भारत
के मानसिक
इतिहास में एक
शक्तिशाली
समय भी था। जब
कोई कौम अपनी
पूरी मेधा से
जलती है, जब
कोई कौम अपनी
पूरी आत्मा
से प्रगट होती
है। तब कमजोर
नहीं होती;
तब उसके वक्तव्य
बड़े मूल्यवान
होते है। और
जब भी कोई कौम
युवा होती है, ताजी होती
है। बढ़ती
होती है,
शिखर की तरफ
उठती है। जब
कोई कौम के
प्राणों में
सूर्योदय का
क्षण होता है।
तब कोई भी चीज
अस्वीकार
नहीं होती।
सभी स्वीकार
होता है। और
तब इतनी
सामर्थ्य
होती है कि
कौम की आत्मा
में कि वह जहर
को भी स्वीकार
करे तो अमृत
हो जाता हे।
वह जिसको भी
छाती से लगा
ले वही कांटा
भी फूल जो
जाता है। और जिस
रास्ते पर
पैर रखे वही
स्वर्ण बिछ
जाता है।
लेकिन
फिर कमजोर
क्षण भी होते
है कौमों के
तो भारत कोई
ढाई हजार
वर्षों से
बहुत कमजोर और
दीन क्षण में
जी रहा है।
उधार में जो
रहा है। जैसे सूर्यांस्त
हो गया हो।
सिर्फ याद रह
गई है सूर्योंदय
की। सिर्फ आत कैवल अंधकार
ही बचा है।
दीन-हीन मन हो
गया है। पैर
रखते डर होता
है। नये मार्ग
पर
चलने में भय
होता है।
पूरानी लीक पर
ही घूमते रहना
अच्छा लगता
हे। नये सोचने
में, नये
विचार में,
नई उड़ान में, कहीं भी
हिम्मत नहीं
जुटती। ऐसे
कमजोर क्षण
में अमृत भी
पीने में डर
लगता है। पता
नहीं जहर हो, अपरिचित, अंजान। फिर
पता क्या कि
इससे मैं
बचूंगा कि
मरूंगा?तब
सब चीजों से
आत्मा सिकुड़ने
लगती है। एक सिकुड़ाव
शुरू हो जाता
है।
सब
चीजों से भय
हो जाता है।
सब छोड़ो।
सबसे बचो। इस
बचाव और
छोड़ने में सब
सिकुड़ जाता
है।
जिसे
हम तथा कथित
त्याग कहते
है, उस त्याग
की भी दो अवस्थाएं
होती है। एक
तो शक्तिशाली
का त्याग
होता है। वे
उन चीजों को
छोड़ देते है, जिन्हें
अनुभव से व्यर्थ
पाते है। एक कमजोरों
का भी त्याग
होता है—वे उन
चीजों को छोड़
देते है,
जिन्हें भी
अपने से ज्यादा
शक्तिशाली
पाते है। शक्तिशाली
ने भी
इंद्रियों को
छोड़ो है।
लेकिन इसलिए
नहीं कि भय
था। इसलिए कि
उन्होंने और
गहन अनुभव के
द्वार खोल
लिये। उन्होंने
देखने की वे
भीतरी आंखें
पा ली। कि अब बहारी
आंखें बंद
करने में भी
सामर्थ है।
उन्होंने
भीतर की उस
अनुभूति का
द्वार खोल
दिया कि अब उन्हें
साधारण इंद्रियों
की और उन के
उपयोग की
जरूरत न रहीं।
कमजोरों
ने भी
इंद्रियों का
त्याग किया
है, लेकिन भय
के कारण। आँख
बंद कर ली है।
डर है कि कहीं
रूप दिख जाए, तो आत्मा
वह जाये। कि
कही स्पर्श
हो जाए, तो
संयम नष्ट हो
जाए। कमजोरों
ने भी
इंद्रियों को
छोड़ा हे। शक्तिशालियों
ने भी छोड़ा
है। शक्तिशाली
इसलिए छोड़ते
है कि जब भी
श्रेष्ठतर
उपलब्ध हो
जाता है। तो
निकृष्ठ की
जरूरत नहीं रह
जाती है।
ओशो
कैवल्य
उपनिषद
उपनिषदों
में कैवल्य उपिनषद
कथा वस्तु के
आधार पर अगर
हम एक नजर
डाले तो सबसे
कमजोर और निरस
बेजान मालूम
होता हे। न
उसमें कोई कथा
है, न
संवाद है, ही कोई
प्रसंग नजर
आता हे। न
मंत्र और
संगीत की
गरिमा ही कही
ह्रदय को छूती
है। ध्वनि रहित
रूखा-रूखा। एक
दम सूखा
रेगिस्तान।
सपाट धरती
जहां सौंद्रय
का एक भी अंकूर
दिखाई नहीं
पड़ता है।
केवल
कुछ शब्द है, मानों शब्द
कोश। जो सुंदर
शब्द जो परमात्माया
ब्रह्मा के लिय उपयोग
होते है। उस
वृक्ष की भाती
है जिसमें फलों
से लदनें
की संभावना व्यक्त
कि गई हो।
लेकिन ये ओशो
की ही महानता
है। उस निरस
बेजान केवल
शब्दों में
भी हमें एक
उपवन का ही
नहीं, सीतल
सरोवर का आनंद
उपलब्ध करा
दिया। आज तक
इतनी सुंदर
सरल और सहज व्याख्या
उपनिषदों कि
किसी ने नहीं
कि ये बेजोड़
और अदम्य है।
कोई व्याख्याकार
इतनी गहराई
में आज तक
नहीं उतरा। क्योंकि
एक बुद्ध ही
उस बुद्धत्व
कि गहराई को
माप सकता है।
व्याख्या
कार तो केवल शब्द
के आवरण में ही
उलझे रह जाते
है। लेकिन एक
बुद्ध के अंदर
तो वही घटित
हो रहा है।
केवल समय और
काल और भाषा
का ही भेद
होता है। वह
भी हमारे लिए
उसके लिए न
समय है न काल।
किस
सहजता से उतर
कर ओशो उन
बंजर रेगिस्तान
से भी अमृत की
बूंद निकालकर
ले आते है। किस
सुमधुर, सुगंध
को उन सावधानी
पूर्वक शब्दों
के इतने करीब
एक माला की
तरह पिरो देते
है। किस सहजता
से इस ब्रह्मसरोवर
के शब्द मुक्ताओं
को स्पर्श कर
और अर्थ पुण्यों
को हमारे
नथुनों के पास
लेआये।
एक निरस सूखे पूष्प को
भी। सूंगध
से भर दिया।
उपनिषद
कहता है:
‘स्वर्गलोग से
ऊपर ह्रदय की
गुफा में स्थित
वह परम तत्व
आलोकित है।’
ओशो ने
कहा: स्वर्ग
लोभ का गहनतम
प्रतीक है। स्वर्ग
लोभी की आत्यंतिक
आकांक्षा है।
स्वर्ग की
जिन्होंने
चर्चा की वे
धार्मिक लोग
नहीं है।
कठिन को सहज
करना ही कार्य
है ओशो का।
ओशो आज के युग
में एक सरल
संत और महान दार्शीनिक
थे। आज के यूग
में। उनकी
भाषा एक काव्यमय
पक्षी की भाति
ह्रदय की अंनत
गुह्म में अंनत
तलो की
यात्रा पर साधाक
को अपनेसाथ
बहा ले जाती
है। बुद्ध
पुरूष के वाणी
कोई साधारण
वाणी नहीं
होती हालाकि
शब्द वही
साधारण होते
है। परंतु
उसके तल होते
है। जिस तल पर
आप उसे सुनोगे
या समझो उसी
तल के रहस्य
खोलती एक चाबी
है। आप एक ही
प्रवचन को
हजार बार सूर
कर देख सकते
है। लेकिन
उसकी एक ही
शर्त है अपनी
चेतना के तल
को विकसित करो
अपनी अवेयर
नेस को उच्च
से उच्चतर की
और अगरसित
करो। तब आप उन
गुढ़ रहस्यों
में विचरण कर
सकते है।
आज की यात्रा
उसी कैवल्य उपनिषद
से शुरू हो रही
है। उस व्याख्या
को पढ़कर हम भले
ही कैवल्य, मोक्ष या मुक्त
प्राप्त न कर
पांए किंतु
यह निश्चित है
कि अपने तथाकथित
ज्ञान की मुर्खतापूर्ण
पर्तों से जो हमारे
असंस्कृत संस्कारों
ने सदियों से
हमारी विवेक ग्रंथियों
पर बढ़ दी है। अवश्य
मुक्ति पा जाएंगे।
ये सभी उपनिषद
प्ररेणा स्त्रोत
ऋषियों द्वारा
गाए गये अमृत मंत्रों
के संगीत की ध्वनि
जो आज बेसुरी और आलोप
हो रही है। उसे
ओशो ने साफ और सुनने लायक
बना कर हमारे कानों
तक ही नहीं ह्रदय
की गहरों तक पहूंचा दिया
है।
-स्वामी
आनंद प्रसाद ‘मनसा’
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