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गुरुवार, 10 अक्तूबर 2013

निर्वाण-उपनिषद--(प्रवचन-12)


बारहवां—प्रवचन

 सम्‍यक त्‍याग, निर्मल शक्‍ति और परम अनुशासन मुक्‍ति में प्रवेश





                  भय मोह शोक क्रोध त्‍यागस्‍त्‍याग:।
                       परावरैक्य रसास्वादनम्।
                     अनियामकत्व निर्मल शक्ति:।
            स्वप्रकाश ब्रह्मतत्त्वे शिवशक्ति समुटित प्रपंचच्छेदनम्।
                  तथा पत्राक्षाक्षिक कमंडलु: भावाभावदहनम्।
                        विम्रत्याकाशाधारम्।



            भय, मोह, शोक और क्रोध का छोडना, यही उनका त्याग है।
            परब्रह्म के साथ एकता के रस का स्वाद ही वे लेते हैं।
                  अनियामकपन ही उनकी निर्मल शक्ति है।
      स्वयं प्रकाश ब्रह्मतत्व में शिव—शक्ति से संपुटित प्रपंच का छेदन करते हैं।
जैसे इंद्रिय रूपी पत्रों से ढंका हुआ मंडल होता है, ऐसे ही ढंकने वाले भाव और अभाव के आवरण      को भस्म कर डालने के लिए वे आकाश रूप आधार को धारण करते हैं।



सम्‍यक त्याग, निर्मल शक्ति और परम अनुशासन मुक्ति में प्रवेश

ऋषि ने पहले ही सूत्र में एक बहुत अनूठी बात कही।
कहा है, त्यागियों का त्याग है भय मोह शोक और क्रोध
इसका अर्थ हुआ, भोगियों का भी कुछ त्याग होता है। भोगी जब छोड़ता है कुछ, तो धन छोड़ता है, मोह नहीं। भोगी जब छोड़ता है कुछ, तो वस्तु छोड़ता है, वृत्ति नहीं। और वस्तु के त्याग से कुछ भी नहीं होता। क्योंकि वस्तु से कोई संबंध ही नहीं है, संबंध वृत्ति से है। दो बातें खयाल में ले लें।

भीतर मोह है, इसलिए बाहर मोह का विस्तार होता है—व्यक्तियों पर, वस्तुओं पर, संबंधों में। भीतर क्रोध है, इसलिए निमित्त खोजे जाते हैं, कारण खोजे जाते हैं बाहर, जिससे क्रोध प्रकट किया जा सके। जब कोई मुझे गाली देता है, तो लगता है ऐसा मन को कि उसने गाली दी, इसलिए मैं क्रोधित हुआ। सच्चाई उलटी है। क्रोध तो मेरे भीतर है, गाली तो सिर्फ निमित्त है उसके बाहर आ जाने का। अगर कोई मुझे गाली न दे, तो क्रोध बाहर तो नहीं आएगा, लेकिन मैं अक्रोधी नहीं हो जाऊंगा—क्रोध मेरे भीतर ही बना रहेगा।
इतना इकट्ठा करता है आदमी परिग्रह, अगर सारी वस्तुएं उससे छीन ली जाएं, वह बिलकुल दिगंबर और नग्न हो जाए—छीन ली जाएं या वह स्वयं छोड़ दे—तो भी जरूरी नहीं है कि भीतर से मोह विदा हो गया। वस्तु तो सिर्फ मोह के विस्तार की सुविधा है, अपरचुनिटी है, अवसर है। और छोटी से छोटी वस्तु भी बड़े से बड़े मोह के विस्तार के लिए सुविधा बन जाती है। ऐसा नहीं कि एक बहुत बड़ा राज्य ही चाहिए मोह को फैलने के लिए, एक छोटी सी लंगोटी भी काफी है।
एक आदमी दो पैसे की चोरी करे कि दो लाख की, अगर दो पैसे की चोरी करेगा, तो भोगी कहेगा छोटी सी ही तो चोरी है; दो लाख की करेगा, तो कहेगा, बहुत बड़ी चोरी है। लेकिन त्यागा कहेगा, चोरी बड़ी और छोटी नहीं होती। दो पैसा भी उतनी ही चोरी को फैलने के लिए अवसर बन जाता है, जितना दो लाख। जहा तक चोरी का संबंध है, दो पैसे या दो लाख की चोरी बराबर होती है। 'जहां तक पैसो का संबंध है, दो पैसे में और दो लाख में बड़ा फर्क है। लेकिन जहां तक चोरी का संबंध है, दो पैसे और दो लाख की बराबर है। और थोड़ा भीतर उतरें, तो चोरी का भाव और चोरी का कृत्य भी बराबर है। दो पैसा भी चुराना जरूरी नहीं है चोर होने के लिए, चोरी का भाव करना ही काफी है।
यह सूत्र कहता है, त्यागियों का त्याग। बड़ी मजे की बात है। क्योंकि इससे साफ हो जाता है कि भोगियों का भी त्याग है कुछ। त्यागियों का त्याग है भय, मोह, शोक और क्रोध। वृत्तियों का त्याग। वह अंतर में जो छिपे हुए कारण हैं, मूल कारण, उनका त्याग। वस्तु का नहीं है सवाल, मोह का त्याग। और निश्चित ही जब मोह ही गिर जाता है, तो वस्तु से हमारा कोई सेतु, कोई संबंध नहीं रह जाता। फिर त्यागी महल के बीच में भी हो सकता है, महल उसे बाध नहीं पाता। और अगर महल के बीच रहकर त्यागी को महल बांध लेता है, तो झोपड़ा भी बांध लेगा। कोई अंतर नहीं पड़ने वाला है। झोपड़ा नहीं होगा, वृक्ष के नीचे बैठेगा, तो वृक्ष ही बांध लेगा।
जिसके भीतर मोह है, वह कहीं भी बंध जाएगा। क्षुद्रतम से बंध जाएगा। कोई बड़े साम्राज्य आवश्यक नहीं हैं बंधने के लिए। नहीं तो इस दुनिया में दो—चार ही लोग बंध पाएं, बाकी तो सब मुक्त ही रहें। हीरा ही जरूरी नहीं है, कौड़ी भी बांध लेती है।
त्यागी का त्याग तो, संन्यासी का त्याग तो उस आधार के ही विसर्जन का है, जिससे उपद्रव पैदा होता है। मूल पर आघात है।
एक आदमी वृक्ष के पत्ते काटता रहता है। लेकिन वृक्ष के पत्ते काटना अगर वह सोचता है कि वृक्ष को काटने का उपाय है, तो खतरे में पड़ सकता है। क्योंकि वृक्ष के पत्ते जब भी कोई काटता है, तो सिर्फ कलम होती है, वृक्ष कटता नहीं, और एक पत्ते की जगह दो पत्ते निकल आते हैं। लगता है, काट रहा है वृक्ष को, शाखाएं काट रहा है। लेकिन जो भी वृक्षों से परिचित हैं, वे जानते हैं कि वृक्ष के लिए और सुविधा दे रहा है फैलने की। जब एक शाखा कटती है, तो अनेक अंकुर निकल आते हैं, कलम हो जाती है। अनंत—अनंत जन्मों तक काटते रहें शाखाओं को, पत्तों को, कहीं पहुंचेंगे नहीं, क्योंकि मूल पर कोई चोट नहीं की जा रही है। वृक्ष पत्तों से नहीं जीता, वृक्ष जड़ों से जीता है। जड़ें भीतर छिपी हैं जमीन के, वे दिखाई नहीं पड़ती। वृक्ष जिनसे जीता है, वे छिपी हैं, भूमिगत हैं। इसीलिए छिपी हैं। क्योंकि जिससे जीना है उसे भीतर छिपा होना जरूरी है, नहीं तो कोई भी नुकसान पहुंचा सकता है।
इसे ठीक से समझ लें। वृक्ष भी अपनी जड़ों को छिपाए है सुरक्षा में। प्रकट नहीं हैं। जो प्रकट है, उसको चोट पहुंचाने से गहरी चोट नहीं पहुंचने वाली है। पत्ते फिर निकल आएंगे, शाखाएं फिर फूट जाएंगी।
अभी पिछली बार जब मैं आया था आबू तो सारा रास्ता सूखा हुआ था। एक पत्ता न था वृक्षों पर। लेकिन जड़ें भीतर हरी रही होंगी, क्योंकि अब आया हूं तो सब वृक्ष हरे हो गए हैं। सूरज हमला न कर पाए जड़ों पर, जानवर हमला न कर पाएं, आदमी हमला न कर पाएं, धूप हमला न कर पाए जड़ों पर, इसलिए जड़ें जमीन में छिपी हैं। और वृक्षों की आत्मा वहा है। धूप आएगी, गर्मी आएगी, पत्ते सूखेंगे, गिर जाएंगे। वृक्ष निश्चित है। थोड़ी प्रतीक्षा की बात है। फिर वर्षा होगी, फिर अंकुर निकल आएंगे। जड़ें सुरक्षित हैं, तो पत्ते तो कभी भी निकल आएंगे।
लेकिन इससे उलटा नहीं हो सकता कि जुड़े टूट जाए, कट जाएं, पत्ते सुरक्षित हों और जड़ें फिर से निकल आएं। इससे उलटा नहीं होता।
जड़ कहां हैं हमारी बीमारी की? वह हमारा जो फैलाव है, विस्तार है, धन है, मकान है, मित्र हैं, प्रियजन हैं, परिवार है, वे हमारी जड़ें हैं। ये जड़ें भीतर हैं। वे हमारी जड़ें भी भीतर छिपी हैं। सब जड़ें छिपी होती हैं। मोह भीतर छिपा है, मोह का विस्तार बाहर है।
एक आदमी पत्नी को छोड़कर भाग जा सकता है, बच्चों को छोड्कर जंगल जा सकता है। लेकिन उस आदमी को पता नहीं कि जिसने पत्नी बनाई थी और जिसने बच्चे निर्मित किए थे, वह मोह साथ चला गया। वह मोह नई पत्नियां निर्मित कर लेगा, नए बच्चे बना लेगा। मन इतना चालाक है कि नए नाम रख देगा, नई व्यवस्था कर लेगा। जड़ें सुरक्षित थीं, अंकुर फिर निकल आएंगे। नाम से कोई फर्क नहीं पड़ता है।
वह आदमी घर छोड्कर आश्रम बना लेगा। अब उसको आश्रम कहेगा और आश्रम के लिए उतना ही चिंतारत हो जाएगा, जितना घर के लिए था। और आश्रम की जमीन के लिए अदालत में वैसे ही मुकदमा लड़ेगा, जैसे घर के लिए लड़ता था। आश्रम की ईंट—ईंट के लिए पैसा जुटाएगा, जैसे घर के लिए जुटाता था। और अब एक बड़ा धोखा है। वह है गृहस्थ, और जहां रह रहा है, उस जगह का नाम आश्रम है। अब वह अपने को और भी धोखा दे सकता है, सेल्फ डिसेप्‍शन और आसान है। क्योंकि वा: कहेगा, मैं अपने लिए थोड़े ही करता हूं, आश्रम के लिए करता हूं।
आप यह नहीं कह सकते कि मैं अपने लिए थोड़े ही करता हूं। हालांकि हम भी कोशिश करते हे। बाप कहता है, मैं अपने लिए थोड़े ही करता हूं, बेटे के लिए करता हूं। अपने लिए थोड़े ही करता हूं, पत्नी के लिए करता हूं। जिम्मेदारी है।
वह अब कहेगा, परमात्मा के लिए कर रहा हूं। यह तो आश्रम है, यह कोई मेरा घर नहीं है। लेकिन उसके सारे संबंध वही हैं, जो उसके घर से थे। वह मोह तो साथ ले आया, क्रोध तो साथ ले आया, रत। तो साथ ले आया, आसक्ति तो साथ ले आया।
इसलिए ऋषि कहता है, त्यागी का त्याग बाह्य त्याग नहीं है। इसका यह अर्थ नहीं है कि त्यागी बात त्याग नहीं करेगा। इसका केवल इतना ही अर्थ है कि त्यागी जड़ों को तोड़ देता है। फिर बाहर जो है, वह स्वप्‍नत हो जाता है। वह घर हो कि आश्रम, वह अपना हो कि पराया, वह महल हो कि झोपड़ा, वह स्वप्‍नवत हो जाता है।
एक और मजे की बात है कि भोगी अगर छोड्कर भागता है, तो जिस चीज को छोड्कर भागता है, उससे डरता है। सदा डरता रहता है। क्योंकि उसे पक्का पता है कि अगर वह चीज फिर सामने आ जा।', तो फिर उसके भीतर जो छिपी हुई जड़ें हैं, वे अंकुरित हो जाएंगी। अगर वह धन को छोड्कर भागा है, तो वह ऐसी जगह से बचकर निकलेगा जहां धन मिल सकता है फिर। अगर वह स्त्री को छोड्कर भागा है, तो वह बचेगा ऐसी जगह से जहा स्त्री दिखाई पड़ सकती है फिर।
यह तो गृहस्थ से भी ज्यादा बदतर स्थिति हो गई। यह तो भय भयंकर हो गया। यह तो दूध का जला छाछ भी फूंक—फूंककर पीने लगा। यह तो बहुत भय से आक्रांत स्थिति है। और भय से आक्रांत स्‍थिति ब्रह्म में प्रवेश नहीं बन सकती। और यह सारा का सारा जो भय है, उसे ऐसी सीमाएं निर्मित करने को मजबूर करेगा, जिनके भीतर वह एक कारागृह का कैदी हो जाएगा।
आगे सूत्र आता है, बहुत ही क्रांतिकारी है—टू मच रेवत्थूशनरि। शायद यही कारण है कि निर्वाण उपनिषद पर टीकाएं नहीं हो सकीं। यह निग्लेक्टेड उपनिषदों में से एक है, उपेक्षित। जब पहली दफा मैंने तय किया कि इस शिविर में इस पर बात करनी है, तो अनेक लोगों ने मुझे पूछा कि ऐसा भी कोई उपनिषद है —निर्वाण उपनिषद? कठोपनिषद है, छांदोग्य है, मांडूक्य है—यह निर्वाण क्या है? यत्न बहुत ही खतरनाक है।
ऋषि कह रहा है, वे वही छोड़ देते हैं, जिससे फैलाव के बीज ही नष्ट हो जाते हैं, दग्ध हो जाते हैं। ऐसा देखें, भय है, इसलिए हम बहुत आयोजन करते हैं। जब एक आदमी महल बना रहा है, दीवारें उठा रहा है, परकोटे घेर रहा है, तो भयभीत है, इसलिए इतना सुरक्षा का इंतजाम कर रहा है। एक आदमी तलवार बगल में लटकाए हुए चल रहा है, भयभीत है। हम बहादुरों की जो मूर्तियां बनाते हैं, तो उनके हाथ में तलवार जरूर रखते हैं। घोड़ों पर चढ़ा देते हैं, तलवारें रख देते हैं, चौरस्तों पर खड़े कर देते हैं। ये भय की मूर्तियां हैं। क्योंकि तलवार निर्भय आदमी के लिए कैसी आवश्यकता है? कहा है जरूरी? वह तलवार तो बताती है कि भीतर भय छिपा है। अगर हमें एटम बम बनाना पडा है, तो उसका कारण है कि आदमी आज जितना भयभीत है, इतना इसके पहले कभी भी नहीं था।
हमारे अस्त्र—शस्त्र हमारे भय के अनुपात में विकसित होते हैं। जिस दिन आदमी निर्भय हो जाएगा, अस्त्र—शस्त्र फेंक दिए जाएंगे। उनकी कोई भी तो जरूरत नहीं है। अस्त्र—शस्त्र हमारे भय का विस्तार हैं। तो जितने अस्त्र—शस्त्र बढ़ते हैं, वे खबर देते हैं, बिलकुल आनुपातिक खबर देते हैं कि आदमी कितना भयभीत हो गया होगा कि एटम बम के बिना वह अपने को सुरक्षित अनुभव नहीं करता। बड़े से बड़े राष्ट्र—चाहे वह रूस हों और चाहे अमरीका और चाहे चीन—जिनके पास विराट शक्ति है, उनका बड़प्पन क्या है! उनका बड़प्पन यह है कि उनके पास विराट अस्त्र—शस्त्रों का ढेर है। लेकिन विराट अस्त्र—शस्त्रों का ढेर सिवाय भीतर के भय के और किसी बात की सूचना नहीं देता है।
और मजा यह है कि आप अस्त्र—शस्त्र कितने ही बढ़ाते चले जाएं, कोई भीतर का भय नहीं मिट जाता, बढ़ता चला जाता है। तो एक तरकीब यह हो सकती है कि अस्त्र—शस्त्र का त्याग कर दें, छोड़ दें। तो भी जरूरी नहीं कि आप अभय को उपलब्ध हो जाएं। अगर अस्त्र—शस्त्र को आप छोड़ते हैं, तो आप दूसरे सूक्ष्म अस्त्र—शस्त्र बनाना शुरू करेंगे। आप कहेंगे, निर्बल के बल राम। अब यह भी अस्त्र है। कहना चाहिए, एटम से भी बड़ा।
तो गांधीजी अस्त्र—शस्त्र का उपयोग नहीं करते, लेकिन रोज प्रार्थना करते हैं, निर्बल के बल राम। मगर बल, चाहे वह एटम से आए और चाहे राम से आए, आना जरूर चाहिए। निर्बल होने को राजी नहीं हैं, बल कहीं से आना ही चाहिए। सूक्ष्म बल की खोज शुरू हो जाएगी।
त्यागी वह है, जो सब खोज ही छोड़ देता है। और मजा यह है कि राम का बल तभी मिलता है, जब निर्बल इतना निर्बल होता है कि राम का बल भी उसके पास नहीं होता, कोई बल नहीं होता उसके पास। वह आयोजन छोड़ देता है, क्योंकि वह कहता है कि भयभीत होना असंगत है। जहा मृत्यु निश्चित है, वहां भयभीत होने की जरूरत क्या है? जहां मरना होगा ही, वहां अब भय का काला क्या है?
मैंने एक घटना सुनी है कि जापान में, जैसे राजस्थान में राजपूत कभी थे—अब तो नहीं हैं, कभी थे—ऐसा जापान में लड़ाकों का एक वर्ग था जो समुराई कहलाता है। वे जापान के राजपूत थे। एक बहुत प्रसिद्ध समुराई—कहते हैं, जापान में उसकी जोड़ का कोई तलवारबाज नहीं था—एक दिन घर लौट आया जल्दी, देखा कि उसका रसोइया उसकी पत्नी से प्रेम कर रहा है। तलवार खींच ली, लेकिन तभी उसे खयाल आया कि जब दूसरे के हाथ में तलवार न हो तब उसे मारना समुराई धर्म के खिलाफ है, क्षत्रिय के धर्म के खिलाफ है। तो उसने एक तलवार रसोइए को दी कि तू यह तलवार हाथ में ले और मुझसे जूझ। रसोइए ने कहा, ऐसे ही मार डालो। इस जूझने का कोई मतलब ही नहीं है। यह और नाहक तुम अपने को समझाओगे कि तुम बड़े क्षत्रिय हो। मैंने कभी तलवार पकड़ी नहीं। मुझे पता नहीं तलवार पकड़ी कैसे जाती है। तुम क्षणभर में मुझे मार डालोगे। तुम ऐसे ही मार डालो, यह और बहाना क्यों लेते हो?
लेकिन समुराई ने कहा कि यह तो नियमयुक्त नहीं है किसी को ऐसे मार डालना। तो मै सदा के लिए कलंकित हो जाऊंगा और समुराई की बदनामी होगी कि एक निहत्थे आदमी को मार दिया। तुझे मैं समय दे सकता हूं। तू चाहे तो छह महीने तलवार चलाना सीख ले। उसने कहा कि वह कुछ न होगा। छह महीने क्या छह जन्म सीखूं तो भी मैं तुम्हारे सामने तलवार नहीं चला सकता, यह मुझे भलीभांति पता है। पूरे मुल्क में तुम्हारे मुकाबले कोई आदमी नहीं है। तो समुराई ने कहा, फिर मरने के लिए तैयार हो जा।
उस रसोइए ने सोचा कि एक उपाय कर लेने में हर्ज क्या है। जब मरना ही है, तो नहीं पता है तलवार का पकड़ना, लेकिन हर्ज क्या है अब। तो उसने कहा, फिर ठीक है मैं तलवार. दे-दे तलवार। समुराई ने सोचा भी न था कि रसोइया इतने जोर से लड़ेगा। लेकिन जब मृत्यु सुनिश्चित हो, तो भय मिट जाता है। व्हेन डेथ इज डेफिनिट, फियर डिसएपीयर्स। भय तो तभी तक रहता है जब मृत्यु अनिश्चित होती है। रसोइए की मृत्यु तो निश्चित थी। तलवार उठाकर उलटे—सीधे हाथ चलाने उसने शुरू कर दिए।
समुराई तो घबड़ाया, क्योंकि नियम के विपरीत तलवार चला रहा था वह! वह डरा, क्योंकि वह लड़ा था सदा—नियम थे, मर्यादाएं थीं, ढंग थे—जानता था कि दूसरा आदमी क्या वार करेगा। एक—एक वार परिचित था। लेकिन यह रसोइया तो ऐसे वार करने लगा, जो तलवार के शास्त्र में कहीं लिखे ही नहीं हैं। और समुराई के लिए तो जीवन अभी शेष था। रसोइए का जीवन समाप्त हो गया था। समुराई बड़ा बहादुर लड़ाका था, लेकिन भय भीतर था। क्योंकि मौत निश्चित न थी। रसोइया सिर्फ, रसोइया था, लेकिन मौत इतनी निश्चित थी कि भय का कोई कारण न था।
थोड़ी ही देर में रसोइए ने समुराई को दीवार से टिका दिया। छाती पर तलवार रख दी। समुराई ने कहा, माफ कर। मगर तू ऐसा लड़ाका है, यह मैंने कभी सोचा भी न था! उसने कहा, लड़ाका मैं बिलकुल नहीं हूं। यह तो मौत के सुनिश्चित हो जाने से हुआ है।
संन्यासी जानता है, मौत सुनिश्चित है, भय कैसा! भय का कोई अर्थ ही नहीं है। इरेंलेवेंट, असंगत है। जो होना ही है, वह एक अर्थ में हो ही गया। अब भय कैसा!
मोह को हम फैलाते हैं क्यों? क्योंकि अकेले हम काफी नहीं हैं। दूसरा हो साथ, तीसरा हो साथ, अपने लोग हों, तो भरे—भरे लगते हैं। लेकिन संन्यासी जानता है कि अकेला होना नियति है, टु बी। अलोन इज द डेस्टिनी, कोई उपाय नहीं है दूसरे के साथ होने का। है ही नहीं उपाय। चाहे पत्नी बनाओ चाहे पति बनाओ, चाहे मित्र बनाओ, पिता, बेटा, दूसरा-दूसरा ही रहेगा। कोई उपाय नहीं, कोई मार्ग नहीं है। अकेले—अकेले हैं। अकेला होना नियति है। धोखा दे सकते हैं दूसरे को साथ रखकर कि नहीं अकेले नहीं हैं।
और धोखे में तो हम बड़े कुशल हैं। आदमी अंधेरी गली से गुजरता है तो सीटी बजाने लगता है। कोई नहीं है, मालूम है कि हम ही सीटी बजा रहे हैं। लेकिन अपनी ही सीटी सुनकर ताकत आती मालूम पड़ती है। आदमी गाना गाने लगता है। अपना ही गाना सुनकर ऐसा लगता है कि अकेले नहीं हैं। आदमी के धोखे का तो कोई अंत नहीं है।
अकेला है आदमी इसलिए मोह को फैलाता है, बांधता है, भ्रम खड़े करता है कि अकेला नहीं हूं मेरे साथ कोई है, संगी है, साथी है। और उसे पता नहीं है कि जिसको उसने संगी—साथी बनाया है, उसने भी उसे इसीलिए संगी—साथी माना हुआ है कि वह अकेला है। अब ध्यान रखें, दो अकेले मिलकर दुगुने अकेले हो जाएंगे, या क्या होगा? गणित तो कहेगा, दुगुने अकेले हो जाएंगे—द लोनलीनेस विल बी डबल्ड। होना भी यही चाहिए। अगर दो बीमार मिलें, तो बीमारी दुगुनी हो जाती है। अगर दो अकेले आदमी इकट्ठे हो जाएं, तो अकेलापन दोहरा और गहरा हो जाता है।
संन्यासी कहता है, दो होने का मार्ग ही नहीं है, अकेले हम हैं। इसकी स्वीकृति, मोह का विसर्जन हो जाता है—इसकी स्वीकृति, एक्सेप्टीबिलिटी कि अकेला मैं हूं।
शोक क्या है? दुख क्या है? एक ही दुख है जगत में, अपेक्षाजनित। सब दुख आते हैं, थ्रू एक्सपेक्टेशन। सोचते कुछ हैं, होता कुछ है। सोचते थे, आदमी रास्ते पर मिलेगा, नमस्कार करेगा, वह आंखें बचाकर निकल गया। शोक पैदा हो गया। शोक क्या है? अपेक्षाओं की राख। और शोक से हम पीड़ित होते हैं, दुख से हम पीड़ित होते हैं। दुख बहुत छिद जाता है, छाती में छिदता चला जाता है। फिर भी हम अपेक्षाएं किए चले जाते हैं, बिना यह देखे कि दुख के आने का दरवाजा क्या है—अपेक्षा। जहां अपेक्षा की, वहां दुख आया। दुख से हम बचना चाहते हैं और अपेक्षा करते चले जाते हैं। वही कालिदास का पोज, बैठे हैं उसी शाखा पर, काट रहे हैं उसी को। रोज दुखी होते हैं और रोज अपेक्षाएं करते हैं। और कभी इस तर्क को नहीं देख पाते, इस नियम को नहीं देख पाते कि अपेक्षाएं दुख पैदा करती हैं।
संन्यासी कहता है कि दुखी होना नहीं, तो अपेक्षा करना नहीं। कोई अपेक्षा न करेंगे। अपेक्षा ही न करेंगे। अपेक्षा तो अपने हाथ में है। जिस दिन मैंने अपेक्षा की, किसी भी भांति की अपेक्षा की, उसी दिन शोक उतर आएगा। क्योंकि इस दुनिया में कोई आदमी मेरी अपेक्षाएं पूरा करने के लिए पैदा नहीं हुआ, हर आदमी अपनी अपेक्षाएं पूरा करने के लिए पैदा हुआ है।
बाप की अपेक्षा और है बेटे से, बेटे की अपेक्षा और है बाप से। होगी ही, क्योंकि बेटा-बेटा है, बाप-बाप है। दोनों की अपेक्षाएं दोनों को दुखी कर जाएंगी। और जितना दुख होता है, उतनी अपेक्षाएं हम ज्यादा करने लगते हैं। हम सोचते हैं, अपेक्षाओं से सुख मिलेगा। और अपेक्षाओं से मिलता दुख है।
शोक क्या है? एक ही शोक है कि जो हम चाहते हैं, वह नहीं होता। जैसा हम चाहते हैं, वैसा नहीं होता। जैसा हम मानकर चलते हैं, वह नहीं होता।
मुल्ला नसरुद्दीन से किसी ने कुछ रुपए उधार मांगे। पचास रुपए उधार मांगे हैं। मुल्ला ने उसे पचास रुपए लाकर दे दिए हैं। वह बड़ा हैरान हुआ। ऐसी अपेक्षा न थी कि मुल्ला बिना कुछ कहे चुपचाप उठेगा और पचास रुपए दे देगा। पंद्रह दिन बाद वायदे के अनुसार वह पचास रुपए वापस लौटा गया। मुल्ला बहुत चकित हुआ, क्योंकि ऐसी अपेक्षा न थी कि वह रुपए वापस लौटा जाएगा। लेकिन महीनेभर बाद वह फिर हाजिर हुआ। उसने कहा कि एक पांच सौ रुपए की जरूरत है। मुल्ला ने कहा, अब की बार तुम धोखा न दे पाओगे, पिछली बार तुम धोखा दे गए। यू डिसीब्द मी द लास्ट टाइम। उसने कहा, धोखा! मैं तुम्हारे पचास रुपए लौटा नहीं गया? उसने कहा, वही तो धोखा है, क्योंकि अपेक्षा यह थी कि रुपए लौटने वाले नहीं हैं। वही तो धोखा हुआ। पिछली दफे धोखा दे गए, लेकिन अब की दफे न दे पाओगे। मैं रुपया देने वाला नहीं हूं।
हम सब जी रहे हैं। भीतर बड़े रस पैदा कर रहे हैं, बड़ी अपेक्षाएं निर्मित कर रहे हैं। इसलिए कभी आपने खयाल किया कि रास्ते से आप गुजर रहे हैं और एक आदमी आपका गिरा हुआ छाता उठाकर दे देता है, तो कितना अनुग्रह मालूम पड़ता है। क्योंकि कोई अपेक्षा नहीं थी कि वह उठाकर दे। लेकिन आपकी पत्नी उठाकर दे देती, तो कोई अनुग्रह पैदा नहीं होता। क्योंकि यह अपेक्षा थी ही कि उठाकर देना चाहिए। अगर न दे तो दुख पैदा होता है, लेकिन दे तो सुख पैदा नहीं होता।
जहां—जहां अपेक्षा बन जाती है, वहां—वहां सुख क्षीण हो जाता है और दुख गहन हो जाता है। और जब अपेक्षाएं बिलकुल थिर हो जाती हैं, तो दुख ही दुख हाथ में रह जाता है, सुख का तो कोई उपाय ही नहीं रह जाता।
इसलिए अजनबी कभी थोड़ा—बहुत सुख भला दे दें, अपने लोग कभी सुख नहीं दे पाते। इसका कारण अपने लोग नहीं हैं, इसका कारण अपेक्षा है। अपरिचित, अनजान लोग कभी सुख की झलक दे जाएं, लेकिन परिचित, जाने—माने, संबंधित, मित्र, परिवार के कभी सुख नहीं दे पाते।
कोई बेटा किसी मां को सुख नहीं दे पाता। यह वक्तव्य थोड़ा अतिशयोक्तिपूर्ण मालूम पड़ेगा। आप कहेंगे कि चोर हो जाता है, तो नहीं दे पाता होगा। नहीं, बुद्ध हो जाए तो भी नहीं दे पाता। बेईमान हो जाए तब तो दे ही नहीं पाता, ईमानदार हो जाए तब भी नहीं दे पाता। सजा काटे, जेलखाने में चला जाए, तब तो दे ही नहीं पाता; साधु हो जाए, सरल हो जाए, तो भी नहीं दे पाता। कुछ भी करे बेटा, कोई मां आज तक तृप्त हुई है, इसकी खबर नहीं मिली। कोई बाप आज तक तृप्त हुआ है, इसकी खबर नहीं मिली।
बात क्या है? कारण क्या है? बाप की अपनी अपेक्षाएं हैं। बेटे का अपना जीवन है। और यह भी बड़े मजे की बात है और बड़े राज की कि अगर बेटा बिलकुल बाप की मानकर चले तो भी सुख नहीं दे पाता, क्योंकि तब वह गोबर—गणेश मालूम पड़ता है—बिलकुल गोबर के गणेश। बाप कहे बैठी, तो बैठ जाए; बाप कहे उठो, तो उठ जाए; बाप कहे चलो, तो चलने लगे—तो बाप सिर ठोक लेता है। कि बिलकुल गोबर—गणेश है। अगर बाप की न माने, तो दुख होता है। बाप की माने, तो दुख होता है।
हमारे एक्सपेक्टेशस कंट्राडिक्ट्री हैं, बड़े विरोधी हैं। अगर पति पत्नी की न माने, तो पीड़ा होती है। अगर बिलकुल मानकर चले, तो समझती है, कैसा पति है! किसी मतलब का नहीं, हुए न हुए, बराबर। तो ऐसा चाहिए, रोबीला! और ऐसा भी चाहिए कि गुलाम। बड़ी मुश्किल है। पति चाहिए पुरुष, मगर ऐसा चाहिए कि पैर दाबता रहे। दोनों बातें हो नहीं सकतीं। वह पैर दाबे, तो पुरुषत्व क्षीण हो जाता है। पुरुषत्व क्षीण हो जाता है, तो पत्नी की दृष्टि गिर जाती है उस पर। नौकर—चाकर हो जाता है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन घर लौटा है। और पत्नी से कहने लगा, यह तूने क्या किया! मैनेजर  नौकरी छोड्कर चला गया। पत्नी ने कहा, मैनेजर और मेरा क्या संबंध? उसने कहा कि तूने आज फोन करके उससे इस तरह के अपशब्द बोले कि उसने तत्काल इस्तीफा दे दिया। पत्नी ने कहा, अरे, बड़ी भूल हो गई। मैं तो समझी कि फोन पर तुम हो।
हमारी ऐसी अपेक्षाएं हैं। अगर प्रतिभाशाली बेटा होगा, तो बाप की खींची गई लक्ष्मण रेखाओं के भीतर नहीं चल सकता। प्रतिभा सदा स्वतंत्र होती है। बाप चाहता है, बेटा प्रतिभाशाली हो, लेकिन बाप यह भी चाहता है कि मेरी मानकर चले। मानकर सिर्फ मंद—बुद्धि चल सकते हैं। अब बड़ी मुश्किल है। मंद—बुद्धि और प्रतिभा एक साथ नहीं हो सकती। मंद—बुद्धि होगा तो दुख देगा, प्रतिभाशाली होगा तो दुख देगा। यह खेल क्या है?
संन्यासी इस सत्य को समझकर अपेक्षाएं करना बंद कर देता है। वह कहता है, अपेक्षाएं विरोधाभासी हैं, इसलिए मैं अपेक्षाएं नहीं करता। और अपेक्षाएं दूसरे से की जा रही हैं। दूसरा उनको पूरा करने के लिए बाध्य क्यों हो? दूसरा-दूसरा है! और जब मैं अपेक्षा करता हूं तो मैं दूसरे की स्वतंत्रता में बाधा डालता हूं। जब भी मैं छोटी सी अपेक्षा भी—बिलकुल छोटी सी अपेक्षा, ऐसी जिसका कोई मतलब नहीं है कि रास्ते से निकलूं तो नमस्कार कर लो, इसका कोई मतलब नहीं है, जिसमें कुछ खर्च नहीं होता किसी का—इतनी सी अपेक्षा भी दूसरे की स्वतंत्रता पर बाधा है, हिंसा है, वायलेंस है।
संन्यासी कहता है कि जब मैं स्वतंत्र होने को आतुर और उत्सुक हूं, तो सभी जीवन स्वतंत्र होने को आतुर और उत्सुक हैं। नहीं, कोई अपेक्षा नहीं। अपेक्षा नहीं, तो शोक नहीं, दुख नहीं। अपेक्षा नही, तो संताप नहीं पैदा होता। शोक को छोड़ना हो, तो अपेक्षा की जड़ें छोड़ देनी पड़ती हैं, शोक छूट जाता है। जब भी क्रोध पैदा होता है मन में, तब ऐसा लगता है, दूसरा जिम्मेवार है। क्रोध का कारण, दूसरा जिम्मेवार है, ऐसी धारणा।
मुल्ला नसरुद्दीन एक नई जगह नौकरी करने गया। इंटरव्यू हुआ। मालिक ने उसकी भेंट ली और कहा कि ध्यान रखो, तुम आदमी देखने से रिस्पासिबल नहीं मालूम पड़ते, कुछ जिम्मेवार आदमी नहीं मालूम पड़ते तुम्हारे ढंग—डौल से। और मैंने अखबार में जो विज्ञापन दिया था, उसमें लिखा था कि इस पद के लिए बहुत रिस्पासिबल, योग्य, जिम्मेवार, उत्तरदायित्व को समझने वाला आदमी चाहिए। मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा कि इसीलिए तो मैंने यह दरखास्त दी। बिकाज व्हेनएवर एनीथिंग राग हैपंस, आई एम आलवेज हेल्ड रिस्पासिबल। कहीं कुछ गड़बड़ हो जाए, तो पच्चीस जगह नौकरी कर चुका, कोई भी गड़बड़ हो, जिम्मेवार सदा मैं ही सिद्ध होता हूं। और तुमने लिखा कि जिम्मेवार आदमी की जरूरत है, तो मैं हाजिर हो गया।
क्रोध का सूत्र क्या है? सदा दूसरा जिम्मेवार है। क्रोध का सूत्र यही है, सदा दूसरा जिम्मेवार है। क्रोध छोड़ना हो, तो समझना पड़े, सदा मैं ही जिम्मेवार हूं। फिर क्रोध का कोई कारण नहीं रह जाता। फिर क्रोध का कोई कारण नहीं रह जाता। फिर क्रोध की जड़ें कट जाती हैं। तो संन्यासी कसम नहीं खाता कि मैं क्रोध नहीं करूंगा। वह क्रोध के राज को, रहस्य को, उसकी जड़ों को समझ लेता है और मुक्त हो जाता है।
मुक्त होने में कठिनाई नहीं है। लेकिन आप पुराने सूत्र पकड़े रखें और कसमें खाते चले जाएं, तो मुश्किल में पड़ेंगे। भीतर तो यही मानते रहें कि जिम्मेवार दूसरा है और ऊपर से कहें कि मैं क्रोध नहीं करूंगा। यह नहीं होने वाला है। क्रोध भीतर बनेगा। रस्ते खोजेगा। और रस्ते ऐसे खोज सकता है...।
एक ईसाई पादरी के बाबत मैंने सुना है। ईसाई पादरी ने कसम ली थी कि गालियां नहीं देगा, बुरे शब्द, अपशब्द नहीं बोलेगा। जिस दिन वह दीक्षित हुआ पादरी के पद पर, उसी दिन उसके स्वागत—समारोह में गांव में एक भोज हुआ। कसम तो खा ली थी कि गाली नहीं देगा। पहले ही दिन मुसीबत में पड़ा।
कसम खाने वाले सदा मुसीबत में पड़ जाते हैं, क्योंकि कसम कोई समझ नहीं है। समझदार आदमी कसम नहीं खाता। समझ काफी है, कसम की जरूरत नहीं है। गैर—समझदार आदमी समझ की कमी कसम से पूरी करने की कोशिश करता है। और जब समझ ही नहीं है, तो कसम खाकर समझ पैदा नहीं हो जाएगी।
कसम तो खा ली थी। पहले ही दिन भोज था। बड़े बढ़िया, अच्छे से अच्छे कपड़े पहनकर पहना था। और बेरा ने भोजन परोसते वक्त सब्जी का पूरा का पूरा बर्तन उसके कपड़ों पर गिरा दिया। आग जल गई भीतर, गालियां ओंठों पर आ गईं। लेकिन कसम खा चुका था, तो उसने कहा कि भाइयो, कोई गृहस्थ आदमी इस समय पर जो कहना जरूरी है, जरा इससे कहे। क्योंकि मैं तो कसम ले लिया हूं, जरा ऐसी बातें कहो, जो इस वक्त बिलकुल जरूरी हैं।
यही होने वाला है। क्योंकि कसमें क्या करेंगी, कसमें समझ नहीं हैं। नासमझ कसमें खाते हैं, संन्यासी व्रत नहीं लेता। यह बहुत हैरानी होगी सुनकर, संन्यासी व्रत नहीं लेता। संन्यासी समझ से ही जीता है। समझ ही उसका एकमात्र व्रत है। और जो समझ जाता है, जो समझ में आ जाता है, वह विसर्जित हो जाता है। परब्रह्म के साथ एकता के रस का स्वाद ही वे लेते हैं।
एक ही उनका स्वाद और एक ही उनका रस है। व्यक्तियों से नहीं है वह स्वाद। वस्तुओं से नहीं है वह स्वाद। वह रस व्यक्तियों से नहीं, वस्तुओं से नहीं। वह रस और स्वाद उनका सिर्फ परमात्‍मा से है। लेकिन वहां भी वे भय, मोह, शोक और क्रोध का संबंध नहीं बनाते। अब यह बहुत समइने जैसी बात है।
आमतौर से भक्त जिनको हम कहते हैं, वे परमात्मा से भी भय, मोह, शोक और क्रोध का संबंध निर्मित कर लेते हैं। परमात्मा तक से रूठ जाते हैं। परमात्मा उनकी मानकर चले, इसकी अपेक्षा हो जाती है। वे जैसा कहें, वैसा परमात्मा करे, इसकी भी अपेक्षा बन जाती है। परमात्मा पर भी नाराज हो सक है। हैं। तब उन्होंने अपने सब रोगों को परमात्मा पर आरोपित कर लिया। वे रोगों से मुक्त नहीं हुए।
संन्यासी परमात्मा से कोई अपेक्षा नहीं करता। यही उसका संबंध बनता है। परमात्मा जो करता है, उसके लिए राजी है। क्रोध नहीं करता कि इससे अन्यथा होना था। परमात्मा से भी मोह नहीं बनाता। नहीं तो कोई भी निमित्त मोह के लिए कारण बन जाता है।
एक संत के संबंध में मैंने सुना है। वे राम के भक्त थे। कृष्ण के मंदिर में गए, तो नमस्कार करने से इनकार कर दिया। और कहा कि जब तक धनुष—बाण हाथ में न लोगे, तब तक मैं सिर न झुकाऊंगा।
भारी अजीब मोह हो गया! यह मोह तो पागलपन हो गया। यह तो विक्षिप्तता हो गई। धनुष —बहा। हाथ में हों, तो ही मेरा सिर झुकेगा। तब तो मेरे सिर झुकने में भी कंडीशन हो गई, शर्त हो गई कि लो धनुष—बाण हाथ रखो, नहीं तो मेरा सिर झुकने वाला नहीं। अब यह मेरा सिर ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया।
हम सबके मोह हैं। मस्जिद के सामने से हम ऐसे निकल जाते हैं, जैसे कुछ नहीं। मंदिर के सामने सिर झुका लेते हैं। मंदिर में भी फर्क हैं—अपने—अपने मंदिर हैं। अपने मंदिर के सामने सिर झुका लेते हैं, दूसरे के मंदिर के सामने ऐसे ही निकल जाते हैं। मोह वहां भी खड़ा है।
संन्यासी का कोई मोह नहीं। इसलिए मैं कहता हूं संन्यासी के लिए मंदिर और मस्जिद और गुरुद्वारा एक है। कभी मस्जिद करीब हो, तो वहां प्रार्थना कर लें। और कभी गुरुद्वारा करीब हो, तो वहां प्रार्थना कर लें। और कभी मंदिर करीब हो, तो वहां प्रार्थना कर लें। और कुछ भी करीब न हो, तो कहीं भी बैठ जाएं। वहीं मंदिर है, वहीं मस्जिद है, वहीं गुरुद्वारा है। पर बड़े मोह होते हैं मन में।
संन्यासी का एक ही रस है, एक ही स्वाद है, परम सत्ता की तरफ। और यह स्वाद तभी पैदा हो सकता है, जब ये चार ऊपर के स्वाद गिर गए हों, नहीं तो यह पैदा नहीं हो सकता। अगर ये चार स्वाद बने रहें, ये क्रोध के, मोह के, शोक के, ये स्वाद बने रहें, तो यह परम सत्ता की तरफ बहने वाला रस, यह रसधार पैदा नहीं होती।
इसके बाद का सूत्र है, अनियामकपन ही उनकी निर्मल शक्ति है।
यह सूत्र बडा क्रांति का है। इसी सूत्र की मैं बात कर रहा था। अनियामकत्व, इनडिसिप्लिन, अनुशासन—मुक्ति ही उनकी निर्मल शक्ति है। वे नियमन नहीं करते, वे अपने को डिसिप्लिन नहीं करते, वे अपने को अनुशासन में बांधते नहीं, वे व्रत नहीं लेते, नियम नहीं लेते। वे कोई मर्यादा नहीं बांधते। वे ऐसा नहीं कहते कि मैं ऐसा करूंगा। ऐसी कसम नहीं खाते। अनियम में जीते हैं, इनडिसिप्लिन में। बड़ी अजीब बात है! क्योंकि हम तो सोचते हैं, संन्यासी को एक डिसिप्लिन में जीना चाहिए। लेफ्ट—राइट वाले डिसिप्लिन में होना चाहिए। हमारे संन्यासी हैं तथाकथित, बिलकुल लेफ्ट—राइट हैं वे। लेकिन यह ऋषि कहता है कि अनियामकपन!
कैसे अदभुत और प्यारे लोग रहे होंगे! और कैसा साहस और कैसी गहरी समझ रही होगी! वे कहते हैं, संन्यासी का कोई नियम नहीं है। संन्यास का कोई नियम नहीं है। असल में सब नियमों के बाहर हो जाना संन्यास है। घबराहट होगी मन को। अगर सब नियम टूट गए, तब तो सब अस्त—व्यस्त, अराजक हो जाएगा। तब तो जिंदगी की सारी व्यवस्था छिन्न—भिन्न हो जाएगी।
नहीं होगी। क्योंकि इस अवस्था तक आने के लिए ऋषि कहता है, मोह, लोभ, काम, क्रोध ये सब विसर्जित हो जाएं, परमात्मा ही रस रह जाए, फिर अनियामकपन। जिसका काम न रहा, क्रोध न रहा, जिसका मोह न रहा, लोभ न रहा, भय न रहा, अब उस पर नियम की और क्या जरूरत रही? और अगर अब भी नियम की जरूरत है, तो स्वतंत्रता कब मिलेगी फिर? और जिसका परमात्मा ही रस रह गया, अब उसके लिए नियम की क्या जरूरत रही!
नहीं, संन्यासी रेल की तरह पटरियों पर नहीं दौड़ सकता। वह सरिताओं की तरह स्वतंत्र है। सागर ही उसकी खोज है। वह सरिताओं की तरह स्वतंत्र है। रेल की बंधी हुई पटरियां, जिन पर रेलगाड़ी के डिब्बे दौड़ते रहते हैं, वह गृहस्थ का ढंग है जीने का। गृहस्थ रेलगाड़ी की पटरियों पर दौड़ता रहता है। और अक्सर तो कहीं नहीं पहुंचता, शंटिंग में ही होता है। कोई स्टेशन वगैरह कभी आता ही नहीं, शंटिंग ही चलती है। क्योंकि पत्नी इस तरफ जाती है, पति उस तरफ जाता है, बेटा उस तरफ जाता है; शंटिंग होती रहती है। धीरे—धीरे डिब्बे जीर्ण—जर्जर होकर वहीं गिर जाते हैं। कोई यात्रा कभी पूरी नहीं हो पाती। और ठीक भी है, क्योंकि गृहस्थ जो है, वह पैसेंजर गाड़ी की तरह कम और मालगाड़ी की तरह ज्यादा है—गुड्स ट्रेन। तो गुड्स ट्रेन की शंटिंग आप देखते ही हैं, होती ही रहती है।
गृहस्थ भारी बोझ और सामान लिए हुए चल रहा है। बोझ इतना है कि चलना हो नहीं पाता और बोझ बढ़ाता चला जाता है। रोज बोझ बढ़ता चला जाता है। पुराना तो रहता ही है, नए को इकट्ठा करता चला जाता है। आखिर में उसी बोझ के नीचे दबकर मरता है। नियम जरूरी हैं गृहस्थ की दुनिया में, क्योंकि इतने रोग हैं वहां कि अगर चारों तरफ सिपाही बंदूकें लिए न खड़े हों, तो बड़ी कठिनाई हो जाए। संन्यासी के लिए नियम का कोई सवाल न रहा, क्योंकि जिस चीज के लिए हम नियम करते थे, उसको छोड़ने को ही ऋषि संन्यास कह रहा है। इसे ठीक से समझ लेना चाहिए।
जिसे छोड़ने के लिए ऋषि संन्यास कह रहा है, उसी के लिए तो हम नियम बनाते थे। नियम सिर्फ पुअर सब्‍स्‍टिट्यूट थे, बहुत कमजोर। रास्ते पर एक सिपाही खड़ा है, क्योंकि पक्का पता है कि सिपाही हटा कि बाएं चलने का नियम समाप्त हो जाता है।
मेरे एक मित्र हैं, पद्यश्री हैं, वर्षों से एम. पी. हैं, बड़े कवि हैं, सब गुण हैं। मगर भारतीय होने का गुण भी है। लंदन पहली दफा गए थे। तो कहीं मित्र के घर से भोजन करके लौट रहे हैं रात कोई हक बजे। टैक्सी में लौट रहे हैं। रास्ता सुनसान है, कोई नहीं। न पुलिस वाला है, न कोई ट्रैफिक है, न कुछ। लेकिन ड्राइवर टैक्सी का, लाल बत्ती देखकर, कार को रोककर खड़ा है, तो उन्होंने उससे कहा कि जब कोई पुलिस वाला ही नहीं है और रास्ते पर कोई गाड़ी भी नहीं है, तो निकल चलो। यह भारतीय का गुण है और पद्यश्री हो तो यह गुण थोड़ा और ज्यादा ही होना चाहिए। तो उस ड्राइवर ने बहुत चकित होकर उन्हें देखा और उसने कहा, खिड़की के बाहर जरा काच खोलकर देखें। एक की औरत साइकिल रोककर सदी में खड़ी कैप रही है, क्योंकि लाल लाइट है। उसने कहा कि आप तो कार के भीतर बैठे हैं। एक मिनट में क्या बिगड़ा जा रहा है! और पुलिस वाला खड़ा हो, तब तो एक बार निकला भी जा सकता हे धोखा देकर। लेकिन जब कोई भी नहीं खड़ा है और हम पर ही सारी बात छोड़ दी गई है, तो यह ढ़गेखा किसी दूसरे को नहीं, अपने को है।
संन्यासी को मुक्त कहा है ऋषियों ने। उस पर कोई नियम हम नहीं रखते, क्योंकि हम मानते है कि वह अपने को धोखा नहीं देगा। बस, इतना ही इतना सूत्र है उसका, अपने को वह धोखा नहीं देगा। और जिसे यह पता चल गया कि अपने को धोखा नहीं दिया जा सकता, देन ए न्यू डिसिप्लिन इस बॉर्न, ए इनर डिसिप्लिन। तब एक नया अनुशासन पैदा होता है, जो आंतरिक है, जिसे ऊपर से आयोजित नहीं करना पड़ता। संन्यासी ऐसा नहीं कहता कि मैं सत्य बोलूंगा। जब भी घटना घटती है, वह सत्य बोलता है। संन्यासी ऐसा नहीं कहता कि मैं चोरी नहीं करूंगा। जब भी ऐसा अवसर आए, तो वह चोरी नहीं करता है। ये एक भीतरी अनुशासन हैं और बाहरी कोई अनुशासन नहीं है।
अनियामकपन, टु बी अनडिसिप्लिण्ड। इट इज़ बेटर टु यूज अनडिसिप्लिण्ड दैन इनडिसिप्लिण्ड, अनुशासनमुक्त, अनुशासनहीन नहीं। क्योंकि हीन कहना ठीक नहीं। उसके भीतर एक नया अनुशासन जन्म गया, इसलिए बाहर के अनुशासन हटा लिए गए।
लेकिन कोई अगर सोचता हो—और ऐसा मन में होता है, और कई को हुआ, और उससे बहुत उपद्रव इस मुल्क में पैदा हुए—कोई अगर सोचता हो कि यह तो बहुत बढ़िया बात हुई। संन्यासी हो जाएं और अनियामकपन में प्रवेश कर जाएं। अनियामकपन बड़े नियमन से आता है। अनियामकपन की स्थिति और हैसियत बड़ी यात्रा से पैदा होती है। बड़ी साधना से जन्मती है। कोई सोचे कि हम यहीं, इसी क्षण अनियम में उतर जाएं, तो सिर्फ अराजकता में उतर जाएगा। और अराजकता में उतरकर बड़ा दुखी हो जाएगा। क्योंकि उसकी खुद की अपेक्षाएं दूसरों से तो यही रहेगी कि वे नियम पालन करें।
मुल्ला नसरुद्दीन पकड़ लिया गया है एक धोखे में। मजिस्ट्रेट पूछता है कि तुमने इस आदमी को धोखा दिया, जो तुम पर इतना भरोसा करता था? नसरुद्दीन कहता है, योर ऑनर, अगर यह भरोसा न करता, तो मैं धोखा कैसे देता! अगर मैं धोखा दे पाया, तो हम बराबर जिम्मेवार हैं। क्योंकि इसने भरोसा किया, तभी मैं धोखा दे पाया। अगर यह भरोसा ही नहीं करता, तो यह अपराध घटित ही नहीं होने वाला था। अगर सजा दी जाए, तो दोनों को बराबर दी जाए और मूल अपराधी यही है। हमारा नंबर तो दो है। नंबर एक यह है। इसने भरोसा कर लिया, हमने धोखा दे दिया। हमारा धोखा पीछे आया है।
धोखा देने वाला भी आपके भरोसे पर निर्भर होता है। अराजक जो अपने को बना रहा है, वह भी आपकी व्यवस्था पर निर्भर होता है।
अब आज हिप्पी हैं, या सारी दुनिया में जो नए युवक अराजक हैं, अनियामक हुए जा रहे हैं, नियम छोड्कर जी रहे हैं, हमें खयाल में नहीं है कि वे हमारी व्यवस्था पर निर्भर हैं। अगर हम पूरी व्यवस्था तोड़ दें, हिप्पी इसी वक्त मिट जाए जी नहीं सकता। वह जी रहा है इसलिए कि बड़ी व्यवस्था जारी है। जिसको हम क्रांतिकारी कहते हैं, वह जी नहीं सकता, अगर वे लोग न बचें, जो कन्‍फर्मिस्ट हैं। एक आदमी अगर रंग—बिरंगे, बेढब कपड़े पहनकर बाजार में खड़ा हो जाता है, तो वह इसीलिए खड़ा हो पा रहा है कि बाकी लोग व्यवस्थित ढंग के कपड़े पहनकर चल रहे हैं। अगर बाकी लोग भी सब वैसे ही कपड़े पहनकर खड़े हो जाएं, वह आदमी भाग खड़ा होगा। वह वहा चौराहे पर फिर खड़ा होने वाला नहीं, क्योंकि एग्जीबीशन का फिर कोई अर्थ ही न रहा। हो सकता है, वह आदमी व्यवस्थित कपड़े पहनकर चौरस्ते पर खड़ा हो जाए, क्योंकि भिन्न दिखाई पड़ने में उसे रस आ रहा था। जो लोग नियम तोड़ने में रस ले पाते हैं, वे इसीलिए ले पाते हैं कि नियम चारों तरफ जारी हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन अदालत में लाया गया है एक बार। और मजिस्ट्रेट ने कहा कि हजार दफे तुम्हें कहा मुल्ला कि शराब पीना बंद करो। फिर तुम आ गए वापस वही जुर्म में! मुल्ला ने कहा, योर ऑनर, आई फेल इनटु ए बैड कंपनी, मुझे बुरे लोगों का साथ मिल गया। मजिस्ट्रेट ने कहा कि यह मैं न मानूंगा। कैसे बुरे लोग? नसरुद्दीन ने कहा, पूरी बोतल शराब की थी और तीनों ऐसे थे कि कहते थे, शराब न पीएंगे। तीनों जिद्दी थे। तीनों कहने लगे, हमने शराब पीना बंद कर रखी है, हम शराब नहीं पीते। ऐसी बुरी कंपनी मिल गई, पूरी बोतल मुझे ही पीनी पड़ी। सो आई फेल इन ए बैड कंपनी, उसका यह फल है। यह जिम्मा मेरा नहीं। वे तीनों दुष्ट अगर थोड़ी भी पी लेते, बंटा लेते, तो यह उपद्रव पैदा होने वाला नहीं था। पूरी शराब मुझे ही पीनी पड़ी।
अगर सारी दुनिया बेईमान हो जाए बेईमानी गिर जाए। अगर सारे लोग चोर हो जाएं, चोरी गिर जाए। चोरी को भी खड़े होने के लिए अचोर का साथ चाहिए। और जो चोर है, वह अपेक्षा करता है कि आप चोरी न करेंगे। आप चोरी न करेंगे।
इस व्यवस्था के भीतर संन्यासी अव्यवस्था पैदा नहीं करता है। सिर्फ उन बीमारियों के बाहर हो जाता है, जिनको व्यवस्थित करने के लिए व्यवस्था थी। ही ट्रांसेन्द्स, वह अतिक्रमण कर जाता है। और वह आपसे कोई अपेक्षा नहीं करता। और जो भी उस पर घटित हो जाए, उसके अनियामकपन मैं जो भी परिणाम आ जाए, वह उसके लिए राजी होता है।
डायोजनीज नग्न घूमता था। तो पुलिस ने उसे पकड़ लिया। तो वह चला गया। वह जेलखाने मैं बैठ गया। सम्राट ने उसे बुलाया और कहा कि डायोजनीज, तूने कोई विरोध न किया! तो उसने कहा, कोई अपेक्षा ही न थी। विरोध तो तब हो, जब अपेक्षा हो। नग्न रहना हमारी मौज है, बंद करना तुम्‍हारी मौज है, हम राजी हैं। बात खतम हो गई। इसमें विरोध कैसा? अगर हम यह मानकर चले कि हम नम्‍न रहेंगे और तुम बंद मत करो, तब झंझट खड़ी होगी। जब हम अपने लिए स्वतंत्र हैं, तुम भी स्वतंत्र हो। तुम नंगे आदमी को नहीं घूमने देना चाहते सड़क पर, तुमने बंद किया। हम नंगे रहना चाहते हैं, हम जेल के भीतर नंगे रहेंगे। कहीं कोई उपद्रव नहीं है, डायोजनीज ने कहा, कोई विरोध नहीं। हमारा मत बिलकुल एक है। हम दोनों का मतैक्य है। सम्राट ने कहा, इस आदमी को छोड़ दो, क्योंकि यह आदमी नियम के बाहर हो गया। इस पर नियम का कोई अर्थ ही न रहा। हम इसको सजा नहीं दे सकते।
मुझे खुद बचपन में व्यायाम का बहुत शौक था। तो मेरे एक शिक्षक थे। जब मैं उनकी क्‍लास में गया—उनके दंड देने की बात यह थी कि वे कहते थे, पच्चीस उठक—बैठक लगाओ——तो जब भी में मुझसे कहते कि पच्चीस उठक—बैठक लगाओ, मैं सौ लगा जाता, क्योंकि मुझे उसका मजा ही था। उन्होंने मुझसे कहा कि यह नहीं चलेगा। हम कह रहे हैं पच्चीस लगाओ और तुम सौ लगा रहे हो। उनकी पक्की व्यवस्था थी उठक—बैठक लगाने की। उन्होंने मुझे एक ही दफा लगवाई, फिर नहीं लगवाई। मैंने दों—चार दफे उनसे पूछा कि यह गलती मुझसे हो गई, उठक—बैठक लगाऊं? उन्होंने कहा, छोड़ो भी उठक—बैठक की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि उठक—बैठक लगवाने का मजा तभी तक है, जब ता, लगाने वाला दुखी हो रहा हो। लगाने वाला प्रसन्न हो रहा है।
फिर तो मुझे तरकीब हाथ लग गई। फिर मुझे कोई शिक्षक दंड नहीं दे पाया। एक शिक्षक थे। मैं जरा कुछ गड़बड़ हो तो कमरे के बाहर कर देते थे। तो मैं कमरे के बाहर का आनंद लेने लगा। उन्‍होंने मुझसे कहा कि तुम्हें किस प्रकार का दंड दिया जाए! मैंने उनसे कहा, मुझे तो क्लास के बाहर, क्लास के भीतर से ज्यादा अच्छा लगता है। मजे से दंड दें।
हमारी जो व्यवस्था है, नियम है, वह तभी तक लागू है, तभी तक अर्थपूर्ण है, जब तक हम अप ने लिए अलग और दूसरे के लिए अलग नियम की मांग करते चले जाते हैं। संन्यासी जो अपने लिए मानता है, वही सबके लिए मानता है। फिर अनियामक हो सकता है। फिर कोई उसे नियम बांधने को कोई जरूरत नहीं है।
इन्हीं सूत्रों की वजह से जिन लोगों ने भी पश्चिम में पहली दफे उपनिषद पढ़े, वे घबरा गए कि इससे तो सब टूट जाएगा, सब नष्ट हो जाएगा। पर उन्हें पता नहीं कि कुछ आई नष्ट नहीं होगा, क्योंकि इस सूत्र तक आने के पहले संन्यासी जो यात्रा करता है, उसमें सब रोगों से मुक्त हो जाता है। अगर हम उससे कहते हैं, कोई दवा मत पीयो, तो तभी कहते हैं जब वह बीमार ही नहीं रह जाता। हम उससे कहते हैं, दवा फेंक दो।
मुल्ला नसरुद्दीन बीमार है। डाक्टर ने उससे कहा, जब वह ठीक हो गया दस दिन बाद, तो उसने पूछा, डिड यू फालो द इंस्ट्रक्यांस गिवेन ऑन द मेडिसिन? मुल्ला ने कहा कि नहों, आई बिकेम आलराइट बिकाज आई डिडंट फालो द इंस्ट्रक्यास एंड डिडंट फालो द मेडिसिन। डाक्टर ने कहा, मतलब! मुल्ला ने कहा, सात मंजिल ऊपर से तुम्हारी दवाई मैंने फेंकी। अगर उसके पीछे मैं फालो करूं, तो फैसला हो जाए। तुम्हारा प्रिस्कि्रपान भी उसी में रख दिया था। सब फेंक दिया, बच गया। अगर दवाई का पीछा करता या अनुसरण करता, तो मरते।
हम जिन नियमों का अनुसरण करके जीते हैं, जिनके बिना हमें लगता है हम जी ही न सकेंगे, उसका कारण है भीतर छिपी हुई बीमारियां। बीमारियां ही न हों, तो इन नियमों का पीछा जो करेगा, मरेगा, झंझट में पड़ेगा। अगर संन्यासी नियमों का पालन करेगा, तो झंझट में पड़ेगा, रुग्ण होगा, परेशान हो जाएगा। क्योंकि जो बीमारी ही नहीं है, उसकी दवा पीता रहेगा।
इसलिए ऋषि कहता है, अनियामकपन ही उनकी निर्मल शक्ति है।
अब यह बहुत अदभुत बात है, निर्मल शक्ति। हम तो मानते हैं कि डिसिप्लिन क्रिएट्स फोर्स, डिसिप्लिन इज पावर। तो सब मानते हैं कि शक्ति तो अनुशासनबद्ध होने में है। मिलिट्री की ताकत यही है कि वह अनुशासनबद्ध है। और जितनी अनुशासनबद्ध है, उतनी शक्तिशाली है। शक्ति तो पैदा होती है अनुशासन से। यह ऋषि कहता है कि अनियामकपन ही उनकी निर्मल शक्ति है। यह कोई और ही शक्ति की बात है, पर इसमें निर्मल लगाया उसने।
असल में ऐसा समझें कि अनुशासन से जो शक्ति पैदा होती है, वह दूषित होती है। और इसलिए जहां—जहां हमें दूषित शक्ति का उपयोग करना पड़ता है, वहा डिसिप्लिन थोपनी पड़ती है। चाहे वह पुलिस हो और चाहे अदालत का कानून हो और चाहे सेना हो, जहां—जहां हमें कुछ उपद्रव खड़ा करना पड़ता है, या उपद्रव को दबाने के लिए कोई दूसरा उपद्रव उसके प्रतिकार में खड़ा करना पड़ता है, वहां—वहां दूषित शक्ति का उपयोग होता है। दूषित शक्ति तथाकथित अनुशासन से पैदा होती है।
अगर हिटलर इस दुनिया में इतना उपद्रव कर सका, तो वह जर्मन कौम की अनुशासित होने की क्षमता की वजह से। भारत में हिटलर पैदा नहीं हो सकता। लाख उपाय करे वह, यहां उपद्रव वह नहीं करवा सकते, क्योंकि अनुशासन ही पैदा करवाना मुश्किल है। जर्मन कौम की जो प्रतिभा है, वह यह है, अनुशासित होने की क्षमता। इसलिए जर्मन कौम से सदा खतरा रहेगा अभी। वह कभी भी उपद्रव में पड़ सकता है। क्योंकि कोई भी अगर ठीक से आवाज दे, तो जर्मन कौम अनुशासित हो सकती है। वह उसके खून में और हड्डी में समा गया है।
हम भारतीय हैं, हमारी खून और हड्डी में अनुशासन नहीं है। उसके कारण, वह सौभाग्य है ऐसे, क्योंकि उसकी वजह से हमने भला कितने दुख सहे हों, लेकिन हमने किसी को दुख नहीं दिया। हमने भला कितनी गुलामी सही हो, लेकिन हम किसी को गुलाम बनाने नहीं गए। उसके जाने के लिए बहुत अनुशासित होना जरूरी है। वह काम हमसे नहीं हो सकता। और उसका कारण क्या है कि इस मुल्क में अनुशासन नहीं पैदा हुआ? उसका कारण है कि इस मुल्क का जो श्रेष्ठतम व्यक्ति था, वह अनुशासनमुक्त था। और श्रेष्ठतम को देखकर लोग चलते हैं।
हिटलर हमारा श्रेष्ठतम व्यक्ति नहीं है। नेपोलियन नहीं है, सिकंदर नहीं है, चंगेज नहीं है, तैमूर नहीं है। अगर हम ठीक से सोचें तो तैमूर, चंगेज, हिटलर, मुसोलिनी, स्टैलिन, माओ, इनके मुकाबले हमने इतिहास में भी आदमी पैदा नहीं किया। पांच हजार साल का इतिहास, इतनी बड़ी कौम, एक चंगेज हमने पैदा नहीं किया। हम कर नहीं सकते, क्योंकि शिखर उठाने के लिए पूरा भवन चाहिए, नीचे एक—एक ईंट चाहिए।
हम बुद्ध पैदा कर सके, महावीर पैदा कर सके, पतंजलि पैदा कर सके। ये बहुत और तरह के लोग़ा है—अनियामक। ये अनुशासनमुक्त, अनप्रेडिक्टेबल, इनकी कोई घोषणा नहीं कर सकता कि ये कल सुबह क्या करेंगे, क्या कहेंगे, क्या होगा, कुछ नहीं कहा जा सकता। हमने इस पृथ्वी पर एक और ही प्रयोग किया है। और शायद हमारा प्रयोग अंततः जगत के काम पड़ेगा। बीच में चाहे हमें कितनी ही तकलीफ उठा लेनी पड़ी हो, अंततः हमारा प्रयोग ही जगत के काम पड़ेगा।
आज पश्चिम के मनोवैज्ञानिक यह बात स्वीकार करने लगे हैं कि किसी भी कौम को बहुत ज्यादा डिसिप्लिन सिखाना अंततः युद्ध में घसीटने का रास्ता है। और अगर एक कौम भी डिसिप्लिण्ड हो जाएगी, तो वह युद्ध थोप देगी दूसरों पर। क्योंकि उसको पक्का भरोसा आ जाएगा कि तुमको हम गिट। सकते हैं, हमारे पास अनुशासनबद्ध शक्ति है। इसका मतलब यह हुआ कि मनोवैज्ञानिक कह रहे है कि अब बच्चों को डिसिप्लिन मत सिखाओ। अगर दुनिया से युद्ध मिटाना है, तो बच्चों को स्वतंत्रता दो, पंक्तिबद्ध मत खड़ा करो उनको। उनको यूनिफार्म मत पहनाओं। उनको व्यक्तित्व दो, भीड़ और समूह की व्यवस्था मत दो। तो दुनिया से युद्ध मिट सकते हैं, नहीं तो युद्ध नहीं मिट सकेगा।
कोई नहीं कह सकता कि आने वाले सौ वर्ष के भीतर भारत के ऋषियों ने जो कहा था, वह जगत का परम ज्ञान नहीं बन जाएगा। बन जा सकता है। उसका कारण है, क्योंकि पहली दफा अनुशासन के हाथ में इतने खतरनाक अस्त्र पड़ गए हैं कि अगर दुनिया अब अनुशासित हुई, तो नष्ट होगी, अब स च नहीं सकती। अब हमें उन दिशाओं में खोज करनी पड़ेगी, जहां व्यक्ति को हम इतना सरल कर देते है' कि वह नियममुक्त होकर जी सके।
पर अनियम से जो शक्ति आती है, वह बड़ी निर्मल है। फर्क उसका ऐसा समझें। शक्ति तो वह भी है। आग जलती है, तो गर्मी पैदा होती है। पास जाएं, तो जलन पैदा होती है। हाथ लगा दें, तो जल जाते हैं। लेकिन ठंडा आलोक भी होता है, जो सिर्फ स्पर्श करता है, लेकिन कोई ऊष्मा नहीं होती, कोई गर्मी नहीं होती। रात चांद भी निकलता है, उसका भी प्रकाश है। दिन में सूरज भी निकलता है, उसका भी प्रकाश है। लेकिन चांद का प्रकाश बड़ा शीतल है, आघात नहीं करता। छूता है, फिर भी स्पर्श का पता नहीं चलता, बहुत शीतल है।
शक्ति के भी दो रूप हैं, एक तो बहुत उष्ण, जब वह हिंसा बन जाती है और दूसरे को छेदने लगती है। और एक बहुत निर्मल और शीतल, चांद जैसी, जब वह दूसरे को सिर्फ सहलाती है, छूती है, लेकिन कहीं कोई आघात नहीं होता। पद—चाप भी नहीं होता, पैरों की आवाज भी नहीं मालूम पड़ती। बुद्ध आपके पास से निकल जाएं, तो ऐसे निकल जाते हैं जैसे कोई भी न निकला हो। लेकिन चंगेज खा निकले, तो ऐसा नहीं निकल सकता।
सुना है मैंने कि चंगेज जब किसी गांव पर हमला करता, तो उस गाव के सब बच्चों के सिर कटवाकर भालों में छिदवा देता। चंगेज चलता अपने घोड़े पर, उसके सामने दस—दस हजार बच्चों के सिर भालों पर छिदे रहते। किसी ने पूछा कि बच्चों को इन भालों पर छिदवाने का क्या मतलब है? ये बच्चे तुम्हारा क्या बिगाड़ रहे हैं? चंगेज ने कहा, पता कैसे चलेगा कि चंगेज इस गाव से गुजर गया? पीढ़ी दर पीढ़ी याद रहेगी कि चंगेज इस गांव से गुजरा था!
चंगेज एक गांव को लूटकर गांव के बाहर जंगल में ठहरा हुआ है। गांव की वेश्याओं को बुला लिया है उसने नृत्य के लिए। रात, तीन बजे रात तक वह नृत्य देखता रहा। अंधेरी रात है। वेश्याओं ने कहा, हम यहीं रुक जाएं? रात बहुत अंधेरी है और गांव तक जाना और निर्जन वन। चंगेज ने कहा, घबराओ मत। सैनिकों से कहा कि आगे बढ़ो और जिन—जिन गाव से इनको गुजरना हो, उनमें आग लगा दो। दस गांव में आग लगा दी गई। वेश्याएं रोशनी में वापस अपने गाव लौट गईं। किसी ने कहा कि इतनी सी छोटी बात के लिए! वेश्याओं को चार सिपाहियों के साथ भी भेजा जा सकता था। चंगेज ने कहा, याद कैसे रहेगा कि वेश्याएं चंगेज के घर से वापस लौट रही थीं!
एक तामसिक शक्ति है, जिसका मजा यही है कि वह आपको धूल चटा दे, जमीन पर गिरा दे, और बता दे कि मैं हूं। निर्मल शक्ति वह है, जो आपको कभी नहीं बताती कि मैं हूं। आप ही उसे खोजें, तो बामुश्किल खोज पाते हैं। बामुश्किल! आपको ही खोजने जाना पड़ता है, फिर भी बामुश्किल खोज पाते हैं। निर्मल शक्ति ऐसी अनुपस्थित होती है, जैसे परमात्मा अनुपस्थित है। पर ऐसी निर्मल शक्ति नियम से पैदा नहीं होती, आयोजना से पैदा नहीं होती, संगठना से पैदा नहीं होती। ऐसी शक्ति परम अनियामकपन में रहने से पैदा होती है।
संन्यासी परम अनियामकपन को ही अपना सूत्र, अपनी मर्यादा, अपना नियम मानता है।
स्वयं प्रकाश ब्रह्म में शिव— शक्ति से संपुटित प्रपंच का छेदन करते हैं ऐसे अनियामकपन को उपलब्ध हुई ऊर्जा, यह जो विराट प्रपंच है, इसको छेदकर परम ब्रह्म में प्रवेश कर जाती है। अगर जगत में कुछ बनाना हो तो तामसिक शक्ति चाहिए—दूषित, अंधेरी, ब्लैक। अगर इस जगत के पार जाना हो तो शुभ, ह्वाइट, निर्मल, शात, पगध्वनि—शून्य शक्ति चाहिए। अगर जगत में कुछ करना हो, तो अनुशासन के बिना नहीं होगा; और अगर जगत के प्रपंच के पार यात्रा करनी हो, तो सब अनुशासन छोड्कर परम अनुशासनहीनता में, परम अनुशासनमुक्ति में प्रवेश करना पड़ता है।
लेकिन यह वही कर सकता है, जो भयभीत नहीं है, मोहग्रस्त नहीं है, क्रोधी नहीं है, शोकग्रस्त नहीं है। वही कर सकता है। नहीं तो, भयभीत तो नियम बनाएगा।
नीत्से ने एक बहुत अदभुत बात कही है। नीत्से ने कहा है कि दुनिया में जो भी नियम बनाए गए हैं, वे कमजोर लोगों ने बनाए हैं, द वीकलिंग्स।
इस बात में थोड़ी सच्चाई है। शक्तिशाली क्यों नियम मानकर चले! शक्तिशाली कभी चलता भी नहीं रहा नियम मानकर। लेकिन निर्बल लोग भी हैं। अगर नियम न हो, तो निर्बल कहां टिकेंगे? तो निर्बल इकट्ठे होकर नियम को बनाते हैं। निर्बल की भीड़ इकट्ठी हो जाए तो सबल से ज्यादा सबल हो जाती है। नीत्से कहता था, डेमोक्रेसी इज एन एफर्ट टु डीधोन द पावरफुल। लोकतंत्र है, वह शक्तिशालियों को सिंहासन से नीचे उतारने के लिए है। वह कमजोरों का षड्यंत्र है, कासपिरेसी आफ वीकलिग्स। नियम बना लेती है भीड़। शक्तिशाली को नीचे उतार देती है। और शक्तिशाली को भी, अगर तथाकथित शक्तिशाली को, अगर पद पर रहना है, तो उसे भीड़ का अनुगमन करना पड़ता है।
इसलिए नेता अनुयायियों के भी अनुयायी होते हैं। दे आलवेज फालो देअर फालोअर्स। हमेशा पता रखते हैं कि किस तरफ लोग जा रहे हैं, उसी तरफ चले जाते हैं।
मुल्ला नसरुद्रीन एक इलेक्यान में खड़ा हो गया था। किसी टैक्स का मामला भारी था। सारी जनता में एक ही चर्चा थी कि वह टैक्स लगना कि नहीं लगना। और जिस गांव में मुल्ला नसरुद्दीन खड़ा था इलेक्शन के लिए, वह आधा गांव बंटा था टैक्स के पक्ष में और आधा टैक्स के खिलाफ। बोलने खड़ा हुआ। पूरे लोग इकट्ठे थे गांव के। सब बातचीत हो गई। लोगों ने कहा, यह सब तो ठीक है, टैक्स के बाबत क्या खयाल है? लगना चाहिए कि नहीं? मुल्ला दिक्कत में पड़ा। अगर कहे लगना चाहिए, तो आधी बस्ती खिलाफ हो जाती। कहे नहीं लगना चाहिए, तो भी आधी बस्ती खिलाफ हो जाती। किसके साथ हो? जनता ने आवाज दी। मुल्ला ने कहा, आई एम आलवेज विद माई फ्रेंड्स एंड यू आल आर माई फ्रेंड्स। मैं सदा अपने मित्रों के साथ हूं और इस गांव में सभी मेरे मित्र हैं। सभी ने ताली बजाई। क्योंकि सभी अपने मन में समझे कि मुल्ला अपने साथ है।
राजनीतिज्ञ ऐसे ही जवाब देता रहता है। जवाब उसके जवाब से बचने के लिए होते हैं, क्योंकि कोइ भी जवाब फंसा सकता है। इसलिए राजनीतिज्ञ के जवाब जवाब नहीं होते। सिर्फ जवाब दिखाई पड़ते है'। वह प्रश्नों से बचता है, क्योंकि सबका उसे साथ चाहिए। और वह देखता है आप किस तरफ जा रहे है, उसी तरफ चलने लगता है। अगर आप दो तरफ जा रहे हों, वह दोनों तरफ चलने लगता है। अगर आप तीन तरफ जा रहे हों, वह तीनों तरफ चलने लगता है। आप उसके देवता हैं।
यह जो संसार है, जिसे ऋषि प्रपंच कह रहा है, यह जो फैलाव है, इस फैलाव में जिसे गति करनी है, उसे गति तो बहुत चालाकी, बहुत हिंसा, बहुत बेईमानी, बहुत योजना से करनी पड़ती है। लेकिन इसका जिसे छेदन करना है, इसके पार जिसे जाना है, उसे किसी चालाकी की कोई जरूरत नहीं है। उसे किसी हिंसा की कोई जरूरत नहीं। उसे किसी को धोखा देने की कोई जरूरत नहीं। उसे किसी अनुशासन की कोई जरूरत नहीं। उसका होना पर्याप्त है, बस उसका निर्मल होना पर्याप्त है। उसका शात और मौन होना पर्याप्त है। फिर वह इस प्रपंच को पार करके परम ब्रह्म की यात्रा पर उसकी चेतना का तीर निकल जाता है।
जैसे इंद्रिय रूपी पत्रों से ढंका हुआ मंडल होता है ऐसे ही ढंकने वाले भाव और अभाव के आवरण को भस्म कर डालने के लिए वे आकाश रूप धारण कर लेते हैं।
यह आखिरी इस सूत्र का हिस्सा है।
मन ढांके हुए है चेतना को। जैसे कोई झील पत्तों से ढंक गई हो, ऐसा मन ढंका है विचारों से और विपरीत विचारों से—पॉजिटिव—निगेटिव बोथ। भाव और अभाव वाले विचार दोनों ही मन को ढांके हुए हैं। मन का एक हिस्सा कहता है, ईश्वर है; एक हिस्सा कहता है, नहीं है। मन का एक हिस्सा कहता है कि प्रेम करो; दूसरा हिस्सा कहता है, खतरा हो जाएगा; घृणा को कायम रखो, बाकी रखो। मन का एक हिस्सा कहता है, दान दे दो। दूसरा हिस्सा कहता है, दान भला दो, लेकिन जेब काटने का इंतजाम पहले कर लो। विपरीत मन छाए हुए हैं चेतना को। पत्तों ही पत्तों से भरी हुई चेतना ढंक गई है भीतर।
इससे कैसे मुक्त हों? क्या मन का कोई एक भाव चुन लें और विपरीत भाव का खंडन करते रहें, तो मुक्त हो जाएंगे?
नहीं हो पाएंगे। जो भी मन में चुनेगा, वह बंध जाएगा, क्योंकि विपरीत मिटाया नहीं जा सकता। वह उसका ही हिस्सा है। जैसे एक सिक्का होता है, उसके दो पहलू होते हैं। अगर आप सोचें कि इसका एक पहलू फेंक दें और दूसरा बचा लें, तो आप झंझट में पड़ेंगे। क्योंकि जो आप बचाएंगे, उसके साथ, जिसे आपको फेंकना था वह बच जाएगा। अगर आप फेंकेंगे, तो जिसे आपको बचाना था, वह फेंकने वाले के साथ फिंक जाएगा। आप झंझट में पड़ जाएंगे। सिक्के के दोनों पहलू संयुक्त हैं।
ऐसे ही मन का भाव और अभाव संयुक्त है, विधायक और नकारात्मक स्थिति संयुक्त है, घृणा और प्रेम जुड़े हैं, क्रोध और क्षमा जुड़े हैं, राग और विराग जुड़े हैं। अगर किसी ने कहा है कि मैं राग को काटकर और विरागी होता हूं तो वह विराग को ऊपर फैला लेगा, राग कहीं पीछे छिपकर बैठा रहेगा। इसलिए हमने एक तीसरा शब्द गढ़ा, और वह शब्द है वीतराग। उस वीतराग का अर्थ होता है, राग और विराग दोनों के पार। वीतराग का अर्थ विराग नहीं होता, क्योंकि विराग तो द्वंद्व का हिस्सा है। वीतराग का अर्थ होता है, दोनों के पार।
यह ऋषि कहता है, जिसे इन दोनों के पार होना है, उसे आकाश—भाव धारण करना पड़ता है।    यह आकाश—भाव क्या है? एक काला बादल आकाश में घूम रहा है, एक सफेद बदली का टुकड़ा घूम रहा है। दोनों आकाश में घूम रहे हैं, लेकिन आकाश दोनों में से किसी से भी आइडेंटिफाइड नहीं है। आकाश यह नहीं कहता कि मैं सफेद बादल हूं। आकाश यह नहीं कहता कि मैं काला बादल हूं। सूरज निकला, किरणें भर गईं आकाश में, आलोकित हो गया सब। रात आई, अंधेरा छा गया। सब ओर अंधकार भर गया। आकाश दोनों को देखता रहता है एक साथ। दोनों को जानता रहता है एक साथ। दोनों का साक्षी बना रहता है। आकाश न तो कहता कि मैं प्रकाश हूं और न कहता कि मैं अंधकार हूं। प्रकाश और अंधेरा आता—जाता है, आकाश अपनी जगह बना रहता है। न तो प्रकाश उसे मिटा पाता है, न अंधेरा उसे मिटा पाता है।
आकाश—भाव का अर्थ है, दोनों के पार, दोनों को आवृत्त करके, दोनों से भिन्न, दोनों का साक्षी बन जाना। न तो भाव से बंधें, न अभाव से बंधें; न तो राग से बंधें, न विराग से बंधें; न तो भोग से बधें, न त्याग से बंधें—दोनों के प्रति आकाश— भाव धारण कर लें। जस्ट बी ए स्पेस। आने दें राग को भी, जाने दें। आने दें विराग को भी, जाने दें। आप दोनों को घेरकर खड़े रहे—शून्य, साक्षी मात्र। ऐसे साक्षी दशा का नाम ही समाधि है।

आज इतना ही।

अब हम आकाश— भाव धारण करें।
दो ही दिन बचे हैं ध्यान के। कल आखिरी दिन होगा। कोई मित्र पीछे न रह जाएं। कोई नब्बे प्रतिशत मित्र ठीक से श्रम ले रहे हैं, दस प्रतिशत शायद थोड़े पीछे पड़ रहे हैं। वे भी पीछे न पड़े, थोड़ी हिम्मत जुटाएं, थोड़ा साहस, और छलांग लें। शरीर की थकान से न घबराएं। शरीर थक जाएगा, दो दिन बाद ठीक हो जाएगा। भयभीत न हों कि पैर में दर्द होने लगता है, कि गला जवाब देने लगता है, दो दिन बाद वे सब ठीक हो जाएंगे। छोटी—छोटी बातों को बाधा न बनाएं।
दूर—दूर फैल जाएं, ताकि नाचना—कूदना पूरे भाव से हो सके। आंख पर पट्टियां बांध लें। जिन पर पट्टियां न हों, उन्हें भी आंख फिर चालीस मिनट खोलनी नहीं है। दूसरों को बिलकुल भूल जाएं, आप अकेले ही हैं इस पर, इस जगह पर। पूरे पागल हो जाना है। पागल होने से कम में काम नहीं चलेगा बांध लें आंखें। दूर—दूर फैल जाएं। जिनको वस्त्र अलग करने हों, वे कर दें। बीच में भी खयाल आ जाए तो वस्त्र फेंक दें। कोई संकोच नहीं, दूसरे की कोई चिंता नहीं।
ठीक। अब शुरू करें!



1 टिप्पणी:

  1. @@@ संन्यासी का कोई मोह नहीं। इसलिए मैं कहता हूं संन्यासी के लिए मंदिर और मस्जिद और गुरुद्वारा एक है। कभी मस्जिद करीब हो, तो वहां प्रार्थना कर लें। और कभी गुरुद्वारा करीब हो, तो वहां प्रार्थना कर लें। और कभी मंदिर करीब हो, तो वहां प्रार्थना कर लें। और कुछ भी करीब न हो, तो कहीं भी बैठ जाएं। वहीं मंदिर है, वहीं मस्जिद है, वहीं गुरुद्वारा है। पर बड़े मोह होते हैं मन में।

    @@@@ osho nahi jante hain shyad ---- musalman kisi kafir ko masjid me ghusne nahi dete hain. kitne musalman osho ko padte hain ya dhyan shivir me dhyan karne jate hain?

    @@@@ osho ka ye bolne ka himmat nahi hai ki wo bole ------- musalman bhi kisi mandir ke murti ke aage ibadat kar le.
    kyonki wo jante hain ki is tarah agar wo bolenge to unka kya hal kiya jayega.

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