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रविवार, 6 सितंबर 2015

प्रभु की पगड़ंडियां--(प्रवचन--04)

प्रभु—मंदिरका दूसरा द्वार: मैत्री—(प्रवचन—चौथा)

दिनांक 2 दिसम्‍बर, 1968;
ध्‍यान—शिविर, नारगोल
मेरे प्रिय आत्मन्!
प्रभु के मंदिर के दूसरे द्वार पर आज बात करनी है। वह दूसरा द्वार है मैत्री, फ्रेंडलीनेस। करुणा है पहला द्वार, मैत्री है दूसरा द्वार। करुणा है वर्षा के दिनों में आकाश में छाए हुए बादलों की भांति जो पानी से भरे हैं। मैत्री है उस पानी की भांति जो जमीन पर बरस आता है। आकाश में बादल छाते हैं पानी से भरे हुए, लेकिन पृथ्वी की प्यास उनसे नहीं बुझती है। जब तक कि पानी आकाश से पृथ्वी तक उतर न आए तब तक उसकी प्यास नहीं बुझती है। करुणा है हृदय में भरा हुआ बादल। जब तक वह मैत्री बन कर जगत तक पहुंच न जाए, फैल न जाए तब तक पूरे अर्थों में सार्थक नहीं होती।
करुणा है आत्मा, मैत्री है अभिव्यक्ति। करुणा है आत्मा, मैत्री है शरीर। करुणा है निराकार, मैत्री है साकार। करुणा अप्रकट है, जब तक वह मैत्री न बन जाए तब तक प्रकट नहीं होती। करुणा है ऐसा गीत जो कवि के मन में गूंजा हो और मैत्री है ऐसा गीत जो उसके ओंठों से प्रकट हो गया हो और गा दिया गया हो और सब तक पहुंच गया हो।
इसलिए मैत्री करुणा के बाद, ठीक से कहें तो मैत्री का अर्थ है सक्रिय करुणा, एक्टिव कंपेशन। जब करुणा सक्रिय हो जाती है तो मैत्री बन जाती है। लेकिन मैत्री का अर्थ मित्रता नहीं है। मैत्री का अर्थ मित्रता नहीं है, फ्रेंडशिप नहीं है। मैत्री का अर्थ है. फ्रेंडलीनेस। मैत्री का अर्थ है मित्रत्व। और इन दोनों में सबसे पहले फर्क समझ लेना जरूरी है। और यह फर्क बहुत गहरा है। आमतौर से हम समझेंगे कि मैत्री का अर्थ है मित्रता। नहीं, मैत्री का अर्थ मित्रता नहीं—मित्रत्व। इनमें फर्क क्या होगा
मित्रता जब तक रहेगी तब तक शत्रुता भी रहेगी। जिनके कोई मित्र होते हैं उनके शत्रु भी होते हैं। मैत्री का अर्थ है वैर— भाव समाप्त हो गया। अब कोई शत्रुता शेष न रही। मित्रता में शत्रुता की गंध बाकी रहेगी, मैत्री में शत्रुता तिरोहित हो गई। अब कोई शत्रुता का सवाल न रहा। जो मित्र बनाता है वह शत्रु भी बना लेता है, लेकिन जो मैत्री— भाव को जगाता है उसका कोई शत्रु नहीं रह जाता। मित्रता में मित्र का गुण और योग्यता महत्वपूर्ण होते हैं। मैत्री— भाव में गुणों की, योग्यता की कोई अपेक्षा नहीं। मैं अगर आपसे मित्रता करूं तो आपकी योग्यता, आपके गुण महत्वपूर्ण होंगे, उनको देख कर मित्रता बनेगी। अगर वे गुण मिट जाएंगे तो शत्रुता आ जाएगी।
मित्रता आप पर निर्भर है, मित्रता दूसरे पर निर्भर है। मैत्री का भाव मुझ पर निर्भर है, दूसरे से उसका कोई संबंध नहीं। मैत्री मेरी अंतर्भाव—दशा है, इसलिए मैत्री को मैं कह रहा हूं मित्रत्व, फ्रेंडलीनेसफ्रेंडशिप नहीं। यह मैत्री क्या है?
और मैंने कहा है कि मैत्री है सक्रिय करुणा। करुणा जब साकार हो उठती है, सगुण हो जाती है; करुणा जब सक्रिय हो उठती है और काम में संलग्न हो जाती है, तब वह मैत्री बनती है। पहले तो करुणा का जन्म होता है हृदय में, उतरती है वह। प्राण भर जाते हैं अनुकंपा से, कंपेशन से, करुणा से। जैसे बादल भर जाते हैं पानी से, फिर बादल बरसते हैं, फिर खाली करते हैं अपने को, उड़ेल देते हैं और तब पृथ्वी तक पहुंच पाते हैं, फिर बीज अंकुरित होते हैं, पृथ्वी की प्यास बुझती है। करुणा है हृदय में उठा हुआ बादल। फिर जब वह व्यक्तित्व के सब द्वारों से प्रकट होने लगता है, और व्यक्तित्व के सारे द्वारों से वे जल—स्रोत बहने लगते हैं और अनंत तक पहुंचने लगते हैं, तब वह मैत्री बन जाती है।
विवेकानंद अमरीका जाते थे। रामकृष्ण की तो मृत्यु हो गई थी। रामकृष्ण की पत्नी शारदा से वे आशा मांगने गए कि मैं जाता हूं परदेश, खबर ले जाना चाहता हूं— धर्म की, सत्य की। मुझे आशीर्वाद दें कि मैं सफल होऊं।
शारदा तो ग्रामीण स्त्री थी। वे उससे आशीर्वाद लेने गए। उन्होंने सोचा भी न था कि शारदा आशीर्वाद देने में भी सोच—विचार करेगी। उसने विवेकानंद को नीचे से ऊपर तक देखा। वह अपने चौके में खाना बनाती थी। फिर बोली सोच कर बताऊंगी।
विवेकानंद ने कहा सिर्फ आशीर्वाद मांगने आया हूं शुभाशीष चाहता हूं तुम्हारी मंगलकामना कि मैं जाऊं और सफल होऊं।
उसने फिर उन्हें गौर से देखा और उसने कहा ठीक है। सोच कर कहूंगी।
विवेकानंद तो खड़े रह गए अवाक। कभी आशीर्वाद भी किसी ने सोच कर दिए हों और आशीर्वाद सिर्फ मांगते थे शिष्टाचारवश
वह कुछ सोचती रही और फिर उसने कहा विवेकानंद को कि नरेन्द्र, वह जो सामने पड़ी हुई छुरी है, वह उठा लाओ।
सामने पड़ी हुई छुरी विवेकानंद उठा लाए और शारदा के हाथ में दी। हाथ में देते ही वह हंसी और उसकी हंसी से उन्हें आशीर्वाद बरस गए उनके ऊपर। उसने कहा कि जाओ। जाओ, तुमसे सबका मंगल ही होगा। विवेकानंद कहने लगे कि इस छुरी के उठाने में और तुम्हारे आशीर्वाद देने में कोई संबंध था क्या?
शारदा ने कहा संबंध था। मैं देखती थी कि छुरी उठा कर तुम किस भांति मुझे देते हो। मूठ तुम पकड़ते हो कि फलक तुम पकड़ते हो। मूठ मेरी तरफ करते हो कि फलक मेरी तरफ करते हो। और आश्चर्य कि विवेकानंद ने फलक अपने हाथ में पकड़ा था छुरी का और मूठ लकड़ी की शारदा की तरफ की थी।
आमतौर से शायद ही कोई फलक को पकड़ कर और मूठ दूसरे की तरफ करे। मूठ कोई पकड़ेगा सहज, खुद।
शारदा कहने लगी तुम्हारे मन में मैत्री का भाव है, तुम जाओ, तुमसे कल्याण होगा। तुमने फलक अपनी तरफ पकड़ा, मूठ मेरी तरफ। अपने को असुरक्षा में डाला। हाथ में चोट लग सकती है और मेरी सुरक्षा की फिकर की। तुम जाओ, आशीर्वाद मेरे तुम्हारे साथ हैं।
इतनी सी, छोटी सी घटना में मैत्री प्रकट होती है, साकार बनती है। बहुत छोटी सी घटना है! क्या है मूल्य इसका कि क्या पकड़ा आपने, फलक या मूठ? शायद हम सोचते भी नहीं। और सौ में निन्यानबे मौके पर कोई भी मूठ ही पकड़ता है। वह सहज मालूम होता है। अपनी रक्षा सहज मालूम होती है, आत्म—रक्षा सहज मालूम होती है।
मैत्री आत्म—रक्षा से भी ऊपर उठ जाती है। दूसरे की रक्षा, वह जो जीवन है हमारे चारों तरफ, उसकी रक्षा महत्वपूर्ण हो जाती है। मैत्री का अर्थ है. मुझसे भी ज्यादा मूल्यवान है सब—कुछ जो है।
वैर का अर्थ है मैं सबसे ज्यादा मूल्यवान हूं। सारा जगत मिट जाए, लेकिन मेरी रक्षा जरूरी है। मैं हूं केंद्र जगत का। वैर— भाव का आधार है मैं हूं केंद्र जगत का। वैर— भाव ईगो—सेंट्रिक है। वह अहं—केंद्रित है। मैं हूं जगत का केंद्र। सारा जगत चलता है मेरे लिए, सारा जगत मिट जाए, लेकिन मैं बचूं।
मैत्री का केंद्र मैं नहीं हूं सर्व है। मैं मिट जाऊं, सब बचे। मैं खो जाऊं, सब रहे। मैत्री है मंगल की कामना, सर्व—मंगल की। कामना ही नहीं, सक्रिय जीवन भी। उठूं, बैठूं, चलूं— और मेरा उठना, बैठना, चलना, मेरा श्वास लेना भी सर्व—मंगल के लिए समर्पित हो जाए; तो मनुष्य परमात्मा के दूसरे द्वार में प्रवेश पाता है।
साधारणतया हम वैर— भाव में ही जीते हैं, मैत्री का हमें कोई पता नहीं। हम जिन्हें मित्र भी कहते हैं उन्हें भी इसी कारण कि वे हमारे आत्म—रक्षा में सहयोगी हैं, वे हमारी रक्षा में सहयोगी हैं। हम जिन्हें मित्र कहते हैं इसी कारण कि वे भी मेरे अहंकार के, मुझे बचाने में साथी हैं, संगी हैं, इसलिए।
हमारी परिभाषा ही क्या है मित्र की और शत्रु की? जो मुझे मिटाने को उत्सुक हो जाए उसे हम शत्रु कहते हैं और जो मुझे बचाने में आतुर है उसको हम मित्र कहते हैं। लेकिन केंद्र— मैं हूं। इसलिए एक क्षण पहले तक जो मित्र था, एक क्षण बाद शत्रु हो सकता है। अगर उसकी मुझे केंद्र मानने की इच्छा विलीन हो जाए तो वह शत्रु हो जाएगा। जो शत्रु था एक क्षण पहले, मित्र हो सकता है। अगर वह मेरे मैं को बचाने में सहयोगी हो जाए तो मित्र हो जाएगा। मित्र और शत्रु तत्‍क्षण बदले जा सकते हैं।
अमरीका और रूस मित्र थे हिटलर के खिलाफ, क्योंकि तब वे एक—दूसरे को बचाने में सहयोगी थे। अब वे शत्रु हैं, क्योंकि अब वे एक—दूसरे को बचाने में सहयोगी नहीं हैं। कल वे फिर मित्र हो सकते हैं चीन के खिलाफ, तब वे फिर एक—दूसरे को बचाने में सहयोगी हो जाएंगे। जो मुझे बचाता है वह मित्र है, जो मुझे मिटाना चाहता है वह शत्रु है। और हम सब इसी भाव में जीते हैं कि मैं बचूं मैं बचूं मैं बचूं। और स्वयं को बचाने में सारा जगत मुझे शत्रु जैसा मालूम पड़ता है, क्योंकि प्रत्येक चीज ऐसी लगती है कि डुबा देगी, मिटा देगी।
वैर— भाव में जीने वाला सदा भय में जीता है, फियर में जीता है। जो मैत्री को उपलब्ध होते हैं वे ही फियरलेसनेस को, अभय को उपलब्ध होते हैं, क्योंकि फिर मिटने—मिटाने का सवाल न रहा। वे खुद ही मिट गए, अब उन्हें कोई मिटाएगा कैसे?
लाओत्सु कहता था: 'धन्य हैं वे लोग जो हारे ही हुए हैं, क्योंकि उन्हें कोई हरा नहीं सकता।मैं फिर दोहराता हूं अदभुत है यह पंक्ति। लाओत्सु कहता है धन्य हैं वे लोग जो हारे ही हुए हैं, क्योंकि उन्हें कोई हरा नहीं सकता। धन्य हैं वे लोग जो मिट ही गए, क्योंकि अब उन्हें कोई मिटा नहीं सकता। धन्य हैं वे लोग जो हैं ही नहीं, क्योंकि अब उनकी कोई मृत्यु संभव नहीं है।
हम जितना अपने को बचाते हैं, उतना हम अपने को मिटाए जाने के लिए आमंत्रण भेज देते हैं। तूफान आता है हवा का एक। छोटे—छोटे वृक्ष झुक जाते हैं, हवाएं निकल जाती हैं, वे फिर खड़े हो जाते हैं और हंसने लगते हैं। उनमें फूल फिर खिल आते हैं, वे फिर हवाओं में नाचने लगते हैं। बड़े वृक्ष— अहंकार से भरे वृक्ष, ऊंचे वृक्ष—नहीं, झुकने के लिए तैयार नहीं होते। वे टकराते हैं, वे प्रतिरोध करते हैं, वे रेसिस्ट करते हैं। वे तूफान के दुश्मन हो जाते हैं। तूफान के सामने वे अकड़ कर खड़े हो जाते हैं। जितनी उनकी तेज अकड़ होती है उतनी ही उनके टूटने की संभावना बढ़ जाती है। जितने वे कड़े होते हैं उतने ही टूटने के लिए मौके बढ़ जाते हैं। उनका कड़ापन, उनके खड़े रहने का भाव, उनकी जिद्द उनकी मौत बन जाती है। और वे छोटे—छोटे पौधे जो झुक गए हैं और लेट गए हैं और समर्पित हो गए हैं; जिन्होंने तूफान से शत्रुता नहीं साधी है, जो तूफान के खिलाफ खड़े नहीं हो गए हैं, जिन्होंने तूफान को भी अंगीकार कर लिया है और उसके साथ ही डूब गए हैं और कहा है, जो तेरी मर्जी! अगर पूरब बहना है तो हम पूरब बहे जाते हैं, अगर पश्चिम झुकना है तो हम पश्चिम झुके जाते हैं।
जिन्होंने तूफान के आते ही अपने को झुका लिया है, तूफान उनके ऊपर से निकल जाता है— एक मित्र के प्रेम की तरह—वें वापस खड़े हो जाते हैं। उनके झुकने की क्षमता ही उनके जीने की क्षमता बन जाती है। कड़े होने की, अकड़ के खड़े होने की क्षमता मौत की क्षमता है, जीवन की नहीं।
शत्रु— भाव मृत्यु का आमंत्रण है। मैत्री जीवन का बुलावा है।
मैत्री का अर्थ है. जिसने यह खयाल छोड़ दिया कि मुझे मिटाया जा सकता है। असल में जो यह कहता है कि 'मैं हूं ही नहीं' इसलिए मिटेगा क्या? मिटाएगा कौन? कौन है शत्रु? 'मैं हूं नहीं' तो शत्रु का प्रश्न न रहा। मैं' जब तक हूं तब तक शत्रु है।मैंजब तक हूं और जितना घनीभूत हूं उतना ही घनीभूत शत्रु होगा। मेरा कड़ा होना ही शत्रुता निर्मित करता है। इसलिए जितना अहंकारी व्यक्ति होता है, उतने ही शत्रु निर्माण कर लेता है। यह पृथ्वी उसे चारों तरफ से शत्रु मालूम पड़ने लगती है। कोई मित्र नहीं रह जाता।
मैंने सुना है, हिटलर को कोई भी 'तू' कह कर संबोधित नहीं कर सकता था। हिटलर का कोई भी मित्र नहीं था। हिटलर का नाम भी लेकर कोई संबोधित नहीं कर सकता था। फ्यूहरेर ही कहना पड़ता था। हिटलर ने कभी किसी से मित्रता नहीं साधी। कभी कोई आदमी को इसने करीब नहीं आने दिया कि उसके कंधे पर हाथ रख ले। इतना भयभीत था!
हिटलर ने विवाह नहीं किया। मरने के आखिरी दिन दो घंटे पहले विवाह किया। इसलिए विवाह नहीं किया कि विवाह करने का मतलब एक स्त्री इतने निकट आ जाएगी। और जिस आदमी का अहंकार जितना विक्षिप्त है वह किसी को निकट पाने में घबड़ाता है, क्योंकि खतरा हो सकता है। निकट का व्यक्ति नुकसान पहुंचा सकता है। पत्नी को भी इतने निकट नहीं आने देना है, किसी स्त्री को कि वह रात एक ही कमरे में सो जाए, खतरा है। वह रात को उठे और छुरे भोंक दे, जहर पिला दे।
तो एक स्त्री उसे बारह वर्षों से प्रेम करती थी और वह उसे टालता रहा। वह कहता रहा कि रुको, अभी समय नहीं आया है कि मैं विवाह करूं। जिस दिन बर्लिन पर बम गिरने लगे और हिटलर के मकान के सामने तोपें दुश्मन की आ गईं और हिटलर की खिड़कियों से आकर गोलियां टकराने लगीं, तब हिटलर ने खबर भेजी उस औरत को कि तू जल्दी आ जा, हम विवाह कर लें।
और आप हैरान होंगे, बिना किसी साक्षी के एक पादरी को जल्दी जबरदस्ती चर्च से नींद से उठवा कर बुलाया गया। दो—चार मित्रों के बीच एक नीचे के तलघर में जल्दी से शादी हो गई और एक घंटे बाद दोनों ने जहर खाकर गोली मार ली—पति—पत्नी दोनों ने। जब मौत बिलकुल करीब ही आ गई तब उसने सोचा कि अब कोई फिकर नहीं है, अब किसी को पास लिया जा सकता है। इतना भय! किसी के निकट आने में इतना डर! जितना अहंकार प्रबल होगा उतना ही सारा जगत शत्रु मालूम पड़ने लगता है। जितना व्यक्ति विनम्र होगा, उतना ही सारे जगत के प्रति मैत्री की धाराएं बहने लगती हैं। मैत्री का अर्थ है निर—अहंकारिता, ईगोलेसनेस। मैत्री तभी जन्मेगी और सक्रिय होगी जब भीतर यह 'मैं' का भ्रम टूट जाए। हम तो इस मैंके भ्रम को ही मजबूत करते चले जाते हैं। जितना इस 'मैं' को मजबूत करते हैं, उतना ही डर लगता है कि कोई तोड़ न दे, कोई मिटा न दे। तो उतनी ही हम दीवाल खड़ी करते हैं, उतना ही दूसरे को दूर करते हैं, निकट नहीं आने देते हैं।
अहंकार से भरा हुआ आदमी प्रेम कर ही नहीं सकता, क्योंकि प्रेम में किसी को निकट, निकटता देनी पड़ती है। इतनी निकटता देनी पड़ती है कि वह जितने हम अपने निकट हैं उतने ही निकट वह भी हो जाता है। इसलिए अहंकारी प्रेम से भागता है और डरता है। क्योंकि प्रेम का मतलब है कि दूसरे को इतने निकट ले आना जहां कि खतरा हो सकता है, जहां कि कोई हमें मिटा सकता है।
इसलिए अहंकारी प्रेम से बचता है और अगर प्रेम जैसी घटना भी उसके जीवन में घटती है तो वह घटना ऐसी ही होती है जैसे एक आदमी लोहे के एक खोल में खड़ा हो जाए, और थोड़ा सा एक छेद बना ले, उसमें से हाथ निकाले और दूसरे से थोड़ा हाथ मिलाए और फिर भीतर कर ले। बस ऐसा ही प्रेम है हमारा। अपनी लौह— कवच को हम हमेशा तैयार रखते हैं कि हम उस खोल में... जैसे कछुआ जल्दी से अपनी खोल में सब सिकोड़ कर अंदर हो जाता है, थोड़ा सा बाहर निकलता है। जरा ही भय और अपनी खोल में वापस हो गया।
हम सब भी अपने आस—पास लोहे के खोल बनाए हुए हैं। थोड़ा सा निकलते हैं प्रेम के लिए, जरा सा झांकते हैं कि अच्छा, मेरा बेटा आ रहा है! अच्छा, मेरी पत्नी आ रही है! थोडा सा निकलते हैं डरे—डरे, और चौंके हुए हैं कि कोई हमला न हो जाए और जरा सा भय, जरा सी पत्नी की आंख में दूसरा भाव और हम कछुए की तरह भीतर सरक गए हैं और अपनी खोल मजबूत कर ली है और पूछने लगे क्या मतलब है, क्या बात है? यह जो एक लौह—कवच हम भय का बनाए हुए हैं, यह कैसे मैत्री— भाव को जन्म देने देगा? यह इतनी सुरक्षा की पागल प्यास, यह इतनी सिक्योरिटी की आकांक्षा कैसे मित्र बनाने देगी? यह कैसे फैलेगी भीतर छिपी हुई मैत्री की धारा?
नहीं, इस लौह—कवच को तोड़ देना जरूरी है। यह लौह—कवच हमने बनाया इसलिए है कि अपने को बचाना है। और मजा यह है कि हम हैं कहां जिसको बचाना हो! जिसे हम बचाने चले हैं, सपना है— और एक झूठ, एक सूडो रियलिटी, एक फिक्शन, एक सपना, एक झूठ, एक कल्पना, एक कविता! यह मैं हूं कहां, जिसको हम बचाने चले हैं? यह है कहां? इसकी सचाई क्या है? इसका अर्थ कितना है? हम सच में अलग हैं इस विराट जगत से? इस जीवन से हमारी कोई भिन्नता है?
एक क्षण को भी हम अलग नहीं हैं, विराट के हिस्से हैं। सागर में लहरें नाच रही हैं। हर लहर को खयाल हो सकता है कि मैं हूं लेकिन हम जो किनारे पर खड़े देख रहे हैं वे हंसेंगे और कहेंगे, पागल लहर! तू कहां है, सागर है, तू नहीं है। तू तो सिर्फ हवा के एक झोंके में उठ आई हुई एक रूपाकृति है, हवा के झोंके में उठ आया एक रूप, एक फॉर्म, हवा के झोंके में पैदा हो गया एक नाम—नाम—रूप, इससे ज्यादा तू क्या है?
लहर एक नाम है, हवा के झोंके में उठ गई एक आकृति है। झोंका निकल जाएगा, आकृति गिर जाएगी। सागर पहले भी था, बीच में भी था, पीछे भी होगा। कभी आपने सोचा, सागर बिना लहरों के हो सकता है, लेकिन कभी आपने लहर देखी बिना सागर के? लहर बिना सागर के नहीं हो सकती, सागर बिना लहर के हो सकता है। इसलिए सागर है सत्य, लहर है सपना। लहर का अपना कोई अस्तित्व नहीं है।
यह जीवन हमारे बिना था, यह जीवन हमारे बिना होगा, लेकिन हम इस जीवन के बिना हो सकते हैं? यह पूछ लेना जरूरी है, इसे बहुत गहराई में अपने से पूछ लेना जरूरी है। मैं नहीं था और जीवन था। और चांद निकलता था और चांदनी बरसती थी, और सूरज उगता था और पक्षी गीत गाते थे, और वृक्ष उगते थे और फूल लगते थे और आकाश में तारे आते थे और बादल आते थे। सब चलता था। जीवन था, जीवन अपने पूरे रंगों में था। मैं नहीं था, उससे जीवन रत्ती भर भी कम नहीं था। मैं नहीं रहूंगा कल, जीवन रत्ती भर भी कम नहीं हो जाएगा, जीवन रहेगा। लहर नहीं होगी, सागर फिर होगा।
लेकिन क्या मैं यह सोच सकता हूं कि सूरज न हो, चांद न हो, तारे न हों, वृक्ष न हों, पौधे न हों, पक्षी न हों, यह जो जीवन का विस्तीर्ण फैलाव है यह न हो और मैं हो जाऊं? क्या यह कसीवेबल है? क्या इसकी कल्पना भी की जा सकती है कि जीवन न हो और मैं हो जाऊं? लेकिन मेरे बिना तो जीवन था और कल फिर होगा। इससे क्या मतलब होता है?
इसका मतलब होता है कि मैं लहर से ज्यादा नहीं। जीवन है सागर। मैं उठता हूं एक रूप, एक आकृति और गिर जाता हूं और जीवन सदा है—सदा है, सदा था, सदा होगा। जीवन है सत्य, मैं हूं एक सपना। आया और गया, हवा की एक लहर। लेकिन इस लहर को हम सब—कुछ मान लेते हैं और जब सब मान लेते हैं तो इसे बचाने के लिए आतुर हो जाते हैं और भयभीत हो जाते हैं कि कोई मिटा न दे। जो है ही नहीं, उसको कोई मिटा कैसे सकेगा? जो होता तो मिटाया भी जा सकता था, लेकिन जो है ही नहीं उसे कोई कैसे मिटा सकेगा? मैं हूं ही नहीं, मिटाने का सवाल कहां है! मैं होता तो मिटाया भी जा सकता था, मैं हूं नहीं!
यह जिस दिन जितनी गहरी प्रतीति होती है कि मैं हूं नहीं, उतने ही जीवन से शत्रुता गिर जाती है, क्योंकि फिर कोई मिटाने वाला न रहा, कोई मिटाने की संभावना न रही, कुछ मिटाया नहीं जा सकता। और मैंने कहा कि मैं हूं नहीं तो मिटाया क्या जा सकेगा। और मैंने कहा कि अगर मैं होता तो मिटाया भी जा सकता था, लेकिन और थोड़ी गहराई समझ की बढ़ेगी तो पता चलेगा कि जो है उसे तो मिटाया कैसे जा सकता है। जो है वह है, उसे कैसे मिटाया जा सकेगा?
एक रेत के छोटे से कण को भी तो नहीं मिटाया जा सकता है। जो है, जो एक्सिस्टेंस है, जो अस्तित्व है उसे कैसे मिटाया जा सकता है। जो नहीं है उसे नहीं मिटाया जा सकता है, जो है उसे नहीं मिटाया जा सकता। जो दोनों के बीच में है, केवल सपना है, वही बनता है और मिटता है। जो न है और न नहीं है।
यह, यह बहुत गहरे में स्पष्ट होना चाहिए—यह प्रतीति, यह साक्षात, मैं हूं कहां, मेरा होना क्या है? और जिस दिन यह स्पष्ट हो जाएगा कि मैं नहीं हूं उस दिन कैसी शत्रुता, कैसा वैर? उस दिन कौन है जो शत्रु है, कौन है जो बुरा है, कौन है जिससे मैं भयभीत हो जाऊं, कौन है जिससे मैं डरूं, कौन है जिससे मैं बचूं। कौन सा है तूफान जिसके खिलाफ मुझे खड़े हो जाना है और लड़ना है।
नहीं—नहीं, मैं ही हूं। अगर मैं नहीं हूं तो फिर जो कुछ है वह सब मैं ही हूं। तूफान भी मैं ही हूं—वह जो मिटाने चला आ रहा है वह भी मैं ही हूं।
गदर के दिनों में अठारह सौ सत्तावन में एक संन्यासी को कुछ अंग्रेजों ने भाला भोंक कर मार डाला था। वह संन्यासी पंद्रह वर्षों से मौन था। पंद्रह वर्षों से मौन था, जब उसने मौन लिया था तो उसने कहा था कि कभी जरूरत होगी तो बोलूंगा। फिर पंद्रह वर्ष तक कोई जरूरत न पड़ी और वह नहीं बोला। अंग्रेजों की एक छावनी के पास से वह निकलता था। उन्होंने यह समझ कर कि कोई भेदिया, कोई जासूस, कोई सी. आई. डी. —रात अंधेरी थी और वह वहां से निकल रहा था। वह था अपनी मौज का आदमी। कहां रात थी उसे, कहां दिन था। जब आंख खुल जाती थी तो दिन था, जब आंख बंद हो जाती थी तो रात थी।
वह निकल रहा था छावनी के पास से। उसको पहरेदारों ने रोक लिया और पूछने लगे. कौन हो तुम? तो वह हंसने लगा। वह हंसने लगा। उसकी हंसी देख कर वे पहरेदार संदिग्ध हुए। पूछने लगे जोर से कि बोलो, कौन हो तुम? लेकिन वह तो था मौन। बोलता क्या? और अगर बोलता भी होता तो भी क्या बोलता? कौन हैं आप? तब भी तो सन्नाटा छा जाता।
तो वह हंसने लगा, लेकिन उसकी हंसी को तो गलत समझा गया। हंसी को हमेशा ही गलत समझा जाता है।
उन्होंने उसे घेर लिया और कहा बोलो, अन्यथा मार डालेंगे। तो वह और हंसने लगा। उसे और जोर से हंसी आई, क्योंकि वे मारने की धमकी दे रहे थे। लेकिन मारेंगे किसको! वहां कोई हो तो मर जाए!
वह और भी हंसने लगा तो उन्होंने भाले उसकी छाती में भोंक दिए। मरते क्षण में उसने सिर्फ एक शब्द बोला था। शायद जरूरत आ गई थी इसलिए। उसने उपनिषदों का एक शब्द बोला। उसने कहा 'तत्वमसिऔर मर गया। उसने कहा तुम वही हो, दैट आर्ट दाउ, तत्वमसि, तुम वही हो। वही जो है, और मर गया। तुम वही हो जो मैं हूं तुम वही हो जो है। जिस दिन पता चलता है कि मैं नहीं हूं उसी दिन पता चलता है कि सभी कुछ मैं हूं। जब तक मैं हूं तब तक सब और मेरे बीच एक फासला है। जिस दिन मैं नहीं हूं जिस दिन लहर नहीं है उस दिन पड़ोस की लहर और दूर की लहर सब वही हो गई। सारा सागर वही हो गया। जरूरत आ गई थी तो उसने कहा था, तुम भी वही हो। बड़ी अदभुत बात कही थी मरते क्षण में कि ' तुम भी वही हो।
जो आदमी जीवन में ही यह कह देता है कि ' तुम भी वही हो ' वह मैत्री— भाव को उपलब्ध हो जाता है। मैत्री— भाव का अर्थ है कि कोई दूसरा नहीं है। और दूसरा तब तक रहेगा जब तक मैं हूं क्योंकि दूसरा सिर्फ मेरे 'मैं' की रिएक्‍शन है, उसकी प्रतिक्रिया है। जब तक 'मैं हूं तब तक ' तू है।जिस दिन मैंनहीं है उस दिन कोई ' तू ' न रहा। जिस दिन कोई 'तून रहा उस दिन जो भाव जन्मेगा उस भाव का नाम है मैत्री, उसका नाम है फ्रेंडलीनेस। और जब कोई पराया न रहा, जब कोई अन्य न रहा, दि अदर, वह दूसरा न रहा, तब मैं किस तरह जीऊंगा? तब मैं किस तरह जीऊंगा? तब किसी रोते हुए आदमी के आंसू क्या मेरे आंसू नहीं हो जाएंगे? तब किसी आदमी की हंसती हुई मुस्कुराहट क्या मेरी मुस्कुराहट नहीं हो जाएगी? तब खिला हुआ फूल क्या मेरी खिली हुई आत्मा नहीं हो जाएगी? तब सागर की गरजती हुई लहरें क्या मेरा गर्जन न बन जाएंगी?
जब मैं नहीं हूं और तू नहीं है तो फिर जो रह गया वह सब एक है। और तब सक्रिय होती है करुणा। जब एक ही शेष रह गया, तब जो सक्रियता जीवन में पैदा होती है, तब मैं जो करता हूं तब वह सभी कुछ मैत्रीपूर्ण है। तब जो भी मैं हूं— मेरा उठना—बैठना, मेरा श्वास, वह सभी मैत्रीपूर्ण है। तब जीवन के सारे दुख मेरे हैं और सारे सुख भी। तब जीवन के सारे आंसू मेरे हैं और सारी मुस्कुराहटें भी। तब जीवन और मैं एक हूं। वैसा जो तादात्म्य है, वैसा जो अद्वैत भाव है, उस अद्वैत भाव का नाम है मैत्री। इसलिए मैत्री दूसरा द्वार है।
कैसे पहुंचेंगे इस मैत्री के जगत तक? कैसे उठेंगे इस मित्रत्व में? कैसे उठेंगे इस एकता में? कैसे यह अद्वैत फलित होगा? कैसे तोड़ेंगे अपने को? तीन बातें ध्यान में रहें तो यह टूटना हो सकता है।
पहली बात इस बात की अथक खोज चाहिए कि मैं हूं। इस बात की अथक खोज चाहिए—मैं हूं मेरा कोई अलग होना है? मैं कोई अलग— थलग, कोई जीवन से टूटा हुआ, कोई खंड, कोई पृथकता है कहीं मेरे होने में, या कि एक अपृथक अस्तित्व है, एक इंटिग्रेटेड एक्सिस्टेंस है?
मैं श्वास ले रहा हूं लेकिन श्वास तो मेरी नहीं है। यह जो चारों तरफ भरा हुआ श्वास का सागर है, ये जो हवाएं हैं उनसे श्वास मुझ तक आती है और जाती है। अगर हवाएं बंद हो जाएं, इनकार कर दें कि बस बहुत हो गया, अब नहीं आदमियों से संबंध रखना है, तो मैं और आप तत्‍क्षण यहीं शून्य हो जाएंगे। जीवन विलीन हो जाएगा।
सूरज की किरणें आ रही हैं, बहुत लंबी यात्रा करके हम तक आती हैं, कोई आठ—नौ करोड़ मील दूर से। सूरज तय कर ले कि बस हो जाओ ठंडे, बहुत दिन हो गए! बहुत दिन हो गए और ठंडा हो जाए वहीं अभी; तो हमें पता भी नहीं चलेगा कि सूरज ठंडा हो गया है। क्योंकि उसके ठंडे होते ही हम भी ठंडे हो जाएंगे। वह जो यह दूर से आती हुई किरणें यहां गिर रही हैं आपके ऊपर, यह नौ करोड़ मील दूर से जीवन बरस रहा है। नौ करोड़ मील दूर से जीवन के सूत्र और धागे बंधे हैं। ये किरणें धागे हैं जीवन के। ये किरणें बंद और हम समाप्त! लेकिन हम कहे चले जाते हैं कि मैं हूं।
नहीं, मैं नहीं हूं। हवाएं हैं, सूरज है, पृथ्वी है, सब—कुछ है— मैं कहां हूं! इन सबका अदभुत जोड़ है, इन सबका एक क्रास पॉइंट है। इन सबसे मिल कर एक रूपाकृति है। उस रूपाकृति को यह भ्रम है कि मैं हूं। एक भिक्षु था, नागसेन। एक सम्राट मिलिंद ने उसे निमंत्रण भेजा था। निमंत्रण लेकर सम्राट का दूत गया और कहा कि भिक्षु नागसेन! सम्राट ने निमंत्रण भेजा है। आपके स्वागत के लिए हम तैयार हैं। आप राजधानी आएं। तो उस भिक्षु नागसेन ने कहा कि आऊंगा जरूर, निमंत्रण स्वीकार। लेकिन सम्राट को कह देना कि भिक्षु नागसेन जैसा कोई व्यक्ति है नहीं। ऐसा कोई व्यक्ति है नहीं। आऊंगा जरूर, निमंत्रण स्वीकार है। लेकिन कह देना सम्राट को कि भिक्षु नागसेन जैसा कोई व्यक्ति, कोई इंडिविजुअल है नहीं।
राजदूत तो चौंका, फिर आएगा कौन, फिर निमंत्रण किसको स्वीकार है? लेकिन कुछ कहना उसने उचित न समझा। जाकर निवेदन कर दिया सम्राट को। सम्राट भी हैरान हुआ। लेकिन प्रतीक्षा करें, आएगा भिक्षु तो पूछ लेंगे कि क्या था उसका अर्थ?
फिर भिक्षु को लेने रथ चला गया। फिर स्वर्ण—रथ पर बैठ कर वह भिक्षु चला आया। वह कमजोर भिक्षु न रहा होगा कि कहता कि नहीं, सोने को हम न छुएंगे। कमजोर भिक्षु होता तो कहता कि नहीं सोने को हम न छुएंगे, सोना तो मिट्टी है। लेकिन बड़ा मजा यह है कि सोने को मिट्टी भी कहता और छूने में डरता भी है!
नहीं, वह सचमुच भिक्षु रहा होगा अदभुत। उसको सोना मिट्टी ही रहा होगा। सो बैठ गया शान से वह उस सोने के रथ पर। लेने वालों ने सोचा भी था कि शायद भिक्षु कहेगा कि सोने का रथ! नहीं—नहीं, मैं नहीं बैठता। उन्हें पता न था कि यह सब कमजोर भिक्षुओं की आदतें हैं, कि सोने का रथ—मैं नहीं बैठता! सोने से जिनको बहुत डर है कि कहीं सोना पकड़ न ले, वे सोने से भागते हैं, भाग सकते हैं।
वह बैठ गया रथ पर, चल पड़ा रथ। आ गई राजधानी, सम्राट नगर के द्वार पर लेने आया था। सम्राट ने कहा कि भिक्षु नागसेन! स्वागत करते हैं नगर में। वह हंसने लगा भिक्षु। उसने कहा स्वागत करें, स्वागत स्वीकार, लेकिन भिक्षु नागसेन जैसा कोई है नहीं। सम्राट ने कहा फिर वही बात! हम तो सोचते थे महल तक ले चलें फिर पूछेंगे। आपने महल के द्वार पर ही बात उठा दी है तो हम पूछ लें कि क्या कहते हैं आप? भिक्षु नागसेन नहीं है तो फिर आप कौन हैं?
भिक्षु उतर आया रथ से और कहने लगा कि महाराज! यह रथ है? महाराज ने कहा रथ है। भिक्षु ने कहा. घोड़े छोड़ दिए जाएं रथ से। घोड़े छोड़ दिए गए और वह भिक्षु कहने लगा ये घोड़े रथ हैं? महाराज ने कहा नहीं, घोड़े रथ नहीं हैं। घोड़ों को विदा कर दो। चाक निकलवा लिए रथ के और कहने लगा भिक्षु कि ये रथ हैं? महाराज ने कहा नहीं, ये तो चक्के हैं, रथ कहां! कहा. चक्कों को अलग कर दो!
फिर एक—एक अंग—अंग निकलने लगा उस रथ का और वह पूछने लगा यह है रथ, यह है रथ, यह है रथ? और महाराज कहने लगे नहीं—नहीं, यह रथ नहीं है, यह रथ नहीं है! फिर तो सारा रथ ही निकल गया और वहां शून्य रह गया, वहां कुछ भी न बचा। और तब वह पूछने लगा फिर रथ कहां है? रथ था, और मैंने एक—एक चीज पूछ ली और आप कहने लगे नहीं, यह तो चाक है, नहीं, यह तो डंडा है, नहीं, यह तो यह है, नहीं, ये तो घोड़े हैं; और अब सब चीजें चली गईं जो रथ नहीं थीं! रथ कहां है? रथ बचना था पीछे? रथ कहां गया? वह मिलिंद भी मुश्किल में पड़ गया। वह भिक्षु कहने लगा रथ नहीं था। रथ था एक जोड़। रथ था एक संज्ञा, एक रूपाकृति।
वह भिक्षु नागसेन कहने लगा: मैं भी नहीं हूं हूं अनंत की शक्तियों का एक जोड़। एक रूपाकृति उठती है, लीन हो जाती है, उठती है, लीन हो जाती है। एक लहर बनती है, बिखर जाती है। नहीं हूं मैं, वैसा ही हूं जैसा रथ था, वैसा ही नहीं हूं जैसा अब रथ नहीं है। खींच लें सूरज की किरणें, खींच लें पृथ्वी का रस, खींच लें हवाओं की ऊर्जा, खींच लें चेतना के सागर से आई हुई आत्मा— फिर कहां हूं मैं? हूं एक जोड़, हूं एक रथ, है बहुत कुछ जो काट गया है एक किनारे पर आकर; एक बिंदु पर बहुत रेखाएं कट गई हैं और एक बिंदु मालूम पड़ने लगा है—जहां बिंदु नहीं है, सिर्फ रेखाओं की कटान है। एक रेखा खींची गई, दूसरी, तीसरी, चौथी, हजार रेखाएं खींची गईं तो बीच में एक बिंदु मालूम पड़ने लगा है। जहां—जहां रेखाएं कट गई हैं वहां बिंदु बन गया है। बिंदु वहां है नहीं, सिर्फ रेखाओं का क्रास पॉइंट। दो रेखाएं कट गई हैं और बिंदु मालूम हो रहा है, बिंदु वहां है नहीं। दो रेखाओं की कटान, एक चौरस्ता है, बहुत से रास्ते कट गए हैं और एक चौरस्ता बन गया है। चौरस्ता कहीं है? चार रस्ते कटते हैं, उस जगह को हम चौरस्ता कहते हैं। चौरस्ता कहीं भी नहीं है।
व्यक्ति कहीं भी नहीं है। अनंत जीवन की ऊर्जा और शक्तियां कटती हैं और व्यक्ति निर्मित होता है। यह जो व्यक्ति अहंकार है, यह जो ईगो सेंटर है, यह जो खयाल है कि मैं हूं र इसकी खोज करनी जरूरी है कि मैं हूं।
एक वृक्ष के पत्ते से हम पूछें, वह कहेगा कि मैं हूं जरूर मैं हूं। उससे हम पूछें कि तुम्हारे पास की शाखा पर लगे हुए दूसरे पत्ते? वह कहेगा कि दूसरे हैं, क्योंकि उस पत्ते को कैसे पता हो सकता है कि बगल की पड़ोस में लगी शाखा पर जो पत्ते आए हैं वे उसी रस—स्रोत से आए हैं जिससे मैं आया हूं। मेरे प्राणों के धागे उसी शाखा से जुड़े हैं जिससे उनके प्राणों के धागे भी जुड़े हैं। हमारे प्राण एक ही ऊर्जा से निष्पन्न हुए हैं, प्रकट हुए हैं। एक पत्ते को कैसे पता चल सकता है?
लेकिन हम चूंकि बाहर खड़े हैं, हमें दिखाई पड़ता है कि पागल है यह पत्ता बहुत, कहता है कि मैं हूं और वह पत्ता दूसरा है और दोनों एक ही वृक्ष के पत्ते हैं। हम वृक्ष की शाखा से पूछें कि यह पड़ोस की शाखा? वह कहेगी, होगी कोई। हमेशा इससे डर लगा रहता है, न मालूम कैसी शत्रुता कर दे, न मालूम क्या कर दे। होगी कोई, मैं और हूं। शाखाओं को क्या पता हो सकता है? एक ही पेडू से वे बंधी हैं। वृक्ष को हम पूछें कि यह जो पड़ोस में खड़ा हुआ वृक्ष है? वह कहेगा, है दूसरा, है शत्रु। लेकिन उस वृक्ष को क्या पता कि दोनों की जड़ें एक ही पृथ्वी से जुड़ी हैं और एक ही प्राण से संयुक्त हैं। और पृथ्वी को हम पूछें कि तुम? पृथ्वी भी कहेगी, मैं हूं और ये चांद—तारे, और ग्रह—नक्षत्र होंगे दूसरे, लेकिन पृथ्वी को भी कैसे पता हो कि सारे चांद—तारे और सारे ग्रह— नक्षत्र किसी एक ही जीवन—ऊर्जा से संयुक्त हैं।
सारा जीवन एक से संयुक्त है। उस एक का नाम ही प्रभु है। और उस एक की तरफ जाने के लिए मैत्री दूसरा द्वार है, क्योंकि वह एकता में प्रवेश है। उस एक का नाम परमात्मा है और उस एकता की तरफ जो सबसे बड़ा कदम है वह है फ्रेंडलीनेस, वह है मैत्री। लेकिन मैत्री घटित होगी जब हम 'मैं' को खोजने जाएंगे और पाएंगे कि 'मैं' नहीं है—एक बात।
दूसरी बात इसे केवल सोच लेना काफी नहीं है। आदमी अच्छी—अच्छी बातें सोच सकता है, सोच लेना पर्याप्त नहीं है, अनुभव से गुजरना भी जरूरी है। तो मैत्री सिर्फ एक फिलॉसफिक कांसेप्ट, एक दार्शनिक धारणा नहीं है। एक अनुभव, एक एक्सपीरिएंस, एक अनुभूति है।
तो जब यह लगे कि 'मैं नहीं हूं' तो इसके थोड़े प्रयोग करने जरूरी हैं।
किसी वृक्ष के पास टिक कर बैठ गए हैं और तब यह अनुभव करना जरूरी है कि मैं नहीं हूं। और मैं आपसे कहता हूं कि किसी घड़ी में आपको लगेगा कि आप और वृक्ष एक हैं। सागर के तट पर बैठ कर यह अनुभव करना कि 'मैं नहीं हूं' और एकदम से हैरानी की धारा आएगी एक और लगेगा कि मैं एक लहर हूं लहर का गर्जन। किसी फूल के पास बैठ कर यह अनुभव करना कि 'मैं नहीं हूं ' और लगेगा कि भीतर तक फूल छा गया सारी आत्मा पर, रह गया फूल और 'मैं नहीं हूं।किसी व्यक्ति का हाथ हाथ में लेकर अनुभव करना कि 'मैं नहीं हूं' और पता चलेगा कि दोनों हाथ दो नहीं रहे, जुड़ गए कहीं किसी तल पर और एक रह गया है।
विचार के तल पर जानना है कि 'मैं नहीं हूं और अनुभव के तल पर अनुभव करना है कि 'मैं नहीं हूं' ताकि वह जोड़ एक जीवंत प्रतीति बन जाए। जीवन के चारों तरफ के विस्तार में जगह—जगह अनुभव करना है कि ' मैं नहीं हूं।
रामकृष्ण दक्षिणेश्वर से एक दिन गंगा पार करते थे। नाव पर बैठ गए, नाव चलने लगी। एकदम जोर— जोर से चिल्लाने लगे, मत मारो मुझे। मत मारो मुझे। लोग तो घबड़ा गए जो पास बैठे थे। दों—चार मित्र साथ थे। वे पूछने लगे कि परमहंस क्या कहते हैं आप? कौन मारता है आपको, हम और आपको मारेंगे? और वे हैं कि उनकी आंख से आंसू की धारा बहने लगी और चिल्लाने लगे, नहीं—नहीं, मत मारो मुझे, मैंने क्या बिगाड़ा! आप भी होते तो घबड़ा गए होते और कहते कि पागल हो गए हैं। कोई मारता नहीं, कोई छूता नहीं, नाव पर चार—छह साथी हैं; और वे हैं कि चिल्लाने लगे, और आंख से आंसू की धारा बहने लगी। और बड़ा आश्चर्य तो यह था कि वे अपनी पीठ पकड़ लिए और कहा कि नहीं, मत मारो, मत मारो। पीठ को देखे तो कोड़े के निशान हैं। सारी चमड़ी उखड़ गई है। तब पागल कहना मुश्किल हो गया। आंखें उठा कर देखा उस पार जहां नाव जा रही है, एक आदमी को लोग कोड़े मार रहे हैं।
उस पार जाकर नाव लगी है। उस आदमी के पीठ के पास जाकर देखा है, रामकृष्ण और उसके पीठ पर एक सा निशान आ गया है। तब तो बहुत हैरान हुए। रामकृष्ण से पूछने लगे यह क्या हुआ? रामकृष्ण ने कहा कि जब उसे वे मारने लगे, मैं नाव पर चढ़ता था और उन्होंने उसे कोड़ा मारा। फिर मुझे पता नहीं क्या हुआ! बस मेरे भीतर से एकदम उठने लगा, मुझे मत मारो, मुझे मत मारो! इतनी एम्पैथी, इतना तादात्म्य! तो परिणाम यह हो जाएगा। यह परिणाम हो जाएगा।
यूरोप में हजारों ईसाई फकीर हुए हैं, आज भी हैं—जिस दिन जीसस को फांसी हुई और जिस दिन उनके हाथ में खीले ठोके गए उस दिन शुक्रवार को, सैकड़ों फकीर हुए हैं पश्चिम में, आज भी दो—चार लोग हैं कि उस दिन उनके पास हजारों लोगों की भीड़ इकट्ठी हो जाती है। उनके दोनों हाथ लिए वे बैठे रहते हैं आंख बंद किए, और ठीक वक्त पर जब जीसस को सूली हुई थी और हाथ में खीले ठोके गए थे उनके हाथ से खून की धाराएं बहनी शुरू हो जाती हैं। बहुत मेडिकल परीक्षण हुआ है इसका। क्योंकि पश्चिम में कोई ऐसे नहीं मान लेता किसी बात को। बहुत चिकित्सकों ने जांच—पड़ताल की है कि कोई धोखाधड़ी तो नहीं है! यह हाथ से खून कैसे निकल रहा है? लेकिन कोई धोखाधड़ी नहीं है। हाथ से खून बहने लगता है। इतनी एम्पैथी, इतनी एकात्म अनुभूति हो सकती है कि उस क्षण में वे जीसस हो जाते हैं। वे, वे क्राइस्ट हो गए। उनको सूली लगा दी गई। उस क्षण में सूली लग गई है।
भाव इतनी तीव्र एकता में ले जा सकता है! सोच ही नहीं लेना है, उसके प्रयोग करने हैं जीवन में कि वह गहरे में प्रविष्ट हो जाए और वहां पता चले। तब, तब एक बार पता चलेगा कि यह जो जीवन में सब तरफ घट रहा है, यह हमसे जुड़ा है, सिर्फ हमने मैत्री का संबंध नहीं जोड़ा है, इसलिए धागे बीच में से कट गए हैं, एक दीवाल खड़ी हो गई है; अन्यथा जीवन बह रहा है, जा रहा है, आ रहा है! सारा जीवन एक है—मैत्री का दूसरा अनुभव!
और तीसरी बात न केवल विचार पर्याप्त हैं, न केवल अनुभव; बल्कि तीसरी बात मैत्री के अनुभव का सक्रिय प्रकाशन। मैत्री का सक्रिय जीवन। उठते—बैठते, चलते—फिरते मैत्री का सक्रिय जीवन।
क्या अर्थ है मैत्री के सक्रिय जीवन का? धार्मिक जीवन उसी का नाम है। वह जो रिलीजस, धार्मिक जीवन जिसे कहें, वह मैत्री का जीवन है। मेरे कृत्य, मेरे विचार में, मेरे अनुभव में और मेरे कृत्य में मैत्री प्रविष्ट हो। मैं जो करूं वह मैत्री—प्रेरित हो। मैं जो करूं उसका एक ही आधार और एक ही कारण हो कि वह मैत्री है पीछे—मैं जीऊं तो मैत्री के लिए, मरूं तो मैत्री के लिए। मेरी श्वास उसके लिए चले, मेरा हृदय उसके लिए धड़के—सक्रिय मैत्री का तीसरा चरण।
चारों तरफ जीवन में कितना दुख है, कितनी पीड़ा है, कितनी चिंता है। चारों तरफ जीवन कितना कुरूप है, चारों तरफ जीवन कितना विकलांग है, चारों तरफ जीवन कितना पक्षाघात से घिरा है, चारों तरफ कितने घाव हैं, चारों तरफ कितनी पीड़ा का विस्तार है। मेरी मैत्री सक्रिय होना चाहिए। एक छोटा सा घाव भी भर सकूं, एक छोटी सी पीड़ा दूर कर सकूं, एक छोटा सा कांटा किसी रास्ते से उठा सकूं, किसी मार्ग से एक पत्थर हटा सकूं, किसी के जीवन में एक सीडी बना सकूं— कुछ भी जो मैं कर सकूं चारों तरफ के जीवन के लिए। मैत्री मेरी सक्रिय होनी चाहिए, तो मुझे मैत्री का उन तीनों आयामों में पूरा का पूरा, उनके तीनों डाइमेन्यान में मैत्री की ऊंचाई में, गहराई में, चौड़ाई में मेरा अनुभव होगा। विचार में, अनुभव में, अभिव्यक्ति में।
तो जीवन की छोटी सी पीड़ा भी मैं दूर कर सकूं। नाम गिनाने की जरूरत नहीं है। हम सब जीवन की पीड़ाएं जानते हैं। चारों तरफ जीवन पीड़ा से भरा हुआ है। कोई बहुत बड़ा उपक्रम करने का भी सवाल नहीं है, क्योंकि एक छोटा सा गेस्वर, एक छोटा सा इशारा, आंख की एक मुस्कुराहट, किसी का हंस कर स्वागत भी किसी की गहरी से गहरी पीड़ा को उतार दे सकता है। किसी को हाथ का छोटा सा स्पर्श भी न मालूम कितनी घनी पीड़ा का भार उतार दे सकता है। लेकिन हम मुस्कुराना भूल गए हैं। हमारी आंखों ने प्रेम बरसाना छोड़ दिया है। हमारे हाथों में वह पुलक नहीं उठती, हमारे प्राणों में वह गीत पैदा नहीं होता। वह हमें खयाल ही भूल गया है। हम पत्थर की तरह जी रहे हैं।
इस जीवन को चौबीस घंटे निरंतर उठने से सोने तक, चारों तरफ की पीड़ा का दर्शन करना है और चारों तरफ की पीड़ा से संवेदित होना है, चारों तरफ की पीड़ा से पीड़ित होना है। चारों तरफ के दुख और कांटों को प्रतीत करना है और जो बन सके प्रत्येक व्यक्ति से उन कांटों और उन पीड़ाओं को दूर करने का उपाय करना है, तो मैत्री सक्रिय बनती है।
एक फकीर था जापान में, वह बुद्ध के ग्रंथों का अनुवाद करवा रहा था। पहली बार जापानी भाषा में पाली से बुद्ध के ग्रंथ जाने वाले थे। गरीब फकीर था, उसने दस साल तक भीख मांगी। दस हजार रुपये इकट्ठे कर पाया, लेकिन तभी अकाल आ गया, उस इलाके में अकाल आ गया।
उसके दूसरे मित्रों ने कहा कि नहीं—नहीं, ये रुपये अकाल में नहीं देने हैं, लोग तो मरते हैं, जीते हैं, चलता है यह सब। भगवान के वचन अनुवादित होने चाहिए, वह ज्यादा महत्वपूर्ण है।
लेकिन वह फकीर हंसने लगा। उसने वे दस हजार रुपये अकाल के काम में दे दिए। फिर का फकीर, साठ साल उसकी उम्र हो गई थी, फिर उसने भीख मांगनी शुरू की। दस साल में फिर दस हजार रुपये इकट्ठे कर पाया कि अनुवाद का कार्य करवाए, पंडितों को लाए। क्योंकि पंडित तो बिना पैसे के नहीं मिलते हैं। पंडित तो सब किराए के होते हैं। तो पंडित को तो रुपया चाहिए था, तो वह अनुवाद करे पाली से जापानी में। फिर दस हजार रुपये इकट्ठे किए, लेकिन दुर्भाग्य कि बाढ़ आ गई और वे दस हजार रुपये वह फिर देने लगा।
तो उसके भिक्षुओं ने कहा यह क्या कर रहे हो? यह जीवन भर का श्रम व्यर्थ हुआ जाता है। बाढ़े आती रहेंगी, अकाल पड़ते रहेंगे, यह सब होता रहेगा। अगर ऐसा बार—बार रुपये इकट्ठे करके इन कामों में लगा दिया तो वह अनुवाद कभी भी नहीं होगा।
लेकिन वह भिक्षु हंसने लगा। उसने वे दस हजार रुपये फिर दे दिए। फिर उम्र के आखिरी हिस्से में दस— बारह साल में फिर वह दस—पंद्रह हजार रुपये इकट्ठे कर पाया। फिर अनुवाद का काम शुरू हुआ और पहली किताब अनुवादित हुई। तो उसने पहली किताब में लिखा : थर्ड एडिशन, तीसरा संस्करण।
तो उसके मित्र कहने लगे? पहले दो संस्करण कहां हैं? निकले ही कहां? पागल हो गए हो? यह तो पहला संस्करण है।
लेकिन वह कहने लगा कि दो निकले, लेकिन वे निराकार संस्करण थे। उनका आकार न था। वे निकले, एक पहला निकला था जब अकाल पड़ गया था, तब भी बुद्ध की वाणी निकली थी। फिर दूसरा निकला था जब बाढ़ आ गई थी, तब भी बुद्ध की वाणी निकली थी। लेकिन उस वाणी को वे ही सुन और पढ़ पाए होंगे जिनके पास मैत्री का भाव है। यह तीसरा संस्करण सबसे सस्ता है, सबसे साधारण है, इसको कोई भी पढ़ सकता है, अंधे भी पढ़ सकते हैं, लेकिन वे दो संस्करण वे ही पढ़ पाए होंगे जिनके पास मैत्री की आंखें हैं।
जीवन है चारों तरफ बहुत दुख और पीड़ा से भरा हुआ। उसमें मैत्री के संस्करण, उसमें मैत्री की अभिव्यक्ति प्रकट होती रहनी चाहिए और वह प्रत्येक व्यक्ति को अपने लिए चुनना होता है कि उसकी मैत्री किन— किन मार्गों से प्रकट हो और बहे।
तो ये तीन बातें मैत्री के संबंध में स्मरण रखनी जरूरी हैं। फिर से मैं दोहरा दूं करुणा है निराकार। वह है आकाश में छा गया बादल जो पानी से भरा है। मैत्री है वर्षा, जो आ गई पृथ्वी तक और फैल गई पृथ्वी की जड़ों में। करुणा है भाव, मैत्री है क्रिया। करुणा है आत्मा, मैत्री है शरीर। करुणा भीतर जन्मती है, वह है केंद्र; मैत्री है अभिव्यक्ति, वह है परिधि। जिसकी करुणा मैत्री तक पहुंच जाती है वह भगवान के दूसरे द्वार में प्रविष्ट हो जाता है। शेष दो द्वारों की बात हम आगे करेंगे।

 अब सुबह के ध्यान के लिए हमें बैठना है। तो थोडे— थोड़े हम एक—दूसरे से फासले पर हो जाएं।
बैठ जाने के बाद आंखें जो आधी खुली रख सकते हों नासाग्र, वे आधी खुली रखेंगे। जिन्हें उसमें जरा भी तकलीफ मालूम होती है, वे आंखें बंद रखेंगे।
शरीर को हम शिथिल छोड़ देंगे और फिर भीतर संकल्प करेंगे, पूछेंगे, मैं कौन हूं? इतनी तीव्रता से पूछना है इस जिज्ञासा को कि मैं कौन हूं कि प्राण का रोआं—रोआं कंप जाए। व्यक्तित्व के कोने—कोने तक यह आवाज गंज जाए, धड़कन— धड़कन में, श्वास—श्वास में एक ही भाव रह जाए कि मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? पूछते ही चले जाना है सतत, जैसे कोई पत्थर तोड़ता हो और चोट करता ही चला जाता है सतत। चोट करते ही चले जाना है कि मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? धीरे— धीरे प्रश्न ही रह जाए और हम मिट जाएं। बस प्रश्न ही रह जाए, इंक्वायरी ही रह जाए कि मैं कौन हूं? एक प्रश्न बन जाए पूरा प्राण कि मैं कौन हूं?
भीतर जो है, जब हमारी पुकार और हमारा प्रश्न उस तक पहुंचेगा, तो वह बोलेगा कि कौन है? भीतर जो है, वह सबके भीतर एक ही है, उस तक हमें प्रश्न को पहुंचा देना है, निवेदन कर देना है। बस हमारा काम इतना काफी है कि हम प्रश्न पहुंचा दें प्राणों की गहराई तक, उत्तर वहां है। वह आएगा, वह अपने से आएगा।
एक कुएं में पानी भरा हुआ है। हम अपनी बाल्टी और रस्सी पहुंचा दें उस पानी तक, फिर वह भर जाएगी। प्रश्न की रस्सी और बाल्टी पहुंचा देनी है वहां तक जहां चेतना और ज्ञान भरा हुआ है। जहां है अस्तित्व वहां तक। तो इतनी तीव्रता से पूछना, इतनी इंटेंसिटी से है कि सारे पर्दे बीच के टूट जाएं और आवाज भीतर तक पहुंच जाए।
जब पूरी तीव्रता से आप पूछेंगे तो यह सारा समुद्र भी यही पूछते हुए मालूम पड़ेगा कि मैं कौन हूं? ये सरू के वृक्ष पूछते हुए मालूम पड़ेंगे कि मैं कौन हूं? ये सारी हवाएं पूछती मालूम पड़ेगी कि मैं कौन हूं? एक तूफान खड़ा हो जाएगा चारों तरफ कि मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? और उस तूफान में आप कंप जाएंगे तो घबड़ाना नहीं है। आंसू बहने लगें तो घबड़ाना नहीं है। रोना आ जाए तो घबड़ाना नहीं है। गिर पड़े तो घबड़ाना नहीं है। पूछते ही चले जाना है तीव्रता से, जितना मैं पूछ सकता हूं पूछते चले जाना है।
निश्चित ही इस पूछने में ही एक अदभुत शांति फलित होने लगेगी। इस तीव्र जिज्ञासा में ही प्राण शांत होने लगेंगे। एक अनुभव में से गुजरना होगा, एक अदभुत अनुभव में से गुजरना हो सकता है। हम पर निर्भर है कि हम कितनी तीव्रता से पूछते हैं।

 तो अब हम बैठ जाएं। आंख आधी खुली रखें या बंद रखें। शरीर को ढीला छोड दें। बिलकुल शांत बैठ जाएं। शरीर को ढीला छोड़ दें। और अब पूछें अपने भीतर—मैं कौन हूं? सारी शक्ति से पूछें—मैं कौन हूं? पूरे संकल्प से पूछें कि मैं कौन हूं? और पूछते चले जाएं अत्यंत तीव्रता से, सघनता से—मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?......प्राणों के कौनेकौने में पूछते चले जाएं—मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?......पूछें पूरी शक्ति से, जरा भी शक्ति खाली न रह जाए, पूरी शक्ति को लगा दें और पूछें— मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?......कंप जाए पूरा व्यक्तित्व, कंप जाए पूरा प्राण, पहुंच जाए भीतर तक यह तीर—मैं कौन हूं?...
पूछें, शुरू करें—मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?......दस मिनट के लिए पूछें। एक आग जल जाए भीतर कि मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?......शिथिलता से नहीं, धीरे— धीरे नहीं, पूरी शक्ति से कि मैं कौन हूं? पूरे प्राणों की आवाज से कि मैं कौन हूं? झनझना जाए सारा व्यक्तित्व कि मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?......दस मिनट के लिए अब आप पूछें : मैं कौन हूं?...
मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?... पूरी शक्ति, पूरा संकल्प एक ही बात कहे—मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?......पूरी शक्ति, पूरे प्राण कहें कि मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?......जरा भी शक्ति का हिस्सा पीछे न बच जाए। पूरी शक्ति से कूद जाएं जिज्ञासा में कि मैं कौन हूं?...
पूछें, पूछें, पूछते चले जाएं मैं कौन हूं?......सारा भय छोड़ दें, पूछें. मैं कौन हूं? सारी चिंता छोड़ दें और पूछें मैं कौन हूं? बस प्रश्न ही रह जाए कि मैं कौन हूं? श्वास—श्वास में यही भर जाए कि मैं कौन हूं?... और गहरे... और गहरे... और तीव्रता से कि मैं कौन हूं?...
मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?... और तीव्रता से, और गहराई से पूछें मैं कौन हूं? शक्ति का एक कण भी पीछे न रह जाए, पूरी आत्मा पूछे कि मैं कौन हूं? तोड़ दें सारे पर्दे भीतर मैं कौन हूं?... मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?......पूछें, पूछें, पूछें मैं कौन हूं?......एक पल का भरोसा नहीं है, कौन जाने यह आखिरी पल हो! पूरी शक्ति से पूछें कि मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं हूं कौन?......जरा भी चिंता न करें, आंसू बहे, रोना आ जाए, पर पूछते चले जाएं—मैं कौन हूं? कोई किसी दूसरे की तरफ ध्यान न दें, अपनी फिकर करें। पूछें : मैं कौन हूं?......मैं कौन हूं?......मैं कौन हूं?...
यह कहने को न रह जाए कि मैंने कम पूछा था। पूरी तरह पूछें कि मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं हूं कौन? मैं कौन हूं?......पूछते चले जाएं पूरी तीव्रता से। पूरे प्रश्न को जगा लें मैं कौन हूं? अपने आप एक शांति पीछे उतरने लगेगी। जितनी तीव्र होगी जिज्ञासा उतनी ही शांति।...
मैं कौन हूं?......मैं कौन हूं?......मैं कौन हूं?......मैं कौन हूं?......पूछते चले जाएं, पूछते चले जाएं।..
मन शांत होगा......मन बिलकुल शांत हो जाएगा......जैसे एक तूफान आए और पीछे सब शांति छा जाए। मैं कौन हूं? इसके तूफान को गुजर जाने दें। मैं कौन हूं? पूछें मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?......पीछे एक शांति, पीछे एक हलकापन, पीछे एक मौन। मैं कौन हूं? इस तूफान को पूरी तरह उठ आने दें। मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...
अब धीरे— धीरे दो—चार गहरी श्वास लें... धीरे— धीरे दो—चार गहरी श्वास लें......प्रत्येक श्वास के साथ एक अदभुत शांति अनुभव होगी। धीरे— धीरे दो—चार गहरी श्वास लें......फिर बहुत आहिस्ता से आंख खोलें......फिर

 धीरे से आंख खोलें...।

 सुबह की बैठक समाप्त हुई।




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