दिनांक
24 सितम्बर 1976;
श्री ओशो
आश्रम, पूना।
प्रश्नसार:
1— भगवान!
बाईस सितंबर
के टाइम्स ऑफ
इंडिया में, इंदौर से
प्रसारित एक
समाचार में
लिखा है कि भारत
के
प्रधानमंत्री
श्री मोरारजी
देसाई ने आचार्य
रजनीश के
स्त्री और यौन
संबंधी विचारों
के प्रति अपनी
बलवान नापसंदगी
जाहिर की और
कहा कि एक मुक्ताचारी,
परमिसिव समाज अंततः
सर्वनाश को
प्राप्त होता
है। इस प्रसंग
में उन्होंने
कहा कि
प्राचीन भारत
में भी समाज
एक बार मुक्ताचारी
हुआ था, कलिंग
काल में बने
भुवनेश्वर और
पुरी के मंदिर
इस बात की खबर
देते हैं। और
यही कारण है
कि कलिंग
साम्राज्य
समाप्त हो
गया। भगवान, श्री
मोरारजी
देसाई के इस
वक्तव्य पर
कुछ कहने की
कृपा करें।
2—जब
सभी पहुंचे हुए
पूर्ण—पुरूष परमात्मा
की पुकार करते
है, तभी मेरी
समझ में नहीं आता
कि पुकारने के
लिए वे बचते है
कहा?
पहला
प्रश्न:
भगवान!
बाईस सितंबर
के टाइम्स ऑफ
इंडिया में, इंदौर से
प्रसारित एक
समाचार में
लिखा है कि भारत
के
प्रधानमंत्री
श्री मोरारजी
देसाई ने आचार्य
रजनीश के
स्त्री और यौन
संबंधी विचारों
के प्रति अपनी
बलवान नापसंदगी
जाहिर की और
कहा कि एक मुक्ताचारी,
परमिसिव समाज अंततः
सर्वनाश को
प्राप्त होता
है। इस प्रसंग
में उन्होंने
कहा कि
प्राचीन भारत
में भी समाज
एक बार मुक्ताचारी
हुआ था, कलिंग
काल में बने
भुवनेश्वर और
पुरी के मंदिर
इस बात की खबर
देते हैं। और
यही कारण है
कि कलिंग
साम्राज्य
समाप्त हो
गया। भगवान, श्री
मोरारजी
देसाई के इस
वक्तव्य पर
कुछ कहने की
कृपा करें।
आनंद
मैत्रेय! इससे
मुझे याद आता
है, एक जैन
साधु के साथ
मैं सुबह-सुबह
घूमने निकला
था। रास्ते के
किनारे एक
गरीब शराबी मर
गया था। उसकी
अरथी बांधी जा
रही थी। जैन
साधु ने बड़ी
प्रसन्नता से
मुझसे कहा:
देखो, शराबियों
की ऐसी गति
होती है।
मैंने पूछा:
शराबी शराब के
कारण मरते हैं,
फिर साधु
क्यों मरते
हैं? आप
मरोगे या नहीं?
इस बात को
बीते तो कोई
बीस वर्ष हो
चुके, उत्तर
वे अभी भी
नहीं दे पाए
हैं। उत्तर वे
कभी भी नहीं
दे पाएंगे।
कलिंग
साम्राज्य
इसलिए नष्ट हो
गया, क्योंकि मुक्ताचारी
था और
भुवनेश्वर और
पुरी जैसे
सुंदर मंदिर
बनाए—प्रेम के
मंदिर—तो फिर
और साम्राज्य,
मोरारजी
भाई, किसलिए नष्ट होते
हैं? कलिंग
साम्राज्य ही
अगर अकेला
नष्ट हुआ होता
तो बात
अर्थपूर्ण थी,
और
साम्राज्यों
का क्या हुआ? दुनिया के
सभी
साम्राज्य
नष्ट होते
हैं। साम्राज्यों
को नष्ट होना
ही पड़ता है।
जो चीज इस जगत
में बनती है, मिटती है।
जो जन्मता है,
मरता है, फिर शराबी
हो कि साधु
हो। फिर अशोक
के साम्राज्य
का क्या हुआ, जिसने कलिंग
साम्राज्य को
नष्ट किया था?
जिसने
कलिंग साम्राज्य
को भयंकर
हिंसा से, रक्तपात
से भर दिया था;
एक लाख आदमी
मारे थे। फिर
अशोक जैसे
सदाचारी के
साम्राज्य का
क्या हुआ? कहां
है वह
साम्राज्य अब?
कोई
नाम-निशान तो
रह नहीं गया!
और-और
साम्राज्यों
का क्या हुआ? रोम के महासाम्राज्य
का क्या हुआ? यूनान का
क्या हुआ? बेबीलोन का क्या हुआ?
मिस्र का
क्या हुआ? असीरिया का क्या हुआ?
चीन का क्या
हुआ? अनंत-अनंत
साम्राज्य
बने और मिट
गए। या तो सभी मुक्ताचारी
थे, या फिर
मिटने का कारण
कुछ और होगा, मुक्ताचार नहीं। और
अगर सभी मिट
जाते हैं तो
मिटने का कारण
अलग-अलग खोजने
की जरूरत नहीं;
जो भी चीज
बनती है, मिट
जाती है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
अस्सी वर्ष का
हो गया था और
अभी भी दौड़
में उसका कोई
मुकाबला न था।
तो पत्रकार
उसके घर इकट्ठे
हुए और पूछा
कि तुम्हारे
इस स्वास्थ्य
का राज क्या
है? क्या तुम
भी मोरारजी
भाई की तरह
"जीवन-जल' पीते
हो? मुल्ला
नसरुद्दीन
ने कहा कि
नहीं, इसका
राज है कि मैं
कभी शराब नहीं
पीता, मांसाहार
नहीं करता, परस्त्री-गमन
नहीं करता।
इसलिए इतना
स्वस्थ हूं कि
आज भी दौड़ में
मेरा कोई
मुकाबला
नहीं। तभी बगल
के कमरे में
जोर से किसी
के गिरने और किसी
के चिल्लाने
की आवाज आई।
तो पूछा पत्रकारों
ने चौंककर
कि क्या मामला
है? मुल्ला
नसरुद्दीन
ने कहा: कोई
फिक्र न करें,
मेरे
पिताजी हैं।
उन्होंने फिर
नौकरानी को पकड़
लिया है।
पिताजी! उनकी
उम्र कितनी है?
उनकी उम्र
सौ वर्ष है।
नौकरानी को
पकड़ लिया! मुल्ला
नसरुद्दीन
ने कहा: जब भी
वे ज्यादा पी
लेते हैं, तब
इसी तरह का
व्यवहार करते
हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन
अस्सी वर्ष का
है, क्योंकि
शराब नहीं
पीता, क्योंकि
मांसाहार
नहीं करता।
पिता सौ साल
के हैं, अभी
भी शराब पीते
हैं, और
अभी भी
उन्होंने
नौकरानी को
पकड़ लिया है! उम्र
का राज कहां
है? उम्र
का राज किस
बात में है? जो शराब
नहीं पीते, वे सोचते
हैं इसलिए
ज्यादा जिंदा
रह रहे हैं। जो
शराब पीते हैं,
वे सोचते
हैं इसलिए
ज्यादा जिंदा
रह रहे हैं कि
शराब पीते
हैं। इन
व्यर्थ के
कारणों में
उतरने का कोई
अर्थ नहीं है।
जीवन बनता है
तो एक दिन
मिटता है—देर-अबेर।
कलिंग
साम्राज्य
इसलिए नहीं
मिटा कि यौनाचारी
था और अशोक
इसलिए नहीं
जीता कि
सदाचारी था। अशोक
इसलिए जीता कि
उसके पास
हिंसा करने की
बड़ी शक्ति थी
और कलिंग के
पास कम शक्ति
थी। कलिंग छोटा
राज्य था।
यहां जिसकी
लाठी उसकी
भैंस।
क्या
तुम सोचते हो
अमरीका इसलिए
जीता जापान से
कि अमरीका
ज्यादा
सदाचारी है और
जापानी मुक्ताचारी
हैं इसलिए हार
गए? अमरीका
से ज्यादा मुक्ताचारी
कौन है आज? लेकिन
अमरीका जीता,
क्योंकि
एटम बम उसके
पास था। जापान
एक सदाचारी
मुल्क है, अतिधार्मिक वृत्ति का, संस्कारशील;
लेकिन हारा,
क्योंकि
एटम बम उसके
पास नहीं था।
हिटलर
क्यों हारा? क्या तुम
सोचते हो
हिटलर मुक्ताचारी
था? हिटलर
मोरारजी
देसाई से
ज्यादा बड़ा
महात्मा था! न
उसने कभी
मांसाहार
किया, न
कभी सिगरेट पी,
न कभी शराब
पी; उसने
"जीवन-जल' भी
नहीं पीया!
ब्रह्ममुहूर्त
में उठता था।
व्यायाम करता
था। कभी विवाह
नहीं किया।
मोरारजी देसाई
ने तो कम से कम
विवाह किया और
कांति देसाई
जैसे महापुत्र
पैदा किए! कुछ
न कुछ यौनाचार
तो किया ही
होगा। हिटलर
तो कोई
बाल-बच्चे नहीं
छोड़ गया। फिर
हिटलर हारा
कैसे? और
उसने सारे
जर्मनी को ऐसे
नियमों में
आबद्ध कर दिया
था, जैसा
इस जमीन पर
कभी किसी ने
नहीं किया था।
सारा जर्मनी
एक सदाचरण, एक अनुशासन,
एक
सैन्य-शिविर
बन गया था।
फिर हारा
क्यों?
क्या
तुम सोचते हो
चर्चिल
ज्यादा
सदाचारी था? चर्चिल में
तो सदाचार
जैसा कुछ
दिखाई पड़ता नहीं—शराबी,
मांसाहारी।
ब्रह्ममुहूर्त
में तो चर्चिल
कभी उठा नहीं।
दस बजे से
पहले कभी नहीं
उठा; कहते
हैं सिर्फ एक
बार उठा। और
एक बार उठकर
उसने देख लिया
सूरज का ऊगना,
और उसने कहा
बार-बार क्या
उठकर देखना, यही सूरज
बार-बार ऊगेगा।
और एक दिन उठा,
और उसने पा
लिया कि कोई
सार नहीं; सब
बकवास है जो
लोग कहते हैं
कि सुबह उठने
से ताजगी रहती
है। क्योंकि
उस दिन वह
दिन-भर बेचैन
रहा, परेशान
रहा, नींद
पूरी नहीं हो
पाई।
चर्चिल
जीता, हिटलर
हारा।
सदाचारी हार
गया, दुराचारी
जीत गया।
इस जगत
में जीत
सदाचार और
दुराचार से
नहीं होती। इस
जगत में जीत
और हार होती
है हिंसक
शक्ति की
मात्रा पर।
क्या तुम
सोचते हो चीन
ने हिंदुस्तान
की जमीन छीन
ली और
हिंदुस्तान
हारा तो
हिंदुस्तान
दुराचारी है
और चीन
सदाचारी है? अगर सदाचार
से ही निर्णय
होता हो तो
मोरारजी भाई,
किसलिए अणुशक्ति
बनाने के लिए
अमरीका के
द्वार पर भीख
मांगते फिरते
हो, किस
कारण? सत्तर
प्रतिशत भारत
की संपदा
क्यों
सैनिकों को
खिलाकर और
सेना पर
समाप्त कर रहे
हो? देश
गरीब है, भूखा
मर रहा है।
अगर सदाचार से
जीत होती है
तो ये सारे
सैनिकों को
विदा करो; यह
सारा पैसा देश
को सदाचारी
बनाने में लगा
दो। और तब
तुम्हें पता
चल जाएगा कि
कौन जीतता है और
कौन हारता है।
महात्मा
गांधी जीवन-भर
कहते रहे—मोरारजी
देसाई के गुरु
थे वे—जीवन भर
कहते रहे:
अहिंसा।
लेकिन जैसे ही
देश आजाद हुआ
और सत्ता हाथ
में कांग्रेस
के आई, फिर
उन्होंने
अहिंसा की बात
नहीं की। फिर
उन्होंने
कश्मीर के लिए
जाते हुए भारत
के हवाई जहाजों
को, जो
पाकिस्तान पर
जाकर बम
गिराएंगे, आशीर्वाद
दिया। पहले
कहते थे कि
देश आजाद हो
जाएगा तो सेना
को हम विदा कर
देंगे। सेना
की क्या जरूरत
रहेगी? अहिंसा
से जीतेंगे।
अहिंसा पर कौन
हमला कर सकता
है! लेकिन जब
देश आजाद हो
गया तो गई सब
बकवास! फिर
भूल गए बात कि
सेना को अब
विदा कर दें।
और अब सेना
रखने की कोई
जरूरत नहीं है,
अब हम
अहिंसा से
जीतेंगे।
अगर
चीन हमला
करेगा या
पाकिस्तान
हमला करेगा तो
उपवास करेंगे, चरखा कातेंगे।
और जीतकर दिखलाएंगे।
फिर नहीं की
यह बात। और
अगर ऐसा ही था,
तो जब गोडसे
ने गोली मारी
तो गांधी को
नहीं मरना था।
सदाचारी मर
गया, ब्रह्मचारी
मर गया। तो कल
तो कोई यही कह
सकता है कि
गांधी
सदाचारी न रहे
होंगे, इसलिए
मर गए। नहीं
तो गोडसे
मार पाता? ब्रह्मचर्य
का तेज; गोली
क्या कर लेती! छिटककर
उलटी गोडसे
को लगती!
अगर गोडसे की
गोली गांधी को
मार सकती है
तो सोचो थोड़ा, अशोक के पास
बड़ी शक्ति थी,
विराट
साम्राज्य था,
कलिंग
छोटा-सा देश
था। अगर गरीब
कलिंग को अशोक
के साम्राज्य
ने नष्ट कर
दिया तो
मोरारजी भाई,
इस तरह की
बेहूदी बातें
तो मत कहो। इस
तरह की अर्थहीन
बकवास तो मत
करो।
हां, यह हो सकता
है कि कलिंग
के हारने का
कारण यह रहा
हो कि कलिंग, जहां
भुवनेश्वर और
पुरी के सुंदर
मंदिर बने, मंदिरों के
बनाने में लगा
रहा हो और
उसने बंदूकें
नहीं ढालीं
और तलवारें
नहीं ढालीं।
सुंदर मंदिर
खोदने में लगा
रहा हो, प्रभु
की पूजा करने
में लगा रहा
हो। और तोपें और
तोपों के गोले
ढालने का समय
न पाया हो।
उसकी ऊर्जा
सौंदर्य की
सेवा में लग
गई हो। और यह
भी हो सकता है
कि कलिंग के
लोग एक-दूसरे
को प्रेम करते
रहे हों।
जहां
भी लोग
एक-दूसरे को
प्रेम करते
हैं, वहां लोग
लड़ने को
उत्सुक नहीं
होते। लड़ने को
उत्सुक वे ही
लोग होते हैं,
जिनके जीवन
में प्रेम
शून्य होता
है। और इसीलिए
सारी दुनिया
के राजनेता इस
बात की कोशिश
करते हैं कि
दुनिया में
प्रेम न फैल पाए।
क्योंकि
प्रेम फैला तो
कौन लड़ने
जाएगा?
इस
विज्ञान को
समझ लो ठीक
से। अगर किसी
व्यक्ति को लड़ाना हो, उसको प्रेम
से वंचित कर
दो। प्रेम की
ऊर्जा ही
हिंसा बन जाती
है। अगर प्रेम
की ऊर्जा को
निकास न मिले,
विकास न मिले;
अगर प्रेम
के फूल न खिलें,
तो प्रेम की
ऊर्जा ही
हिंसा बन जाती
है। किसी भी
व्यक्ति को
अगर लड़ाना
हो तो उसको
प्रेम से रोक
दो, वह
लड़ने को
उत्सुक हो
जाएगा।
मनोविज्ञान
की खोजें यह
अब निर्णायक
रूप से कहती
हैं कि सैनिक
को प्रेम करने
से रोकना पड़ता
है इसीलिए, ताकि वह लड़
सके। क्योंकि
जो प्रेम करता
है, उसकी
लड़ने की
वृत्ति कम हो
जाती है।
प्रेमी की
वृत्ति लड़ने
में नहीं रह
जाती। इसलिए
सैनिकों के
साथ उनकी
पत्नियों को
हम युद्ध पर
नहीं भेजते।
सैनिकों
को हम वर्जित
करते हैं उनके
प्रेम से।
ताकि प्रेम न
कर पाने का जो
क्रोध उनके
भीतर इकट्ठा
होता है, जो
जहर इकट्ठा
होता है, वह
जहर वे अपने
दुश्मनों पर
निकाल लें।
जिनको जीवन का
मजा नहीं आ
रहा है, वे
मरने-मारने को
उत्सुक हो
जाते हैं। तो
यह हो सकता है
कि कलिंग में,
जहां पुरी
और भुवनेश्वर
के प्यारे
मंदिर बने—तंत्र
के मंदिर हैं
वे—प्रेम की
आभा रही हो, लोग लड़ने को
आतुर न रहे
हों। लोग जीने
को आतुर हों
तो लड़ने को
आतुर नहीं
होते।
तुम्हारे
जीवन में जब
रस होता है, तब तुम लड़ने
को आतुर नहीं
होते, क्योंकि
लड़ने से
तुम्हारा रस
जाएगा। जब
जीवन में कुछ
खोने को होता
है तो आदमी
लड़ने को जरा भी
उत्सुक नहीं
होता। जब जीवन
में कुछ भी
नहीं होता तो
लड़ने के सिवाय
कुछ और बचता
नहीं। तो
युद्ध ही उत्सुकता
रह जाती है।
इसलिए सैनिक
को उसकी कामवासना
के दमन की
सारी की सारी
प्रक्रिया
में हम गुजारते
हैं। उसकी
कामवासना को
दबाओ, ताकि
जो ऊर्जा उसके
जीवन को रस से
भर सकती है, वह
विक्षिप्त
होकर उसके
भीतर घूमने
लगे और उसे
मार्ग न मिले।
और उसी
विक्षिप्तता
में वह मारने
को तैयार हो
जाए। प्रेम से
जन्म होता है,
और अगर
प्रेम का
मार्ग
अवरुद्ध किया
जाए तो प्रेम
से ही मृत्यु
घटित होती है।
लेकिन
क्या इस कारण
हम लोगों के
जीवन को प्रेम
से वंचित कर
दें? ऐसे समाज
को बचाने से
क्या सार है, जहां युद्ध
के, वैमनस्य
के,र् ईष्या के
आधार रखे जाते
हों? जहां
आदमी सिर्फ
मरने और मारने
को जीता हो? ऐसे समाज से
क्या प्रयोजन
है? समाज
तो ऐसा चाहिए
जो व्यक्ति को
उसकी परिपूर्णता
में खिलने
का अवसर देता
हो। और प्रेम
जीवन की गहनतम
बात है।
फिर
समाज तो सभी
बनेंगे और मिटेंगे, आएंगे और
जाएंगे। नहीं
तो नए समाज
कैसे बनेंगे?
पुराने
समाज न मिटेंगे
तो नए समाजों
का आविर्भाव
कैसे होगा? सांझ सूरज न
डूबेगा तो फिर
दूसरे दिन
सुबह नया सूरज
कैसे ऊगेगा,
नई सुबह
कैसे होगी? अगर बूढ़े न
मरेंगे तो
बच्चे कैसे
पैदा होंगे? बूढ़े इसलिए
नहीं मरते कि
अनाचारी थे, बूढ़े इसलिए
मरते हैं कि
बूढ़े थे। और
बच्चे इसलिए
पैदा नहीं
होते कि
सदाचारी हैं,
बच्चे
इसलिए पैदा
होते हैं कि
बच्चे हैं।
नया आता है, पुराना जाता
है। पुराने को
जाना ही चाहिए,
नहीं तो नए
के लिए जगह न
बचेगी।
कलिंग
के साम्राज्य
का हार जाना
और उसका कारण मोरारजी
भाई का यह
बताना कि
चूंकि वहां
तंत्र का
प्रचार था और
भुवनेश्वर
जैसे प्यारे
मंदिर
उन्होंने
बनाए, इसलिए
वे हारे। यह
मेरे खिलाफ वे
वक्तव्य दे रहे
हैं, कि
अगर मेरी
बातें मानी
गईं तो समाज
नष्ट हो
जाएगा। यह
उतना ही मूढ़तापूर्ण
है, जैसा
महात्मा
गांधी ने
बिहार में आए
भूकंप के समय
कहा था। बिहार
में आया भूकंप,
और महात्मा
गांधी ने क्या
कहा मालूम है?
कहा कि
बिहार में हरिजनों
के साथ जो
अत्याचार हुआ
है, उस पाप
का फल भगवान
दे रहा है बिहारियों
को!
क्या हरिजनों
के साथ
अत्याचार
सिर्फ बिहार
में ही हुआ है? हरिजनों के साथ
अत्याचार तो
पूरे भारत में
हुआ है, सिर्फ
बिहारियों
को दंड दिए जा
रहे हैं! सच तो
यह है कि
बिहार में इतना
अत्याचार
नहीं हुआ है, जितना और
देश के दूसरे
हिस्सों में
हुआ है। सिर्फ
बिहारियों
को दंड दिया
जा रहा है और
बाकी सारा देश
मजा कर रहा है!
इस तरह
की आदतें होती
हैं, किसी भी
बहाने अपनी
धारणा को
प्रचलित करने
की चेष्टा की
जाती है। अभी
कुछ दिन पहले
दक्षिण में
प्रचंड
झंझावात आया।
आंध्र में लोग
मरे, कर्नाटक
में लोग मरे।
तो श्री राजनारायण
ने कहा कि यह इसलिए
हुआ कि वहां
लोगों ने जनता
को वोट नहीं दी।
अब दिल्ली में
पूर आया और
उत्तर में लोग
मर रहे हैं किसलिए?
जनता को वोट
दिए इसलिए? ये कैसी मूढ़तापूर्ण
बातें हैं!
और
किसी देश का
प्रधानमंत्री
जब इस तरह की मूढ़तापूर्ण
बातें करे तो
बड़ी दयनीय हो
जाती है। यह
बड़े अभाग्य की
बात है कि
हमने एक अति
मंदबुद्धि
आदमी को इस
देश का
प्रधानमंत्री
बनाकर बिठाल
दिया है, अति
जड़बुद्धि
व्यक्ति को!
और इसलिए मैं
निरंतर कहता
हूं कि जयप्रकाश
नारायण को इस
देश का भविष्य
क्षमा न कर
सकेगा।
क्रांति के
नाम पर कब्रों
में गड़े
मुर्दों को
निकालकर देश
की सत्ता दे
दी। जिनको कभी
का मर जाना
चाहिए था।
जिनके होने का
कोई प्रयोजन
नहीं है। जिनके
पास बुद्धि है
कम से कम
पचास-साठ साल
पुरानी।
दुनिया
में कोई देश
बयासी-तिरासी
साल के लोगों
को प्रधान
मंत्री नहीं
चुनता। कोई
देश नहीं चुनता, यह हम ही
अभागे लोग
हैं! क्योंकि
इनसे अब क्या
आशा हो सकती
है? ये चल
चुकी कारतूस
हैं! बस
कारतूस जैसे
दिखाई पड़ते
हैं; अब
इनमें कुछ है
नहीं। और इनके
जीवन का एक
मात्र लक्ष्य
है, वह
इन्होंने
तिरासी साल तक
दौड़-दौड़ कर
पूरा कर लिया।
अब कुछ बचा
नहीं करने को,
अब बस ये
बैठे हैं। अब
ये कुर्सी से
चिपके
रहेंगे।
क्या
तुम सोचते हो, इतिहास का
ऐसा विश्लेषण
किया जाता है?
इतिहास की
कुछ सूझ-बूझ
है? इतिहास
पढ़ा है
मोरारजी भाई?
कितने
साम्राज्य
बने और मिटे, सिर्फ कलिंग
पर दोषारोपण?
फिर और सब
साम्राज्यों
का क्या हुआ? या तो सभी
अनाचारी थे, और या फिर यह
मानना होगा कि
सदाचारी भी
मिटते हैं, साधु भी
मिटते हैं। तो
फिर मिटने और
न मिटने का
कोई संबंध
सदाचार और
अनाचार से
नहीं है।
फिर
किस बात को
सदाचार कहते
हो?
मुझसे
वे नाराज हैं।
कारण कई हो
सकते हैं। पहला
कारण: जब वे
उप-प्रधानमंत्री
थे, तब मेरा
इंदिरा से
मिलना हुआ।
इंदिरा की सदा
से मेरे
विचारों में
उत्सुकता रही है।
तो इंदिरा ने
मेरी बातें
बड़े गौर से सुनीं,
विचार से सुनीं। और
मुझे कहा कि
आप जो कहते
हैं, ठीक
कहते हैं। और
आप जो कहते
हैं, मैं
भी करना
चाहूं। लेकिन
आप थोड़ा सोचें,
मैं किस तरह
के लोगों के
साथ बंधी हूं।
मोरारजी भाई
के संबंध में
सोचें। वे
उप-प्रधानमंत्री
हैं। कुछ भी
नई बात कहो, वे तत्क्षण
अड़ंगा लगा
देते हैं।
तो
मैंने इंदिरा
को कहा कि ऐसे
लोगों को विदा
करनी चाहिए।
इनको छुट्टी
दो। या तो कुछ
करो। और अगर
करने में जो
बाधा बनते हों
लोग, उनको हटाओ।
और अगर न हटा
सकती होओ उनको,
तो खुद हट
जाओ। क्योंकि
फिर रहने का
प्रयोजन क्या
है?
और
लगता है यह
बात इंदिरा को
चोट कर गई।
क्योंकि मैं
दिल्ली से
मिलकर जबलपुर
वापिस पहुंच भी
नहीं पाया कि
मोरारजी भाई
निकाल बाहर कर
दिए गए। शायद
इस कारण बड़ी
गहरी चोट उन
पर पहुंची। कहीं
न कहीं से
उनको खबर लगी
होगी कि जैसे
उनको विदा
करवाने में
मेरा भी हाथ
है।
जैसे
ही मैं लौटकर
जबलपुर
पहुंचा, और
मुझे खबर मिली,
तो मैं भी
थोड़ा-सा तो
चिंतित हुआ।
ऐसा मैंने सोचा
नहीं था कि
ऐसा हो ही
जाएगा। तो
दोबारा जब मैं
दिल्ली गया, तो मैं
मोरारजी भाई
को मिला।
सिर्फ यह
देखने के लिए
कि इस बेचारे
को बाहर कर
दिया गया है
तो थोड़ी
सांत्वना
प्रकट कर आऊं।
लेकिन जब मिला
तो ऐसी जड़ता
मैंने उनमें
पाई कि
सांत्वना
प्रकट करने
गया था, लेकिन
प्रसन्न
चित्त लौटा कि
अच्छा हुआ यह
आदमी विदा हो
गया। फिर
सांत्वना
प्रकट नहीं की;
करने की कोई
जरूरत ही नहीं
समझी, बल्कि
अपने को
धन्यवाद दिया
कि मैंने जो
सुझाव दिया था,
ठीक ही दिया
था। जो उनसे
थोड़ी-सी
बातचीत हुई—सोच
ही सकते हैं
कि मेरे और
उनके बीच जो
बातचीत होगी
वह क्या होगी—वह
झंझट की थी।
मेरा और उनका
किसी तल पर
कोई मेल नहीं
हो सकता।
क्योंकि
सोच-विचार
उन्हें छू
नहीं गया है।
बंधी-बंधाई
धारणाएं हैं,
उन बंधी
धारणाओं को
बिलकुल आंख
बंद करके दोहराते
जाने की आदत
है। उन बंधी
धारणाओं के
लिए न कोई
तर्क है, न
कोई समर्थन।
फिर
दोबारा मेरा
उनसे मिलना
हुआ। आचार्य
तुलसी ने
निमंत्रण
दिया था। वे
भी मौजूद थे, मैं भी
मौजूद था। हम
दोनों आचार्य
तुलसी के
मेहमान थे।
आचार्य तुलसी
बैठे थे अपने
तख्त पर, हम
सब नीचे बैठे
थे। मोरारजी
भाई को खला, बहुत अखरा।
संगोष्ठी थी,
कोई बीस
निमंत्रित
व्यक्ति थे।
बैठकर कुछ विचार
करना था देश
के लिए। मगर
वह विचार न हो
सका, क्योंकि
मोरारजी भाई
ने कहा कि और
बातों का
विचार हम बाद
में करेंगे, तुलसी जी, पहले मैं यह
पूछता हूं कि
आप ऊपर क्यों
बैठे हैं, हम
लोग नीचे
क्यों बैठे
हैं? अब
तुलसी जी बड़े
पेशोपस में पड़
गए, कहें
तो क्या कहें?
इतना ही कहा
कि चूंकि मैं
भिक्षु-संघ का
आचार्य हूं, और यह हमारी
परंपरा है कि
जो आचार्य है
वह ऊपर बैठे।
तो मोरारजी
भाई ने कहा कि
आप होंगे
भिक्षु-संघ के
आचार्य, हमारे
आचार्य नहीं
हैं। हमारे
साथ बैठे हैं,
कोई
भिक्षु-संघ के
साथ नहीं बैठे
हैं। फिर आप तो
अपने को
क्रांतिकारी
संत कहलवाते
हैं, यह
कैसी क्रांति!
मैंने
देखा कि यह तो
बात बिगड़ गई।
अब बात आगे चल
न सकेगी, यह
तो बात खराब
हो गई। तो
मैंने आचार्य
तुलसी को कहा
कि यद्यपि
मुझसे पूछा
नहीं गया है, इसलिए आप और
मोरारजी भाई
दोनों राजी
हों तो मैं इस
बात का उत्तर
दूं। दोनों
राजी थे तो
मैंने कहा:
देखें
मोरारजी भाई,
मैं भी नीचे
बैठा हूं, मुझे
नहीं अखरा, आपको क्यों
अखरा? आचार्य
तुलसी ऊपर
बैठे हैं, बैठे
रहने दो।
छिपकली देखते
हो, और भी
ऊपर बैठी है।
तो बैठे रहने
दो। मूढ़
मालूम पड़ रहे
हैं, कोई
समझदार नहीं
मालूम पड़ रहे
हैं, क्योंकि
गोष्ठी के लिए
बुलाया है।
हां, अगर
प्रवचन देते
होते, थोड़ी
ऊपर बैठना
जरूरी है, ताकि
लोग देख सकें।
यह तो
विचार-गोष्ठी
है, बीस
लोगों के साथ
बैठे हैं। और
खुद हम उनके
द्वारा
आमंत्रित हैं,
वे हमारे
आतिथेय हैं, हम उनके
अतिथि हैं। और
अब यह बड़ी
अजीब-सी बात हो
गई है कि
आतिथेय ऊपर चढ़कर बैठ
गया है, अतिथि
नीचे बैठे
हैं! हम उनके
निमंत्रण पर
आए हैं। मगर
ठीक है, अगर
उनको इसमें
मजा आ रहा है, रस आ रहा है, उनको बैठा
रहने दो। बीस
लोगों में
सिर्फ आपको क्यों
अखरी यह बात? शायद आप भी
ऊपर बैठना
चाहते हैं। आप
भी चढ़ जाइए! वह
तो उतरने से
रहे, क्योंकि
आपने पूछा, अगर उनमें
जरा भी हिम्मत
होती तो उतर
आए होते।
उन्होंने कहा
होता कि यह
भूल हो गई।
नीचे बैठ गए
होते। वे तो
बेशर्मी से
बैठे हैं। आप
भी क्यों डरते
हो, चढ़ जाओ!
आप दोनों बैठ
जाओ, ताकि
चर्चा तो शुरू
हो।
यह
अहंकार, एक
अहंकार ऊपर
चढ़ा बैठा है, दूसरा
अहंकार नीचे तड़प रहा
है।
उस दिन
से तुलसी जी
भी नाराज हैं, मोरारजी भी नाराज
हैं। उनकी
नाराजगी के
कारण हैं।
लेकिन नाराजगी
के कारण
सीधे-सीधे तो
वह कह नहीं
सकते, इसलिए
परोक्षरूपेण
जाहिर करते
हैं। उनका यह
कहना कि:
आचार्य रजनीश
के स्त्री और
यौन संबंधी
विचारों के
प्रति अपनी
बलवान
नापसंदगी
जाहिर की है। स्ट्रांग डिसलाइक...।
मूल शब्द ऐसे
हैं: "ही एक्सप्रेस्ड
हिज स्ट्रांग
डिसलाइक
फॉर दि व्यूज
ऑफ आचार्य
रजनीश ऑन वीमेन
एन्ड
सेक्स, सेइंग दैट ए परमिसिव
सोसायटी अल्टीमेटली
डिस्ट्रायड
इटसेल्फ
इन एन्सिएन्ट
इंडिया टू
सोसायटी हैड वन्स बिकम
परमिसिव
दि टेम्पिल्स
ऑफ भुवनेश्वर एन्ड पुरी
बिल्ट डयूरिंग
दि कलिंग
पीरियड इन्डिकेटेड
दिस. एन्ड
दैट वाज व्हॉय
दि कलिंग एंपायर
वैनिश्ड.
ए परमिसिव
सोसायटी हैज
नो मॉरल स्टैण्डर्ड.'
मोरारजी
भाई, सदाचार
और दमन एक ही
बात नहीं हैं।
ठीक-ठीक सदाचारी
दमित नहीं
होता, मुक्त
होता है। मुक्ताचारी
ही होता है, स्वतंत्र
होता है, स्वच्छंद
होता है। उसने
वासना को
दबाया नहीं होता,
जाना होता
है, जीया
होता है।
जानने और जीने
की प्रक्रिया
से उसका
अतिक्रमण
किया होता है।
मैं
लोगों को नियम
तोड़कर
पशु-पक्षियों
की भांति जीने
को नहीं कह
रहा हूं। मैं
लोगों को जागकर
बुद्धों की
भांति जीने को
कह रहा हूं।
इस मुक्ताचार
को उसी अर्थ
में मुक्ताचार
नहीं कहा जा
सकता जिस अर्थ
में पश्चिम
में एक समाज
निर्मित हो
रहा है। यह मुक्ताचार
मुक्तों
का आचरण है।
मेरी
दृष्टि में—और
मेरी दृष्टि
के समर्थन में
मनुष्य की अब
तक की सारी
खोजें हैं—यदि
व्यक्ति अपनी
कामवासना को
दबाता है, तो सदा के
लिए उसी
कामवासना से
भरा रह जाएगा।
और वही
मोरारजी के
साथ हुआ है।
कोई पचास साल
उन्होंने
कामवासना को
दबाया है, दबाते
रहे हैं, उस
दबाने को वे
सदाचरण समझते
हैं। वह
कामवासना
उनके भीतर भरी
पड़ी है। वह जो
नहीं पूरा
किया है, वह
जो नहीं जीया
है, वह अभी
भी तरंगें ले
रहा है। अभी
वे मुक्त नहीं
हैं, अभी
भी उसके पार
नहीं जा सके
हैं। अभी भी
रोग की तरह, एक गांठ की
तरह उनके भीतर
सारी वासना
पड़ी है। वे
चाहे इसे
स्वीकार न भी
करें। हिम्मत
होनी चाहिए, कम से कम
उनके गुरु
महात्मा
गांधी में
इतनी हिम्मत
थी कि अपने
अंतिम समय तक
भी उन्होंने
यह स्वीकार
किया कि मेरी
वासना समाप्त
नहीं हुई है।
दबा लिया था, समाप्त कैसे
होती? और
महात्मा
गांधी को अपने
जीवन के अंतिम
चरण में तंत्र
की ही शरण
लेनी पड़ी। उसी
तंत्र की, जिसके
कारण कलिंग का
साम्राज्य
नष्ट हो गया मोरारजी
देसाई के अनुसार।
जीवन-भर
तो उन्होंने
दमन किया...।
लेकिन एक बात महात्मा
गांधी के
संबंध में
स्वीकार करनी
होगी कि वे
आदमी ईमानदार
थे। गलत किया
तो उसे स्वीकार
करने की
क्षमता उनमें
सदा थी।
जीवन-भर दमन
किया। किसी
तरह अपनी
कामवासना को
जीतने की कोशिश
की और
ब्रह्मचर्य
को थोपने की
कोशिश की। वह
नहीं हो सका, तो धोखा
नहीं दिया, स्वीकार
करते रहे कि
मेरे
स्वप्नों में
अभी भी
कामवासना के
ही स्वप्न आते
हैं। सत्तर
साल की उम्र
में भी
कामवासना ही
मेरे
स्वप्नों में चक्कर
काटती है। दिन
में तो मैंने
विजय पा ली है,
लेकिन
रात्रि में
मैं अभी भी
विजय नहीं पा
सका हूं।
दिन-भर
तो किसी तरह
कोई आदमी अपने
को रोक सकता है, क्योंकि होश
में हो तुम, दबा सकते
हो। लेकिन जब
सो गए, तो
फिर कैसे दबाओगे?
सोओगे कि दबाओगे? तुम सो गए तो
जो दिन-भर
दबाया था, वह
उठेगा, उभरेगा।
वही तो
स्वप्नों में
व्याप्त हो
जाता है।
सिगमंड
फ्रायड की
सारी खोज यही
है। पर मैं
समझता हूं कि
मोरारजी
देसाई ने शायद
सिगमंड फ्रायड
का नाम भी न
सुना हो।
महात्मा
गांधी ने भी सिगमंड
फ्रायड की कोई
एक किताब
जीवन-भर में
नहीं पढ़ी। इस
तरह का
अज्ञान!
सिगमंड
फ्रायड को बिना
जाने कोई आदमी
आज आधुनिक
नहीं कहा जा
सकता। जो आदमी
सिगमंड
फ्रायड को
नहीं जानता, उसे
म्यूजियम में
रख देना
चाहिए। उसे
जिंदा आदमियों
के साथ रहने
का कोई हक
नहीं है।
क्योंकि
सिगमंड
फ्रायड की खोज
ने एक अपूर्व
तथ्य प्रकट
किया है और वह
यह कि जो हम
दबाते हैं, वही हमारे
स्वप्नों में
आच्छादित हो
जाता है। और
जो हम दबाते
हैं, उसे
हमें
जिंदगी-भर
दबाना पड़ता है
फिर भी हम उससे
कभी छुटकारा
नहीं पा सकते।
और जो हम
दबाते हैं, मरते वक्त
वही पूरा का
पूरा हमारे
सामने खड़ा हो
जाएगा। हम उसी
में डूबे हुए,
उसी गर्त
में पड़े हुए
मरेंगे।
महात्मा
गांधी कम से
कम ईमानदार थे, मोरारजी
देसाई उतने
ईमानदार
नहीं।
स्वीकार करते
थे कि मेरे
चित्त में अभी
भी वासना है।
अब इस वासना
से कैसे
छुटकारा पाऊं?
और
जैसे-जैसे मौत
करीब आने लगी
वैसे-वैसे
उनकी चिंता
बढ़ने लगी कि
इस वासना से
मैं अब तक
मुक्त नहीं
हुआ। और अगर
मुक्त न हो
सका तो फिर
जन्मना होगा,
फिर गर्भ
में आना होगा।
फिर यही चक्कर
शुरू होगा, फिर आवागमन
शुरू होगा। तो
क्या करूं?
कोई और
उपाय न देखकर
उन्होंने
अंततः तंत्र
की शरण ली।
अपने अंतिम
जीवन के दिनों
में उनके सारे
निकट के शिष्य—और
मैं मानता हूं
कि मोरारजी
देसाई भी
उनमें एक हैं—उनके
विपरीत हो गए
थे। क्योंकि
वे एक युवा
नग्न स्त्री
के साथ रात
नग्न सोने लगे—बुढ़ापे
में, वृद्धावस्था
में।
यह तो
तंत्र की एक
जानी-मानी
प्रक्रिया है
कि जिस चीज से
मुक्त होना हो, उस चीज से भागो
मत। जिससे
मुक्त होना हो,
उसमें
पूरे-पूरे चले
जाओ—सहजता से।
उसे समझो, उसके
प्रति जागो,
उस पर ध्यान
करो, दबाओ
मत। और अगर
कामवासना को
जीया जाए
सचेतित रूप से,
जाग्रत रूप
से तो
कामवासना
समाप्त हो
जाती है, निश्चित
समाप्त हो
जाती है।
कामवासना
का समाप्त हो
जाना कठिन
नहीं है, लेकिन
दमित करने
वालों की नहीं
समाप्त होती। अब
इस भेद को समझ
लेना, जो
कि मोरारजी
देसाई की समझ
में नहीं आता!
उतनी बारीक
उनकी समझ है
भी नहीं, बहुत
स्थूल समझ है।
तीन
बातें! एक:
भोगी—जो बिना
समझे बेहोशी
से भोगता रहता
है। और दूसरा
उसके विपरीत
है: योगी—जो
बिना समझे
बेहोशी से
दबाता रहता
है। और उन दोनों
से भिन्न है
तांत्रिक।
तंत्र
का मार्ग है:
भोगी जो जी
रहा है, उसको
जीयो।
योगी की तरह
दबाओ मत और
भोगी की तरह
बेहोश मत रहो।
योगी की तरह
होश साधो, ध्यान
साधो; और
भोगी के जीवन
को बदलो
मत। क्योंकि
जीवन को बदल
लिया, तो
फिर ध्यान
किसका करोगे?
साधोगे किस
पर ध्यान? जीवन
उपकरण है ध्यान
का, परिस्थिति
है ध्यान की।
इसलिए
मैं अपने
संन्यासी को
कहता हूं: भागो
मत। न पत्नी छोड़ो, न
बच्चे छोड़ो,
न दुकान, न बाजार—कुछ
भी मत छोड़ो।
जहां हो वहीं
रहो। रहो वैसे
ही जैसे भोगी
रहता है, और
भीतर योग को
जगाओ, ध्यान
को जगाओ।
स्थिति भोगी
की और चित्त
योगी का—इन दो
का जहां मिलन
होता है, वहां
तंत्र की महाप्रज्ञा
पैदा होती है,
महामुद्रा
पैदा होती है।
तंत्र भोगी की
परिस्थिति का
उपयोग कर लेता
है और योगी की
मनःस्थिति का
उपयोग कर लेता
है। तंत्र बड़ा
समन्वय है, बड़ी अदभुत
कीमिया है।
मैं भी
वही शिक्षा दे
रहा हूं। मैं
कोई
स्वेच्छाचारी
समाज की
शिक्षा नहीं
दे रहा हूं।
मैं निश्चित
ही चाहता हूं
कि तुम वासना
से मुक्त हो
जाओ। लेकिन
वासना से तुम
मुक्त हो ही
तब सकोगे, जब तुम
वासना के
प्रति सारा
दुर्भाव छोड़
दो, सारी
निंदा छोड़ दो।
तुम वासना से
मैत्री साधो।
क्योंकि
वासना
तुम्हारी है,
तुम वासना
हो। दुर्भाव
साधोगे, तो
मुक्त कैसे
होओगे? दुश्मनी
की, तो
भीतर एक कलह
शुरू हो जाएगी,
शांति
निर्मित नहीं
होगी। लड़ो
मत। लड़ोगे
तो खंड-खंड हो
जाओगे, दो टुकड़ों
में बंट
जाओगे। और जो
आदमी दो टुकड़ों
में बंट गया
है, वह
आदमी
परमात्मा को
कभी भी न जान
पाएगा।
परमात्मा को
वही जान पाता
है जो एक हो गया
है। लेकिन एक
होने का उपाय
क्या है?
एक
होने का उपाय
है: जीवन जैसा
है वैसा ही
उसे स्वीकार
कर लो। सिर्फ
एक नए तत्व का उदभावन
करो। जीवन
जैसा है वैसा
ही रहने दो, तुम भीतर
जागरण को
सम्हालो, होशपूर्वक
जीयो।
पत्नी के पास
ही बैठो, लेकिन
होशपूर्वक
बैठो अब।
बच्चों के साथ
ही रहो, लेकिन
होशपूर्वक
रहो अब। दुकान
पर भी जाओ, लेकिन
ध्यानपूर्वक
जाओ अब। और
तुम चकित हो
जाओगे, दुकान
वैसी की वैसी
रहती है, तुम
दुकान पर होते
हो और दुकान
से मुक्त हो
जाते हो।
पत्नी भी, बच्चा
भी—सब चलता रहता
है। और तुम सब
के बीच सब से
भिन्न हो जाते
हो। तुम जल
में कमलवत हो
जाते हो।
तो मैं
कोई
पाश्चात्य
ढंग का
स्वेच्छाचार
नहीं सिखा रहा
हूं। मैं तो
सदियों-सदियों
में परखी गई
तंत्र की जो
प्रज्ञा है, तंत्र का जो
सार है, वही
तुम्हें दे
रहा हूं।
लेकिन जो दमित
चित्त लोग हैं,
उनको लगता
है कि मैं मुक्ताचार
सिखा रहा हूं।
यह उनके दमित
चित्त के कारण
लग रहा है
उन्हें।
मोरारजी
देसाई ने जो
वक्तव्य दिया
है, वह मेरे
संबंध में
नहीं है, उनके
संबंध में है।
उसमें मेरे
संबंध में कुछ
नहीं कहा गया
है, उसमें
सिर्फ
उन्होंने
अपने संबंध
में कहा है।
यह हालत ऐसी
ही है जैसे एक
आदमी बैठकर
अपना भोजन कर
रहा हो और
तुमने उपवास
किया हो कई
दिन का और तुम
वहां से गुजरो।
तुम्हारे मन
में आए कि यह
देखो, भोगी,
भोजनभट्ट! भोजन के
पीछे पड़ा है।
अभी तक इसको
बोध नहीं आया।
नरक में सड़ेगा।
इस समय तुम
अपने संबंध
में वक्तव्य
दे रहे हो कि
तुम बहुत
पीड़ित हो उपवास
से। लेकिन
अपनी रक्षा के
लिए तुम उसको
गाली दे रहे
हो। और वह
बेचारा सहज
प्रक्रिया
में लीन है।
भूख लगी है तो
भोजन कर रहा
है। प्यास लगी
है तो पानी पी
रहा है। तुम
रुग्ण-चित्त
हो। शरीर भोजन
मांग रहा है, तुम भोजन नहीं
दे रहे। तुम
शरीर से लड़
रहे हो। मन कह
रहा है: भूख
लगी है, मैं
तड़प रहा
हूं। तुम मन
से लड़ रहे हो।
अध्यात्म
लड़ने से पैदा
नहीं होता, अध्यात्म
बोध का परिणाम
है। जागने से
पैदा होता है;
ध्यान की फलश्रुति
है।
मोरारजी
देसाई को समझ
में यह बात
नहीं आ सकती।
मेरी किताब भी
पढ़ने की
हिम्मत नहीं
जुटा पाते
हैं। लक्ष्मी
पीछे उनसे
मिलने गई।
मेरी कुछ
किताबें ले गई, मैंने कहा
देना उन्हें।
वे हाथ में तक
लेने को राजी
नहीं, मुझे
समझेंगे कैसे?
मुझे बिना
समझे ऐसे
वक्तव्य देते
हैं। जिसको भी
देख लेते हैं
गैरिक
वस्त्रों
में...और बहुत
लोग हैं मेरे,
सारे मुल्क
में हैं। वे
जहां भी जाते
हैं वहीं कोई
गैरिक वस्त्रधारी
पहुंच जाता है,
मुझसे बचकर
जा नहीं सकते!
न मालूम कितने
लोगों ने
मुझसे आकर कहा
है। क्योंकि
उनके कई
पुराने
परिचित अब
मेरे
संन्यासी
हैं। जब मेरे
संन्यासी
उनको मिलने
जाते हैं, वे
एकदम से अकड़
जाते हैं।
एकदम उफान आ
जाता है उनमें।
एकदम क्रोधित
हो जाते हैं।
वे कहते हैं: आप
भी फंस गए इस
चक्कर में!
यह
चक्कर है या
चक्कर से
मुक्ति है! इस
संबंध में कुछ
पढ़ो, लिखो,
सोचो, समझो।
संन्यासी को
कहते हैं—आप
भी पड़ गए
चक्कर में! और
खुद किस चक्कर
में पड़े हैं? चौबीस घंटे
चक्कर चल रहा
है, खींचातानी
चल रही है।
कोई टांग खींच
रहा है, कोई
हाथ खींच रहा
है, कोई
कुर्सी ले
भागा जा रहा
है। अखाड़ा
मचा हुआ है!
तालें ठोंकी
जा रही हैं। हनुमानजी
की जय बोली जा
रही है, हनुमान-चालीसा
पढ़ा जा रहा
है। ये मेरे
संन्यासी को
कहते हैं: तुम
भी पड़ गए
चक्कर में!
मेरा
संन्यासी तो
चक्कर से
मुक्त होने की
चेष्टा में
लगा है।
लेकिन
न तो मैं जो कह
रहा हूं उसे
सुना है, न
जो मैं कह रहा
हूं उसे पढ़ा
है, न जो
मैं कह रहा
हूं उसे किया
है। पीछे
उन्होंने एक
वक्तव्य दिया
था
प्रधानमंत्री
बनने के ठीक दूसरेत्तीसरे
दिन। किसी ने
उनसे पूछा कि
क्या आप ध्यान
भी करते हैं? तो उन्होंने
कहा: हां, आचार्य
रजनीश ने मुझे
ध्यान की
प्रक्रिया बताई
थी। लेकिन
मैंने कभी की
नहीं, क्योंकि
मुझे जंची ही
नहीं।
ध्यान
की प्रक्रिया
बिना किए कैसे
तय करोगे ठीक
है या गलत? यह तो खूब
मजे की बात
हुई! करते और
कहते कि नहीं
जंची, तो
वैज्ञानिक
बात होती।
करते और पाते
कि नहीं, योग्य
नहीं है, तो
वैज्ञानिक
बात होती।
बिना किए कहते
हो जंची नहीं,
इसलिए कभी
की नहीं। बिना
किए कैसे पता
चलेगा?
ध्यान
तो एक प्रयोग
है, जीवंत
प्रयोग है।
इसका तो स्वाद
लेना पड़ता है।
और स्वाद
सस्ता भी नहीं
है कि आज ही
करोगे तो मिल
जाएगा। साल, छह महीने
चेष्टा करनी
होगी। और
मोरारजी जैसी पथरीली
बुद्धि को तो
शायद और भी
लंबा समय लगेगा।
तब कहीं अनुभव
हो सकता है कि
ध्यान क्या है।
फिर तुम
निर्णय कर
सकते हो कि
ध्यान ठीक है
या गलत है, करना
या नहीं करना।
लेकिन बिना
अनुभव के इस
तरह के
वक्तव्य का
कोई मूल्य
नहीं होता है।
मैं
यहां एक नई
जीवन-दृष्टि
दे रहा हूं।
इस जीवन-दृष्टि
का मौलिक आधार, इस
जीवन-दृष्टि
की मौलिक
क्रांति इस
बात में है कि
यह योग और भोग
का समन्वय है।
मैं
संन्यासी को
संसार से
तोड़ना नहीं
चाहता हूं।
क्योंकि
सदियों में हमने
प्रयोग किया, संन्यासी को
संसार से तोड़
लिया। और तब
उसके दुष्परिणाम
हुए। जब भी
संन्यासी को
हमने संसार से
तोड़ा तो दो
घटनाएं घटीं।
एक तो यह घटी
घटना कि उस
आदमी के जीवन
से चुनौतियां
समाप्त हो
गईं। और जब चुनौतियां
नहीं होतीं तो
यह भ्रांति
पैदा होती है
कि शायद मैं
रूपांतरित हो
गया।
ऐसा ही
समझो कि तुम
जाकर एक गुफा
में बैठ गए जंगल
की। अब वहां
कोई क्रोध दिलवाने
का मौका ही
नहीं है। न
कोई गाली देता
है, न कोई
निंदा करता
है। तो क्रोध
नहीं आता।
वर्ष, दो
वर्ष गुफा में
बैठे-बैठे
तुम्हें
लगेगा, मैं
क्रोध का
विजेता हो
गया! आओ वापिस
भीड़ में। फिर
देने दो किसी
को गाली, फिर
करने दो किसी
को अपमान। और
तुम अचानक
पाओगे कि दो
साल जो क्रोध
दबा पड़ा रहा
था; बीज की
तरह पड़ा रहा
था; उसमें
फिर अंकुर आ
गए। वह फिर
उठकर खड़ा हो
गया। मरा नहीं
था। सांप
सिर्फ फन
मारकर बैठ गया
था, फिर फन
उठा दिया
उसने!
एक
आदमी तीस साल
तक हिमालय पर
रहा और सोचा
कि मेरा क्रोध
अब समाप्त हो
गया। फिर कुंभ
का मेला भरा
था तो आया, सोचा अब तो
क्या हर्जा है?
तीस साल
काफी समय होता
है। तीस साल
में एक बार क्रोध
नहीं आया। महाक्रोधी
था, इसीलिए
हिमालय चला
गया था कि
किसी तरह
क्रोध से
छुटकारा हो
जाए। सोचकर कि
क्रोध से
छुटकारा हो
गया—और तीस
साल काफी लंबा
समय है—जब
लौटकर आया
कुंभ के मेले
में, भीड़-भाड़...किसी
का पैर उसके
पैर पर पड़
गया। बस, तीस
साल एक क्षण
में खो गए! पकड़
ली उसकी गर्दन,
कहा: तूने
समझा क्या है?
जब वह गर्दन
पकड़े था
और दबा रहा था
उसकी गर्दन और
कह रहा था:
तूने समझा
क्या है? किसके
पैर पर पैर
रखा, होश
है? यह
उससे कह रहा
था, "होश है?'
तभी उसे
ख्याल आया
अपने होश का, कि अरे, तीस
साल का क्या
हुआ! हाथ वहीं
छोड़ दिए। आंख
से आंसू गिरने
लगे। तब उसे
पता चला कि वे
तीस साल, व्यर्थ
गए, बेकार
गए। अवसर न था
इसलिए क्रोध
पैदा नहीं हुआ
था। बारूद में
चिनगारी न पड़े
तो बारूद
हजारों साल तक
रखी रहे, पता
ही नहीं चलेगा
कि बारूद है।
चिनगारी पड़े और
बारूद में आग
पैदा न हो, तब
समझना कि
बारूद बुझी।
इसलिए
मैं कहता हूं, संसार मत छोड़ो,
क्योंकि
संसार में
चिनगारियां
हैं। चारों तरफ
से
चिनगारियां
पड़ रही हैं।
तुम बैठ गए एक
जंगल में
जाकर। वहां
चिनगारियां
नहीं हैं। वहां
तुम
चुनौतियों से
हट गए। तुम
पलायनवादी हो,
भगोड़े हो। तुम
जीवन के युद्ध
से भाग गए।
मैं तुम्हें
जीवन के युद्ध
से नहीं हटाना
चाहता। इसलिए
मैं कहता हूं,
रहो संसार
में। इसलिए
तथाकथित योगी
मुझसे नाराज
हैं; वे
कहते हैं यह
मैं कैसा
संन्यास दे
रहा हूं?
दूसरी
बात, मेरी
मान्यता है, तुम जितनी
चुनौतियों का
सामना करोगे,
उतना ही
तुम्हारे
भीतर जागरण
बढ़ेगा। हर
चुनौती का
सामना करना
विकास है। हर
चुनौती एक
सोपान है, एक
सीढ़ी है। हर
चुनौती
तुम्हें
जगाने का एक
अवसर है। अगर
तुम जरा कला
सीख जाओ जागने
की—वही ध्यान
है कला—तो तुम
हर चुनौती से
लाभ उठा लोगे।
जो चुनौती अगर
तुम बेहोश उसका
सामना करो तो
नर्क ले जाती
है, वही
चुनौती
होशपूर्वक
सामना करने से
स्वर्ग बन
जाती है।
चीन का
एक सम्राट एक
झेन फकीर के
पास गया और उसने
कहा कि मैं
जानना चाहता
हूं स्वर्ग और
नर्क होते हैं
या नहीं? इसका
मुझे प्रमाण
चाहिए। मैं
बातचीत सुनने
नहीं आया।
शास्त्र मैंने
सब पढ़े
हैं, और
बड़े-बड़े
ज्ञानियों की
बातें सुनी
हैं, मगर
मैं यह प्रमाण
चाहता हूं कि
स्वर्ग और नर्क
होते हैं या
नहीं? उस
फकीर ने
सम्राट की तरफ
देखा और कहा:
तुम हो कौन? सम्राट ने
कहा कि आपको
समझ में नहीं
आता कि मैं
कौन हूं? मैं
सम्राट हूं!
वह फकीर हंसने
लगा, बोला: हाऱ्हा, शकल देखी है
आईने में? उल्लू
के पट्ठे! मक्खियां
भिनभिना रही
हैं! सम्राट!
सम्राट तो
एकदम आगबबूला
हो गया कि यह
तो हद्द हो गई!
इस तरह का
अपमान कभी
किसी ने किया
नहीं था।...भूल
गया, निकाल
ली तलवार।
तलवार चमक गई!
फकीर की गर्दन
के पास जा रही
थी, फकीर
ने कहा: एक
क्षण रुक, यही
नरक का द्वार
है। एक क्षण
रुकना उस घड़ी
में, और
बात समझ में आ
गई सम्राट को
कि नरक का
द्वार यही है।
तलवार वापिस
म्यान में गई।
सम्राट के चेहरे
का भाव बदला।
और फकीर ने
कहा: यही
स्वर्ग का
द्वार है।
स्वर्ग
और नर्क
दूर-दूर नहीं
हैं। एक ही
चुनौती; कैसे
ली, इस पर
निर्भर करता
है। वही
चुनौती है।
क्रोध की
चिनगारी
फेंकी गई, तुम
उत्तप्त हो गए,
ज्वर-ग्रस्त
हो गए, निकाल
ली तलवार—नर्क
हो गया! जलोगे
आग में; कल
नहीं, अभी
यहीं। आग पैदा
हो गई। रख दी
तलवार। बोध हुआ,
होश आया—कि
यह मैं क्या
कर रहा हूं? यही स्वर्ग
का द्वार है।
चुनौती वही
है। चुनौती से
मत भागना।
इसलिए
तथाकथित
धार्मिक—मोरारजी
तथाकथित
धार्मिक
व्यक्ति हैं—उनको
लगता है कि
मैं लोगों को
भ्रष्ट कर रहा
हूं। क्योंकि
मैं एक नए
संन्यास को
जन्म दे रहा
हूं, जो
चुनौतियों से
भागता नहीं, चुनौतियों
को अंगीकार
करता है, सब
तरह की
चुनौतियों को
अंगीकार करता
है। क्योंकि
परमात्मा ने
तुम्हें जो
जीवन दिया है,
जो संसार
दिया है, जो
देह दी, जो
मन दिया, जो
वासना दी, वह
किसी उपयोग के
लिए दी है।
उसका उपयोग
करो! भागो
मत, दबाओ
मत, जागो! हर चोट खाओ
और जागो।
और तब
जिंदगी एक
अलार्म बन
जाती है, सोने
से तुम्हें
जगाती है। इसी
जागरण के मार्ग
पर अंततः
बुद्धत्व का
दीया जलता है।
उस बुद्धत्व
के दीए में
कुछ दमित नहीं
रह जाता। और
जहां कुछ दमित
नहीं है, वहीं
मुक्ति है।
तो सच, ठीक अर्थों
में मैं
तुम्हें मुक्ताचार
सिखा रहा हूं।
परमिसिव
सोसायटी के
अर्थों में
नहीं, बुद्धत्व
के अर्थ में मुक्ताचार
सिखा रहा हूं।
और मैं चाहता
हूं कि तुम यह
बात समझो कि
परमात्मा ने
तुम्हें जो
दिया है, वह
सब सार्थक है;
कामवासना
भी सार्थक है,
क्योंकि
कामवासना के
ही आरोहण में
राम की अनुभूति
है। काम ही
राम बन जाएगा।
अगर
तुम्हारे
भीतर
कामवासना न हो, तो तुम्हारे
भीतर भक्ति
कभी पैदा न हो
सकेगी; क्योंकि
भक्ति
कामवासना का
ही शुद्धतम
रूप है, उसका
ही निखार है।
कामवासना ऐसे
है, जैसे
सोना पड़ा कूड़े-करकट
में मिला, मिट्टी
भरा; और
भक्ति ऐसे है
जैसे सोना आग
से गुजरा। आग
संसार है, तुम
सोना हो। अभी कूड़ा-करकट
भरे हो। गुजरो
संसार से, गुजरो
आग से—निखरो,
जलो! तो जो कचरा
है, जल
जाएगा, एक
दिन तुम कुंदन
होकर प्रकट
होओगे! उस
कुंदन की दशा
को ही मैं
जीवन की परम
दशा कहता हूं।
इसलिए मैं
कहता हूं कि
परमात्मा ने
जो भी दिया है,
उसका निषेध
मत करना।
यही
तंत्र की
देशना है। और
वे जो मंदिर
पुरी और
भुवनेश्वर के
हैं, वे इस देश
की सबसे बड़ी
संपदाओं में
से एक हैं। उन
मंदिरों की
कला तुमने
देखी? मंदिर
के बाहर की
दीवाल पर
मिथुन चित्र
हैं, नग्न
मूर्तियां
हैं, युगल
हैं प्रेम
करते हुए, स्त्री
और पुरुष हैं
अनेक-अनेक भावमुद्राओं
में—मंदिर के
बाहर की दीवाल
पर। और मंदिर
में भीतर
प्रवेश करो, तो प्रभु
विराजमान!
मंदिर के भीतर
वासना नहीं है।
मंदिर की
दीवाल वासना
से बनी है।
जीवन की दीवाल
वासना से बनी
है, काम से
बनी है। और
इसी काम की
दीवालों के
बीच में बैठा
राम है। ये बड़े
महत्वपूर्ण
प्रतीक हैं!
मगर
मोरारजी
देसाई की
कठिनाई मैं
समझता हूं। महात्मा
गांधी की भी
यही कठिनाई
थी। महात्मा गांधी
का तो
प्रस्ताव था
कि पुरी, कोणार्क,
भुवनेश्वर,
खजुराहो के
मंदिरों को
मिट्टी में
दबा देना चाहिए,
ताकि लोग
उनके दर्शन न
कर सकें। वह
तो रवींद्रनाथ
के कारण यह
होने से बचा, नहीं तो यह
होता। तो
रवींद्रनाथ
ने बड़ा विरोध किया
कि यह तो बात
बड़े पागलपन की
है! इतने सुंदर
मंदिर! इनको
मिट्टी से दबा
देने का
आयोजन!
और ये
मंदिर अदभुत
हैं! मगर
मोरारजी
देसाई को अदभुत
नहीं मालूम
पड़ेंगे। वे तो
शायद आंख भरकर
इन मिथुन
प्रतिमाओं को
देख भी न
सकेंगे।
क्योंकि उनके
भीतर जो दबी
वासना है, वह एकदम
हुंकार भरने
लगेगी।
खजुराहो
विंध्य
प्रदेश में
है। विंध्य
प्रदेश में एक
मंत्री मेरे
मित्र थे। एक
अमरीकी कलाकार, चित्रकार, मूर्तिकार,
खजुराहो
देखने आया। वह
पंडित
जवाहरलाल
नेहरू का मित्र
था। तो
जवाहरलाल
नेहरू ने मेरे
मित्र को, जो
मंत्री थे
विंध्य
प्रदेश में, खबर की कि
तुम खुद साथ
जाना और जाकर
खजुराहो के सब
मंदिर ठीक से
दिखा देना। वे
गए, वे बड़े
परेशान थे। गांधीवादी
हैं; बड़ी
मुश्किल में
पड़े थे कि
कैसे
समझाऊंगा, क्या
बताऊंगा।
लज्जित से हो
रहे थे कि वह
भी अमरीकी
यात्री देखकर
क्या सोचेगा?
क्योंकि
खजुराहो जैसे
चित्र तो
दुनिया में कहीं
भी नहीं हैं।
इतने अहोभाव
से परमात्मा
के दान को
कहीं स्वीकार
किया गया नहीं
है। कामवासना
को भी इतना
आध्यात्मिक
गौरव कहीं
दिया गया नहीं
है। खजुराहो
का तो कोई मुकाबला
ही नहीं है।
हजार ताजमहल
बनें और मिट
जाएं, कोई
मूल्य नहीं
है। खजुराहो
की एक-एक
प्रतिमा एक-एक
ताजमहल से
ज्यादा
मूल्यवान है।
और उन प्रतिमाओं
की जो सब से
बड़ी खूबी है, महिमा है, वह यह है कि
यद्यपि जोड़े
नग्न हैं, आलिंगनबद्ध
हैं, प्रेयसी
और प्रेमी का
मिलन है, मगर
उनके चेहरे
देखो, उनके
चेहरे पर
समाधि है!
उनके चेहरे पर
कहीं कोई
कामवासना या
काम-लिप्सा
नहीं है।
पत्थर में भी
जिन्होंने यह
खोदा है, समाधि
को उतार लाए
हैं—पत्थर में
भी!
मगर उन
चेहरों को तो
तुम तभी देख
पाओगे, जब
तुम नग्न
शरीरों को
आलिंगनबद्ध
देख सको। अगर
नग्न शरीरों
को
आलिंगनबद्ध
देखते ही तुम को
ज्वर चढ़ गया
और एकदम
तुम्हारा एक
सौ पांच डिग्री
पर बुखार हो
गया! और
तुम्हारे
भीतर की सारी
दबी वासना
उठने लगी, और
तुमने कहा कि
कहां फंस गए, किस पाप में
फंस गए! या
तुम्हारी
आंखें नीचे झुक
गईं, या
तुम डर गए, या
भयभीत हो गए।
हो ही जाओगे।
मोरारजी
देसाई नहीं देख
सकेंगे
खजुराहो की
प्रतिमाओं को
पूरी नजर भर
के; असंभव
है। क्योंकि
जब किसी
स्त्री को
पूरी नजर भरकर
नहीं देखा और
डरे-डरे जीए, तो कैसे इन
प्रतिमाओं को
देख सकेंगे!
ये
प्रतिमाएं तो
परम सुंदर
हैं! कोई
स्त्री इतनी
सुंदर नहीं
होती। ये तो
अनेक-अनेक
स्त्रियों का
सार हैं। स्तन
किसी सुंदर
स्त्री के हैं, चेहरा किसी
और सुंदर
स्त्री का है,
पैर किसी और
सुंदर स्त्री
के हैं, हाथ,
अंगुलियां किसी और
सुंदर स्त्री
की हैं। ऐसी
सुंदर स्त्री
तुम कहीं भी
पा न सकोगे।
यह तो हजार
सुंदर स्त्रियों
को तोड़ोगे
और जोड़ोगे,
बनाओगे, तब
कहीं बन
पाएगा।
मोरारजी
देसाई तो घबड़ा
जाएंगे। मेरे
मित्र भी घबड़ाए
हुए थे। उस
मूर्तिकार को
दिखा तो दिया
उन्होंने
जल्दी-जल्दी।
जब लौटने लगे, मूर्तिकार
चुप ही रहा। सीढ़ियां
उतरते वक्त
कहा कि क्षमा
करें, इससे
आप यह ख्याल
मत लेना कि यह
हमारी
संस्कृति की
मूल-धारा है।
वही मोरारजी
देसाई कह रहे
हैं—कलिंग में
कभी एक बार इस
देश में एक
छोटा-सा समाज मुक्ताचारी
हो गया था।
वही मेरे
मित्र ने उनसे
कहा कि आप यह
मत सोचना कि
यह हमारी
मूल-धारा है।
बस दोत्तीन
मंदिर हैं इस
तरह के करोड़ों
मंदिरों में।
यह हमारी
मूल-धारा नहीं
है। यह कुछ विक्षिप्त,
कुछ
स्वच्छंद
लोगों ने ये
मंदिर बना दिए
हैं, आप
क्षमा करना।
इससे आप यह
ख्याल लेकर मत
लौट जाना कि
ये भारत के
प्रतीक हैं।
इसलिए
तो मोरारजी
देसाई भयभीत
हैं मुझसे। पश्चिम
से यात्रियों
को यहां नहीं
आने दे रहे हैं, क्योंकि वह
कहते हैं कि
मैं भारत का
प्रतीक नहीं
हूं, असली
भारत का मैं
प्रतिनिधि
नहीं हूं।
असली भारत के
प्रतिनिधि
मोरारजी
देसाई हैं!
उन्होंने कहा
है इस वक्तव्य
में भी, कि
एक...कलिंग में
एक बार ऐसा
हुआ था...।
यह बात
गलत है कि
कलिंग में ही
ऐसा एक बार
हुआ था।
खजुराहो
कलिंग में
नहीं है। और
इस तरह के मंदिर
पूरे देश में
थे, इसके
उल्लेख हैं।
लेकिन
मोरारजी
देसाई जैसे मतांध
लोगों ने उन
मंदिरों को
गिरा दिया, मिटा दिया।
आश्चर्य तो
यही है कि
खजुराहो, पुरी
और कोणार्क और
भुवनेश्वर के
मंदिर बच कैसे
गए! करोड़ों
मंदिर थे, मिटा
दिए गए। उनकी
जड़ें काट दी
गईं। उनके
पुजारी मार
दिए गए। राजा
भोज ने एक लाख
तांत्रिकों
को भारत में मरवाया—अकेले
राजा भोज ने!
ये सब
ऐतिहासिक
तथ्य हैं। फिर
वात्स्यायन
के कामसूत्र
कलिंग में
नहीं लिखे गए
थे। फिर
वात्स्यायन को
इस देश के
मनीषियों ने
महर्षि कहा
है। मोरारजी
देसाई न कह
सकेंगे
महर्षि।
मेरे
मित्र डरे थे, तो उन्होंने
क्षमा मांगी,
कहा: आप
क्षमा करें, आपको एक बात
निवेदन कर दूं,
यह हमारी
मूल-धारा नहीं
है। यह प्रकारांतर
से, कुछ
किनारे पर, भटके-भूले
लोगों ने बना
दिए ये मंदिर।
उस
मूर्तिकार ने
कहा: आप कुछ
लज्जित मालूम
पड़ते हैं। आप
कुछ बेचैन मालूम
पड़ते हैं।
आपको इन
मंदिरों में
कुछ गलत दिखाई
पड़ रहा है?
मेरे
मित्र ने कहा:
गलत? नंगी
प्रतिमाएं, अश्लील
मूर्तियां—अश्लील!
स्वेच्छाचारी!
उस
अमरीकी
चित्रकार ने
कहा: तो फिर
मुझे दोबारा
अंदर जाना
होगा। आप फिर
मेरे साथ आएं।
क्योंकि मैं
तो कहीं
अश्लीलता देख
ही न सका।
मैंने तो इतने
सुंदर प्रेम
और प्रार्थना
और समाधि के
अंकन ही नहीं
देखे अपने
जीवन में! अगर
कहीं मैंने
कोई चीज संभोग
से समाधि तक उठाने
वाली देखी हो, तो ये
खजुराहो की
प्रतिमाएं
हैं, जिन्होंने
कीचड़ को कमल
बना दिया है!
मालूम होता है
आप केवल
मूर्तियों के
आधे अंग को ही
देखते रहे, आपने
मूर्तियों के
चेहरे नहीं
देखे।
चेहरे
तक नजर ही न
जाएगी। जो
आदमी
कामवासना को
दबाए बैठा है, वह
मूर्तियों के
आधे अंग के
ऊपर न जा
सकेगा। वहीं
से डर जाएगा
और वापिस लौट
आएगा, भयभीत
हो जाएगा। चेहरे
को देखने तक
आंख उसकी ऊपर
उठ न सकेगी।
खजुराहो
की मूर्तियों
के चेहरे सच
में अदभुत हैं।
समाधि को
पत्थर पर
छापना कितना
कठिन रहा होगा!
और फिर ऐसे
संदर्भ में, यौन के
संदर्भ में।
मगर यह घटना
घटी है, यह
अलौकिक घटना
घटी है। पर
याद रखना, ये
सब मंदिर की
बाहर की दीवाल
पर है—खजुराहो
में भी। फिर
मंदिर के भीतर
जाएं, अंतःकक्ष,
अंतःपुर
मंदिर का—गर्भ।
वहां यौन नहीं
है, वहां
परमात्मा
विराजमान है।
इसका अर्थ
क्या है? इसका
अर्थ है:
संसार मंदिर
की बाहरी
दीवाल है, और
जब तक इस
बाहरी दीवाल
से पूरी तरह
मुक्त नहीं हो
गए हो, तब
तक तुम भीतर
प्रवेश के
अधिकारी नहीं
हो। जब इस
बाहर की दीवाल
से तुम मुक्त
हो जाओगे, तो
भीतर के
प्रवेश का हक
मिलता है।
क्योंकि अगर
बाहर की दीवाल
से मुक्त न
हुए तो भीतर
जाकर भी तुम
बाहर की दीवाल
के संबंध में
ही सोचोगे, विचारोगे।
कामवासना
को दबाकर
प्रार्थना करने
बैठोगे, कामवासना
ही उठेगी।
कामवासना को
दबाकर ध्यान
करने बैठोगे,
बस स्वर्ग
से अप्सराएं
उतर आएंगी
चित्त में, उर्वशी
नाचने लगेगी!
ये ऋषि-मुनि
जिनके पास उर्वशी
आकर नाचती है,
मोरारजी
देसाई जैसे
लोग रहे
होंगे। ये कोई
ऋषि-मुनि नहीं,
ये इनकी
दमित वासनाएं
हैं। क्योंकि
कहां, कौन
उर्वशी है? कहां, कौन
इंद्र बैठा है?
किस इंद्र
को फिक्र पड़ी
है! क्या
प्रयोजन है? किसी गरीब
साधु को, जो
किसी झाड़ के
नीचे बैठकर
उपवास करके
ध्यान कर रहा
है, इसको
भ्रष्ट करके
क्या मिल जाना
है!
कहीं
से कोई
अप्सराएं
नहीं आतीं।
मगर यह प्रतीक
महत्वपूर्ण
है। अप्सराएं
तुम्हारे ही
दमित चित्त से
आती हैं।
तुम्हारे ही
अचेतन पर्तों
से उठती हैं।
तुम्हारे ही
हृदय के गर्भ
से उठती हैं।
जो तुमने दबा
दिया है, वही
तुम्हारे
सामने प्रकट
होता है। वे
तुम्हारे ही
सपने हैं, तुम्हें
घेर लेते हैं।
जब तक
तुम वासना के
प्रति
परिपूर्ण
जागरूक न हो
जाओगे, तब
तक तुम मंदिर
में प्रवेश के
अधिकारी नहीं
हो। तुम ध्यान
न कर सकोगे, प्रार्थना न
कर सकोगे, पूजा
न कर सकोगे।
तुम्हें अड़चन
पड़ेगी। तुम्हारा
चित्त हजार
अवरोध खड़े
करेगा।
मेरी
देशना है कि
तुम जीवन की
बाहर की दीवाल
से भागो
मत। इसको
पूरा-पूरा
समझो। समझ
मेरा सूत्र है, दमन नहीं—निरीक्षण,
साक्षी-भाव।
तुम अपनी
कामवासना में
भी साक्षी-भाव
से उतरो। और
तुम एक दिन
पाओगे, और
यहां अनेक पा
रहे हैं। और
यह मैं कुछ
ऐसा ही सैद्धांतिक
वक्तव्य नहीं
दे रहा हूं।
अब यह तो
हजारों लोग जो
मेरे साथ
अनुभव कर रहे
हैं, मेरे
साथ प्रयोग कर
रहे हैं, उनका
सुनिर्णीत
मत है। तुम एक
दिन पाओगे कि
वासना से बाहर
हो गए हो, और
बिना बाहर
होने की
चेष्टा के।
क्योंकि चेष्टा
में दमन है।
तुम सहज ही
बाहर हो गए
हो। और जब कोई
सहज ही बाहर
होता है तो
अपूर्व
सौंदर्य है उस
सहजता में। मेरा
मार्ग सहज का
मार्ग है। मैं
सहजिया
हूं। साधो, सहज समाधि
भली!
लेकिन
मोरारजी
देसाई जैसे
तथाकथित
दमित-चित्त के
लोग इस देश की
छाती पर बैठे
हैं, सदियों
से बैठे हैं।
उन्होंने इस
देश को विकृत
किया है, इस
देश के जीवन
को कुंठित
किया है।
मोरारजी देसाई
कहते हैं मुक्ताचार
के कारण कलिंग
का नाश हुआ।
मैं तुमसे
कहता हूं
मोरारजी
देसाई जैसे
लोगों के कारण
इस पूरे देश
का विनाश हुआ!
सभ्यताएं
तो बनती हैं, मिटती हैं, सभ्यताओं का
कुछ नहीं।
कलिंग में एक
सभ्यता थी, आई और गई।
सभ्यताओं का
तो जन्म होता
है, अंत
होता है। यह
तो कोई बड़ी
बात नहीं। सभी
सभ्यताएं
बनती-मिटती
हैं। लेकिन इस
देश की छाती
पर जो सबसे
बड़ा बोझ है, वह तथाकथित नैतिकतावादियों
का है, झूठे
नैतिकतावादियों
का है। वे इस
देश की छाती
पर बैठे हैं।
उन्होंने इस
देश को समृद्ध
नहीं होने
दिया।
क्योंकि समृद्ध
होने के लिए
एक मुक्तता
चाहिए, जीवन
का सहज
स्वीकार
चाहिए।
उन्होंने इस
देश को दरिद्र
बनाकर रख दिया
है। यह देश
समृद्ध हो भी
नहीं सकता।
क्योंकि जब तक
तुम खुलकर न जीयोगे, कैसे समृद्ध
होओगे? हर
चीज की निंदा
है—काम की
निंदा है, प्रेम
की निंदा है, भोग की
निंदा है, भोजन
की निंदा है, वस्त्रों की
निंदा है, सौंदर्य
की निंदा है—हर
चीज की निंदा
है! फिर तुम
समृद्ध कैसे
होओगे? समृद्ध
किसलिए
फिर? फिर
जरूरत क्या है?
समृद्ध
कोई समाज तभी
होता है, जब
जीवन का
स्वीकार होता
है—जीवन का
बहुरंगी
स्वीकार।
वस्त्र भी
सुंदर हैं, देह भी
सुंदर है, देह
का स्वास्थ्य
भी सुंदर है, देह का जीवन
भी सुंदर है।
भोजन में भी
रस है, संगीत
में भी, साहित्य
में भी। जब
जीवन सब रंगों
से भरा होता
है तो जीवन
समृद्ध होता
है।
यह देश
सिकुड़ गया।
इसको मार
डाला। इस देश
को समझाया गया
है कि
दरिद्रता में
कोई अध्यात्म
है! दरिद्रता
में कोई
अध्यात्म
नहीं है।
दरिद्र आदमी
धार्मिक ही नहीं
हो पाता।
दरिद्रता
सबसे बड़ा
महापाप है। दरिद्रता
से और सारे
पाप पैदा होते
हैं।
मैं इस
देश को कुछ और
बात कहना चाह
रहा हूं। इसलिए
अड़चन तो होगी।
इस देश के
ठेकेदारों को
अड़चन होगी, पंडित-पुरोहितों
को अड़चन होगी,
राजनेताओं
को अड़चन होगी।
यह स्वाभाविक
है। मैं यह कह
रहा हूं कि
देश को अब
जीवन अंगीकार
से भरना चाहिए।
बहुत हो गया
निषेध, अब
विधेय से भरना
चाहिए। बहुत
कह चुके हम—नहीं,
नहीं, नहीं!
और सिकुड़ गए
और मर गए और सड़
गए। अब हमें
कहना है—हां!
अब हमें जीना
है। अब हमें
जीवन के
अभियान पर
निकलना है। अब
हम जीएंगे, जीवन के सब
आयामों में
जीएंगे। हम
सुंदर वस्त्र तलाशेंगे,
सुंदर देहें
तलाशेंगे।
हम सुंदर भोजन
तलाशेंगे,
हम सुंदर
मकान बनाएंगे।
यहां
आते हैं लोग, उनको बड़ी
हैरानी होती
है। वे कहते
हैं, आश्रम
तो झोपड़े
इत्यादि होने
चाहिए। उन्हें
मेरी दृष्टि
का पता नहीं
है। झोपड़े
तो कहीं भी
नहीं होना
चाहिए, आश्रम
में क्यों, कहीं भी
नहीं होना
चाहिए। सब जगह
तो आज मैं नहीं
मिटा सकता हूं,
लेकिन कम से
कम अपने आश्रम
में तो मिटा
सकता हूं।
यहां तो नहीं
होने दूंगा झोपड़े।
तुम्हारा झोपड़ों
से मन नहीं
भरता, काफी
नहीं हैं
तुम्हारे पास!
और दो-चार
यहां बना
दूंगा तो
तुम्हारा
चित्त
प्रसन्न होगा!
कि
यहां लोग
सुव्यवस्था
से, शालीनता
से क्यों रहते
हैं?
और
कैसे रहना
चाहिए!
सुव्यवस्था
से, स्वच्छता
से, शालीनता
से रहना
चाहिए। यही
रहने का ढंग
होना चाहिए।
जीवन में एक ऐश्वर्य
होना चाहिए।
तुम देखते हो,
हमारा
ईश्वर शब्द
ऐश्वर्य से
बना है।
एक
सज्जन मेरे
पास आ गए। वह
कहने लगे कि
आप इतनी महंगी
कार में क्यों
बैठते हैं? तो मैंने
उनसे पूछा:
कृष्ण जी कोई बैलगाड़ी
में बैठते थे?
यह कार, बेंज
कार उस समय
उपलब्ध नहीं
थी, नहीं
तो कृष्ण
इसमें बैठते।
रथ पर बैठते
थे, वह
महंगा पड़ता था
इससे। वे
बोले: हां, यह
बात तो ठीक
है। अब इसमें
जरा उन्हें
अड़चन हुई कि
अब क्या करें?
कृष्ण जी भी
कोई बैलगाड़ी
में तो बैठते
नहीं थे। और
अगर दरिद्रनारायण
को ही मानते
थे, तो फिर
तो किसी गधे
पर ही सवारी
करनी थी। क्योंकि
गधे से दरिद्र
और कौन होगा? गधा तो
बिलकुल दरिद्रनारायण
है, दीनऱ्हीन!
जिस
दिन से इस देश
ने ऐश्वर्य के
विपरीत निर्णय
ले लिया, उसी
दिन से यह देश
दरिद्र होने
लगा। कृष्ण के
समय तक बात और
थी! एक जीवन का
रस था, उमंग
थी; नाच था,
गीत था, गान
था। तो
दूध-दही की नदियां
बहती थीं।
कहां
खो गईं
दूध-दही की नदियां? कहां खो गए
वे सुंदर लोग?
अब यमुनात्तट
पर बंसी नहीं
बजती और न ही
वृंदावन में
रास रचा जाता
है। अब हमारी
होली भी क्या
होली है! रंग-गुलाल
फेंक लेते हैं,
मगर
रंग-गुलाल फेंकनेवाली
आत्मा कहां है?
खो गई बहुत
पहले, मोरारजी
देसाई जैसे
लोगों के कारण
खो गई! अब हमारी
दीवाली क्या
दीवाली है—दीवाला
है! जला लेते
हैं किसी तरह
दीए कि जलाने
चाहिए। मगर
जीवन के दीए
ही नहीं जल
रहे हैं तो
दीवाली के दीए
क्या अर्थ
रखेंगे? झूठे
हैं, बेमानी
हैं। उनका
हमसे कुछ
संबंध और तुक
नहीं है, तालमेल
नहीं है। हमसे
उनका छंद नहीं
बैठता।
तुम्हें
पता है, उपनिषद
के ऋषियों के
आश्रम समृद्ध
थे। कथा है:
जनक ने एक बड़े
विवाद की
घोषणा की कि
जो भी इस विवाद
में जीत जाएगा,
उसे एक हजार
गाएं भेंट
करूंगा। उन
गायों के सींगों
पर सोना चढ़वा
दिया, हीरे
जड़वा
दिए। वे गाएं
खड़ी हैं महल
के द्वार पर।
आने लगे
विचारक, दार्शनिक
विवाद के लिए।
विवाद शुरू
होने लगा।
दोपहर
हो गई तब
याज्ञवल्क्य
आया—उस समय का
एक महर्षि।
उसका बड़ा
आश्रम था; जैसा आश्रम
यह है, ऐसा
आश्रम रहा
होगा।
याज्ञवल्क्य
आया अपने शिष्यों
के साथ और
उसने कहा, कि
गऊएं धूप में
खड़े-खड़े थक गई
हैं और उनको
पसीना आ रहा
है। शिष्यों
से कहा कि बेटो!
तुम ले जाओ गऊओं
को आश्रम, विवाद
मैं निपट
लूंगा। और
उसके शिष्य खदेड़कर गऊओं को ले
गए। हजार गऊएं—सोने
के सींग चढ़ी,
हीरे-जवाहरात
जड़ी। जनक भी
खड़ा रहा गया, और पंडित
भौचक्के रह
गए! क्योंकि
यह तो विवाद
के बाद
पुरस्कार है
मिलने वाला।
याज्ञवल्क्य
ने कहा: चिंता
ही मत करो, विवाद हम
निपट लेंगे; विवाद में
क्या रखा है!
लेकिन गऊएं
क्यों सतायी
जाएं?
अब जिस
आश्रम में
हजार गऊएं
हो सोने के
सींग चढ़ी, वह तुम
सोचते हो बंबई
की झोपड़पट्टियां
रही होंगी! तो
हजार गऊओं
को खड़ा कहां
करोगे, बांधोगे कहां? हजारों
विद्यार्थी
आते थे
गुरुकुलों
में। और क्या
तुम सोचते हो,
ये जो
तुम्हारे
गुरुकुल के
ऋषि-मुनि थे, ये जीवन से भगोड़े थे? इनकी पत्नियां
थीं, इनके
बेटे थे। और
इनके पास जरूर
सुंदर पत्नियां
रही होंगी।
क्योंकि
कहानियां
कहती हैं कि
देवता भी
कभी-कभी इनकी
पत्नियों के
लिए तरस जाते
थे। कभी
चंद्रमा आ गया
चोरी से, कभी
इंद्र आ गए
चोरी से। तो पत्नियां
भी कुछ साधारण
न रही होंगी!
क्योंकि
कहानियां
नहीं कहतीं
कि राजाओं की
पत्नियों के
लिए देवता
तरसते थे।
कहानियां तो
साफ हैं।
एक
कहानी नहीं
कहती कि
राजाओं की
पत्नियों से, राजमहल की
पत्नियों से
देवता तरसते
थे। लेकिन
ऋषि-मुनियों
की पत्नियों
से तरस जाते
थे। सौंदर्य
भी रहा होगा, ध्यान की
गरिमा भी रही
होगी तो
सौंदर्य हजार
गुना हो जाता
है। तो सुंदर पत्नियां
थीं। कभी-कभी
ऐसा भी हो
जाता था, कि
गुरु का शिष्य
भी गुरु की
पत्नी के
प्रेम में पड़
जाता था। कभी
ऐसा भी हो
जाता था कि
गुरुकुल में पढ़ते
हुए युवक और
युवतियां...दोनों
पढ़ते थे। तुम्हें
शकुंतला की
कथा तो याद ही
है कि कभी राजा
भी गुरुकुल
में पढ़ती
हुई युवतियों
को देखकर
मोहित हो उठता
था। सुंदर थे,
वैभव था, ऐश्वर्य था।
जीवन के जीने
की एक शैली थी;
दरिद्रता, दीनता, सिकुड़ाव नहीं था।
इस देश
में सिकुड़ाव
की शुरुआत हुई
जैनों और
बौद्धों के
प्रभाव से।
जैनों और
बौद्धों के
प्रभाव में इस
देश की संस्कृति
मरी। जैनों और
बौद्धों के
प्रभाव में
नकार पैदा हुआ, निषेध पैदा
हुआ। और उनके
साथ ही इस देश
का पतन शुरू
हुआ। कलिंग का
पतन नहीं, एकाध
सभ्यता का पतन
नहीं, इस
देश का पतन
जैनों और
बौद्धों के
निषेध के कारण
शुरू हुआ।
दीनता और
दरिद्रता, तपश्चर्या
और जीवन-निषेध,
इनके कारण
इस देश का पतन
शुरू हुआ। यह
देश सिकुड़ता
चला गया...।
धीरे-धीरे इस
देश ने सारी
सामर्थ्य खो
दी। कितने
विदेशी आए, और यह देश
सबसे हारता
चला गया।
अगर
मोरारजी सही
हैं, तो कलिंग
भर हारना
चाहिए था, यह
सारा देश
क्यों हारता
चला गया? यह
सारा देश
इसलिए हारता
चला गया कि इस
देश में जीवन
जीने का
अभियान ही न
रहा। यह देश
मुर्दा हो गया।
इस देश को
जीवन में
उत्सव न रहा।
मरे और जीए बराबर
हो गया, मरना-जीना
एक जैसा हो
गया। बल्कि
ऐसा लगे कि मर
ही गए तो
अच्छा, झंझट
मिटी। जिंदगी
झंझट मालूम
होने लगी। इसलिए
यह देश सिकुड़ा।
इस में
छोटे-छोटे
लुटेरे आए, जिनकी कोई
ताकत न थी बड़ी,
मगर उनके
सामने यह देश
हारता चला
गया। यह करोड़-करोड़
लोगों का देश,
थोड़ी-थोड़ी
संख्या वाले
लोग आए और
उनसे हारता चला
गया।
क्या
मोरारजी
सोचते हैं, सिकंदर जब
भारत आया और
पौरुष हारा, तो पौरुष
इसलिए हारा कि
मुक्ताचारी
समाज था पौरुष
का? पौरुष
इसलिए हारा कि
जीवन को जीतने
की आकांक्षा
खो गई थी।
जीवन को
फैलाने का
आयोजन खो गया
था, इसलिए
हारा। और फिर
हारते चले गए,
तुर्क आए, और मुगल आए—और
हारते चले गए।
और हूण आए, और
पठान आए—और
हारते चले गए।
और फिर
अंग्रेज आए, और
पुर्तगाली आए,
और
फ्रांसीसी आए,
और स्पेनिश
आए—और हारते
चले गए...।
और अब
भी वही वृत्ति
है सिकुड़ाव
की। अब भी
जीवन को फैलने
का, विस्तार
देने का, जीवन
के आनंद को
परमात्मा की
भेंट स्वीकार
करने का भाव
पैदा नहीं हुआ
है।
मैं
तुम्हें
चाहता हूं कि
तुम फिर
अभियान करो।
फिर जीवन को
उसके सब रंगों, सब स्वरों
में स्वीकार
करो। फिर नाचो,
फिर गाओ, फिर प्रेम
करो। निश्चित
ही प्रेम, नृत्य
और गान के पार
एक घड़ी है
ध्यान की भी, समाधि की भी;
लेकिन वह
जीवन का अंतिम
शिखर है। पहले
मंदिर तो उठाओ,
फिर
स्वर्ण-शिखर
भी रखेंगे।
पहले मंदिर तो
बनाओ। मंदिर
ही नहीं होगा
तो
स्वर्ण-शिखर
कहां रखोगे? जीवन के
मंदिर पर ही
समाधि का कलश चढ़ता है!
लेकिन
मेरी बात अड़चन
तो देगी।
क्योंकि मेरी
बात आज अकेली
है। मैं जो कह
रहा हूं, वह
वही है जो
वेदों ने कहा।
मैं जो कह रहा
हूं, वह
वही है जो
उपनिषदों ने
कहा। लेकिन
उपनिषद और
वेदों के बीच
और मेरे बीच
कोई ढाई हजार,
तीन हजार
साल का फासला
पड़ गया। इन ढाईत्तीन
हजार सालों
में सब
नष्ट-भ्रष्ट
हुआ है। और अब भी
ताकत इसी तरह
के लोगों के
हाथ में है।
और
जीवन के कुछ
नियम हैं। जब
एक बार गलत
बात प्रभावी
हो जाती है, तो हम उसी के
प्रभाव में
जीए चले जाते
हैं। हम फिर
सुनते ही नहीं
दूसरी बात। हम
दूसरी बात को
समझने के योग्य
भी नहीं रह
जाते। अब जैसे
समझो, सारी
दुनिया
समृद्ध होती
जा रही, हम
अपना चरखा लिए
बैठे हैं!
मोरारजी
देसाई अभी भी
चरखा कातते
रहते हैं
बैठे। चरखे
से कहीं कोई
दुनिया
समृद्ध हुई
है! चरखे
से होती होती
तो तुम दरिद्र
ही क्यों हुए,
चरखा तो तुम
कात ही रहे हो
सदियों से।
कोई गांधी ने
चरखा ईजाद
नहीं किया, चरखा तो कत
ही रहा है
यहां, हजारों
साल से कत रहा
है। हमें
चाहिए बड़ी टेक्नालॉजी।
हमें चाहिए
तकनीक के नए
से नए साधन।
समृद्धि
तकनीक से पैदा
होती है।
क्योंकि एक
मशीन हजारों
लोगों का काम
कर देती है, लाखों लोगों
का काम कर
सकती है। मशीन
से लाखों गुना
उत्पादन हो
सकता है।
लेकिन
गांधी इस देश
की छाती पर
बैठे हैं!
गांधी की पूजा
चल रही है।
गांधी को
मानने वाले
लोग छाती पर
चढ़े हैं। जो
भी गांधी बाबा
का नाम ले, वही छाती पर
चढ़ जाता है।
तुम दरिद्र हो
गए हो, और
दरिद्र होने
की तुम्हारी आदत
हो गई है।
इसलिए जो भी
तुम्हारी
दरिद्रता से
मेल खाता है, वह तुम्हें जंचता है।
मैं तुम्हारी
दरिद्रता
तोड़ना चाहता
हूं, मैं
तुम्हें नहीं
जंच सकता।
तुम्हें
यह बात बहुत जंचती है
कि गांधी बाबा
थर्ड क्लास
में चलते हैं।
उनके थर्ड
क्लास में
चलने से क्या
होने वाला है? उनके थर्ड
क्लास में
चलने से तुम
सोचते हो सारा
देश फर्स्ट
क्लास में
चलने लगेगा!
उनके थर्ड
क्लास में
चलने से सिर्फ
और थर्ड क्लास
में भीड़ बढ़
गई। वैसे ही
भीड़ थी, और
एक सज्जन घुस
गए! और एक ही
सज्जन नहीं, गांधी बाबा
जब चलेंगे
थर्ड क्लास
में तो पूरा डिब्बा
उनके लिए है।
जिसमें कोई
साठ-सत्तर, अस्सी-नब्बे
आदमी चढ़ते
हैं, उसमें
अब एक आदमी चल
रहा है अपने
दो-चार सेक्रेटरी
वगैरह को
लेकर। थर्ड
क्लास में
चलने से क्या होगा?
अगर
मैं गरीब हो
जाऊं, नंगा
होकर सड़क पर
भीख मांगने
लगूं, तुम
सोचते हो, इस
देश की
समृद्धि आ
जाएगी? अगर
मेरे नग्न
होने से और
सड़क पर भीख
मांगने से इस
देश की
समृद्धि आती
होती तो कितने
लोग तो नंगे
हैं और कितने
लोग तो भीख
मांग रहे हैं,
समृद्धि आई
क्यों नहीं?
लेकिन
हम इसी तरह की मूढ़ता की
बातों में पड़
गए हैं। तुमको
भी जंचेगा; अगर मैं
नग्न होकर सड़क
पर भीख मांगने
लगूं, तब
तुम देखना कि
भारतीयों की
भीड़ मेरे पीछे
खड़ी हो जाएगी।
लाखों भारतीय
जय-जयकार करने
लगेंगे।
हालांकि तब
मैं उनके किसी
काम का नहीं
रह गया, मगर
जय-जयकार वे
तभी करेंगे।
अभी मैं उनके
किसी काम का
हो सकता हूं, लेकिन अभी
वे जय-जयकार
नहीं कर सकते।
क्योंकि उनकी
तीन हजार साल
की बंधी हुई
धारणाओं से मैं
विपरीत पड़ता
हूं।
मैं
चाहता हूं, इस देश में
उद्योग हों, इस देश में
बड़ा तकनीक आए,
बड़ी मशीनें
आएं। इस देश
में विज्ञान
का अवतरण हो।
यह देश फैले।
लेकिन
यह देश तभी
फैल सकता है, जब हम जीवन
को स्वीकार
करें—उसके सब
रंगों में, सब ढंगों
में।
जीवन-निषेध की
प्रक्रिया
आत्मघाती है।
जीवन-विधेय की
प्रक्रिया ही अमृतदायी
है। उस
जीवन-विधेय के
आयाम में ही
मैं सब स्वीकार
करता हूं—कामवासना
भी अंगीकार
है।
श्री
मोरारजी
देसाई को कहना
चाहता हूं कि
आप जैसे लोगों
की व्यर्थ
बकवास के कारण
इस देश का
दुर्भाग्य
सघन होता जा
रहा है। इस पर
दया करो! पुनः
सोचो, पुनर्विचार
करो। इस देश
को उमंग दो, निराशा
नहीं। हताशा
मत दो, इस
देश के
प्राणों को
उत्साह दो।
इसकी मरी आत्मा
में सांस फूंको;
इस देश के
जीवन में नए
खून का संचार
करो। वही मैं
कर रहा हूं।
इसीलिए मेरी
बात पश्चिम के
लोगों को
ज्यादा
अनुकूल पड़ रही
है। इसलिए
अनुकूल पड़ रही
है कि वे जीवन
के प्रेमी हैं,
वे फैलाव के
आतुर हैं।
उनके और मेरे
बीच तर्क ठीक
बैठ रहा है।
मुझसे
लोग पूछते
हैं: यहां
भारतीय क्यों
कम दिखाई पड़ते
हैं? वे
इसीलिए कम
दिखाई पड़ते
हैं कि भारत
ने तीन हजार
साल में एक
गलत ढंग की
सोचने की प्रक्रिया
बना ली है।
मेरा उससे कोई
तालमेल नहीं
है। मेरे पास
तो वे ही
भारतीय आ सकते
हैं, जो
थोड़े आधुनिक
हैं; जिनमें
थोड़ा
सोच-विचार का
जन्म हुआ है, जिन्होंने
आंखें खोली
हैं और जो देख
रहे हैं कि
दुनिया में
क्या हो रहा
है। अब कोई
देश गरीब रहने
के लिए बाध्य
नहीं है। अगर
हम गरीब
रहेंगे, तो
अपने ही कारण।
अब तो विज्ञान
ने इतने साधन उपलब्ध
कर दिए हैं कि
हर देश समृद्ध
होना चाहिए।
कोई कारण नहीं
है। अगर हम
दरिद्र हैं तो
हमारी
दार्शनिक
वृत्ति, हमारे
सोचने-विचारने
की प्रक्रिया में
कहीं कोई भूल
है।
मैं
कहता हूं:
जीवन
परमात्मा है।
इसे जीओगे तो
परमात्मा को
जीओगे। जीवन
प्रार्थना है, पूजा है।
इसको मस्ती से,
आनंद से
अंगीकार करो।
इसको ऐसा मत
समझो कि तुम
पाप के कारण
जीवन में भेजे
गए हो, पाप
का भुगतान
करवाने के लिए,
कि पाप का
दंड दिया गया
है इसलिए जीवन
में भेजे गए
हो। गांधी की
मत सुनो, रवींद्रनाथ
की सुनो।
रवींद्रनाथ
ने मरते वक्त
कहा है कि, "हे प्रभु!
मुझे बार-बार
भेजना, तेरा
जीवन बड़ा
प्यारा था!' आवागमन से
छूट जाऊं, ऐसा
नहीं कहा।
"बार-बार
भेजना, तेरा
जीवन बहुत
प्यारा था!
फिर अनुकंपा
करना!'
आवागमन
से छूट जाऊं, ऐसा जो
मानकर बैठा है,
ऐसा जो सोच
रहा है, वह
ठीक से जी
नहीं सकेगा; वह तो मरने
को तैयार है।
उसकी वृत्ति
में आत्मघात
है।
मैं
तुम्हें एक
नया धर्म दे
रहा हूं, एक
धर्म का नया उदघोष दे
रहा हूं। इस उदघोष को
ठीक-ठीक
स्पष्ट करने
के लिए, चाहता
हूं, एक
छोटा नगर ही
बस जाए। उसकी
कोशिश में लगा
हूं। लेकिन
मोरारजी भाई
एंड कंपनी सब
तरह से बाधाएं
डालने की
कोशिश करती
है। उनको क्या
अड़चन है? मुझे
एक छोटा-सा
गांव बसाकर
दिखा देने दें
मुल्क को कि
कैसा गांव
होना चाहिए, कैसे लोग जीएं,
कैसे लोग
रहें। मगर
उनको डर होगा
कि कहीं
सर्वनाश न हो
जाए। जैसे कि
सर्वनाश अभी
हो नहीं गया
है! अब और क्या
होने को बचा है?
तुम्हारे
पास खोने को
है भी क्या? और मैं क्या
तुम्हारा
सर्वनाश
करूंगा? तुम्हारे
महात्मा-गण
पहले ही कर
चुके मोरारजी
भाई! कुछ
बचा-खुचा तुम
किए दे रहे हो!
मेरे लिए सर्वनाश
करने को बचा
कहां?
मैं एक
छोटा-सा नगर
बसा लेना
चाहता हूं—सिर्फ
एक प्रतीक
नगर। ताकि मैं
तुम्हें कह सकूं
कि कितनी
समृद्धि हो
सकती है, सरलता
से हो सकती है!
और कितना आनंद
हो सकता है।
और जीवन कितना
रस-विमुग्ध हो
सकता है।
मैं तो
परमात्मा की
परिभाषा रस ही
मानता हूं। रसो वै सः!
और जितने तुम
रसमग्न हो जाओ, उतने ही
उसके निकट हो
जाते हो। मैं
चाहता हूं कि
तुम नाचो, गाओ,
प्रेम करो!
तुम फूलों, पक्षियों, चांदत्तारों की भांति हो
जाओ।
तुम्हारी
जिंदगी से
चिंताएं
समाप्त हों।
और यह सब हो
सकता है। कोई
कारण नहीं है,
इसमें कोई
बाधा नहीं है।
यह पहले शायद
नहीं भी हो सकता
था, लेकिन
अब हो सकता
है। क्योंकि
विज्ञान ने सब
साधन मुक्त कर
दिए हैं। मगर
हम सिकुड़ कर
जी रहे हैं।
और
उनको डर भी
यही है कि अगर
मैं एक नगर बसाकर
बता सकूं...मैं
बताकर ही
रहूंगा! उनकी
बाधाओं से कुछ
बाधा पड़ने
वाली नहीं है।
मैं दस हजार
गैरिक
संन्यासियों
का नगर बसाकर
ही रहूंगा। और
मैं इस देश के
सामने एक
नमूना खड़ा कर
देना चाहता
हूं कि अगर यह
दस हजार संन्यासियों
के जीवन में
हो सकता है, तो यह पूरे
देश के जीवन
में क्यों
नहीं हो सकता?
उससे भी भय
है कि कहीं यह
मैं करके बता पाऊं तो
फिर उन्हें
बड़ी अड़चन
होगी। फिर वे
लोगों से यह न
कह सकेंगे कि
मैं सर्वनाश
का कारण पैदा कर
रहा हूं। फिर
उनको इस तरह
के वक्तव्य
देने कठिन हो
जाएंगे। फिर
प्रमाण होगा
मेरे पास। इसलिए
वे उसे नहीं
बसने देना
चाहते।
तुम्हें
जानकर हैरानी
होगी, कितनी
कानूनी उलझनें
वे रोज खड़ी
करते रहते
हैं! पांच-सात
वकीलों को
मुझे निरंतर उलझाए
रखना पड़ता है,
सिर्फ उनसे
कानूनी...।
सीधा मुझसे
कुछ झंझट कर भी
नहीं सकते, तो कानूनी
तो कर ही सकते
हैं। कुछ भी
छोटे-छोटे
दांव लगाए
रखते हैं—जितना
समय अटका सकें,
जितना समय
टाल सकें। मैं
किसी को कहता
भी नहीं कि वे
कितनी अड़चनें
खड़ी करते रहते
हैं। क्योंकि
उसका कोई
प्रयोजन भी
नहीं है कहने
से, कोई
अर्थ भी नहीं
है कहने से।
यह नगर
तो बनकर रहेगा, क्योंकि
उसके लिए
परमात्मा से
स्वीकृति मिल चुकी
है। यह नगर तो
एक प्रमाण
बनेगा। और तब
मैं मोरारजी
भाई को और
उनके आसपास जो
चंडाल-चौकड़ी
है, उसको
कहूंगा कि आओ
और देखो।
दूसरा
और आखिरी
प्रश्न:
जब
सभी पहुंचे
हुए
पूर्ण-पुरुष
परमात्मा की पुकार
करते हैं, तभी मेरी
समझ में नहीं
आता कि
पुकारने के
लिए वे बचते
हैं कहां?
आनंद
भारती! तेरा
प्रश्न ठीक है, लेकिन एक
भ्रांति पर
खड़ा है, एक
छोटी-सी भूल
पर खड़ा है।
पूछा
तूने: "जब सभी
पहुंचे हुए
पूर्ण-पुरुष
परमात्मा की
पुकार करते
हैं, तभी मेरी
समझ में नहीं
आता कि
पुकारने के
लिए बचते हैं
कहां?'
दो
बातें ख्याल
रख। एक: भक्त
पुकारता है
परमात्मा को, तब तक वह
परमात्मा तक
पहुंचा नहीं
है, इसलिए
परमात्मा को
पुकारता है।
फिर जब पहुंच जाता
है और भक्त
भगवान हो जाता
है, तो
परमात्मा को
भक्त नहीं
पुकारता। फिर
भक्त के
माध्यम से
परमात्मा
संसार को
पुकारता है। फिर
परमात्मा ही
पुकारता है
उससे। ये दो
अलग-अलग
पुकारें हैं।
एक भक्त की
पुकार है कि
आन मिलो कि
मुझे समा लो
अपने में कि
बहुत देर हो
गई कि अब और
देर नहीं सही
जाती कि रोता
हूं कि मनाता
हूं तुम्हें
कि रूठो
मत कि मान जाओ
कि द्वार खोलो
कि कितनी देर
हो गई, कितने
जन्मों से मैं
रो रहा हूं और
पुकार रहा हूं,
तुम कहां खो
गए हो! यह भक्त
की पुकार है, ये भक्त के
आंसू हैं! अभी
भक्त पुकार
रहा है। भक्त
लीन होना
चाहता है।
जैसे नदी
पुकार रही है
सागर को, क्योंकि
सागर में लीन
हो जाए तो
सीमाओं से मुक्त
हो जाए, चिंताओं
से मुक्त हो
जाए!
फिर जब
नदी सागर में
लीन हो गई, तो सागर गरजेगा!
नदी सागर का
हिस्सा हो गई।
अब नदी अलग
नहीं है। अब
नदी पुकारने
के लिए बची
नहीं है। अब तो
नदी सागर है।
अब तो नदी का
जल भी सागर की गर्जनत्तर्जन
बनेगा। ऐसा ही
भक्त जब भगवान
को पहुंच जाता
है, जब
पूर्ण हो जाता
है, तब भी
पुकारता है।
लेकिन अब भक्त
नहीं पुकारता,
अब भगवान
पुकारता है।
अब तो सागर का
गर्जन है। अब
भगवान औरों को
पुकारता है।
इससे
भूल हो सकती
है। जैसे ये
ही वाजिद के
वचन, वाजिद
कहते हैं: कहै
वाजिद पुकार।
यह वाजिद जो पुकारकर
कह रहे हैं, यह अब
परमात्मा
वाजिद से
पुकार रहा है।
अब यह वाजिद
नहीं पुकार
रहे हैं।
वाजिद तो गए, कब के गए! जब
तुम बांस की
पोंगरी की तरह
पोले हो जाओगे,
तब उसके
ओंठों पर रखने
के योग्य
होओगे। तब बजेंगे
स्वर! गीत फूटेगा
तुमसे! तब
उसकी श्वासें
तुम्हारे
भीतर से बहेंगी।
फिर बांसुरी
औरों को पुकारेगी,
फिर
बांसुरी की
टेर औरों को पुकारेगी।
भक्त
पहले भगवान को
पुकारता है; फिर भगवान
भक्त के माध्यम
से और रास्तों
पर जो भटक गए
हैं, अंधेरे
में जो अटक गए
हैं, उन्हें
पुकारता है।
ये दोनों
अलग-अलग
पुकारें हैं।
इनको एक ही मत
समझ लेना।
पहली पुकार में
द्वैत है:
भक्त है और
भगवान है, बीच
में फासला है।
दूसरी पुकार
में अद्वैत है;
न भक्त है
अब, न
भगवान अलग है।
अब तो एक है और
अब एक ही गूंज
रहा है—सागर
की गर्जन है!
आज
इतना ही।
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