसी हालत
में लाभ नहीं
पहुंचाती; क्योंकि
चौथे शरीर के
लिए मूर्च्छा
ही अशुद्धि है,
और होश ही
शुद्धि है।
किसी भी भांति
की मूर्च्छा
नुकसान
पहुंचाती है।
चौथा शरीर
शुद्धतम हो
सकता है, लेकिन
अशुद्ध भी हो
सकता है, वे
उसकी दोनों
संभावनाए हैं।
पांचवें
शरीर की एक
खूबी है कि वह
शुद्धतम ही है।
वह अशुद्ध हो
ही नहीं सकता।
इसलिए 'आनंद'
के विपरीत
हमारे पास कोई
भी शब्द नहीं
है। सुख के
विपरीत दुख है,
शांति के
विपरीत
अशांति है, प्रेम के
विपरीत घृणा
है, चैतन्य
के विपरीत
मूर्च्छा है;
लेकिन आनंद
के विपरीत
हमारे पास कोई
भी शब्द नहीं
है। आनंद
अकेला शब्द है
जिसका विपरीत
शब्द हमारे पास
नहीं है। और
अगर कोई कहे
निरानंद, तो
वह केवल अभाव
का सूचक है, विपरीत का
सूचक नहीं है।
निरानंद कोई
स्थिति नहीं
है, आनंद
का अभाव है।
निरानंद का
कोई रूप नहीं
है, निरानंद
का कोई स्थान
नहीं है, अस्तित्व
नहीं है।
आनंद
के विपरीत कोई
ऊर्जा नहीं है।
इसलिए
पांचवां जो
शरीर है वह
शुद्ध ही है।
और इसलिए
पांचवें शरीर
के साथ कुछ भी
करने की जरूरत
नहीं, चौथे के
साथ कुछ किया
कि पांचवां
उपलब्ध हो जाता
है। पांचवां
सदा मौजूद है।
और इसलिए
प्रत्येक
आदमी को ऐसा
लगता है कि आनंद
हमारा
जन्मसिद्ध
अधिकार है, आनंद मिलना
ही चाहिए, इसलिए
हम आनंद को
खोजते हैं।
कोई नहीं
पूछता कि
क्यों खोजते
हो आनंद को? आनंद की
क्या जरूरत है?
किसलिए
खोजते हो? और
सब खोज पूछी
जा सकती है.
किसलिए? आनंद
भर एक खोज है, जिसके लिए ' किसलिए' पूछना
बिलकुल
व्यर्थ मालूम
पड़ता है।
अगर
आप मेरे पास
आते हैं, तो
लोग मुझसे
पूछते हैं आकर,
ईश्वर को
किसलिए खोजें?
सत्य को
किसलिए खोजें?
जीवन का
उद्देश्य
क्या है? लेकिन
कोई मुझसे आकर
नहीं पूछता, आनंद को
किसलिए खोजें?
आनंद का
उद्देश्य क्या
है? आनंद
स्वीकृत है।
इसलिए अगर
ईश्वर को भी
खोजना है तो
आदमी आनंद के
लिए ही खोजता
है और किसी लिए
नहीं; सत्य
को भी खोजना
है तो आनंद के
लिए ही खोजता
है। अगर आपको
पक्का भरोसा
दिला दिया जाए
कि सत्य पाकर
आनंद बिलकुल न
मिलेगा, परम
दुख में डूब
जाएंगे, तो
आप सत्य को
खोजना फौरन
बंद कर देंगे
कि ऐसी खोज से क्या
लेना- देना!
नीत्शे ने
सवाल उठाया है।
और नीत्शे
कभी-कभी बहुत
गहरे सवाल
उठाता है, जिनके
जवाब देने में
किसी बुद्ध को
भी अड़चन पड़
जाए।
नीत्शे
कहता है कि
अगर आनंद ही
जीवन का
लक्ष्य है, और
असत्य से आनंद
मिलता हो, तो
असत्य में
बुराई क्या है?
अगर आनंद ही
जीवन का
लक्ष्य है, और अगर
स्वप्न में ही
आनंद मिलता हो,
तो सत्य की
खोज की जरूरत
क्या है? अगर
आनंद ही जीवन
का लक्ष्य है
तो छोड़ो
ब्रह्म को।
अगर माया में
ही आनंद मिलता
है तो चिंता
क्या है? एक
बात तय कर लो
कि अगर आनंद
ही जीवन का
लक्ष्य है..
डरता है
नीतिशास्त्री,
धर्मशास्त्री
नीत्शे को
उत्तर देने
में कि क्या
उत्तर दे? और
नीत्शे कहता
है, क्या
तुम्हें
पक्का भरोसा
है कि सत्य
दुख न लाएगा? कैसे तुमने
निश्चय किया
है कि सत्य
दुख न लाएगा? क्योंकि
नीत्शे कहता
है, अनुभव
तो यह है कि सत्य
बड़ा कडुवा
होता है और
बड़ा दुख देता
है। क्या
तुमने पक्का
ही कर लिया है
कि कल्पना दुख
ही लाती है? अनुभव तो यह
है कि कल्पना
बड़ी सुखद हो
जाती है। और
क्यों पीछे
पड़े हो लोगों
के कि उनके
सपने तोड़ो? क्योंकि
सपने सुखद भी
और सुंदर भी
तो होते हैं।
हां, दुखद स्वप्न
भी होते हैं, नाइटमेयर भी
होते हैं।
इतना ही करो
कि दुखद
स्वप्नों से
छुटकारा हो जाए
और सुखद
स्वप्न
शाश्वत हो
जाएं, कभी
न टूटे, तो
फिर और क्या
खोज की जरूरत
है?
धर्मशास्त्री
को कठिनाई
पड़ती है--
धर्मशास्त्री
को,
धर्मज्ञ को
नहीं; क्योंकि
धर्मज्ञ यह
कहता है कि
सपना है ही
वही जिसे
शाश्वत नहीं
किया जा सकता।
धर्मज्ञ कहता
ही यही है कि
जिसमें
तुम्हें सुख
मिलताहै वह
मिलता ही
इसीलिए है कि
उसमें दुख भी
मिलता है, नहीं
तो सुख नहीं
मिलेगा।
धर्मज्ञ कहता
है कि असत्य
में भी अगर
तुम्हें कभी
सुख मिलता है
तो वह इसीलिए
मिलता है कि
असत्य सत्य
होने का धोखा
देता है; नहीं
तो नहीं मिलता।
अगर असत्य में
भी कभी सुख
मिलने की झलक
आती है तो वह
केवल इस वजह
से आती है कि
असत्य भी सत्य
होने का दावा
करता है।
इसलिए कोई
असत्यवादी
असत्यवादी
होने का दावा
नहीं करता, दावा सदा
सत्यवादी
होने का ही करता
है। सच तो यह
है कि
असत्यवादी ही
सत्यवादी
होने का दावा
करता है, सत्यवादी
को दावे की
कोई जरूरत
नहीं होती।
असत्य
को भी चलना है
तो सत्य के
पैर उधार लेने
पड़ते हैं।
स्वप्न को भी
जीना है तो
स्वप्न को भी
भ्रम देना
पड़ता है कि
स्वप्न नहीं
हूं मैं, मैं
ही सत्य हूं; तो ही जी
सकता है।
आनंद
सुख नहीं है, क्योंकि
सुख के साथ
दुख अनिवार्य
बंधा है। आनंद
स्वप्न नहीं
है, क्योंकि
स्वप्न के साथ
स्वप्नभंग
अनिवार्य है।
और जो आनंद
भंग हो जाए, वह आनंद
नहीं है; क्योंकि
आनंद के
विपरीत कुछ भी
नहीं है, जो
आनंद को भंग
कर सके। आनंद
जो है, अद्वैत
है, अकेला
है। और आनंद
की खोज इसलिए
है कि वह
हमारी परम देह
है-- फिर भी देह
है; यही
खूबी है।
ऋषियों की खोज
इतनी सूक्ष्म
है कि जिसका
कोई हिसाब
नहीं! इस आनंद
को भी वे कहते
हैं. यह भी देह
है.. क्यों? क्योंकि
वे कहते हैं, जब तक
तुम्हें यह भी
पता चलता है
कि आनंद है तब
तक तुम अभी
उसको नहीं पाए
जो पाने योग्य
है; क्योंकि
जब तक पता
चलता है तब तक
द्वैत मौजूद है।
अभी पता चलने
वाला अलग है
और जो पता चल
रहा है
आप
कहते हैं, बड़ा
आनंद आ रहा है,
तो दो बातें
साफ हैं कि
कोई है जिसे आ
रहा है, और
कुछ है जो आ
रहा है। तो यह
आनंद भी आपके
आस-पास का एक
घेरा है और
इसके केंद्र
में अभी भी
कोई खड़ा है
जिसे पता चलता
है कि आनंद आ
रहा है।
जैसे
ही यह जागरण
भी आ जाए... और यह
जागरण पहले जागरण
से बहुत
सूक्ष्म और
बहुत कठिन है।
हमने कहा, विज्ञानमय
शरीर में
ध्यान भोजन है;
होश आ जाए
तो मन से
छुटकारा हो
जाए। अगर
आनंदमय शरीर
का भी होश आ
जाए तो आनंद
से भी अतिक्रमण
हो जाता है, और तब
व्यक्ति उसे
पा लेता है जो
वह है। वह फिर
देह नहीं है, वह आत्मा है।
लेकिन
मन के प्रति
जागना बहुत
आसान है--मैंने
कहा,
बहुत कठिन
है, लेकिन
इस तुलना में
बहुत आसान है।
लेकिन आनंद के
प्रति जागने
में एक भीतरी
कठिनाई है कि
आनंद से हम
जागना ही नहीं
चाहते.. इट्रिसिक
डिफिकल्टी--आनंद
से हम जागना
ही नहीं चाहते।
आनंद से कौन
जागना चाहेगा?
आनंद की ही
तो तलाश थी
जीवन भर, जन्मों-जन्मों
तक। उसे कौन
छोड़ना चाहेगा?
एक लोहे की
जंजीर है, आदमी
छोड़ना चाहता
है; एक
सोने की जंजीर
है, छोड़ने
में भी मन
नहीं होता कि
छोड़े। जंजीर
ही नहीं मालूम
पड़ती, आभूषण
मालूम पड़ता है;
हीरे-जवाहरात
लगे हैं।
लेकिन ऋषि
कहते हैं, वह
भी जंजीर है।
और ध्यान रहे,
लोहे की
जंजीर उतनी
बड़ी जंजीर
नहीं है, जितनी
बड़ी जंजीर हीरे-जवाहरात
लगी हुई सोने
की जंजीर हो
जाती है, क्योंकि
अब कैदी खुद
भी नहीं छोड़ना
चाहता। यह
उसके जंजीर
होने में
गहरा... और
गहराई हो जाती
है।
आनंद
काया आखिरी
बात है। इसलिए
बुद्ध से जब
लोग पूछते हैं
कि निवार्ण में
क्या होगा? आनंद
तो बचेगा न? बुद्ध कहते
हैं, तुम्हीं
न बचोगे तो
आनंद कैसे
बचेगा? न
तुम बचोगे, न आनंद
बचेगा।
यह
बहुत मजे की
बात है : आनंद
को जानने के
लिए द्वैत
चाहिए-- भीतर
कोई,
और आनंद
अनुभव में आए।
सब अनुभव
बाहरी हैं--सब
अनुभव!
एक्सपीरिएंस
एज सच इज ऑफ दि
आउट, इज ऑफ
दि विदाउट दि
एक्सपीरिएंसर,
वह जो अनुभोक्ता
है, वह
भीतर है।
लेकिन जब आनंद
भी नहीं रह
जाएगा तो क्या
उसको हम
अनुभोक्ता
कहेंगे? जब
अनुभव ही न
बचा तो उसे
अनुभोक्ता
कहने में क्या
सार है! इसलिए
बुद्ध कहते
हैं, दोनों
खो जाएंगे--होगा
कुछ लेकिन तुम
न होओगे; होगा
कुछ लेकिन
आनंद भी न
होगा।
अगर
आनंद काया शेष
रह जाए, तो
व्यक्ति पैदा
होता है परम
मस्ती में, लेकिन पैदा
होता है; जीवन
का अंत नहीं
आता।.. पैदा
होता है, परम
मस्ती में
पैदा होता है।
जीवन उसका
नृत्य होता है;
जीवन उसका
आनंद ही आनंद
होता है, लेकिन
फिर भी जीवन
होता है।
आनंद
काया टूटे तो
ही निर्वाण है।
तो
आनंद के प्रति
कैसे जागे? अभी
तो हमें आनंद
का कोई पता ही
नहीं है।
जिसका पता ही
नहीं है उसे
छोड़ने की बात
समझनी बहुत
मुश्किल
पड़ेगी। जो
मिला ही नहीं
उसे छोड़े कैसे?
यह किसी
भिखारी को
कहना है कि तू
सिंहासन छोड़ दे--बिलकुल
त्याग कर दे; बड़ा अच्छा
होगा। तो
भिखारी कहेगा,
लेकिन वह
सिंहासन कहां
है जिसे मैं
छोड़ दूं? और
छोड़ने की बात
पीछे कर लेंगे,
पहले उसका
जरा पता मुझे
बता दें कि वह
है कहां? पहले
मैं उस पर हो
तो जाऊं। उस
पर बैठ तो
जाऊं।
लेकिन
यह पहले ही
छोड़ने की बात
एक अर्थ में
उपयोगी है, क्योंकि
यह खयाल बना
रहे, सिंहासन
पाने के पहले
ही कि उसे भी
छोड़ देना है, तो शायद
सिंहासन
निद्रा, सम्मोहन
न बन पाए; शायद
यह खयाल बना
रहे. इसे भी
छोड़ देना है।
सूफी
फकीर हुआ है, बायजीद।
वह अपने
शिष्यों को
कहता था, एक
मंत्र सदा याद
रखना. जो भी
अनुभव
तुम्हें हो, खयाल रखना, इसे भी छोड़
देना है.. जो भी!
तौ बायजीद के
एक शिष्य हसन
ने बायजीद से
पूछा. अगर
परमात्मा का
अनुभव हो? तो
बायजीद ने
कहा. उसे भी..
तुम स्मरण
रखना कि छोड़
देना है। तुम
उस समय तक
छोड़ते ही चले
जाना जब तक कि
छोड़ने को कुछ
भी बचे; वहीं
रुकना जहां
छोड़ने को कुछ
न बचे, क्योंकि
मैं तुमसे
कहता हूं वहीं
परमात्मा है
जहां छोड़ने को
कुछ भी न बचे।
उसके पहले सब
परमात्मा
वगैरह
तुम्हारे ही
बनाए हुए
होंगे; तुम
उनको छोड़ते
चले जाना।
जब
तक अनुभव है
तब तक संसार
है। कैसा भी
अनुभव, सूक्ष्मतम
अनुभव संसार
है। आनंद का
अनुभव भी
संसार है।
इसलिए
ऋषि ने बहुत
अदभुत वचन
उपयोग किए हैं।
और कभी-कभी
बहुत चकित हो
जाता है मन
इतने हिम्मतवर
लोग रहे होंगे।
और इन
हिम्मतवर
लोगों ने ऐसी
क्रांतिकारी
बातें कहीं, और
इनके आस-पास
अदभुत घटना
घटी कि बड़े
गैर-क्रांतिकारी
लोग इकट्ठेहो
गए। और ऐसा
लगता है कि वे
समझ भी नहीं
पाते होंगे।
इसमें कहा है:
''इन चार
कोषों के साथ
आत्मा... बरगद
के बीज में वृक्ष
की तरह... अपने
कारण स्वरूप
अज्ञान में
रहती है। ''
दिस
टू इज
इग्नोरेंस, एंड
दि बेसिक
इग्नोरेंस। 'कारण स्वरूप
अज्ञान। ' दि
फाउंडेशनल
इग्नोरेंस।
और उस कारण
स्वरूप
अज्ञान को
आनंदमय कोष
कहते हैं। दि
बेसिक
इग्नोरेंस
कहा है इसको।
जैसे कि बरगद
का वृक्ष बीज
में छिपा हो, और जब तक बीज
न टूटे तब तक
बरगद का वृक्ष
पैदा न हो, ऐसे
ही आत्मा के
पास जो सबसे
पहली पर्त है,
सबसे गहरी,
और आत्मा के
सबसे निकट, वह पर्त है
आनंदमय कोष की।
लेकिन अदभुत
लोग हैं। वे
कहते हैं. 'अपने
कारण स्वरूप
अज्ञान में
रहती है, उसे
आनंदमय कोष
कहते हैं। 'वह जो आनंदमय
कोष है, वह
आत्मा की खोल
है--जैसे बीज।
और जब तक आनंद
न टूटे, तब
तक वह उपलब्ध
नहीं होती; क्योंकि जब
तक बीज न टूटे,
तब तक कहां
है वृक्ष?
तो
जिन्होंने
समझा है ऐसा
सदा कि भारत
के मनीषी आनंद
की ही तलाश कर
रहे हैं, उन्होंने
बड़ा गलत समझा
है। भारत के
मनीषी उस
स्थिति की
तलाश कर रहे
हैं, जहां
आनंद भी दो
कौडी की तरह
फेंक दिया
जाता है, उस
अवस्था की खोज
है जहां आनंद
भी गैर-जरूरी
हो जाता है।
जब तक आनंद भी
जरूरी है तब
तक आप... जब तक आनंद
भी आकांक्षा
है, और जब
तक आनंद भी रस
देता है, तब
तक दरिद्रता
जारी है।
सम्राट तो वही
है, जो
आनंद को भी
ऐसे छोड़ देता
है जैसे बीज
अपनी खोल को
छोड़ देता है।
ये
पांच कोष हैं।
पांचवें
में खड़े हो
जाना ही
अतिक्रमण है, क्योंकि
पांचवें पर
जैसे ही आप
खड़े हो गए, वैसे
ही आप
परमात्मा के
इतने निकट हैं
कि आप खींच
लिए जाते हैं।
नहीं, कुछ
करना नहीं
होता--ठीक ऐसे
ही होता है
जैसे पानी में
एक भंवर पड़ रहा
है, और
आपने एक फूल
पानी में तैरा
दिया, वह
तैरता रह सकता
है, लेकिन
भंवर के पास
पहुंचा... पास
पहुंचा.. पास
पहुंचा, और
भंवर की पहली
परिधि उसने
छुई कि खींच
लिया गया--गया
भीतर और डूब
गया।
पांचवें
शरीर तक
पहुंचने में
मनुष्य का
प्रयास जरूरी
है,
पांचवें के
पार होने में
प्रयास की कोई
जरूरत नहीं है।
और इसलिए
जिसने पांच के
प्रयास करते
वक्त भी स्मरण
रखा कि प्रभु
की अनुकंपा, और उसकी दया,
और उसकी
कृपा, और
उसकी करुणा ही
खींच लेगी, वह जब
पांचवें पर
पहुंचेगा तब
यह बात काम
करेगी। लेकिन
अगर कोई आदमी
इन पांच की
कोशिश में यह
भूल कर चला कि
मैं ही कर
लूंगा, मैं
ही कर लूंगा, मैं ही कर
लूंगा, तो
एक तो पांचवें
तक पहुंचना
मुश्किल; और
यह भी हो सकता
है कि वह
पांचवें पर
खड़े होकर इस
अकड़ में खड़ा
रहे, क्योंकि
वह कहे कि
मैंने ही किया
है, तो मैं
पांचवें को भी
छलांग लगा
लूंगा; जब
मैं इतने तक
चला आया, तो
क्या जरूरत है
प्रभु की
अनुकंपा की? तो हो सकता
है कि वह
बिलकुल
किनारे पर ही
खड़ा रहे और
ग्रेविटेशन
काम न कर पाए...
वह कशिश काम न
कर पाए; क्योंकि
उस कशिश के
काम करने के
लिए आपकी ग्राहकता
अनिवार्य अंग
है-- आप तैयार
होने चाहिए
खींचे जाने को,
तो ही वह
कशिश काम कर
पाती है।
इसलिए
उसको हमने
कशिश नहीं कहा, प्रसाद
कहा। उसके
कारण हैं।
क्योंकि कशिश
बिलकुल
यांत्रिक बात
है, आकर्षण
बिलकुल
यांत्रिक बात
है। चुंबक
तैयार न भी हो
तो बड़ा चुंबक
उसे खींच लेगा।
यह कोई उसकी
तैयारी की
जरूरत नहीं है।
और पत्थर न भी
गिरना चाहता
हो नीचे, आप
फेंकें, तो
भी जमीन खींच
लेगी। प्रसाद
हमने इसीलिए
कहा कि यह
यांत्रिक
घटना नहीं है।
इस प्रसाद को
लेने की
तैयारी भी
चाहिए... हाथ
फैले हुए
चाहिए... तो यह
प्रसाद
उपलब्ध हो
सकता है।
प्रसाद
का बोध ही
कुंजी है
पांचवें शरीर
के बाहर जाने
की;
अशरीर में
जाने की।
आज
इतना ही।
अब
हम कोशिश करें
पांच तक पहुचने
की। और प्रभु
की कृपा को
खयाल रखें। हो
सकता है. कशिश
के घेरे के
भीतर पड़ जाएं
और खींच लिए
जाएं। जो लोग
तेजी से करने
वाले हैं वे
ऊपर आ जाएं, जिन्हें
थोड़ा आहिस्ता
करना हो वे
नीचे किनारों
पर खड़े हो
जाएं। ऊपर कोई
भी सुस्त आदमी
न खड़ा रहे।
थोड़ा भी धीमा
करना हो तो
नीचे के
किनारों पर खड़े
हो जाएं।...
अदभुत....
जवाब देंहटाएंAdbhud
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