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रविवार, 2 अप्रैल 2017

ध्यान दर्शन-(साधना-शिविर)-प्रवचन-08

ध्यान दर्शन-(साधन-शिविर)
ओशो
प्रवचन-आठवां-(ध्यान: भीतर की यात्रा)


मेरे प्रिय आत्मन्!
थोड़े से सवाल ले लें, फिर हम ध्यान के प्रयोग के लिए बैठें।

एक मित्र ने पूछा है कि रात्रि का प्रयोग क्या रात्रि के लिए ही है और सुबह का प्रयोग सुबह के लिए ही?

ऐसा कुछ नहीं है। दोनों प्रयोगों में से जो आपको ज्यादा गहराई में ले जाता हो, उसे आप कभी भी कर सकते हैं। अगर आपको दोनों प्रयोग एक-दूसरे के लिए परिपूरक बनते हों, तो आप दोनों प्रयोगों को सुबह और सांझ, जब जैसी सुविधा हो वैसा कर सकते हैं। अगर दो में से कोई एक प्रयोग आपके लिए अर्थ न रखता हो, तो उसे छोड़ दे सकते हैं। एक प्रयोग से भी वही परिणाम हो जाएगा। दोनों प्रयोगों से भी इकट्ठा होकर परिणाम वही होगा। एक-एक व्यक्ति के ऊपर निर्भर है कि उसे जैसी सुविधा हो वैसा चुनाव कर ले।


पूछा है कि जो लोग खड़े होकर प्रयोग करते हैं, क्या उनको भी रात्रि के प्रयोग में आंख मेरी ओर स्थिर रखनी है?

मेरी ओर दृष्टि स्थिर रखनी है। आंख तो हिलेंगे-डुलेंगे तो स्थिर नहीं रहेगी, लेकिन दृष्टि स्थिर रहेगी। डोलते रहें, नाचते रहें, लेकिन देखते मुझे ही रहें। देखने का काम मेरी तरफ ही उनका बना रहे। और जिस तरह सुबह के प्रयोग में आखिरी दस मिनट प्रतीक्षा के लिए हैं, वैसे ही रात्रि के प्रयोग में भी बाद में प्रतीक्षा जरूरी है। चालीस मिनट प्रयोग कर लें, तीस मिनट प्रयोग कर लें, जितना आपको सुविधाजनक हो, और दस-पंद्रह मिनट, बीस मिनट, जितनी सुविधा हो, वह प्रतीक्षा के लिए भी छोड़ दें। ऐसा भी कर सकते हैं कि रात्रि सोने के पहले प्रयोग करें और फिर प्रतीक्षा करते-करते ही सो जाएं। उसका परिणाम बहुत गहरा होगा, पूरी रात्रि प्रतीक्षा बन जाएगी। और गहरे मन में सरकती रहेगी प्रतीक्षा रात्रि भर, तो सुबह बहुत ही भिन्न स्थिति में उठना होगा, सब बदला हुआ मालूम पड़ेगा।

एक मित्र ने पूछा है कि रात्रि के प्रयोग में भी तीव्र श्वास जरूरी है?

आपके ऊपर है। रात्रि के प्रयोग में, जिन्होंने सुबह का प्रयोग किया है, उन्हें लगे कि तीव्र श्वास से सहयोग मिलेगा, वे तीव्र श्वास ले सकते हैं। जिन्हें लगे कि बिना उसके भी ध्यान गहरा हो रहा है, वे छोड़ सकते हैं। वह आपके ऊपर निर्भर है।

एक मित्र ने पूछा है: आप बार-बार लोगों को कहते हैं कि संन्यास ले लें। परंतु जब मन को शांति नहीं है, तो संन्यास लेने से क्या होगा?

उन मित्र का कार्ड है, लेकिन नाम उन्होंने पीछे काट दिया है। मुझे पता है कि किसको मैंने कहा है, उन्हीं का कार्ड है। और उनको कहने का कारण भी आपको बता दूं, कार्ड को काटने का कारण भी साफ हो जाएगा।
वे मित्र मेरे पास आए थे। उन्होंने मुझे कहा कि किसी ज्योतिषी ने उन्हें बहुत वर्षों पहले बहुत सी बातें बताई थीं। वे सभी बातें अब तक ठीक-ठीक वैसी ही हो गई हैं जैसी उस ज्योतिषी न बताई थीं। अब उनका चौंतीसवां वर्ष है। और उस ज्योतिषी ने कहा था कि चौंतीसवें वर्ष में आप किसी की हत्या करेंगे। अब वह चौंतीसवां वर्ष आ गया है और अब तक की सारी बातें ठीक हो गई हैं। तो अब वे परेशान हैं।
तो मैंने उनसे कहा कि अगर आपको लगता है कि सारी बातें ठीक हो गई हैं, तो ज्योतिष सही हो या गलत, उसके संबंध में मैं अभी कोई बात नहीं कर रहा हूं, लेकिन अगर सारी बातें सही हो गई हैं तो बहुत डर है कि सारी बातों के सही हो जाने की वजह से हत्या भी हो सकती है। तो आप अपनी आइडेंटिटी बदल लें। उनसे मैंने कहा, आप एक वर्ष का पीरियाडिकल रिनंसिएशन ले लें। एक वर्ष के लिए संन्यासी हो जाएं। नाम भी बदल लें, व्यक्तित्व भी बदल लें, एक वर्ष साधना में व्यतीत करें। यह एक वर्ष अगर उनके अपने व्यक्तित्व से छिन्न-भिन्न हो जाए, वे दूसरे व्यक्ति हो जाएं, तो बहुत संभावना है कि उनकी जो कंटिन्युटी है माइंड की, जो सातत्य है, वह टूट जाए। और अभी तक उनके जीवन में ज्योतिषी की बताई गई जो बातें सही हुई हैं, उन बातों के सही होने के कारण ही डर है कि वे हत्या कर सकते हैं। यह उन सज्जन को मैंने सलाह दी थी।
अब वे यहां मुझसे पूछ रहे हैं कि आप हर किसी को सलाह देते हैं।
यह सलाह हर किसी को नहीं दी गई है।
और यह पूछ रहे हैं कि मन शांत नहीं है और आप संन्यास लेने को कहते हैं।
मन शांत हो सके इसीलिए कहता हूं। जब आपका मन पूरा शांत हो जाएगा तब संन्यास लेने की इच्छा है? तब संन्यास की कोई जरूरत न होगी। तब तो संन्यास हो गया।
वे यह कह रहे हैं कि ऐसे तो हम वैसे ही बीमार हैं और आप दवाई लेने की सलाह दे रहे हैं। बीमार आदमी को दवाई लेने की सलाह देते हैं, ऐसा वे पूछ रहे हैं। तो जब आप स्वस्थ हो जाएंगे तब दवाई की जरूरत रह जाएगी?
लेकिन कुछ नासमझ ऐसे हैं कि जब बीमार रहेंगे तब दवाई न पीएंगे और जब स्वस्थ हो जाएंगे तब दवाई पी लेंगे। बीमार आदमी दवाई पीए तो स्वस्थ हो सकता है, स्वस्थ आदमी दवाई पीए तो बीमार हो सकता है। यह जो...
लेकिन बड़े मजे की बात है! मैंने उन्हें बहुत जान कर यह बात कही थी। हत्यारे होने में उन्हें बहुत ज्यादा कठिनाई नहीं मालूम पड़ रही, संन्यास लेने में ज्यादा कठिनाई मालूम पड़ रही है। मैं उनके घर नहीं गया था, वे ही समय मांग कर आए थे कि मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं, कि अब यह हत्या का वक्त आ गया, और सब बातें सही हुई हैं, इसलिए डर है मुझे कि कहीं यह हो न जाए। लेकिन हत्या करनी आसान, संन्यास लेना कठिन मालूम पड़ता है!
संन्यास से मतलब कुल इतना ही है कि हमारा जो व्यक्तित्व था कल तक, उससे हम अपना संबंध विच्छेद करते हैं। कल तक हमारी जो आइडेंटिटी थी, हमारा जो तादात्म्य था, हम जिस तरह जाने जाते थे, अब हम वह नहीं हैं, ऐसी घोषणा करते हैं--जगत के प्रति भी और अपने प्रति भी।
संन्यासी का पुनर्जन्म होता है। इसलिए नाम बदल देते हैं। नाम बदल देने का कुल इतना ही मतलब है कि पुराना आदमी, दि ओल्ड मैन हैज डाइड; वह जो पुराना आदमी है, मर गया। संन्यास की जो प्रक्रिया थी दीक्षा की बहुत प्राचीन, वह यही थी कि जब कोई आदमी संन्यास लेता तो पहले उसे नग्न करके, स्नान करा कर, जैसा मुर्दे को दफनाने के पहले स्नान करवाते हैं; उसका सिर घोट देते, जैसे कि मुर्दे का सिर साफ कर देते हैं; फिर उसे चिता पर लिटा देते, फिर चिता में आग लगा देते। और फिर चारों ओर उसके प्रियजन और मित्रगण और दीक्षा देने वाला गुरु और सारे लोग कहते कि वह आदमी जल रहा है, वह आदमी मर रहा है, जो तुम थे। और जब चिता की लपट बिलकुल उसे पकड़ने के करीब हो जाती तब उसे बाहर निकाल लेते और कहते कि अब तुम दूसरे आदमी हो, वह आदमी चिता में गया जो तुम कल तक थे, अब तुम दूसरे आदमी हो। अब तुम किसी के बेटा नहीं, अब तुम किसी के पति नहीं, अब किसी की पत्नी नहीं। अब तुम्हारा नया जीवन शुरू हुआ। पुरानी सारी आइडेंटिटी, पुराना सारा तादात्म्य टूट गया है।
संन्यास का कुल मतलब इतना है कि जीवन की जो हमारी एक सातत्य धारा है, उसको कहीं से, कहीं से भी तोड़ दिया जाए। अन्यथा आदमी आदत के वश वैसा ही जीया चला जाता है जैसा वह कल तक जीया था। कहीं न कहीं ब्रेक, कहीं न कहीं खंड, कहीं न कहीं तोड़ने की जरूरत पड़ती है। अन्यथा हम चले जाते हैं पुरानी लकीर में बंधे हुए। और वही लकीर हमें मृत्यु तक पकड़े रखती है।
संन्यास का और कोई मतलब नहीं है; संन्यास का मनोवैज्ञानिक मतलब इतना ही है कि हम व्यक्ति का अब तक उसके चित्त में जो स्वयं का इमेज था, उसकी जो प्रतिमा थी स्वयं के प्रति, उसको हम बदल रहे हैं। फर्क पड़ता है। हैरानी से फर्क पड़ता है। आश्चर्यजनक रूप से फर्क पड़ता है।
एक मित्र हैं, संन्यास लिया उन्होंने। मुझसे कहते थे, कपड़े बदलने से क्या होगा?
मैंने कहा, बदलो और देखो! और न हो तो फिर बदल लेना।
पंद्रह दिन बाद आकर मुझे कहे कि यह तो बड़ी हैरानी की बात है! शराब की दुकान के सामने जाकर एक क्षण को पैर रुकते हैं, फिर स्मरण आता है--मैं संन्यासी हूं, पैर एकदम आगे बढ़ जाते हैं। सिगरेट को हाथ में लेकर मुंह तक ले जाने की पुरानी आदत, यांत्रिक ढंग से सिगरेट निकल आती है, मुंह तक पहुंचती है, और तत्काल याद आता है--मैं संन्यासी हूं, और हाथ ढीले पड़ जाते हैं।
एक डिसकंटिन्युटी पैदा हो गई। अब अगर कोई गाली देगा, तो उसी ढंग से गाली नहीं दी जा सकती जिस ढंग से कल दी थी। एक क्षण को स्मरण आ ही जाएगा कि मैं संन्यासी हूं। इतना सा स्मरण परिणामकारी होता है। स्मरण छोटा नहीं है वह। हमने एक शब्द सुन रखा है: सुरति। अभी किसी ने एक प्रश्न भी पूछा है। लेकिन सुरति का मतलब आपको पता है? सुरति का मतलब--स्मृति का बिगड़ा हुआ रूप है--रिमेंबरिंग, याद बनी रहे।
एक आदमी बाजार जाता है। कोई सामान खरीदना है, कपड़े में गांठ लगा लेता है, कुरते में गांठ लगा लेता है, धोती में गांठ लगा लेता है। अब गांठ से कोई सामान लाने का संबंध है? कोई भी संबंध नहीं है। लेकिन गांठ जहां भी दिखाई पड़ती है, याद आता है--कोई चीज घर ले जानी है। वह गांठ सुरति बन जाती है, स्मृति बन जाती है, रिमेंबरिंग बन जाती है। दिन में पच्चीस दफा जब भी गांठ दिखाई पड़ती है कुरते में लगी, उसे याद आता है--चीज घर ले जानी है। बहुत संभावना है कि वह चीज घर ले आएगा। भूलने का उपाय कम है। चूंकि सुरति का भी एक उपाय उसने साथ में रखा हुआ है।
संन्यासी के कपड़े सुरति के लिए सहयोगी गांठ है एक। उसका गेरुआ वस्त्र उसे भी याद दिलाता है वह संन्यासी है, दूसरे लोगों को भी दिलाता है वह संन्यासी है। बड़े लंबे अरसे में, हजारों-लाखों साल में मनुष्य की चेतना में सुरति की गांठें पैदा की गई हैं। एक आदमी संन्यासी की तरह दिखाई पड़ जाता है...
एक बहन ने मुझे आकर कहा कि मेरी मां बिलकुल पागल है। वह कोई फैशन में ही गेरुआ कपड़े पहने हो तो उसी को नमस्कार करने लगती है।
तो मैंने कहा, वह पागल नहीं है। भला वह आदमी फैशन में ही कपड़े पहने हो, लेकिन कोई उसको नमस्कार करने लगे, तो भी उस आदमी में फर्क पड़ता है। अगर एक बुरे से बुरे आदमी को गेरुए वस्त्र पहना दिए जाएं और सारा समाज उसको नमस्कार करने लगे और आदर देने लगे, तो उस आदमी को बुरा होना मुश्किल हो जाएगा।
चित्त के काम करने के नियम हैं। अगर बुरे से बुरे आदमी को भी आदर मिल जाए तो वह भी आदृत होना चाहता है और आदर के विपरीत करना उसे मुश्किल हो जाता है। उसे भी लाभ होता है। और जो आदर दे रहा है किसी को उसके भी अहंकार को पिघलने का मौका मिलता है। अकारण दे रहा है आदर।
कोई मिनिस्टर निकलता है सड़क से, आप नमस्कार करते हैं। वह कंडीशनल होता है, वह अकारण नहीं होता, उसके पीछे कारण है। कल वही आदमी मिनिस्टर नहीं होगा, तो कोई उसको नमस्कार करने वाला नहीं है। ताकत है, पद है, प्रतिष्ठा है, धन है किसी के पास, किसी के पास ज्ञान है।
संन्यासी के पास कुछ भी नहीं है। संन्यासी का मतलब ही यह है कि जिसने कहा कि कुछ भी अर्थ का नहीं है। भिखारी है। इसलिए बौद्धों ने तो अपने संन्यासी के नाम के सामने भिक्षु जोड़ा। भिखारी है। अब एक भिखारी को नमस्कार करना! अकारण है, कोई कारण नहीं है। न करें तो भिखारी कुछ कर नहीं सकता। मिनिस्टर को न करें तो कुछ कर सकता है, करेगा! नहीं तो मिनिस्टर, बेकार हो गई उसकी मेहनत, दौड़-धूप, होने की। धनपति को आदर न दें तो कुछ करेगा, क्योंकि धन के लिए उसने इतनी मेहनत की और अगर आदर भी न मिले तो सारी मेहनत बेकार हो गई।
संन्यासी को आदर न दें तो कुछ भी नहीं करेगा। करने का कोई सवाल ही नहीं है, वह भिखारी है। वह कहता है: इस जगत में कुछ है ही नहीं मेरे पास, मैं बिलकुल खाली हूं, खाली भिक्षापात्र हूं। पर उसको भी आदर देने की बात आपके अहंकार को विनम्र कर जाती है और उसे स्मरण दिला जाती है कि वह कौन है! और यह स्मृति अगर चौबीस घंटे बनी रहे...
और आप हैरान होंगे, जिस दिन संन्यासी होने का संकल्प करेंगे, नींद में भी स्मरण रहेगा कि संन्यासी हैं। नींद तक में पेनिट्रेट कर जाती है स्मृति और काम करने लगती है। और हम वही हो जाते हैं जिसका हमें स्मरण हो जाता है। हम वही हो जाते हैं जिसका हमें स्मरण हो जाता है।
अभी मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जो शिक्षक बच्चों को कहते हैं--गधे हो, बुद्धू हो, मूर्ख हो, वे उन बच्चों को गधा, मूर्ख बनाने का कारण बन जाते हैं। अगर एक कालेज, एक स्कूल के सारे शिक्षक तय कर लें, तो प्रतिभाशाली से प्रतिभाशाली बच्चे को अगर पहले ही दिन से मूर्ख कहना शुरू कर दिया जाए तो यूनिवर्सिटी से वह महामूर्ख होकर निकलेगा। नहीं कि उसके पास प्रतिभा नहीं थी। लेकिन इतने लोगों का सजेशन, इतने लोगों का सुझाव काम शुरू कर देता है।
जब आप एक आदमी को आदर देना शुरू करते हैं अनेक लोग, तो आप उसे सुझाव दे रहे हैं कि तुम आदर योग्य हो। आप उसे यह सुझाव दे रहे हैं कि तुम्हें आदर योग्य होना चाहिए। आप उसे सुझाव दे रहे हैं कि तुम साधारण नहीं हो। आप उसे सुझाव दे रहे हैं कि तुमने कोई निर्णय लिया है, कोई संकल्प किया है। सारे तरफ से गांठें बंध गईं उस आदमी के ऊपर।
तो उन मित्र को मैंने सलाह दी थी और फिर सलाह देता हूं। कमजोर आदमी मालूम पड़ते हैं। निजी सलाह दी थी, यहां नहीं पूछना था मुझसे उन्हें। और यहां भी पूछा था तो कम से कम कार्ड पर नाम नहीं काटना था। और इस तरह पूछा है जैसे कोई जनरल सवाल पूछ रहे हों। जनरल सवाल ही पूछना था तो पूरी बात लिखनी थी कि चौंतीसवें साल में मैं हत्या करने वाला हूं! क्या इरादे हैं! वह तो उन्होंने व्यक्तिगत पूछा। संन्यास की सलाह दी, वह यहां सबके सामने पूछते हैं। इतनी कमजोरी हो तो जिंदगी में कुछ भी नहीं हो सकता है। साहस चाहिए। साहस की जरूरत है।
एक और सवाल। फिर कुछ और सवाल हैं, वे सुबह आपसे बात करूंगा।

किसी ने पूछा है: तीसरा नेत्र खुलने के क्या चिह्न हैं?

कल भी रास्ते में चलते वक्त उन्होंने मुझसे पूछा था, और मैंने उनको कहा था कि एकांत में आ जाएं तो अच्छा। क्योंकि तीसरे नेत्र और उस तरह की जितनी इसोटेरिक बातें हैं, वह अच्छा है कि जिनको उत्सुकता हो वे एकांत में ही जान लें। क्योंकि कई बार जिनके लिए वह जानना जरूरी नहीं है, उनके लिए नुकसान हो सकता है। बहुत सी बातें हैं जो समय के पहले जानने से नुकसान होता है। समय आ जाए तभी उन्हें जानना उचित है।
और थोड़ी बातें नहीं हैं, बहुत बातें हैं जिंदगी में जो इसोटेरिक हैं, जो गुह्य हैं, जिन्हें जानने से कई बार बहुत खतरे हो जाते हैं। खतरे क्या हो जाते हैं, हमारा मन जो है वह बच्चों जैसा कुतूहल से भरा हुआ है। इंक्वायरी कम है, क्युरिआसिटी ज्यादा है। जिज्ञासा कम है, कुतूहल ज्यादा है--तीसरा नेत्र क्या है?
ऐसा नहीं है कि तीसरे नेत्र से कोई बहुत मतलब है। मतलब होता, तो मैंने बुलाया था कि आ जाएं, तो शायद उसमें घंटा भर लगता आने-जाने में, उतना खर्च करने का विचार नहीं है। तो इस संबंध में नहीं उत्तर दूंगा।
कुतूहल काफी नहीं है। और कुतूहल कभी-कभी खतरनाक है। कभी-कभी ऐसे ही हो जाता है कि जैसे कुतूहल में कोई जहर पीकर देख ले और कुतूहल में कोई आग में हाथ डाल कर देख ले, वैसे ही हो जाता है। तो तीसरे नेत्र के संबंध में मैं तो तभी बात कर सकता हूं जब आपके दोनों नेत्रों को ठीक से देख लूं कि तीसरे पर कुछ काम हो सकता है कि नहीं हो सकता। अन्यथा बात नहीं की जा सकती है।
और इसी तरह के और भी दो-चार सवाल हैं जिनको कि सामूहिक बात करना उचित नहीं है। क्योंकि और लोग सुन लेंगे। वे भी जाकर कुतूहल में कुछ करना शुरू करें। कुछ होना शुरू हो सकता है। होने में कठिनाई नहीं है। शक्तियां हमारे भीतर छिपी पड़ी हैं। और उनके संबंध में ऐसी ही जानकारी चाहिए जैसे बटन दबाने से बिजली जल जाती है। ठीक ऐसी ही। ठीक जगह पर अगर थोड़ी सी भी चोट की जाए तो तीसरी आंख काम शुरू कर देती है। लेकिन वह व्यक्ति इस योग्य है कि तीसरी आंख काम शुरू करे या नहीं, यह जान लेना सबसे पहली जरूरत है।
प्लेटो ने एक छोटी सी कहानी लिखी है। उसने लिखा है कि मैंने बड़े से बड़े नैतिक आदमी से, मॉरेलिस्ट से पूछा है कि अगर तुम्हें हम एक ऐसी शक्ति दे दें, एक ऐसा ताबीज दे दें कि तुम अदृश्य हो सको, इनविजिबल हो सको, तो तुम्हारी नीति टिकेगी फिर कि नहीं टिकेगी?
तो प्लेटो ने लिखा है कि जिससे भी मैंने कहा, उसने फौरन पूछा कि ऐसा कोई ताबीज है?
और जब उससे यह पूछा कि क्या तुम नैतिक रह सकोगे ऐसा ताबीज मिलने पर?
तो उस आदमी ने कहा, बहुत कठिन मालूम पड़ता है। पुलिसवाला देख न सके, तो रास्ते पर ठीक चलने की जरूरत नहीं रह जाती। मकान मालिक देख न सके, तो उसकी चीज चुराने में कितनी कठिनाई है!
अगर आपको भी पता चले कि ऐसा कोई ताबीज है--कल्पना में ही, अभी ताबीज मिल नहीं गया--ऐसा कल्पना में ही पता चले कि ऐसा कोई ताबीज है, तो फौरन आप योजनाएं बनाने लगेंगे कि पड़ोसी की स्त्री को लेकर भागना है कि तिजोड़ी लेकर भागना है कि क्या करना है, क्या नहीं करना है! तत्काल मन योजनाएं बनाना शुरू कर देगा।
तीसरा नेत्र बड़ी शक्तिशाली बात है। उसके दुरुपयोग हो सकते हैं। और कठिनाई यही है कि ध्यान के पहले सदा ही दुरुपयोग हो सकते हैं। इसलिए ध्यान की फिक्र करें। एक बार ध्यान चित्त में रम जाए तो फिर कितनी ही बड़ी शक्ति आपको मिल जाए उसका दुरुपयोग नहीं हो सकता। क्योंकि दुरुपयोग करने वाला मन ही मर चुका है। लेकिन उसके पहले कोई भी शक्ति मिल जाए तो खतरा है, क्योंकि मन मौजूद है।
अगर तीसरा नेत्र मिल जाए तो आप दूसरे के विचार जरूर पढ़ना चाहेंगे। आप दूसरे के लिफाफे में बंद चिट्ठी को जरूर देखना चाहेंगे। और भी बहुत कुछ करना चाहेंगे, जो आपके ऊपर सोचने को छोड़ देता हूं, आप सोचना कि तीसरा नेत्र मिल जाए तो आप क्या-क्या करना चाहेंगे?
इसलिए जिन्होंने पूछा है उनको कहूंगा कि वह निजी बात है, वे आकर पूछ लें। उनकी पात्रता हो तो उस संबंध में कुछ काम किया जा सकता है। और इधर जरूर आप में से उन सब मित्रों को मैं निमंत्रण देता हूं, जिनको ऑकल्ट और इसोटेरिक, गुप्त विज्ञानों के संबंध में कुछ भी जानना हो, वे जरूर मेरे पास आ जाएं, उनसे मैं बात करना चाहूंगा। लेकिन उनके कुतूहल, उनकी क्युरिआसिटी के लिए नहीं। अगर वे उस दिशा में कुछ काम करने की पात्रता रखते हों, तो जरूर बहुत दिशाएं हैं, आदमी अनंत शक्ति का स्रोत है, उसके भीतर बहुत छिपा है, जो प्रकट किया जा सकता है।
लेकिन ध्यान के पहले कुछ भी खतरनाक है। जैसे विज्ञान के खतरे पैदा हो गए हैं। आदमी तो है जानवर जैसा और हाथ में ताकत आ गई है देवताओं जैसी--हाइड्रोजन बम, एटम बम। तो खतरा होने वाला है। क्योंकि आदमी के पास बुद्धि उतनी है, जितनी उसके हाथ में पत्थर होता है तो जरा सा गुस्सा आ जाता है तो फेंक कर मार देता है। बुद्धि उतनी है, हाथ में एटम बम है। जरा गुस्सा आ जाए तो फेंक कर मारने वाला है। पर एटम बम और पत्थर में बहुत फर्क है और आदमी वही का वही है।
ठीक योग भी एक विज्ञान है। और योग के द्वारा भी बहुत पहले इस तरह का नुकसान पहुंच चुका है, जैसा आज विज्ञान के द्वारा पहुंच रहा है। जो लोग ध्यान के पहले योग के गुह्य मार्गों में प्रवेश कर जाते हैं, उनके पास जो कुछ भी आता है वह सब ब्लैक आर्ट हो जाता है। वह सब अंधेरी कला हो जाती है। और उस अंधेरी, अंधी कला का दुरुपयोग ही होता है, सदुपयोग नहीं होता है। इसलिए ध्यान की फिक्र करें यहां तो। और अगर किसी को निजी आकांक्षा है तो वह अलग से मुझसे बात करे। उस दिशा में बहुत काम जरूर ही किया जा सकता है।

अब हम ध्यान के लिए बैठें। चालीस मिनट तक आंख खोल कर, आज चौथा दिन है, बहुत तीव्र प्रयोग करना है। इसलिए अधिक लोग जिनको भी तीव्रता में जाना है वे खड़े हो जाएं, बाहर निकल जाएं। और जो लोग बैठे रह जाते हैं वे भी ध्यान रखें कि उन्हें बैठे नहीं रह जाना है। शरीर में जो भी हो रहा है उसे तीव्रता से होने दें, बैठे हुए भी। और पीछे जो मित्र बैठे हैं वे शायद सोचते हों कि पीछे बैठे हैं, इसलिए बैठने को बैठे हैं, तो गलत। उन्हें भी प्रक्रिया में जोर से भाग लेना है।
जो लोग देखना चाहते हों वे मेरे सामने वाली जगह में चले जाएं। देखने वाला कोई भी और कहीं खड़ा न हो, ठीक मेरे सामने साधकों के पीछे खड़ा हो जाए। और देखने वाले बात न करेंगे, इतनी कृपा रखें।
बातचीत न करें। बातचीत की कोई जरूरत नहीं है। आपको जाने में बातचीत की क्या जरूरत है? जिन मित्रों को खड़े होकर करना है वे दोनों ओर और मेरे पीछे फैल जाएं। जिन मित्रों को सिर्फ देखना है वे जरा दूर हट कर साधकों से पीछे खड़े हो जाएं, वहां से देखें। यहां बीच में कोई भी देखने वाला नहीं बैठा रहेगा, चुपचाप हट जाएं और पीछे चले जाएं। और देखने वाले मित्र यहां आस-पास कहीं भी खड़े न हों, सिर्फ सामने आ जाएं ताकि वे अलग खड़े हो सकें। देखने वाले मित्र बात न करेंगे चालीस मिनट, इतनी कृपा रखेंगे, चुपचाप देखते रहें। और आप लोग भी थोड़ी-थोड़ी जगह बना कर बैठें, ताकि घूम सकें, हिल सकें, कांप सकें, डोल सकें, चिल्ला सकें, थोड़ी जगह बना कर बैठें।
ठीक है! मैं मान लूं कि देखने वाले पीछे हट गए हैं। बातचीत नहीं करेंगे। चुपचाप चालीस मिनट देखते रहें। देखने से भी लाभ होगा। इस बार देखें, अगली बार करने का भी खयाल आपको आ सकता है। लेकिन यहां कोई देखने वाला न खड़ा रहे। कल कुछ लोग यहां खड़े थे, कुछ लोग यहां खड़े थे, वे हमारे साधकों को बाधा देते हैं, आप पीछे चले जाएं। बीच में कोई बैठा न रहे।
अब सबसे पहले आंख बंद कर लें दो मिनट के लिए। हाथ जोड़ कर प्रभु के सामने संकल्प कर लें। आज चौथा दिन है, पूरी शक्ति लगानी है। मैं प्रभु को साक्षी रख कर संकल्प करता हूं कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगाऊंगा! सौ प्रतिशत, पूरी! मैं प्रभु को साक्षी रख कर संकल्प करता हूं कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगाऊंगा! सौ प्रतिशत, पूरी! मैं प्रभु को साक्षी रख कर संकल्प करता हूं कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगाऊंगा! सौ प्रतिशत, पूरी! अपने को जरा भी बचाना नहीं, पूरा ही डुबा देना है।
अब आंख खोल लें। चालीस मिनट आंख को बिना झपे मेरी ओर देखना है। भीतर शक्ति जगेगी, उसे जगने देना है। मैं आपको बोलूंगा तो नहीं, हाथ से इशारा करूंगा, तो आपकी शक्ति उठे तो उसे ऊपर उठा ले जाना है। और जब आपकी शक्ति इतनी ऊपर उठ जाएगी कि मुझे लगे कि परमात्मा की शक्ति को भी निमंत्रित किया जा सकता है, तो मैं ऊपर से नीचे की ओर इशारा करूंगा, उस वक्त बड़ी चीख-पुकार, बड़ी हलन-चलन पैदा होगी, उसे होने देना है।

(इसके बाद चालीस मिनट तक ध्यान-प्रयोग चलता रहा। ओशो हाथ के इशारों से साधकों को अपनी पूरी शक्ति लगाने के लिए प्रोत्साहित करते रहे। चालीस मिनट के ध्यान-प्रयोग के बाद ओशो साधकों को शांत होकर बैठ जाने के लिए कहते हैं और अंतिम सुझाव देते हैं।)

कोई अस्सी प्रतिशत मित्र, अपने संकल्प के अनुसार पूरा प्रयोग कर रहे हैं। उतने ही परिणाम भी हो रहे हैं। जो बीस प्रतिशत मित्र पीछे रह गए हैं, उनसे निवेदन है, कल आखिरी दिन है, वे भी सम्मिलित हो जाएं।
कुछ बहुत निकट है जानने को, उससे हम पास से ही चूक जाते हैं। नदी के किनारे आकर भी प्यासे रह जाते हैं। कबीर ने कहा है, देख कर बहुत हंसी आती है कि सागर में मछली प्यासी रह जाती है! करीब बहुत होते हैं, फिर भी चूक जाते हैं। चूकें न, कल आखिरी दिन है, कल सुबह के प्रयोग में और शक्ति बढ़ाएं। कल सांझ के प्रयोग में और शक्ति बढ़ाएं। अस्सी प्रतिशत मित्र बहुत निकट आ गए हैं। आशा रखनी चाहिए कि हम सभी इस पांच दिन के प्रयोग से कुछ सीख कर लौटेंगे, जो कि जीवन की संपत्ति बन सकता है।

हमारी रात की बैठक पूरी हुई।



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