पंछी
एक संदेस
कहो उस पीव सूं—(प्रवचन—पहला)
अरध
नाम पाषाण तिरे
नर लोइ
रे।
तेरा
नाम कह्यो
कलि मांहिं
न बूड़े कोइ रे।।
कर्म
सुक्रति इकवार विलै
हो जाहिंगे।
हरि
हां, वाजिद,
हस्ती के
असवार न कूकर खाहिंगे।।
रामनाम
की लूट फबी
है जीव कूं।
निसवासर
वाजिद सुमरता
पीव कूं।।
यही
बात परसिद्ध
कहत सब
गांव रे।
हरि
हां, अधम अजामिल तिरयो
नारायण—नांव
रे।।
कहियो
जाय सलाम
हमारी राम कूं।
नैण
रहे झड़ लाय
तुम्हारे नाम कूं।।
कमल
गया कुमलाय
कल्यां
भी जायसी।
हरि
हां, वाजिद,
इस बाड़ी में
बहुरि न भंवरा
आयसी।।
चटक चांदणी
रात बिछाया
ढोलिया।
भर भादव की रैण पपीहा बोलिया।।
कोयल
सबद सुणाय
रामरस लेत है।
हरि
हां, वाजिद,
दाज्यो ऊपर लूण
पपीहा देत
है।।
रैण
सवाई वार
पपीहा रटत
है।
ज्यूं—ज्यूं सुणिये
कान करेजा
कटत है।।
खान—पान
वाजिद सुहात
न जीव रे।
हरि
हां, फूल भये सम सूल
बिना वा पीव
रे।।
पंछी
एक संदेस
कहो उस पीव सूं।
विरहनि है
बेहाल जाएगी
जीव सूं।।
सींचनहार
सुदूर सूक भई लाकरी।
हरि
हां, वाजिद,
घर ही में
बन कियो बियोगनि बापरी।।
बालम
बस्यो विदेस
भयावह भौन
है।
सोवै
पांव पसार जु
ऐसी कौन है।।
अति
ही कठिण
यह रैण
बीतती जीव कूं।
हरि
हां, वाजिद,
कोई चतुर
सुजान कहै जाय
पीव कूं।।
वाजिद——यह
नाम मुझे सदा
से प्यारा रहा
है——एक सीधे—सादे
आदमी का नाम, गैर—पढ़े—लिखे
आदमी का नाम; लेकिन जिसकी
वाणी में
प्रेम ऐसा भरा
है जैसा कि
मुश्किल से
कभी औरों की
वाणी में
मिले। सरल आदमी
की वाणी में
ही ऐसा प्रेम
हो सकता है; सहज आदमी की
वाणी में ही
ऐसी पुकार, ऐसी
प्रार्थना हो
सकती है।
पंडित की वाणी
में बारीकी
होती है, सूक्ष्मता
होती है, सिद्धांत
होता है, तर्क—विचार
होता है, लेकिन
प्रेम नहीं।
प्रेम तो सरल—चित्त
हृदय में ही खिलने
वाला फूल है।
वाजिद
बहुत सीधे—सादे
आदमी हैं। एक
पठान थे, मुसलमान
थे। जंगल में
शिकार खेलने
गए थे। धनुष
पर बाण चढ़ाया;
तीर छूटने
को ही था, छूटा
ही था, कि
कुछ घटा——कुछ
अपूर्व घटा।
भागती हिरणी
को देखकर ठिठक
गए, हृदय
में कुछ चोट
लगी, और
जीवन
रूपांतरित हो
गया। तोड़कर
फेंक दिया तीर—कमान
वहीं। चले थे
मारने, लेकिन
वह जो जीवन की
छलांग देखी——वह
जो सुंदर
हिरणी में
भागता हुआ, जागा हुआ
चंचल जीवन
देखा——वह जो
बिजली जैसी
कौंध गई जीवन
की! अवाक रह
गए। यह जीवन
नष्ट करने को
तो नहीं, इसी
जीवन में तो
परमात्मा
छिपा है। यही
जीवन तो
परमात्मा का
दूसरा नाम है,
यह जीवन
परमात्मा की
अभिव्यक्ति
है। तोड़ दिए
तीर—कमान; चले
थे मारने, घर
नहीं लौटे——खोजने
निकल पड़े
परमात्मा को।
जीवन की जो
थोड़ी—सी झलक
मिली थी, यह
झलक अब झलक ही
न रह जाए——यह
पूर्ण
साक्षात्कार
कैसे बने, इसकी
तलाश शुरू
हुई।
बड़ी
आकस्मिक घटना
है! ऐसा और बार
भी हुआ है, अशोक
को भी ऐसा ही
हुआ था। कलिंग
में लाखों
लोगों को
काटकर जिस
युद्ध में
उसने विजय पाई
थी, लाशों
से पटे
हुए युद्ध—क्षेत्र
को देखकर उसके
जीवन में
क्रांति हो गई
थी। मृत्यु का
ऐसा वीभत्स
नृत्य देखकर
उसे अपनी
मृत्यु की याद
आ गई थी। यहां
सभी को मर जाना
है, यहां
मृत्यु आने ही
वाली है। और
अशोक जगत से
उदासीन हो गया
था। रहा फिर
भी महल में, रहा सम्राट,
लेकिन फकीर
हो गया। उस
दिन से उसकी
जीवन की यात्रा
और हो गई।
युद्ध विदा हो
गए, हिंसा
विदा हो गई; प्रेम का
सूत्रपात
हुआ। उसी
प्रेम ने उसे
बुद्ध के
चरणों में
झुकाया।
वाजिद अशोक से
भी ज्यादा
संवेदनशील
व्यक्ति रहे
होंगे। लाखों
व्यक्तियों
को काटने के
बाद होश आया, तो
संवेदनशीलता
बहुत गहरी न
रही होगी।
वाजिद को होश
आया, काटने
के पहले।
हिरणी को मारा
भी नहीं था, अभी तीर
छूटने को ही
था——चढ़ गया था
कमान पर, प्रत्यंचा
खिंच गई थी, वहीं हाथ
ढीले हो गए।
जीवन
नष्ट करने
जैसा तो नहीं; जीवन
पूज्य है, क्योंकि
जीवन में ही
तो सारा रहस्य
छिपा है। मंदिर—मस्जिदों
में जो पूजा
चलती है, वह
जीवन की पूजा
तो नहीं है।
जीवन की पूजा
होगी, तो
तुम वृक्षों
को पूजोगे,
नदियों को पूजोगे, सागरों को पूजोगे,
मनुष्यों
को पूजोगे,
जीवन को पूजोगे,
जीवन की
अनंत—अनंत
अभिव्यक्तियों
को पूजोगे।
और यही
अभिव्यक्तियां
उसके चेहरे
हैं। ये परमात्मा
के भिन्न—भिन्न
रंग—ढंग हैं, अलग—अलग
झरोखों से वह
प्रगट हुआ है।
अशोक
को हत्या के
बाद,
भयंकर
हत्या के बाद,
रक्तपात के
बाद मृत्यु का
बोध हुआ था।
मृत्यु के बोध
से वह थरथरा
गया था, घबड़ा
गया था। उसी
से उसकी सत्य
की खोज शुरू
हुई। वाजिद
ज्यादा
संवेदनशील
व्यक्ति
मालूम होते
हैं। अभी मारा
भी नहीं था, लेकिन हिरणी
की वह छलांग, जैसे अचानक
एक पर्दा हट
गया, जैसे
आंख से कोई
धुंध हट गई; वह छलांग
तीर की तरह
हृदय में चुभ
गई! वह
सौंदर्य, हिरणी
का वह जीवंत
रूप! और
परमात्मा की
पहली झलक
मिली।
ऐसा
रामकृष्ण को
हुआ था। तालाब
के पास से
गुजरते हुए——वर्षा
के दिन थे, आकाश
में काले बादल
घिरे थे; और
बगुलों की एक
कतार, रामकृष्ण
के पास आने से,
जो तालाब के
किनारे बैठी
होगी एक
पंक्ति बगुलों
की, उड़ गई।
बगुले उड़े——पीछे
काले बादलों
की पृष्ठभूमि
और सफेद चांदी
की तरह उड़ती
हुई बगुलों की
कतार——और
रामकृष्ण भावाभिभूत
हो गए, ठिठक
गए; जैसे
श्वास रुक गई,
विचार रुक
गए, हृदय
ठहर गया, समय
ठहर गया; गिर
पड़े वहीं।
वह
परमात्मा की
पहली झलक थी——पहली
समाधि लगी। घर
बेहोश ही लाए
गए। लोगों को
लग रहा है
बेहोश, रामकृष्ण
पहली दफा होश
में आए। ऐसी
भी एक बेहोशी
है, जो होश
लाती है; और
ऐसा भी होश है——हमारा
तथाकथित होश——जो
कि सिर्फ
बेहोशी का एक
नाम है।
रामकृष्ण जब
होश में आए——हमारे
तथाकथित होश
में——तो
रूपांतरित हो
चुके थे। जो
आदमी गिरा था
तालाब के
किनारे
बगुलों की पंक्ति
को आकाश में
उड़ते देखकर, वही आदमी
फिर उठा नहीं,
कोई दूसरा
आदमी उठा! ये
आंखें और थीं,
यह
व्यक्तित्व
और था; भीतर
कुछ बदल गया
था——दृष्टि
बदल गई थी!
रामकृष्ण को
परमात्मा की
पहली झलक मिल
गई थी——उस
सौंदर्य की
घड़ी में!
सौंदर्य
परमात्मा का
निकटतम द्वार
है। जो सत्य
को खोजने
निकलते हैं, वे
लंबी यात्रा
पर निकले हैं।
उनकी यात्रा
ऐसी है, जैसे
कोई अपने हाथ
को सिर के
पीछे से घुमाकर
कान पकड़े।
जो सौंदर्य को
खोजते हैं, उन्हें सीधा—सीधा
मिल जाता है; क्योंकि
सौंदर्य अभी
मौजूद है——इन
हरे वृक्षों
में, पक्षियों
की चहचहाहट
में, इस
कोयल की आवाज
में——सौंदर्य
अभी मौजूद है!
सत्य को तो
खोजना पड़े। और
सत्य तो कुछ
बौद्धिक बात
मालूम होती है,
हार्दिक
नहीं। सत्य का
अर्थ होता है——गणित
बिठाना होगा,
तर्क करना
होगा; और
सौंदर्य तो
ऐसा ही बरसा
पड़ रहा है! न
तर्क बिठाना
है, न गणित
करना है——सौंदर्य
चारों तरफ
उपस्थित है।
धर्म को सत्य से
अत्यधिक जोर
देने का
परिणाम यह हुआ
कि धर्म
दार्शनिक
होकर रह गया, विचार होकर
रह गया। धर्म
सौंदर्य
ज्यादा है। मैं
भी तुमसे
चाहता हूं कि
तुम सौंदर्य
को परखना शुरू
करो। सौंदर्य को,
संगीत को, काव्य को——परमात्मा
के निकटतम
द्वार जानो।
हिरणी
का छलांग
लगाना...हिरणी
को छलांग
लगाते देखा? उसकी
छलांग में एक
सौंदर्य होता
है, एक
अपूर्व
सौंदर्य होता
है! अत्यंत
जीवंतता होती
है! उस छलांग
में त्वरा
होती है, तीव्रता
होती है——बिजली
जैसे कौंध जाए,
जीवन की
बिजली जैसे
कौंध जाए! हाथ
तीर—कमान से
छूट गए वाजिद
के, यह
सौंदर्य नष्ट
करने जैसा तो
नहीं! यह
सौंदर्य
विनष्ट करने
जैसा तो नहीं!
यह सौंदर्य ही
तो पूजा का
आराध्य है!
झुक गए वहीं; फिर घर नहीं
लौटे। जीवन
में क्रांति
हो गई!
अब खोज
में निकले सदगुरु
की,
जो इस झलक
को सदा के लिए
हृदय में
विराजमान कर
देगा। यह तो
अभी बिजली की
तरह कौंधा; इसका दीया
बनाना होगा——जो
जलता रहे, जलता
ही रहे, निशि—वासर,
क्षण—भर को
भी न बुझे। बिजलियों
के कौंधने में
रोशनी तो है, मगर क्षण—भर
को होती है। बिजलियों
के कौंधने में
कोई किताबें तो
नहीं पढ़ सकता,
न बिजलियों
के कौंधने में
कोई पत्र लिख
सकता है।
बिजली तो आई
और गई; बिजली
का कोई उपयोग
तो नहीं हो
सकता।
यद्यपि
बिजली के
माध्यम से एक
बात तय हो
जाती है कि
रास्ता है।
अंधेरी रात है, तुम
जंगल में खो
गए हो। बिजली कौंधी, तुम्हें
दिख जाता है
कि रास्ता है।
यद्यपि फिर
भयंकर अंधकार
छा जाता है और
रास्ता खो
जाता है; मगर
भरोसा आ जाता
है, श्रद्धा
आ जाती है कि
रास्ता है; अगर सम्हलकर
चला, तो
पहुंच जाऊंगा।
रास्ता देख
लिया, अपनी
आंखों से देख
लिया।
हालांकि क्षण—भर
को दिखा था, सपने की तरह
दिखा था; अब
फिर खो गया है
और भयंकर
अंधेरी रात है
चारों तरफ।
लेकिन अब तुम
वही नहीं हो; बिजली
कौंधने के
पहले एक तुम
थे, अब
बिजली कौंधने
के बाद दूसरे
तुम हो। बिजली
कौंधने के
पहले संदेह ही
संदेह था——पता
नहीं रास्ता
है भी या नहीं?
अब संदेह
नहीं है, अब
श्रद्धा है।
और यही
क्रांति है। जिस
घड़ी संदेह
श्रद्धा बन
जाता है, उसी
क्षण क्रांति
हो जाती है।
वह जो
हरिण की छलांग
थी,
वह बिजली की
कौंध थी! अब तक
जैसे आदमी
सोया ही रहा
था, जैसे
अब तक कुछ होश
ही न था, जैसे
नींद में चलते
थे, नींद
में उठते थे, नींद में
बैठते थे। मगर
आज कुछ हुआ!
किस घड़ी परमात्मा
तुम्हें पकड़
लेगा, नहीं
कहा जा सकता।
इसलिए हर घड़ी
तैयार रहो। परमात्मा
के लिए न समय
है, न असमय
है। परमात्मा
कब तुम्हारे
द्वार पर दस्तक
दे देगा, कुछ
भी नहीं कहा
जा सकता। जागे
रहो, प्रतीक्षा
करो; छोटी—छोटी
घटनाओं में
कभी—कभी
परमात्मा उतर
आता है। अब यह
छोटी ही घटना
थी। लाखों लोग
शिकार करते
रहे हैं, लाखों
लोग अब भी
शिकार कर रहे
हैं; हरिण
छलांग भरते
हैं, लेकिन
हाथ तो गिरते
नहीं! तीर तो
टूटते नहीं! सदगुरु की
तलाश तो शुरू
होती नहीं!
वाजिद
सच में ही
संवेदनशील
व्यक्ति रहे
होंगे——सरल, सीधे।
पठान होते भी
सरल और सीधे
हैं। जो दिख
गया था, अब
उसकी तलाश
शुरू हुई।
तलाश
तभी शुरू हो
सकती है, जब
थोड़ी—सी
प्रतीति हो
जाए। जो लोग
बिना प्रतीति
के खोजते हैं,
वे व्यर्थ
ही खोजते हैं।
किसको खोजोगे?
क्या खोजोगे?
थोड़ी—सी
प्रतीति हो
जाए; कहीं
से हो——प्रेम
में हो, सौंदर्य
में हो, संगीत
में हो——कैसे
भी हो, थोड़ी—सी
प्रतीति हो
जाए कि मुझ पर
सब समाप्त
नहीं है, मुझ
से बड़ा भी है, मुझ से
विराट भी है!
कहीं भी हो, कैसे भी हो, इतना पता चल
जाए कि मैं
जैसा हूं, यह
बहुत छोटा रूप
है——बूंद
जैसा। अभी
सागर
प्रतीक्षा कर
रहा है! मैं
जहां हूं, वहां
अंधकार है; और पास ही
कहीं रोशनी का
स्रोत भी है।
गुरु की तलाश
तभी शुरू होती
है।
जीवन
की यह जो झलक
मिली थी, यह ले
चली गुरु की
तलाश में। न
मालूम कितने
गुरुओं के पास
वाजिद गए, उठे—बैठे,
मगर वह झलक
न मिली जो
हिरणी की
छलांग में
मिली थी! वह
झलक, लेकिन
एक दिन मिली
और भरपूर मिली——मूसलाधार
वर्षा हो गई।
दादू दयाल को
देखते ही, वे
आंखें दादू
दयाल की, फिर
वही जीवन की
झलक——और प्रगाढ़तर,
और ऐसी कि
आरपार हो जाए!
फिर
दादू के चरणों
में रुक गए सो
रुक गए, फिर
चरण नहीं
छोड़े। फिर
दादू में जो
सौंदर्य मिल
गया, वह
सौंदर्य देह
का नहीं था, वह सौंदर्य
पृथ्वी का भी
नहीं था। सदगुरु
में जो
सौंदर्य
दिखाई पड़ता है,
वह
पारलौकिक है।
दादू दयाल के
पास और भी
बहुत लोग आए
और गए, लेकिन
जो वाजिद को
दिखाई पड़ा, औरों को
दिखाई नहीं
पड़ा। देखने की
क्षमता चाहिए,
पात्रता
चाहिए। भीगने
की तैयारी
चाहिए। डूबने
का साहस चाहिए।
समर्पित होने
की जोखिम जो
उठाता है, वही
सदगुरु
से जुड़ पाता
है। जैसे एक
दिन तीर—कमान तोड़कर
फेंक दिए थे, वैसे आज
अपने अहंकार
को भी तोड़कर
फेंक दिया।
झुक गए चरणों
में तो फिर
नहीं उठे।
दादू के
प्यारे
शिष्यों में
एक हो गए।
दादू
ने हजारों
लोगों के जीवन
की ज्योति
जलाई। दादू उन
थोड़े—से संतों
में से एक हैं, जिनके
पास अनेक लोग
ज्ञान को
उपलब्ध होते
हैं। स्वयं
ज्ञान को
उपलब्ध हो
जाना एक बात
है; वह भी
बड़ी दूभर, बड़ी
कठिन! जान
लेना बड़ा दूभर,
बड़ा कठिन, लेकिन जना
देना और भी
कठिन, और
भी दूभर। खुद
पी लेना
परमात्मा के
घट से, एक
बात है, लेकिन
दूसरों को भी
पिला देना, बड़ी दूसरी
बात है। तो
दुनिया में
करोड़ों में कभी
कोई एकाध
परमात्मा को
पाने वाला
होता है, और
करोड़ों
परमात्मा को
पाने वालों
में कभी कोई
एकाध दूसरों
को भी पिलाने
वाला होता है।
दादू उन थोड़े—से
लोगों में एक
थे। हजारों लोगों
ने उनके पास पीया, उनके
घाट से पीया।
उनके एक सौ
बावन निर्वाण
को उपलब्ध
शिष्यों में
वाजिद भी एक
हैं। उनके पास
बहुत दीए जले,
वाजिद का भी
जला।
और जब
वाजिद का दीया
जला,
तो उसके
भीतर से काव्य
फूटा। सीधा—सादा
आदमी, उसकी
कविता भी सीधी—सादी
है, ग्राम्य
है। पर गांव
की सोंधी
सुगंध भी है
उसमें! जैसे
नई—नई वर्षा
हो और भूमि से
सोंधी सुगंध
उठे, ठीक
ऐसी सोंधी
सुगंध है
वाजिद के
काव्य में! मात्रा—छंद
का हिसाब नहीं
है बहुत; जरूरत
भी नहीं है।
जब सौंदर्य कम
होता है, तो
आभूषणों की
जरूरत होती है;
जब सौंदर्य
परिपूर्ण
होता है, तो
न आभूषणों की
जरूरत होती है,
न साज—शृंगार
की। जब
सौंदर्य
परिपूर्ण
होता है, तो
आभूषण
सौंदर्य में
बाधा बन जाते
हैं, खटकते
हैं। तब तो
सादापन ही अति
सुंदर होता है,
तब तो सादेपन
में ही लावण्य
होता है, प्रसाद
होता है। तो
जो मात्रा, छंद, व्याकरण,
भाषा को
बिठाने में
लगे रहते हैं,
उनके इतने
आयोजन का कारण
ही यही होता
है कि भाव
पर्याप्त
नहीं है, भाषा
से उसकी
पूर्ति करनी
है। जब भाव ही
पर्याप्त
होता है, तो
भाषा से
पूर्ति नहीं
करनी होती। जब
भाव बहता है
बाढ़ की तरह, तो किसी भी
तरह की भाषा
काम दे देती
है। भाषा पर
मत जाना, भाव
पर जाना।
काव्य फूटा
उनसे! जब दीया
भीतर जलता है,
तो रोशनी——उसकी
किरणें बाहर
फैलनी शुरू हो
जाती हैं। वही
संतों का
काव्य है।
इस
घटना के तरफ
संकेत देने
वाला राघोदास
का एक कवित्त
वाजिद के
संबंध में
बहुत प्रसिद्ध
है——
छाड़िकै
पठान—कुल
रामनाम कीन्हों
पाठ,
भजन
प्रताप सूं
वाजिद बाजी जीत्यो
है।
हिरणी
हनन उर डर भयो भयकारी,
सीलभाव उपज्यो दुसीलभाव बीत्यो
है।
तोरे
हैं कवांणतीर
चाणक दियो
शरीर,
दादूजी
दयाल गुरु
अंतर उदीत्यो
है।
राघो
रति रात दिन
देह दिल मालिक
सूं,
खालिक सूं खेल्यो
जैसे खेलण
की रीत्यो
है।
राघोदास के इन
वचनों में कुछ
महत्वपूर्ण
बातें हैं, जो
समझने जैसी
हैं। कुछ गलत
बातें भी हैं,
वे भी समझ
लेने जैसी हैं,
ताकि वे छोड़ी
जा सकें। राघोदास
ज्ञान को
उपलब्ध
व्यक्ति नहीं
रहे होंगे। कविता
तो सुंदर लिखी
है, मगर
उसमें
बुनियादी
भ्रांतियां
हैं। सत्य की
झलक भी आई है, लेकिन
अंधेरे में
मिश्रित है।
जरा—सा चांद
भी उगा है, लेकिन
रात बड़ी
अंधेरी है।
थोड़ा—सा शुभ्र
आकाश भी है, लेकिन बड़े
काले बादल
घिरे हैं।
छाड़िकै
पठान—कुल
रामनाम कीन्हों
पाठ।
रामनाम
के पाठ करने
के लिए कोई
पठान—कुल थोड़े
ही छोड़ना पड़ता
है। कोई राम
का ठेका हिंदुओं
का थोड़े ही है!
राम से कोई
दशरथ—पुत्र
राम से थोड़े
ही प्रयोजन
है। दशरथ—पुत्र
राम तो इसीलिए
राम कहे गए कि
"राम' उनके
पहले भी शब्द
चलता था, नहीं
तो उन्हें कोई
कैसे नाम देता
"राम' का? "राम' शब्द
राजा
रामचंद्र से
पुराना है, इसलिए तो
दशरथ उनको
"राम' का
नाम दे सके, "राम' चलता
रहा था। राम
का अर्थ तो
परमात्मा है,
वह तो
परमात्मा का
एक नाम है।
पठान—कुल
छोड़ने की बात
आवश्यक नहीं
है।
मगर यह
हमारी भ्रांत
दृष्टियों का
हिस्सा है।
मेरे पास कोई
आ जाता है; अगर
वह संन्यस्त
हो जाता है, तो उसके
संप्रदाय को,
धर्म को
मानने वाले
लोग कहते हैं:
तो तुमने फिर
अपना धर्म छोड़
दिया! धर्म
कहीं छोड़ा—पकड़ा
जाता है? जो
छोड़ा जा सकता
है, वह
धर्म ही नहीं
है; जो
नहीं छोड़ा जा
सकता, उसी
का नाम धर्म
है। न जिसको
हम पकड़ सकते
हैं, न छोड़
सकते हैं——उस
स्वभाव का नाम
धर्म है।
तो अगर
तुम मुझसे
पूछो तो मैं
कहूंगा: दादू
के चरणों में
झुककर, राम
की याद से
भरकर ठीक
अर्थों में
वाजिद मुसलमान
हुए। मैं यह
नहीं कह
सकूंगा कि
पठान—कुल छाड़िकै।
मैं तो
कहूंगा: पठान
होना पूरा हुआ,
फूल खिला!
धर्म
तो एक ही है, मगर
राघोदास
की वृत्ति
सांप्रदायिक
मालूम होती
है। उनको बड़ा
रस आ रहा है! जब
भी कोई
व्यक्ति एक
धर्म में से
दूसरे धर्म में
जाता है, तो
बड़े मजे की
घटना घटती है।
जिस धर्म को
छोड़ता है, उस
धर्म के लोग
कहते हैं:
गद्दार, धोखेबाज,
बेईमान! और
जिस धर्म में
सम्मिलित
होता है, उस
धर्म के लोग
कहते हैं: अहा,
महाज्ञानी!
बोध हुआ इसे, सत्य की पहचान
हुई इसे!
हिंदू
ईसाई हो जाता
है,
तो ईसाई
मानते हैं कि
इसको समझ आई, बोध आया, होश
आया; पड़ा
था कूड़े—करकट
में, अब
इसको अकल आई!
और हिंदू
समझते हैं——धोखा
दे गया बेईमान,
गद्दारी कर
गया! अगर ईसाई
हिंदू हो जाता
है, तो
हिंदू
प्रसन्न होते
हैं। क्योंकि
जब कोई ईसाई
हिंदू होता है,
तो हिंदुओं
को यह भरोसा
आता है कि
हमारा धर्म ठीक
होगा ही, तभी
तो कोई आदमी
ईसाई से हिंदू
हुआ। लेकिन जब
कोई ईसाई
हिंदू होता है,
तो ईसाइयों
को संदेह पैदा
होता है, डर
लगता है कि
हमारे धर्म को
छोड़कर कोई गया,
तो जरूर
हमारे धर्म
में कुछ भूल
होगी। इस भूल
को छिपाने के
लिए, वे
क्रोध से भर
जाते हैं। इस
भूल को ढांकने
के लिए, गालियां
निकलने लगती
हैं। मगर
दोनों दृष्टियां
भ्रांत हैं। न
तो ईसाई के
हिंदू होने से
कुछ फर्क पड़ता
है, न
हिंदू के ईसाई
होने से कुछ
फर्क पड़ता है।
कोई मस्जिद
जाता था, मंदिर
जाने लगा, इससे
क्या फर्क
पड़ेगा? असली
क्रांति इतनी
छोटी, इतनी
ओछी, इतनी
सस्ती नहीं
होती।
वाजिद
की जिंदगी में
क्रांति ही
हुई! प्रभु का
स्मरण आया, जीवन
की झलक को
देखकर। जीवन
याद दिला गया महाजीवन
की। छोटा—सा
सौंदर्य का कण,
प्यास भर
गया और
सौंदर्य की।
जरा—सी बूंद, सन्नाटा, उस घड़ी में
हरिण की छलांग,
हाथ का रुक
जाना, हृदय
का ठहर जाना, विचार का
बंद हो जाना——थोड़ा—सा
स्वाद लगा
समाधि का! फिर
गुरु की तलाश
में निकले।
हिंदू से कुछ
लेना—देना
नहीं था।
दादू
दयाल कोई
हिंदू थोड़े ही
हैं। इस ऊंचाई
के लोग हिंदू—मुसलमान
थोड़े ही होते
हैं! हिंदू—मुसलमान
होना तो बड़ी नीचाइयों
की बातें हैं, बाजार
की बातें हैं।
यह तो संयोग
की बात है कि दादू
दयाल हिंदू घर
में पैदा हुए
थे, बिलकुल
संयोग की बात
है। खोज में
निकले थे वाजिद,
बहुतों के
पास गए, पांडित्य
देखा, ज्ञान
की बातें सुनीं,
मगर जीवंत
जलती हुए
रोशनी नहीं
देखी।
शास्त्र तो
सुना, सत्संग
न हो सका।
आंखों में
आंखें डालकर
देखीं, मगर
वहां भी
विचारों की
भीड़ ही देखी; शांत
सन्नाटा, संगीत,
नाद वहां से
उतरता न आया।
बैठे पास
बहुतों के, लेकिन खाली
गए, खाली
लौटे। दादू
दयाल को हिंदू
समझकर थोड़े ही
गुरु बना लिया
था; गुरु
थे, इसलिए
गुरु बना लिया
था।
इस बात
को ख्याल रखना, वाजिद
कुछ हिंदू
नहीं हो गए
हैं! हिंदू—मुसलमान
की बात ही
नहीं है यह।
सोया आदमी जाग
गया, इसमें
हिंदू—मुसलमान
की क्या बात
है? खोया
आदमी रास्ते
पर आ गया, इसमें
हिंदू—मुसलमान
की क्या बात
है? हिंदू
भी खोए हैं, मुसलमान भी
खोए हैं; हिंदू
भी सोए हैं, मुसलमान भी
सोए हैं। जो
जाग गया, वह
तो तीसरे ही
ढंग का आदमी
है; उसको
किसी
संप्रदाय में
तुम न रख
सकोगे, वह
सांप्रदायिक
नहीं होता है।
यहां
अड़चन आ जाती
है। कोई सिक्ख
आकर संन्यास ले
लेता है, तो बस
उसको सताने
लगते हैं लोग,
उसके
संप्रदाय के
लोग सताने
लगते हैं कि
अब तुम
संन्यासी हो
गए, अब तुम
सिक्ख न रहे!
सच बात यह है
कि वह पहली
दफा सिक्ख
हुआ! सिक्ख का
अर्थ होता है——शिष्य;
शिष्य का ही
रूप है सिक्ख।
पहली दफा
शिष्य हुआ, और तुम कहते
हो सिक्ख न
रहे! अब तक
सिक्ख नहीं था,
अब हुआ। अब
तक सुनी—सुनी
बातें थीं, अब गुरु से
मिलना हुआ। और
गुरु कुछ बंधा
थोड़े ही है——हिंदू
में, मुसलमान
में, ईसाई,
जैन में।
नानक सिक्ख
थोड़े ही हैं, न हिंदू हैं,
न मुसलमान
हैं; जागे
पुरुष हैं।
जब
किसी जाग्रत
पुरुष से
संबंध हो
जाएगा, तो
तुम शिष्य हुए——और
तभी तुम हिंदू
हुए, और
तभी तुम
मुसलमान हुए। सदगुरु
तुम्हें धर्म
से जोड़ देता
है, संप्रदायों
से तोड़ देता
है।
मगर राघोदास
सांप्रदायिक
वृत्ति के रहे
होंगे, खुश
हुए होंगे।
छाड़िकै
पठान—कुल
रामनाम कीन्हों
पाठ।
इन्हें
बड़ा रस आया
होगा कि
रामनाम का पाठ
किया। देखो, राम
से तरे! कुरान
पढ़ते रहे, तब
न तरे।
दोहराते रहे
आयतें, तब
न तरे——अब तरे! राम
हैं असली
तारणहार!
रामनाम
से नहीं तर गए
हैं,
तर गए हैं
दादू दयाल से
संबंध होने के
कारण। अब दादू
दयाल चूंकि
हिंदू हैं और
परमात्मा का नाम
उनके लिए राम
है, इसलिए
रामनाम से जुड़
गए हैं। अगर
दादू दयाल
मुसलमान होते,
तो भी तर
जाते। अगर
दादू दयाल
ईसाई होते, तो भी तर
जाते। तब
हालांकि
रामनाम बीच
में न आता, तब
कोई और नाम
आता। सब नाम
उसके हैं, और
कोई नाम उसका
नहीं है।
छाड़िकै
पठान—कुल
रामनाम कीन्हों
पाठ,
भजन
प्रताप सूं
वाजिद बाजी जीत्यो
है।
लेकिन
कुछ—कुछ सच
बातें भी, ठीक
बातें भी उतर
आई हैं राघोदास
में, एकदम
सभी असत्य
नहीं हैं। यह
बात सच है: भजन
प्रताप सूं
वाजिद बाजी जीत्यो
है। यह बात सच
है। हिंदू
होने से नहीं,
लेकिन भजन
प्रताप से।
डूब गए हैं
भजन रस में; इससे हारी
बाजी बदल गई, जीत गए हैं।
ख्याल
रखना, संसार में
कितना ही जीतो,
हारे ही
रहोगे; परमात्मा
में थोड़े जीतो,
तो ही जीत
है। और मजा
ऐसा है कि
परमात्मा के
सामने जो
बिलकुल हार
जाता है, वही
जीतता है। वही
भजन प्रताप
है। परमात्मा
के चरणों में
जो अपने को
बिलकुल
समर्पित कर
देता है, वही
जीतता है; वहां
हारना ही
जीतना है।
प्रेम के
रास्ते पर
हारना ही जीत
है——हारना
विधि है जीतने
की।
हिरणी
हनन उर डर भयो भयकारी।
यहां
फिर भूल हो गई, वह
कहते हैं कि
हरिण को मारते
वक्त भयभीत हो
गए। यह बात
गलत है। हरिण
को तीर उठाकर
मारने चले थे,
भयभीत नहीं
हो गए, बल्कि
प्रेम से भर
गए। वह जो जीवन
की लपट देखी, वह जो जीवन
की तरंग देखी,
वह जो हरिण
की आंखों में
और छलांग में
परमात्मा का
रूप देखा, उसके
प्रति प्रेम
से भर गए!
इसलिए मैं
कहता हूं, राघोदास जाग्रत
पुरुष नहीं
हैं। तो जो
सुना है, उसे
लिख दिया है; उसमें कुछ
सत्य आ गया है
और कुछ असत्य
जुड़ गया है।
अंधे आदमी के
हाथ में कभी—कभी
द्वार भी लग
जाता है, और
कभी—कभी दीवाल
लगती है——दोनों
साथ चलता रहता
है, अंधा
आदमी टटोलता
रहता है, दिखाई
उसे कुछ भी
नहीं पड़ता। राघोदास
अंधे आदमी
हैं।
हिरणी
हनन उर डर भयो भयकारी।
मैं
तुम्हें
स्पष्ट करना
चाहता हूं कि
भय के कारण
कोई परमात्मा
की तलाश नहीं
होती, प्रेम
के कारण होती
है। प्रेम ही
परमात्मा की तरफ
ले जाने वाला
सेतु है; भय
से तो हम दूर
हो जाते हैं।
जिससे हम भय
करते हैं, उससे
हमारा संबंध
ही नहीं जुड़
पाता। इसलिए
मैं कहता हूं,
"ईश्वर—भीरु'
जैसे शब्द
गलत हैं।
धार्मिक
व्यक्ति को हम
कहते हैं——ईश्वर—भीरु,
ईश्वर से
डरने वाला। जो
ईश्वर से डर
रहा है, वह
ईश्वर को
प्रेम कैसे
करेगा? जो
ईश्वर से डर
रहा है, वह
ईश्वर को घृणा
करेगा। भय से
घृणा पैदा
होती है, प्रेम
पैदा नहीं
होता। तुम जरा
करके देखो!
जिससे भी तुम
भयभीत होते हो,
उसे तुम
प्रेम कर सकते
हो? उसकी
मान भला लो, क्योंकि भय
है, नहीं
तो वह नुकसान पहुंचाएगा;
मगर भीतर—भीतर
तुम बदला लेने
की योजना
बनाते हो, और
मौका मिल
जाएगा तो बदला
लोगे।
अक्सर
ऐसा हो जाता
है। छोटे
बच्चों को तुम
सता लेते हो, भयभीत
कर लेते हो, फिर ये ही
बच्चे बड़े
होकर तुम्हें
सताते हैं और
भयभीत करते
हैं। और तुम
बड़े चौंकते हो
बाद में कि
क्या हो गया!
मेरे बच्चे बिगड़
क्यों गए!
मैंने इनके
लिए कितना
किया, और
ये मुझे पूछते
नहीं दो कौड़ी
को! बूढ़े
अक्सर परेशान
होते हैं, बड़े
दुखी होते
हैं। मगर
मामला साफ है
बिलकुल——जब ये
बच्चे थे, जब
तुमने इन्हें
डरा लिया था।
तब ये असहाय
थे, तब तुम
डरा सकते थे, भयभीत कर
सकते थे।
लेकिन हर चोट
घाव बना गई! जब ये
शक्तिशाली हो
जाएंगे, एक
दिन तुम असहाय
हो जाओगे
वृद्ध होकर, तब ये तुमको
डराने लगेंगे,
तब ये
तुम्हें
परेशान करने
लगेंगे। तब
तुम्हें समझ
में न आएगा कि
बात क्या हो
गई! बात कुछ भी
नहीं हो गई, अब सिर्फ पलड़ा
बदल गया है——शक्ति
उनके पास है, तुम निर्बल
हो। तब शक्ति
तुम्हारे पास
थी, वे
निर्बल थे।
बूढ़ा आदमी फिर
बच्चे जैसा हो
जाता है।
इसलिए
दुनिया में जो
बच्चे मां—बाप
को सताने
लगते हैं, उसका
कुल कारण इतना
ही है कि मां—बाप
काफी बच्चों
को सता लेते
हैं बचपन में।
हालांकि कोई
शिकायत करने
वाला है नहीं,
कोई कर सकता
नहीं।
तुम्हें शायद
यह दिखाई भी नहीं
पड़ता कि तुम
सता रहे हो।
मगर तुम अपनी
बात मनवा लेते
हो भयभीत करके;
डंडा
तुम्हारे हाथ
में है!
शिक्षक मनवा
लेता है अपनी
बात, डंडा
उसके हाथ में
है। लेकिन
जिसके हाथ में
भी डंडा है, उससे हमारी
घृणा पैदा हो
जाती है।
मैं
तुम्हें कहना
चाहता हूं कि
परमात्मा तक जाने
का रास्ता भय
कभी भी नहीं
है,
प्रेम है।
और उस घड़ी में,
जब हरिण की
तरफ जाता हुआ
तीर रोक लिया
गया और धनुष—बाण
तोड़ दिया गया,
तो यह किसी
भय के कारण
नहीं हुआ था।
यह भय के कारण
हो ही नहीं
सकता। भय के
कारण किसी ने
धनुष—बाण तोड़े
हैं! तो फिर
धनुष—बाण पैदा
कैसे हुए? तुमसे
मैं कहना
चाहता हूं, धनुष—बाण भय
के कारण पैदा
हुए हैं, नहीं
तो पैदा ही
नहीं होते। भय
से कोई तोड़
नहीं सकता।
हमारे
सब अस्त्र—शस्त्र
भय के कारण
पैदा हुए हैं।
आदमी कमजोर है
जानवरों से, यही
हमारे अस्त्र—शस्त्रों
के पैदा होने
का कारण है।
तुम अगर सिंह
के सामने
निहत्थे छोड़
दिए जाओ, तुम्हारी
क्या हैसियत
है? उसके
नाखून, उसके
दांत तुम्हें
चिंदी—चिंदी
कर देंगे।
इससे
आत्मरक्षा के लिए
आदमी ने
अस्त्र—शस्त्र
खोजे।
हमारे नाखून
इतने मजबूत
नहीं, तो
हमने छुरे
बनाए, तलवारें
बनाईं, भाले
बनाए। यह नाखूनों
की परिपूर्ति
है। हमारे
दांत इतने
मजबूत नहीं
हैं, तो
हमने अस्त्र—शस्त्र
ईजाद किए।
फिर हम
पास जाने में
भी डरते हैं, छुरा
लेकर भी पास
खड़ा होना खतरे
से खाली नहीं
है। तो हमने
तीर बनाए, ताकि
दूर से हम मार
सकें। फिर
हमने गोलियां
ईजाद कीं, फिर
हमने बम बनाए
कि आकाश से हम
मार सकें।
आदमी
की असहाय और
भयभीत स्थिति
के कारण अस्त्र—शस्त्रों
का निर्माण
हुआ है। आज
दुनिया में हर
राष्ट्र बनाए
जाता है बम, लगाए
जाता है ढेर, किस कारण? भय के कारण!
रूस नहीं रुक
सकता बमों को
बनाने से, क्योंकि
डर है कि
अमरीका बम बना
रहा है। अमरीका
नहीं रुक सकता,
क्योंकि
रूस का डर है
कि रूस बना
रहा है। यह बड़े
मजे की बात है,
रूस अमरीका
से डरा है, अमरीका
रूस से डरा है——दोनों
डरे हैं, इसलिए
अस्त्र—शस्त्र
बढ़ते चले जाते
हैं! कौन रोके?
जो रोकेगा,
वह पीछे पड़
जाएगा। आदमी
भूखा मर रहा
है और मनुष्य—जाति
की सत्तर
प्रतिशत
ऊर्जा अस्त्र—शस्त्र
बनाने में लग
रही है। अगर
अस्त्र—शस्त्र
बनाने बंद हो
जाएं, तो
सारी पृथ्वी
संपन्न हो
सकती है, किसी
आदमी के गरीब होने
का कोई कारण
नहीं है।
लेकिन
अमीर मुल्कों
की तो बात छोड़
दो,
गरीब मुल्क
भी पहले
शस्त्र बनाते
हैं——पहले
गोली, फिर
रोटी। हमारा
देश भी सत्तर
प्रतिशत
शक्ति को
अस्त्र—शस्त्रों
पर व्यय करता
है। और सत्ता
में जो बैठे
हैं, वे
अहिंसा के
प्रचारक हैं,
वे अहिंसा
के भक्त हैं, और सारी दौड़
यह है कि हम भी
कैसे
शक्तिशाली हो जाएं
अस्त्र—शस्त्रों
में! भय है, कहीं
चीन न चढ़ आए! और
चीन भी डरा
हुआ है! सब डरे
हुए हैं!
अस्त्र—शस्त्र
भय के कारण
नहीं तोड़े
जाते; इसलिए राघोदास
को पता नहीं
है, प्रेम
से टूटते हैं।
जहां प्रेम है,
वहां अस्त्र—शस्त्र
व्यर्थ हो
जाते हैं।
मैंने
सुना है, एक
युवक, एक
राजपूत युवक
विवाह करके
लौट रहा है।
नाव में बैठा
है, जोर का
तूफान उठा है।
उसकी नववधू
कंपने लगी, घबड़ाने लगी; लेकिन
वह निश्चिंत
बैठा है। उसकी
पत्नी ने कहा:
आप निश्चिंत
बैठे हैं!
तूफान भयंकर
है, नाव अब
डूबी तब डूबी
हो रही है, आप
भयभीत नहीं
हैं?
उस
राजपूत युवक
ने म्यान से
तलवार निकाली——चमचमाती
नंगी तलवार——अपनी
पत्नी के गले
के पास लाया, ठीक
गले में छूने
लगी तलवार; और पत्नी
हंसने लगी। उस
राजपूत ने
कहा: तू डरती
नहीं! तलवार
तेरी गर्दन के
इतने करीब है,
जरा—सा
इशारा कि
गर्दन अलग हो
जाए, तू
डरती नहीं है?
उसने कहा:
जब तलवार
तुम्हारे हाथ
में है, तो
भय कैसा! जहां
प्रेम है, वहां
भय कैसा! उस
युवक ने कहा
कि यह तूफान
भी परमात्मा
के हाथ में
है। यह तलवार
बिलकुल गर्दन के
करीब है, लेकिन
परमात्मा के
हाथ में है, तो भय कैसा? जो होगा, ठीक
ही होगा। अगर
गर्दन कटने
में ही हमारा
लाभ होगा, तो
ही गर्दन कटेगी;
तो हम
धन्यवाद देते
ही मरेंगे।
अगर यह तूफान
हमें डुबाता
है, तो
उबारने के लिए
ही डुबाएगा।
उसके हाथ में
तूफान है, भय
कैसा? मेरे
हाथ में तलवार
है, तू
भयभीत नहीं; यह तलवार
किसी और के
हाथ में होती,
तू भयभीत
होती। तेरा
परमात्मा से
प्रेम का नाता
नहीं है, इसलिए
भयभीत हो रही
है। तूफान के
कारण भयभीत नहीं
हो रही है, परमात्मा
से प्रेम नहीं
है इसलिए
भयभीत हो रही
है।
ख्याल
रखना, जब भी
तुम भयभीत
होते हो, तो
असली कारण
सिर्फ एक ही
होता है: परमात्मा
से प्रेम नहीं
है। जिसका
परमात्मा से प्रेम
है, उसके
लिए सारे भय
विसर्जित हो
जाते हैं।
उस
क्षण में भय
पैदा नहीं हुआ
है,
अगर भय पैदा
होता, तो
तो तीर और
जल्दी छूट
जाता। उस क्षण
में भय विसर्जित
हो गया है, प्रेम
दीप्त हुआ है,
प्रेम का
दीया जला है!
हृदय गदगद हो
गया है इस
परमात्मा की
झलक से। यह
परमात्मा
पुकार गया
हिरणी के भीतर
से! यह पुकार
सुन ली गई उस
क्षण में।
कारण यही रहा
होगा। क्योंकि
जब भी कोई
आदमी शिकार
करता है और
तीर उठाता है,
तो चित्त
एकाग्र करना
होता है, नहीं
तो तीर चूक
जाएगा। भागती
हिरणी को तीर
मारना कलाकार
की बात है, हर
कोई नहीं मार
सकेगा। थिर
लक्ष्य पर भी
तीर मारना
कठिन होता है,
तो भागते
हुए लक्ष्य पर
तो तीर मारना
बड़ा कठिन है!
बड़ा एकाग्र
चित्त चाहिए,
बड़ा
ध्यानस्थ
चित्त चाहिए।
शायद
ध्यान की उस
घड़ी के कारण
ही प्रेम का
जन्म हो गया
है,
शायद
एकाग्र चित्त
होने के कारण
ही झलक दिखाई
पड़ गई है।
शायद वैसे
दिखाई न भी
पड़ती, क्योंकि
विचारों का
गहरा आविष्ठान
चित्त के ऊपर
होता, चेतना
विचारों में
दबी होती।
शायद मन
बिलकुल एकाग्र
रहा होगा। रहा
ही होगा; शिकार
करना हो तो मन
एकाग्र होना
ही चाहिए। मन
बिलकुल
एकाग्र रहा होगा,
सब विचार हट
गए होंगे, एक
ही विचार रहा
होगा——वह
हिरणी और तीर।
उस कारण झलक
मिल गई है।
एकाग्रता
बहुत बार
परमात्मा की
झलक ले आती है।
इसलिए तुम
जहां भी
एकाग्रता बन
सकती हो, उन
अवसरों को
चूकना मत! कोई
नर्तकी नाचती
हो और अगर
चित्त एकाग्र
होता हो, तो
चूकना मत। अगर
कहीं कोई वीणा
बजाता हो और
चित्त एकाग्र
होता हो, तो
चूकना मत। अगर
आकाश में चांद
निकला हो और चित्त
एकाग्र होता
हो, तो
चूकना मत।
जहां भी चित्त
एकाग्र होता
हो——सहज, अपने—आप——हो
जाने देना।
वहीं से प्रेम
का बीज फूटता
है, प्रेम
अंकुरित होता
है।
तो मैं
तुमसे कहना
चाहता हूं, भय
के कारण यह
नहीं हुआ।
हिरणी
हनन उर डर भयो भयकारी,
सीलभाव उपज्यो दुसीलभाव बीत्यो
है।
राघोदास
कहते हैं कि
भय के कारण ही
पाप छूट गया
और पुण्य का
उदय हुआ है।
भय के
कारण पुण्य का
उदय नहीं होता; पुण्य
तो प्रेम की
छाया है। और
पाप भय की
छाया है।
दुनिया में
जितना पाप
होता है, भय
के कारण होता
है। जितने तुम
भयभीत हो, उतने
तुम पापी
रहोगे।
एक
आदमी धन
इकट्ठा करने
में लगा है, तुमने
कभी सोचा, क्यों?
भयभीत है!
सोचता है, धन
से सुरक्षा हो
जाएगी। एक
आदमी पद पर चढ़ने
में लगा है——और
ऊंची सीढ़ी, और ऊंची
कुर्सी।
क्यों? सोचता
है, जितनी
ऊंचाई पर
रहूंगा, उतना
निर्भय हो
सकूंगा, क्योंकि
लोगों के
शिकंजे के
बाहर हो जाऊंगा
और लोग मेरे
शिकंजे में आ
जाएंगे। मैं
मार सकूंगा, मुझे कोई न
मार सकेगा।
मैं बलशाली हो
जाऊंगा, शक्ति मेरे
हाथ में होगी
और सारे लोगों
की गर्दन मेरे
हाथ में होगी।
इसलिए
तो लोग
प्रधानमंत्री
होना चाहते
हैं,
राष्ट्रपति
होना चाहते
हैं——गर्दन
पकड़ लेंगे!
हालांकि
लोकतंत्र में
उन्हें शुरू
करना पड़ता है
पैर दबाने से।
पैर दबाते हैं
पहले, सेवक
बनकर आते हैं——कि
नहीं, दबवा ही लें। बस, तुमने पैर दबवाए कि
तुम फंसे! फिर
दबाते—दबाते
वे कब गर्दन
पर पहुंच जाते
हैं, तुम्हें
पता भी नहीं
चलेगा। पैर
दबाने से तुम्हें
वैसे ही नींद
आने लगती है, तुम झपकी
खाने लगे, वे
सरकने लगे ऊपर
की तरफ। जब तक
तुम्हारी आंख खुलेगी,
तब तक उनके
हाथ गर्दन पर
पहुंच गए! तब
बहुत देर हो
चुकी, फिर
वहां उन्हें
हटाना बहुत
मुश्किल है; फिर हटाना
बिलकुल
मुश्किल है, क्योंकि
गर्दन पर हाथ
आ गए! इसलिए
तुम्हारे सारे
राजनेता
तुम्हें धोखा
दे जाते हैं।
जब तक सत्ता
के बाहर होते
हैं, तब तक जनसेवक
होते हैं; जैसे
ही सत्ता में
पहुंच जाते
हैं, वैसे
ही सेवा
इत्यादि सब
भूल जाते हैं।
सेवा तो सीढ़ी
थी, साधन
थी, सत्ता
में पहुंचना
लक्ष्य था!
सत्ता में
पहुंचकर सब
आश्वासन झूठे
हो जाते हैं।
ख्याल रखना, ये सब भयभीत
लोग हैं; इनके
जीवन में
प्रेम नहीं
है।
इसलिए
मुझसे जब कोई
पूछता है कि
हम सेवा करें? हम
कैसे सेवा
करें? तो
मैं कहता हूं,
तुम सेवा की
बात मत सोचो; मैं तुम्हें
सेवक नहीं
बनाना चाहता,
मैं
तुम्हें
प्रेमी बनाना
चाहता हूं।
तुम प्रेम
सीखो। फिर
प्रेम से सेवा
आएगी, तो
कोई खतरा नहीं
है; अगर
सेवा पहले आई,
तो प्रेम तो
नहीं आएगा, सेवा के
पीछे सत्ता
आएगी! और तब
खतरा है।
पुण्य
आ जाता है
प्रेम के पीछे
अपने—आप, जैसे
फूल के साथ
गंध आ जाती है!
और जैसे सुबह
सूरज ऊगता है
और पक्षी गीत
गाने लगते हैं,
ऐसा ही
पुण्य आ जाता
है प्रेम के
साथ। जब भी तुमने
किसी को प्रेम
किया है, उसके
साथ तो तुम
पाप नहीं कर
सकते न! यह
तुम्हारे
जीवन का भी
अनुभव है——जिससे
तुमने प्रेम
किया है, उसके
साथ पाप नहीं
कर सकते हो, न झूठ बोल
सकते हो, न
धोखा दे सकते
हो। जिस आदमी
को पाप करना
है, धोखा
देना है, झूठ
बोलना है, बेईमानी
करनी है, वह
किसी से प्रेम
नहीं करता, उसे अपने को
प्रेम से बचा
लेना होता है।
इसलिए
राजनैतिक कभी
किसी के मित्र
नहीं होते; मित्रता
औपचारिक होती
है, ऊपर—ऊपर
होती है, धोखा
होती है, मित्रता
के पीछे
शत्रुता छिपी
होती है। प्रेमी
पाप नहीं कर
सकता; कम
से कम जिससे
उसको प्रेम है,
पाप नहीं कर
सकता। और
जिसका प्रेम
समस्त से हो
गया है, सारे
अस्तित्व से
हो गया है; जीवन
के चरणों में
जिसका प्रेम
समर्पित हो
गया है, वह
तो पाप कैसे
कर सकेगा? उसका
उठना—बैठना, सब पुण्य
है। वह जो भी
करता है, वही
पुण्य है।
उससे पुण्य ही
होता है, उससे
पाप हो ही
नहीं सकता।
उसे सोचना भी
नहीं पड़ता कि
पुण्य कैसे
करूं और पाप
कैसे छोडूं।
प्रेम आ जाए, तो प्रकाश आ
गया; प्रकाश
आ गया, तो
अंधकार गया।
अंधकार को
छोड़ना नहीं
पड़ता फिर, न
हटा—हटाकर
निकालना पड़ता
है। न अंधकार
से प्रार्थना
करनी पड़ती है
कि अब आप जाएं!
कि महानुभाव,
आप जाएं!
अंधकार
समाप्त ही हो
जाता है।
जरूर
वाजिद के जीवन
में क्रांति
घटी,
लेकिन भय के
कारण नहीं, प्रेम के
कारण।
तोरे
हैं कवांणतीर
चाणक दियो
शरीर,
दादूजी
दयाल गुरु
अंतर उदीत्यो
है।
और
जिसके जीवन
में प्रेम
उपजता है, वही
गुरु की तलाश
कर सकता है।
प्रेम के
अतिरिक्त कोई
गुरु को नहीं
खोज सकता।
गुरु के प्रेम
में पड़ना
इस पृथ्वी पर
प्रेम की सबसे
बड़ी घटना है, प्रेम का
शुद्धतम रूप
है, क्योंकि
प्रेम का
बेशर्त रूप
है। पत्नी से
तुम्हारा
प्रेम है, कुछ
लेन—देन का
नाता है; बेटे
से तुम्हारा
प्रेम है, कुछ
लेन—देन का
नाता है——सांसारिक
संबंध है।
गुरु से
तुम्हारा
प्रेम बिलकुल
असांसारिक
संबंध है, न
कुछ लेना है, न देना है।
गुरु के पास
बैठने में ही
आनंद है, लेने—देने
का सवाल ही
नहीं है; गुरु
के पास कुछ है
भी नहीं देने
को।
सत्य
दिया नहीं जा
सकता। यह कोई
वस्तु नहीं है।
गुरु के पास
बैठते—बैठते
तुम्हारे
भीतर का सत्य
उमग आता है, गुरु
सत्य देता
नहीं। उसके
पास बैठते—बैठते,
उसके रस में
डोलते—डोलते,
मस्त होते—होते,
तुम्हारा
सत्य उपज आता
है। गुरु की
मस्ती धीरे—धीरे
तुम्हें भी
मस्ती की
तरंगों से भर
देती है। गुरु
सत्य नहीं
देता, लेकिन
गुरु के
वातावरण में——गुरु
ऐसा, जैसे
वसंत आ गया——तुम्हारे
भीतर पड़ा हुआ
सत्य सदियों—सदियों
का, जिसे
तुमने कभी
देखा नहीं, निहारा नहीं,
अचानक सिर
उठा लेता है!
अंकुर निकल
आते हैं, बीज
टूट जाता है, तुम्हारा
अपना फूल
खिलना शुरू हो
जाता है। न तो
गुरु कुछ देता,
न कुछ लेता।
गुरु की
मौजूदगी आनंद
है। उसकी उपस्थिति
में रस—धार
बहती है, वहां
कुछ लेने—देने
का संबंध नहीं
है।
इसलिए
गुरु से संबंध
केवल प्रेमी
का हो सकता है, क्योंकि
यह प्रेम की
आत्यंतिक
अवस्था है।
तोरे
हैं कवांणतीर
चाणक दियो
शरीर,
दादूजी
दयाल गुरु
अंतर उदीत्यो
है।
और अब
भीतर गुरु का
उदय हो रहा
है। बाहर गुरु
मिल जाए, तो
भीतर गुरु का
उदय शुरू हो
जाता है। बाहर
का गुरु भीतर
के गुरु को
सजग करने लगता
है। बाहर के
गुरु की
मौजूदगी भीतर
सोए गुरु को
जगाने लगती
है। गुरु अंतर
उदीत्यो
है——यह बात ठीक
है।
और
अंतिम वचन तो
बड़ा प्यारा है, जैसे
अंधे को
दरवाजा मिल
गया!
राघो
रति रात दिन
देह दिल मालिक
सूं।
और अब
वाजिद डूबे
हैं ऐसे मालिक
में,
जैसे कि कोई
अपनी प्रेयसी
से आलिंगन में
आबद्ध रहे
चौबीस घंटे!
राघो
रति रात दिन...।
रात—दिन
संभोग चल रहा
है परमात्मा
से,
ऐसे वाजिद
हो गए!
...रति
रात दिन देह
दिल मालिक सूं।
शरीर
भी परमात्मा
में डूबा है
और आत्मा भी
परमात्मा में
डूबी है——सब परमात्मा
में डुबा
दिया, कुछ
बचाया नहीं
बाहर, पूरे
के पूरे छलांग
लगा गए हैं!
खालिक सूं खेल्यो
जैसे खेलण
की रीत्यो
है।
बड़ा
प्यारा वचन है, कभी—कभी
अंधों के हाथ
भी हीरे लग
जाते हैं! बड़ा
प्यारा वचन
है!
खालिक सूं खेल्यो
जैसे खेलण
की रीत्यो
है।
और
वाजिद उस परम
मालिक के साथ
ऐसे खेलने लगा
है,
जैसे खेलने
की रीति है।
उस मालिक के
साथ लीला में
रत हो गया है।
उस
मालिक के साथ
पहचान ही उनकी
होती है, जो
खेलने की रीति
समझ लेते हैं।
संसार एक खेल है;
जब तक तुमने
इसे गंभीरता
से लिया है, तब तक तुम
समझ न पाओगे।
अस्तित्व एक
लीला है; इसे
गंभीरता से मत
लो——हंसो, नाचो, गाओ,
उत्सव
मनाओ।
...जैसे
खेलण की रीत्यो
है।
इसे
खेल समझो। उस
प्यारे ने एक
नाटक रचाया है, तुम्हें
एक अभिनय दिया
है, पूरा
करो।
खालिक सूं खेल्यो
जैसे खेलण
की रीत्यो
है।
और फिर
जिंदगी—भर
वाजिद उस रति
में डूबे रहे, उस
परम रति में, उस परम भोग
में डूबे रहे;
और खेलते
रहे खेल जैसा
परमात्मा ने
खिलाया, जैसी
रीति है। जरा
रीति में भेद
नहीं डाला, सब तरह से
समर्पित हो गए,
उसके हाथ की
कठपुतली हो
गए!
अरध
नाम पाषाण तिरे
नर लोइ
रे।
तेरा
नाम कह्यो
कलि मांहिं
न बूड़े कोइ रे।।
कर्म
सुक्रति इकवार विलै
हो जाहिंगे।
हरि
हां, वाजिद,
हस्ती के
असवार न कूकर खाहिंगे।।
सीधे—सादे
वचन हैं: अरध
नाम पाषाण तिरे
नर लोइ
रे।
राम का
आधा नाम लेकर
भी बंदरों ने
पत्थरों को तैरा दिया
था सागर में!
पूरा नाम बंदर
ले भी न सकते थे, "रा'
इतना ही कह
पाते थे। मगर
इतना काफी है;
इशारे समझे
जाते हैं, भाव
समझे जाते हैं;
भाव का
मूल्य है।
चमत्कार हो
गया था, आधे
नाम के लेने
से पत्थर तैरा
दिए! पत्थरों
की नावें बना
दीं!
अरध
नाम पाषाण तिरे
नर लोइ
रे।
तेरा
नाम कह्यो
कलि मांहिं
न बूड़े कोइ रे।।
और
तेरा नाम
जिसके
प्राणों में
समा गया, वह इस
कलियुग में भी
डूबा नहीं।
कलियुग
में डूबना
आसान मालूम
होता है, क्योंकि
चारों तरफ
डूबने के उपाय
हैं, चारों
तरफ जाल फैला
हुआ है वासना
का! वासना रोज
सघन होती जाती
है, तृष्णा
गहन होती जाती
है। और चारों
तरफ जो लोग
हैं, वे सब
वासना में दौड़
रहे हैं, तृष्णा
में भागे जा
रहे हैं। तो
जब नया
व्यक्ति
जन्मता है इस
जगत में, तो
स्वभावतः
आसपास के
लोगों से ही
सीखता है। महत्वाकांक्षा
सबको ज्वर की
तरह पकड़े
हुए है, उसको
भी पकड़ लेती
है।
कलियुग
का अर्थ क्या
होता है? कलियुग
का अर्थ होता
है——जहां
व्यर्थ का
मूल्य है और
सार्थक का कोई
मूल्य नहीं; जहां संत का
कोई मूल्य
नहीं है, राजनेता
का मूल्य है; जहां ध्यान
का कोई मूल्य
नहीं है, धन
का मूल्य है; जहां प्रेम
का कोई मूल्य
नहीं है, चालबाजी,
गणित, तर्क,
चतुरता, इस
सबका मूल्य
है। जहां
प्रेमी लुट
जाता है, लूट
लिया जाता है,
और जहां
चालबाज सफल हो
जाते हैं।
जहां
ईमानदारी
मृत्यु बन जाती
है और जहां
बेईमानी जीवन
का सार है!
जहां जो जितना
सफल होता है, वह उसी
मात्रा में
सफल हो पाता
है जिस मात्रा
में चालबाज हो,
चतुर हो, कुशल हो, जिस
मात्रा में
षडयंत्र की
क्षमता हो।
कलियुग का
अर्थ होता है——जहां
सारे लोग
व्यर्थ के लिए
दौड़े जा रहे
हैं, जहां कूड़ा—करकट
मूल्यवान हो
गया है! जहां
परमात्मा की
किसी को याद
ही नहीं! जहां
इस जिंदगी में
और सब कर लेना
है, सिर्फ
परमात्मा को
छोड़ देना है!
ऐसे
कलियुग में भी
जो तेरे नाम
से जुड़ गया, वाजिद
कहते हैं, वह
नहीं डूबा। यह
सारा संसार डुबाने को
तत्पर रहा, लेकिन जो
तेरे नाम से
जुड़ गया, वह
तिर गया!
पाषाण भी
नावें बन जाते
हैं, उसके
नाम का
चमत्कार!
तुम
जरा उसकी याद
से भरो और तुम
चकित होने लगोगे!
जैसे ही उसकी
याद तुम्हारे
भीतर उतरनी
शुरू होती है, वैसे
ही तुम बाहर
के जाल से
टूटने लगते हो,
बाहर के जाल
की मूढ़ता
तुम्हें
दिखाई पड़ने
लगती है। धीरे—धीरे
तुम बाजार में
खड़े रह जाते
हो, लेकिन
अकेले।
तुम्हारा
संबंध
परमात्मा से जुड़
जाता है, भीड़
से टूट जाता
है। यही उबरना
है। जब तक तुम
भीड़ के हिस्से
हो, तब तक
तुम डूबोगे, तब तक संसार
ने तुम्हें डुबाया
है। संसार को
छोड़ने का एक
ही अर्थ होता
है——भीड़ से
मुक्त हो
जाना। भीड़ ने
तुम्हें
धारणाएं दी
हैं, विचार
दिए हैं; भीड़
ने तुम्हें
वासनाएं दी
हैं, एषणाएं दी हैं, महत्वाकांक्षाएं दी हैं। भीड़
से मुक्त हो
जाने का अर्थ
है——इन सबकी
व्यर्थता को
देख लेना।
लेकिन
यह तो तभी
दिखाई पड़ेगा, जब
राम के नाम
में थोड़ा रस जगे, परमात्मा
में थोड़ी झलक
मिले, परमात्मा
में थोड़ी गति
हो।
तेरा
नाम कह्यो
कलि मांहिं
न बूड़े कोइ रे।
कर्म
सुक्रति इकवार विलै
हो जाहिंगे।
ख्याल
करना, वाजिद
कहते हैं, कर्म
भी चले जाएंगे,
बुरे कर्म
भी चले जाएंगे,
अच्छे कर्म
भी चलें
जाएंगे, दोनों
विलीन हो
जाएंगे, तुम
जरा उसकी याद
करो! क्योंकि
अच्छा कर्म हो
कि बुरा कर्म
हो, दोनों
कर्म अहंकार
को मजबूत करते
हैं, कर्ता
को मजबूत करते
हैं। और अक्सर
ऐसा हो जाता
है, अच्छे
कर्म ज्यादा
मजबूत करते
हैं बुरे कर्म
की बजाय, क्योंकि
अच्छे कर्म का
मजा ज्यादा
होता है! तुम
बुरे कर्मों
की तो चर्चा
करते नहीं
किसी से, अच्छे
कर्मों की
चर्चा करते
हो! तुम दो
पैसे का दान
दे देते हो, तो दो लाख का
बताने लगते
हो! तुम दो लाख
की चोरी करते
हो, अगर
पकड़ा भी जाओ, तो दो पैसे
की बताने की
कोशिश करने
लगते हो।
एक
आदमी पकड़ा गया, अस्सी
मील की रफ्तार
से जा रहा था
कार को चलाता।
मजिस्ट्रेट
के सामने उसने
कहा कि नहीं—नहीं,
अस्सी मील
से मैं नहीं
जा रहा था, ज्यादा
से ज्यादा तीस—चालीस
मील।
मजिस्ट्रेट
भरोसा करता
मालूम पड़ा, तो उसने कहा
कि सच अगर आप
पूछें, तो
पंद्रह—बीस
मील।
मजिस्ट्रेट
फिर भी भरोसा
करता मालूम पड़ा,
तो उसने कहा
कि सच पूछिए
तो मैंने बस
गाड़ी शुरू ही
की थी।
मजिस्ट्रेट
ने कहा: बस अब
रुको, नहीं
तो तुम पीछे
जाने लगोगे!
और पीछे दूसरी
गाड़ियां
खड़ी हैं, उनसे
टकरा जाओगे।
जरा रुको!
एक
दुकानदार, चश्मे
बनाने वाला
दुकानदार
अपने बेटे को
समझा रहा था
कला, जा
रहा था कुछ
यात्रा पर
बाहर, तो
बेटे को समझा
रहा था। बेटे
ने पूछा कि
किस प्रकार से
दाम लेने? तो
उसने कहा, ऐसा
करना, जितने
दाम चश्मे के
हैं, दस
रुपए समझो, पहले ग्राहक
को कहना कि दस
रुपए। और देखो
कि वह जरा
विचलित नहीं
हुआ, तो
कहना कि एक
कांच के। देखो
कि अभी भी
विचलित नहीं
हुआ, बीस
रुपए हो गए
दाम अब, अभी
भी विचलित
नहीं हुआ, तो
कहना फ्रेम के
अलग। देखो, अभी भी
विचलित नहीं
हुआ, तो
कहना सेल
टैक्स ऊपर से।
देखते रहना, नजर ग्राहक
पर रखना; दाम
चश्मे के नहीं
होते, दाम
निर्णीत होते
हैं ग्राहक पर;
जितना खींच
सको, खींच
लेना। अगर
भरोसा करता ही
चला जाए, मानता
ही चला जाए, तो तुम भी
आगे बढ़ते चले
जाना!
इस जगत
में हम जो
बुरे कर्म
करते हैं, उनको
तो छोटा करने
लगते हैं; और
जो छोटे—मोटे
अच्छे कर्म कर
लेते हैं, उनको
बड़ा करने लगते
हैं! बुरे
कर्म में तो
हम पकड़ा जाएं
तो ही स्वीकार
करते हैं, तो
भी मुश्किल से
स्वीकार करते
हैं। अच्छे कर्म
में तो हम ढोल
बजाते हैं, हम सारे
गांव में डुंडी
पिटवाते हैं!
अगर तुमने एक
दिन उपवास कर
लिया, तो
तुम चाहते हो
सारे गांव को
पता चल जाए कि
तुमने उपवास
किया है। अगर
तुमने मंदिर
में जाकर पूजा
कर ली, तो
तुम चाहते हो
अखबार में खबर
छपे कि तुमने
पूजा की है!
तुम अगर दो
पैसे किसी
गरीब को दे
देते हो, तो
तुम तभी देते
हो, जब
तुम्हें
पक्का हो जाए
कि अखबार का
फोटोग्राफर
मौजूद है!
अच्छे कर्म से
तो तुम्हारा
अहंकार और
बढ़ता है।
इसलिए
वाजिद ठीक
कहते हैं:
कर्म
सुक्रति इकवार विलै
हो जाहिंगे।
बुरे
कर्म भी चले
जाएंगे, अच्छे
कर्म भी चले
जाएंगे——कर्ता
का भाव ही चला
जाएगा, एक
बार उस मालिक
की याद आए।
क्योंकि वही
कर्ता है, हम
कर्ता नहीं
हैं। वह करवा
रहा है, वही
हम कर रहे
हैं। यह है
खेलने की
रीति।
खालिक सूं खेल्यो
जैसे खेलण
की रीत्यो
है।
हरि
हां, वाजिद,
हस्ती के
असवार न कूकर खाहिंगे।।
अब
ख्याल रखो, वाजिद
कहते हैं कि
जैसे कोई हाथी
पर चढ़ा है, उसको
कुत्तों के
भौंकने से
क्या भय है?
हस्ती
के असवार न
कूकर खाहिंगे।।
अब
कुत्ते उसे
काट नहीं सकते
जो हाथी पर चढ़ा
है। ऐसे ही जो
रामनाम के
हाथी पर चढ़
गया,
इस संसार के
कूकर, इस
संसार के
कुत्ते उसे
नहीं काट पाते,
भौंकने दो!
हरि
हां, वाजिद,
हस्ती के
असवार न कूकर खाहिंगे।।
एक बार
तुम रामनाम की
ऊंचाई पर उठो, फिर
इस जगत की सब
चीजें नीचे पड़
जाती हैं, जैसे
हाथी पर बैठे
आदमी को
कुत्ते नीचे
पड़ जाते हैं; भौंकते रहने दो! न
हाथी फिक्र
करता कुत्तों
के भौंकने की,
न हाथी पर
सवार फिक्र
करता कुत्तों
के भौंकने की।
हाथी की ऊंचाई
ऐसी है! हाथी
की मस्ती ऐसी
है!
कुत्तों
की तो बात छोड़ो, ईसप
की कहानी है, सिंह को एक
दिन सुबह—सुबह
ख्याल उठा कि
बहुत दिन से
किसी ने मुझसे
यह नहीं कहा
कि तुम सम्राट
हो जंगल के।
पकड़ा एक लोमड़ी
को, कहा:
बोल, सम्राट
कौन है? लोमड़ी ने कहा:
मालिक, आप
और पूछ रहे
हैं! क्या
आपको भूल गया?
आप ही तो
हैं सम्राट!
आपके सिवाय और
कौन? आपकी
ही प्रशंसा के
गीत गाए जा
रहे हैं! चला
आगे, पकड़ा
एक हिरण को।
हिरण ने कहा
कि आप ही हैं, आपके
अतिरिक्त कभी
कोई नहीं।
ऐसे और
दस—पांच
जानवरों को
पकड़ा, बड़ा अकड़
गया। मिल गया
तब हाथी, हाथी
से पूछा कि
तुम्हें
मालूम है, कौन
सम्राट है
जंगल का? हाथी
ने अपनी सूंड़
में लपेटा
सिंह को और
इतने दूर
फेंका कि जब
वह नीचे गिरा
तो हड्डी चरमरा
गई! बामुश्किल
उठ पाया; धूल
झाड़कर
बोला कि यह भी
खूब हो गई, अगर
तुमको ठीक
उत्तर मालूम
नहीं, तो
कह देते कि
नहीं मालूम।
इस तरह सूंड़
में उठाकर
फेंकने की
जरूरत क्या थी?
उत्तर नहीं
मालूम, हम
समझ जाते कि
नहीं मालूम।
मगर
हाथी को उत्तर
देने की जरूरत
नहीं पड़ती, यही
उसका उत्तर
है! हाथी पर जो
सवार है, वह
एक ऊंचाई पर
सवार है!
वाजिद, मैंने
कहा, सीधे—सादे
आदमी हैं।
उनके प्रतीक
भी सीधे—सादे
हैं; मगर
सीधे—सादे
प्रतीक
अभिव्यक्ति
में सचोट होते
हैं! हाथी पर
चढ़े आदमी को
कुत्ते के
भौंकने का
क्या संबंध, क्या फिक्र?
कहावत है:
कुत्ते भौंकते
रहते हैं, हाथी
चला जाता है।
हाथी लौटकर भी
नहीं देखता, कुत्ते बिगाड़ेंगे
क्या!
तुम्हारी
ऊंचाई जितनी
बढ़ने लगती है, उतनी
ही संसार की
सारी एषणाएं,
तृष्णाएं, महत्वाकांक्षाएं छोटी पड़
जाती हैं, तुम्हारा
कुछ भी नहीं
बिगाड़ पातीं।
और राम के साथ
ही ऊंचाई बढ़ती
है, क्योंकि
राम ऊंचाई का
ही दूसरा नाम
है——चैतन्य की
ऊंचाई! चेतना
का आरोहण!
तेरा
गम राज मेरा, खामोशी
मेरी, सुखन
मेरा
यही
है रूह मेरी, हुस्न
मेरा, पैरहन
मेरा
मेरा
मस्कन, मेरी
मंजिल, न
दुनिया है न उक्बा है
तेरे
दिल के किसी गोशे में था
शायद वतन मेरा
मेरा
मस्कन, मेरी
मंजिल, न
दुनिया है न उक्बा है
न तो यह
दुनिया मेरा
घर है और न
परलोक मेरा घर
है,
न यह लोक न
वह लोक मेरा
घर है।
तेरे
दिल के किसी गोशे में
था शायद वतन
मेरा
अगर
मेरा घर कहीं
है,
अगर मेरी
मातृभूमि
कहीं है, तो
वह तेरे हृदय
में है, परमात्मा
तेरे हृदय में
है।
तेरे
दिल के किसी गोशे में
था शायद वतन
मेरा
इसलिए
जो उसके हृदय
में प्रविष्ट
हो जाता है, उसको
अपना घर मिल
जाता है, अपनी
मातृभूमि मिल
जाती है। वह
स्वदेश लौट आया।
अन्यथा सब
परदेश में
हैं। और कौन
उसके हृदय में
जगह पा सकता
है? जो पहले
उसे अपने हृदय
में जगह दे।
यह खेलने की
रीति!
खालिक सूं खेल्यो
जैसे खेलण
की रीत्यो
है।
क्या
है खेलने की
रीति? उसको
अपने हृदय में
जगह दो, तो
तुम्हारी जगह
उसके हृदय में
हो जाती है।
रामनाम
की लूट फबी
है जीव कूं।
और एक
बार तुम्हें
स्वाद लग जाए
उसका, तो फिर लूटोगे!
फिर छोटा—मोटा
काम नहीं रह
जाएगा।
रामनाम
की लूट फबी
है जीव कूं।
फिर तो
जंच जाएगी
लूट! लूटने
योग्य अगर कुछ
है,
तो राम का
नाम है। भोगने
योग्य अगर कुछ
है, तो राम
का नाम है।
जीने योग्य
अगर कुछ है, तो राम का
नाम है। फिर लूटोगे!
फिर ऐसा थोड़े
ही कि लेने
में भी कंजूसी
करोगे, कि
चुल्लू—चुल्लू
पीयोगे, फिर तो सागर
पूरा पी जाना
चाहोगे!
रामनाम
की लूट फबी
है जीव कूं।
वाजिद
कहते हैं कि
मेरे प्राणों
में तो अब तुम
ऐसे फब गए, तुम
ऐसे जंच गए, कि अब
तुम्हें
लूटता ही रहता
हूं चौबीस
घंटे।
और
लूटने से वह
चुकता नहीं। ईशावास्य
कहता है:
पूर्ण से हम
पूर्ण को भी
निकाल लें, तो
भी पीछे पूर्ण
ही रह जाता
है। तुम कितना
ही लूटो, परमात्मा
लुटता नहीं, अनंत है।
तुम लूटते जाओ,
वह उतना का
उतना शेष है, तुम उसे
चुका न पाओगे!
इसलिए पीयो,
जी भर के पीयो!
रामनाम
की लूट फबी
है जीव कूं।
निसवासर
वाजिद सुमरता
पीव कूं।।
इसलिए
मैं चौबीस
घंटे पीता हूं——निसवासर——रात
और दिन, जागते
और सोते तुझे
पीता चला जाता
हूं।
निसवासर
वाजिद सुमरता
पीव कूं।।
इसलिए
तुझ प्यारे को
ही याद करता
हूं,
बस तेरी याद
मेरी श्वास—श्वास
में बसी है।
सबसे
अच्छी है वह
बंसी, जिसमें
हों आवाजें
तेरी
सबसे
मीठी है वह
बोली, जिसमें
हो पैगाम तेरा
फिर
धीरे—धीरे सभी
में सुनाई
पड़ने लगती है
उसकी आवाज। कोयल
बोली, और उसकी
आवाज सुनाई
पड़ी! और पपीहा
ने पुकारा, और उसकी
पुकार आ गई!
हवा का झोंका
आया और वृक्ष नाचे,
और
तुम्हारे
भीतर कोई
नाचने लगा!
सूरज उगा, किरणें
बिखरीं, और तुम्हारे
भीतर भी रोशनी
जल उठी! रात
हुई, आकाश
में तारे छितर
गए, और
तुम्हारे
भीतर भी तारों
से भरा आकाश
छा गया! फिर हर
तरफ से उसके
इशारे आने
लगते हैं। एक
बार इशारा आना
शुरू हो, नाता
भर बने; पहले
बूंद—भर भी
परमात्मा
तुम्हारे
भीतर उतर जाए,
तो फिर पूरा
का पूरा सागर
उतर आता है!
निसवासर
वाजिद सुमरता
पीव कूं।।
यही
बात परसिद्ध
कहत सब
गांव रे।
और वे
कहते हैं कि
जितने लोग
जानने वाले
हैं,
जो भी जाग
गए हैं, वे
सभी यही कहते
हैं।
यही
बात परसिद्ध...
यही
बात प्रसिद्ध
है।
हरि
हां, अधम अजामिल तिरयो नारायण—नांव
रे।।
कि
पापी अजामिल, कहते
हैं गांव के
लोग, तुम्हारे
नाम से ही तिर
गया था——सिर्फ
नाम से, सिर्फ
नाम की याद से तिर गया था!
कहियो
जाय सलाम
हमारी राम कूं।
नैण
रहे झड़ लाय
तुम्हारे नाम कूं।।
कमल
गया कुमलाय
कल्यां
भी जायसी।
हरि
हां, वाजिद,
इस बाड़ी में
बहुरि न भंवरा
आयसी।।
वाजिद
कहते हैं, अब
नहीं लौटूंगा
दोबारा इस
दुनिया में।
कमल तो सूख ही
गए, कलियां
भी सूखती जाती
हैं। अब नहीं
लौटूंगा इस
जगत में। चेतन
वासनाएं तो
सूख ही गईं, अचेतन
वासनाएं भी
सूखती चली
जाती हैं। बड़ा
प्यारा
प्रतीक लिया
है कि कमल गया कुमलाय कल्यां भी जायसी। जो
फूल गए थे, जो
खिल गए थे, जो
पहचान में आ
गए थे, वे
तो सब छूट गए; अभी जो
पहचान में
नहीं आई हैं
बातें, कहीं
भीतर दबी पड़ी
हैं, अचेतन
गर्त में पड़ी
हैं, अभी
कलियां हैं, फूल नहीं
बनी हैं, वे
भी कुम्हला
जाएंगी।
क्योंकि जब
फूल कुम्हला
गए, तो
कलियां भी
कितनी देर रुकेंगी!
कमल
गया कुमलाय
कल्यां
भी जायसी।
हरि
हां, वाजिद,
इस बाड़ी में
बहुरि न भंवरा
आयसी।।
अब यह भंवरा इस
बाड़ी में, इस
संसार में
दुबारा न
आएगा। अब तो
तुम्हारे नाम
की लूट मची है!
अब तो तुम में
ही डूबूंगा।
अब तो यह भंवरे
ने असली कमल
पा लिया! अब
तुम्हारे
अतिरिक्त
कहीं और जाना
नहीं। अब खिंचा
आ रहा हूं, जैसे
कोई चुंबक
खींचे लिए जा
रहा हो।
तुम्हारी
आंखों में इस
तरह है, यह
उठती—गिरती
निगाह "उजरा'
शराबखाने
में जैसे कोई
पीए हुए लड़खड़ा
रहा हो
हवा
भी पगली, घटा
भी पगली, अभी है धूप, अभी है बदली
कि
जैसे कोई नकाब
रुख से उठा
रहा हो, गिरा
रहा हो
उठता
उसका घूंघट, गिरता
उसका घूंघट, झलकें उसकी
मिलती जाती
हैं, बढ़ती
जाती हैं; रस
सघन होता जाता
है।
शराबखाने
में जैसे कोई
पीए हुए लड़खड़ा
रहा हो
कि
जैसे कोई नकाब
रुख से उठा
रहा हो, गिरा
रहा हो
हवा
भी पगली, घटा
भी पगली, अभी है धूप, अभी है बदली
अब तो
सब सुख—दुख बस
तेरे चेहरे पर
उठते—गिरते
हुए परदे की
तरह मालूम
होते हैं, और
कुछ भी नहीं
है। अभी रात, अभी दिन, अभी
है घटा, अभी
है धूप, अभी
आ गई छाया, अब
ये सब खेल मैं
देख रहा हूं; ये सब तेरे
ही चेहरे से
उठती हुई नकाब
हैं, और
मैं धीरे—धीरे
तेरी शराब में
डूबता जा रहा
हूं!
चटक चांदणी
रात बिछाया
ढोलिया।
चटक चांदणी
रात। उज्ज्वल
चांदनी रात है, पूर्णिमा
की रात है——ऐसी
मेरी हालत है।
रात बिछाया
ढोलिया। और
मैंने सेज लगा
दी है। गरीब
आदमी!
चटक चांदणी
रात बिछाया
ढोलिया।
मैंने
अपना पलंग लगा
दिया है।
भर भादव की रैण पपीहा बोलिया।।
और
भरे—भादों की
रात और पपीहा
बोलने लगा।
कोयल
सबद सुणाय
रामरस लेत है।
और
कोयल पुकारने
लगी और मुझे
रामरस आ रहा
है,
पपीहा
पुकारता है और
मुझे रामरस आ
रहा है, कोयल
पुकारती है और
मुझे रामरस आ
रहा है, क्योंकि
मुझे सब
पुकारों में
तेरे ही नाम
की गूंज सुनाई
पड़ती है!
तुमने
कभी यह बात
देखी, रेल में
बैठे—बैठे कभी
तुमने देखा, इंजन की छक—छक,
छक—छक, छूं—छक,
तुम जो चाहो
उसमें सुन लो;
तुम जो चाहो
उसमें सुन लो।
कभी कोशिश
करना, जो
भी सुनना
चाहोगे, सुनाई
पड़ने लगेगा।
इस जगत में हम
जो भी सुनना
चाहते हैं, वही सुनाई
पड़ने लगता है।
यह जगत बड़ा
सहयोगी है। जो
इस जगत में
काम देखना
चाहता है, उसे
काम दिखाई
पड़ने लगता है;
जो राम
देखना चाहता
है, उसे
राम दिखाई
पड़ने लगता है।
यह जगत, तुम
जो देखना
चाहते हो, वही
दिखा देता है!
कोयल
सबद सुणाय——जैसे
कि कोयल वेद बोल
रही! सबद सुणाय——जैसे
कि कोयल के
कंठ से कुहू—कुहू
नहीं निकल रही, उपनिषदों
का जन्म हो
रहा है!
कोयल
सबद सुणाय
रामरस लेत है।
मैं भी
रामरस ले रहा
हूं और लगता
है वह भी रामरस
ले रही है!
हरि
हां, वाजिद,
दाज्यो ऊपर लूण
पपीहा देत
है।।
और
कहते हैं कि
हां,
याद रखना, हरि हां, वाजिद,
दाज्यो ऊपर लूण
पपीहा देत
है। और जब
पपीहा
पुकारता है:
पी कहां! पी
कहां! तो मेरी
हालत ऐसी हो
जाती है, जैसे
किसी ने घाव
पर नमक छिड़क
दिया! मैं भी
पुकार रहा
हूं: पी कहां!
पी कहां! और पपीहा
भी पुकारने
लगता है, तब
जैसे कोई मेरे
घाव पर नमक छिड़क
दे, ऐसी
पीड़ा उठती है,
ऐसी सघन
पीड़ा उठती है!
तुझे पाने के
लिए ऐसी प्यास
जगती है, जैसे
कोई घाव पर
नमक छिड़क
दे!
रैण
सवाई वार
पपीहा रटत
है।
ज्यूं—ज्यूं सुणिये
कान करेजा
कटत है।।
खान—पान
वाजिद सुहात
न जीव रे।
हरि
हां, फूल भये सम सूल
बिना वा पीव
रे।।
तेरे
बिना फूल भी
शूल हो जाते
हैं,
तेरे साथ
शूल भी फूल हो
जाते हैं। तू
है तो रात भी
दिन है, तू
नहीं तो दिन
भी रात है। तू
है तो मृत्यु
भी जीवन है, तू नहीं तो
जीवन भी
मृत्यु है। तुझमें
सफलता है, तेरे
बिना असफलता
है। तू है तो
साथ है, तू
नहीं तो सारा
जगत है तो भी
मैं अकेला
हूं।
रैण
सवाई वार
पपीहा रटत
है।
रात
बीतने लगी और
पपीहा है कि
रटता ही चला
जाता है।
ज्यूं—ज्यूं सुणिये
कान करेजा
कटत है।।
और
जैसे—जैसे
सुनता हूं पपीहे
की पुकार को, मेरे
प्राणों में
तीर चुभा
जा रहा है!
मेरा प्राण
कंप रहा है, कट रहा है!
छाती मेरी कोई
जैसे बेध रहा
है!
होने
ही को है ऐ दिल!
तकमील
मुहब्बत की
एहसासे—मुहब्बत
भी मिटता नजर
आता है
जब
प्रेम की
पूर्णता करीब
आने लगती है, तो
सब मिटने लगता
है——सब! प्रेमी
पूरी तरह
मिटने लगता
है।
एहसासे—मुहब्बत
भी मिटता नजर
आता है
तब तो
यह भी पता
नहीं चलता कि
मैं प्रेमी
हूं,
कि मुझे
प्रेम है; सब
मिट जाता है, अस्मिता मिट
जाती है। और
जब अस्मिता
मिट जाए, तभी
जाना——
होने
ही को है ऐ दिल!
तकमील
मुहब्बत की
अब
प्रेम पूर्ण
होने के करीब
आ रहा है। जब
तुम पूरे
मिटने लगो, तभी
जानना कि
प्रेम पूरे
होने के करीब
आ रहा है; जब
तक तुम हो, जितने
तुम हो, उतनी
प्रेम में कमी
है।
पंछी
एक संदेस
कहो उस पीव सूं।
किससे
भेजें संदेश? कौन
ले जाएगा उस
दूर आकाश में?
पंछी
एक संदेस
कहो उस पीव सूं।
तो
कहते हैं, ऐ
कोयल, मेरा
संदेश भी
पहुंचा देना!
कि ऐ पपीहे,
मेरा संदेश
भी पहुंचा
देना!
पंछी
एक संदेस
कहो उस पीव सूं।
विरहनि है
बेहाल जाएगी
जीव सूं।।
कह
देना अगर कहीं
परमात्मा
तुम्हें मिल
जाए कि कोई
तुम्हारे
विरह में मरा
जा रहा है; अगर
तुम न आए समय
पर, तो हाथ
से विरहिणी के
प्राण निकल
जाएंगे!
विरहनि है
बेहाल जाएगी
जीव सूं।।
मरने
के करीब है
कोई, बस
दीया बुझा—बुझा
है।
होने
ही को है ऐ दिल!
तकमील
मुहब्बत की
एहसासे—मुहब्बत
भी मिटता नजर
आता है
तो जाओ
कह दो पंछी कि
अब कोई बिलकुल
आखिरी घड़ी में
है। अब और देर
न करो, आ जाओ, उतर आओ, अन्यथा
यह विरहिणी के
प्राण गए!
सींचनहार
सुदूर सूक भई लाकरी।
तुम
इतने दूर हो
सींचने वाले
कि मेरी लता
तो सूखकर
लकड़ी हो गई।
सींचनहार
सुदूर सूक भई लाकरी।
हरि
हां, वाजिद,
घर ही में
बन कियो बियोगनि बापरी।।
और
मेरा घर ही
जंगल हो गया
है,
बियाबान हो
गया है; मुझे
कहीं जाना
नहीं पड़ा, जंगल
जाना नहीं पड़ा,
तेरे प्रेम
में, तेरे
विरह में, घर
में ही जंगल
हो गया है!
परमात्मा मिल
जाए, तो
जंगल में मंगल
है; और
परमात्मा न
मिलता हो, विरह
की रात हो, तो
घर में भी
जंगल ही है।
जंगल कहां
जाना है! लोग
जंगल जाते हैं,
बड़े पागल
हैं! विरह में
जाओ, तो
जहां हो वहीं
जंगल है; और
विरह में जलो,
तो जहां हो
वहीं जंगल है।
और विरह में
ऐसे जलो
कि राख ही रह
जाए, सब
मिट जाए।
होने
ही को है ऐ दिल!
तकमील
मुहब्बत की
एहसासे—मुहब्बत
भी मिटता नजर
आता है
और जब
तुम्हें लगे
कि बस, शमा की
आखिरी घड़ी आ
गई और ज्योति
बुझने ही बुझने
को है——चुक गया
तेल, चुक
गई बाती, आखिरी
क्षण है——अब
बुझी तब बुझी,
तब समझ लेना
कि प्रेम की
पूर्णता आ गई!
इसी महामृत्यु
में, अहंकार
के इसी
विसर्जन में,
परमात्मा
परिपूर्ण रूप
से उतर आता
है।
बालम
बस्यो विदेस
भयावह भौन
है।
सोवै
पांव पसार जु
ऐसी कौन है।।
अति
ही कठिण
यह रैण
बीतती जीव कूं।
हरि
हां, वाजिद,
कोई चतुर
सुजान कहै जाय
पीव कूं।।
बालम
बस्यो विदेस
भयावह भौन
है।
बड़ी
भयानक रात है, क्योंकि
बालम, प्यारा,
बड़ा दूर बसा
है। बालम बस्यो
विदेस!
कहां तुम छिप
गए हो? कहां
तुम बस गए हो? किन दूरियों
पर तुम हो? बड़ी
भयानक रात है।
विरह की रात, बड़ी अंधेरी
रात, बड़ी
अमावस की रात
है!
सोवै
पांव पसार जु
ऐसी कौन है।।
ऐसी
कौन होगी
प्रेयसी, जो
प्रेमी दूर
गया हो और
पांव पसारकर
सो जाए! जो
पांव पसारकर
सो रहे हैं, उन्हें कुछ
भी पता नहीं
है, उन्हें
प्रेमी का कोई
पता नहीं, उन्हें
प्यारे का कोई
पता नहीं।
जापान
में एक सम्राट, रात
अपनी राजधानी
में घूमता था
घोड़े पर सवार
होकर रोज
देखने, सुनने,
समझने कि
हालात क्या
हैं! रोज एक
फकीर के पास से
गुजरता था, वह वृक्ष के
नीचे हमेशा
खड़ा हुआ मिलता——सजग,
जागरूक।
सम्राट के मन
में जिज्ञासा
उठनी शुरू हुई——सोता
भी है यह आदमी
कि नहीं? एक
दिन रुका और
पूछा कि एक
जिज्ञासा
मेरे मन में
है। जब भी
यहां से
गुजरता हूं——कभी
आधी रात भी
गुजरा हूं, कभी रात
बीतने लगी, भोर होने
लगी, तब भी
गुजरा हूं——लेकिन
तुम्हें सदा
मैंने जागा
हुआ, खड़े
पाया। तुम
क्यों जागे
हुए खड़े रहते
हो? उस
फकीर ने कहा:
जब तक उससे
मिलन न हो जाए,
तब तक सोना
असंभव है।
जागता हूं, कौन जाने कब
उसका आगमन हो
जाए——किस घड़ी!
जीसस
ने कहानी कही
है अपने
शिष्यों को कि
इस तरह जागो, जिस
तरह एक मालिक,
एक धनपति
तीर्थयात्रा
को गया। और
अपने राजमहल
में अपने
नौकरों को कह
गया कि जागे
रहना; मैं
कभी भी आ जाऊंगा,
किसी भी
क्षण आ जाऊंगा।
घर साफ—सुथरा
रहे, जैसा छोड़
जा रहा हूं
ठीक ऐसा रहे।
आधी रात भी आ
जाऊं, तो
जागे मिलना!
कब आ जाऊंगा,
कुछ पता
नहीं——आज आ
जाऊं, कल आ
जाऊं, परसों
आ जाऊं, महीने
लगें, साल
लगें——तुम
जागे रहना!
जीसस
ने कहा है:
परमात्मा कब आ
जाएगा, कुछ
पता नहीं।
परमात्मा
अतिथि है, तिथि
बिना बताए आ
जाता है——यह
अतिथि का मतलब
होता है——कब आ
जाएगा, अचानक!
ऐसा न हो कि आए
परमात्मा और
तुम्हें सोया
हुआ पाए, और
लौट जाए!
सोवै
पांव पसार जु
ऐसी कौन है।।
जिसको
याद आनी शुरू
हो गई
परमात्मा की, वह
पांव पसारकर
नहीं सो सकता।
यही जीवन तब
साधना बन जाता
है; अभी
निद्रा है, तब जागरण का
प्रयास बन
जाता है। फिर
उसे ध्यान कहो,
प्रार्थना
कहो, या जो
भी नाम तुम
देना चाहो——जागरण
के ही उपाय
हैं।
बालम
बस्यो विदेस
भयावह भौन
है।
सोवै
पांव पसार जु
ऐसी कौन है।।
अति
ही कठिण
यह रैण
बीतती जीव कूं।
यह
विरह की रात
बड़ी कठिनाई से
बीतती है, बड़ी
लंबी मालूम
होती है।
समय
कोई
सुनिश्चित
चीज नहीं है, समय
बहुत लचीली
चीज है। जब
तुम सुख में
होते हो, जल्दी
बीत जाता है; जब तुम दुख
में होते हो, देर से
बीतता है।
अलबर्ट
आइंस्टीन ने
विज्ञान के
जगत में
सापेक्षवाद, रिलेटिविटी
के सिद्धांत
को जन्म दिया,
कि हर चीज
सापेक्ष है, कोई चीज थिर
नहीं है, विभिन्न
संदर्भों में
विभिन्न हो
जाती है। किसी
ने उससे पूछा
कि तुम्हारा
सिद्धांत तो
बहुत जटिल है
और लोग कहते
हैं कि पूरी
पृथ्वी पर केवल
बारह आदमी हैं
जो उसे ठीक से
समझते हैं। लेकिन
कुछ सरलता से
समझा दो हमें
भी, सार की
बात समझा दो।
तो उसने कहा:
सार की बात
इतनी है कि
ऐसा समझो कि
जिस प्रेयसी
को पाने के
लिए तुम
दीवाने थे, वह तुम्हें
मिल गई, तो
घंटा ऐसे बीत
जाएगा, जैसे
क्षण में बीत
गया! घड़ी एकदम
से घूमती मालूम
पड़ेगी। रात
ऐसे बीत जाएगी,
जैसे बड़ी
छोटी हो गई! और
समझो कि तुम
किसी मित्र के
पास बैठे हो, जो मरणशय्या
पर पड़ा है——अब
मरा, तब
मरा। रात बड़ी
लंबी हो
जाएगी! घड़ियां
ऐसे बीतेंगी
जैसे सदियां!
समय
मनोवैज्ञानिक
तथ्य है। तुम
जब प्रसन्न होते
हो,
जल्दी
बीतता लगता है;
तुम जब दुखी
होते हो, सरकता,
घसिटता लगता है। और
सबसे बड़े दुख
की बात जीवन
में एक ही है
कि परमात्मा
से मिलन न हो।
परमात्मा से अलग
होना नरक है——और
स्वाभाविक, रात बड़ी
मुश्किल से
बीतती मालूम
पड़ती है! और परमात्मा
से जब तक नहीं
मिले तब तक
रात ही रात है!
संत
अगस्तीन ने
कहा है: जब
परमात्मा को
देखा, तब पता
चला कि दिन
कैसा होता है!
श्री
अरविंद का वचन
है: कि जब तक
उसे नहीं देखा, तब
तक तुमने
मृत्यु को
जीवन समझा है,
रात को दिन
समझा है, अंधेरे
को प्रकाश
समझा है। जब
उसे देखोगे,
तब तुम्हें
पता चलेगा।
जीवन के सारे
मूल्यांकन
बदलने होंगे।
अभी हम
बिलकुल उल्टी
हालत में हैं, शीर्षासन
कर रहे हैं!
हमें सब चीजें
उल्टी दिखाई
पड़ रही हैं, जैसी हैं
वैसी नहीं
दिखाई पड़
रहीं। जब तुम
पैर के बल खड़े
होओगे, पहली
बार सीधे खड़े
होओगे, तब
तुम्हें समझ
में आएगा। जगत
की अवस्था
वैसी ही मालूम
पड़ती है, जैसी
तुम्हारी
दृष्टि होती
है।
एक
कहानी मैंने
सुनी है: जब
पंडित
जवाहरलाल नेहरू
प्रधानमंत्री
थे,
एक गधा उनसे
मिलने गया।
ऐसे भी गधों
के अतिरिक्त
और कौन
प्रधानमंत्रियों
से मिलने जाता
है! संतरी
झपकी खा रहा
था, सुबह—सुबह
का वक्त; आदमियों
को रोकने की
उसको आज्ञा थी,
गधों को
रोकने के लिए
उसे कहा भी
नहीं था किसी ने
कि गधों को
रोकना। गधे
क्या बिगाड़
लेंगे! वह
झपकी खा रहा
था, यह गधा
वहां घूम रहा
था। वह देखता
रहा, झपकी
खाता रहा, गधा
मौका देखकर
भीतर प्रवेश
कर गया। पंडित
नेहरू
शीर्षासन कर
रहे थे, सुबह—सुबह
का वक्त, बगीचे
में।
उन्होंने गधे
को आकर खड़ा
देखा, उल्टा
दिखाई पड़ा गधा,
स्वाभाविक,
वे
शीर्षासन कर
रहे थे। तो
उन्होंने कहा:
भाई गधे, तुम
उल्टे क्यों
खड़े हो? गधा
हंसने लगा और
उसने कहा:
उल्टे आप खड़े
हैं। यह देखकर
कि गधा बोलता
है, नेहरू
ने कहा: तो तुम
बोलते भी हो!
तो गधे ने कहा: जब
कई बोलने वाले
गधे होते हैं,
तो गधों को
बोलने में कौन—सी
अड़चन है? आप
चौंकें न,
और आप चौंकें
मत कि गधा आप
से मिलने
क्यों आया है!
नेहरू ने कहा:
उसकी तो मैं
फिक्र ही नहीं
करता, क्योंकि
मुझ से गधों
के अतिरिक्त
और कोई मिलने
आता ही नहीं!
शीर्षासन
करता हुआ आदमी, उसे
सारी चीजें
उल्टी दिखाई
पड़ेंगी! जिसको
अभी तुम
जिंदगी कह रहे
हो, वह शीर्षासन
करती हुई
जिंदगी है!
अभी सब उल्टा
दिखाई पड़ रहा
है! अभी तुमने
जिसे रोशनी
समझा है, वह
रोशनी नहीं; और जिसे
तुमने अपने
जीवन का सार—सर्वस्व
समझा है, वह
सार—सर्वस्व
नहीं। अभी तुम
कंकड़—पत्थर
बीन लिए हो और
अपनी झोली भर
लिए हो, और
सोच रहे हो कि
हीरे इकट्ठे
कर लिए हैं! जब
पहली दफा हीरे
पर नजर पड़ेगी,
तब तुम्हें
पता चलेगा कि
ये सब जो अब तक
किए गए उपाय
थे, व्यर्थ
गए। यह झोली
व्यर्थ ही
भरी! यह तुम
ऐसे ही गिरा
दोगे, इसको
त्यागना भी
नहीं पड़ेगा, इसको छोड़ने
के लिए चेष्टा
भी नहीं करनी
पड़ेगी, यह
छूट ही जाएगी
तुम्हारे हाथ से,
गिर ही
जाएगी
तुम्हारे हाथ
से।
अति ही कठिण यह रैण बीतती
जीव कूं।
बड़ी
कठिनाई से
बीतती है यह
रात। और जब
याद आने लगे, तो
और कठिन हो
जाती है।
जिनको याद
नहीं आती, उनकी
इतनी कठिनाई
से नहीं बीतती;
वे तो सोए
हैं, बेहोश
पड़े हैं।
जिनका
परमात्मा से
मिलन हो गया, उनकी तो
कठिनाई से बीतेगी
क्यों! आनंद
ही आनंद है, महोत्सव ही
महोत्सव है!
जिनको
परमात्मा की
याद भी नहीं
है, फुरसत
भी नहीं है, सोचा भी
नहीं है, विचारा
भी नहीं है, वे तो दोनों
पांव पसारकर
सो रहे हैं, गहरी नींद
में हैं, बेहोश
हैं! अड़चन है
बीच वाले की——जिसका
अभी परमात्मा
से मिलन भी
नहीं हुआ और
पुकार पैदा हो
गई है। अड़चन
है भक्त की, पीड़ा है
भक्त की।
इसलिए भक्त
रोता है, इसलिए
भक्त की आंख
से आंसुओं की
धार बहती है, इसलिए भक्त
का हृदय टूटता
है, बिखरता
है, इसलिए
भक्त का रोआं—रोआं
संतापग्रस्त
होता है। उसे
पता हो गया है
कि परमात्मा
है; जरा—जरा
झलक भी मिलने
लगी है। इसलिए
अब इस संसार में
मन भी नहीं
लगता और अभी
मिलन भी नहीं
हुआ है। भक्त
की दशा बड़ी
पीड़ा की है!
शायद
इसीलिए बहुत
लोग भक्त के
जगत से बचते
हैं,
भागे रहते
हैं। शायद
इसीलिए बहुत
लोग परमात्मा
की खोज पर
नहीं निकलते,
अपने को
बचाए रखते हैं,
अपनी नींद
को बचाए रखते
हैं——डर के
कारण, क्योंकि
बड़ी दुर्दशा
होगी! लेकिन
उस दुर्दशा के
बाद ही
सौभाग्य का
क्षण है, सुहाग
का क्षण है!
उतनी कीमत
चुकानी पड़ती
है।
मैं
सदा कहता हूं
कि धर्म केवल
साहसी
व्यक्ति की ही
पात्रता है——सिर्फ
साहसी ही पात्र
है धर्म का।
दुस्साहसी
कहना चाहिए!
क्योंकि नींद
चल रही थी, सपने
चल रहे थे; उनको
तोड़ लिया, नींद
में विघ्न डाल
दिया, याद
उठा ली; एक
सोया स्वर जग
गया, एक
पुकार मच गई, एक प्यास
गहन होने लगी,
और सरोवर का
कोई पता नहीं!
यात्रा शुरू
हुई, सरोवर
मिलेगा।
सरोवर है, प्यास
के पहले सरोवर
है, प्रार्थना
के पहले
परमात्मा है।
लेकिन यह जो थोड़ा—सा
काल बीतेगा, मध्य का काल,
संक्रमण का
काल, यह
बड़ी पीड़ा का
होगा।
लेकिन
यह पीड़ा
निखारती है; यह
दुर्भाग्य
नहीं है, सौभाग्य
है। यह पीड़ा
ऐसे है, जैसे
हम आग में
डालते हैं
सोने को। ऐसा
भक्त अपने को
इस पीड़ा में
डाल देता है——और
निखरता है, कुंदन बनता
है, शुद्ध
होता है! ऐसे
ही पात्रता
आती है। ऐसे
ही अहंकार
मिटता है और
शून्यता आती
है। और फिर शून्य
में ही पूर्ण
का आगमन है।
इस
प्रेम को
जगाओ! इस पीड़ा
का स्वागत
करो!
उसने
मंशाए—इलाही
को मुकम्मिल
कर दिया
अपनी
आंखों पर लिए
जिसने
मुहब्बत के
कदम
इश्क
ने तोड़ा दिले—शैखो—बरहमन
का गरूर
इश्क
है गारतगरे—काशानए—दैरो—हरम
बगैर
इश्क खराबाते—जिंदगी
तारीक
अगर
यह शमअ फरोजां
नहीं तो कुछ
भी नहीं
क्या
मुहब्बत के
सिवा है कोई मकसूदे—हयात
कौन
कहता है
मुहब्बत में
जिया होता है?
मैं निसारे—रहमते—इश्क
हूं कि बगैर
इश्क के दहर
में
न
कोई निशात
निशात है, न
कोई मलाल मलाल
है
दहर
में नक्शे—मुहब्बत
को मिटाकर
इक बार
कोई
सौ बार बनाए
तो बनाए न बने
इस जगत
में प्रेम का
मार्ग ही
एकमात्र
मार्ग है। और
जिसने इस जगत
में प्रेम के
मार्ग को मिटा
दिया, वह फिर
लाख उपाय करे,
तो कुछ भी
बनाए बनने
वाली नहीं है।
दहर
में नक्शे—मुहब्बत
को मिटाकर
इक बार
जिसने
इस संसार में
अपनी प्रेम की
क्षमता मिटा
दी।
कोई
सौ बार बनाए
तो बनाए न बने
फिर
वह कुछ भी
उपाय करे, लाख
उपाय करे, तो
उसकी जिंदगी
में कभी फूल न
खिलेंगे!
कोई
सौ बार बनाए
तो बनाए न बने
उसने
मंशाए—इलाही
को मुकम्मिल
कर दिया
अपनी
आंखों पर लिए
जिसने
मुहब्बत के
कदम
जिसने
अपनी आंखों पर
प्रेम को झेला, उसने
परमात्मा की
इच्छा को पूरा
कर दिया।
उसने
मंशाए—इलाही
को मुकम्मिल
कर दिया
अपनी
आंखों पर लिए
जिसने
मुहब्बत के
कदम
इश्क
ने तोड़ा दिले—शैखो—बरहमन
का गरूर
और
सिर्फ प्रेम
ही है, जिसने
पंडितों और
पुजारियों के
अहंकार को तोड़ा
है।
इश्क
है गारतगरे—काशानए—दैरो—हरम
मंदिर
और मस्जिदों
के झगड़ों
को मिटाने
वाला अगर कोई
है,
तो सिर्फ
प्रेम है।
इसलिए प्रेम
ही धर्म है; मंदिर और मस्जिद
तो झगड़े
करवाते हैं।
यह तो प्रेम
की मधुशाला
में कोई
प्रविष्ट हो
जाए, तो झगड़ों
के पार होता
है।
बगैर
इश्क खराबाते—जिंदगी
तारीक
बिना
इश्क के जीवन
का मदिरालय
अंधेरा है।
बगैर
इश्क खराबाते—जिंदगी
तारीक
अगर
यह शमअ फरोजां
नहीं तो कुछ
भी नहीं
अगर
प्रेम की ज्योति
नहीं जल रही
तुम्हारे
जीवन के
मदिरालय में, तो
फिर कुछ भी
नहीं। तुम
व्यर्थ हो।
तुम हो ही नहीं।
तुम्हारा
होना झूठा, मिथ्या है।
क्या
मुहब्बत के
सिवा है कोई मकसूदे—हयात
प्रेम
के अतिरिक्त
जीवन का कोई
और लक्ष्य है
क्या? कोई और
लक्ष्य नहीं
है; प्रेम
ही प्रारंभ है
और प्रेम ही
अंत है। जिसने
प्रेम को समझ
लिया उसने
परमात्मा को
समझ लिया।
वाजिद के वचन
प्रेम के वचन
हैं। इनमें
पांडित्य
नहीं है, पर
प्रेम की बाढ़
है! डूबना, डुबकी
मारना; जितने
गहरे जाओगे, उतने मोती
पाओगे!
आज
इतना ही।
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