प्यारे
ओशो!
योगवासिष्ठ
में यह श्लोक
है:
न
यथा यत्ने
नित्यं
यदभावयति
तन्मय:।
यादृगिच्छेच्च
भवितुं तादृभवति
नान्यथा।।
मनुष्य
नित्य जैसा
यत्न करता है
तन्मय होकर जैसी
भावना करता है
और जैसा होना
चाहता है वैसा
ही हो जाता है
अन्यथा नहीं।
प्यारे ओशो!
क्या ऐसा ही
है?
सहजानंद!
ऐसा जरा भी
नहीं है। यह
सूत्र
आत्मसम्मोहन
का सूत्र है—आत्मजागरण
का नहीं। कुछ 'होना'
नहीं है। जो
तुम हो उसे
आविष्कृत
करना है।
कोहिनूर को
कोहिनूर नहीं
होना है, सिर्फ
उघडूना है।
कोहिनूर तो है।
जौहरी की सारी
चेष्टा
कोहिनूर को
निखारने की है—बनाने
की नहीं।
कोहिनूर पर
परतें जम गयी
होंगी मिट्टी
की, उन्हें
धोना है।
कोहिनूर को
चमक देनी है, पहलू देने
हैं।
जब
कोहिनूर पाया
गया था, तो आज
जितना वजन है,
उससे तीन
गुना ज्यादा
था। फिर उस पर
पहलू देने में,
काटने—छाटने
में, जो
व्यर्थ था उसे
अलग करने में,
और जो
सार्थक था, उसे बचाने
में, केवल
एक तिहाई बचा
है। लेकिन जब
पाया गया था, उसका जो
मूल्य था, उससे
आज करोड़ों
गुना ज्यादा
मूल्य है। वजन
तो कम हुआ—मूल्य
बढ़ा।
तुम
जो हो उसका
आविष्कार
करना है। और
यह सूत्र कुछ
और ही बात कह
रहा है। यह
सूत्र
आत्मसम्मोहन
का,
आटोहिभोसिस
का सूत्र है।
यह सूत्र कह
रहा है, 'मनुष्य
नित्य जैसा
यत्न करता है,
तन्मय होकर
जैसी भावना
करता है, और
जैसा होना
चाहता है, वैसा
ही हो जाता है
अन्यथा नहीं।’
तुम
अगर भाव करोगे
कुछ होने का, सतत्
करोगे भाव, तो उस भाव से
तुम आच्छादित
हो जाओगे।
आच्छादन इतना
गहन हो सकता
है कि भांति
होने लगे कि
मैं यही हो गया।
एक
सूफी फकीर को
मेरे पास लाया
गया था। तीस
वर्ष की सतत्
साधना! फकीर
के शिष्यों ने
मुझे कहा कि 'उन्हें
प्रत्येक जगह
ईश्वर दिखाई
पड़ता है।
वृक्षों में,
पत्थरों
में, चट्टानों
में—सब तरफ
ईश्वर का ही
दर्शन होता है।’
मैंने
कहा,
'उन्हें ले
आओ। तीन दिन
मेरे पास छोड
दो।’
जब
वे मेरे पास
तीन दिन रहे, तो
मैंने उनसे
कहा, 'क्या
मैं पूछूं कि
यह जो ईश्वर
तुम्हें
दिखाई पड़ता है—दिखाई
पड़ता है कि
तुमने इसकी
भावना की है?'
उन्होंने
कहा,
'इसमें क्या
भेद है?'
मैंने
कहा,
' भेद कुछ बहुत
बड़ा है। सूरज
उगता है, तो
दिखाई पड़ता है—तुम्हें
भावना नहीं
करनी पड़ती कि
यह सूरज है।
चांद निकलता
है, तो
तुम्हें
दिखाई पड़ता है—तुम्हें
भावना नहीं
करनी पड़ती कि
यह चांद है।
सौंदर्य हो, तो दिखाई
पड़ता है; तुम्हें
भावना नहीं
करनी पड़ती कि
सौंदर्य है।
भावना तो तब
करनी पड़ती है,
जब दिखाई न
पड़ता हो।
भावना
से भ्रांति
होती है। सतत्
कोई भावना करे
और तीस साल
निरंतर भावना की
हो तो
स्वभावत:
भावना
आच्छादित हो
जायेगी।
तो
मैंने उनसे
कहा,
' एक काम करो,
भेद साफ हो
जायेगा। तीन
दिन भावना
करना बंद कर
दो।’
उनको
बात समझ में
पडी। तीन दिन
उन्होंने
भावना नहीं की।
चौथे दिन मुझ
पर बहुत नाराज
हो गए।
उन्होंने कहा, 'मेरी
तीस वर्ष की
साधना नष्ट कर
दी!'
मैंने
कहा,
'जो तीस
वर्ष में साधा
हो, अगर
तीन दिन में
नष्ट होता हो,
उसका मूल्य
क्या है? तो
तुम कहीं
पहुंचे नहीं।
कल्पना में जी
रहे थे। एक
स्वप्न
निर्मित कर
लिया था अपने
चारों तरफ। अब
तुम्हें
वृक्ष दिखाई
पड़ते हैं—परमात्मा
दिखाई नहीं पड़ता।
क्या हुआ उस
परमात्मा का?
अगर दिखाई
पड़ गया था, तो
तीन दिन में
खो गया!' मैंने
कहा, 'कुछ
सीखो। नाराज न
होओ। सीखने का
यह है कि तीस
साल व्यर्थ गए;
नाहक तुमने
गंवाये। अभी
भी देर नहीं
हुई। अभी भी
जिंदगी शेष है।
भावना करना
बंद करो।’
आंखों
को निखारो—भावना
से लादी मत।
भावना के
चश्मे मत पहनो।
भावना चश्मे
दे सकती है।
कोई लाल रंग
का चश्मा पहन
ले—सारा जगत
लाल दिखाई
पड़ने लगा! लाल
हुआ;
नहीं; न
लाल है, मगर
भावना का
चश्मा चढ गया!
उतारो चश्मा
और जगत जैसा
है, वैसा
प्रगट हो
जायेगा। सब
लाली खो जाएगी।
यह
सूत्र
व्यक्तित्व
को झूठ करने
का सूत्र है।
मगर इसी सूत्र
पर दुनिया के
सारे धर्म
आरोपित हैं।
यह
योगवासिष्ठ
की ही भांति
नहीं, यह
भ्रांति सारे
धर्मों के
आधार में पड़ी
हुई है।
तुम
जाते हो मंदिर
में। तुम्हें
दिखाई तो
पत्थर की
मूर्ति पड़ती
है,
लेकिन
भावना करते हो
कि राम हैं, कृष्ण हैं, बुद्ध हैं, महावीर हैं।
अपनी भावना के
सामने झुकते
हो तुम।
तुम्हें कुछ
दिखाई नहीं पड़
रहा है।
जैन
के मंदिर में
बौद्ध को ले
जाओ,
उसे झुकने
का कोई मन
नहीं होता।
उसे महावीर
बिलकुल दिखाई
नहीं पड़ते; पत्थर दिखाई
पड़ता है।
मुसलमान को ले
जाओ। तुम जब
झुकते हो, तो
वह हंसता है
कि कैसी मूढ़ता
है! पत्थर के
बुत के सामने—यह
कैसी बुत—परस्ती!
यह कैसा
अंधापन! पत्थर
के सामने झुक
रहे हो! मगर
तुम पत्थर के
सामने नहीं
झुक रहे हो।
तुमने तो अपनी
भावना आरोपित
कर रखी है।
तुम्हारे लिए
तो तीर्थंकर
हैं, महावीर
हैं!
जैन
को मसजिद में
ले जाओ, उसे
कोई अहोभाव
अनुभव नहीं
होता। लेकिन
मुसलमान
गद्गद् हो
जाता है। यह
सत्य किस बात
की ओर इंगित
करता है? गणेशजी
को देखकर जो
हिंदू नहीं है,
वह हंसेगा।
जो हिंदू है, वह एकदम
समादर से भर
जायेगा।
हनुमानजी को
देखकर जो
हिन्दू नहीं
है वह सोचेगा,
यह भी क्या
पागलपन है! एक
बंदर की पूजा
हो रही है! और
आदमी बंदर की
पूजा कर रहे
हैं! शर्म
नहीं, संकोच
नहीं, लाज
नहीं! लेकिन
जो हिंदू है, उसने एक
भावना आरोपित
की है। उसने
एक चश्मा चढा
रखा है। तुम
दुनिया के
विभिन्न
धर्मों पर
विचार करो, तुम्हें बात
समझ में आ
जाएगी।
जीसस
को सूली हुई।
एक जैन मुनि
ने मुझसे कहा
कि 'आप महावीर
के साथ जीसस
का नाम न लें, क्योंकि
कहां महावीर
और कहां जीसस!
क्या तुलना!
जीसस को सूली
लगी!' जैन हिंसाब
से तीर्थंकर
को तो काटा भी
नहीं गड़ता है;
सूली लगना
तो बहुत दूर।
जैन हिंसाब से
तीर्थंकर जब
चलते हैं
रास्ते पर, तो सीधे जो
कांटे पड़े
होते हैं, वे
तल्ला उल्टे
हो जाते हैं
कि कहीं
तीर्थंकर के
पैर में गड़ न
जाएं।
क्योंकि कोई
पाप तो बचा
नहीं, तो
कांटा गड़ कैसे
सकता है? पाप
के कारण दुख होता
है। पाप के
कारण कांटा
गड़ता है।
अकारण नहीं
कुछ होता। यही
तो पूरा कर्म
का सिद्धांत
है।
और
जीसस को सूली
लगी,
तो जरूर
पिछले जन्मों
में कोई
महापाप किया
होगा अन्यथा
सूली कैसे
लगे!
जैन
को अड़चन होती
है कि जीसस को
महावीर के साथ
रखो। इस आदमी
को सूली लगी, जाहिर
है कि अकारण
सूली नहीं लग
सकती, तो
जरूर कोई
पिछला महापाप
इसके पीछे
होना चाहिए।
और
ईसाई उसी सूली
को अपने गले
में लटकाए हुए
हैं। उसी सूली
के सामने
झुकता है।
उसके लिए सूली
से ज्यादा
पवित्र और कुछ
भी नहीं है।
सूली उसके लिए
प्रतीक है
जीसस का।
अगर
तुम ईसाई से
पूछो, महावीर
के संबंध में,
तो वह कहेगा
कि 'जीसस
के साथ तुलना
नहीं की जा
सकती, क्योंकि
जीसस ने तो
मनुष्य जाति
के हित के लिए
अपना जीवन
अर्पण कर दिया।
महावीर ने
क्या किया? महावीर तो
निपट
स्वार्थी हैं।
कोई अस्पताल
खोला? कोई
गरीबों के लिए
भोजन जुटाया?
बीमारों की
सेवा की? कोढ़ियों
के पैर दबाये?
अंधों को आंखें
दीं? लंगड़ों
को पैर दिये? क्या किया?
तुम
देखते ही हो
कि मदर टेरेसा
को नोबल
प्राइज मिली।
महावीर अगर
जिंदा हों, तो
नोबल प्राइज
मिल सकती है? किस कारण? न तो
अनाथालय
खोलते हैं। न
विधवा आश्रम
खोलते हैं!
निपट
स्वार्थी हैं!
अपने ध्यान और
अपने आनंद में
लगे हैं! इस स्वार्थी
व्यक्ति की
पूजा करने का
प्रयोजन क्या
है? इसने
त्याग क्या
किया है? और
अगर धन—दौलत
भी छोड़ी है, तो स्वार्थ
के लिए छोड़ी
है, क्योंकि
धन—दौलत. के
कारण
आत्मानंद में
बाधा पड़ती है,
ब्रह्मानंद
में बाधा पड़ती
है। मगर आनंद
तो अपना है।
इसने किसी
दूसरे की
चिंता की है, इस व्यक्ति
ने?
तो
महावीर और
बुद्ध
ईसाइयों के
लिए आदरणीय नहीं
मालूम होते।
कृष्ण
को हिंदू
पूर्णावतार
कहते हैं और
जैन उनको नर्क
में डाल देते
हैं! क्योंकि
कृष्ण ने ही
युद्ध करवा
दिया; महाहिंसा
करवा दी।
अर्जुन तो
बिलकुल मुनि
होने के करीब
ही था! वह तो सब
छोड़कर भाग रहा
था, त्याग
रहा था। कृष्ण
उसे घसीट लाये।
एक व्यक्ति को
जो जैन होने
के करीब था—भ्रष्ट
कर दिया!
कृष्ण को दंड
देना जरूरी है।
अब
तुम जरा देखो!
हिंदू कहते
हैं
पूर्णावतार।
और उनका कहना, उनके
चश्मे की बात
है।
पूर्णावतार
इसलिए कि
कृष्ण में
जीवन की समग्रता
प्रगट हुई है।
राम को भी
पूर्णावतार
नहीं कहते
हिंदू।
क्योंकि राम
की मर्यादा है।
मर्यादा यानी
सीमा। क्या
अमर्याद हैं।
उनकी कोई सीमा
नहीं है।
महावीर
त्यागी—व्रती,
मगर इनका
त्याग—व्रत
संसार से
भयभीत है। ये
संसार को
छोड़कर त्याग
को उपलब्ध हुए
हैं, ज्ञान
को उपलब्ध हुए
हैं। कृष्ण तो
संसार में
रहकर ज्ञान को
उपलब्ध हुए
हैं। यह असली
कसौटी है। आग
में बैठे रहे
और परम शांति
को .अनुभव
किया।
आग
से भाग गये!
भगोड़े हो! जो
कृष्ण को
माननेवाला है, वह
महावीर और
बुद्ध को
भगोड़ा कहेगा।
जिंदगी में
जूझो; जिंदगी
चुनौती है। इस
चुनौती से
भागते हो—अवसर
गंवाते हो। यह
कायरता है। यह
पीठ दिखा देना
है। कृष्ण ने
जिंदगी से पीठ
नहीं दिखाई।
इसीलिए
अर्जुन को भी
रोका कि क्या
भागता है! क्या
कायरपन की
बातें करता
है! क्या
नपुंसकता की
बातें करता
है! क्या तू
क्लीव हो गया!
उठा गांडीव।
छोड़ यह अहंकार—कि
मेरे द्वारा
हिंसा हो रही
है। अपने को
बीच से हटा ले;
परमात्मा
का माध्यम भर
हो जा। अपने
अहंकार को बीच
में न लगा।
तो
हिंदू के लिए
क्या
पूर्णावतार
हैं। उसका
अपना चश्मा है।
जैन के लिए
कृष्ण नर्क
में डालने
योग्य हैं। अवतार
की तो बात ही
छोड़ो! आदमियों
से भी गये—बीते
हैं! सभी आदमी
भी नर्क में
नहीं जाते।
महापापी ही
नर्क में जाते
हैं। कृष्ण ने
महापाप करवा
दिया।
क्योंकि जैन
के हिंसाब के
लिए तो चींटी
भी मारना पाप
है। और इस
व्यक्ति ने तो
कोई एक अरब, सवा
अरब आदमियों
की हत्या करवा
दी! इसी के
कारण हत्या
हुई। तो इतनी
बड़ी महाहिंसा
का कौन
जिम्मेवार
होगा? अपने—अपने
चश्मे हैं।
और
मैं कहता हूं :
सत्य उसको
दिखाई पड़ता है, जो
सारे चश्मे
उतारकर रख
देता है—जो न
हिंदू है, न
मुसलमान है, न ईसाई है, न जैन है, न
बौद्ध है। ये
तो सब भावना
की बात है।
तुम
अपनी भावना को
आरोपित कर
लेते हो। तो
जो तुमने
आरोपित कर
लिया है, जरूर
दिखाई पड़ता है।
मगर दिखाई
पड़ता है वैसा
ही, जैसा
सपना दिखाई
पड़ता है।
दिखाई पड़ता है
वैसा ही, जैसे
शराब के नशे
में कुछ—कुछ
दिखाई पड़ने
लगता है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
रोज शराबघर
जाता। चकित थे
लोग कि हमेशा
जब भी शराब
पीने बैठता, तो
अपनी जेब से
एक मेंढक
निकालकर
टेबिल पर रख लेता!
उसने मेंढक
पाला हुआ था।
कई बार लोगों
ने पूछा कि 'इसका राजू
क्या है?'
पीता
रहता शराब।
पीता रहता।
फिर एकदम से
शराब पीना बंद
कर देता।
मेंढक खीसे
में रखता। घर
चला जाता। एक
दिन शराब की
दुकान के
मालिक ने कहा
कि '
आज मेरी तरफ
से पियो। मगर
यह राज अरब
बता दो। अब
हमारी
उत्सुकता
बहुत बढ़ती जा
रही है। माजरा
क्या है? यह
मेंढक को बार—बार
लाते हो, इसको
बिठा लेते हो!'
मुल्ला
ने कहा, 'मामला
कुछ भी नहीं
है। राज छोटा—सा
है। यह गणित
है। जब यह मेंढक
मुझे दो दिखाई
पड़ने लगता है,
तब मैं समझ
जाता हूं कि
बस, अब रुक
जाना चाहिए।
अब खतरे की
सीमा आ गयी!
जल्दी से इसको—दोनों
को उठाकर खीसे
में रखता हूं
और अपने घर की
तरफ चला जाता
हूं क्योंकि
अब जल्दी घर
पहुंच जाना
चाहिए, नहीं
तो कहीं
रास्ते में
गिरूंगा। जब
तक एक दिखाई
पड़ता रहता है,
तब तक पीता
हूं। जब दो
दिखाई पड़ता है,
तो बस!'
मुल्ला
अपने बेटे को
भी शराब पीने
के ढंग सिखा
रहा था। बाप
वही सिखाये, जो
जाने। और तो
क्या सिखाये!
शराबी शराब
पीना सिखाये।
हिन्दू
हिन्दू बनाये।
जैन जैन बनाये।
बौद्ध बौद्ध
बनाये। जो
जिसकी भावना!
तो अपने बेटे
को लेकर
शराबघर गया।
कहा कि 'एक
बात हमेशग़
खयाल रखना।
देखो—शराब
पीना शुरू करो।’
और कहा कि 'वे जो उस
टेबिल पर आदमी
बैठे हैं दो, जब चार
दिखाई पड़ने
लगें, तब
रुक जाना!' उसके
बेटे ने कहा
कि 'पिताजी,
वहां सिर्फ
एक ही आदमी
बैठा हुआ है!
आपको अभी दो
दिखाई पड़ रहे
हैं!'
यह
मुल्ला तो
पीये ही हुए
है। इसको तो
दो दिखाई पड़
ही रहे हैं! अब
यह कह रहा है, जब
चार दिखाई
पड़ने लगें, तो बस, पीना
बंद कर देना!
यह तो नशे में
है ही।
नशे
में जो दिखाई
पड़ता है, वह
सत्य नहीं है।
हा, सतत्
यत्न से तुम
नशा पैदा कर
सकते हो। सतत्
भावना से तुम
अपने भीतर की
रासायनिक
प्रक्रिया
बदल सकते हो।
ये
मनोविज्ञान
के सीधे—सादे
सूत्र हैं।
अगर
बार—बार तुम
सोचते ही रहो, सोचते
ही रहो, तो
स्वभावत: उस
सोचने का
परिणाम यह
होगा कि तुम्हारे
भीतर भावना की
एक पर्त बनती
जायेंगी।
एक
बहुत बड़ा
सम्मोहनविद्
फ्रांस में
हुआ। वह अपने
मरीजों को.......
उसने बहुत
मरीजों को
सहायता
पहुंचाई। वह
उनको कहता, 'बस,
एक ही बात
सोचते रही कि
रोज, दिन—ब—दिन
ठीक हो रहा
हूं। सुबह से
बस यही सोचो, पहली बात
यही सोचो उठते
वक्त। और रात
सोते समय तक
आखिरी बात यही
सोचते रहो कि
मैं ठीक हो रहा
हूं। दिन—ब—दिन
ठीक हो रहा
हूं।’
तीन
महीने बाद
मरीज आया। उस
चिकित्सक ने
पूछा कि 'कुछ
लाभ हुआ?' उसनें
कहा, 'लाभ
तो हुआ। दिन
तो बिलकुल ठीक
हो गया, मगर
रात बड़ी
मुश्किल है!' अब दिन—ब—दिन
ठीक हो रहा
हूं—सो उसने
बेचारे ने दिन
का ही हिंसाब
रखा।
'सो दिन तो'......, उसने कहा कि 'बिलकुल ठीक
गुजर जाते हैं,
क्योंकि
भावना बिलकुल
मजबूत कर ली
है। चौबीस
घंटे एक ही
भावना करता
हूं कि दिन
बिलकुल ठीक, मगर रात! रात
बड़ी बेचैनी आ
जाती है।’ वह
जो दिनभर की
बीमारी है, वह भी
इकट्ठी होकर
रात फूटती है।
'सोना खराब
हो गया। नींद
हराम कर दी है।
क्या सूत्र
तुमने दिया!'
यह
मनोवैशानिक
ने सोचा ही न
था कि 'दिन' में
यह केवल दिन
को ही गिनेगा—रात
छोड़ देगा!
मेरे
पास एक दफा एक
युवक को लाया
गया। उसके
पिता, उसकी
मां रो रहे थे।
उन्होंने कहा
कि हम थक गये!
विश्वविद्यालय
से इसको हटाना
पड़ा। इसको एक
भ्रांति हो
गयी है कि एक
मक्खी इसके
भीतर घुस गई
है—यह इसको
भ्रांति हो गई
है। यह मुंह
खोलकर सोता है,
तो इसको भ्रांति
हो गयी कि
मुंह खुला था
और मक्खी अंदर
चली गयी। शायद
मक्खी चली भी
गयी हो। वह तो
निकल भी गयी।
एक्स—रे करवा
चुके।
डॉक्टरों से
चिकित्सा
करवा चुके।
मगर यह मानता
ही नहीं। यह
कहता है, वह
भनभना रही है।
भीतर चल रही
है। बस, यह
चौबीस घंटे
यही राग लगाये
रखता है कि वह
इधर पैर में
घुस गयी अंदर!
इधर हाथ में आ
गयी!
यह
देखो, इधर आ
गयी—इधर चली
गयी। इसको कोई
दूसरा काम ही
नहीं बचा है; न सोता है, न सोने देता
है। न खाता है,
न खाने देता
है! मक्खी
भनभना रही है!
सिर में घुस
जाती है! सिर
से पैर तक
चलती रहती है!
चिकित्सकों
ने कह दिया, भई, यह सब
भ्रांति है।
हम कुछ भी
नहीं कर सकते।
किसी ने आपका
नाम लिया, तो
आपके पास ले
आये। मैंने
कहा, 'कोशिश
कर के देखें।’
मैंने
कहा,
'यह कहता है,
तो ठीक ही
कहता होगा।
जरूर मक्खी
घुस गयी होगी।’
उस
युवक की आंखों
में एकदम चमक
आ गयी। उसने
कहा,
'आप पहले
आदमी हैं, जो
समझे। कोई
मानता ही नहीं
मेरी। जिसको
कहता हूं वही
कहता है—पागल
हो गये हो! अरे,
पागल हो गया
हूं—कैसे पागल
हो गया हूं!
मुझे बराबर
भनभनाहट सुनाई
पड़ती है। चलती
है। कभी छाती
में घुस जाती
है। कभी पैर
में चली जाती
है। कभी सिर
में! मेरी
मुसीबत कोई
नहीं समझता।
अब नहीं आती
तुम्हारे
एक्स—रे में, तो मैं क्या
करूं! मगर
मुझे अपना
अनुभव हो रहा है।
अपना अनुभव
मैं कैसे
झुठला दूं।
लाख समझाओ
मुझे!
'मेरा सिर खा
गये समझा—समझाकर!
एक मक्खी मुझे
सता रही है।
और बाहर के
समझानेवाले
मुझे सता रहे
हैं। ये मां—बाप
समझाते हैं।
मुहल्ले भर
में जो देखो
वही समझाता है।
डॉक्टर
समझाते हैं। जहां
ले जाते हैं, वहीं लोग
समझाते हैं—
भई, छोड़ो
यह बात। कहां
की मक्खी! अगर
घुस भी गयी
होगी, तो मर—मरा
गयी होगी। कोई
ऐसे भनभना
सकती है अंदर!
मगर मैं क्या
करूं! भनभनाती
है। मक्खी
मानती नहीं—मैं
मान भी लूं तो
क्या होता है!'
मैंने
कहा,
'तुम बिलकुल
ठीक कहते हो।
मक्खी अंदर
घुसी है। जब
तक निकाली न
जाये, कुछ
हो नहीं सकता।
तो तुम लेट जाओ।
आंख
पर मैंने उसकी
पट्टी बांध दी।
और मैं भागा......
पूरे घर में
खोजबीन की कि
किसी तरह एक
मक्खी पकड़ लूं।
बामुश्किल एक
मक्खी पकड़
पाया। उसकी
पट्टी खुलवाई।
उसको मक्खी
दिखायी। उसने
कहा,
'अब यह कोई
बात हुई!' अपने
बाप से बोला, 'देखो, अब
यह मक्खी कहां
से निकली? कहां
गये वे एक्स—रे!'
मैंने
उनके बाप को, मां
को कहा था कि 'तुम बिलकुल
चुप रहना। यह
मत कहना कि
मैंने मक्खी
पकड़ी!....... इसके
भीतर से
निकाली है।’ उन्होंने
कहा, ' भई
हमें माफ करो।
हमसे गलती हुई।
तुम ठीक थे; हम गलत थे।’
उसने
कहा,
'लाइये
मक्खी; मुझे
दीजिये। मैं
अपने उन सबको
दिखाने जाऊंगा।......
अब बिलकुल
सन्नाटा है, न कोई
भनभनाहट, अब
है ही नहीं
मक्खी भीतर!' वह खुद ही
कहने लगा कि 'जब मक्खी
भीतर है ही
नहीं, निकल
गयी......। यह रही
मक्खी, तो
बात खत्म हो
गयी।’
तब
से वह ठीक हो
गया। तब से वह
स्वस्थ हो गया।
एक
भावना गहन हो
जाए तो जरूर
उसके परिणाम
होने शुरू
होंगे।
परिणाम सच्चे
हो सकते हैं।
यह रुस हुआ जा
रहा था; दीन
हुआ जा रहा था,
हीन हुआ जा
रहा था। बात
झूठी थी, मगर
परिणाम तो सच
हो रहे थे।
जैसे
कि कोई रस्सी
में सांप को
देखकर भाग खड़ा
हो। गिर पड़े।
फिसल जाये, तो
हड्डी टूट
जाये। टूटना
तो सच है, मगर
रस्सी में
सांप झूठ था।
और यह भी हो
सकता है कि
हार्ट अटैक हो
जाये। भाग खड़ा
हो जोर से, वजनी
शरीर हो; गिर
पड़े। हार्ट
अटैक हो जाए।
घबड़ा जाए। मर
भी सकता है
आदमी—उस सांप
को देखकर, जो
था ही नहीं!
मगर
इसको दिखाई
पड़ा। इसको
दिखाई पडा, बस,
उतना
पर्याप्त है
इसके लिए। हालांकि
इसने भ्रांति
कर ली थी।
कल्पना कर ली
थी। इसके भीतर
से ही आरोपित
हुआ था।
यह
सूत्र सारे
धर्मों को
भ्रष्ट किया
है। इस तरह के
सूत्रों ने ही
आदमी को गलत
रास्ते पर लगा
दिया है।’बस
भावना करो!'
भावना
से तुम जरूर
परिणाम लाने
शुरू कर दोगे।
अगर तुमने
भावना की मजबूती
से....... तो परिणाम
आने शुरू हो
जायेंगे।
लेकिन
भावना चूंकि
झूठ है, इस
लिए कभी भी
फिसल सकती है।
तुम जो मकान
बना रहे हो, उसकी कोई
बुनियाद नहीं
है। तुम रेत
पर महल खड़ा कर
रहे हो, जो
गिरेगा—बुरी
तरह गिरेगा।
और ऐसा गिरेगा
कि तुम्हें भी
चकनाचूर कर
जाएगा।
मैं
तुम्हें
भावना करने को
नहीं कहता, सहजानंद!
मैं तो कहता
हूं :
निर्विचार हो
जाओ, निर्भाव
हो जाओ, निर्विकल्प
हो जाओ। सब
भावना को जाने
दो। सब विचार
को जाने दो।
शून्य हो जाओ।
शून्य ही
ध्यान है।
निर्विचार ही
ध्यान है। और
तब जो है, वह
दिखाई पड़ेगा।
जब तक विचार है,
तब तक कुछ
का कुछ दिखाई
पड़ता रहेगा।
विचार विकृत
करता है।
विचार बीच में
आ—आ जाता है।
विचार
के कारण
तुम्हें कुछ
का कुछ दिखाई
पड़ने लगता है।
जो नहीं है, वह
दिखाई पडने
लगता है। जो
है, वह
नहीं दिखाई
पड़ता। तुम
खयाल करो, उपवास
कर लो दो दिन
का, और फिर
बाजार में चले
जाओ। उपवास के
बाद तुमको
बाजार में
सिर्फ होटलें,
रेस्टारेंट,
चाय की
दुकानें, भजिये
की गंध—इसी
तरह की चीजें
एकदम दिखाई
पड़ेगी, जो
कभी नहीं
दिखाई पडती
थीं। क्योंकि
दो दिन का
उपवास
तुम्हारे
भीतर की मनोदशा
बदल देगा। अब
भोजन ही भोजन
दिखाई पडेगा।
जर्मनी
के प्रसिद्ध
कवि हाइन ने
लिखा है कि एक
दफा जंगल में तीन
दिन के लिए
भटक गया। गया
था शिकार को, रास्ता
भूल गया।
साथियों से
छूट गया। तीन
दिन भूखा रहा।
और जब तीसरे
दिन रात
पूर्णिमा का
चांद निकला, तो मैं चकित
हुआ कि जिस
दिन चांद में
मुझे हमेशा
अपनी प्रेयसी
का चेहरा दिखाई
पड़ता था, वह
बिलकुल दिखाई
नहीं पड़ा।
मुझे दिखाई
पड़ी एक सफेद
रोटी आकाश में
तैर रही है!
चांद में रोटी
दिखाई पड़ी!
किसी को चांद
में रोटी
दिखाई पड़ी? भूखे को
दिखाई पड़ सकती
है। तीन दिन
से जो' भूखा
है, उसको
चांद एक सफेद
रोटी की तरह
तैरता हुआ
मालूम होगा।
अब कहा की
सुंदर स्त्री
वगैरह! भूखे
आदमी को क्या
करना है सुंदर
स्त्री से!
इसीलिए तो
उपवास का इतना
प्रभाव बढ़ गया।
उपवास तरकीब
है वासना को
दबाने की। जब
तुम भूखे
रहोगे—इक्कीस
दिन अगर भूखे
रहोगे, स्त्री
वगैरह सब भूल
जाएंगी।
स्त्री को
देखने के लिए
स्वस्थ शरीर
चाहिए। पुरुष
को देखने के
लिये स्वस्थ
शरीर चाहिये।
यह
तरकीब हाथ में
लग गयी
धार्मिकों के, कि
अपने को
बिलकुल भूखा
रखो, अपनी
ऊर्जा को
क्षीण कर लो—इतनी
क्षीण कर लो
कि बस, जीने
योग्य रह जाए।
जरा भी ज्यादा
न हो पाये।
जरा ज्यादा
हुई कि तो फिर
खतरा है। फिर
वासना उभर
सकती है। मगर
इससे कोई
वासना से
मुक्त नहीं
होता। यह
सिर्फ दमन है।
यह भयंकर दमन
है।
उपवास
तरकीब है दमन
की। भूखा आदमी
भूल ही जायेगा।
भूखे को सिर्फ
रोटी दिखाई
पड़ती है—और
कुछ नहीं
दिखाई पड़ता।
भरे पेट आदमी
को बहुत कुछ
दिखाई पड़ने
लगता है—जो
भूखे को नहीं
दिखाई पड़ता।
और जब तुम्हारे
जीवन की सब
जरूरतें पूरी
हो जाती है, तब
तुम्हें कुछ
और दिखाई पड़ना
शुरू होता है—जो
जरूरतों के
रहते नहीं
दिखाई पड़ सकता।
जरूरतें
जब तक हैं, तब
तक जरूरतें
बीच में आती
है। इस बात को
खयाल में लो
सहजानंद!
तुम्हें नाम मैंने
दिया सहजानंद!
सहज का अर्थ
होता है, जो
है ही, उसको
जानना है। उसे
भावित नहीं
करना है। उसे
कल्पित नहीं
करना है। उसके
लिए यत्न भी
नहीं करना है।
सहज है!
धर्म
सहज है, क्योंकि
धर्म स्वभाव
है। है ही
हमारे भीतर।
परमात्मा
तुम्हारे
भीतर
विराजमान है।
तुम जरा अपने
विचार एक तरफ
हटाकर रख दो।
तुमसे
कहा गया है—विश्वास
करो। मैं
तुमसे कहता
हूं—विश्वास
छोड़ो।
क्योंकि
विश्वास एक
विचार है। और
विचार अगर
सतत् करोगे, तो
वैसा दिखाई
पड़ने लगेगा।
मगर वैसा होता
नहीं। सिर्फ
तुम्हें
दिखाई पड़ता है;
तुम्हारी
भांति है; तुम्हारी
कल्पना है। और
कल्पना सुंदर
हो सकती है, प्यारी हो
सकती है, मधुर
हो सकती है।
तुमने मीठे
सपने देखे
होंगे।
सुस्वादु
सपने देखे
होंगे। लेकिन
सपना सपना है।
जागोगे—टूट
जायेगा।
सपने
देखने के लिए
ही लोग जंगलों
में भागे; उपवास
किया।
क्योंकि यह
मनोवैज्ञानिक
सत्य है आज—वैज्ञानिक
रूप से
प्रमाणित—कि
आदमी को अकेला
छोड़ दो, तीन
सप्ताह में, उसकी कल्पना
बहुत प्रखर हो
जाती है।
क्यों? क्योंकि
जब दूसरों के
साथ रहता है, तो दूसरों
की मौजूदगी
उसे
कल्पनाशील
नहीं होने
देती। उसे
बिठा दो
हिमालय की एक
गुफा में।
क्या करेगा
बैठा—बैठा!
सिर्फ कल्पना
करेगा। और तो
कुछ करने को
बचा नहीं। और
यथार्थ से
उसके सारे
संबंध छूट
जाएंगे।
यथार्थ से तो
भाग आया वह।
अब एकांत में
बैठा—बैठा
कल्पना करता
रहेगा। अपने
से ही बातें
करने लगेगा
धीरे— धीरे।
तुमने
देखा होगा
पागलखानों
में जाकर, पागल
अपने से ही
बातें करते
रहते हैं! तुम
उनको पागल
कहते हो। और
उसको तुम धार्मिक
कहते हो, जो
ईश्वर से
बातें कर रहा
है! कहां का
ईश्वर? कल्पित!
लेकिन वह
ईश्वर से
बातें कर रहा
है! खुद ही वह
बोलता है, खुद
ही जवाब देता
है। यह एकांत
में संभव है।
एकांत
हो—और भूखा हो—ये
दो चीजें अगर
तुम पूरी कर
लो,
तो
तुम्हारी कोई
भी कल्पना सच
मालूम होने
लगेगी। लेकिन
यहै अपने को
धोखा देने का
उपाय है। धर्म
नहीं है—आत्मवचना
है।
यह
सूत्र इस
लिहाज से
महत्वपूर्ण
है कि इस सूत्र
में सारे धर्म
का धोखा आ गया
है। न यथा
यत्ने नित्यं
यदभावयति
तन्मय:।
मनुष्य नित्य
जैसा यत्न
करता है, तन्मय
होकर जैसी
भावना करता है,
वैसा ही हो
जाता है।’ यादृगिच्छेच्च
भवितु
तादृग्भवति
नान्यथा।.......
वैसा ही हो
जाता है
अन्यथा नहीं।
और मन की
भावना का बड़ा
प्रभाव है कुछ
चीजों पर।
शरीर पर तो
बहुत प्रभाव
है। तुम एक
छोटा सा
प्रयोग करके
देखो। अपने
हाथों को
बांधकर बैठ
जाओ।
अंगुलियों को
अंगुलियों में
फंसा लो। दस
आदमी बैठ जाओ,
अंगुलियों
को अंगुलियों
में फंसाकर और
दसों दोहराओ 'कि अब हम
कितना ही उपाय
करें, तो
भी हम हाथ को
खोल न सकेंगे।’
यह छोटा—सा
प्रयोग है, जो कर्हे भी,
कभी भी कर
सकता है।’हम
कितनी भी
कोशिश करें, हाथ को हम
खोल न सकेंगे।
लाख कोशिश
करें, हाथ
को हम खोल न
सकेंगे।’ दस
मिनट तक यह
बात दोहराते
रहो, दोहराते
रहो, दोहराते
रहो। और दस
मिनट के बाद
पूरी ताकत
लगाकर हाथ को
खोलने की
कोशिश करना।
तुम हैरान हो
जाओगे! दस में
से कम से कम
तीन आदमियों
के हाथ बंधे
रह जाएंगे। वे
जितना
खींचेंगे, उतनी
ही मुश्किल में
पड़ जायेंगे।
पसीना—पसीना
हो जायेंगे, हाथ नहीं
खुलेंगे।
तीस
प्रतिशत, तैंतीस
प्रतिशत
व्यक्ति
सम्मोहन के
लिए बहुत ही
सुविधा पूर्ण
होते हैं।
तैतीस
प्रतिशत
व्यक्ति बड़े
जल्दी
सम्मोहित हो
जाते हैं। और
यही सम्मोहित
व्यक्ति
तुम्हारे
तथाकथित धार्मिक
व्यक्ति बन
जाते हैं। ये
ही तुम्हारे
संत! ये ही
तुम्हारे
फकीर! इनके
लिये कुछ भी
करना आसान है।
जब अपना ही
हाथ बांध लिया,
खुद ही
भावना कर के
और अब खुद ही
खोलना चाहते हैं,
नहीं खुलता।
और एक मजा है :
जितनी वे
कोशिश करेंगे
और नहीं खुलेगा,
उतनी ही यह
बात गहरी होती
जायेगी कि अब
मुश्किल हो
गयी। हाथ तो
बंध गये, अब
नहीं
खुलनेवाले।
घबड़ा जाएंगे।
हाथ को खोलने
के लिए अब
इनके पास कोई
उपाय नहीं है।
अब हाथ को
खोलने के लिए
इनको पूरी
प्रक्रिया को
दोहराना
पड़ेगा।
अब
इनको
खींचातानी
बंद करनी
चाहिए। अब
इनको फिर दस
मिनट तक सोचना
चाहिए कि 'जब
मैं हाथ
खोलूंगा; तो
खुल जाऐंगे।’
खुल
जायेंगे—जरूर
खुल जायेंगे।
दस मिनट तक यह
पुन: भाव करें—खींचे
नहीं; खींचेंगे,
तो मुश्किल
हो जायेगी, क्योंकि
खींचने से
सिद्ध होगा
नहीं खुलते हैं।’नहीं खुलते
हैं'—तो
नहीं खुलने की
बात और मजबूत
होती चली
जायेगी कि
नहीं खुल सकते
हैं। अब मैं
कुछ भी करूं, नहीं खुल
सकते हैं।
खींचें
न। अब तो
बैठकर सोचें
वही,
जो पहले
सोचा था उससे
उल्टा, कि
अब मैं जब
खोलूंगा दस
मिनट के बाद, तो बराबर
खुल जाएंगे; निश्चित खुल
जाएंगे। कोई
संदेह नहीं; खुल जायेंगे।
तब इनके दस
मिनट के बाद
हाथ खुलेंगे।
तुम प्रयोग
करके देख सकते
हो। दस
मित्रों को
इकट्ठा कर के
बैठ जाओ।
तुमने शायद
कभी सोचा न हो
कि तुम भी उन
तैंतीस प्रतिशत
में एक हो
सकते हो। इस
तरह का आदमी
किसी भी तरह
की बीमारियों
के जाल में
फंस सकता है।
मेडिकल कालेज
में यह अनुभव
की बात है कि विद्यार्थी
जिस बीमारी के
संबंध में
पढ़ते हैं, बहुत'
से
विद्यार्थियों
को वही बीमारी
होनी शुरू हो
जाती है। जब
वे पेट—दर्द
के संबंध में
पढ़ेंगे और
उनको मरीजों
के पेट—दर्द
दिखाये
जायेंगे, और
उनके पेट की
जांच करवायी
जाएगी—अनेक
विद्यार्थियों
के पेट गड़बड़
हो जायेंगे।
वे कल्पित
करने लगते हैं
कि ' अरे, कहीं वैसा
ही दर्द मुझे
तो नहीं हो
रहा है!' अपना
ही पेट दबा—दबाकर
देखने लगते
हैं! और जब पेट
को दबायेंगे,
तो कहीं न
कहीं दर्द हो
जायेगा।
अहसास होगा कि
दर्द हो रहा
है। घबड़ाहट
शुरू हो
जायेगी।
मेडिकल
कालेज में यह
आम अनुभव की
बात है कि जो बीमारी
पढायी जाती है, वही
बीमारी फैलनी
शुरू हो जाती
है विद्यार्थियों
में। सूफियों
में एक कहानी
है : जुन्नैद
नाम का फकीर.......।
जुन्नैद
प्रसिद्ध
फकीर मैसूर का
गुरु था, गांव
के बाहर एक
झोपडे में
रहता था, बगदाद
के बाहर।
कहानी बड़ी
प्यारी है।
कहानी ही है, ऐतिहासिक तो
हो नहीं सकती,
मगर बडी
मनोवैज्ञानिक
है।
एक
दिन उसने देखा
कि एक काली
छाया बड़ी तेजी
से बगदाद में
जा रही है।
दरवाजे के
बाहर ही उसका
झोपड़ा था नगर
के। उसने कहा, 'रुक!
कौन है तू?' तो
उस काली छाया
ने कहा, 'मै
मौत हूं। और
क्षमा करें, बगदाद में
मुझे पांच सौ
व्यक्ति मारने
हैं।’ फकीर
ने कहा, 'जो
उसकी मर्जी।’
मौत अंदर
चली गयी।
पंद्रह दिन के
भीतर पांच सौ
नहीं, पांच
हजार आदमी मर
गये! फकीर बड़ा
हैरान हुआ कि पांच
सौ कहे थे, और
पांच हजार मर
चुके!
जब
मौत वापस लौटी
पंद्रह दिन के
बाद,
तो उसने कहा,
'रुक।
बेईमान! मुझसे
झूठ बोलने की
क्या जरूरत
थी! कहा पांच
सौ और मार
डाले पांच हजार!'
उसने कहा, ' क्षमा करें!
मैंने पाच सौ
ही मारे। बाकी
साढ़े चार हजार
अपने आप मर
गये। मैंने
नहीं मारे। वे
तो दूसरों को
मरते देखकर मर
गये!'
जब
महामारी
फैलती है, तो
सभी लोग
महामारी से
नहीं मरते।
कुछ तो देखकर
ही मर जाते
हैं! इतने लोग
मर रहे हैं, मैं कैसे बच
सकता हूं!
इतने लोग
बीमार पड़ रहे
हैं, मैं
कैसे बच सकता
हूं!
तुमने
एक मजे की बात
देखी कि
डॉक्टर दिनभर
लगा रहता है
मरीजों की
दुनिया में और
नहीं मरता।
बीमारी—और
बीमारी के बीच
पड़ा रहता है
और इसको
बीमारी नहीं
पकड़ती। और तुम्हें
बीमारी पकड़
जाती है! छूत
की बीमारी! एकदम
तुम्हें छू
जाती है। और
डॉक्टर दिनभर
न मालूम किस—किस
तरह के मरीजों
का पेट दबा
रहा है; हाथ
देख रहा है।
नब्ज पकड़ रहा
है। इंजेक्शन
लगा रहा है।
और बीमारी
नहीं पकड़ती!
और तुम्हें
बीमारी पकड़
जाती है।
तुम्हारा भाव,
बस, तुम्हें
पकड़ा देता है।
यह
देखकर भी
तुम्हें खयाल
में आता होगा
कि डॉक्टरों
में तुम एक
तरह की सख्ती
पाओगे। तुम
लाख रोओ— धोओ; तुम्हारी
पत्नी बीमार
पड़ी है, तुम
लाख रोओ—धोओ
और तुम्हें
लगेगा कि
डॉक्टर
बिलकुल उदासीन
है। उसको
उदासीन होना
पड़ता है, नहीं
तो वह कभी का
मर चुके। उसको
उदासीनता
रखनी पड़ती है,
सीखनी पड़ती
है। वह उसके
व्यवसाय का
अंग है, अनिवार्य
अंग है। उसको
एक उदासीनता
की पर्त ओढ़नी
पड़ती है।
अब
यहां तो रोज
ही कोई मर रहा
है। कोई
तुम्हारी
अकेली पत्नी
मर रही है! रोज
कोई मरता है।
न मालूम कितने
बीमार आते
हैं! यहां अगर
हर एक की
बीमारी से वह आंदोलित
होने लगे, तो
वह खुद ही मर
जाये। कभी का
मर जाये! तो वह
धीरे— धीरे
कठोर हो जाता
है। उसके
चारों तरफ एक
पर्त गहरी हो
जाती है, जिस
पर्त को पार
कर के कीटाणु
भी प्रवेश
नहीं कर सकते।
डॉक्टर
तुम्हें कठोर
मालूम होगा।
नर्सें
तुम्हें कठोर
मालूम होंगी।
और तुम्हें
लगता है कि यह
बात तो ठीक
नहीं! डॉक्टर
को तो दयावान
होना चाहिए।
नर्सों को तो
दयावान होना
चाहिए। होना
तो चाहिए मगर
वे बचेंगे
नहीं। उनके
बचने का एक ही
उपाय है कि थीडी—सी
कठोरता रखें।
वे अप्रभावित
रहें। कौन मरा, कौन
जीया...... यूं
समझें कि
फिल्म में
कहानी देख रहे
हैं। कुछ लेना—देना
नहीं। साक्षी—
भाव रखें, तो
ही जिंदा रह
सकते हैं।
नहीं तो जिंदा
रहना असंभव है।
उनको भी जीना
है, और
उनके लिए यह
अनिवार्य है
कि वे एक
कठोरता का कवच
ओढ़ लें।
यह
सूत्र
अर्थपूर्ण है
इस दृष्टि से
कि इसी सूत्र
के कारण सारे
धर्म गलत हो
गये हैं। मेरा
यहां प्रयास
यही है कि
तुम्हें इस
सूत्र से ऊपर
उठाऊं। मेरी
घोषणा समझो।
मैं
कह रहा हूं कि
तुम्हारा
स्वभाव
पर्याप्त है।
तुम्हें कुछ
और होना नहीं
है। इसलिए
यत्न क्या
करना है!
भावना क्या
करनी है! तुम
हो। तुम्हें
जो होना चाहिए
वह तुम हो ही।
तुम्हें अपने
भीतर जागकर
देखना है कि
मैं कौन हूं।
कुछ होना नहीं
है। जो हो, उसको
ही पहचानना है।
आत्म—परिचय
करना है।
आत्मज्ञान
करना है।
आत्मज्ञान
के लिए भावना
की जरूरत नहीं, विचारण
की जरूरत नहीं,
यत्न की
जरूरत नहीं।
आत्मज्ञान के
लिए
निर्विचार होना
है; प्रयत्नशन्य
होना है।
दौड़ना नहीं, बैठना है।
भागना नहीं, ठहरना है। न
शरीर में कोई
क्रिया रह
जाये, न मन
में कोई किया
रह जाये।
दोनों निष्कि्रय
हो जायें। बस,
ध्यान का
सरगम बज उठेगा।
चित्त
में विचार
नहीं, देह में
क्रिया नहीं—उसी
अक्रिया की
अवधि में
तुम्हारे
भीतर जो पड़ा
है हीरा—दमक
उठेगा। जो
सूरज छिपा है—उघड़
आयेगा।
बदलियों में
छिपा है, प्रगट
हो जायेगा; क्षितिज के
ऊपर उठ आयेगा।
तुम आलोक से
भर जाओगे। और
यह कोई बाह्य
उपलब्धि नहीं
है। यह
तुम्हारी
निजता है, तुम्हारा
स्वभाव है!
तुम्हारा
स्वभाव ही तुम्हारी
सहजता है।
इस
सहजता में ही
आनंद है, सहजानंद!
आज
इतना ही।
'ज्यू
था त्यूं
ठहराया' प्रवचनमाला
से
दिनांक 18
सितम्बर 1980; श्री
रजनीश आश्रम, पूना
thank you guruji
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