दिनांक
10 अगस्त 1978;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
प्रश्नसार:
1—ध्यान, साधना,
परमात्मा
इत्यादि की
जरूरत क्या है?
2—मैं
जीवनभर से
प्रार्थना कर
रहा हूं लेकिन
कोई फल नहीं
मिलता।
3—स्वप्न
में भगवान
श्री का दर्शन
तथा साधक के लिए
संकेत।
पहला
प्रश्न :
मैं
नाचता भी हूं, रोता
भी हूं। ध्यान
में बड़ा आनंद
आता है, पर
कभी—कभी एक
प्रश्न दिल को
मरोड़
जाता है : आखिर
यह साधना, ध्यान,
ईश्वर—प्राप्ति
की जरूरत भी
क्या है?
राजकिशोर, जीवन
जरूरत ही तो
नहीं है, जरूरत
से कुछ ज्यादा
भी है। और
जिसका जीवन
केवल जरूरतों
का जोड़ है
उसने जीवन
जाना ही नहीं।
वह व्यर्थ ही
जन्मा, व्यर्थ
ही जिया।
जरूरत
अर्थात्
व्यवसाय। जरूरत
के पार ही है
जीवन का
काव्य।
गुलाब
के फूल की
क्या जरूरत है? गेहूं
की जरूरत है, गुलाब की तो
कोई जरूरत
नहीं। लेकिन गेहूं ही गेहूं जिस
जीवन में हो
और गुलाब न हो
उस जीवन की
व्यर्थता समझ
में आती है या
नहीं? दुकान
ही दुकान जीवन
में हो और
मंदिर न हो तो
गुलाब चूक
गया। तो सुबह
उठे, दफ्तर
गए, कमाया,
सांझ लौट आए,
खाया—पिया,
सो गए।
यह तो
सब ठीक है। जरूरत
है,
करना
पड़ेगा। जीना
है तो आजीविका
भी चाहिए; रोटी
भी चाहिए, रोजी
भी चाहिए।
लेकिन इस सारे
जीवन के भीतर
सुवास कहां से
आएगी, सौंदर्य
कैसे पैदा
होगा? कुछ
तो जीवन में
ऐसा हो जो
जरूरत के बाहर
है। जिसकी
करने की कोई
जरूरत नहीं है
और फिर भी हम करते
हैं। वहीं से,
ठीक वहीं से
परमात्मा से
संबंध जुड़ता
है।
परमात्मा
की कोई भी
जरूरत नहीं
है। परमात्मा के
बिना काम मजे
से चल रहा है।
सच तो यह है, परमात्मा
के बिना काम
ज्यादा मजे से
चलता है, ज्यादा
सुविधा से
चलता है।
क्योंकि फिर
बेईमानी करो
तो कोई अड़चन
नहीं, चोरी
करो तो कोई
अड़चन नहीं, झूठ बोलो तो
कोई अड़चन
नहीं।
परमात्मा
की मौजूदगी से
अड़चन ही होती
है,
लाभ क्या है?
बेईमानी
मुश्किल हो
जाएगी।
अंतःकरण कचोटेगा।
जैसे—जैसे
परमात्मा से
संबंध जुड़ेगा
वैसे—वैसे तुम
पाओगे, बहुत—सी
बातें करनी
असंभव हो गईं,
जो कल तक
बिल्कुल सुगम
थीं। झूठ ऐसे
बोले थे कि
पता ही न चला
था। जबान झूठ
बोलने की आदी
थी। अगर
परमात्मा से
संबंध जुड़ेगा
तो कोई जबान
को भीतर खींच
लेगा। झूठ
बोलने जाओगे,
जबान रुक
जाएगी। बोलना
भी चाहोगे तो
न बोल पाओगे।
तुम्हारे
बावजूद
तुम्हें कोई
खींच लेगा, हटा लेगा।
चोरी करने
जाओगे, न
कर पाओगे।
धोखा देना
चाहोगे और
देना असंभव हो
जाएगा। धोखा
देने की बजाय
धोखा खा लेना
ज्यादा सुगम
मालूम पड़ेगा।
तो
परमात्मा की
जरूरत तो कोई
भी नहीं है।
लेकिन फिर तुम
जरा अपने जीवन
के संबंध में
सोच लो। तुम्हारी
जिंदगी में
फिर क्या होगा? फूल
तो नहीं हो
सकते, रुपए—पैसे
होंगे, तिजोड़ी होगी, बैंक
में तुम्हारा
खाता होगा।
लेकिन तुम्हारी
जिंदगी में
काव्य कहां से
आएगा? तुम नाचोगे
कैसे? तुम
गीत कैसे गुनगुनाओगे?
"पग घुंघरू
बांध मीरा
नाची रे'——ऐसा
तुम कैसे कह
पाओगे?
क्या
तुम सोचते हो मीरा
जब पैरों में
घुंघरू
बांधकर नाची, तो
कोई जरूरत थी?
इसके बिना न
चलता? इससे
कोई अड़चन पड़
रही थी? इतने
तो लोग थे, लाखों—करोड़ों
तो लोग थे जो
बिना पग में
घुंघरू बांधे
जी रहे थे, मजे
से जी रहे थे।
लेकिन मीरा के
जीवन में जो
सुगंध है और मीरा
के जीवन में
जो उल्लास है,
जो उत्सव है,
वह तो और
लोगों के जीवन
में नहीं है। मीरा
के चेहरे पर
जो आभा है, आंखों
में जो गहराई
है, हृदय
का जो रंग है, वहां सदा
दीये जल रहे
हैं, दीवाली
है। और सदा
गुलाल उड़ायी
जा रही है, होली
है। वैसा हृदय
तो लोगों के
पास नहीं है।
जिंदगी
दीवाली और
होली के बिना
हो सकती है, अड़चन
क्या है? लेकिन
जिंदगी होली
और दीवाली के
बिना कहने को
ही जिंदगी
होगी। रूखा—सूखा
झाड़ भी हम झाड़
ही कहते हैं।
न पत्ते आते कभी,
न फूल लगते
कभी, न फल
होता कभी।
बांझ वृक्ष को
भी हम वृक्ष
कहते हैं। ऐसी
ही होगी बांझ
जिंदगी।
और
तुम्हारे साथ
तो और भी अड़चन
होगी। तुम
कहते हो, मैं
नाचता भी हूं,
रोता भी हूं,
ध्यान में
बड़ा आनंद आता
है। अब तुम
आनंद को भी जरूरत
बनाना चाहते
हो? सिक्कों
में ढालना है
आनंद को? तिजोड़ी
में बंद करना
है आनंद को? आनंद के
माध्यम से पद
की, प्रतिष्ठा
की यात्रा
पूरी करनी है?
आनंद
का कोई भी
उपयोग नहीं
किया जा सकता।
और वही मूल्यवान
है जिसका
उपयोग न किया
जा सके। सुबह सूरज
उगेगा और
प्राची लाल हो
उठेगी और
पक्षी गीत गाएंगे, इस
परम सौंदर्य
का क्या उपयोग
करोगे? न
इससे भूख
मिटेगी, न
प्यास बुझेगी।
इसलिए तो बहुत—से
लोग सुबह के
सौंदर्य को
देखना ही बंद
कर दिए हैं।
जरूरत ही क्या
है? उन्हें
सिर्फ नोटों
में सौंदर्य
दिखाई पड़ता
है।
रात
आकाश तारों से
भर जाता है और
अनंत—अनंत लोग
हैं जो आंखें
उठाकर आकाश की
तरफ देखते
नहीं। उनके
सामने भी सवाल
यही है कि
जरूरत क्या है? वे
जमीन पर ही
आंखें गड़ाए
हुए, कहीं
जमीन पर कोई
ठीकरा मिल जाए
उसी की तलाश में
लगे रहते हैं।
वे कूड़ा—करकट
के घूरों पर
बैठे हुए
खोजते रहते
हैं कि शायद
कुछ काम का
हाथ में लग
जाए। लेकिन
आकाश तारों से
भरा हो और तुम
भी आंख खोलकर
देखो, तुम्हारे
भीतर का आकाश
भी तारों से
भर जाए।
तो
जरूरत तो कुछ
भी नहीं है।
इसके बिना चल
सकता था।
लेकिन इसके
बिना चलने में
कोई अर्थ ही न
था,
कोई गरिमा न
थी, कोई
गौरव न था, कोई
रस नहीं था।
तुम फिर एक
मशीन हो। अगर
जरूरत में ही
तुम्हारी
जिंदगी पूरी
हो जाती है तो तुम
एक मशीन हो।
तुम्हारा काम
मशीन भी कर
देती, और
तुमसे बेहतर
कर देती।
आदमी
और मशीन का
फर्क कब शुरू
होता है? ऐसे
तो कार को भी
भोजन की जरूरत
होती है। ईंधन
चाहिए होता है,
पानी भी
चाहिए होता है,
तेल भी
चाहिए होता है,
पेट्रोल भी
चाहिए होता है,
हिफ़ाजत भी चाहिए
होती है। बस, इतना ही
तुम्हारा
जीवन होगा.....।
कार नाच नहीं
सकती, गीत
भी नहीं गा
सकती। आकाश
तारों से
भरेगा तो तारों
के साथ संबंध
भी जोड़ नहीं
सकती। सुबह
सूरज उगे कि न
उगे, कार
को कुछ पता भी
न चलेगा।
और ऐसे
ही बहुत लोगों
ने तय कर लिया
है जीना। मशीन
की तरह जी रहे
हैं। मनुष्य
कहां हैं, मशीनें
हैं। और
तुम्हारी
जिंदगी में
मनुष्य की
शुरुआत हुई, अंकुर फूटा
है।
तुम
कहते हो, "नाचता
भी हूं, रोता
भी हूं। ध्यान
में बड़ा आनंद
आता है, पर
कभी—कभी एक
प्रश्न दिल को
मरोड़
जाता है.....।'
यह
प्रश्न कहां
से आ रहा है? यह
प्रश्न
तुम्हारी
बुद्धि से आ
रहा है। बुद्धि
ध्यान से डरती
है, बुद्धि
आनंद से डरती
है। बुद्धि
हमेशा लाभ की भाषा
में सोचती है;
फायदा क्या
है?
मेरे
पास लोग आते
हैं,
वे पूछते
हैं, ध्यान
करेंगे तो लाभ
क्या होगा? जैसे लाभ
रुपयों में
बताया जा सके
कि तुमको लाख
रुपए मिलेंगे,
कि करोड़
रुपए
मिलेंगे। मैं
उनसे कहता हूं,
तुम नाच
सकोगे, तुम
आह्लादित हो
सकोगे।
तुम्हारे
जीवन में उत्सव
उतरेगा। तुम
जान सकोगे, तुम कौन हो।
वे कहते हैं, यह सब तो ठीक
है लेकिन लाभ
क्या होगा?
जीवन
प्रयोजन पर ही
समाप्त हो जाए
अधार्मिक जीवन
है। धर्म तो
निष्प्रयोजन
है;
वह तो
आह्लाद है।
इसलिए इस देश
में हमने
धार्मिक
व्यक्ति के
जीवन को लीला
कहा है। लीला
का अर्थ होता
है, जिसमें
कोई प्रयोजन
नहीं है।
कृष्ण
क्यों
बांसुरी बजा
रहे हैं? नोटों
की वर्षा हो
जाएगी? कृष्ण
क्यों रास रचा
रहे हैं? यह
तारों के नीचे,
तारों की
छांव में यह गोपियों
का नृत्य! ये
कृष्ण के गीत!
इसका सार क्या
है? इसको
भुनाने जाओगे
तो बाजार में
भुना सकोगे? यह रात फिजूल
जा रही है, यह
बेकार जा रही
है।
बर्ट्रेंड
रसेल ने अपने
संस्मरणों
में लिखा है
कि वह एक बार
आदिवासी
कबीले को
देखने गया.....और
बर्ट्रेंड
रसेल इस सदी
का बड़े से बड़ा
विचारक था और
बड़े से बड़ा
गणितज्ञ।
हिसाब—किताब
पूछना हो तो
रसेल से पूछ
सकते हो। इस
सदी में जो गणित
के ऊपर सबसे
महत्त्वपूर्ण
किताब लिखी है
वह रसेल ने
लिखी है :
प्रिंसिपिया मैथमेटिका'।
कहते हैं दस—पच्चीस
लोग ही उस
किताब को समझ
सकते हैं।
गणितज्ञ, विचारक,
नोबेल
पुरस्कार—विजेता,
जगद्विख्यात
चिंतक——और
आदिवासियों
का रात तारों
की छाया में
नाच देखकर
मोहित हो गया,
और उसकी
आंखें आंसुओं
से भर गईं। और
उसने अपने
संस्मरणों
में लिखा है
उस दिन मुझे
लगा कि मेरी
जिंदगी में
कुछ भी नहीं
है। मेरा सब
मुझसे ले लो, मगर ऐसा ही
है मैं भी नाच
सकूं वृक्षों
के नीचे; इसी
उत्फुल्लता
से, इसी
सरलता से, इसी
निर्दोष भाव
से, तो
मुझे सब मिल
जाएगा। मेरा
सब ले लो और
मुझे नाच
वापिस दे दो।
मगर
नाच ऐसे तो
मिलता नहीं है
वापिस। कहने
भर से नहीं
मिलता। हमने
इतने पत्थर
इकट्ठे कर लिए
हैं अपने
पैरों के
आसपास, कि
नाचना
मुश्किल हो
गया है। हमने
इतनी चट्टानें
इकट्ठी कर ली
हैं हृदय के
आसपास कि झरना
बहना बंद हो
गया है।
कहने
भर से तो नहीं
होगा।
चट्टानें
हटानी होंगी।
वही हम यहां
कर रहे हैं।
जो प्रयोग
यहां चल रहा
है वह
तुम्हारे
हृदय से
चट्टानें अलग
करने का
प्रयोग है; तुम्हारे
पैरों में
बंधे हुए
पत्थर हटाने
का प्रयोग है,
ताकि तुम
हल्के हो सको।
तुम्हारे सिर
का बोझ हल्का
हो सके। ताकि
फिर तुम नाच
सको। फिर से
देख सको
वृक्षों की
हरियाली। फिर
से सुन सको
पक्षियों के
गीत। फिर कोयल
बोले तो
तुम्हारे
प्राण भी
कुहुक उठें।
और नदी का
दर्शन करो तो
तुम्हारे
भीतर भी प्रवाह
आ जाए।
लाभ
कुछ भी नहीं
है;
वह मैं
तुम्हें पहले
चेता दूं। लाभ
कुछ भी नहीं
है। न तो तुम
दिल्ली
पहुंचोगे, न
प्रधानमंत्री
बन जाओगे। न
तुम्हारे पास
कोई अहंकार को
भर लेने के
लिए साधन बढ़
जाएंगे।
और मैं
यह नहीं कह
रहा हूं कि
तुम जिंदगी के
काम—धाम को
छोड़ दो। काम—धाम
की अपनी जरूरत
है,
मगर कभी
संगीत भी
सुनो। श्रम के
समय श्रम, संगीत
के समय संगीत।
धन की जगह धन, ध्यान की
जगह ध्यान।
दोनों को
मिश्रित मत
करो।
और मैं
फिर तुम्हें
याद दिला दूं
बार—बार कि
मैं कोई धन का
विरोधी नहीं
हूं। मेरे मन
में दरिद्रता
का कोई सम्मान
नहीं है। इस
देश में
सदियों से
दरिद्र का
सम्मान किया
गया है इसलिए
यह देश दरिद्र
है। यह देश
दरिद्र रहेगा, जब
तक दरिद्र का
सम्मान
रहेगा। मेरे
मन में दरिद्र
का कोई सम्मान
नहीं है।
दरिद्रता का
मेरे मन में
कोई मूल्य
नहीं है।
तो मैं
तुम्हें यह
नहीं कह रहा
हूं कि दरिद्र
हो जाओ, कि
भीख मांगने
लगो; कि धन
कमाने से क्या
होगा; कि
दुकान करने से
क्या होगा——यह
मैं तुमसे
नहीं कह रहा
हूं। मैं तो
कह रहा हूं, दुकान करने
से बहुत कुछ
होता है।
साध्य तो ध्यान
है। धन हो तो
तुम ध्यान कर
सकोगे सुगमता
से। धन न हो तो
बहुत मुश्किल
हो जाएगी।
भूखे
भजन न होई गोपाला।
भूखा आदमी भजन
कैसे करे? भूख
ही भूख उठती
है, भजन
कैसे उठे? चिंता
ही चिंताएं
हैं उसके ऊपर,
प्रार्थना
में बैठे तो
कैसे बैठे? उधर बच्चा
रो रहा है, उधर
पत्नी बीमार
पड़ी है, वर्षा
आ गई है और
छप्पर गिरा जा
रहा है और तुम
प्रार्थना
करोगे? असंभव
है। ऐसी
अपेक्षा
तुमसे करना भी
अमानवीय है।
और इस देश में
तुमसे
अमानवीय
अपेक्षा की गई
है कि तुम
प्रार्थना
करो, कि
तुम ध्यान
करो।
मैं
दरिद्रता का
पक्षपाती
नहीं हूं।
दरिद्रता रोग
है,
महारोग है;
उसे मिटाना
ही है। लेकिन
फिर भी मैं साम्यवादियों
से राजी नहीं
हूं कि
दरिद्रता मिट
गई तो सब मिट
गया।
मेरी
स्थिति
तुम्हें समझने
के लिए बहुत
सूक्ष्म
विचार करना
पड़ेगा। मैं
तुम्हारे
तथाकथित अध्यात्मवादियों
से राजी नहीं
हूं कि आदमी
नंगा रहे, भूखा
रहे, प्यासा
रहे, उपवासा रहे, सूखता
रहे, गलता
रहे और ध्यान
करता रहे। यह
रुग्ण चाह है।
यह
विक्षिप्तता
है। यह आदमी
से असंभव की
आकांक्षा
करनी है।
मैं साम्यवादियों
से भी राजी
नहीं हूं कि
बस,
गरीबी मिट
जाए, धन
मिल जाए, भोजन
मिल जाए, मकान
मिल जाए, कार
हो, रेडियो
हो, टेलीविजन
हो, बात
खत्म हो गई! और
क्या चाहिए? मैं दोनों
से राजी नहीं
हूं और दोनों
से राजी हूं।
दोनों आधे—आधे
हैं।
मेरे
हिसाब में धन
होना चाहिए, जरूर
होना चाहिए।
पूरा श्रम करो
धन पाने के लिए।
लेकिन धन पाने
में ही धन का
अंत नहीं है।
जब धन मिल जाए
तो तुम्हारे
पास सुविधा
है। सब संगीत
खोजो, अब
साहित्य खोजो,
अब धर्म
खोजो। अब
तुम्हारे पास
धन ने व्यवस्था
दे दी है कि
तुम एक घर में
पूजागृह बना
सकते हो। अब
तुम एक घड़ीभर
को शांत बैठकर
चुप हो सकते
हो। तुम एक घड़ीभर
नाच सकते हो।
अब नाचो! अब
गाओ! और तुम
चकित हो जाओगे
कि तुम्हारे
धन में भी
सार्थकता आ गई
तुम्हारे
ध्यान के
कारण।
तुम्हारा धन
भी काम आ गया।
इस
जगत् में बाहर
हमें जो भी
मिल सकता है
वह सब साधन है, साध्य
भीतर है। और
ध्यान रखना, यह तो कभी
पूछना ही मत
कि साध्य किसलिए?
क्योंकि
साध्य का मतलब
ही होता है, जो अंतिम
है। वह किसी
चीज का और
साधन नहीं है;
जो आखिरी
है।
परमात्मा
अंतिम है।
इसलिए
परमात्मा को
तुम किसी और
चीज का साधन
नहीं बना
सकते। सभी
चीजें उसके
लिए साधन बना
लेनी हैं। देह
भी उसी के
साधन में लगा
देनी है, धन भी
लगा देना है, जीवन भी लगा
देना है, मन
भी लगा देना
है, हृदय
भी लगा देना
है। विचार, भावनाएं, सब उसी पर
समर्पित कर
देनी हैं।
लेकिन यह तो भूलकर
मत पूछना कि
उसका क्या
उपयोग है? क्योंकि
वह जो अंतिम
है। अंतिम
साध्य को ही
हम परमात्मा
कहते हैं——जिसके
लिए सब किया
जाता है और
जिसमें हम
आनंद की डुबकी
लगाते हैं।
तुमने
कभी पूछा, आनंद
का सार क्या
है? आनंद
का सार आनंद।
प्रेम का सार
क्या है? प्रेम
का सार प्रेम।
लेकिन धन का
सार धन नहीं है।
धन का तो कुछ
उपयोग करना
पड़ेगा तो सार
है। नहीं तो
तुम्हारे पास
धन था कि नहीं
था, बराबर
था।
इसलिए
तो कंजूस आदमी
दुनिया में
सबसे दया का पात्र
है। उसके पास
धन है और सार
नहीं है। कृपण
के पास धन है, लेकिन
धन का उपयोग
करना नहीं
जानता वह। वह
धन के ऊपर
सांप की तरह
कुंडली मारकर
बैठ जाता है।
ठीक ही कहती
हैं कहानियां
कि कृपण आदमी
मर जाता है तो
फिर अपनी तिजोड़ी
पर कुंडली
मारकर सांप
बनकर बैठ जाता
है, भूत हो
जाता है। वह
जिंदगी में ही
भूत था। मरकर
उसको होने की
जरूरत ही
नहीं। वह जिया
ही नहीं कभी।
मरा ही हुआ
था।
मैंने
सुना है, एक
आदमी ने अपने बगीचे में
सोने की ईंटें
गाड़ रखी
थीं। उसका रोज
का काम था——वही
उसकी पूजा कहो,
आराधना कहा,
अर्चना कहो——रोज
का काम था :
खोदना गङ्ढे
को, वापिस
अपनी ईंटों को
देख लेना, फिर
गङ्ढे को
पूर देना।
चित्त उसका
बड़ा गद्गद हो
जाता था। ऐसी
उसकी जिंदगी
बीती। बूढ़ा हो
गया था।
एक
फकीर यह देखता
था;
कई बार देख
चुका था। एक
रात वह फकीर
उसकी ईंटें
निकालकर ले
गया और उसकी
जगह रख गया
पत्थर की ईंटें।
बूढ़े ने खोदा,
पत्थर की ईंटें
देखीं, एकदम
छाती पीटकर
चिल्लाने लगा
कि लुट गया! मर गया!
वह
फकीर भी भीड़
में आकर खड़ा
हो गया। उस
फकीर ने कहा, लुट
गया, मर गया,
फायदा क्या
है? क्यों
चिल्ला रहा है?
तेरा क्या
गया? गङ्ढा ही खोदकर
तुझे रोज
देखना है, सोने
की ईंटें
हों कि पत्थर
की, क्या
फर्क पड़ता है?
तू अपनी
पूजा जारी रख।
उपयोग तो करना
नहीं है, तो
फर्क क्या है?
तू मुझे बता
दे कि फर्क
क्या है!
अगर तू
मुझे फर्क बता
दे तो तेरी
सोने की ईंटें
वापिस लौटवा
दूं। यही तो
करना है न
तुझे कि रोज
खोलेगा, रोज उघाड़ेगा, रोज देखेगा,
फिर बंद
करेगा। यह तू
कर रहा है
वर्षों से, यही तुझे
करते हुए मर
जाना है। ये
पत्थर की ईंटों
ही से काम चल
जाएगा। सोने
की ईंटें
मेरे हाथ लग
गई हैं, उनका
हम उपयोग कर
लेंगे। तुझे
तो उपयोग करना
नहीं है। अगर
करना हो तो
लौटा दूं तेरी
ईंटें।
यह
फकीर ठीक कह
रहा है। धन का
अपने में कोई
मूल्य नहीं
है। और ध्यान
का अपने में
ही मूल्य है।
ध्यान का
मूल्य आंतरिक
है,
उसी में
छिपा है। और
धन का मूल्य
उसके बाहर है।
धन का कुछ करो तो
मूल्य है। उसे
रखे रहो बैठे;
तो था या
नहीं बराबर हो
गया। इस भेद
को समझ लो।
संसार
में दो तरह की
चीजें हैं : एक
साधन और एक
साध्य। साधन
का मूल्य अपने
में नहीं
होता। साध्य
का मूल्य अपने
से बाहर नहीं होता।
ध्यान साध्य
है।
और
तुम्हें तो
उसका अनुभव हो
रहा है राजकिशोर!
तुम कहते हो, बड़ा
आनंद आता है।
फिर भी सवाल
उठता है? मन
सवाल उठाए चला
जाता है
क्योंकि मन, बुद्धि घबड़ाती
है ऐसी चीजों
से जो अपने आप
में साध्य
हैं। उसका
कारण समझ लो।
बुद्धि
स्वयं साधन
है। इसलिए
साधन को
इकट्ठा करने
में बुद्धि को
कोई खतरा नहीं
है। यह उसी का
विस्तार है।
बुद्धि स्वयं
साधन है, उसका
भी उपयोग होना
चाहिए कहीं
पहुंचने के लिए।
अगर कहीं
पहुंचने के
लिए उपयोग न
हो तो बुद्धि
विक्षिप्त हो
जाती है। अपने
ही भीतर चक्कर
मारते—मारते—मारते—मारते
रुग्ण हो जाती
है।
अधिक
लोगों की
बुद्धि भीतर
ही चक्कर
मारती रहती
है। उसका कोई
लक्ष्य नहीं
है। दिशाविहीन!
दिग्भ्रांत!
यही तो
विक्षिप्त की
दशा है। सोचता
विक्षिप्त
बहुत है, मगर
लाभ, परिणाम,
लक्ष्य कुछ
भी नहीं है।
सोचते ही रहता
है, सोचते
ही रहता है।
सोचते—सोचते
पगला बन जाता
है।
बुद्धि
साधन है।
बुद्धि को
समर्पित होना
होता है कहीं।
बुद्धि को
प्रतिबद्ध
होना होता कहीं।
किसी महत्
कार्य में
अपने से बड़े
किसी लक्ष्य
के लिए
समर्पित होना
होता है, तब
बुद्धि
सार्थक होने
लगती है। मगर
बुद्धि इसमें
डरती है
क्योंकि वह
नंबर दो हो
जाती है, दोयम
हो जाती है।
जहां भी कोई
बड़ा लक्ष्य
सामने आया, बुद्धि नंबर
दो हो जाती
है। और बुद्धि
में छिपा रहता
है हमारा
अहंकार, जो
नंबर एक रहना
चाहता है; नंबर
दो नहीं होना
चाहता।
इसलिए
तुम्हारे
भीतर जो यह
प्रश्न उठता
है कि आखिर यह
साधना, ध्यान,
ईश्वर—प्राप्ति,
इसकी जरूरत
भी क्या है? यह तुम्हारी
बुद्धि उठा
रही है। बुद्धि
कह रही है, फायदा
क्या है?
और
तुम्हें आनंद
मिल रहा है।
आनंद काफी
नहीं है? आनंद
का भी कुछ
फायदा होना
चाहिए? आनंद
अपने आपमें
फायदा नहीं है?
आनंद में
बहे आंसुओं को
किसी चीज का
साधन होना
चाहिए? आनंद
में बहे आंसू
गुलाब के फूल
नहीं हैं, झील
पर तैरता हुआ
कमल नहीं है, सुबह उगा
हुआ सूरज नहीं
है? मस्ती
में डोले,
उस डोलने
में सारी
कोयलों की
पुकार नहीं आ
गई?
सारे
जगत् का
केंद्र क्या
है?
आनंदमग्न
हो जाना।
इसलिए हमने
परमात्मा की परिभाषा
की है
सच्चिदानंद।
उसके पार तो
कुछ भी नहीं
है।
बुद्धि
की मत सुनना राजकिशोर, नहीं
तो आनंद खो
जाएगा। और
बुद्धि ने
सिवा दुःख के कभी
किसी को कुछ
भी नहीं दिया
है। बुद्धि के
पास देने को
कुछ है भी
नहीं। बुद्धि
बांझ है। उसको
किसी की सेवा
में लगा दो तो
सार्थक हो जाती
है।
बुद्धि
ऐसे है जैसे
शब्दकोश।
तुम्हारे पास
एक डिक्शनरी
है,
डिक्शनरी
में सारे शब्द
हैं। सब शब्द
जो कालिदास ने
उपयोग किए हैं,
भवभूति ने उपयोग
किए हैं, रवींद्रनाथ
ने उपयोग किए
हैं, सब
शब्द। प्यारे
से प्यारे
शब्द। तुम
डिक्शनरी बगल
में लगाए बैठे
रहो, जिंदगीभर बैठे रहो; क्या तुम
सोचते हो इससे
तुम्हारे
भीतर कालिदास
का जन्म होगा,
या रवींद्रनाथ
का गीत उठेगा?
और शब्द
तुम्हारे पास
हैं। ऐसा नहीं
कि तुम्हारे
पास कुछ कमी
है। डिक्शनरी
तुम्हारे पास
है।
इन
शब्दों का
अपने आपमें
कोई उपयोग
नहीं है। इन
शब्दों को जमाओ, इन
शब्दों में से
धुन पैदा करो,
इन शब्दों
को लय दो, इन
शब्दों को
काव्य का रूप
दो, तब ये
शब्द बोलेंगे;
तब ये शब्द
नाचेंगे; तब
इन शब्दों में
महिमा का
आविर्भाव
होगा।
ऐसा ही
जीवन है।
तुम्हारे पास
सब साधन हैं।
सूफी फकीर
कहते हैं कि
जीवन ऐसा है
जैसे एक आदमी अपने
चौके में बैठा
हो।
पाकशास्त्र
की किताब खोले
बैठा हो, जिसमें
सब लिखा है
भोजन कैसे
बनाना। आटा भी
है और दाल भी
है और नमक भी
है और जल भी है और
घी भी है और
चूल्हा भी जला
हुआ है, मगर
वह बैठा ही
है। चूल्हा जल—जलकर
बुझता जा रहा
है। क्योंकि
कब तक जलेगा
चूल्हा? आटा
पड़ा—पड़ा सड़
जाएगा; कब
तक पड़ा रहेगा?
जल भी रखा—रखा
गंदा हो जाएगा,
बासा हो
जाएगा। और
पाकशास्त्र
को पढ़ते—पढ़ते
क्या तुम
सोचते हो भूख
मिटेगी?
सूफी
फकीर कहते हैं, इस
आदमी को कुछ
करना चाहिए।
मिलाए जल को
आटे में, डाले
नमक, चपातियां बनाए, कुछ
भोजन तैयार
करे। आग जल
रही है। सब
साधन दे दिए
गए हैं, साध्य
तुम्हें
खोजना है। जो
बना लेगा रोटी,
वह परम आनंद
से भर जाएगा।
इस रोटी
सेंकने की कला
का नाम ही धर्म
है।
कुछ
लोग गीता ही
पढ़ रहे हैं, वे
पाकशास्त्र
पढ़ रहे हैं।
वे सोचते हैं,
बस रोज सुबह
गीता पढ़ लेंगे,
काम खत्म हो
गया। तोतों की
तरह पढ़ रहे
हैं। रट गई है
गीता।
कहीं
से भी पूछ लो, उत्तर
दे देंगे। मगर
काम बिल्कुल नहीं
आयी है।
और
जिंदगी में
परमात्मा ने
सारे साधन
देकर तुम्हें
भेजे हैं। वह
ऊर्जा दी है
जो ध्यान बने।
वह दीया रख
दिया है जो जल
जाएगा तो
बुद्धत्व का
प्रकाश होगा।
दीया है, ज्योति
है, सब
मौजूद है मगर
संयोग बिठाना
है। संयोग भर
नहीं बैठा है।
वीणा रखी है, तार छेड़ने
हैं।
और
तुम्हारे तार छिड़ने
शुरू हो गए
हैं इसलिए
बुद्धि संदेह
उठा रही है।
बुद्धि संदेह
उठाती तब है
जब देखती है
कि मेरा राज्य
गया;
जब देखती है
कि मुझसे
विराट आना
शुरू हो रहा है,
जल्दी ही
मैं फीकी पड़
जाऊंगी।
जल्दी ही मेरा
कोई उपयोग न
रह जाएगा।
बुद्धि
का खूब उपयोग
है बाजार में, दुकान
में; मंदिर
में क्या
उपयोग है? बुद्धि
का खूब उपयोग
है राजनीति
में; धर्म
में क्या
उपयोग है? धीरे—धीरे
तुम्हें साफ
हो जाता है कि
धर्म के जगत् में
प्रवेश करना
हो तो बुद्धि
की सीढ़ियां
बना लेनी होती
हैं, बुद्धि
के पार चला
जाना होता है।
और
बुद्धि के पार
जो गया वहां
कैसा लाभ, कैसी
हानि! वे तो सब
बुद्धि की ही
बातें थीं, बुद्धि के
प्रत्यय थे।
लेकिन वहां
परम लाभ है; वहां परम पद
है; वहां
परम धन है।
दूसरा
प्रश्न :
मैं
प्रार्थना
करता हूं, जीवनभर
से कर रहा हूं
लेकिन फल कुछ
हाथ नहीं आता
है। प्रभु
मेरी पुकार
सुनेगा या
नहीं? क्या
यह परमात्मा
का मेरे साथ
अन्याय नहीं
है?
प्रार्थना
करते हो, अभी
हुई नहीं है।
करने में ही
चूक हो रही
है। प्रार्थना
कृत्य नहीं है,
प्रार्थना
भाव की दशा
है।
प्रार्थना
करना नहीं है,
होना है।
कोई
प्रार्थना
करता थोड़े ही
है, प्रार्थनापूर्ण होता है। इस
फर्क को समझो।
लेकिन
आदमी अक्सर जो
होता है उसे
भी कृत्य की भाषा
में बोलता है।
जैसे तुम कहते
हो,
मैं सांस ले
रहा हूं। तुम
क्या खाक सांस
ले रहे हो! अगर
सांस नहीं
आएगी, फिर
तुम ले सकोगे?
सांस चल रही
है महाराज, तुम ले नहीं
रहे हो। इसको
भी तुमने
कृत्य बना
लिया कि मैं
ले रहा हूं।
अगर तुम ले
रहे हो तो जब
सो जाओगे, फिर
कौन लेगा? सो
क्या जाओ, अगर
कोमा में भी
पड़ जाओ तो भी
सांस चलेगी; तब कौन लेगा?
बेहोशी में
पड़े रहो, क्लोरोफॉर्म दे दिया गया
हो तो भी सांस
चलती रहेगी।
तुम्हें कुछ
भी पता नहीं
रहा, अब
अपनी देह का
भी पता नहीं
है। इतना पता
नहीं रहा कि
कोई तुम्हारे
अंग काट
डालेगा, डॉक्टर
तुम्हारा
अपेंडिक्स
निकाल लेगा, पेट खोल
देगा और
तुम्हें पता
नहीं चलेगा।
मगर सांस चल
रही है, सो
चलती रहेगी।
तुम
क्या खाक सांस
ले रहे हो!
इसको भी कृत्य
बना दिया।
कहने लगे, मैं
सांस ले रहा
हूं। सांस चल
रही है।
तुम
कहते हो, मैं
प्रेम करता
हूं। प्रेम
कभी किया जाता
है? या तो
होता है या
नहीं होता।
मगर प्रेम को
भी कृत्य बना
लेते हो। फर्क
समझो।
कृत्य
के कारण
अहंकार पकड़
जाता है कि
मैंने किया।
कृत्य सभी
अहंकार का
भोजन बन जाता
है।
प्रार्थना
की नहीं जाती।
प्रार्थना
प्रेम जैसी है
: होती है, घटती
है।
प्रार्थना एक
भाव की दशा है,
कर्म की दशा
नहीं है। और
यहीं भूल हो
रही है।
अगर
तुमने समझा, मैंने
प्रार्थना की
तो पहले तो वह
प्रार्थना झूठी
हो गई। जो की
जाती है वह
झूठी हो जाती
है। उमगनी
चाहिए, होनी
चाहिए, तुम्हारे
भीतर से फलनी
चाहिए, प्रकट
होनी चाहिए।
मैंने
सुना है, उर्दू
के महाकवि दाग
नमाज पढ़ रहे
थे, कि कोई
व्यक्ति उनसे
मिलने आया और
उन्हें नमाज
में तल्लीन
देखकर लौट
गया। कुछ ही
देर में दाग
जब मुसल्ले पर
से उठे तो
उनके नौकर ने
उस व्यक्ति के
बारे में
बताया। दाग ने
कहा, भागकर
जाओ और उसे
बुला लाओ। जब
वह व्यक्ति
लौटकर आया तो
दाग ने पूछा, आप आते ही
लौट क्यों गए?
उस आदमी ने
कहा, क्योंकि
आप नमाज पढ़
रहे थे। दाग
ने कहा, बड़े
मियां, नमाज
ही तो पढ़ रहा
था, गज़ल तो नहीं कह
रहा था!
अब तुम
फर्क समझते हो? दाग
जो कह रहा है——नमाज
ही पढ़ रहा था, गज़ल
तो नहीं कह
रहा था। जब
दाग गज़ल
कहता है तो वह
एक भाव की दशा
होती है। तब
वह होता ही
नहीं, गज़ल होती है। तब
दाग मिट जाता
है, गज़ल ही बचती है।
प्रार्थना ही
तो कर रहा था, उसने कहा, नमाज ही तो
पढ़ रहा था।
कोई खास बात
कर रहा था?
एक कृत्य
था। एक
औपचारिक
कृत्य था।
करना चाहिए, कर
रहा था। पांच
बार मुसलमान
को करना चाहिए
तो कर रहा था।
संयोग की बात
है, मुसलमान
घर में पैदा
हुआ हूं। बचपन
से सिखाया गया
है, संस्कार
है तो कर रहा
था। इसमें ऐसे
चले जाने की
क्या बात थी? और मुझे टोक
भी दिया होता
बीच में तो
क्या बना—बिगड़ा
जा रहा था!
जिंदगी तो हो
गई करते—करते,
मिलता तो
कुछ है नहीं।
तो खो भी क्या
जाएगा?
लेकिन
एक बात उसने
बड़ी
महत्त्वपूर्ण
कही कि मैं गज़ल
तो नहीं कह
रहा था! हां, गज़ल कह
रहा होऊं तो
मुझे मत
रोकना। गज़ल
कह रहा होऊं
तो फिर मुझे
पता ही नहीं
चलेगा कि तुम
आए कि गए।
नमाज पढ़ रहा
था इसलिए तो
पता भी चला कि
कोई आया, कोई
गया। शायद
इसलिए जल्दी
खत्म भी की
होगी कि पता
नहीं, कोई
काम से आया हो,
जरूरी काम
से आया हो।
इसीलिए तो
नौकर को भगाया।
हां, गज़ल कह रहा होता
तो बात अलग
थी।
दाग जब गज़ल कहता
है तभी
प्रार्थना
है। जब वह
नमाज पढ़ता है
तब तो फिजूल
का काम कर रहा
है,
न भी करे तो
चलेगा। समय खो
रहा है।
तुम्हारी
प्रार्थना भी
अभी नमाज है, गज़ल
नहीं है। अभी
तुम्हारे
प्राणों का
गीत नहीं है।
एक कृत्य है, औपचारिक
कृत्य है।
हिंदू घर में
पैदा हुए हो, सिखा दिया :
ऐसे—ऐसे पढ़ना,
ऐसे पूजा
करना, ऐसे
पानी चढ़ाओ,
ऐसे फूल चढ़ाओ,
ऐसे बेल—पत्ते
तोड़ लाओ, घंटी
बजाओ।
मगर ये सब
कृत्य हैं, यह तुम्हारी
भाव की दशा
नहीं है। तुम
कर रहे हो कर्तव्यवश।
तुम्हारे
भीतर प्रेम
नहीं उमगा है।
रामकृष्ण
के जीवन में
उल्लेख है। एक
भक्त, एक
वैष्णव भक्त
रामकृष्ण के
मंदिर में
मेहमान हुआ।
विवेकानंद तो
उससे बड़ा विवाद
करने लगे
क्योंकि वह
बड़ा दीवाना
था। उसके पास
बालगोपाल की
एक प्रतिमा
थी। उसकी पूजा
बड़ी अजीब थी।
पूजा थी इसलिए
अजीब लगती थी।
विवेकानंद को
तो बड़ी हैरानी
हुई उसकी पूजा
देखकर कि बजाय
गंगा से पानी
भरकर लाने के गोपालजी
को ले जाकर
गंगा में
डुबकी लगवा
देता वह। खुद भी
नहाता, उनको
भी नहलवाता; खूब रगड़—रगड़कर
नहलवाता और
बीच—बीच में
बोलता जाता, कहो जी, कैसे
हाल हैं? आनंद
आ रहा है?
उनको
तैराता अपने
साथ। ले जाता, तैराता
बीच गंगा में।
और इतना ही
नहीं, नहला—धुलाकर, खिला—पिलाकर
पास के खेत
में चला जाता।
वहां दोनों
खेलते—कूदते। गोपालजी
को खिलाता, कि जरा हवा
खा लो खुली।
झाड़ के नीचे
जरा मजा कर लो।
चलो, झाड़
पर चढ़ें।
बातचीत भी
चलती।
विवेकानंद
को तो बहुत
हैरानी हुई कि
यह क्या, किस
तरह की पूजा
है! जब
रामकृष्ण को
पता चला तो रामकृष्ण
ने कहा कि मत छेड़ना उस
व्यक्ति को।
यही पूजा है।
न वह
घंटी बजाता, न
वह भोग लगाता।
उसका ढंग ही
और था। खाना
बनाता जाता, वहीं गोपालजी
को बिठा लेता
कि कहो गोपालजी,
क्या खाओगे?
आज क्या
इरादा है? बनाता
जाता, चखता
भी जाता और गोपालजी
को भी चखाता
जाता।
रामकृष्ण
ने कहा, उसे मत
छेड़ो। यह
प्रार्थना का
सच्चा स्वरूप
है। इस आदमी को
औपचारिकता
नहीं है। इसका
वास्तविक
संबंध है। और
विवेकानंद को
रामकृष्ण ने
कहा कि तुम अगर
कभी. . .छिप जाना
जाकर वहां, जहां यह ले
जाता है गोपालजी
को खिलाने के
लिए। किसी झाड़
के पीछे छिपकर
बैठ जाना।
शांति से वहां
देखना, क्या
होता है। तुम
चकित होओगे
अगर तुम्हारे
पास आंखें हैं
देखने की, तो
तुम पाओगे, गोपालजी भी खेल रहे
हैं। यह आदमी
अकेला नहीं
बोलता। यह
एकालाप नहीं
हो रहा है, यह
वार्तालाप
है।
जब
इतने भाव से
कोई पुकारता
है,
इतनी
तन्मयता से, इतनी
एकाग्रता से,
इतनी तल्लीनता
से! इसी भाव से
प्राण पड़ जाते
हैं पत्थर में।
प्रतिमा
जीवंत हो जाती
है।
तुमने
तो प्रार्थना
"की'
है, इसलिए
तुम्हें अड़चन
हो रही है।
इसलिए यह सवाल
उठ रहा है।
तुम पूछते हो,
मैं
प्रार्थना
करता हूं।
जीवनभर से कर
रहा हूं।
देखते
हो,
थक गए हो! यह
आनंद का कृत्य
नहीं हो सकता।
आनंद से कभी
कोई थकता है? कर्तव्य
मानकर किए जा
रहे हो। एक
बोझ ढो रहे हो
सिर पर। थक गए
हो। यह बोझ
उतार देना
चाहते हो। और
अभी तक कुछ
हाथ भी नहीं
लगा है।
और इस
कृत्य के पीछे
लोभ भी छिपा
है,
वासना भी
छिपी है। कुछ
हाथ भी लगना
चाहिए। प्रार्थना
परम मूल्य है।
प्रार्थना से
कुछ हाथ नहीं
लगता। प्रार्थना
ही हाथ लग गई
तो सब हाथ लग
गया। और बचा क्या?
प्रार्थना
में ही तो
परमात्मा हाथ
लग गया। और बचा
क्या? इससे
ज्यादा और
क्या चाहते हो?
जरूर
प्रार्थना के
पीछे
तुम्हारे मन
में कोई मांग
छिपी है कि धन
मिल जाए, कि पद मिल
जाए। कि देखो
बेईमान तो सब
पदों पर पहुंच
गए हैं और मैं
ईमानदार
प्रार्थना ही
करते रह गया।
यह भी भगवान
खूब अन्याय कर
रहा है।
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं कि जमाने
भर के बेईमान, बदमाश
प्रतिष्ठित
हो गए और हम जिंदगीभर
प्रार्थना ही
करने में लगे
रह गए। हमें
मिला क्या?
इनके
मन में भी चाह
तो वही है, जो
बेईमानों को
मिल गया है।
चाहते तो ये
भी हैं कि वही
हमें भी मिल
जाए।
बेईमानों ने
हिम्मत की और
जीवन जोखम
में डाला।
इन्होंने
जीवन भी जोखम
में नहीं
डाला। फिर
बेईमानी तो
कोई सस्ती तो पड़ती
नहीं। फंसे तो
बहुत झंझट की बात
है। चोरी करने
गए तो धन भी
हाथ लगता है, न लगा तो
जेलखाना है। जेलखाने
की संभावना तो
है ही।
इन्होंने तो जेलखाने
का खतरा भी
नहीं लिया है।
ये घर में
बैठकर घंटी
हिलाते रहे और
मन में यही
सोचते रहे कि
चोर को जो मिल
रहा है, वही
हमको भी मिलना
चाहिए। और न
मिले तो भगवान
अन्याय कर रहा
है।
चोर ने
कम से कम जोखम
तो लिया! कुछ
साहस तो किया!
अक्सर मैं
देखता हूं कि
तुम्हारे
तथाकथित
धार्मिक आदमी
केवल भय के
कारण धार्मिक
हैं। अगर उनको
पक्का पता चल
जाए कि
प्रार्थना से
कुछ नहीं
होनेवाला है; आकाश
बहरा है, कोई
सुननेवाला
नहीं है, उनकी
प्रार्थना
उसी वक्त बंद
हो जाएगी। अगर
उनको पता चल
जाए कि कोई
नरक नहीं है; चोरी—बेईमानी
का कोई बुरा
परिणाम नहीं
होता, वे
जल्दी से चोरी—बेईमानी
की योजना
बनाने
लगेंगे। वे
सोचेंगे इतना
जीवन नाहक
गंवाया। अगर
उनको पता चल
जाए कि ये चोर
और बदमाश यहीं
धोखा नहीं दे
रहे हैं, ये
स्वर्ग में भी
रिश्वतखोरी
करके प्रवेश
पा जाते हैं।
तब तो
बहुत मुश्किल
हो जाएगी। तब
तो वे भी दौड़ पड़ेंगे
दौड़ में।
तैयार ही खड़े
हैं,
कसे ही खड़े
हैं लेकिन
भयभीत हैं कि
कहीं नरक में
न पड़ना
पड़े, कहीं
स्वर्ग न खो
जाए।
और फिर
यहां भी भयभीत
हैं कि कहीं
प्रतिष्ठा न
खो जाए, पकड़ न
जाएं, चोरी
में कहीं
गिरफ्त में न
आ जाएं। तो
अपनी प्रार्थना
कर रहे हैं और
आशा लगाए हैं
कि वही मिल
जाएगा जो
चोरों को मिल
रहा है, बेईमानों
को मिल रहा
है।
तुम्हारी
आशा में ही
प्रार्थना
झूठी हो गई। प्रार्थना
जब वस्तुतः
होती है तो उसमें
मांग होती ही
नहीं।
प्रार्थना
में अपने को
देने का भाव
होता है कि हे
परमात्मा, मुझे
ले ले; कि
मुझे अपने
चरणों में ले
ले। कि मुझे
लीन हो जाने
दे तेरे चरणों
में। और मेरी
कोई मांग नहीं
है। मैं न
बचूं, तू
ही बचे। मैं
बिल्कुल
समाप्त हो
जाऊं। मुझे पोंछ
दे, मिटा
दे।
लेकिन
तुम तो कहते
हो,
कुछ हाथ
नहीं लगा।
"प्रभु मेरी
पुकार सुनेगा या
नहीं?'
तुम्हें
न तो प्रभु का
पता है, न
तुम्हें
प्रभु पर
भरोसा है।
तुम्हारे
जीवन में
श्रद्धा भी
नहीं है, थोथा
विश्वास है——उधार।
दूसरों ने बता
दिया कि ईश्वर
है, तुमने
मान लिया। तुम
इतने बेईमान
हो कि तुमने
ईमानदारी के
प्रश्न भी न
उठाए और मान
लिया। तुमने
खोज भी नहीं
की है, तुमने
अन्वेषण भी
नहीं किया।
तुम यात्रा पर
भी नहीं गए।
दूसरों ने कह
दिया और तुमने
कहा कि आप जब
कहते हैं तो
ठीक ही कहते
होओगे। कौन
झंझट करे! कौन
खोजने जाए! हम
बिना ही खोजे
मान लेते हैं।
यह
उधार विश्वास
काम नहीं
आएगा। इसलिए
तुम्हें शक भी
पैदा होगा बार—बार
कि प्रभु
हमारी पुकार
सुन रहा है या
नहीं? शक तो
यही है
तुम्हें असल
में कि प्रभु
है भी या नहीं!
जरा खोदो
अपने भीतर और
तुम इस संदेह
को बैठा हुआ
पाओगे।
तुम्हारी
थोथी श्रद्धा
के भीतर संदेह
के अतिरिक्त
और कुछ भी
नहीं है। और
तुम लाख कहो
कि मेरी बड़ी प्रगाढ़
श्रद्धा है, मगर तुम
जितने जोर से
कहते हो, मेरी
प्रगाढ़
श्रद्धा है, तुम प्रमाण
देते हो कि
तुम्हारा
उतना ही प्रगाढ़
संदेह है। उस प्रगाढ़
संदेह को दबा
देने के लिए
तुमने यह प्रगाढ़
श्रद्धा उसकी
छाती पर बिठा
रखी है। मगर
संदेह भीतर है,
मौजूद है।
मैंने
बड़े से बड़े
आस्तिक के
भीतर संदेह
देखा है उतना
ही,
जितना किसी
नास्तिक के
भीतर होता है।
नास्तिक कम से
कम ईमानदार
होता है, आस्तिक
बेईमान होते
हैं। न तो
नास्तिक
धार्मिक है, न आस्तिक
धार्मिक है।
धार्मिक तो एक
और ही घटना है;
वहां कैसी
नास्तिकता, वहां कैसी
आस्तिकता!
धार्मिक के
जीवन में अपने
अनुभव की किरण
होती है। वह
परमात्मा को
खोजता है, मानकर
नहीं चलता।
पहले से
स्वीकार नहीं
कर लेता है कि
परमात्मा है।
जब स्वीकार ही
कर लिया तो
फिर खोज क्या?
तुमसे
कहा गया है अब
तक कि विश्वास
करो तो एक दिन
जान लोगे। मैं
तुमसे कहना
चाहता हूं जान
लो तो विश्वास
आएगा। जाने
बिना कैसे
विश्वास
करोगे? अंधे
ने प्रकाश
नहीं देखा है,
कैसे
विश्वास
करेगा कि
प्रकाश है? और बहरे ने
संगीत नहीं
सुना है, कैसे
विश्वास
करेगा कि
ध्वनि है? कैसे?
क्या उपाय
है? हां, मान ले सकता
है, इतने
लोग कहते हैं,
ठीक ही कहते
होंगे। मगर
भीतर संदेह की
आग जलती ही
रहेगी, संदेह
का धुआं उठता
ही रहेगा और
बार—बार
विश्वास को डगमगाएगा,
बार—बार
विश्वास को तोड़ेगा।
यह
विश्वास
कच्चा है। यह
बहुत सतही है।
नहीं तो यह
सवाल ही न उठे
कि मेरी पुकार
सुनेगा या
नहीं!
पहले
तो प्रार्थना
में कोई मांग
नहीं होती, समर्पण
का भाव होता
है। फिर वह
मेरी पुकार
सुने, यह
आग्रह नहीं
होता, मैं
उसकी पुकार सुनूं, यह
आग्रह होता
है। तुम जरा
फर्क समझो।
वह
पुकार रहा है, मैं
कब उसे सुनूंगा
यह भक्त का
भाव होता है——कि
मैं बहरा हूं।
कितने समय से
वह पुकार रहा
है अनंतकाल से
और मैंने नहीं
सुना। वह
पुकारता जा
रहा है और
मैंने नहीं
सुना। वह
कृष्ण से पुकारा,
वह
क्राइस्ट से
पुकारा, वह
कबीर से
पुकारा, और
मैंने नहीं
सुना। मैं कब सुनूंगा?
भक्त
यह पूछता है
कि मैं कब सुनूंगा? तुम
पूछते हो कि
वह कब सुनेगा?
भक्त कहता
है, मैं
बहरा हूं। तुम
कहते हो, भगवान
बहरा है। असल
में तुम्हें
भगवान पर भरोसा
नहीं है।
खुद
गिरे लेकिन
छलकने दी न मै
अपने
सर ले लीं
बलाएं जाम की
अगर
तुम्हारा
परमात्मा से
प्रेम हो तो
तुम यह तो कभी
सोच भी न
सकोगे कि वह
बहरा है।
खुद
गिरे लेकिन
छलकने दी न मै
अपने
सर ले लीं
बलाएं जाम की
प्रेम
तो सदा सारी
शिकायतें
अपने ऊपर ले
लेता है।
प्रेम तो कहता
है,
अगर तुम
दिखाई नहीं पड़
रहे तो मैंने
आंख बंद कर
रखी होगी। अगर
तुम सुनाई
नहीं पड़ रहे
तो मेरे कान
बंद होंगे।
अगर तुम अनुभव
में नहीं आ
रहे तो मेरे
अनुभव के
स्रोत सूख गए
होंगे। प्रेम
तो सारी
शिकायतें
अपने ऊपर ले
लेता है। लोभ
सारी
शिकायतें
दूसरे पर डाल
देता है।
तुम्हारी
प्रार्थना
में लोभ है।
तुम किसी तरह
प्रार्थना कर
रहे हो।
उल्लास नहीं
है। रोज करते
होओगे और
सोचते होओगे, एक
दिन और बीत
गया, एक
दफे और
प्रार्थना कर
ली, अभी भी
कुछ नहीं हुआ।
प्रार्थना
के बाहर कुछ
होने को है? प्रार्थना
के भीतर कुछ
होने को है, बाहर कुछ
होने को नहीं
है।
जिंदगी
का रास्ता
काटना ही था
अदब
जाग
उठे तो चल दिए, थक
गए तो सो लिए
इस तरह
तुम
प्रार्थना कर
रहे हो :
जिंदगी का
रास्ता काटना
ही था अदब।
किसी तरह काटना
है।
प्रार्थना भी
कर ही लेनी
चाहिए, कौन
जाने!
मेरे
एक शिक्षक थे; दार्शनिक
थे, दर्शन
के प्रोफेसर
थे। और ईश्वर
को कभी माना नहीं।
और एक बार
बहुत बीमार
पड़े। मैं
उन्हें देखने
गया तो मैं
बहुत हैरान
हुआ। खूब बुखार
चढ़ा था, कोई
एक सौ पांच
डिग्री
बुखार।
सन्निपात
जैसी दशा थी
और वे राम—राम
जप रहे थे।
मैंने उनका
सिर हिलाया
जोर से और
मैंने कहा, होश में आओ, यह क्या कर
रहे हो? ईश्वर
तो है ही
नहीं।
उन्होंने कहा,
अभी चुप
रहो। अभी मुझे
याद मत दिलाओ।
यह मरने की
घड़ी..... कौन जाने
हो ही!
जिंदगीभर का
नास्तिक मरते
वक्त डगमगाने
लगा। जिंदगीभर
के आस्तिक भी
मरते वक्त
डगमगाते हैं।
असल में झूठा
जो भी है, ऊपर—ऊपर
जो है वह डगमगाएगा।
फिर
उनका बुखार भी
ठीक हो गया।
फिर वे कभी
अगर मुझसे
नास्तिकता की
बात करते तो
मैं कहता, बंद
करो बकवास।
तुम नास्तिक
नहीं हो। याद
करो उस दिन को,
जब बुखार
तेज चढ़ा था और
मौत करीब लगी
थी।
तो वे
मुझसे कहते कि
हां,
उस दिन तो
डर गया था, भयभीत
हो गया था।
सोचा, पता
नहीं हो ही
भगवान। हर्ज
भी क्या है? ऐसे ही पड़ा
हूं बिस्तर पर,
काम भी कुछ
नहीं, राम—राम
कर लेने में
हर्ज क्या है?
कम से कम
कहने को तो रह
जाएगा अगर मिल
ही गया मरने
के बाद, सामने
ही खड़ा हो गया,
कि मैंने
पुकारा तो था।
चलो आखिरी
वक्त ही पुकारा
था। और तुम तो
सदा से ही
सुनते रहे हो।
आखिरी वक्त की
पुकार तो तुम
विशेष कर
सुनते हो। अजामिल
को तुमने
मुक्त कर दिया
था। और वह तो
अपने बेटे
नारायण को
बुला रहा था।
मैं तो तुम्हीं
को बुला रहा
था।
और
नहीं हुआ तो
अपना क्या
बिगड़ रहा है? यह
तुम देखते हो,
हिसाब की
बात है। नहीं
हुआ तो अपना
क्या बिगाड़
रहा है? और
हुआ तो भी
अपना क्या.....!
नाम ले लिया
तो लाभ ही लाभ
है, हानि
तो कुछ है
नहीं।
और मैं
देखता हूं कि
तुम्हारे
आस्तिक, जो
मंदिरों में
पूजा कर रहे
हैं, प्रार्थना
कर रहे हैं, इनकी
आस्तिकता के
नीचे भी बस
ऐसा ही भय
छिपा हुआ है।
कर लेनी है।
कौन जाने हो!
हर्ज भी क्या
है! ऐसी
जिंदगी जा ही
रही है। एक
आधा घड़ी इसमें
भी गंवा देने
में हर्ज क्या
है! यह भी सौदा
कर लेने जैसा
है।
जैसे
लोग लॉटरी
का टिकट खरीद
लेते हैं, कि
कौन जाने मिल
ही जाए! किसी
को तो मिलती
ही है, कौन
जाने मिल ही
जाए! खुद को
मिली भी नहीं
है जिंदगीभर
से मगर कौन
जाने, अब
मिल जाए। एक
दफा और सही।
ऐसे ही
तुम
प्रार्थना कर
रहे हो लॉटरी
के टिकट की
तरह। यह भक्त
की दशा नहीं
है। भक्त की
बड़ी और दशा
है। भक्त तो
कहता है, जैसा
प्रेमी कहता है——
तअम्मुल तो
था उनको आने
में क़ासिद
मगर
यह बता तर्ज़—ए—इनकार
क्या थी
भेजा
है पत्रवाहक
को प्रेयसी के
पास प्रेमी ने।
पत्रवाहक
वापस लौट आया
और कहता है कि
प्रेयसी आना
नहीं चाहती।
लेकिन प्रेमी
क्या कहता है? वह
कहता है, मैं
यह तो समझ गया
कि उसे आने
में कठिनाई है,
मगर मैं
तुझसे यह
पूछना चाहता
हूं, "मगर
यह बता, तर्ज़—ए—इनकार
क्या थी!' इनकार
करने का ढंग
क्या था? क्योंकि
उसमें भी
प्यार हो सकता
है। इनकार करने
के ढंग में भी
प्यार हो सकता
है। विवशता हो
सकती है, मजबूरी
हो सकती है, कठिनाइयां
हो सकती हैं, दूसरी बात
है। इनकार को
इतनी जल्दी
स्वीकार नहीं
कर लेता प्रेमी
एक
सागर भी इनायत
न हुआ याद रहे
साक़िया
जाते हैं
महफिल तेरी
आबाद रहे
फिर
मिले या न
मिले। एक
प्याली भी न
मिले तो भी शिकायत
नहीं है
प्रेमी के मन
में।
एक
सागर भी इनायत
न हुआ याद रहे——तेरी
मधुशाला में
आए और एक प्याली
भी पीने को न
मिली।
साक़िया
जाते हैं
महफिल तेरी
आबाद रहे——लेकिन
तेरी महफिल
आबाद रहे। हम
तो जाते हैं
खाली, हम तो
जाते हैं
प्यासे, मगर
तेरी महफिल को
आशीर्वाद दिए
जाते हैं, आशीष
दिए जाते हैं,
शुभकामना
किए जाते हैं।
शिकायत का तो
सवाल ही नहीं
उठता।
तुम कहते
हो,
"क्या यह
परमात्मा का
मेरे साथ
अन्याय नहीं
है?'
परमात्मा
ने तुम्हें
इतना दिया है
उसका तो धन्यवाद
नहीं किया
तुमने, लेकिन
जो नहीं दिया
है उसके लिए
अन्याय की शिकायत
जरूर कर रहे
हो। तुम्हें
कितना दिया है
इसका हिसाब
कभी किया है? और तुम पाने
के हकदार थे? तुम्हारी
कोई पात्रता
थी?
अगर
तुम गौर से देखोगे
तो एक श्वास
भी ले लेना इस
अस्तित्व में
इतना बड़ा
सौभाग्य है।
और हमने
अर्जित तो
किया नहीं यह
सौभाग्य।
उसकी भेंट है, प्रेम
की भेंट है।
मिला है।
तुमने
जीवन अर्जित
तो नहीं किया।
तुमने जीवन पाने
के लिए क्या
किया था? कुछ
याद पड़ता है
जो तुमने किया
हो जीवन पाने
के लिए? लेकिन
जीते हो।
और
तुम्हारी
आंखें फूलों
के रंग देखती
हैं,
इंद्रधनुषों को देखती
हैं। और
तुम्हारे कान पपीहे की
पुकार सुनते
हैं। और
तुम्हें
सौंदर्य का बोध
है। और संगीत
तुम्हारे
हृदय में जाता
है और गूंज
पैदा होती है।
तुम जीवित हो,
जीवन जैसा महासौभाग्य
तुम्हें मिला
है इसके लिए
धन्यवाद किया?
एक
सूफी कहानी
तुमसे कहूं।
एक आदमी मरने
जा रहा था, एक
फकीर ने उसे
पकड़ लिया और
कहा, क्या
बात क्या है? क्यों मरने
जा रहे हो? कूदने
को ही था
पहाड़ी पर से।
उसने कहा, मत
रोको, मेरा
जीवन बिल्कुल
बेकार है।
परमात्मा ने
मेरे साथ अन्याय
किया है।
मैंने जो भी
मांगा, नहीं
मिला। मुझसे
ज्यादा दीन और
दुःखी आदमी इस
पृथ्वी पर
दूसरा नहीं
है। मेरे पास
एक कौड़ी
भी नहीं है।
मेरे खीसे
खाली हैं, मेरा
पेट भूखा है।
मैं इस जिंदगी
को समाप्त करना
चाहता हूं। मैं
उसकी यह भेंट
उसको वापिस दे
देना चाहता
हूं——सम्हाल
अपनी जिंदगी,
मुझे नहीं
चाहिए।
फकीर
ने कहा, ऐसा
करो, तुम
तो मर ही
जाओगे। इसके
पहले अगर
मुझको कुछ लाभ
हो जाए तो
तुम्हें कोई
हैरानी है? उसने कहा, मुझे क्या
हैरानी है? हो जाए
तुम्हें लाभ।
उसने कहा, तुम
एक दिन और रुक
जाओ; बस
चौबीस घंटे!
चौबीस घंटे के
लिए इंतजाम
मैं करता हूं।
खाना भी मेरे
साथ खाओ, सोओ
भी मेरे साथ।
चौबीस घंटे
बाद मर जाना।
इस बीच मैं
थोड़ा लाभ कर
लूं। उसने कहा,
लाभ का मतलब
क्या है? उसने
कहा, मैं
कल सुबह
तुम्हें
बताऊंगा।
सुबह
वह उसे लेकर सम्राट्
के पास गया। सम्राट्
फकीर का शिष्य
था। खबर उसने
पहले भेज दी
थी। जाकर सम्राट्
के पास उसने
कहा कि आप इस
आदमी की आंखें
खरीदना चाहते
हैं?
सम्राट् ने कहा, अच्छी
बात है। क्या
दाम देंगे? सम्राट् ने कहा कि एकेक लाख
रुपया एकेक
आंख का दूंगा।
वह
आदमी जो मरने
जा रहा था, वह
तो भूल ही गया
मरने की बात।
उसने कहा हद
हो गई! मेरी
आंखें क्या
तुमने समझ रखा
है मैं बेचूंगा?
लाख क्या, तुम अगर दस
लाख भी एक आंख
का दो तो आंख
ऐसी चीज है कि
कोई बेचता है?
होश में हो?
सम्राट् हो, अपने
घर के हो।
वह तो
आदमी बड़े
गुस्से में आ
गया। उस फकीर
ने कहा, भाई, तू चुप रहे।
चौबीस घंटे ही
तूने बात की
है। और इसके
कान भी बेचने
हैं, इसकी
नाक भी बेचनी
है। जो भी
खरीदना हो
इसमें से
सामान, खरीद
लो। वह आदमी
तो एकदम नाराज
हो गया। उसने फकीर
से कहा कि तुम
हत्यारे तो
नहीं हो? तुम
बातें क्या कर
रहे हो? करोड़ रुपए में भी कोई
मेरे हाथ, पैर,
मेरी नाक, मेरी आंख, मेरे कान
नहीं खरीद
सकता। ये किसी
कीमत पर बिकेंगे
नहीं।
पर उस
फकीर ने कहा, भले
आदमी! यह तुम
बात क्या कर
रहे हो? कल
तुम ऐसे ही
नदी में कूदे
जा रहे थे
पहाड़ से। यह
सब ऐसे ही चला
जाता। मैं इसीलिए
तो कह रहा हूं,
चौबीस घंटे रुक
जाओ, मुझे
कुछ कमा लेने
दो। तुम तो
बेकार समझ रहे
हो मगर मुझे
इनमें कीमत
मालूम होती
है। अब तक तुमने
कभी सोचा था
कि तुम्हारी
आंखों की कीमत
लाखों रुपए हो
सकती है? कोई
लाख रुपए भी
दे तो तुम आंख
बेचने को राजी
नहीं होओगे।
इसके लिए
तुमने कभी
परमात्मा को धन्यवाद
दिया था?
वह
आदमी चौंका, होश
में आया। सच
थी बात। उसने
कभी परमात्मा
को किसी बात
के लिए
धन्यवाद नहीं
दिया था।
क्षुद्र
बातें जो पूरी
नहीं हुई थीं
उनकी शिकायत
की थी और इतना
विराट मिला था
इसके लिए
धन्यवाद कभी
नहीं दिया था।
तुम
कहते हो, "क्या
मेरे साथ
परमात्मा अन्याय
नहीं कर रहा
है ?' परमात्मा
ने तुम्हारे
साथ कितनी
अनुकंपा की है!
वह रहीम है, रहमान है।
उसकी अनुकंपा
प्रतिपल बरस
रही है।
और
बहुत बार तो
ऐसा हो जाता
है कि तुम्हें
जो लगता है
अनुकंपा नहीं
है वह भी
अनुकंपा होती
है। क्योंकि
कई बार आदमी
कठिनाइयों से
सीखता है। कई
बार सूलियों
के पीछे ही
सिंहासन छिपे
होते हैं। कई
बार अभिशाप के
रूप में वरदान
आता है।
एक
सूफी फकीर रोज
अपनी
प्रार्थना
में परमात्मा
को धन्यवाद
देता था : कि
अहा,
तू भी खूब
है! मुझ नाकुछ
को इतना देता
है कि मैं कैसे
तेरा धन्यवाद
करूं? किस जबां से
तेरा धन्यवाद
करूं?
नंगा
फकीर! उसके
पास कुछ था भी
नहीं। और रोज
धन्यवाद दे।
उसके शिष्य भी
थक गए थे उसकी
बातें सुन—सुनकर।
फिर एक दिन तो
ऐसा हुआ कि
तीन दिन तक खाना
न मिला।
यात्रा पर
निकले थे, तीर्थयात्रा
पर। न खाना
मिला तीन दिन
तक, न किसी
गांव में
ठहरने की जगह
मिली।
लोग उस
फकीर के खिलाफ
थे,
जैसे लोग फकीरों के
खिलाफ सदा से
रहे हैं। लोग
कहते थे, वह
फकीर कुछ
उपद्रव की
बातें कर रहा
है, बगावती
है। उसकी
बातें कुरान
से मेल नहीं खातीं।
उसकी बातें
मुहम्मद के
विपरीत पड़ती
हैं। वह फकीर
अपने शिष्यों
के बीच कहता
है बैठकर : "अनलहक'——कि मैं
परमात्मा
हूं। यह बात
ठीक नहीं है।
यह कुफ्र है।
उसको
तीन गांवों
में तीन दिन
तक ठहरने नहीं
दिया गया।
भोजन भी नहीं
मिला।
रेगिस्तान
में थके—मांदे
तीसरे दिन जब
वे सांझ को
रुके एक वृक्ष
के नीचे, वह
फकीर फिर अपने
मुसल्ले को
बिछाकर बैठ
गया। फिर उसने
हाथ जोड़े।
शिष्य बैठे
देख रहे थे, देखें आज
क्या यह कहता
है! भूखा तीन
दिन का, थका—मांदा,
धूलि—धूसरित!
स्नान भी नहीं
कर पाए, कहीं
ठहर भी नहीं
सके। मगर उसने
फिर वही कहा कि
हे प्रभु!
उसकी आंखें
चमक रही हैं
आनंद से। उसके
चेहरे पर फिर
वही आनंद का
भाव, फिर
वही
प्रार्थना :
"हे प्रभु!
तेरा बड़ा
धन्यवाद है।
तू सदा मुझे जिस
चीज की जरूरत
होती है, पहुंचा
देता है।'
एक
शिष्य ने कहा
कि अब बस, ठहरो!
अब हद हो गई।
जिस चीज की
जरूरत होती है,
पहुंचा
देता है। और
तीन दिन से हम
भी तुम्हारे
साथ हैं, जिस
चीज की जरूरत
है, वही
नहीं मिली है।
रोटी नहीं
मिली, पानी
नहीं मिला, आवास नहीं
मिला। अब और
क्या है? मिला
क्या है तीन
दिन में?
उस
फकीर ने कहा, तुम
बीच में मत
बोलो। तीन दिन
तक मुझे इसी
बात की जरूरत
थी। वह मेरी
जरूरत का खयाल
रखता है। तीन
दिन तक भूखे
रखना, तीन
दिन तक भूखे
रहना मेरे लिए
लाभ का हुआ है।
तीन दिन तक
भूख और अपमान
खाने के बाद
भी मैं
प्रार्थना कर
सकूं, यही
मेरी जरूरत
थी। उसने अवसर
दिया। सुख
मिले तब
धन्यवाद देना
तो बहुत आसान
है पागलो!
जब दुःख मिले
तब धन्यवाद
देने की
क्षमता प्रार्थना
की ही छाती
में होती है।
उसने
मुझे एक मौका
दिया। उसने
मुझे एक अवसर
दिया। मगर मैं
भी समझ गया कि
अवसर क्यों दे
रहा है। वह
इसलिए दे रहा
है कि अब देखूं।
एक दिन उसने
कुछ भी न दिया, भूखा
रखा, फिर
भी मैंने
प्रार्थना
की। दूसरे दिन
भी उसने कहा, अच्छा ठीक
है, एक दिन
तूने कर ली, दूसरे दिन? दूसरा दिन
भी बीत गया, अब यह तीसरा
दिन भी आ गया।
उसने फिर एक
मौका दिया कि
आज तीसरा दिन
फिर आ गया। अब
तू बिल्कुल
भूखा है, जीर्ण—जर्जर
है, गिरा
पड़ता है, अब
तू धन्यवाद
देगा कि नहीं
देगा? अब
तो रुकेगा न? अब तो बंद कर
देगा
प्रार्थना।
मगर मैंने कहा
कि तू मुझे
हरा न सकेगा।
मैं धन्यवाद
देता ही जाऊंगा।
अंतिम घड़ी तक
धन्यवाद देता
चला जाऊंगा।
जब तक श्वास
है, धन्यवाद
उठेगा। श्वास
ही न रहे तो
फिर बात और।
मरते क्षण तक
ओंठ पर
धन्यवाद
होगा। तू अगर
मौत भी देगा
तो वह मेरी
जरूरत है तो
ही देगा; नहीं
तो क्यों देगा?
इसका
नाम श्रद्धा
है। इसका नाम
प्रार्थना है।
प्रार्थना की
नहीं जाती।
प्रार्थना
बड़े गहरे अनुभव
से प्रकट होती
है।
तुम
यहां हो इस
सत्संग में।
इस सत्संग के
सरोवर में
नहाओ, डूबो। और अपनी
पुरानी
धारणाएं छोड़ो।
घंटियां
इत्यादि
बजाने से कुछ
प्रार्थना
नहीं होती, न पानी
इत्यादि चढ़ाने
से कोई
प्रार्थना
होती है।
मैं तुम्हें
प्रार्थना का
असली शास्त्र
दे रहा हूं।
लेकिन शुरुआत
से ही शुरुआत
करनी होगी।
तुम्हारी
आस्तिकता ही
झूठी है।
तुम्हारा
ईश्वर पर
विश्वास झूठा
है,
उधार है।
तुम उधार को
जाने दो। उधार
के हटते ही
तुम चकित हो
जाओगे। उधार
ईश्वर की
धारणा ने तुम्हारी
आंखों पर पर्दा
डाल दिया है।
इसलिए ईश्वर,
जो कि चारों
तरफ मौजूद है——इस
हवा में, जो
वृक्ष के
पत्तों को
हिला गई; इन
पीले पत्तों
में जो वृक्ष
से झर—झर नीचे
गिर गए; तुममें,
मुझमें। इस
घड़ी सारा
अस्तित्व उसी
से व्याप्त
है। सदा उसी
से व्याप्त
है।
वह
हंसी फिर गई
आंखों में जो
बिजली चमकी
गुंचा
चटका तो मुझे
उसका दहन याद
आया
और जब
कली खिलेगी
तो तुम्हें
उसका चेहरा
दिखाई पड़ेगा।
तब तुम समझना
कि परमात्मा
से कुछ पहचान
हुई। वह हंसी
फिर गई आंखों
में जो बिजली
चमकी। और जब
बिजली चमके
आकाश में, काले
बादलों की
पृष्ठभूमि और
बिजली चमक जाए
तो तुम्हें
उसकी हंसी
दिखाई पड़ जाए।
गुंचा
चटका तो मुझे
उसका दहन याद
आया——
और जब
कली चटकी और
फूल बनी तो
तुम्हें
परमात्मा का
चेहरा दिखाई
पड़े। तब तुम
जानना। तुम जो
घर में
मूर्तियां
इत्यादि
बनाकर बैठे हो
वे सब तुम्हारे
खेल—खिलौने
हैं,
उनसे
परमात्मा का
क्या लेना—देना!
परमात्मा
व्यापक रूप से
मौजूद है, सर्वव्यापी
है। प्रतिपल
जो तुम उसी से
घिरे हो। उसके
ही जीवन के
साथ जुड़े हो
इसलिए जीवित हो।
वही तुम्हारी
श्वास में डोल
रहा है, वही
तुम्हारे
हृदय में बोल
रहा है और तुम
खोजने कहां
चले हो? तुम
प्रार्थना
क्या कर रहे
हो?
तुम
झुकना सीखो।
फूलों से भरे
वृक्ष के पास
झुक जाओ। कभी
दोनों हाथ
फैलाकर
पृथ्वी पर ऐसे
लेट जाओ जैसे
छोटा बच्चा
अपनी मां के
स्तन पर लेटा हो।
भूल जाओ सब।
पड़े रहो
पृथ्वी पर।
कभी नाचो आकाश
के तारों के
साथ। और
तुम्हें समझ
में आने लगेगा——
रात
दिन गर्दिश
में हैं सात
आसमां
हो
रहेगा कुछ न
कुछ घबराएं
क्या
जो
इतने विराट को
चला रहा है, सात
आसमान गर्दिश
में हैं, चांदत्तारे उग रहे हैं, डूब रहे हैं.....।
रात
दिन गर्दिश
में हैं सात
आसमां
हो
रहेगा कुछ न
कुछ घबराएं
क्या
फिर जो
इतनी फिक्र कर
रहा है, इतने
विराट की लीला
चल रही है, उसमें
एक तुम्हारी
फिक्र न करेगा?
तुम्हारे
साथ अन्याय
करेगा——खास
तुम्हारे साथ!
तुम्हारी भर
चिंता न लेगा?
नहीं, यह
बात ही फिजूल
है। तुम अपने
को जरूरत से
ज्यादा मूल्य
दे रहे हो। और
तुम्हारी
श्रद्धा झूठी
है। और
तुम्हारी
प्रार्थना एक
औपचारिक कृत्य
है। इसे गज़
बनाओ, यह
नमाज है।
तीसरा
प्रश्न :
भगवान, मैंने
कल एक अजीब—सा
सपना देखा :
मैं किसी सभा
में बोलने गया
था संन्यास
विषय पर। आप
भी मेरे सामने
ही उपस्थित
थे। पहले तो मुझे
भय लगा कि
आपके सामने
मैं कैसे
बोलूं, लेकिन
जैसे ही मैंने
जाना कि मुझे
तो अनुभव की
बातें कहनी
हैं, सारा
भय चला गया और
मैं बिना
संकोच बोलने
लगा। आप भी
सिर हिलाते
रहे, इससे
धैर्य बैठा।
लेकिन
बीच में अचानक
देखा कि आप
सभा में नहीं
हैं,
तत्क्षण
मेरी वाणी बंद
हो गई। मैंने
सभा त्याग दी
और आपको
ढूंढने
निकला। आप दूर
एक बगीचे
में मिले।
पूछा कि क्या
हुआ। मैंने
कहा कि आपके
जाते ही वाणी
बंद हो गई। आप
मेरे साथ सभा—स्थल
पर वापस आए, मंच पर चढ़े
और बोलने लगे।
लेकिन तब मुझे
महसूस हुआ कि
मैं वहां नहीं
हूं। मैं
सुनता था लेकिन
यह भी जानता
था कि वहां
नहीं हूं। एक
अपूर्व आनंद
लेकिन साथ ही
साथ एक अजीब—सा
भय! और इसी में
नींद खुल गई।
क्या इसमें
मेरे लिए कोई
उपदेश है?
अजित, संकेत
तो बिल्कुल
स्पष्ट है।
मेरे
प्रत्येक संन्यासी
को मेरे लिए
बोलना है।
मेरे प्रत्येक
संन्यासी को
मेरी आवाज
बनना है।
तुम्हारे कंठ
मुझे दे दो।
तुम्हारे हाथ
भी मुझे दे
दो। क्योंकि
जो मैं कहना
चाहता हूं वह
हजारों कंठों
से कहा जाए तो
ही पहुंच सकेगा।
और जो मैं
करना चाहता
हूं वह हजार—हजार
हाथ करें तो
ही हो सकेगा।
तुम्हारे हाथ
ही मेरे हाथ
होने चाहिए।
और तुम्हारे
कंठ मेरे कंठ
होने चाहिए।
लेकिन
इसके लिए
जरूरी है कि
तुम बीच से हट
जाओ। अगर तुम
रहे तो मैं
नहीं रह सकता।
अगर मैं रहूं
तो तुम्हें हट
जाना होगा। और
मजा यही है कि
तुम हटकर ही
पाओगे कि तुम
पहली बार हुए।
तुम बीच में
बाधा मत बनना।
संकेत
बहुत स्पष्ट
हैं। सपना
प्यारा है।
ऐसा सपना
संन्यासी ही
देख सकता है।
संसारी का तो
सत्य भी दो कौड़ी
का होता है।
संन्यासी के
सपने भी
मूल्यवान
होने लगते
हैं।
संन्यासी के सपने
में भी अर्थ
प्रकट होने
लगते हैं; स्वप्न
भी स्वप्न
नहीं रह जाता।
जैसे—जैसे
ध्यान की
गहराई बढ़ती है
वैसे—वैसे
स्वप्न भी
तुम्हारे
अंतरतम से
आनेवाले संदेशों
का एक स्रोत
मात्र, एक
वाहन मात्र हो
जाता है।
सुंदर
सपना है। और
अनुभव से ही
बोलना है
इसलिए भय लेने
की कोई जरूरत
नहीं है। जहां
अनुभव है वहां
भय नहीं है।
उतना ही कहना
जितना
तुम्हें
अनुभव हुआ है।
उससे ज्यादा
कहोगे तो भय
लगेगा। और
लगना ही चाहिए
भय। उससे
ज्यादा जो
बोलता है वही
पंडित हो जाता
है।
पंडित
का अर्थ है :
जिसका अनुभव
नहीं है वह भी
बोले जा रहे
हैं। उसने अपने
साथ भी
बेईमानी की, उसने
सुननेवाले के
साथ भी
बेईमानी की।
पंडितों की
बेईमानी का
परिणाम है कि
पृथ्वी पर
इतना अधर्म
फैला है।
अधर्म
नास्तिकों के
कारण नहीं है,
पंडितों के
कारण है।
नास्तिक क्या
करेगा बेचारा!
नास्तिक के
पास कोई भी
तर्क नहीं है
कि ईश्वर को
असिद्ध कर
सके। न तो
ईश्वर को कोई
सिद्ध कर सकता
है, न कोई
असिद्ध कर
सकता है। बात
ही तर्कातीत
है। लेकिन
पंडित ने सब
खराब कर दिया
है।
पंडित
ने अनुभव के
आगे की बातें
कहनी शुरू कर दीं
जिसका उसे
अनुभव नहीं
है। और जब तुम
ऐसे कोई बात
कहते हो जिसका
तुम्हें
अनुभव नहीं है
तो तुमने अपने
और परमात्मा
के बीच निष्ठा
का संबंध
तोड़ा। उतना ही
कहना जितना
अनुभव है। वहीं
रुक जाना, चाहे
आधा ही वाक्य
क्यों न हो।
पर उतना ही
कहना जितना
अनुभव हो, फिर
कोई भय नहीं
है। क्योंकि
सत्य के साथ
कैसा भय! सत्य
अभय है।
और तुम
अगर उतना ही
कहोगे जितना
अनुभव है तो मैं
जरूर सिर हिलाऊंगा, मैं
जरूर हामी भरूंगा।
मैं हटूंगा
उसी वक्त, मेरी
हामी उसी वक्त
बंद हो जाएगी
जहां तुम अनुभव
से कुछ ज्यादा
कह दोगे।
अजित, सपने
की तुम्हें
याद नहीं रही
है, तुमने
जरूर कुछ
अनुभव से ज्यादा
बात कह दी
होगी। जोश में
आदमी कह जाता है।
जोश के अपने
मार्ग हैं।
तुम्हें याद
भी नहीं होता।
तुम कहना भी
नहीं चाहते
थे। लेकिन जब
कोई कहने
बैठता है और
जोश में आ
जाता है तो
बात बढ़ जाती
है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक संन्यासी
की प्रशंसा कर
रहा था।
प्रशंसा में
जो बातें कहनी
चाहिए, कह
रहा था कि आप
परम
ब्रह्मचारी
हैं। आप जैसा कोई
ब्रह्मचारी
नहीं। और
संन्यासी भी
मस्त हो रहा
था। पुराने ढब
का संन्यासी
था, मेरा
संन्यासी
नहीं था। वह
बड़ा प्रसन्न
हो रहा था कि
आप बालब्रह्मचारी
हैं। और भी
प्रसन्न हो
रहा था। उसकी
प्रसन्नता देखकर
मुल्ला को भी
जोश चढ़ गया।
जोश इतना चढ़
गया कि उसने
कहा कि आप ही
नहीं, आपके
बाप भी बालब्रह्मचारी
थे। अब जरा
बात ज्यादा हो
गई। मगर अक्सर
ऐसा हो जाता
है।
तुम जब
कुछ कहने चलते
हो तो हर शब्द
की अपनी प्रक्रिया
है। तुमने एक
शब्द कहा, वह
शब्द
तुम्हारे
भीतर दूसरे
शब्द की
श्रृंखला को
पैदा करवा
देता है। एक श्रृंखला
पैदा हो जाती
है। फिर
तुम्हें पता
ही नहीं रहता
कहां अनुभव
पूरा हो गया!
कितने पर अनुभव
पूरा हो गया!
भाषा का जोश, शब्दों की
पकड़, शब्दों
का काव्य
तुम्हें
खींचे लिए
जाता है।
लोग
अतिशयोक्ति
जानकर नहीं
करते, हो जाती
है। होश नहीं
है इसलिए हो
जाती है। तो
जरूर अजित, कहीं
अतिशयोक्ति
हो गई होगी
इसीलिए तुमने
मुझे पाया कि
मैं सपने से
नदारद हो गया
हूं।
और
सपना बड़ा
प्यारा है।
तुम्हारी
वाणी बंद हो गई।
ऐसा ही होना
चाहिए। जिस
घड़ी मैं
तुम्हारे भीतर
न बोलूं उस
घड़ी तुम्हारी
वाणी बंद हो
जानी चाहिए।
जब तक मैं
बोलूं तब तक
ठीक,
जब तुम
बोलने लगो तो
वाणी बंद हो
जानी चाहिए, ठिठक जाना
चाहिए। अच्छा
हुआ कि तुमने
बोलना बंद कर
दिया और तुम
मेरी तलाश में
निकल गए।
और
दूसरा अनुभव
भी प्यारा है
कि फिर तुम
सुनने बैठे, मैंने
बोलना शुरू
किया और तब तुम्हें
महसूस हुआ कि
मैं वहां नहीं
हूं। हूं भी
और नहीं भी, ऐसी तुम्हें
प्रतीति हुई।
यह
प्रतीति
प्यारी है। यह
प्रतीति
तुम्हें रोज
हो रही है, जागते
भी यही हो रही
है। सुनते समय
तुम होते भी
हो, नहीं
भी होते हो; नहीं भी
होते हो, होते
भी हो। एक
विरोधाभास
घटता है। एक
रहस्यपूर्ण
दशा पैदा हो
जाती है। वही
सत्संगी की
दशा है।
अहंकार तो चला
जाता है इसलिए
अब यह नहीं कह
सकते कि मैं
हूं। लेकिन
अहंकार के
जाते ही
तुम्हारा
होना प्रगाढ़
हो जाता है
इसीलिए यह भी
नहीं कह सकते
कि मैं नहीं
हूं।
इसलिए
एक
विरोधाभासी
स्थिति पैदा
हो जाती है।
एक तरफ मिट
जाते हो, दूसरी
तरफ हो जाते
हो। बूंद गिरी
सागर में, बूंद
की तरह मिट गई,
सागर की तरह
प्रकट हो गई।
क्षुद्र चला
जाता है, विराट
आ जाता है।
इसलिए
अपूर्व आनंद
हुआ। यही
अनुभूति तो
आनंद की
अनुभूति है।
जहां शून्य
पैदा होता है
अहंकार की
दृष्टि से और
जहां पूर्ण का
आगमन होता है।
वही तो आनंद
की दृष्टि है।
वही तो आनंद
की अवस्था है
जहां तुम्हारे
भीतर का शून्य
परमात्मा के
पूर्ण से मिलता
है,
आलिंगनबद्ध
होता है।
शून्य और
पूर्ण का संभोग
ही तो आनंद
है।
"अपूर्व
आनंद हुआ'——स्वप्न
में भी हो
जाएगा।
"लेकिन साथ ही
साथ अजीब—सा
भय भी हुआ'——भय
भी होगा
क्योंकि वह महामृत्यु
भी है। महाजीवन
भी, महामृत्यु भी। अब डर
लगेगा कि मैं
लौट भी सकूंगा
या नहीं? अब
डर लगेगा कि
मैं बच भी
सकूंगा? आनंद
इतना ज्यादा
होगा कि मुझे
ले जाएगा अपने
बाढ़ में।
किनारा छूट
जाएगा। जाना—परिचित,
पहचाना, सब
छूट जाएगा।
इसलिए
समाधि के कगार
पर जाकर बड़ा
भय पकड़ता
है। बड़े आनंद
की पुलक आती
है और बड़ा भय
भी पकड़ता
है। दोनों एक
साथ हो जाते
हैं। भय इसलिए
कि अतीत छूट
रहा है, आनंद
इसलिए कि
भविष्य आ रहा
है।
"और
इसी में नींद
खुल गई।' इसी
में तो नींद खुलनी ही
है। ऐसे ही पशोपेश
में पड़े—पड़े, आनंद और भय
के बीच डोलते—डोलते
असली नींद भी
टूट जाएगी। यह
नींद तो टूटी
ही। सपने में
जो नींद थी
शरीर की, वह
टूटी। ऐसे ही
बैठते—बैठते,
उठते—उठते,
सुनते—सुनते,
मिटते—बनते,
आनंद अनुभव
करते, भय
से कंपते एक
दिन
आध्यात्मिक
नींद भी टूट
जाएगी। यह
मूर्च्छा, जिसे
तुमने अब तक
जागृति समझा
है यह भी टूट
जाएगी।
और जिस
दिन यह
मूर्च्छा टूट
जाती है उस
दिन प्रबुद्धता
का दीया जलता
है। उसी दिन आ
गए अपने घर
वापस, अपने
मूलस्रोत को
पाया। उसे
मोक्ष कहो, कैवल्य कहो,
निर्वाण
कहो।
चौथा
प्रश्न :
मैं
आपके
पदचिह्नों पर
चलना चाहता
हूं। आपका
आशीर्वाद
चाहिए।
मुझे
समझे नहीं।
पदचिह्नों पर
चलना नहीं है।
पदचिह्नों पर
चलोगे, उधार
हो जाओगे, नकली
हो जाओगे, कार्बन
कॉपी हो
जाओगे। मेरी
सुनो, मुझे
समझो, मुझे
देखो, मुझे
पहचानो लेकिन
मेरा अनुकरण
मत करना। मेरी
पुकार सुनो और
जागो
लेकिन जब तुम
जागोगे, तो
तुम जैसे
तुम्हीं
होओगे। तुम
किसी की कॉपी नहीं
होओगे, तुम
किसी की नकल
नहीं होओगे।
और तुम जिस
रास्ते पर
चलोगे वह
तुम्हारा ही
होगा। न तो
पहले कोई उस
ढंग से चला है
और न फिर कभी
कोई उस ढंग से
चलेगा।
जीवन
के वास्तविक
रास्ते चलने
से बनते हैं, पहले
से बने—बनाए
नहीं होते।
सीमेंट के बने
हुए रोड नहीं
हैं जीवन के
रास्ते। जीवन
के रास्ते तो
पहाड़ों में
बनी
पगडंडियां
हैं। और
पगडंडियां भी
ऐसी नहीं कि
कोई और चला हो
और तुम उन पर
चल जाओ। परमात्मा
इतनी भी उधारी
का मौका नहीं
देता। परमात्मा
मौलिक को
प्रेम करता है
और तुम्हें
चाहता है कि
तुम अपने
मौलिक स्वरूप को
उपलब्ध होओ।
इसलिए तुम अगर
बुद्ध के चरणचिह्नों
पर चलकर
पहुंचोगे तो
तुम बुद्धू
होकर पहुंचोगे,
बुद्ध होकर
नहीं पहुंच
सकते। तुम चूक
गए। तुम्हें
तो अपने ही
चरणचिह्न छोड़
जाने हैं। हां,
समझो
बुद्धों से, सीखो
बुद्धों से।
आत्मसात कर लो
उनकी शिक्षा
को, उनके
प्रेम को, उनकी
करुणा को।
उनके ध्यान की
तरंग में डूबे
ताकि
तुम्हारी
अपनी तरंग
पैदा हो सके।
मगर जैसे ही
तुम्हारी
अपनी तरंग
पैदा हो जाए, उसी का
अनुसरण करो।
मेरे
पदचिह्नों पर
चलने का
आशीर्वाद मत
मांगो। इतना
ही मुझसे
मांगो कि तुम
अपने पथ को पा
सको। ऐसा
आशीर्वाद
मुझसे मांगो।
मेरा
संन्यासी
किसी भीड़ का
हिस्सा नहीं
है। मेरा
प्रत्येक
संन्यासी
अद्वितीय है, अनूठा
है, अपना
है, अपने
जैसा है। मैं
तुम्हें भीड़
के हिस्से नहीं
बनाना चाहता।
वह तो अपमान
होगा
तुम्हारे भीतर
छिपे
परमात्मा का।
मैं तुम्हें
तुम्हारी
निजता देना
चाहता हूं।
छोड़ते
पदचिह्न जो
मैं आ रहा हूं
यदि
बने भी वे रहे
तो कुछ नहीं
उपयोग उनका
अब
रहा मेरे लिए
है
मैं
मुसाफिर वह
नहीं
जिस
राह आया हूं
उसी से लौट
जाऊं
एड़ियों के
चिह्न पर धरता
अंगूठा
कभी मुड़कर पीठ—पीछे
देखने का लोभ
था
यह
लोभ
स्वाभाविक
बड़ा है
किंतु
अब पीछे
अंधेरा ढल रहा
है
और
तम को चीरकर
देखने की
शक्ति
यदि कुछ शेष
है मेरे दृगों
में
तो
उन्हें करना
नियोजित
सामने है
सामने
से भी उजाला
हट रहा है
झुटपुटा, आता—उतरता
झिलमिलाते
उदय होते
तारकों से
और
मंजिल पर अभी
पहुंचा नहीं
हूं
रात
को भी तो मुझे
रुकना नहीं है
होड़
सांसों और
पांवों में
लगी है
हो
चुके अभ्यस्त
इतने पांव
चलने के
नहीं
निर्देश
नयनों का
जरूरी
कौन
बाधाएं
मिलेंगी
जो न
अब तक मिल
चुकी हैं,
झिल
चुकी हैं
और
पीछे आ रहे जो
गर्भ
इस
पर कुछ करूं
क्या!
चली
राहों पर नहीं
चलना उन्हें
है
देखकर
पदचिह्न मेरे
यह
सफर ऐसा कि
जिस पर हर
मुसाफिर
है
बनाता पथ नया
अपने पदों से
एक
ही संदेश उस
पर छोड़ जाता
सिंह, शायर,
और सपूत चले
पथों पर
नहीं
अपना पग बढ़ाता
——तुम्हें
किसी लकीर के
फकीर नहीं
बनना है।
यह
सफर ऐसा कि जिस
पर हर मुसाफिर
है
बनाता पथ नया
अपने पदों से
——आकाश
जैसा है सत्य
मार्ग, पृथ्वी
जैसा नहीं है।
आकाश में
पक्षी उड़ते हैं,
पदचिह्न
नहीं छूट
जाते। आकाश
जैसा ही है
सत्य का
मार्ग।
बुद्ध
चलते हैं, पदचिह्न
नहीं छूट
जाते। इसलिए
तुम किसी के
पदचिह्नों को पकड़कर
चलने के लिए
बैठे रहे तो
बैठे ही बैठे सड़ जाओगे।
तुम कभी चल ही
न पाओगे। उड़ो!
अपने पगों पर
भरोसा करो।
बुद्धों को
चलते देखकर
इतना ही स्मरण
लाओ कि
तुम्हारे पास
भी पग हैं।
बुद्धों को
उड़ते देखकर
इतना ही भरोसा
लाओ कि
तुम्हारे भी
पंख हैं, फड़फड़ाओ!
शायद सदियां
बीत गई हैं, जनम—जनम बीत
गए, तुमने
अपने पंखों की
सुध भी नहीं
ली है। किसी बुद्ध
को उड़ते देखकर
तुम अपने
पंखों को
फैलाओ, अपने
डैनों को
फैलाओ। किसी
बुद्ध को उड़ते
देखकर तुम भी
थोड़े उड़ो।
पहले—पहल
घबड़ाहट
होगी, भय होगा,
डर होगा : यह
मैं क्या कर
रहा हूं? जल्दी
ही भरोसा आ
जाएगा। जैसे
कोई तैरना
सीखता है न! बस
वैसे ही।
तैरने
की कला क्या
है?
तैरना सिखानेवाला
सीखनेवाले
को क्या
सिखाता है? आज तक कोई भी
तो बता नहीं
सका कि तैरने
की कला क्या
है! अगर तुम
किसी तैरनेवाले
से पूछो कि
क्या है
तुम्हारी कला?
कैसे साधते
हो अपने को जल
में? तो वह
कभी कंधे बिचकाकर
रह जाएगा। वह
कहेगा, यह.....यह
कैसे बताऊं?
साइकिल
चलानेवाले
से पूछो, कि
तुम कैसे
साधते हो अपने
को? क्या
है तुम्हारी
तरकीब, राज
क्या है? दो
पहियों पर सधे
चले जाते हो, हद हो गई! मैं
तो जैसे ही चढ़ने
की कोशिश करता
हूं, फौरन
गिरता हूं।
क्या है तुम्हारा
राज?
साइकिल
चलानेवाला
भी राज बता न
सकेगा। ये
छोटे—छोटे राज
भी बताए नहीं
जा सकते, जरा
देखो तो! और
लोग परमात्मा
का राज तक
पूछने चलते
हैं। और न
बताओ तो वे
कहते हैं कि
फिर हम मानेंगे
नहीं।
साइकिल
चलानेवाला
कहेगा : भाई, इतना
ही कर सकता
हूं कि
तुम्हारी साइकिल
पकड़ लूंगा।
तुम जरा बैठ
जाओ, तुम्हें
थोड़ी दूर पकड़कर
चला दूंगा, फिर छोड़
दूंगा। फिर
तुम देख लेना।
एकाध—दो बार
गिरोगे, फिर
गिरते—गिरते
समझ में आ
जाएगा। गिर—गिरकर
सम्हलोगे।
और एक बार समझ
में आ गया कि
कैसे सधता है
यह भीतर का
संतुलन, कि
बस समझ में आ
गया।
ऐसा ही तैरनेवाला
भी बता नहीं
सकता है कि
कैसे अपने को
पानी में साधता
है। हां, सिखा
सकता है
तुम्हें।
लेकिन तैरनेवाले
को देखकर इतना
तो भरोसा आ
जाता है कि एक
आदमी तैर रहा
है हड्डी—मांस—मज्जा
का मुझ जैसा
ही, तो मैं
भी तैर सकता
हूं। बस, यही
श्रद्धा
बीजारोपण है।
इतना
ही तुम मुझसे
सीखो कि तुम
भी तैर सकते
हो;
कि तुम भी
उड़ सकते हो।
मेरे पगचिह्नों
पर चलना नहीं
है।
यह
सफर ऐसा कि
जिस पर हर
मुसाफिर
है
बनाता पथ नया
अपने पदों से
एक
ही संदेश उस
पर छोड़ जाता
सिंह, शायर
और सपूत चले
पथों पर
नहीं
अपना पग बढ़ाता
भेड़ें
भीड़ में चलती
हैं। शायद
इसीलिए भेड़ें
कहलाती हैं——भीड़
में चलती हैं।
भेड़ मत
बनो,
सिंह बनो। सींहों के
नहीं लेहड़े!
सिंहों की भीड़
नहीं होती।
सिंह अकेला
चलता है।
लेकिन कभी—कभी
सिंह को भी
भूल जाता है
कि मैं सिंह
हूं। ऐसा हुआ
एक बार।
एक
सिंहनी ने
जन्म दिया
बच्चे को। छलांग
लगा रही थी एक
पहाड़ी से कि
बीच में ही
बच्चे का जन्म
हो गया। वह तो
छलांग लगाकर
चली भी गई। बच्चा
भेड़ों की
एक भीड़ में
गिर गया। भेड़ें
गुजरती थीं
नीचे से।
बच्चा उन्हीं
में बड़ा हुआ।
ऊंचा उठ गया भेड़ों से
बहुत। सिंह ही
था लेकिन घास—पात
चरता।
शाकाहारी!
शुद्ध शाकाहारी!
भेड़ों
जैसा ही
मिमियाता, रोता।
जिनके साथ रहा
वैसा ही हो
गया। हिंदू घर
में पैदा हुए
हिंदू हो गए।
मुसलमान घर
में पैदा हुए,
मुसलमान हो
गए। अब सिंह
का बच्चा भी
क्या करे बेचारा!
भेड़ों के
घर में पड़ गया,
उन्हीं का
धर्म सीखा।
उन्हीं की
किताब पढ़ी, उन्हीं की
भाषा सीखा।
उन्हीं का डर
भी सीख गया।
अगर कोई सिंह
की गर्जना
होती, भेड़ें भागतीं
वह भी भागता; जान लेकर
भागता। उसे
याद ही न आयी
कभी कि मैं सिंह
हूं। आती भी
कैसे? किसी
सिंह का कभी
सामना भी न
हुआ।****)१०**
एक दिन
अड़चन ऐसी हो
गई। एक बूढ़े
सिंह ने हमला
किया भेड़ों
पर। वह तो
हमला करके
चकित हो गया।
जब उसने देखा
कि एक सिंह भेड़ों
के बीच में घरस—पसर
भागा जा रहा
है मिमियाता, रिरियाता,
रोता। बूढ़े
सिंह को तो
भूल ही गई
अपनी भूख। भेड़ों
को पकड़ने
की तो बात ही
छोड़ दी उसने।
उसको तो यह
चमत्कार समझ
में नहीं आया
कि यह हो क्या
रहा है। भेड़ें
भी उससे घसर—पसर
चल रही हैं।
कोई डरा हुआ
नहीं है। वह
अलग ऊपर उठा
दिख रहा है।
सिंह सिंह है।
बूढ़ा
सिंह भागा, बामुश्किल
पकड़ पाया उस
सिंह को। जवान
सिंह था लेकिन
पकड़ ही लिया
बूढ़े ने। रोने
लगा, रिरियाने लगा जवान
सिंह। माफी
मांगने लगा :
मुझे छोड़ दो, मुझे जाने
दो। मुझे मेरे
साथियों के
साथ जाने दो।
मगर
बूढ़े ने भी
जिद की। उसे पकड़कर नदी
के किनारे ले
गया। कहा, झांक!
देख अपने
दोनों चेहरे।
दोनों झुके, एक क्षण में
क्रांति हो
गई। जवान सिंह
ने नीचे देखा
कि मैं तो
सिंह हूं। ठीक
बूढ़े सिंह
जैसा मेरा भी
चेहरा है। वही
मेरा रूप, वही
मेरा ढंग। एक
क्षण में
हुंकार निकल
गई। पहाड़ कंप
गए ऐसी
हुंकार!
क्योंकि जन्म
भर की दबी हुई
हुंकार थी; प्रगाढ़ होकर निकली
होगी। बूढ़े
सिंह ने कहा, अब तू जान।
मेरा काम पूरा
हो गया।
इतना
ही काम गुरु
का है, इससे
ज्यादा नहीं।
कि तुम्हें
झुकाकर दिखा दे
कि जैसे हो
वैसा ही मैं
हूं, मैं
जैसा हूं वैसे
ही तुम हो। स्वरूपतः
हम भिन्न नहीं
हैं। तुम सिंह
हो और
तुम्हारी हुंकार
पैदा हो जाए, बस काम पूरा
हो गया। फिर
तुम चलोगे
अपनी राह। फिर
तुम अपने ही
पगों से अपनी
राह बनाओगे।
परमात्मा
मौलिक को
प्रेम करता
है। नकल बनना
मत। नकल का
कोई समादर
नहीं है।
बुद्ध
मर रहे थे।
आनंद रोने लगा
था कि अब मेरा क्या
होगा? चालीस
साल तो आपके चरणचिह्नों
पर चला, फिर
भी पहुंच नहीं
पाया हूं अभी।
अभी मेरी सम्यक्
संबोधि फली
नहीं। अभी
मेरा
बुद्धत्व जगा नहीं
और आप चले! अब
मेरा क्या
होगा? अब
तक तो आप थे, आपकी छाया
की तरह मैं
चलता था।
निश्चिंत था।
आपके रहते भी
नहीं मिल पाया,
अब क्या
होगा?
बुद्ध
ने पता है
क्या कहा? बुद्ध
ने कहा, आनंद,
शायद मेरे
रहने के कारण
ही तुझे नहीं
मिल पाया। तू
मेरी छाया
बनने में लगा
रहा। तू मेरे
पग पर पग रखकर
चलता रहा। और
मैंने तुझे लाख
समझाया : "अप्पदीपो
भव'। अपना
दीया खुद बन।
मेरे जलते हुए
दीये को देखकर
इतना समझ कि
तेरे भीतर भी
दीया है और जल
सकता है। एक
दिन मेरे भीतर
अंधेरा था, आज उजाला
है। आज तेरे
भीतर अंधेरा
है, कल
तेरे भीतर
उजाला हो सकता
है। मगर यह न
समझकर तू मेरे
पगचिह्नों
पर चलने की
कोशिश करता
रहा।
बुद्ध
जैसे उठते, आनंद
वैसा उठता।
बुद्ध जैसे
बैठते, आनंद
वैसा बैठता।
जो बुद्ध खाते
वही आनंद खाता।
जो बुद्ध
पहनते वही
आनंद पहनता।
जैसा बुद्ध
बोलते वैसा ही
आनंद बोलता——वही
भावभंगिमा,
वही मुद्रा!
सब नकल थी।
बुद्ध
ने कहा, अब
शायद मेरे
जाने से तुझे
होगा। मेरे
रहते नहीं हो
सकता। मैं तो चालीस
साल कह—कहकर
थक गया कि नकल
मत बन; मगर
तू सुनता
नहीं।
मैं भी
समझता हूं, तुम
भी समझोगे।
आनंद की भी
तकलीफ है।
बुद्ध जैसा
प्यारा आदमी
हो पास में तो
कौन नकल न
बनना चाहेगा?
बुद्ध जैसा
संगीत उठ रहा
हो, कौन
फिक्र करेगा
अपना मौलिक
संगीत? अपना
मौलिक संगीत
तो सुना नहीं
है। उसका तो
कुछ पता नहीं
है। और इतना
अपूर्व संगीत
यहां उठ रहा
है, क्यों
न हम भी यही
संगीत सीख
लें। क्यों न
हम भी यही गीत
गा लें। क्यों
हम भी न इसी
नाच को नाच लें।
अपने
नाच का तो कुछ
पता ही नहीं
है इसलिए तुलना
भी नहीं कर
सकते, सोच भी
नहीं सकते। वह
तो अभी नाचा
नहीं गया है।
अपना गीत तो
अभी जन्मा
नहीं है।
लेकिन इस संसार
में जो
सर्वाधिक
सुंदरतम गीत
है वह यहां गाया
जा रहा है
बुद्ध के पास।
हम भी इन्हीं कड़ियों को
दोहरा लें।
यह
बिल्कुल
स्वाभाविक
है। बुद्ध
जैसा प्यारा
आदमी सामने हो
तो नकल
बिल्कुल
स्वाभाविक है।
इसलिए बुद्ध
जैसे
महत्त्वपूर्ण
लोगों ने सदा
कहा है, "नकल
से सावधान!' उनको कहना
पड़ा है
क्योंकि उनके
आसपास लोग नकल
करने में पड़
जाते हैं।
और यही
हुआ। बुद्ध के
मरने के चौबीस
घंटे के भीतर
आनंद को
बुद्धत्व
प्राप्त हुआ।
सिर्फ चौबीस
घंटे के भीतर!
बुद्ध की
मृत्यु की चोट
ऐसी लगी कि अब
मेरा क्या
होगा? अब
किसके चरणचिह्नों
को मानकर
चलूंगा? सब
तो अब अंधकार
हो गया। और
बुद्ध के जाने
की चोट, बुद्ध
की मृत्यु की
चोट संघातक थी
कि उसने न भोजन
लिया, न
खाना खाया। वह
तो जो बैठा
समाधि में ही
रहा। उसने कहा,
अब तो उठूंगा
ही तब, जब
जाग जाऊंगा।
नहीं तो उठने
से भी क्या
सार है! और अब
इस जिंदगी में
देखने योग्य
भी क्या रहा? जो देखने
योग्य था, देख
लिया। जो पाने
योग्य था उसके
पास रह लिया।
सुंदरतम का
अनुभव कर
लिया। महिमामंडित
परमात्मा का
अवतरण देख लिया।
अब और देखने
को है भी क्या?
मरूंगा तो
भी अब कुछ
खोता नहीं। अब
जीने में सार
क्या है!
आंख जो
बंद की आनंद
ने और बैठ जो
रहा तो चौबीस
घंटे के भीतर
घटना घट गई।
और जब घटी
घटना तो उसे समझ
में आया कि
बुद्ध के पदों
पर चलने के
कारण ही बाधा
पड़ रही थी।
बुद्ध ठीक कहते
थे।
तब
धन्यवाद में
उनके चरणों
में झुका।
अज्ञात चरण थे
अब तो। अब तो
शरीर जल चुका
था,
राख हो चुका
था। अज्ञात
चरणों में
झुका धन्यवाद
में। रोया
आनंद के आंसू
कि तुमने
कितनी बार कहा
और मैंने न
सुना। एक बार
भी सुन लेता
तो तुम्हारे
रहते—रहते भी
बुद्धत्व को
उपलब्ध हो
सकता था। अब
हुआ! तुम ठीक
ही कहते थे कि
तुमसे मेरा
मोह ऐसा है कि
जब तक
तुम्हारी
मौजूदगी है, शायद मैं
अपनी सुध
लूंगा नहीं।
तुम पर ही नजर अटकी
है।
नकल मत
करना। मेरे
पदचिह्नों पर
चलना नहीं, नहीं
तो चूकोगो।
मेरी सुनो, मेरी गुनो,
मुझे पियो,
मगर मेरी
नकल मत बनना।
मेरे
प्रत्येक
संन्यासी को
मौलिक होना है,
निज होना
है।
और फिर
परमात्मा
प्रतिपल
बदलता है, जैसे
प्रकृति
प्रतिपल
बदलती है।
बुद्ध जिस रास्ते
पर चले वह
रास्ता भी अब
नहीं है।
बुद्ध जैसे
व्यक्ति थे वह
व्यक्ति भी अब
नहीं है। बुद्ध
ने जो साधन
किए वे साधन
भी अब काम के
नहीं हैं।
यहां रोज सब
बदल जाता है।
मौसम प्रतिपल
बदल रहा है।
परमात्मा
प्रवाह है, सतत धारा है;
जैसे गंगा
का जल बहता
जाता है।
तुम
अगर पुरानी
लकीरों को पकड़कर
चलोगे तो
परमात्मा से
चूकते रहोगे
क्योंकि परमात्मा
कभी पुराना
होता ही नहीं।
परमात्मा सदा
नया है, उसके
साथ संबंध
जोड़ना हो तो
तुमको भी नए
होने की कला
और कीमिया सीखनी
पड़ेगी।
तेरा
आंचल रंग—रंगीला
रंग—रंग में
बास नयी
मेरे
मन की आस
पुरानी तेरे
तन की प्यास
नयी
तू
बगिया की
तितली बनकर
फूल—फूल पर
झूले
कली—कली
से प्यार बढ़ाए
ऋत—ऋत के दुःख
भूले
एक
समां है तुझको
सावन हो या
सरसों फूले
तेरा
जोबन एक पहेली
तेरी आस निरास
नयी
तेरा
आंचल रंग—रंगीला
रंग—रंग में
बास नयी
रूप—रंग
में तेरी
मुंहफट
चंचलता इतराए
अंग—अंग
में सजी—सजायी
सुंदरता बल
खाए
संग—संग
अनदेखे सपनों
की शोभा लहराए
जीवन
के हर मोड़ पे
तेरी आस रचाए
रास नयी
तेरा
आंचल रंग—रंगीला
रंग—रंग में
बास नयी
एक उड़ान से तू उकताए बार—बार
पर तौले
एक
चाल न भाए
तुझको कदम—कदम
पर डोले
इस
पर भी मन मूरख
मेरा तेरी ही
जय बोल
मेरे
साथ पुरानी
छाया, काया
तेरे पास नयी
तेरा
आंचल रंग—रंगीला
रंग—रंग में
बास नयी
जरा
देखो तो
प्रकृति को!
यह प्रकृति
परमात्मा का
प्रतीक है।
यहां हर चीज
नयी होती रहती
है। वही सूरज
दुबारा थोड़े
ही उगता है।
वही चांद फिर
थोड़े ही आकाश
में उठता है।
वे ही बादल
फिर थोड़े ही
घिरते हैं।
वही पक्षी फिर
कहां? वही फूल
फिर कहां
खिलते हैं! उन
जैसे ही, पर
हर बार नए। सब
नया है। यहां
कोई चीज
पुनरुक्त
नहीं होती।
यहां प्रतिपल
सब कुछ इतना
नया है कि जो
जरा भी पुराना
है और बासा है,
वह पिछड़
जाएगा। उसका
परमात्मा से
संबंध टूट
जाएगा।
इसलिए
मैं कहता हूं, परंपरा
धर्म नहीं है।
परंपरा
पुरानी लकीर
को पीटना है
और धर्म नित
नया है। धर्म
विद्रोह है, बगावत है, क्रांति है।
परंपरा जड़
होती है, सदियों
पुरानी होती
है। हर परंपरा
पुराने होने
का दावा करती
है कि मैं
दूसरी
परंपराओं से ज्यादा
पुरानी हूं
क्योंकि
जितनी पुरानी
उतनी
मूल्यवान।
लेकिन
परमात्मा
प्रतिपल नया
है। तुम वेदों
में उलझे रहते
हो,
वह आता है
और नए वेद
गाकर चला जाता
है। तुम सुनते
ही नहीं। तुम
उपनिषदों में
आंखें गड़ाए
बैठे रहते हो,
उसने नए उपनिषद्
रच लिए। वह
रोज नए उपनिषद्
रचता है। तुम
कुरान की
आयतें
दोहराते रहते
हो। तुम
मुहम्मद में
उलझे बैठे हो,
उसने दूसरे
पैगंबर भेज
दिए, उसने
दूसरी आयतें
रच लीं।
चूक
नहीं गया है
परमात्मा
किसी पर। न
महावीर पर, न
बुद्ध पर, न
मुहम्मद पर, न कृष्ण पर, न क्राइस्ट
पर। परमात्मा
कभी चुकेगा ही
नहीं। चूक जाए
तो परमात्मा
नहीं। इसीलिए
तो हम कहते
हैं, वह
अनंत है, शाश्वत
है। उसमें से
पूर्ण को भी
निकाल लो तो भी
पीछे पूर्ण
शेष रह जाता
है। उसको हम
चुका नहीं
पाएंगे।
उसमें से नए उपनिषद् जन्मेंगे,
नए गीत
उठेंगे।
तुम भी
नए रहे तो ही
परमात्मा से
संबंध जुड़ेगा।
इसलिए मैं
तुमसे कहता
हूं अतीत को
जाने दो, वर्तमान
में जियो। जो
वर्तमान में
जीता है वह परमात्मा
में जीता है।
एक उड़ान से तू उकताए बार—बार
पर तौले
एक
चाल न भाए
तुझको कदम—कदम
पर डोले
इस
पर भी मन मूरख
मेरा तेरी ही
जय बोले
मेरे
साथ पुरानी
छाया, काया
तेरे पास नयी
तेरा
आंचल रंग—रंगीला
रंग—रंग में
बास नयी
नहीं, ऐसा
आशीर्वाद
मुझसे मत
मांगो। ऐसा
आशीर्वाद मैं
तुम्हें दे भी
नहीं सकता
क्योंकि ऐसा
आशीर्वाद आशीर्वाद
होगा ही नहीं,
अभिशाप भी
हो जाएगा।
मेरे
पदचिह्नों पर
तुम्हें नहीं
चलना है। किसी
के पदचिह्नों
पर तुम्हें
नही चलना है।
तुम्हें अपना
मार्ग खोजना
है। तुम्हें
अपने ही पदचिह्नों
से परमात्मा
के मंदिर तक
पगडंडी बनानी
है। और तभी
खोज में आनंद
होता है, उल्लास
होता है, अभियान
होता है।
आज
इतना ही।
(समाप्त)
thank you guruji
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