दिनांक
9 अगस्त 1978;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
सारसूत्र:
सुनु
सुनु सखि री, चरनकमल तें
लागि रहु
री।
नीचे
तें चढ़ि
ऊंचे पाउ मंदिल
मगन मगन ह्वै गाउ।।
दृढ़करि डोरि पोढ़िकरि
लाव इत—उत कतहूं
नाहीं घाव।।
सत समरथ पिय
जीव मिलाव नैन
दरस रस आनि
पिलाव।।
माती रहहु सबै
बिसराव
आदि अंत तें
बहु सुख पाव।।
सन्मुख
ह्वै पाछे
नहिं आव जुग—जुग
बांधहु एहै दाव।।
जगजीवन
सखि बना बनाव
अब मैं काहुक
नाहिं डेरांव।।
तीरथ—ब्रत की
तजि दे आसा।
सत्तनाम
की रटना करिकै, गगन मंडल चढ़ि
देखु तमासा।।
ताहि मंदिल का
अंत नहीं कछु, रबी बिहून किरिन परगासा।
तहां
निरास बास करि
रहिए, काहेक भरमत फिरै उदासा।।
देऊं लखाय छिपावहुं
नाहीं, जस
मैं देखउं
अपने पासा।
ऐसा
कोऊ शब्द सुनि समुझैं, कटि अध—कर्म
होइ तब दासा।।
नैन
चाखि दरसन—रस
पीवै, ताहि नहीं है जम
की त्रासा।।
सखि, बांसुरी
बजाय कहां गयो
प्यारो।।
घर
की गैल बिरसिगै
मोहितें, अंग न बस्त्र
संभारो।।
चलत
पांव डगमगत
धरनि पर, जैसे चलत पतवारो।।
घर
आंगन मोहिं
नीक न लागै, सब्द—बान हिये
मारो।
लागि
लगन में मगन बाहिसों, लोक—लाज कुल—कानि
बिसारो।।
सुरति
दिखाय मोर मन लीन्हों, मैं तो चहों
होय नहिं न्यारो।
जगजीवन
छबि बिसरत
नाहीं, तुमसे
कहों सो
इहै पुकारो।।
जीवन
एक समस्या
नहीं है, अन्यथा
उसका समाधान
हो जाता ।
जीवन प्रश्न
होता तो उत्तर
खोजा जा सकता
था। जीवन
पहेली होती तो
बूझ लेते।
जीवन एक रहस्य
है; बूझने का कोई उपाय
नहीं, जीने
का उपाय है, मदमस्त होने
का उपाय है, पीने का
उपाय है, समझने
का—सूझने
का कोई उपाय
नहीं है।
इसलिए
दर्शनशास्त्र
हार जाता है।
दर्शनशास्त्र
की खोज व्यर्थ
खोज है।
सदियों—सदियों
में आदमी ने
सोचा है, खूब
सोचा है; बहुत—से
प्रश्न और
बहुत—से उत्तर
खड़े किए हैं, लेकिन न तो
कोई प्रश्न
जीवन की गहराई
को छूता है और
न कोई उत्तर
जीवन की गहराई
को छूता है। जीवन
स्वाद की बात
है। जीवन शराब
है; पियोगे तो जानोगे। पियोगे, मदमस्त
होओगे तो पहचानोगे।
यहीं
दर्शन और धर्म
का भेद है।
दर्शन सोचता
है, धर्म
पीता है। अब
प्यास लगी हो
तो जल के
संबंध में
सोचने से क्या
होगा? और
जल के संबंध
में सब पता भी
चल जाए तो भी
प्यास बुझेगी
नहीं। असली
सवाल जल के
संबंध में
जानना नहीं है,
असली सवाल
है जल को कंठ
से उतार लेना।
फिर
क्या तुम
सोचते हो जो
व्यक्ति जल के
संबंध में कुछ
भी नहीं जानते
उनकी प्यास
नहीं बुझती? पीते हैं तो
बुझती है।
अज्ञानी की
बुझ जाती है
पीने से और
ज्ञानी की भी
नहीं बुझती है
सिर्फ जानने—सोचने—विचारने
से।
धर्म
डुबकी लगाने
का उपाय है।
दर्शन किनारे
पर बैठकर
विचार करता है, धर्म नाव
छोड़ देता है
सागर में। तूफानों
से टकराता है,
चुनौतियों
को स्वीकार
करता है और
उन्हीं चुनौतियों,
उन्हीं आंधियों
से आत्मा का
जन्म होता है,
अनुभव का
जन्म होता है।
आज जगजीवन के
अंतिम सूत्र
हैं; और
बड़े प्यारे।
सुनु
सुनु सखि री, चरनकमल तें
लागि रहु
री
अपने
शिष्यों को कह
रहे हैं, अपने
मित्रों को कह
रहे हैं।
क्योंकि धर्म
की खोज में
शिष्य मित्र
ही हैं। इसलिए
सखि शब्द का
प्रयोग कर रहे
हैं।
शिष्य
की तरफ से
गुरु कितने ही
दूर मालूम पड़े, गुरु की तरफ
से शिष्य दूर
नहीं समझा
जाता। शिष्य
गुरु के चरणों
में झुकता है।
झुकने में रहस्य
है, झुकने
में कुछ पाने
की विधि छिपी
है, कुंजी
है। लेकिन
गुरु तो जानता
है कि जो मैं हूं
वही तू है। मुझमेंत्तुझमें
जरा भी भेद
नहीं है। गुरु
तो शिष्य के
बुद्धत्व को
उसी तरह
पहचानता है
जैसे अपने
बुद्धत्व को
पहचानता है।
बुद्ध
ने कहा है, जिस दिन मैं
बुद्धत्व को
उपलब्ध हुआ, सारा
अस्तित्व
बुद्धत्व को
उपलब्ध हो
गया। जिसकी
आंख खुल गई और
जिसे प्रकाश
दिखाई पड़ गया
अपने भीतर, उसे सब तरह
प्रकाश दिखाई
पड़ जाता है।
शिष्य की दशा
ऐसी है कि
प्रकाश उसके
भीतर है और
उसे पहचान
नहीं है। गुरु
को तो उसके
भीतर का
प्रकाश भी
दिखाई पड़ता
है।
इसीलिए
जगजीवनदास
ने ठीक ही किया
है कि शिष्यों
को "सखि' कहकर
संबोधन दिया
है——सुनु सुनु
सखि री। हे
सहेली, सुन।
सखा
कहते, सखि
क्यों कहा? मित्र कहते,
सहेली
क्यों कहा? क्योंकि
धर्म की खोज
में प्रत्येक
व्यक्ति को
स्त्रैण हो
जाना पड़ता है।
धर्म की खोज
में पुरुष की
गति ही नहीं
है। खयाल रखना,
जब मैं कहता
हूं पुरुष की
गति नहीं है, तो मेरा
मतलब यह नहीं
है कि पुरुष
वहां नहीं पहुंचते।
जगजीवनदास
खुद भी पुरुष
थे। पुरुष भी
वहां पहुंचते
हैं। लेकिन
पहुंचते वहां
जिस ढंग से
हैं, उस
ढंग को
स्त्रैण ही
कहा जा सकता
है। भेद समझें।
पुरुष
से अर्थ है :
अहंकार, अस्मिता,
मैं—भाव।
स्त्री से
अर्थ है :
विनम्रता, झुकने
की क्षमता, निर्अहंकार। पुरुष से
अर्थ है :
आक्रमण, विजय
की यात्रा, अभियान।
स्त्री से
अर्थ है :
प्रतीक्षा, प्रार्थना,
धैर्य।
पुरुष सत्य की
खोज में
निकलता है, स्त्री सत्य
के आने की
प्रतीक्षा
करती है। पुरुष
प्रेयसी की
खोज में पहल
करता है, स्त्री
प्रेमी की राह
देखती है।
स्त्री प्रेम
का निवेदन भी
नहीं करती
अपनी ओर से, चुपचाप
प्रतीक्षा
करती है।
स्त्री के
मुंह से प्रेम
का निवेदन
भद्दा भी लगता
है। पुरुष की
ओर से निवेदन
उचित है।
पुरुष पहल करे
यह उचित है।
परमात्मा
की खोज में जो
निकले हैं वे
अगर पुरुष की
अकड़ से चले तो
नहीं
पहुंचेंगे।
परमात्मा पर
आक्रमण नहीं
किया जा सकता
और न परमात्मा
को जीता जा सकता
है। और पुरुष
तो जीतने की
भाषा में ही
सोचता है।
परमात्मा के
समक्ष तो
हारने में जीत
है। वहां तो
जो झुके, उठा
लिए गए। वहां
तो जो गिरे वे
शिखर पर चढ़
गए।
तुमने
कहावत सुनी है
कि उसकी कृपा
हो जाए तो लंगड़े
भी पर्वत चढ़
जाते हैं। मैं
तुमसे कहता हूं
उसकी कृपा ही
उन पर होती है
जो लंगड़े हैं।
लंगड़े ही
पर्वत चढ़ते
हैं। जिनको
अकड़ है अपने
पैरों की और
अपने बल का
भरोसा है, वे तो
घाटियों में
ही भटकते रह
जाते हैं।
अंधेरे की घाटियां
अनंत हैं।
जन्मों—जन्मों
तक भटक सकते
हो। ईश्वर को
पाना हो तो ईश्वर
पुरुष है, उसकी
प्रतीक्षा
करना हमें
सीखना होगा।
प्रार्थना और
पुकार, सुरति
और सुमिरन; मगर
प्रतीक्षा!
भक्त
को स्त्री के
गर्भ जैसा
होना चाहिए——लेने
को राजी, लेने
को आतुर, अपने
भीतर
समाविष्ट
करने को
उत्सुक, प्रार्थनापूर्ण। अपने भीतर
नए जीवन को
उतारने के लिए
द्वार खुले
हुए हैं।
लेकिन जीवन को
खोजने हम जाएं
तो जाएं कहां?
परमात्मा
की तलाश करें
तो कहां करें,
किस दिशा
में करें?
जाननेवाले
कहते हैं, सब जगह है। न
जाननेवाले
कहते हैं कहां
है, दिखाओ।
भक्त जाए तो
कहां जाए? खोजे तो
कहां खोजे?
एक तरफ
जाननेवाले
हैं, वे
कहते हैं, रत्ती—रत्ती
में वही, कण—कण
में वही; वही
है और कोई भी
नहीं। और एक
तरफ न
जाननेवाले हैं,
वे कहते हैं
कि और सब कुछ
है, परमात्मा
नहीं है।
भक्त
इन दोनों के
बीच खड़ा है। न
उसे पता है कि
सब जगह है, और न ही वह
ऐसे अहंकार से
भरा है कि कह
सके कि कहीं
भी नहीं है।
क्योंकि वह
कहता है, मुझे
पता ही नहीं, मैं कैसे
कहूं कि कहीं
भी नहीं है? ऐसी अस्मिता
मेरी नहीं।
तो
भक्त क्या करे? भक्त
प्रतीक्षा
करे, प्रार्थना
करे, रोए—गाए, नाचे,
पुकारे। पुकार को
ऐसा गहन करे, पुकार उसके
प्राणों में
ऐसी गहरी उतर
जाए कि उसका
रोआं—रोआं पुकारे,
उसकी श्वास—श्वास
पुकारे
और अगर कहीं
परमात्मा है
तो आएगा, जरूर
आएगा। अगर
कहीं
परमात्मा है
तो आंसू व्यर्थ
नहीं जाएंगे,
पुकारें
सुनी जाएंगी।
और जितनी गहरी
पुकार होगी
उतनी त्वरा से
सुनी जाएगी, शीघ्रता से
सुनी जाएगी।
अगर कोई पूरे
प्राण से
पुकार सके तो
इसी क्षण घटना
घट सकती है।
इसलिए जगजीवनदास
"सखा' शब्द
का उपयोग नहीं
करते। कहते
हैं, "सुनु
सुनु सखि री।'
ए सखि सुन! चरनकमल तें लागि रहु री।'
परमात्मा
तो दिखाई नहीं
पड़ता लेकिन
उसके चरण सब
जगह दिखाई
पड़ते हैं। परमात्मा
तो विराट है, पर उसके चरण
सब जगह दिखाई
पड़ते हैं।
क्या अर्थ हुआ,
चरण सब जगह
दिखाई पड़ते
हैं? अर्थ
हुआ कि अगर
झुकना हो तो
कहीं भी झुक
सकते हो।
एक
गुलाब का फूल
खिला, जिसको
झुकने की कला
आती है, झुक
जाएगा।
चमत्कार घट
रहा है, मिट्टी
गुलाब का फूल
बन गई और तुम
अंधे की तरह जा
रहे हो बिना
झुके, बिना
नमस्कार किए?
मिट्टी
गुलाब का फूल
बन गई है, और
बड़ा जादू होता
है कहीं? साधारण—सी
मिट्टी में
ऐसी सुवास उठी
है, और किस
चमत्कार की
प्रतीक्षा
करते हो जब
तुम झुकोगे?
अगर तय ही
कर लिया हो न
झुकने का तो
बात और, अन्यथा
पल—पल, प्रतिकदम पर झुकने के
लिए अवसर है।
सूरज निकला, अब तुम किस
प्रतीक्षा
में खड़े हो? और परमात्मा
की महिमा कैसे
प्रकट होगी? उसके चरण और
कहां पाओगे? और आकाश
तारों से भर
गया और तुम झुकोगे
नहीं तो तुम
कहां झुकोगे,
कैसे झुकोगे?
मैं
बहुत चमत्कृत
हो जाता हूं
यह देखकर कि
लोग जाकर
मंदिरों में
झुक जाते है, जो आकाश को
तारों से भरा
देखकर नहीं
झुकते। इनका
मंदिर में
झुकना झूठा
होगा, निश्चित
झूठा होगा। यह
सच नहीं हो
सकता। इसमें
हार्दिकता
नहीं हो सकती।
आदमी की बनाई
हुई मूर्ति
में इन्हें
क्या दिखाई पड़
सकता है? अगर
परमात्मा की
बनाई हुई
मूर्तियों
में इन्हें
कुछ भी दिखाई
नहीं पड़ रहा
है। इतने
अंधे! ये
संगमरमर की एक
बनी प्रतिमा
के सामने
झुकते हैं, उसमें हृदय
होगा? आदतवश
झुक जाते
होंगे। बचपन
से झुकाए
गए होंगे
इसलिए झुक
जाते होंगे
मां—बाप ने कहा
होगा, झुको,
इसलिए झुक
जाते होंगे, भय के कारण
झुक जाते
होंगे; डर
के कारण——कि
कहीं नरक न हो,
कहीं दंड न
मिले। या लोभ
के कारण झुक
जाते होंगे कि
झुकने से
स्वर्ग
मिलेगा, पुरस्कार
मिलेंगे। कि
क्या बिगड़ता
है, थोड़ी
खुशामद कर ली।
परमात्मा को
भी राजी रखना उचित
है। फिर जो
करना है करते
रहो लेकिन उसे
भी राजी रखते
रहो।
थी
वह शायद अपनी
ही बेचारगी की
एक पुकार
जिसको
अपनी सादालौही
से खुदा समझा
था मैं
लोग
अपने भय, कमजोरी,
नपुंसकता
के कारण झुक
जाते हैं और
समझ लेते हैं
कि हम खुदा के
सामने झुक रहे
हैं।
थी
वह शायद अपनी
ही बेचारगी की
एक पुकार
जिसको
अपनी सादालौही
से खुदा समझा
था मैं
अज्ञान
है; तुमने
प्रार्थना
समझी है उसे? वहां
प्रार्थना
बिल्कुल नहीं
है, प्रेम
बिल्कुल नहीं
है। सरासर झूठ
है। क्यों? क्योंकि अगर
आंखों में
प्रेम होता तो
इन पास खड़े
वृक्षों के
पास तुम्हारे
झुकने का मन न
होता? कोयल
कूकती और तुम
न झुकते? मोर
नाचता और तुम
न झुकते? आकाश
बादलों से भर
जाता और तुम न
झुकते? चांदनी
के फूल झर—झर झरते और
तुम न झुकते? कोई हंसता
और तुम न
झुकते? मिट्टी
में और हंसी? किस चमत्कार
की प्रतीक्षा
कर रहे हो? उसके
चरण—कमल
प्रत्येक पल हैं,
प्रत्येक
स्थल पर हैं।
एक—एक रेत के
दाने पर उसके
हस्ताक्षर
हैं, लेकिन
संवेदनशीलता
चाहिए।
जगजीवन
कहते हैं:
सुनु
सुनु सखि री चरनकमल तें लागि रहु री
——उसके
चरणकमलों
में लग जाओ।
उसके चरणकमलों
का विस्तार सब
तरफ है। उसका
चेहरा तो बहुत
दूर है, विराट
है लेकिन उसके
पैर हरेक के
पास हैं। और
जो भी झुकना
जानता है उसे
उसके पैर मिल
जाते हैं।
पैरों को खोजकर
फिर हम झुकेंगे
ऐसा मत सोचो।
झुकने की कला
सीखो, और
पैर मिले। तुम
जहां झुके
वहां मंदिर
उठा। तुमने
जहां अपना सिर
जमीन पर टेका,
वहीं काबा
है। तुमने अगर
जमीन को चूम
लिया तो तुमने
उसके चरण चूम
लिए; तुमने
उसे ही चूम
लिया।
तुम्हें काबा
का पत्थर
चूमने जाने के
लिए उतने दूर
की यात्रा
करने की जरूरत
नहीं है। तुम
जहां झुक
जाओगे, वहीं
हज हो गई।
वहीं तुम हाजी
हो गए।
लेकिन
झुकना न आता
हो तो तुम
काबा भी
पहुंचकर क्या
करोगे? जो
जिंदगी भर न
झुका हो, जो
चांदत्तारों
के सामने न
झुका हो वह
काबा जाकर भी
क्या करेगा? कवायत हो जाएगी।
सिर झुका लेगा
मगर भीतर का
अहंकार तो खड़ा
ही रहेगा; शायद
सिर झुकाने से
और अकड़ जाएगा।
अहंकारी अगर
काबा हो आए तो
और अहंकारी हो
जाएगा। थोड़े
और आभूषण मिल
गए अहंकार को।
हाजी होकर लौट
आया।
तीर्थयात्रा
कर आए अहंकारी
तो और अकड़
जाता है। थोड़ा
पुण्य कर ले
तो अहंकार में
और थोड़ी सी—संपदा
बढ़ गई, और
थोड़ा पोषण मिल
गया अहंकार
को। यह तो
उलटी बात हो
गई। यह झुकना
न हुआ। यह तो अकड़ने के
लिए तुमने
धर्म का भी
उपयोग कर
लिया। तुमने
धर्म के माध्यम
से भी अपने को
अकड़ा लिया। और
जितने तुम अकड़े
उतने तुम
परमात्मा से
दूर हुए।
जितने तुम झुको
उतने तुम उसके
करीब हो। अगर
तुम
परिपूर्णता से
झुक जाओ तो
तुम्हारे
हृदय के भीतर
वह विराजमान
है।
अभी तो
सीधा—सीधा
देखना कठिन
होगा। अभी तो
परोक्ष से
खोजना होगा।
अभी प्रत्यक्ष
नहीं हो सकता।
इसलिए झुको।
झुकने में उसके
चरणों पर
तुम्हारे हाथ
पड़ेंगे। धीमे—धीमे, आहिस्ता—आहिस्ता
क्रमशः
तुम्हें
तुम्हारी
पहचान बढ़ेगी।
उसके चरणों की
गंध तुम्हारे
नासापुटों
में भरने
लगेगी। इसलिए
उसके चरणों को
कमल कहते हैं।
उसके चरण बड़े
सुगंधित हैं।
अपूर्व उनकी
सुगंध है।
उसके चरण बड़े
कोमल हैं, बड़े
सुंदर हैं।
अपूर्व उनका
सौंदर्य है।
उसके चरण बड़े
चमत्कारी हैं
जैसे कीचड़ से
कमल का होना——यह
चमत्कार है, ऐसे कीचड़
में भी वह
छिपा है। जो
झुकता है वह
कीचड़ में भी
हीरा पा लेता
है। अभी सीधे
तो देखना संभव
नहीं है।
एक प्रेमी
ने अपनी
प्रेयसी के
पास पत्रवाहक
को भेजा, नामावर
भेजा और
पत्रवाहक को
कहा:
मजा
लेंगे हम
देखकर तेरी
आंखें
उन्हें
खूब तू नामावर
देख लेना
सीधे
तो हम जा नहीं
सकते। अभी
सीधी अपनी
प्रेयसी की
आंखें नहीं
देख सकेंगे
उसका चेहरा
नहीं देख
सकेंगे लेकिन
तू जा रहा है
संदेशवाहक, गौर से
चेहरे को देख
लेना।
सौंदर्य को
खूब पी लेना
मेरी प्रेयसी
के, कि तू
जब आएगा तो हम
तेरी आंखों को
देखकर आनंद ले
लेंगे।
मजा
लेंगे हम
देखकर तेरी
आंखें
उन्हें
खूब तू नामावर
देख लेना
——प्रेम
का ही विस्तार
है भक्ति।
प्रेम का ही
परिष्कार है
भक्ति।
आज
उनकी नजर में
कुछ हमने सबकी
नजरें बचाकर
देख लिया
सीखी
यहीं मेरे दिले—काफिर
ने बंदगी
रबे—करीब
है तो तेरी रहगुजर
में
——तुमने
अगर किसी को
भी प्रेम किया
है तो तुम जान
ही जाओगे।
सीखी
यहीं मेरे दिले—काफिर
ने बंदगी
ऐसे तो
आदमी सभी
काफिर की तरह पैदा
होते हैं, सभी धर्मविहीन
पैदा होते
हैं। झुकने की
बात सीखनी
पड़ती है।
सीखी
यहीं मेरे दिले—काफिर
ने बंदगी
——प्रेम
के रास्ते पर
ही प्रार्थना
सीख ली जाती है।
रबे—करीब
है तो तेरी रहगुजर
में
और
जहां से प्रेम
गुजरता है उसी
राह पर परमात्मा
भी गुजरता है।
प्रेम की राह
और परमात्मा
की राह दो
राहें नहीं हैं।
अभी परमात्मा
का तो तुम्हें
पता नहीं है लेकिन
प्रेम का तो
थोड़ा—थोड़ा पता
है। चलो प्रेम
से ही शुरू
करें। जितना
अपने पास है
उस संपदा से
ही तो शुरू
करोगे न! एक कौड़ी
भी पास हो तो
करोड़ों
रुपयों को
खींच ला सकती
है। प्रेम
तुम्हारे पास
है, पर्याप्त
है। इतनी
पूंजी से हो
जाएगा काम। काफिर
में ईमान जग
जाएगा। न झुकनेवाला
झुकना सीख
जाएगा। विचार
तिरोहित हो
जाएंगे। विचारों
की ऊर्जा
भावनाओं में
रूपांतरित हो जाएगी।
नीचे
तें चढ़ि
ऊंचे पाउ
——जगजीवन कहते हैं, नीचे हो जाओ
तो ऊंचे पहुंच
जाओ।
ठीक
यही तो जीसस
ने कहा है : जो
पीछे खड़े
होंगे वे आगे
पहुंच
जाएंगे। और अभागे
हैं वे लोग जो
आगे होने की
कोशिश में हैं
क्योंकि पीछे
पड़ जाएंगे।
यहां जिसने
पहाड़ चढ़ना
चाहा वे
घाटियों में
भटकते रह गए; और जो झुके
रहे और
जिन्होंने
जीवन को
स्वीकार कर
लिया, जैसा
था वैसा
स्वीकार कर
लिया, वहीं
से जिन्होंने
पुकार दी, आवाज
दी, वे
पर्वत—शिखरों
पर चढ़ गए हैं, वे ऊंचाई
जीवन की पाने
में सफल हो गए
हैं।
नीचे
तें चढ़ि
ऊंचे पाउ
——हो
जाओ नीचे, झुक
जाओ।
चरनकमल तें लागि रहु री
——लग
जाओ उसके
चरणों से।
नीचे से नीचे
हो जाओ।
मंदिल
गगन मगन ह्वै गाउ
——और
एक बार
तुम्हें
झुकना आ जाए
तो तुम्हारे
भीतर वह जो
शून्य है वह
गीत गाने लगे;
तुम्हारे
भीतर वह छुपी
हुई जो समाधि
है, नाचने
लगे।
पग
घुंघरू बांध मीरा
नाची रे!
तुम भी
नाच सकते हो।
सब तुम्हारे
पास भी उतना ही
है जितना किसी
मीरा के पास।
लेकिन एक कला
तुम्हें नहीं
आ रही, जरा
झुकना नहीं आ
रहा । पुरुष
वहीं अकड़ा खड़ा
है। इसलिए मैं
फिर कहता हूं,
स्त्री हुए
बिना कोई सत्य
तक नहीं
पहुंचता है।
और
स्त्री होने
से मेरा मतलब
स्त्री की देह
से नहीं है।
क्योंकि
स्त्री की देह
भी हो और भीतर
अकड़ हो तो यह
तो पुरुषता
हुई। पुरुष की
भी देह हो और
भीतर अकड़ न हो
तो यह स्त्रैणता
हो गई।
इस बात
को ही प्रतीक—रूप
से कहने के
लिए हमने
बुद्ध की, महावीर की, राम की, कृष्ण
की जो
प्रतिमाएं
बनाई हैं वे
तुमने गौर से
देखी हैं? उन
सारी
प्रतिमाओं
में बड़ा
स्त्रैण
माधुर्य है।
उनमें पुरुष
का भाव प्रकट
नहीं होता।
तुमने विचार
किया कभी कि
बुद्ध की दाढ़ी—मूंछ
कहां है? महावीर
की दाढ़ी—मूंछ
का क्या हुआ? कृष्ण की दाढ़ी
मूंछ का क्या
हुआ? राम
की दाढ़ी—मूंछ
का क्या हुआ? ये कभी बूढ़े
हुए कि नहीं? या तो इन
सबके भीतर
पुरुष हारमोन
की कमी थी, जिसकी
वजह से इनके
चेहरे पर बाल
नहीं उगे; और
या फिर यह
काव्य का
प्रतीक है।
यह
प्रतीक है।
बाल तो उगे
जरूर। बुद्ध
भी बूढ़े हुए, अस्सी वर्ष
के होकर मरे।
लेकिन हमने
उनके बुढ़ापे
की प्रतिमा
नहीं बनाई।
क्यों? उनके
भीतर जो जीवन
था वह सदा
युवा रहा।
उनकी ताजगी
कभी फीकी न
पड़ी। वे सुबह
की ओस जैसे
ताजे ही रहे।
और देह तो वे नहीं
थे। हमने उनकी
आत्मा की
चिंता ली।
आत्मा सदा
युवा है। देह
का युवा होना
तो बड़ा भ्रामक
है। आज युवा, कल बूढ़ी हो
जाएगी। आज
जीवन, कल
मृत्यु। और
भीतर तो जीवन
की सतत धारा
है। दाढ़ी—मूंछ
उनको भी थीं
लेकिन हमने
अपनी
मूर्तियों
में उनको नहीं
बनाई——जानकर।
हम एक प्रतीक
की तरह उपयोग
कर रहे हैं।
हम स्त्रैण
भाव को प्रकट
कर रहे हैं।
हम इसके द्वारा
यह सूचना दे
रहे हैं कि
तुम भी जब
समर्पण की ऐसी
स्त्रैण दशा
में होओगे तो
परमात्मा तुम्हारे
भीतर उतरेगा।
नीचे
तें चढ़ि
ऊंचे पाउ, मंदिल गगन मगन
ह्वै गाउ
और एक
बार झुक जाओ
तो तुम्हारे
भीतर का मंदिर, शून्य मंदिर
तुम्हें मिल
जाए। शून्य
आकाश तुम्हारे
भीतर भी है, वैसा ही
जैसे बाहर है।
और बाहर का
आकाश और बाहर
के तारे और
बाहर का चांद
और बाहर के
सूरज उस भीतर
के आकाश और
भीतर के चांदत्तारों
और सूरजों
के सामने फीके
हैं। बाहर
तुमने जो देखा
है वह प्रतिफलन
है——जैसे
दर्पण में
देखा हो। भीतर
तुम जो देखोगे
वह असली है।
बाहर उसी की
छाप है, छाया
है। बाहर भीतर
की छाया है।
और जो भीतर को देख
लेता है वह गाएगा
नहीं तो क्या
करेगा? गाता
है ऐसा कहना
ठीक नहीं है, उससे गीत
फूटते हैं।
इसलिए
हमने कहा है
कि वेद
अपौरुषेय है।
अपौरुषेय का
अर्थ ? जिन्होंने
गाए उन्होंने
नहीं गाए; उनके
भीतर
परमात्मा गुनगुनाया
है। पुरुष की
छाप नहीं है
उन पर। आदमी
के हस्ताक्षर
नहीं हैं उन
पर। वह वाणी
परमात्मा की
है। क्योंकि
जो गानेवाले
थे वे तो इतने
झुक गए थे कि
मिट गए थे; थे
ही नहीं। बांस
की पोंगरी हो
गए थे। फिर जो
स्वर उठे बांस
की पोंगरी से,
जिसने उस
बांस की
पोंगरी को
बांसुरी बना
दिया, जिन
अदृश्य ओंठों
से वे स्वर
उठे, वे
परमात्मा के
हैं।
एक तो
गीत है, जिसे
तुम गाते हो।
तुम्हारा गीत
तुमसे बड़ा नहीं
होता, तुम्हारा
गीत तुमसे
छोटा होता है;
बहुत छोटा
होता है। और
तुम्हारा गीत
अक्सर झूठ
होता है। तुम
ही झूठ हो।
तुम्हारे
भीतर आंसू भरे
रहते हैं और
बाहर तुम गीत
गाते रहते हो।
तुम्हारे
भीतर रोना
चलता रहता है
और ओंठों पर मुस्कुराहट
चलती रहती है।
मजबूरी
है। जीवन से
ऐसा समझौता
करना पड़ता है।
रोते रास्तों से
गुजरोगे, नाहक ही दया
के पात्र हो
जाओगे। तो सज—संवर
कर अपने, रोने
को भीतर
छिपाकर, अपनी
छाती में ढांककर,
मुंह पर
झूठी मुस्कुराहटें
फैलाकर निकल
पड़ते हो।
जिनके
जीवन में
प्रेम
बिल्कुल नहीं
है वे प्रेम
का गीत गाकर अपने
को समझा लेते
हैं, सांत्वना
कर लेते हैं।
जिनके जीवन
में संगीत बिल्कुल
नहीं है, वे
बाहर की वीणाओं
के तार छेड़—छेड़कर
सोचते हैं कि
संगीत मिल
गया।
मनुष्य
तो जो भी
करेगा, मनुष्य
से छोटा होगा।
और चूंकि
मनुष्य झूठ हो
गया है, मनुष्य
के होने का
ढंग ही झूठ है,
पाखंड है।
बाहर कुछ, भीतर
कुछ। और बचपन
से ही यह कथा
शुरू हो जाती
है। हम बच्चों
को भी समझाने
लगते हैं कि
बाहर से कुछ, भीतर से
कुछ। हम
बच्चों से
कहते हैं, घर
में मेहमान
आते हैं, अभी
शोरगुल मत
करना। अब अगर
उनके भीतर
शोरगुल हो रहा
हो तो अब झूठ
होना शुरू
हुआ। मेहमान
हैं तो वे
दबाकर बैठे
रहेंगे। ऊपर
से कुछ दिखाते
रहेंगे, भीतर
कुछ।
मैं एक
घर में मेहमान
था। वे मुझे
लेकर पास के एक
सरोवर पर गए
सांझ के समय।
सरोवर सुंदर
था। वे उतरकर
कुछ खरीदने गए, उनका छोटा
बच्चा और मैं,
दोनों गाड़ी
में बैठे रहे।
ठंडी—ठंडी
हवा! छोटा
बच्चा, उसको
झपकी आ गई, वह
गिर पड़ा। गिरा
तो उसके सिर
में चोट भी लग
गई गाड़ी के स्टयरिंग
वील से।
उसे उठाकर
मैंने बिठा
दिया। मुझे
लगे कि वह
रोना चाहता है
मगर रोता
नहीं। अब खुद
ही नहीं रोना
चाहता तो मैं
भी क्या करूं?
मैंने कहा,
बैठा रहे।
वह
बैठा रहा। आधा
घंटे बाद उसके
पिता लौटे।
उनके आते ही
से रोने लगा।
मैंने कहा, देख, अब
बेईमानी की
बात है। आधा
घंटे पहले तू
गिरा था। उसने
कहा, गिरा
तो आधा घंटा
पहले था मगर
आपकी तरफ देखा
और ऐसा लगा, कोई सार
नहीं है रोने
से। मैंने
पूछा, अब
तुझे दर्द हो
रहा है? उसने
कहा, अब
दर्द नहीं हो
रहा । फिर
क्यों रो रहा
है तू? मगर
अब रोने में
ठीक मालूम
पड़ता है
क्योंकि पिता
आ गए हैं।
अब यह
बच्चा झूठ
होने लगा। जब
रोना चाहेगा
तब रोएगा नहीं, जब रोने की
कोई जरूरत
नहीं होगी तब
रोएगा। द्वंद्व
शुरू हुआ।
पाखंड शुरू
हुआ।
हम
लोगों से कहते
हैं, ईमानदारी
से परमात्मा
पर विश्वास
करो। अब यह
झूठ की बात
है। अगर ईमानदारी
शब्द का
प्रयोग करते
हो तो विश्वास
किया नहीं जा
सकता।
क्योंकि
जिसका पता
नहीं उस पर
कैसे विश्वास
करें? और
हम कहते हैं, ईमानदारी से
परमात्मा पर
विश्वास करो।
इस्लाम
तो ईमान शब्द
का अर्थ ही
धर्म करता है।
"ईमानदारी से
विश्वास करो, ईमान लाओ'। अब झूठ की
बात हो रही
है। परमात्मा
का पता नहीं
है, और
ईमान ले आए तो
यह बेईमानी हो
गई । जब
परमात्मा का
पता होगा तब
ईमान आएगा। वह
ईमानदारी होगी।
जब अनुभव होगा
तब भरोसा
होगा। उस
भरोसे का नाम
श्रद्धा है।
यह तो
श्रद्धा जिसे
हम कहते हैं, झूठी है, नकली
सिक्का है; है नहीं।
मूल से यह भी
बेईमानी का
विचार है। मूल
से ही झूठ है।
और जहां मूल
में झूठ हो
जाए वहां सारे
पत्ते झूठ न
हो जाएं तो और
क्या हो? हमारी
जड़ें झूठ पर
खड़ी हैं।
हम
लोगों को कुछ
सिखा रहे हैं
जिससे वे अपने
आसपास एक तरह
का रूप बना
रखते हैं, एक मुखौटा।
भीतर की हमें
पहचान ही नहीं
हो पाती फिर।
हम बाहर ही
बाहर जीने
लगते हैं। फिर
हम रोते हैं
तो भी छिछला।
आंसू शायद आंख
से ही आते हैं,
हृदय से
नहीं आते।
हंसते हैं तो
भी छिछला। ओंठ
पर ही फैली
होती है हंसी——लिपस्टिक
के रंग की
तरह।
अब
देखते हो
लिपस्टिक का
रंग? ओंठ सूर्ख
हों यह समझ
में आता है।
ओंठों में
जीवन हो, लाली
हो, यह समझ
में आता है, लेकिन
लिपस्टिक
पोतकर चल रहे
हो। किसको
धोखा दे रहे
हो? शर्म
भी नहीं उठती।
संकोच भी नहीं
होता। ओंठ लाल
होते, ठीक
बात थी; होने
चाहिए। ओंठ
स्वस्थ हों, जीवंत हों, उनमें खून
बहता हो, रसधार
बहती हो, ठीक
है, समझ
में आनेवाली
बात है। लेकिन
रंग ऊपर से
पोतकर चले——!
मगर यह
हमारी पूरी
जिंदगी का ढंग
है। लिपस्टिक
में हमारी
आदमी की पूरी
कथा छिपी है।
वह उसकी पूरी
कहानी है। वही
उसकी व्यथा भी
है। क्योंकि
झूठ, सब झूठ
है। सब दिखावा
है।
जब तुम
किसी से कहते
हो, मैं
प्रेम करता
हूं, तब भी
तुम शायद कह
ही रहे हो।
तुम्हारा कोई
प्रयोजन नहीं
है। शायद
तुमने सोचा भी
नहीं है। यह
कहने की आदत
हो गई है।
तो
आदमी तो गीत
भी गाएगा
तो झूठ होंगे।
एक ऐसा भी गीत
है जो आदमी
नहीं गाता, आदमी से
गाया जाता है;
उसी गीत का
नाम धर्म है।
एक ऐसा भी
नृत्य है जो आदमी
नहीं नाचता, आदमी के
द्वारा नाचा
जाता है; उसी
नृत्य को
अपौरुषेय कहा
है।
जैसे
वेद के वचन
अपौरुषेय है, मैं तुमसे
कहना चाहता
हूं, मीरा
का नृत्य भी
अपौरुषेय है;
यद्यपि
किसी ने यह
बात इसके पहले
कही नहीं है। क्योंकि
कौन मीरा को, स्त्री को
इतना गौरव दे!
उसका नृत्य भी
अपौरुषेय है;
उतना ही
अपौरुषेय
जितने वेद के
वचन; जितनी
कुरान की
आयतें।
अपौरुषेय
का अर्थ इतना
ही होता है कि
अब अहंकार
नहीं है, अब
मैं नहीं हूं।
अब गाए तो वही
गाए, नाचे
तो वही नाचे।
बैठे तो वही
बैठे, उठे
तो वही उठे।
सब उसका है।
मैं सब तरफ से
झुक गया हूं, उसका हो गया
हूं।
मंदिल
गगन मगन ह्वै गाउ
और एक मगनता आती
है, एक मस्ती
आती है, एक
नशा छा जाता
है। एक नशा, जो फिर कभी
उतरता नहीं।
एक नशा, जो
अंगूरों का
नहीं है, आत्मा
का है। एक नशा,
जो बाहर से
भीतर नहीं ले
जाना पड़ता, भीतर से
बाहर की तरफ
आता है।
बाहर
से शराब मत
पियो। लेकिन
एक ऐसी शराब
है जो भीतर से
बाहर की तरफ
बहती है; उसे
जरूर पियो।
उसके संबंध
में तो शराबी
हो ही जाना
चाहिए। सच तो
यह है कि बाहर
की शराब भी आदमी
इसीलिए पीता
है कि उसे
भीतर की शराब
की तलाश है।
क्या
तुम्हें यह
पता है कि
शराब की सबसे
पहले खोज
साधुओं ने की ? सबसे पहले
शराब ढाली गई
ईसाई आश्रमों
में। अब भी
ढाली जाती है।
जैसे चाय को
बौद्धों ने
खोजा——बौद्ध
भिक्षुओं ने,
वैसे शराब
को ईसाई
भिक्षुओं ने
खोजा। यह आश्चर्य
की बात है कि
ईसाई
भिक्षुओं ने
पहाड़ों में
बसे अपने
आश्रमों में
शराब की सबसे
पहले खोज की।
सबसे पुरानी
शराब, सबसे
कीमती शराब आज
भी ईसाई
आश्रमों से
उपलब्ध होती
है। सैकड़ों
वर्ष पुरानी
शराब उनके तलघरों
में रखी है।
कैसे
खोजा साधुओं
ने शराब को? क्यों खोजा?
और शराब के
प्रति इतना
आकर्षण क्यों
है सारी दुनिया
में। शराब
किसी कमी की
पूर्ति करती
है। क्षणभर
को ही सही, मगर
कुछ झलक देती
है। झलक झूठी
है; प्रवंचना
है, भ्रांति
है। मगर फिर
भी झलक जिसकी
है उसके संबंध
में हमारी कोई
एक आंतरिक
आकांक्षा है।
हम सब
मस्त होकर
जीना चाहते
हैं। यह हमारी
अंतरतम
अभीप्सा है कि
हम मस्त होकर जिएं। कि
हमारे जीवन
में मस्ती का
स्वर हो, नाद
हो। कहां से
पाएं मस्ती? दो ही तरह
मिल सकती है :
या तो बाहर के
नशे जो थोड़ी
देर के लिए
मस्त कर देंगे
और फिर कल
सुबह सिरदर्द
भी छोड़ जाएंगे,
शरीर को भी
तोड़ जाएंगे, रुग्ण भी कर
जाएंगे। बड़ी
कीमत! और मस्ती
भी कुछ बहुत
गहरी मस्ती
नहीं, सिर्फ
बेहोशी है; मस्ती नहीं
है, मस्ती
का धोखा है।
एक
भीतर की मस्ती
है, जिसमें
बेहोशी नहीं
होती, होश
होता है। जब
भीतर की शराब
तुम्हारे
जीवन में बहनी
शुरू हो जाती
है तो तुम
मस्त होते हो।
और जैसे—जैसे
मस्ती बढ़ती है,
वैसे—वैसे
होश बढ़ता है।
अगर बेहोशी
बढ़े तो कहीं
कुछ भूल हो गई।
होश बढ़ना
चाहिए।
क्योंकि
बुद्धत्व तो
होश से ही
उपलब्ध होगा।
मस्ती भी बढ़ेगी,
नृत्य भी
बढ़ेगा, गीत
भी उठेंगे, शांति भी बढ़ेगी,
जागरूकता
भी बढ़ेगी,
प्रेम भी
बढ़ेगा, ध्यान
भी बढ़ेगा।
प्रेम
और ध्यान जब
साथ—साथ बढ़ते
हैं, अर्थात
मस्ती और होश
साथ—साथ बढ़ते
हैं, तब
समझना कि ठीक
दिशा में चल
पड़े हो। तब
तुम्हारा
दिशा सूचक
यंत्र ठीक—ठीक
तरफ इशारा कर
रहा है। अब
आगे बढ़े चलो।
यही द्वार है।
मंदिल
गगन मगन ह्वै गाउ
दृढ़करि डोरि पोढ़िकरि
लाव, इत—उत
कतहूं
नाहीं घाव
मन तो
यहां—वहां दौड़ता
है। अब डोरी
बांध लो। मन
को बांध लो, दृढ़ करके
बांध लो। उसी
परमात्मा के
साथ फेरे डाल
लो। इसे यहां—वहां
न भागने दो।
दृढ़करि डोरि पोढ़िकर
लाव——कहीं भी
भाग जाए, पकड़कर ले आओ। समझा बुझाकर
वापस ले आओ।
फिर स्मरण करो
प्रभु का। फिर
झुको, फिर
याद जगाओ। ऐसे
जगाते—जगाते
एक दिन रस का
झरना फूट पड़ता
है। खोदते—खोदते—खोदते
जैसे एक दिन जलस्त्रोत
मिल जाते हैं
जमीन में, ऐसे
ही जगाते—जगाते
अपने भीतर रसस्त्रोत
मिल जाते हैं।
इत—उत कतहूं
नाहीं घाव——अभी
तो मन बहुत
भागता है। इधर
भागता है, उधर भागता; फिर बिल्कुल
नहीं भागता।
फिर तो मस्त
होकर बैठा
रहता है। फिर
तो पी लिया कि
फिर कहां जाना
है। किसलिए
जाना है? जिसकी
तलाश थी, घर
में ही मिल
गया। जिस
संपदा को
खोजने सारी दिशाओं
में दौड़ते थे,
वह अपने
भीतर ही पा
लिया।
नहीं
तो मन दौड़ता
ही रहता है।
मन न मालूम
कितनी
तरकीबें करता
रहता है। मन
कहता है, यह
भी पा लो, वह
भी पा लो, यहां
भी हो आओ, वहां
भी हो आओ।
विकल्प पर
विकल्प खड़े
करता है।
अभी
शबाब है कर
लूं खताएं
जी भरके
फिर
इस मकाम
पे उम्र—ए—रवां
मिले, न
मिले
मन
कहता है, अभी
तो कर लो। यह
भी कर लो, वह
भी कर लो। फिर
क्या पता उम्र
का! कब बचो, न
बचो; यह जवानी
रहे न रहे।
तुम
जरा देखते हो, मन का तर्क
और जो मन के
बाहर गए हैं
उनका तर्क एक
ही आधार पर
खड़ा है। बुद्ध
कहते हैं, जागो, क्योंकि
यह जिंदगी चली
जाएगी हाथ से।
इस जिंदगी में
ज्यादा समय मत
गंवाओ। यह रेत
का घर है, इसमें
अपने को
ज्यादा
व्यस्त मत
करो। असली घर बनाना
है तो समय
खराब मत करो।
यह जिंदगी तो
जा रही है। यह
तो गई। यह तो
देखते—देखते
चली जाएगी। यह
तो सपना है।
मन भी
यही कहता है
कि यह जिंदगी
जा रही है।
इसके पहले
निकल जाए, भोग लो।
देखते हो? दोनों
का तर्क एक
है। मन भी यही
कहता है कि
जिंदगी दो दिन
की है; चार
दिन की है
ज्यादा से
ज्यादा। भोग
लो। क्या पता,
फिर मौका
मिले न मिले।
अभी शबाब है
कर लूं खताएं
जी भरके
लोग
चलो इसको खता
ही कहते हैं, बुरा ही
कहते हैं, पाप
ही कहते हैं, कहने दो।
अभी शबाब है——अभी
जवानी है।
...........कर
लूं खताएं
जी भरके
फिर
इस मकाम
पे उम्र—ए—रवां
मिले न मिले
फिर यह
मकाम
दुबारा आए कि
न आए; फिर उम्र
मिले न मिले, बचे न बचे।
तर्क
का आधार एक ही
है। इसी तर्क
के आधार पर चार्वाक
कहता है, भोग
लो। इसी तर्क
के आधार पर
बुद्ध, महावीर,
कृष्ण, क्राइस्ट
कहते हैं, जाग
लो।
तर्क
दुधारी तलवार
है। तर्क से
बड़े सावधान होकर
चलना। और मन
बड़ा कारीगर
है। मन बड़ा
कुशल है। तर्क
तो ऐसा देता
है जो बुद्धों
का है लेकिन नतीजा
ऐसा पकड़ा देता
है जो बुद्धुओं
का है। तर्क
बिल्कुल साफ—सुथरा, नतीजा
बिल्कुल गलत।
सत समरथ पिय
जीव मिलाव.....
एक ही
चीज इस जगत
में है——सत्य
भी देगी, सामर्थ्य
भी देगी, प्रेम
से भी भर देगी,
और वह है :
परमात्मा के
साथ प्रेम की
डोरी दृढ़ हो
जाए। परमात्मा
से मिलन हो
जाए।
..... नैन
दरस रस आनि
पिलाव
और जब
उसकी आंखों से
तुम्हारी
आंखों में रस
उतरने लगे, जब उसकी
आंखें और
तुम्हारी
आंखें एक भाव—भंगिमा
में लीन हो
जाएं, एकात्म
सध जाए, जब
तुम उससे जरा
भी भिन्न अपने
को अनुभव न
करो, तब
तुमने शराब
पी।
तू
जो जाहिद
मुझे कहता है
कि तोबा कर ले
क्या
कहूंगा जो
कहेगा कोई
पीना होगा
——तू
तो कहता है, कसम खा ले न
पीने की, लेकिन
एक वक्त आएगा
जब परमात्मा
कहता है, पियो।
तू
तो जाहिद
मुझे कहता है
कि तोबा कर ले
क्या
कहूंगा जो
कहेगा कोई
पीना होगा
अपने
हाथों से दिया
यार ने मीना
मुझको
——एक
घड़ी आती है जब परमप्यारा
अपने ही हाथ
से प्याली
भरकर देता है।
अपने
हाथों से दिया
यार ने मीना
मुझको
रुख्सत—ऐत्तोबा
कि लाजिम हुआ
पीना मुझको
उस दिन
मुझे सारी
कसमें छोड़
देनी पड़ीं।
सारे व्रत—नियम
छोड़ देने पड़े।
जब उस प्यारे
ने ही हाथ से भरकर
दी प्याली तो
इंकार तो नहीं
किया जा सकता।
इसलिए
जो व्यक्ति सच
में पहुंच गया
है, अगर फिर
भी उदास दिखता
हो, तो
समझना कि
पहुंचा नहीं।
अभी प्यारे ने
प्याली भरकर
दी नहीं।
किसी
के नैन बोले
भी, अबोले
भी
भृकुटी
में बंक चितवन
धनुष भी है, तीर भी है
तरल
आंसू तरल मोती, हृदय की पीर
भी है
किसी
के नैन चंचल
और भोले भी
उडुप
उस पार मन की
थाह छूने को तरे हैं
कि
वे इस पार उमड़े
ज्वार में
डूबे भरे हैं
किसी
के नैन डोले
भी, अडोले भी
कभी
इन लोचनों से
वे नैन मिल—जुल
गए हैं
कभी
ये अश्रु उनके
आंसुओं में
घुल गए हैं
तुला
पर नेह की तौले, अतौले भी
किसी
के नैन बोले
भी, अबोले
भी
——जब
उन परम आंखों
से मिलन होता
है तो वे
बोलती भी नहीं
हैं और बोलती
भी हैं।
किसी
के नैन बोले
भी, अबोले
भी
तरल
आंसू तरल मोती, हृदय की पीर
भी है
किसी
के नैन चंचल
और भोले भी
परमात्मा
विरोधाभासी
है। वह समस्त
विरोधों का
संगम है। वहां
स्त्री—पुरुष
एक हो जाते
हैं। इसलिए
हमने
अर्धनारीश्वर
की प्रतिमा
बनाई——आधा
पुरुष, आधा
नारी। वहां
रात और दिन एक
हो जाते हैं।
इसलिए
हमने संध्याकाल
को प्रार्थनाकाल
चुना है।
क्योंकि
संध्या में
रात और दिन एक
हो जाते हैं।
ब्रह्म शब्द
को हमने नपुंसकलिंग
में रखा है; न पुरुष न
स्त्री।
क्योंकि वहां
सारे द्वंद्व
खो जाते हैं, सारा द्वैत
खो जाता है।
कि
वे इस पार उमड़े
ज्वार में
डूबे भरे हैं
किसी
के नैन डोले
भी, अडोले भी
कभी
इन लोचनों से
वे नैन मिल—जुल
गए हैं
कभी
ये अश्रु उनके
आंसुओं में
घुल गए हैं
तुला
पर नेह की तौले, अतौले भी
परमात्मा
को पा भी लिया
जाता है और
पाकर यह भी पाया
जाता है कि
बहुत पाने को
शेष रह गया।
उसे जितना पाओ
उतना ही पाने
को शेष रहता
मालूम होता
है। हम पूर्ण
से पूर्ण को
भी निकाल लें
तो भी पीछे
पूर्ण ही शेष
रह जाता है, उपनिषद् कहते हैं।
तुला
पर नेह की तौले, अतौले भी
किसी
के नैन बोले
भी, अबोले
भी
——लेकिन
वे दो आंखें, इस अस्तित्व
की आंखें जब
तुम्हारी
आंखों से मिल
जाती हैं तो
मस्ती छाती
है।
नैन
दरस रस आनि
पिलाव——तो
रसमग्न हो
जाते हो तुम।
बाढ़ आती है रस
की।
माती रहहु सबै
बिसराव .....
——फिर
तो सब भूल
जाता है। फिर
भूलना नहीं
पड़ता। फिर तो
एक मदमस्ती, एक
मतवालापन।
माती रहहु सबै
बिसराव
आदि अंत तें
बहु सुख पाव
फिर
मिले वह सुख
जो पहले भी था
और अंत में भी
है; जो
स्त्रोत है और
गंतव्य भी; जो मूल है और
अंत भी; जो
उद्गम भी है
हमारा, जहां
से हम आए हैं, हमारा घर, और जो हमारी
आखिरी मंजिल
भी।
.....आदि
अंत तें
बहु सुख पाव
सन्मुख
ह्वै पाछे
नहिं आव
इतना
ही खयाल रखना
कि घबड़ा मत
जाना, डर मत
जाना। एक बार
वे आंखें
तुम्हारी
आंखों में झांकें
तो घबड़ाकर
लौट मत पड़ना।
ध्यान की घड़ी
से बहुत घबड़ाकर
लौट जाते हैं।
प्रेम की
आखिरी घड़ी से
बहुत लोग घबड़ाकर
लौट आते हैं।
क्योंकि लगता
है, मैं
गया! मैं गया!
कि अब मैं गया;
कि यह तो
मृत्यु हुई; कि अब बचना
संभव नहीं है;
कि अब तो
मैं डूबा।
घबड़ाकर
लौट मत आना।
ठीक कहते हैं जगजीवन।
सन्मुख ह्वै
पाछे नहिं आव।
हिम्मत रखना।
पीछे कदम मत
रखना एक भी।
उसके सामने पड़
गए तो और करीब
जाना है।
..... जुग—जुग
बांधहु एहै दांव
यही तो
जिंदगी—जिंदगी
से दांव लगाने
की प्रतीक्षा
की थी। अब मौका
आ गया, अब लौट
मत आना। यही
दांव, अपने
को पूरा दांव
पर लगा देना।
जरा भी बचाना मत।
इंच भर बचाया
कि चूक गए।
क्योंकि इंच—भर
बचाया तो उतनी
तुमने खबर दे
दी कि श्रद्धा
कम है। और
पूर्ण
श्रद्धा हो तो
ही पूर्ण
तुम्हारा
मेहमान
बनेगा। जरा—सी
भी श्रद्धा
अपूर्ण हुई तो
चूक हो जाएगी।
इंच भर की भी
दूरी रह गई
परमात्मा और
तुममें तो चूक
हो जाएगी। फिर
इंच भर की
दूरी कोसों की
दूरी हो सकती
है, अनंत
कोसों की दूरी
हो सकती है।
जब एक बार सन्मुख
पड़ जाओ तो
लौटना मत।
ये
बहुत प्यारे
शिष्यों से
कहे हुए वचन
हैं, जो पहुंच
रहे हैं करीब
। जब सद्गुरु
ऐसे वचन बोलता
है तो अकारण
नहीं बोलता है,
हर किसी से
नहीं बोलता
है। ये बातें
हर किसी से
कहने की नहीं
हैं। ये बाजार
में नहीं कही
जातीं। ये भीड़—भाड़
में नहीं कही
जातीं। ये
उनसे कही जाती
हैं जो पहुंच
रहे हैं।
सन्मुख
ह्वै पाछे
नहिं आव, जुग—जुग बांधहु
एहै दांव
बाद
एक उम्र के मैखाने
में आए हैं
रियाज
आप
बैठे हैं बचाए
हुए दामन
कैसा!
इतनी
मुश्किल से तो
आए मधुशाला
में, अब दामन
बचाए बैठे हो?
अब तो छोड़ो
सब फिक्रें।
पी उठो। नाच
उठो। कितने
जन्मों से
इसकी प्रतीक्षा
की थी। अब लौट
मत आना, कदम
पीछे मत ले
लेना।
क्योंकि
ध्यान रखना, आखिरी समय
तक भी कदम
पीछे लिया जा
सकता है। जब तक
तुम मिट ही
नहीं गए हो तब
तक कदम पीछे
लिया जा सकता
है।
..... जुग—जुग
बांधहु एहै दांव
जगजीवन
सखि बना बनाव .....
यह
मौका बन गया।
यह अवसर आ
गया। जुग—जुग
दांव की
प्रतीक्षा थी, अब दांव की
घड़ी आ गई जगजीवन
सखि बना बनाव।
अब यह मौका
चूक मत जाना, यह अवसर खो
मत देना।
..... अब
मैं काहुक
नाहिं डेरांव
अब तो
सोच लेना, अब मैं किसी
चीज से नहीं
डरता। मौत हो
तो मौत सही।
परमात्मा के
चरणों में
मरना
परमात्मा के बिना
जीने से लाख
गुना
बहुमूल्य है।
उसके चरणों
में मिट जाना
बचने से बहुत
बेहतर है।
जीसस ने कहा
है, याद
करो, कि जो
अपने को बचाएगा,
मिट जाएगा;
और जो मिटने
को राजी है, बच गया।
कबीर ने कहा
है, यह कुछ
अजीब यात्रा
है। यहां जो
बचते हैं, डूब
जाते हैं; जो
डूब जाते हैं,
बच जाते
हैं।
पूछिए
मैकशों
से लुत्फ—ए—शराब
यह
मजा पाकबाज
क्या जानें
इस
संबंध में
लेकिन हर किसी
की सलाह लेने
मत चले जाना।
इस संबंध में
उनकी ही सलाह
लेना जो मिट
गए हों, जो
डूब गए हों।
पूछिए
मैकशों
से लुत्फ—ए—शराब
——अगर
इस शराब का
लुत्फ, इसका
रस पूछना हो
तो पियक्कड़ों
से पूछना।
यह
मजा पाकबाज
क्या जानें
——जिन्होंने
कभी पी ही
नहीं उनसे मत
पूछना। और मजा
ऐसा है कि
जिन्होंने
कभी नहीं पी, वे सलाहें
देते रहते
हैं। जिनको
परमात्मा का
कुछ पता नहीं
वे सलाहें
देते रहते
हैं।
दो दिन
पहले एक महिला
ने मुझे आकर
कहा कि मैं क्या
करूं? आपने
जो ध्यान की
विधि दी है, उससे परम
आनंद हो रहा
है, लेकिन
मेरा डॉक्टर
कहता है, यह
विधि बंद कर
दो, नहीं
तो पागल हो
जाओगी। अब मैं
क्या करूं? मैंने उससे
कहा, डॉक्टर
से जाकर पूछना,
उसने कभी
ध्यान किया है?
उसने या
उसके बाप—दादों
ने——किसी ने
कभी ध्यान
किया है? बाप—दादों
ने किया होता
तो ये पैदा
नहीं हो सकते थे।
ध्यान
किया है? ध्यान
किया हो तो
सलाह देनी
चाहिए।
डॉक्टर को क्या
पता ध्यान का!
और तेरा अपना
अनुभव कह रहा है
कि तू मस्त हो
रही है। वह
कहती है, वही
मस्ती की वजह
से तो मेरे
पति को शक हो
रहा है कि मैं
पागल हो रही
हूं। इसीलिए
तो डॉक्टर के
पास ले गए कि
तू डॉक्टर के
पास चल। वे
कहते हैं, तू
अकेली बैठी—बैठी
मुस्कुराती
है, यह बात
ठीक नहीं है।
और
महिला कहने
लगी कि मैं
अकेले बैठकर
ऐसी मस्त हो
जाती हूं कि
सबके सामने मुस्कुराऊं
तो लोग पागल
समझेंगे, सो
अकेले में मुस्कुराती
हूं। क्योंकि
सबके सामने मुस्कुराना,
लोग कहेंगे
पता नहीं
क्यों, क्या
कारण है, क्यों
मुस्कुरा रही
है। तो मैं
एकांत में ..... और
मेरे पति जांच—पड़ताल
करते रहते
हैं। खिड़कियों
से झांकते,
इधर—उधर से
देखते, मैं
कुछ ऐसा तो
नहीं कर रही
हूं कि जिस .....।
सबके सामने
नहीं करती
क्योंकि झंझट
खड़ी होगी।
एकांत में जो
मुझे करने
जैसा होता है .....।
तो पति
को शक होता है
कि तू अकेले
में मुस्कुराती
है, कभी रोती
है, कभी झर—झर
तेरे आंसू
गिरते हैं। और
एक दिन
उन्होंने मुझे
अकेले में
आपसे बातें
करते पकड़
लिया। आपकी
तस्वीर रखे दो—दो
बातें हो रही
थीं। बस, फिर
तो पक्का हो
गया कि अब तेरा
दिमाग खराब हो
गया है।
उन्होंने कहा,
अब इसी वक्त
डॉक्टर के पास
चल। अब मैं
मस्त हो रही
हूं। जिंदगी
में पहली दफा
मुझे मजा आ
रहा है।
डॉक्टर कहता
है, ध्यान
बंद कर दो
नहीं तो पागल
हो जाओगी।
डॉक्टर
को क्या पता
ध्यान का? और डॉक्टर
को क्या पता
कि ऐसे भी
पागलपन हैं जो
बुद्धिमानियों
से लाख गुना
बेहतर हैं।
ऐसे भी पागलपन
हैं जो सौभाग्यशालियों
को ही मिलते
हैं।
रामकृष्ण भी
पागल थे, और
मीरा भी पागल
थी और बुद्ध
भी पागल थे।
तुम
जानते हो
बुद्धू शब्द
कैसे पैदा हुआ? बुद्ध की
वजह से पैदा
हुआ। जब बुद्ध
सारा महल, धन,
दौलत, पत्नी,
परिवार
छोड़कर चले गए
तो लोगों ने
कहा कि ये देखो
बुद्धू। फिर
जब भी कोई ऐसा
करने लगा तो
उन्होंने कहा,
तुम भी हो
गए बुद्धू? होश सम्हालो,
अकल में आओ।
बुद्ध एकांत
बैठकर, शांत
बैठकर, बोधिगया में ध्यान
को उपलब्ध हो
गए, समाधि
को उपलब्ध हो
गए। तो जहां
भी कोई आदमी
चुपचाप बैठ
जाए झाड़ के
नीचे आंख बंद
करके, उन्होंने
कहा देखो, ये
बुद्धू होने
चले। बुद्धू
शब्द पैदा हुआ
इसलिए——बुद्ध
की निंदा में।
चिकित्सकों
का बस चलता तो
उन्होंने
बुद्ध को भी
ठीक कर लिया
होता। अच्छा
हुआ
चिकित्सकों से
बच गए। और ऐसा
नहीं था कि
चिकित्सक नहीं
पहुंचे; पहुंचे।
जहां बुद्ध गए
वहीं झंझट थी।
शुरू—शुरू में
तो बहुत झंझट
थी। क्योंकि
बुद्ध बड़े परिवार
से आते थे।
सारे देश में
उनके पिता का नाम
था। और सारे
देश में खबर
पहुंच गई कि
बेटा भाग गया
है। राज्य को
छोड़ दिया था
उन्होंने अपने
ताकि पिता
परेशान न
करें। नहीं तो
आदमियों को
भेजेंगे, खुद
आएंगे, खींचतान
मचेगी, पत्नी
आकार रोएगी, कुछ उपद्रव
होगा। राज्य
छोड़ दिया।
दूसरे राज्य
में चले गए
थे।
लेकिन
दूसरे राजा को
जब खबर मिली .....
तो वह बचपन का
साथी था बुद्ध
के पिता का।
साथ—साथ पढ़े
थे, धनुर्विद्या
साथ सीखी थी।
उसने सोचा कि
हो गया होगा, बेटा है, नाराज
हो गया होगा, कुछ बात हो
गई होगी। और
मैं जानता हूं
शुद्धोदन
को। क्रोधी
आदमी हैं, कुछ
कह दिया होगा।
तो वह आया; उसने
बुद्ध को कहा,
तू फिक्र मत
कर। अगर पिता
से नहीं बनती,
कोई चिंता
की बात नहीं।
मुझे अपना
पिता मान। यह
भी राज्य तेरा
है। तू महल
चल। यह राज्य
तेरे राज्य से
बड़ा है। मेरी
एक ही बेटी है,
उससे तेरा
विवाह करवा
देता हूं। तू
इसका मालिक हो
जा। भागने की
क्या जरूरत है?
छोड़ने की
क्या जरूरत है?
बुद्ध
उनको लाख
समझाए कि मैं
किसी से नाराज
नहीं हूं, पिता से झगड़कर
नहीं आया हूं।
लेकिन लोग
कैसे मानें! झगड़कर ही
लोग भागते
हैं। किसी
क्रोध में ही
लोग भागते
हैं। उस राजा
ने कहा, मुझे
यह बात समझ
में नहीं आती।
अगर क्रोध भी
नहीं है, झगड़ा भी
नहीं हुआ .....
पत्नी से झगड़ा
हुआ है? क्या
बात है?
बुद्ध
ने कहा, बात
कुछ नहीं है, यही है कि
वहां बात कुछ थी
नहीं इसलिए
चला आया
छोड़कर। वहां
कुछ सार नहीं
था। बात की
तलाश में
निकला हूं कि
जिंदगी में
कुछ बात हो
जाए। ऐसे ही
खाली—खाली न
चला जाऊं। उस
राजा ने कहा, मेरी समझ
में नहीं आती।
तुम पागल तो
नहीं हो? सारी
दुनिया धन की
तलाश कर रही
है, तुम धन
छोड़कर आ गए हो?
मैं अपने
चिकित्सक को
भेज दूंगा। वह
तुम्हारी जांच—पड़ताल
कर लेगा, कुछ
अड़चन हो, कुछ
कठिनाई हो।
बुद्ध को वहां
से भागना पड़ा
कि यह झंझट
आयी।
कुछ नई
बात नहीं है।
लेकिन
जिन्होंने
कभी ध्यान
नहीं किया वे
भी सलाह देने
लगते हैं। अब
ठीक है, अगर
कोई बीमारी हो
तो चिकित्सक
की सलाह लेना,
लेकिन अगर
जूते में
पैबंद लगवाना
हो तो तुम डॉक्टर
के पास नहीं
जाते, चमार
के पास जाते
हो; वह
विशेषज्ञ है।
और अगर कपड़े
फट गए हों और
कपड़े सिलाने
हों तो दर्जी
के पास जाते
हो।
एक
भिखारी
पश्चिम के
बहुत बड़े
धनपति, कुबेर,
रथचाइल्ड
के घर भीख
मांगने आया——पांच
बजे सुबह।
हिंदुस्तान
हो तो चल भी
जाए। ब्रह्ममुहूर्त
समझते हैं लोग
पांच बजे
सुबह। पश्चिम
में पांच बजे
सुबह कोई किसी
के घर आकर दरवाजा
खटखटाए .....
और उसने बड़ा
शोरगुल मचाया भिखमंगे
ने। रथचाइल्ड
उठा, उसने
पूछा कि भाई, यह भी कोई
वक्त है भीख
मांगने का? उस भिखारी
ने क्या कहा
पता है? उसने
कहा, मैं
भीख मांगने
आया हूं, सलाह
मांगने नहीं।
और तुम मुझे
सलाह क्या दोगे!
किसी को अगर
धन कमाने की
सलाह लेनी हो
तो तुमसे सलाह
लेनी चाहिए, और किसी को
अगर भीख
मांगने की
सलाह लेनी हो
तो मुझसे लेनी
चाहिए।
जिंदगी हो गई,
बाप—दादों से
यह काम चल रहा
है। यह हमारा
पुश्तैनी
धंधा है। पांच
बजे आओ तो
जरूर भीख
मिलती है
क्योंकि आदमी
इतना परेशान
हो जाता है कि
कुछ न कुछ देकर
जल्दी टालता
है। तुम हमें
मत सिखाओ।
हम अपनी कला
हम जानते हैं।
भिखमंगा
भी कह सकता है
दुनिया के करोड़पति
से कि तुम
मुझे सलाह मत
दो क्योंकि यह
मेरा अनुभव
है। डॉक्टर से
पूछ तो लेना, कि तुम्हें
कुछ अनुभव है
ध्यान का? तुमने
कभी इस पागलपन
का थोड़ा स्वाद
लिया है? अगर
लिया हो तो
तुम्हें कुछ
अधिकार है
सलाह देने का।
जगजीवन
सखि बना बनाव .....
जगजीवन
कहते हैं, यह बनाव बन
गया है। यह
अवसर आ गया है
मस्त होने का।
मौका छोड़ो
मत। कितनी बार
तो सौदा बनते—बनते
बिगड़ गया है।
बाजार—ए—मुहब्बत
में कमी करती
है तकदीर
बन—बनके बिगड़
जाता है सौदा
मेरे दिल का
मगर अब
इस बार बनाव
बन गया है, छोड़ो मत। गुरु भी
मिल गया, सत्संग
भी मिल गया, ध्यान की
अभीप्सा भी
तुम्हारे
भीतर है, प्रेम
की आकांक्षा
भी जगी है, परमात्मा
को पाने की
धीमे—धीमे एक
लहर मन में उठ
रही है, एक
प्यास जग रही
है।
जगजीवन
सखि बना बनाव——अब
तो सब भय छोड़
दो। अब तो
डुबकी मार
जाओ। डूबो
तो तरो।
तीरथ—ब्रत की
तजि दे आसा
और
व्यर्थ की
बातों में मत पड़ना।
नहीं तो आदमी
बड़ा चालबाज
है। मन बड़ा हुशियार
है। मन कहता
है कि ठीक है, परमात्मा को
खोजना है? चलो
तीरथ कर आएं, व्रत कर
लें। ध्यान भर
से बचो, सत्संग
से बचो। तो मन
कहता है, और
सब करो। तीर्थ
जाना है, तीर्थ
हो आओ। काशी
जाओ, काबा
जाओ, कैलाश
जाओ। चल पड़ो,
केदारनाथ—बद्रीनाथ
की यात्रा कर
आओ। यह सब करो,
कोई हर्जा
नहीं है।
क्योंकि इससे
कोई मन नहीं मिटता।
तुम
चाहे
केदारनाथ जाओ, चाहे बद्रीनाथ
जाओ, कोई
मन नहीं
मिटता। यह तो
मन की ही भागदौड़
है——इत—उत कतहूं
नहीं धाव। यह
मन तो यहां—वहां
भगाता है। वह
कहता है यह कर
लो, वह कर
लो। चलो दान
कर दो। बहुत
ही ज्यादा झक
सवार हो गई हो,
उपवास कर
लो। और क्या
करोगे? चलो,
चार दिन
भूखे रह जाओ।
अकल आ जाएगी
अपने आप। चार
दिन भूखे
रहोगे, अपने
आप समझ में आ
जाएगा।
रास्ते पर लौट
आओगे।
जगजीवनदास
कहते है, तीरथ—ब्रत की
तजि दे आसा।
सब आशाए छोड़ो।
तीर्थ और व्रत
से कभी कुछ
नहीं हुआ है।
सत्तनाम
की रटना करिकै, गगन मंडल चढ़ि
देखु तमासा
अगर एक
कोई चीज से
कभी होता रहा
है दुनिया में, कुछ भी
महत्त्वपूर्ण
घटा है, परमात्मा
उतरा है तो वह सत्यनाम
से। उसकी ही
रटना से। उसकी
ही स्मृति को
जगाए—जगाए—जगाए—जगाए,
उसी की याद
में घुलते—घुलते,
मिटते—मिटते——गगन
मंडल चढ़ि देखु तमासा।
और तब कोई
अपने भीतर के शून्याकाश
में बैठ जाता
है। और वहां
से देखता है
रहस्य, तमाशा
सारे जगत् का
।
यह
अस्तित्व बड़ा
रहस्य है।
इसलिए मैंने
कहा, जीवन
समस्या नहीं
है, रहस्य
है। ठीक जगह
से देखोगे
तो चमत्कृत हो
जाओगे। यहां
हर छोटी बात
चमत्कार है।
एक बीज का फूटना,
हरी
पत्तियों का
निकल आना!
देखते हो, और
क्या चमत्कार
होगा? और
तुम मदारियों
के चमत्कारों
में पड़े हो।
कोई आदमी हाथ
से राख निकाल
देता है, तुम
इसको चमत्कार
मान रहे हो।
और राख से फूल
निकल रहे हैं,
उनमें तुम
चमत्कार नहीं
देख रहे। तुम
अंधे हो
बिल्कुल।
तुम्हें होश
नहीं है।
चारों
तरफ चमत्कार
ही चमत्कार घट
रहे हैं। सारा
अस्तित्व
चमत्कारों का
जमघट है।
लेकिन ठीक जगह
बैठ जाओ तो
दिखाई पड़े।
ठीक
परिप्रेक्ष्य
चाहिए। ठीक
ऊंचाई चाहिए।
गगन
मंडल चढ़ि देखु तमासा
और जो
लोग तीरथ—व्रत, मंदिर—मस्जिद
में उलझ जाते
हैं वे गगन—मंडल
तक नहीं पहुंच
पाते। वे छोटे—छोटे
आंगन में घिर
जाते हैं, उस
विराट आकाश को
कैसे पाएंगे?
जैसे कोई
हिंदू हो गया,
कोई
मुसलमान हो
गया, कोई
ईसाई हो गया।
फिर इनमें भी
और छोटे घरों
में घर हैं——कोई
ब्राह्मण हो
गया, कोई
शूद्र हो गया।
फिर
ब्राह्मणों
में भी और
घरों में घर
हैं; कोई
देशस्थ है, कोई कोकणस्थ
है। और घरों
में घर बनाते
जाते हैं लोग।
छोटी से छोटी
चूहों की
खोलें रह जाती
हैं, तब
उनको चैन पड़ता
है। जब तक
आदमी चूहा न
हो जाए तब तक
उसको चैन नहीं
पड़ता। बस एक
जरा—सी खोल रह
जाए, उसी
में अपना जिए,
निकलकर
बाहर आ जाए, भीतर हो जाए,
जीता रहे।
विराट आकाश को
कैसे पाओगे?
दीवार
से घिरा था
हरम का कुसूर
क्या?
पैदा
अगर हदूद
में वुसअत
न हो सकी
काबा
का कोई कसूर
नहीं है, दीवाल
से घिरा है।
अगर काबा
जानेवाले के
हृदय में
विशालता पैदा
न हो सकी तो
कसूर काबा का
नहीं है।
जाहिर बात है
कि काबा दीवाल
से घिरा है।
दीवार
से घिरा था
हरम का कुसूर
क्या?
पैदा
अगर हदूद
में वुसअत
न हो सकी
मंदिरों
में जाओगे, हदों से
घिरे हैं।
उनकी सीमाएं
हैं; उन
सीमाओं में
तुम्हारा
हृदय भी सीमित
हो जाएगा।
खोजो कोई, जो
असीम हो। खोजो
कोई जगह जहां
हिंदू हिंदू न
रहे, मुसलमान
मुसलमान न
रहे। खोजो कोई
जगह जहां गोरा
गोरा न हो, काला
काला न हो।
खोजो कोई जगह
जहां चीनी
चीनी न हो, हिंदुस्तानी
हिंदुस्तानी
न हो। खोजो
कोई जगह जहां
विशालता जन्म
ले रही हो, जहां
आकाश जैसा
फैलाव हो। उस
जगह तुम भी
विशाल हो
सकोगे। तब तुम
देख सकते हो
गगन—मंडल पर चढ़कर
तमाशा।
ताहि मंदिल का
अंत नहीं कछु
रबी बिहून किरिन
परगासा
और वह
जो अंतर का
आकाश है उसका
कोई अंत नहीं
है, उसकी कोई
सीमा नहीं है।
और वहां बड़े
चमत्कार हैं।
बड़े से बड़ा
चमत्कार यह
हैः रबी बिहून
किरिन परगासा।
वहां प्रकाश
बहुत है और
सूरज है ही
नहीं। वहां
बिना स्रोत के
प्रकाश है।
बिन बाती बिन
तेल ! वहां
दीया जल रहा
है, न बाती
है और न तेल
है। वहां ऐसा
प्रकाश है जो
शाश्वत है।
किरण
वह बोली नहीं
नाचती
रही
थिरकता
रहा जल
उन्मत्ता
आकाश
उलट
गिरा सरोवर
में
पवन
ताल देता रहा
मौन
एक सूनापन रहा
अविचल
——तुम
चुप हो जाओ, झील जैसे
शांत हो जाओ।
किरण
वह बोली नहीं
नाचती
रही
थिरकता
रहा जल
उन्मन्त
आकाश
उलट
गिरा सरोवर
में
पवन
ताल देता रहा
मौन
एक सूनापन रहा
अविचल
सब कुछ
होता रहे
तुम्हारे
चारों तरफ, बीच केंद्र
पर तुम अविचल
हो जाओ, मौन
हो जाओ तो तुम
देख पाओगे
रहस्य जगत् का;
अनुभव कर
पाओगे। और वह
अनुभव ही
परमात्मा का अनुभव
है। रहस्य का
अनुभव
परमात्मा का
अनुभव है।
तहां
निरास बास करि
रहिए .....
——छोड़
दो धर्म
इत्यादि की
आशा; निराश
होकर वहां वास
कर लो अपने
भीतर।
..... काहेक भरमत फिरै
उदासा
फिर
तुम्हारे
जीवन में
उदासी न
रहेगी। बड़ा अद्भुत
वचन है। कहते
हैं, बाहर से
निराश हो जाओ
तो तुम्हारे
जीवन से उदासी
चली जाए।
उल्टी बात
कहते मालूम
पड़ते हैं। एक
ही वचन में
कहते हैं——
तहां
निरास बास करि
रहिए, काहेक भरतम फिरै उदासा
वहां
सब तरह से निराश
होकर बैठ जाओ
भीतर, और सब
उदासी मिट
जाएगी। बड़ा
विरोधाभासी
वचन है, मगर
बड़ा बहुमूल्य
भी। सच यह है
कि सत्य को
कहने का एक ही
ढंग है :
विरोधाभास।
और सत्य को
कहने का कोई
ढंग ही नहीं
है।
निराश
का अर्थ होता
है : अब बाहर
कोई आशा न
रही। सब देख
लिया, सब
परख लिया, असली
बाहर है ही
नहीं।
बिल्कुल
निराश हो गए
बाहर से।
लोग
बाहर से निराश
नहीं होते। एक
चीज से निराश
होते हैं तो
दूसरी चीज में
आशा टांग देते
हैं। दुकान से
निराश हुए, मंदिर पकड़
लिया; खातेबही से ऊबे, गीता
पकड़ ली, कुरान
लिया। मगर
चलते हैं बाहर
ही बाहर। खातेबही
भी उतने ही
बाहर थे जितने
गीता और कुरान
हैं। और दुकान
भी उतनी ही
बाहर थी जितना
मस्जिद और मंदिर
है। कोई भेद
नहीं है। एक
उपद्रव से
छूटे, दूसरे
उपद्रव में
समाविष्ट हो
गए। एक जेल से
निकल भी न पाए
थे कि जल्दी
से दूसरे में
घुस जाते हैं।
चूहा एक पोल
से निकला, दूसरी
पोल में गया।
खुला आकाश
रुचता ही
नहीं। आदत हो गई
है जंजीरों
में रहने की।
कारागृह में
पड़े होने का
हमारा स्वभाव
हो गया है।
बाहर
से बिल्कुल
निराश हो जाओ।
न तो दुकान से मिलता
है, न मंदिर
से मिलता है; न खाते बही
में कुछ है, न शास्त्रों
में कुछ है।
जब कोई इतना
निराश हो जाता
है कि बाहर पकड़ने
को कुछ बचता
ही नहीं, तभी
कोई भीतर जाता
है। और भीतर
जाते ही से
आशाएं पूरी हो
जाती हैं।
सारी आशाएं
फलवती हो जाती
हैं। सब मिल
गया, जिसको
जन्मों—जन्मों
तक खोजा था।
फिर कैसी
उदासी?
देऊं लखाय छिपावहुं
नाहीं .....
क्या
प्यारी बात
कही है जगजीवन
ने! कि दिखा
दूं सब
तुम्हें अगर
राजी हो; छिपाऊं कुछ भी
नहीं।
बुद्ध
ने भी कहा है
अपने शिष्यों
को, मेरी
मुट्ठी खुली
है। मैंने
तुमसे कुछ
छिपाया नहीं
है। सब कह
दिया है। जो
समझदार हैं, समझ लेंगे, जाग जाएंगे,
पहुंच
जाएंगे। जो
नासमझ हैं वे
इसी विचार में
पड़े रहेंगे——क्या
करना, क्या
नहीं करना, क्या अर्थ
था बुद्ध का, क्यों ऐसा
कहा था? उसमें
से अपने मतलब
की बातें
निकालते
रहेंगे, चुनाव
करते रहेंगे।
देऊं लखाय छिपावहुं
नाहीं .....
——जरा
भी छिपाऊंगा
नहीं। जो है, सब पूरा
दिखा दूं।
जस मैं
देखऊं
अपने पासा——जैसे
मैं उसे अपने
पास देख रहा
हूं ऐसा
तुम्हें भी
दिखा दूं।
तुम्हारे भी
वह इतने ही
पास है, मगर
मेरी सुनो।
ऐसा
कोऊ सब्द
सुनि समुझैं, कटि अध—कर्म
होइ तब दासा
——अगर
तुम्हें मेरा
शब्द समझ में
आ जाता हो तो मैं
इतनी ही बात
कह रहा हूं कि
तुम झुक जाओ; तुम मिटने
को राजी हो
जाओ और शेष सब
अपने से हो
जाएगा।
नैन
चाखि दरसन—रस
पीवै .....
——और
तुम झुको तो
अभी दरसन—रस
पीयो।
..... ताहि
नहीं है जम की त्रासा
——और
जिसने उस अमृत—रस
को पी लिया
परमात्मा के,
उसकी आंख
में आंख डालकर
एक बार देख
लिया उसको मृत्यु
का भय मिट
जाता है
क्योंकि उसे
अमृत का पता
चल गया। उसे
चल ही गया कि
मैं अमृत हूं।
अमृत मेरा
स्वभाव है।
जगजीवनदास
भरम तेहि
नाहीं, गुरु
क चरन करै सुक्ख—बिलासा
उसको
फिर कोई भ्रम
नहीं रह जाता।
फिर तो गुरु के
चरण में परम
आनंद को, परम
भोग को उपलब्ध
होता है। करै
सुक्ख—बिलासा।
सुनते हो ये
शब्द?
धर्म
तुम्हें दुःख
देने को नहीं
है। धर्म तुमसे
कुछ छुड़ाने
को नहीं है।
धर्म तुम्हें
परम भोग की
कला देता है।
धर्म तुम्हें
जीवन के परम
विलास में ले जाता
है। तुम
परमात्मा को
भोग सको, इसके
योग्य बनाता
है। अगर राजी
हो——जैसा कहते
हैं जगजीवनदासः
ऐसा कोऊ
शब्द सुनि
समुझैं।
अगर मेरी बात
तुम्हारी समझ
में आती हो——देऊं
लखाय छिपावहुं
नाहीं, जस
मैं देखउं
अपने पासा।
क्योंकि वह
इतने पास है
कि दिखाने में
कोई अड़चन ही
नहीं है। तुम
देखने भर को
राजी भर हो
जाओ। जरा तुम
आंख खोलो।
बस, जरा
आंख खोलो;
जरा घूंघट
उठाओ।
हालांकि
पहली बार ही
घूंघट उठा
लेने से सदा
के लिए घूंघट
नहीं उठ
जाएगा। आदतें
बड़ी पुरानी
हैं। परदा गिर—गिर
जाएगा। आदतें
बड़ी पुरानी
हैं। तुम देख—देखकर
भी आंख बंद कर
लो—लोगे। जैसे
कोई सूरज की
तरफ देखे, आंख झपक
जाए। वह तो
परम प्रकाश
है। तो बहुत
बार ऐसा होगा——
सखि, बांसुरी
बजाय कहां गयो
प्यारो
——सुनाई
पड़ेगी
बांसुरी——यह
रही, यह
रही। हाथ में
आते—आते छूट
जाएगी। स्वर
सुना था, बिल्कुल
पास आकर नाच
गया था और फिर
दूर निकल गया।
सखि, बांसुरी
बजाय कहां गयो
प्यारो
घर
की गैल बिसरिगै
मोहितें, अंग न
वस्त्र संभारो
यह
क्या हुआ? यह कौन मुझे बांसुरी
सुना गया? यह
कौन मेरा
घूंघट उठा गया?
यह किसने
मेरे पैरों
में घूंघर
बांधी? यह
कौन मुझे एक
नए जीवन का
दर्शन दे गया——एक
नई पुलक, एक
नया उत्साह, एक नया रस, एक नया
अर्थ। यह कौन?
और कहां गया?
सखि, बांसुरी
बजाय कहां गयो
प्यारो
जब
परमात्मा की
पहली बार छवि
दिखाई पड़ती है
तो जीवन का
असली आनंद भी
शुरू होता है
और असली पीड़ा
भी। उसके पहले
तो आनंद भी
नकली था और
पीड़ा भी नकली
थी। सभी कुछ
नकली था। तुम
हंसे थे तो
नकली था, रोए थे तो नकली
था। तुम्हारे
फूल भी झूठे
थे, तुम्हारे
कांटे भी झूठे
थे। परमात्मा
को देखने के
साथ आनंद भी
असली होता है
और पीड़ा भी
होती है असली।
भक्त ही जानता
है उस पीड़ा
को। क्योंकि
जैसे ही झलक
मिलती है, आनंद
से भर जाता है
और जैसे ही
झलक खो जाती
है, गहन
अंधकार हो
जाता है; ऐसा,
जैसा कभी
नहीं था।
घर
की गैल बिसरिगै
मोहितें .....
यह
क्या हो गया? जिसको मैंने
अब तक अपना घर
समझा था उसकी
गैल बिसर गई।
..... अंग
न वस्त्र संभारो
याद ही
नहीं रही कि
वस्त्रों को
सम्हालूं। वस्त्र
ढलक गए हैं
नीचे। घर का
रास्ता भूल
गया। घर ही
भूल गया जिसको
अब तक घर समझा
था अपना। अपना
परिचय भूल
गया। मैं कौन
हूं, यही बात
खतम हो गई। यह
क्या हो गया? यह कौन
बांसुरी बजा
गया? यह
कौन—सा नया
स्वर सुना कि
सब पुराने
स्वर फीके पड़
गए, व्यर्थ
हो गए? और
फिर यह नया
स्वर कहां खो
गया है?
वो
आए भी तो
बबूले की तरह
आए—गए
चिराग
बनके जले
जिनके इंतजार
में हम
आयी
हवा, गई हवा।
एक झोंका आया,
आयी सुगंध
आकाश की और
चला गया। अब
मन कभी न
लगेगा संसार
में। संसार तो
व्यर्थ हो
गया। अब संसार
में शोरगुल ही
शोरगुल दिखाई
पड़ेगा। जिसने
उसकी बांसुरी
सुन ली, एक
बार भी सुन ली,
एक स्वर भी
कान में पड़ गए,
उसके लिए सब
संगीत शोरगुल
हो गए।
घर
की गैल बिसरिगै
मोहितें, अंग न
वस्त्र संभारो
आईने
में देखो अपनी
सूरत
नजरों
में झिझक, जबां में लुकनत
पिंदार
में बेखुदी की
हालत
कहते
हैं इसी को
क्या मुहब्बत
चितवन
के झुकाव में
इशारा
आंखों
में है आज दिल
तुम्हारा
खामोशी
में गुफ्तगू
की शिद्दत
कहते
हैं इसी को
क्या मुहब्बत?
मतवाली
नशीली अंखड़ियों
से
आंखों
की हसीन खिड़कियों
से
फिर
झांक रही है
एक हकीकत
कहते
हैं इसी को
क्या मुहब्बत?
सीने
में इक आग—सी
लगी है
एक
हूक—सी दिल
में उठ रही
है।
एक
दर्द है और
उसमें लज्जत
कहते
हैं इसी को
क्या मुहब्बत?
ओंठों
पर घुटी—घुटी—सी
आहें
बहकी—बहकी हुई
निगाहें
खोयी—खोयी हुई
तबियत
कहते
हैं इसी को
क्या मुहब्बत?
सखि, बांसुरी
बजाय कहां गयो
प्यारो
घर
की गैल बिसरिगै
मोहितें, अंग न
वस्त्र संभारो
चलत
पांव डगमगत
धरनि पर, जैसे चलत पतवारो
यह
क्या हो गया
है मुझे? यह
मैं डगमगाने
लगी। ये
रास्ते पर
मेरे पैर ऐसे
पड़ने लगे जैसे
शराबी के पैर।
घर की सुध खो
गई, वस्त्रों
का होश न रहा।
अपने ही पैर
सम्हाले नहीं
पड़ते हैं। यह
मुझे क्या हो
गया?
रोकती
ही रह गई
मासूम दूर अंदेशियां
उनके
लब पर मेरा जिक्रे—नात्माम आ
ही गया
है
जहां इश्क को
हविस को ऐतराफ—ए—बेकसी
तल्खी—ए—हस्ती
के कुर्बां
वो मुकाम आ ही
गया
जैसे
सागर से छलक
जाए मचलती मौज—ए—मैं
कांपते
ओंठों पे उनके
मेरा नाम आ ही
गया
एक बार
परमात्मा के
ओंठों पर
तुम्हारा नाम
आ जाए। जब तुम
खूब पुकारोगे, खूब पुकारोगे
तो वह भी
पुकारेगा।
वही अर्थ है :
सखि, बांसुरी
बजाय कहां गयो
प्यारो।
तुमने
तो बहुत
पुकारा। एक
बार परमात्मा
तुम्हें जब
पुकारता है, तुम्हारी
पुकार जब इस
योग्य हो जाती
है तो परमात्मा
पुकारता है।
जो
तेरे पास से
आता है, मैं पूछं
हूं यही
क्यों
जी कुछ जिक्र
हमारा भी वहां
होता था?
जब
सुना तुम भी
मुझे याद किया
करते हो
क्या
कहूं, हद
न रही कुछ
मेरी हैरानी
की
तुमने
ही थोड़े
परमात्मा को
पुकारा है। यह
आग एक तरफ से
लगी नहीं है।
अगर एक तरफ से
लगी हो तो व्यर्थ
है। दूसरी तरफ
भी आग इतनी ही
धधक रही है।
परमात्मा भी
तुम्हें
पुकार रहा है।
लेकिन तुम जब
खूब गहनता से पुकारोगे
तो उसकी पुकार
तुम्हें
सुनाई पड़ेगी।
और तब तुम यह
भी जानोगे, वह तुमसे भी
पहले से
तुम्हें
पुकार रहा था।
जैसे
सागर से छलक
जाए मचलती मौज—ए—मै
कांपते
ओंठों पे उनके
मेरा नाम आ ही
गया
बस, एक बार उसके
ओंठों पर नाम
आ जाए तो सुन
ली बांसुरी।
चलत
पांव डगमगत
धरनि पर, जैसे चलत पतवारो
घर
आंगन मोहिं
नीक न लागै
.....
अब ये
छोटे—छोटे घर
और ये छोटे—छोटे
आंगन और ये
छोटी—छोटी
सीमाएं, मुझे
अच्छी नहीं लगतीं।
घर
आंगन मोहिं
नीक न लागै, सब्द बान हिए
मारो
——ऐसी
तुमने चोट की
है, ऐसा
बाण मारा है
मेरे हृदय पर,
ऐसी पीड़ा से
भर दिया है
मेरा हृदय।
लागि
लगन में मगन बाहिसों, लोग—लाज कुल—कानि
बिसारो
——अब
तो उसके सिवा
कोई और याद
आती नहीं।
लागि लगन में
मगन बाहिसों——बस
उसकी ही याद
में मगन हूं।
उसकी ही याद
में डूबी हूं।
——लोक—लाज
कुल—कानि बिसारो——सब
मर्यादा गई, सब व्यवस्था
गई, सब
अनुशासन गया,
सब लोकलाज
गई, लोग
क्या कहेंगे
इसकी चिंता
गई।
सुरति
दिखाय मोर मन लीन्हो .....
——और
एक बार अपनी
झलक दिखाकर
मेरे मन को
मोह लिया।
.....मैं
तो चहों
होय नहिं न्यारो
——अब
तो एक ही चाह
भीतर जलती है
कि एक क्षण को
भी दूर न होना
पड़े। यह छबि
एक क्षण को भी
हटे न आंखों
से।
जगजीवन
छबि बिसरत
नाहीं, तुमसे
कहों सो
इहै पुकारो
जगजीवन
कहते हैं, छबि बिसरती
नहीं, भूलती
नहीं अब। एक
जमाना था कि
याद करते थे
और याद नहीं
आती थी। एक
वक्त था कि
परमात्मा को याद
करते थे और
याद नहीं आती
थी और अब एक
वक्त है कि
लाना चाहो तो
भूलती नहीं।
जब ऐसा वक्त आ जाए
कि परमात्मा
को भुलाना भी
चाहो और न भूल
सको तो समझना
कि घर आ गया; तो समझना कि
पहुंच गए
मंजिल पर।
तुमसे
कहों सो
इहै पुकारो
जगजीवन
कहते हैं, इसलिए पुकार—पुकार
कर तुमसे कह
रहा हूं, घबड़ाओ
मत। जैसी
तुम्हारी
हालत है, मेरी
हालत भी थी एक
दिन, कि
याद करना
चाहता था और
याद नहीं आती
थी। और अब मैं
तुमसे कहता हूं,
अब भुलाना
चाहता हूं तो
भुला नहीं
पाता हूं। तुम्हें
पुकार—पुकार
कर कहता हूं।
देऊं लखाय छिपावहुं
नाहीं, जस
मैं देखउं
अपने पासा
ऐसा
कोऊ शब्द सुनि समुझैं
.....
कोई
सुन ले, कोई
समझ ले, इसलिए
पुकार रहा
हूं। तुमसे कहों सो
इहै पुकारो।
और
इसका एक अर्थ
और भी हो सकता
है। तुमसे कहों
सो इहै पुकारो——तुम्हारे
बहाने मैं
उनके लिए भी
पुकार पुकार कर
कह रहा हूं जो
पीछे आएंगे।
तुमसे कह रहा
हूं, ताकि यह
पुकार गूंजती
रहे। तुम तो
निमित्त हो।
तुम जाग जाओ
तो ठीक; नहीं
तो कोई और जागेगा।
मैं
तुमसे बोल रहा
हूं। लेकिन
तुम्हारे
बहाने और
लाखों लोगों
से बोल रहा
हूं जो यहां
नहीं हैं। जो
अभी जमीन के
अलग—अलग कोनों
पर कहीं हैं; उन तक भी
पुकार पहुंच
जाएगी। और जो
कल आएंगे, उन
तक भी पुकार
पहुंच जाएगी।
तुम बहाने हो।
और तुम
सौभाग्यशाली
भी हो कि तुम
निमित्त बने
हो इस पुकार
के। तुम्हारे
माध्यम से यह
पुकार औरों तक
भी पहुंचेगी।
इसका पुण्य
तुम्हारा भी
पुण्य है। तुम
सुन लो तो
अच्छा; तो
तुम भी जाग
जाओ। तुम न भी
सुने तो भी
तुम एक पुण्य
कार्य में
भागीदार हुए
ही हो। उतना
पुण्य
तुम्हारा है।
जगजीवन
छबि बिसरत
नाहीं, तुमसे
कहों सो
इहै पुकारो
——ताकि
पुकार कायम
रहे; ताकि
आवाहन कायम
रहे। कभी भी
कोई भूला—भटका
खोज पर
निकलेगा तो ये
रास्ते के
दीये उसको
रोशनी दें।
कभी कोई भूला—भटका
परमात्मा की
याद करेगा तो
ये शब्द उसका
सहारा बन
जाएंगे।
सुनते
हो? चलत पांव डगमगत धरनि
पर। पैर
डगमगाते हैं,
होश खो गया
है, इसी को
तो पागलपन
कहते हैं। इसी
को मैंने कहा,
एक ऐसा
पागलपन भी है
जो तुम्हारी
बुद्धिमानी से
हजार गुना
कीमती है।
तुम्हारी
बुद्धिमत्ता
दो कौड़ी
की है उस
पागलपन के
मुकाबले, जो
मीरा को पकड़ता
है, जगजीवन को पकड़ता
है, बुद्धों
को पकड़ता
है।
जिस
पागलपन से
दूसरे लोग
जीवन को नष्ट
कर लेते हैं, समझदार लोग
उसी पागलपन का
उपयोग कर लेते
हैं, मंजिल
की सीढ़ियां
चढ़ जाते हैं।
कोई धन के
पीछे पागल है;
यह पागल
जरूर है। कोई
पद के पीछे
पागल है; यह
पागल जरूर है।
ऐसे पागलों को
तुम्हें देखना
हो तो दिल्ली—कभी—कभी
चले गए।
दिल्ली
दर्शनीय है।
देश के सब बड़े
से बड़े पागल
तुम्हें वहां
मिल जाएंगे।
अगर दुनिया भर
के पागलों को पकड़ना हो
तो दस—पच्चीस
जो बड़ी—बड़ी राजधानियां
हैं उन पर
घेरा डालकर
ताले डाल देना
चाहिए। सारे
पागल पकड़ में
आ जाएंगे। असल
में राजधानियों
को पागलखानों
में बदल देना
चाहिए। वहां
चिकित्सक
बिठा देना
चाहिए।
पद का
पागलपन कैसी
दौड़ है! कुछ भी
हो जाए, पहुंचना
है। कुर्सी पर
चढ़ना है।
कौन गिरेगा, कौन मिटेगा,
क्या होगा,
कोई फिक्र
नहीं है बस, कुर्सी पर
पहुंचना है।
और जो पहुंच
गया, फिर
वह कहता है, कुर्सी से
चिपकना है। अब
कोई कितना ही
खींचे, अब
कुर्सी नहीं छोड़नी । अब
तो मर जाएंगे
तभी अर्थी
उठेगी।
जो
कुर्सी पर
नहीं पहुंचा
है वह दौड़ में
लगा है, जो
पहुंच गया वह पकड़ने की
दौड़ में लगा
है, कहीं
छूट न जाए।
क्योंकि और
लोग चले आ रहे
हैं। चली आ
रही है भीड़ चिल्लातीः
"सिंहासन छोड़ो'। दूसरे भी
उसी दौड़ में
हैं। पास भी
जो खड़े हैं, मित्र भी जो
मालूम पड़ रहे
है। वे भी
इसीलिए खड़े
हैं कि मौका
मिल जाए तो एक
धक्का दे दें।
तुम चारों
खाने चित्त
गिरो कुर्सी
से तो वे
कुर्सी पर चढ़
जाएं। तुम भी
जानते हो, वे
भी जानते हैं।
राजनीति
में कोई किसी
का मित्र नहीं
होता।
राजनीति में
सभी शत्रु
होते हैं। राजनीति
में कोई मित्र
हो कैसे सकता
है? महत्वाकांक्षी
से कैसी
मित्रता? वह
तो जब मौका
पाएगा,
पीठ में
छुरा भोंक
देगा। इसलिए
राजनीतिक जब एक—दूसरे
की पीठ में
छुरा भोंकें
तो तुम चौंका
मत करो। यह
बिल्कुल नियम
के अनुकूल हो
रहा है। यही
होना था। यही
होना चाहिए।
राजनीति का यह
पूरा का पूरा
अर्थ है।
धन का
पागल है कोई।
वह कहता है, धन इकट्ठा
करें, इतना
इकट्ठा करें
कि किसी के
पास न हो। और
फिर मर जाएगा।
यह पागलपन है,
सच में
पागलपन है।
मीरा
का पागलपन तो
महान
बुद्धिमत्ता
है। क्योंकि
उसने एक ऐसा
पद पाया, एक
ऐसा न्यारा पद,
जो किसी से
छीनना नहीं
पड़ता——पहली
बात। मीरा को
मिलता है
लेकिन किसी का
छिनता नहीं।
दूसरी बात——एक
बार मिल जाए
तो कोई छीन
सकता नहीं।
महत्वाकांक्षा
नहीं है उसमें,
संघर्ष
नहीं है, प्रतियोगिता
नहीं है, स्पर्धा
नहीं है। और
ऐसा धन पाया
जो मौत भी
नहीं छीन
पाएगी। देह जल
जाएगी चिता पर
और धन साथ
जाएगा।
ध्यान
ऐसा धन है, प्रेम ऐसा
पद है। ध्यान
और प्रेम के
इस मिलन का
नाम परमात्मा
है। जहां
तुम्हारे
भीतर ध्यान और
प्रेम का मिलन
होता है, वहीं
परमात्मा
प्रकट होता
है। पागल तो
हो जाओगे तुम
परमात्मा के
साथ भी। पैर डगमगाएंगे।
लेकिन यह
पागलपन और है।
मैं
खुदा को पूजता
हूं, मैं
खुदा से रूठता
हूं
यह
वो नाजे—बंदगी
है जिसे पूछिए
खुदा से
कभी
वह भी जिंदगी
थी कि खुदा खजिल
था मुझसे
कभी
यह भी जिंदगी
है कि खजिल
हूं मैं खुदा
से
तू
वह जुल्फ शाना
परवर जिसे खौफ
है हवा का
मैं
वह काकुले—परेशां जो
संवर गई हवा
से
कुछ
लोग हैं, वे
कंघी से
सम्हाले गए
बालों की तरह
हैं। तू वह
जुल्फ शाना पर
जिसे खौफ है
हवा का। कंघी
से सम्हाला
हुआ बाल हवा
से डरता है, हवा आएगी और
बालों को
बिखरा देगी।
तू
वह जुल्फ शाना
परवर जिसे खौफ
है हवा का
मैं
वह काकुले—परेशां .....
और मैं
हवा में झूलती
बालों की वह
लट हूं ..... मैं वह
काकुले—परेशां जो
संवर गई हवा
से। जिसे हवाएं
आती हैं तो
संवार जाती
हैं।
एक ऐसा
पागलपन है——राजनीति
का, धन का, यश का, जो
तुम्हें गिरा
जाता है; जो
तुम्हें दो कौड़ी का कर
जाता है; जो
तुम्हें कीड़े—मकोड़े की
हैसियत दे
जाता है; जो
तुम्हें
पशुओं से नीचे
उतार जाता है।
और एक ऐसा
पागलपन है जो
तुम्हें
सम्हाल जाता
है; जिसकी
डगमगाहट सम्हलने
का ही दूसरा
नाम है। और जो
तुम्हें सीढ़ियां
चढ़ा देता है
परमात्मा की;
जो तुम्हें
मनुष्य से ऊपर
उठा जाता है।
एक पागलपन है
जो तुम्हें मनुष्य
से नीचे गिरा
देता है और एक
पागलपन है जो
तुम्हें
मनुष्य से ऊपर
उठा देता है।
इस दूसरे
पागलपन की
तलाश करो। इस
दूसरे पागलपन
को खोजो। इस
पागलपन का ही
नाम भक्ति है।
ये
सूत्र भक्ति
के सूत्र हैं।
जगजीवन
के सूत्रों को
समझना, सोचना,
विचारना।
मगर इतने से
ही कुछ न
होगा। पीना
पड़ेगा। अनुभव
करना होगा। और
अनुभव हो सकता
है। तुम्हारा
जन्मसिद्ध
अधिकार है। न
करो तो तुम्हारे
अतिरिक्त और
कोई कसूरवार
नहीं । कर
सकते थे, नहीं
किया।
तुम्हें
स्वतंत्रता
है न करने की।
लेकिन दोष
किसी और को मत
देना। दोषी
तुम्हीं हो।
जगजीवन
सखि बना बनाव, अब मैं काहुक
नाहिं डेरांव
अब
चूको मत मौका।
यह बनाव बन
गया। यह बनते—बनते
बड़ी मुश्किल
से बनता है
बनाव। यह बन
गया बनाव।
तुम
यहां बैठे हो
मेरे सामने।
तुम्हारे
भीतर परमात्मा
मुझे उतना ही
दिखाई पड़ रहा
है जितना अपने
भीतर।
तुम्हें
दिखाई नहीं पड़
रहा । तुम्हें
दिखाई न भी
पड़े तो भी है।
तुम्हें सभी
दिखाई नहीं
पड़ता जो है।
तुम्हारे
देखने की
क्षमता बहुत
छोटी है। तुम
केवल बाहर ही
देखना जानते
हो, आंखें
बंद करके
देखना नहीं
जानते। तुम
विचार के
माध्यम से
देखना जानते
हो, तुम निर्विचार
के माध्यम से
देखना नहीं
जानते।
लेकिन
बनाव बन गया
है। तुम एक
ऐसे आदमी के
साथ बैठे हो
जो निर्विचार
से देखना
जानता है; जो आंख बंद
करके देखना
जानता है।
मेरी भी मुट्ठी
खुली है। मैं
तुम्हें सब
देने को राजी
हूं, बस
तुम लेने को
राजी हो जाओ।
सन्मुख
ह्वै पाछे
नहिं आव, जुग—जुग बांधहु
एहै दांव
कौन
जाने कितने
जन्मों से तुम
सत्संग की
तलाश करते थे।
अब यह बनाव बन
गया। अब लौट
मत जाना। अब
पैर पीछे न
डालना। अब
विमुख मत हो
जाना।
देऊं लखाय छिपावहुं
नाहीं, जस
मैं देखउं
अपने पासा
ऐसा
कोऊ सब्द
सुनि समुझैं
.....
तुममें
से जो भी समझ
रहा हो वह
जीना शुरू
करे। जियो तो
ही तुम सबूत
दोगे कि समझे।
पीना शुरू
करे। यह
मधुशाला है, मंदिर नहीं।
यहां भी हम
शराब ही ढाल
रहे हैं। लेकिन
शराब ऐसी जो
डुबाकर
उबारती है; जो बेहोश
करके होश देती
है; जिसमें
पैर डगमगा गए
तो बस आ गई धन्यभाग
की घड़ी, सम्हल
गए; जिसमें
डगमगा जाना
संयम का दूसरा
नाम है; जिसमें
डगमगा जाना
साधना की फलश्रुति
है।
आज
इतना ही।
thank you guruji
जवाब देंहटाएं