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गुरुवार, 3 सितंबर 2015

प्रभु की पगडंडियां--(प्रवचन--01)

प्रभु की पगडंडियां

ओशो
(साधना—शिविर, नारगोल में हुए 7 अमृत प्रवचनों, प्रश्‍नोत्‍तरो एवं ध्‍यान—सूत्रों का अपूर्व संकलन।)

वर्तमान में जीएं: मौन, नासाग्र—दृष्‍टि—(प्रवचन—पहला)
दिनांक 31 नवग्‍बर, 1968; रात्री
ध्‍यान—शिविर, नारगोल

प्रिय!
इस निर्जन सागर—तट पर आपको, आपको बुलाया और आप आ गए हैं। शायद आपको ठीक खयाल भी न हो कि किसलिए बुलाया गया है। यदि आपने सोचा हो कि मैं यहां कुछ बोलूंगा और आप सुनेंगे, तो आपने ठीक नहीं सोचा। बोलने के लिए तो मैं गांव—गांव में खुद ही आ जाता हूं और आप मुझे सुन लेते हैं। यहां सिर्फ सुनने के लिए आने की कोई जरूरत नहीं है। यहां कुछ करने का खयाल हो तो ही आने की सार्थकता है। मेरी तरफ से मैंने कुछ करने को ही आपको यहां बुलाया। क्या करने को बुलाया?
इन तीन दिनों में, आने वाले तीन दिनों में उस करने की दिशा में ही कुछ बातें मैं आपसे कहूंगा, इस आशा में कि आप केवल उन्हें सुनेंगे नहीं, बल्कि इन तीन दिनों में कम से कम उनका प्रयोग करेंगे।
और यह मेरी समझ है कि सत्य की दिशा में एक भी कदम उठा लिया जाए तो उसे वापस नहीं लौटाया जा सकता है, यह असंभावना है। असत्य की तरफ उठाया गया कदम वापस उठाना ही पड़ता है और सत्य की तरफ उठाया गया कदम कभी भी वापस नहीं उठाया जा सकता है।
तो अगर तीन दिनों में जरा सा भी कदम उठाया तो आगे वह कदम उठता ही रहेगा, उस कदम से पीछे नहीं लौटा जा सकता है। मैं कुछ कहूंगा, मेरे कहने से कुछ होने वाला नहीं है। अगर उसके साथ आप प्रयोग करते हैं तो यह आश्वासन मेरी तरफ से है कि जितनी पाने की आपने कल्पना की हो जीवन में, उससे बहुत ज्यादा पाया जा सकता है।
बहुत थोड़े श्रम से हम कितनी आंतरिक संपदा पा सकते हैं, इसका हमें कुछ भी पता नहीं है। पता हो भी कैसे, जब हम पा लें तभी पता चल सकता है, दूसरा कोई रास्‍ता भी नहीं। लेकिन हजारों वर्षों से आदमी एक आश्‍चर्यजनक चक्‍कर में उलझ गया है। वह चक्‍कर सुनने, समझने और विचार करने का चक्‍कर है। कई बार ऐसा होता है कि बहुत सोचने—विचारते रहने वाले लोग कुछ भी नहीं कर पाते है।
दुनियां में जितना सोच—विचार बढ़ता चला गया है, उतनी ही सक्रिय होने की हमारी क्षमता क्षीण होती चली गई है। हमारी स्‍थिति तो उस मजाक जैसी हो गई है, जैसे मैने सुना है कि पहले महायुद्ध में एक अमरीकी विचारक भी युद्ध की सेना में भर्ती हो गया। विचारक का काम विचार करना है। बस वह एक ही काम जानता है—सोचना, सोचना।
मिलिटरी में भर्ती किया गया तो वह पूरी तरह स्‍वस्‍थ था, कोई रूकावट नहीं पड़ी। डॉक्‍टरों ने उसे इजाजत दी। सारे अंग, सारा शरीर ठीक था। आंखें ठीक थी। सब तरह से वह स्‍वास्‍थ था, योग्‍य था, लेकिन किसी डॉक्‍टर को यक कभी भी कल्‍पना नहीं हो सकती थी कि वह पूरी तरह स्‍वस्‍थ आदमी, कुछ भी करने में असमर्थ है सिवाय सोचने के। इसका पता भी कैसे चल सकता था। आपको देख कर भी यह पता नहीं चलता, किसीको देख कर यह पता नहीं चलता।
यह भर्ती भी हो गया और पहले ही दिन जब वह कवायद में खड़ा हुआ और उसको सिखानेवाले शिक्षक ने कहा: महाश्‍य, क्‍या आपका सुनाई नहीं पड़ता?
उसने कहा: सुनाई मुझे बिलकुल ठीक पड़ता है। लेकिन बिना सोचे—विचारे मैं कुछ भी कर नहीं सकता हूं। मैं सोच रहा हूं, कि बाएं घूमना या नहीं घूमना।
उसके शिक्षक ने कहा कि तब तो बड़ी कठिनाई है। इतना सोच—विचार करिएगा तो इस सैनिक की जिंदगी में चलना बहुत मुश्‍किल है। बहुत समझाने की कोशिश की, लेकिन कोई रास्‍ता न था। वह बिना सोचे—विचारे कुछ कर ही नहीं सकता था।
और सोच—विचार कर करता तो भी ठीक था, वह इतना सोच—विचार करता था कि समय ही निकल जाता था। और सोच—विचार में और नये सोच—विचार पैदा हो जाते थे। जिनकी शृंखला का कोई अंत नहीं है। पीछे पता चला कि उस व्‍यक्‍ति ने शादी करनी चाही थी, और किसी युवती ने उससे निवेदन किया था। वह तीन वर्ष तक सोचता रहा पक्ष में और विपक्ष में। तीन वर्ष के बार भी वह निर्णय नहीं कर पाया कि शादी करनी ठीक है या नहीं करना ठीक है। अपनी यह खबर देने वह उस युवती के घर तीन वर्ष बाद गया की क्षमा करना, मैं अभी निर्णय नहीं कर पाया हूं। लेकिन तब तक उस स्‍त्री के तीन बच्‍चे हो चुके थे। उसकी शादी हो चुकी थी।
उस आदमी को किसी काम का न जान कर......लेकिन चूंकि वह भर्ती हो गया था। और प्रसिद्ध विचारक था, किसी न किसी काम में रखना जरूरी था। तो उसे जो सैनिक का भोजनलय था वहां उसे भेज दिया गया। वहां छोटे—मोटे काम वह कर सकेगा। और पहले ही दिन उसे मटर के दाने चुनने के लिए दिए गये कि बड़े दानों को अलग कर दे और छोटे दानों को अलग करें। घंटे भर बाद जब उसका शिक्षक पहुंचा तो वह सिर पर हाथ लगाए हुए बैठा था। दाने वैसे के वैसे रखे थे।
उसने पूछा: महाशय, क्‍या यह भी नहीं कर सके आप?
उसने कहा: करूं जरूर,लेकिन पहले सोच लूं, यह तो साफ हो गया कि बड़े दाने भी है, छोटे दाने भी है, लेकिन कुछ बीच के दाने है उनको कहां करना है और जब तक उनका निर्णय न हो जाए, तब तक फिजूल की उलझन में पड़ने से कोई सार नहीं है। मैंने बहुत सोचा कि बीच के दाने किस तरफ, छोटे दानों की तरफ कि बड़े दानों की तरफ, क्योंकि बीच के दाने न तो छोटे हैं और न बड़े। या दोनों हैं।
पता नहीं, उस आदमी का पीछे क्या हुआ! जो हुआ होगा वह हम सोच सकते हैं। लेकिन हम सारे लोग भी जीवन के मसले में करीब—करीब वैसे ही आदमी हैं। यहां मैंने बुलाया है आपको सोच—विचार के लिए जरा भी नहीं। यहां बुलाया है कुछ कदम उठाने को। निश्चित ही सोच—विचार करना हो तो मैं अकेला काफी हूं लेकिन कदम उठाना हो तो आप मुझसे ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। साधना शिविर में मैं गौण हूं महत्वपूर्ण आप हैं। मैं नहीं हूं महत्वपूर्ण, क्योंकि कदम आपको उठाना है।
तीन दिनों की मेरी चेष्टा यही होगी कि सिवाय उन बातों के आपसे कुछ भी न बात करूं, जो सहयोगी हों आपको आंतरिक जीवन में ले जाने के लिए। जो परमात्मा के मंदिर की यात्रा में सीढ़ियां बन सकें उनकी ही मैं बात करना चाहता हूं।
लेकिन प्रत्येक सीढ़ी चढ़ने से सीढ़ी बनती है, उसके पहले वह सिर्फ पत्थर होती है। जब तक कोई उस पर चढ़ता नहीं तब तक उसे सीढ़ी नहीं कहा जा सकता है, वह चढ़ने से ही सीढ़ी बनती है। अगर किसी मंदिर पर कोई भी न जाता हो तो उस मंदिर के सामने पत्थर पड़े हैं ऐसा कहना पड़ेगा, ऐसा नहीं कि उस मंदिर के सामने सीढ़ियां हैं। क्योंकि पत्थर सीढ़ी तभी बनता है जब कोई उस पर चढ़ता है। और यह भी ध्यान रहे, कुछ नासमझ सीढ़ियों को भी पत्थर बना लेते हैं और उनसे ही अटक जाते हैं और कुछ समझदार पत्थरों पर भी चढ़ते हैं और उनको सीढ़ियां बना लेते हैं। हम क्या करेंगे? क्या करने को मैंने आपको यहां बुला भेजा है? कौन सी यात्रा है?
एक यात्रा बाहर की है जो हम सब कर रहे हैं और उस यात्रा में चाहे हम सफल हों या असफल, चाहे हम उस यात्रा में कुछ पा लें या न पा लें—एक बात निश्चित है, पाने वाले और न पाने वाले बाहर की यात्रा के जगत में आखिर में एक जगह पहुंचते हैं जहां पाते हैं दोनों ही असफल हो गए हैं—वे भी जो सफल थे और वे भी जो असफल थे। मौत जब करीब आती है तो बाहर की हमारी सारी सफलता—असफलता पोंछ कर समाप्त कर देती है। हम खाली के खाली आदमी रह जाते हैं। लेकिन जो लोग भीतर की यात्रा भी करते हैं, उनकी तो मौत कभी आती नहीं, क्योंकि भीतर जाकर वे जानते हैं कि वहां जो है उसकी कोई मृत्यु नहीं है। वह सदा से है, था, होगा।
एक अनंत यात्रा है अंतस की, एक अनंत जीवन है, एक अमृत जीवन है। जो उस जीवन को जान लेते हैं फिर मृत्यु उनसे कुछ भी नहीं छीन पाती है। और जो सफलता मृत्यु छीन लेती हो उसे सिर्फ नासमझ सफलता कहते होंगे, क्योंकि जो छीनी जा सकती है उसे सफलता कैसे कहा जा सकता है? जो नहीं छीनी जा सकती, जो नहीं तोड़ी जा सकती, जो नहीं चुराई जा सकती, ऐसी कोई संपदा हम खोज लें तो ही वह संपदा है। ऐसी ही संपदा की खोज के लिए यह आमंत्रण था और आप आए दूर—दूर से।
लेकिन यह आना अभी बाहर का आना हुआ। नारगोल तक पहुंच जाना एक बात है। वह भी बाहर की यात्रा है। मेरे सामने आकर बैठ जाना एक बात है। वह भी बाहर की यात्रा है। मुझे सुनना भी एक बात है। वह भी बाहर की यात्रा है। अब इन तीन दिनों में उस भीतर की यात्रा करनी है जहां आप हैं, जहां प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा है, जहां चेतना का मंदिर है। अपने से ही हम अपरिचित हैं। नहीं जानते—क्या हूं कौन हूं कहां से हूं क्यों हूं? कुछ भी पता नहीं! अंधे की तरह जीते हैं और समाप्त हो जाते हैं। क्या यही जीवन स्वीकार कर लेना है? क्या यही जीवन पर्याप्त है? निश्चित ही यह जीवन आपको पर्याप्त नहीं लगता होगा, इसीलिए आप आए हैं।
फिर और कौन सा जीवन हो सकता है और उस जीवन में हम कैसे प्रवेश कर सकते हैं? आज की रात तो कुछ बहुत प्राथमिक और प्रारंभिक बातों पर ही मैं आपसे बात करूंगा, फिर कल सुबह से गहरी यात्रा की बात करनी है। लेकिन जो प्राथमिक और प्रारंभिक बातें हैं वे गौण नहीं हैं। किसी भी यात्रा में पहला कदम अंतिम कदम से गौण नहीं होता। बल्कि सच तो यह है कि पहला कदम ही असली कदम होता है। जिन्होंने पहला उठा लिया, वे अंतिम उठा भी सकते हैं। लेकिन जिन्होंने पहला ही नहीं उठाया उनके अंतिम के उठाने का तो कोई सवाल नहीं है। तो प्राथमिक और छोटी—छोटी बातें ही पहली इस चर्चा में मैं कहूंगा।
एक, सबसे पहली जरूरत जो करने की है वह यह कि आप शरीर से तो यहां आ गए हैं साधना शिविर में, मन से भी आ जाना चाहिए। शरीर से आ जाना एकदम आसान है। मन सदा पीछे की तरफ दौड़ता रहता है। मन सदा अतीत की तरफ भागता रहता है। हम सदा वहां होते हैं जहां से हम आ गए हैं। हम सदा भूतपूर्व होते हैं, हम कभी भी वर्तमान में नहीं होते। जहां हम थे वहां हमारा मन होता है; जहां हम आ गए हैं वहां नहीं। जो क्षण हमारे पास से गुजर रहा है वहां हम नहीं होते, जो बीत गया, गुजर गया वहीं हमारा चित्त होता है।
और इसका कारण है। क्योंकि हमने आज तक चित्त को स्मृति के साथ जोड़ रखा है। हमने कांशसनेस को मेमोरी के साथ जोड़ रखा है। हमने यह मान रखा है कि मेरी स्मृति ही मेरी चेतना है, मेरी याददाश्त ही मेरी आत्मा है—यह भांति है, बुनियादी भ्रांति है। और साधक के लिए जानना चाहिए कि पीछे जो बीत गया है वह बिलकुल बीत चुका है। उसकी कोई रूप—रेखा, उसका कोई अस्तित्व कहीं नहीं रह गया है सिवाय हमारी स्मृति के। कृपा करें उसे स्मृति से भी बीत जाने दें। अतीत हो चुका, जा चुका, उसे चला जाने दें। यहां आ गए हैं तो पूरी तरह आ जाएं।
इन तीन दिनों में अगर यहीं रहे, इसी सागर—तट पर, इसी सागर के गर्जन को सुनते हुए, इन्हीं सरू वृक्षों की छाया में, इसी आकाश के, इन्हीं तारों के, इसी चांद की चांदनी में, तो कुछ काम हो सकता है। वर्तमान में होना साधक के लिए पहली शर्त है, टु बी इन दि प्रेजेंट—वह जो है, वहां। लेकिन हम मरते ही नहीं अतीत के प्रति, उसको ढोते चलते हैं, ढोते चलते हैं।
पतझड़ में जाकर देखें किसी जंगल में पत्ते गिर गए हैं, जिन पर कभी सूरज की रोशनी चमकती थी और हवाएं जिन्हें डुलाती थीं, झूले देती थीं, वे पत्ते अचानक गिर गए हैं, पतझड़ आ गया। वे फूल जिन पर भौरे गीत गाते थे, अब नहीं हैं, जा चुके। शाखाएं नंगी खड़ी हैं, वृक्ष ने अपनी खोल तक छोड़ दी है, छाल तक छोड़ दी है, वृक्ष बिलकुल मर गया है; न फूल हैं, न पत्ते, न कोई गीत गुनगुनाता है, न कहीं छाया है, न कहीं हरियाली है। वृक्ष बिलकुल सूख गया, वृक्ष बिलकुल मर गया है। लेकिन थोड़े ही दिन में देखेंगे, आ गए नये पत्ते। पुराने की जगह छा गया नया रंग। फिर फूल आ गए और भी ताजे, और भी नये। फिर गीत, फिर गुनगुन, फिर पक्षी बसने लगे, फिर यात्री ठहर कर छाया लेने लगे। यह वृक्ष फिर से नया हो गया, फिर से जवान। इस वृक्ष को कोई कीमिया, कोई राज मालूम है। यह मरने का राज जानता है। पतझड़ में मर गया है, सब छोड़ दिया था जो पुराना था। अब फिर नया हो गया—फिर जीवंत, फिर ताजा, फिर युवा।
लेकिन आदमी इस राज को भूल गया है। इसलिए आदमी बूढ़े से का ही होता चला जाता है। उसका बुढ़ापा बोझ की तरह बढ़ता चला जाता है। शरीर का होगा, लेकिन आत्मा के के होने की कोई भी जरूरत नहीं। शरीर का होगा, लेकिन चेतना हम की कर लेते हैं। जोड़ते चले जाते हैं बीते पत्तों को जो गिर चुके—उन फूलों को जो अब नहीं हैं, उन गीतों को जो फूलों पर गंजे थे, उन पक्षियों को जो कभी ठहरे थे, उन यात्रियों को जो छाया में विश्राम किए थे। उन सबको हम इकट्ठा किए चले जाते हैं। अतीत का बोझ बढ़ता चला जाता है, बढता चला जाता है, और आदमी की आत्मा उसी बोझ के नीचे जर्जर, दीन—हीन, की होती चली जाती है।
शरीर से कोई आदमी का हो जाए, लेकिन अगर उसकी आत्मा रोज ही युवा हो और यह राज जानती हो रोज अतीत के प्रति मर जाने का—जो हो चुका, हो चुका; जा चुका, जा चुका। नहीं, अब वह नहीं है कहीं भी। मैं भी वहां क्यों बंधा रहूं! जैसे सांप छोड़ देता है केंचुल अपनी, छोड़ दूं अतीत की केंचुल को, बढ़ जाऊं आगे।
तो आदमी का शरीर का हो जाएगा, लेकिन आंखें नहीं, आत्मा नहीं। और तब के आदमी के भीतर से भी सतत यौवन, वह सतत जीवन, वह जो सदा नया है, वह झांकना शुरू कर देता है। और इतना ही यौवन, इतनी ही ताजगी, इतनी ही सरलता, इतना ही ताजापन, नयापन चाहिए तब कोई व्यक्ति परमात्मा के मंदिर की तरफ यात्रा करने में सफल हो पाता है।
का आदमी परमात्मा तक कभी नहीं पहुंचता है, नहीं पहुंच सकता। का आदमी सिर्फ कब तक पहुंचता है और कहीं नहीं। लेकिन ध्यान रहे, मैं बूढ़े आदमी को—शरीर से के आदमी को— का आदमी नहीं कह रहा हूं। शरीर से तो सभी बूढ़े होते हैं—बुद्ध भी, महावीर भी, कृष्ण भी, क्राइस्ट भी, लेकिन कुछ लोग आत्मा से ताजे, नये और जवान रह जाते हैं।
वे जो लोग आत्मा में, चेतना में ताजे और नये हैं, वे प्रभु के मंदिर में प्रवेश करते हैं।
क्यों? क्योंकि प्रभु के मंदिर का अर्थ ही क्या है सिवाय इसके कि वह जीवन का मंदिर है। प्रभु के मंदिर का अर्थ क्या है और! एक ही अर्थ है कि वह जीवन है। और जीवन में तो वे ही प्रवेश कर सकते हैं जो सतत अतीत को, मुर्दा को छोड़ कर पुनरुज्जीवित होने की क्षमता जुटा लेते हैं। मरना पड़ता है साधक को रोज, ताकि वह रोज नया जन्म ले सके।
इन तीन दिनों के शिविर में, पहली बात, मर जाएं अतीत के प्रति, जहां से आ गए हैं वहां अब नहीं हैं। न कोई संबंधी है आपका अब, न कोई गांव, न कोई धंधा, न कोई नाम, न कोई जाति, न कोई धर्म— वह था! अब कहां है, भीतर कहां है वह? कहां हैं वे नाम, कहां हैं वे जातियां, कहां हैं वे संबंध। वहां कौन है धनी, कौन है निर्धन; कौन है हिंदू कौन है मुसलमान। जाने दें उसे। उसकी कोई रेखा मन पर न रह जाए।
आज रात जब सोए तो अतीत के प्रति पूरी तरह मर जाएं, ताकि सुबह नया आदमी, नई चेतना आपके भीतर जन्मे और प्रकट हो। वही चेतना जीवन के मंदिर में प्रवेश दिला सकती है। वही चेतना स्वयं को जानने में समर्थ बना सकती है। वही चेतना, उसी चेतना के दर्पण में सत्य का प्रतिबिंब बनता है। और तो कोई रास्ता नहीं। जिन लोगों के मनों पर अतीत की धूल की पर्त जमी है उनके मन के दर्पण कभी भी सत्य की परछाईं नहीं बना पाएं तो इसमें आश्चर्य क्या, दोष किसका है?
पहला सूत्र मरना सीखें, रोज—रोज मरना। पल—पल मरना सीखें, एक—एक क्षण मरने की कला जाननी चाहिए, अगर जीवन की कला सीखनी है। आए आप और मुझे गाली दे गए हैं। दिन बीत गया, कभी के आप जा चुके, कभी की गाली गूंजी और शून्य में खो गई और मैं हूं कि गाली सुने चला जा रहा हूं। मैं हूं कि आप मेरे सामने ही खड़े हैं। माह बीत गए, वर्ष बीत गए, कहीं उस गाली की कोई रूप—रेखा न रही, कहीं खोजने जाऊं तो धुआं भी जो कभी था शायद मिल जाए, लेकिन वह गाली तो अब कहीं भी नहीं मिलेगी। वह आदमी कहां, वह घड़ी कहां, वह क्षण कहां, लेकिन मैं हूं कि उसी में जीए चला जा रहा हूं। वर्ष बीत गया, लेकिन मैं वहीं ठहर गया जहां गाली दी गई थी।
एक दिन सुबह बुद्ध बैठे थे एक वृक्ष के पास। एक आदमी आया था क्रोध से और उनके ऊपर यूक दिया था और भरसक जितनी गाली दे सकता था, दी थी। बुद्ध ने उस यूक को अपनी चादर से पोंछ लिया था और कहा था कि मेरे मित्र! कुछ और कहना है? वह मित्र चौंका होगा, क्योंकि वह शत्रु होकर आया था और उसे आशा न थी कि जिसका वह शत्रु होकर गया है, वह भी मित्र उसे मान सकता है। वह चौंका, चौंका इसलिए भी कि उसने थूका था, कुछ कहा न था।
लेकिन बुद्ध पूछने लगे कुछ और कहना है? बुद्ध का भिक्षु था आनंद, वह क्रोध से भर आया। और उसने कहा कि भगवान कैसी बात करते हैं आप, यूका है उस अशिष्ट व्यक्ति ने और आप पूछते हैं और कुछ कहना है!
बुद्ध ने उसे छोड़ दिया और आनंद को समझाने लगे। कहने लगे आनंद, तू समझा नहीं। वह कुछ कहना चाहता है जरूर, लेकिन क्रोध है ज्यादा और शब्द पड़ जाते हैं छोटे। नहीं शब्दों में कह पाता है, इसलिए यूक कर कहता है। कोई प्रेम से भरा जाता है, नहीं कह पाता है शब्दों में, हृदय से लगा लेता है। कोई क्रोध से भर जाता है, नहीं कह पाता है शब्दों में, थूक कर कहता है। मैं समझ गया। समझा इस आदमी की मुसीबत। जब भी कोई बड़ा भाव होता है तो कहना मुश्किल होता है। शब्द छोटे पड़ जाते हैं। समझ गया इसकी कठिनाई, तो इसीलिए पूछता हूं मेरे मित्र! कुछ और कहना है?
वह आदमी क्या कहता, वह वापस चला गया। वह हारा हुआ वापस गया था, क्योंकि जो शत्रु होकर कहीं जाते हैं वे एक ही शर्त पर हारते हैं कि जहां वे शत्रु होकर गए हों वहां शत्रु न मिले, अन्यथा वे कभी नहीं हारते। वह हार कर लौट गया, रात भर सो नहीं सका होगा। क्योंकि रात भर उसे वही दोहरता रहा कि वह बुद्ध पर थूक रहा है और उन्होंने पोंछ लिया है। और वे पूछते हैं, और कुछ कहना है! वे आंखें बुद्ध की उसकी छाती में छिदी रहीं। रात भर सो नहीं सका।
सुबह भागा हुआ आया। बुद्ध तो उस गांव से आगे बढ़ गए हैं। जीवन कहीं ठहरता और रुकता है? बढ़ जाता है! किसी दूसरे वृक्ष के नीचे हैं आज। वह आदमी जाकर सामने खड़ा हो गया है और कहने लगा है क्षमा कर दें। भूल हो गई जो मैंने यूका।
बुद्ध ने कहा बात बहुत गई—गुजरी हो गई। गंगा का पानी तब से बहुत बह चुका, तू वहीं रुका है? कहां है वह वृक्ष जिसके नीचे तूने यूका था? कहां हैं वे तारे जो गवाही दे रहे होंगे? कहां हैं वे लोग? कहां की बात ले आया तू? जो हो गया हो गया, हम आगे बढ़ गए। तू वहीं रुका है! लेकिन रुक कैसे सकता है, सारा समय बदल गया, तू रुका कैसे है वहां? बात गई हो गई।
वह आदमी कहने लगा नहीं—नहीं, इस भांति न टालें, मुझे क्षमा कर दें। बुद्ध ने कहा फा था तूने कल, आज क्षमा कैसे करूं? फासला बहुत बड़ा हो गया। जो होना था कल हो चुका है। क्षमा कल ही तू कर दिया गया है, उसी क्षण। और अगर मैं क्षमा नहीं कर सका होता, तो वह क्षण बीतता भी नहीं, मुझे भी उसी में जीना होता जिस भांति तू उसमें जीआ है। बात खत्म हो गई है। तूने थूका था, हमने पोंछा था। और कुछ कहना है? और था क्या वहां? तू भूल गया। बहुत देर बाद करके आया है। अब तो कोई उपाय नहीं है। अब तो कल्प— कल्प में, युग—युग में भी अब तो कोई उपाय नहीं रहा। जो हो गया, हो गया। लेकिन उसे याद रखने की जरूरत कहां है?
और बुद्ध उससे कहने लगे तूने यूक कर कोई बड़ी भूल न की थी। आदमी बड़ा असमर्थ है। ऐसी घटनाएं घटती हैं, ऐसे भाव आ जाते हैं, शब्द नहीं कह पाते। उसके लिए मैं तुझ पर कुछ भी नहीं कहता, लेकिन इतना जरूर कहूंगा कि तू वहीं रुक गया है, यह तू जरूर भूल कर रहा है। इसे जाने दे।
एक फकीर था चीन में, हुइ हाई। वह अपने गुरु के गांव, गुरु की खोज में गया हुआ था। वह जब गुरु के पास पहुंचा, तो उसका गुरु पूछने लगा कि तू कहां से आता है!
हुइ हाई ने कहा पेंकिग से आता हूं।
गुरु ने पूछा. वहां चावल के भाव कितने हैं? हुइ हाई ने कहा. आप बड़े पागल मालूम होते हैं। चावल के भाव? मैं जिस रास्ते से गुजर गया गुजर गया, जिस पुल पर से गुजर गया गुजर गया। पेकिंग में मैं था, हूं नहीं। चावल के भाव रहे होंगे कुछ, लेकिन मैं क्या पागल हूं कि पेकिंग के चावल के भाव लेकर यहां आऊं!
उसके गुरु ने कहा. बात खत्म हो गई। जिस आदमी की तलाश में था, तू आ गया। मैं सबसे यही पूछता हूं कहां से आते हो? कोई कहता है, पेकिंग से, कोई कहता है, कहीं और से, शंघाई से। और मैं पूछता हूं चावल के भाव और वे लोग चावल के भाव बताने लगते हैं। मैं कहता हूं जाओ, अभी चावल के भाव ही ठीक करो। अभी परमात्मा का रास्ता बहुत मुश्किल है। तू आदमी पहला है कि नाराज हुआ मुझ पर कि चावल के भाव पूछते हैं? होंगे पेकिंग में कुछ, लेकिन पेकिंग पीछे छूट गया। मैं कोई चावल के भाव ढोता फिरता हूं?
लेकिन हम सारे लोग चावल के भाव ढोते फिरते हैं। इस शिविर में जो चावल के भाव लेकर आए, वे खाली हाथ लौट जाएंगे, उन्हें कुछ भी नहीं मिल सकता है। नहीं, चावल के भाव छोड़ दें, चाहे वे बंबई के हों, चाहे पूना के हों, चाहे अहमदाबाद के हों, चाहे बड़ौदा के, चाहे पेकिंग के। चावल के भाव छोड़ दिए जाने चाहिए और चावल के भाव में सभी कुछ आ जाता है। सभी भाव चावल के ही भाव हैं। यह पहली बात कहना चाहता हूं।
तीन दिन के लिए पूरी तरह यहां आ जाएं। और बड़े मजे की बात यह है कि कुछ बहुत करना नहीं पड़ता। एक बोध, एक अंडरस्टैंडिंग, एक समझ कि सच, मैं अतीत में क्यों जीता हूं? जो बीत गया उसमें क्यों जीता हूं? इतना बोध काफी है। इतना बोध ही संकल्प पैदा कर देगा कि जाओ, छोड़ दिया! छोड़ने के लिए कोई रस्साकशी से आप बंधे हुए नहीं हो, कि कोई जंजीरें कहीं पकड़े हुए नहीं हैं, कोई आपको रोके हुए नहीं है अतीत, कि उसको छोड़ने के लिए तलवार चलानी पड़ेगी।
नहीं, एक बोध, एक समझ पर्याप्त है। समझें कि क्यों मैं पीछे से बंधा हुआ हूं। और पीछे से आप मुक्त हो सकते हैं। समझ को संकल्प बनाएं। समझ संकल्प बनती है। थोड़ी गहरी होगी, संकल्प बन जाएगी।
तो आज रात समझ कर, संकल्पपूर्वक सोए कि मैं छोड़ता हूं बीते को, छोड़ता हूं अतीत को, जाने देता हूं उसे। तीन दिन यहां रहूंगा अब। और तीन दिन स्मरण रखें इस बात का कि मन लौट कर पीछे तो नहीं जाता, और जब भी जाए तब सिर्फ स्मरण रखें कि फिर चला मन वहीं। क्या पागल हूं मैं? और मन लौट आएगा। थोड़ा सा बोध और मन वर्तमान में लौट सकता है। तब, तब कुछ हो सकता है—एक बात!
दूसरी बात मन भरा है अतीत से और हम निरंतर भरे हुए हैं शब्दों से, बातचीत से, विचारों से। घड़ी भर कोई चुप नहीं है, घड़ी भर कोई मौन नहीं है, घड़ी भर शब्दों से कोई मुक्त नहीं होता। और अगर मुक्त होने का मौका मिल जाए तो हम घबड़ाते हैं, बहुत डरते हैं, बहुत भयभीत होते हैं। मन की आदत है आकुपाइड, मन की आदत है उलझे रहने की। कुछ न कुछ चाहिए, कुछ न कुछ काम चाहिए। खाली मन नहीं होना चाहता है। क्यों नहीं होना चाहता है?
क्‍योंकि जैसे ही मन खाली हुआ कि मन की मृत्‍यु हो जाती है। वह जब तक उलझा रहे, लगा रहे, लगा रहे,लगा रहे तभी तक है। वह जो आकुपाइडनेस है, वह जो व्‍यस्‍तता है मन की; वही उसके प्राण है। और हम चौबीस घंटे व्‍यस्‍त है और फिजूल ही व्‍यस्‍त है। अगर कोई आदमी थोड़ा देखे कि वह क्‍या—क्‍या बातें कर रहा है, क्‍या विचार कर रहा है, किन बातों में उलझा है सुबह से सांझ तक, तो शायद बहुत हैरान हो जाएगा। जिन बातों को करने की कोई जरूरत न थी वे सारी बातें उसने की है।
और स्‍मरण रहे, जो आदमी उन बातों को करता है, जिनकी कोई जरूरत नहीं उसके जीवन में, वे बातें कभी भी नहीं हो पाएंगी जिनकी जरूरत है। ये दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकती। व्यर्थ बात और विचार सार्थक तत्‍व तक नहीं पंहुचने देते। लेकिन हम तो सुबह उठे—और उठने का अर्थ ही है बातचीत—फिर हम बातचीत करना शुरू कर दिए। नहीं, साधना शिविर में यह नहीं चलेगा। साधना शिविर में यह कैसे चल सकता है?
तो आत रात सोते है तो अत्‍यंत मौन में और सुबह से उठते है तो तीन दिन मौन का एक गहरा अभ्‍यास बनना चाहिए। जहां तक बन सके मत बोलें। देखें तीन दिन का प्रयोग कोई बहुत लंबा नहीं है। देखें, सिर्फ तीन दिन के लिए जहां तक बन सके न बोलें। जिसकी सामर्थ्‍य हो वे तीन दिन के लिए बिलकुल चुप हो जाएं, बोलें ही नहीं। थोड़ा बहुत काम हो, इशारे से चला लें, लिख कर चला ले। बहुत जरूरत पड़े तो एक—दो शब्‍द बोल कर चला लें। जिनकी सामर्थ्‍य हो वे तो बिलकुल चुप हो जाएं। जो थोड़े कमजोर हों वे इतना ध्‍यान रखें कि व्‍यर्थ न बोलें। लेकिन मैं इतना कमजोर किसी को मानता नहीं हूं।
कोई आदमी इतना कमजोर नहीं है कि तीन दिन चुप न हो सके। एक बार देखें कि क्‍या घटना घट सकती है चुप होने से। इतने छोटे से सूत्र से क्‍या घट सकता है? इतनी छोटी सी बात लगती है चुप हो जाना, लेकिन क्‍या हो सकता है, पता है आपको? आस—पास ही मौजूद है वह जिसकी हम तलाश है। भीतर ही खड़ा है वह जिसकी हमें खोज है। लेकिन हम चुप नहीं हम है व्‍यस्‍त, उसका हमें कोई पता नहीं चलता है।
स्‍वामी राम एक कहानी कहा करते थे, वे कहते थे, एक प्रेमी था, वह दूर देश चला गया था। उसकी प्रियसी राह देखती रही। वर्ष आए, गए। पत्र आते थे उसके, अब आता हूं। अब आता हूं, अब आता हूं। लेकिन प्रतीक्षा लंबी होती चली गई और वह नहीं आया। फिर वह प्रियसी घबड़ा गई और एक दिन ही चल कर उस जगह पहूंच गई जहां उसका प्रेमी था। वह उसके द्वार पर पहूंच गई, द्वार खुला था। वह भीतर पहूंच गई।
प्रेमी कुछ लिखता था, वह सामने ही बैठ कर देखने लगी,उसका लिखना पूरा हो जाए। प्रेमी उसी को पत्र लिख रहा था, प्रेयसी को पत्र लिख रहा था। और इतने दिन से उसने बार—बार वादा किया और टूट गया तो बहुत—बहुत क्षमाएं मांग रहा था। बहुत—बहुत प्रेम की बातें लिख रहा था, बड़े गीत और कविताएं लिख रहा था। जैसे कह अक्‍सर प्रेमी लिखते है। वह सब लिखे चला जा रहा था—एक पन्‍ना, दो पन्‍ना, तीन पन्‍ना।  प्रेमियों के पत्र पूरे तो होते ही नहीं। वे लंबे से लंबे होते चले जाते है।
वह लिखते ही चला जा रहा है। उसे पता भी नहीं है कि सामने कौन बैठा है। आधी रात हो गई तब वह पत्र कहीं पूरा हुआ। उसने आँख ऊपर उठाई तो वह घबड़ा गया। समझा कि क्‍या कोई भूत—प्रेत, है। वह सामने कौन बैठा हुआ है? वह तो उसकी प्रेयसी है। नहीं—नहीं लेकिन यह कैसे हो सकता है। वह चिल्‍लाने लगा कि नहीं—नहीं, यह कैसे हो सकता है? तू यहां है, तू कैसे, कहां से आई?
उसकी प्रेयसी ने कहा: मैं घंटों से बैठी हूं और प्रतीक्षा कर रही हूं कि तुम्‍हारा लिखने काम बंद हो जाए तो शायद तुम्हारी आंख मेरे पास पहुंचे। और वह प्रेमी छाती पीट कर रोने लगा कि पागल हूं मैं। मैं तुझी को पत्र लिख रहा हूं और इस पत्र के लिखने के कारण तुझे नहीं देख पा रहा हूं और तू सामने मौजूद है। आधी रात बीत गई, तू यहां थी ही!
परमात्मा उससे भी ज्यादा निकट मौजूद है। हम न मालूम क्या—क्या बातें किए चले जा रहे हैं। न मालूम क्या—क्या पत्र लिख रहे हैं, शास्त्र पढ़ रहे हैं, न मालूम कौन—कौन से विचार कर रहे हैं। कोई गीता खोल कर बैठा हुआ है, कोई कुरान खोल कर बैठा हुआ है, कोई बाइबिल पढ़ रहा है, कोई नमो अरिहताणम् दोहरा रहा है, कोई नमो शिवाय कर रहा है। न मालूम क्या—क्या लोग कर रहे हैं; और जिसके लिए कर रहे हैं वह चारों तरफ हमेशा मौजूद है। लेकिन फुर्सत हो तब तो आंख उठे। काम बंद हो तो वह दिखाई पड़े, जो है।
तीन दिनों में विचार को जाने दें। और विचार के जाने के लिए पहली बात है बातचीत को जाने दें। मौन जितना बन सके, इस सरू वन में, सरू के पौधों को पता भी न चले कि यहां इतने लोग आ गए हैं। उनको पता भी न चले कि यहां इतने लोग हैं। आप भी सरू के पौधे ही हो जाएं तीन दिन के लिए। उनके पास बैठें तो मौन, जैसे कि पौधे मौन हैं। जैसे कि तारे मौन हैं। जैसे कि सारा जगत मौन है। एक घनघोर चुप्पी है। बातचीत के स्वर सिर्फ आदमी ने पैदा किए हैं और सारे जीवन और सारे संगीत को तोड़ डाला है।
तीन दिनों के लिए दूसरी बात निवेदन करना चाहता हूं—मौन! और आशा तो मेरी यह है कि सारे लोग बिलकुल मौन हो जाएं। बहुत जरूरी होगा— कभी दो—चार बात जरूरी हो सकती हैं, तो बने तो लिख कर कर लें, बने तो इशारे से कर लें, न बन सके तो बोल कर कर लें, लेकिन यह ध्यान रख कर कि वह बोलना टेलिग्राफिक हो, वह बोलना ऐसे ही हो जैसा तार करते वक्त आदमी तार करता है। देखता है कि एक आना और बढ़ा जा रहा है, एक शब्द और काटो, दूसरा शब्द काटो। आठ से ही काम चल जाए। सरकार पहले दस का दे देती थी हिसाब, अब वह आठ से भी लोग चलाने लगे हैं। वह छह से भी चल सकता है, वह पांच से भी चल सकता है। काटते चले जाना है। जितना जरूरी हो उतना शब्द और बाकी सब निःशब्द, बाकी सब मौन!
तो देखें कि तीन दिन में क्या नहीं हो सकता है। मैं नहीं चाहता हूं कि यहां से खाली हाथ आप वापस लौटें, लेकिन कुछ करना जरूरी है। मैं चाहता हूं कि जाते वक्त आप दूसरे आदमी होकर लौटें। और मुझे पक्का खयाल है कि जो मैं कह रहा हूं उस पर थोड़ा प्रयोग करेंगे तो निश्चित ही आप जो आदमी आए थे वही आपको वापस लौटने की जरूरत नहीं। आप बिलकुल दूसरे आदमी होकर वापस लौट सकते हैं, वह आपके हाथ में है।
लेकिन कुछ करना जरूरी है। और करने के लिए मैं सरल सी बातें बता रहा हूं। अगर मैं कहता कि तीन दिन एकदम बातचीत करना, कभी भी एक क्षण चुप मत रहना, तो जरा कठिन भी हो सकता था, लेकिन मैं कह रहा हूं कि चुप हो जाएं। लेकिन आपको यही कठिन लगेगा, क्योंकि वह बातचीत ने एक पागल शक्ल पकड़ ली है। हम उसे कर रहे हैं, हमें पता भी नहीं है कि हम क्यों कर रहे हैं, किसलिए बोल रहे हैं, क्या बोल रहे हैं, क्या प्रयोजन है उसका बोले जाने का? नहीं, कुछ भी पता नहीं है, क्योंकि खाली नहीं बैठ सकते, इसलिए कुछ कर रहे हैं।
एक आदमी सिगरेट पी रहा है, क्योंकि खाली नहीं बैठ सकता। दूसरा आदमी बातचीत कर रहा है, क्योंकि खाली नहीं बैठ सकता। लेकिन हमारे ओंठ चलते रहने चाहिए— चाहे सिगरेट पीने में, चाहे बातचीत करने में। जिन मुल्कों में स्त्रियां भी सिगरेट पीने लगी हैं वहां स्त्रियों ने बातचीत कम कर दी है, और जिन मुल्कों में वे सिगरेट नहीं पीती वे आदमियों. से ज्यादा बातचीत करती हैं। मामला कुल इतना है कि ओंठ चलते रहने चाहिए। चाहे सिगरेट पीओ, चाहे बातचीत करो; ओंठ चलते रहना चाहिए। क्यों? यह ओंठों का इतना ज्यादा चलना भीतर मन के अशांत होने का सबूत है।
मन वाणी से बहुत गहराई से संबंधित है, क्योंकि मन वाणी से ही प्रकट होता है। मन है आंतरिक वाणी, ओंठ हैं बहिर्मन। ओंठ से ही मन प्रकट होता है। मन चूंकि बहुत बेचैन और परेशान है इसलिए ओंठ दिन—रात कैप रहे हैं, बोलना चाहते हैं, कुछ कहना चाहते हैं।
जब परेशानी और बढ़ जाती है तो शरीर के दूसरे अंग भी हिलने लगते हैं। एक आदमी कुर्सी पर बैठा है, सिर्फ टांगें ही हिला रहा है। कोई उससे पूछे कि भाई साहब! क्या हो गया है आपको, ये टांगें क्यों हिल रही हैं? वे एकदम रुक जाएंगी टांगें और वह बहुत क्रोध से आपको देखेगा, और उसे खुद भी पता नहीं कि टांगें क्यों हिल रही हैं! अब ओंठ हिलाने से काम नहीं चलता। अब हाथ—पैर और शरीर के दूसरे अंग भी हिलाने की जरूरत है। मन इतना भीतर कंप रहा है।
बुद्ध की प्रतिमा देखें या महावीर की तो एक बात उस प्रतिमा में दिखाई पड़ेगी कि जैसे कोई निष्कंप, जैसे कहीं कोई हलन—चलन नहीं है। सब मौन, सब चुप, सब शांत हो गया।
एक आदमी बुद्ध के पास गया था, सामने ही बैठा था और जोर से अपने पैर का अंगूठा हिला रहा था। बुद्ध आत्मा—परमात्मा की बातें कर रहे थे, बंद कर दी उन्होंने। उन्होंने कहा कि भई एक बड़ी गड़बड़ यहां एक आदमी कर रहा है। वह पैर का अंगूठा हिला रहा है। तो जब तक यह अंगूठा बंद नहीं करता, मैं बात नहीं करूंगा, क्योंकि जब तक इसका अंगूठा हिल रहा है तब तक मेरी बात करनी फिजूल है।
उस आदमी ने कहा. आप भी क्या बातें करते हैं, मेरे अंगूठे से आपका क्या बन रहा, बिगड़ रहा है? बुद्ध पूछने लगे. अगर तू बता दे कि अंगूठा क्यों हिल रहा है तो फिर मैं आगे बात बढाऊं। उस आदमी ने कहा मुझे कुछ पता नहीं, बस ऐसे ही हिल रहा था। बुद्ध ने कहा तेरा अनूठा है और ऐसे ही हिल रहा था, हद्द हो गई, अंगूठा तेरा है कि मेरा, अंगूठा किसका है यह? वह आदमी कहने लगा मेरा है। लेकिन बुद्ध ने कहा : फिर तू यह क्यों नहीं बताता कि यह हिलता क्यों था? अब क्यों बंद हो गया?
नहीं, हमें कुछ पता नहीं, भीतर कंपन है मन में। मन बहुत कैप रहा है। उसका कंपन सारे शरीर में फैलता चला जा रहा है। सबसे पहले वह ओंठ पर आता है, क्योंकि मन के निकटतम ओंठ हैं। उसके बाद वह सारे शरीर में फैलना शुरू हो जाता है। नहीं, ओंठ के कंपन के अति कंपन को रोकना जरूरी है।
तो इन तीन दिनों में ओंठ के कंपन पर जरा कृपा करें उसे विश्राम में जाने दें। और ध्यान रखें, कि बड़ा आश्चर्यजनक अनुभव हो सकता है। क्योंकि जैसे ही आप मौन होंगे आपको चारों तरफ जो प्रकृति और परमात्मा की ध्वनियां हैं, वे प्रगाढ़ होकर सुनाई पड़ने लगेंगी। यह समुद्र का गर्जन भी आपको पहली दफा सुनाई पड़ेगा जब आप मौन होंगे। और मैं जो कह रहा हूं वह भी आपको तभी सुनाई पडेगा जब आप मौन होंगे, अन्यथा आपके भीतर कंपन चल रहा है और मैं करीब—करीब दीवालों के सामने बोल रहा हूं।
एक फकीर था, बोधिधर्म। वह बहुत बढ़िया फकीर था। दुनिया में थोड़े ही बढ़िया फकीर हुए हैं उनमें एक वह भी था। वह हमेशा, अगर आप उससे मिलने जाते, तो वह आपकी तरफ पीठ करके बैठता। वह हमेशा दीवाल की तरफ मुंह करके बैठता था और आदमियों की तरफ पीठ। लोगों को बड़ा गुस्सा आता और लोग पूछते यह कैसा शिष्टाचार है। हम मिलने आए हैं और आप दीवाल की तरफ मुंह किए हुए हैं और हमारी तरफ पीठ?
बोधिधर्म कहता कम से कम दीवाल की तरफ मुंह करने से एक बात तो मन में रहती है कि कोई हर्ज नहीं, दीवाल है, नहीं सुनती तो कोई हर्ज नहीं, लेकिन तुम्हारी तरफ मुंह करने से बड़ी मुश्किल हो जाती है। हम कहे चले जाते हैं, तुम सुनते नहीं। तुम भी दीवाल हो और कहीं गुस्सा न आ जाए मुझे, इसलिए मैं दीवाल की तरफ ही मुंह रखता हूं। और दीवाल पर गुस्सा करने की जरूरत भी नहीं। दीवाल यानी दीवाल है, नहीं सुनती कोई हर्ज नहीं है। लेकिन तुम हो आदमी, तुम भी नहीं सुनते, इसलिए मैं पीठ करता हूं तुम्हारी तरफ।
आप मौन होंगे, तभी सुन सकेंगे कि मैं क्या कह रहा हूं या यह जीवन क्या कह रहा है! तो दूसरी बहुत जरूरी बात यहां से लौटते ही एक परिपूर्ण सन्नाटा छा जाना चाहिए। तीन दिन के लिए हिम्मत करें, एक प्रयोग करें। तीन दिन में आपका कुछ बिगड़ नहीं जाएगा चुप होने से। क्या खो देंगे आप? देखें, और दूसरों को भी मौन बनाने में सहायक बनें। हम सब ऐसे लोग हैं जिसका कोई हिसाब नहीं। अगर कोई एक व्यक्ति मौन हो जाएगा, तो चार लोग कहेंगे, अरे, हो गए क्या मौन, आ गए क्या बातों में? चार लोग उससे कहेंगे, अच्छा, आप आ गए, बड़े ध्यानी बन रहे हैं, मौन हो गए हैं?
हम हद्द के बेवकूफ हैं। हमारी मूढ़ता की कोई सीमा नहीं। हम किसी आदमी के ठीक दिशा में जाने में हमेशा बाधा बनते हैं।
नहीं, आपको मौन होना है और पड़ोसी मौन हो सके इसकी सुविधा देनी है। किसी का मौन आपसे न टूटे, इसकी फिकर करनी है। और इन तीन दिनों में यह प्रयोग करना है गहरे से गहरा कि आप इतने चुप हो जाएं कि आप चुप ही हैं, कुछ भी नहीं हैं। तब मैं जो कल सुबह से बातें आपसे करने को हूं वे सुनाई पड़ सकेंगी। और वे बातें आप तभी प्रयोग कर सकेंगे जब मौन साथ होगा, अन्यथा उनका प्रयोग नहीं हो सकेगा। यह दूसरी बात।
तीसरी बात कल से बल्कि आज से ही, अभी से, आंख को नासाग्र रखना है। पूरी आंख खोलने की जरूरत नहीं है। आंख इतनी खुली हो कि नाक का अगला हिस्सा दिखाई पड़ता रहे। अगर आप रास्ते पर चल रहे हैं, तो आपको चार कदम की जमीन दिखाई पड़े, बस इतनी आंख खुली हो, नाक का अग्रभाग दिखाई पड़ता रहे इतनी आंख खुले हो। आप हैरान हो जाएंगे कि अग्रभाग नाक का दिखाई पड़ता रहे, इतनी आंख खुली होगी, तो मन एक अपरिसीम शांति में प्रवेश करता है। जैसे मैंने कहा, ओंठ से संबंध हैं मन के, वैसे ही आंख से गहरे संबंध हैं मन के। और आंख जब थिर हो जाती है और चारों तरफ के व्यर्थ के आघातों को स्वीकार नहीं करती, तब आंख के भीतर जो स्नायुओं का बड़ा जाल है, जिससे मन का संबंध है वे सारे स्नायु शांत हो जाते हैं।
पूरी आंख इस शिविर में नहीं खोलनी है। नाक दिखाई पड़े इतनी ही आंख खोलनी है, आधी खुली आंख। चलते, उठते, बैठते, खाना खाते हर वक्त ध्यान रखना है कि आंख इतनी ही खुली रहे कि नाक दिखाई पड़ती रहे, तीन दिन के लिए। और आप हैरान हो जाएंगे, आश्चर्य से भर जाएंगे कि क्या हो सकता है इतने से छोटे से प्रयोग से भीतर मन में क्या परिणाम हो सकते हैं!
आंख स्रोत है हमारे मानसिक जीवन का। जीवन के अधिकतम आघात हमारी आंख से प्रवेश करते हैं और चित्त के स्नायुओं को डांवाडोल करते हैं, तनाव से भरते हैं। अगर आंख आधी खुली हो तो रिलैक्सड होती है, उसमें कोई तनाव नहीं रह जाता। आप आधी आंख खोल कर देखेंगे और आपको पता चलेगा कि मन एकदम रिलैक्सड, शिथिल हो गया है। मन भीतर एकदम शांत हो गया है।
तो अभी यहां इस बैठक के बाद ही आधी आंख, थोड़ा ध्यान रखना पड़ेगा तो कल दोपहर पहुंचते—पहुंचते आंख स्मरण में रह जाएगी और आधी खुली रहेगी। चलें तो भी आधी खुली रहे, उठे तो भी, बैठें तो भी, खाना खाएं तो भी। वह आपके मौन में भी सहायक होगी। हर स्थिति में आंख आधी खुली रहे। आंख के पलक हमारे तनावों के अधिकतम कारण होते हैं और आंख के पलक जितने पूरे खुले हों उतना ही मन सबसे ज्यादा तनाव से भर जाता है। उस तनाव की हालत में कई तरह के नुकसान पहुंचते हैं।
अगर आपने देखा हो नेताओं की मंच तो आपने खयाल किया होगा, कि पंडित नेहरू की मंच कितनी ऊंची बनती थी। आपको पता है कि उतनी ऊंची मंच बनाने की क्या जरूरत है? शायद आपको पता नहीं होगा। आपकी आंख पूरी की पूरी खुली रहे और ऊपर देखती रहे और तनी रहे। हिटलर भी उतनी ही ऊंची मंच बनवाता था। दुनिया के सारे नेता उतनी ही ऊंची मंच बनवाते हैं। उसका मनोवैज्ञानिक कारण है।
उसका कारण है कि आंख जितनी खिंची होगी मन उतने तनाव से भर जाएगा। और आंख जितनी ऊपर की तरफ देखती होगी, थोड़ी देर में आपका सोच—विचार क्षीण हो जाएगा। आप हिप्‍नोटिक हालत में आ जाएंगे, आप सम्मोहित अवस्था में आ जाएंगे। अगर पांच मिनट तक आंख को पूरी तरह खोला जाए और ऊपर की तरफ देखा जाए, तो आंख के भीतर के स्नायु तनाव से भर जाते हैं, सोच—विचार बंद हो जाता है, समझ खत्म हो जाती है और आदमी एक तरह की हिम्‍पोटिक स्लीप, एक तरह की सम्मोहक निद्रा में प्रविष्ट हो जाता है। उस हालत में उससे जो भी कहा जाएगा, वह मान लेगा।
इसलिए दुनिया के राजनीतिज्ञ ऊंची मंच बनाते हैं, ताकि वे जो भी कहें वह आप मान लें। हिटलर तो मंच पर ही प्रकाश रखता था। बहुत हजारों कैंडिल के बल्व चारों तरफ से, और सारे थिएटर में अंधकार करवा देता था, ताकि किसी आदमी की आंख किसी दूसरे को न देखे— सिर्फ हिटलर दिखाई पड़े— और उसके चेहरे पर भारी प्रकाश, ताकि वही दिखाई पड़ता रहे घंटे भर, और ऊंचा मंच, आंखें तनी रहें और उस हालत में हिटलर जो भी कहेगा लोग मान लेंगे। वह सजेस्टिव हालत हो जाती है आंखों की।
आंख जितनी शिथिल होगी, शांत होगी, ढली होगी, आधी खुली होगी उतनी ही आप जाग्रत अवस्था में होंगे। और आंख जितनी खुली होगी, तेजी से खुली होगी उतने ही आपको मूर्च्छा में ले जाना आसान है। आपको बेहोश किया जा सकता है। अगर आपने हिप्‍नोटिक या मेस्मरिज्म करने वाले लोगों को देखा होगा तो आपको पता होगा कि वे कहेंगे कि पूरी आंख खोल कर हमारी आंखों में झांको, पांच मिनट बाद आप बेहोशी की हालत में हो जाएंगे, क्योंकि पूरी आंख खोलना मन पर इतना तनाव, इतना टेंशन डालना है कि उस टेंशन की हालत में मन सजग नहीं रहता। अति तनाव के कारण बेहोश हो जाता है, मूर्च्छित हो जाता है, सुप्त निद्रा में चला जाता है। इसीलिए त्राटक या दीया जला कर लोग ध्यान करते हैं, वह ध्यान नहीं है। वे खुद को सुलाने की तरकीबें हैं, वे सब नींद में जाने की दवाएं हैं।
नहीं, ध्यान तो हमेशा आधी खुली आंख से होगा, चूंकि आधी खुली आंख आंख की सर्वाधिक शांत, जागरूक, अवेयरनेस की अवस्था है। तो आप प्रयोग करेंगे तो आपको दिखाई पड़ेगा कि जैसे ही आंख आधी खुली हुई नासाग्र होगी, वैसे ही आप शांति का, भीतर एक झरने का— जैसे कुछ चीज मस्तिष्क पर शांत हो गई, कोई तनाव उतर गया, कोई बादल हट गया, कोई बोझ हट गया— और साथ ही एक नये प्रकार का होश, एक जागृति, एक अवेयरनेस, एक बोध, एक अलर्टनेस पैदा होगी और लगेगा कि मैं ज्यादा होश से भरा हुआ हूं।
इस प्रयोग को, आंख के आधे खुले होने के प्रयोग को ध्यान में तो हम करेंगे ही, अभी जब रात का ध्यान करेंगे तब भी करेंगे, सुबह के ध्यान में भी करेंगे, लेकिन आपको शेष समय में भी करना है। और सर्वाधिक
उपयोगी होगा इन तीन दिनों में, समुद्र के तट पर चले जाएं अकेले में, थोड़े तेजी से चलें, गहरी श्वास लें और आंख नासाग्र रखें तो आपको घंटे भर में ही एक अपूर्व जागरण की भीतर प्रतीति होगी। अकेले चले जाएं तट पर, जोर से चलें, गहरी श्वास लें और आंख को नासाग्र रखें। एक घंटे में ही आप पाएंगे कि ऐसी शांति आपने कभी नहीं पाई, ऐसा जागरण आपको कभी अनुभव नहीं हुआ। आपके भीतर एक नई चेतना ही द्वार तोड़ रही है, यह आपको प्रतीत होगा।
तो प्रत्येक साधक दिन में कम से कम दो घंटे समुद्र—तट पर जाकर तेजी से चलेगा, वह सक्रिय ध्यान होगा। निष्किय ध्यान हम यहां करेंगे। यहां दो बार हम ध्यान करेंगे, सुबह और रात। वह शिथिल, शांत अवस्था में करेंगे। वहां आप सुबह और दोपहर या जब भी आपको मौका मिले एक घंटे तेजी से चलें और सक्रिय ध्यान करें। इन तीन दिनों को मैं इंटेंस मेडिटेशन के, सघन ध्यान के दिन बनाना चाहता हूं कि चौबीस घंटे हम ध्यान की गहरी से गहरी पर्तों को तोड्ने में सफल हो सकें।
ये तीन बातें मैंने कहीं। ये प्राथमिक बातें हैं। आने वाले तीन दिनों में चार साधना के अंगों पर मैं बात करना चाहूंगा। कल सुबह करुणा, फिर मैत्री, फिर मुदिता, फिर उपेक्षा। ये चार तत्व ध्यान के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण तत्व हैं। इन चार तत्वों का जिसके भाव में जन्म हो जाता है वह इस भांति ध्यान में प्रविष्ट हो जाता है, जैसे कभी आपने आकाश से गिरते हुए तारों को देखा हो। किस तीव्रता से वे पृथ्वी की तरफ बढ़ते हैं, पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण उन्हें खींचता है। वे भागे चले आते हैं तीर की तरह। जैसे ही ये चार तत्व किसी व्यक्ति के जीवन में पूरे हो जाएं, सारे प्राण परमात्मा की तरफ उल्कापात की तरह, गिरते हुए तारे की तरह भागते हैं। परमात्मा का आकर्षण उसे खींचना शुरू हो जाता है।
एक ग्रेविटेशन हम जानते हैं पृथ्वी का, एक ग्रेविटेशन और है, वह है परमात्मा का। उसमें जाने के लिए वह चार तत्वों की बात मैं आने वाले दिनों में करने को हूं लेकिन वे बातें उन्हीं की समझ में आ सकेंगी जो मैंने तीन सूत्र कहे, जो उन पर प्रयोग करेंगे। और यहां मैंने बुलाया इसलिए है कि प्रयोग करना है।

 अब हम रात्रि के ध्यान के लिए बैठेंगे। तो उसके पहले दो—चार सूचनाएं और मुझे देनी हैं, वे आपको दे दूं।

दोपहर को दो से तीन के बीच मुझसे मिलने का समय है। मुझसे मिलने का अर्थ समझ लेना चाहिए। वहां मुझसे प्रश्न पूछने नहीं आना है। प्रश्न तो जो भी पूछने हैं वह रात की बैठक में मैं उत्तर दूंगा, तो यहीं पूछ लेने हैं। जो भी प्रश्न पूछने हों वे यहीं पूछ लेने हैं, वहां तो मिलने मुझे दूसरे कारण से किसी को आना हो तो आ सकता है। उस एक घंटे में किसी को भी ऐसा लगता हो कि मेरे पास दो क्षण आकर बैठ जाना है तो उसी को आना है। न मालूम कितने मित्रों को लगता है कि दो क्षण आकर वे मेरे पास बैठ जाएं, लेकिन उन्हें यह खयाल होता है कि मेरे पास आना है तो कुछ पूछने के लिए आना है, नहीं तो किसलिए जाना है, तो वे कुछ भी पूछने पहुंच जाते हैं। उनके प्रश्न से मुझे पता लगता है कि उन्हें पूछना नहीं था। यह प्रश्न वे सिर्फ इसलिए पूछ रहे हैं कि उन्हें आना था। नहीं, कोई अनावश्यक पूछताछ की जरूरत नहीं है।
आपको आकर चुपचाप बैठना है, दो मिनट आकर बैठें। आपके पूछने से और मेरे बताने से वह ज्यादा महत्वपूर्ण और कीमती है। किसी को कई बार लगता है—रोज गांव—गांव में मित्र आते हैं, कोई आकर हाथ पकड़ कर दो क्षण बैठ कर रो लेगा। और मैं जानता हूं कि इसका आध्यात्मिक मूल्य है, उपयोग है, लेकिन उतनी हिम्मत भी लोगों ने खो दी है। न कोई हिम्मत से रो सकता है, न कोई हिम्मत से प्रेम कर सकता है, न हिम्मत से कोई किसी के गले मिल सकता है, न हिम्मत से कोई किसी का हाथ अपने हाथ में ले सकता है। उस घंटे में तो जिनको मेरे पास इंटिमेट रिलेशनशिप के लिए, एक निकटतम और एक आंतरिक संबंध के लिए आना है, उन्हीं को आना है। जिनको प्रश्न पूछना है वे लिखित प्रश्न दे देंगे तो सांझ की बैठक में उनके उत्तर हो सकेंगे।
दो से तीन वहां मैं मिलूंगा। फिर तीन से चार हम यहां सरू वन में एक घंटा मौन में बैठेंगे, सारे लोग साथ। आप दिन भर ही मौन में रहेंगे, लेकिन वह एक घंटा मेरे साथ मौन में रहेंगे। आपसे बात करता हूं रोज। एक बात है जो शब्दों से कही जा सकती है, कुछ बातें हैं जो सिर्फ मौन में कही जा सकती हैं।
एक घंटे वह मौन प्रवचन होगा। कुछ मैं आपसे कहूंगा जरूर। कुछ आप सुनेंगे, समझेंगे जरूर, लेकिन शब्दों का उपयोग नहीं होगा। तो आप जितने गहरे मौन में और जितनी प्रतीक्षा में होंगे उतना वह संबंध स्थापित हो सकेगा। पिछली बार एक घंटे मौन से हम बैठे थे तो किन्हीं लोगों को मेरे पास आने का लगा था तो वे मिलने आए थे, लेकिन अब चूंकि रोज एक घंटा मिलने के लिए है, इसलिए मौन के उस घंटे भर के प्रयोग में मुझसे मिलने कोई भी नहीं आएगा। जिसको भी मिलने जैसा लगेगा वह दूसरे दिन दो बजे मुझसे मिलने आएगा। वहां हम सिर्फ बैठेंगे। कोई मिलने नहीं आएगा, चुपचाप बैठेंगे। उस चुपचाप बैठने में जो भी हो, होने दें। किसी की आंख से आंसू बहने लगें तो बह जाने दें, जो होता हो होने दें। छोड़ दें अपने को बिलकुल—लेट—गों
तो दिन भर आप मौन रखेंगे। फिर एक घंटे निकट मैं आपके रहूंगा और एक घंटे दोपहर मौन रखेंगे। रात को आपके प्रश्नों के उत्तर होंगे, लेकिन ध्यान रहे, आपके सभी प्रश्नों के उत्तर मैं नहीं दूंगा। मैं सिर्फ उन प्रश्नों के उत्तर दूंगा कि जिस संबंध में मैं बोल रहा हूं उस संबंध में ही वह प्रश्न हों, ताकि वह आपकी साधना के काम पड़ सके। आप व्यर्थ के मेटाफिजिक्स के और तत्व—दर्शन के प्रश्न नहीं लाएंगे। उनके लिए मैं गांव— गांव में आता हूं। जब आपके गांव आऊं तब आपको जो भी फिजूल बातें पूछनी हों, वह आप पूछना। यहां तो सिर्फ तीन दिन हम एक—एक क्षण भी साधना के लिए ही लगाना चाहते हैं। इसलिए केवल वे ही मित्र पूछेंगे, जिन्हें साधना की दृष्टि से पूछना है, करने की दृष्टि से पूछना है। और जो मैं कह रहा हूं उसे कैसे करें, क्या बाधा पड़ रही है, उस दृष्टि से पूछना है। जो मैं कह रहा हूं वह समझ में नहीं आ रहा है, उस दृष्टि से पूछना है।
लेकिन दूसरी फिजूल की बातें कि कितने स्वर्ग होते हैं और कितने नरक होते हैं, इन सब बातों की पूछने की यहां कोई जरूरत नहीं है। वह ध्यान रखेंगे। और पूछेंगे भी आप तो मैं उत्तर उनका देने वाला नहीं हूं। मैं सिर्फ उनका ही उत्तर दूंगा जो मुझे लगेंगे कि इस तीन दिन की साधना प्रक्रिया में सहयोगी प्रश्न हैं।

 अब हम रात के ध्यान के लिए बैठेंगे। दो बातें समझ लेनी जरूरी हैं।

जैसा मैंने अभी कहा......हम सारे लोग थोड़े— थोड़े फासले पर होकर बैठेंगे, ताकि कोई किसी को छूए नहीं। समझ लें, फिर हम हट जाएंगे। कोई किसी को छूता हुआ न हो, ताकि दूसरे का बोध छोड़ा जा सके कि दूसरा भी है, ताकि हम अकेले हो सकें कि हम अकेले हो गए हैं। फिर आंख आधी खुली रखनी है। आधी खुली रखने का मतलब आप समझ गए होंगे, नाक का अगला हिस्सा अग्रभाग दिखाई पड़ता रहे इतनी पलक खुली रहे। ज्यादा आंख नहीं खोलनी है—न पूरी आंख बंद करनी है, न पूरी आंख खोलनी है— आधी आंख। फिर आधी आंख खोल कर अत्यंत शांति से, आराम से बैठ जाना है— आराम से, कोई तनाव शरीर को नहीं देना है।
फिर प्रकाश यहां बुझा दिया जाएगा, ताकि जो परमात्मा का प्रकाश ऊपर से गिर रहा है, वह निकट आ जाए। आदमी का प्रकाश है बहुत कमजोर, लेकिन परमात्मा के प्रकाश को रोकने में काफी समर्थ है। वह चांदनी दिखाई नहीं पड़ती, एक बिजली का बल्व जला हो, तो चांदनी दिखाई नहीं पड़ती। तो ये सारे बल्व बुझा दिए जाएंगे, ताकि चांदनी बरसने लगे और हम चंद्रमा के निकट हो जाएं और ये सरू के वृक्षों के निकट हो जाएं। जैसे ही आप आधी आंख खोल कर शांत बैठेंगे, मैं थोड़ी देर तक कुछ सुझाव दूंगा।
पहला सुझाव दूंगा कि आपका शरीर शिथिल हो रहा है, तो शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ देना है उस सुझाव के साथ, जैसे उसमें कोई प्राण नहीं हैं।
फिर मैं सुझाव दूंगा, आपकी श्वास शिथिल हो रही है, तो श्वास को बिलकुल धीमा छोड़ देना है, जितनी आए आए, न आए न आए, जाए जाए। अपनी तरफ से नहीं लेनी है, बल्कि धीमी छोड़ देनी है। वह धीरे— धीरे धीमी होती चली जाएगी।
फिर मैं तीसरा सुझाव दूंगा कि मन शांत हो रहा है, तब मन को भी शिथिल छोड़ देना है। वह धीरे— धीरे शांत होता चला जाएगा।
फिर मैं कहूंगा कि अब दस मिनट के लिए हम शांति से बैठे रहेंगे। क्या करेंगे उस शांति में, क्या होगा? जैसे ही मन शांत होगा वैसे ही चारों तरफ की आवाजें सुनाई पड़ने लगेंगी। दूर सागर का गर्जन, हवाएं आएंगी सरू के वृक्षों को हिलाएंगी, उनकी आवाजें। कोई पक्षी चिल्लाएगा, कोई बच्चा रो उठेगा, कोई कुत्ता भौंकेगा चारों तरफ परमात्मा न मालूम कितनी आवाजों में बोल रहा है, वह सब सुनाई पड़ने लगेगा। उसे चुपचाप सुनते जाना है। उस संगीत को चुपचाप सुनते जाना है। उसे सुनते ही सुनते और गहरा शून्य उत्पन्न हो जाएगा। और फिर यहां से उठ कर जब जाना है तो बातचीत जरा भी नहीं। चुपचाप जाकर सो जाना है बिस्तर पर। और ध्यान रखना है कि अब हम मौन में प्रविष्ट हो गए हैं। यह ध्यान—प्रारंभ है, और अंतिम ध्यान में मैं कहूंगा कि अब आप छोड़ दें उस बात को, लेकिन तब तक हम एक मौन की यात्रा में सम्मिलित हो गए हैं।
अब हम थोड़ा हट कर बैठ जाएं। कोई किसी को छूता हुआ न हो।
मान लूं कि आप ऐसे बैठ गए हैं कि कोई आपको छू नहीं रहा है।
शरीर को बिलकुल आराम में छोड़ दें। आंख आधी खुली हो, नासाग्र दिखाई पड़ता हो।
बैठ गए हैं आप। अब मैं सुझाव देता हूं उन सुझाओ में धीरे— धीरे तल्लीन होते जाएं।
शरीर शिथिल हो रहा है......छोड़ दें, शरीर के सारे अंगों को ढीला छोड़ दें, जैसे उनमें कोई प्राण न रहा हों। शरीर शिथिल हो रहा है......शरीर शिथिल हो रहा है... शरीर शिथिल हो रहा है......शरीर शिथिल हो रहा है... शरीर बिलकुल शिथिल हो गया है... शरीर शिथिल हो गया है... शरीर शिथिल हो गया है......शरीर शिथिल हो गया है...।
श्वास शांत हो रही है... श्वास शांत हो रही है.. श्वास को भी धीमा छोड़ दें। श्वास को भी धीमा छोड़ दें। श्वास शिथिल हो रही है.. श्वास शिथिल हो रही है......बिलकुल धीमा छोड़ दें, अपने आप आए जाए। श्वास शिथिल हो रही है... श्वास शिथिल हो रही है... श्वास शिथिल हो रही है......श्वास भी शिथिल हो गई है...। मन शांत हो रहा है... भीतर भी छोड़ दें मन को बिलकुल। छोड़ दें। मन शांत हो रहा है......मन शांत हो रहा है... मन शांत हो रहा है......मन शांत हो रहा है......मन शांत होता जा रहा है......मन बिलकुल शांत हो रहा है......मन शांत हो गया है, बिलकुल शांत हो गया है...। दस मिनट के लिए सब शांत हो गया है। सब शांत हो गया है।
सुनें......चुपचाप सुनते रहें रात्रि के सन्नाटे को, हवाओं के झोंकों को, सागर के गर्जन को, चुपचाप सुनते रहें। सुनते ही सुनते मन और शांत, शून्य होता जाएगा। धीरे— धीरे मन बिलकुल शून्य हो जाएगा। दस मिनट के लिए बिलकुल चुपचाप बैठे हुए सुनते रहें। हो गया मन शांत......मन शांत हो गया है......मन बिलकुल शांत हो गया
सुनें रात्रि के सन्नाटे को......सुनें रात्रि के सन्नाटे को, चुपचाप सुनते रहें। सुनते ही सुनते मन बिलकुल शून्य हो जाएगा। सुनते ही सुनते मिट जाएंगे आप। रह जाएगी चांदनी, रह जाएगा यह वन। शून्य हो रहा है......मन शून्य हो रहा है......मन बिलकुल शून्य हो गया है...।
मन शून्य हो रहा है......मन शून्य हो रहा है.. सुनते रहें रात की आवाजों को। आंख आधी खुली रहे। मन शून्य हो रहा है... धीरे— धीरे एक दूसरा ही जगत अनुभव होगा। सब शून्य हो गया है...। आंख आधी खुली रहे। मन शून्य होता जा रहा है......सुनते रहें, मन शांत होता जा रहा है...।
मन शून्य हो रहा है......मन बिलकुल शून्य होता जा रहा है......मन शून्य हो रहा है...। आंख आधी खुली रहे। देखें, भीतर सब शांत और शून्य होता जा रहा है......मन शून्य हो रहा है......मन शून्य हो गया है...।
आप मिट गए, रह गई रात, रह गई चांदनी। आप नहीं हैं। मन बिलकुल शून्य हो गया है...।
अब धीरे— धीरे आंख खोलें पूरी... धीरे— धीरे आंख खोलें......दो—चार गहरी श्वास लें... धीरे— धीरे दों—चार गहरी श्वास लें...।

 रात्रि की बैठक हमारी पूरी हुई।
धीरे— धीरे उठ कर बिना बातचीत किए वापस लौट आएं।

 

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