प्रश्नसार:
1—अगर
प्रामाणिक
अनुभव आकस्मिक
ही घटता है
तो
फिर यह क्रमिक
विकास और दृष्टि
की
स्वच्छता
क्या है,
जो हमे अनुभव
होती है।
2—जब
कोई व्यक्ति
साक्षी चैतन्य
में स्थित हो
जाता है,
तो
ध्रुवीय
विपरीतताओं
का क्या होता
है?
3—विचार
शून्य बोध
में बुद्ध—मन
कब उदघटित
होता है?
4—आपके
ध्यानों में
तीव्र रेचन न
होने के क्या
कारण है?
पहला
प्रश्न:
आपने
कहा कि की व्यक्ति
या तो संसार
को देखता है
या ब्रह्म को
और यह कि
ब्रह्म का क्रमिक
दर्शन संभव नहीं
है। लेकिन अनुभव
में यह आता है
कि जैसे—जैसे हम
मौन और शांत होते
है हमें परमात्मा
की उपस्थिति अधिक—अधिक
स्पष्ट होती
जाती है। अगर प्रामाणिक
अनुभव कभी क्रमिक
नहीं, सिर्फ
आकस्मिक होता
है, अचानक होता
है, तो यह क्रमिक
विकास और दृष्टि
की सुस्पष्टता
क्या है?
यह एक
बहुत प्राचीन
समस्या रही है
: बुद्धत्व
अचानक घटित
होता है या
क्रमिक? इस
संबंध में
बहुत सी बातें
समझने जैसी
हैं। एक
परंपरा है जो
कहती है कि
बुद्धत्व
क्रमिक उपलब्धि
है और जैसे कि
प्रत्येक चीज
अंशों में बांटी
जा सकती है, चरणों में बांटी जा
सकती है, ज्ञान
को भी अंशों
में विभाजित
किया जा सकता
है; तुम
अधिक—अधिक
ज्ञान को, और—और
बुद्धत्व को
क्रमश: उपलब्ध
हो सकते हो।
और इस बात को
व्यापक
स्वीकृति
मिली है; क्योंकि
मनुष्य का मन
नहीं सोच सकता
कि कोई चीज
तुरंत और
अचानक हो सकती
है।
मन
विभाजन करना
चाहता है, विश्लेषण
करना चाहता है।
मन बड़ा
विश्लेष है।
मन क्रमिक को
समझ सकता है, लेकिन
अकस्मात को, अचानक को
नहीं।
आकस्मिकता
बुद्धि के पार
की चीज है, मन
के पार की बात
है। अगर मैं
तुमसे कहूं कि
तुम अज्ञानी
हो और तुम क्रमश:
ज्ञानी बन
सकते हो तो यह
बात समझ में
आती है। तुम
इसे समझ सकते
हो।
लेकिन
अगर मैं कहूं
कि नहीं, ज्ञान
में क्रमिक
विकास नहीं
होता; या
तो तुम
अज्ञानी हो या
ज्ञान में
अचानक छलांग
लग जाती है तो
प्रश्न उठता
है कि ज्ञानोपलब्ध
कैसे हुआ जाए।
अगर क्रम नहीं
होगा तो विकास
नहीं होगा।
अगर विकास की सीढ़ियां न
हों तो तुम
प्रगति नहीं
कर सकते, तुम
आगे नहीं बढ़
सकते। कहां से
आरंभ किया जाए?
आकस्मिक
विस्फोट में
आरंभ और अंत
एक ही होते
हैं; आरंभ
और अंत के बीच
अंतराल नहीं
होता। तब आरंभ
कहां से हो? आरंभ ही अंत
है।
मन
के लिए यह एक
पहेली बन जाती
है—एक कोआन।
त्वरित ज्ञान
असंभव मालूम
पड़ता है। ऐसा
नहीं है कि
त्वरित ज्ञान
असंभव है; लेकिन
मन उसकी धारणा
नहीं बना सकता।
और स्मरण रहे,
मन ज्ञान की
धारणा कैसे
बना सकता है!
यह असंभव है।
यह व्यापक रूप
से स्वीकार
किया गया है
कि आंतरिक
विस्फोट भी
क्रमिक विकास
है। अनेक ज्ञानी
पुरुषों ने भी
तुम्हारी इस
बात को हामी
भर दी है और
उन्होंने कहा
है कि ही, क्रमिक
विकास होता है।
ऐसा
नहीं कि
क्रमिक विकास
होता है, लेकिन
ज्ञानियों ने
तुम्हारे
रुझान को, तुम्हारे
देखने के ढंग को
हामी भरी है। ऐसा
उन्होंने तुम्हारे
प्रति प्रगाढ़
करूणा के कारण
किया है। वे जानते
हैं कि अगर
तुम सोचते हो
कि यह क्रमिक
है तो आरंभ
अच्छा हो सकता
है। और क्रमिक
विकास तो नहीं
होगा, लेकिन
अगर तुम आरंभ
करते हो, तुम
उसे खोजते ही
चले जाते हो
तो किसी दिन
वह आकस्मिक
घटना तुम्हें
घट जाएगी। और
अगर यह कहा
जाए कि ज्ञान
अचानक, अप्रत्याशित
ही घटता है, उसका कोई
क्रमिक विकास
संभव नहीं है,
तो तुम आरंभ
ही नहीं करोगे
और ज्ञान कभी
घटित नहीं
होगा। अनेक प्रज्ञा
पुरुषों ने
केवल
तुम्हारे हित
में, तुम्हें
यात्रा पर
निकलने को
राजी करने के
निमित्त कहा
है कि शान
क्रमिक
प्रक्रिया है।
क्रमिक
प्रक्रिया से
ज्ञान की
उपलब्धि संभव नहीं
है,
पर एक दूसरी
चीज जरूर संभव
है—बुद्धत्व
नहीं, कोई
अन्य चीज।
लेकिन यह अन्य
चीज सहयोगी हो
जाती है।
उदाहरण के लिए,
अगर तुम भाप
बनाने के लिए
पानी को गरम
करते हो तो
भाप बनना
क्रमश: नहीं, अचानक घटित
होगा। एक
विशेष तापमान
पर, सौ
डिग्री पर
पानी भाप बन
जाएगा, अचानक
भाप बन जाएगा।
पानी और भाप
के बीच क्रमिक
विकास नहीं
होगा। तुम
नहीं कह सकते
कि यह पानी
थोड़ा भाप है
और थोड़ा पानी
है। या तो
पानी है या
भाप है। और
पानी एकदम, अचानक भाप
की अवस्था में
छलांग लगा
जाता है। वह
छलांग है, क्रमिक
विकास नहीं।
लेकिन गरम
करके तुम पानी
को ताप दे रहे
हो; तुम
उसे सौ डिग्री
के बिंदु पर, भाप बनने के
बिंदु पर
पहुंचने में
मदद दे रहे हो।
यह क्रमिक
विकास है। भाप
बनने के बिंदु
तक पानी अधिक—
अधिक गरम होने
के अर्थ में
विकास करेगा।
और तब अकस्मात
भाप बन जाएगा।
तो
ऐसे सदगुरु
हुए हैं
जिन्होंने
विवेक और
करुणा के कारण
मनुष्य के मन
की भाषा का
प्रयोग किया, क्योंकि
तुम वही भाषा
समझ सकते हो।
उन्होंने कहा
कि ही, क्रमिक
विकास होता है।
उससे तुम्हें
साहस, विश्वास
और आशा मिलती
है; और यह
संभावना, यह
आश्वासन
मिलता है कि
मुझे भी यह हो
सकता है।
तुम्हें
लगेगा कि अपनी
सीमाओं के
कारण, अपनी
कमजोरियों
के कारण मैं
ज्ञान के
आकस्मिक
विस्फोट को
नहीं उपलब्ध
हो सकता; लेकिन
मैं उसका
क्रमिक, सीढ़ी
दर सीढ़ी विकास
कर सकता हूं
धीरे— धीरे उस
तक जा सकता
हूं। इसमें
अनेक जन्म लग
सकते हैं; लेकिन
तब भी आशा है।
तुम्हारे
प्रयत्न
तुम्हें गरम
करेंगे।
दूसरी बात
स्मरण रखने की
यह है कि गरम
पानी भी पानी
ही है। तो यदि
तुम्हारा मन
ज्यादा शुद्ध
भी हो जाए, तुम्हारी
दृष्टि
ज्यादा
स्वच्छ भी हो
जाए, तुम
ज्यादा नैतिक,
ज्यादा
केंद्रित भी
हो जाओ, तो
भी तुम अभी
मनुष्य ही हो,
बुद्ध नहीं
हुए हो, ज्ञानी
नहीं हुए हो।
तुम ज्यादा
मौन और शांत
हो जाते हो, तुम्हें प्रगाढ़
आनंद का भी
अनुभव होता है;
लेकिन तो भी
तुम अभी
मनुष्य ही हो
और तुम्हारे
भाव सापेक्ष
ही हैं, विधायक
नहीं।
तुम
शांत अनुभव
करते हो, क्योंकि
अब तुम कम
तनावग्रस्त
हो। तुम
आनंदित अनुभव
करते हो, क्योंकि
अब अपने दुखों
से तुम्हारा
लगाव कम हो
गया है; अब
तुम उनका सृजन
नहीं करते।
तुम्हारा
बिखराव बहुत कम
हो गया है; इसलिए
नहीं कि तुम
अद्वैत को
उपलब्ध हो गए
हो; सिर्फ
इसलिए
क्योंकि अब
तुम कम खंडित
हो, तुम्हारा
बंटाव कम
हो गया है।
स्मरण रहे, तुम्हारा यह
विकास
सापेक्ष है।
तुम अभी गरम
पानी ही हो।
लेकिन संभावना
है कि किसी भी
क्षण तुम उस
बिंदु पर पहुंच
जाओगे जहां
वाष्पीकरण
घटित होता है।
और
जब यह ज्ञान
घटित होगा तो
तुम मौन और शांति
और आनंद भी
नहीं अनुभव करोगे; क्योंकि
ये सापेक्ष
गुण हैं और
अपने विपरीत गुणों
से बंधे हैं।
जब तुम
तनावग्रस्त
हो तो तुम
शांति अनुभव
कर सकते हो; जब तुम
शोरगुल से भरे
हो तो तुम मौन अनुभव
सकते हो; जब
तुम खंडित हो,
बंटे हो तो
तुम एकता
अनुभव कर सकते
हो, और जब
तुम दुख संताप
में हो तो तुम
आनंद अनुभव कर
सकते हो।
यही
कारण है कि
बुद्ध मौन रह
गए क्योंकि
भाषा अब उसे अभिव्यक्त
नहीं कर सकती
जो विपरीतताओ
के पार है।
बुद्ध यह नहीं
कह सकते कि अब
मैं आनंदपूर्ण
हूं;
क्योंकि यह
भाव भी कि मैं
आनंदित हूं
दुख और संताप
की पृष्ठभुमि
में ही संभव
है। रोग और
रुग्णता की
पृष्ठभूमि
में ही
तुम्हें
स्वास्थ्य का
भाव हो सकता
है। और मृत्यु
की पृष्ठभूमि
में ही जीवन
का बोध होता है।
बुद्ध यह भी
नहीं कह सकते
कि मैं अमृत
हूं क्योंकि
मृत्यु इस
परिपूर्ण रूप
से विदा हो गई
है कि अमृत का
बोध भी नहीं
रहा।
अगर
दुख परिपूर्ण
रूप से विदा
हो गया है तो
तुम्हें आनंद
का भाव भी
नहीं हो सकता।
अगर शोरगुल और
संताप पूरी
तरह मिट गए
हैं तो तुम्हें
मौन की
प्रतीति भी
नहीं हो सकती।
ये सभी अनुभव, ये
सारे भाव अपने
विपरीत भावों
से जुड़े हैं, विपरीत के
बिना उनका
अनुभव नहीं हो
सकता। अगर
अंधेरा पूरी
तरह विदा हो
जाए तो
तुम्हें प्रकाश
का अनुभव कैसे
होगा? यह
असंभव है।
बुद्ध
नहीं कह सकते
कि मैं प्रकाश
हो गया हूं।
वे नहीं कह
सकते कि मैं
प्रकाश से भर
गया हूं। अगर
वे ऐसी बातें
करेंगे तो हम
कहेंगे कि वे
अभी बुद्ध
नहीं हुए हैं।
वे ऐसी बातें
नहीं कह सकते
हैं। प्रकाश
के अनुभव के
लिए अंधेरे का
होना अनिवार्य
है;
अमृत के भाव
के लिए मृत्यु
का होना
अत्यंत जरूरी
है। तुम
विपरीत से नहीं
बच सकते, किसी
भी अनुभव के
लिए विपरीत का
होना बुनियादी
शर्त है। तब
फिर बुद्ध का
अनुभव क्या है?
हम
जो भी जानते
हैं,
यह वह नहीं
है। यह न
नकारात्मक है
और न विधायक; न यह है न वह।
नेति—नेति! जो
भी कहा जा
सकता है, वह
यह नहीं है।
इसीलिए
लाओत्सु जोर
देकर कहता है
कि सत्य कहा
नहीं जा सकता;
ज्यों ही
तुम उसे शब्द
देते हो वह
झूठ हो जाता है।
कहते ही सत्य
असत्य हो गया।
सत्य
नहीं कहा जा
सकता; क्योंकि
उसे ध्रुवीय
विपरीतताओं
में बांटना
असंभव है। और
भाषा ध्रुवीय विपरीतताओ
के लिए सार्थक
है, अन्यथा
भाषा व्यर्थ
हो जाती है।
विपरीत के
बिना भाषा, अपना अर्थ
खो देती है।
तो
एक परंपरा है
जो कहती है कि
जान क्रमिक है।
लेकिन यह सत्य
नहीं है, यह
केवल अर्द्ध
सत्य है जो
मनुष्य—मन के
लिए करुणावश
कहा गया है।
ज्ञान
अकस्मात ही, अचानक ही
घटित होता है;
इससे
अन्यथा नहीं
हो सकता। यह
एक छलांग है।
यह अतीत से
पूरी तरह
संबंध—विच्छेद
है।
इसे
इस तरह समझने
की कोशिश करो।
अगर कोई चीज
क्रमिक है तो
उसमें उसका
अतीत बना रहता
है;
अंतराल
नहीं आता है।
अगर अज्ञान से
ज्ञान में
क्रमिक विकास
है तो अज्ञान
पूरी तरह विदा
नहीं हो सकता;
वह बना रहता
है, जारी
रहता है। क्योंकि
सातत्य नहीं टूटता
है, अंतराल
नहीं आता है।
बस अज्ञान पर
कुछ रंग—रोगन
चढ़ जाता है; वह कुछ
ज्यादा जानकार
हो जाता है।
अज्ञान ज्ञान
जैसा भी दिख
सकता है; लेकिन
वह अज्ञान ही
रहता है। और
अज्ञान जितना
सुसंस्कृत होता
है, उतना
खतरनाक हो जाता
है और अपने को धोखा
देने में उतना
ही सक्षम हो
जाता है।
ज्ञान
और अज्ञान
सर्वथा पृथक
हैं,
उनमें कोई
तारतम्यता
नहीं है। एक
छलांग जरूरी
है—ऐसी छलांग
जिसमें अतीत
बिलकुल विलीन
हो जाता है।
पुराना जा
चुका; वह
अब नहीं है।
और नए का
आविर्भाव हुआ
है, जो
पहले कभी नहीं
था।
बुद्ध
ने कहा है : मैं
वही व्यक्ति
नहीं हूं जो
खोज रहा था।
अभी जिसका
आविर्भाव हुआ
है वह पहले
कभी नहीं था।
यह
बात बेतुकी
मालूम पड़ती है, तर्कशून्य मालूम पड़ती
है। लेकिन यही
सच है। बात
ऐसी ही है।
बुद्ध कहते
हैं : मैं वही
नहीं हूं जो
ज्ञान खोजता
था। मैं वही
नहीं हूं जो
ज्ञान की
कामना करता था।
मैं वही नहीं
हूं जो
अज्ञानी था।
पुराना आदमी
पूर्णरूपेण
मर चुका; मैं
नया आदमी हूं।
उस पुराने
आदमी के भीतर
मैं कभी नहीं
था; बीच
में एक अंतराल
है। पुराना मर
गया है और नए
का जन्म हुआ
है।
इसकी
धारणा बनाना
मन के लिए
कठिन है; मन
इसे सोच भी
नहीं सकता।
तुम इसे कैसे
सोच सकते हो? तुम अंतराल
का विचार कैसे
कर सकते हो? कुछ तो जारी
रहना ही चाहिए।
कैसे कोई चीज
बिलकुल
समाप्त हो
जाएगी और कुछ सर्वथा
नया प्रकट
होगा?
अभी
सिर्फ दो दशक
पूर्व तक
तार्किक
चित्त के लिए
वैज्ञानिक
चित्त के लिए
यह बात अनर्गल
मालूम पड़ती थी।
लेकिन अब
विज्ञान के
लिए भी यह
अनर्गल नहीं
है। अब
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
परमाणु की
गहराई में इलेक्ट्रान
प्रकट होते
हैं और विलीन
होते हैं, और
वे छलांग लेते
हैं। इलेक्ट्रान
एक बिंदु से
दूसरे बिंदु
पर छलांग लेता
है; और इस
छलांग के क्रम
में जो अंतराल
है, उसमें
वह नहीं होता
है। वह अ
बिंदु पर
प्रकट होता है,
फिर विलीन
हो जाता है और
ब बिंदु पर
प्रकट होता है
और दोनों
बिंदुओं के
बीच में वह
नहीं होता है।
वह वहा नहीं
है; वह
बिलकुल
अनस्तित्व
में चला जाता
है।
अगर
ऐसी बात है तो
उसका मतलब है
कि अनस्तित्व भी
एक तरह का
अस्तित्व है। इसकी
धारणा बनाना
कठिन है; लेकिन
यह तथ्य है।
अनस्तित्व भी
एक तरह का
अस्तित्व है।
यह ऐसा ही है
जैसे कोई चीज
दृश्य से
अदृश्य में, रूप से अरूप
में गति कर
जाए।
जब
पुराना
व्यक्ति गौतम
सिद्धार्थ—जो
गौतम बुद्ध
में मर गया—साधना
कर रहा था तो
वह एक दृश्य
रूप था; जब बुद्धत्व
घटित हुआ तो
वह रूप
पूर्णरूपेण
अरूप में
विलीन हो गया।
क्षणभर
के लिए एक
अंतराल आया; वहां कोई
नहीं था। फिर
उस अरूप से एक
नया रूप प्रकट
हुआ। यह गौतम
बुद्ध थे।
क्योंकि शरीर
उसी भांति
जारी रहता है,
इसलिए हम
सोचते हैं कि
सातत्य है, लेकिन आंतरिक
सत्य सर्वथा
बदल जाता है।
चूंकि वही
शरीर चलता
रहता है, इसलिए
हम कहते हैं
कि गौतम
सिद्धार्थ
गौतम बुद्ध हो
गया। लेकिन
बुद्ध स्वयं
कहते हैं कि
मैं वही नहीं हूं
जो साधना कर
रहा था; मैं
अब समग्रत:
भिन्न
व्यक्ति हूं।
यह
चीज मन के सोच—विचार
के लिए कठिन
है। मन के लिए
बहुत चीजें
कठिन हैं। लेकिन
उन्हें सिर्फ
इसीलिए इनकार
नहीं किया जा
सकता क्योंकि
वे मन के लिए
कठिन हैं। मन
को उन असंभावनाओं
के सामने
झुकना होगा, जो
उसकी समझ के
बाहर हैं।
कामवासना मन
के
सामने नहीं
झुक सकती, मन
को ही
कामवासना के
सामने झुकना
पड़ता है। यह
एक बुनियादी आंतरिक
सच्चाई है कि
ज्ञान या
बुद्धत्व
सर्वथा भिन्न,
स्वतंत्र
घटना है।
पुराना बस विदा
हो जाता है। और
नया जन्म ले लेता
है।
एक
दूसरी परंपरा
भी रही है, जो
पीछे आई। यह
परंपरा हमेशा
से जोर देकर
कहती रही है कि
ज्ञान आकस्मिक
है, क्रमिक
नहीं। लेकिन
इस परंपरा के
लोग बहुत थोड़े
हैं। वे लोग
सत्य से हटने
को राजी नहीं
हैं। और यह
स्वाभाविक है
कि वे लोग
बहुत थोडे हों;
क्योंकि
अगर ज्ञान
आकस्मिक है तो
कोई अनुगमन नहीं
हो सकता। तुम
जब उसे समझ ही
नहीं सकते तो
उसका अनुगमन कैसे
करोगे? तर्क
की व्यवस्था
को इस बात से
बड़ा आघात लगता
है और यह
अनर्गल, असंभव
मालूम पड़ता है।
लेकिन ध्यान
रहे, तब
तुम गहरे में
प्रवेश कर रहे
हो। चाहे
पदार्थ का जगत
हो या मन का, तुम्हें ऐसी
बहुत सी चीजों
का सामना करना
होगा जो सतही
मन की पकड़ में
नहीं आ सकतीं।
तरतूलियन एक
बडा ईसाई संत
हुआ। उसने कहा
है : मैं ईश्वर
में विश्वास
करता हूं क्योंकि
ईश्वर सबसे
बड़ा बेतुकापन
है। मैं ईश्वर
में विश्वास
करता हूं
क्योंकि मन ईश्वर
में विश्वास
नहीं कर सकता।
ईश्वर
में विश्वास
करना असंभव है; कोई
सबूत, कोई
दलील, कोई
तर्क ईश्वर के
विश्वास को सहारा
नहीं देता है।
हरेक चीज उसके
विरोध में, उसके
अस्तित्व के
विरोध में
जाती है।
लेकिन तरतूलियन
कहता है कि
मैं इसी कारण
ईश्वर में
विश्वास करता
हूं। क्योंकि
असंगत में, असंभव में
विश्वास करके
ही मैं मन के
बाहर जा सकता
हूं।
यह
बात सुंदर है।
अगर तुम मन से
निकलना चाहते
हो तो तुम्हें
कुछ ऐसा खोजना
होगा जिसे
तुम्हारा मन
सोच न पाए।
जिस चीज को
तुम्हारा मन
सोच सकता है, उसे
वह अपनी
व्यवस्था में
पचा लेगा; और
तब तुम मन के
बाहर नहीं जा
सकते हो। यही
कारण है कि
सभी धर्मों ने
कुछ ऐसी बातो
पर जोर दिया
है जो बेतुकी
हैं, असंगत
हैं, फिजूल
हैं। कोई भी
धर्म नहीं चल
सकता, अगर
उसकी बुनियाद
में कुछ बेतुकापन
न हो। इस बेतुकेपन
से या तो तुम
लौट जाते हो
और कहते हो कि
मैं विश्वास
नहीं करता, मैं यहां से
जाता हूं; और
या तुम छलांग
ले लेते हो।
पीछे लौट जाने
पर तुम वही के
वही रहते हो
जो हो और छलांग
लेने पर तुम
मन के पार चले
जाते हो। और
जब तक मन की
मृत्यु नहीं
होती, बुद्धत्व
असंभव है।
तुम्हारा
मन समस्या है।
तुम्हारा
तर्क समस्या
है। तुम्हारा
विवाद समस्या
है। वे सब
ऊपरी सतह पर
हैं। वे सच
मालूम पड़ते
हैं,
लेकिन वे
धोखा देते हैं।
वे सच नहीं
हैं। जरा देखो
कि मन के काम
करने का ढंग
क्या है! मन
प्रत्येक चीज
को दो में तोड़
देता है; और
कुछ भी बंटा
हुआ नहीं है।
अस्तित्व
अविभाज्य है;
तुम उसे टुकड़ों
में बांट नहीं
सकते। लेकिन
मन सब कुछ को बांटकर
देखता है। वह
कहता है कि यह
जीवन है और यह
मृत्यु है।
लेकिन तथ्य
क्या है? तथ्य
यह है कि
दोनों एक हैं।
तुम इसी क्षण
जीवित भी हो
और मर भी रहे
हो, तुम
दोनों काम कर
रहे हो।
ज्यादा सच यह
है कि तुम
दोनों हो, जीवन
और मृत्यु
दोनों हो।
लेकिन
मन बांटता है।
वह कहता है कि
यह जीवन है और
यह मृत्यु है।
न केवल वह बांटता
है,
बल्कि वह
कहता है कि
जीवन और
मृत्यु
परस्पर
विरोधी हैं, दुश्मन हैं।
मन कहता है कि
मृत्यु जीवन
को मिटाने की
चेष्टा में लगी
है।
और
यह बात सही भी
मालूम पड़ती है
कि मृत्यु जीवन
को मिटाने की
चेष्टा में
लगी है। लेकिन
अगर तुम गहरे में
उतरो,मन से भी गहरे
में जाओ, तो
पाओगे कि मृत्यु
जीवन को नष्ट
करने की
चेष्टा नहीं
कर रही है। सच
तो यह है कि
तुम मृत्यु के
बिना नहीं रह
सकते; मृत्यु
तुम्हें जीने
में सहयोग दे
रही है।
मृत्यु
प्रतिक्षण
तुम्हें जीने
में हाथ बंटा
रही है। यदि
एक क्षण के
लिए भी मृत्यु
काम करना बंद
कर दे तो तुम
मर जाओगे।
मृत्यु
प्रतिक्षण तुम्हारे
शरीर के उन
अनेक हिस्सों
को बाहर फेंक
रही है जो
बेकार हो गए
हैं।
प्रतिक्षण
अनेक
कोशिकाएं मर
जाती हैं, मृत्यु
उन्हें हटा
देती है। और
जब वे हटा दी
जाती हैं तो
उनके स्थान पर
नयी कोशिकाएं
जन्म लेती हैं।
तुम बढ़ रहे हो,
इस बढ़ने में
निरंतर कुछ
चीजें मर रही
हैं और कुछ
चीजें जन्म ले
रही हैं।
मृत्यु और
जीवन
प्रतिक्षण
हैं और दोनों
अपना— अपना
काम कर रहे
हैं। भाषा में
हम उन्हें दो
कहते हैं, दरअसल
वे दो नहीं
हैं, वे एक
ही सिक्के के
दो पहलू हैं।
जीवन और
मृत्यु एक हैं;
जीवन—मृत्यु
एक प्रक्रिया
है।
लेकिन
मन बांटता है।
और हमें यह
बांटना जंचता
भी है, लेकिन
वह गलत है।
तुम कहते हो, यह प्रकाश
है और वह
अंधकार है। यह
कहकर तुम
बांटते हो।
लेकिन अंधकार
कहां आरंभ
होता है और
प्रकाश कहां
समाप्त होता
है? क्या
तुम कोई रेखा
खींच सकते हो?
तुम कोई
रेखा नहीं
खींच सकते।
असल में सफेद
और काला रंग
एक लंबे ग्रे
रंग के ही दो
छोर हैं; और
यह ग्रे रंग
ही जीवन है।
एक छोर पर
काला रंग
प्रकट होता है
और दूसरे पर सफेद;
लेकिन
यथार्थ ग्रे
है, जिसमें
दोनों समाहित
हैं।
मन
बांटता है और
तब हर चीज साफ—सुथरी
मालूम पड़ती है।
लेकिन जीवन
बहुत धुंधला—
धुंधला है; और
इसीलिए जीवन
रहस्य है। और
यही कारण है
कि मन उसे
समझने में
असमर्थ है।
साफ—सुथरी
धारणाएं
उपयोगी हैं; उनके द्वारा
सोच—विचार
सुविधाजनक हो
जाता है, आसान
हो जाता है।
लेकिन तब तुम
जीवन के सत्य
से ही वंचित
रह जाते हो।
जीवन रहस्य है।
और मन हर चीज
की रहस्यमयता
को नष्ट कर
डालता है। और
तब तुम्हारे
हाथ में अखंड
नहीं, मृत
खंड रह जाते
हैं।
मन
से तुम नहीं
सोच पाओगे कि
कैसे
बुद्धत्व अचानक
घटित होता है
और कैसे तुम
विदा हो जाते
हो और उसकी
जगह कुछ
सर्वथा नया
होता है जिसे
पहले कभी नहीं
जाना था।
लेकिन मन से
समझने की
कोशिश ही मत करो।
बल्कि कुछ ऐसी
साधना करो
जिससे कि तुम
ज्यादा से
ज्यादा गर्म
हो सको, कुछ
ऐसी आग जलाओ
जो तुम्हें
ज्यादा से
ज्यादा उत्तप्त
बना दे। और तब
किसी दिन
तुम्हें
अचानक पता
चलेगा कि पुराना
विदा हो गया
है; पानी
विलीन हो गया
है। यह बिलकुल
नयी घटना है।
तुम भाप बन गए हो;
सब कुछ
समग्रत: बदल
गया है। पानी
सदा नीचे को
बहता था, भाप
ऊपर उठने लगी।
सारा नियम बदल
गया।
तुमने
एक नियम के
संबंध में, न्यूटन
के
गुरुत्वाकर्षण
के नियम के
संबंध में
सुना होगा। यह
नियम कहता है
कि पृथ्वी सब
चीजों को नीचे
की तरफ खींचती
है। लेकिन एक
गुरुत्वाकर्षण
का नियम है; और एक दूसरा
नियम भी है।
तुमने उस नियम
के संबंध में
नहीं सुना
होगा, क्योंकि
विज्ञान को
अभी उसका
उदघाटन करना
बाकी है।
लेकिन योग और
तंत्र उस नियम
को सदियों से
जानते हैं। वे
उस नियम को
लेविटेशन का,
ऊर्ध्वगमन
का नियम कहते
हैं, प्रसाद
कहते हैं।
गुरुत्वाकर्षण
निम्नगमन
है; प्रसाद
ऊर्ध्वगमन है।
गुरुत्वाकर्षण
का नियम कैसे
खोजा गया, यह
कहानी सबको
पता है।
न्यूटन एक पेड़
के नीचे, एक
सेव के पेड़
के नीचे बैठा
था, और तभी
एक सेव नीचे
गिरा। यह
देखकर न्यूटन सोचने
लगा और उसे
लगा कि कोई शक्ति
सेव को नीचे खींच
रही है।
तंत्र
और योग पूछते
हैं कि पहले
तो यह साफ
होना चाहिए कि
सेव ऊपर कैसे पहुंचा।
है वे कहते
हैं कि पहले
यह जानना
जरूरी है कि
सेव की ऊपर की
ओर यात्रा
कैसे हुई, कैसे
वृक्ष ऊपर की
ओर बढ़ता है।
सेव वहां नहीं
था, वह बीज
में छिपा था, और फिर उसने
पूरी यात्रा
की और ऊपर
पहुंचा। उसके
बाद ही उसका
नीचे गिरना
संभव हुआ।
इसलिए
गुरुत्वाकर्षण
प्राथमिक
नहीं है; ऊर्ध्वाकर्षण प्राथमिक
है। कोई शक्ति
सेव को ऊपर
खींच रही थी।
वह शक्ति क्या
है?
जीवन
में हम
गुरुत्वाकर्षण
को आसानी से
अनुभव कर लेते
हैं;
क्योंकि हम
सभी नीचे की
तरफ खिंचते
हैं। पानी
नीचे की तरफ
बहता है, यह
गुरुत्वाकर्षण
के नियम के
अधीन है।
लेकिन जब पानी
भाप बनता है
तो
गुरुत्वाकर्षण
का नियम भी
वाष्पीभूत हो
जाता है। अब
यह ऊर्ध्वाकर्षण
के नियम के
अधीन है; यह
ऊपर उठने लगता
है।
अज्ञान
गुरुत्वाकर्षण
के नियम के
अधीन है; उसमें
तुम सदा नीचे
की ओर गति
करते हो।
अज्ञान में
तुम क्या करते
हो, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता है; तुम
नीचे ही गिरते
हो। हर ढंग से
तुम्हें नीचे
ही गिरना है।
और संघर्ष
करने से कोई
लाभ नहीं होगा।
जब तक तुम
दूसरे नियम के,
ऊर्ध्वाकर्षण के नियम के
क्षेत्र में
नहीं प्रवेश
करते, नीचे
जाना
अनिवार्य है।
उस दूसरे नियम
को ही समाधि
कहते हैं—ऊर्ध्वाकर्षण
का नियम, प्रसाद
का नियम। जैसे
ही तुम पानी न
रहे, जैसे
ही तुम भाप बन
गए, सब कुछ
बदल जाता है।
ऐसा
नहीं है कि अब
तुम अपने पर
नियंत्रण कर
सकते हो, नियंत्रण
की कोई जरूरत
नहीं है। अब
तुम नीचे गिर
ही नहीं सकते,
जैसे पहले
ऊपर उठना
असंभव था वैसे
ही अब नीचे गिरना
असंभव है। ऐसा
नहीं है कि
बुद्ध अहिंसक
होने की
चेष्टा करते
हैं; वे
अन्यथा हो ही
नहीं सकते।
ऐसा नहीं है
कि वे
प्रेमपूर्ण
होने की
चेष्टा करते
हैं, वे अन्यथा
नहीं हो सकते।
उन्हें
प्रेमपूर्ण
होना ही है।
प्रेम उनका
चुनाव नहीं है,
प्रयत्न
नहीं है, अभ्यासगत गुण नहीं है,
अब तो प्रेम
उनका नियम है;
वे ऊपर ही
उठते हैं।
घृणा
गुरुत्वाकर्षण
के नियमाधीन
है और प्रेम ऊर्ध्वाकर्षण
के, प्रसाद
के।
लेकिन
इस आकस्मिक
रूपांतरण का
यह अर्थ नहीं
है कि तुम्हें
कुछ नहीं करना
है,
सिर्फ
रूपांतरण का
इंतजार करना
है। तब वह कभी
घटित नहीं
होगा। यही
पहेली है। जब
मैं कहता हूं—या
कोई दूसरा
कहता है—कि
ज्ञान अचानक
ही घटता है तो
हम सोचते हैं
कि तब तो कुछ
भी नहीं किया
जा सकता, हमें
सिर्फ
प्रतीक्षा
करनी है; जब
आएगा तो आएगा।
हम कर क्या
सकते हैं? और
अगर वह क्रमिक
है तो कुछ
किया जा सकता
है।
लेकिन
मैं तुमसे
कहता हूं कि
ज्ञान क्रमिक
नहीं है और
फिर भी तुम
कुछ कर सकते
हो। और
तुम्हें कुछ
अवश्य करना है, हालांकि
उस करने से
ज्ञान नहीं
आएगा। लेकिन
वह करना तुम्हें
ज्ञान की घटना
के निकट जरूर
ला देगा। वह
तुम्हें
ज्ञान की घटना
के प्रति
अभिमुख कर, खोल देगा।
तो
ज्ञान को
तुम्हारे
प्रयत्नों का
विषय नहीं
बनाया जा सकता; वह
तुम्हारे प्रयत्नों
का परिणाम
नहीं है।
तुम्हारे
प्रयत्नों से
तुम सिर्फ ऊर्ध्वाकर्षण
के परम नियम
के प्रति
उपलब्ध हो
जाते
हो। प्रयत्न के
द्वारा
तुम्हारा
उपलब्ध होना सधता
है,
ज्ञान नहीं।
तुम उपलब्ध रहोगे, तुम प्रतिरोध
नहीं करोगे; तुम महानियम
के काम में
सहयोगी बन
जाओगे। और जब
तुम प्रतिरोध
नहीं, सहयोग
करते हो तो महानियम
काम करने लगता
है। तुम्हारे
प्रयत्न
तुम्हें समर्पित
होने में
सहयोगी होंगे,
तुम्हें
अधिक
ग्रहणशील बनाएंगे।
यह
ऐसा ही है
जैसे कि तुम
अपने कमरे में
द्वार—दरवाजे
बंद करके बैठे
हो। घर के
बाहर धूप है, लेकिन
तुम अंधेरे
में हो। तुम
धूप को भीतर
लाने के लिए
कुछ नहीं कर
सकते, लेकिन
अगर तुम द्वार—दरवाजे
खोल दो तो
तुम्हारा
कमरा धूप के
लिए उपलब्ध हो
जाएगा। तुम
धूप को भीतर
नहीं ला सकते,
लेकिन तुम
उसको रोक जरूर
सकते हो। तुम
अगर द्वार खोल
दोगे तो धूप
कैमरे में आ
जाएगी, प्रकाश
अंदर आ जाएगा।
दरअसल तुम
प्रकाश को
अंदर नहीं ला
रहे हो, तुम
सिर्फ अवरोध
हटा रहे हो।
प्रकाश अपने
आप ही आ जाता
है।
इस
बात को ठीक से
समझ लो। तुम
बुद्धत्व को
पाने के लिए
कुछ नहीं कर
सकते, लेकिन
तुम बहुत कुछ
कर रहे हो
जिससे उसका
आना रुक सकता
है। तुम अनेक
अवरोध
निर्मित कर
रहे हो। इसलिए
तुम बस परोक्ष
रूप से कुछ कर
सकते हो; तुम
अवरोध को हटा
सकते हो; द्वार
को खोल सकते
हो। और जैसे
ही द्वार
खुलेगा, सूर्य
की किरणें
भीतर आ जाएंगी,
प्रकाश
तुम्हें
स्पर्श करेगा
और रूपांतरित कर
देगा। इस अर्थ
में सभी
प्रयत्न
अवरोध हटाने
का काम करते
हैं; वे
ज्ञान को
उपलब्ध नहीं
कराते। सब
प्रयत्न
परोक्ष हैं।
यह
औषधि जैसा है।
औषधि तुम्हें
स्वास्थ्य
नहीं दे सकती, केवल
तुम्हारे
रोगों को मिटा
सकती है। और
जब रोग नहीं
रहे तो
स्वास्थ्य
घटित होता है,
तुम
स्वास्थ्य के
लिए उपलब्ध हो
जाते हो।
लेकिन रोगों
के रहते
स्वास्थ्य
नहीं हो सकता है।
यही कारण है
कि चिकित्सा
विज्ञान, चाहे
पूर्वी हो
चाहे पश्चिमी,
अब तक
स्वास्थ्य की
परिभाषा नहीं
कर सका है। वह
एक—एक रोग की
सही परिभाषा
कर सकता है।
उसने हजारों
रोगों की खोज
की है और उनकी
परिभाषा की है;
लेकिन वह यह
नहीं बता सकता
कि स्वास्थ्य
क्या है।
ज्यादा से
ज्यादा
चिकित्सा
विज्ञान यही
कह सकता है कि
जब रोग नहीं
होते हैं तब
तुम स्वस्थ
होते हो।
लेकिन
स्वास्थ्य
क्या है?
स्वास्थ्य
कुछ ऐसी बात
है जो मन से
परे है। यह
कुछ ऐसा है जो
होता तो है, उसे
तुम अनुभव भी
कर सकते हो; लेकिन तुम
उसकी परिभाषा
नहीं कर सकते।
तुमने
स्वास्थ्य
जाना है, लेकिन
क्या तुम
परिभाषा कर
सकते हो कि वह
क्या है? जैसे
ही तुम उसकी
परिभाषा करने
की चेष्टा करोगे,
तुम्हें
रोग को बीच
में लाना
पड़ेगा, तुम्हें
रोग के संबंध
में कुछ बताना
पड़ेगा, कि
रोग की
अनुपस्थिति
स्वास्थ्य है।
लेकिन
यह तो बडे
मजे की बात है
कि स्वास्थ्य
की परिभाषा के
लिए तुम्हें
रोग को बीच
में लाने की
जरूरत पड़ती है।
और रोग के
निश्चित गुण
हैं।
स्वास्थ्य
के भी अपने
गुण हैं, लेकिन
वे उतने
निश्चित नहीं
हैं, क्योंकि
वे असीम हैं।
तुम उन्हें
अनुभव कर सकते
हो; जब तुम
स्वस्थ होते
हो तो जानते
भी हो कि मैं स्वस्थ
हूं। लेकिन
स्वास्थ्य
क्या है? रोगों
का इलाज हो
सकता है, उन्हें
मिटाया जा
सकता है। और
जब अवरोध हट
जाते हैं, स्वास्थ्य
का प्रकाश
भीतर आ जाता
है।
ज्ञान—की
घटना भी ऐसी
ही है। ज्ञान
आध्यात्मिक
स्वास्थ्य है।
मन
आध्यात्मिक
रोग है और ध्यान
एक औषधि है।
बुद्ध ने
कहा है: मैं वैद्य
हूं, चिकित्सक हूं, मैं शिक्षक नहीं
है, मैं तुम्हें
कोई सिद्धांत सिखाने
नहीं आया हूं।
मैं कुछ औषधि
जानता हूं जो
तुम्हारे
रोगों का इलाज
कर सकती है। औषधि
लो, रोगों
को मिटाओ;
और तुम्हें
स्वास्थ्य
उपलब्ध हो
जाएगा।
स्वास्थ्य के
संबंध में
पूछो मत।
बुद्ध कहते
हैं. मैं
दार्शनिक
नहीं हूं; मैं
सैद्धांतिक
नहीं हूं।
मेरी रुचि
इसमें नहीं है
कि ईश्वर क्या
है; कैवल्य,
मोक्ष और
निर्वाण क्या
है। मुझे जरा
भी रुचि नहीं
है। मैं तो
सिर्फ इसमें
उत्सुक हूं कि
रोग क्या है
और उसका उपचार
क्या है। मैं
वैद्य हूं।
बुद्ध
की दृष्टि
बिलकुल
वैज्ञानिक है।
उन्होंने
मनुष्य की समस्या
का,
उसकी
बीमारी का ठीक
निदान किया।
उनकी दृष्टि
सर्वथा सम्यक
है।
अवरोधों
को मिटाओ।
अवरोध क्या
हैं?
विचार
बुनियादी
अवरोध हैं। जब
तुम विचार
करते हो तो
विचारों का एक
अवरोध निर्मित
हो जाता है।
तब सत्य और
तुम्हारे बीच
विचारों की एक
दीवार खड़ी हो
जाती है। और
विचारों की
दीवार पत्थर
की दीवार से
भी ज्यादा ठोस
और सख्त होती
है। और फिर
विचारों की
अनेक पर्तें
होती हैं और उनके
भीतर प्रवेश
करके सत्य को
देखना
मुश्किल है।
तुम सोच—विचार
करते रहते हो
कि यथार्थ
क्या है, तुम
कल्पना करते
रहते हो कि
सत्य क्या है।
और सत्य यहां
और अभी मौजूद
है और
तुम्हारी
प्रतीक्षा कर
रहा है। अगर
तुम उसके
प्रति उन्यूख
हो जाओ तो
सत्य तुम्हें
उपलब्ध हो
जाएगा।
तुम
सत्य के संबंध
में विचार
करते हो, लेकिन
अगर तुम सत्य
को जानते नहीं
हो तो उसके संबंध
में विचार
कैसे कर सकते
हो? तुम
जिस चीज को
नहीं जानते हो
उस पर विचार
नहीं कर सकते।
तुम उस पर ही
विचार कर सकते
हो जिसे पहले
से जानते हो।
विचार
पुनरुक्ति है।
विचार जुगाली
करना है।
विचार किसी
नयी और अज्ञात
चीज को नहीं
सोच सकता है।
सोच—विचार के
जरिए तुम
अज्ञात को
नहीं स्पर्श
कर सकते, सिर्फ
ज्ञात को ही
सोचते रहते हो।
और ज्ञात को
सोचना व्यर्थ
है, क्योंकि
वह तो जाना ही
हुआ है। तुम
उसे बार—बार
सोच सकते हो; तुम उसका
मजा भी ले
सकते हो, लेकिन
उससे कुछ नए
का आविर्भाव
नहीं होता।
सोच—विचार
बंद करो। सोच—विचार
को विसर्जित
करो,
और अवरोध
टूट जाएगा। तब
तुम्हारे
द्वार खुले
हैं और प्रकाश
प्रवेश कर
सकता है। और
जब प्रकाश
प्रवेश करता
है तो पुराना
विदा हो जाता
है। और फिर
तुम जो हो वह
सर्वथा नया है।
वह पहले कभी
नहीं था; तुमने
उसे पहले कभी
नहीं जाना था।
अथवा तुम यह
भी कह सकते हो
कि यह सनातन
है; यह सदा
था, लेकिन
मैं नहीं
जानता था।
तुम
दोनों वक्तव्यों
का उपयोग कर
सकते हो। तुम
उसे सनातन कह
सकते हो, ब्रह्म
कह सकते हो, जो सदा से है;
और तुम कह
सकते हो कि
मैं उसे
निरंतर चूक
रहा था। और
तुम यह भी कह
सकते हो कि
सत्य परम नूतन
है, नया है,
अभी ही घटित
हुआ है, पहले
कभी नहीं था।
यह वक्तव्य
भी सही है, क्योंकि
तुम्हारे लिए
यह नया ही है।
अगर
तुम सत्य के
संबंध में कुछ
कहना चाहते हो
तो उलटबांसी
का,
विरोधाभासी
भाषा का उपयोग
करना होगा।
उपनिषद कहते
हैं : यह नया है
और पुराना है।
यह सनातन और
परम नवीन है।
यह दूर है और
निकट है।
लेकिन तब भाषा
विरोधाभासी
हो जाती है।
और
तुम मुझसे
पूछते हो : 'अगर
प्रामाणिक
अनुभव कभी
क्रमिक नहीं,
सिर्फ आकास्मिक
होता है, अचानक
होता है, तो
यह क्रमिक विकास
ओर दृष्टि की
सुस्पष्टता
क्या है?
यह
स्पष्टता मन
की है। यह
स्पष्टता रोग
का क्षीण होना
है। यह
स्पष्टता
अवरोधों का
गिरना है। अगर
एक अवरोध
गिरता है तो
तुम उतने ही
कम बोझिल होते
हो। अगर दूसरा
अवरोध गिरता
है तो तुम और
भी हलके हो
जाते हो, तुम्हारी
आंखें और भी
स्पष्ट देखने
लगती हैं।
लेकिन यह
स्पष्टता
ज्ञान की, बुद्धत्व
की स्पष्टता
नहीं है। यह
स्पष्टता
स्वास्थ्य की
स्पष्टता
नहीं है, सिर्फ
रोगों के घटने
का लक्षण है।
जब सारे अवरोध
विदा हो जाते
हैं तो उनके
साथ तुम्हारा
मन भी विदा हो
जाता है। तब
तुम यह नहीं
कह सकते कि अब
मेरा मन
स्वच्छ है, तब तुम
सिर्फ यह कहते
हो कि अब मन
नहीं रहा।
और
जब मन नहीं
रहता है तब जो
दृष्टि की
स्पष्टता आती
है वह ज्ञान
की स्पष्टता
है। वही स्पष्टता
बुद्धत्व की
स्पष्टता है।
और वह बिलकुल
ही भिन्न चीज
है। तब दूसरा
ही आयाम खुलता
है। लेकिन
उसके पहले
तुम्हें मन की
स्पष्टता से गुजरना
होगा। यह सदा
स्मरण रहे कि
तुम्हारा मन
चाहे जितना भी
स्पष्ट हो जाए
वह अवरोध ही
बना रहता है।
तुम्हारा मन
चाहे जितना भी
पारदर्शी हो
जाए,
चाहे वह
पारदर्शी काच
ही क्यों न हो
जाए लेकिन वह
अवरोध ही है।
और तुम्हें
उसे पूरी तरह
मिटाना ही
होगा।
कभी—कभी
ऐसा होता है
कि जब कोई
ध्यान करता है
तो वह ज्यादा
स्पष्ट, ज्यादा
स्वस्थ, ज्यादा
शांत हो जाता
है। तब वह जोर
से ध्यान को
पकड़ लेता है
और सोचता है
कि सब कुछ
उपलब्ध हो गया।
इसीलिए महान सदगुरु
सदा ही इस बात
को जोर देकर
कहते रहे हैं
कि एक दिन आता
है जब तुम्हें
ध्यान को भी
छोड़ देना होता
है।
मैं
तुम्हें एक
कहानी कहता
हूं —एक झेन
कहानी।
बोकोजू ध्यान
में लगा था।
वह प्राणपण से
ध्यान करता था, ध्यान
में गहरे उतर
रहा था। उसका
गुरु रोज—रोज
आता था, हंस
देता था और
फिर लौट जाता
था। बोकोजू को
इससे बहुत
परेशानी हुई
कि गुरु कुछ
भी नहीं बोलता
है। वह बस आता
था, उसे
देखता था, हंस
देता था और
चला जाता था।
और बोकोजू को
ध्यान के
अच्छे अनुभव
हो रहे थे; उसका
ध्यान गहरा
रहा था। और वह
चाहता था कि
कोई उसकी
प्रशंसा करे।
उसे
प्रतीक्षा थी
कि गुरु उसकी
पीठ थपथपाएगा
और कहेगा :
बहुत अच्छा
बोकोजू तुम
बहुत अच्छा कर
रहे हो। लेकिन
गुरु तो सिर्फ
हंस देता था।
और
उसकी यह हंसी
बोकोजू के लिए
अपमानजनक
लगती थी; क्योंकि
उसका मतलब था
कि बोकोजू के
ध्यान में गति
नहीं हो रही
थी। और बोकोजू
ध्यान में सच
में गति कर
रहा था। लेकिन
जैसे—जैसे
उसकी ध्यान
में गति होती
जाती थी, गुरु
की हंसी भी
बढ़ती जाती थी।
और बोकोजू के
लिए वह हंसी
उतनी ही
ज्यादा अपमानजनक
होती जाती थी।
अब तो बात
बर्दाश्त के
बाहर होने लगी।
एक
दिन गुरु आया।
और बोकोजू मन
में पूर्णत: शांत
अनुभव कर रहा
था। मन में
कोई शोरगुल
नहीं था, कोई
विचार नहीं था।
मन पूरी तरह
पारदर्शी था,
कोई भी
अवरोध नहीं मालूम
पड़ता था।
बोकोजू एक
सूक्ष्म और
गहरे सुख से
भरा था; प्रसन्नता
से लबालब था।
म् वह परम सुख
में था। और तब
उसने सोचा कि
मेरे गुरु अब
नहीं हंसेंगे,
अब वह क्षण
आ गया है जब गुरु
कहेंगे :
बोकोजू अब तुम
शान को उपलब्ध
हो गए।
उस
रोज गुरु अपने
हाथ में एक
ईंट लिए आया।
वह बैठ गया और
जिस चट्टान पर
बैठकर बोकोजू
ध्यान करता था
उसी पर वह ईंट
को लड़ने लगा।
बोकोजू इतना यह
शांत था, लेकिन
ईंट के घिसे
जाने से आवाज
होने लगी और वह
परेशान हो उठा।
आखिर उससे न
रहा गया, उसने
आख खोली और
गुरु से पूछा.
आप यह क्या कर
रहे हैं? गुरु
ने कहा : मैं इस
ईंट को दर्पण
बनाने की चेष्टा
कर रहा हूं और
मुझे आशा है
कि सतत लड़ते
रहने से किसी
न किसी दिन यह
ईंट दर्पण बन
जाएगी।
बोकोजू ने
कहा. आप मूढ़ता
भरा काम कर
रहे हैं। यह
ईंट कभी दर्पण
नहीं बन सकेगी।
चाहे आप जितनी
घिसाई करें, यह कभी
दर्पण नहीं
बनेगी। गुरु
ने हंसकर कहा :
और तुम क्या
कर रहे हो? यह
मन कभी ज्ञान
को उपलब्ध नहीं
हो सकता, चाहे
तुम उसे कितना
ही घिसते रहो।
तुम उसे घिस—घिसकर
चिकना कर रहे
हो और तुम्हें
इतना अच्छा लग
रहा है कि जब
मैं हंसता हूं
तो तुम्हें
चिढ़ लगती है।
और
अचानक, जैसे
ही गुरु ने
ईंट को दूर
फेंका, बोकोजू
बोध को उपलब्ध
हो गया। जैसे
ही गुरु ने
ईंट फेंकी, अचानक
बोकोजू को
अनुभव हुआ कि
गुरु सही हैं;
और इस बोध
के साथ ही
उसका मन खो
गया। फिर उस
दिन के बाद से
न मन रहा और न
ध्यान।
बोकोजू ज्ञान
को उपलब्ध हो
गया।
तब
गुरु ने
बोकोजू से कहा
: अब तुम कहीं
भी जा सकते हो।
जाओ और दूसरों
को भी सिखाओ।
पहले उन्हें
ध्यान सिखाओ
और फिर ध्यान
को छोड़ना सिखाओ।
पहले उन्हें सिखाओ कि
कैसे मन को
शुद्ध किया
जाए;
क्योंकि
शुद्ध मन ही
समझ सकता है
कि शुद्ध मन भी
बाधा है। केवल
गहन ध्यान को
उपलब्ध हुआ
चित्त ही समझ
सकता है कि अब
ध्यान को भी
छोड़ देना है।
तुम
अभी ही यह
नहीं समझ सकते
हो। कृष्णमूर्ति
निरंतर समझाए
जाते हैं कि
किसी ध्यान की
कोई जरूरत
नहीं है; और वे
सही हैं, लेकिन
वे गलत लोगों
से बात कर रहे
हैं। वे सही
हैं; ध्यान
की कोई जरूरत
नहीं है।
लेकिन वे उन
लोगों के लिए
गलत हैं, जो
उनको सुनते
हैं। जो यह भी
नहीं जानते कि
ध्यान क्या है,
वे यह कैसे
समझ सकते हैं
कि ध्यान की
कोई जरूरत
नहीं है! यह बात
तो उनके लिए
हानिकर सिद्ध
होगी, क्योंकि
वे इस बात को पकडकर बैठ
जाएंगे।
उन्हें लगेगा
कि यह बात तो
बहुत अच्छी है।
ध्यान की क्या
जरूरत है? हम
तो पहले से ही
ज्ञानी हैं।
कृष्णमूर्ति
को सुनकर बहुतो
को ऐसा लगता
है कि ध्यान
की कोई जरूरत
नहीं है और जो
लोग ध्यान करते
हैं वे मूढ़
हैं। ऐसे लोग
इस बात के
कारण अपना
पूरा जीवन
गंवा दे सकते
हैं। और यह
बात सही है।
एक जगह आती है
जब ध्यान भी
बाधा बन जाता
है;
एक क्षण आता
है जब ध्यान
को भी छोड़
देना पड़ता है।
लेकिन उस जगह
और उस क्षण के
आने तक तो
धीरज रखो। जो
तुम्हारे पास
नहीं है उसे
तुम कैसे छोड़
सकते हो? कृष्णमूर्ति
कहते हैं कि
ध्यान जरूरी
नहीं, कोई
ध्यान मत करो।
लेकिन तुमने
तो कभी ध्यान
नहीं किया, फिर तुम
कैसे कह सकते
हो कि ध्यान
नहीं करना है?
धनी
आदमी ही धन
छोड़ सकता है, गरीब
नहीं। छोड़ने
के लिए पहले
कुछ छोड़ने को भी
तो होना चाहिए।
अगर तुम ध्यान
करते हो तो ही
किसी दिन तुम
ध्यान छोड़ भी
सकते हो।
और
ध्यान का
त्याग अंतिम
और परम त्याग
है। धन छोड़ा
जा सकता है, यह
आसान है। परिवार
छोड़ा जा सकता
है। वह कठिन नहीं
है। सारा संसार
छोड़ा जा सकता
है। क्योंकि वह
बाहर ही बाहर
है। ध्यान
अंतिम बात है—अंतरस्थ
संपदा। जब तुम
ध्यान का
त्याग करते हो
तो तुमने स्वयं
को त्याग दिया।
तब कोई स्व
नहीं रह जाता,
ध्यान करने
वाला स्व भी
नहीं। तब महाध्यानी
भी नहीं रहता
है; वह
प्रतिमा भी
खंडित हो गई।
तुम शून्य में'
गिर पडे।
और इस शून्य
में ही गैप है,
अंतराल है।
पुराना विदा
हो गया और नए
का आगमन हुआ
है।
तुम
ध्यान से
ज्ञान के लिए
तैयार होते हो।
ध्यान में जो
भी अनुभव हो, उसे
ज्ञान मत समझो।
ये तो रोगों
के कम होने की,
रोगों के
बिखरने की
खबरें हैं, झलकियां हैं।
तुम्हें
अच्छा लगता है।
रोग घट रहे
हैं, इसलिए
तुम सापेक्षत:
स्वस्थ अनुभव
करते हो।
सच्चा
स्वास्थ्य
अभी नहीं आया
है, लेकिन
तुम पहले से
ज्यादा
स्वस्थ हो, और पहले से
ज्यादा
स्वस्थ होना
अच्छा है।
दूसरा
प्रश्न :
आपने
कहा है कि
जीवन ध्रुवीय विपरीतताओं
में घटित होता
है;
जैसे प्रेम
और घृणा,
आकर्षण
और विकर्षण पुण्य
और पाय,
इत्यादि। लेकिन
इन ध्रुवीय
विपरीतताओं
का तब क्या
होता है जब कोई
व्यक्ति
अपने साक्षी चैतन्य
में हो जाता
है?
यह पूछो
मत। घटना की
प्रतीक्षा
करो,
और फिर देखो
कि क्या होता
है। तुम पूछ
सकते हो और
कुछ उत्तर भी
दिया जा सकता
है, लेकिन
वह उत्तर
तुम्हारे लिए
प्रामाणिक
उत्तर नहीं बन
सकता। और आगे—आगे
मत कूदो।
मत पूछो कि
मरने पर क्या
होता है। क्या
होता है, इस
बाबत जो भी
कहा जाएगा वह
व्यर्थ होगा,
क्योंकि
तुम अभी जिंदा
हो। मरने पर
क्या होता है,
यह जानने के
लिए तुम्हें मृत्यु
से गुजरना
होगा। जब तक
तुम मरोगे
नहीं, तुम
नहीं जान सकते।
जो भी कहा
जाएगा, उस
पर तुम श्रद्धापूर्वक
भरोसा कर लोगे;
लेकिन वह
व्यर्थ है।
इसकी जगह यह
पूछो कि कैसे
मरा जाए, ताकि
मैं जान सकूं
कि मरने पर
क्या होता है।
कोई दूसरा
तुम्हारे लिए
नहीं मर सकता
है। और किसी
दूसरे का
अनुभव भी
तुम्हारा
अनुभव नहीं बन
सकता है।
तुम्हें ही
मरना होगा।
किसी दूसरे का
मरने का अनुभव
तुम्हारा
अनुभव नहीं बन
सकता है, तुम्हारा
अपना अनुभव ही
जरूरी है।
वही
बात यहां भी
लागू होती है।
जब ध्रुवीयता
मिट जाती है
तो क्या घटता
है?
एक ढंग से कहा
जाए तो कुछ
नहीं घटता है।
घटना मात्र
विलीन हो जाती
है; क्योंकि
सब घटना
ध्रुवीय है।
जब प्रेम और
घृणा दोनों
मिट जाते हैं—और
वे मिटते हैं—तब
क्या घटता है?
जब
तुम प्रेम
करते हो तो
साथ ही घृणा
भी करते हो, और
तुम उसी
व्यक्ति को
घृणा करते हो
जिसे प्रेम
करते हो।
प्रेम ऊपर
होता है और
घृणा नीचे
छिपी रहती है।
और जब घृणा
ऊपर आती है तो
प्रेम नीचे
छिपा रहता है।
जीसस कहते हैं,
अपने
दुश्मन को
प्रेम करो; और मैं कहता
हूं कि तुम
अन्यथा नहीं
कर सकते। तुम
अपने दुश्मन
को प्रेम करते
ही हो। तुम
उससे इतनी
घृणा करते हो
कि वह घृणा
प्रेम के बिना
असंभव है।
प्रेम सिक्के
का दूसरा पहलू
है। और वह
सीमा रेखा
कहां है जहां
प्रेम समाप्त
होता है और
घृणा शुरू
होती है? दोनों
साथ—साथ हैं, मिले—जुले
हैं। तुम कब
किसी को प्रेम
करते हो और कब
घृणा करते हो?
क्या तुम
दोनों के बीच विभाजन—रेखा
खींच सकते हो?
तुम एक ही
व्यक्ति को
प्रेम और घृणा
दोनों करते हो।
किसी भी क्षण
प्रेम घृणा बन
सकता है। और
घृणा प्रेम बन
सकती है।
यह
मन की
ध्रुवीयता है, विपरीतता
है; मन ऐसे
ही काम करता
है। इससे
परेशान होने की
जरूरत नहीं है।
अगर तुम जानते
हो तो तुम कभी
परेशान न होगे।
अगर तुम किसी
को प्रेम करते
हो तो तुम
जानते हो कि
वहीं घृणा भी
होगी। अगर कोई
तुम्हें
प्रेम करता है
तो तुम उससे प्रेम
और घृणा दोनों
पाने के लिए
तैयार रहोगे।
लेकिन बुद्ध
जैसी चेतना को
क्या घटता है
जब प्रेम और
घृणा दोनों
विदा हो जाते
हैं? क्या
घटित होता है?
इस
घटना को शब्द
देना कठिन है; लेकिन
बुद्ध के
सान्निध्य
में जो अनुभव
होता है वह
घृणा—रहित
प्रेम का
अनुभव है। यह
बुद्ध का
अनुभव नहीं है;
बुद्ध के आस—पास
औरों को ऐसा
अनुभव होता है।
स्वयं बुद्ध
अब प्रेम नहीं
अनुभव कर सकते;
क्योंकि वे
घृणा भी नहीं
अनुभव करते
हैं। वे खुद
प्रेम नहीं
अनुभव करते
हैं, लेकिन
उनके चारों ओर
लोग प्रगाढ़
प्रेम बहता
हुआ अनुभव
करते हैं। हम
इसे घृणा—रहित
प्रेम कह सकते
हैं, लेकिन
तब उसकी पूरी
गुणवत्ता
भिन्न है।
हमारे
प्रेम में
घृणा अनिवार्यत:
मौजूद रहती है।
यह घृणा प्रेम
को रंग देती
है,
उसकी
गुणवत्ता बदल
देती है। घृणा
प्रेम को एक
उत्तेजना
देती है, ताप
और त्वरा देती
है, सघनता
और एकाग्रता
देती है।
लेकिन बुद्ध
का प्रेम एक
शांत
उपस्थिति है;
उसमें ताप
और त्वरा नहीं
है। बुद्ध का
प्रेम
तुम्हें जला
नहीं सकता है,
वह तुम्हें
सिर्फ थोड़ी
ऊष्मा दे सकता
है। वह आग
नहीं है, वह
आभा भर है।
बुद्ध के
प्रेम में लपट
नहीं है; वह
सुबह की आभा
जैसा है, जब
रात विदा हो
चुकी है और
सूर्य का उदय
नहीं हुआ है।
यह एक बीच का
क्षण है, जिसमें
अग्निरहित,
ज्वालारहित प्रकाश
होता है। उसे
हमने प्रेम की
भांति अनुभव
किया है, शुद्धतम
प्रेम की
भांति, क्योंकि
उसमें घृणा
नहीं होती है।
इस
भांति के
प्रेम को
महसूस करने के
लिए भी तुम्हें
गहन रूप से
ध्यानपूर्ण
चित्त की
जरूरत है।
तुम्हें ऐसे
चित्त की
जरूरत है जो
ध्यान में उतर
सके;
अन्यथा ऐसी
नाजुक और विरल
घटना का अनुभव
होना कठिन है।
उसके लिए गहन
संवेदनशीलता
चाहिए। तुम
केवल स्थूल
प्रेम को
अनुभव कर सकते
हो, और वह
स्थूलता घृणा
से आती है।
अगर कोई
व्यक्ति
तुम्हें घृणा—रहित
प्रेम देता है
तो उसके प्रेम
को अनुभव करना
तुम्हारे लिए
कठिन होगा।
उसके लिए
तुम्हें
विकास करने की
जरूरत है, ताकि
तुम ज्यादा
संवेदनशील, ज्यादा
निर्मल, ज्यादा
कोमल हो सको।
तुम्हें एक
बहुत ही
संवेदनशील
वाद्ययंत्र की
भांति होना
होगा; तो
ही उस प्रेम
की हवा कभी
तुम्हारे पास
पहुंच सकती है।
और वह हवा अब
इतनी अहिंसक
है कि तुम पर
आघात नहीं
करेगी; वह
केवल एक कोमल
स्पर्श की
भांति होगी।
अगर तुम बहुत—बहुत
बोधपूर्ण हो
तो ही उसे
महसूस करोगे;
अन्यथा चूक
जाओगे।
लेकिन
यह हमारा भाव
है जो हमें
बुद्ध के
चारों ओर
अनुभव में आता
है। यह बुद्ध
का भाव नहीं
है। बुद्ध को
प्रेम या घृणा, कुछ
भी नहीं होता
है। सच तो यह
है कि ध्रुवीय
विरोध मिट
जाते हैं और
मात्र
उपस्थिति रह
जाती है।
बुद्ध एक
उपस्थिति हैं,
भाव नहीं।
तुम भाव हो, उपस्थिति
नहीं। कभी तुम
घृणा हो; यह
एक भाव हुआ।
और कभी तुम
प्रेम हो; यह
दूसरा
भाव
हुआ। कभी तुम
क्रोध हो; यह
तीसरा भाव है।
और कभी तुम
लोभ हो, चौथा
भाव। तुम भाव ही
भाव हो। तुम कभी
शुद्ध उपस्थिति
नहीं हो। और तुम्हारी
चेतना तुम्हारे
भावों के अनुसार
रंग लेती रहती
है। प्रत्येक
भाव मालिक बन
जाता है। वह
चेतना को
प्रभावित
करता है, उसे
पंगु बनाता है,
बदलता है, रंग देता है,
विकृत करता
है।
बुद्ध
निर्भाव हैं।
घृणा गई, प्रेम
गया, क्रोध
गया, लोभ गया;
और उसके साथ
ही साथ अलोभ
भी गया, अक्रोध
भी गया। सभी
द्वंद्व
समाप्त हो गए।
बुद्ध एक
उपस्थिति
मात्र हैं।
अगर तुम
संवेदनशील हो
तो तुम उनसे
प्रेम और करुणा
को प्रवाहित
होता हुआ
महसूस करोगे।
और अगर तुम
संवेदनशील
नहीं हो, स्थूल
हो, अगर
तुम्हारा
ध्यान गहरे
नहीं गया है
तो तुम्हें
उनका जरा भी
अनुभव नहीं होगा।
बुद्ध
तुम्हारे बीच
से गुजरेंगे
और तुम्हें पता
भी नहीं चलेगा
कि कोई दुर्लभ
घटना तुम्हारे
पास से गुजर
रही है जो
सदियों—सदियों
में कभी घटित
होती है।
तुम्हें इसका
बोध भी नहीं
होगा।
और
अगर तुम बहुत
ही स्थूल हो, ध्यान—विरोधी
हो तो तुम
बुद्ध की
उपस्थिति से
नाराज भी हो
सकते हो।
क्योंकि उनकी
उपस्थिति
बहुत सूक्ष्म
है; तुम
उससे हिंसक भी
हो जा सकते हो।
उनकी
उपस्थिति
तुम्हें अशांत
कर सकती है, उद्विग्न कर
सकती है। अगर
तुम बहुत
स्थूल हो, मंदबुद्धि
हो, ध्यान—विरोधी
हो तो तुम बुद्ध
के दुश्मन भी
बन जा सकते हो,
हालांकि
उन्होंने कुछ
भी नहीं किया
है। और अगर
तुम खुले हो, संवेदनशील
हो तो तुम
उनके प्रेमी
बन जाओगे, हालांकि
उन्होंने कुछ
भी नहीं किया
है।
स्मरण
रहे,
जब तुम
शत्रु बनते हो
तो तुम ही हो
जो शत्रु बनते
हो और जब तुम
मित्र बनते हो
तो भी तुम ही
हो जो मित्र
बनते हो, बुद्ध
तो महज एक
उपस्थिति हैं,
वे केवल
उपलब्ध हैं।
तुम अगर शत्रु
बनते हो तो
उनकी तरफ पीठ
कर लेते हो।
तब तुम कुछ
ऐसी चीज चूक
रहे हो जिसके
लिए हो सकता
है फिर जन्मों
प्रतीक्षा
करनी पड़े।
जिस
दिन बुद्ध
विदा हो रहे
थे,
आनंद रो रहा
था। उस सुबह
बुद्ध ने कहा :
यह मेरा अंतिम
दिन है; अब
यह देह समाप्त
होने जा रही
है। आनंद उनके
निकट था; वह
पहला व्यक्ति
था जिससे
बुद्ध ने कहा.
यह मेरा अंतिम
दिन है। जाओ
और सबको खबर
कर दो कि
उन्हें कुछ
पूछना हो तो
आकर पूछ सकते
हैं।
आनंद
तो रोने लगा।
बुद्ध ने कहा :
क्यों रोते हो? इस
शरीर के लिए? मैंने सदा
यही सिखाया कि
यह शरीर झूठ
है; वह मरा
हुआ ही है। या
तुम मेरी
मृत्यु के लिए
रोते हो? रोओ
मत; मैं तो
चालीस साल
पूर्व ही मर
चुका; मैं
तो उसी दिन मर
गया था जिस
दिन ज्ञान को
उपलब्ध हुआ।
तो अब केवल यह
शरीर खो रहा है।
मत रोओ।
आनंद
ने एक बहुत
सुंदर बात कही।
उसने कहा मैं
आपके शरीर या
आपके लिए नहीं
रो रहा हूं
मैं तो अपने
लिए रो रहा
हूं। मैं अभी
अज्ञानी ही
हूं और न जाने
कितने जन्म लेने
होंगे जब फिर
कोई बुद्ध
उपलब्ध होंगे।
और हो सकता है, मैं
आपको पहचान न पाऊं।
जब
तक तुम बुद्धत्व
को उपलब्ध
नहीं होते, तुम्हारी
मन की
स्पष्टता
किसी भी क्षण
धूमिल हो जा
सकती है।
बुद्ध होने के
पहले तुम बार—बार
पिछड़
सकते हो। तब
तक कुछ भी निश्चित
नहीं है।
इसलिए आनंद ने
बुद्ध से कहा
कि मैं अपने
लिए रो रहा
हूं; क्योंकि
अभी तक मुझे
मंजिल नहीं मिली
और आप महानिर्वाण
में प्रवेश कर
रहे हैं।
अनेक
लोगों ने, यहां
तक कि बुद्ध
के पिता ने भी
नहीं पहचाना
कि उनका बेटा
अब उनका बेटा
नहीं रहा, कि
उस शरीर में
कुछ घटित हुआ
है जो बहुत
दुर्लभ है; अंधेरा मिट
गया गईं है और
शाश्वत
ज्योति जल रही
है। लेकिन वे
इसे नहीं
पहचान सके।
अनेक लोग
बुद्ध के विरोध
में थे; अनेक
लोगों ने उनकी
हत्या की कोशिश
की थी।
तो
यह तुम पर
निर्भर है कि
तुम उनके
मित्र, प्रेमी,
या शत्रु
बनते हो। यह
तुम पर निर्भर
है, तुम्हारी
संवेदनशीलता
पर, तुम्हारी
चित्त—दशा पर
निर्भर है।
लेकिन बुद्ध
कुछ नहीं कर
रहे हैं। वे
एक उपस्थिति
मात्र हैं।
लेकिन उनकी
उपस्थिति से
ही उनके चारों
ओर बहुत कुछ
होता है।
जिन्हें
प्रेम की
प्रतीति है, उन्हें
प्रतीति होगी
कि बुद्ध उनके
साथ प्रगाढ़
प्रेम में हैं।
और तुम्हारी
यह अनुभूति
जितनी गहरी
होगी, उतना
ही तुम्हारा
यह भाव बढ़ेगा
कि तुम्हारे प्रति
उनका प्रेम प्रगाढ़ से प्रगाढ़तर
हो रहा है।
अगर तुम सच्चे
ब्रेक हो तो
तुम्हें
प्रतीत होगा
कि बुद्ध
तुम्हारे
प्रेमी हैं।
और अगर तुम
शत्रु बन गए, उनसे घृणा
करने लगे तो
तुम्हें
लगेगा कि बुद्ध
शत्रु हैं और
उन्हें
समाप्त कर
दिया जाना चाहिए।
यह तुम पर
निर्भर है।
बुद्ध कुछ नहीं
करते हैं; वे
सिर्फ हैं, होना भर हैं।
तो
यह कहना कठिन
है कि क्या
होता है; क्योंकि
हम जो कुछ
कहेंगे वह भाव
होगा। अगर हम
कहते हैं कि
वे
प्रेमपूर्ण
हो गए हैं, प्रेम
से भर गए हैं, तो यह गलत है।
वह हमारा भाव
होगा।
जीसस
के
अनुयायियों
को लगा कि वे
शुद्ध प्रेम हैं
और उनके
दुश्मनों को
लगा कि उन्हें
सूली पर लटका
देना चाहिए।
तो यह बिलकुल
तुम पर निर्भर
है,
यह तुम पर
निर्भर है कि
तुम इसे किस
भांति लेते हो,
तुम्हारी
लेने की
क्षमता कैसी
है, तुम
कितने खुले हो।
लेकिन
प्रज्ञा—पुरुष
की ओर से कुछ
भी नहीं कहा
जा सकता है।
वे इतना ही कह
सकते हैं कि
अब मैं हूं; बिना कुछ
किए मैं एक
उपस्थिति हूं
बीइंग हूं।
तीसरा
प्रश्न :
आपने
कहा कि जब कोई
व्यक्ति यूरी
तरह वर्तमान
क्षण में होता
है, निर्विचार
होता है,
तब यह बुद्ध—चित्त
होता है।
लेकिन जब
मुझमें कोई
विचार नहीं
होता, जब
मैं क्षण में
होता हूं, तल्लीन
होता हूं,
जब अतीत और भविष्य
खो जाते है, तो भी मुझे
बुद्ध—स्वभाव
की प्रतीति नहीं
होती है। कृपया
समझाएं कि इस
निर्विचार
बोध में कब बुद्ध—चित्त
प्रकट होता है?
पहली
बात,
यदि तुम जान
रहे हो कि मन
में कोई विचार
नहीं है तो
विचार है; यह
भी विचार ही
है कि अब
मुझमें कोई
विचार नहीं है।
यह अंतिम
विचार है।
इसको भी विदा
होने दो। और
तुम क्यों
प्रतीक्षा
में हो कि कब
मुझे बुद्ध—चित्त
घटित होगा? वह भी एक
विचार है। वह
इस भांति नहीं
घटित होगा, कभी नहीं
घटित होगा।
मैं
तुम्हें एक
कहानी कहूंगा।
एक सम्राट
गौतम बुद्ध के
दर्शन को आया।
वह उनका बड़ा भक्त
था और पहली
दफा उनके
दर्शन को आया
था। उसके एक
हाथ में, बाएं
हाथ में एक
सुंदर स्वर्ण—आभूषण
था, बहुमूल्य
आभूषण था, जिसमें
हीरे—जवाहरात
जड़े थे।
सम्राट
के
पास यह सबसे
बहुमूल्य चीज
थी,
एक दुर्लभ
कलाकृति थी।
वह इसे बुद्ध
को उनके प्रति
अपनी भक्ति के
रूप में भेंट करने
लाया था। वह बुद्ध
के निकट आया। उसके
बाएं हाथ में वह
बहुमूल्य रत्नजडित
आभूषण था।
जैसे ही उसने
उसे बुद्ध को
भेंट करने को
आगे बढ़ाया, बुद्ध ने
कहा : गिरा दो!
सम्राट तो
हैरान रह गया,
उसे इसकी
अपेक्षा नहीं
थी। उसे बड़ा
आघात लगा।
लेकिन जब
बुद्ध ने कहा
कि गिरा दो तो
उसने गिरा
दिया।
सम्राट
के दूसरे हाथ
में,
दाहिने हाथ
में एक सुंदर
गुलाब का फूल
था। उसने सोचा
था कि शायद
बुद्ध को हीरे—जवाहरात
न भाएं; शायद
वे इसे लाना
मेरा
बचकानापन
समझें। इसलिए
वह एक दूसरी
चीज भी ले आया
था, वह गुलाब
का सुंदर फूल
ले आया था।
गुलाब उतना
स्थूल नहीं है,
पार्थिव
नहीं है, उसमें
एक
आध्यात्मिकता
है, उसमें
अज्ञात की कुछ
झलक है। उसने
सोचा था कि
बुद्ध इसे
पसंद करेंगे,
क्योंकि वे
कहते हैं कि
जीवन प्रवाह
है। यह फूल
सुबह है और
सांझ मुरझा
जाता है। फूल
संसार में सबसे
प्रवाह मान
घटना है। तो
उसने वह भेंट
करने के लिए
अपना दाहिना
हाथ बुद्ध की
तरफ बढ़ाया।
बुद्ध ने फिर
कहा : गिरा दो!
तब तो सम्राट
और भी परेशान
हो गया। अब
उसके पास भेंट
देने को और
कुछ नहीं था।
लेकिन जब
बुद्ध ने कहा
कि गिरा दो तो
उसने फूल भी
गिरा दिया।
तभी
सम्राट को
अचानक अपने
मैं का स्मरण
आया। उसने
सोचा कि
वस्तुएं भेंट
करने से क्या; मैं
स्वयं को ही
क्यों न भेंट
कर दूं! इस बोध
के साथ खाली
हाथों वह
बुद्ध के
सम्मुख झुक
गया। लेकिन
बुद्ध ने फिर
कहा गिरा दो!
अब तो गिराने को
भी कुछ न था; और बुद्ध ने
कहा, गिरा
दो! महाकाश्यप,
सारिपुत्त,
आनंद तथा
अन्य शिष्य, जो वहां
मौजूद थे, हंसने
लगे। और
सम्राट को बोध
हुआ कि यह
कहना भी कि
मैं अपने को
भेंट करता हूं
अहंकारपूर्ण
है। यह कहना
भी कि मैं अब
अपने को
समर्पित करता
हूं समर्पण
नहीं है। तब
वह स्वयं ही
गिर पड़ा।
बुद्ध हंसे और
बोले तुम्हारी
समझ अच्छी है।
जब
तक तुम समर्पण
के खयाल को भी
नहीं गिरा देते, जब
तक तुम खाली
हाथों के खयाल
को भी नहीं
विदा हो जाने
देते, तब
तक समर्पण
नहीं घटित
होता है।
चीजों का
छोड़ना तो
आसानी से समझा
जा सकता है; लेकिन खाली
हाथों के लिए
भी बुद्ध ने
कहा कि इसे भी
गिरा दो, इस
खालीपन को भी
मत पकड़ो।
जब
तुम ध्यान
करते हो तो
तुम विचारों
को छोड़ देते
हो। जब विचार
समाप्त हो
जाते हैं तो
भी एक विचार बना
रहता है और वह
विचार है कि
मैं अब
निर्विचार हो
गया। एक
सूक्ष्म भाव, एक
सूक्ष्म
विचार बना
रहता है कि अब
मैंने पा लिया
और अब विचार न
रहे, मन
खाली हो गया, अब मैं
शून्य हो गया।
लेकिन यह
शून्य इस
विचार से भरा
है। और इससे
फर्क नहीं
पड़ता कि मन
में अनेक
विचार हैं या
एक ही विचार
है। उस विचार
को भी गिरा दो।
और
तुम बुद्ध—स्वभाव
की प्रतीक्षा
क्यों कर रहे
हो?
तुम
प्रतीक्षा
नहीं कर सकते, क्योंकि
तुम तब नहीं
रहोगे।
बुद्धत्व से
तुम्हारा
मिलन कभी नहीं
होगा। जब
बुद्धत्व
घटित होगा तो
तुम नहीं होगे।
इसलिए
तुम्हारी
आशाएं व्यर्थ
हैं। तुम समय
गंवा रहे हो; तब तुम नहीं
रहोगे।
कबीर
ने कहा है : जब मैं
था तब हरि
नहीं; अब हरि
हैं मैं नाहिं।
अब तुम हो तो
कबीर कहा है? जब मैं
तुम्हारी
कामना करता था,
जब मैं
तुम्हें
खोजता था, तब
मैं तो था, लेकिन
तुम
नहीं
थे। अब तुम तो
हो,
लेकिन बताओ
कि कबीर कहां
गया? वह
साधक कहां है
जो तुम्हारे लिए
भूख—प्यास से
भरा था, जो
तुम्हें
खोजता था, जो
तुम्हारे लिए रोता—धोता
था? वह कबीर
कहां गया?
जब
बुद्धत्व
घटित होगा तब
तुम नहीं होगे।
इसलिए
प्रतीक्षा मत
करो,
चाह मत करो।
क्योंकि यह
चाह कि मैं कब
बुद्धत्व को
उपलब्ध होऊंगा,
कब मुझे
बुद्ध स्वभाव
प्राप्त होगा,
कब मैं
ज्ञान को
उपलब्ध
होऊंगा, यह
चाह ही बाधा
बन जाएगी। यह
अंतिम बाधा है।
पूर्ण मुक्ति
की प्राप्ति
में मुक्ति की
कामना अंतिम
बाधा है। ज्ञानोपलब्ध
होने के लिए
ज्ञानोपलब्धि
की कामना को
भी छोड़ना होगा,
गिरा देना
होगा।
एक
बडा झेन सदगुरु
लिंची कहा
करता था : अगर
तुम्हें कहीं
बुद्ध मिल
जाएं तो
उन्हें तुरंत
मार डालना।
अगर तुम्हारे
ध्यान में
कहीं बुद्ध
मिल जाएं तो
उन्हें तुरंत
खतम कर देना।
और लिंची कोई
मजाक नहीं कर
रहा था; वह
बड़े महत्व की
बात कह रहा था।
उसका मतलब था
कि अगर कहीं
तुम्हारे
भीतर बुद्ध
होने की, ज्ञानी
होने की चाह
दिखाई पड़ जाए
तो उस चाह को भी
मिटा डालो।
तो ही
बुद्धत्व
घटित होता है।
परिपूर्ण
अचाह, परिपूर्ण
निर्वासना
जरूरी है। और
जब मैं
परिपूर्ण
अचाह कहता हूं
तो उसका मतलब
है कि अचाह की
चाह को भी
छोड़ना होगा।
जब तुम्हें
कोई चाह न रही,
जब कोई
विचार नहीं
हैं, जब
तुम्हें यह
बोध भी न रहा
कि विचार नहीं
है, चाह
नहीं है, तब
बुद्धत्व
घटित होता है।
अंतिम
प्रश्न :
तीव्र
रेचन के न
होने के संभव
कारण क्या हैं? मुझे
सदा, आज के शक्तिपात
ध्यान में भी,
बहुत मंद
रेचन ही होता
है। क्या इसका
यही अर्थ है कि
मैं खुला नहीं
हूं, पर्याप्त
खुला नहीं हूं? या इसके दूसरे
कारण भी संभव
हैं? इस बात
के बाबत मेरी
चिंता ध्यान
के समय, और
ध्यान के बाद
भी, मेरे लिए
बाधा बन जाती
है।
इस
संबंध में
पहली चीज यह
स्मरण रखने
योग्य है कि
रेचन तभी गहरा
होगा जब तुम
उसे होने दोगे, जब
तुम उसके साथ
सहयोग करोगे।
मन इतना दमित
है, तुमने
चीजों को इतने
गहरे तलघरों
में धकेल रखा
है कि उन तक
पहुंचने के
लिए तुम्हारा
सहयोग जरूरी
है। इसलिए जब
तुम्हें हलका
सा भी रेचन
होने लगे तो
उसे तीव्र
बनने में
सहयोग दो।
केवल
प्रतीक्षा ही
मत करो। अगर
तुम्हें लगे
कि तुम्हारे
हाथ कांप रहे
हैं तो सिर्फ
इंतजार में मत
रहो, उन्हें
ज्यादा कांपने
में सहयोग दो।
ऐसा मत सोचो
कि तीव्र रेचन
अपने आप ही
होगा, सिर्फ
प्रतीक्षा
करनी है। उसके
अपने आप होने
के लिए
तुम्हें
वर्षों प्रतीक्षा
करनी होगी, क्योंकि
वर्षों तुमने
दमन किया है।
और वह दमन सहज
नहीं था; तुमने
किसी प्रयोजन
से दमन किया
था।
तो
अब तुम्हें
उलटा चलना
होगा; तभी
दमित तत्व
उभरकर सतह पर
आएंगे।
तुम्हें रोने
का मन होता है,
तुम धीमे—
धीमे रोना
शुरू करते हो,
फिर उसे
बढ़ाते जाओ, जोर से चीखो—चिल्लाओ।
तुम्हें
पता नहीं है
कि आरंभ से ही
तुम अपने रोने
को दबाते आए
हो। तुम कथा
ठीक से नहीं रोए। शुरू
से ही बच्चा रोना
चाहता है, हंसना
चाहता है।
रोना उसकी एक
गहरी
जरूरत
है। रोकर वह
रोज—रोज अपना
रेचन कर लेता
है। बच्चे की
भी अपनी विफलताएं
हैं, निराशाएं है।
यह अनिवार्य है; और वह किसी जरूरत
से है। बच्चा
कुछ चाहता है, लेकिन वह
बता नहीं सकता
कि क्या चाहता
है। वह अपनी
जरूरत को व्यक्त
नहीं कर पाता
है। वह कुछ
चाहता है, लेकिन
हो सकता है
उसके मां—बाप
उसकी वह इच्छा
पूरी करने की
स्थिति में न हों।
हो सकता है, मां वहां
मौजूद न हो, वह किसी काम
में व्यस्त हो।
बच्चा
उपेक्षित
अनुभव करता है;
क्योंकि
कोई उस पर
ध्यान नहीं दे
रहा है। वह
रोने लगता है।
तब
मां उसे चुप
कराने लगती है, सांत्वना
देती है; क्योंकि
उसके रोने से
अड़चन होती है।
पिता को भी
अड़चन होती है।
पूरा परिवार
उपद्रव अनुभव
करता है। कोई
नहीं चाहता है
कि बच्चा रोए;
क्योंकि
रोना एक
उपद्रव है।
हरेक व्यक्ति
उसे बहलाता है,
उसे चुप
कराता है। हम
उसे रिश्वत दे
सकते हैं। मां
उसे खिलौना दे
सकती है, दूध
दे सकती है, कुछ भी दे
सकती है, जिससे
बच्चे का
बहलाव हो, उसे
सांत्वना
मिले—पर वह रोए
नहीं।
लेकिन
रोना एक गहन
आवश्यकता है।
अगर बच्चा रो
ले,
अगर उसे
रोने दिया जाए
तो वह फिर से
ताजा हो जाएगा।
रोने से कुंठा
बह जाती है, उसका दंश
निकल जाता है।
अन्यथा दमित आंसुओ के
साथ कुंठा भी
दमित हो जाती
है, दबी रह
जाती है। अब
बच्चा इकट्ठा
करता जाएगा।
और तुम दमित आंसुओ का
एक ढेर हो
जाते हो।
अब
मनस्विद
कहते हैं कि
तुम्हें एक
आदिम चीख, प्राइमल स्कीम की
जरूरत है। अब
तो पश्चिम में
एक चिकित्सा
पद्धति
विकसित हो रही
है जो तुम्हें
इतनी समग्रता
से चीखना
सिखाती है कि
उसमें तुम्हारे
शरीर का रोआं—रोआं
चीखने लगता है।
अगर तुम इस
पागलपन के साथ
रो सको कि
उसमें तुम्हारा
सारा शरीर रो
उठे तो
तुम्हारा
बहुत दुख, बहुत
संताप मिट
जाएगा, जो
न मालूम कब से
इकट्ठा था। और
तब तुम फिर
बच्चे की
भांति ताजा और
निर्दोष हो
जाओगे।
लेकिन
वह आदिम चीख
अचानक नहीं
आने को है, तुम्हें
उसे सहयोग
देना होगा। वह
चीख इतनी
गहराई में दब
गई है, उसके
ऊपर दमन की
इतनी पर्तें
पड़ी हैं कि
केवल प्रतीक्षा
करने से काम
नहीं चलेगा।
उसे सहयोग दो।
जब तुम रोना
चाहो तो दिल
खोलकर रोओ।
रोने में अपनी
सारी ऊर्जा
लगा दो और
रोने का मजा
लो, रोने
का सुख लो।
सहयोग दो; और
दूसरी बात कि
रोने का सुख
लो।
अगर
तुम अपने रोने
का मजा नहीं
ले सकते तो
तुम उसमें
गहरे नहीं उतर
सकते हो। तब
रोना सतह पर
ही रह जाएगा।
अगर तुम रो
रहे हो तो ठीक
से रोओ; रोने
का मजा लो, उसे
अच्छे से जीओ।
अगर तुम्हारे
मन में कहीं
भी यह भाव है
कि जो मैं कर
रहा हूं वह
अच्छा नहीं है,
दूसरे लोग
क्या कहेंगे,
यह बिलकुल
बचकाना काम है,
ऐसा थोड़ा भी
भाव दमन बन
जाएगा। रोने
का सुख लो और
खेल की तरह लो।
सुख लो और गैर—गंभीर
रहो।
रोते
समय इस बात पर
ध्यान दो कि
उसे कैसे ज्यादा
से ज्यादा
गहराया जाए, उसे
तीव्र करने के
लिए क्या किया
जाए। अगर तुम
बैठकर रो रहे
हो तो हो सकता
है कि उठकर उछलने—कूदने
से रोना तीव्र
और सघन हो जाए।
या अगर तुम
जमीन पर लेटकर
हाथ—पाँव मारने
लगो तो उससे भी
रोना गहरा
सकता है।
तो
प्रयोग करो और
सहयोग करो और
सुख लो। और तब
तुम्हें
मालूम होगा कि
उसके गहराने
के अनेक
रास्ते हैं।
उसे गहराते
हुए भी मजा लो, सुख
अनुभव करो।
और
एक बार जब
रोना तुम्हें
पूरी तरह पकड़
लेगा तो फिर
तुम्हारी
जरूरत न रहगी।
जब वह उस सही स्त्रोत
को पा लेगा, जहां
ऊर्जा छिपी है, जब तुम सही स्त्रोत
को छू लोगे और ऊर्जा
मुक्त हो जाएगी
तो फिर तुम्हारी
जरूरत न रहेगी।
तब तुम अपने ही
आप और सहजता
से
बहोगे। और जब
यह बहाव सहजता
से अपने आप
बहता है तो
तुम्हें पूरी
तरह धो देता
है,
स्वच्छ कर
जाता है। जैसे
वर्षा में फूल
धुल जाते हैं।
वे फिर नए हो
जाते हैं। उन
पर पड़ी धूल का
कण—कण बह जाता
है; फूल
अपने सौंदर्य
में निखर
जाते हैं।
जीवन
में हम बहुत
धूल जमा करते
हैं। रेचन
स्नान जैसा है।
उसको सहयोग दो।
उसका आनंद लो।
और तब एक दिन
वह आदिम चीख आ
जाएगी।
प्रयोग करते
जाओ। इसकी भविष्यवाणी
नहीं की जा
सकती कि वह कब
आएगी। वह आदिम
चीख कब आएगी, नहीं
कहा जा सकता; क्योंकि
मनुष्य बहुत
जटिल है। वह
इसी क्षण भी
घटित हो सकती
है; और
वर्षों भी लग
सकते हैं। एक
बात निश्चित
है कि अगर तुम
सहयोग करोगे,
सुख लोगे और
गैर—गंभीर
रहोगे, तो
वह अवश्य आएगी।
आज
इतना ही।
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