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बुधवार, 2 अक्तूबर 2013

कठोउपनिषद--प्रवचन-17

अमृत की उपलब्‍धि मृत्‍यु के द्वार परसतरहवां प्रवचन 


शंत चैका च हदयस्य नाद्यस्तासां मूर्धानमभिनि: सुतैका।
तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति विष्वंङ्न्या उत्क्रमणे भवन्ति।।16।।

अंगुष्ठमात्र: पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जनानां हृदये सन्निविष्ट:।
तं स्वाच्छरीराह्मवृहेन्दुंजादिवेषीकां धैयेंण
तं विद्याच्छुक्रममृतं विद्याच्छूक्रममृतमिति।। 17।।

मृत्युप्रोक्तां नचिकेतोऽथ लम्ब्बा विद्यामेतां योगविधिं च कृत्नम्।
ब्रह्मप्राप्तो विरजोडभूद्विमृत्युरन्योऽप्येवं वो विदध्यात्ममेव।।18।।



हृदय की (कुल मिलाकर) एक सौ एक नाड़िया हैं। उनमें से एक (नाड़ी) मूर्धा ( कपाल) की ओर निकली हुई है (इसे ही सुमुम्ना कहते हैं)। उसके द्वारा ऊपर के लोकों में जाकर (मनुष्य) अमृतत्व को प्राप्त हो जाता है। दूसरी एक सौ नाड़िया मरणकाल में (जीव को) नाना प्रकार की योनियों में ले जाने की हेतु होती हैं।।16।।

सबका अंतर्यामी अंगुष्ठमात्र परिमाण वाला परमपुरुष सदैव मनुष्यों के हृदय में भलीभांति प्रविष्ट है ( साधक) उसको मूव से सीकं की भांति अपने से (और) शरीर से धीरतापूर्वक पृथक करके देखे; उसी को विशुद्ध अमृतस्वरूप समझे (और) उसी को विशुद्ध अमृततत्व समझे।।17।।


इस प्रकार उपदेश सुनने के अनंतर नचिकेता यमराज द्वारा बतलाई हुई इस विद्या को और संपूर्ण योग की विधि को प्राप्त करके मृत्यु से रहित (और) सब प्रकार के विकारों से शून्य विशुद्ध होकर ब्रह्म को प्राप्त हो गया। दूसरा भी जो कोई इस अध्यात्म—विद्या को इसी प्रकार जानने वाला है वह भी ऐसा ही हो जाता है अर्थात मृत्यु और विकारों से रहित होकर ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है।।18।।


अमृत की उपलब्धि मृत्यु के द्वार पर


ह्रदय की कुल मिलाकर एक सौ एक कड़ियां हैं। उनमें से एक नाड़ी मूर्धा, कपाल की ओर निकली हुई है इसे ही सुमुम्ना कहते हैं। उसके द्वारा ऊपर के लोकों में जाकर मनुष्य अमृतत्व को प्राप्त हो जाता है। दूसरी एक सौ कड़ियां मरणकाल में जीव को नाना प्रकार की योनियों में ले जाने की हेतु होती हैं
योग का नाड़ियों के संबंध में अपना विशिष्ट विज्ञान है। आधुनिक शरीर—शास्त्र उससे राजी नहीं है। योग ने जिन नाड़ियों की चर्चा की है, वैज्ञानिक उस तरह की किसी भी नाड़ी को मनुष्य के भीतर नहीं पाते हैं। या जिन नाड़ियों को पाते हैं, उनसे योग के द्वारा प्रतिपादित नाड़ियों का कोई तालमेल नहीं है। योगियों ने इस संबंध में बड़ी चेष्टा भी की। विशेषकर पश्चिमी—शिक्षा प्राप्त योगियों ने या उन चिकित्सकों ने, शरीर—शास्त्रियों ने जो योग से परिचित हैं, योग की नाड़ियों और आधुनिक विशान के द्वारा खोजी गई मनुष्य की नाड़ियों के बीच तालमेल बिठाने की अथक चेष्टा की। पर वह चेष्टा पूरी नहीं हो सकती, क्योंकि बहुत मौलिक रूप से भ्रांत और गलत है। इस बात को ठीक से समझ लेना जरूरी है।
योग जिन नाड़ियों की बात करता है, वे ठीक इस भौतिक—शरीर की नाड़िया नहीं हैं। इसलिए इस भौतिक—शरीर में उन्हें नहीं पाया जा सकता है। और जो लोग भी कोशिश करते हैं कि इस भौतिक—शरीर की नाड़ियों से उनका तालमेल बिठा दें, वे योग का हित नहीं करते हैं, अहित करते हैं।
योग किसी और ही शरीर की बात कर रहा है, जिसे सूक्ष्म—शरीर कहते हैं। वह इस शरीर के भीतर ही छिपा हुआ है। लेकिन स्थूल नहीं है, सूक्ष्म है। सूक्ष्म से अर्थ है कि वह शरीर पदार्थगत कम, ऊर्जागत ज्यादा है। वह एनर्जी—बॉडी है या जिसको रूस के वैज्ञानिक बायो—इलेक्ट्रिसिटी कहते हैं, जीव—विद्युत कहते हैं, उसका शरीर है।
इस शरीर के ठीक भीतर छिपा हुआ विद्युत का एक शरीर है। इस बात पर अब वैज्ञानिक प्रमाण उपलब्ध हो गए हैं। और यह जो विद्युत का शरीर है, वही इस शरीर को भी चलाता है।
रूस में एक बहुत महान प्रयोग चल रहा है। एक वैज्ञानिक विचारक, चित्रकार और फोटोग्राफर है, जिसने एक नए ढंग की फोटोग्राफी विकसित की है—किर्लियान। यह फोटोग्राफी मनुष्य के, या पशुओं के, या पौधों के विद्युत—शरीर का चित्र लेती है। जैसे एक्स—रे से आपके भीतर की हड्डियों का चित्र आ जाता है। शरीर को एक्स—रे पार करके आपके भीतर के ढाचे को पकड़ लेती है, ठीक इसी तरह किर्लियान ने इस तरह की फोटोग्राफी विकसित की है जो आपके शरीर की ऊर्जा—देह को पकड़ती है।
यह ऊर्जा—देह जिन व्यक्तियों में एक सौ स्कर्वी नाड़ी में प्रविष्ट हो जाती है, यह ऊर्जा का प्रवाह, उनके मस्तिष्क के चारों तरफ एक आभामंडल, एक ऑस निर्मित हो जाता है। कृष्ण, बुद्ध, महावीर और क्राइस्ट उनके चित्रों के आसपास आपने एक आभामंडल बना देखा होगा। वह आभामंडल साधारण आखो से दिखाई नहीं पड़ता है। लेकिन जिस व्यक्ति के मस्तिष्क में, जिसे योग सुषुम्ना कहता है—एक सौ एकवीं नाड़ी जिसे योग ने कहा है—उसमें जब जीवन की ऊर्जा प्रविष्ट हो जाती है, तो सारे मस्तिष्क के चारों तरफ एक विद्युत का मंडल निर्मित हो जाता है।
यह विद्युतमंडल, जो लोग ध्यान को उपलब्ध हैं, उन्हें दिखाई भी पड़ने लगता है। जो जितने शांत हो जाते हैं, उतना ही यह विद्युतमंडल उन्हें दिखाई पड़ने लगता है; दूसरे के ऊपर भी दिखाई पड़ने लगता है। ऐसा विद्युतमंडल हर एक प्राणी के आसपास है। और वह विद्युतमंडल बताता है कि प्राणी किस अवस्था में है।
किर्लियान का कहना है कि कोई भी बीमारी मनुष्य के शरीर में प्रविष्ट हो, इसके पहले उसके विद्युत—शरीर में प्रविष्ट होती है। और यह फासला छह महीने का होता है। अगर आप टी बी से बीमार पड़ने वाले हैं तो छह महीने बाद.. आज आपका विद्युत—शरीर रुग्ण होगा, तो छह महीने बाद आपका भौतिक—शरीर रुग्ण होगा। विद्युत—शरीर से भौतिक—शरीर तक की यात्रा छह महीने में होगी।
किर्लियान का कहना है, यह जो विद्युत—ऊर्जा है, इसका चित्र अगर पकड़ लिया जाए, तो आदमी के बीमार होने के पहले हम उसे स्वस्थ कर सकते हैं। यह आधुनिकतम महानतम खोजों में से एक है। क्योंकि एक आदमी बीमार पड़ जाए, फिर उसे स्वस्थ करना अत्यंत कष्टपूर्ण है। बीमार पड़ने के पहले, यह भौतिक—देह बीमार पड़े इसके पहले इसे स्वस्थ किया जा सकता है।
लेकिन पता बीमार को भी नहीं चलता छह महीने पहले कि मैं बीमार पड़ रहा हूं। लेकिन विद्युत—शरीर पर प्रभाव अंकित हो जाते हैं। विद्युत—शरीर उदास हो जाता है, उसकी ऊर्जा धीमी पड़ जाती है। जैसे बल्व में अचानक विद्युत का प्रवाह कम हो गया हो, मंदा हो जाए, पीला हो जाए। जब व्यक्ति स्वस्थ होता है, तो उसकी शरीर की विद्युत प्रकाशित होती है। अपनी पूरी ऊर्जा में जगती है। और जैसे बीमार होने के करीब होता है, वैसे उसकी ऊर्जा मंदी हो जाती है। शरीर में विद्युत कम दौड़ रही है। छह महीने बाद भौतिक—शरीर उससे प्रभावित हो जाएगा। और अगर इसका पता चल जाए, तो पहले ही इलाज किया जा सकता है। मरीज के बीमार होने के पहले, मरीज को पता चलने के पहले कि वह बीमार हुआ, बीमारी से मुक्त हुआ जा सकता है।
इधर पच्चीस साल में इस दिशा में रूस में बहुत बड़ा कार्य हुआ है। कली खिलती है फूल की, उसके कई घंटों पहले कली के भीतर छिपा हुआ जो ऊर्जा—शरीर है वह खिल जाता है, कई घंटे पहले। जब वह ऊर्जा —शरीर खिल जाता है—जों हमें दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन किर्लियान उसके फोटो ले लेता है, उसने बड़ी संवेदनशील फिल्में निर्मित की हैं—जब वह विद्युत—शरीर खिल जाता है, कुछ घंटों बाद भौतिक—शरीर भी कली का खिल जाता है। एक गुलाब की बंद कली का किर्लियान फोटो लेगा, तो जैसा फोटो उसका विद्युत—शरीर का आएगा, बाद में जब फूल खिलेगा तो ठीक वैसा ही खिलेगा, जैसे पहले विद्युत—शरीर खिल गया था।
यह जो योग ने जिन नाड़ियों की बात की है, यह विद्युत—शरीर की बात है। इस भौतिक—शरीर से इसका कोई संबंध सीधा नहीं है। यद्यपि भौतिक—शरीर पर परिणाम होंगे। विद्युत—शरीर में जो भी अंतर पड़ेंगे, उसके भौतिक—शरीर पर भी परिणाम होंगे। इसलिए योगी अपनी मृत्यु छह महीने पहले बता सकता है। यह हमने बहुत बार सुना है। लेकिन किर्लियान ने छह महीने का फासला अभी वैशानिक रूप से सिद्ध किया है।
योग का अनुभव है कि ठीक मरने के छह महीने पहले विद्युत—ऊर्जा बिलकुल क्षीण हो जाती है। सिर्फ टिमटिमाने लगती है। उससे खबर मिल जाती है कि अब यह शरीर ज्यादा से ज्यादा छह महीने चल सकता है। मरते हुए आदमी को छह महीने पहले अपनी नाक दिखाई पड़नी बंद हो जाती है। और जब आपको अपनी नाक दिखाई पड़नी बंद हो जाए, तो आप समझना कि छह महीने के भीतर आप लीन हो जाएगी किर्लियान भी कहता है कि यह घटना घटती है।
कुछ संबंध नाक के सोचने जैसे हैं। आमतौर से नाक हमारे चेहरे पर अहंकार का प्रतीक है। उााएएर अहंकारी आदमी की नाक बता देती है। विनम्र आदमी की नाक बता देती है। नाक का ही सिर्फ अध्ययन किया जाए तो भी आदमी के बाबत बहुत कुछ बताया जा सकता है कि भीतर कैसा आदमी छिपा होगा। मृत्यु के छह महीने पहले अहंकार भीतर टूटने लगता है। इसलिए नाक का जो ऊर्जा— शरीर है वह तिरोहित हो जाता है। सबसे पहले शरीर में नाक का ऊर्जा—शरीर तिरोहित हो जाता है। और तब नाक को देखना मुश्किल हो जाता है। तब सिर्फ खाली खोल रह जाती है।
नाक इज्जत का प्रतीक है—अहंकार का। लोग कहते हैं कि खयाल रखना, नाक न कट जाए। लोग कहते हैं, अपनी नाक की प्रतिष्ठा सम्हालना। लोक में प्रचलित बातो का भी कहीं न कहीं गहरा कोई अर्थ होता है। अकारण तो कुछ भी प्रचलित नहीं होता।
पूरे चेहरे पर नाक में व्यक्तित्व है। नाक के हटते ही चेहरे से पूरा व्यक्तित्व खो जाता है। दो आदमियों की नाक एक जैसी नहीं होती। जैसे दो आदमियों के अंगूठे का चिह्न एक जैसा नहीं होता, ऐसे ही दो आदमियों की नाक एक जैसी नहीं होती। बड़ा सूक्ष्म अहंकार वहा भेद करता है।
इस शरीर के ठीक पीछे, ठीक इस शरीर के भीतर समाया हुआ एक विद्युत—शरीर है। यह विद्युत—शरीर हम अपने साथ लेकर चलते हैं। पिछले जन्म में जब आप समाप्त हुए तो आपकी भौतिक देह गिर गई, लेकिन आपका विद्युत—शरीर, सूक्ष्म—शरीर, ऐस्ट्रल—बॉडी, या जो भी नाम आप देना चाहें, वह आपका मुक्त हुआ। नए गर्भ में वही सूक्ष्म—शरीर प्रविष्ट होता है।
यह जो सूक्ष्म—शरीर है, तभी नष्ट होता है जब कोई व्यक्ति समाधि को उपलब्ध हो जाता है। और इसीलिए सूक्ष्म—शरीर के नष्ट हो जाने के बाद जन्म का कोई उपाय नहीं। फिर शरीर में आप प्रवेश नहीं कर सकते। शरीर और आपके बीच एक विद्युत की धारा का सेतु है। जब वह टूट जाए तो फिर आप नए शरीर में प्रवेश नहीं कर सकते।
साधारण आदमी जब मरता है, तो भौतिक—शरीर ही मरता है। और जब असाधारण आदमी मरता है—ज्ञान को उपलब्ध आदमी मरता है—तो उसका विद्युत—शरीर मरता है। विद्युत—शरीर के मरते ही चेतना मुक्त हो जाती है देह से, और नई देहों में प्रवेश बंद हो जाता है।
मरते वक्त व्यक्ति जिस तरह की ऊर्जा को लेकर चलता है, उसी तरह की योनि में प्रवेश करता है। यह आपने सुना होगा—वह भी एक लोकोक्ति है और बड़ी सार्थक है। क्योंकि हजारों—हजारों साल तक जब कुछ लोग किसी बात को मानते हैं, तो उसके पीछे कहीं न कहीं कोई तत्व, कहीं न कहीं कोई बीज छिपा होता है।
आपने सुना होगा कि इतनी की मृत्यु कपाल को फोडकर होती है। उसकी ऊर्जा मस्तिष्क से फूटकर बाहर जाती है। कामी की मृत्यु जननेंद्रिय से होती है। और अलग—अलग मृत्युएं अलग— अलग तलों से होती हैं। सभी लोग एक जैसे नहीं मरते। न तो सभी लोग एक जैसे जीते हैं और न सभी लोग एक जैसे मरते हैं। हम जीने में भी व्यक्तित्व रखते हैं और मरने में भी।
सिर्फ इस कारण, यह अनुभव में आ जाने के कारण कि ज्ञानी की मृत्यु कपाल को फोड़कर होती है, हिंदुओं ने अपने मुर्दे के कपाल फोड़ने शुरू कर दिए। तो बेटा जाकर बाप का सिर तोड़ता है लाठी से। यह सिर्फ चिह्न है। मरे हुए बाप का सिर फोड़ने से कुछ अर्थ नहीं है। वह तो प्राण जा चुका। लेकिन प्रतीक रह गया। क्योंकि परम ज्ञानियों की मृत्यु कपाल को फोड़कर हुई है और वे परम अवस्था को उपलब्ध हुए हैं तो हर बेटा चाहता है कि उसका पिता भी परम अवस्था को उपलब्ध हो। इसलिए हम कपाल फोड़ते रहे हैं।
लेकिन मरे हुए आदमी का कपाल फोड़ने से कोई अर्थ नहीं है। और आपके फोड़ने से कोई भी फर्क नहीं पड़ता। व्यक्ति स्वयं ही अपनी ऊर्जा को ऊपर उठाकर जब कपाल तक ले आता है, तभी कपाल फोडकर मृत्यु होती है। और जिस केंद्र से मृत्यु होती है, शरीर में जिस केंद्र से प्राण बाहर होते हैं उससे पता चलता है कि आप किस योनि में जाएंगे। यह योनियों का पूरा विज्ञान है।
योग कहता है, एक सौ एक हृदय में नाड़िया हैं। सौ नाड़िया संसार में ले जाती हैं और एक नाड़ी मोक्ष में ले जाती है। वे जो सौ नाड़िया हैं, सौ रास्ते हैं। और उन सौ नाड़ियों पर, विभिन्न—विभिन्न नाड़ियों पर विभिन्न योनियों की यात्रा हो जाती है। कौन व्यक्ति किस नाड़ी के द्वार से जीवन के बाहर जा रहा है, इस शरीर के बाहर जा रहा है, उससे ही तय हो जाता है कि वह किस योनि में प्रवेश करेगा।
सिर्फ एक अयोनि—नाड़ी है, जिससे फिर संसार में कोई प्रवेश नहीं होता, जीवन ऊर्ध्वगमन को उपलब्ध हो जाता है। उस एक नाड़ी का नाम सुषुम्ना है। और कैसे ऊर्जा जीवन की उस नाड़ी में प्रवेश करे, यही पूरे योग का सार है; कैसे जीवन—ऊर्जा ऊपर उठे और उस एक नाड़ी में प्रविष्ट कर जाए, जहां से संसार से संबंध छूट जाता है।
साधारणतया हमारी ऊर्जा काम—केंद्र पर इकट्ठी है, सेक्स सेंटर पर इकट्ठी है। प्रकृति को वहीं जरूरत है। प्रकृति को आपकी बहुत चिंता नहीं है। आपकी सतत धारा न टूट जाए इसकी ज्यादा चिंता है। आप मिटें या बनें, यह बड़ा सवाल नहीं है, लेकिन आपका बच्चा और बच्चों के बच्चे होते रहें।
प्रकृति संतति में उत्सुक है, व्यक्तियों में नहीं। धारा चलती रहे। इसलिए काम का इतना प्रभाव है, कि आप लाख उपाय करते हैं तो भी कामवासना पकड़ लेती है। क्योंकि प्रकृति इतना बल देती है उस केंद्र पर कि आप बिलकुल अवश हो जाते हैं। काम आपको पकड़ लेता है। वासना आपको घेर लेती है।
आपकी सारी ऊर्जा काम—केंद्र पर इकट्ठी है। और उस ऊर्जा का एक ही बहाव है, वह है कामवासना में। यही ऊर्जा ऊपर की तरफ लानी है। इसे ही ऊपर उठाना है। ये दो छोर हैं—मस्तिष्क, जिसे हम सहस्रार कहते हैं और काम—केंद्र, जिसे हम मूलाधार कहते हैं। ये दो छोर हैं।
मूलाधार में ऊर्जा इकट्ठी है। और वहां से उसे सहस्रार तक लाना है। और बीच की जिस नाड़ी से यात्रा होगी, वह सुषुम्ना है, जिससे ऊर्जा ऊपर, और ऊपर, और ऊपर उठेगी। यह बिलकुल ही वैज्ञानिक घटना है—ऊर्जा का ऊपर उठना। और इस ऊर्जा के ऊपर उठते ही व्यक्ति के व्यक्तित्व में रूपांतरण होने शुरू हो जाते हैं। जिस जगह ऊर्जा होती है, वैसा ही व्यक्तित्व बदल जाता है।
इसे हम ऐसा समझें। एक छोटा बच्चा है, अभी उसे कामवासना का. कुछ भी पता नहीं है। कामवासना उसमें छिपी है, लेकिन अभी काम का केंद्र सक्रिय नहीं हुआ। जैसे ही वह प्रौढ़ होगा काम की दृष्टि से काम का केंद्र सक्रिय होगा, तो उसका सारा मन, सारा व्यक्तित्व, सारा आचरण कामवासना से भर जाएगा। सोचते, उठते, बैठते, स्वप्न देखते कामवासना उसे घेर लेगी। सब तरफ एक ही रस रह जाएगा। क्या हुआ? यह सारे व्यक्तित्व में इतना रूपांतरण अचानक!
इसलिए चौदह वर्ष से लेकर अठारह वर्ष के बीच बच्चे बड़ी बेचैनी और तकलीफ में पड़ जाते हैं। उनकी खुद की भी समझ में नहीं आता कि क्या हो रहा है। यह उम्र चौदह से अठारह के बीच की बड़ी बेचैनी की उम्र है। न वे किसी को कह सकते हैं, न कोई उन्हें कुछ बताता। और उनके भीतर इतने रूपांतरण हो रहे हैं और उनका सारा चित्त कामवासना से इस बुरी तरह घिर गया है कि कुछ और उन्हें सूझता भी नहीं। कुछ और सूझ भी नहीं सकता। यह जो घटना घटती है, यह घटना घटती है काम—केंद्र के सक्रिय होने से।
जिस दिन सहस्रार सक्रिय होता है, उस दिन फिर ऐसी घटना घटती है। उस दिन व्यक्ति इसी तरह परमात्मा से भर जाता है, जैसे काम—केंद्र के सक्रिय होने पर कामना से, वासना से घिर जाता है। और जिस दिन सहस्रार पर प्रगट होती है ऊर्जा, उस दिन सब तरफ सिवाय परमात्मा के कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। काम—केंद्र पर प्रकृति पकड़ लेती है, सहस्रार पर परमात्मा पकड़ लेता है।
कैसे यह ऊर्जा ऊपर की तरफ जाए यही सवाल है। पहली तो बात कि जब भी मन में कामवासना उठे, तब आप आंख बंद करके सारे काम—यंत्र को ऊपर की तरफ खींच लेना। जैसे ऊर्जा नीचे जा रही है सारे काम—यंत्र को आप ऊपर की तरफ सिकोड़ लेना, काट्रेक्ट कर लेना। और सिर्फ एक ही धारणा भीतर करना कि यह ऊर्जा जो काम—केंद्र को प्रभावित कर रही है, ऊपर की तरफ बह रही है, उठ रही है।
थोड़े ही दिन प्रयोग करके आप चकित हो जाएंगे कि जब भी कामवासना उठे, तभी अगर आप काम—यंत्र को पूरा का पूरा ऊपर की तरफ खींच लें, भीतर सिकोड लें, तत्कण काम—केंद्र रिक्त हो जाएगा ऊर्जा से। और आप पाएंगे कि आपकी रीढ़ में कोई गर्म तत्व ऊपर की तरफ उठ रहा है। यह स्पष्ट अनुभव होगा कि कोई गर्मी ऊपर की तरफ बह रही है। कभी—कभी तो गर्मी इतनी साफ होती है कि दूसरा व्यक्ति भी आपकी रीढ़ छुए तो कह सकता है कि कुछ आग ऊपर की तरफ जा रही है।
शीर्षासन का यही उपयोग है कि जब कामवासना उठे, तो आप जोर से सारे यंत्र को ऊपर की तरफ सिकोड़कर अगर सिर के बल खड़े हो जाएं, तो काम—ऊर्जा की यात्रा आसान हो जाएगी। क्योंकि कोई भी ऊर्जा नीचे की तरफ बहना सुगम पाती है, जैसे पानी नीचे की तरफ बहता है। अगर आप शीर्षासन में खड़े हों और काम—ऊर्जा को ऊपर की तरफ खींच रहे हों—अर्थात शीर्षासन में खड़े होकर नीचे की तरफ खींच रहे हों—तो सिर की तरफ ऊर्जा बहने लगेगी।
शीर्षासन सिर्फ व्यायाम नहीं है, शीर्षासन ब्रह्मचर्य का गहरा प्रयोग है। और अगर आप काम—ऊर्जा के साथ उसे जोड़ सकें तो आप थोड़े ही दिन में पाएंगे कि आपके मस्तिष्क में कुछ नई घटना घट रही है। कोई प्रवाह आ गया है। जैसे कोई बाढ़ आ गई हो। भीतर एक—एक रज्यू, एक—एक स्नायु कैप रहा है कंपित हो रहा है। भीतर एक गुनगुनाहट मस्तिष्क में सुनाई पड़नी शुरू हो जाएगी। जैसे कोई सन्नाटा भीतर बज रहा हो, जैसे बहुत—सी मधुमक्खिया भीतर शोर कर रही हों।
यह शोर, भीतर यह झनझनाहट मस्तिष्क में बड़ी शुभ खबर है। यह इस बात की खबर है कि ऊर्जा मस्तिष्क में आ गई है। और इस ऊर्जा को मस्तिष्क तक लाना ही आपका काम है, सहस्रार तो अपने आप खिलना शुरू हो जाएगा। जैसे ही उस कली को शक्ति मिलनी शुरू हुई कि वह कली खिलनी शुरू हो जाएगी। उसके खिलते ही अमृत की वर्षा हो जाती है। आनंद की वर्षा हो जाती है। जो कभी नहीं जाना ऐसा रस, जो कभी नहीं जाना ऐसी मधुर अनुभूति, जो कभी नहीं जानी ऐसी अलौकिक प्रतीति होनी शुरू हो जाती है।
फिर आप रहते इसी जमीन पर हैं, चलते इस जमीन पर नहीं। पैर यहीं पड़ते हैं, बस दूसरों को दिखाई पड़ते हैं, आपके पैर फिर इस जमीन पर नहीं पड़ते। आप फिर आकाश में जैसे उड़ते हैं। एकदम सब हल्का हो जाता है। जमीन की जो कशिश है, जो ग्रेविटेशन है, वह खो जाता है। वे जो कथाएं हैं कि योगी जमीन से उठ जाता है, वे कभी—कभी सच हुई हैं। लेकिन एक बात तो निश्चित सच है, जिसकी भी ऊर्जा सहस्रार में प्रवेश करती है, सुषुम्ना के द्वार से होकर सहस्रार में चली जाती है, वह अचानक पाता है कि जमीन से उठ गया है।
अगर आप ध्यान करते हुए बैठे हैं और ऐसी घटना घटेगी, तो आप आंख बंद करे पाएंगे कि आप जमीन से कम से कम चार बलिश्त ऊपर उठ गए हैं। आंख खोलकर शायद आप पाएं कि जमीन पर बैठे हुए हैं, उठे नहीं। क्योंकि जो उठ रहा है शरीर, वह भीतर का ऊर्जा—शरीर है। लेकिन कभी—कभी यह प्रवाह इतना तेज होता है कि यह भौतिक शरीर भी उसके साथ ऊपर उठ जाता है। पर यह कभी—कभी होता है। लेकिन ऊर्जा—शरीर तो निरंतर ऊपर उठता है, जिसकी भी ऊर्जा भीतर प्रवेश करती है।
यूरोप में एक महिला है, जो चार फीट ऊंचा उठ जाती है, सिर्फ शांत बैठकर। उसके हजारों चित्र लिए गए हैं। और सब तरह के वैज्ञानिक प्रयोग किए गए हैं। और उनकी समझ के बाहर है कि क्या हो रहा है। क्योंकि जमीन के ऊपर उठना बड़ी अदभुत बात है, क्योंकि जमीन खींच रही है पूरी ताकत से। ग्रेविटेशन का नियम—उसको तोड़ना है यह। और जब उस महिला को पूछा गया कि वह करती क्या है, तो उसने कहा, मैं कुछ करती नहीं। बस मैं एकदम शांत और शांत और शांत होती चली जाती हूं। जैसे ही एक शाति का क्षण आता है जब कुछ भी विचार भीतर नहीं रह जाते, अचानक मैं पाती हूं ऊपर उठ गई। वह चार फीट ऊपर चली जाती है।
सैकडों लोग जमीन पर सैकडों बार ऊपर उठे हैं। लेकिन इस शरीर के ऊपर उठने का कोई बड़ा मूल्य नहीं है। वह एक तमाशा है। पर भीतर का शरीर ऊपर उठ जाए, उसका बड़ा मूल्य है। क्योंकि उसके ऊपर उठते ही जमीन के जो—जो आप पर प्रभाव थे, वे नष्ट हो जाते हैं।
जमीन के प्रभाव गहरे हैं। जैसा मैंने आपसे कहा, आपका सारा शरीर हार्मोन, रसायन—तत्वों से बना हुआ है। जमीन से ही सारे तत्व आपको मिले हैं। और जमीन आपको प्रतिपल नीचे खींच रही है। जमीन सिर्फ चीजों को ही नीचे नहीं खींच रही है, आपके व्यक्तित्व को, आपके मन को भी नीचे खींच रही है। जिस दिन आपकी ऊर्जा भीतर उठ जाती है, आप एक गुब्बारे की तरह हो जाते हैं। आप इतने हल्के हो जाते हैं, कि जमीन आपको खींच नहीं सकती।
ग्रेविटेशन जैसे एक नियम है, ऐसा ही योग में एक नियम है लेविटेशन। गुरुत्वाकर्षण नीचे खींचता है। एक और आकाशीय—आकर्षण है जो ऊपर खींचता है। लेकिन आपके भीतर की घटना पर निर्भर करता है कि आप ऊपर से प्रभावित होंगे कि नीचे से। अगर आपकी ऊर्जा नीचे के केंद्र पर है, तो नीचे से प्रभावित होंगे। आपकी ऊर्जा ऊपर के केंद्र पर है, तो ऊपर से प्रभावित होंगे।
जब भी कामवासना जगे, तब आंख बंद करके काम—यंत्र को ऊपर सिकोड़ लेना और धारणा करना कि शक्ति ऊपर की तरफ जा रही है। तत्‍क्षण काम—केंद्र शिथिल हो जाएगा। और रीढ़ में कोई चीज सरकती हुई, जैसे बहुत चींटियां ऊपर की तरफ जा रही हों, या कोई उत्तप्त चीज ऊपर की तरफ बह रही हो, कोई लावा पिघलकर ऊपर की तरफ बह रहा हो, वैसा प्रतीत होगा। जैसे यह प्रतीत हो, खुश होना, आनंदित होना, इसे अहोभाव से स्वीकार करना। और इसे ऊपर खींचने के जितने भी प्रयोग कर सकें, करना।
अगर शीर्षासन न बन सके, तो भी आदमी इतना कर सकता है कि किसी स्लोप पर, ढाल पर लेट जाए, सिर नीचे की तरफ करके; या पलंग ऐसा बना ले कि नीचे के दोनों पैर ऊंचे हों, सिर की तरफ के पैर नीचे हों और पलंग पर लेट जाए और सिर्फ भाव करे कि ऊर्जा ऊपर आ रही है। जैसे—जैसे ऊर्जा ऊपर आएगी, विचार कम होते जाएंगे। या, विचार कम होते जाएं, तो ऊर्जा ऊपर आने लगती है। ये दोनों संयुक्त घटनाएं हैं।
हठयोग ऊर्जा को ऊपर लाने की कोशिश करता है। राजयोग विचार से मुक्ति करने की कोशिश करता है। दोनों एक ही दिशा में यात्रा करते हैं। हठयोग की फिक्र है कि ऊर्जा ऊपर आ जाए, इसलिए शीर्षारान है, मुद्राएं हैं, जिनके द्वारा ऊर्जा को ऊपर खींचा जा सकता है। बंध हैं, जिनसे ऊर्जा को ऊपर की तरफ खींचा जा सकता है। हठयोग फिक्र नहीं करता विचार की। वह कहता है, ऊर्जा ऊपर आ जाएगी, विचार अपने से नष्ट हो जाएंगे।
राजयोग ऊर्जा की फिक्र नहीं करता। वह कहता है, विचार शांत हो जाएं, ऊर्जा अपने से ऊपर आ जाएगी। दोनों संयुक्त घटनाएं हैं। कहीं से भी शुरू किया जा सकता है। अगर आपकी आस्था शरीर में बहुत ज्यादा हो, तो हठयोग आपके लिए मार्ग है। और अगर मन में आपकी आस्था ज्यादा हो, तो राजयोग आपके लिए मार्ग है। और दो के अतिरिक्त कोई मार्ग है नहीं।
या तो मस्तिष्क को शून्य कर लें..।
ध्यान रहे, एक नियम है कि प्रकृति शून्य को भर देती है। जहा भी वैक्यूम होता है, उसे भरने के लिए शक्ति दौड़ पड़ती है। आप नदी में से एक घड़ा भर लें। जैसे ही आप घड़ा भरते हैं, एक गड्डा हो जाता है; चारों तरफ का पानी दौड़कर गड्डे को भर देता है। गर्मी आती है, तो गर्मी के बाद वर्षा आती है। क्योंकि गर्मी इतनी उत्तप्त कर देती है वायु को कि वायु विरल हो जाती है, पतली हो जाती है और वायु विरल होकर ऊपर उठने लगती है और जगह—जगह वायु के गड्डे हो जाते हैं। उन गड्डों को भरने के लिए बादल दौड़े चले आते हैं। बादल, आप सोचते होंगे, कोई लाता है। नहीं, सिर्फ गड्डे उसे खींचते हैं। जहां —जहां तेज गर्मी पड़ती है, जहा—जहां वायु में गड्डे हो जाते हैं, वहां—वहा बादल भागे चले आते हैं। भर देते हैं आकर। प्रकृति वैक्यूम को, शून्य को पसंद नहीं करती।
आप मस्तिष्क को शून्य कर लें। बस, आपने जगह खाली कर दी। नीचे से शक्ति भागने लगेगी ऊपर की तरफ। राजयोग मस्तिष्क को शून्य करने का प्रयोग है। हठयोग मस्तिष्क की फिक्र ही नहीं करता। वह कहता है, ऊर्जा को लाओ, जैसे ही ऊर्जा आएगी, विचार शून्य हो जाएंगे।
हम जो प्रयोग कर रहे हैं, वह दोनों का इकट्ठा प्रयोग है। वह हठयोग और राजयोग की संयुक्त प्रक्रिया है। पहले तीन चरणों में हम पूरी कोशिश कर रहे हैं हठयोग के माध्यम से कि वह ऊर्जा ऊपर की तरफ आए, और चौथे में हम कोशिश कर रहे हैं राजयोग के माध्यम से कि मन शून्य हो जाए। और अगर दोनों प्रक्रियाएं संयुक्त हों, तो परिणाम हुत हो जाता है, दुगनी तेजी से आता है। मन भी शून्य कर रहे हैं और ऊर्जा को भी ऊपर खींच रहे हैं।
यह जो हू की आवाज है, यह ऊर्जा को चोट देने की कोशिश है, ताकि ऊर्जा ऊपर की तरफ फिकनी शुरू हो जाए।
काम—केंद्र पर दो तरह की चोट पड सकती है। एक तो जब आप विपरीत—लिंगीय व्यक्ति से आकर्षित होते हैं, तो एक चोट पड़ती है। एक सुंदर स्त्री को देखकर आपके काम—केंद्र पर हल्का—सा शॉक, एक झटका लगता है। इसलिए आदमी ने वस्त्र पहनने पर इतना आग्रह दे रखा है। क्योंकि वस्त्रों के बिना आपकी वासना एकदम प्रगट हो जाएगी, जगह—जगह प्रगट हो जाएगी।
यह बहुत आश्चर्य की बात है कि पश्चिम के, विशेषकर अमरीका के न्यूडिस्ट क्लबों में, जहां लोग नग्न स्त्री और पुरुष खेलते हैं, कूदते हैं, बैठते हैं, मिलते—जुलते हैं, एक बड़ा अजीब अनुभव हुआ, जिसका कि खयाल नहीं था। आमतौर से हमारी धारणा है कि स्त्री नग्न होने में ज्यादा अड़चन अनुभव करेगी शरमाकी, पर यह अनुभव हुआ नहीं। जितने न्यूइडस्ट क्लब हैं दुनिया में, उन सबका नतीजा यह है कि स्त्रिया बड़ी जल्दी नग्न होने को तैयार होती हैं, पुरुष अड़चन डालता है।
मगर यह बात योग से तालमेल खाती है। पुरुष ही अड़चन डालेगा। क्योंकि स्त्री की वासना शरीर से प्रगट नहीं हो पाती; पुरुष की वासना तत्‍क्षण प्रगट होती है, इसलिए पुरुष ज्यादा डरता है नग्न होने में। कपड़ों में वह ढंका हुआ, अपनी सज्जनता को सम्हाले हुए, शिष्टता को, साधुता को सम्हाले हुए चलता है। नहीं तो हर सुंदर स्त्री उसे प्रभावित करती है। और वह प्रभाव सिर्फ मन पर ही नहीं होता, तत्‍क्षण... क्योंकि काम—केंद्र, मन में जरा—सा कंपन हुआ कि तत्काल प्रभावित हो जाता है।
पुरुष की जननेंद्रिय तत्काल खबर दे देगी कि वह कामातुर है। वह आंखे बचाए, सब करे, उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। और एक बड़ी महत्वपूर्ण बात है कि आप शरीर में सब अंगों को धोखा दे सकते हैं, जननेंद्रिय को आप धोखा नहीं दे सकते। वह सबसे ज्यादा आथेंटिक, प्रामाणिक इंद्रिय है। आपको आंख खोलना हो, आप बंद कर सकते हैं। बंद करना हो, आप खोल सकते हैं। आप आंख से विपरीत काम ले सकते हैं, लेकिन जननेंद्रिय से नहीं।
अगर जननेंद्रिय कामवासना से भर गई, तो आप कुछ भी नहीं कर सकते। और अगर न भरे, तो आप भरने के लिए कुछ भी नहीं कर सकते। जननेंद्रिय स्वचालित है। उसमें इतनी ऊर्जा है कि वह अपनी गति खुद ही करती है।
सारे नग्न क्लबों में यह अनुभव हुआ कि पुरुष डरता है नग्न होने से, संकोच करता है, भयभीत होता है। स्त्रियां जरा भी भयभीत नहीं होतीं, क्योंकि स्त्री का शरीर निगेटिव है, पैसिव है, नकारात्मक है। उसकी जननेंद्रिय छिपी हुई है। उसे छिपाने की इतनी कोई आवश्यकता नहीं है। उससे कुछ जाहिर नहीं होता कि उसके भीतर क्या घट रहा है।
फिर चूंकि स्त्री का पूरा काम निक्तिय है, इसलिए जब तक उसे जगाया न जाए वह जागा हुआ नहीं होता। पुरुष का काम आक्रामक है; वह जगा ही हुआ है। जरा—सी चिनगारी की जरूरत है कि वह जाग जाएगा। कपड़े आदमी ने खोजे हैं कामवासना को छिपाने के लिए, डाकने के लिए।
जब भी आपको जरा—सा भी खयाल हो कि काम—इंद्रिय सक्रिय हुई और कामवासना भर गई है, आप तत्‍क्षण आंख बंद कर लें, सारे यंत्र को सिकोड़ लें ऊपर की तरफ, और एक ही धारणा से भर जाएं कि ऊर्जा ऊपर की तरफ बह रही है 1 या हू की चोट करें।
एक चोट पड़ती है बाहर, विपरीत—लिंगीय व्यक्ति के द्वारा। वह बाहर की चोट है। उस चोट से ऊर्जा बाहर बहेगी। एक चोट ध्वनि के द्वारा भीतर पड़ती है, जिससे ऊर्जा भीतर टूटेगी और ऊपर की तरफ बहेगी। हू की चोट ठीक कामेंद्रिय पर जाकर पड़ती है। आप चोट करके देखेंगे, तो आपको तत्‍क्षण लगेगा।
बहुत मित्र मुझे आकर कहते हैं कि जब हम यह हू का प्रयोग करते हैं तो बहुत बार कामवासना जग जाती है। स्वाभाविक है। क्योंकि चोट पड़ रही है। लेकिन आप कामवासना की फिक्र ही न करें और विचार भी न करें, जगती भी हो तो भी चिंता न करें, आप चोट करते चले जाएं, थोड़ी ही देर में आप पाएंगे कि काम—यंत्र शिथिल हो गया और ऊर्जा ऊपर की तरफ बहनी शुरू हो गई।
इसलिए तीसरे चरण में मैं हू के महामंत्र के उपयोग के लिए कहता हूं। क्योंकि पहले चरण में श्वास की इतनी चोट कि पूरी ऊर्जा उत्तप्त हो जाए, जल उठे, गर्म हो जाए, पिघल जाए, जमी न रहे। और दूसरे में सारी विक्षिप्तता बाहर फेंक देनी है। उस विक्षिप्तता में कामवासना भी फिंक जाती है।
आपको खयाल में नहीं होगा, कि जब आप दूसरे चरण में गति करना शुरू करते हैं तो आपकी गात्। के अधिक हिस्से कामवासना के होते हैं। या जैसे आप संभोग कर रहे हों, आपका शरीर ऐसे डोलने लगता है, ऐसे कंपने लगता है। आपकी मुद्राएं कामवासना की होती हैं दूसरे चरण में। पर उचित है कि हों, ताकि कामवासना मन से फिंक जाए। तो फिर तीसरे चरण में हू की चोट करनी है। जब कामवासना फिंक गई उतर तरल हो गई अग्नि भीतर की, तो हू की चोट फौरन उसे ऊपर उठाना शुरू कर देगी।
कुछ मित्रों को निरंतर ऐसा ध्यान में अनुभव होता है, यहां भी दो—तीन मित्र हैं, एकदम शीर्षासन लगाकर खड़े हो जाते हैं—बिना उनकी समझ के कि क्या हो रहा है। हो यही रहा है कि जब कामवासना की ऊर्जा ऊपर की तरफ बहती है, तो शरीर के लिए शीर्षासन बिलकुल सहज अवस्था है उस क्षण में। उससे बेहतर कोई मुद्रा नहीं है उस क्षण में।
अगर आप शीर्षासन करना जानते हैं, तो शीर्षासन बड़ा उपयोगी हो सकता है। और अगर चौथा चरण आप शीर्षासन में ही कर सकें, तो परिणाम बड़े गहन, बड़े मूल्यवान और बड़े शीघ्रगामी हो जाएंगे। तीन चरण खड़े होकर करें और तीसरे चरण के बाद शीर्षासन में खड़े हो जाएं, और चौथा चरण शीर्षासन में पूरा कर लें—शांत होने का, थिर होने का, जड़ होने का। शक्ति तो अभी भी जाती है मस्तिष्क की तरफ, लेकिन तब और तीव्रता से जा सकेगी।
हृदय की कुल मिलाकर एक सौ एक नाड़िया हैं उनमें से एक नाड़ी कपाल की ओर निकली हुई है इसे ही सुमुम्ना कहते हैं। उसके द्वारा ऊपर के लोकों में जाकर मनुष्ण अमृतत्व को प्राप्त हो जाता है। दूसरी एक सौ कड़ियां मरणकाल में जीव को नाना प्रकार की योनियों में ले जाने की हेतु होती हैं।
सबका अंतर्यामी अगुष्ठमात्र परिमाण वाला परमपुरुष सदैव मनुष्यों के हृदय में भलीभांति प्रविष्ट है। साधक उसको मूंज से सीकं की भांति अपने से और शरीर से धीरतापूर्वक पृथक करके देखे; उसी को विशुद्ध अमृततत्व समझे और उसी को विशुद्ध अमृतस्वरूप समझे?
सूत्र कह रहा है कि सभी के भीतर वह परमात्मा प्रविष्ट है। वह मौजूद है। उसका एक हाथ आपके भीतर पहुंचा हुआ है। हम एक कुआ खोदते हैं, कुएं में पानी आ जाता है। पानी का मतलब है, सागर कुएं तक पहुंचा हुआ है। पानी का मतलब है कि यह कुआ दूर सागर से जुड़ा हुआ है। और पानी आप उलीचते चले जाते हैं और ताजा पानी आता चला जाता है।
हर आदमी एक कुएं की भांति है। हर आदमी परम चेतना से जुड़ा हुआ है। लेकिन हम उस कुएं की भांति हैं जिसकी मिट्टी अभी निकाली नहीं गई, बंद पड़े हैं। जल—स्रोत हमारे भीतर है, लेकिन बीच में मिट्टी की एक बड़ी पर्त है। उस पर्त को तोड़कर, उघाड़कर जो व्यक्ति भी भीतर झांक लेता है, वह जल—स्रोत को उपलब्ध हो जाता है। वह जल—स्रोत सागर से जुड़ा है। वह अनंत से जुड़ा है। इसलिए आपको निरंतर ध्यान के बाद कहता हूं कि वह जो आनंद अनुभव हो रहा है उसे उलीचें, उसे अभिव्यक्त करें, उसे फेंकें। क्योंकि जितना ही आप फेंकेंगे, भीतर वह उतना ही बढ़ता जाएगा। वह सागर से जुड़ा है; उसका कोई अंत नहीं है। एक बहुत बहुमूल्य सूत्र ध्यान में रख लें। दुख अगर भीतर रोकें, तो बढ़ता है। दुख अगर भीतर रोकें, तो बढ़ता है, क्योंकि सड़ता है, और भी ज्यादा विषाक्त होता चला जाता है। दुख को बाहर निकाल दें, तो घटता है। अगर पूरा निकाल दें, तो समाप्त हो जाता है।
आनंद दुख से बिलकुल विपरीत है। बाहर निकालें, तो बढ़ता है। भीतर दबाएं, तो घटता है। जैसे कोइ कुआ कंजूसी कर ले और पानी को बाहर न जाने दे, तो सडेगा, गंदा होगा; उसकी स्वच्छता खो जाएगी। उसकी जो झिरें हैं, वे धीरे—धीरे बंद हो जाएंगी। उनकी कोई जरूरत ही नहीं है; वे धीरे— धीरे बंद हो जाएंगी। उन पर पत्थर और मिट्टी जम जाएगी। अगर कुएं से कभी पानी न निकाला जाए, तो धीरे— धीरे कुआ खत्म ही हो जाएगा। उसका संबंध सागर से टूट जाएगा। कुएं से तो जितना पानी निकालें, झिरें उतनी ही तेजी से पानी दौड़ाती हैं। पानी दौड़ने की वजह से झिरें बड़ी होती जाती हैं, झरने प्रगट होते चले जाते हैं।
आनंद अगर भीतर दबाएं, तो नष्ट होता है। दुख भीतर दबाएं, तो बढ़ता है। दुख बाहर फेंकें, तो घटता है। आनंद बाहर फेंकें, तो बढ़ता है। उनका स्वभाव विपरीत है। इसलिए दुख को कभी भीतर मत छुपाना। दूसरे चरण में हम दुख को बाहर फेंक रहे हैं। और आनंद को भी कभी भीतर मत दबाएं। पांचवें चरण में हम आनंद को उलीच रहे हैं। और जितनी जोर से आप उलीचेंगे, पाएंगे उतना ही नया आनंद भीतर भर आया है।
कबीर ने कहा है, दोनों हाथ उलीचिए। और उलीचना उसी तरह है जैसे कि किसी नाव में पानी भरने लगे, तो नाविक दोनों हाथों से उलीचने लग जाता है। ऐसे ही भीतर जब आनंद भरने लगे, उसे दोनों हाथ उलीचिए। और जितना उलीचेंगे, उतना वह बढ़ता जाएगा।
हम भूल ही गए हैं आनंद को प्रगट करना। हंसते है—तो रोए—रोए। नाचना असंभव है। नाचने को कहता भी हूं, तो आप ऐसा थोड़ा हिलते—डुलते हैं। बड़ी दीनता है। प्रगट करने की कला ही जैसे खो गई है। आप सब तरफ से जैसे बंद कर दिए गए हैं। न आपको किसी ने हंसने दिया है, न रोने दिया है, न नाचने दिया है, न गाने दिया है। आपके जीवन में उत्सव नष्ट कर दिया गया है।
बचपन से ही हम बच्चों के पीछे पड़े हैं कि उनका उत्सव कट जाए, नष्ट हो जाए! हर के की कोशिश यही है कि बच्चा पैदा होते ही से का हो जाए। इसलिए आनंद के सब स्रोत टूट गए। आपकी ऊर्जा पूरी तरह आपको कंपित नहीं कर पाती।
और जब तक यह नहीं होगा, तब तक आपके जीवन में वह जो छिपा है भीतर, उसका अनुभव नहीं होगा। उसे बाहर लाना होगा। उसे खींचकर प्रगट करना होगा। उसे रोएं—रोएं से झलकाना होगा। उसे सब तरफ से वह बहने लगे, ओवर फ्लो हो जाए उसका—यह फिक्र करनी होगी।
ध्यानी के लिए नृत्य बड़ा कीमती है। और अगर ध्यानी न नाच सके तो फिर कौन नाचेगा! उसमें कृपणता मत करें। ताकि भीतर जो छिपा है वह छिपा ही न रह जाए। वह परमात्मा सबके भीतर छिपा है। लेकिन शरीर को और उसे अलग करके हमें पहचानना होगा। वे जुड़े हैं, एकदम पास—पास खड़े हैं। और इतने पास खड़े हैं कि हम भूल ही गए हैं कि वह हमारे शरीर से अलग है। शरीर ही हो गया है। निकटता, समीपता शरीर के रंग से हम को भर दी है, आइडेंटिफिकेशन हो गया है।
गुरजिएफ कहता था सिर्फ एक ही काम करने जैसा है, वह है आइडेटीफिकेशन को तोड़ना, तादात्म्य को तोड़ना। शरीर से हम पृथक हैं, ऐसी प्रतीति हो जाए। शरीर के साथ हम एक हैं, बस यही हमारी सारी परेशानी, सारे उपद्रव की जड़ है।
शेख फरीद के पास कोई गया और उसने पूछा कि फरीद, सुना है हमने कि मैसूर के जब हाथ—पैर काटे गए, तब भी वह हंस रहा था, इस पर हमें भरोसा नहीं आता। किसी के हाथ—पैर कटेंगे तो कोई कैसे हंसेगा? और सुना है हमने कि जब वह मर रहा था, तब भी वह प्रसन्न था, उसके चेहरे पर मुस्कुराहट थी। मर जाने के बाद भी उसकी लाश, उसका चेहरा मुस्कुराता हुआ मालूम पड़ता था। यह हम भरोसा नहीं कर सकते। 
यह कहानी कपोल—कल्पित है।
शेख फरीद ने—उसके पास नारियल पड़े थे—एक नारियल उठाकर उस आदमी को दिया और कहा इसे तुम तोड़कर ले आओ और इसकी गिरी को साबित बचा लाना। उस आदमी ने नारियल हिलाकर देखा वह कच्चा था, उसमें पानी भरा था। उसने कहा, क्षमा करो। इसकी गिरी को पूरा साबित बचाना मुश्किल है, क्योंकि गिरी अभी खोल से जुड़ी है।
फरीद ने उसे दूसरा नारियल उठाकर दिया और कहा कि इसकी गिरी बचाकर ले आना। उसने हिलाया और गिरी अलग बजती थी अंदर, उसने कहा, यह हो सकता है, क्योंकि गिरी ने खोल छोड़ दी। फरीद ने कहा, कहीं मत जाओ, दोनों नारियल वापस रख दो।
मंसूर सूखे नारियल की तरह था। उसकी गिरी और खोल अलग हो गए थे। तुम कच्चे नारियल की तरह हो, तुम्हारी गिरी और खोल इकट्ठे हैं। इसलिए तुम्हारी खोल को कोई चोट पहुंचाए, तो गिरी को चोट पहुंचती है। मंसूर की खोल काट दी गई, तो भी गिरी को कोई चोट नहीं पहुंची, इसलिए वह हंस रहा था, इसलिए वह मुस्कुरा रहा था। वह असल में यह कह रहा था कि नासमझो, तुम जिसे काट रहे हो वह मै नहीं हूं। तुम जिसे मार रहे हो, वह मैं नहीं हूं। तुम मुझे मार ही नहीं सकते। तुम बड़े नासमझ हो। तुम सिर्फ मेरे घर को गिरा रहे हो, तुम मुझे नहीं गिरा सकते हो।
मंसूर से भी किसी ने पूछा है, जब वह मुस्कुरा रहा है, और जब उसके पैर काट दिए गए तो उसने दोनों हाथों से खून लेकर अपने हाथ पर लगाया जैसे कि मुसलमान नमाज करने के पहले वजू करते हैं, तो किसी ने पूछा कि मंसूर, यह तुम क्या कर रहे हो? तो उसने कहा, मैं वजू कर रहा हूं। उन्होंने कहा, हमने कभी सुना नहीं कि खून से वजू की जाती है! तो उसने कहा, पानी से वे वजू करते हैं, जो खून से कर नहीं सकते। और वह हंस रहा है और वह प्रसन्न है। वह खेल समझ रहा है। और कोई उससे पूछता है कि तम हंस (ते हो और क्या तुम इसे खेल समझ रहे हो? तुम्हारे पैर काटे डाले गए और जल्दी ही तुम्हारे हाथ कटेंगे और जल्दी ही तुम्हारी आंखे।
मंसूर को एक—एक टुकड़ा काटकर मारा गया। जीसस की मौत आसान थी। सीधे सुली पर चढ़ा दिया था। लेकिन मंसूर के एक—एक टुकड़े किए गए। और मंसुर जिंदा था और एक—एक टुकड़े तोड़े रहे थे।
तो मैसूर ने कहा कि तुम जिसे काट रहे हो, उसे मैं पहले ही छोड़ चुका हूं, इसलिए अब कोई पीड़ा का कारण नहीं। थोड़े दिन पहले अगर तुमने मुझे काटा होता, तो मुझे भी पीड़ित होती, क्योंकि तब मैं जूड़ा था।
यह सूत्र कह रहा है—साधक उसको गूंज से सींक की भांति अपने से और शरीर से धीरतापूर्वक पृथक करके देखे। उसी को विशुद्ध अमृतस्वरूप समझे।
जो शरीर से भिन्न भीतर छिपा है, वही विशुद्ध अमुतस्वस्था है।
इस प्रकार उपदेश सुनने के अनंतर नचिकेता यमराज द्वारा बतलाई हुई इस विद्या को, संपूर्ण योग की विधि को प्राप्त करके मृत्यु से रहित और सब प्रकार के विकारो से शून्‍य विशुद्ध होकर ब्रह्म को प्राप्त हो गया। दूसरा भी जो कोई इस अध्यात्म—विद्या को इसी प्रकार जानने वाला है वह भी ऐसा ही हो जाता है अर्थात मृत्यु और विकारों से रहित होकर ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है।
यम ने जो नचिकेता को कहा था, वही मैंने फिर से आपको कहा है। नचिकेता को जो हुआ, वही आपको भी हो सकता है। लेकिन आपको कुछ करना पड़े। मात्र सुनकर नही—जो सुना है उसे जीकर, जो सुना है उस दिशा में थोड़े प्रयास, थोड़े प्रयत्न, थोड़े कदम उठाकर। हो सकता है निश्चित। आश्वासन पक्का है। जिसने भी कदम उठाए, वह कभी चूका नहीं पहुंचने से। जिसने कभी कदम नहीं उठाए, वह कभी पहुंचा नहीं।
यात्रा सोचने से नहीं होती, चलने से होती है। और इसकी चिंता मत लेना कि पैर कमजोर हैं। इसकी भी चिंता मत लेना कि एक—एक कदम उठाकर, इतना लंबा पथ है यह ब्रह्म तक पहुंचने का, यह कैसे पूरा होगा? लाओत्से ने कहा है, एक—एक कदम से दस हजार मील की यात्रा पूरी हो जाती है। एक—एक कदम से। और दो कदम दुनिया में कोई भी आदमी एक साथ उठा नहीं सकता। इसलिए कदम उठाने के मामले में सब समान हैं, कोई असमानता नही,। एक ही कदम एक बार उठता है।
चीनी, एक छोटी—सी कथा है कि एक आदमी बहुत दिन से सोचता था, पास ही एक पर्वत था बड़ा प्रसिद्ध, उसके सौंदर्य की बड़ी महिमा थी। और लोग कहते थे, जो उसे देख लेता है, वह धन्यभागी है। वह पास ही रहता था। दस ही मील का फासला था। लेकिन वह सोचता था, जाऊंगा कभी, जाऊंगा कभी। फिर उसे लगा कि ऐसे तो जिंदगी बीत जाएगी। तो एक रात उसने तय ही किया। —लालटेन जलाई, अंधेरी रात थी, और कोई तीन बजे रात चल पडा, ताकि सुबह सूरज के उगते समय पहुंच जाऊं। लेकिन गांव के बाहर गया कि बड़े विचार ने उसे पकड लिया।
गांव के बाहर जाते ही विचार पकड़ता है। वह लालटेन रखकर वहीं बैठ गया। वह सोचने लगा। वह सोचने लगा कि लालटेन का प्रकाश मुश्किल से चार—छह कदम तक पड़ता है। और दस मील अंधेरा है, तो इतने छोटे प्रकाश से इतने बड़े अंधेरे को कैसे पार करेंगे? भटकना निश्चित है।
तभी कोई फकीर उसके पास से गुजरता था, उसने पूछा कि तुम बड़े उदास बैठे हो, बात क्या है? उसने कहा, उदास! वर्षों से सोचता हूं इस पहाड़ का दर्शन करने जाऊं। और आज निकल भी पड़ा घर से, लेकिन लालटेन छोटी है, प्रकाश कम है।
तो उस फकीर ने कहा, तू मेरे साथ आ। तू उठ। क्योंकि जब तू चार कदम चल लेगा, तो प्रकाश चार कदम आगे पड़ने लगेगा। बैठकर गणित मत लगा। जरा चलकर देख। दस मील बहुत कम हैं। दस हजार शईल भी इस लालटेन से पार हो सकते हैं। क्योंकि कोई दस हजार मील पूरे के पूरे प्रकाशित होने चाहिए, तब तू चलेगा? चार कदम प्रकाश काफी है।
जितनी क्षमता आपकी है, उतना दीया काफी है। बस बैठ न जाएं, सोचने न लगें। जितना हम सोचने में समय गंवाते हैं, उतना प्रयास करने में लगा दें, उतना ध्यान बन जाए, तो मंजिल दूर नहीं है। और आश्वासन दिया जा सकता है। क्योंकि जिसे पाना है, वह भीतर छिपा है।
प्रत्येक व्यक्ति अमृत की तरह पैदा होता है और मरणधर्मा की तरह मानकर अपने को जीता है। यह भ्रांति एक क्षण में भी टूट सकती है। और अनंत जन्मों में भी न टूटे, यह आप पर निर्भर है। अगर आप तीव्रता से, प्रगाढता से, दृढ़ता से खोजना ही चाहें, तो कोई भी बाधा नहीं है।
सिर्फ एक ही बाधा आएगी कि जितनी आप प्रगाढ़ता और तीव्रता से खोजेंगे, उतना ही पाएंगे : आप खोते जा रहे हैं। उस खोने से भयभीत मत होना। क्योंकि जिसने अपने को खोया नहीं, उसने अपने को पाया नहीं। जो खोता है, वह पाने का हकदार हो जाता है। मरने की हिम्मत के बिना अमृत को पाने की कोई पात्रता किसी में कभी पैदा नहीं होती। स्वयं को देकर ही चुकाना पड़ता है मूल्य।
परमात्मा को तो बहुत लोग पाना चाहते हैं, लेकिन देने को जरा भी तैयार नहीं। कुछ भी देने को तैयार नहीं। मुफ्त पाना चाहते हैं। इसीलिए बात चलती रहती है, जीवन चुकता जाता है। दिवस आते हैं, जाते हैं;
रात्रियां आती हैं, व्यतीत होती हैं, और आदमी मरता रहता है।
अपने को दाव पर लगाना होगा, उससे कम में काम होने वाला नहीं है।
नचिकेता यम की बतलाई हुई इस विद्या को और संपूर्ण योग की विधि को प्राप्त करके मृत्यु से रहित और सब प्रकार के विकारों से शून्य होकर ब्रह्म को प्राप्त हो गया।
आप भी हो सकते हैं। नचिकेता की तरह पूछते हुए आप यहां आए हैं। नचिकेता की तरह भरे हुए आप यहां से लौट भी सकते हैं।
नचिकेता जैसी सरलता, नचिकेता जैसी निर्दोष श्रद्धा; नचिकेता जैसी अडिग, अकंप खोज की आकांक्षा, अभीप्सा; क्षुद्र प्रलोभन से न डावाडोल हो जाना; सारा संसार भी मिलता हो, तो भी दांव पर लगा देने की क्षमता; धैर्य—अगर ये सब आपके जीवन में थोड़े—से भी उतर आएं, तो जो नचिकेता को हुआ है, वही आपको भी हो सकता है।
आखिरी ध्यान होगा यह हमारे शिविर का, पूरी शक्ति लगानी है।
बैठें दो मिनट।
ध्‍यान योग शिविर,
माऊंट आबू, राजस्‍थान।

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