तप,
ब्रह्मचर्य
और सम्यक्
ज्ञान—(प्रवचन—सतहरवां)
प्यारे
ओशो!
सत्येन
लभ्यस्तपसा ह्मेष
आत्मा
सम्यग्ज्ञानेन
ब्रह्मचर्येण
नित्यम्।
अन्त:
शरीरे
ज्योतिर्मयो
हि शुभ्रो।
यं पश्यंति
यतय:
क्षीणदोषा।
यह आत्मा
सत्य, तप, सम्यक्
ज्ञान, और ब्रह्मचर्य
से ही प्राप्त
किया जा सकता
है। जिसे
दोषहीन यति
देखते हैं, वह सुध
आत्मा इस शरीर
के अंदर
वर्तमान है।
प्यारे
ओशो!
मुण्डकोपनिषद्
के इस सूत्र
को
हमारे लिए
बोधगम्य
बनाने की कृपा
करें।
शरणानद!
यह सूत्र तो
सरल है, पर
हजारों
वर्षों की
व्याख्याओं
ने इसे बहुत जटिल
कर दिया है।
नासमझ
सुलझाने चलते
हैं, तो और
उलझा देते
हैं! नीम—हकीम
से सावधान
रहना जरूरी है।
बीमारी इतनी
खतरनाक नहीं
जितना नीम—हकीम
खतरनाक सिद्ध
हो सकता है।
बीमारी का तो
इलाज है, लेकिन
नीम—हकीम के
चक्कर में पड़
जाओ, तो
इलाज नहीं है।
और नीम—हकीमों
से दुनिया भरी
हुई है।
एक
आदमी को सर्दी—जुकाम
था,
बहुत दिनों
से था। और बार—बार
लौट आता था।
बड़े—बड़े
चिकित्सकों
के पास गया, कोई इलाज न
कर पाया। फिर
एक नीम—हकीम
मिल गया। उसने
कहा, 'यह भी
कोई बड़ी बात
है! यह तो
बायें हाथ का
खेल है! चुटकी
बजाते दूर कर
दूंगा! इतना
करो : सर्दी की रातें
हैं, आधी
रात में उठो।
झील पर जाकर
नग्न स्नान
करो। झील के
किनारे खड़े
होकर ठंडी हवा
का सेवन करो!'
वह
आदमी बोला, 'आप
होश में हैं
या पागल हैं!
सर्द रातें
हैं; बर्फीली
हवाएं हैं।
आधी रात को
नंग— धडंग झील
में स्नान
करके खड़ा
होऊंगा—हड्डी—हड्डी
बज जायेगी!
इससे मेरा
सर्दी—जुकाम
दूर होगा?
नीम
हकीम ने कहा, 'यह
मैंने कब कहा
कि इससे सर्दी—जुकाम
दूर होगा! इससे
तुम्हें डबल
निमोनिया हो
जायेगा! और
डबल निमोनिया
का इलाज मुझे
मालूम है! फिर
मैं निपट लूंगा!'
इस
दुनिया में
जीवन जटिल न
होता, अगर
जीवन के
व्याख्याकार
तुम्हें न मिल
गये होते।
उन्होंने
सर्दी—जुकाम
को डबल
निमोनिया में
बदल दिया है!
यह
सूत्र बिलकुल
सीधा—साफ है।
लेकिन जब तुम
इस सूत्र को
पढोगे, तो
तुम सूत्र
नहीं पढ़ रहे
हो। सूत्रों
के सुंदर शब्द
आच्छादित हो
गये हैं —न
मालूम कितनी
व्याख्याओं
से! जैसे जब
तुम पढ़ोगे, 'सत्य'—क्या
समझोगे? पढ़ोगे,
'तप' —क्या
समझोगे? पढ़ोगे,
'सम्यक्
ज्ञान' —क्या
समझोगे? पढ़ोगे,
'ब्रह्मचर्य
'—क्या
समझोगे? शब्द
तो बहुत दूर
खो गये हैं—जंगलों
में
व्याख्याओं
के। तुम्हारे
हाथ में
व्याख्याएं
रह गई हैं।
'सत्य' शब्द
तुम्हें याद
दिलायेगा
शास्त्रों की—और
शास्त्रों
में सत्य नहीं
है। क्योंकि
शब्दों में ही
सत्य नहीं है।
सत्य है शून्य
में।
और
तुमसे सदा कहा
गया है कि
सत्य बोलो।
तुम्हारे
भीतर 'सत्य' में और 'बोलने'
में एक
संयोग बन गया
है। सत्य बोला
नहीं जाता—जीया
जाता है, अनुभव
किया जाता है।
यद्यपि जिसने
सत्य का अनुभव
किया, उसके
आचरण में, उसके
उठने—बैठने
में, उसके
हलन—चलन में, उसकी हर
गतिविधि में
सत्य की आभा होती
है। उसके
शब्दों में भी
सत्य की
प्रतिध्वनि
होती है। सत्य
नहीं—प्रतिध्वनि।
और उस
प्रतिध्वनि
को वही समझ
पायेगा, जिसने
अपने भीतर का
सत्य जाना हो।
गीता
जिन्हें
कंठस्थ है, कि
रामायण की
चौपाइयां याद
किये बैठे हैं,
कि बाइबिल
या कुरान या
धम्मपद सिर पर
ढो रहे हैं—इनसे
तो सत्य बहुत
दूर हो गया।
सत्य
तो तुम्हारे
जीवन का सार
है। सत्य बाहर
नहीं है, भीतर
है। वेदों में
नहीं है, पुराणों
में नहीं है; तुम्हारी
चेतना की
सुगंध है।
सत्य ध्यान
में है।
लेकिन
जब भी तुम 'सत्य'
शब्द को
सुनते हो, तो
तुम्हें लगता
है—शास्त्र।
याद आते हैं—वेद,
कुरान, बाइबिल।
याद आते हैं—बुद्ध,
महावीर, क्या,
क्राइस्ट, मोहमम्द!
'सत्य' शब्द
सुनकर
तुम्हें कभी
अपनी याद आती
है? आनी
वही चाहिए। न
बुद्ध से सत्य
मिलेगा, न
कृष्ण से।
सत्य मिलेगा
तो अपने स्मण
से। मगर
व्याख्याओं
का घनघोर जंगल
है!
इतनी
सदियां बीत गई
हैं तुम्हें
संस्कारिता
होते—होते कि
अब सीधी—सादी
बात भी बोध
में नहीं आती—विकृत
हो जाती है; खंडित
हो जाती है; टूट—फूट
जाती है; कुछ
की कुछ हो
जाती है!
सत्य
है—ध्यान की, शून्य
की, निर्विचार
की अनुभूति।
उस अनुभूति
में न विचार
होते, न
कल्पना होती,
न तुम होते
हो। क्योंकि
तुम स्वयं भी
एक कल्पना हो,
एक विचार हो।
अहंकार विचार
की एक तरंग—मात्र
है—एक लहर। जहां
सारी लहरें खो
गईं, वहां
अहंकार भी खो
गया।
सल
है निरअहंकारिता
की प्रतीति, उसका
साक्षात्कार।
लेकिन
क्या ऐसा
स्मरण आता है 'सत्य'
शब्द को
पढ़कर? जब
पढ़ोगे— 'सत्येन
लभ्यस्तगसा
ह्मोष आत्मा—यह
आत्मा सत्य है,
तप है, सम्यक्
ज्ञान है, ब्रह्मचर्य
है, तो
क्या
तुम्हारे मन
में विचार
उठते हैं? तप
से विचार उठता
है— सिर के बल
खड़े हुए लोग!
उपवास करते
हुए लोग! सूरज
से आग बरस रही
है, और वे
अपने चारों
तरफ धूनी
रमाये बैठे
हुए हैं! 'तप'
से तुम्हें
क्या याद आता
है? कीटों
पर लेटे हुए
लोग! सर्दियों
में बर्फीली नदियों
में नग्न खडे
लोग! कि
गर्मियों में
जलती हुई रेत
पर पालथी मारे
हुए बैठे लोग!
जटाजूटधारी—शरीर
के दुश्मन—अपने
को गलाने में
लगे, सडाने
में लगे— इस
तरह के
आत्महताओ की
याद आती है।
'तप' शब्द
को सुनकर ही
याद आती है उन
लोगों की जो
अपने को कष्ट
देने में कुशल
हैं।
दुनिया
में दो तरह के
हिंसक हैं। एक
वे जो दूसरों
को सताते हैं।
ये छोटे हिंसक
हैं। क्योंकि
दूसरे कों तुम
सताओगे, तो
दूसरा कम से
कम आत्मरक्षा
तो कर सकता है।
प्रत्युत्तर
तो दे सकता है।
भाग तो सकता
है! पैरों पर
गिरकर
गिड़गिड़ा तो सकता
है! कोई उपाय
खोज सकता है।
रिश्वत दे
सकता है।
चापलूसी कर
सकता है। सेवा
कर सकता है।
गुलाम हो सकता
है।
और
दूसरे तरह के
वे आत्म—हिंसक
हैं,
जो खुद को
सताते हैं।
वहां कोई बचाव
नहीं है। वह
हिंसा बड़ी है।
अब तुम खुद ही
अपने को
सताओगे, तो
कोन तुम्हें
बचायेगा! कोन
प्रतिकार करे?
अपना ही हाथ
अगर आग में
जलाना हो; तुमने
ही अगर तय
किया हो आग
में जल जाने
का—तो फिर
बचना मुश्किल
है!
आत्महत्या
करनेवाले
व्यक्ति को
कैसे बचाओगे? कानून
नियम बनाता है,
मगर बचा
पाता है क्या?
कानून बड़ा मूढ़तापूर्ण
मालूम पड़ता है।
कानून कहता है
: जो आदमी
आत्महत्या
करेगा, उसको
सजा मिलेगी।’
अब यह बड़े
मजे की बात है!
उसने तो
आत्महत्या कर ही
ली, अब तुम
क्या खाक सजा
दोगे? सजा
तुम उसको दे
सकते हो, जो
आत्महत्या कर
रहा हो और कर न
पाया हो। और
जो आत्महत्या
करना चाहता है,
क्या इस
दुनिया में
उसे कुछ कमी
है! इतने सरदार
इतनी बसें चला
रहे हैं, ट्रके
चला रहे हैं।
देशी ठर्रा
पिये हुए—ट्रेनें
चल रही हैं!
मालगाडिया
दौड़ रही हैं! झाडू
हैं, पहाड़
हैं, नदी
हैं, समुद्र
हैं! जिसको
आत्महत्या
करनी है, इस
बड़े जगत में, कोई उसे बचा
सकता है! कैसे
बचाओगे? कोई
नहीं बचा सकता।
हां, पकड़ा
जाता है वह
व्यक्ति जो
करना नहीं
चाहता था, यूं
ही करने का
बहाना कर रहा
था! करने की
तरकीब कर रहा
था, कि
उसका कुछ
प्रभाव पड़
जाये। धमका
रहा था।
स्त्रियां
आत्महत्या के
बहुत उपाय
करती हैं। दो—चार
गोली खा लेंगी
नींद की। मगर
इतनी कभी नहीं
खाती कि मर
जायें! इतनी
ही खाती हैं
कि तुमको थोड़ी
मुसीबत में
डाल दें। कि
अब डाक्टर को
बुलाओ; कि अब
पुलिस से
छिपाओ! कि अब
डरो उनसे! कि
अब दुबारा
तुमने जो भूल
की थी—अब न
करना! अब उनकी
मानकर चलना!
यह उनकी तरकीब
है। यह
गांधीवादी
तरकीब है! अपने
को सताकर तुम
पर कब्जा पाने
की।
'तप' से
तुम्हारे मन
में क्या खयाल
उठता है? 'तप'
शब्द
तुम्हारे
भीतर कोन —सी
आकृतियां
उभारता है?
—आत्म—दमन, आत्म—पीडन।
लेकिन तप से
इसका कोई
संबंध नहीं है।
तप
का ठीक—ठीक
अर्थ इतना ही
होता है कि
जीवन में बहुत
दुख हैं, इन
दुखों को
सहजता से, धैर्य
से, संतोष
से, अहोभाव
से अंगीकार
करना। और दुख
पैदा करने की
जरूरत नहीं है;
दुख क्या
कुछ कम है!
पांव—पांव पर
तो पटे पड़े
हैं। दुख ही
दुख ही तो हैं
चारों तरफ।
लेकिन इन
दुखों को भी
वरदान की तरह
स्वीकार करने
का नाम तप है।
सुख
को तो कोई भी
वरदान समझ
लेता है। दुख
को जो वरदान
समझे, वह
तपस्वी है। जब
बीमारी आये, उसे भी
प्रभु की
अनुकम्पा
समझे; उससे
भी कुछ सीखे।
जब दुर्दिन
आयें, तो
उनमें भी
सुदिन की
संभावना पाये।
जब अंधेरी रात
हो, तब भी
सुबह को न
भूले। अंधेरी
से अंधेरी
बदली में भी
वह जो शुभ्र
बिजली कौंध
जाती है, उसका
विस्मरण न हो।
कुछ
दुख आरोपित
करने की जरूरत
नहीं है; दुख
क्या कम हैं? इसलिए मैं
अपने
संन्यासी को
नहीं कहता कि 'संसार को
छोड़ो; जंगल
में जाओ; अपने
को सताओ।’ संसार
में कोई दुखों
की कमी है, कि
तुम्हें जंगल
जाना पड़े!
यहां तरह—तरह
के दुख हैं।
जीवन चारों
तरफ संघर्ष, प्रतियोगिता,
वैमनस्य, ईर्ष्या, जलन, द्वेष—इन
सबसे भरा है।
एक दुश्मन
नहीं—हजार
दुश्मन हैं।
जिनको तुम
दोस्त कहते हो,
वे भी
दुश्मन हैं।
कब दुश्मन हो
जायेंगे—कहना
मुश्किल है।
मैक्यावली
ने अपनी
अद्भुत किताब 'प्रिंस'
में लिखा है
कि अपने
दोस्तों से भी
वह बात मत
कहना, जो
तुम अपने
दुश्मनों से न
कहना चाहो।
क्यों? क्योंकि
तुम्हारा जो
आज दोस्त है, वह कल
दुश्मन हो
सकता है।
मैक्यावली
पश्चिम का
चाणक्य है।
दोस्त से भी
मत उघाड़ना
अपने हृदय को, क्योंकि
वह भी नाजायज
लाभ उठायेगा
किसी दिन। फिर
तुम पछताओगे।
यहां
तो सब तरफ
कांटे ही काटे
हैं,
अब और काटो
की शैया बनाने
की जरूरत क्या
है? तुम
जिस शैया पर
सोते हो रोज, वह कीटों की
नहीं? उतने
से मन नहीं
भरता?
पत्नी
और पति
तुम्हें कम
दुख दे रहे
हैं?
मैंने
सुना. पति
पत्नी में पति
के देर से घर
लौटने पर झगड़ा
हो रहा था।
पत्नी बोली, 'अगर
आप आइंदा रात
नौ बजे के बाद
आयेंगे, तो
मैं आपको
छोड़कर किसी और
से शादी कर
लूंगी।’
पति
ने कहा, 'तब तो
पड़ोसवाले
गुप्ताजी से
ही कर लेना!'
पत्नी
ने
आश्चर्यचकित
होते हुए पूछा, 'गुप्ताजी
से ही क्यों?'
पति
ने शांति से
उत्तर दिया, 'मैं
उनसे बदला
लेना चाहता
हूं।’
यहां
कुछ कमी है!
एक
दोस्त अपने
संगी—साथी से
कह रहा था, 'बारिश
आनेवाली है, मुझे बड़ा डर
लग रहा है; मेरी
पत्नी बाजार
गयी हुई है।
उसके
मित्र ने कहा, 'इसमें
डरने की क्या
बात है! अरे, बारिश उसे
कुछ गला तो न
देगी? कोई
मिट्टी की तो
बनी नहीं!
बहुत बारिश आ
जायेगी, तो
किसी दुकान
में घुसकर खड़ी
हो जायेगी।’
मित्र
ने कहा, 'इसी
का तो डर है।
जिस दुकान में
घुस जाती है, वहीं उधारी
करके आ जाती
है!'
इस
जिंदगी में
तुम दुख तो
देखो—कुछ कमी
है! तप करने
कहां जा रहे
हो!
डाक्टर
चंदूलाल से कह
रहे थे, 'चंदूलाल,
यह कोई
पुरानी बीमारी
है, जो
आपका सुख—चैन
नष्ट कर रही
है।’
चंदूलाल
मुंह पर हाथ
रखकर अपनी
पत्नी की तरफ
इशारा करके
डाक्टर से
बोले, 'जरा
धीरे डाक्टर
साहब! वह इधर
ही खड़ी हुई है!'
एक
पुरुष और एक
स्त्री पार्क
में बैठे बहुत
जोर—जोर से
बातें कर रहे
थे। अचानक
स्त्री उठी और
पुरुष को एक
चांटा मारकर
गुस्से में
वहां से चली
गई। इतने में
पास से
गुजरनेवाले
व्यक्ति ने
वहां बैठे
पुरुष से पूछा, 'वह
स्त्री क्या
आपकी पत्नी थी?'
इस
पर पुरुष ने
बडे तैश में
आकर जवाब देते
हुए कहा, ' और
नहीं तो क्या,
तुम मुझे
इतना बे—गैरत
इनसान समझते
हो कि मैं
किसी ऐरी—गैरी
स्त्री से
चांटा खा
लूंगा?'
कई' वर्षों
के बाद कालेज
के दो साथियों
की मुलाकात हो
गई। और बातचीत
का सिलसिला
हुआ।’कैसे
रहे इतने
वर्षों तक?' 'कोई खास बात
नहीं हुई।
कालेज छोड़ने
के फौरन बाद
शादी कर ली थी।’
'यह तो ब ड्रा
अच्छा किया।’
'नहीं। मेरी
पत्नी बहुत
लड़ाकू थी।’
'
ओह! इससे
जीवन जहर हो
गया होगा?'
'नहीं। इतना
बुरा भी नहीं
हुआ। दहेज में
पांच हजार
रुपये मिले थे।’
'उससे तो बड़ा
फायदा हुआ
होगा।’
'नहीं। उस
रकम से मैंने
दुकान कर ली।
लेकिन बिक्री
ही नहीं होती
थी।’
'तब तो बडी
मुसीबत रही
होगी?'
'नहीं। बुरा
भी नहीं हुआ।
युद्धकाल में
दुकान बड़े भाव
में बेच दी।
दस हजार का
नगद फायदा हो
गया।’
'यह बहुत
अच्छा किया
तुमने!'
'नहीं। इतना
अच्छा भी नहीं
हुआ। उस रकम
से मैंने एक
मकान खरीद
लिया और मकान
में आग लग गई!'
'यह तो बड़ी
बदकिस्मती
रही।’
'नहीं, इतनी
बदकिस्मती भी
नहीं रही। मेरी
पत्नी भी
उसमें जल गई!'
यहां
जिन्दगी में
क्या कमी है!
तप
का मेरी
दृष्टि में एक
ही अर्थ है :
जीवन में काटे
भी हैं, फूल
भी हैं; फूलों
का स्वागत तो
कोई भी कर
लेता है; काटो
का भी जो
स्वागत कर ले,
वह तपस्वी
है। कुछ
तुम्हें
कांटे ईजाद
करने की
आवश्यकता नहीं
है।
यहां
दिन भी हैं और
रातें भी हैं।
कुछ दीये
बुझाने की
तुम्हें
जरूरत नहीं है।
दिन को तो
स्वभावत: तुम
प्रसन्न हो।
रात का अंधेरा
भी अंगीकार कर
लो।
परितोष
का नाम तप है।
संतोष का नाम
तप है।
तप
आत्म—हिंसा
नहीं है—अपने
को सताना नहीं
है। सताना तो
हर हाल बुरा
है—किसी को भी
सताओ—तुम भी
उसमें
सम्मिलित हो।
लेकिन जो भी
जीवन में आ
जाये—सुख हो
कि दुख, सफलता
हो कि विफलता,
हारे मिले
कि जीत—तुम्हारे
भीतर कोई
अन्तर ही न
पड़े; तुम
अडिग—अकंम्प
बने रहो—यह
तपश्चर्या है।
इसलिए
तप के लिए
किसी हिमालय
की गुफा में
बैठने की
जरूरत नहीं; वह
तो तप से
भागना है।
हिमालय की
गुफा में क्या
खाक तप होगा? जीवन चुनौती
है—प्रतिपल।
और हर चुनौती
छिद जाती है
कटार की तरह।
उसे फूल की
तरह स्वीकार
कर लेना तपश्चर्या
है।
इसलिए
न तो सिर के बल
खड़े होओ, न
धूनी रमाओ, न भभूत लगाओ,
न जटाजूट
बढ़ाओ, न
उपवासे मरो।
इस सब की कोई
जरूरत नहीं है।
परमात्मा ने
जीवन में सुख
और दुख को
बिलकुल समतुल
बनाया एं।
जीवन में हर
चीज समतुल है।
नहीं तो
अस्तित्व
बिखर जायेगा।
इसमें
समतुलता होनी
ही चाहिए; जितना
सुख—उतना दुख;
जितनी रात—उतने
दिन; जितनी
सफलताएं—उतनी
असफलताएं।
तुम दोनों को
सम— भाव से ले
सको—तो तप।
लेकिन
तुम्हारी
व्याख्याओं
ने बड़ी
मुश्किल कर दी
है! तुम्हारी
व्याख्याओं
ने तुम्हें न
मालूम क्या—क्या
सिखा रखा है।
मेरे
हिंसाब से तप
तो जीवन की
सहज साधना है; असहज
नहीं।
प्रत्येक
वस्तु को जिस
दिन तुम आशीष
की तरह स्वीकार
करने को राजी
हो जाओगे, अहोभाव
से; जीवन
के लिए भी धन्यवाद
दोगे
परमात्मा को—मृत्यु
के लिए भी; बस,
उस दिन
जानना कि
तुम्हारे
भीतर तप का
आविर्भाव हुआ
है।
सत्य
है अपने स्वयं
की शून्यता का, मौन
का, निर्विचार
का, निर्बीज
अवस्था का
अनुभव। और तप
है : बाहर जो
जीवन फैला है,
उसे सम— भाव
से देखने की
दृष्टि।
फिर
तीसरा शब्द है—'सम्यक्
ज्ञान'। यह
शब्द यूं तो
हिंदू
शास्त्रों
में पाया जाता
है, मुण्डकोपनिषद्
में है; बौद्ध
शास्त्रों
में पाया जाता
है; जैन
शास्त्रों
में पाया जाता
है—लेकिन
जैनों ने इस
शब्द पर अपनी
आधारशिला रखी है;
उन्होंने
इसे बहुमूल्य
माना है।
लेकिन अगर जैन
पण्डित से
पूछोगे, तो
सम्यक् शान का
अर्थ होता है—जो
गान जैन
शास्त्र में
है! वह सम्यक्
ज्ञान! जो
ज्ञान जैन
शास्त्र में
नहीं, किसी
और शास्त्र
में है—वह
असम्यक्
ज्ञान! जैन
शास्त्र—शास्त्र;
अजैन
शास्त्र——कुशास्त्र!
जैन गुरु—गुरु;
अजैन गुरु—कुगुरु!
जैन मंदिर में
बैठी प्रतिमा—सुदेव;
किसी और
मंदिर में
बैठी प्रतिमा—कुदेव!
इतने
अद्भुत शब्द
को,
इतने
प्यारे शब्द
को ऐसा बिगाड़ा,
ऐसा गंदा
किया! सम्यक्
ज्ञान का अर्थ
होता है : ठीक—ठीक
जानना।’सम्यक्'
शब्द का
अर्थ होता है—ठीक;
जैसा है
वैसा जानना।
एक ही शर्त
पूरी करनी
जरूरी है.....।
जैन होना
जरूरी नहीं है।
हिंदू या
मुसलमान होना
जरूरी नहीं है।
एक शर्त पूरी
करनी जरूरी है।
और उस शर्त
में, तुम
बड़े चकित
होओगे, तुम्हें
जैन होना, बौद्ध
होना, हिदू
होना, मुसलमान
होना छोड़ना
होगा। अगर
सम्यक् ज्ञान
को पाना है, तो तुम्हें
वे सारी
धारणाएं छोड़
देनी होंगी, जो तुम्हारे
शान को सम्यक्
नहीं होने
देतीं।
जब
तुम पहले से
ही कोई धारणा
लेकर चलते हो, तो
तुम उसे कैसे
देखोगे—जो है!
तुम तो वही
देखोगे, जो
तुम देखना
चाहते हो।
तुम्हारी आंखों
पर तो एक परदा
है। तुम्हारी आंखों
में तो एक चित्र
रमा है, एक
चित्र बसा है,
उसी चित्र
के आधार से
तुम यथार्थ को
देखोगे। ऐसा
देखना—असम्यक्
ज्ञान। अगर
कुरान बीच में
आ जाये, या
गीता—महावीर
या बुद्ध—तो
तुम जो जानोगे—वह
असम्यक्
ज्ञान।
कोई
बीच में न आये; तुम
सीधा—सीधा
जानो। जानने
की क्षमता
तुम्हारी
निर्मल हो, स्वच्छ हो—किसी
पूर्वाग्रह
से आच्छादित
नहीं, किसी
पूर्व— धारणा
से भरी नहीं; दर्पण की
तरह हो; जो
सामने आये, उसे झलका दे;
जैसा है
वैसा झलका दे।
यूं न कहे कि
इस शक्ल को
मैं न
दिखाऊंगा, क्योंकि
यह शक्ल सुंदर
नहीं!
कहते
हैं,
बाबा
तुलसीदास को
कृष्ण के
मंदिर में ले
जाया गया, तो
उन्होंने
झुकने से
इनकार कर दिया।
उन्होंने कहा,
'मैं नहीं
झुकूंगा। मैं
तो धनुर्धारी
राम के सामने
ही झुकता हूं।’
कहा
उन्होंने
कृष्ण से—तुलसी
माथा तब नवै.....।
शर्त लगा दी
कि यह
तुलसीदास का
जो माथा है, तब झुकेगा—' धनुष—बाण
लेउ हाथ!' जब
हाथ में धनुष—बाण
लोगे, तो
यह माथा
झुकेगा!
इसमें
छुपे हुए
अहंकार को
देखते हैं! यह
माथा भी सशर्त
झुकेगा। पहले
मेरी शर्त
पूरी करो।
तुम्हारे लिए
नहीं झुकूंगा; मेरी
शर्त पूरी
होगी, तो
झुकूंगा। और
मेरी शर्त है
कि धनुष—बाण
हाथ लो।
कृष्ण
में क्या
खराबी थी!
बांसुरी में
क्या बुराई!
धनुष—बाण से
तो बेहतर है।
धनुष—बाण से
तो ज्यादा
विकसित है!
धनुष—बाण से
तो बहुत
प्यारी। मगर
नहीं, अपनी
धारणा है!
और
यह तुलसीदास
का ही रोग
नहीं है। यह
पीलिया सभी की
आंखों पर छाया
हुआ है।
मैं
छोटा था। जैन
घर में मैं
पैदा हुआ।
मेरे संगी—साथी
तो हिंदू थे।
उनके साथ मैं
मंदिर जाता।
तो मुझसे उम्र
में जो बड़े
जैन लड़के थे, वे
मुझसे कहते—'माथा मत
झुकाना! ये
अपने भगवान
नहीं हैं! यह
हिंदू मंदिर
है। यह कोई
जैन मंदिर
नहीं।’ और
जब हिंदू
बच्चों के साथ
मैं कभी जैन
मंदिर पहुंच
जाता, तो
वे कोई भी सिर न
झुकाते! वे
कहते, 'ये
नागा बाबा!
नंग— धडूंग
बैठे हैं।
इनके सामने
क्या सिर
झुकाना!' वे
हंसी —मजाक
उड़ाते।
यह
छोटे बच्चों
की ही बात
होती, तो
क्षम्य थी; बड़े बच्चों
में भी कुछ
फर्क नहीं।
उम्र ही
ज्यादा है; बच्चे वही
के वही!
तुम
किसी जैन मुनि
को ले जाओ
कृष्ण के
मंदिर में—सिर
नहीं
झुकायेगा।
कुदेव के
सामने सिर
झुके! तुम ले
जाओ किसी हिंदू
संन्यासी को
वह महावीर के
सामने सिर
नहीं झुकायेगा।
क्योंकि
महावीर तो
नास्तिक!
बुद्ध के
सामने सिर
नहीं
झुकायेगा।
बुद्ध तो
भ्रष्ट
करनेवाले!
इन्होंने ही
तो देश को
बरबाद कर दिया।
इन्होंने ही
तो
भ्रष्टाचार
के बीज बोये!
तुम
मस्जिद के
सामने से
गुजरते हो, तुम्हारे
मन में कभी
भाव उठता है
कि झुक जाओ, कि जाकर दो
क्षण भीतर
आराधना कर लो,
प्रार्थना
कर लो! सवाल ही
नहीं उठता। और
झाडू के नीचे
किसी ने पत्थर
पर लाल रंग
पोत दिया है, दो फूल रख
दिये हैं—एकदम
घुटने टेककर
हनुमानजी का
चालीसा शुरू!
मुसलमान को
कुछ नहीं होता
वहां।
तुम्हारी
अपनी धारणाएं आंखों
पर छायी रहती
हैं,
उन्हीं से
तुम देखते हो;
इसलिए कुछ
का कुछ देखते
हो; जो है
वैसा ही नहीं
देखते। दर्पण
की तरह जो हो
जाये, वह
सम्यक् ज्ञान
को उपलब्ध
होता है।
दर्पण का कोई
आग्रह नहीं
होता; निराग्रही
होता है।
दर्पण के
सामने सुंदर
चेहरे वाला
व्यक्ति खड़ा
हो तो, असुंदर
खड़ा हो तो—धनुष—
बाण लिए राग
खड़े हों तो, औg बांसुरी
बजाते कृष्ण
खड़े हों तो—और
नग्न महावीर
खड़े हों तो—कोई
भेद न पड़ेगा।
दर्पण तीनों
को झलकायेगा;
समभाव से
झलकायेगा।
सम्यक्
ज्ञान का अर्थ
होता है—ठीक—ठीक
जानना। और ठीक—ठीक
जानने के लिए
जरूरी है—शास्त्रों
से मुक्ति, सिद्धांतों
से मुक्ति, धारणाओं से
मुक्ति, पूर्वाग्रहों
से मुक्ति। जब
तुम यह सारा
कचरा अलग कर
दोगे—न हिंदू
न मुसलमान, न ईसाई, न
जैन—तब तुम
सम्यक् ज्ञान
को उपलब्ध हो
सकेंगे।
लेकिन
सारी दुनिया
अपने —अपने
कचरे को पकडे
हुए है—जोर से
पकड़े हुए है।
मेरा कचरा
सोना; तुम्हारा
सोना—कचरा!
मेरा है —इसलिए
सोना होना ही
चाहिए!
'सम्यक्
ज्ञान' जैसा
प्यारा शब्द —अपनी
सारी गरिमा खो
दिया।
और
'ब्रह्मचर्य'
से तुम क्या
अर्थ लेते हो,
जब यह शब्द
तुम्हारे कान
में पड़ता है? तो तुम्हारे
भीतर क्या
अर्थ उमगते
हैं? तो
ब्रह्मचर्य
से तुम्हारी
धारणाएं बड़ी
अजीब हैं।
मेरे
एक मित्र थे—लाला
सुंदरलाल।
उनके लिए
ब्रह्मचर्य
का अर्थ था—लगोट
के पक्के! वही
अधिकतम लोगों
का अर्थ है—लगोट
के पक्के!
कसकर लंगोट
बांधा—तो
ब्रह्मचर्य!
तुम
कितने ही कसकर
लंगोट बांध लो, इससे
कुछ
ब्रह्मचर्य
नहीं हो
जायेगा!
ब्रह्मचर्य
सिर्फ
कामवासना का
दमन नहीं है।
कामवासना का
रूपांतरण है।
और दोनों में
जमीन—आसमान का
भेद है। जो
कामवासना को
दबायेगा, वह
तो रुग्ण हो
जायेगा।
ब्रह्मचर्य
को तो क्या
उपलब्ध होगा;
वह तो
सामान्य, नैसर्गिक
वासना से भी
नीचे गिर
जायेगा। वह तो
और भी विकृत
हो जायेगा।
उसके जीवन में
तो हजार तरह
की विकृतियां
आ जायेंगी। ही
यह भी हो सकता
है कि तुम उन
विकृतियों को
भी पूजा देने
लगो!
विकृतियां
भी पूजी जा
रही हैं!
दबाया
अगर तुमने
अपनी
कामवासना को, तो
वह उभरकर
निकलेगी। हां,
नये—नये ढंग
से निकलेगी कि
तुम पहचान न
सकी। नई
शक्लें लेगी,
नये वस्त्र
पहनेगी कि तुम
पहचान न सको।
अभी
मोरारजी
देसाई ने चार—छह
दिन पहले ही
एक वक्तव्य
में कहा कि जब
मैं
प्रधानमंत्री
था और कैनेडा
गया तो उनकी
उम्र करीब
तेरासी वर्ष
थी तब। तेरासी
वर्ष की उम्र
में भी उनको
कैनेडा में देखने
योग्य चीज
क्या अनुभव
में आयी? वह था
नाइट क्लब—जहां
कैबरे नृत्य
होता है।
स्त्रियां
अपने वस्त्र
उघाड़—उघाड़कर
फेंक देती हैं;
धीरे— धीरे
नग्न हो जाती
हैं!
कारण
क्या देते हैं
वे—कि मैं
जानना चाहता
था कि नाइट
क्लब में होता
क्या है! मगर
जानकर
तुम्हें
जरूरत क्या? तेरासी
वर्ष की उम्र
में तुम्हें
यह उत्सुकता
क्या? कि
वहा क्या होता
है! होने दो।
इतनी बड़ी
दुनिया है, इतनी चीजें
हो रही हैं!
कैनेडा में और
कुछ नहीं हो
रहा था! सिर्फ
नाइट क्लब ही
हो रहे थे!
कैनेडा में और
कुछ देखने
योग्य न लगा? नाइट क्लब!
और वह भी चोरी
से गये! चोरी
से भी जाने
योग्य लगा!
क्योंकि पता
चल जाये कि
नाइट क्लब में
गए हैं, कैबरे
नृत्य देखने
गए हैं, तो
बदनामी होगी।
और मोरारजी
देसाई—तो
महात्मा समझो!
ऋषि—मुनि हैं!
मगर
उन्होंने यह
बात अब क्यों
कही?
अब कहां, उसके पीछे
और कारण है।
गुजरात
विद्यापीठ के
विद्यार्थियों
के सामने वे
अपने
ब्रह्मचर्य
की घोषणा कर
रहे थे, उसमें
यह बात भी कह
गये! कि मेरा
ब्रह्मचर्य वहां
भी डिगा—मगा
नहीं! तेरासी
वर्ष की उम्र
में कैबरे
नृत्य देखने
गए—ब्रह्मचर्य
डिगा नहीं
उनका! यह तो
यूं हुआ कि कब्र
में कोई पड़ा
हो, और
चारों तरफ
कैबरे नृत्य
होता रहे! और
कब्र में पड़ा
हुआ महात्मा
कहे, 'अरे
नाचते रहो।
मैं अपने
ब्रह्मचर्य
में पक्का!
लंगोट का पक्का,
ऐसा कसकर
लंगोट बांधा
है कि क्या
तुम मुझे
हिलाओगे।’
तो
उन्होंने बड़े
रस लेकर वर्णन
किया है! कि जैसे
ही मैं अंदर
गया,
चार सुंदर
स्त्रियां जो
मुझे पहचान
गयीं, क्योंकि
अखबारों में
उन्होंने
मेरी तस्वीर देखी
होगी—आकर मेरे
पास नाचने
लगीं; हाव—
भाव प्रकट
करने लगीं।
मगर मैं भी
बिलकुल संयम
साधे, नियंत्रण
किये अडिग खड़ा
रहा!
अब
यह संयम साधना, और
यह अडिग खड़े
होना और यह
नियंत्रण को
बनाये रखना—यह
किस बात का
सबूत है?
अभी
भी वे ही सब
रोग भीतर छाये
हुए हैं—अभी
भी! कहीं कुछ
भेद नहीं पड़ा
है! नहीं तो
नियंत्रण की
भी क्या जरूरत
थी?
यह इतना
संयम बांधने
की क्या जरूरत
थी! अरे, नाचती
थीं, तो
नाचने देना
था! बैठते, और
प्रसन्न होते।
अगर नाच अच्छा
था, तो
प्रशंसा करनी
थी। या कम से
कम कुछ न बनता
तो थोडा
नाचते! मगर
बिलकुल खड़े
रहे अपने को
सम्हाले हुए!
कि कहीं पैर फिसल
न जायें!
पैर
फिसलने का डर!
ये विकृतियां
हैं। फिर आदमी
विकृतियों से
निकलता है.....।
मुल्ला
नसरुदीन ने
अपने बेटे एक
फजलू से कहा कि
'देख, गांव
में गंदी
फिल्म लगी हुई
है। अश्लील है।
कभी देखने मत
जाना। ऐसे
गंदे स्थान
में कभी जाना
ही मत। जायेगा,
तो बहुत
पछतायेगा!'
फिर
फजलू मुझसे कह
रहा था कि 'मैं
गया और बहुत
पछताया। पिताजी
ने ठीक कहा था
कि बहुत पछताएगा।’
मैंने कहा,
'हुआ क्या?'
उसने
कहा,
'हुआ यह कि
पिताजी ने जो
कहा था, सब
ठीक निकला।
उन्होंने दो
बातें कहीं
थीं। एक तो :
ऐसी चीजें
देखने को
मिलेंगी, जो
नहीं देखनी
चाहिए। और
दूसरा कि बहुत
पछतायेगा।
दोनों बातें
हुईं।’
मैंने
कहा,
'फिर भी मैं
समझूं कि क्या—क्या
हुआ!'
उसने
कहा,
'पहली बात
तो यह हुई कि
पिताजी वहा
देखने को मिले!
उन्होंने कहा
था कि ऐसी
चीजें देखने
को मिलेंगी, जो नहीं देखनी
चाहिए! और
दूसरा—मुझे
देखते ही
उन्होंने
पिटाई की! कि
तू यहां क्यों
आया! सो बहुत
पछताया भी।
हालांकि
पिटते हुए
मैंने इतना
जरूर पिताजी से
पूछा कि आप
क्यों यहां
आये? उन्होंने
कहा, मैं
तुझे देखने
आया! कि कहीं
फजलू गया तो
नहीं है!'
क्या—क्या
मजे दुनिया
में चलते हैं!
फजलू को देखने
गये थे! ये
फिल्म में
बैठे हुए लोग
फिर बहाने
खोजेंगे। फिर
क्या—क्या
बहाने नहीं
खोजते हैं!
जैसे
ही व्यक्ति
दमन करेगा, वैसे
ही उसके भीतर
जो दमित वेग
हैं, वे
पीछे के
दरवाजों से
रास्ते बनाने
लगेंगे। उस
व्यक्ति के
जीवन में
दोहरापन पैदा
हो जायेगा; या अनेकता
पैदा हो
जायेगी। उसके
बहुत चेहरे हो
जायेंगे। वह
खण्ड—खण्ड हो
जायेगा।
कहेगा कुछ—करेगा
कुछ—सोचेगा
कुछ—सपने कुछ
देखेगा। उसके
जीवन में
विकृति हो
जायेगी। उसके
जीवन की एकता
खंडित हो
जायेगी।
ब्रह्मचर्य
का यह अर्थ
नहीं है।’ब्रह्मचर्य'
शब्द में ही
अर्थ छिपा हुआ
है। ब्रह्म
जैसी चर्या; ईश्वरीय
आचरण; दिव्य
आचरण। दमित
व्यक्ति का
आचरण तो दिव्य
हो ही नहीं
सकता। अदिव्य
हो जायेगा; पाश्विक हो
जायेगा। पशु
से भी नीचे
गिर जाएगा।
दिव्य आचरण तो
एक ढंग से हो
सकता है कि
तुम्हारे
भीतर जो काम
की ऊर्जा है, वह ध्यान से
जुड़ जाए।
ध्यान और काम
तुम्हारे
भीतर जब जुड़ते
हैं, तो
ब्रह्मचर्य
फलित होता है।
ब्रह्मचर्य
फूल है—ध्यान
और काम की
ऊर्जा के जुड़
जाने का।
ध्यान अगर
अकेला हो, उसमें
काम की ऊर्जा
न हो, तो
फूल
कुम्हलाया
हुआ होगा; उसमें
शक्ति न होगी।
और अगर काम
अकेला हो
उसमें ध्यान न
हो—तो वह
तुम्हें पतन
के गर्त में
ले जाएगा।
काश!
ये दोनों जुड
जायें—ध्यान
और काम! काम है
शरीर की शक्ति
और ध्यान है
आत्मा की
शक्ति। और जहां
ध्यान और काम
जुड़े, वहां
आत्मा और शरीर
की शक्ति जुड़
गई। फिर तुम
इस महान ऊर्जा
के आधार पर उस
अंतिम यात्रा
पर निकल सकते
हो, जो
ब्रह्म की
यात्रा है। तब
तुम्हारे
जीवन में
ब्रह्मचर्य
होगा।
खंडित
व्यक्ति की तो
प्रतिभा भी
नष्ट हो जाती है।
इसलिए तो
मोरारजी भाई
देसाई जैसे
लोगों के पास
प्रतिभा नाम—मात्र
को नहीं है! हो
ही नहीं सकती।
बुद्धि से तो
इनकी दुश्मनी
हो जाती है!
तुम्हारे
तथाकथित
महात्माओं को
तुम देखो—इनके
भीतर तुम
बुद्धि न
पाओगे! इनको
तुम बिलकुल
बुद्ध पाओगे!
मगर ये
तुम्हें बुद्ध
दिखाई नहीं
पड़ते, क्योंकि
तुम्हारी
धारणा यह है
कि देखो, उपवास
कर रहे हैं! अब
उपवास से
बुद्धि का
क्या संबंध? बुद्धिमान
आदमी उपवास
करेगा ही
क्यों? जितनी
जरूरत होगी, उतना भोजन
करेगा। न
ज्यादा भोजन
करेगा—न कम
भोजन करेगा।
बुद्धिमान
आदमी तो हमेशा
समता से
जियेगा। शरीर
की जरूरत है, उतना भोजन
देगा। ज्यादा
नहीं देगा, क्योंकि
ज्यादा भोजन
शरीर पर बोझ
होता है। कम
भी नहीं देगा,
क्योंकि कम
शरीर की हत्या
करना है।
बुद्धिमान
व्यक्ति उतना
देगा, जितना
आवश्यक है।
उतना सोयेगा,
जितना
आवश्यक है।
उतना श्रम
करेगा, जितना
आवश्यक है। ये
तो बुद्धओं के
लक्षण हैं—या
तो कम खायेंगे—या
ज्यादा
खायेंगे! या
तो कम सोयेंगे—या
ज्यादा
सोयेंगे! या
तो कम श्रम
करेंगे—या
ज्यादा श्रम
करेंगे, कभी
मध्य में न हो
पायेंगे।
गांव में एक
प्रसिद्ध
नेताजी का
भाषण होनेवाला
था। वे सभा—स्थल
पर पहुंचे, तो देखा, वहां
सिर्फ एक ही
श्रोता बैठा
था! नेताजी ने
उससे पूछा, ' अब क्या
करना चाहिए?'
'जैसा आप ठीक
समझें,' उसने
उत्तर दिया—'मैं एक
मामूली किसान
हूं और यह
जानता हूं कि
जब मैं बीस
गायों का चारा
डालने जाता
हूं और यदि
वहा सिर्फ एक
गाय भी हो, तो
मैं उसे बिना
चारा दिये लौट
नहीं आता!'
उसके
उत्तर से
प्रभावित हो
नेताजी ने
भाषण दिया। एक
घंटे बाद जब
उनका धुंआधार
भाषण समाप्त
हुआ,
तो नेताजी
ने ग्रामीण से
पूछा, 'कहो
भाई, कैसा
रहा?'
'बहुत सुंदर',
किसान बोला,
'लेकिन मैं
तो एक मामूली
किसान हूं और
सिर्फ यह
जानता हूं कि
बीस गायों की
जगह मुझे यदि एक
गाय मिले तो
मुझे उसको सब
का चारा नहीं
खिला देना
चाहिए! और
आपने यही किया
कि गाय तो एक, और बीस गाय
का चारा मुझ
गरीब को खिला
दिया! बस, भागी—
भागी तबीयत
रही कि कब भाग!
मगर अकेला हूं
भाग भी नहीं
सकता! अब आपकी आंखें
भी मुझ पर गडी
हुई हैं! कई
बहाने खोजे, मगर कोई
बहाना हाथ न
आये! अच्छा भी
न लगे कि अब अकेला
ही आदमी। मैं
भी भाग जाऊं, तो फिर भाषण
कैसे चलेगा!
और नेताजी
क्या सोचेंगे!
बुरा इनके मन
को न लग जाये।
मगर इतना कहता
हूं कि आगे
जरा खयाल रखें।
जब गाय एक हो, तो बीस गाय
का घास उसके
सामने न
डालें!'
एक
साधारण किसान
में भी ज्यादा
बुद्धि होती है—तुम्हारे
नेताओं से।
फिर चाहे वे
नेता धार्मिक
हों—और चाहे
राजनैतिक, कुछ
भेद नहीं है
उनमें।
तुम
उनको 'नेता' ही किसलिए
कहते हो!
तुम्हारे
नेता कहने के
भी कारण बड़े
अजीब होते
हैं! कोई चरखा
चलाता 'है,
हाथ की बनाई
हुई खादी
पहनता है—नेता
हो गया! कोई
उपवास करता है;
दों—तीन
घंटे
शीर्षासन
करता है—महात्मा
हो गया! इसमें
बुद्धिमत्ता
का कहीं भी
कोई संबंध है?
चरखा
चलाने में कोई
बहुत
बुद्धिमत्ता
की जरूरत है? थोड़ी
बहुत पहले रही
भी हो, तो
चरखा चलाते—चलाते
नष्ट हो
जायेगी। चरखा
चलाओगे—चरखा
ही हो जाओगे!
बस, खोपड़ी
में वही चरखा
ही घूमता
रहेगा! और कुछ
तो और भी
पहुंचे हुए—तकली
चला रहे हैं!
बैठे —बैठे
तकली ही
घुमाते रहते
हैं!
तुम
जिनको
धार्मिक कहते
हो,
जिनको तुम
महात्मा कहते
हो, कभी
सोचो भी—इनके
भीतर कहीं भी
कोई प्रतिभा
का लक्षण दिखाई
पड़ता है? कोई
मेधा दिखाई
पड़ती है? और
अगर मेधा ही न
हो? तो
ब्रह्मचर्य
नहीं है—यह
समझ लेना।
क्यौंकि
ब्रह्मचर्य
का और क्या
सबूत हो सकता है!
सबसे बड़ा सबूत
होगा—प्रतिभा
की
अभिव्यक्ति; प्रतिभा कै
हजार—हजार फूल
खिल जाना; प्रतिभा
के कमल खुल
जाना; प्रतिभा
की सुंगध का
उड़ जाना। उनके
कृत्य में भी
प्रतिभा होगी—उनके
उठने—बैठने
में, चलने—फिरने
में भी। इसलिए—'चर्या'।
चलना—फिरना, उठना—बैठना—उनके
जीवन. के हर
कृत्य में तुम
एक धार पाओगे,
एक चमक
पाओगे, एक
ओज पाओगे।
लेकिन
तुम्हारे
धार्मिक
नेताओं की
जिंदगी में
तुम एक जंग
लगी पाओगे। और
जितनी ज्यादा
जंग चढ़ी हो उन
पर,
उतने ही वे तुमको
जंचेंगे!
क्योंकि
तुम्हारी
धारणाएं, तुम्हारी
मान्यताएं.।
अब
कोई आदमी खड़ा
है दस साल से।
खडेश्री बाबा
हो गये वे! अब
दस साल से खड़े
हो,
इससे क्या
प्रतिभा. का
लेना—देना है!
दुनिया में कोन—सा
सौंदर्य बढ़
रहा है
तुम्हारे खड़े
होने से? कोन—सी
संपदा बढ़ रही
है? कोन—सा
सुख बढ़ रहा है?
कोन—सी शाति
बढ़ रही है? मगर
भक्तगणों की
भीड़ लगी हुई
है! भजन—कीर्तन
चल रहा है।
क्योंकि
खडेश्री बाबा
दस साल से खड़े'
हैं! दस साल
से नहीं, दस
हजार साल से
खड़े हों, इनके
खड़े होने से
क्या होता है!
ये खड़े—खड़े
ठूंठ हो गए
हों, तो भी
क्या होता है!
या
कोई मौन हो
गया!.....
मेरे
एक मित्र हैं, मेरे
साथ एक बार
कलकत्ता
यात्रा पर गये।
रास्ते में
यूं बात कर
रहे थे। एक
मौनी बाबा थे,
उनके वे
भक्त थे।
मैंने उनसे
पूछा कि 'मौनी
बाबा में
तुम्हें क्या
खास बात दिखाई
पडती है?'
'अरे,' उन्होंने
कहा, 'खास
बात! आज बीस
साल से मौन
हैं!'
मैंने
कहा,
'इसमें तो
कुछ खास बात
नहीं! मौन
होने से क्या
होना है? मौन
होने से उनकी
प्रतिभा में
क्या निखार आ
गया है? मौन
होने से उनके
जीवन में कोन—से
दीये जल गए
हैं? अगर
वे बुद्ध थे
बीस साल पहले,
तो मौन होने
से और बुद्ध
हो गए होंगे!' उन्होंने
कहा, 'अरे, आप भी कैसी
बात करते हैं!
अगर वे बुद्ध
होते, तो
इतने लोग उनको
कैसे पूजते? कोई मैं
अकेले ही
पूजता हूं।
कितने लोग
पूजते हैं!'
'अब'? मैंने
कहा, 'यह
दूसरी बात तुम
उठा रहे हो।
उन दूसरों से
मैं पूछूगा तो
वे कहेंगे कि
कितने लोग
पूजते हैं।
उसमें
तुम्हारी
गिनती करेंगे।
तो तुम दूसरों
को देखकर पूज
रहे हो!'
मैंने
कहा,
'तुम एक काम
करो। मेरे साथ
तुम कलकत्ता
चल ही रहे हो.....
.तुम तीन दिन
मौन रह जाओ।
और मैं, देखो,
तुम्हारी
पूजा करवा
दूंगा।’
उन्होंने
कहा,
' आप क्या
कहते हैं!
मेरी कोन पूजा
करेगा? मुझमें
कुछ है ही
नहीं!'
मैंने
कहा,
''तुम चुप तो
रहो। तीन दिन
चुप रहना। और
पूरा भी नहीं
कहता, रात
जब सब चलें
जायें—दरवाजा
बंद करके
तुम्हें जो भी
मुझसे कहना हो,
कह लेना।
क्योंकि
दिनभर रुके
रहोगे—घबड़ा
जाओगे।
दुकानदार
आदमी हो, चौबीस
घंटे बात करते
हो। तो रात
एकांत में तुम
मुझसे बोलने
की स्वतंत्रता
रखना। मगर दिन
में लाख कुछ
हो जाए, अपने
को बिलकुल
बांधे ही रखना,
बोलना ही मत।
कुछ अगर बोलना
ही होगा
तुम्हारे लिए,
तो मैं बोल
दूंगा।’
कहा, 'जैसी
आपकी मरजी।’ उनको बात
जंची, कि
करके देख लेने
जैसी है।
कलकत्ते
में मैं ठहरता
था सोहनलाल
दूगड़ के घर
पर। वे
कलकत्ता के एक
बड़े करोड़पति
थे। जब मैं
उनके घर
पहुंचा, वे
मुझे लेने आये,
तो
उन्होंने
पूछा कि 'आपके
साथ कोन हैं?'
मैंने
कहा,
'ये मौनी
बाबा हैं।’
'मौनी बाबा!
इनकी क्या खूबी
है?'
मैंने
कहा,
'ये तीस साल
से मौन हैं!'
वे
एकदम उनके
पैरों पर
गिरे! वे
बेचारे सज्जन जो
दुकानदारी
करते थे, कपड़ा
बेचते थे, और
कपड़ा भी कुछ
खास नहीं—कटपीस
की एक छोटी—सी
दुकान थी। सोहनलाल
दूगड़ जैसा
करोड़पति उनके
पैरों पर
गिरे! सकुचाये
भी। मैंने
उनको इशारा
किया कि 'सकुचाना
मत। अब जब
मौनी बाबा बन
गए, तो अब
डरना मत। अभी
बहुत कुछ होगा,
यह तो
शुरुआत है। जब
सोहनलाल दूगड़
तुम्हारे पैर
में गिरेंगे '
तो अभी तुम
कलकत्ते के सब
मारवाड़ियों
को गिरते
देखोगे। तुम
घबड़ाते क्या
हो; तुम
रुको जरा।’
वे
तो इतने घबड़ा
गये कि वे
मुझे हाथ से
धक्का मारें कि
भैया, यह बात
ठीक नहीं!'
घर
पहुंचे।
सोहनलाल ने
जल्दी से अपनी
पत्नी को
बुलाया कि
मौनी बाबा.....!
मोहल्ले के
लोग इकट्ठे हो
गए कि 'मौनी
बाबा आये हैं!
तीस साल से
मौन हैं!' और
मौनी पर जो
गुजर रही है, वह मै जानूं!
कि वे रात का
वक्त देख रहे
हैं कि कब रात
आये, कि
अपने दिल की
मुझसे कहें!
जैसे ही रात
आई, दरवाजा
जल्दी से बन्द
करके मेरे
पैरों पर गिर पड़े
और कहा कि 'मुझे
माफ करो। मुझे
यह काम करना
ही नहीं! मुझे
जाने दो! मैं
तो अभी भागे
जाता हूं रात
को ही चुपचाप
निकल जाऊंगा!
यह क्या झंझट
मेरे पीछे लगा
दी! इतने—इतने
बड़े लोग, जिनके
घर मुझे अगर
मिलने भी जाना
होता, तो
कोई मिलने
नहीं देता।
चपरासी भीतर
घुसने नहीं
देता! और वे
मेरे पैर पर
गिरते हैं; तो मुझको
बड़ा संकोच
लगता है! और
स्त्रियां, उनकी सुन्दर
से सुन्दर
स्त्रियां
मेरे पैर छू
रही हैं! यह
क्या करवा रहे
हो आप?'
मैंने
कहा,
'मैं कुछ
नहीं करवा रहा
हूं। यह मैं
तुमको बता रहा
हूं कि कैसी—कैसी
बेवकूफिया इस
देश में हैं।
तुम भी
बेवकूफों में
हो जिसकी तुम
बीस साल से पूजा
कर रहे हो.....। और
तुम तो अभी
सिर्फ पाच— छह
घंटे ही मौन
रहे हो—तो यह
चमत्कार! अभी
तुम तीन दिन
रुको तो! अभी
तुम देखना :
इलाज शुरू हो
जायेंगे, बीमारिया
ठीक होने
लगेंगी।’
'अरे,' उन्होंने
कहा, 'आप
क्या कह रहे
हैं! मुझमें
कुछ चमत्कार
नहीं, कोई
शक्ति नहीं!'
'तुम', मैंने
कहा, 'फिक्र
ही मत करो। सब
आ जायेगा। मौन
भर रहो। और
दिनभर रहो मौन।
मगर दिन में
बोलना मत। और मुझ
पर धक्के
वगैरह भी मत
मारना।
क्योंकि
लोगों को शक
पैदा हो
जायेगा कि बात
क्या है! तुम
तो अपने आंखें
बंद कर लिए।
अगर बिलकुल
सहने के बाहर
हो जाए, आंख
बंद कर लिए।
अपने भीतर ही
भीतर नमोकार
मंत्र पढ़ने
लगे कि होने
दो, जो हो
रहा है।’
तीन
दिन में तो
उनकी डुणडी
पिट गई? अखबारों
में फोटो आ
गये! रात को वे
मुझे फोटो दिखायें
कि 'यह
क्या करवा रहे
हो? अगर
मेरे घर पता
चल गया; अगर
मेरे पत्नी—बच्चों
को पता चल गया—तुम
तो मेरा घर
लौटना तक बंद
कर दोगे! ये
अखबार अगर
वहां पहुंच
गये, तो
मेरी मुसीबत
हो जायेगी। और
फिर मेरी
दुकान की भी
तो सोचो! और
इधर मैं कटपीस
खरीदने आया
हूं तुम नाहक
रास्ते में
मिल गये! अब
मैं कटपीस
कहां
खरीदूंगा? यह
तो कलकत्ते का
बाजार तो
खत्म! क्योंकि
जिनके यहां से
मैं कटपीस
खरीदता था, वे लोग भी
मेरे पैर छू
रहे हैं! और कई
तो मुझे गौर
से देखते ही
हैं कि यह शकल
कुछ पहचानी
हुई मालूम
होती है! एक—दो
आदमियों ने
प्रश्न भी
किया कि ये
तीस साल से
मौन हैं? यह
शकल कुछ
पहचानी मालूम
होती है!'
मैंने
कहा,
'देखा होगा
किसी पिछले
जन्म में! अरे,
यह जनम—जनम
का नाता है।’
उन्होंने
कहा,
'यह बात ठीक!'
'ये कोई
साधारण साधक
हैं! ये तो
जन्मों से
साधना कर रहे
हैं। कई बार
तुम मिले
होओगे पिछले
जन्मों में, इसलिए शकल
पहचानी लगती
है।’
उन्होंने
कहा,
'हा, लगती
तो पहचानी सी
है शकल, मतलब
कहीं देखा है।
और ऐसा भी
नहीं लगता कि
पिछले जन्म
में देखा है; इसी जन्म
.में देखा है!
मैंने
कहा,
'ये बड़े
पहुंचे हुए
पुरुष हैं। ये
एक ही साथ कई
नगरों में एक
साथ प्रगट हो
जाते हैं!'
वे
मुझे हुद्दे
मारें कि 'मत
ऐसी बातें
कहो!' मेरी
कमीज खींचें!
कि 'मत कहो
भैया; ऐसी
बातें मत कहो!
ये बिलकुल झूठ
बातें
मगर
लोग मान रहे
हैं! मिठाइयां
आने लगीं; फल
आने लगे। वे
रात मुझको
कहें कि 'क्या
करवा रहे हो? इतनी
मिठाइयां —फल
मैं कहां ले
जाऊंगा?'
मैंने
कहा,
'तुम ले
जाना घर, बाल—बच्चों
को, मोहल्ले
में बंटवा
देना।’
स्टेशन
पर जब लोग
उनको छोड़ने
आये.....। कटपीस
तो वे खरीद ही
नहीं पाये।
क्योंकि अब
कहां कटपीस
खरीदें! और
कोई देख ले कटपीस
खरीदता—कि
मौनी बाबा
कटपीस खरीद
रहे हैं.....!
रास्ते
भर मुझ पर
नाराज रहे कि 'और
सब तो ठीक, मगर
कलकत्ते का
बाजार खराब
करवा दिया! अब
मैं कलकत्ता
कभी न जा सकूं
गा!
मैंने
उनसे कहा, 'तुम
घबड़ाओ मत। तुम
एक काम करो।
दाढ़ी बढ़ा लो।
अगली बार जब
कलकत्ता जाओ—दाढी—मूंछ
बढ़ाकर चले
जाना।’
'हां', उन्होंने
कहा, 'यह
बात जंचती है।’
मैंने
कहा,
'फिर वे लोग
कहेंगे कि
देखा है कहीं!
तो कहना—अरे, देखना वगैरह
तो चलता रहता
है। कई लोगों
की शकलें एक
जैसी होती हैं।
और न हो, तो
मैं साथ आ
जाऊं।’
उन्होंने
कहा,
'नहीं, आपको
तो साथ आने की
कोई जरूरत ही
नहीं। आपके
साथ तो मैं
कभी जाऊंगा
नहीं! अगर
ट्रेन में
मुझे पता भी
चल गया कि आप
सफर कर रहे हो,
तो उस ट्रेन
से उतर जाऊंगा।’
और
मेरे पैर
पकड़कर कहने
लगे,
'इतनी कृपा
करो कि ट्रेन
में किसी को
खबर न हो! मतलब
यह कि ट्रेन
के लोग जबलपुर
भी जायेंगे
मेरे साथ ही।
अगर वहां तक
खबर पहुंच गई,
तो चौपट ही
समझो! मेरी
पत्नी मुझे
मुश्किल में
डाल देगी कि
तुमसे किसने
कहा था कि तुम
मौनी बाबा बनो?
और तुम कहां
से तीस साल
मौनी बाबा रहे?
तीन दिन के
लिए घर से गये—और
तीस साल से
मौनी बाबा हो
गये!'
फिर
दुबारा जब मैं
कलकत्ता जाता
था,
तो लोग उनकी
जरूर पूछते थे
कि 'मौनी
बाबा नहीं आये?
कब आयेंगे?'
मैंने कहा,
'आयेंगे—जरूर
आयेंगे! उनको
स्वागत—सत्कार
ज्यादा पसंद
नहीं है। वे
बहुत नाराज हो
गये हैं
कलकत्ते से!
इतना धूम—
धड़ाका उनको
बिलकुल पसंद
नहीं। वे बहुत
सीधे—सादे
आदमी हैं; मौन,
एकांतवास
कुरते हैं।
तुम
जिनकी पूजा
करते हो, जिनको
महात्मा कहते
हो, उसमें
तुम्हारी
धारणाएं भर
काम कर रही
हैं। तुम आंख
खोलकर देखते
भी नहीं।
ब्रह्मचर्य
घटित होगा, तो
अपूर्व
ज्योति प्रकट
होगी। वही इस
सूत्र का अर्थ
है :
'सत्येन
लभ्यस्तपसा
ह्मेष आत्मा
सम्यग्ज्ञानेन
ब्रह्मचयेंण
नित्यम्।’
यह
आत्मा अभी मिल
जाये—मिली ही
हुई है। बस, इतना
ही चाहिए कि
तुम सत्य को
जान लो शून्य
में। जीवन के
सुख—दुख में
समभाव रखो। तप
को पहचान लो।
कूड़ा—कर्कट, उधार ज्ञान
हटा दो, ताकि
जो जैसा है, उसे वैसा ही
देख सको।
सम्यक् ज्ञान
फलित हो। और
तुम्हारे
भीतर शरीर की
जो ऊर्जा है, काम ऊर्जा
और जो
तुम्हारी
आत्मा की
ऊर्जा है—ध्यान
ऊर्जा..... काम और
ध्यान का मिलन
हो जाये, काम
और राम का
तुम्हारे
भीतर मिलना हो
जाए तो बस, यह
आत्मा अभी
मिली, इस
क्षण मिली।
'अंत: शरीरे
ज्योतिर्मयो
हि शुभो।’
तन्धण
तुम जान सकोगे
कि इसी शरीर
में,
इसी शरीर के
भीतर वह
ज्योति छिपी
है, जो परम
शुभ है।
'यं पश्यंति यतय::
क्षीणदोश'
ऐसा
उन्होंने
देखा है, जिन्होंने
सारे दोषों से
अपने को मुक्त
कर लिया है।
और ये ही वे
दोष हैं :
विचार दोष हैं;
इसके कारण
तुम शून्य
नहीं हो पाते।
चुनाव दोष है;
उसके कारण
तुम सम नहीं
हो पाते। उधार
ज्ञान दोष है,
उसके कारण
तुम्हारी
दृष्टि ठीक—ठीक
निर्मल नहीं
हो पाती। और
दमन दोष है।
उसके कारण तुम
शरीर में छिपी
हुई ऊर्जा को
आत्मा का वाहन
नहीं बना पाते।
नहीं तो शरीर
की ऊर्जा अश्व
की भांति है।
तुम उस पर
सवार हो जाओ।
उसके मालिक हो
जाओ और तुम
जान लोगे अपने
भीतर छिपे हुए
उस परम आलोक
को जिसका न
कोई प्रारंभ है
और न कोई अंत; जो शाश्वत
है। उसे जिसने
जाना—सब जाना।
उसे जिसने
जीता, उसने
सब जीता।
'अनहद
में बिसराम' प्रवचनमाला
से
दिनांक
13 नवम्बर 1980; श्री
रजनीश आश्रम
पूना
thank you guruji
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