दिनांक
1 दिसम्बर, 1968, रात्री।
ध्यान-शिविर,
नारगोल।
बहुत
से प्रश्न पूछे
गए हैं।
एक
मित्र ने पूछा
है कि ओशो मौन
का प्रयोग
करते हैं तो
आस— पास के
वातावरण के
प्रति एक तरह
की उपेक्षा का
भाव आ जाता है—
और सुबह मैने
कहा है कि
करुणा का
प्रयोग करना
है— तो उन्हें
ऐसा प्रतीत
हुआ कि मौन और
करुणा दोनों
प्रयोग एक साथ
कैसे किए जा
सकते हैं?
निरंतर
बात करने की
आदत से ऐसा
लगता है कि जब
हम मौन हो रहे
हैं तो हम उन
लोगों के
प्रति कठोर हो
रहे हैं जिनसे
हम बात करते
थे,
लेकिन शायद
ही आपको स्मरण
आया होगा कि
आपने अपने को
छोड़ कर और कभी
किसी से बात
नहीं की है।
जब आप दूसरे
से बात करते
हैं तो दूसरा
सिर्फ बहाना
है। जो बात
आपको करनी है
वही आप करते
हैं और अगर आपको
अकेले में छोड़
दिया जाए जहां
कोई भी न हो तो आप
दीवालों से
वही बात शुरू
कर देंगे।
दूसरे लोग
खूंटियों की
तरह हैं जिन
पर हम अपनी
बातें टांग
देते हैं। वे
केवल बहाने
हैं, उनसे
कोई प्रयोजन
नहीं है।
एक
आदमी सुबह से
अखबार पढ़ लेता
है और फिर
तलाश में
घूमता है कि
कोई खूंटी मिल
जाए,
उसने जो पढ़
लिया है वह
उससे बोल कर
बता सके। और
दिन भर हर
आदमी पर खूंटी
का प्रयोग
करता है और
टांगता चला
जाता है।
दूसरे
आदमियों से
बात करके हम
उनके प्रति
कोई करुणा और
प्रेम जाहिर
करते हों, तो
यह गलत है
खयाल। लेकिन
मौन की गहराई
में उतर कर
जरूर ऐसा हो
सकता है कि
हमारे पास
करने को कोई
बात न रह जाए, टांगने को
कोई बात न रह
जाए। तब दूसरा
व्यक्ति
महत्वपूर्ण
हो सकता है और
हम उसके हित
के लिए कुछ कह
सकते हैं।
दूसरे
के हित के लिए
जगत में जो भी
विचार पैदा हुए
हैं वे सदा
मौन से पैदा
हुए हैं।
विचारों और
बातों से भरे
हुए लोग दूसरे
का सिर्फ साधन
की तरह उपयोग
करते हैं।
दूसरे की मौजूदगी
में वह जो
कचरा उनके
दिमाग में भरा
हुआ है उसे
उड़ेलने की
कोशिश करते
हैं। दूसरा
केवल टोकरी का
काम करता है, खूंटी
का काम करता
है। दूसरे का
इससे ज्यादा
उपयोग नहीं है।
नहीं, आप
बात करके
दूसरे के
प्रति करुणा
और प्रेम प्रकट
नहीं करते हैं,
लेकिन मौन
की स्थिति में
कभी यह हो
सकता है कि
आपको दूसरा
दिखाई पड़े।
उसका हित
दिखाई पड़े, उसके लिए
क्या जरूरी है
यह दिखाई पड़े।
अभी
तो आपको क्या
कहना आवश्यक
है,
आप
महत्वपूर्ण
हैं कहते समय,
दूसरा नहीं।
कभी आपने
बातचीत करते
समय खयाल किया
है, जब
दूसरा बोल रहा
होता है तब आप
केवल बहाना
करते हैं कि
मैं सुन रहा
हूं। भीतर आप
तैयारी करते
हैं कि यह कब
बंद हो जाए और
मैं बोलना
शुरू करूं। आप
सिर्फ तलाश
में होते हैं
कि कब वह मौका
मिल जाए कि
मैं इसे बंद
करूं और बोलूं।
एक
बड़े
मनोवैज्ञानिक
जुग के पास दो
प्रोफेसर इलाज
के लिए ठहरे
हुए थे। दोनों
का मस्तिष्क
खराब हो गया
था। दोनों बडे
ज्ञानी थे। और
ज्ञानियों के
मस्तिष्क
अक्सर खराब हो
जाते हैं।
दोनों को
निरंतर बात
करने की आदत
थी। दोनों को
साथ ही ठहराया
गया था।
वह
बड़ा मनोवैज्ञानिक
खिड़की से छिप
कर देखता था
कि वे क्या
करते हैं। तो
वह बहुत हैरान
हुआ। एक बात
करता था, घंटे—डेढ़
घंटे तक बोलता
था, दूसरा
बिलकुल
चुपचाप बैठ कर
सुनता था। ऐसा
लगता था कि वह
सुन रहा है।
फिर उसकी बात
बंद होती और
दूसरा शुरू
करता। जब
दूसरा शुरू
करता तो पहले
वाला चुपचाप
बैठ कर सुनने
लगता। लेकिन
दूसरे की बात
से पता चलता
कि पहली वाली बात
से इस बात का
कोई भी संबंध
नहीं है।
और
वह बड़ा हैरान
हुआ कि जिन
बातों का कोई
संबंध न था, वे
भी एक—दूसरे
को चुप होकर
सुनते थे।
ज्यादा
आश्चर्य की
बात यह थी।
क्योंकि
पागलों की
बातचीत में
संबंध हो इसकी
तो कोई आशा
नहीं की जा
सकती। लेकिन
दोनों पागल
इतना शिष्ट
व्यवहार करते
थे कि जब एक
बोलता तो
दूसरा बिलकुल
चुप रहता। उस मनोवैज्ञानिक
ने उनसे पूछा
कि दोस्तो!
बड़े आश्चर्य
में डाल दिया
तुमने, एक
बोलता है तब
दूसरा चुप
क्यों रहता है?
उन्होंने
कहा क्या तुम
समझते हो कि
हमें बातचीत
करने का नियम
मालूम नहीं, हमें
कनवसेंशन का
नियम नहीं
मालूम? हमें
मालूम है कि
जब एक बोले तो
दूसरे को चुप
रहना चाहिए।
उस
मनोवैज्ञानिक
ने अपनी डायरी
में लिखा है कि
मुझे उस दिन
पहली बार खयाल
आया कि ये तो
पागल हैं, लेकिन
हमारा भी
बातचीत करने
का ढंग क्या
है? हम भी
दूसरे के चुप
होने की
प्रतीक्षा
करते हैं कि
हम बोलें।
इसलिए जो आदमी
आपको नहीं
बोलने देगा, लगेगा कि यह
बहुत बोर है।
वह इसलिए बोर
नहीं लगता
उबाने वाला कि
वह बोले चला
जा रहा है, वह
इसलिए उबाने
वाला लगता है
कि वह आपको
मौका ही नहीं
देता कि आप
बोल सकें। वह
बोलता ही चला
जाता है और
आपके भीतर
गूंज पैदा
होती है कि अब
मैं बोलूं
लेकिन वह मौका
नहीं देता।
अगर वह आपको
भी बोर करने
का मौका दे तो
वह आदमी बड़ा
अच्छा है। वे
आदमी बहुत
अच्छे लगते
हैं जो आपकी
बातें सुनते
हैं।
एक
सज्जन ने एक
दिन मुझसे कहा
कि मैं एक
घंटे आपसे
बातचीत करने
आने को हूं।
कई दिनों से
प्रतीक्षा
करता हूं
सिर्फ एक घंटा
मुझे चाहिए।
मैंने उनसे
कहा आज ही आ
जाएं। वह आए
और घंटे भर तक
बोलते रहे और
मैं हां—हूं
करता रहा, बैठ
कर सुनता रहा।
जब वे जाने
लगे, मुझसे
कहने लगे कि
आपकी बातचीत
से बहुत आनंद
आया। मैं बहुत
चौंका!
मैंने
उनसे कहा :
मेरी बातचीत
से?
आनंद आया तो
आपकी बातचीत
से आया। मुझे
तो अवसर कहां
था कि मैं
बोलता। आपने
बोलने कहां
दिया?
वे
कहने लगे नहीं—नहीं, बहुत
आनंद आया। कभी—कभी
आऊंगा, और
बहुत सी बातें
आपसे मुझे
पूछनी हैं।
उन्होंने न
मुझसे कुछ
पूछा, न
सुविधा थी
उन्हें, न
उन्हें जरूरत
थी। लेकिन
जाते समय
उन्हें ऐसा
जरूर लगा कि
बहुत अच्छा
आदमी है, इससे
बातचीत में
बहुत आनंद आया।
नहीं, इस
भ्रांति में
आप मत रहना कि
जब आप बात कर
रहे हैं तब आप
दूसरे के
प्रति
प्रीतिपूर्ण
हैं। सच तो यह
है कि जिसको
आप प्रेम करते
हैं उसके पास
जब आप बैठेंगे
तो बातचीत खो
जाएगी। जिसको
भी आप प्रेम
करते हैं उसके
पास बातचीत खो
जाएगी, उसके
पास कुछ बात
करने को नहीं
मिलेगा। उसके
पास लगेगा कि
कितना सोचा था
कि बात करेंगे,
लेकिन जब
प्रेमी पास आ
जाता है तो सब
शब्द खो जाते
हैं, सब
बात खो जाती
है। प्रेमी के
पास मौन पैदा
हो जाता है।
जिन्होंने
भी थोड़ा भी
जीवन में
प्रेम जाना है, वे
जानते होंगे
कि प्रेम के
निकट शब्द खो
जाते हैं और
मौन आ जाता है।
और उलटा भी सच
है। अगर मौन आ
जाए तो भी
प्रेम आ जाता
है। वे दोनों
एक—दूसरे के
छोर हैं। मौन
आ जाए तो
प्रेम आ जाता
है, प्रेम
आ जाए तो मौन आ
जाता है। नहीं,
ऐसा मत
सोचें कि मौन
से आप कठोर हो
जाएंगे। बड़ी
कृपा होगी
आपकी, बड़ी
करुणा होगी
दूसरों पर कि
आप मौन हैं, आप चुप हैं।
मौन
में और करुणा
में विरोध
नहीं है। मौन
से ही करुणा
पैदा होती है।
और करुणावान
व्यक्ति धीरे—
धीरे मौन होता
चला जाता है।
वह बोलता है
तो इसलिए नहीं
कि उसके भीतर
बोलने की कोई
जरूरत है। वह
बोलता है तो
इसलिए कि बाहर
कोई जरूरत है, अन्यथा
वह नहीं बोले।
उसका बोलना
रोग नहीं है, उसका बोलना
बीमारी नहीं
है, उसके
भीतर कुछ घुमड़
नहीं रहा है
जिसे उसे बरसा
देना है। उसका
बोलना जिससे
वह बोल रहा है;
उसकी जरूरत
है, उसका
इलाज है, उसका
उपचार है।
दो
तरह से लोग
बोलते हैं, वे
जो करुणावान
हैं— इसलिए कि
उनका बोला हुआ
किसी के काम
पड़ सकता है।
और वे जो
करुणावान
नहीं हैं—इसलिए
नहीं कि उनका
बोला किसी के
काम पड़ सकता है,
बल्कि
इसलिए कि वे
इतने भरे हुए
हैं शब्दों और
विचारों से कि
जब तक उसे
उलीचने को कोई
न मिल जाए, किसी
पर फेंकने का
अवसर न मिले
तब तक वे दिन
भर परेशानी, बोझिलता
अनुभव करेंगे।
वह कठोरता
नहीं मालूम
हुई होगी। वह
मालूम हुआ
होगा बोझिलपन,
क्योंकि
रोज—रोज जो
निकाल देते
हैं हम— आज
निकालने का
अवसर न रहा; वह इकट्ठा
हो गया होगा, घना हो गया
होगा, मस्तिष्क
भारी हो गया
होगा।
वह
भार कठोरता के
कारण नहीं है, वह
गलत आदत के
कारण है।
प्रयोग
करेंगे धीरे—
धीरे तो वह
आदत चली जाएगी
और तब मौन से
करुणा का जन्म
होगा और करुणा
से मौन पैदा
होता है। उन
दोनों में
विरोध नहीं है।
एक
मित्र ने पूछा
है कि ओशो एक
घंटे के मौन
में आपके मन
की अवस्था
कैसी होती है? ऐसी
स्थिति
प्राप्त करने
के लिए हमें
क्या करना
चाहिए?
मौन
जब पूर्ण होता
है तो मन होता
ही नहीं। मन
की अवस्था का
सवाल नहीं है।
मौन का अर्थ
है मन की
मृत्यु। वहां
मन नहीं है।
वहा जो रह गया
है उसी को
आत्मा कहते
हैं। तो मौन मन
की अवस्था
नहीं है। मौन
है मन की
मृत्यु, मौन
है मन का
समाप्त हो
जाना, मौन
है मन का
विलीन हो जाना।
जैसे
सागर में
लहरें हैं, कोई
हमसे आकर पूछे
कि जब सागर
शांत होता है
तो लहरों की
क्या अवस्था
होती है, तो
हम क्या
कहेंगे? हम
कहेंगे, जब
सागर शांत
होता है तो लहरें
होती ही नहीं।
लहरों की
अवस्था का
सवाल नहीं।
सागर अशांत
होता है तो
लहरें होती
हैं। असल में
लहरें और
अशांति एक ही
चीज के दो नाम
हैं। अशांति
नहीं रही तो
लहरें नहीं
रहीं, रह
गया सागर।
मन
है अशांति, मन
है लहर। जब सब
मौन हो गया तो
लहरें चली गईं,
विचार चले
गए, मन भी
गया, रह
गया सागर, रह
गई आत्मा, रह
गया परमात्मा।
परमात्मा के
सागर पर मन की
जो लहरें हैं
वे ही हम अलग—
अलग व्यक्ति
बन गए हैं। एक—एक
लहर को अगर
होश आ जाए तो
वह कहेगी 'मैं
हूं।’ और
उसे पता भी
नहीं कि वह
नहीं है, सागर
है। यह जो
हमें खयाल
उठता है कि 'मैं हूं' यह
हमारी एक—एक
मन की अशांत
लहरों का जोड़
है। ये लहरें
विलीन हो
जाएंगी तो आप
नहीं रहेंगे,
मन नहीं
रहेगा। रह
जाएगा
परमात्मा, रह
जाएगा एक
चेतना का सागर।
परिपूर्ण
मौन—मन की
अवस्था नहीं, मन
की मृत्यु है।
जैसे—जैसे हम
मौन होते हैं
वैसे—वैसे हम
मन के पार जाते
हैं। जितना
ज्यादा हम
विचार से भरे
होते हैं उतना
हम मन के भीतर
होते हैं, जितना
विचार के बाहर
होते हैं उतना
मन के बाहर
होते हैं। तो
ऐसा मत पूछिए
कि उस समय मन
की अवस्था
कैसी है।
अगर
मन की कोई भी
अवस्था है तो
अभी मौन नहीं
हुआ। जब मौन
होगा तो मन
नहीं होगा। जहां
मन है वहां
मौन नहीं, जहां
मौन है वहां
मन नहीं।
एक
मित्र पूछते
हैं ओशो एक
भिखारी है—
उसको हमेशा
मांगने की आदत
हो गई है क्या
उसके प्रति
ऐसे लोगों के
प्रति भी
हमारी करुणा
होनी उचित है?
निश्चित
ही ऐसे सवाल
उठने चाहिए।
एक
भिखारी है, भीख
मांगता है और
उसकी आदत हो
गई है भीख
मांगने की।
लेकिन किसने
इसे भिखारी
बनाया? लेकिन
किसने इसे आदत
डालने को
मजबूर किया? लेकिन किसने
इसे आज तक
भिक्षा दी? हमने, मैंने,
आपने!
यह
भिखारी है, क्योंकि
यह समाज
भिखारी पैदा
करने की
व्यवस्था से
बना हुआ है।
इस भिखारी को
आदत पड़ गई, क्योंकि
यह समाज
भिक्षा की आदत
डलवाता है।
ऋषि—मुनि, साधु—संन्यासी
समझाते हैं कि
भिक्षा से, दान से
मोक्ष मिलेगा,
स्वर्ग
मिलेगा, परमात्मा
मिलेगा। जिस
समाज में इस
तरह के समझाने
वाले लोग हैं
कि भिक्षा
देने से, दान
देने से, गरीब
को रोटी देने
से मोक्ष
मिलेगा उस
समाज में कुछ
गरीब दूसरे
लोगों को
मोक्ष
पहुंचाने की अगर
आदत डाल लें
तो कोई
आश्चर्य नहीं
है। और यह
समाज कैसा है
जिसमें कि
गरीब आदमी
पैदा हो जाता
है!
जिस
समाज में गरीब
आदमी पैदा हो
जाता है उस समाज
के सारे सदस्य
उस गरीब आदमी
के लिए
जिम्मेवार
हैं। जिस समाज
में भीख मांगने
की स्थिति में
किसी मनुष्य
की आत्मा को
खड़े होना पड़ता
है वह समाज
निंदा के
योग्य है, वह
पूरा समाज
निंदा के
योग्य है। और
जो आदमी सोचता
है कि भिखारी
को रोटी देकर
मैं करुणा कर
रहा हूं वह
आदमी भी गलत
सोचता है।
क्योंकि
भिखारी को दी
गई रोटी से
भिखारी नहीं
मिटता है
सिर्फ भिखारी
को दी गई रोटी
से भिखारी
अपने
भिखमंगेपन
में भी
संतुष्ट हो
जाता है।
नहीं, जिनके
मन करुणा से
भरे हैं वे इस
पूरे समाज को बदल
देंगे जिसमें
भिखारी पैदा
होते हैं।
भिखारी पर दया
और करुणा का
अर्थ एक ही है
कि ऐसा समाज
हम बनाएं जहां
भिखारी पैदा न
हो सकता हो।
भिखारी को दान
दे देने से इस
भूल में आप मत
पड़ना कि आप
भिखारी पर
करुणा कर रहे
हैं।
सच
तो यह है कि
करुणा की आडू
में आप भिखारी
को संतुष्ट
होने की
व्यवस्था कर
रहे हैं कि वह
भीख मांगता
रहे और
संतुष्ट बना
रहे। और जिस
समाज में भीख
मांगने वाला
आदमी संतुष्ट हो
जाता है उस
समाज में
क्रांति
असंभव हो जाती
है। ये दान
देने वाले लोग, ये
भिक्षा देने
वाले लोग!
इन्हें
भिखारी के भिखमंगेपन
से इन्हें
उसकी
दरिद्रता से
कोई भी प्रयोजन
नहीं है।
बल्कि सच तो
यह है कि ये
सारे दान और
यह भिक्षा और
ये
धर्मशालाएं
और ये मदिर—ये
सब इसलिए खड़े
हैं कि भिखारी
और गरीब यह भी
अहसास करता
रहे कि यह
समाज बहुत
अच्छा है, हमें
रोटी देता है,
धर्मशाला
बनाता है, कपड़े
देता है, दवाई
देता है। यह
समाज बहुत
अच्छा है!
और
यह समाज उसे
भिखारी बनाता
है। यह उसे
पता न चल पाए।
उसे यह पता न
चल पाए कि यह
समाज ही उसका
खून पीता है, उसे
भिखारी बनाता
है, और यही
समाज उसे दो
कौड़ी फेंक कर
यह भी संतोष दिलवाता
है कि समाज
दानियों का है,
अच्छे
लोगों का है।
इसका एकमात्र
परिणाम यह
होता है कि
दरिद्र जो
क्रांति कर
सकता था, उसकी
क्रांति मर
जाती है और
समाज जिंदा
बना रहता है।
वह समाज जिंदा
बना रहता है
जो कि
बुनियादी रूप
से गलत है, जहां
गरीब पैदा
होता है।
नहीं, जिनके
मन में करुणा
है वे एक ऐसा
समाज बनाने का
विचार करेंगे
जहां गरीब का
पैदा होना
असंभव हो। मैं
उनको
करुणावान
नहीं कहता जो
एक गरीब को रोटी
दे देते हैं।
सवाल गरीबी
मिटाने का है,
एक गरीब को
रोटी देने से
गरीबी नहीं
मिटती है और न
गरीब को
दरिद्रनारायण
कहने से गरीबी
मिटती है और न
गरीब की पूजा
करने से गरीबी
मिटती है।
गरीबी एक रोग
है, गरीबी
एक पाप है और
पूरे समाज के
माथे पर कलंक है।
वह पूरी की
पूरी गरीबी
जिस व्यवस्था
से पैदा होती
है वह सारी
व्यवस्था जला
देने योग्य है।
जिनके
मन में करुणा
है वे समाज
में क्रांति
लाएंगे। दान
की बातें
खतरनाक, थोथी
और शरारत से
भरी हैं। उनका
एक ही मतलब है
कि किसी तरह
का कसोलेशन, किसी तरह की
सांत्वना
गरीब को देते
रहो, ताकि
गरीब गरीब भी
बना रहे, अमीर
अमीर बना रहे
और गरीब कभी
इतना
असंतुष्ट भी न
हो जाए कि वह
क्रांति करने
को राजी हो
जाए।
इसलिए
अमीर की जो
समाज—व्यवस्था
है,
धन की जो
समाज—व्यवस्था
है, शोषण
की जो समाज—
व्यवस्था है—हर
शोषण की समाज—व्यवस्था
दान की
व्यवस्था भी
पैदा करती है।
वह दान की
व्यवस्था, शोषण
की व्यवस्था
की सुरक्षा है।
वह आयोजन है
कि वहां शोषण
भी चलता रहे
और दान भी। और
कभी किसी को
यह खयाल भी
पैदा न हो कि
यह सारी दरिद्रता,
ये भिखारी,
ये भूखे
मरते हुए लोग,
यह हमारे
समाज का जो
ढांचा है, उसके
अनिवार्य
परिणाम हैं।
और जब तक समाज
का ढांचा नहीं
बदलता, तब
तक यह गरीब
गरीब रहेगा, भिखारी
रहेगा।
भिखारी भीख
मांगने का भी
आदी होगा और
लोग भीख भी
देते रहेंगे।
नहीं, जिसकी
करुणा गहरी है
वह आर—पार
देखेगा पूरी
बात को कि यह
गरीब कैसे
पैदा होता है?
यह भिखमंगा
कैसे पैदा
होता है? यह
समाज कैसा है
जिसमें एक
आदमी अपनी
आत्मा को इतना
पतित करने के लिए
मजबूर हो जाता
है कि वह भीख
मांगने की आदत
बना ले? और
जो लोग इस
दरिद्र
भिखारी को दान
देकर सुख लेते
हैं, वे उस
भिखारी से भी
नीचे गिर रहे
हैं कि इस गरीब
आदमी को दो
पैसे देकर एक
आदमी कहता है
कि मैंने
स्वर्ग की
व्यवस्था कर
ली!
एक
आदमी कहता है, मैं
दानी हूं
क्योंकि
मैंने दस हजार
भिखमंगों को
खाना खिलाया।
उन भिखमंगों
से बदतर है इस
आदमी की आत्मा,
क्योंकि
उनकी गरीबी का
भी शोषण किया
जा रहा है, उनकी
गरीबी को भी
रास्ता बनाया
जा रहा है
स्वर्ग तक
पहुंचने का।
उनकी दीनता का
भी शोषण किया
जा रहा है।
उनका धन भी
चूस लिया गया,
उनकी दीनता
भी शोषित की
जा रही है।
उनकी दीनता का
भी एक उपयोग
किया जा रहा
है—कि स्वर्ग,
मोक्ष, भगवान!
नहीं, करुणा—करुणा
बहुत गहरी बात
है, बहुत
क्रांति की
बात है। जगत
में करुणा
होगी तो ऐसा
गंदा और कुरूप
समाज एक दिन
भी नहीं चल
सकता है। यह
पूरा समाज बदल
देने जैसा है।
एक—एक भिखारी
का सवाल नहीं
है, भिखारी
पैदा करने
वाली समाज की
व्यवस्था का सवाल
है। गरीब का
सवाल नहीं है,
गरीबी का
सवाल है। गरीब
आदमी का कोई
सवाल नहीं है,
सवाल है
गरीबी का।
गरीबी मिटानी
है। भिखारी का
सवाल नहीं है,
सवाल है
भिखमंगेपन का।
भिखमंगापन
क्यों पैदा
होता है; उसे
मिटा देना है।
और वे लोग जो
एक भिखारी को
चार पैसे और
एक रोटी देकर
समझते हैं कि
करुणा कर ली—करुणा
बड़ी सस्ती समझ
रहे हैं! बहुत
सस्ते में खरीद
लाए करुणा को
एक रोटी देकर!
करुणा इतनी सस्ती
नहीं है।
अगर
करुणा होती तो
हम वह समाज ही
मिटा देते। और
जिस दिन करुणा
होगी यह सारा
समाज आमूल बदलना
पड़ेगा। और
इसलिए
धर्मगुरु
करुणा और
अहिंसा की सब
बातें करते
हैं,
लेकिन नहीं
चाहते हैं कि
जगत में करुणा
सच में हो।
क्योंकि
करुणा बहुत
क्रांतिकारी
है, आग की
तरह है, सारी
जिंदगी को बदल
देगी। इसलिए
करुणा की
बातें कही गई
हैं और धोखा
दिया गया है।
करुणा, अहिंसा,
दया और
प्रेम इन सब
शब्दों के
पीछे धोखा
दिया गया।
अहिंसा इसलिए
नहीं कि किसी
दूसरे आदमी को
दुख पहुंचाना
बुरा है।
अहिंसा इसलिए
कि दूसरे आदमी
को दुख
पहुंचाने से
तुम्हें पाप
लगेगा और तुम
नरक के भागी
हो जाओगे।
अहिंसा के भी
पीछे
बुनियादी
मतलब दूसरा है।
मतलब
यह है कि मैं
नरक न चला
जाऊं, इसलिए
अहिंसा।
दूसरे के दुख
से प्रयोजन
नहीं है। अगर
यह पता चल जाए
कि दूसरे को
दुख देने से
नरक जाने की
कोई जरूरत
नहीं है, तो
ये अहिंसा की
बातें करने
वाले लोग अहिंसा—वहिंसा
की बातचीत बंद
कर देंगे। अगर
इनको पता चल
जाए कि हिंसा
से स्वर्ग
पाया जा सकता
है, तो ये
बराबर हिंसा
से स्वर्ग पा
लेंगे।
इन्हें
स्वर्ग पाना
है। चूंकि
समझाया जाता
है कि
तुम्हारा
स्वर्ग छिन
जाएगा, इसलिए
अहिंसा करनी
जरूरी है।’ अहिंसा' शब्द
सूचना देता है
अपने ही
अहंकार की
तृप्ति की।
नहीं, इस
तरह की अहिंसा
न प्रेम है, न करुणा।
इसी
संबंध में एक
मित्र ने और
पूछा है कि
ओशो अहिंसा
करुणा दया
प्रेम क्या ये
शब्द समानार्थी
नहीं हैं?
नहीं, ये
शब्द
समानार्थी
नहीं हैं। असल
में कोई दो
शब्द बिलकुल
समानार्थी
नहीं होते, न हो सकते
हैं। अगर हों
तो उनकी जरूरत
ही खत्म हो गई।
उनमें थोड़ा सा
फासला और फर्क
होता है, इसीलिए
वे ईजाद होते
हैं, नहीं
तो उनकी कोई
जरूरत न थी।
करुणा
का अर्थ है एक
ऐसा हृदय जो
प्रेम से भरा हुआ
है। एक ऐसा
हृदय जिसकी
धारा बिना
शर्त सबके
प्रति मंगल की
कामना से भरी
हुई है।
दया
और करुणा में
बहुत फर्क है।
दया बहुत बुरी
बात है। दया
कोई शुभ बात
नहीं, क्योंकि
दया का अर्थ
है दूसरे पर
दया। और जिस
पर हम दया
करते हैं उसे
हम दयनीय
स्वीकार कर
लेते हैं, और
किसी को भी
दयनीय स्वीकार
करना उसका
अपमान है।
इसलिए
दया जिस पर भी
आप करेंगे, वह
आदमी आपकी दया
का बदला लेगा;
आज नहीं कल
आप दया का
बदला जरूर
पाएंगे।
इसीलिए तो लोग
कहते हैं कि
हमने तो इतनी
दया की इस पर, इतनी नेकी
की और यह बदी
से बदला चुका
रहा हैं—चुकाएगा,
क्योंकि
दया में
बुनियादी रूप
से घृणा छिपी
है, दया
में अपमान
छिपा है। दया
का मतलब है कि
तुम नीचे हो
और हम दया कर
रहे हैं। तुम
दया के योग्य
हो।
नहीं, 'दया'
कोई शुभ
शब्द नहीं है।
दया कोई पुण्य
अर्थ नहीं
रखता।
करुणा
यह नहीं कहती
कि तुम दया
योग्य हो
इसलिए हम दया
कर रहे हैं।
करुणा
यह कहती है कि
मेरा हृदय
करुणा से भरा
है,
इसलिए हम
करुणा बांट
रहे हैं। तुम
क्या हो इससे
कोई प्रयोजन
नहीं है।
सम्राट
निकलेगा मेरे
सामने से तो
भी मेरा हृदय
करुणा से भरा
रहेगा और
भिखारी
निकलेगा मेरे सामने
से तो भी मेरा
हृदय करुणा से
भरा रहेगा।
लेकिन सम्राट
पर दया नहीं
की जा सकती, भिखारी पर
दया की जा
सकती है।
सम्राट पर दया
कर सकते हैं
आप? कैसे
करेंगे? सम्राट
दयनीय नहीं है,
भिखारी
दयनीय है।
लेकिन करुणा
सब पर की जा
सकती है, क्योंकि
किसी दूसरे से
करुणा का कोई
संबंध नहीं है।
करुणा मेरा
स्वभाव है।
फिर दया चौबीस
घंटे नहीं की
जा सकती। जब
दयनीय आदमी
मौजूद होगा
तभी की जा
सकती है।
इसलिए दया
करने वालों के
लिए यह भी
जरूरी है कि
दयनीय आदमी
दुनिया में
रहें, नहीं
तो दया खत्म
हो जाएगी। दया
किस पर करिएगा
अगर दयनीय
आदमी न रहे ?
एक
संन्यासी को
तो यहां तक
मैंने कहते
हुए सुना है
कि वे लोगों
को यह समझाते
हैं कि
समाजवाद नहीं
आना चाहिए, क्योंकि
समाजवाद अगर आ
जाएगा तो दान
और दया का
क्या होगा? क्योंकि
जहां दान और
दया नहीं
होंगे तो
धर्मशास्त्र
तो कहते हैं
कि बिना दान
और दया के मोक्ष
नहीं हो सकता
है। तो वे
कहते हैं
इसलिए
समाजवाद नहीं
आना चाहिए
दुनिया में कि
उससे तो कोई
दयनीय नहीं रह
जाएगा, कोई
दया योग्य
नहीं रह जाएगा,
कोई भिखारी,
दरिद्र
नहीं होगा। और
दान और दया
नहीं होंगे तो
दान और दया के
बिना कहीं
मोक्ष है? वह
बात बिलकुल
ठीक ही कहते
हैं। अगर दान
और दया से ही
मोक्ष मिलता
है तो जिस दिन
दुनिया के
सारे लोग सुखी
और समान हो
जाएंगे, उस
दिन मोक्ष
नहीं मिल
सकेगा।
लेकिन
दान और दया से
कभी किसी को
मोक्ष न मिला है
और न मिलने का
सवाल है।’ दान'
और 'दया'
घृणा योग्य
शब्द हैं। दया
नहीं करनी है
किसी पर, करुणापूर्ण
होना है। और
एक ऐसी दुनिया
बनाएगी करुणा
जहां कोई दया
योग्य न रह
जाए और किसी
को दया करने
की और दया
देने की और
मांगने की
जरूरत न हो।
करुणा होगी तो
हम एक ऐसी
दुनिया
बनाएंगे जहां
कोई दयनीय न
हो, किसी
पर दया न करनी
पड़े।
करुणा
और दया
समानार्थी
नहीं हैं, बल्कि
उलटे अर्थ
रखते हैं।
अहिंसा
और प्रेम में
भी ऐसा ही बुनियादी
फर्क है।
अहिंसा का
मतलब है दूसरे
को दुख मत
पहुंचाओ और
प्रेम का मतलब
है दूसरे को
सुख पहुंचाओ।
अहिंसा का
अर्थ है दूसरे
को दुख मत
पहुंचाओ।
प्रेम का अर्थ
है दूसरे को
सुख पहुंचाओ।
अहिंसा
निगेटिव है, नकारात्मक,
प्रेम
पाजिटिव है, विधायक।
अहिंसा
इतना ही कहती
है कि नहीं, दूसरे
को दुख मत
पहुंचाना।
क्यों? क्योंकि
दूसरे को दुख
पहुंचाने से
पाप लगता है, इसलिए
अहिंसा एक तरह
की कठोरता
पैदा करवा देती
है। दूसरे को
दुख मत
पहुंचाओ, बस
बात खत्म हो
गई। दूसरे से
संबंध समाप्त
हो गया। दूसरे
को सुख
पहुंचाने का
सवाल नहीं है।
दूसरा आनंदित
हो यह सवाल
नहीं है, दूसरा
मेरे कारण
दुखी न हो जाए
यह सवाल है।
क्योंकि मेरे
कारण अगर कोई
दुखी होता है
तो उसकी वजह
से मुझे आगे
आने वाले
जन्मों में
दुख भोगना
पड़ेगा। अंततः
केंद्रीय रूप
से मेरे दुख
और सुख का सवाल
है, मैं
अपने सुख की
तलाश में हूं।
दूसरे को दुख
नहीं
पहुंचाना है
कि कहीं मेरे सुख
की तलाश में
बाधा न पड़ जाए।
इसलिए अहिंसा
बिलकुल ही
नकारात्मक
शब्द है।
प्रेम
विधायक है।
प्रेम कहता है
दूसरे को सुख
पहुंचाओ।
क्यों? क्योंकि
दूसरे को सुख
पहुंचाने में
ही तुम्हारा
भी सुख है।
दूसरे को सुख
पहुंचाओ, क्योंकि
दूसरे को सुख
पहुंचाने में
आने वाले जन्मों
में तुम्हें
सुख मिलेगा, ऐसा नहीं।
दूसरे को सुख
पहुंचाने की
प्रक्रिया
में तुम सुखी
हो ही जाते हो।
दूसरे को
आनंदित कर
देने में तुम
आनंदित हो ही
जाते हो।
अहिंसा
अहंकार को
मजबूत करेगी।
और प्रेम
अहंकार को
विलीन कर देगा, विसर्जित
कर देगा, क्योंकि
प्रेम की
अंतिम मंजिल
उस दिन पूरी
होती है जिस
दिन दूसरा
दूसरा न रह
जाए। दूसरे को
सुख पहुंचाओ
ही नहीं, जिस
दिन दूसरा
दूसरा भी न रह
जाए। अंतत: वह
जगह आ जाती है
प्रेम में
जहां दूसरा समाप्त
हो जाता है।
लेकिन अहिंसा
में दूसरा कभी
समाप्त नहीं
हो सकता।
दूसरे से इतना
ही प्रयोजन है
कि उसको दुख
नहीं
पहुंचाना है।
बात खत्म हो
गई, इससे
आगे कोई संबंध
नहीं है।
ये
सारे शब्द अलग
अर्थ रखते हैं।
मैं 'अहिंसा' शब्द
से जैसी ध्वनि
निकलती है
उसके पक्ष में
नहीं हूं और न 'दया' शब्द
के पक्ष में
हूं। मैं 'प्रेम'
और 'करुणा'
के जरूर
पक्ष में हूं।
प्रेम और
करुणा में
समानधर्मा
अर्थ है, लेकिन
वे
पर्यायवाची
वे भी नहीं
हैं, वे भी
एक ही अर्थ
नहीं रखते।
प्रेम जैसा कि
प्रचलित है, जैसा कि हम
उसे उपयोग
करते हैं, हमेशा
दो
व्यक्तियों
के बीच संबंध
है। करुणा दो
व्यक्तियों
के बीच संबंध
नहीं है, एक
व्यक्ति की
मानसिक दशा है,
स्टेट ऑफ
माइड है।
करुणा में
दूसरे का
प्रश्न नहीं
है, दूसरे
का सवाल नहीं
है। वह
व्यक्ति
करुणापूर्ण
है। कोई दूसरा
है, नहीं
है, इसका
कोई सवाल नहीं
है।
एक
निर्जन
रास्ते पर फूल
खिला है।
रास्ते से कोई
निकले या न
निकले, फूल
सुगंध
बिखेरता
रहेगा। फूल
नहीं कहेगा कि
अभी रास्ते पर
आने वाले लोग
नहीं हैं, दरवाजा
बंद, अभी
सुगंध नहीं
फेंकते, अभी
कोई निकल ही
नहीं रहा है
तो किसको!
नहीं, फूल
को फिकर नहीं
है कि कौन
निकला कि कौन
नहीं निकला।
फूल के तो प्राणों
में सुवास भरी
है वह बही चली
जा रही है, बही
चली जा रही है।
उसका दूसरे से
कोई भी लेना—देना
नहीं है।
दूसरे की कोई
अपेक्षा नहीं
है; दूसरे
की कोई शर्त
नहीं है। फूल
अपने प्राणों
में सुगंध से
भरा है, वह
बंटती चली जा
रही है। करुणा
इस तरह की बात
है।
लेकिन
प्रेम, जिसे
हम प्रेम कहते
हैं वह प्रेम
सदा दूसरे की
अपेक्षा में
है। जैसे ही
कोई कहे कि
मैं प्रेम
करता हूं हम
फौरन पूछेंगे,
किससे? किससे
हो गया प्रेम
आपका?
लेकिन
करुणा में यह
पूछने का सवाल
नहीं है कि किस
पर। यह सवाल
नहीं है।
करुणा एक
रिलेशनशिप
नहीं है। वह
एक अंतर्संबंध
नहीं है।
करुणा एक भाव—दशा
है। अकेला
व्यक्ति
करुणापूर्ण
हो सकता है।
लेकिन जैसा हम
प्रेम का
उपयोग करते
हैं उस प्रेम
में एक
अंतर्संबंध
है,
दो
व्यक्तियों
के बीच एक
नाता है।
अगर
ठीक से समझें
तो प्रेम ही
जब विकसित
होकर विराट हो
जाता है और
संबंधों के पार
चला जाता है
तो करुणा हो
जाती है।
करुणा जो है
वह प्रेम की
परिपूर्णता
है। जब प्रेम
दो
व्यक्तियों
के बीच का
संबंध नहीं रह
जाता, बल्कि
प्रेम फैल कर
एक और अनंत के
बीच की अवस्था
हो जाता है, तब वह करुणा
बन जाती है।
प्रेम का ही
परिपूर्ण
विकास करुणा
है। प्रेम
पहला चरण है, करुणा अंतिम
मंजिल है।
लेकिन उनमें
फर्क है, उनमें
बुनियादी
फर्क है।
और
करुणा इन
चारों शब्दों
में सबसे
ज्यादा मूल्यवान
है। ’करुणा' जैसा
प्यारा शब्द
खोजना
मुश्किल है। ’कंपेशन' वह
बात ही बहुत
अदभुत है, वह
शब्द ही बहुत
अदभुत है। उस
पर जितना
सोचें, जितना
उसका अनुभव
करें उतने नये
अर्थ और नई गहराइयां
दिखाई पड़नी
शुरू हो सकती
हैं।
एक
मित्र ने पूछा
है कि ओशो
ध्यान में आंसू
क्यों आने
लगते है?
रोना क्यों
होने लगता है?
क्या यह
रुदन
स्वाभाविक
प्रक्रिया है
ध्यान में?
ध्यान
में एक ही
घटना घटती है
कि आप सरल हो
जाते हैं और
आपके सारे
बंधन टूट जाते
हैं। और आदमी
इतना जटिल हो
गया है कि
उसने आंसुओ तक
पर रोक लगा
रखी है, उनको
भी वह सप्रेस
करता है और
दमन करता है।
आदमी ऐसा
समझता है कि आंसू
कमजोरी है। और
आंसू से
ज्यादा
पवित्र कुछ भी
नहीं है और आंसू
से ज्यादा
इनोसेंट और
निर्दोष कुछ
भी नहीं है।
कोई हीरे, कोई
मोती एक आंसू
के बराबर भी
मूल्य नहीं
रखते।
लेकिन
आदमी की
बुनियादी
भ्रांतियों
में एक भ्रांति
यह भी है कि आंसू
कमजोरी के
लक्षण हैं।
इसलिए खासकर
पुरुष ने जो
कि अपने को
शक्तिशाली
समझता है, उसने
तो आंसुओ को
बिलकुल ही पी
गया है। उसने
तो आंसू
बिलकुल रोक
लिए हैं। वे
उसके प्राणों
में रुके हुए
अटके पड़े हैं।
जैसे
ही मन सरल
होगा, आंसू
बहने शुरू हो
जाएंगे। वह
बांध टूट
जाएगा जो रोका
था। आंसू नहीं
बहते हैं उसका
अर्थ यह है कि
आप कठोर हो गए
हैं, अन्यथा
आंसू जीवन के
अनिवार्य
हिस्से हैं।
और जिस आदमी
की आंखों ने आंसू
बहाना छोड़
दिया वह या तो
पत्थर हो गया
या परमात्मा
हो गया। आदमी
तो नहीं रह
गया है। वह जो
आदमी की सरलता
है, वह जो
आदमी का
प्रेमपूर्ण
व्यक्तित्व
है उस व्यक्तित्व
में आंसू फूल
की तरह हैं।
यह
भी एक भ्रांति
है कि आंसू
सिर्फ दुख में
आते हैं। नहीं, आंसुओ
का दुख से कोई
अनिवार्य
संबंध नहीं है।
आंसू आते हैं
अतिरेक में।
चाहे दुख
अतिरेक हो जाए,
चाहे सुख, चाहे आनंद, चाहे खुशी।
जो भी चीज
अतिरेक हो
जाएगी, अतिशय
हो जाएगी, इतनी
हो जाएगी कि
आपके भीतर समाएगी
नहीं, ओवरफ्लो
होने लगेगी, वही आंसू बन
जाएगी।
अगर
आनंद इतना भर
जाएगा भीतर कि
बहने लगे चारों
तरफ तो कैसे
बहेगा, वह आंसू
बन जाएगा। अगर
दुख ज्यादा हो
जाएगा तो दुख आंसू
बन जाएगा। जो
भी चीज भीतर
ज्यादा हो
जाएगी—प्रेम
ज्यादा हो
जाएगा तो आंसू
बन जाएगा, श्रद्धा
ज्यादा हो जाएगी
तो आंसू बन
जाएगी। आंसू
सिर्फ अतिरेक
की
अभिव्यक्ति
का माध्यम है,
वह ओवरफ्लोइंग
है। आंसू का
कोई संबंध दुख
से नहीं है।
दुख से संबंध
मान लेने के
कारण मनुष्य
को ऐसा लगने
लगा कि अपने
पर नियंत्रण
होना चाहिए।
और
आंसू रोक कर
मनुष्य जितनी
कठिनाइयों
में पड़ा है उतना
और कम ही
चीजों को रोक
कर पड़ा है।
मनोवैज्ञानिक
तो कहते हैं
कि आदमी को
फिर से रोना
सिखाना पड़ेगा।
क्योंकि पाया
यह गया है
स्त्रियों की
बजाय पुरुषों
को मानसिक रूप
से तनाव और
विक्षिप्तता की
मात्रा
ज्यादा है। और
उसके ज्यादा
होने के कुछ
थोड़े से बुनियादी
कारणों में एक
कारण यह है कि
स्त्रियां अब
भी रो लेती
हैं,
पुरुष ने
रोना बिलकुल
बंद कर दिया
है।
स्त्रियां
इसलिए आज भी
थोडी हलकी और
सरल हैं— थोड़ी
कम वजनी, कम
गंभीर! और
स्त्रियों के
सौंदर्य के
बहुत से
हिस्सों में
एक हिस्सा यह
भी है कि आज भी
उनके आंसू
बिलकुल
समाप्त नहीं
हो गए हैं।
हालांकि जैसे—जैसे
सभ्यता
विकसित होती
है और जैसे—जैसे
स्त्रियों को
ठीक पुरुषों
जैसा बनाने की
चेष्टा चलती
है वैसे— वैसे
उनके आंसू भी
क्षीण होते
चले जा रहे
हैं।
पश्चिम
की स्त्री
रोने में उतनी
समर्थ नहीं रह
गई,
जितनी पूरब
की स्त्री।
उसको भी खयाल
आ गया है कि
मैं और रोऊं!
रोना कमजोरी
है! रोना
कमजोरी नहीं
है। असल में
जो नहीं रो
सकता वह इस
बात का सबूत
देता है कि
उसके भीतर ऐसे
कोई भी भाव
नहीं उठते जो ओवरफ्लो
हो जाते हों, जो ऊपर से बह
जाते हों। जो
नहीं रोता
उसका मतलब है
कि वह भावातिरेक
के नीचे जीता
है। वह कभी
भावातिरेक के
क्लाइमेक्सेस
को, चरम
अवस्थाओं को,
पीक
एक्सपीरिएंसेस
को नहीं छू
पाता। वह कभी
जीवन की उन
ऊंचाइयों को
नहीं छूता जहां
से चीजें बहती
हैं। वह हमेशा
नीचे जीता है।
नहीं, आंसू
का न होना
बहादुरी का
लक्षण नहीं है
और न शक्ति का
लक्षण है। आंसू
के संबंध में
यह धारणा
मनुष्य को एक
दमन में ले गई
है कि रोक लो, और जिस आदमी
ने अपने आंसू
रोक लिए हैं
उसकी करुणा
रुक जाएगी।
उसका कंपेशन
रुक जाएगा। और
जिन—जिन देशों
में, धर्मों
ने अनासक्ति
की और अमोह की
अतिवादी धारणाएं
प्रचलित की
हैं उन—उन देशों
में मनुष्य
अत्यंत कठोर
हो गया है।
उसकी कठोरता
को हम शक्ति
समझते हैं।
नहीं, कठोरता
मनुष्य की
शक्ति नहीं है।
शक्ति तो सदा
सरलता है।
जापान
में एक भिक्षु
था,
उसकी
मृत्यु हो गई।
उस भिक्षु की
दूर तक ख्याति
थी। लाखों
उसके प्रेम
करने वाले, पूजने वाले
थे। उसका एक
प्रमुख शिष्य
भी था। उस
शिष्य की
ख्याति अपने
गुरु से भी
ज्यादा थी।
लोग कहते थे, वह
स्थितप्रज्ञ
है। लोग कहते
कि उसे तो बोध
हो गया। उसने
परमात्मा को
अनुभव कर लिया
है। फिर उसके
गुरु की
मृत्यु हुई तो
लाखों लोग इकट्ठे
हुए। वहां तो
मेला भर गया।
वे सारे लोग
देख कर हैरान
हुए कि वह
प्रमुख शिष्य
जिसको वे समझते
थे, ज्ञान
को उपलब्ध हो
गया है, छाती
पीट—पीट कर रो
रहा है। उसकी आंखों
से आंसुओ की
धाराएं बही जा
रही हैं। वह
गिर—गिर पड़ता
है, वह
बेहोश हो जाता
है।
निकट
के लोगों ने
कहा : यह तुम
क्या करते हो? तुम्हारी
सारी इज्जत पानी
में मिल जाएगी।
लोग क्या
कहेंगे कि
इतना बड़ा
ज्ञानी और यह
भी रोता है।
वह
रोता था, हंसने
लगा। उसने कहा
: तुमसे किसने
कहा कि ज्ञानी
नहीं रोते? तुमसे कहा
किसने कि जानी
नहीं रोते हैं?
वे
लोग कहने लगे
कि क्यों रोके
जानी, क्योंकि
ज्ञानी तो
कहते हैं, आप
ही तो समझाते
हैं कि आत्मा
अमर है। अगर
आत्मा अमर है
तो फिर रोते
क्यों हैं?
वह
आदमी कहने लगा
कि मैं आत्मा
के लिए रो कब
रहा हूं? वह
शरीर भी बहुत
प्यारा था जो
चला गया। वह
शरीर भी बहुत
प्यारा था, वह कहने लगा
फकीर। वह शरीर
अब कभी भी
नहीं हो सकेगा,
वह शरीर गया,
गया—सदा—सदा
के लिए!
अनंतकाल बीत
जाएगा, वह
शरीर फिर
दुबारा नहीं
होगा। मैं उस
शरीर के लिए
ही रोता हूं।
आत्मा के लिए
कौन रोता है।
और यह तुमसे
किसने कहा कि ज्ञानी
नहीं रोते हैं?
वह
फकीर कहने लगा
जानी भी रोते
हैं,
अज्ञानी भी
रोते हैं।
अज्ञानी अज्ञान
के कारण रोते
हैं, ज्ञानी
ज्ञान के कारण
रोते हैं।
ज्ञानी के
रोने के कारण
दूसरे होते
हैं, अज्ञानी
के रोने के
कारण दूसरे
होते हैं।
दोनों के आंसुओ
में फर्क होता
है। लेकिन आंसू
समाप्त नहीं
हो जाते।
यह
जो ध्यान की
अवस्था में आंसू
बहने लगेंगे, यह
बिलकुल ही एक
अर्थों में
स्वाभाविक है।
बहुत दमन किया
है मन का, उसे
बह जाने दें।
इधर ध्यान में
भी मैं देखता
हूं कि उन आंसुओ
को भी रोकने
की चेष्टा
चलती है कि
कहीं वे निकल
न जाएं। कोई
पड़ोस का क्या
कहेगा। हमने
कुछ ऐसी
बेवकूफी की
धारणाएं बना
रखी हैं कि
कोई रो रहा है,
तो पड़ोस का
क्या कहेगा? कोई क्या
कहेगा?
कोई
क्या कहेगा!
क्या इतना भी
हक नहीं है
आदमी को कि
अपनी आंखों से
आंसू बहा सके? तो
यह समाज फिर
हद परतंत्रता
का समाज है।
जहां कोई आदमी
रोने के लिए
भी स्वतंत्र
नहीं, फिर
और किस चीज के
लिए स्वतंत्र
हो सकेगा?
नहीं, जरा
भी न रोकें, बह जाने दें
पूरे अपने
हृदय को। उसके
बह जाने पर
पीछे एक
अत्यंत गहरी
शांति और
साइलेंस छूट
जाएगी। वे आंसू
मन के बहुत से
भार को ले
जाएंगे, वे
आंसू मन के
बहुत से तनाव
को ले जाएंगे,
वे आंसू मन
की बहुत सी
बोझिलता को
बहा देंगे।
जैसे नदी में
पूर आता है तो
किनारे की
सारी गंदगी
बहा ले जाता
है और पीछे
किनारे साफ और
ताजे और
स्वच्छ हो
जाते हैं।
वैसे आंखें जब
पूर से भर
जाती हैं तो
मन के बहुत से
कचरे को, बहुत
सी रुकावट को,
बहुत सी
गंदगी को बहा
ले जाती हैं
और पीछे मन हलका
हो जाता है।
मैं
तो कहता हूं
जो आदमी भी
रोने की कला
सीख लेता है, वह
आदमी रोज अपने
मन को स्नान
करने की कला
सीख लेता है।
प्रार्थना
में रोना न
आया, ध्यान
में रोना न
आया तो और कब
रोना आएगा? लेकिन कोई
बन कर रोने के
लिए नहीं कह
रहा हूं कि आप
बन कर रोने
लगें।
क्योंकि हम
ऐसे अजीब लोग
हैं कि हम बन
कर भी रोते
हैं और बन कर
भी रो सकते
हैं। हमने
सारी चीजें
आर्टिफीशियल
और कृत्रिम बना
लीं। अनेक लोग
रोते हुए
दिखाई नहीं
पड़ते हैं कभी,
एक पागलपन
यह है। एक
पागलपन यह भी
है कि लोग
झूठे ही रोते
दिखाई भी पड़ते
हैं। कोई मर
गया है और कोई
भी जाकर रोने
लगा है, और
सारे आंसू बिलकुल
झूठे हैं।
क्योंकि वह
आदमी अभी
हंसता था। वह
आदमी घर के
बाहर आकर फिर
सिगरेट जला ली
और हंस रहा है,
और अभी वह
रो रहा था।
रोना
कुछ इतनी आसान
बात है कि आप
गए भीतर और बाहर
आ गए। तो आदमी
रोता ही नहीं
है। रोता है
तो झूठा रोता
है। हमने कुछ
अजीब, एकर्डिटी,
अपने
व्यक्तित्व
में कुछ अजीब
बेबूझपन और
बिलकुल ही
दिवालियापन
पैदा कर लिया
है। हम सच्चे
रो भी नहीं
सकते हैं।
वह
मैं नहीं कह
रहा हूं कि आप
रोएं। लेकिन
अगर ध्यान के
क्षणों में
हृदय सरल हो और
आंसू बह जाना
चाहें, तो
भूल कर भी
उन्हें रोकना
मत, उन्हें
बह जाने देना।
उन्हें कहना
कि जाओ बह जाओ
और उन्हें
धन्यवाद देना,
क्योंकि
उसके पीछे मन
हलका और शांत
हो जाएगा।
ध्यान की
गहराई बढ़ेगी।
ध्यान की
निश्चित
गहराई बढ़ेगी।
करुणापूर्ण
व्यक्तित्व
को तो निरंतर आंखें
भरी ही रहती
हैं। जरूर
बुद्ध और
महावीर रोते
हुए दिखाई
नहीं पड़ते हैं।
लेकिन इसका
कारण यह नहीं
है कि उनकी
करुणा मर गई
है। इसका कारण
कुल इतना है
कि चौबीस घंटे
ही उनका हृदय
करुणा और आंसुओ
से भरा हुआ है।
हर घड़ी रोने
की जरूरत नहीं
रह गई। उसका
कारण यह नहीं
है।
एक
आदमी किसी को
प्रेम करता है
तो कभी दिन
में एकाध—दो
बार कर लेता
है। एक आदमी
इतना भी प्रेम
कर सकता है कि
दिन भर ही याद
बनी रहती हो कि
याद करने का
सवाल ही न रह
जाए। वे जो
लोग करुणा में
गहरे चले गए
हैं,
जरूर उनकी आंखों
में आंसू
दिखाई नहीं
पड़ेंगे, क्योंकि
उनके आंसू तो
उनकी सारी
आत्मा पर फैल
गए हैं। उनकी
करुणा तो उनका
पूरा
व्यक्तित्व
बन गई है।
लेकिन उस दिशा
में जो यात्रा
है वह आंसुओ
से होकर जाती
है।
जीवन
की कोई भी
गहरी यात्रा आंसुओ
के बिना नहीं
है—चाहे हो
प्रेम, चाहे
हो प्रार्थना,
चाहे हो
सत्य, चाहे
हो परमात्मा।
जीवन में जो
भी
महत्वपूर्ण
है वह आंसुओ
के मार्ग से गुजरता
है। और घबड़ाने
की जरा भी
जरूरत नहीं है।
आंसू मित्र
हैं। लेकिन
हमें पता ही
नहीं कि पीछे
हम कितने हलके
हो जाएंगे, क्या हो
जाएगा। कोई
आदमी जब बच्चे
की तरह रो
लेता है, आनंद
में, प्रेम
में, करुणा
में, तो
पीछे क्या हो
जाता है? कैसी
फ्रेशनेस, कैसी
ताजगी, कैसे
फूल जैसे
वर्षा में नहा
गए हों, या
आकाश के तारे
वर्षा के बाद
जैसे दिखाई
पड़ते हैं, सद्यस्नात,
अभी नहाए—नहाए।
वैसा ही मन भी
अभी नहाया—नहाया
हो जाता है।
ध्यान
तो एक स्नान
है अंतस का।
अगर आंसू बहते
हों तो बह
जाने दें। जरा
भी उन्हें
रोकने की
जरूरत नहीं है।
पूरे हृदय में
जो होना हो, हो
जाने दें। कुछ
भी रोकने की
जरूरत नहीं है,
ताकि पीछे
ज्वार निकल
जाए, ताकि
पीछे से सारा
ज्वर निकल जाए
और भीतर एक वेटलेसनेस,
एक शून्यता,
एक
भाररहितता
पैदा हो सके।
एक निर्भार
भाव पैदा हो
सके।
तो
आंसू आते हों
तो रोकें न, न
आते हों तो कृपा
नहीं, कोई
जरूरत नहीं।
लाने की कोई
कोशिश न करें।
कोई उनकी
आवश्यकता
नहीं है कि आप
उन्हें लाएं।
आ जाएं तो ठीक,
आ जाएं तो
बह जाने दें।
न आएं तो ठीक।
उस दिशा में
कोई ध्यान
देने की भी
जरूरत नहीं है।
सरल होने की
जरूरत है।
जैसा हो वैसा
हो जाने दें।
एक प्रश्न और,
फिर बाकी
प्रश्नों पर
कल मैं बात
करूंगा।
एक
मित्र ने पूछा
है कि ओशो कभी
किसी के सुधार
के लिए कठोर
होना पड़ता है
तो क्या वैसा कठोर
होना बुरा है?
बहुत
सोचने जैसा है
इसमें। सुधार
के कई तरह के
मजे हैं।
सुधार का सौ
में से
निन्यानबे
प्रतिशत मजा
तो यह होता है कि
मैं किसी को
सुधार दूं।
असल में किसी
को बनाने और
सुधारने में
बड़ा रस आता है, क्योंकि
हम उसके मालिक
हो जाते हैं
बनाने और सुधारने
में। अधिकतम
लोग सुधारने
के लिए इसलिए
आतुर नहीं होते
कि सुधार से
उस दूसरे का
कुछ हित हो
जाएगा, बल्कि
सुधार का एक
रस है और एक
आनंद है।
सुधार का मतलब
है दूसरे को
अपनी मुट्ठी
में बंद कर
देना और जैसा
मैं चाहूं
वैसा बनाऊं।
क्या होगा
उसका यह कुछ
पता नहीं है।
क्या किसी को
मुट्ठी में
बंद करके
जबरदस्ती बनाना
हितकर होगा, यह भी पता
नहीं है।
लेकिन
सुधार में एक
तरह की हिंसा, एक
तरह की
वाइलेंस है।
बाप कहता है
अपने बेटे को
मेरे जैसा
बनाऊंगा तुझे।
जैसे कि बाप
सच में कुछ बन
गया हो। क्या
पा लिया है उस
बाप ने जो
बेटे को अपने
जैसा बनाने की
कोशिश कर रहा
है? वह खुद
दीन—हीन खडा
है, हारा
हुआ। लेकिन
बेटे को अपने
जैसा बनाना है।
अपने जैसे
बनाने में
बेटे के हित
का कोई सवाल
नहीं है।
लेकिन
अपने जैसा
किसी को बना
कर खड़ा करने
में अहंकार को
बड़ी तृप्ति
मिलती है। यह
जो अपनी शक्ल—सूरत
का फैलाव करने
वाली गुरुडम
है,
कि एक आदमी
गेरुआ वस्त्र
पहने हुए है
तो पचास लोगों
को गेरुआ
वस्त्र पहनवा
देगा, एक
आदमी मुंह पर
पट्टी बांधे हुए
है तो न मालूम
दस—पच्चीस
बेवकूफ
इकट्ठे कर लेगा,
उनके मुंह
पर पट्टी
बंधवा देगा।
इनका जो रस है,
यह रस किसी
के सुधार का
रस नहीं है।
यह अहंकार के
विस्तार का रस
है कि मैं— मैं
पचास आदमियों
का मालिक, गुरु,
डिक्टेटर, तानाशाह। मैं—मैंने
पचास आदमी बदल
दिए और बना
दिए।
नहीं, अगर
इस तरह बनाने
और सुधारने की
कोशिश में लगे
हैं, तो वह
कठोरता
कठोरता है, करुणा नहीं
है।
लेकिन
सच में ही
किसी के प्रेम
में,
किसी के
प्रति करुणा
में, किसी
के रास्ते का
पत्थर उठाने
में, किसी
के मार्ग से
एक कांटा
हटाने में अगर
कुछ करना पड़ता
हो तो कोई फिकर
नहीं है।
दुनिया कहेगी
उसे कठोर, लेकिन
आप भलीभांति
जानते हैं कि
उस काम को करने
में आपका हृदय
कठोर नहीं हुआ
है। बल्कि और
भी करुणा से
विगलित हो गया
है।
दुनिया
की क्या फिकर
है! ये सवाल
किसी दूसरे के
नापने—जोखने
के नहीं हैं।
ये सवाल तो
अपने भीतर
नापने और
जोखने के हैं।
अगर एक आदमी
आग में जलने
जा रहा है और
किसी ने उसका
हाथ पकड़ कर
जोर से खींच
लिया है तो
दुनिया कहेगी
यह कैसा आदमी
है। इसने इतने
जोर से हाथ
खींचा कि उसके
हाथ को चोट लग
गई है। लेकिन
वह आदमी कहेगा
कि लग जाए चोट, आग
में इसे मैं
नहीं जाने
देना चाहता था।
यह लग सकता है।
दुनिया
का सवाल नहीं
है,
साधक के लिए
सवाल है अपनी
अंतर—परीक्षा
का। क्या मेरे
सुधार करने का
असली मजा और
रस कठोर होने
में तो नहीं
है कि कठोर
होने का रस
लेना चाहता
हूं इसलिए
सुधार कर रहा
हूं? यह
जरा जांचना
चाहिए। यह तो
बारीक सवाल है
और बारीक जांच
भीतर चलनी चाहिए।
या कि मेरी
करुणा कह रही
है कि मैं
बदलू बदलने का
कुछ उपाय करूं।
और स्मरण रहे,
जितने आप
कठोर हो
जाएंगे उतना
ही किसी को
बदलना
मुश्किल है, क्योंकि
कठोरता के
उत्तर में आती
है कठोरता।
कठोरता के
उत्तर में
जितनी आपकी
चेष्टा होती
है कि मैं
बदलू दूसरे का
अहंकार कहता
है कि मुश्किल
है मुझे बदलना।
मैं भी कोई
साधारण नहीं
हूं। इसलिए
अच्छे मां—बाप
के बेटे बुरे
हो जाते देखे
जाते हैं।
गांधी
जैसे अच्छे
बाप के बेटे
भी बिगड़ गए।
और कारण था यह
खयाल कि उनको
बदलना है। तो
उन लड़कों का
भी अहंकार है
अपना। वे कहते
हैं,
तो ठीक है, बदल लो।
कैसे बदलना है
देखें। एक
लड़का शराब
पीने लगा, धर्म
परिवर्तन
किया, कहीं
गलत जगह शादी
की; गांधी
को खबर लगी तो
दुख हुआ। उस
लड़के को खबर
मिली कि गांधी
दुखी हुए हैं,
तो वह हंसा
और उसने कहा
अच्छा, तो वे
अभी दुखी होते
हैं! वे तो
कहते थे कि
दुख—सुख के
बाहर हो गए
हैं। और मैं
हिंदू धर्म
छोड़ कर कोई
दूसरा धर्म
पकड़ लिया तो
दुख की क्या
बात है? वे
तो कहते हैं, अल्लाह—ईश्वर
तेरे नाम। तो
दुख की क्या
बात है? कोई
भी धर्म हुआ, जैसा हिंदू
वैसा मुसलमान,
वैसा कोई और।
फर्क क्या है?
अच्छे
बाप बेटों को
बिगाड़ने के
कारण तो बनते
हैं,
सुधारने के
नहीं।
क्योंकि
जितना अहंकार
उनका कहता है
कि बदल दूंगा,
उतना ही
बेटे का
अहंकार कहता
है कि देखें
कौन बदल सकता
है। नहीं, कठोरता
से कोई कभी
बदला नहीं गया।
इसलिए जो
बदलने की सच
में किसी के प्रति
प्रेमपूर्ण
आतुरता से
उत्सुक होता
है, इसलिए
नहीं कि मैं
उसे अपने
विचार का बना
लूं बल्कि
इसलिए कि उसके
मार्ग पर जो
पत्थर मुझे दिखाई
पड़ता है, मैं
उस मार्ग से
गुजरा हूं
व्यर्थ ही उस
पत्थर से वह
चोट न खाए, उस
पत्थर को
हटाने की
कोशिश करूं।
वह बहुत
करुणापूर्ण
होगा। उसकी
कठोरता
दुनिया को
कठोरता दिखाई
पड़े, उसकी
कठोरता करुणा
का ही हिस्सा
होगी।
करुणा
अगर महान है
तो कठोर भी हो
सकती है।
करुणा अगर
महान है तो
कठोर भी हो
सकती है, लेकिन
वह कठोरता
कहीं भी नहीं
होगी, एक
कोने में भी
नहीं हृदय के
उसके। दुनिया
उसको कहेगी
कठोर। दुनिया
कहे उससे कोई
सवाल नहीं है।
परीक्षण भीतर
है कि मैं
कठोर होने का
रस तो नहीं ले
रहा हूं। कहीं
यह विधि, नियम
और निषेध जो
मैं बना रहा
हूं कि उठो
चार बजे सुबह,
यह सिर्फ यह
मजा तो नहीं
ले रहा हूं कि
एक आदमी को
सुबह चार बजे
ठंड में
उठवाने का एक
मजा है, एक
रस है। कहीं
वह मजा तो
नहीं ले रहा
हूं। यह ध्यान
में स्पष्ट हो
तो करुणा
बदलने की अदभुत
शक्ति रखती है।
लेकिन बदलने
में मेरा रस
नहीं है। और
तब बदलने की
उतनी आतुरता
भी नहीं है, तब सिर्फ
दूसरे के
प्रति प्रेम
प्रकट कर देना
पर्याप्त है उसे
बदलने को। अगर
करुणा से भरी आंखें
हों, तो
दूसरा आदमी उन
आंखों को
देखते तक बदल
सकता है।
करुणा से भरा
हुआ हाथ हो, तो हाथ का
इशारा और
स्पर्श भी बदल
सकता है। और
कठोरता की
तलवारें भी
कुछ नहीं कर
पाती हैं।
आदमी बड़ी से
बड़ी तलवार से
बड़ा है, लेकिन
आदमी छोटी से
छोटी करुणा के
सामने एकदम
कमजोर हो जाता
है।
वह
तो एक—एक
व्यक्ति को
भीतर नापने और
जोखने की बात
है कि हम जो कर
रहे हैं वह
कहीं
धोखेबाजिया
तो नहीं हैं? सौ
में
निन्यान्नबे
मौके पर
धोखेबाजिया
हैं। इसलिए
किसी को
सुधारने के
लिए बहुत
उत्सुक मत
होना। किसी को
सुधारने के
लिए आप कृपा
ही करेंगे तो
बहुत है। आप
अपने को ही
सुधारें तो
काफी है। और
आपका सुधर
जाना और आपका
करुणापूर्ण
व्यक्तित्व
जरूर आस—पास
ऐसे बीज
फेंकता है कि
दूसरे लोग भी
सुधरते हैं।
लेकिन
सुधारने में न
आपकी
आकांक्षा
होती है, न
प्रयास होता
है। न सुधारने
की हिंसा होती
है।
नहीं, मैं
किसी के
सुधारने के
पक्ष में नहीं
हूं। अपने को
हम सुधारें, बनाएं, निर्मित
करें। अगर
उसमें सुगंध
होगी, उस
दीये में
रोशनी होगी, तो जिनके
दीये बुझे हैं
वे आ जाएंगे
पास और पूछने
लगेंगे कहां
से लाए यह
रोशनी, कैसे
आया यह
प्रकाश! हमारे
घर में अंधेरा
है, हम भी
दीया जलाना
चाहते हैं। तब
वे आ जाएंगे
अपने दीये
लेकर आपकी
ज्योति के पास
और जला कर ले
जाएंगे। तब वे
आ जाएंगे आपके
सुगंध के घेरे
में और भर जाएंगे
सुगंध से। तब
वे आ जाएंगे
आपके संगीत को
सुनने और डूब
जाएंगे उसमें
और बदल जाएंगे।
लेकिन
नहीं, आपको उन्हें
बदलना नहीं है।
किसी को बदलने
की सचेष्ट
चेष्टा, बहुत
सजग चेष्टा
खतरनाक बात है।
और यह दुनिया
जो इतनी बदतर
हालत में
पहुंची है, यह दुनिया
को बदलने वाले
लोगों की वजह
से। दुनिया को
बदलने वाले
लोग इतने बड़े
मिस्वीफ मांगर्स
रहे हैं, इतने
उपद्रवी रहे
हैं जिसका
हिसाब लगाना
कठिन है।
क्योंकि
उन्होंने
बदलने की जो
अति चेष्टा की
है, आदमी
के अहंकार को
उतना ही
मुश्किल हो
गया है बदलाहट
को स्वीकार
करना। वह सख्त
हो गया है, वह
कठोर हो गया
है। उसने कहा
कि नहीं
बदलेंगे। अगर
तुम्हें रस
आता है हमें
तोड़ देने में
तो हम टूटेंगे
नहीं, हम
झुकेंगे नहीं।
हम मिट जाएंगे,
लेकिन हम
ऐसे ही खड़े
रहेंगे।
अहंकार
सिर्फ अहंकार
को चुनौती दे
देता है और खडा
कर देता है।
अहंकार सिर्फ
अहंकार से
संघर्ष में पड़
जाता है। नहीं, करुणा
के पास कोई
अहंकार नहीं
है, उसके
पास बहुत
नाजुक इशारे
हैं। उसके पास
आंखें हैं, उसके पास
प्रेम के हाथ
हैं। उसके पास
प्रेम का एक
व्यक्तित्व
है। उसी
व्यक्तित्व
से जो कुछ हो
जाएगा अपने आप,
अपने से, वही ठीक। जो
करना पड़े और
चेष्टा करनी
पड़े, वह
गलत है। इसलिए
भूल कर कठोर
होने की जरूरत
नहीं है।
लेकिन
करुणा जानती
है अपने
रास्ते और जब
करुणा हृदय
में होती है
तो उसे जो भी
जरूरत होती है
वह करती है।
लेकिन उसका
कोई पता भी
नहीं चलता है
कि पीछे करुणा
है। और जब कोई
प्रेमपूर्ण
व्यक्तित्व, कोई
करुणा से भरा
हुआ व्यक्ति
किसी के प्रति
कठोर दिखाई
पड़ता है, तो
सारी दुनिया
को दिखाई पड़ता
होगा, लेकिन
जिसके प्रति
वह कठोर हो
गया है वह अगर
उसके प्रेम से
थोड़ा भी
परिचित है तो
सपने में भी
उसे खयाल नहीं
आता कि कोई
मेरे प्रति
कठोर हुआ है।
बल्कि उसकी
कठोरता के
प्रति भी
अनुग्रह का भाव
होता है, ग्रेटिटयूड
का भाव होता
है कि कितना
प्रेम था उसका
मेरे प्रति कि
वह कठोर भी हो
सका।
प्रेम
कठोर होता है।
उसकी जैसी
शाक्त और
फौलाद किसी और
चीज में नहीं
है। लेकिन वह
कठोरता वैसी
कठोरता नहीं
है जिसकी मैंने
बात कही। वह
कठोरता भी
करुणा का ही
रूप है। वह
करुणा का ही
सघन कंडेंस्ट
रूप है।
और
बहुत से प्रश्न
रह गए, वह कल
हम बात करेंगे।
अब हम
रात के ध्यान
के लिए
बैठेंगे।
तो
थोड़े— थोड़े
फासले पर हो
जाना है, ताकि
कोई किसी को
छूता हुआ न रह
जाए।
बातचीत
नहीं करनी है।
जरा भी आवाज
नहीं। थोड़े—
थोड़े दूर हट
जाएं। कोई
किसी को छूता
हुआ न बैठे।
और यह
प्रतीक्षा न
करें कि दूसरा
छू रहा है तो
वह हटेगा, आप
भी उसको छू
रहे हैं।
इतनी
बढ़िया रात है।
इतनी बढ़िया
रात में खाली
हाथ लौट जाना
बहुत नासमझी
है। कौन जाने
यह सागर— तट
फिर मिले न
मिले। यह चांद, यह
चांदनी, यह
सरू का वन फिर
हो न हो। कोई
पल लौट कर तो
आता नहीं, कोई
क्षण वापस तो
आता नहीं। कल
का कोई भरोसा
नहीं। आज जो
हाथ में है
वही हाथ में
है। उसका हम
पूरा उपयोग कर
लें। इसके
अतिरिक्त
साधना का और
कोई अर्थ नहीं
होता है।
ध्यान
में हम
बैठेंगे।
सारे शरीर को
शिथिल छोड
देना है।
कुछ
मित्रों ने
पूछा है कि
ओशो आधी आंखें
खोले रखने से
तनाव होता है।
जिनको
भी आधी आंख
खोले रखने से
तनाव होता हो
वे आंख बंद कर
ले सकते हैं।
सवाल हमेशा
यही है कि सब
तरह से चित्त
शिथिल हो जाए।
अगर आपकी आंख
पर तनाव पड़ता
है आधी खोलने
से तो आप बंद
कर लें। जिनकी
आंख पर आधी
खोलने से तनाव
नहीं पड़ता हो
वे आधी खोलें, अन्यथा
बंद कर लें।
अब मैं
सुझाव दूंगा
थोड़ी देर तक
कि आपका शरीर
शिथिल हो रहा
है,
तो अनुभव
करना है कि
शरीर बिलकुल
शिथिल हो गया
है।
फिर
सुझाव दूंगा
कि श्वास शांत
हो रही है, तो
धीरे— धीरे
अनुभव करना है
कि श्वास
बिलकुल शांत
हो गई है। उसे
रोकना नहीं है,
सिर्फ ढीला
छोड़ देना है।
अपने आप आए—जाए।
न हमें गहरी
लेनी है, न
धीमी लेनी है,
छोड़ देना है।
फिर
मैं कहूंगा, मन
शांत हो रहा
है। और जब सब
शांत हो जाएगा
तो फिर यह
सागर का गर्जन
सुनाई पड़ेगा।
जंगल की
आवाजें सुनाई
पड़ेगी। रात का
सन्नाटा आपको
घेर लेगा। फिर
दस मिनट तक
उसको ही सुनते
चले जाना है।
जस्ट लिसनिंग,
सुनते ही
चले जाना है, सुनते ही
चले जाना है।
ऐसा हो जाए कि
जंगल ही रह जाए,
चांदनी रह
जाए, सागर
रह जाए और हम
बिलकुल मिट
जाएं। और यह
हो सकता है और
यह हो जाएगा।
तो अब बैठें, शरीर को
शिथिल छोड़ दें।
आंख चाहें तो
बंद कर लें, चाहें तो
आधी खुली रखें।
जैसी सुविधा
हो। बीच में
भी लगे कि बंद
होने जैसी है
तो बंद कर लें।
अब मैं सुझाव
देता हूं मेरे
साथ अनुभव
करें। अनुभव
करें, शरीर
शिथिल हो रहा
है... और ढीला
छोड़ दें, जैसे
कोई प्राण
नहीं हैं, जैसे
शरीर बिलकुल
शांत हो गया
है। शरीर
शिथिल हो रहा
है......शरीर
शिथिल हो रहा
है......शरीर
शिथिल हो रहा
है......शरीर
शिथिल हो रहा
है......छोड़ दें
बिलकुल ढीला,
एकदम ढीला,
जैसे शरीर
है ही नहीं।
शरीर शिथिल हो
गया.. छोड़ दें......छोड़
दें बिलकुल......शरीर
शिथिल हो गया...।
श्वास
शांत हो रही
है......श्वास
शांत हो रही
है......श्वास
शांत हो रही
है......श्वास
शांत हो रही
है......श्वास
शांत हो रही
है......श्वास
शांत हो गई है......श्वास
को भी ढीला
छोड़ दें...।
मन
शांत हो रहा
है......मन शांत हो
रहा है......बिलकुल
ढीला छोड़ दें
मस्तिष्क को......सब
ढीला छोड़ दें
भीतर तक......मन
शांत हो रहा
है......मन शांत हो
रहा है......मन
शांत हो रहा
है......मन शांत हो
रहा है......मन
शांत हो गया......बिलकुल
सब शांत और
शिथिल हो गया...।
अब
दस मिनट के
लिए सुनें
सागर का गर्जन, रात
का सन्नाटा......सुनते
रहें......सुनते
रहें......सुनते
रहें......बस सारा
शरीर जैसे कान
हो गया है। बस
सुन रहे हैं, सुन रहे हैं,
सुन रहे
हैं... और सुनते
ही सुनते सब
शून्य हो जाएगा।
आप मिट जाएंगे
और इस रात के
साथ एक हो
जाएंगे। दस
मिनट के लिए
सुनें, सुनें,
बस सुनते
रहें...। सुनें......शांत
सुनते चले
जाएं......रात
आपके भीतर
प्रविष्ट हो
जाएगी। यह
चांदनी आपके
भीतर तक चली
जाएगी। सुनें......शांत
सुनते रहें......देखें,
रात की
आवाजें कितने
जोर से बुलाती
हैं। शांत
सुनते रहें......मन
शांत होता
जाएगा...।
सुनें, रात
की आवाजों को......सुनते
रहें......बस
सुनते रहें......सिर्फ
सुनने का भाव
रह जाए. .फिर
धीरे— धीरे मन
शांत होता
जाता है...।
मन
शांत हो रहा
है......मन शांत हो
रहा है......मन
शांत हो रहा
है......मिट गए आप, रह
गई रात। मन
शून्य हो रहा
है......सुनते
रहें......सुनते
रहें......सुनते
रहें......मन
शून्य होता जा
रहा है... मिट गए
आप, रह गई
रात, रह
गया चांद, रह
गया सागर का
गर्जन। मन
बिलकुल शून्य
हो गया है...।
मन
हो गया है
शांत......मन
बिलकुल शांत
हो गया है......मन
शांत हो गया
है......मन शांत हो
गया है......मन
शांत हो गया
है......मन बिलकुल
शांत हो गया
है...।
अब
धीरे— धीरे
दों—चार गहरी
श्वास लें...
धीरे— धीरे दो—चार
गहरी श्वास
लें......प्रत्येक
श्वास के साथ
शांति और बढ़ती
हुई मालूम
होगी। धीरे—
धीरे दो—चार
गहरी श्वास
लें......प्रत्येक
श्वास के साथ
शांति और बढ़ती
हुई मालूम
होगी। फिर
धीरे— धीरे आंख
खोलें......देखें, चारों
तरफ कितनी
शांति है।
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