प्यारे
ओशो!
यं
यं लोकं मनसा संविभाति
विशुद्धसत्व:
कामयते
यांश्च कामार।
तं
तं लोकं जयते
तांश्च कामा—
स्तस्मादात्मज्ञ
ह्यर्चवेद
भूतिकाम।।
जिसका अंत:
करण शुद्ध है, ऐसा
आत्मवेत्ता
मन से जिस—जिस
लोक की भावना
करता है और
जिन—जिन
कामनाओं की
कामना करता है,
वह उस—उस
लोक को और उन—उन
कामनाओं को
प्राप्त कर
लेता है।
इसलिए जो
अपना कल्याण
चाहता है, उसे
आत्मवेत्ता
की अर्चना
करनी चाहिए।
प्यारे ओशो!
मुण्डकोपनिषद्के
इस सूत्र का
अभिप्राय
समझाने की
अनुकंपा करें।
सहजानंद!
इसके पहले कि
हम सूत्र के
विश्लेषण में
उतरें, कुछ
आधारभूत
बातें समझ
लेनी उपयोगी
हैं।
पहली
: जब तक कामना
है,
तब तक आत्मा
शुद्ध नहीं है।
आत्मा की
अशुद्धि का और
अर्थ ही क्या
होता है! कामना
की कीचड़। फिर
कामना धन की
हो, पद की
हो, प्रतिष्ठा
की हो; मोक्ष
की हो, निर्वाण
की हो, ब्रह्मज्ञान
की हो—इससे
भेद नहीं पड़ता।
कीचड़ कीचड़ है।
जब
तक कामना है, तब
तक कैसी
शुद्धि? जहां
कामना है, वहीं
संसार है। संसार
कामना का
विस्तार है।
कामना शून्य
हुई—संसार
समाप्त हुआ।
कामना संसार
है, तो
कामना का
शून्य हो जाना
संन्यास है।
और जहां कामना
के बीज तक
दग्ध हो गये
हों, वहीं
सत्व—शुद्धि
है। इसलिए यह
सूत्र
बुनियादी रूप
से गलत है।
दूसरी
बात : जब आत्मा
शुद्ध हो गयी, तो
फिर मन कहां!
यह तो बात बडी
विक्षिप्तता
की हो गयी। यह
तो यूं हुआ कि
एक तरफ तो कहा
कि झील शांत
है, और
दूसरी तरफ झील
में उठते
तूफानों, झंझावातों
और लहरों की
चर्चा छेड़ दी!
झील शांत है, मौन है, दर्पण
की तरह है। न
कोई लहरें हैं,
न काई तरंग—तो
फिर कैसा
तूफान? कैसी
आधी? कैसे
झंझावात?
जहां
आत्मा शुद्ध
है,
वहां मन
असंभव है।
मन
का अर्थ क्या
होता है।
आत्मा का अथिर
होना; आत्मा
का डावांडोल
होना; आत्मा
का कंपित होना;
आत्मा का
लहरों से भरा
होना। विचार
की लहरें; स्मृतियों
की लहरें; कल्पना
की लहरें।
जहां लहरों पर
लहरें आ रही
हैं, उसका
नाम मन है।
आत्मा
का नाम ही मन
है। आत्मा जब
रुग्ण है, तो
उसका नाम मन
है। और जहां
तेग गया, वहा
मन गया। आत्मा
जब स्वस्थ है,
तब सत्व—शुद्धि
होती है।
इसलिए एक तरफ
तो कहना कि 'जिसकी आत्मा
परमशुद्धि को
उपलब्ध हो गयी
है, वह मन
से जो भी
चाहेगा, उसे
पा लेगा'—निपट
मूढ़तापूर्ण
है। यह सूत्र
किसी
विक्षिप्त
व्यक्ति ने
लिखा होगा।
उपनिशद् में
हो, इससे
कुछ भेद नहीं
पड़ता।
मैं
शास्त्रों को
देखकर नहीं
चलता हूं।
मेरी कसौटी पर
उतरनी चाहिये
बात। मेरी
कसौटी, मेरे
अनुभव पर
निर्भर है; किसी
शास्त्र पर
नहीं।
तो
मुण्डकोपनिषद्
हो या कोई और
उपनिषद् हो, वेद
हो कि कुरान
हो कि बाइबिल
हो—इन बड़े—बड़े
नामों से मुझे
रत्तीभर भी
अंतर नहीं
पड़ता। मैं वही
कहूंगा, जो
मेरी
अंतअनुभूति
की कसौटी पर
सही उतरता है।
लेकिन
सदियों से
हमारी आदत गलत
हो गयी है।
मुण्डकोपनिषद्
में है, इसलिए
ठीक होना ही
चाहिए! उपनिषद्
में कहीं गलत
बात हो सकती
है?
गलत
बात कहीं भी
हो सकती है, क्योंकि
सब बातें आदमी
लिखते हैं। और
उपनिषद् या
वेद तो बहुत
लोगों ने लिखे
हैं। एक—एक
उपनिषद् में
बहुत से
व्यक्तियों
के वक्तव्य
हैं। फिर अगर
एक उपनिषद्
में एक ही
व्यक्ति के
वक्तव्य हों,
तो भी ध्यान
रखना यह भी हो
सकता है, उसके
कुछ सूत्र उस
समय के हों, जब उसने
जाना न था और
कुछ सूत्र उस
समय के हों जब
उसने जाना और
स्वयं उसने
लिखा न हो; किसी
शिष्य ने जो—जो
सुना है, वह
संग्रहीत कर
लिया हो।
लेकिन मुझे
इससे अंतर
नहीं पड़ता।
लोगों
को तकलीफ होती
है! कल ही किसी
व्यक्ति ने
पूछा है कि 'कभी
आप किसी
शास्त्र के
पक्ष में बोल
देते हैं और
कभी उसी
शास्त्र के
विपक्ष में
बोल देते हैं!'
मैं
भी क्या करूं; तुम्हारे
शास्त्रों का
कसूर है।
तुम्हारे
शास्त्र
विरोधाभासों
से भरे हैं।
उनके
विरोधाभासों
पर लीपापोती
करने के लिए
मैंने कुछ
ठेका नहीं
लिया है। मेरी
कोई
जिम्मेवारी
नहीं है। मैं
तो जैसा मुझे
दिखाई पड़ता है,
वही कहूंगा।
तुम्हारे
शास्त्र का
मेल पड़ जाये, यह तुम्हारे
शास्त्र का
सौभाग्य। मेल
न पड़े—यह
तुम्हारे
शास्त्र का
दुर्भाग्य।
इसमें मेरा
कुछ लेना—देना
नहीं है।
यह
सूत्र तो
बिलकुल ही
विक्षिप्त है।
गलत ही नहीं—गलत
से भी गया
बीता है!
'यं यं लोकं
मनसा संविभाति
विशुद्धसत्व:
कामयते
यांश्च कामार।’
'जिसका
अंतःकरण
शुद्ध है, ऐसा
आत्मवेत्ता
मन से जिस—जिस
लोक की कामना
करता है और
जिन—जिन
कामनाओं की
कामना करता है,
वह उस—उस
लोक को और उन—उन
कामनाओं को
प्राप्त कर
लेता है।’
जिसने
स्वयं को जाना, उसे
क्या कुछ पाने
को शेष रह
जाता है? जिसने
स्वयं को पा
लिया, अब
क्या इसके ऊपर
भी कोई संपदा
है, कोई
साम्रज्य है?
क्या इसके
ऊपर भी कोई और
गति है? अब
क्या चाहेगा
वह? अब तो
जो चाहेगा, वही पतन
होगा। जैसे
कोई गौरीशंकर
पर विराजमान
हो गया, अब
और कहां
जायेगा? अब
तो हर गति पतन
होगी, अब
तो हर कदम
नीचे की तरफ
होगा। अब तो
हर यात्रा
ढलान की होगी।
आत्मवेत्ता
तो वह है, जिसने
चेतना के परम
शिखर को
उपलब्ध कर
लिया है।
और
खयाल रखना जो
मूल शब्द है 'विशुद्धसत्व:',
वह बड़ा
बहुमूल्य है।
उसका इतना ही
अर्थ नहीं
होता कि जिसका
अंतःकरण
शुद्ध है।
अंतःकरण तो दो
कौड़ी की चीज
है। अंतःकरण
को बहुत कीमत
मत देना।
अंतःकरण
आत्मा नहीं है—इस
भेद को खूब
ख्याल रखना।
हालांकि समाज
की सारी
शिक्षा इस भेद
को मिटाने की
चेष्टा करती
है। अंतःकरण
यानी आत्मा—ऐसा
शब्दकोश
कहेंगे, भाषाकार
कहेंगे, व्याख्याता
कहेंगे, पंडित—पुरोहित
कहेंगे।
लेकिन यह बात
बुनियादी रूप
से झूठ है।
अंतःकरण
सच पूछो तो
अंतःकरण भी
नहीं होता, आत्मा
होनी तो बहुत
दूर। क्योंकि
अंतःकरण बाहर
से पैदा किया
जाता है; भीतर
तो होता ही
नहीं।
अंतःकरण तो
समाज पैदा
करता है। यह
तो समाज की
व्यवस्था है—व्यक्ति
को गुलाम बनाए
रखने के लिए।
जैसे
समाज बाहर
इंतजाम करता
है पुलिसवाले
का,
और
मजिस्ट्रेट
का, अदालत
का, कानून
का, विधान
का—ताकि
तुम्हें बाहर
से बांध ले, तुम बाहर के
डर से कुछ
भूलचूक न कर
सको। लेकिन
आदमी होशियार
है। तुम लाख
कानून बनाओ, तुम लाख
व्यवस्था
बनाओ—हर
व्यवस्था में
से छिद्र
निकाल लेगा।
आखिर आदमी ही
तो बनाएगा न
कानून! तो
आदमी कानून से
तरकीबें भी
निकाल लेगा।
आखिर
सारे वकील
करते ही क्या
हैं! उनका काम
ही क्या है? उनका
काम ही यही है
कि कानून से
कानून के
विपरीत जाने
की व्यवस्था
खोजना। इसलिए
तुम कोई भी
मुकदमा लेकर
वकील के पास
जाओ, वह
कहेगा :
बेफिक्र रहो;
जीत
निश्चित है।
खर्च तो बहुत
होगा, मगर
जीत निश्चित
है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
वकील के पास
गया था। सारा
मामला अपना
सुनाया। वकील
ने कहा, 'बिलकुल
मत घबड़ाओ।
मामला तो कठिन
है। पैसा तो
खर्च होगा मगर
जीत निश्चित
है।’
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
कहा कि 'आपको
पक्का भरोसा
है —जीत
निश्चित है?'
उस
वकील ने कहा, 'छाती
पर हाथ रखकर
कहता हूं
परमात्मा को
गवाह रखकर
कहता हूं कि
जीत निश्चित
है। जीवनभर हो
गया वकालत
करते इतना
अनुभव नहीं मुझे!
ऐसे कई मुकदमे
जिता चुका हूं।’
मुल्ला
तो उठ खड़ा हुआ।
चलने लगा, तो
वकील ने कहा, 'कहां जा रहे
हो?' मुल्ला
ने कहा, 'तो
फिर बात खत्म
हो गयी।’ उसने
कहा, 'तो
मुकदमा नहीं लड़ना
है?'
मुल्ला
ने कहा, 'मैंने
तुम्हें अपने
विरोधी के तरफ
का मामला
बताया था।
.तुम कह रहे हो
कि जीत बिलकुल
निश्चित है, तो अब मामला
क्या करना है?
फिर झगडे
में सार ही
क्या है? तो
हम आपस में ही
समझौता किये
लेते हैं। जब
जीत निश्चित
ही है उसकी।’ तब वकील को
पता चला कि यह
पहला मौका है,
जिसमें वह
धोखा खा गया।
यह आदमी अपने
विरोधी का
मामला बता रहा
था उसको!
वकील
की सारी
व्यवस्था यही
है कि कानून
से तरकीबें
खोजे। जिन
लोगों ने
कानून बनाया
है,
ये वे ही
लोग हैं, जिनके
हाथ में लाठी
है। जिनके हाथ
में लाठी, उसकी
भैंस! जिनके
न्यस्त
स्वार्थ हैं,
वे कानून
बनाते है।
लेकिन उन्हें
राह बात जाहिर
है कि बाहर के
कानून आदमी की
पूरी आत्मा पर
जंजीरें नहीं
डाल सकते। हो
सकता है, उसके
हाथों में
जंजीरें पड़
जायें, और
पैरों में
बेड़ियां पड़
जायें, मगर
आदमी भीतर तो
स्वतंत्र
रहेगा।
भीतर
भी जंजीरें
पहनानी जरूरी
हैं,
तभी आदमी
पूरा गुलाम
होगा.। और
समाज के
न्यस्त
स्वार्थ
चाहते हैं कि
आदमी पूरा
गुलाम हो, शत
प्रतिशत
गुलाम हो, ताकि
बगावत की कोई
संभावना ही न
रह जाये; ताकि
वह इनकार न
करे; ताकि
वह कभी आज्ञा
का उलंघन न
करे। इस
व्यवस्था को
जुटाने के लिए
उन्होंने
अंतःकरण पैदा
किया है।
अंतःकरण
सामाजिक आविष्कार
है। बच्चे के
पास कोई
अंतःकरण नहीं
होता।
अंतःकरण हम
धीरे— धीरे
उसमें पैदा
करते हैं। और
हरेक धर्म का, हरेक
जाति का, ' हरेक
देश का अलग—
अलग अंतःकरण
होता है। जैसे
एक जैन को अगर
तुम मांस परोस
दो, तो
उसका अंतःकरण
क्या कहेगा? असंभव है कि
वह मांस का
आहार कर सके, क्योंकि
बचपन से ही 'मांसाहार
गलत है, महापाप
है'—इस
भांति की
धारणा उसके
भीतर डाली गयी
है; संस्कारित
की गयी है। यह
संस्कार है।
यह गहरे
पहुंचा दिया
गया है'।
इसकी इतनी
पुनरुक्ति की
गयी है!
पुनरुक्ति ही
व्यवस्था है
अंतःकरण को
पैदा करने की।
बचपन
से ही दोहराया
गया है, हजार
तरह से
दोहराया गया
है, और डर
भी दिखाये गये
हैं : अगर
मांसाहार
किया, तो
नर्क में
सडोगे। अगर
मांसाहार न
किया, तो
स्वर्गं में आनंद
भोगोगे। कैसे—कैसे
भोग स्वर्ग
के! कैसे—कैसे
प्रलोभन! और
कैसे—कैसे भय
नर्क के!
भय
और लोभ दोनों
के बीच बच्चे
को कसा गया है।
और रोज
दोहराया गया
है। कहानियां
दोहरायी गयी
हैं;
पुराण
दोहराए गये
हैं; मंदिरों
में ले जाया
गया है। पंडित—पुजारियों,
साधु—संतों
के पास बिठाया
गया है। बहुत
बार दोहराने
से संस्कारित
हो गया है। आज
सामने उसके
मांस रख दो, बस, मुश्किल
में पड जायेगा।
वमन हो जायेगा।
मांसहार करना
तो असंभव है।
उसका सारा
अंतःकरण
कहेगा : 'पाप
है —महापाप है!'
वह देख भी न
सकेगा। छू भी
न सकेगा!
लेकिन
सारी दुनिया
तो मांसाहारी
है।
निन्यान्नबे
प्रतिशत तो
लोग दुनिया के
मांसाहारी
हैं। और ऐसा
ही नहीं कि
भारत के बाहर
ही मांसाहारी हैं; भारत
में भी अधिकतम
लोग तो
मांसाहारी
हैं। थीड़े से
जैनों को छोड
दो; थीड़े
से
ब्राह्मणों
को छोड़ दो।
सारे
ब्राह्मणों
को भी मत छोड़
देना।
क्योंकि
कश्मीरी
ब्राह्मण तो
मांसाहार करता
है। इसलिए
पंडित
ज्वाहरलाल
नेहरू को
मांसाहार करने
में कोई
अंतःकरण की
बाधा नहीं
पड़ती थी—कश्मीरी
ब्राह्मण!
बंगाली
ब्राह्मण
मछली को खाता
है। तो
रामकृष्ण को
मछली खाने में
कोई बाधा नहीं
थी; कोई
अंतःकरण बाधा
नहीं हालता था।
तो सारे
ब्राह्मण भी
मत गिन लेना—
गैर—मांसाहारियों
में। और
जैनियों की
संख्या कितनी
है! यही कोई
पैतीस लाख। और
थीडे से ब्राह्मण
उत्तर भारत के।
इनको छोड्कर
सारी दुनिया
मांसाहारी है।
न तो किसी के
अंतःकरण में
कोई अड़चन आती
है; न किसी
के भीतर कोई
सवाल उठता है।
अगर
यह बात सच में
ही अंतःकरण की
होती, तो हरेक
के भीतर आवाज
आनी चाहिए थी!
अगर यह परमात्मा
की आवाज होती,
आत्मा की
वाणी होती, तो प्रत्येक
के भीतर उठनी
चाहिए थी।
और
मजा तो यूं है
कि ऐसी—ऐसी
बातों में भी
अंतःकरण उठ
आयेगा, जिनके
संबंध में
तुमने कभी
कल्पना भी न
की हो! सोचा भी
न. हो।
मेरे
परिवार में एक
बार एक क्वेकर
ईसाई फकीर मेहमान
हुआ। तो मैंने
उनसे पूछा, 'सुबह
की चाय लोगे, काफी लोगे, दूध लोगे?' उसने कहा, 'दूध! आप — और
दूध पाते हैं?'
उसने
मुझसे ऐसे
पूछा, जैसे कि
कोई महापाप
करने कै लिए
मैंने उसे
निमंत्रण
दिया है! तब तक
मुझे पता ही न
था कि क्वेकर
दूध को पीना
पाप समझते हैं,
उनके
अंतःकरण कै
खिलाफ है।
यहां
तो दूध सबसे
सात्विक आहार
है,
इस देश में—ऋषि—मुनियों
का आहार! यहां
तो जो आदमी
दूध ही दूध
पीता है, उसको
तो लोग
महात्मा कहते
हैं। मैं
रारापुर में
कोई, छह— आठ
महीने रहा, तो वहां तो
एक पूरा का
पूरा आश्रम—दूधाधारी
आश्रम! वहां
सिर्फ दूध ही
पीनेवाले
साधु—संत हैं।
और उनकी
महत्ता यही है
कि वे सिर्फ
दूध पीते हैं।
तो
मैंने' कहा
कि दूध पीने
में कोई अड़चन;
आपको तकलीफ
है?
उन्होंने
कहा,
'तकलीफ की
बात कर रहे हो!
अरे, दूध
और खून में
भेद ही क्या
है? जैसे
खून शरीर से
आता है, वैसे
ही दूध भी
शरीर सै ही
आता है।’ इसलिए
तो दूध पीने
से खून बढ़ता
है; चेहरे
पर सुर्खी आ
जाती है।
'दूध रक्त
जैसा हों है।’
बात में तो
बल है। शरीर
से हीं निकलता
है; शरीर
का ही अंग है।
तो शरीर के
अंग को—चाहे
वह मांस हो, चाहे दूध हो,
चाहे रक्त
हो—एक ही कोटि
में गिना
जायेगा।
उन्होंने
कहा,
'दूध तो
बहुत
असात्विक
आहार है!'
इस
देश में लोग
दूध को
सात्विक आहार
मानते रहे।
उनका अंतःकरण
कहता है, बिलकुल
सात्विक आहार
है। क्वेकर
ईसाई मानते
हैं; बिलकुल
असात्विक
आहार है। उनका
अंतःकरण
उन्हें दूध
नहीं पीने
देता। दूध
देखकर ही उनको
बेचैनी हो
जायेगी!
कौन—सी
चीज अंतःकरण
है?
अगर
अंतःकरण जैसी
कोई बात होती,
तो सभी के
भीतर समान
होनी चाहिए थी।
लेकिन सभी के
भीतर समान
नहीं है। औरों
की तो बात छोड
दो; दिगम्बर
और
श्वेताम्बर
जैन—एक ही
सम्प्रदाय—कोई
खास भेद नहीं।
एक ही मत; एक
ही जीवन—दर्शन!
कुछ छोटी—सी
टुच्ची बातों
के फासले हैं।
मगर उनमें भी
फर्क हैं।
जब
पर्युषण के
दिन आते हैं; जैनों
के धार्मिक
उत्सव के दिन,
तो दिगम्बर
जैन हरी
सब्जियां
नहीं खाते।
मैं तो
दिगम्बर
परिवार में
पैदा हुआ, तो
बचपन' से
मैने यही जाना
कि हरी सब्जी
पर्युषण के
समय में खाना
पाप है। कोई
बीस वर्ष की
उम्र में पहली
दफा एक श्वेताम्बर
परिवार में
मैं ठहरा। तो
मैं चकित हुआ
यह देखकर कि
पर्युषण के
दिन हैं, लेकिन
केले मजे से
खाये जा रहे
हैं! तो मैंने
पूछा? 'यह
मामला क्या
है! हरो चीज
खाने का तो
विरोध है।’
उन्होंने
कहा, 'यह हरा
है हो कहां? यह केला तो
पीला होता है।’
हर
का मतलब देखा!
जैन
शास्त्र कहते
हैं—हरी चीज।
हरी चीज से
उनका मतलब है—ताजी; अभी
तोड़ी गयी। मगर
यहां हरे का
मतलब ही और है।
केला तो पीला—
है! कच्चा
केला मत खाओं,
जौ हरा
दिखाई पड़ता है।
पका हुआ केला
खाने में तो
कोई अड़चन नहीं,
वह तो पीला है।
इससे कोई अड़चन
नहीं पैदा हो
रही है।
अंतःकरण बाहर
से पैदा किया
जाता है।
ईसाई
शराब पीने में
कोई अड़चन नहीं
पाते। खुद
जीसस शराब
पीते थे। शराब
पीने में कोई
अड़चन न थी, कोई
बुराई न थी।
किसी ईसाई को
कोई बुराई
नहीं है।
लेकिन भारतीय
मानस को बड़ी
पीड़ा होती है,
शराब की बात
ही सुनकर!
यहां
मोरारजी
देसाई स्वमूत्र
पी लें, मगर
शराब नहीं पी
सकते! उनके
अंतःकरण को
कोई अड़चन नहीं
आती, स्वमूत्र
पीने में—आनी
भी नहीं चाहिए।
क्योंकि
भारतीय मानस
गौ—मूत्र तो
जमाने से पीता
रहा है। अरे, जब गौ—मूत्र
पीते रहे, तो
यह तो
स्वावलंबन है!
गौ—मूत्र ही
नहीं पीते
भारतीय—हिंदू
तो पंचामृत का
सेवन करते हैं।
पंचामृत का
अर्थ होता है—गोबर,
गौ—मूत्र, दूध, दही,
घी—ये
पांचों चीजों
को मिलाकर, घोंटकर पी
गये—तो
पंचामृत!
पंचामृत पीने
वाले देश में.......।
अभी मोरारजी
देसाई ने तो
एक ही अमृत
खोजा है। अभी
तुम देखना कोई
आयेगा और बड़ा
महात्मा, जो
आदमी में से
पंचामृत
निकालेगा। और
यह भी हमें
स्वीकार हो
जायेगा।
उसमें भी कोई.......
हमें कोई अड़चन
न होगी।
अंतःकरण
तो आत्मा नहीं
है। अंतःकरण
तो बाहर का
आरोपण है।
जिसे
आत्मा को पाना
हो,
उसे
अंतःकरण से
मुक्त होना पड़ता
है। उसे न तो
चाहिए ईसाई का
अंतःकरण, न
हिंदू का, न
मुसलमान का, न जैन का, न
बौद्ध का। उसे
अंतःकरण
चाहिए ही नहीं।
बाहर से जो भी
उसके ऊपर थीप
दिया गया है, आच्छादित कर
दिया गया है—उस
सब को उसे
त्याग देना
होता है।
इसको
ही मैं
तपश्चर्या
कहता हूं—अंतःकरण
के त्याग को।
तब तुम्हारे
भीतर
तुम्हारे
स्वभाव की जो
वाणी है—स्वस्फूर्त, किसी
की सिखाई हुई
नहीं; तुम्हारे
जीवन का ही जो
स्वर है, जो
संगीत है—वह
सुनाई पड़ता
है।
तो
इस सूत्र का
अनुवाद
सहजानंद, ऐसा
न करो कि 'जिसका
अंतःकरण
शुद्ध है।’ क्योंकि तब
तो बड़ी गड़बड़
होगी। एक
हिसाब से किसी
का अंतःकरण
शुद्ध होगा और
दूसरे हिसाब से
उसी का
अंतःकरण
शुद्ध नहीं
होगा।
जीसस
का अंतःकरण
शुद्ध है या
नहीं? हालांकि
वे शराब भी
पीते हैं, और
मांसाहार भी
करते हैं? छोड़ो
जीसस को; रामकृष्ण
का अंतःकरण तो
शुद्ध मानोगे
कि नहीं? रामकृष्ण
तो परमहंस हैं,
मगर मछली तो
खाते हैं!
अंतःकरण
किसका शुद्ध
है?
अंतःकरण है,
तब तक
शुद्धि हो ही
नहीं सकती।
अंतःकरण
अर्थात्
अशुद्धि; विजातीय;
बाहर से कुछ
डाल दिया गया।
उसी से तो
तुम्हारे
भीतर कीचड़ मची
है। जब
तुम्हारे
भीतर सिर्फ
वही रह जाये
जो भीतर का है—तो
आत्मशुद्धि।
इसलिए जो
सूत्र का शब्द
है, वह
ज्यादा उचित
है।’ विशुद्धसत्व:
—जिसके भीतर
सत्वशुद्धि
है, जिसका
स्वभाव, जिसका
स्वरूप शुद्ध
हो गया है.......।
और उसका एक ही
अर्थ होता है :
जिसके भीतर से
जो भी विजातीय
है, वह
बाहर फेंक
दिया गया।
जिसका
विशुद्ध सत्व
हुआ है, वह न तो
हिंदू होगा, न मुसलमान, न ईसाई, न
जैन, न
बौद्ध, न
पारसी, न
सिक्ख। वह तो
सिर्फ चैतन्य
मात्र होगा।
और ऐसी अवस्था
में ही
व्यक्ति
स्वयं को
जानता है—आत्मवेत्ता
बनता है।
अभी
तो तुम अगर
किन्हीं
धारणाओं को
मानकर ध्यान
भी करोगे, तो
वही जान लोगे,
जो
तुम्हारी
धारणा है।
जैसे ईसाई
ध्यान करने
बैठेगा, तो
उसको ईसा
दिखाई पड़ने
लगेंगे। और
जैन बैठेगा, तो महावीर
दिखाई पड़ने
लगेंगे। और
बौद्ध बैठेगा,
तो बौद्ध की
धारणाएं हैं,
तो उसे
बुद्ध का
दर्शन होगा।
और कृष्ण का
भक्त कृष्ण को
देखेगा। और
राम का भक्त
राम को देखेगा।
यह तो
तुम्हारी
धारणा का ही
प्रक्षेपण है।
यह कोई
आत्मबोध नहीं
है।
जहां
सारी धारणाएं
गिर जाती हैं; जहं।
प्रक्षेपण
करने को ही
कुछ नहीं रह
जाता; जहां
भीतर शून्य रह
जाता है—निर्विकार,
निर्विचार,
निर्विकल्प—उस
चैतन्य की
अवस्था में
स्वयं की जीत
है; व्यक्ति
जिन बनता है, बुद्ध बनता
है—जीतता है, जागता है।
पहली बार
जीतता है—
पहली बार
जागता है।
और
ऐसे
आत्मवेत्ता
के मन से—यह
सूत्र कहता है—जिस—जिस
लोक की भावना
हो.......।
अब
किस लोक की
भावना होगी? क्या
इसके ऊपर भी
कोई लोक है? आत्मबोध के
ऊपर भी कोई
बोध है।
बुद्धत्व के
ऊपर भी और कोई
संभावना है; कोई और शिखर
है। इस परम
समाधि के पार
अब क्या बचा? क्या ऐसा
व्यक्ति
स्वर्ग
चाहेगा? स्वर्ग
तो बहुत पीछे
छूट गये; वे
तो सपने हो
गये।
क्या
ऐसा व्यक्ति
चाहेगा कि
इंद्र का आसन
मिल जाये? आसन
की बात ही अब
मूर्खतापूर्ण
हो गयी। अब तो
परम आसन मिल
गया, पद्यासन
मिल गया। वह
कमल मिल गया, जो शाश्वत
है, जो
कालातीत है।
वह सुगंध मिल
गयी, जो अब
छूटेगी नहीं।
अब तो जीवन
उत्सव हुआ। अब
तो रंगों की
बहार आ गयी।
अब तो वसंत
आया। अब तो
फूल खिले। अब
तो गीत है, संगीत
है, महोत्सव
है; अब तो
दीये पर दीये
जले।
कबीर
ने कहा है, जैसे
हजारों सूर्य
एक साथ भीतर
उग आये हों, ऐसी
आत्मवेत्ता
की स्थिति
होती है। अब
क्या चाहेगा?
किस लोक की
कल्पना करेगा?
उर्वशी को
चाहेगा! मेनका
को चाहेगा!
इंद्रासन की
फिक्र करेगा?
देवता बनना
चाहेगा? कल्पवृक्ष
मांगेगा! यह
बात ही मूढ़तापूर्ण
हो जायेगी।
फिर
तो यूं हुआ कि
आत्मज्ञान के
पार भी कुछ बच रहा, आत्मज्ञान
भी फिर अंत न
हुआ, लक्ष्य
न हुआ—साधन ही
रह गया। और आत्मज्ञान
साध्य है—साधन
नहीं।
तो
'आत्मवेत्ता
के मन से जिस—जिस
लोक की भावना
होगी'—इस
सूत्र का कहना
है—'और जिन—जिन
कामनाओं की
कामना होगी, वह उन—उन
कामनाओं को, उन—उन लोकों
को प्राप्त कर
लेता है।’
पहले
तो कामना ही
नहीं होगी; कामना
के बीज ही
दग्ध हो गये।
इसलिए तो
पतंजलि ने ऐसे
व्यक्ति को 'दग्ध—बीज' कहा है, निर्बीज
समाधि कहा है—ऐसी
अवस्था को।
यहां तो बीज
ही न बचे
कामना के, अब
अंकुरण क्या होंगे!
जल गये बीज—राख
हो गये।
और
यह सूत्र कहता
है,
'इसलिए जो
अपना कल्याण
चाहता है, उसे
आत्मवेत्ता
की अर्चना
करनी चाहिए।’
पहली
बात भी लोभ से
भरी है, और
दूसरी बात भी
लोभ से भरी है,
आत्मवेत्ता
की इतनी
क्षमता बता दी,
कि वह जो
चाहे, हो
जायेगा! जो
मांगे—मिलेगा—तल्ला
मिलेगा। देर
नहीं अबेर
नहीं!
कहावत
तुमने सुनी है
कि 'परमात्मा के
घर देर हो, मगर
अंधेर नहीं है'.......
यह
अज्ञानियों
के लिए।
ज्ञानियों के
लिए न तो देर
है, न
अंधेर है।
उन्होंने इधर
मांगा, उधर
मिला। मांग भी
नहीं पाये कि
मिला। वे तो
कल्पवृक्ष के
नीचे ही बैठे
हुए हैं।
यह
भी लोभ की बात
रही;
लोभ का ही
विस्तार रहा।
और आगे भी लोभ
की ही बात है।
'इसलिए जो
अपना कल्याण
चाहता है, उसे
आत्मवेत्ता
की अर्चना
करनी चाहिए।’
इसलिए जाओ
आत्मवेत्ताओं
के पास, उनकी
अर्चना करो।
पूजा करो वह
भी किसलिए? —अपना कल्याण
चाहने के लिए!
उसके पीछे भी
चाह है! वहां
भी वासना।
यहां
लोग मंदिरों
में जा रहे
हैं,
मसजिदों
में जा रहे
हैं, गुरुद्वारों
और गिरजों में
जा रहे हैं।
पूछो—किसलिए
जा रहे हैं? वहा भी चाह
है, वहां
भी वासना है।
और जहां वासना
है, वहां
प्रार्थना
नहीं। और जहां
वासना है, वहा
अर्चना कैसी?
वासना
की दुर्गंध
में अर्चना की
सुगंध कैसे पैदा
होगी? लाख
जलाओ धूप और
लाख जलाओ दीये—न
होगी रोशनी, न होगी
सुगंध।
दुर्गंध को
बहुत से बहुत
छिपा लोगे।
अंधेरे को
बहुत से बहुत
ढांक लोगे—मगर
मिटेगा नहीं,
फिर—फिर उभर
आयेगा। ये जलाये
दीये, देर
नहीं है, बुझ
जायेंगे। और
यह जलायी धूप,
जल्दी
हवायें उड़ा ले
जायेंगी। फिर
दुर्गंध अपनी
जगह होगी। यह
धोखा है, यह
प्रवंचना है।
आत्मवेत्ता
व्यक्ति की भी
अर्चना करना, इस
कामना से कि
मेरा भी
कल्याण हो
जाये। और 'मेरा
भी कल्याण'—इसका अर्थ क्या
होगा? इसका
अर्थ होगा कि
मैं भी उस जगह
पहुंच जाऊं, जहां हर चीज
मांगने से मिल
जाती है। जहां
हर चीज चाहने
से मिल जाती
है। जहां कोई
भी लोक चाहो, देर नहीं
लगती; तत्क्षण
वहां
पहुंच जाते हो।
इसलिए
आत्मवेत्ता
व्यक्ति की भी
अर्चना करनी
चाहिए। यह भी
लोभ का ही
संबंध हुआ।
शिष्य
और गुरु का
सबंध लोभ का
नहीं हो सकता।
और अगर वह भी
लोभ का संबध
है,
तो फिर वह
भी सांसारिक
संबंध है। फिर
पत्नी का और
पति का संबंध,
बाप का और
बेटे का संबंध,
भाई और बहन
का संबंध—इन
सारे संबंधों
में ही गुरु
और शिष्य का
संबंध भी एक
संबंध हुआ।
फिर उसमें कुछ
गुणात्मक भेद
न रहा। गुणात्मक
भेद तब होता
है, जब
बाकी सब संबंध
तो लोभ के
होते हैं, लाभ
के होते हैं—लेकिन
गुरु और शिष्य
का संबंध
सिर्फ प्रेम
का होता है—न
लोभ का, न
लाभ का।
प्रेम
के संबंध का
अर्थ ही होता
है कि संबंध ही
अपने—आप में
इतना
बहुमूल्य है, अब
और क्या चाहना
है! शिष्य की
अंतरतम भावना
यह होती है कि
गुरु मिल गया,
तो सब मिल
गया। अब कुछ
पाने को नहीं।
अब कहीं जाने
को नहीं। और
मजा यह है कि
जिसके भीतर
ऐसा सद्भाव
पैदा होता है,
उसके ऊपर
वर्षा हो जाती
है फूलों की।
सारा आकाश
फूलों की
वर्षा करने
लगता है। न तो
उसने
कुछमांगा, न
उसने कुछ चाहा,
लेकिन सब
बरस उठता है!
मंजुश्री
की प्यारी कथा
है। वह बुद्ध
का पहला शिष्य
है,
जो निर्वाण
को उपलब्ध हुआ।
जिस दिन उसको
बुद्धत्व
प्राप्त हुआ,
जिस दिन
उसने स्वयं को
जाना, बैठा
था वृक्ष के
नीचे—शांत, निर्विचार।
जागकर अपने को
देखता था।
देखते—देखते
बात बन गयी।
बनते —बनते बन
जाती है। सध
गयी। सब ठहर
गया। मन ठहर
गया; समय
ठहर गया।
विचार पता
नहीं कहां
विलुप्त हो
गये! जैसे अचानक
आकाश से
बदलिया विदा
हो गयीं और
सूरज निकल
आया!
गहन
मौन—सन्नाटा—और
तत्क्षण
उसने देखा, आकाश
से फूलों की
वर्षा होने लगी—ऐसे
फूल, जौ
उसने न कभी
देखे, न
कभी सुने! ऐसी
गंध, जो
उसने कभी जानी
नहीं। चौंका।
यह तो वसंत का
मौसम भी नहीं!
जिस
वृक्ष के नीचे
बैठा था, उसमें
तो एक फूल भी न
था। इतने फूल!
इतने फूल कि
जिनकी गणना
असंभव—बरसे ही
चले जाते हैं,
बरसे ही चले
जाते हैं।
उसने आंख उठाकर
.आकाश की तरफ
देखा।....... तो
देखा कि देवता
फूल बरसा रहे
हैं!
यह
तो कथा है—प्रतीक—कथा
है,
इतिहास मत
समझ लेना।
इसके भीतर
अर्थ तो गहरा
है, लेकिन
तथ्य मत मान
लेना। सत्य तो
बहुत है, मगर
तथ्य जरा भी
नहीं।
सत्य
को कहना .हो, तो
यूं ही कहा जा
सकता है। घूम
फिरकर ही कहना
होता है; सीधा
कहने का उपाय
नहीं।
तो
मंजुश्री ने
पूछा उन
देवताओं से जो
फूल बरसा रहे
थे कि 'तुम्हें
क्या हो गया
है? यह
किसलिए फूल
गिराये जाते
हो? तुम
शायद कुछ
भूलचूक में हो।
बुद्ध तो वहां
दूर दूसरे
वृक्ष कै नीचे
बैठे हैं; वहां
गिराओ फूल। मैं
तो मंजुश्री
हूं। उनका एक
छोटा—सा शिष्य
हूं। उनके
प्रेम में लग
गया हूं। मुझे
कुछ चाहिए भी
नहीं और। जो
फूल चाहिए थे—मुझे
मिल चुके हैं।
और तुम्हें
अर्चना करनी
हो, तो
उनकी करो। वे
रहे मेरे
गुरु! मुझ पर
क्यों फूल
गिराते हो? मैंने तो
कुछ किया ही
नहीं। मेरी तो
कोई पात्रता
भी नहीं, कोई
योग्यता भी
नहीं।’
उन
देवताओं ने
कहा,
'मंजुश्री!
हम फूल गिरा
रहे हैं उस
महत अवसर के स्वागत
के समय में, जब तुमने
शून्य पर
अद्भुत
प्रवचन दिया
है!'
मंजुश्री
ने कहा, 'शून्य
पर प्रवचन!
मैं एक शब्द
बोला नहीं!'
देवता
हंसे और उन्होंने
कहा,
'न तुम एक
शब्द बोले और
न एक शब्द
हमने सुना। न
तुमने कुछ कहा,
न हमने कुछ
सुना। इसी को
तो कहते हैं, शून्य पर
महाप्रवचन!
उसी खुशी में
हम फूल गिरा
रहे हैं।
तुमने कहा
नहीं, हमने
सुना नही—और
बात हो गयी!
बिन कहे बात
हो गयी। इसलिए
फूल गिर रहे
हैं। अब ये
फूल तुम पर
गिरते ही
रहेंगे। ये
फूल गिरना
शुरू होते हैं,
फिर बंद
नहीं होते।
समझना
: यह तो बोधकथा
है,
प्रतीक—कथा
है। ऐसे झाड़
के नीचे बैठकर
और बार—बार आंखें
उठाकर ऊपर मत
देखना—कि
देवता वगैरह
आये कि नहीं; पुष्पक
विमान पर बैठे
हुए; फूल
वगैरह लाये कि
नहीं? नहीं
तो उसी में सब
गड़बड़ हो
जायेगा!
तुम
तो इतना ही
जानना कि
शून्य प्रवचन
क्या है। वह
हो जाये, तो
कुछ आकाश से
फूल बरसाने की
जरूरत नहीं
होती; तुम्हारे
भीतर ही फूल
उमग आते हैं; अंतसूलोक
में ही वसंत आ
जाता है। फिर
कैसी कामनाएं?
फिर कैसी
वासनाएं?
और
शिष्य को तो
सवाल ही नहीं
उठता कि
आत्मवेत्ता
पुरुष की अर्चना
इसलिए करे—क्योंकि
उसकी बड़ी
शक्ति है, आत्मवेत्ता
पुरुष की; महान
उपलब्धि है!
नहीं; शिष्य
तो अकारण
प्रीति में
पड़ता है।
प्रीति तो सदा
अकारण होती है।
जहां कारण है,
वहां
व्यवसाय है।
जहां कोई कारण
नहीं है.......।
अब
कोई मेरे
सन्यासियों
से पूछे कि 'मुझसे
क्या उन्हें
मिल रहा है?' कुछ भी तो
नहीं! कोई
मेरे
संन्यासियों
से पूछे कि 'मुझसे क्यों
बंधे हो? मेरे
पास क्यों
बैठे हो? वर्ष
आते हैं, वर्ष
जाते हैं और
तुम मेरे पास
रुके हो—क्यों?'
तो मेरे
संन्यासी
उत्तर न दे
सकेंगे। जो
उत्तर दे सकें,
वे मेरे
संन्यासी
नहीं। कोई
उत्तर दे न
सकेंगे।
उत्तर का कोई
सवाल नहीं है।
बेबूझ है बात।
सहजानंद!
मुण्डकोपनिषद्
के इस सूत्र
का मैं तुम्हें
क्या
अभिप्राय
कहूं! यह
सूत्र एकदम गलत
है,
आधारभूत
रूप से गलत है।
सूत्र बिलकुल
विक्षिप्ततापूर्ण
है। किसी पागल
ने कहा होगा।
किस तरह
मुण्डकोपनिषद्
में प्रवेश कर
गया—पता नहीं!
लेकिन पंडित
जो न कर जायें,
थीड़ा है।
पंडित
तो एक उपद्रव
हैं। न उन्हें
पता है। लेकिन
दुर्भाग्य तो
यही है कि वे
ही संकलन करते
हैं। महावीर
बोले, लेकिन
संकलन किया
पंडितों ने।
यह
सांयोगिक बात
नहीं कि
महावीर के ग्यारह
गणधर—उनके जो
ग्यारह
प्रमुख शिष्य
थे—ग्यारह के
ग्यारह
ब्राह्मण थे।
महावीर तो
क्षत्रिय थे।
जैनों के
चौबीस
तीर्थंकर ही
क्षत्रिय हैं।
असल में वह
क्षत्रियों
की बगावत थी—ब्राह्मण—वाद
के खिलाफ, पाण्डित्यवाद
के खिलाफ।
लेकिन दुर्भाग्य
तो यह है कि
महावीर के वचन
भी संकलन तो किये
ब्राह्मणों
ने ही। वे
ग्यारह गणधर
ही ब्राह्मण
थे! और वहीं
बात विकृत हो
गयी। वहीं
उन्होंने सब
गड़बड़ कर दिया।
वहीं स्रोत पर
ही जहर मिल
गया।
बुद्ध
तो क्षत्रिय
थे। सच तो यह
है : जिन्हें
स्वयं को
जानना हो, उन्हें
किसी अर्थ में
क्षत्रिय ही
होना पड़ता है।
क्षत्रिय का
अर्थ है वह भी
एक विजय—यात्रा
है। घनघोर
घमासान युद्ध
है—स्वंय के
अंधकार से।
उन्हें भी
तलवार उठानी
पड़ती है। किसी
और के खिलाफ
नहीं—अपने ही
तमस के खिलाफ;
अपनी ही
तंद्रा के
खिलाफ; अपनी
ही निद्रा के
खिलाफ। लेकिन
बुद्ध को भी
जो संकलन
करनेवाले
मिले, वे
तो पण्डित ही
थे। वे तो
ब्राह्मण ही
थे। बस, वहीं
विकृति हो
जाती है।
पण्डित
भाषा का
ज्ञाता होता
है;
व्याकरण का
ज्ञाता होता
है; शब्दों
का धनी होता
है। लेकिन
अनुभव उसके
पास कुछ भी
नहीं होता। और
यह सारा मामला
अनुभव का है।
पण्डित
तो तोते की
भांति होता है; रट
लेता है; दोहरा
देता है; लिख
देता है—यंत्रवत्।
उसकी अपनी
अनुभूति तो
नहीं होती।
मगर मैं
मजबूरी भी
समझता हूं।
मुण्डकोपनिषद्
जिसने कहा
होगा, वह
तो परम ज्ञानी
रहा होगा, क्योंकि
इसमें ऐसे
सूत्र हैं, जो अपूर्व
हैं, जो कि
बिना अनुभव के
नहीं कहे जा
सकते। लेकिन
कठिनाई यह है
कि जिसने कहे
हैं, वह तो
बुद्ध रहा
होगा; मगर
दूसरे बुद्ध
को तुम कहा से
पाओगे, जो
तुम्हारे
सूत्रों को
लिखे! कोई
बुद्ध ही लिखेगा।
कोई बुद्ध
क्यों लिखेगा?
किसलिए
लिखेगा?
बुद्ध
के जीवन में
ऐसी कथा है, जो
प्रीतिकर है।
बुद्ध की
मृत्यु हुई।
जब तक जीवित
थे, किसी
ने फिक्र ही न
की थी कि
उन्होंने जो
कहा है, वह
संकलित कर
लिया जाये।
ऐसे आनंद में
थे, ऐसे
अहोभाव में थे
कि किसको
चिंता पड़ी थी।
रोज दिये जल
रहे थे। रोज
दिवाली थी।
रोज रंग बिखर
रहे थे। रोज
फाग थी। किसको
फुर्सत थी कि
अभी लिखे।
लेकिन बुद्ध
की मृत्यु के
बाद जो पहला
सवाल
उठा शिष्यों
के सामने, वह
यही था कि
उनके वचनों को
संकलित कर
लिया जाये।
और
तुम चकित
होओगे जानकर
कि जो लोग
संकलित कर सकते
थे,
वे तो भूल
ही भाल चुके
थे। मंजुश्री
जो पहला बुद्ध
था बुद्ध के शिष्यों
में, उससे
कहा; उसने
कहा, 'मुझे
तो कुछ याद
नहीं। मुझे तो
अपनी याद
नहीं! कैसे रस
में भीगे वे
दिन बीते! कौन
शब्दों की
फिक्र करता!
मुझे पक्का—पक्का
नहीं कि
उन्होंने
क्या कहा और
मैंने क्या
सुना।
उन्होंने
क्या कहा और
मैंने क्या
समझा। और जब
से मैं जागा, तब से तो बात
शब्दों की रही
न थी। एक मौन
संवाद था। उस
मौन—संवाद को
लिख भी तो
कैसे लिखूं!
उसके लिए तो
कोरा कागज ही
काफी है।’
सारिपुत्त
से पूछा।
सारिपुत्त ने
कहा,
'मुश्किल है
बात। जब तक
मैं जागा नहीं
था, तुमने
अगर कहा होता,
तो लिख देता।
क्योंकि तब तक
शब्दों पर ही
पकड़ थी। जब
मैं जागा, तो
निःशब्द में
उतर गया। अब
तो पक्का नहीं
है; मैं
लिखूं भी तो
यह तय करना
मुश्किल होगा
कि यह मेरी
बात लिख रहा
हूं कि बुद्ध
की बात लिख रहा
हूं। अब तो सब
गोलमोल हो गया।
अब तो सब
तालमेल टूट
गया। भेद टूट
गये। अब तो
मेरी सरिता भी
उनके सागर में
मिल गयी। तो
मेरी बात का
तुम भरोसा न
करना। बात तो
मेरी सच्ची
होगी, खरी
होगी। मगर
मेरी है कि
उनकी, यह
तय करना नहीं
हो सकता। अपनी
बात लिख सकता
हूं मगर यह
दावा मैं नहीं
कर सकता कि
ऐसा उन्होंने
कहा था। जरूर
कहा होगा। मगर
निश्चयात्मक
रूप से मैं
कोई दावा नहीं
कर सकता।’
मौग्दलायन
से पूछा। उसने
कंधे बिचका
दिये। उसने
कहा,
'कौन इस
झंझट में पड़े।’
जितने
शिष्य
बुद्धत्व को
उपलब्ध हो गये
थे,
वे कोई राजी
न थे। सिर्फ
आनंद, जो
बुद्धत्व को
उपलब्ध नहीं
हुआ था, वह
राजी था। उसे
सब याद था। उस
बेचारे के पास
और तो कोई
सम्पदा न थी।
शब्दों को ही
संजोता रहा था,
इकट्ठा
करता रहा था।
जो—जो बुद्ध
बोलते थे, उसको
इकट्ठा करता
रहा था। उसके
पास कोई
प्रज्ञा तो
नहीं थी, मगर
स्मृति थी।
प्रज्ञा हो, तो स्मृति
की क्या
चिंता! और
प्रज्ञा न हो,
तो स्मृति
ही एकमात्र धन
है।
बड़ी
विद्यन, बड़ी
विडम्बना खड़ी
हो गयी। सारे
शिष्य इकट्ठे
हुए थे, उन्होंने
कहा, 'यह
बड़ी मुश्किल
की बात है।
जिनकी बात का
भरोसा हो सकता
है, वे
लिखने को राजी
नहीं। और
जिनकी बात का
भरोसा कुछ
नहीं, वह
लिखने को राजी
है! आनंद से
लिखवाना है
क्या? हालांकि
जो भी वह
कहेगा, वही
कहेगा, जो
बुद्ध ने कहा
था। लेकिन
अज्ञानी ने
सुना है—जैसे
किसी ने नींद
में सुना हो।
मैं
यहां बोल रहा
हूं। तुम में
से कई यहां
सोये होंगे।
वे भी सुन रहे
होंगे, मगर
नींद में सुन
रहे होंगे।
कुछ सुना
जायेगा, कुछ
नहीं सुना
जायेगा। कुछ
का कुछ सुना
जायेगा!
स्वाभाविक है।
फिर अगर तुमसे
कहा जाये—लिखो;
तो तुम जो
लिखोगे, उसकी
क्या
प्रामाणिकता
होगी।
आनंद
ने कहा, 'मैं
लिख तो सकता
हूं लेकिन
प्रामाणिकता
का दावा मैं
नहीं कर सकता।’
अब
तुम देखते हो
विडम्बना जो
प्रामाणिक हो
सकते है, वे
लिखने को राजी
नहीं थे। जो
लिखने को राजी
था, उसने
कहा, 'मैं
प्रामाणिक
नहीं हो सकता!'
तो
फिर बुद्ध के
शिष्यों ने एक
उपाय ही खोजा, उन्होंने
आनंद से कहा, 'तू एक काम कर।
तू किसी तरह
सारा श्रम
लगाकर
बुद्धत्व को
उपलब्ध हो जा।
क्योंकि हम
तेरी बातों का
तब तक भरोसा न
करेंगे, जब
तक तू बुद्धत्व
को उपलब्ध न
हो जाये। और
तुझे सब बातें
याद हैं। और
तू सबसे
ज्यादा बुद्ध
के साथ रहा है—बयालीस
साल सतत्। एक
क्षण को भी
बुद्ध को तूने
नहीं छोड़ा।
इतना साथ कोई
उनके रहा नहीं।
दिन भी तू साथ
रहा है; रात
भी तू साथ रहा
है।’. रात
भी उसी कमरे
में सोता था, जिसमें
बुद्ध सोते थे।
उनकी सेवा में
ही सब कुछ
समर्पित कर
दिया था उसने।......
'तो हमें
भरोसा है। मगर
तेरे भीतर
जागरण तो हो!'
और
जब आनंद
जाग्रत हुआ, तब
उन्होंने
उसके वचनों को
स्वीकार किया
लेकिन झगड़ा तत्क्षण
शुरू हो गया।
आनंद ने तो
वचन लिख दिये,
लेकिन
छत्तीस सम्प्रदाय
पैदा हो गये।
क्योंकि
बुद्धों के
अलग—अलग लोगों
ने कहा कि 'ये
आनंद के शब्द
हम स्वीकार
नहीं कर सकते।’
किसी ने कहा,
'हम यह
स्वीकार नहीं
कर सकते।’ किसी
ने कहा, 'यह
हमें यह
स्वीकार है, मगर और
बातें
स्वीकार नहीं।’
अज्ञानियों
के छत्तीस खंड
हो गये!
ज्ञानी तो चुप
रहे,
अज्ञानियों
ने सम्प्रदाय
बना लिए।
बुद्ध को मरे
दिन भी न हुए
थे कि
महाज्योति टुकडों—टुकड़ों
में टूट गयी।
और सत्य जब
टुकड़ों में
टूटता है, तो
असत्य से भी
बदतर हो जाता
है।
सहजानंद!
जिसने भी
मुण्डकोपनिषद्
के मूल सूत्र
कहें होंगे, वह
जरूर
बुद्धत्व को उपलब्ध
रहा होगा।
लेकिन
जिन्होंने
लिखे होंगे, उन्होंने
बहुत कुछ अपनी
तरफ से जोड़
दिया होगा।
और
ऐसा भी नहीं
कि जानकर लोग
जोड़ते हैं।
मैं उनकी
सद्भावना पर
संदेह नहीं
करता हूं। मैं
यह नहीं कह
रहा हूं—उनकी
भावना गलत रही
होगी। मगर
मजबूरी है
बेहोश आदमी की; बेहोशी
में वह जो भी
करेगा, कितनी
ही सद्भावना
से करे, सद्इच्छा
से करे, गलत
हो ही जायेगा।
अब
तुम देखते हो.
यह सूत्र है:
यं यं लोकं
मनसा संविभाति
विशुद्धसत्व:
कामयते
यांश्च
कामान्।
तं तं लोकं
जयते तांश्च
कामां—
स्तस्मादात्मज्ञ
ह्यर्चवेद
भूतिकाम:।।
लेकिन
जिसने अनुवाद किया, उसने
भी भूलचूक कर
दी।’जिसका
अंतःकरण
शुद्ध है.......।’ ' विशु
द्धसत्व: —उसका
अनुवाद हो गया
: 'जिसका
अंतःकरण
शुद्ध है।’ भारी चूक हो
गयी। अंतःकरण
से मुक्त होता
है कोई, तभी
विशुद्धसत्व:
होता है। और
यहां तो बात
ही उल्टी हो
गयी।’जिसका
अंतःकरण
शुद्ध है, ऐसा
आत्मवेत्ता
मन से जिस—जिस
लोक की भावना
करता है.......।’
आत्मवेत्ता
का मन रह जाता
है?
मन की जरूरत
क्या है? यह
तो यूं हुआ :
कहानी
है कि जीसस ने
एक अंधे आदमी
की आंखों को
छुआ;
आंखें ठीक
हो गयीं।
स्वभावत: अंधा
आदमी था, तो
लकडी टेक—टेककर
चलता .था। आंखें
तो ठीक हो
गयीं, जीसस
को धन्यवाद
देकर वह जाने
लगा, मगर
अपनी लकड़ी भी
साथ ले चला!
जीसस ने कहा, 'मेरे भाई, कम से कम
धन्यवाद में
लकड़ी तो मुझे
दे जा। लकड़ी
तो छोड दे!'
वह
अंधा आदमी
क्या बोला!
उसने कहा, 'बिना
लकड़ी के मेरा
कैसे चलेगा?' आंखें आ
गयीं! मगर
पुरानी आदत—जिंदगी
भर की आदत!
लकड़ी से टटोल—टटोलकर
चलता था। लकड़ी
ही उसकी अब तक
की आंख थी। आज आंख
भी आ गयीं, तो
वह घटना इतनी
नयी थी कि अभी
तक उस घटना का
संप्रेषण
भीतर तक नहीं
हुआ।
उसने
कहा,
'लकड़ी मैं
कैसे छोड़ सकता
हूं? बिना
लकडी के मेरा
कैसे चलेगा
मालिक? बिना
लकड़ी के तो
मैं एक कदम न
चल सकूंगा।
इसी से तो
टटोल—टटोलकर,
टेक —टेककर
तो चलता हूं।’
जीसस
ने कहा, 'पागल!
अब तेरी आंखें
ठीक हो गयीं, अब लकड़ी से
क्यों
टटोलेगा?'
अंतःकरण
तो अंधे आदमी
की लकडी है।’ विशुद्धसत्व:
—वह तो अंधे
आदमी की आंख
का ठीक हो
जाना है। अब
वहा अंतःकरण
की क्या जरूरत
है?
अंतःकरण
तो समाज थोपता
है इसलिए, ताकि
किसी तरह तुम
आचरण की सीमा
में चलते रहो।
लेकिन जिसकी
आत्मा जग गयी,
अब उसके ऊपर
भी कोई आचरण
की सीमा नहीं
रह जाती। वह
आचरण मुक्त
होता है। अब
तो वह जो
करेगा, वही
ठीक है।
अज्ञानी को
बताना पड़ता है
कि तुम ठीक
करो और गैर —ठीक
न करो। ज्ञानी
जो करता है—वही
ठीक है, जो
नहीं करता, वही ठीक
नहीं है।
क्रांतिकारी
अंतर हो गया।
लेकिन जरा—से
अनुवाद में, एक
शब्द के
अनुवाद में
सारा अर्थ बदल
गया।
और
आत्मवेत्ता—अभी
भी मन.......! मन का
अर्थ होता है—मनन
करने की
क्षमता। मनन
से ही तो मन
बना। मन से ही
तो मनुष्य
शब्द बना। वह
जो मनन करता
है—मनुष्य है।
वह जो मनन का, भीतर
हमारे, प्रक्रिया
है, उसका
नाम मन है।
लेकिन जिसको आंख
मिल गयी, वह
मनन थीड़े ही
करता है। अंधा
आदमी सोचता है
कि दीवाल कहां—दरवाजा
कहां? पूछता
है कि बायें
जाऊं कि दायें
जाऊं? आंखवाला
आदमी तो उठता
है और दरवाजे
से निकल जाता है।
उसे दिखाई
पड़ता है। मनन
करना ही नहीं
पड़ता।
ठीक
ऐसा ही जिसका विशुद्धसत्व:
हुआ,
जिसके भीतर
समाधि का फूल
खिला, जिसके
भीतर समाधि की
आंख खुली—अब
मनन करेगा? अब मनन
किसलिए करेगा?
अंधा
आदमी सोचता है
कि प्रकाश
कैसा होता है।
आंखवाला तो
कभी नहीं
सोचता कि
प्रकाश कैसा
होता है। वह
तो जानता ही
है। बहरा आदमी
शायद सोचता हो
कि ध्वनि कैसी
होती है।
कानवाला आदमी
तो जानता है
कि ध्वनि कैसी
होती है।
जिसकी
आत्मा शुद्ध
हो गयी, उसको
मनन की जरूरत
नहीं रह जाती।
वह सोचता ही
नहीं, वह
देखता है—वह
द्रष्टा है।
वह मनुष्य के
पार हो गया।
उसने मनुष्य
का अतिक्रमण
कर लिया।
मन
का अतिक्रमण
हुआ कि मनुष्य
का भी
अतिक्रमण हो
जाता है। अब
कहा मन! कहां
के लोक!
सब
स्वप्न हैं
तुम्हारे लोक।
नर्क भी
तुम्हारा
स्वप्न है; स्वर्ग
भी तुम्हारा
स्वप्न है। ये
कोई स्थान
नहीं। ये कोई
भौगोलिक जगह
नहीं है। नर्क
भी तुमने
निर्मित किया
है अपने भय से
और स्वर्ग भी
तुमने
निर्मित किया
है अपने लोभ
से। इसलिए
तुमने स्वर्ग
में वह सब
व्यवस्था कर
ली, जो
तुम्हारा लोभ
चाहता है। और
नर्क में
तुमने वह सब
व्यवस्था कर
दी जो तुम
उनके लिए दंड
देना चाहोगे,
जो
तुम्हारे साथ
चलने को राजी
नहीं।
दुश्मनों के
लिए नर्क, दोस्तों
के लिए स्वर्ग।
अपने वालों के
लिए स्वर्ग—परायों
के लिए नर्क।
लेकिन नर्क
कहीं है थीडी;
न स्वर्ग
कहीं है।
जिस
दिन तुम भय और
लोभ से मुक्त
हो गये, उसी
दिन तुम देख
लोगे—न तो कोई
स्वर्ग है, न कोई नर्क
है। ही, जब
तक तुम भय से
भरे कैप रहे
हों—नर्क में
ही हो। और जब
तक तुम स्वर्ग
से लालायित हो,,
डांवांडोल
हो रहे हो, तब
तक दोनों
चीजें सत्य
मालूम पड़ती
हैं। मगर वे
प्रतीतिया
हैं, भ्रांतिया
हैं।
जहां
मन थिर हुआ, शांत
हुआ, मौन
हुआ—दोनों ही
खो जाते हैं।
और उन दोनों
के खो जाने पर
क्या मांगोगे
लोक! कौन—सी
कामनाएं
करोगे?
सुना
है मैंने : एक
आदमी
भूलाभटका
स्वर्ग पहुंच
गया। थका—मादा
था,
एक वृक्ष के
नीचे विश्राम
करने को लेट
गया। उसे पता
न था कि यह
कल्पवृक्ष है;
इसके नीचे
लेटो और बैठो
और जो भी
कामना करो—पूरी
हो जाती है!
कहानी मधुर है।
भूखा
था। मन में
खयाल उठा कि 'काश!
इस वक्त कहीं
से भोजन मिल
जाता—बड़ी भूख
लगी है!'
ऐसा
उठना था विचार
का कि तत्क्षण
सुस्वादु
भोजनों से भरे
हुए स्वर्ण—
थाल प्रगट हो
गये। वह इतना
भूखा था, इतना
थका था कि
उसने सोचा भी
नहीं कि ये
कहां से आये—कौन
लाया! भूखा
आदमी क्या
सोचे? ये
सब भरे पेट की
बातें हैं।
उसने तो जल्दी
से भोजन किया।
पेट
भर गया, तो
सोचा कि 'कहीं
से कुछ पीने
को मिल जाये—कोकाकोला—फेंटा!
नहीं तो लिम्का
ही सही!' और
देखकर हैरान
हुआ कि
कोकाकोला, फेंटा,
लिम्का —सब
चले आ रहे हैं! थीड़ा
चौंका भी कि
कोकाकोला तो
बंद हो गया था!
मगर तस्करों
की कृपा से
सभी कुछ
उपलब्ध होता
है। तस्करी 'जो न कर दे— थीड़ा.......!
असंभव को संभव
बना देती है।
फिर किसको
फिक्र पड़ी थी!
अभी तो बहुत
थका था; कोकाकोला
पीकर लेटने
लगा। लेटने
लगा तो सोचा
कि 'पेट तो
भर गया, मगर
कंकड़—पत्थर
हैं। जमीन साफ—सुथरी
नहीं। ऐसे समय
में तो कोई
गद्दी होनी थी।
सुंदर सेज
होती, तो
आज जैसी गहरी
नींद आती, जैसा
घोड़े बेचकर आज
सोता—ऐसा कभी
नहीं सोया था!'
अचानक
देखकर हैरान
हुआ कि पलंग चला
आ रहा है! थीड़ा
सकुचाया भी कि
क्या—क्या हो
रहा है! मगर
नींद इतनी
गहरी आ रही थी
कि उसने अभी
कहा कि 'कि
बाद में
देखेंगे। यह
विचार वगैरह
सब बाद में कर
लेंगे।’
सो
गया पलंग पर।
बड़ा चकित हुआ
कि डनलप की
गद्दियां! मगर
उसने कहा कि
पीछे जगकर
देखेंगे।
जब
जगा,
तब थीडा—सा
चिंतित हुआ कि
इस निर्जन
स्थान में, इस वृक्ष के
नीचे—वृक्ष के
आस—पास न तो
कहीं कोई
रेफ्रिजरेटर
दिखाई पड़ता
है; न कोई
आदम जात दिखाई
पड़ता है।
कोकाकोला
प्रगट हुए!
भोजन आया! यही
नहीं—बिस्तर
भी प्रगट हुआ!
टटोलकर
बिस्तर ठीक से
देखा भी कि
मैं कोई
कल्पना कर रहा
हूं? —लेकिन
है! थीड़ा डरा—कि
कहीं कोई भूत—प्रेत
तो नहीं हैं
इस वृ क्ष में!
बस, जैसे
ही उसने सोचा
कि 'कहीं
कोई भूत—प्रेत
तो न हों! कहीं
कोई भूत—प्रेत
तो नहीं छिपे
हैं! मैं
किन्हीं भूत—प्रेतों
के चक्कर में
तो नहीं पड़
गया हूं?' कि
तत्क्षण
चारों तरफ भूत—प्रेत
एकदम—जैसे
आनंदमार्गी
तांडव नृत्य
करते हैं—ऐसा
आदमियों की
खोपडियां
लेकर एकदम
नृत्य करने
लगे! उसने कहा,
'मारे गये!' और मारा गया!
कल्पवृक्ष
के नीचे तो जो
कहोगे, वही
हो जायेगा। वह
कोकाकोला
बहुत महंगा
पड़ा! मगर अब तो
बहुत देर हो
चुकी थी। जब
कह ही चुका कि
मारे गये, तो
वे सब आनंदमार्गी
पटककर
खोपड़ियां
वगैरह—उसकी
गर्दन तोड़ दी
उन्होंने।
इसी तरह
खोपडियां
इकट्ठी करते
हैं, नहीं
तो फिर
खोपडिया
इकट्ठी कहां
से करोगे? यही
जो
कल्पवृक्षों
के नीचे फंस
जाते हैं, इन्हीं
की खोपडिया
फिर तांडव
नृत्य के काम
में आती हैं!
न
तो कहीं कोई
स्वर्ग है, न
कहीं कोई नर्क
है। न तो डरो
नर्क की अग्नि
से—न कामना
करो स्वर्ग के
सुखों की। सब
तुम्हारे मन
के जाल हैं।
यहां
चूंकि जीवन
में दुख है, इसलिए
तुम उसके
विपरीत
स्वर्ग की
कल्पना कर रहे
हो। और चूंकि
दूसरे यहां
मजा लूटते
दिखाई पड़ रहे
हैं, उनके
लिए तुम नर्क
का इंतजाम कर
रहे हो, तुम
अपने को
सांत्वना दे
रहे हो कि 'कोई
फिक्र नहीं; अरे चार दिन
की जिंदगी है!
और यूं ही कटी
जा रही है।
अभी झेल लो
दुख; कोई
फिक्र नहीं। थीड़ा—सा
दुख है—फिर
स्वर्ग के सुख
ही सुख हैं।
और ये जो
दुष्ट मजा कर
रहे हैं, गुलछर्रे
उड़ा रहे हैं—उड़ा
लो। अरे, दो
दिन की बात है,
फिर सडोगे;
फिर नर्कों
में पड़ोगे—तब
याद करोगे। तब
चुल्ल—चुल्ल
पानी को
तरसोगे।’ ये
सांत्वनाएं
हैँ। यह अपने
को समझाना है।
कार्ल
मार्क्स एकदम
गलत नहीं है, जब
वह कहता है कि '
धर्म अफीम
का नशा है।’ इसमें थीड़ी
दूर तक सचाई
है।
निन्यान्नबे
प्रतिशत लोग
जिसको धर्म
समझते हैं, वह निश्चित
ही अफीम का
नशा है। हा, बुद्ध का, और कृष्ण का,
और महावीर
का, और
जीसस का धर्म
जरूर अफीम का
नशा नहीं है।
मगर उस धर्म
से कितने
लोगों का
संबंध है?
पण्डितों—पुरोहितों
का यह जो
विराट जाल
फैला हुआ है, ये
तो सिर्फ अफीम
ही बेच रहे
हैं। ये तो
तुम्हें
सिर्फ किसी
तरह बेहोश
रखने की कोशिश
कर रहे हैं।
जिंदगी में
दुख है— थीड़ी
बेहोशी चाहिए,
ताकि दुख
झेल लो। और
जिंदगी में
दुख है, इसलिए
थोड़ा कल्पना
का जाल चाहिए
ताकि उसकी आशा
में बंधे हुए—कुछ
तो सांत्वना
रहे।
मगर
ये सारी बातें
अज्ञानी के
लिए हैं—आत्मवेत्ता
के लिए नहीं।
इसलिए
सहजानंद! अगर
मेरे हाथ में
बात हो, तो इस
तरह के
सूत्रों को
उपनिषदें से
निकालकर बाहर
कर दूं। इस
तरह के सूत्र
ही उपनिषदे की
महिमा को खंडित
कर रहे हैं, नष्ट कर रहे
हैं।
मगर
जो जाल खड़ा है
उपनिषदों के
पीछे, गीता के
पीछे, धर्मशास्त्रों
के पीछे—जो
न्यस्त
स्वार्थ लाभ
उठा रहे हैं, वे तो
इन्हीं
सूत्रों पर जी
रहे हैं।
मैं
जिन सूत्रो को
अलग कर देना
चाहूंगा, वही
सूत्र उनके
लिए प्राण
हैं! और जिन सूत्रों
को मैं बचा
लेना चाहूंगा,
वही उनके
लिए जहर हो
जायेंगे।
आज
इतना ही
'अनहद
में बिसराम 'प्रवचनमाला
से
दिनांक
15 नवम्बर 1980; श्री
रजनीश आश्रम, पूना
thank you guruji
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