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रविवार, 2 अप्रैल 2017

ध्यान दर्शन-(साधना-शिविर)-प्रवचन-07

ध्यान दर्शन-(साधन-शिविर)
ओशो
प्रवचन-सातवां-(ध्यान: समाधि की भूमिका)


मेरे प्रिय आत्मन्!
थोड़े से सवाल।

रखना ही होगा। यहां हम सिर्फ सीख रहे हैं। यहां सिर्फ आपको समझ में आ जाए पद्धति, इतना ही। फिर उस प्रयोग को घर जारी रखें तो उसमें गहराई बढ़ती जाएगी।

एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि यदि घर पर इसे हम जारी रखेंगे, तो आस-पास के लोग पागल समझने लगेंगे। चिल्लाएं या नाचें या हंसें।
                                               
आस-पास के लोग अभी भी पागल ही समझते हैं एक-दूसरे को। कहते न होंगे, यह दूसरी बात है। यह पूरी जमीन करीब-करीब मैड हाउस है, पागलखाना है। अपने को छोड़ कर बाकी सभी लोगों को लोग पागल समझते ही हैं। लेकिन अगर आपने हिम्मत दिखाई और इस प्रयोग को किया, तो आपके पागल होने की संभावना रोज-रोज कम होती चली जाएगी।
जो पागलपन को भीतर इकट्ठा करता है, वह कभी पागल हो सकता है। जो पागलपन को उलीच देता है, वह कभी पागल नहीं हो सकता।
फिर एक-दो दिन, चार दिन उत्सुकता लेंगे, चार दिन बाद उत्सुकता कोई लेने को तैयार नहीं है। कोई आदमी दूसरे में इतना उत्सुक नहीं है कि बहुत ज्यादा देर उत्सुकता ले। और आपके चौबीस घंटे के व्यवहार में जो परिवर्तन पड़ेगा, वह भी दिखाई पड़ेगा; आपका रोना-चिल्लाना ही दिखाई नहीं पड़ेगा। आप जब क्रोध में होते हैं तब कभी आपने सोचा कि लोग पागल नहीं समझेंगे? तब आप नहीं सोचते कभी कि लोग पागल समझेंगे कि नहीं समझेंगे। क्योंकि आप पागल होते ही हैं! लेकिन अगर यह ध्यान का प्रयोग चला तो आपके चौबीस घंटे के जीवन में रूपांतरण हो जाएगा। आपका व्यवहार बदलेगा, ज्यादा शांत होंगे, ज्यादा मौन होंगे, ज्यादा प्रेमपूर्ण, ज्यादा करुणापूर्ण होंगे। वह भी लोगों को दिखाई पड़ेगा।
इसलिए घबड़ाएं न, चार दिन उन्हें पागल समझने दें। चार दिन के बाद, आठ दिन के बाद, पंद्रह दिन के बाद आपसे पूछने वाले हैं वही लोग कि यह आपको जो फर्क हो रहा है, क्या हमें भी हो सकता है?
घबड़ा गए पब्लिक ओपिनियन से--लोग क्या कहते हैं--तब तो बहुत गहरे नहीं जाया जा सकता। हिम्मत करें! और लोग पागल समझते हैं या बुद्धिमान समझते हैं, इससे कितना अंतर पड़ता है? असली सवाल यह है कि आप पागल हैं या नहीं! असली सवाल यह नहीं है कि लोग क्या समझते हैं। अपनी तरफ ध्यान दें कि आपकी क्या हालत है, वह हालत पागल की है या नहीं है! उस हालत को छिपाने से कुछ न होगा। उस हालत को मिटाने की जरूरत है।
फिर यह जो रोना-चिल्लाना, हंसना, नाचना है, यह धीरे-धीरे शांत होता जाएगा। जैसे-जैसे पागलपन बाहर फिंक जाएगा, वैसे-वैसे शांत हो जाएगा। तीन सप्ताह से लेकर तीन महीना--कम से कम तीन सप्ताह, ज्यादा से ज्यादा तीन महीना चल सकता है। जितनी तीव्रता से निकालिएगा उतनी जल्दी चुक जाएगा। प्रत्येक व्यक्ति को थोड़ा अलग-अलग समय लगेगा, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के संगृहीत पागलपन की मात्रा अलग-अलग है। लेकिन जितनी जोर से उलीच देंगे, उतनी जल्दी फिंक जाएगा बाहर और आप शांत हो जाएंगे। जैसे-जैसे शांत होने लगेंगे, आप चाहेंगे भी तो चिल्ला न सकेंगे, नाच न सकेंगे, रो न सकेंगे, हंस न सकेंगे।
मात्र चाहने से कुछ हो नहीं सकता, भीतर चीज चाहिए निकलने को। और जैसे-जैसे गहराई बढ़ेगी, वैसे-वैसे पहला स्टेप रह जाएगा और चौथा स्टेप रह जाएगा। दूसरा पहले गिर जाएगा। फिर धीरे-धीरे पूछने का भी मन नहीं होगा। पूछना भी बाधा मालूम पड़ेगी कि मैं कौन हूं। तीसरा स्टेप भी गिर जाएगा। बाद में पहला स्टेप भी मिनट, दो मिनट का रह जाएगा, श्वास ली नहीं कि आप सीधे चौथे स्टेप में चले जाएंगे। अंततः जितनी गहराई पूरी हो जाएगी, उतना दो मिनट के लिए पहला स्टेप रह जाएगा और सीधा चौथा स्टेप आ जाएगा। पूरे चालीस-पचास मिनट आप चौथी अवस्था में ही रह पाएंगे। लेकिन आप अपनी तरफ से अगर चौथी अवस्था लाने की कोशिश किए तो वह कभी नहीं आएगा। इन दो और तीसरे स्टेप से गुजरना ही पड़ेगा। इनके गिर जाने पर वह अपने से आ जाता है।

एक मित्र ने पूछा है कि चौथे चरण में दस मिनट बहुत कम मालूम होते हैं।

जिसको भी ध्यान लगेगा, उसे बहुत कम मालूम होंगे। जिसको नहीं लगेगा, उसे बहुत ज्यादा मालूम होंगे। यहां दोनों तरह के लोग हैं। जिसको नहीं लगेगा, उसे ऐसा लगेगा कि पता नहीं, दस मिनट कितने लंबे हो गए! जिसे लगेगा, उसे लगेगा कि यह तो अभी शुरू हुआ और अभी समाप्त हो गया। क्योंकि हमारे आनंद के साथ ही समय सिकुड़ता है। समय कोई वास्तविक चीज नहीं है। समय हमारे अनुभव पर निर्भर चीज है, कंडीशनल है। जितना सुख होता है, समय उतना छोटा हो जाता है। जितना दुख होता है, समय उतना लंबा हो जाता है। घड़ी के कांटे तो वैसे ही घूमते रहते हैं, लेकिन हृदय के कांटे भी हैं, और वह सुख और दुख के साथ उनकी गति में अंतर पड़ता है। जब आप सुखी होते हैं, क्षण हवा में उड़ जाता है। जब आप दुखी होते हैं तो क्षण भी पत्थर की तरह बैठ जाता है, हटता नहीं।
तो जिनको ध्यान हो रहा है उन्हें तो दस मिनट भी कम हैं, थोड़े दिनों में दस घंटे भी कम होंगे। और इसलिए फिर ध्यान में अलग से बैठने की जरूरत नहीं रह जाती; फिर तो चौबीस घंटे ही ध्यान ही चलने लगता है। उठते, बैठते, काम करते, वही रस, वही आनंद फैलने लगता है। फिर तो दस जिंदगी भी छोटी मालूम पड़ती हैं।
यह मेरे खयाल में है कि दस मिनट बहुत कम हैं, लेकिन यहां तो हम प्रयोग को समझ रहे हैं। घर आप दस मिनट से ज्यादा कर सकते हैं। पंद्र्रह मिनट, बीस मिनट, आधा घंटा, जितनी आपकी सुविधा हो, उतना आप चौथा चरण बढ़ा सकते हैं। पहले तीन चरण दस मिनट से ज्यादा नहीं बढ़ाना है। पहले तीन चरण तीस मिनट ज्यादा से ज्यादा, उससे ज्यादा नहीं बढ़ाना है। चौथा चरण आप जितना चाहें बढ़ा सकते हैं, क्योंकि वह प्रतीक्षा का चरण है, करने का चरण नहीं है। तीन चरण करने के हैं। वे आपकी, मनुष्य की जो सामान्य सामर्थ्य है, उसके हिसाब से तय किए गए हैं। वह दस मिनट से ज्यादा नहीं करना है कोई भी चरण। लेकिन चौथा चरण आप कितना भी लंबा कर सकते हैं।
और जैसे ही ध्यान गहरा होगा, आधा घंटा, घंटा भर चौथे चरण में बीत सकेगा। सहज ही बीत जाएगा, पता ही नहीं चलेगा, कब गुजर गया। वह आप घर पर प्रयोग कर सकेंगे। यहां तो दस मिनट में ही समाप्त करना पड़ेगा। क्योंकि बहुत लोग हैं, उन सब लोगों का ध्यान रखना जरूरी है। फिर हम यहां समझने मात्र को हैं। असली प्रयोग तो आप यहां से हट कर करने वाले हैं।

एक और मित्र ने पूछा है कि ध्यान और समाधि में क्या अंतर है?

अंतर कुछ भी नहीं है। यात्रा और मंजिल का अंतर है। ध्यान मार्ग है, समाधि अंत है। ध्यान जहां पहुंचा देता है वह समाधि है। या ऐसा कहें कि ध्यान की पूर्णता समाधि है। या ऐसा कहें कि जहां ध्यान की कोई जरूरत न रह जाएगी वह समाधि है। यह सब एक ही बात है। रास्ते की कोई जरूरत नहीं रह जाती जब मंजिल आ जाती है। सीढ़ियां बेकार हो जाती हैं जब आप चढ़ जाते हैं। ध्यान सीढ़ी है। समाधि चढ़ जाना है।
ध्यान गिर जाएगा। जिस दिन आपको लगे कि अब ध्यान में और गैर-ध्यान में कोई फर्क नहीं रहा, जिस आनंद में ध्यान में होते हैं उसी आनंद में गैर-ध्यान में होते हैं, उस दिन समझना कि समाधि शुरू हो गई। करें ध्यान तो, न करें ध्यान तो, चित्त की अवस्था एक ही बनी रहती है--वही आनंद, वही प्रकाश, वही परमात्मा मौजूद रहता है, तब समझना कि समाधि आ गई। तब ध्यान बेकार हो जाता है, वह अपने आप गिर जाता है।
ध्यान का अंत समाधि है, ध्यान का गिर जाना समाधि है। या कहें, ध्यान की पूर्णता समाधि है, ध्यान का पूरा हो जाना समाधि है। लेकिन पूरी होकर भी चीजें गिर जाती हैं। फल पका और गिरा। ध्यान पका और गिर जाएगा। फिर आप चौबीस घंटे ध्यान में होंगे। फिर ऐसा नहीं होगा कि ध्यान करना पड़े। ध्यान आपका स्वभाव बन जाता है।

अब हम ध्यान के संबंध में, शायद दो-चार मित्र नये होंगे, उनको दो बातें कह दूं। फिर हम प्रयोग के लिए बैठें।
एक तो उन मित्रों के लिए कुछ कहना है, रात को कोई दस-पांच मित्र, कितना ही कहने पर भी देखने की जगह न खड़े रह कर बीच में आ जाते हैं। अकारण दूसरों को उनसे बाधा पड़ती है। इतनी शिष्टता, इतनी समझ तो बरतनी ही चाहिए। कोई व्यक्ति देखने वाला यहां प्रयोग करने वाले लोगों के साथ न रहे। दूर बैठ जाए, कहीं भी बैठ कर देखता रहे, कोई हर्ज नहीं है, लेकिन यहां बीच में न आए। और यहां बीच में कोई भी व्यक्ति ऐसा न हो, जिसको लगे कि वह ध्यान नहीं कर रहा है--हो सकता है शुरू में आप ध्यान करने के लिए ही बैठे हों, थोड़ी देर बाद आपको लगे कि देखने का मन है--तो चुपचाप बाहर हो जाएं, फिर आप यहां न खड़े रहें। फिर बाहर दूर हो जाएं।
ध्यान के तीन चरण हैं। पहला: दस मिनट तीव्र श्वास। दूसरा: दस मिनट शरीर का रेचन, शरीर को जो भी हो रहा है होने देना है--रोना, हंसना, चिल्लाना, नाचना। तीसरे में 'मैं कौन हूं?' यह पूछना है। और चौथा चरण करने का नहीं, प्रतीक्षा का है। फिर छोड़ देना है परमात्मा के चरणों में जो हो। इस चौथे चरण में बहुत से अनुभव हो रहे हैं, होंगे। जिसको नहीं हो रहे, उसे जानना चाहिए कि वह तीन चरणों में कहीं न कहीं भूल कर रहा है। और भूल एक ही है। अलग-अलग भूलें नहीं हैं, भूल एक ही है। और वह भूल यह है कि वह पूरे संकल्प से चरण को नहीं कर रहा है। और कोई भूल नहीं है। एक ही भूल हो सकती है इस प्रयोग में, और वह यह कि आप आधे-आधे मन से कर रहे हों। कुछ मन कर रहा हो, कुछ न कर रहा हो।
तो जैसा मैंने कहा कि इन करने वाले लोगों में न करने वाला न खड़ा हो, अन्यथा बाधा पड़ती है, ऐसे ही आपके भीतर भी मन में करने वाले मन के पीछे अगर न करने वाला हिस्सा खड़ा रहे तो और भी बड़ी बाधा पड़ती है। क्योंकि आप ही दो हिस्सों में बंट गए। एक स्पेकटेटर हो गया और एक करने वाला हो गया, तब फिर बहुत बाधा पड़ती है।
एक और सूचना! कुछ मित्रों को खयाल में नहीं आ सकी बात। जिनको खयाल में आ गई, उन्हें बहुत परिणाम हो गए। कुछ मित्रों को अपने आप दूसरा चरण नहीं होता। तो आप, अपने आप अगर न हो, तो अपनी ओर से जो भी सूझे शुरू कर दें, लेकिन खड़े मत रहें। अगर आपने शुरू किया तो दो-चार मिनट के बाद होना शुरू हो जाएगा। अगर आप नाचने लगे तो नाचने की धारा टूट जाएगी और फिर नाचना आ जाएगा अपने आप। जिन मित्रों ने यह प्रयोग करके देखा, उनको फिर अपने आप आना शुरू हो गया है। दूसरे चरण को भी आप ऐसा ही समझें कि अपने आप आ जाए तो ठीक, न आए तो अपनी ओर से शुरू कर दें, वह अपने आप भी आ जाएगा। हमारी आदतें मजबूत हैं, नाचे हम कभी नहीं, वह कैसे एकदम से आ जाए! मन खड़ा रह जाता है। फिर शरीर के पास भाषा नहीं है कि आपसे कह दे कि नाचो। शरीर के पास तो संकेत हैं। पैरों में थोड़ा कंपन आएगा। आप खड़े रहें तो पैर खड़े रह जाएंगे। थोड़ी देर में कंपन खो जाएगा।
अब एक बहन ने कल मुझे आकर कहा कि उसके पैर में तो कंपन है, लेकिन नाचना नहीं आता। अब पैर में कंपन है, तो शरीर और कैसे आपसे कहे कि नाचिए! कोई भाषा नहीं है शरीर के पास। वह कंपन ही इशारा दे रहा है कि अब पैरों को पूरी ताकत दे दें और नाचने दें। और जो भी आप करते हैं, उसे दो तरह से कर सकते हैं। धीमे-धीमे कर सकते हैं। किसी व्यक्ति का शरीर घूम रहा है, तो वह धीमे-धीमे घुमा सकता है, आहिस्ता से। तब परिणाम नहीं होगा। पूरी शक्ति दे दें, जो भी हो रहा है। अपने को छोड़ें और बिलकुल छोड़ दें। परिणाम सुनिश्चित है।
यह प्रयोग वैज्ञानिक प्रयोग है। यह आपके करने पर निर्भर है। यह प्रयोग ऐसा कुछ नहीं है कि आपके बिना किए हो जाए। करें, जरूर ही होता है। और अपने चारों तरफ देख रहे हैं कि इतने लोगों को हो रहा है, फिर भी आप वंचित रह जाएं तो गलती है।
तो इसलिए आखिरी बात: अपने आस-पड़ोस के लोगों से प्रतिस्पर्धा लें। जब दिखाई पड़ रहा है कि इतने लोगों को हो रहा है, तो आप भी कूद पड़ें और पूरी शक्ति लगा दें। आज चौथा दिन है, कल तो अंतिम दिन होगा। इसलिए आज, जो लोग अभी तीन दिन में पीछे रह गए हों, उन्हें पूरी ताकत लगा देनी है, ताकि कल तक उनको भी परिणाम स्पष्ट हो सके। जिन मित्रों को कुछ व्यक्तिगत पूछना हो, या जिन मित्रों को संन्यास के संबंध में, संन्यास लेने का खयाल पैदा हुआ हो, उनको कुछ पूछना हो, तो वे ढाई से साढ़े तीन आज और कल मुझे मिल ले सकते हैं।

अब हम खड़े हों, प्रयोग की तैयारी करें। थोड़े दूर-दूर हो जाएं, फैल जाएं।...
शक्ति बहुत बढ़ेगी, चौथा दिन है इसलिए लोग काफी जोर से नाचेंगे-कूदेंगे। आप खयाल कर लें। फिर जरा बार-बार धक्का लगता है तो कठिनाई हो जाती है। थोड़े फासले पर हो जाएं। और कोई भी अपनी जगह को छोड़ कर न भागे, यहां-वहां न दौड़े, अपनी जगह पर ही कूदता रहे।
ठीक है! मैं मान लूं कि बीच में कोई भी ऐसा व्यक्ति खड़ा नहीं है जिसे देखना है। देखना हो, अभी भी बाहर हो जाएं। आंख बंद कर लें। दोनों हाथ जोड़ कर परमात्मा के सामने संकल्प कर लें। और यह कोई साधारण संकल्प नहीं है। जिसमें हम प्रभु को साक्षी रख कर संकल्प करते है, उसका अर्थ ही यही है कि वह हमें करना है इसलिए कर रहे हैं। हाथ जोड़ें, सिर झुका लें, प्रभु को साक्षी रख कर मन में भाव कर लें: मैं प्रभु को साक्षी रख कर संकल्प करता हूं कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगा दूंगा, पूरी! मैं प्रभु को साक्षी रख कर संकल्प करता हूं कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगा दूंगा, पूरी! मैं प्रभु को साक्षी रख कर संकल्प करता हूं कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगा दूंगा, पूरी!
अब पहला चरण शुरू करें। दस मिनट तक तीव्र श्वास का तूफान उठा देना है। तेज...तेज...श्वास ही श्वास रह जाए, और सब मिट जाए। तेज...तेज...अपनी ओर खयाल कर लें...शुरू से ही तेजी में आ जाएं, ताकि परिणाम निश्चित हो...शरीर डोले, कंपे, चिंता न करें, आप तेज श्वास लें...शरीर को डोलने दें, कंपने दें...श्वास के साथ शरीर नाचने लगे, नाचने दें...तेज...पूरे संकल्प का स्मरण करें और दस मिनट तक बिलकुल पागल हो जाएं श्वास लेने में।
अपनी जगह पर, अपनी जगह से न हटें...अपनी जगह पर, नाचना-कूदना अपनी जगह पर, वहां से न हटें...तेज श्वास...तेज...तेज...और तेज...और तेज...आनंद से भर जाएं और तेज श्वास लें...फेफड़े का धौंकनी की तरह उपयोग करें, लोहार की धौंकनी की तरह, श्वास बाहर, भीतर...बाहर, भीतर...बाहर, भीतर...कुंडलिनी पर चोट करनी है...हैमर करें...श्वास से चोट करें...तेज...तेज...तेज...
बहुत ठीक! देखें, कोई खड़ा न रह जाए, पीछे न रह जाए। अपने आस-पास के लोगों का खयाल करें और तेजी से...
बहुत ठीक! सात मिनट बचे हैं, तेज करें...तेज करें...तेज करें...आज कुछ भी हो, किसी को भी खाली नहीं जाना है...तेज करें...तेज करें...तेज करें...तेज...शरीर डोले, डोलने दें...कंपे, कंपने दें...न कपड़ों की चिंता करें, न कुछ और चिंता करें, कोई फिक्र न करें...तेज...संकोच सब छोड़ें और शक्ति पूरी लगा दें... तेज...तेज...छह मिनट बचे हैं...पूरी शक्ति लगाएं...श्वास ही श्वास रह जाए...श्वास का तूफान उठा दें...श्वास का तूफान उठा दें...श्वास ही श्वास रह जाए...श्वास ही श्वास रह जाए...
शरीर कंपेगा...शक्ति जगेगी...सारा शरीर विद्युत से भर जाएगा...सारा शरीर विद्युत से भर जाएगा...सारा शरीर बिजली से भर जाएगा...नाचें...कूदें...श्वास लेते चले जाएं...श्वास ही श्वास रह जाए...श्वास ही श्वास रह जाए...जोर से...जोर से...जोर से...
पांच मिनट बचे हैं, अपनी ओर ध्यान कर लें--आप पीछे तो नहीं हैं किसी से? तेज...तेज...तेज...तेज...तेज...तेज...आंख बंद रखें और श्वास की चोट करते जाएं...शक्ति जाग गई है, अब उसे काम करने दें...और तेज चोट करें, फिर शक्ति का उपयोग हम कर सकेंगे...शक्ति को जगा लें...जगाएं...जगाएं...जगाएं...जगाएं... आनंद से भर कर श्वास की चोट करते चले जाएं...शरीर नाचता, डोलता, कूदता...
चार मिनट, पूरी शक्ति लगा दें, फिर दूसरे चरण में जगाने का मौका नहीं रहेगा। जितनी शक्ति जग जाएगी, दूसरे में उतना ही उपयोग होगा। जगाएं...सारे शरीर को बिजली से भर जाने दें...कंपेगा, रोआं-रोआं कंपेगा, अंग-अंग कंपेगा...तेज श्वास... तेज श्वास...तेज श्वास...तेज...तेज...तेज...
तीन मिनट बचे हैं...तेजी में आ जाएं...पूरा तूफान उठा दें...अब सब भूल जाएं, श्वास ही बचे...यह पूरा वातावरण श्वास लेता मालूम पड़ने लगे। जब मैं कहूं--एक, दो, तीन, तब आप अपनी सारी शक्ति लगा देंगे जितनी आपके पास हो। तेज...तेज...
बहुत ठीक! तेज...तेज...तेज...तेज...एक! कूद पड़ें...बिलकुल कूद पड़ें... आनंद से कूद जाएं। दो! कूद जाएं...बिलकुल बचाएं न। तीन! पूरी शक्ति लगा दें जितनी आपके पास है। एक मिनट की बात है, बिलकुल तूफान उठा दें, फिर हम दूसरे चरण में चलते हैं। जोर... जोर...पूरा जोर आजमा लें श्वास पर...पूरी शक्ति लगा दें...
बहुत ठीक! बढ़ें...बढ़ें...कोई पीछे न रह जाए...सारे लोग तेजी में आ जाएं... बढ़ें...बढ़ें...बढ़ें...तेज...श्वास ही श्वास रह जाए...

बहुत ठीक! अब दूसरे चरण में प्रवेश करें। अब शरीर को छोड़ दें, जो उसे करना हो। हंसना है, नाचना है, कूदना है, चिल्लाना है, दस मिनट के लिए सारी शक्ति लगा दें। चिल्लाएं, नाचें, कूदें, रोएं, हंसें...जोर से...जोर से...जोर से...अपनी जगह पर, अपनी जगह से न हटें...जोर से...शक्ति जाग गई है, अब उसे काम करने दें...हंसें, नाचें, कूदें, रोएं, चिल्लाएं...जोर से...जोर से...जोर से...शरीर की सारी बीमारियां बाहर फेंक दें...मन के सब रोग उलीच डालें...जोर से...
सात मिनट बचे हैं, पूरी शक्ति लगाएं...उलीचें...शरीर में जो भी हो रहा है, उसे उलीच डालें...फेंकें, बाहर फेंकें...नाचें, कूदें, चिल्लाएं, हंसें, अपनी जगह पर...जोर से...जोर से...सारी शक्ति लगा दें, जो भी हो रहा है...इतने लोग हैं, तूफान आ जाना चाहिए। बिलकुल तूफान उठा दें...जोर से...जोर से...आनंद से करें...जोर से करें...
पांच मिनट बचे हैं, पूरी शक्ति लगाएं, फिर हम तीसरे चरण में चलेंगे। नाचें... नाचें...नाचें...नाचें...चिल्लाएं, कूदें, नाचें...शक्ति जाग गई है, उसे काम करने दें, रोकें न...
चार मिनट, पूरी शक्ति लगा दें, बिलकुल पागल हो जाएं। नाचें...आनंद से भर कर नाचें...जोर से...
तीन मिनट बचे हैं। जब मैं कहूं--एक, दो, तीन, तब बिलकुल पागल हो जाना है। आनंद से भरें...नाचें, कूदें, चिल्लाएं...फेंकें...फेंकें...शरीर में जो भी हो रहा है, जोर से फेंक दें। एक! पूरी शक्ति लगा दें।... दो! पूरी शक्ति लगाएं, पीछे न छूटें।... तीन! पूरी शक्ति लगा दें, एक मिनट के लिए बिलकुल पागल हो जाएं। भूलें सब...चिल्लाएं, नाचें, रोएं, हंसें...जोर से...जोर से...जोर से...जोर से...जोर से...फिर हम तीसरे चरण में प्रवेश करें...जोर से...जोर से, जोर से...एक मिनट की बात है, बिलकुल तूफान उठा दें...संकल्प का स्मरण करें, पूरी शक्ति लगाएं...एक मिनट के लिए बिलकुल पागल हो जाएं...जोर से...जोर से...जोर से...

अब तीसरे चरण में प्रवेश करें। भीतर पूछें--मैं कौन हूं? नाचते रहें, डोलते रहें, भीतर पूछें--मैं कौन हूं? बाहर पूछना है, बाहर पूछें--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? दस मिनट के लिए तूफान उठा देना है भीतर। मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? पूछें, नाचते रहें, डोलते रहें, पूछें--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? रोआं-रोआं पूछने लगे, श्वास-श्वास पूछने लगे--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...तेजी में आएं...तेजी में आएं...डोलते रहें, नाचते रहें, पूछें--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...शक्ति जाग गई है, उसका उपयोग करें...पूछें--मैं कौन हूं? पूछें, पूछें, पूछें, पीछे न छूटें--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...
सात मिनट बचे हैं, फिर हम विश्राम करेंगे। थका डालें, पूछें--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? जो जितना थक जाएगा, उतना गहरा जा सकेगा। थकाएं, नाचें, कूदें, पूछें...नाचें, नाचें, कूदें, पूछें--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...पांच मिनट बचे हैं...पूरी शक्ति लगा दें...आनंद से डोलते रहें, पूछते रहें--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...थका डालें...
चार मिनट बचे हैं...बिलकुल पागल की तरह पूछें--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...चिल्लाएं, नाचें, पूछें--मैं कौन हूं? तेजी से...तेजी से...तेजी से...जोर से...तेजी से...तीन मिनट बचे हैं, तेजी में आ जाएं...संकल्प का स्मरण करें...मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...दो मिनट बचे हैं, जब मैं कहूं--एक, दो, तीन, तब सारी दुनिया को भूल जाएं।
एक! पूरे पागल हो जाएं। नाचें, नाचें, पूछें--मैं कौन हूं? दो! बढ़ें...बढ़ें...पीछे न रह जाएं...बढ़ें। तीन! पूरी ताकत लगा दें एक मिनट के लिए, सारी ताकत इकट्ठी करके लगा दें--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...पागल हो जाएं...पागल हो जाएं...बिलकुल भूलें अपने को...मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...कुछ सेकेंड की बात है...पूरी ताकत लगा दें...तूफान उठा दें...मैं कौन हूं? नाचें, कूदें, पूछें...

बस, अब सब छोड़ दें...चौथे चरण में प्रवेश कर जाएं...सब छोड़ दें...नाचें नहीं, पूछें नहीं, सब छोड़ दें...जैसे बूंद सागर में खो जाए। खड़े हैं, बैठे हैं, गिर गए हैं, सब छोड़ दें...जैसे बूंद सागर में खो जाए। मिट जाएं, परमात्मा में अपने को छोड़ दें। दस मिनट खो जाएं, लीन हो जाएं। छोड़ें, छोड़ें, सब छोड़ दें, सब छोड़ दें...
अब कुछ भी नहीं करना, अब सिर्फ द्वार खोल कर प्रतीक्षा करनी है। सब छोड़ दें... मिट गए, जैसे मर ही गए, जैसे समाप्त हो गए। बूंद जैसे सागर में खो जाए, ऐसे खो गए। प्रकाश ही प्रकाश चारों ओर शेष रह गया है। अनंत प्रकाश, जैसे हजार-हजार सूरज भीतर जग जाएं, भीतर निकल आएं। प्रकाश ही प्रकाश, अनंत सागर में खो गए प्रकाश के।
इस प्रकाश को रोएं-रोएं में भर जाने दें। इस प्रकाश को श्वास-श्वास में उतर जाने दें। इस प्रकाश को धड़कन-धड़कन तक पहुंच जाने दें। प्रकाश ही प्रकाश शेष रह गया। अनंत प्रकाश, चारों ओर अनंत प्रकाश। प्रकाश ही प्रकाश शेष रह गया, प्रकाश ही प्रकाश शेष रह गया। पी जाएं, पी जाएं, इस प्रकाश को बिलकुल पी लें, गहरे से गहरा उतर जाने दें, प्राणों का कोई कोना अंधेरा न रह जाए, सब तरफ प्रकाश ही प्रकाश भर जाने दें। उतरने दें, गहरे से गहरे हृदय के आखिरी कोने तक उतर जाने दें।
प्रकाश ही प्रकाश शेष रह गया। आनंद की वर्षा हो रही, आनंद टपक रहा, रोएं-रोएं पर बरस रहा है। आनंद, अनंत आनंद के झरने भीतर बह रहे हैं। उन्हें बह जाने दें। आनंद ही आनंद, अनंत आनंद। भर जाएं, डूब जाएं। आनंद से ही भर जाएं, डूब जाएं। आनंद की वर्षा हो रही। रोएं-रोएं तक, धड़कन-धड़कन तक आनंद को पहुंच जाने दें।
चारों ओर परमात्मा के अतिरिक्त और कोई भी नहीं है, स्मरण करें, बाहर-भीतर वही है, वही है। वही है आकाश में, पृथ्वी में, हवाओं में, चारों ओर, बाहर-भीतर परमात्मा ही है। हम नहीं थे तब भी वही था, हम नहीं होंगे तब भी वही होगा। लहर उठती है और खो जाती है, सागर सदा है। स्मरण करें, पहचानें, यह जो चारों ओर आनंद और प्रकाश का सागर है, परमात्मा है। यह जो भीतर आनंद का अस्तित्व, यह जो भीतर प्रकाश, परमात्मा है। परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। परमात्मा के अतिरिक्त और सब असत्य है। परमात्मा ही सत्य है।
स्मरण करें, स्मरण करें। पहचानें, पहचानें, यही है द्वार उसका, यही है मार्ग उसका। आनंद ही आनंद, प्रकाश ही प्रकाश, परमात्मा ही परमात्मा। चारों ओर वही है, भीतर भी, बाहर भी। डूब जाएं, एक हो जाएं। जन्मों-जन्मों से जिसकी खोज है, यही वह जगह है। जन्मों-जन्मों से जिसकी तलाश है, यही वह मंदिर है। जन्मों-जन्मों से जिसे पाना चाहा है, यही वह परमात्मा है: बाहर-भीतर प्रकाश, आनंद, अमृत। यही है, यही है। कितने जन्मों से खोजा है, कितने रास्तों पर खोजा है, कितने मार्गों पर ढूंढा है। यही है। चारों ओर वही है, भीतर-बाहर, स्मरण करें। प्रकाश ही प्रकाश, अनंत प्रकाश, प्रकाश ही प्रकाश, अनंत प्रकाश, आनंद ही आनंद, अनंत आनंद। चारों ओर, बाहर-भीतर परमात्मा ही परमात्मा है।

अब दोनों हाथ जोड़ लें, उसके अज्ञात चरणों में सिर झुका दें। चारों ओर उसके ही चरण हैं। यह जो चारों ओर जो कुछ भी है, उसके ही चरण हैं। दोनों हाथ जोड़ लें। उसके अज्ञात चरणों में सिर झुका दें। अपने को छोड़ दें उसके हाथों में। पूरे प्राणों से कह दें, जो तेरी मर्जी! जो तेरी मर्जी! पूरे प्राणों से कह दें, जो तेरी मर्जी! धन्यवाद दे दें। प्रभु की अनुकंपा अपार है! प्रभु की अनुकंपा अपार है! प्रभु की अनुकंपा अपार है!
पड़े रहें उसके अज्ञात चरणों में दो क्षण। झुके रहें उसके अज्ञात चरणों में दो क्षण। छोड़ दें, समर्पित कर दें। प्रभु की अनुकंपा अपार है! प्रभु की अनुकंपा अपार है! प्रभु की अनुकंपा अपार है! प्रभु की अनुकंपा अपार है! प्रभु की अनुकंपा अपार है! प्रभु की अनुकंपा अपार है! चौबीस घंटे स्मरण रखें उसका। चौबीस घंटे धन्यवाद दें उसे। चौबीस घंटे उसकी अनुकंपा मिलती रहेगी। चौबीस घंटे उसकी अनुकंपा मिलती रहेगी।
अब धीरे-धीरे हाथ छोड़ दें। दो-चार गहरी श्वास ले लें, फिर आंख खोलें। अपनी जगह बैठ जाएं। आंख न खुले तो दोनों हाथ आंख पर रख लें। बैठते न बने तो दो-चार गहरी श्वास लें, फिर आहिस्ता से बैठें। जो गिर गए हैं, उठते न बने, दो-चार गहरी श्वास लें, फिर उठ आएं, अपनी जगह बैठ जाएं। दो बातें आपसे कह दूं, फिर हम विदा हों।
जल्दी न करें, आंख न खुले तो आहिस्ता से दोनों हाथ रख कर आंख खोलें, जल्दी न करें। बैठते न बने तो जल्दी न करें, दो-चार गहरी श्वास लें, फिर आहिस्ता से बैठ जाएं। जो गिर गए हैं, उठते न बने, दो-चार गहरी श्वास लें, फिर आहिस्ता से उठ आएं। दो-चार गहरी श्वास ले लें, आहिस्ता से बैठ जाएं, उठ आएं। दो-चार गहरी श्वास ले लें, फिर आहिस्ता से बैठ जाएं। दो-चार गहरी श्वास ले लें, बैठ जाएं। जो गिर गए हैं, वे भी दो-चार गहरी श्वास ले लें और उठ आएं।
दो बातें आपसे कह दूं। बहुत मित्रों ने ठीक से संकल्प का साथ दिया है, ठीक से प्रयोग किया है। परिणाम भी हुए हैं। परिणाम सदा होते हैं। परमात्मा की ओर उठाया गया एक भी कदम व्यर्थ नहीं जाता है। सिर्फ पागल होकर कदम उठाने की जरूरत पड़ती है। जो परमात्मा के लिए पागल नहीं हैं, वे उस तक नहीं पहुंच पाते। सभी तरह के प्रेम पागल हुए बिना पूरे नहीं होते। और परमात्मा का प्रेम तो चरम प्रेम है। जो उसके लिए पागल है वही उसके मंदिर के द्वार को खोल पाता है। बुद्धिमान वहां फड़क भी नहीं पाते। ज्यादा होशियार, चालाक, हिसाबी-किताबी उसके मंदिर की झलक भी नहीं पा सकते। जो साहसपूर्वक कूद सकते हैं उसके लिए सब छोड़ कर, वे उसे तत्काल पा लेते हैं।
रात्रि के प्रयोग में भी खयाल रखें, इतनी ही तीव्रता लानी है। अपने से लानी है। यहां तो मैं सुझाव देता हूं, रात्रि के प्रयोग में सुझाव नहीं देता हूं। अपने से ही इतनी तीव्रता लानी है। जो भी सुबह के प्रयोग में हो रहा है, वह सब अपने आप रात्रि के प्रयोग में होगा। उसको साथ देना है।
कोई आपके सवाल होंगे तो लिख कर दे देंगे, रात हम बात कर लेंगे।

सुबह की हमारी बैठक पूरी हुई।



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