प्रश्नसार:
1—भगवान!
दुनिया के
कोने-कोने से
सारे
संवेदनशील
लोग आपके पास खिंचे चले
आ रहे हैं। पर
आश्चर्य होता
है कि कृष्णमूर्ति, विनोबा, जयप्रकाश
तथा कृपलानी
जैसे
साधु-पुरुषों
तक आपकी आवाज
क्यों नहीं पहुंच
पाती है? वे
क्यों नहीं
अनुभव कर पाते
हैं कि यहां
पूना में वह
व्यक्ति
मौजूद है
जिसके पास
मनुष्यता की
मूल व्याधि की
औषधि है?
2—सभ्यता,
संस्कृति और संगठित
धर्म निन्यानबे
प्रतिशत आचरण है, अनुकरण है,
फिर
धर्म क्या है?
3—मेरी
जिंदगी किसी के
काम आ जाए
कौन
जाने मौत का पैगाम
आ जाये।
पहला
प्रश्न:
भगवान!
दुनिया के
कोने-कोने से
सारे
संवेदनशील
लोग आपके पास खिंचे चले
आ रहे हैं। पर
आश्चर्य होता
है कि कृष्णमूर्ति, विनोबा, जयप्रकाश
तथा कृपलानी
जैसे
साधु-पुरुषों
तक आपकी आवाज
क्यों नहीं पहुंच
पाती है? वे
क्यों नहीं
अनुभव कर पाते
हैं कि यहां
पूना में वह
व्यक्ति
मौजूद है
जिसके पास
मनुष्यता की
मूल व्याधि की
औषधि है?
आनंद
अरुण!
कृष्णमूर्ति
को पूरा बोध
है, क्योंकि
वे वहीं हैं
जहां मैं हूं।
मेरी और उनकी
चेतना में जरा
भी भेद नहीं
है। इसीलिए
पास आने की
कोई जरूरत
नहीं है। न
मेरे उनके पास
जाने की कोई
आवश्यकता है,
न उनको मेरे
पास आने की
कोई आवश्यकता
है। इतना
द्वैत भी नहीं
है कि पास आया
जा सके या दूर
रहा जा सके।
पास आना और
दूर जाना दुई
के संबंध हैं,
भेद के
संबंध हैं।
जहां अभेद है,
वहां ऐसे
संबंध का कोई
उपाय नहीं है।
मैं वही कर
रहा हूं, जो
वे कर रहे
हैं। वे वही
कर रहे हैं, जो मैं कर
रहा हूं। एक
ही काम के दो
पहलू हैं। मैं
अपने ढंग से
करूंगा, वे
अपने ढंग से
करेंगे।
ढंगों में भेद
हो सकता है, लक्ष्यों
में भेद नहीं
है।
कृष्णमूर्ति
प्रज्ञा-पुरुष
हैं, जाग्रत बुद्ध-पुरुष
हैं। ऐसा तो
असंभव है कि
उन तक मेरी
आवाज न
पहुंचे।
पहुंच गई है, पहुंच रही
है। क्योंकि
उन तक आवाज न
पहुंचे, तो
फिर किसी तक न
पहुंच सकेगी।
कृष्णमूर्ति
मुझे न समझ
सकें, तो
कोई भी न समझ
सकेगा। उनकी
आवाज मुझ तक
पहुंचती रही
है, पहुंच
रही है। ये
आवाजें दो
कंठों से
निकलती हों, लेकिन दो
प्राणों से
नहीं निकल रही
हैं, एक ही
प्राण से निकल
रही हैं।
यह
जानकर
तुम्हें
आश्चर्य होगा
कि बुद्ध और महावीर
एक ही समय में
जीए—एक ही
स्थान, बिहार
में। बहुत बार
ऐसे मौके आए
जब एक ही गांव
में ठहरे, पर
मिले नहीं। और
एक बार तो ऐसा
हुआ कि एक ही
धर्मशाला में
दोनों का आवास
हुआ, फिर
भी मिले नहीं।
सदियां इस पर
विचार करती रही
हैं। और जो भी
विचार अब तक
हुआ है, भ्रांत
है। जैन सोचते
हैं कि इसलिए
नहीं मिले कि
महावीर तो
प्रज्ञा-पुरुष
थे, अभी
बुद्ध
प्रज्ञा-पुरुष
नहीं हुए थे; इसलिए
महावीर बुद्ध
से मिलने
क्यों जाएं, कैसे जाएं? प्रज्ञा-पुरुष
क्यों मिलने
जाएगा
अज्ञानी से? और बुद्ध
अज्ञानी थे, इसलिए
अहंकारी थे, इसलिए
अहंकार के
कारण नहीं जा
सके। ठीक ऐसा
ही बौद्ध भी
सोचते हैं कि
बुद्ध तो
पहुंचे हुए पुरुष
थे, वे
क्यों जाएंगे?
और महावीर
को तो अभी कुछ
पता नहीं था, इसलिए अपने
अहंकार में अकड़े रहे।
मेरा
देखना कुछ और
है, मेरी
दृष्टि कुछ और
है। पच्चीस सौ
साल में जो विचार
हुआ है, उससे
भिन्न है, बिलकुल
भिन्न है।
महावीर और
बुद्ध भिन्न
नहीं थे कि
एक-दूसरे के
पास जाएं, इसलिए
पास जाने का
सवाल नहीं
उठा। दो शून्य
अगर पास आ भी
जाएं तो क्या
पास आएगा? दो
शून्य मिलकर
एक ही शून्य
हो जाता है। शून्यों
के साथ हमारा
सामान्य गणित
काम नहीं
करता। एक और
एक को मिलाओ
तो दो होते
हैं। दो और दो
को मिलाओ
तो चार होते
हैं। लेकिन दो
शून्यों
को मिलाओ
तो एक शून्य
हो जाता है।
हजार शून्यों
को मिलाओ
तो भी एक
शून्य हो जाता
है। अनंत शून्यों
को मिलाओ
तो भी एक ही
शून्य होता
है। जो समाधि
को उपलब्ध हो
गया, वह
शून्य हो गया।
नहीं मिले
बुद्ध और
महावीर एक ही
धर्मशाला में
रहकर भी, क्योंकि
मिलने का कोई
प्रयोजन ही
नहीं था, अर्थ
ही नहीं था।
एक के ही
इशारे पर चल
रहे थे। एक-सा
ही फूल खिला
था—एक ही फूल
खिला था!
तो
कृष्णमूर्ति
और मेरे बीच
तो कोई भेद
नहीं। और ऐसा
भी हुआ है कि
कभी हम दोनों
एक ही गांव में
रहे हैं। और
ऐसा भी हुआ है
कि कभी एक ही
मुहल्ले में
ठहरे हैं। पर
मिलने का कोई
कारण नहीं है।
मिलने में कोई
अर्थ भी नहीं
है। मिले ही
हुए हैं, तो
मिलना कैसा?
इसलिए, कृष्णमूर्ति
को, ऐसा मत
सोचना कि बोध
नहीं है; या
जो काम यहां
हो रहा है, उसका
कोई स्मरण
नहीं है।
पूरा-पूरा
स्मरण है, पूरा-पूरा
बोध है।
यद्यपि हमारे
ढंग इतने भिन्न
हैं कि
कृष्णमूर्ति
इस संबंध में
कुछ कह नहीं
सकते, मैं
कह सकता हूं
कृष्णमूर्ति
के संबंध में।
मेरे ढंग में
वह बात समाहित
है।
मैं
बुद्ध पर बोल
सकता हूं, महावीर पर
बोल सकता हूं,
कृष्ण पर, क्राइस्ट पर,
लाओत्सु पर,
कबीर पर, नानक पर, वाजिद
पर। मेरे काम
का ढंग सारे
जगत के प्रज्ञापुरुषों
ने जो कहा है, उसकी एक
गंगा बना देना
है।
कृष्णमूर्ति
का काम अलग
है। उन्होंने
कभी भूल से भी
महावीर का नाम
नहीं लिया, न लाओत्सु
का, न
कृष्ण का। वे
दूसरे का नाम
ही नहीं लेते।
वे उतना ही
कहते हैं
जितना उन्हें
कहना है, उससे
भिन्न जरा भी
नहीं। बस वे
अपनी ही कहते
हैं। यद्यपि
वे जो कहते
हैं, वह
वही है जो
बुद्ध ने कहा
है, जो
कृष्ण ने कहा
है। उसमें जरा
भी भेद नहीं
है। लेकिन
कृष्णमूर्ति
के काम करने
का ढंग वह नहीं
है। उनके काम
करने का ढंग
है—उनके निज
में जो
उत्पन्न हुआ
है, उसको
ही कह देना।
मेरे काम करने
का ढंग ऐसा है कि
जो मेरे भीतर
हुआ है उसके
माध्यम से, समस्त
इतिहास में
जब-जब यह घटना
घटी है, मैं
उस सब का
साक्षी हो
जाना चाहता
हूं। मेरा काम
समग्र अतीत को
इस क्षण में
पुकार लेना
है। उनका काम
केवल इसी क्षण
को
अभिव्यक्ति
देना है।
दोनों सुंदर
हैं। दोनों के
अपने लाभ, अपनी
हानियां हैं।
इसलिए
कृष्णमूर्ति
मेरे संबंध
में नहीं बोल
सकते; मैं
उनके संबंध
में बोल सकता
हूं। मेरे लिए
पूरा खुला
आकाश है। मुझ
पर कोई
नियंत्रण, कोई
सीमा नहीं है।
वे सिर्फ अपनी
ही बात कहते हैं।
मेरी
बात का एक लाभ
है कि हिंदू आ
सकता है, मुसलमान
आ सकता है, ईसाई
आ सकता है; जरा
भी अड़चन नहीं
है। इस मंदिर
के सारे द्वार
हैं। सारे
द्वार मैंने
इस मंदिर में
इकट्ठे कर लिए
हैं। यह एक
महान समन्वय
का प्रयास है।
लेकिन इसका एक
खतरा है।
क्योंकि मैं
इतने विभिन्न
प्रज्ञा-पुरुषों
पर बोल रहा
हूं, जो
ठीक से नहीं
समझेंगे, जो
हृदय से नहीं
सुनेंगे, उनके
चित्त में बड़े
भ्रम पैदा हो
जाएंगे—कौन
ठीक, कौन
गलत? क्या
ठीक, क्या
गलत? वे
डांवाडोल
होने लगेंगे।
जो बुद्धि से
ही मुझे
सुनेंगे, वे
विक्षिप्त
होने लगेंगे।
इसलिए
जो बुद्धि से
सुनता है, ज्यादा देर
मेरे पास टिक
नहीं सकता!
उसे कठिनाई
होने लगेगी।
उसे विरोध दिखाई
पड़ने लगेगा
मेरे
वक्तव्यों
में। स्वभावतः,
जब मैं
महावीर पर
बोलूंगा, तो
मैं महावीर के
साथ पूरी
ईमानदारी
बरतूंगा।
महावीर बुद्ध
से बिलकुल
विपरीत ढंग से
काम करते हैं।
और जब बुद्ध
पर बोलूंगा तो
बुद्ध के साथ
पूरी
ईमानदारी
बरतूंगा। तो
मेरे वक्तव्य
विरोधाभासी
हो जाएंगे। जो
बुद्धि से
सुनेगा, वह
तो मुश्किल
में पड़ जाएगा।
वह तो कहेगा
कि मेरे
वक्तव्य
असंगत हैं, विरोधी हैं,
एक-दूसरे का
खंडन करते
हैं।
मेरे
वक्तव्यों
में कोई एक
सिद्धांत
नहीं है। जो
सिद्धांत पकड़ने
आया है, वह
तो चला जाएगा।
मैं तो सारे
सिद्धांतों
का सार बोल
रहा हूं। इस
सार को हृदय
से ही समझा जा
सकता है। यह
मेरी विधि भी
है—उनको अलग
कर देने की, जो हार्दिक
नहीं हैं, भावुक
नहीं हैं। जो
केवल बुद्धि
का विचार लेकर
आ गए हैं, उनको
विदा कर देने
की मेरी यह
विधि भी है।
पर यह खतरा
उसमें है।
कृष्णमूर्ति
की बात में एक
सुविधा है, संगति है।
सुविधा यह है
कि सुनने वाले
को कभी ऐसा
नहीं लगेगा कि
कोई
विरोधाभास
है। पिछले पचास
वर्षों में
उन्होंने जो
कहा है, निश्चित
रूप से वही
कहा है, पचास
वर्ष सतत वही
कहा है।
विचार-सरणी
में जरा भी, रत्ती-भर
कोई विरोध
नहीं निकाल
सकता। यह तो
लाभ है कि
कृष्णमूर्ति
को सुनने वाला
सुस्पष्ट होता
जाएगा।
मगर एक
खतरा है, कृष्णमूर्ति
को सुनने वाला
बुद्धि में
अटका रह
जाएगा।
क्योंकि
सुस्पष्टता, सुसंगति
बुद्धि की
धारणाएं हैं।
उसे मौका ही नहीं
मिलेगा कि वह
सुसंगति, तर्कबद्धता,
विरोधाभास,
इनके पार उठ
सके। उसे समय
ही नहीं
मिलेगा कि वह
बुद्धि से
नीचे उतरे। उसकी
बुद्धि इतनी
तृप्त हो
जाएगी कि हृदय
तक जाने का
उसे कारण ही न
रह जाएगा। यह
खतरा है।
मेरी
बात का खतरा
है कि जो
बुद्धि में ही
हैं, वे आज
नहीं कल मुझे
छोड़ देंगे।
उन्हें छोड़ना
ही पड़ेगा। वे
मेरे साथ
ज्यादा देर
नहीं चल सकते,
कुछ कदम चल
सकते हैं। उन
कुछ कदमों में
अगर उन्होंने
हिम्मत कर ली
और बुद्धि से
नीचे उतर गए, गहरे उतर गए
और हृदय की
थाह ले ली, तो
मेरे साथ चल
पाएंगे। यह
खतरा हुआ कि
उनको जल्दी
मुझे छोड़ देना
होगा। लाभ यह
है कि अगर उन्होंने
हिम्मत रखी, तो बुद्धि
के अतीत हो
जाएंगे, बुद्धि
का अतिक्रमण
हो जाएगा!
कृष्णमूर्ति
के साथ सुविधा
यह है, लाभ
यह है कि
तुम्हारी
बुद्धि सदा
तृप्त रहेगी।
जो एक बार
उनके साथ चला,
चलता ही
रहेगा। उसे
छोड़ने का कोई
मौका न आएगा।
क्योंकि जिस
कारण वह साथ
हुआ था, उसके
विपरीत
कृष्णमूर्ति
कभी भी कुछ न
कहेंगे। वे
उसी को सिद्ध
करते रहेंगे
बार-बार, हजार
बार। उसकी
बौद्धिक
धारणा और
मजबूत होती चली
जाएगी। लेकिन
खतरा यह है कि
वह बुद्धि में
ही अटका रह
जाएगा, हृदय
तक कभी न
पहुंच पाएगा।
और तुम
पूछते हो, कृपलानी?
कृष्णमूर्ति
नहीं आ सकते
मेरे पास, आने की कोई
जरूरत नहीं
है।
कृष्णमूर्ति
धर्म-स्वरूप
हैं। कृपलानी
भी मेरे पास
नहीं आ सकते, आने की कोई
जरूरत नहीं है;
क्योंकि कृपलानी
शुद्ध
राजनीति हैं,
उनका धर्म
से कोई संबंध
नहीं है।
कृष्णमूर्ति
का धर्म से
इतना संबंध है,
धर्म में
प्रतिष्ठित
हैं, इसलिए
नहीं आ सकते। कृपलानी
इसलिए नहीं आ
सकते कि धर्म
से उनका कोई
लेना-देना
नहीं है। पूरी
जिंदगी
राजनीति में
गई है—दांव-पेंच
बिठाने में, मोहरे सजाने
में! शतरंज के खिलाड़ी
हैं! नब्बे
वर्ष के हो गए,
मगर अभी भी
रस वहीं अटका
है! अभी भी मौत
की आवाज उन्हें
सुनाई नहीं
पड़ी और न जीवन
के सत्य की
तलाश करने की
आकांक्षा उठी
है। अभी भी गोटियां
ही बिठाते
रहते हैं!
यद्यपि अब
राजनीति से बाहर
फेंक दिए गए
हैं, क्योंकि
इतनी उम्र! अब
बल भी नहीं है
वहां टिके
रहने का।
लेकिन जब भी
मौका मिल जाता
है, तो
बिना बुलाए भी
मेहमान हो
जाते हैं! जब
भी मौका मिल
जाए तो
राजनीति में
जितनी
दखलंदाजी कर
सकें, करना
चाहते हैं—और
बिना बुलाए
भी! रस उनका
राजनीति है।
और
मेरा काम तो
राजनीति से
बिलकुल
विपरीत है, अराजनैतिक है। इसलिए
यहां उनके आने
का कोई अर्थ
नहीं, न
प्रयोजन है, न सवाल है; न ही
राजनीतिज्ञों
का यहां कोई
स्वागत है। न ही
उनसे मेरा कोई
संबंध बन सकता
है। कोई सेतु नहीं
है मेरे और
उनके बीच।
इसलिए कृपलानी
भी नहीं आ
सकते। और उन
तक मेरी आवाज
पहुंच भी जाए,
तो उन्हें
सुनाई नहीं पड़
सकती। उनके
कान बहरे रहेंगे।
वे मेरी आवाज
सुन भी लें, तो उनकी समझ
में नहीं आ
सकती, क्योंकि
राजनीतिक के
पास समझ जैसी
चीज ही नहीं
होती। उसके
पास तो एक
अंधी
महत्वाकांक्षा
होती है, एक
अंधी
पद-लोलुपता
होती है, एक
लिप्सा होती
है अहंकार को
तृप्त करने
की। और धर्म
तो बिलकुल
विपरीत है। वह
अहंकार का विसर्जन
है।
इसलिए कृपलानी
से भी मेरा
कोई संबंध
नहीं बन सकता।
ऐसा नहीं कि
मेरा नाम उन
तक नहीं
पहुंचता है, कि मेरे काम
की खबर उन तक
नहीं पहुंचती
है। मेरे नाम
से और मेरे
काम से बचना
तो इस देश में
असंभव है। इस
देश में क्या,
दुनिया के
किसी देश में
बचना असंभव
है! सुबह नहीं
तो दोपहर, दोपहर
नहीं तो सांझ,
कहीं न कहीं
से खबर आ ही जाएगी।
और रोज यह खबर
बढ़ती जाएगी, क्योंकि
मैंने अपने
संन्यासियों
को कहा है कि
चढ़ जाओ घर की मुंडेरों
पर और चिल्लाओ
जोर से!
क्योंकि लोग
बहरे हैं, चिल्लाओगे
तो ही शायद
थोड़ा सुन
पाएं!
लेकिन
फिर भी कृपलानी
के यहां आने
की कोई
संभावना नहीं
है। बहुत देर
हो गई, वैसे
ही बहुत देर
हो गई। चिड़िया
चुग गई खेत!
जिंदगी-भर जो
राजनीति में
इस बुरी तरह
अटका रहा है, अब मरते
क्षण में
क्रांति की
संभावना न के
बराबर है।
तीसरा
तुम पूछते हो
विनोबा के
संबंध में और
चौथा
जयप्रकाश के
संबंध में।
कृष्णमूर्ति
को मैं कहता
हूं धर्म, कृपलानी को कहता हूं
राजनीति।
विनोबा—ऊपर-ऊपर
धर्म, भीतर-भीतर
राजनीति।
जयप्रकाश—ऊपर-ऊपर
राजनीति, भीतर-भीतर
धर्म।
विनोबा—ऊपर-ऊपर
धर्म, भीतर-भीतर
राजनीति।
उनका धर्म भी
उनकी राजनीति
की ही एक
व्यवस्था है।
विनोबा
धार्मिक व्यक्ति
नहीं हैं, धार्मिक
आडंबर हैं!
इसलिए मुझसे
मिलना चाहे थे;
लेकिन
राजनैतिक
आडंबर हैं, इसलिए मेरे
पास तो आ नहीं
सकते थे।
क्योंकि राजनीतिज्ञ
यह भी फिक्र
करता है, कौन
किसके पास
जाए! तो मेरे
पास लोग भेजते
थे। पटना में
ऐसा हुआ कि
विनोबा भी थे
और मैं भी था।
तीन दिन
निरंतर उनके
लोग आते रहे, बार-बार आते
रहे कि विनोबा
जी मिलने को
उत्सुक हैं।
मैंने उनसे
कहा: वे मिलने
को उत्सुक हैं
तो आएं; उनका
स्वागत है। तब
वे चुप हो
जाते। फिर
उन्होंने कहा
कि वे तो बूढ़े
हैं, तबीयत
भी ठीक नहीं
है; आप ही
चलें।
जो
विनोबा देश-भर
में चल रहा है
पैदल, उसको
पटना में ही
मेरे पास आने
में बीमारी है,
बुढ़ापा है, चल
नहीं सकते!
थोड़ा सोचते हो,
इसमें
कितना सार हो
सकता है इस
बात में? कोई
और के संबंध
में यह बात
होती, समझ
में भी आ
जाती।
पदयात्रा पर
जो निकले हैं पूरे
देश की, वे
पटना के ही एक
मुहल्ले से
दूसरे
मुहल्ले में
नहीं आ सकते!
तो
मैंने कहा कि
ठीक है, इतना
आग्रह है तो
मैं आता हूं।
तो मैं मिलने
गया। डेढ़
घंटा मुझे
जाने में खराब
हुआ, क्योंकि
एक पटना के
छोर पर मैं, एक पटना के
छोर पर वह। और
जो बातचीत हुई,
बिलकुल
व्यर्थ थी, दो कौड़ी
की थी।
कुशल-समाचार
पूछे। जैसे
लोग मिलते हैं
तो मौसम कैसा
है, तबीयत कैसी,
आप कैसे, सब ठीक। दोत्तीन
मिनट में बात
खत्म हो गई।
मुझे तो इस
बात में कोई
रस भी न था।
मैं थोड़ा
हैरान भी हुआ
कि अगर इतनी
ही बात पूछनी
थी, इतनी
ही बात करनी
थी, तो
व्यर्थ मुझे
परेशान क्यों
किया है? उन्होंने
कोई मुद्दे की
बात न छेड़ी,
क्योंकि
उनके सारे शिष्य
इकट्ठे थे।
अगर वह ध्यान
की बात मुझसे
पूछें तो
शिष्यों को शक
होगा। अगर वह
आत्मा-परमात्मा
की बात मुझसे
करें तो
शिष्यों को शक
होगा कि बाबा
को पता नहीं? दोत्तीन मिनट के बाद
ही सारी
बातचीत
समाप्त हो गई।
अब कुछ करने
को न रहा।
थोड़ी देर मैं
चुप बैठा रहा।
मैंने कहा:
फिर अब मैं
चलूं? वे
भी थोड़े बेचैन
हुए, उठकर
खड़े हुए मुझे
विदा करने को।
उनके एक शिष्य
ने तत्क्षण
कहा कि आप तो
बुजुर्ग हैं,
आप की तो
उम्र बहुत
ज्यादा है, आप क्यों
उठकर खड़े होते
हैं? और
जैसे ही उनके
शिष्य ने यह
कहा, उनका
तत्क्षण बैठ
जाना, बड़ा
हैरानी का था!
जैसे कि वह
बेमन से ही
खड़े हो गए हों!
जैसे प्रतीक्षा
ही कर रहे हों
कि कोई कह दे
कि बैठ जाओ! जैसे
इसकी राह ही
थी। ये
राजनीतिक
चित्त के लक्षण
हैं। इस चित्त
में धर्म जैसा
कुछ भी नहीं है,
धर्म का
आवरण है; छिपी
राजनीति चलती
है; ऊपर-ऊपर
धर्म की बात
चलती है। इसलिए
विनोबा से
मिलना हुआ है,
लेकिन
मिलना नहीं हो
पाया। कैसे हो?
मिलन का कोई
आधार नहीं बन
सका। औपचारिक
मिलना हुआ, व्यर्थ हुआ।
जयप्रकाश, कृपलानी और विनोबा
दोनों से
ज्यादा
महत्वपूर्ण
व्यक्ति हैं।
राजनीति
ऊपर-ऊपर है, धर्म भीतर
है। विनोबा से
ठीक उल्टे
व्यक्ति। चूंकि
धर्म भीतर है,
इसी कारण
विनोबा के
चक्कर में भी
पड़ गए थे। सीधे-सादे
आदमी हैं, इसलिए
सारा जीवन
विनोबा के काम
में भी लगा
दिया था।
लेकिन
धीरे-धीरे यह
अहसास होने
लगा कि यहां
तो भीतर
राजनीति है, धर्म का
आवरण है। और
तब भेद पड़ने
लगे। भेद पड़ने
सुनिश्चित
थे। जो भी
मनोविज्ञान
की गहराइयां
समझता है, वह
समझ पाएगा कि
विनोबा और
जयप्रकाश का
करीब आना
निश्चित था, सुनिश्चित
था। क्योंकि
जयप्रकाश की
वही तलाश है; गहरी तलाश
भीतर धार्मिक
है, ऊपर
राजनीतिक
आवरण है।
जयप्रकाश का
विनोबा से
मिलना होना
निश्चित था, संबंध बनना
निश्चित था।
जयप्रकाश
शुद्ध
धार्मिक
व्यक्ति के
पास शायद न जा
सकेंगे, क्योंकि
वह जो ऊपर का
राजनीतिक
आवरण है, वह
बाधा डालेगा।
जयप्रकाश
शुद्ध
राजनीतिक व्यक्ति
से भी
प्रभावित
नहीं हो
सकेंगे। इसलिए
जवाहरलाल
नेहरू से
निरंतर संबंध
रहने के बाद
भी कोई गहरा
संबंध नहीं हो
पाया। इस देश
के सभी
राजनीतिज्ञों
से उनका संबंध
रहा है, गहरा
संबंध रहा है;
फिर भी कोई
गहरा संबंध
नहीं हो पाया।
राजनीति में
रहकर भी वे
राजनीति के
करीब-करीब
बाहर रहे हैं।
जवाहरलाल के
बाद जयप्रकाश
को भारत का प्रधानमंत्री
होना ही चाहिए
था, कोई
वजह न थी।
लेकिन भारत के
राजनीतिक
व्यक्तित्वों
से उनका कोई
गहरा संबंध
नहीं बन पाया।
उनकी खोज और
है। राजनीति की
पतली सतह है।
विनोबा
में उन्हें
आदमी दिखाई
पड़ा, जिसके
ऊपर धर्म
दिखाई पड़ा। वे
विनोबा से
आकृष्ट हुए, जीवन दान कर
दिया विनोबा
को। जैसे यह
घटना घटनी
सुनिश्चित थी,
ऐसे ही दूसरी
घटना भी
सुनिश्चित थी
कि एक न एक दिन
उन्हें अलग
होना पड़ेगा, विपरीत हो
जाना पड़ेगा।
क्योंकि
कितनी देर तक जयप्रकाश
को यह भ्रांति
रहेगी? जल्दी
ही यह दिखाई
पड़ने लगा कि
विनोबा का
धर्म विनोबा
की दकियानूसी
राजनीति का
आवरण मात्र है।
विनोबा के
भीतर क्रांति
नहीं है, क्रांति
की बातचीत है।
और क्रांति की
सारी बातचीत
मूलतः
क्रांति का
अवरोध बन गई
है।
विनोबा
को समर्थन
मिला इस देश
में, सिर्फ
इसीलिए कि
विनोबा में एक
आशा दिखाई पड़ी
इस देश के पुराणपंथियों
को, दकियानूसियों को कि यह
अच्छा है
आवरण। इस आवरण
में क्रांति रुक
सकती है, ठहर
सकती है। इस
आशा में हम
लोगों को अफीम
दे सकते हैं।
सर्वोदय एक
तरह की अफीम
सिद्ध हुआ, जिससे हम
तीस साल तक
लोगों को
बेहोश रखे
रहे! उस अफीम
से जो व्यक्ति
सबसे पहले
चौंका और जो सबसे
ज्यादा गहरा
उसमें था, वह
जयप्रकाश था।
जयप्रकाश
भीतर से
धार्मिक व्यक्ति
हैं।
आनंद
मैत्रेय
जयप्रकाश के
मित्र हैं। तब
जयप्रकाश जेल
से छूटे और
उनकी तबीयत
खराब थी, तो
मैत्रेय
उन्हें मिलने
गए। मैत्रेय
बहुत चौंके,
जब
उन्होंने कहा
कि "भगवान को
मेरे नमन कहना,
उनके चरणों
में मेरे
प्रणाम कहना।'
मैत्रेय
बहुत चौंके!
उन्हें भरोसा
ही नहीं आया
कि जयप्रकाश
और मेरे चरणों
में प्रणाम भेज
रहे हैं! आए तो
मुझे भी कहा
कि मुझे भरोसा
नहीं आया जब
उन्होंने यह
कहा।
भरोसा
न आने का कारण
साफ है, क्योंकि
आमतौर से
जयप्रकाश को
हम राजनैतिक व्यक्ति
मानकर चलते
हैं।
राजनैतिक
व्यक्ति वे
नहीं हैं।
राजनैतिक
व्यक्ति होते,
तो यह जो
दूसरी
क्रांति इस
देश में हुई, इसके बाद वे
सत्ता में
होते। मगर
क्रांति जिस व्यक्ति
ने की, वही
व्यक्ति इस
देश में आज
बिलकुल
सत्ताहीन है,
उसके पास
कोई सत्ता
नहीं है। यह
जयप्रकाश का द्वंद्व
है। राजनीति
से छूट भी
नहीं पाते, वह उनके
बाहर का आवरण
बन गया है, वह
उनका
व्यक्तित्व
बन गया है। और
राजनीति में
पूरे जा भी
नहीं पाते, क्योंकि
उनकी आत्मा की
गवाही वहां
नहीं है। यह
उनका द्वंद्व
है।
तो इन
तीन
व्यक्तियों
में—विनोबा, कृपलानी और
जयप्रकाश—जयप्रकाश
मेरे निकटतम
हैं।
कृष्णमूर्ति
को तो निकटतम
नहीं कह सकता,
क्योंकि
कृष्णमूर्ति
के साथ मैं
एकरस हूं। लेकिन
जयप्रकाश को
निकटतम कह
सकता हूं।
जयप्रकाश की
संभावना है।
अगर वे जीते
रहे, अगर
शरीर ने उनको
थोड़े दिन और टिकाए रखा,
तो इन तीन
व्यक्तियों
में जो
व्यक्ति मेरी
बात समझ सकता
है वह
जयप्रकाश है।
उनसे मुझे आशा
है। और अगर इस
जन्म में नहीं
तो अगले जन्म
में। लेकिन इन
तीन
व्यक्तियों
में से
जयप्रकाश
सबसे पहले
बुद्धत्व को
उपलब्ध होंगे,
इसकी घोषणा
की जा सकती
है। कभी भी—इस
जन्म में, अगले
जन्म में, और
जन्मों में—लेकिन
इन तीन
व्यक्तियों
में जिस
व्यक्ति के भीतर
सर्वाधिक
संभावना है
ज्योति के
जलने की, वह
जयप्रकाश है।
उन तक मेरी
आवाज पहुंचती
है, मगर
उनकी राजनीति
का आवरण! उनके
आसपास का सारा
वातावरण!
जयप्रकाश
बड़े द्वंद्व
में ग्रस्त
हैं। जहां नहीं
होना चाहिए
वहां हैं; जो नहीं
होना चाहिए वह
हैं। और इसे
तुम समझोगे, तुम में भी
बहुतों का यही
द्वंद्व है।
एक
मित्र ने पूछा
है कि संन्यास
लेना चाहता हूं—अवतार
कृष्ण उनका
नाम है—जब से
आया हूं तब से
संन्यास लेने
की इच्छा लगी
है, मन में एक
ही कामना जगी
है। मगर डर
लगता है कि मैं
व्यवसाय में
हूं। फिर
व्यवसाय में
तो झूठ भी
बोलना पड़ता है,
थोड़ी बेईमानी
भी करनी होती
है। इन गैरिक
वस्त्रों में फिर
कैसे व्यवसाय
कर पाऊंगा?
अब
अवतार कृष्ण
की कठिनाई
शुरू होगी।
व्यवसाय उनकी
आत्मा नहीं
है। आत्मा
होती तो
संन्यास का
सवाल ही न
उठता। लेकिन
व्यवसाय उनका
आवरण है, जिंदगी-भर
की आदत है।
जिंदगी-भर
व्यवसाय किया है।
और आज अचानक
कैसे उससे
बाहर हो जाएं?
कैसे अचानक
छलांग लगा लें?
संन्यास की
आकांक्षा जगी
है, लेकिन
उसको दबा रहे
हैं।
लेकिन
एक बात ख्याल
रखें, वापिस
लौटकर अपनी
दुकान पर
बैठोगे तो
जरूर, लेकिन
अब कभी
निश्चिंतता
से न बैठ
पाओगे! क्योंकि
तब यह बात
तुम्हें
बार-बार खलती
रहेगी कि इस
झूठ को चलाए
रखने के लिए
संन्यास छोड़ा
है! इस झूठ को
चलाए रखने के
लिए संन्यास को
रोक रखा है! इस
व्यवसाय को
चलाने के लिए
जीवन का परम
अर्थ त्यागा
है! हीरे छोड़े कंकड़-पत्थर
के लिए! अब वे
द्वंद्व में
रहेंगे। और मैं
जानता हूं, वे संन्यास
ले लें तो भी
द्वंद्व होगा,
तो अड़चन
होगी। फिर
दुकान चलानी
है, बच्चे
हैं, पत्नी
है।
पर मैं
कहता हूं कि
यह अड़चन
ज्यादा बेहतर
है। यह अड़चन
ज्यादा
सृजनात्मक है
कि संन्यास
लेकर दुकान पर
बैठो। और अगर
झूठ न बोल सको
तो मत बोलना, जो हानि
होगी सो होगी।
मगर क्या खाक
हानि हो जाएगी!
पाया क्या है
दुकान से, जो
खो जाएगा? मिला
क्या है, मिलना
क्या है, जो
तुम गंवा दोगे?
दुकान
करते-करते एक
दिन मर जाओगे,
ले क्या
जाओगे? दुकान
पर झूठ बोलने
में अड़चन न आए,
इसलिए
संन्यास छोड़
रहे हो? इसलिए
संन्यास का
द्वार बंद
रखोगे? झूठ
को बचाओगे,
संन्यास को छोड़ोगे? तो दुकान पर
भी शांति से
बैठ न पाओगे
अब।
अब
मुश्किल हो
गई। अब अवतार
मुश्किल में
पड़ेंगे। अब
दुकान पर तो
बैठेंगे, लेकिन
यह बात खलेगी,
छाती में
तीर की तरह चुभेगी
कि यह मैंने
क्या किया? यह मैं क्या
कर रहा हूं? क्या बचाया
और क्या छोड़ा?
रामकृष्ण
के पास एक दिन
एक आदमी आया।
उनके चरणों
में गिर पड़ा
और कहा: आप
महात्यागी
हैं! रामकृष्ण
ने कहा: गलत
बात, महात्यागी
तू है, हम
तो भोगी हैं।
उस आदमी ने
कहा: क्या
कहते हैं परमहंस
देव, आप और
भोगी और
त्यागी मैं!
रामकृष्ण
ने कहा: हां, यही मेरा
अनुभव है।
क्योंकि मैं
तो परमात्मा
को भोग रहा
हूं, तूने
परमात्मा को
त्यागा है। और
तू कूड़ा-करकट
इकट्ठा कर रहा
है। तू कैसा
भोगी? हम
परम धन जुटा
रहे हैं! लोग
हमें त्यागी
कहते हैं, गलत
कहते हैं। हम
महाभोग में
लीन हैं—समाधि
का भोग, स्वर्ग
बरस रहा है!
तुम कंकड़-पत्थर
बीन रहे हो और
तुम्हें लोग भोगी
कहते हैं? क्या
खाक भोग है
तुम्हारा!
अवतार
दुकान पर बैठ
जाएंगे जाकर, अब अड़चन
होगी।
ऐसी ही
अड़चन
जयप्रकाश की
है, राजनीति
जीवन-व्यवहार
बन गया, व्यक्तित्व
बन गया। उस
व्यक्तित्व
की परिधि में
एक आत्मा तड़प
रही है। इस
राजनीति के सींकचों
में बंद एक
पक्षी आकाश में
उड़ना
चाहता है।
इसलिए
जयप्रकाश का
उपयोग दूसरे
राजनीतिक कर
लेते हैं, लेकिन
जयप्रकाश की
सुनते नहीं, मानते नहीं।
भीतर तो वे सब
समझते हैं कि
जयप्रकाश
काल्पनिक
हैं। जैसा कि
सभी धार्मिक
व्यक्ति
काल्पनिक
मालूम होते
हैं
राजनीतिज्ञों
को। तो
जयप्रकाश का
उपयोग कर लेते
हैं।
अब
मोरारजी हैं, जयप्रकाश का
उपयोग करके
सत्ता में बैठ
गए हैं। सत्ता
में बैठते से
ही उन्होंने
फिर जयप्रकाश
की तरफ पीठ कर
ली। उनकी
मान्यता है कि
जयप्रकाश तो
काल्पनिक
बातें करते
हैं। ऐसे कहीं
राज्य चला है?
इन बातों से
कहीं राज्य
चला है? ये
ऊंची-ऊंची बातें,
ये सपने, ये कहीं
पूरे होने
वाले हैं? ये
व्यावहारिक
बातें नहीं
हैं।
जयप्रकाश
की सरलता का
शोषण हो गया
और एक बिलकुल
गलत आदमी
सत्ता में बैठ
गया—मोरारजी
देसाई जैसा
आदमी सत्ता
में बैठ गया। और
जयप्रकाश
सीधे-सादे हैं, इसलिए यह
शोषण हो सका।
और जयप्रकाश
की मुसीबत यह
है कि राजनीति
से उनके
जीवन-भर का
संबंध है, वह
उनका व्यवसाय
है। उसमें
पूरे जा नहीं
सकते, क्योंकि
आत्मा की
गवाही नहीं
है। अवतार को
फिर याद करो।
दुकान पर पूरे
बैठ न सकेंगे
अब, क्योंकि
आत्मा की
गवाही नहीं
है। आत्मा तो
कहती है
संन्यस्त हो
जाओ, रंग
जाओ गैरिक
में। अब दुकान
पर तो बैठेंगे;
काम भी चलाएंगे;
बेमन से
चलेगा भी। कोई
चालबाज
ग्राहक आएगा
तो धोखा भी दे
जाएगा, दुकान
पर चोरी भी कर
ले जाएगा।
जयप्रकाश
की भी कठिनाई
यही है।
व्यक्तित्व राजनीति
का है; और उस
व्यक्तित्व
के कारण
राजनीतिज्ञों
से संबंध बनता
है। और वे
राजनीतिज्ञ
पूरा का पूरा
शोषण उठा लेते
हैं। जितना
लाभ ले सकते
हैं, ले
लेते हैं।
राजनीति में
पूरे जा नहीं
सकते, क्योंकि
प्राण कहीं और
जाना चाहते
हैं। और जहां
प्राण जाना
चाहते हैं, वहां तक
जाने के लिए
व्यक्तित्व
में कोई सुराग
नहीं है, खिड़की
नहीं है। ऐसा
द्वंद्व है।
लेकिन
फिर भी इन तीन
व्यक्तियों
में—कृपलानी, विनोबा और
जयप्रकाश में—जयप्रकाश
सर्वाधिक
धार्मिक
व्यक्ति हैं।
अब तुम्हें
बड़ी हैरानी
होगी।
क्योंकि
साधारणतः तुम
किसी से भी
पूछोगे तो वह
कहेगा, इन
तीनों में
विनोबा सबसे
ज्यादा
धार्मिक आदमी
हैं। ऊपर से
विनोबा ही
धार्मिक
दिखाई पड़ते
हैं। मौन से
रहते हैं, विष्णुसहस्रनाम का पाठ करते
हैं। आश्रम
में जीते हैं।
ब्रह्मविद्या
की शिक्षा
देते हैं। ऊपर
से पूरा का पूरा
आचरण धार्मिक
है। लेकिन मौन
भी धार्मिक नहीं
है, राजनीतिक
है।
मौन
लिया विनोबा
ने, इंदिरा
ने जब देश के
ऊपर संकटकाल
थोप दिया तो
मौन ले लिया।
क्योंकि फिर
कुछ बोलेंगे,
तो या तो
झूठ बोलना
पड़ेगा, और
अगर सच
बोलेंगे तो
इंदिरा के
विरोध में पड़ेंगे।
तो मौन ले
लिया। अब यह
मौन बिलकुल
धार्मिक ढंग
से लिया गया।
ऊपर से दिखता
है कितना धार्मिक
भाव कि मौन ले
लिया! लेकिन
इस मौन के
पीछे भी
राजनीति है।
इस चुप्पी के
पीछे राजनीति
है। इंदिरा के
खिलाफ नहीं
बोलना चाहते
हैं और इंदिरा
के पक्ष में
बोलने में
अड़चन होगी। न
पक्ष में बोल
सकते हैं, न
विपक्ष में
बोल सकते हैं।
यह मौन, एक
राजनीतिक
धुआं पैदा कर
लिया। लोगों
ने समझा कि
मौन है। यह मौन
नहीं है, यह
शुद्ध
राजनीति है।
विनोबा ऊपर से
धार्मिक लगते
हैं, इसलिए
तुम्हें
धार्मिक
मालूम
पड़ेंगे। मेरी बात
तुम्हें
चौंकाने वाली
लगेगी, लेकिन
विनोबा भीतर
से बिलकुल
राजनीतिक
व्यक्ति हैं।
जयप्रकाश ऊपर
से राजनीतिक
हैं, इसलिए
तुम्हें
राजनीतिक
मालूम पड़ेंगे,
लेकिन भीतर
से उनकी
आकांक्षा बड़ी
आध्यात्मिक
है। एक बड़ी
गहरी तड़प
उनके भीतर है।
अरुण, तुम्हारा
प्रश्न
महत्वपूर्ण
है। तुम कहते
हो: दुनिया के
कोने-कोने से
सारे
संवेदनशील
लोग आपके पास खिंचे चले
आ रहे हैं, पर
आश्चर्य होता
है कि
कृष्णमूर्ति,
विनोबा, जयप्रकाश
तथा कृपलानी
जैसे
साधु-पुरुषों
तक आपकी आवाज
क्यों नहीं पहुंच
पाती?
कृष्णमूर्ति
और मेरी आवाज
एक। जयप्रकाश
तक आवाज
पहुंचती है, उनके हृदय
में स्फुरणा
भी होती है; मगर उनका
व्यक्तित्व
पत्थर की तरह
उनके चारों
तरफ लटका हुआ
है, बोझ
है। विनोबा तक
मेरी आवाज
पहुंचती है, लेकिन बस
कानों तक। और
तुम जानकर यह
हैरान होओगे,
विनोबा के
आश्रम में
मेरी किताबों
पर पाबंदी है।
विनोबा मेरी
किताबें पढ़ते
हैं, मुझे
सुनिश्चित
पता है। जो
लोग उन्हें ले
जाकर किताबें
देते हैं, वे
ही मुझे आकर
कहते हैं। वे
उत्सुकता से
किताबें पढ़ते
हैं, लेकिन
आश्रमवासियों
को नहीं पढ़ने
देते। मेरी
किताबें अगर इस
देश के किसी
आश्रम में
स्पष्ट रूप से
वर्जित हैं तो
विनोबा का पवनार
आश्रम है।
वर्जित तो
बहुत आश्रमों
में हैं, लेकिन
इतने खुले रूप
से नहीं, इतने
स्पष्ट रूप से
नहीं। और बड़े
आश्चर्य की बात
यह है कि
जिन-जिन
आश्रमों में
वर्जित हैं, उन-उन
आश्रमों के
प्रधान
उन्हें पढ़ते
ही हैं! उन्हें
बिना पढ़े
रह भी नहीं
सकते। कुतूहल,
जिज्ञासा—क्या
मैं कह रहा
हूं?
अब ये
जो बातें मैं
आज कह रहा हूं, तुम सोचते
हो विनोबा
इनसे बच
सकेंगे बिना पढ़े? असंभव
है। कोई न कोई
पहुंचा देगा। पढ़ना ही
पड़ेगा। मगर
चाहेंगे कि
उनके आश्रम का
कोई व्यक्ति न
पढ़े।
क्योंकि ये तो
बड़ी खतरनाक
बातें हो
जाएंगी। अगर
आश्रम के
लोगों को यह
समझ में आना
शुरू हो जाए
कि विनोबा का
आंतरिक
व्यक्तित्व
धार्मिक नहीं
है, राजनैतिक
है, तो
आश्रम उजड़
जाएगा।
मैं
सारे न्यस्त
स्वार्थों पर
चोट कर रहा
हूं। इसलिए
कठिनाई तो है।
जैन मुनि मेरी
किताबें पढ़ते
हैं, छुप-छुप
कर पढ़ते हैं, चोरी-चोरी
पढ़ते हैं, मेरी
किताबों पर
दूसरी
किताबों के
कवर चढ़ाकर
पढ़ते हैं। और
अपने
श्रावकों को
मेरे खिलाफ समझाते
हैं। और
श्रावकों को
बताते हैं, इन किताबों
से बचना, ये
खतरनाक हैं!
ये तुम्हारे
धर्म को नष्ट
कर देंगी। ये
तुम्हारी
श्रद्धा को
विनष्ट कर
देंगी।
कृष्णमूर्ति
और मेरी आवाज
एक है। विनोबा
तक आवाज
पहुंचती है, लेकिन
विनोबा की
भीतरी
राजनीति उस
आवाज को दबा
डालना चाहती
है। जयप्रकाश
तक आवाज
पहुंचती है।
उनकी बाहरी
राजनीति
उन्हें यहां
आने से रोकती
है। उनका हृदय
आना चाहता है,
यह मुझे
भलीभांति पता
है। इसलिए जब
मैत्रेय को
उन्होंने कहा
कि मेरे
प्रणाम कहना
भगवान को, मैत्रेय
भी चौंके,
उन्हें आशा
नहीं थी।
क्योंकि
मैत्रेय की भी
समझ यही होगी
कि जयप्रकाश
एक राजनैतिक
व्यक्ति हैं।
मैत्रेय का संबंध
भी उनसे
इसीलिए रहा है,
क्योंकि
मैत्रेय खुद
ही राजनीति
में वर्षों तक
थे।
कृपलानी
तक मेरी आवाज
नहीं पहुंच
सकती है, वहां
सारे द्वार
बंद हैं।
विनोबा तक
पहुंच जाती है,
लेकिन वे
उसको नहीं
सुनना चाहते।
जयप्रकाश तक
पहुंचती है, वे उसको
सुनना भी
चाहते हैं; लेकिन उनका
व्यक्तित्व
बाधा आ जाता
है, उनका
आवरण बाधा आ
जाता है। वे
आना भी चाहते
हैं। उनकी
तलाश का मुझे
पता है।
मगर इस
तरह की घटना
घटती है। उनकी
पत्नी मुझे सुनने
आती थीं। उनकी
पत्नी ने खबर
दी कि जब मैं
पटना कभी-कभी
बोलता था तो
जयप्रकाश भी
सुनने आते थे, लेकिन कार
में बैठकर
बाहर ही सुन
लेते थे। सब
के सामने कैसे
आएं? राजनीति
बाधा है।
लेकिन
यह जो घटना
यहां घट रही
है, यह कुछ इस
तरह के लोगों
के सुनने न
सुनने पर इसका
भविष्य
निर्भर नहीं
है। यह जो
घटना यहां घट
रही है, इसका
भविष्य तो उन
लोगों पर है, जिनका
भविष्य है। ये
तो गए-बीते
लोग हैं। ये
तो गुजरे हुए
लोग हैं। ये
तो अतीत हो
चुके। ये तो
छायाएं मात्र
हैं अब! मुझे
तो युवकों पर,
छोटे
बच्चों पर, नए लोगों पर
आधार रखने
हैं। और वे आ
रहे हैं। वे
सारी बाधाएं तोड़कर आ
रहे हैं।
भविष्य का
निर्माण
बूढ़ों से नहीं
होता, भविष्य
का निर्माण
युवकों से
होता है। जब
भी कोई धर्म
जीवित होता है
तो वह धर्म
युवकों को
आकर्षित करता
है। जब कोई
धर्म मर जाता
है तो वह
बूढ़ों को
आकर्षित करता
है। मरे हुए
धर्मों में, मरी मस्जिदों
में, मरे
मंदिरों में,
मरे गुरुद्वारों
में, तुम्हें
बूढ़े लोग
दिखाई
पड़ेंगे। जहां धर्म
अभी जीवंत है,
और जहां
नई-नई सूरज की
किरणें उतर
रही हैं, और
नया-नया फूल
अपनी पंखुड़ियां
खोल रहा है, वहां
तुम्हें युवक
मिलेंगे। और
वहां अगर कभी तुम्हें
कोई बूढ़ा भी
मिल जाए तो
समझ लेना कि वह
बूढ़ा आत्मा से
युवक ही होगा,
तो ही वहां
हो सकता है।
अब
यहां कोई आदमी
जो आत्मा से
बूढ़ा हो, हो
ही नहीं सकता।
युवक ही हो
सकता है यहां।
बूढ़ा मन तो
भाग जाएगा।
बूढ़ा मन तो
हजार विघ्न-बाधाएं
पाएगा। बूढ़े
मन को तो हजार
शंकाएं उठ आएंगी।
उसका ज्ञान
शंकाएं उठाने
का कारण हो
जाएगा। यहां
तो युवा-चित्त
ही समझ सकता
है और उसके ही
मुझसे तालमेल
बैठ सकते हैं।
अगर तुम्हें
यहां कोई बूढ़ा
व्यक्ति भी
मिल जाए, तो
यही समझना कि
वह बूढ़ा नहीं
है। उसकी देह
बूढ़ी होगी, आत्मा उसकी
युवा है, स्वच्छ
है, ताजी
है।
इन
युवा, स्वच्छ,
ताजी और क्वांरी
आत्माओं पर
मेरा भरोसा
है। और उनका
आना शुरू हो
गया है। और वे
सब बाधाओं को तोड़कर
आएंगे। जितनी
बाधाएं होंगी,
उतने
ज्यादा
आएंगे। जीवन
के कुछ नियम
हैं अनूठे। जब
भी सत्य प्रकट
होगा, तो
असत्य के
दुकानदार
बाधाएं खड़ी
करेंगे। लेकिन
जितनी वे
बाधाएं खड़ी
करेंगे, उतनी
ही सत्य के
खोजियों को एक
बात स्पष्ट
होने लगती है
कि अगर सत्य न
होता तो असत्य
के दुकानदार
बाधाएं खड़ी न
करते।
तुम
देखते हो, मोरारजी की
सरकार ने सारी
दुनिया में
भारत के राजदूतावासों
में उपाय कर
रखे हैं कि
कोई व्यक्ति
कहीं से भी
पूना न पहुंच
पाए। पूना का
नाम लेते ही
लोगों को
प्रवेश की
अनुमति नहीं
दी जाती। तो
लोग नए-नए रास्ते
खोजकर आ रहे
हैं, थोड़ा-सा
रास्ता खोजना
पड़ता है। रस
और बढ़ रहा है।
मोरारजी मेरी
सुनें तो मैं
उनको कहूं: सब
बाधाएं अलग
करो, नहीं
तो रस और बढ़
जाएगा! रस बढ़
रहा है। सैकड़ों
पत्र आ रहे
हैं कि अब हम
आना चाहते हैं,
बात क्या है?
आखिर
रुकावट क्यों
है? किसी
आश्रम में, भारत के, जाने
की रुकावट
नहीं है, इसी
आश्रम में
जाने की
रुकावट क्यों
है? और लोग
रास्ते खोज
लेते हैं।
पहले लंका
जाएंगे, फिर
लंका से यहां
आएंगे। पहले
नेपाल जाएंगे,
फिर नेपाल
से यहां
आएंगे। जरा
चक्कर लगाना
पड़ेगा, और
क्या होगा? लेकिन जो
चक्कर लगाकर
आया है, वह
और भी करीब आ
गया; क्योंकि
जिसने इतना
श्रम उठाया, उसकी
आकांक्षा और
प्रज्वलित हो
गई।
घबड़ाहट
क्यों है? घबड़ाहट है, क्योंकि
न्यस्त
स्वार्थ हैं।
मैं फिर वही घबड़ाहट
पैदा कर रहा
हूं तुम्हारे
राजनीतिज्ञों
और तुम्हारे
धर्म-पुरोहितों
में, जो
जीसस ने पैदा
की थी या बुद्ध
ने पैदा की
थी। वही घबड़ाहट
पैदा हो रही
है। लेकिन इस घबड़ाहट से
कोई बाधा नहीं
पड़ेगी। इससे
चिंता में मत पड़ना। ये
सब सीढ़ियां
हैं। ये सब
सीढ़ियों पर ही
मंदिर का शिखर
पाया जाएगा।
ऐसे ही रास्ता
बनता है। ये
बाधाएं और बढ़ती
जाएंगी, ये
सघन होती
जाएंगी, क्योंकि
यही मूढ़ता
के लक्षण हैं!
लोग कुछ सीखे
ही नहीं हैं, मनुष्य-जाति
का पूरा
इतिहास जैसे
ऐसे ही गुजर गया
है! राजनीतिक
और
धर्म-पुरोहित
कुछ सीखते ही
नहीं, कुछ सीखे ही
नहीं। वही की
वही बात फिर
दोहराते हैं।
वे ही बाधाएं
फिर खड़ी करने
लगते हैं जो
उन्होंने पहले
की थीं। वही जालसाजियां
फिर करने लगते
हैं जो पहले
की थीं।
न पहले
जालसाजियां
काम आईं, न
अब काम आ सकती
हैं, न कभी
काम आएंगी।
सत्य यदि कहीं
है तो उसकी जीत
सुनिश्चित
है। देर-अबेर
हो सकती है, अंधेर नहीं
हो सकता है।
दूसरा
प्रश्न:
सभ्यता, संस्कृति और
संगठित धर्म
निन्यानबे
प्रतिशत आचरण
हैं, अनुकरण
हैं, फिर
धर्म क्या है?
धर्म
है स्वभाव, न आचरण, न
अनुकरण।
अनुकरण का
अर्थ होता है—दूसरे
के पीछे चल
पड़े। दूसरे के
पीछे चलने का साफ
अर्थ है कि
तुमने अपने
स्वभाव को छोड़
दिया, तुम
दूसरे की
कार्बन-कापी
होने लगे। और
परमात्मा एक
व्यक्ति को बस
अनूठा बनाता
है, हर
व्यक्ति को
अनूठा बनाता
है; कोई
किसी दूसरे
जैसा नहीं हो
सकता, न
होने की कोई
जरूरत है।
तुम्हें होना
है—तुम जैसे, तुम्हें
होना है—तुम, तुम्हें
अपनी निजता
में खिलना है!
धर्म
का अर्थ है—तुम
जो हो, वही
हो सको।
अनुकरण का
अर्थ है—तुम्हें
बुद्ध जैसा
होना है, तो
तुम बौद्ध हो
गए; तुम्हें
ईसा जैसा होना
है, तो तुम
ईसाई हो गए।
मगर
देखते हो, करोड़ों ईसाई
हैं, हजारों
साल से हैं, एकाध भी ईसा
हुआ! इतने दिन
का अनुभव कुछ
कहता है कि
नहीं कहता? दो हजार साल
हो गए ईसा को
गए; इस बीच
करीब-करीब
पृथ्वी का एक
चौथाई हिस्सा
ईसाई हो गया, सबसे बड़ा
धर्म हो गया
ईसाइयत! मगर
कितने ईसा पैदा
हुए? दूसरा
ईसा पैदा नहीं
हुआ, न
दूसरा बुद्ध,
न दूसरा
महावीर, न
दूसरा कृष्ण!
पुनरुक्ति
यहां होती ही
नहीं, परमात्मा
सदा मौलिक
निर्माण करता
है। तुम बस तुम
जैसे हो, न
तुम जैसा पहले
कभी कोई था, न पीछे कभी
कोई होगा, न
अभी कोई है!
तुम बिलकुल
अकेले हो।
यही तो
गरिमा है
मनुष्य की, यही तो गौरव
है मनुष्य का।
मनुष्य का
गौरव और गरिमा
उसकी
अद्वितीयता
में है। न तो
तुम्हारा
गौरव और गरिमा
है तुम्हारे
धन में, न
तुम्हारे पद
में; क्योंकि
पद आज है, कल
छीना जा सकता
है; और धन
आज है, कल
दिवाला निकल
सकता है।
तुम्हारी
गरिमा, तुम्हारा
गौरव
तुम्हारी देह
में भी नहीं।
क्योंकि देह
आज सुंदर है, कल कुरूप हो
जाएगी; आज
जवान है, कल
बूढ़ी हो
जाएगी। यह तो
मिट्टी है, मिट्टी में
गिर जाएगी!
तुम्हारा
गौरव कहां है?
तुम्हारा
गौरव है सिर्फ
एक बात में कि
तुम अद्वितीय
हो! और जो लोग
भी कहते हैं, अनुकरण करो,
वे तुमसे
तुम्हारी
अद्वितीयता
छीन लेते हैं।
यह सबसे बड़ा
घात है, यह
सबसे बड़ा पाप
है। और धर्मों
के नाम पर यही
चलता है।
जीसस
नहीं चाहते कि
तुम्हारी
अद्वितीयता छिने; लेकिन
जीसस के पीछे
जो संप्रदाय
खड़ा होता है—पंडित
और पुजारी और
पुरोहितों और
पोपों का जो जाल
खड़ा होता है—वह
चाहता है, तुम
अद्वितीय न रह
जाओ। वह चाहता
है कि तुम एक अनुकरण
मात्र हो जाओ।
वह तुम्हें
आचरण की विधियां
देता है, आत्मा
नहीं देता, आत्मा का
जागरण नहीं
देता, आचरण
की विधि देता
है। फर्क समझ
लेना।
आत्मा
के जागरण से
एक तरह का
आचरण पैदा
होता है, लेकिन
वह स्वस्फूर्त
होता है। जागा
हुआ आदमी कुछ
काम कर ही
नहीं सकता, इसलिए नहीं
करता है; और
कुछ काम ही कर
सकता है, इसलिए
उनको करता है।
जागा हुआ आदमी
किसी की हत्या
नहीं कर सकता,
इसलिए नहीं
करता है।
इसलिए नहीं कि
हत्या करना
पाप है, कि
हत्या करूंगा
तो नरक जाऊंगा,
कि हत्या
करूंगा तो
पीछे कष्ट
पाऊंगा, कि
हत्या करूंगा
तो हानि होगी।
नहीं, इसलिए
नहीं। हत्या
नहीं करता, क्योंकि
नहीं कर सकता
है। उसके
जागरण ने उसे
कह दिया है कि
दूसरे के भीतर
भी वही
विराजमान है,
जो
तुम्हारे
भीतर है। उसके
जागरण ने उसे
कह दिया है कि
शाश्वत है
जीवन, हत्या
हो भी नहीं
सकती, हत्या
का कोई उपाय
नहीं है।
हत्या छोड़ता
नहीं जागा हुआ
आदमी, हत्या
उससे छूट जाती
है। सोया हुआ
आदमी आचरण
करता है
अहिंसा का, जागा हुआ
आदमी आचरण
नहीं करता
अहिंसा का, अहिंसा उसकी
आत्मा से सहज
प्रवाहित
होती है।
मैं
तुम्हें
आत्मा देना
चाहता हूं, आचरण नहीं।
तुम भी चाहते
हो कि मैं
तुम्हें आचरण
दे दूं, क्योंकि
आचरण सस्ता है;
और आचरण की
लकीर पर चलना
कठिन नहीं, आचरण को
नियोजित करना
आसान है।
एक
मित्र ने पूछा
है कि
शादी-शुदा
संन्यासी अपनी
पत्नी के साथ
कैसा व्यवहार
करे?
तुम
आचरण चाहते हो
कि मैं तुमसे
कह दूं कि ऐसा-ऐसा
व्यवहार करे।
तुम चाहते हो
सीधे निर्देश।
मगर वे
निर्देश मेरे
होंगे, और
तुम्हारी
आत्मा से नहीं
जन्मे होंगे।
आचरण बन जाएगा,
आत्मा पैदा
नहीं होगी।
मैं तुमसे
कहूंगा: तुम ध्यान
करो, यह मत
पूछो कि पत्नी
के साथ कैसा
व्यवहार करें!
फिर तुम्हारे
ध्यान से जैसा
व्यवहार
निकले, वह
ठीक।
मैं
तुम्हारे
व्यवहार का
लेखा-जोखा भी
रखता नहीं, तुम्हारे ध्यान
का ही मात्र
लेखा-जोखा है।
ध्यान अर्थात
जागने की
प्रक्रिया।
तुम जागने लगो,
जागते जाओ,
फिर जागने
के अनुसार
तुम्हारा
आचरण बदलता जाएगा।
एक दिन तुम
अचानक पाओगे—कौन
पत्नी है, कौन
पति? एक
दिन तुम अचानक
पाओगे—कौन
पुरुष है, कौन
स्त्री? एक
दिन तुम अचानक
पाओगे—ब्रह्मचर्य
का फूल
अपने-आप खिल
गया है! एक सुबह—बस
फूल खिला है
और सुवास उठ
रही है!
मगर यह
नियोजित फूल
नहीं है। अगर
तुमने नियोजन
किया, तो यह
कभी नहीं
खिलेगा।
नियोजन से
खतरा हो जाएगा,
बड़ा खतरा हो
जाएगा; तुम
जबर्दस्ती
करोगे, तुम
कामवासना को
दबा लोगे। और
जिसे दबा दिया
है, वह
मिटता नहीं, जो दबा दिया
है, वह
भीतर बैठा
रहता है; फिर
फन उठाएगा, जब भी कभी
मौका मिलेगा
फिर फन
उठाएगा। और
धीरे-धीरे तुम
कमजोर होते
जाओगे, दबाने
वाला आदमी
रोज-रोज कमजोर
होता जाएगा। बुढ़ापा आ
रहा है। दबाने
वाला आदमी जब
कमजोर हो
जाएगा, तो
फन उठा देगी
वासना फिर से!
इसलिए जिन
लोगों ने
युवावस्था
में कामवासना
को दबा लिया, बुढ़ापे में
बड़ी पीड़ा से
भर जाते हैं!
मेरी
मां ने परसों
मुझे खबर दी...।
एक जैन साध्वी
हैं—विमला
देवी। मैं तो
छोटा-सा था, तब से
उन्हें जानता
हूं। उनका बड़ा
आदर था जैन समाज
में; मेरे
घर में, मेरे
परिवार में
बड़ी समादृत
थीं।
युवावस्था में
ही उन्होंने
बड़ा त्याग
किया, बड़े
उपवास किए, शरीर को
सुखा डाला; ब्रह्मचर्य
का व्रत लिया।
मेरी मां मुझे
परसों कहीं कि
विमला देवी
पागल हो गई
हैं। मैं चौंका
नहीं, यह
होना ही था।
अब पागलपन में
वे क्या कर
रही हैं? वही
सब कर रही हैं,
जो जीवन-भर
दबाया!
संवेदनशील
महिला है, बुद्धिमान
महिला है, मगर
बुद्धुओं
के चक्कर में
पड़ गई! आचरण तो
सम्हाल लिया,
अब हालत यह
हो गई है कि अब
खाने के सिवाय
और कुछ सूझता
ही नहीं।
जिंदगी-भर
उपवास किया, सुखा डाला!
और वे जो मूढ़
इकट्ठे थे
उनके चारों
तरफ, वे
कहते थे: आह, कैसी
पवित्रता!
कैसा आचरण! वह
महिला सूखती
चली गई, वह
महिला भूख में
पीली पड़ती चली
गई।
जब भी
मैं उन्हें
मिला पहले—बचपन
से उनको जानता
हूं—जब भी
उनको बचपन में
गया देखने, तो मुझे वे
सदा पीली
दिखाई पड़ें, मगर उनके
भक्त कहें कि
देखो, कैसी
स्वर्ण जैसी
काया! मैं
चौंकता भी था,
लेकिन चुप
रहता था। जब
सभी लोग कहते
हैं कि स्वर्ण
जैसी काया, तो स्वर्ण
जैसी ही काया
होगी। वह
बिलकुल पीली पड़
गईं, पीले
पत्ते जैसी
काया! मगर वे
कहते: स्वर्ण
जैसी काया, कुंदन हो गई
हैं! कैसा
निखार आ गया
है, कैसी
प्रतिभा आ गई!
रुग्ण दशा थी
वह।
अब
विमला देवी
कुछ भी खाती
हैं। कोई
दूसरा खाता हो, उससे छीनकर
खा लेती हैं।
जिंदगी-भर रात
पानी नहीं पीया,
अब रात में
भी खाना खाती
हैं। अब भक्त
कहते हैं:
पागल हो गईं!
पहले महासाध्वी
थीं, अब महापातकी
हो गईं! और यह
सहज परिणाम है,
वह जो जिंदगी-भर
किया था दमन, उसका ही
परिणाम है। वह
जो दबाया था, अब दबाने की
क्षमता क्षीण
हो गई, अब
उम्र आ गई, अब
देह कमजोर
होती चली गई
और जीवन-भर के
दबाए हुए रोग
फन उठाने लगे,
अब बड़ी
मुश्किल हुई!
मेरी
प्रक्रिया
दूसरी है। मैं
उनके भक्तों को
कहूंगा—जो अब
उनके दुश्मन
हो गए हैं—उन्हें
यहां ले आओ।
वे पागल नहीं
हैं। पागल तो
वे पूरी
जिंदगी थीं
तुम्हारी
बातों में पड़कर, अब थोड़ा होश
आना शुरू हुआ
है, अब तुम
उन्हें पागल
कह रहे हो!
सामान्यतः
कोई आदमी रात
को खाना खाता
है, उसे हम
पागल तो नहीं
कहते, कितने
लोग रात को
खाना खाते हैं!
मगर विमला
देवी रात को
खाना खाती हैं,
तो पागल
हैं। क्यों? कितने करोड़-करोड़
लोग खाना खाते
हैं रात को, अरबों लोग
खाना खाते हैं
रात को, कोई
पागल नहीं है।
विमला देवी
खाती हैं तो
पागल हैं!
यह बड़ा
मजा हुआ, वह
पागलपन की
परिभाषा भी वह
जो महात्मापन
की परिभाषा थी,
उसी से निकल
रही है! वह जो
पुण्य का भाव
था, वही
भ्रांत था। और
तुमने
पुण्य-पुण्य
कहकर उनके
अहंकार को
बढ़ावा दिया।
और कुछ नहीं
हुआ, अहंकार
बढ़ा। अच्छा
हुआ अब कि इस
महिला ने सारा
अहंकार छोड़
दिया; यह
सरल हो गई, पहले
जटिल थी। अब
इसको खाने का
मन होता है, तो किसी दूसरे
की थाली में
से भी उठाकर
खा लेती है, तो तुम कहते
हो पागल है।
यह बच्चों
जैसी सरलता
आई! यह फिर से
बचपन आया! अब
अगर इसे कोई
ठीक-ठीक मार्ग-निर्देश
मिल जाए, तो
अभी भी उपाय
है। अभी भी सब
नष्ट नहीं हो
गया है।
मगर
बड़ी कठिनाई है, जिन्होंने
पुण्य कहकर, तपश्चर्या
कहकर समादर
दिया था, वे
ही अब अनादर
देंगे। वे ही
अब इसको
पागलखाने में
भरती करवाएंगे—वे
ही लोग! वे ही
लोग
इलेक्ट्रिक
के शॉक लगवाएंगे,
इंजेक्शन लगवाएंगे।
मगर जागेंगे न
एक बात से कि
हमारा ही किया
हुआ कृत्य और
उसका यह फल है!
मैं
आचरण नहीं
सिखाता, मैं
तो सिर्फ एक
बात ही सिखाता
हूं—ध्यान।
तुम
निर्विचार
होने लगो, तुम
शांत होने लगो,
तुम मौन
होने लगो; फिर
शेष सब उससे
आएगा। फिर एक
दिन
ब्रह्मचर्य भी
आएगा। और एक
दिन तुम्हारा
भोजन में जो
पागल रस है, वह भी चला
जाएगा।
वस्त्रों से
तुम्हारा जो
मोह है, वह
भी छूट जाएगा।
मगर मैं कहता
नहीं कि छोड़ो;
छूटना
चाहिए—सहज, अपने-आप। तो
फिर कभी इस
तरह की
विक्षिप्तता
नहीं आती।
नहीं तो आज
नहीं कल तुम
विमला देवी जैसी
स्थिति में
उलझ जाओगे।
करोड़ों लोग
उलझे हैं, इसी
तरह उलझे हैं।
मैं इस उलझाव
से तुम्हें मुक्त
करना चाहता
हूं।
आचरण
नहीं, आत्मा!
अनुकरण नहीं,
निजता!
स्वतंत्रता!
मेरा
संन्यास इसी
स्वतंत्रता
की उदघोषणा
है। इसलिए मैं
तुम्हें नियम
नहीं दूंगा, मर्यादाएं नहीं
दूंगा। मैं
तुम्हें आदेश
नहीं दूंगा, उपदेश
दूंगा।
समझाऊंगा कि
क्या ठीक है, और कहूंगा
कि उस ठीक की
तलाश में
प्रतीक्षा करना,
ध्यानपूर्वक
प्रतीक्षा
करना। उसे आने
देना, अपने-आप
आने देना, खींचतान
मत करना और
जल्दी मत
करना।
खींचतान और
जल्दी
दुष्परिणाम
लाती हैं।
पूछा
है: सभ्यता, संस्कृति और
संगठित धर्म
निन्यानबे
प्रतिशत आचरण
हैं, अनुकरण
हैं, फिर
धर्म क्या है?
इसीलिए
तो धर्म खो
गया है। तुम्हारी
तथाकथित
सभ्यता, संस्कृति
और तुम्हारे
तथाकथित धर्म,
इनमें ही
धर्म खो गया
है।
धर्म
है—तुम्हारे
भीतर जो चेतना
है, उसका
आविर्भाव।
धर्म है—तुम्हारे
भीतर जो बोध
है, उसका
प्रज्वलित हो
जाना। धर्म है—तुम्हारे
भीतर होश का
आगमन, ध्यान
का आगमन, समाधि
का अवतरण!
धर्म का बाहर
से कोई भी
संबंध नहीं, धर्म आंतरिक
क्रांति है।
फिर बाहर के
लोग क्या कहते
हैं, कौन
फिक्र करता
है! व्यक्ति
अपने आनंद में
जीता है, व्यक्ति
जीवन के
महोत्सव में
जीता है। फिर
बाहर के लोग
क्या कहते हैं,
कौन फिक्र
करता है!
अच्छा कहें तो
अच्छा, बुरा
कहें तो
अच्छा।
सम्मान दें तो
ठीक, अपमान
दें तो ठीक।
जिसको भीतर का
स्वाद आने लगा
और भीतर की
गंध आने लगी, अब बाहर के
मूल्यों का
कोई अर्थ नहीं
रह जाता। मैं
तुम्हें ऐसी
स्वतंत्रता
देता हूं।
हालांकि
तुम
स्वतंत्रता
नहीं चाहते, तुम
परतंत्रता
चाहते हो। तुम
कहते हो, नियम
बता दें।
तुमको लगता है—ध्यान,
समाधि दूर
की बातें हैं,
अपने बस की
नहीं। आप तो
हमें बता दें
कि रात पानी न पीएं। यह
तो छोटे
बच्चों जैसी
बात है, न
भी पीया
तो क्या हो
जाएगा और पी
लिया तो क्या
खो जाएगा! तुम
छोटी-छोटी
बातें चाहते
हो, क्षुद्र
और व्यर्थ—कि
दिन में दो
बार खाना खाएं
कि तीन बार
खाना खाएं?
क्या फर्क
पड़ता है, दो
बार खाए तो
स्वर्ग नहीं
चले जाओगे और
तीन बार खाए
तो नरक नहीं
चले जाओगे।
तुम्हारे
खाने-पीने, तुम्हारे
उठने-बैठने की
क्षुद्र
बातों की कौन
व्यवस्था
देता रहे!
और उस
व्यवस्था का
खतरा है, क्योंकि
जो एक के लिए
उपयोगी है वह
दूसरे के लिए
घातक हो जाता
है। हो सकता
है किसी के
लिए एक नियम
सहयोगी हो
जाए। मगर नियम
तो अंधे होते
हैं, एक
दफा बना दिया,
तो सभी
लोगों को उनका
पालन करना
पड़ता है।
इसलिए
मैं जानकर
अपने
संन्यासियों
को कोई नियम
नहीं दे रहा
हूं। नहीं तो
मुझे पता है, अगर मैंने
नियम दिया, तो जो उन
नियमों को
पालने लगेंगे,
वही
पुरोहित हो
जाएंगे और
दूसरों को सताने
लगेंगे कि तुम
इस नियम का
पालन क्यों
नहीं कर रहे
हो? और
दूसरों पर
जबर्दस्ती
करने लगेंगे,
और दूसरों
का अपमान करने
लगेंगे, और
दूसरों के मन
में अपराध का
भाव पैदा करने
लगेंगे कि हम
कुछ भूलकर रहे
हैं, हम से
कुछ गलती हो
रही।
तुमसे
अगर कोई गलती
हो रही है, तो सिर्फ एक
गलती है कि
तुम सोए हुए
हो, बस। और
तुमसे अगर कभी
जिंदगी में
कोई ठीक काम होने
वाला है तो एक
काम है—वह है
जागना। शेष सब
अपने-आप
निर्णीत होगा।
सोया हुआ आदमी
कुछ भी करे, गलत है; और
जागा हुआ आदमी
कुछ भी करे, सही है।
इसलिए मैं
तुम्हें गलत
और सही के
नियम नहीं बता
सकता कि
कौन-सा नियम
सही है, कौन-सा
नियम गलत।
जागरण सही है,
निद्रा
गलत। होश
जगाओ! और अपने
को अंगीकार
करो; अपने
पर श्रद्धा
लाओ। तभी
तुम्हारा
असली जन्म हो
सकेगा!
हम
सब संदर्भों
में जीते हैं!
जो
कुछ हैं, हम सब
संदर्भों
के जाये हैं
अपने
अस्तित्वों
का
हम
पर कुछ श्रेय
नहीं!
एक
परिधि
हम
सबकी आत्मा है,
ईश्वर
है!
हम
सबको घेरे हैं
लक्ष्मण की
रेखाएं,
जिनके
उल्लंघन की
कल्पना
असंभव है,
बाहर
भय के दशमुख
आंखें
तरेरे
हैं!
डर
से हम लोगों
की
नस-नस
में बर्फ जमी
हृदयों
की धड़कन पर
भारी
से पत्थर हैं।
जीते
हैं—
जीने
की गतिविधि के
द्योतक हैं;
उसके
कुछ आगे से
अपना
क्या सरोकार
हम
सब क्या जानें
क्या
संस्कृति,
क्या
संस्कार!
जन्मे
हम नहीं,
अभी
गर्भों में
जीते हैं!
हम
सब संदर्भों
में जीते हैं!
जब तक
तुम सभ्यता और
संस्कृति और
नियम और मर्यादा
और संप्रदाय
में जी रहे हो, याद रखना, अभी तुम
जन्मे नहीं!
जन्मे
हम नहीं,
अभी
गर्भों में
जीते हैं!
हम
सब संदर्भों
में जीते हैं!
तुम्हारे
वास्तविक
जीवन की
शुरुआत तब है, जब तुम सारे
संदर्भ छोड़ दो—हिंदू
के, मुसलमान
के, ईसाई
के, जैन के,
बौद्ध के।
जब तुम बाहर
से सारे नियम
लेने बंद कर
दो और तुम
घोषणा कर दो
कि अब भीतर से जीऊंगा, और जो भी
परिणाम होंगे
स्वीकार
करूंगा। अब मैं
अपने ढंग से जीऊंगा, अब मैं अपनी
निजता को
अंगीकार करता हूं;
जो मुझे
सुखद, प्रीतिकर,
सत्यकर लगेगा, वैसा
जीऊंगा।
दुनिया क्या
कहती है, इसकी
मुझे फिक्र
नहीं। दुनिया
का कोई ठेका
नहीं है।
दुनिया
की बात उतने
ही दूर तक
माननी उचित है, जितने दूर
तक दुनिया के
साथ चलने में
सुविधा रहती
है, उसमें
ज्यादा मानने
की कोई जरूरत नहीं।
जैसे सड़क पर
नियम है कि
बाएं चलो, इतना
मानना जरूरी
है। क्योंकि
तुम दाएं चलने
लगो तो उपद्रव
होगा, तुम
ही टकरा जाओगे
किसी कार से।
"बाएं चलो', यह कोई
शाश्वत नियम
नहीं है, व्यावहारिक
नियम है। इससे
रास्ते पर
लोगों के चलने
में सुविधा
होती है, लोगों
की गतिविधि
में आसानी
होती है। बस, इस तरह के जो
नियम हैं, वे
पालन करना। कि
जब सड़क की
बत्ती कह रही
हो आगे मत बढ़ो,
तो रुक जाना,
यह मत कहना
कि हम अपनी
निजता से
जीएंगे। नहीं तो
तुम जी ही
नहीं पाओगे, आएगी एक
ट्रक और उसके
नीचे दब
जाओगे।
निजता
से जीने का
अर्थ यह नहीं
है कि तुम
जीवन के
व्यवहार-व्यवस्था
को छोड़ दो। व्यवहार
की व्यवस्था
ठीक है, उसका
पालन कर लेना।
लेकिन
व्यवहार की
व्यवस्था
धर्म नहीं है,
और व्यवहार
की व्यवस्था
पर तुम समाप्त
नहीं हो, और
व्यवहार की
व्यवस्था पर
ही अपने को
पूरा मत मान
लेना कि सब
काम ठीक हो
गया—क्योंकि
हम बाएं चलते
हैं, रात
पानी नहीं
पीते, शराब
नहीं पीते, मांसाहार
नहीं करते—बस,
ठीक हो गया
सब।
कुछ भी
ठीक नहीं हुआ!
यह सब ठीक है, यह सब
व्यावहारिक
है, लेकिन
इसमें
आत्यंतिक कुछ
भी नहीं है।
अब एक आदमी
यही सोच रहा
है कि वह
सिगरेट नहीं
पीता, इसलिए
मोक्ष जाएगा।
सिगरेट पीने
से कुछ नुकसान
है जरूर, मगर
मोक्ष जाने
में बाधा
सिगरेट पीने
से पड़ती हो, तो मोक्ष दो कौड़ी का हो
गया! जितनी
कीमत सिगरेट
की, उतनी
कीमत मोक्ष की
हो गई! अब कोई
सज्जन धुआं भीतर
ले जाते हैं, बाहर
निकालते हैं,
इससे उनके
मोक्ष में
बाधा पड़ जाएगी?
फेफड़ों में
थोड़ा-सा धुआं
भीतर ले गए, फिर बाहर
निकाल दिया, इससे मोक्ष
में बाधा पड़
जाएगी?
मैं यह
नहीं कह रहा
हूं कि तुम
धुआं ले जाओ
और निकालो; मैं यह कहना
चाहता हूं कि
धुएं का ले
जाना और निकालना
पाप नहीं है, सिर्फ मूढ़ता
है; इससे
तुम नरक नहीं
जाओगे और न
निकालने से
तुम स्वर्ग
नहीं जाओगे, लेकिन तुम मूढ़ हो
इतना पक्का
है! पापी
तुम्हें नहीं
कहता, सिर्फ
बुद्धिहीन
कहता हूं; क्योंकि
शुद्ध हवा ले
जाने का मौका
छोड़ रहे हो, गंदा धुआं
फेफड़ों में भर
रहे हो। फिर तड़पोगे, फिर क्षय
रोग होगा, फिर
कैंसर होगा, फिर
अस्पतालों
में सड़ोगे—वह
सब झेलोगे, मूढ़ता है और कुछ भी
नहीं।
आदमी
कैसा अंधा है!
अमरीका की
सरकार ने तय
किया कि सब
सिगरेट के
डिब्बों पर
लिखा होना
चाहिए कि
सिगरेट का
पीना जीवन के
लिए घातक है।
सिगरेट
कंपनियां
बहुत घबड़ाईं, बहुत बेचैन
हुईं कि अगर
डिब्बों पर
लिखा रहेगा, हर डिब्बे
पर, कि
सिगरेट पीना
घातक है जीवन
के लिए, तुम्हारे
जीवन को खतरा
है, तो पीएगा
कौन? मगर
उन कंपनियों
को कुछ पता
नहीं कि आदमी महामूढ़ है!
बड़ा विरोध
किया
कंपनियों ने
कि हमें नुकसान
हो जाएगा, हमारे
कारखाने टूट
जाएंगे।
मगर
नियम बन गया
और सिगरेट के
डिब्बों पर
लिखा जाने
लगा। हां, कोई तीन-चार
सप्ताह
सिगरेट की
बिक्री में
कमी हुई बस, फिर बिक्री
दुगुनी हो गई!
क्योंकि वह जो
तीन-चार
सप्ताह नहीं
पी थी मूढ़ों
ने, फिर वे
एकदम से टूट
पड़े; क्योंकि
तीन-चार
सप्ताह कोई कम
संयम रखा उन्होंने!
फिर उन्होंने
कहा, जाने
भी दो, जो
होगा होगा। अब
डिब्बी पर
लिखा हुआ है, लेकिन पढ़ता
कौन है! अब
उसका कोई अर्थ
नहीं है। लिखा
है कि नहीं
लिखा है, कोई
नहीं पढ़ता, लिखा रहने
दो। एक डर था, वह डर भी
गया। अगर तुम
किसी से कहो
कि भई जल्दी मर
जाओगे! वह
कहता है कि
जल्दी मर
जाएंगे, और
क्या होगा? ठीक है, मगर
सिगरेट पीते
ही मरेंगे, यह मौका
नहीं छोड़
सकते!
सिगरेट
पीने से कोई
पाप नहीं होता, मूढ़ता तो होती है।
बस, तुम्हारी
जिंदगी में
जिनको तुम
नियम बना लिए हो,
सोच-समझकर
चलो, मूढ़ता न करो। और
जीवन का जो
व्यवहार है, उसमें
व्यर्थ के
उपद्रव खड़े मत
करो, क्योंकि
उन उपद्रवों
से साधना में
सहायता नहीं
मिलेगी, बाधा
पड़ जाएगी।
इसलिए
कोई हानि नहीं
है कि कोई
आदमी सड़क पर
नंगा चले, कोई पाप भी
नहीं इसमें, लेकिन चूंकि
लोगों का
जीवन-व्यवहार
है, कपड़े
लोग पहने हुए
हैं, वे
लोग नाराज हो
जाएंगे।
क्योंकि जब
तुम नंगे चलते
हो, तो
तुमने उनको
नंगा कर दिया!
तुमने उनको यह
याद दिला दी
कि कपड़ों के
भीतर हम भी
नंगे हैं। वे
गुस्सा हो
जाते हैं। किसी
तरह भूले-भाले
बैठे थे, भूल
ही चुके थे कि
हम नंगे हैं।
तुमको बिना कपड़े
के देखकर एकदम
उनको भी याद
आती है कि अरे...!
तुम्हारे नंगेपन
से वे नाराज
इसीलिए होते
हैं कि तुमने
उनका नंगापन
जाहिर कर
दिया।
तुमको
नहीं होता? मरे हुए
आदमी को देखकर
याद नहीं आती
अपनी मौत की? कि अब
मरूंगा! जब
लाश निकलती है
रास्ते से, तुम्हें एक
क्षण को स्मरण
नहीं आ जाता
कि मेरी
मौत...अब
ज्यादा देर
नहीं है, यह
आएगी! यह आदमी
भी कल
भला-चंगा था, मैं आज भला-चंगा
हूं, कल की
कौन जाने? आज
इसकी अरथी
निकल रही है, मैं देख रहा
हूं; कल
मेरी अरथी
निकलेगी, कोई
देखेगा। याद
नहीं आती
तुम्हें? याद
आ जाती है।
ऐसे ही
नंगे आदमी को
देखकर
तुम्हें याद आ
जाती है कि
भीतर मैं नंगा
हूं। तो मैं
नहीं कहता कि सड़क
पर नंगे चलो।
क्यों किसी को
याद दिलानी? जो याद नहीं
करना चाहता, वह उसकी
मर्जी। क्यों
किसी को याद
दिलाना? क्यों
किसी के जीवन
में बाधा
डालनी?
फिर
तुम्हारे
नंगे चलने से
तुम्हें भी
बाधा पड़ेगी—पुलिस
आ जाएगी, लोग
घेरा डालेंगे,
पकड़ेंगे—कि दिमाग
खराब हो गया।
हालांकि कुछ
भी नहीं हुआ
है; कितने
पशु-पक्षी, सभी तो नंगे
हैं; किसी
का दिमाग खराब
नहीं हुआ है।
असल में पशु-पक्षी
सोचते होंगे
कि आदमी को
क्या हो गया
है! आखिर उनकी
संख्या बहुत
है। अगर
लोकतंत्र चलता
हो, तो
नंगों की
संख्या
दुनिया में
बहुत है, कितने
पशु-पक्षी, सब नग्न हैं!
वे जरूर बैठकर
सोचते होंगे
वृक्षों पर कि
इन आदमियों को
क्या हो गया
है? ये कपड़ा
क्यों टांगे
फिरते हैं?
और
आदमी ऐसा पागल
है! इंग्लैंड
में महिलाओं
का एक समाज है, जो कुत्तों
को कपड़ा पहनाने का
आंदोलन चलाती
हैं। अब यह
सोचते हो, इन
महिलाओं का
दिमाग बिलकुल
खराब होना
चाहिए! कुत्तों
को कपड़े
पहनाना!
क्योंकि नंगे
कुत्ते देखकर
इनको अपना
नंगापन याद आ
रहा है या क्या
हो रहा है! तुम
जानकर हैरान
होओगे कि
विक्टोरिया
के जमाने में
इंग्लैंड में,
कुर्सियों
के पैर को भी ढांककर
रखा जाता था, क्योंकि वे
पैर हैं!
कुर्सियों के
पैर, उनको
भी ढांककर
रखा जाता था, उनको कपड़ा
पहना दिया
जाता था, क्योंकि
पैर हैं न, पैर
की याद आती
है। पैर नंगे
नहीं होने
चाहिए।
हद हो
गई पागलपन की!
अगर
पशु-पक्षियों
को दिखाई पड़ते
होओगे तुम, तो थोड़े
हैरान तो होते
होंगे कि
परमात्मा ने नग्न
पैदा किया था,
तुम कपड़े
क्यों पहने
हो!
मगर
जिनके बीच तुम
रहते हो, वे
सब कपड़े पहने
हैं; अच्छा
यही है कि तुम
भी कपड़े पहने
रहो, उचित
यही है, यह
व्यावहारिक
है। इसलिए मैं
तुमसे कहता
हूं, व्यवहार
के कोई नियम
व्यर्थ मत
तोड़ना, जब
तक कि ऐसा कोई
नियम न हो जो
तुम्हारी
आत्मा की
स्वतंत्रता
में बाधा बन
रहा हो, जो
तुम्हारे और
परमात्मा के
बीच बाधा बन
रहा हो। मत
तोड़ना, उसे
चुपचाप
स्वीकार कर
लेना, उसकी
स्वीकृति में
कोई हानि नहीं
है! जैसा देश
हो, वैसा
वेश रखना; और
अपने भीतर की
खोज में लगे
रहना। अपनी
आत्मा को मत
बेच देना, अपनी
आत्मा की
स्वतंत्रता
को अक्षुण्ण
रखना।
तो
धीरे-धीरे एक
दिन तुम जान
सकोगे—असली
जन्म क्या है।
तब तुम
संदर्भों में
नहीं जीयोगे, तब तुम
हिंदू नहीं, मुसलमान
नहीं, ईसाई
नहीं, तब
तुम पहली दफा
मनुष्य
होओगे। और जो
मनुष्य हो गया,
उसके
परमात्मा
होने में
ज्यादा देर
नहीं है, उसने
आधी यात्रा
पूरी कर ली।
यह तहजीबे-जर-अफ्सां
दागदारे-खूने-आदम
है
यह खूं आशामिए-सरमाया
कज्जाकी
से क्या कम है
अब
इस लानत को
दुनिया से
मिटा देने का
वक्त आया
है
रौशन कस्रे-दौलत
में चिरागे-सरखुशी अब
तक
खफा
है झोपड़ों
से जिंदगी की
रोशनी अब तक
अंधेरे
में नई शमाएं
जला देने का
वक्त आया
तमद्दुन खुदफरेबी
और सियासत तंग
दामानी
बहुत
गमनाक है काशानए-आदम
की वीरानी
अब
इस उजड़े
हुए घर को बसा
देने का वक्त
आया
यह तूफाने-हसद
यह साजिशे-बुग्जोरिया
कब तक
यह
नफरत आह! जंजीरे-दरे-खल्के
खुदा कब तक
हर
एक दर पे
मुहब्बत की
सदा देने का
वक्त आया
एक
समय आ गया है, जब आदमी
क्षुद्र
सीमाओं के पार
उठे!
अब
इस लानत को
दुनिया से
मिटा देने का
वक्त आया
समय आ
गया है, जब
हम क्षुद्र व्यावहारिकताओं
को ही धर्म न
समझ लें; अंतस
की ज्योति को
धर्म समझें।
अंधेरे
में नई शमाएं
जला देने का
वक्त आया
अब समय
आ गया है कि हम
आदमी को होश से
बिना न जीने
दें, क्योंकि
होश नहीं तो
आदमी नहीं।
होश नहीं, तो
तुम खाली घर
हो, घर का
कोई मालिक
नहीं।
अब
इस उजड़े
हुए घर को बसा
देने का वक्त
आया
अब समय
आ गया है कि हम
बहुत जी लिए
घृणा, वैमनस्य,र्
ईष्या, द्वेष
के आधार पर।
अब हम जीवन का
एक नया ढंग खोजें;
हम एक नई
मनुष्यता को
जन्म दें—एक
नए मनुष्य को,
एक नई चेतना
को।
हर
एक दर पे
मुहब्बत की
सदा देने का
वक्त आया
ध्यान
भीतर जगे, तो तुम्हारे
जीवन में
प्रेम फैल
जाता है। जैसे
दीया जलता है,
तो किरणें
फैल जाती हैं,
रोशनी फैल
जाती है; ऐसे
ध्यान जलता है,
तो प्रेम
फैल जाता है!
और अगर तुम
प्रेम फैला दो,
तो ध्यान जल
जाए। ये दोनों
एक ही सिक्के
के दो पहलू
हैं।
अगर
तुम मुझसे
पूछना चाहो, तो धर्म की
मैं छोटी-सी
परिभाषा करता
हूं: ध्यान और
प्रेम! बस ये
दो शब्द याद
रखो, इन दो
शब्दों पर
कसते रहना
अपने को।
दूसरे से संबंध
हो तो प्रेम
पर कसना। अगर
प्रेम गवाही
दे कि ठीक, तो
ठीक। अगर
प्रेम कहे:
नहीं, यह
मेरे विपरीत;
तो समझ लेना
धर्म के
विपरीत। और
भीतर की दुनिया
में, अपने
अंतस की
दुनिया में, ध्यान की
कसौटी पर कसते
रहना। तुम जो
भी भीतर करो, ख्याल करना:
इससे ध्यान
सधेगा, घटेगा?
बनेगा, बिगड़ेगा? अगर बनता हो,
तो ठीक, धर्म।
अगर बिगड़ता
हो ध्यान, तो
अधर्म।
बस
प्रेम और
ध्यान की दो कसौटियों
पर तुम जीवन
को कसते रहो।
ये दो पंख बन
जाएंगे; ये
तुम्हें उस
विराट
परमात्मा तक
ले जाने के लिए
काफी हैं, पर्याप्त
हैं।
आखिरी
प्रश्न:
मेरी
जिंदगी किसी
के काम आ जाए
कौन
जाने मौत का
पैगाम आ जाए
जिंदगी
की आखिरी शाम
कब आ जाए
ऐसे
मौके पर तलाश
करता हूं मैं
भगवन!
कि
मेरी जिंदगी
किसी के काम आ
जाए।
प्रदीप!
भावना शुभ है, पर जिंदगी
अभी है कहां? काम क्या
आएगी? अभी
तुम हो कहां? भाव शुभ है, लेकिन कहावत
तो तुमने सुनी
न कि नरक का
रास्ता शुभ
भावनाओं से
पटा पड़ा है! यह
शुभ भावना भी
नरक के रास्ते
पर ही पट
जाएगी।
लोग
सोचते हैं, किसी के काम
आ जाऊं। अभी
तुम अपने भी
काम आए नहीं, कैसे किसी
और के काम आ
सकोगे! लोग
सोचते हैं, किसी का
दीया जला आऊं।
अभी अपना दीया
जला नहीं, और
तुम दूसरे के
दीए जलाने
चले! डर यही है
कि तुम जलते
दीए बुझा मत देना!
अभी अपनी आंख
खुली नहीं, और तुम
दूसरों को
मार्ग-दर्शन
देने की
आकांक्षा से
भरने लगे! और
आकांक्षा शुभ
है; मगर
अंधा आदमी
दूसरे अंधों
को राह दिखाए—दोनों
खाई-खड्ड में गिरेंगे!
और फिर
भी मैं कहता
हूं, तुम्हारी
भावना शुभ है।
लेकिन उस
भावना को पूरी
करने की
क्षमता
तुममें अभी
कहां? तुम
समाज-सेवक हो
जाओगे; और
वह खतरा है।
मैं
समाज-सेवक
पैदा नहीं
करना चाहता।
मैं चाहता हूं
ऐसे लोग जो
जीवंत हैं, जो आनंद से
भरे हैं, और
जिनके आनंद से
अपने-आप सेवा
निकले, उन्हें
पता भी न चले
कि हम सेवा कर
रहे हैं! मैं
तुमसे कोई
कर्तव्य करने
को नहीं कह
रहा हूं। मैं
तो चाहता हूं,
तुम्हारे
जीवन में जो
भी हो, वह
प्रेम से हो, कर्तव्य से
नहीं।
कर्तव्य से जब
भी कोई बात होती
है, तो चूक
हो जाती है।
कर्तव्य का
मतलब यह होता
है: करने की
इच्छा नहीं है,
कर रहे हैं—कर्तव्य
है! "कर्तव्य
है' का
अर्थ होता है:
चाहते तो नहीं
हैं, मजबूरी
है। प्रेम से
जब तुम करते
हो तो कर्तव्य
नहीं होता, तब तुम्हारा
आनंद होता है,
तुम्हारा
रस होता है।
तो तुम
पहले ध्यान को
जगाओ, पहले
प्रेम को जगाओ,
फिर यह अपने
से हो जाएगा।
मत पूछो: मेरी
जिंदगी किसी
के काम आ जाए।
अभी तुम्हारे
पास जिंदगी
कहां? अभी
तो संदर्भों
में जी रहे हो!
अभी जन्म कहां
हुआ? अभी
तो गर्भों में
जी रहे हो! अभी
जन्म कहां हुआ?
और मैं
जानता हूं कि
यह बात उठती
है मन में, संवेदनशील
व्यक्ति के मन
में यह विचार
उठना शुरू
होता है, क्योंकि
चारों तरफ बड़ा
दुख है। जिसको
भी थोड़ी संवेदना
है, उसके
मन में यह भाव
आता है—कैसे
इस दुख को मिटाऊं?
क्या करूं?
लेकिन
दुनिया में
कितने लोग आ
चुके और दुख
को नहीं मिटा
पाए हैं, यह
भी ख्याल
रखना। और
कितने उपाय
दुख को मिटाने
के किए जाते
हैं, दुख
कम होता नहीं,
बढ़ता जाता
है, हर
उपाय से बढ़ता
जाता है।
हेलसियासी
इथोपिया के
सम्राट थे।
ईसाई मिशनरियों
ने सम्राट को
जाकर कहा कि
हम चाहते हैं
इथोपिया को भी
हम शिक्षा दें, स्कूल खोलें,
शिक्षा का
व्यापक
प्रसार होना
चाहिए, इथोपिया
में शिक्षा
नहीं है।
सम्राट ने जो
बात कही, बड़ी
हैरानी की थी!
सम्राट ने
कहा: तुम्हारे
देश में तो
शिक्षा का खूब
प्रसार हो गया
है, लाभ
क्या हुआ? अगर
तुम्हारे पास
पक्का प्रमाण
हो कि शिक्षा के
प्रसार से
तुम्हारे लोग
ज्यादा
आनंदित, ज्यादा
शांत, ज्यादा
प्रफुल्लित
हुए हैं, ज्यादा
भले हुए हैं, तो फिर ठीक
है, तुम
मेरे देश में
भी शिक्षा का
प्रसार करो।
वे ईसाई
मिशनरी सिर
झुकाकर रह गए,
यह बात तो
उन्होंने
सोची ही न थी!
लोग तो
मान ही लेते
हैं कि शिक्षा
का प्रसार यानी
अच्छा काम।
लेकिन शिक्षा
के प्रसार से
हुआ क्या है? विश्वविद्यालयों
में क्या हो
रहा है सारी दुनिया
के—देखो!
विश्वविद्यालय
से निकलने
वाला आदमी ज्यादा
चिंतित, ज्यादा
तनावग्रस्त
हो जाता है; ज्यादा
बेचैन, परेशान
हो जाता है; ज्यादा
महत्वाकांक्षी,
ज्यादा
अहंकारी हो
जाता है। कोई
चीज उसे तृप्त
नहीं करती, उसकी
आकांक्षा ऐसी
हो जाती है कि
कोई चीज उसे कभी
तृप्त नहीं कर
सकेगी!
विश्वविद्यालय
से निकला हुआ
आदमी कुछ भी
नहीं करना
चाहता और सब
पाना चाहता
है। बेईमान हो
जाता है, चालाक
हो जाता है, चालबाज हो
जाता है; सरलता
खो देता है, सहजता खो
देता है।
सम्राट
हेलसियासी
की बात में
मूल्य है कि
जरूर करो, मगर
तुम्हारे देश
में जहां
शिक्षा खूब
व्यापक हो गई
है, लाभ
क्या है? जहां
जितनी शिक्षा
है, वहां
उतना पागलपन
हो रहा है।
जहां जितनी
शिक्षा है, वहां उतनी
हत्या, उतनी
चोरी, उतनी
बेईमानी! जहां
जितनी शिक्षा
है, उतना
अनाचार, उतना
व्यभिचार! तो
जरूर शिक्षा
फैलाओ, अगर
तुम यह प्रमाण
दे सकते हो कि
शिक्षा से कुछ
लाभ हुआ है।
अब जरा
सोचो, जिन
लोगों ने
शिक्षा
फैलाने के लिए
अपने जीवन चढ़ा
दिए—हजारों
लोगों ने अपने
जीवन लगा दिए
शिक्षा के प्रसार
में—उन
बेचारों का
क्या हुआ? उनकी
आकांक्षाओं
का क्या हुआ? लाभ तो कुछ
हुआ नहीं, हानि
हो गई।
ऐसे
विचारक भी हैं
दुनिया में अब, जैसे डी. एच.
लॉरेन्स। डी.
एच. लॉरेन्स
ने कहा कि अगर
मनुष्य को
बचाना हो, तो
सौ साल के लिए
सारे
विश्वविद्यालय
बंद कर दो, सौ
साल के लिए
भूल ही जाओ
शिक्षा को। सब
पुस्तकालय
जला दो और
सारे
विश्वविद्यालय
बंद कर दो। और
सौ साल आदमी
को छोड़ दो, बिलकुल
अशिक्षित हो
जाने दो। तो
शायद आदमी बच सके।
शायद
ऐसा हम कर न
पाएं, शायद
इलाज ऐसा है
कि हम हिम्मत
न जुटा पाएं; मगर लगता है
कि अगर कर
पाएं, तो
लाभ तो हो, हानि
न हो। होता
क्या है? शिक्षा
फैल गई, तुम्हारी
जिंदगी तो काम
आ गई शिक्षा
फैलाने में, मगर शिक्षा
फैलाने का
अंतिम परिणाम
क्या है? क्या
करोगे?
सेवा
से कुछ भी
नहीं होता। जागो! होश
सम्हालो! और
तब तुम्हें
दिखाई पड़ेगा
कि आदमी दुखी
है, इसलिए
नहीं कि
दुनिया में
शिक्षा कम है,
या दवाइयां
कम हैं। आदमी
दुखी है इसलिए
कि दुनिया में
ध्यान कम है।
लेकिन यह भी
तुम्हें तभी
पता चलेगा, जब तुम्हारा
ध्यान जगेगा
और तुम्हारे
दुख विसर्जित
हो जाएंगे—तब
तुम्हें पता
चलेगा। फिर
तुम दूसरों
में भी ध्यान
को जगाने की
कोशिश में
लगना। बस एक
ही काम करने
जैसा है कि
लोगों का
ध्यान जगे।
मनुष्य इतना
परेशान है, क्योंकि
मूर्च्छित
है। और मनुष्य
मूर्च्छित
होने के कारण
दुखी है।
ख्याल
करना, दुख
का और कोई
कारण नहीं है,
सब कारण
टटोल लिए गए
हैं। जैसे कि
माक्र्स ने कहा
कि दुख का
कारण है आदमी
का कि धन का
वितरण ठीक
नहीं है।
लाखों
लोग मरे, मारे
गए, खून
बहा—रूस में
धन का वितरण
हो गया। मगर
आदमी का दुख वैसा
का वैसा है! सच
तो यह है, रूस
में आज आदमी
और ज्यादा
दुखी है।
क्योंकि धन का
वितरण तो हो
गया, लेकिन
आत्मा की सारी
आजादी छिन गई!
धन का वितरण
करना हो, तो
आत्मा की
आजादी छीननी
ही पड़ेगी।
क्योंकि अगर
आत्मा आजाद हो,
तो लोगों की
धन कमाने की
क्षमता
अलग-अलग है। अगर
आत्मा आजाद हो,
तो एक आदमी
धनी हो जाएगा
और एक आदमी
गरीब ही रह जाएगा।
अगर प्रत्येक
व्यक्ति को
स्वतंत्रता
से जीने का हक
हो, तो
समानता कभी हो
ही नहीं सकती।
इसे
थोड़ा समझना, समानता और
स्वतंत्रता
साथ-साथ नहीं
हो सकते। और
तुम्हारे
तथाकथित
राजनीतिक
नेता यही नारा
दिए जाते हैं—समानता
चाहिए, स्वतंत्रता
चाहिए; जैसे
कि दोनों
बातें साथ हो
सकती हैं!
समानता होगी,
तो
स्वतंत्रता
नहीं होगी, क्योंकि
मनुष्य समान
नहीं हैं; जबर्दस्ती
समान करना
पड़ेगा। अब ऐसा
ही समझो कि
किसी ने
सिद्धांत बना
लिया कि सबकी
ऊंचाई समान
होनी चाहिए।
अब अगर सबकी
ऊंचाई समान
करनी है, तो
स्वतंत्रता छीननी
पड़ेगी—किसी का
सिर काटो, किसी
के पैर काटो, सबको बराबर
करो
काट-छांटकर!
आदमी
तो मर जाएंगे, ऊंचाई बराबर
हो जाएगी!
आत्मा खो
जाएगी। और अगर
आत्मा को बढ़ने
देना है अपनी स्वभावता
से, तो
निश्चित ही
कोई ऊंचा होगा,
कोई ठिगना
होगा; कोई
धन कमाने में
कुशल होगा, कोई नहीं
होगा; कोई
बहुत धन कमा
लेगा और कोई
बिलकुल नहीं
कमा पाएगा; और कोई
यशस्वी हो
जाएगा और कोई
बिलकुल
यशस्वी नहीं
हो पाएगा; कोई
सफल होगा, कोई
सफल हो नहीं
पाएगा। सबकी
गुणवत्ताएं
अलग-अलग हैं, समान नहीं
है आदमी! दुनिया
में इससे बड़ा
कोई झूठा
सिद्धांत
नहीं है कि
आदमी समान है।
मनोविज्ञान
की सारी खोजें
कहती हैं—आदमी
असमान है। और
आदमी को समान
बनाने की कोशिश
चली!
तो रूस
में लाखों लोग
मार डालने पड़े; वही काटना
पड़ा किसी का
सिर, किसी
का पैर!
जबर्दस्ती
करके धन बांट
दिया। फिर बांटने
से भी कुछ
नहीं होता।
अगर एक बार
बांट दो और
फिर लोगों को
छोड़ दो...। तुम
थोड़ा सोचो, यहां इतने
लोग बैठे हैं,
सबको
हजार-हजार
रुपए दे दिए
जाएं और सबको
छुट्टी दे दी
जाए कि तीन
महीने बाद आकर
खबर करना। कोई
सज्जन तो बाहर
तक भी न पहुंच
पाएंगे, जेब
कट जाएगी, दरवाजे
के बाहर न
निकल पाएंगे!
कोई हजार तो
गंवा ही देंगे
और उनके पास
जो था, वह
भी उनके साथ
चला जाएगा।
कोई हजार के
दस हजार बना
लाएगा।
एक
सम्राट मरने
के करीब हुआ, तो उसने
अपने बेटों को,
तीन बेटे थे,
बुलाया। और
उनको एक-एक
थैली भरकर
फूलों के बीज
दे दिए और कहा
कि मैं यात्रा
पर जा रहा हूं—तीर्थयात्रा।
मैं लौटूं,
तब मैं ये
बीज वापिस
चाहता हूं। और
इन्हीं बीजों
में निहित है
सब कुछ!
सोच-समझकर इन
बीजों को सम्हालना,
क्योंकि जो
इसमें जीतेगा,
वही
साम्राज्य का
मालिक हो
जाएगा।
बड़ा
विचार किया
तीनों ने।
पहले ने सोचा
कि यह तो झंझट
की बात है, बीज घर में
रखें—चूहे खा
जाएं, चोरी
हो जाए, क्या
भरोसा बीज को
बचाने का! सड़
जाएं और बाप
कहे कि हमने सड़े बीज
नहीं दिए थे, ये तो सड़
गए। फिर पता
नहीं बाप कब
तक लौटे—साल
लगे, दो
साल लगे।
पुराने जमाने
की कहानी है, तीर्थयात्रा
पर गया आदमी—वर्षों
लग जाते थे!
कितनी देर
लगेगी? उसने
सोचा—होशियार
आदमी था—उसने
कहा, बाजार
में बेच दो, रुपया अपने
पास रखो; जब
बाप आएगा, जल्दी
से जाकर बाजार
से दूसरे बीज
खरीदकर रख देंगे।
क्या पहचान
पाएगा! बीज बीज
हैं, बीज
जैसे हैं, सब
बीज एक जैसे
हैं! यही के
यही फूलों के
बीज खरीद लाऊंगा।
जाकर बेच आया;
निश्चिंत
हो गया। रुपए तिजोड़ी
में डालकर
ताला लगा
दिया।
दूसरे
भाई ने सोचा
कि अगर बेचूं, जैसा एक भाई
ने किया है, तो बाप कहीं
यह न कहे कि ये
तो वही बीज
नहीं हैं। पता
तो चल ही
जाएगा। और
कहीं इसी कारण
राज्य न गंवा
बैठूं! तो
उसने बीजों को
तिजोड़ी
में बंद करके
ताला लगा
दिया। बाप जब
तक आया, तब
तक वे बीज सड़
गए, उनसे
बदबू आने लगी।
तीसरे
लड़के ने बीज
जाकर बगीचे
में बो दिए; सोचा कि बीज
का तो अर्थ
होता है—संभावना।
इसलिए पिता का
इशारा साफ है
कि संभावना को
जो वास्तविक
करेगा, वही
मेरे
साम्राज्य का
मालिक हो
सकेगा। बीज को
सम्हालकर
नहीं रखा जाता,
बीज को बोया
जाए—यही उसका
सम्हालना है।
और फिर जब बीज
हम बो देंगे, तो जल्दी ही
हजार गुने
बीज पौधों पर
आ जाएंगे।
सम्हालना
क्या है! जब हजार
गुने हो
सकते हैं, तो
हजार गुने
करके देना
चाहिए। लाख गुने हो
सकें, तो
लाख गुने
करके देना
चाहिए। उसने
बीज बो दिए।
जब बाप
लौटा, पहले
बेटे ने कहा
कि जरा बैठिए,
मैं अभी
जाता हूं, बाजार
से बीज ले आता
हूं। बाप ने
कहा: लेकिन जो बीज
मैंने
तुम्हें दिए
थे, वे ही
बचाने थे। ये
वही बीज नहीं
हैं, ये
स्वीकार नहीं
होंगे। तुम
परीक्षा में असफल
हुए।
दूसरा
बेटा बहुत खुश
हुआ, उसने कहा:
आइए, वही
बीज हैं! तिजोड़ी
खोली, वहां
से सड़े
बीजों की बास
आई। बाप ने
कहा: लेकिन
मैं तुम्हें
बीज दे गया था,
जिनमें
दुर्गंध नहीं
थी। और मैं
तुम्हें बीज दे
गया था, जिनसे
तुम चाहते तो
फूल पैदा होते
और सुगंध पैदा
होती। यह तो
बात गड़बड़ हो
गई, ये
स्वीकार नहीं
हो सकते। तुम
हार गए।
तीसरे
बेटे से कहा, उसने कहा कि
आइए बगीचे
में, क्योंकि
बीज की जगह बगीचे
में है। तिजोड़ी
कोई बीज की
जगह है! बाप
पीछे गया, बगीचे
में फूल ही
फूल खिले थे, हजारों फूल
खिले थे!
फूलों में फिर
बीज आ रहे थे।
बेटे ने कहा
कि बीज आ गए
हैं, वही
बीज हैं, उन्हीं
की संतान हैं,
उन्हीं का
सिलसिला हैं।
और ये फूल
मुफ्त, और
यह बगीचे
का सौंदर्य
मुफ्त! और फिर
बीज हजार गुने
हो गए हैं!
मैंने सोचा कि
उन्हीं को
क्या बचाना जब
हजार गुने
हो सकते हैं!
बाप ने
कहा: तू मेरे
साम्राज्य का
मालिक है।
तुझसे मेरा
साम्राज्य
हजार गुना
होगा! तू
सिर्फ बचाने
वाला नहीं
होगा, बढ़ाने
वाला होगा। और
बढ़ाने वाला ही
बचाने वाला
है!
लोग
अलग-अलग हैं!
रूस में
जबर्दस्ती
समानता बिठा
दी है। मगर
लोग बड़े दुखी
हो गए हैं।
आत्मा खो गई, स्वतंत्रता
खो गई, दुखी
न होंगे तो
क्या होंगे!
बोलने की
आजादी नहीं
रही।
मैंने
सुना है, कुत्तों
की एक
प्रदर्शनी
हुई फ्रांस
में। सारी
दुनिया के
कुत्ते
इकट्ठे हुए, उसमें रूस
के कुत्ते भी
आए—बड़े तगड़े
थे! फ्रांसीसी
कुत्तों ने
पूछा कि रूस
में सब मजा तो
है? उन्होंने
कहा, बहुत
मजा है। सब खाने
की सुविधा है,
आदमी को जो
न मिले वह
हमें मिलता
है। बड़ा मजा है!
मगर हम जाना
नहीं चाहते
वापिस।
फ्रांसीसी कुत्तों
ने कहा: यह बात
समझ में नहीं
आती। अगर इतना
मजा है, तो
तुम वापिस
क्यों नहीं
जाना चाहते? उन्होंने
कहा: और सब तो
ठीक, भौंकने
की आजादी नहीं
है। और बिना
भौंके कुत्ते
की क्या
जिंदगी! कितना
ही भोजन दो, भोजन थोड़े
ही जिंदगी है,
भौंकने का
रस!
रूस
में बोलने की
आजादी नहीं है, दीवालों को
कान हैं!
स्वतंत्रता
नहीं है। लोग प्रार्थना
करते हैं अपने
तलघरों
में छिपकर।
प्रार्थना तलघरों
में छिपकर!
बाइबिल पढ़ते
हैं चोरी से
कि किसी को
पता न चल जाए।
जीसस का नाम
लेते हैं डरते
हुए कि कोई
सुन न ले। पति
को अपनी पत्नी
से डर है, क्योंकि
पत्नी कौन
जाने खबर कर
दे! या किसी गुस्से
के क्षण में
चली जाए पुलिस
दफ्तर में और खबर
कर आए! अपने
बेटे से बाप
डरता है कि
पता नहीं
स्कूल में
किसी को कह दे!
ऐसा भय
व्याप्त है।
यह सुख हुआ? समानता हो
गई, स्वतंत्रता
खो गई, आत्मा
खो गई!
तुम
दुनिया में जो
भी करोगे, उससे सुख
होने वाला
नहीं है, दुख
के नए आवर्तन,
दुख के नए
चाक घूमते
रहेंगे! और
दुनिया बड़ी दुखी
है, यह सच
है। फिर क्या
करें? दुख
का मूल आधार
तोड़ना पड़ेगा।
दुख का मूल
आधार है—आदमी
का अज्ञान, आत्म-अज्ञान।
तो यह
मत पूछो: मेरी
जिंदगी किसी
के काम आ जाए। अभी
तो यह पूछो कि
मेरी जिंदगी जिंदगी
कैसे हो जाए? मेरा जन्म
कैसे हो? और
फिर तुम्हारा
जो रास्ता
बनेगा जिंदगी
का, जिस
तरह तुम
जिंदगी को
जानोगे, रसमग्न
होओगे, वही
खबर औरों तक
पहुंचा देना
प्रदीप, तो
औरों की
जिंदगी में भी
दीए जलेंगे।
एक दीया जल
जाए तो उससे
और दीए जल
सकते हैं। ज्योति
से ज्योति
जले!
मगर
मैं नहीं
चाहता कि तुम
सेवा में लगो, और मैं नहीं
चाहता कि तुम
सत्ता में
जाओ। दो ही
उपाय हैं
दुनिया को
बदलने के अब
तक—एक है
सत्ता, एक
है सेवा। सेवा
करो, तो
लोग सुखी हो
जाएंगे—यह बात
भी गलत हो गई।
सेवा हो चुकी
बहुत, कोई
सुखी नहीं
हुआ। दूसरा
उपाय है—सत्ता
में चले जाओ
और जबर्दस्ती
लोगों को सुखी
कर दो। लेकिन
कोई
जबर्दस्ती
किसी को सुखी
कर सकता है?
लोग
सुखी हो नहीं
सकते, क्योंकि
उनके भीतर दुख
के कारण मौजूद
हैं, दुख
के बीज मौजूद
हैं, दुख
के आधार मौजूद
हैं। उनके दुख
के बीज दग्ध होने
चाहिए। वे बीज
ध्यान में ही
दग्ध होते हैं।
ध्यान में बीज
दग्ध हो जाएं,
तो प्रेम का
प्रकाश पैदा
होता है; और
प्रेम आनंद
है। ध्यान और
प्रेम का जहां
मिलन होता है,
वहीं
परमात्मा की
अनुभूति है और
वही अनुभूति सच्चिदानंद
है। उसी रस को तलाशो!
दूसरे की अभी
फिक्र न करो
प्रदीप, पहले
अपनी चिंता कर
लो। इक साधे
सब सधे!
आज
इतना ही।
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