दिनांक
1 दिसम्बर, 1968; सुबह
ध्यान—शिविर, नारगोल।
प्रभु
के मंदिर की
सीढ़ियों की
बात कल मैंने
आपसे कही।
जैसे सीढ़ियां
हैं उस मंदिर
की,
वैसे द्वार
भी हैं।
पहले
द्वार पर आज
चर्चा करेंगे।
मैं जो कहूं
उसे सुनने के
साथ—साथ अनुभव
भी कर सकें तो
ही वह स्पष्ट
हो सकेगा। और
बाद में अनुभव
करना जरूरी
नहीं है। मैं
जब बोल रहा
हूं तब भी
अनुभव किया जा
सकता है। मेरे
बोलने के साथ
ही जिस संबंध
में मैं कुछ कहूंगा
वह आपका अनुभव
भी बनाया जा
सकता है।
प्रभु
के मंदिर का
पहला द्वार है
करुणा, कंपेशन। लेकिन
मनुष्य का
करुणा से कोई
भी संबंध नहीं
रहा है। और वे
लोग जिनका
करुणा से कोई
भी संबंध नहीं
परमात्मा की
खोज में चाहे
हिमालय पर
जाते हों, चाहे
और दूर गुफाओं
में खो जाते
हों, प्रभु
से उनका कोई
संबंध कभी
स्थापित नहीं
हो सकेगा। उस
तक पहुंचने के
लिए तो करुणा
की गहराइयों में
उतरना जरूरी
है।
और हम सब कठोरता के सख्त पत्थर बन गए हैं। मनुष्य करीब—करीब एक पाषाण हो गया है, एक पत्थर। पत्थर भी इतने पत्थर नहीं हैं जितने हम पत्थर हो गए हैं। चारों तरफ देखेंगे समाज में तो मेरी इस बात के लिए कोई प्रमाण खोजने की जरूरत नहीं होगी। अगर मनुष्य इतना कठोर न होता जितना कि वह है, तो इतने कुरूप, इतने गंदे, इतने दुखद और इतने हिंसात्मक समाज को जन्म नहीं दे सकता था।
और हम सब कठोरता के सख्त पत्थर बन गए हैं। मनुष्य करीब—करीब एक पाषाण हो गया है, एक पत्थर। पत्थर भी इतने पत्थर नहीं हैं जितने हम पत्थर हो गए हैं। चारों तरफ देखेंगे समाज में तो मेरी इस बात के लिए कोई प्रमाण खोजने की जरूरत नहीं होगी। अगर मनुष्य इतना कठोर न होता जितना कि वह है, तो इतने कुरूप, इतने गंदे, इतने दुखद और इतने हिंसात्मक समाज को जन्म नहीं दे सकता था।
जन्म
से लेकर
मृत्यु, सारा
जीवन हिंसा का
एक जीवन है—
कठोरता का, दुख देने का,
चारों ओर
कांटे फैलाने
का। लेकिन
शायद कठोरता
इतनी हमारे
गहराई में प्रविष्ट
हो गई है कि
उसका हमें कोई
पता भी नहीं चलता
है। उसका हमें
बोध भी नहीं
होता है।
हमारा सारा
व्यक्तित्व
ही कठोरता से
भर गया है।
हमारे जीवन के
सारे चरण—हमारा
उठना, बैठना,
सोचना, देखना
तक कठोर हो
गया है और
प्रभु के
मंदिर का
द्वार है करुणा।
वे वहां
पहुंचते हैं,
सत्य तक, अमृत तक जो
अपने जीवन की
सारी कठोरता
को तोड़ कर तरल
बनने में
समर्थ हो जाते
हैं, करुणा
में बह जाने
में समर्थ हो
जाते हैं।
करुणा
से मेरा क्या
अर्थ है? और
कठोरता से
क्या? जब
मैं कह रहा
हूं कि मनुष्य
कठोर हो गया
है तो आप ऐसा
मत सोचना कि
मैं दूसरे
मनुष्यों के
संबंध में कह
रहा हूं तो आप
भी मेरे साथ
अनुभव से गुजर
सकेंगे।
सोचना अपने
लिए कि क्या
मैं कठोर हो
गया हूं? अन्यथा
यह बात बिलकुल
ठीक मालूम
पड़ती है कि लोग
कठोर हो गए
हैं। हम अपने
को बाद देकर, अलग करके
सोचते हैं तो
बात ठीक मालूम
पड़ती है कि
लोग कठोर हो
गए हैं, लेकिन
तब इस बात का
कोई अर्थ नहीं
है।
साधक
निरंतर जब भी
सोचता है तो
अपने से शुरू
करता है सोचना।
मनुष्य कठोर
हो गया है
यानी मैं कठोर
हो गया हूं।
और जरा सी भी
दृष्टि अपने
जीवन में और
यह बताने में
कोई कठिनाई
नहीं रह जाएगी
कि हम किस
भांति कठोर हो
गए हैं।
हेनरी
थारो था
अमरीका में एक
अदभुत
व्यक्ति। कोई
उससे मिलने
आया था। हेनरी
थारो ने
प्रेम से उसका
हाथ अपने हाथ
में लिया और
फिर उदासी से
हाथ छोड़ दिया
और आंख बंद कर
ली। वह आदमी
तो बहुत हैरान
हुआ। उसने कहा
: आपको क्या हो
गया है? आपने
हाथ इतने
प्रेम से लिया
था, फिर
छोड़ क्यों
दिया, फिर आंख
क्यों बंद कर
ली, फिर
आपकी आंखों से
ये आंसू क्यों
बह रहे हैं? आपको हो
क्या गया है?
लेकिन
हेनरी थारो
है कि रोता ही
चला जाता है।
वह आदमी
हिलाने लगा, थारो ने
आंख खोली और
कहा कि तुझे
पता नहीं क्या
हुआ? तेरे
हाथ को मैंने
हाथ में लिया
और मुझे ऐसा नहीं
मालूम पड़ा कि
मैं किसी
जीवित मनुष्य
का हाथ अपने
हाथ में ले
रहा हूं। मुझे
ऐसा लगा जैसे
कोई लाश है
जिसके हाथ को
मैंने पकड़
लिया। मुझे
ऐसा लगा जैसे
वृक्ष की कोई
सूखी शाखा है जिसे
मैंने हाथ में
ले लिया। वहां
न प्रेम था, न करुणा थी, न सौहार्द
था, न कोई सहानुलुत
थी। न उस हाथ
में कोई रस था,
न कोई जीवंत
प्रवाह था। वह
हाथ एक मुर्दा
हाथ था।
आपका
हाथ भी तो
इतना मुर्दा
नहीं हो गया
है कि उसमें
कोई प्रवाह न
हो,
कोई रस न हो,
कोई
सहानुभूति न हो?
कभी न हम
खोजते हैं, न सोचते हैं
कि हमारे हाथ
कैसे हो गए, हमारी आंखें
कैसी हो गईं? उठते हैं, बैठते हैं, चलते हैं, लेकिन कोई
करुणा का, कोई
प्रेम का बहाव
व्यक्तित्व
से नहीं होता।
कोई प्रेम की
किरणें चारों
तरफ बिखरती
नहीं, हवाओं
में कोई हमारी
सुगंध नहीं
जाती। अनेक—अनेक
तलों पर वह
कठोरता है। हम
कैसे किसी को
देखते हैं? कैसे हम
किसी को देखते
हैं, कैसे
हम किसी से
बोलते हैं, कैसे हम चुप
होते हैं, कैसा
है हमारा
व्यवहार, कैसी
है हमारी पूरी
जीवनचर्या, उसमें करुणा
का कोई
संस्पर्श है,
उसमें
करुणा की कोई
धारा है?
यह
किसी और से
नहीं कह रहा
हूं मैं। यह
मनुष्यता के
लिए नहीं कह
रहा हूं। एक—एक
मनुष्य के लिए, मेरे
और आपके लिए
कह रहा हूं।
लौट कर देखना
जरूरी है जीवन
की अपनी पूरी
यात्रा को कि
वहां कभी मेरे
जीवन में
करुणा आई थी, कभी प्रेम
से मैं पिघल
गया था और बह
गया था? कभी
ऐसा हुआ था कि
मेरे अहंकार
की कठोर
चट्टान टूट गई
हो? कभी
ऐसा हुआ था कि
मेरा भय
विसर्जित हो
गया हो? कभी
ऐसा हुआ था
किसी क्षण में
कि मैं बह गया
था पूरा, मेरे
पीछे मैंने
कुछ भी नहीं
बचाया था, सब
बंट गया था
मेरा?
नहीं, ऐसा
नहीं हुआ है, अन्यथा
परमात्मा कभी
का उपलब्ध हो
गया होता। वह
तो उसी क्षण
में उपलब्ध हो
जाता है, जब
कोई पूरी तरह
से करुणा में
बहने को, तरल
होने को, विगलित
होने को तैयार
हो जाता है।
करुणा
यानी एक जीवंत
प्रेम का
प्रवाह।
करुणा का अर्थ
है. बहता हुआ
प्रेम। जिसे
हम प्रेम कहते
हैं वह प्रेम
बंधा हुआ प्रेम
है,
वह किसी एक
पर बंध कर बैठ
जाता है। और
प्रेम जब बंध
जाता है तब वह
भी
करुणापूर्ण नहीं
रह जाता है, वह भी
हिंसापूर्ण
हो जाता है।
जब मैं किसी
एक को प्रेम
करता हूं तो
अनजाने ही मैं
शेष सारे जगत
के प्रति
अप्रेम से भर
जाता हूं। और
यह कैसे संभव
है कि इतने
बड़े जगत को
मैं अप्रेम
करूं और किसी
एक को प्रेम
कर सकूं?
नहीं, वह
एक के प्रति
प्रेम भी मेरा
झूठा ही होगा,
क्योंकि
इतने विराट
जगत के प्रति
जिसका कोई प्रेम
नहीं उसका एक
के प्रति
प्रेम कैसे हो
सकता है?
एक
फूल खिलता है
एक रास्ते पर
और वह फूल
कहने लगे कि
मेरी सुगंध
सिर्फ एक को
मिलेगी और
किसी को नहीं—कोई
एक है, जो उस
रास्ते से
आएगा तो मेरी
सुगंध मिलेगी
उसे, मैं नाचूंगा
हवाओं में उस
क्षण, लेकिन
सबके लिए नहीं।
और जो फूल
सबके प्रति
इतना कठोर हो
जाएगा, क्या
आप आशा करते
हैं, जब वह
एक आएगा जिसकी
प्रतीक्षा थी
उसे; तो वह
नाच सकेगा, गीत गा
सकेगा, सुगंध
फेंक सकेगा? इतने लोगों
के प्रति कठोर
होने में वह
इतना कठोर हो
गया होगा कि
जब वह व्यक्ति
भी आकर खड़ा हो जाएगा
जिसके लिए
उसने चाहा था
कि दे दूंगा
प्रेम, तब
तक आदत कठोर
होने की इतनी
मजबूत हो चुकी
होगी कि इस एक
के प्रति भी
प्रेम बहेगा
नहीं।
करुणा
का अर्थ है.
समस्त के
प्रति प्रेम।
करुणा का अर्थ
है. प्रेम
कहीं बंधे
नहीं, बहता
रहे। प्रेम
कहीं रुके
नहीं, चलता
रहे। जहां भी
कुछ रुकता है
वहीं गंदगी
शुरू हो जाती
है। और हमारा
सारा प्रेम
गंदा हो गया
है, क्योंकि
वह सब रुका
हुआ प्रेम है।
वह कहीं रुक जाता
है। वह अजस्र
धारा नहीं
रहती, बंध
जाता है। बंध
कर गंदा होना
शुरू हो जाता
है, फिर
कीचड़—पत्ते
उसमें इकट्ठे
हो जाते हैं
और बदबू और वह
सूखने लगता है।
जीवन में जो
भी श्रेष्ठ है
वह बहता हुआ
ही जीवित रहता
है। जहां भी
कुछ रुका और
वहीं उसका अंत
हो जाता है, वहीं मृत्यु
आ जाती है।
प्रेम
हम सबका रुक
गया है। और
स्मरण रहे, रुका
हुआ प्रेम
सिर्फ धोखा है,
रुका हुआ
प्रेम प्रेम
ही नहीं है।
इसलिए मां
कहती है बेटे
से कि हम
प्रेम करते हैं,
पति कहता है
पत्नी से कि
हम प्रेम करते
हैं, कोई
प्रेम नहीं कर
रहा है। यह
असंभव है
प्रेम का बंध
जाना, यह
वैसे ही असंभव
है जैसे कोई
सूरज को अपने
घर में लाकर
बंद कर ले।
सूरज
से भी ज्यादा
बड़ी शक्ति है
प्रेम की। उसे
किसी छोटे घर
में कैसे बंद
किया जा सकता
है?
सूरज से भी
ज्यादा
ज्वलंत है
प्रेम की घटना;
उससे भी
ज्यादा
ऊर्जस्वी। उस
प्रेम को किसी
घर में कैसे
बंद किया जा
सकता है? नहीं,
वह घर में
भी आ सकता है
इसी शर्त पर
कि पूरी पृथ्वी
पर जाता हो।
सूरज आपके
अपान में भी
आता है, लेकिन
इसी शर्त पर
कि सब आंगनों
में जाता है।
किसी दिन जिस
दिन कोई पागल
मनुष्य यह
चेष्टा करेगा
कि बस मेरे ही आंगन
तक सूरज बंध
जाए, उस
दिन पड़ोस के आंगनों
में तो नहीं
ही जाएगा, उसके
आंगन में भी
अंधकार ही
रहेगा, उसके
आंगन में भी
नहीं आ सकता
है।
प्रेम
को हम सबने
बांध लिया है, इस
मोह में कि
प्रेम को बांध
लेंगे तो
ज्यादा पा
लेंगे; भूल
है यह। प्रेम
बंधा कि मरा।
फिर बिलकुल भी
नहीं पाया जा
सकता है।
प्रेम जितना
बहता है, निर्बाध
जाता है दूर
और अनंत तक
बहता हुआ, उतना
ही गहरा होता
है, उतना
ही जीवित होता
है। जितना मैं
अनंत को प्रेम
करने में
समर्थ होता
हूं उतना ही
एक को भी
प्रेम देने
में समर्थ हो पाता
हूं। जो मां
कहती है, मेरे
बेटे को प्रेम,
बस प्रेम मर
गया। मेरे से
बंधा और मर
गया। जहां
मेरा आया और
प्रेम की मौत
आ गई।
नहीं, मेरे
बेटे को भी
प्रेम मिल
सकता है इसी
शर्त पर कि और
जो सब बेटे
हैं उन तक वह
प्रेम जाता हो।
और जितने मेरे
प्रेम का
विस्तार होगा
उतना ही एक के
भीतर मेरे
प्रेम की
गहराई होगी।
प्रेम का विस्तार
अनंत तक होगा
और प्रेम की
गहराई एक—एक
के भीतर
प्रविष्ट हो
जाएगी।
प्रेम
उतना ही गहरा
होगा जितना
विस्तीर्ण होगा।
प्रेम की
गहराई और
विस्तार सदा
समान है। एक
वृक्ष, ये सरू के
वृक्ष खड़े हैं,
ये दूर आकाश
तक उठते चले
गए हैं। शायद
हमें खयाल भी
न हो इनका ऊपर
जो इतना
विस्तार हुआ
है इससे ही
जुड़ी हुई इनकी
जड़ें नीचे
गहरी चली गई
हैं। यह
बिलकुल समान
है। जितनी
गहरे जड़ें
इनकी नीचे
गहरी गई हैं
उतने ही ये
ऊपर उठ सके
हैं। जितने ये
ऊपर उठ सके
हैं उतनी ही
इनकी जड़ों को भीतर
गहरे जाना पड़ा
है। ऊपर इनका
फैलाव इनके
भीतर की गहराई
के अनुपात से
बंधा हुआ है।
प्रेम
जितना
विस्तीर्ण
होता है और
खुले आकाश में
उठता चला जाता
है अनंत के
प्रति, उतना
ही एक— एक के
भीतर उसकी
जड़ें गहरी
होती चली जाती
हैं।
करुणा
का अर्थ है
विस्तीर्ण
प्रेम। इसलिए
करुणा में मोह
की संभावना
नहीं है, करुणा
में बंधने का सवाल
नहीं है, करुणा
में कोई मांग
नहीं है।
करुणा यह नहीं
कहती कि मैं
करुणापूर्ण
हूं इसलिए
तुम्हें कुछ
देना पड़ेगा।
जो करुणा
मांगती है वह
करुणा न रही।
जो प्रेम
मांगता है वह
प्रेम न रहा।
लेकिन
हमारा
तथाकथित
प्रेम मांगता
पहले है, देता
बाद में है।
सुनिश्चित हो
जाए कि इतना
मिलेगा तो उसी
अनुपात में
देता है। देता
भी इसीलिए है
ताकि मिल सके
और इसीलिए प्रेम
एक दुखद घटना
हो गई है।
प्रेम से किसी
को सुख मिलता
हुआ मालूम
नहीं पड़ता, सिर्फ सुख
के सपने दिखाई
पड़ते हैं।
लेकिन सुख
मिलता हुआ
मालूम नहीं
पड़ता।
कीर्कगार्ड ने
एक अदभुत बात
कही है। उसने
कहा है कि
धन्य हैं वे
प्रेमी
जिन्हें प्रेमिकाएं
नहीं मिलीं, क्योंकि
जीवन भर कम से
कम सपना तो
बना रहा कि प्रेम
होता तो यह
होता, यह
होता, यह
होता। अभागे
हैं वे प्रेमी
जिन्हें प्रेमिकाएं
मिल जाती हैं,
क्योंकि तब
सपने टूट जाते
हैं और जो
मिलता है वह
बहुत नारकीय
है।
अजीब
सी बात है, लेकिन
सच है। प्रेम
सिर्फ सपना बन
कर रह गया है।
इसलिए सपना बन
कर रह गया है
कि प्रेम
हमारी करुणा
से नहीं
जन्मता।
हमारे भीतर
करुणा तो है
ही नहीं। हम
भीतर तो हैं
कठोर, हम
भीतर तो
बिलकुल
असमर्थ हैं
बहने में बाहर
की तरफ। और
क्यों हैं
असमर्थ?
जितना
तीव्र अहंकार
होगा उतनी ही
असमर्थता होगी
बहने में।
क्योंकि
अहंकार कहता
है आओ बाहर से, लाओ
भीतर। अहंकार
भीतर से बाहर
नहीं जाने
देता। बाहर से
जो भी आ सके
उसे भीतर लाता
है— धन आ सके, ज्ञान आ सके,
प्रेम आ सके।
अहंकार की
मांग है कि जो
भी बाहर से
लाया जा सके
भीतर उसे लाओ
ताकि मैं मजबूत
हो सकूं, ताकि
मेरी शक्ति बढ़
सके। रुपये
आएं, ज्ञान
आए, प्रेम
आए, सब आए।
प्रेम
चिल्लाता है
लाओ, लाओ, लाओ। उसकी
पुकार एक ही
है, वह
संग्रह पर
जीता है।
जितना
संग्रह होगा, उतना
बड़ा हो जाएगा।
दस रुपयों के
ढेर पर आप
बैठे हैं, आपका
अहंकार बहुत
बड़ा कैसे हो
सकता है? दस
करोड़ पर
बैठे हैं तो
ढेर बड़ा हो
गया; आपका
अहंकार बड़ा हो
गया, अकड़
बड़ी हो गई। दो—चार
किताबें आपने
पढ़ी हैं तो
बेचारा
अहंकार कैसे
मजबूत होगा? बहुत ज्ञानी
हैं आप, बहुत
शास्त्र आप
जानते हैं तो
फिर ज्ञान
मजबूत हुआ।
आपने दो—चार
उपवास किए हैं
तो उससे क्या
होगा? अगर
आपने सौ उपवास
किए हैं तो
फिर अहंकार को
आया रस। मैं
हूं उपवासी, मैं हूं
त्यागी, मैं
हूं तपस्वी, फिर वह
मजबूत होगा।
तो
अहंकार कहता
है लाओ, चाहे
उपवास लाओ, चाहे तप लाओ,
चाहे शान, चाहे धन; लेकिन
लाओ। मैं को मजबूत
करो। यह ईगो, यह अहंकार
मजबूत हो।
जो
आदमी मांगने
लगता है लाओ, लाओ,
उसके भीतर
से प्रवाह बंद
हो जाता है, उसके भीतर
से बाहर कुछ
भी नहीं जाता।
सिर्फ बाहर से
भीतर लाने की
चेष्टा चलती
है। और जिस
मनुष्य के
भीतर से बाहर
कुछ भी नहीं
जाता हो वह
मनुष्य जीवित
नहीं है, क्योंकि
जीवन सदा भीतर
से बाहर की
तरफ जाता है।
एक बीज से
अंकुर निकलता
है, उठता
है आकाश की
तरफ। एक नदी
निकलती है
पहाड़ से और
दौड़ती है सागर
की तरफ। एक
बच्चा मां से
आता है गर्भ
से, जाता
है बाहर के
विस्तीर्ण
जगत में। जैसे
बीज अंकुरित
होकर जाता है
ऐसा एक बच्चा
मां को छोड़
देता है। उससे
आता है भीतर
से और जाता है
बाहर की तरफ।
सारे
जीवन की गति
भीतर से बाहर
की तरफ है और
हमारे अहंकार
की गति बिलकुल
उलटी है। वह
कहता है बाहर
से भीतर की
तरफ। बाहर से
भीतर की तरफ
कभी कुछ नहीं
जाता। बाहर से
भीतर की तरफ
कोई यात्रा
नहीं है। बाहर
से भीतर की
तरफ सिर्फ
भ्रम है, इलूजन
है। करोड़
रुपये के ऊपर
बैठा हुआ आदमी
सिर्फ इस भ्रम
में है कि मैं
कुछ हो गया
हूं। वह क्या
हो गया है? दिल्ली
के सिंहासन पर
बैठ गया आदमी
इस भ्रम में
है कि मैं कुछ
हो गया हूं।
वह क्या हो
गया है?
च्चांगत्सु एक
मरघट से गुजरता
था और एक आदमी
की खोपड़ी उसके
पैर से लग गई।
रात थी अंधेरी।
उसने उस खोपड़ी
को उठा लिया
और बहुत क्षमा
मांगने लगा।
क्योंकि वह
मरघट छोटे
लोगों का मरघट
न था वह बड़े
लोगों का मरघट
था। मरघट भी
अलग—अलग हैं
छोटे और बड़े
लोगों के।
जैसे मृत्यु
के बाद भी कोई
हिसाब रखा जा
सकता है कि
कौन था बड़ा, कौन
था छोटा!
लेकिन चूंकि
जिंदा आदमी
मरघट बनाते
हैं, इसलिए
अपनी जिंदगी
की जो नासमझिया
हैं वे मरघट
तक भी ले जाते
हैं।
वह
मरघट था बड़े
लोगों का, शाही
खानदान के
लोगों का, राजाओं
का, सम्राटों
का। च्चांगत्सु
फकीर घबड़ा गया।
उस खोपड़ी को घर
ले आया, रख
कर उसके हाथ—पैर
जोड्ने
लगा कि मुझे
क्षमा कर दो!
उसके मित्र
इकट्ठे हो गए
और कहने लगे, पागल हो गए
हो! इस खोपड़ी
से क्षमा
क्यों मांगते
हो?
च्चांगत्सु
कहने लगा यह
बड़े आदमी की
खोपड़ी है। यह
सिंहासन पर
बैठ चुकी
खोपड़ी है। और
मैं क्षमा
मांगता हूं
अगर कहीं यह
आदमी आज जिंदा
होता और मेरा
पैर इसके सिर
में लग जाता
तो मेरी बड़ी
मुसीबत थी। यह
तो सौभाग्य
समझो कि यह
आदमी जिंदा
नहीं है।
लेकिन क्षमा
तो मांग लेनी
चाहिए।
वे
लोग कहने लगे
तुम बड़े पागल
हो। लेकिन वह च्चांगत्सु
कहने लगा कि
मैं पागल नहीं
हूं। मैं इस
मरे हुए आदमी
से कहना चाहता
हूं कि पागल!
जिस खोपड़ी को
तू सोचता था
कि सिंहासन पर
है,
वह लोगों की
ठोकरें खाएगी,
एक फकीर की
ठोकर भी खाएगी
और उफ् भी
नहीं कर सकेगी
और यह भी नहीं
कह सकेगी कि
यह क्या किया?
जानते नहीं,
मैं कौन हूं?
कहां गई वह
तेरी अकड़ कि
तू सिंहासनों
पर था? कहां
गए वे खयाल कि
करोड़ों रुपये
तेरे पैर के नीचे
हैं? यही
थी खोपड़ी, यही
थी हड्डी, यही
सब—कुछ था, लेकिन
यह सब क्या हो
गया!
अशोक
के जीवन में
मैंने पढ़ा है, गांव
में एक भिक्षु
आता था। अशोक
गया और उस
भिक्षु के
चरणों में सिर
रख दिया। अशोक
के बड़े आमात्य,
वह जो बड़ा
वजीर था अशोक
का, उसे यह
अच्छा नहीं
लगा। अशोक
जैसा सम्राट
गांव में भीख
मांगते एक भिखारी
के पैरों पर
सिर रखे! बहुत......घर
लौटते ही, महल
लौटते ही उसने
कहा कि नहीं
सम्राट, यह
मुझे ठीक नहीं
लगा। आप जैसा
सम्राट, जिसकी
कीर्ति शायद
जगत में कोई
सम्राट नहीं
छू सकेगा फिर,
वह एक
साधारण से
भिखारी के
चरणों पर सिर
रखे!
अशोक
हंसा और चुप
रह गया। महीने
भर,
दो महीने
बीत जाने पर
उसने बड़े वजीर
को बुलाया और
कहा कि एक काम
करना है। कुछ
प्रयोग करना
है, तुम यह
सामान ले जाओ
और गांव में
बेच आओ। सामान
बड़ा अजीब था।
उसमें बकरी का
सिर था, गाय
का सिर था, आदमी
का सिर था, कई
जानवरों के
सिर थे और कहा
कि जाओ बेच आओ
बाजार में।
वह
वजीर बेचने
गया। गाय का
सिर भी बिक
गया और घोड़े
का सिर भी बिक
गया,
सब बिक गया,
वह आदमी का
सिर नहीं बिका।
कोई लेने को
तैयार नहीं था
कि इस गंदगी
को कौन लेकर
क्या करेगा? इस खोपड़ी को
कौन रखेगा? वह वापस लौट
आया और कहने
लगा कि
महाराज! बड़े
आश्चर्य की
बात है, सब
सिर बिक गए
हैं, सिर्फ
आदमी का सिर
नहीं बिक सका।
कोई नहीं लेता
है।
सम्राट
ने कहा कि
मुफ्त में दे
आओ। वह वजीर
वापस गया और
कई लोगों के
घर गया कि
मुफ्त में
देते हैं इसे, इसे
आप रख लें।
उन्होंने कहा.
पागल हो गए हो!
और फिंकवाने
की मेहनत कौन
करेगा? आप
ले जाइए। वह
वजीर वापस लौट
आया और सम्राट
से कहने लगा कि
नहीं, कोई
मुफ्त में भी
नहीं लेता।
अशोक
ने कहा कि अब
मैं तुमसे यह
पूछता हूं कि
अगर मैं मर
जाऊं और तुम
मेरे सिर को
बाजार में
बेचने जाओ तो
कोई फर्क
पड़ेगा? वह
वजीर थोड़ा डरा
और उसने कहा
कि मैं कैसे
कहूं क्षमा
करें तो कहूं।
नहीं, आपके
सिर को भी कोई
नहीं ले सकेगा।
मुझे पहली दफा
पता चला कि
आदमी के सिर
की कोई भी
कीमत नहीं है।
उस
सम्राट ने कहा, उस
अशोक ने कि फिर
इस बिना कीमत
के सिर को अगर
मैंने एक
भिखारी के
पैरों में रख
दिया था तो
क्यों इतने
परेशान हो गए
थे तुम।
आदमी
के सिर की
कीमत नहीं, अर्थात
आदमी के
अहंकार की कोई
भी कीमत नहीं
है। आदमी का
सिर तो एक
प्रतीक है
आदमी के
अहंकार का, ईगो का। और
अहंकार की
सारी चेष्टा है
भीतर लाने की
और भीतर कुछ
भी नहीं जाता—न
धन जाता है, न त्याग
जाता है, न
शान जाता है।
कुछ भी भीतर
नहीं जाता।
बाहर से भीतर
ले जाने का
उपाय नहीं है।
बाहर से भीतर
ले जाने की
सारी चेष्टा
खुद की आत्महत्या
से ज्यादा
नहीं है, क्योंकि
जीवन की धारा
सदा भीतर से
बाहर की ओर है।
करुणा
भीतर से बाहर
की तरफ बहेगी।
प्रेम भीतर से
बाहर की तरफ
बहेगा। इसलिए
जीवन का सूत्र
सदा है बांटना, देना,
लुटा देना,
फैल जाना।
और मृत्यु का
सूत्र है
सिकुड़ जाना, इकट्ठा कर
लेना, बांध
लेना। हमारा
तो प्रेम भी
कहता है कि आओ,
हमारा तो
प्रेम भी कहता
है कि मिलो, दो मुझे
प्रेम।
घर—घर
में मैं ठहरता
हूं। लाखों
लोगों से मेरे
निजी और
व्यक्तिगत
संबंध हैं और
हर आदमी को
मैं एक ही
तकलीफ में
पाता हूं।
उसकी तकलीफ एक
शब्द में कही
जा सकती है।
हर आदमी, हर
स्त्री, हर
पुरुष, हर
पत्नी, पति,
बाप, बेटा,
मां एक ही
बात मुझे घर—घर,
गांव—गांव
में कहता हुआ
मालूम पड़ता है
कि मुझे कोई प्रेम
नहीं देता है।
पत्नी कहती है
मुझे पति
प्रेम नहीं
देता, पति
कहता है पत्नी
मुझे प्रेम
नहीं देती, मां कहती है
बेटा मुझे
प्रेम नहीं
देता, बेटा
कहता है कि
पिता मेरी कोई
फिकर नहीं
करता, कोई
प्रेम नहीं दे
रहा है। बड़े
मजे की बात है
हर आदमी यह
कहता है, कोई
मुझे प्रेम
नहीं देता और
कोई भी यह
नहीं सोचता कि
प्रेम दिया
नहीं जाता।
कोई देगा नहीं
प्रेम, प्रेम
तुम्हें देना
पड़ेगा।
प्रेम
बांटने की कला
है। हम धन की
तरह प्रेम भी
मांगते हैं।
और जो व्यक्ति
जितना प्रेम
बांटता है, उससे
अनंतगुना
उसे प्रेम
उपलब्ध हो
जाता है।
प्रेम आता है,
मांगा नहीं
जाता। वह दिए
गए प्रेम में
सहज पुरस्कार
की तरह लौट आता
है। वह दिए गए
प्रेम की सहज
प्रतिध्वनि
है।
करुणा
का अर्थ है
देना, दान। धन
का नहीं, क्योंकि
धन को देकर जो
समझते हैं कि
दानी हो गए, वे पागल हैं।
जो आपका था ही
नहीं, उसे
देकर कोई कभी
दानी नहीं हो
सकता। वह आप न
भी देते तो
छूट जाता।
सिर्फ उस बात
को देकर आप
दानी होते हैं
जो आपका है।
क्या है आपका?
अपने को
देकर ही कोई
दानी होता है,
उसके
अतिरिक्त कोई
कभी दानी नहीं
होता।
प्रेम
का अर्थ है
अपने को दे
देना। करुणा
का अर्थ है
अपने को दे
देना। और यह
जो दे देना है, यह
जो अपने को
बांट देना है,
यह जो बहाव
है भीतर की
तरफ से बाहर, इसके क्या
चरण होंगे? यह कैसे
धीरे— धीरे
टूटेगा और
बहेगा?
थोड़े
से कदम इसके
बाबत उठाए
जाएं तो धारा
की संभावना
टूट पड़ने की
हो जाती है।
बहुत सचेत
होना पड़ेगा, क्योंकि
हमारी मांग
मांगने की और
संग्रह की है,
और करुणा
कभी भी संग्रह
से पैदा नहीं
होती, वे
विरोधी
यात्राएं हैं।
हमारी आदत सदा
बाहर से भीतर
ले जाने की है,
इसलिए जो
भीतर हमारे
मौजूद है वह
हम बाहर नहीं
पहुंचा पाते।
उसे थोड़ा सचेत
होकर नई आदत
को जन्म देना
होगा।
यहां
बैठे हैं हम, आप
मुझे देख रहे
हैं, सुन
रहे हैं। यह
सुनना दो तरह
का हो सकता है।
यह सुनना ऐसा
हो सकता है कि
मैं जो कह रहा
हूं उसको आप
संग्रह कर
सकते हैं। तब
वह अहंकार को
ही मजबूत
करेगा। आप इस
शिविर से
ज्यादा
ज्ञानी, थोड़े
ज्यादा ज्ञानी
होकर वापस लौट
जाएंगे, आप
कुछ बातें सीख
कर लौट जाएंगे।
और वे सीखी
हुई बातें आप
दूसरों को
बताने में रस
और आनंद लेने
लगेंगे। अगर
इस भांति आप
सुन रहे हैं
तो वह सुनना
भी आपके
अहंकार को ही
मजबूत करने की
व्यवस्था है।
लेकिन
नहीं, आप इस
भांति भी सुन
सकते हैं कि
जब आप सुन रहे
हैं तब मुझसे
ही कुछ आपकी
तरफ नहीं जा
रहा है, आपकी
तरफ से भी
मेरी तरफ कुछ
आ रहा है।
आपका प्रेम, आपकी करुणा
वहां से बहती
हुई मेरे पास
भी आ सकती है।
एक
करुणापूर्ण, एक
प्रेमपूर्ण
भाव—दशा में
भी सुना जा
सकता है।
एक
वृक्ष को आप
देख रहे हैं
या सागर को, तो
आप ऐसे भी देख
सकते हैं कि
सिर्फ देख रहे
हैं और ऐसे भी
कि आपकी आंखों
से आपके
प्राणों की
कोई भावधारा
भी उस वृक्ष
तक जाए; उसे
छुए, उसे
नहला दे और तब
यह देखना
बिलकुल दूसरी
तरह का देखना
हो जाएगा। तब
यह करुणापूर्ण
हो जाएगा।
रास्ते
पर आप चलते
हैं। एक—एक
पत्थर पर पैर
रखते समय इतना
प्रेमपूर्ण
हुआ जा सकता
है,
इतना
अनुगृहीत, इतनी
ग्रेटिटयूड
से भरा जा
सकता है कि उस
पत्थर तक भी
आपके प्राणों
का संदेश
पहुंच जाए। एक
वृक्ष को छूते
समय, एक
आदमी का हाथ हाथ में
लेते समय, किसी
को गले लगाते
समय आप पूरे
के पूरे बह
सकते हैं। आप
पूरी तरलता
में, आपके
सारे रग—रग, रेशे—रेशे
से, कण—कण
से कोई चीज बह
सकती है और उस
व्यक्ति को
पूरा घेर सकती
है।
इस
पर तो थोड़े
प्रयोग
करेंगे तो ही
यह हो सकेगा, क्योंकि
बहने की हमारी
कोई आदत नहीं
है, बहने
की हमें
जन्मों से आदत
नहीं है।
न
मालूम कितने
जन्मों से
हमने सिर्फ
रोकने का अभ्यास
किया है, बहने
का अभ्यास
नहीं किया।
बहाव हमारे
भीतर नहीं है।
हमारा
व्यक्तित्व
जड़ हो गया है, कठोर हो गया
है, रुक
गया है। हम
पत्थर हो गए
हैं। इस बहाव
को तोड्ने
के लिए कुछ
चेष्टा करनी
भी जरूरी है।
क्या करेंगे
इस चेष्टा में?
कैसे यह
बहाव हो सकता
है?
अभी
यहां आप बैठे
हैं,
अभी इसी
क्षण शुरू हो
सकती है बात।
मेरे शब्द आप
तक जा रहे हैं,
आपका प्रेम
मुझ तक लौटना
चाहिए। आप सुन
सकते हैं। आप
जुड़ सकते हैं
इस बोलने में
भी। यह सुनसान
जगह, यह
आपके बहते हुए
प्रेम से भर
सकती है।
मैंने
सुना है, एक
कवि था, रिल्के। जिन लोगों
ने रिल्के
को कपड़े भी
पहनते देखा है
वे कहते थे कि
हम हैरान हो
जाते थे। जिन
लोगों ने उसे
खाना खाते
देखा है वे
कहते थे हम
हैरान हो जाते
हैं। जिन
लोगों ने रिल्के
को जूते पहनते
देखा है वे
कहते थे वह
अदभुत थी घटना—यह
देखना कि वह
कैसे जूते पहन
रहा है! वह तो
ऐसे जूते
पहनता था जैसे
जूते भी जीवित
हों, वह तो
उनके साथ ऐसे
व्यवहार करता
था जैसे वे मित्र
हों। वह कपड़े
पहनता तो वह
यह ही नहीं
पूछता था कि
कौन सी कमीज
मुझे अच्छा
लगेगा। वह
कमीज से यह भी
पूछता कि क्या
इरादे हैं, मैं तुम्हें
अच्छा लगूंगा?
वह कोट भी
ऊपर डालता तो
कोट से भी
पूछता, क्या
खयाल है, चल
सकूंगा मैं
तुम्हारे साथ?
यह
तो कभी हमने
सोचा भी न
होगा? हमने यह
बात कई बार
सोचा है दर्पण
के सामने खड़े
होकर कि यह
कोट चल सकेगा
मेरे साथ, क्योंकि
कोट है मुर्दा,
हम हैं
जिंदा; कोट
को हमारे साथ
चलना है।
लेकिन रिल्के
को लोगों ने
सुना है, आईने
के सामने खड़ा
है और पूछ रहा
है कि दोस्त चल
सकूंगा मैं
तुम्हारे साथ?
जूता उतार
रहा है तो उसे
पोंछ रहा है।
उसे, जूते
को रखा है तो
उसे धन्यवाद
दिया है कि
तुम्हारी
कृपा! दो मील
तक तुम मेरे
साथ थे। दो
मील तक तुमने
मेरी सेवा की
है और उसकी आंखों
से आंसू बह
रहे हैं।
पागल
आदमी मालूम
होगा हमें।
निश्चित ही
पागल मालूम
होगा, क्योंकि
हम सब इतने
कठोर हैं कि
प्रेम की तरलता
हमें पागलपन
ही मालूम हो
सकती है और
कुछ हमें
मालूम नहीं हो
सकता है।
लेकिन यह सवाल
भी नहीं है कि
इससे जूते को
कुछ फायदा हो
गया होगा कि
नहीं हो गया
होगा, कि
कोट ने सुना
होगा कि नहीं
सुना होगा। यह
इररिलेवेंट
है, यह
असंगत है।
लेकिन
जो आदमी कोट
और जूते और
पत्थर और
दरवाजे के
प्रति भी इतना
सदय,
इतना करुणापूर्ण,
इतना
अनुग्रह से
भरा हुआ है, यह आदमी
दूसरा आदमी हो
गया है। इस
आदमी से किसी
आदमी के प्रति
कठोर होने की
संभावना हो
सकती है? यह
असंगत है बात
कि कोट ने
सुना कि नहीं
सुना। मैं तो
यही मानता हूं
कि कोट भी
सुनता है, लेकिन
मेरी बात
मानने की कोई
जरूरत नहीं है।
लेकिन
यह आदमी, यह
व्यक्ति, यह
जो इतना
प्रेमपूर्ण
है, इतना
करुणापूर्ण
है, यह जो
इतना धन्यवाद
से भरा हुआ है
जूते के प्रति
भी, यह
आदमी इस
व्यवहार से
रूपांतरित हो
रहा है। यह
आदमी बदल रहा
है, यह
आदमी दूसरी
तरह का आदमी
हो जाएगा।
यह
आदमी कठोर हो
सकता है? यह आदमी
हिंसक हो सकता
है? यह
आदमी क्रोध से
देख भी सकता
है आंख उठा कर?
यह असंभव है।
और इस आदमी
में बहाव होगा,
इस आदमी की
चेतना एक तरल
सरिता बन
जाएगी।
निश्चित ही
ऐसे आदमी को
देखना भी एक
अनुभव है।
लेकिन हमें वह
आदमी पागल ही
मालूम होगा।
हम
सब इतने
बुद्धिमान
हैं अपनी
कठोरता में कि
प्रेम सदा ही
पागलपन मालूम
पड़ेगा। लेकिन
अगर तोड़ना है
कभी तो थोडा
पागल होना
जरूरी है, प्रेम
की दिशा में
थोड़ा पागल
होना जरूरी है,
करुणा की
दिशा में थोड़ा
पागल होना
जरूरी है।
एक
जर्मन विचारक
था,
हेरिगेल। वह जापान
गया हुआ था।
एक फकीर से
मिलने गया।
जल्दी में था,
जाकर जूते
उतारे, दरवाजे
को धक्का दिया,
भीतर
पहुंचा। उस
फकीर को
नमस्कार किया
और कहा कि मैं
जल्दी में हूं।
कुछ पूछने आया
हूं।
उस
फकीर ने कहा
बातचीत पीछे
होगी। पहले
दरवाजे के साथ
दुर्व्यवहार
किया है उससे
क्षमा मांग कर
आओ। वे जूते
तुमने इतने
क्रोध से
उतारे हैं।
नहीं—नहीं, यह
नहीं हो सकता
है। यह
दुर्व्यवहार
मैं पसंद नहीं
कर सकता। पहले
क्षमा मांग आओ,
फिर भीतर आओ,
फिर कुछ बात
हो सकती है।
तुम तो अभी
जूते से भी
व्यवहार करना
नहीं जानते, तो तुम आदमी
से व्यवहार
कैसे करोगे?
वह
हेरिगेल
तो बहुत जल्दी
में था। इस
फकीर से दूर
से मिलने आया
था। यह क्या
पागलपन की बात
है। लेकिन
मिलना जरूर था
और यह आदमी अब
बात भी नहीं
करने को राजी
है आगे।
तो
मजबूरी में
उसे दरवाजे पर
जाकर क्षमा
मांगनी पड़ी उस
द्वार से, क्षमा
मांगनी पड़ी उन
जूतों से।
लेकिन हेरिगेल
ने लिखा है कि
जब मैं क्षमा
मांग रहा था
तब मुझे ऐसा
अनुभव हुआ
जैसा जीवन में
कभी भी नहीं
हुआ था। जैसे
अचानक कोई बोझ
मेरे मन से
उतर गया। जैसे
एक हलकापन, एक शांति
भीतर दौड़ गई।
पहले तो
पागलपन लगा, फिर पीछे
मुझे खयाल आया
कि ठीक ही है।
इतने क्रोध
में, इतने
आवेश में; मैं
हेरिगेल
को समझता भी
क्या, सुनता
भी क्या?
फिर
लौट कर आकर वह
हंसने लगा और
कहने लगा, क्षमा
करना, पहले
तो मुझे लगा
कि यह निहायत
पागलपन है कि
मैं जूते और
दरवाजे से
क्षमा मांग।
लेकिन फिर
मुझे खयाल आया
कि जब मैं
जूते और दरवाजे
पर नाराज हो
सकता हूं
क्रोध कर सकता
हूं तो क्षमा
क्यों नहीं
मांग सकता हूं?
अगर
करुणा की दिशा
में बढ़ना है
तो सबसे पहले
हमारे आस—पास
जिसे हम जड़
कहते हैं उसका
जो जगत है, यद्यपि
जड़ कुछ भी
नहीं है, लेकिन
हमारी समझ के
भीतर अभी जो
जड़ मालूम पड़ता
है, उस जड़
से ही शुरू
करना पड़ेगा।
उस जड़ जगत के
प्रति ही
करुणापूर्ण
होना पड़ेगा, तभी हमारी जड़ता टूटेगी।
उससे कम में
हमारी जड़ता
नहीं टूट सकती।
हम
हो गए हैं जड़।
और जड़ के
प्रति
करुणापूर्ण
होकर ही हम
अपनी जड़ता
को तोड़ सकेंगे।
उसके बिना हम
अपनी जड़ता
को नहीं तोड़
सकेंगे। वह जो
जड़ दिखाई पड़ता
है—एक पत्थर
पड़ा हुआ है, उस
पर आप घंटे भर
बैठे हैं, आपने
खयाल भी किया
था कि आप एक
पत्थर पर घंटे
भर बैठे हैं? नहीं, स्मरण
भी नहीं है।
आप इस रेत पर
बैठे हैं, तीन
दिन इन सरू
के वृक्षों के
पास होंगे, इस समुद्र
के निकट, लौटते
वक्त आप
धन्यवाद दे
जाएंगे इस जगह
को कि भूल
जाएंगे, चल
पड़ेंगे बस!
क्या सोचेंगे सरू के
वृक्ष कि कैसे
लोग थे! क्या
कहेगा समुद्र
कि कैसे थे
लोग! तीन दिन
तक पास थे, उनके
लिए गर्जन
किया, नाचा
और लौटते वक्त
वे धन्यवाद भी
नहीं दे गए! क्या
कहेगी यह पूरी
पृथ्वी, जब
आप जीवन से
विदा होंगे!
क्या कहेगा यह
पूरा जीवन!
क्या कहेगा
सूरज, क्या
कहेंगी हवाएं
कि सत्तर वर्ष
तक प्राण दिए
और जाते वक्त
इस आदमी ने
धन्यवाद भी न
दिया!
संत
फ्रांसिस मर
रहा था। मरते
वक्त एक—एक
चीज को
धन्यवाद देने
लगा। जिस गधे
पर बैठ कर
उसने यात्रा
की थी अनेक
बार,
उस गधे के
पास पहुंच गया।
उठने में भी
तकलीफ थी उसे।
मित्रों ने
कहा. यह क्या करते
हो? उसने
कहा कि नहीं—नहीं,
यह ठीक न
होगा कि जो
गधा मुझे जीवन
भर अनेक—अनेक
यात्राओं पर
ले गया, उसके
लिए मरते वक्त
चार कदम चल कर
मैं धन्यवाद
देने न जाऊं, मुझे जाना
पड़ेगा।
वह
गया है, लोगों
की भीड़ इकट्ठी
हो गई है। वह
गधे को हृदय
से लगाए हुए
है और कह रहा
है कि क्षमा
कर देना, न
मालूम कितनी
बार कठोर हो
गया था, न
मालूम कितनी
बार अपशब्द
तुझसे कहे
होंगे, न
मालूम कितनी
बार तुझे तब
चलाया होगा जब
तुझमें
चलने की
सामर्थ्य भी न
थी। न मालूम
कितनी—कितनी
यात्राओं में
कितनी—कितनी
भूलें हो गई
होंगी। उनका
हिसाब रखना
मुश्किल है।
सबके लिए
क्षमा मांगता
हूं। और बड़े
मित्रों में
से एक तू मेरा
मित्र था, मौन
था, सदा
साथ था। कभी
इनकार नहीं
किया, कभी झगड़ा नहीं
किया और आज
मैं विदा हो
रहा हूं। तो
आज तुझसे
क्षमा मांगता
हूं। मुझे
क्षमा कर
देना!
लोग
कहने लगे कि
मालूम होता है
संत फ्रांसिस
का दिमाग आखिर—आखिर
में खराब हो
गया। यह क्या
कर रहे हैं! वह
अपने डंडे को
भी धन्यवाद
देने लगा जिसे
हाथ में लेकर
चला था।
हमें
पागल मालूम
होगा। लेकिन
मैं आपसे कहता
हूं ऐसे पागल
ही परमात्मा के
निकट पहुंचने
में समर्थ
होते हैं और
दूसरे नहीं।
क्योंकि
जिनकी इतनी
करुणा है, इतना
प्रेम है, जिनके
हृदय में इतना
अनुग्रह का
भाव है उनके हृदय
का पत्थर टूट
जाएगा इस चोट
से। पत्थर टूट
जाएगा और धारा
बह पड़ेगी।
निश्चित ही
करुणा बहुत
सबल है। एक
बार फूट पड़े
पत्थर तो वह
बह जाएगी सागर
तक।
लेकिन
हम तो पत्थर
को ही मजबूत
किए चले जाते
हैं और नये
सीमेंट—कांक्रीट
ईजाद करते हैं
और पत्थर को
मजबूत किए
जाते हैं।
धीरे— धीरे
करुणा का वह
स्रोत भीतर ही
बंद रह जाता है।
हमने
क्यों इतने यह
पत्थर और कांक्रीट
और इर्ट
लगा कर दीवाल
बनाई है?
एक
है कारण। आदमी
बहुत भयभीत है, इसलिए
अपने को
बांटने में और
बहाने में
डरता है।
एक
मित्र के घर
में कुछ दिन
तक मैं रहा था।
मैं देख कर
हैरान हुआ। वे
अपने नौकरों
से कभी सीधी आंख
करके बात भी
नहीं करते थे।
कोई घर में
मिलने आए तो
वे नमस्कार का
उत्तर भी सोच
कर ही देते थे।
मैंने उनसे
पूछा कि बात
क्या है? वे
कहने लगे कि
अगर ठीक से
बोलो, प्रेमपूर्ण
व्यवहार करो,
तो झंझटें
पैदा होनी
शुरू होती हैं।
रास्ते पर एक
आदमी नमस्कार
करता है, अगर
प्रेम से
नमस्कार कर लो,
पंद्रह दिन
बाद निश्चित
है कि वह आदमी
आएगा कि सौ
रुपये की जरूरत
है। वह झंझट
की बात है।
झंझट आगे
बढ़ानी नहीं है।
किसी से
संबंधित होना,
फिर आगे झंझटें
आनी शुरू होती
हैं।
उन्होंने कहा
मैंने तो जीवन
का नियम बना
रखा है कि
सिर्फ उनसे
बात करनी है
जिनसे एकदम
जरूरी हो, सिर्फ
उनसे संबंध
बनाना है
जिनसे आगे कोई
भय न हो।
मनुष्य
भयभीत है
संबंधित होने
में। क्योंकि
हर नया संबंध
नई संभावनाएं
लेकर आता है।
एक वृक्ष से
भी दोस्ती
करनी बड़ी कठिन
बात है, क्योंकि
वृक्ष से भी
दोस्ती करनी,
एक वृक्ष से
भी प्रेम
बनाना एक नई
केयर, एक
नई हिफाजत को
जन्म देना है।
एक
मित्र से मैं
ये बातें कर
रहा था। वे
कहने लगे, आप
क्या कहते हैं,
मैं ऐसी एक
झंझट में पड़
गया हूं। एक
वृक्ष था
अमलतास का। वे
मित्र एक
बंगले को नया—नया
लिए थे। वह
वृक्ष बिलकुल
सूख गया था।
वह वर्षों से
सूखा हुआ था।
उसमें न फूल
आते थे, न
पत्ते आते थे।
वह एक मुर्दा
वृक्ष खड़ा हुआ
था। उन मित्र
ने कहीं किसी
किताब में पढ़ा
था कि अगर
वृक्ष को, सूखे
वृक्ष को
व्यवस्था से
नीचे से काटा
जा सके तो
उसमें नये
अंकुर आ सकते
हैं।
उन्होंने
आरी उठा कर एक
दिन सुबह उस
वृक्ष को काट
डाला। वृक्ष
कट कर गिर गया।
सिर्फ छोटा सा
ठूंठ नीचे रह
गया। रात
उन्हें चिंता
होने लगी कि
मुझे काटने का, कहां
से काटना
चाहिए इसका तो
कुछ पता नहीं।
मैं कोई माली
नहीं। मैं कुछ
जानता नहीं।
कहीं मैंने
गलत जगह से तो
नहीं काट दिया
उस वृक्ष को? कहीं ऐसा तो
नहीं है कि
उसमें अंकुर
अब नहीं आएगा?
और तब रात
भर वे सो नहीं
सके। करवट
बदलते रहे, सो नहीं सके।
सुबह
वे मुझसे बोले
कि मैं एक
झंझट में पड़
गया हूं। एक
वृक्ष से
दोस्ती कर ली
और मुश्किल आ
गई। एक वृक्ष
था मेरे द्वार
पर,
सूखा था।
मैंने किसी
किताब में पढ़ा
कि वृक्ष को
बिलकुल नीचे
से काटा जाए
ढंग से तो
उसमें नया अंकुर
आ सकता है।
मैंने आरी उठा
कर काट डाला।
अब रात भर से
मैं चिंतित
हूं कि मुझे
पता नहीं, कहां
से काटना
चाहिए था कि
उसमें नया
अंकुर आ सके।
उसमें अंकुर
आएगा कि नहीं
आएगा? कम
से कम वह था तो,
सूखा ही सही।
वह
सूखा भी बहुत
शानदार था। और
जब चांदनी आती
थी तो उसकी सूखी
शाखाएं भी
आकाश में एक
गीत बन जाती
थीं। और जब
सूरज नाचता था
तो उसकी सूखी
शाखाओं पर भी
एक मोहिनी छा
जाती थी। अब
भी कभी कोई
पक्षी उस सूखे
वृक्ष पर आकर
बैठता था और
गीत गाता था।
मैंने उसे काट
डाला। पता
नहीं उसमें
अंकुर आएगा कि
नहीं!
वे
तीन महीने तक
कितने बेचैन
और परेशान थे।
मैंने उन्हें
कहा. बड़ा शुभ
है। वृक्ष में
अंकुर आएगा कि
नहीं, उसकी
मुझे उतनी
फिकर नहीं, लेकिन
तुम्हारे
जीवन में एक
नया अंकुर आया,
उससे मैं
बहुत खुश हूं।
अच्छा हुआ
तुमने वृक्ष
काटा। यह तीन
महीने वृक्ष
के लिए चिंता
का क्षण, यह
तीन महीने
वृक्ष के लिए
संताप, यह
तीन महीने
वृक्ष के लिए
पश्चात्ताप, यह तीन
महीने वृक्ष
के लिए इतना
आतुर निवेदन,
यह तीन
महीने वृक्ष
के लिए इतनी
गहरी प्रार्थना—न
आए वृक्ष में
अंकुर, कोई
फिकर नहीं!
तुम्हारे
भीतर एक अंकुर
आ गया, एक कंपेशन, एक करुणा, एक प्रेम, और वह बड़ी
बात है।
और
ऐसा कैसे हो
सकता था कि उस
वृक्ष में
इतने प्रेम से
अंकुर न आते, उसमें
अंकुर आ गए।
अब वह वृक्ष
हरा हो गया है।
अब उस पर
पत्ते आ गए।
अब उस पर फूल खिलने लगे।
लेकिन उस
वृक्ष से भी
बड़ा अनुभव, एक बड़ा एक्सपीरिएंस
उन मित्र के
जीवन में हो
गया।
उन्होंने एक
वृक्ष से
प्रेम किया
है!
चारों
तरफ जो विराट
जगत है उसे हम
तीन हिस्से में
बांट सकते हैं।
वह बंटा हुआ
नहीं है। वह
बांटना सिर्फ
कामचलाऊ है।
जिंदगी कहीं
भी बंटी हुई
नहीं है।
जिंदगी एक
अनंत इकट्ठी
धारा है, लेकिन
हम काम के लिए
तीन हिस्सों
में तोड़ सकते
हैं।
एक
जड़ जगत है।
हमें जड़ मालूम
होता है, क्योंकि
चेतना इतनी
प्रसुप्त है
उसमें कि जब तक
हम उतनी गहराई
तक न उतरें, तब तक उसकी
चेतना हमें
दिखाई नहीं
पड़ेगी। सबसे
पहले जड़ जगत
के प्रति अपने
प्रेम, अपनी
करुणा, अपने
कंपेशन
को विकसित
करना जरूरी है।
फिर
उसके बाद
पौधों का, पशुओं
का जगत है—जीवत—
लेकिन सचेतन
नहीं। फिर उस
जगत के प्रति
प्रेम और
करुणा को
विकसित करना
जरूरी है।
फिर
मनुष्यों का
जगत है। फिर
उस मनुष्यों
के जगत के
प्रति प्रेम
को विकसित
करना जरूरी है।
लेकिन
यात्रा का
प्रारंभ जड़
जगत से शुरू
होना चाहिए, क्योंकि
जो जड़ को
प्रेम कर
पाएगा वह अनिवार्यरूपेण
पौधों को, पशुओं
को प्रेम कर
पाएगा। जो
पौधों और
पशुओं को
प्रेम कर
पाएगा वह मनुष्यों
को प्रेम कर
पाएगा। लेकिन
यात्रा वहां
से शुरू होनी
चाहिए और एक—एक
पल खोने की
जरूरत नहीं है।
जीवन
में जो भी पल
मिल जाए और
जितना हम
करुणापूर्ण
और जितने
प्रेमपूर्ण
हो सकें उसकी
सतत चेष्टा चलनी
चाहिए। बहुत
श्रम की जरूरत
है,
क्योंकि
धारा अनंत
जन्मों से
रुकी है, बहुत
तोड्ने
पड़ेंगे पत्थर
तब वह बहेगी।
लेकिन जरा सा
भी प्रयास
शुरू हो जाए
और जरा सी भी
झलक करुणा की
बहनी शुरू हो
जाए तो वह
इतनी आंनदपूर्ण
है, वह इतनी
फलदायी है, वह इतना
अनुभव है गहरा
कि फिर उसको तोड्ने के
लिए जो श्रम
करना पडेगा
वह श्रम जरा
भी श्रम नहीं
मालूम पड़ता है।
करुणा
की यह धारा
बाहर तक बहने
लगे—उठते, बैठते,
सोते, जागते,
चलते। जीवन
का प्रतिपल, जीवन का
प्रतिक्षण
करुणा की एक
अबाध प्रतिध्वनि
बन जाए, एक
गज बन जाए, एक
गीत बन जाए, तो ही कोई
व्यक्ति
परमात्मा के
मंदिर के पहले
द्वार पर
प्रविष्ट
होता है।
नहीं, अपने
को बांध—बांध
कर, रोक—रोक
कर रखना ठीक
नहीं है। तोड़
दें, सब
द्वार तोड़ दें।
एक
सम्राट था, उसने
एक महल बना
लिया था। और
उस महल में एक
ही दरवाजा रखा
था, कोई
चोर न घुस जाए,
कोई डाकू न
आ जाए, कोई
हत्यारा न आ
जाए। पड़ोस का
एक सम्राट
उसके महल को
देखने आया था।
देख कर बहुत
खुश हुआ था और
कहा था, मैं
भी ऐसा ही महल
बनाना
चाहूंगा।
तुमने मुझमें
ईर्ष्या जगा
दी। अदभुत
बनाया है
तुमने यह, इतना
सुरक्षित! एक
ही द्वार है, उस द्वार पर
हजार पहरेदार
हैं और सारे
भवन में कोई
दूसरा द्वार
नहीं है।
सम्राट
ने कहा अब कोई
भय नहीं रहा, न
कोई हत्यारा आ
सकता है, न
कोई चोर, न
कोई डाकू, न
कोई दुश्मन।
मैं बिलकुल
सुरक्षित हो
गया हूं।
वे
महल के द्वार
पर खड़े होकर
यह बात करते
थे। एक भिखारी
जो वहीं भीख
मांगा करता था, वह
बैठा— बैठा
जोर से हंसने
लगा। सम्राट
नाराज हुआ, उसने कहा कि
पागल! तू
क्यों हंस रहा
है, क्या
बात है?
वह
भिखारी कहने
लगा महाराज!
आपने पूछ ही
लिया तो कहे
देता हूं। जब
से यह महल
बनता है, मुझे
लगता है, एक
भूल इसमें रह
गई। सम्राट ने
कहा कौन सी
भूल?
उसने
कहा : एक ही भूल
रह गई है। यह
एक दरवाजा और
आप बंद करवा
लें तो फिर आप
बिलकुल
सुरक्षित हो
जाएंगे, फिर
कोई भय नहीं
रहेगा, फिर
सिक्योरिटी
पूरी हो जाएगी,
फिर तो मौत
भी नहीं घुस
सकेगी अंदर।
अभी खतरा एक
है, यह
दरवाजा
खतरनाक है।
चोर नहीं घुसेंगे,
हत्यारे
नहीं घुसेंगे,
दुश्मन
नहीं घुसेंगे,
लेकिन मौत
का क्या होगा?
मौत घुस
जाएगी इससे, काफी जगह है
इसमें और वह
आपको ले जाएगी।
आप कृपा करें,
भीतर हो
जाएं, यह
दरवाजा भी बंद
कर दें, फिर
पहरेदारों की
भी कोई जरूरत
नहीं है। फिर
कोई कभी नहीं
घुस सकेगा, फिर आप बिलकुल
निर्भय हो गए।
पर
वह राजा कहने
लगा. पागल! वह
निर्भय होना
होगा, वह तो
मौत हो जाएगी,
वह तो कब बन
जाएगा महल।
वह
फकीर कहने लगा
: कब अभी भी बन
गई है। एक
दरवाजे से
क्या फर्क
पड़ता है? इतना
तो आप मान गए
कि अगर सब
दरवाजे बंद हो
जाएंगे तो यह
कब हो जाएगी।
एक दरवाजे से
काफी कब हो गई
है। यह भी आप
मान गए कि अगर
दरवाजे
बिलकुल न हों,
तो यह मकान
पूरा जीवन
होगा। अगर
मकान बिलकुल
ही न हो, तो
परिपूर्ण
जीवन होगा; क्योंकि
मकान बिलकुल न
हों, दरवाजे
बिलकुल न हों,
तो मौत हो
जाती है। तो
दरवाजे से
जीवन और मौत
का हिसाब है, वह फकीर
कहने लगा।
तो
वह फकीर कहने
लगा वही तो
कभी—कभी रात
मैं सोचता हूं।
अभी सुनी आपकी
बात तो हंसने लगा।
एक मैं भी हूं
बैठा हूं इस
द्वार पर। न
कोई द्वार है, न
कोई दरवाजा है—जीवत—लेकिन
पूरा है। और
आप भी मानते
हैं। समझ गए
आप कि एक और
दरवाजा बंद हो
तो मौत हो
जाएगी।
जितनी
सुरक्षा की हम
कोशिश करते
हैं उतने ही हम
मर जाते हैं।
जितने हम
भयभीत होते
हैं उतने ही
हम बंद हो जाते
हैं। नहीं, जीवन
उनके लिए है
जो भयभीत नहीं
हैं, जीवन
उनके लिए है
जो असुरक्षा
को वरण करने
की तैयारी
करते हैं, जो
इनसिक्योरिटी
में कूदने को
राजी हैं।
धार्मिक
मनुष्य मैं
उसी को कहता
हूं जो भय को छोड़ता
है और
असुरक्षा को
वरण करता है।
जो कहता है कि
जीऊं—गा मैं, जो
उसके भय होंगे
स्वीकार
करूंगा। जीऊं—गा
मैं, जो
होंगे खतरे
उनका आलिंगन
करूंगा। जीऊंगा
मैं, होगा
जो परिणाम
होगा। मैं
जीने को राजी
हूं मैं मरने
को नहीं। ऐसा
आदमी ही
करुणापूर्ण
हो सकता है, क्योंकि
करुणा एक ऐसे
अज्ञात जगत
में ले जाती है,
ऐसे अंतर—संबंधों
में जिनमें
खतरे हो सकते
हैं।
एक
वृक्ष से
दोस्ती तक
करना खतरनाक
है तो एक आदमी
के प्रति करुणापूर्वक
होना तो बहुत
खतरा मोल लेना
है,
बड़ा कमिटमेंट
है वह। वह बड़ी
बात है। और
उसी भय के
कारण हम सब
बंद हो गए हैं।
उस भय के कारण
कि पता नहीं
क्या होगा।
होने दें जो
होगा। जीवन
उन्हीं को
मिलता है जो
भयभीत नहीं
हैं। जीवन
उनको मिलता है
जो असुरक्षा
में कूदने को
तत्पर हैं। जो
पूर्ण असुरक्षा
में कूद जाता
है उसी को मैं
संन्यासी
कहता हूं।
ये
थोड़ी सी बातें
करुणा के
संबंध में
मैंने कहीं।
इस संबंध में
कुछ भी पूछना
हो तो रात्रि
की बैठक में
आप पूछ सकेंगे।
अब हम
सुबह के ध्यान
के लिए
बैठेंगे।
उसके लिए दो
बातें समझ
लेना जरूरी
हैं।
सुबह
के ध्यान में, जैसे
रात हम बैठे, नासाग्र—दृष्टि
रखनी है। नाक
का अग्रभाग
दिखाई पड़ता
रहे, इतनी
भर आंख खुली
रहे। फिर शरीर
को एकदम शिथिल
और शांत करके
बैठ जाना है।
फिर मन में, सुबह के इस
ध्यान में, एक तीव्र
जिज्ञासा
करनी है, एक
जिज्ञासा
करनी है—मैं
कौन हूं? बहुत
तीव्रता से, पूरी शक्ति
से, पूरे
संकल्प से
अपने भीतर
पूछना है कि
मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?
मैं कौन हूं?
पूछते ही
चले जाना है।
कोई उत्तर
नहीं देना है
अपनी तरफ से
कि मैं आत्मा
हूं। वे सब
उत्तर झूठे
हैं जो हमने
सीख लिए।
उत्तर को आने
देना है।
उत्तर अपने आप
आएगा कभी।
उसके पहले
हमें सिर्फ
पूछना है, पूछते
चले जाना है, खोदते चले
जाना है भीतर।
मैं कौन हूं? इसको एक
कुदाली बना
लेनी है और
खोदना है भीतर
कि मैं कौन
हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं?
शांत
पूछते चले
जाना है कि
मैं कौन हूं? मैं
कौन हूं? सारे
प्राण में गंज
पैदा हो जाए।
भीतर की श्वास—
श्वास पूछने
लगे कि मैं
कौन हूं? हृदय
की धड़कन— धड़कन
पूछने लगे कि
मैं कौन हूं? सारा चित्त
पूछने लगे कि
मैं कौन हूं? पैर से लेकर
सिर तक एक ही
गंज कि मैं
कौन हूं? यह
इतनी तेज हो
गज, यह
इतनी शक्ति से
भरी हो कि
सारा प्राण कैंपने
लगे कि मैं
कौन हूं? बस
एक ही पूछ रह
जाए, एक ही
प्रश्न, एक
ही इंक्वायरी
रह जाए, तो
एक दिन भीतर
से उत्तर आता
है कि कौन है!
तो एक दिन
उत्तर आता है
जो खोल देता
है सारे
द्वारों को, जो खोल देता
है सारे
पर्दों को और
हम अपने समक्ष
खड़े हो जाते
हैं।
तो
सुबह के इस
ध्यान को
जिज्ञासा का
ध्यान बनाना
है। तो हम
बैठेंगे, फिर
पूछेंगे, आंख
आधी खुली होगी
और भीतर पूछते
चले जाएंगे।
दस मिनट के
लिए भीतर इस
जिज्ञासा को
तीव्रता से गुंजाना
है। इतनी
तीव्र हो यह
जिज्ञासा कि
जैसे पसीना आ
जाए। सारा
व्यक्तित्व
पूरे प्राणों
से जुट जाए।
जब
पूरे प्राणों
से हम जुटेंगे
तभी जिज्ञासा
गहरी होगी और
भीतर तक उसकी
चोट होगी। वह
ऊपर ही गज बन
कर न रह जाए, वह
भीतर तक
प्रविष्ट हो
जाए। उसका पेनिट्रेशन
चाहिए गहराई
तक।
तो
आप पर निर्भर
है कि आप
कितनी
तीव्रता से यह
जिज्ञासा
करते हैं। जो
जितनी
तीव्रता से
पूछेगा उतनी
शीघ्रता से
उत्तर के आने
की संभावना है।
उत्तर भीतर है।
हमारी
जिज्ञासा उस
उत्तर तक नहीं
पहुंच पाती है, इसलिए
वह उत्तर हमें
उपलब्ध नहीं
होता है।
अब हम
थोड़े— थोड़े
फासले पर हो
जाएंगे। कोई
किसी को छूता
हुआ न हो। और
जमीन भी आप
देख कर बैठें, वह
ऐसी न हो कि
उसमें आप
परेशान हों।
थोड़ी सी ठीक
जगह पर बैठें
जहां आपको
तकलीफ न मालूम
हो। हां, कोई
बातचीत नहीं
होगी, चुपचाप
हट जाएं और
बैठ जाएं।
मैं
मान लूं कि आप
बैठ गए हैं।
आधी
आंख खुली हो, नाक
का अग्रभाग
दिखाई पड़ता
रहे इतने पलक
खुले हों। फिर
अपने को
बिलकुल शांत
और ढीला छोड़
दें। शांति से
बैठ जाएं।
शांत होते ही
अपने भीतर
तीव्रता से
पूछना शुरू
करें. मैं कौन
हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? पूछते
ही चले जाएं।
जैसे सागर की गर्जन
है ऐसे ही
भीतर एक गर्जन
गूंजने लगे
मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?
मैं कौन हूं?
पूछते जाएं,
पूछते जाएं
तीव्रता से, पूरे
प्राणों से।
जरा भी शक्ति
खाली न छोड़े, पूरी शक्ति
लगा दें कि
मैं कौन हूं? बस एक ही
प्रश्न. मैं
कौन हूं? एक
ही जिज्ञासा
मैं कौन हूं? एक ही आतुर
प्यास कि मैं
कौन हूं?
अब
पूछें मैं कौन
हूं?
मैं कौन हूं?
मैं कौन हूं?......दस मिनट के
लिए मैं चुप हो
जाता हूं। अब
आप पूछें. मैं
कौन हूं?......पूछते
चले जाएं......सारी
शक्ति लगा दें......पूछें
: मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?
मैं कौन हूं?...
पूछें, तीव्रता
से पूछें मैं
कौन हूं?......पूछते
चले जाएं—मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं?......पूरी
शक्ति से, पूरे
प्राणों से......मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं?......पूछें
मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?
मैं कौन हूं?......पूछते—पूछते
ही मन बिलकुल
शांत हो जाएगा......पूछें,
पूछते ही
चले जाएं......पूछते—पूछते
ही मन बिलकुल
शांत हो जाएगा।
प्रश्न ही रह
जाएगा और सब
मिट जाएगा।
पूछें मैं कौन
हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं?......एक
गहरी शांति
भीतर उतरने
लगेगी......प्रश्न
ही रह जाएगा
और सब शांत हो
जाएगा। एक
गहरी शांति
भीतर उतरने
लगेगी......प्रश्न
ही रह जाएगा
और सब शांत हो
जाएगा। जरा भी
भय न करें, पूछें.
मैं कौन हूं?... और जो होता
है होने दें। आंसू
बहे बह जाने
दें, रोकें
नहीं। रोना आए
आ जाने दें, रोकें नहीं।
पूछें
तीव्रता से
मैं कौन हूं?......सारे प्राण
कंप जाएं......मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं?......पूछें,
आंसू आते
हों आने दें, बह जाने दें।
पूछें
तीव्रता से
मैं कौन हूं?... अपने को छोड़
दें......पूछते
रहें— मैं कौन
हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं?......एक
ही गूंज रह
जाए भीतर—मैं
कौन हूं?......मन
शांत होता
जाएगा......मन एक
गहरी शांति
में उतर
जाएगा...।
पूछें, तीव्रता
से पूछें—मैं
कौन हूं?......सारी
शक्ति लगा कर
पूछें—मैं कौन
हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं?.. छोड़
दें अपने को......पूछते
चले जाएं—मैं
कौन हूं?......गहरे
से गहरे यह
प्रश्न उतर
जाए प्राणों
में—मैं कौन
हूं?... और मन
शांत होता
जाएगा......मन
बिलकुल शांत
हो जाएगा...।
मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं?......मन
शांत हो गया
है......मन बिलकुल
शांत हो गया
है......मन बिलकुल
हलका होकर
बाहर आ जाएगा।
अभी जब हम
उठेंगे तो मन
बिलकुल हलका
हो जाएगा।
बिलकुल दूसरा
हो जाएगा।
मैं
कौन हूं? मैं कौन
हूं?......बस यह
एक ही लहर की
तरह गूंजती
हुई बाहर—
भीतर टकराने
लगे—मैं कौन
हूं?......जैसे
सागर की लहरें
तट से टकराती
हैं। एक ही
प्रश्न
टकराने लगे—
मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?
मैं कौन हूं?......एक दो मिनट
और आखिरी जोर
से अपने से
पूछें मैं कौन
हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं?...
अब
धीरे— धीरे दो—चार
गहरी श्वास
लें... धीरे—
धीरे दो—चार
गहरी श्वास
लें... धीरे—
धीरे दो—चार
गहरी श्वास
लें......फिर बहुत
आहिस्ता से आंख
खोलें...।
सुबह की
बैठक पूरी हुई।
दोपहर एक
घंटे का जो
मौन का प्रयोग
होना है उसमें
अच्छा होगा कि
आप स्नान करके, नये
कपड़े पहन कर, ताजे कपडे
पहन कर, बिलकुल
हलके और ताजे
और पवित्र
होकर यहां आएं।
और आने के
पहले से ही
बिलकुल
भूमिका मन की
बना कर आएं
चुप, मौन
की। और यहां
तो फिर कोई
बात नहीं होगी।
घंटे भर मेरे
साथ चुपचाप
बैठना है और
प्रतीक्षा
करनी है कि उस
मौन में क्या
हो सकता है।
सुबह की
बैठक पूरी हुई।
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