(ओशो
द्वारा
वाजिद—वाणी पर
दिए गए दस
अमृत प्रवचनों
का अप्रतिम
संकलन।)
वाजिद—यह
नाम मुझे सदा
से प्यादा
रहा है—एक
सीधे—सादे
आदमी का नाम,गैर—पढ़े—लिखेआदमी
का नाम;
लेकिन जिसकी
वाणी में
प्रेम ऐसा भरा
है जैसाकि
मुश्किल से कभी
औरों की वाणी में
मिले। सरल
आदमी की वाणी
में ही एकसा
प्रेम हो सकता
है। सहज आदमी
की वाणी में
ही ऐसी पुकार, ऐसी
प्रार्थना हो
सकती है।
पंडित की वाणी
में बारीकी
होती है,
सूक्ष्मता
होती है, सिद्धांत
होता है। तर्क—विचार
होता है,
लेकिन प्रेम
नहीं होता।
प्रेम तो सरल—चित
ह्रदय में ही खिलने
वाला फूल है।
वाजिद
बहुत सीधे—सादे
आदमी है।
ओशो
जब
वाजिद का दीया
जला, तो उसके
भीतर से काव्य
फूटा। सीधा—सादा
आदमी, उसकी
कविता भी सीधी—सादी
है, ग्राम्य
है। पर गांव
की सोंधी
सुगंध भी है
उसमें। जैसे
नई—नई वर्षा
हो और भूमि से
सोंधी सुगंध
है वाजिद के
काव्य में।
मात्रा—छंद का
हिसाब नहीं है
बहुत,
जरूरत भी नहीं
है। जब
सौंदर्य कम
होता है,
तो आभूषणों की
जरूरत होती
है। जब
सौंदर्य परिपूर्ण
हाता है,
तो न आभूषणों
की जरूरत होती
है, न साज—शृंगार
की। जब
सौंदर्य
परिपूर्ण
होता है,
तो आभूषण
सौंदर्य में
बाधा बन जाते
है। खटकते है।
जब तो सादापन
ही अति सूंदर
होता है,
तब तो सादेपन
में ही लावण्य
होता है,
प्रसाद होता
है।
भाषा
पर मत जाना,भाव
पर जाना। काव्य
फूटा उनसे!
जब दीया भीतर
जलता है,
तो रोशनी—उसकी
किरणें बाहर
फैलनी शुरू हो
जाती है। वही संतों
का काव्य है।
ओशो
(इसी पुस्तक
से)
आमुख—
नशीली
चांदनी के कुहरीले
आंचल से छनती, तैरती
है एक मद्धिम—मद्धिम
सी पुकार—किसी
लोकगीत की धुन—सी
सीधी—सादी, पर भाव के रस
से भीनी! वनफूलों
की सुगंध और
माटी के सोंधेपन
से बसी यह
पुकार, चांदनी
की ठंडी आंच
के स्पर्श से,
मादक होने
के साथ—साथ
दाहक भी हो
उठती है। एक
ओर यह पुकार
मन—प्राण को
शीतल करती है,
तो दूसरी ओर
अपनी आंच से
तप्त भी करती
है, जलाती
भी है, जगाती
भी है!
यह
पुकार है
वाजिद की।
वाजिद—दुनिया
के लिए एक
अनजाना—सा नाम, एक
मुसलमान पठान,
एक कवि, परंतु
जानने वालों
के लिए—एक नबी,
एक ऋषि, एक
सदगुरु।
वाजिद
की पुकार
प्रेम की
पुकार। प्रेम—जो
वाजिद के लिए
परमात्मा का पर्यायवाची
है। प्रेम की
इस पुकार का
प्रारंभिक
स्वर,
उस क्वांरी
विरहिन आत्मा
का स्वर है, जिसकी भांवरें
तो रच गयी हैं
उस अगम—अज्ञेय
प्रिय से, लेकिन
मिलन अभी नहीं
हुआ है।’
….. जब तें कीनो गौन भौन नहिं भावही।’
अत:
प्रिय के बिना
उसके लिए जगत
के सारे आकर्षण
अर्थहीन और
फीके होकर रह
गए हैं—
'फूल भए
सम सूल बिना
वा पीव रे।’
प्रिय—मिलन
की यह विरह—कातर
पुकार,
वाजिद के
प्रारंभिक
वचनों में, चांदनी रात
में टिहकती
किसी टिटिहरी
या पपीहे की
मर्म— भेदी
पुकार की तरह
बार—बार कचोट
उठती है—
'पीव बस्या
परदेस.........'
'पंछी एक संदेस
कहो उस पीव सूं।’
'पीव' की
यह पुकार
अचानक ही पैदा
हो गयी थी
वाजिद के जीवन
में। उस अगम—
अज्ञेय पीव के
मार्ग बड़े
रहस्यमय हैं।
कब, किस
क्षण उसकी टेर
प्रवेश कर
जाएगी, और
बांस की
मामूली पोंगरी
वंशी हो जाएगी,
कोई नहीं
जानता।
ऐसा
ही वाजिद के
साथ हुआ। जंगल
में शिकार
करते हुए, छलांग
भरती हिरणी का
सौदर्य—और
वाजिद अवाक, अभिभूत रह
गए! छलांग
भरती हिरणी के
सौंदर्य में
उस अज्ञेय की
झलक उतर आयी
थी क्षण— भर को।
फिर वाजिद
दूसरे ही
व्यक्ति हो
गये। घर नहीं
लौटे। निकल
पड़े सत्य की
खोज में, सदगुरु
की तलाश में।
इधर—उधर भटके
वाजिद; फिर
पा लिया दादू
दयाल के रूप
में सदगुरु,
और समर्पित
हो गए सदा के
लिए।
वाजिद
को उस अज्ञेय
प्रिय की झलक
मिली थी
सौंदर्य में—सौंदर्य
ही सत्य का
द्वार बना था।
अत: स्वभावत:
इस सीधे—सादे
पठान के वचनों
में नैसर्गिक
सादापन व सौंदर्य
है। उनमें
सत्य की गगरी
से छलक। हुआ
भाव का रस तो है, पर
शब्दों और
सिद्धांतों
का उलझाव कहीं
भी नहीं है।
वाजिद
की पुकार प्रारंभ
में भक्त की
पुकार है, पर 'पीव—मिलन' के बाद वह
भगवान की
पुकार बन गयी
है। नदी की कल—कल,
छल—छल, सागर
का गर्जन बन
गयी है।’पीव'
से मिलने के
बाद, यह
दूसरों को भी
उस प्रिय की
गली की राह
दिखाने का उदघोष
बन गयी है।
किंतु
इस उदघोष
में दूसरों पर
अपना दुराग्रह
थोपने की
चेष्टा कहीं
भी नहीं है; बल्कि
अहंकार—शून्य
हृदय से उपजा
प्रेमपूर्ण
सहज निवेदन है—स्वांत: सुखाय, लीला—मात्र।
वाजिद
अस्तित्व के
छंद के साथ
एकरस हो गए
हैं, समा
गए हैं उसमें!
अस्तित्व का
लीला—उत्सव
वाजिद का लीला—उत्सव
हो गया है—एक
खेल, एक
अभिनय।
राघोदास ने
वाजिद की इस
अपूर्व दशा का
स्मरण इन
शब्दों में
किया है.
राघो रति
रात दिन देह
दिल मालिक सूं
खालिक सूं
खेल्यो
जैसे खेलण
की रीत्यो
है।
वाजिद
की पुकार, एक सदगुरु की
शून्य—वीणा से
निकली पुकार
है। यह रूखे—सूखे
सिद्धांतों
से बुद्धि को
नहीं भरती, बल्कि हृदय
के द्वार
थपथपाती है—जगाती
है, बार—बार
टेरती है, कचोटती
है। न सुनने
पर कान में
अंगुली डालकर
भी झकझोरती
है—
'कान अंगुलि मेलि पुकारे
दास रे।’
ऊपर
से सीधे —सादे
उपदेश से
प्रतीत होने
वाले वाजिद के
ये सूत्र, ओशो
जैसे अपूर्व सदगुरु, जीवन—वीणा
के महावादक
के स्पर्श से,
जीवंत
रागों में
मुखरित हो उठे
हैं। ये राग—अज्ञेय,
अनाहत को
शब्दों की राग—रागिनियों
में बांधने के
स्वतःस्फूर्त
प्रयत्न हैं—इस
युग के अनुरूप,
जिज्ञासुओं और शिष्यों
की अंतःदशाओं
का खयाल रखते
हुए। संगीत के
विषय में
बोलना नासमझी
ही है न, क्योंकि
संगीत तो
सुनने और
रसमग्न होने
के लिए है।
फिर परम संगीत
के विषय में
तो.. आएं, सुनें,
पीए, डूबे!
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