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मंगलवार, 1 सितंबर 2015

मेरा स्‍वर्णिम भारत--(प्रवचन--13)

वर्तमान क्षण की धन्‍यता—(प्रवचन—तैहरवां)  

प्यारे ओशो!

भविष्यं नानुसन्धत्ते नातीत चिन्तयत्यसौ।
वर्तमान निमेष तु हसन्नेवानुनर्तते।।

'भविष्य का अनुसंधान नहीं, न अतीत की चिन्ता।
हंसते हुए वर्तमान में जीना।लगता है,

योगवासिष्ठ का यह श्लोक आपकी देशना का संस्कृत अनुवाद है। इसे हमें फिर एक बार समझाने की कृपा करें।
हजानंद! मन या तो अतीत होता है—या भविष्य। वर्तमान में मन की कोई सत्ता नहीं। और मन ही संसार है? इसलिये वर्तमान में संसार की भी कोई सत्ता नहीं। और मन ही समय है; इसलिये वर्तमान में समय की भी कोई सत्ता नहीं।

अतीत का वस्तुत: कोई अस्तित्व तो नहीं है, सिर्फ स्मृतियां हैं। जैसे रेत पर छूटे हुए पग—चिह्न। सांप तो जा चुका—धूल पर पड़ी लकीर रह गई। ऐसे ही चित्त पर, जो बीत गया है, व्यतीत हो गया है उसकी छाप रह जाती है। उसी छाप में अधिकतर लोग जीते हैं। जो नहीं है उसमें जीयेंगे तो आनंद कैसे पायेंगे! प्यास तो है वास्तविक और पानी पीयेंगे स्मृतियों का! बुझेगी प्यास? धूप तो है वास्तविक और छाता लगायेंगे कल्पनाओं का! रुकेगी धूप उससे?
अतीत का कोई अस्तित्व नहीं है। अतीत जा चुका, मिट चुका—मगर हम जीते हैं अतीत में। और इसलिये हमारा जीवन व्यर्थ अर्थहीन, थोथा। इसलिये जीते तो हैं मगर जी नहीं पाते। जीते तो हैं मगर घिसटते हैं—नृत्य नहीं, संगीत नहीं, उत्सव नहीं।
और अतीत रोज बड़ा होता चला जाता है! चौबीस घन्टे फिर बीत गये—अतीत और बडा हो गया। चौबीस घन्टे और बीत गये अतीत और बडा हो गया। जैसे—जैसे अतीत बड़ा होता है, वैसे—वैसे हमारे सिर पर बोझ बड़ा होता है। इसलिये छोटे बच्चों की आंखों में जो निर्दोषता दिखाई पड़ती है, जो संतत्व दिखाई पड़ता है वह फिर बूढों की आंखों में खोजना मुश्किल हो जाता है। हजार तरह के झूठ इकट्ठे हो जाते हैं।
सारा अतीत ही झूठ है!
जीसस एक सुबह—सुबह झील पर रुके। सूरज अभी उगा नहीं। बस उगने को है। और एक मछुए ने जाल फेंका है। जीसस ने उस मछुए के कंधे पर हाथ रखा; मछुए ने लौटकर देखा। सूरज की पहली फूटती हुई किरणें पूरब से जीसस के चेहरे पर पडी। उस मछुए की आख जीसस की आख से मिली—और बात हो गई। बिना बात किये बात हो गयी, आख से आख की मुलाकात हो गयी। क्षणभर सन्नाटा रहा और जीसस ने कहा, 'छोड़ यह जाल। पकड़ लीं तूने मछलियां बहुत। करेगा भी क्या मछलियां पकड़—पकड़कर? जीवन में कुछ और पकड़ना है या बस मछलियां ही पकड़ना है? इनकी दुर्गंध से अभी ऊबा नहीं? 'छोड़ जाल। मेरे पीछे आ। मैं तुझे परम धन खोजने का सूत्र दूं। ऐसा जाल फेंकना सिखाऊं कि परमात्मा ही फंसे उस जाल में! उससे कम को क्या फांसना?'
मछुआ हिम्मतवर रहा होगा। पंडित होता, होशियार होता, बह्मण होता—हजार बातें निकालता—कि अभी कैसे चलूं! अभी तो अड़चनें हैं। पहले मां से तो जाकर आज्ञा ले आऊं! पहले पिता से तो पूछ लूं। पत्नी क्या कहेगी! बच्चों का क्या होगा? मगर जीसस की आंखों का जादू! जैसे सब भूल गयो! छोड़ दिया जाल उसने पानी में ही। खींचा भी नहीं पानी के बाहर! जीसस के पीछे हो लिया। वे दोनों गांव के बाहर निकलते ही थे कि एक आदमी भागा हुआ आया और उस मछुए को कहा, 'पागल! तू कहां जा रहा है?
और इस पागल आदमी के साथ कहां जा रहा है? तेरे पिता की मृत्यु हो गयी! मैं तुझे खोजने झील पर गया, वहां इस घटना का पता चला कि एक पागल जो आसपास गांव के कई बार देखा गया है, उसने तेरे कंधे पर हाथ रखा और तू उसके पीछे चल पड़ा है! वापस चल। तेरे पिता का अंतिम संस्कार करना है या नहीं। उस युवक ने जीसस से कहा, 'मुझे क्षमा करें। मैं जाकर अंतिम संस्कार कर आऊं। तीन दिन बाद लौट आऊंगा।
जीसस ने उससे कुछ बातें कहीं, जो सोचना। पहली तो बात जीसस ने यह कही कि 'एक पल का तो भरोसा नही है—कल का भरोसा कहां! और तू तीन दिन का वायदा करता है! आ सकेगा! तेरे पिता को पक्का पता था कि आज मर जायेंगे? तुझे ही पक्का पता होता, तो तू आज झील पर मछली पकड़ने न गया होता। तू कल भी जिंदा होगा? तीन दिन बाद भी तू आ सकेगा? यह भी मान लें कि तू जिंदा होगा, तो तीन दिन बाद यह साहस रह जायेगा, जो आज तुझमें जगा है?........... यह जो किरण तुझमें आज फूटी है? और तीन दिन बाद तू आ भी जाये, यह भाव भी रह जाये, तो मैं बक्त? मैं भी बच जाऊं, यह भाव भी रह जाये, तीन दिन बाद तू आ भी जाये—तो हमारा फिर मिलन होगा? अनंत— अनंत काल में पहली बार हम मिले हैं! दुबारा का क्या भरोसा!' उस युवक ने कहा, 'बात तो आपकी ठीक है, जवाब तो मेरे पास नहीं। मगर मेरे पिता का अंतिम संस्कार भी तो करना है!'
जीसस ने कहा, 'इसकी फिक्र छोड़। क्योंकि गांव में बहुत मुरदे हैं, वे मुरदे को दफना देंगे! गांव में कुछ मुरदों की कमी है? अब यही आदमी आया है, यह खुद ही मुरदा है। यह ही दफना देगा। मुरदे मुरदे को दफना देंगे। मुरदों को दफना लेने दे मुरदों को। फिर जो मर ही चुका, अब दफनाओ न दफनाओ; ऐसा दफनाओ वैसा दफनाओ, जमीन में गड़ाओ कि आग लगाओ—क्या फर्क पड़ता है! पंछी तो उड़ चुका। पींजडा पड़ा रह गया है। तू मेरे पीछे आ। यह अवसर खोने का नहीं है। पीछे की तरफ लौटकर मत देख, क्योंकि वही आदमी की बुनियादी भूल है।
और हम सब पीछे लौटकर देखते हैं! हम पीछे से ही जीते हैं। हम हिसाब ही लगाते रहते हैं—यह हुआ, वह हुआ। काश, ऐसा 'हो जाता, काश वैसा हो जाता!
फिर इस अतीत के उपद्रव से भविष्य का उपद्रव पैदा होता है। उपद्रव निस्संतान नहीं होते! उपद्रव संतति—नियमन नहीं मानते! उपद्रव भारतीय होते हैं। एक उपद्रव दस—पंद्रह बच्चे पैदा करता है; इससे कम नहीं।
मैंने सुना है, जनगणना करनेवाले अधिकारी ने एक द्वार पर दस्तक दी। और थोड़ा चौंका और थोड़ा हैरान हुआ। आख पर भरोसा भी न आया! गौर से पुन: देखा। लेकिन बात सच थी—भरोसा आये या न आये। जिस स्त्री ने दरवाजा खोला था, बिलकुल नग्न थी! चौंक गया। पूछा, ' आप नग्न क्यों हैं?'
उस स्त्री ने कहा, 'चौंको मत। मैं न्धइडस्ट हूं! मैं दिगम्बरत्व में विश्वास करती हूं!'
वह आदमी समझदार था। सोचा—अपने को क्या लेना देना। इसकी यह जाने। जिस काम के लिये आया हूं वह मैं करूं और अपने रास्ते पर लग। उसे तो कुछ जानकारियां लेनी थीं जनगणना के लिये, सो उसने जरूरी प्रश्न पूछकर अपनी बही में लिखे। उन्हीं प्रश्नों में एक था : ' आपके कितने बच्चे हैं।सो उसने पूछा।
उस स्त्री ने कहा, 'बाईस'!
फिर वह आदमी चौंका। उसने कहा, 'बाई, क्या आप वाकई न्यूडिस्ट हैं या आपको कपडे पहनने की फुर्सत नहीं मिलती!'
ये जो उपद्रव हैं, इनकी बड़ी संतानें होती हैं। कहावत है कि मुसीबत अकेली नहीं आती; साथ में भीड़— भड़क्का लाती है! मुसीबत तो यूं समझो कि कुम्भ का मेला! एक क्या आयी—और आती होंगी। एक आयी तो यूं समझो कि बस खबर आयी।
कहते हैं : एक फूल खिल जाये, तो समझो कि बसंत आ गया। फूलों के संबंध में सच हो या न हो, मगर एक मुसीबत आ गयी, तो समझ लो कि अब मुसीबतों ही मुसीबतों के जाल फैल जानेवाले हैं।
सबसे बड़ी मुसीबत जो अतीत लाता है, वह है भविष्य। भविष्य तुम्हारे अतीत की ही छाया है। वह तुमने जो जीया है, उसमें से कुछ काट— छांटकर तुम भविष्य की कल्पना करते हो। जो प्रीतिकर नहीं था, उसे छांटते हो। जो प्रीतिकर था, उसे फैलाते हो, बढ़ाते हो, विस्तीर्ण करते हो।
भविष्य है क्या? भविष्य का तुम्हें पता तो नहीं है। जिसका पता हो, वह भविष्य नहीं। भविष्य तो अज्ञात है। लेकिन अतीत ज्ञात है। ज्ञात से अशात के संबंध में हम अनुमान लगाते हैं। और ज्ञात में से ही चुनाव करते हैं। सुखद को चुनते हैं, दुखद को छोड़ते हैं। ऐसे हम भविष्य के रंगीन सपने संजोते हैं। कांटे—कांटे अलग कर देते हैं; गुलाब—गुलाब बचा लेते हैं। हालांकि यह हमारी भाति है, क्योंकि कांटे और गुलाब साथ—साथ होते हैं। यह असंभव है कि तुम जो—जो गलत था, उसे छोड़ दो और जो—जो ठीक था, उसे बचा लो। गलत और ठीक संयुक्त था, जुड़ा था। आयेगा, तो साथ आयेगा। जायेगा तो साथ जायेगा। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तुम एक पहलू को बचा न सकोगे।
तो एक तो अतीत का बोझ; उसकी चट्टानें हमारी छाती पर रखी हैं। और फिर भविष्य का बोझ। अतीत का रोना, कि ऐसा क्यों न हुआ। और फिर जल्दी ही भविष्य के लिये रोओगे, क्योंकि वह भी नहीं होनेवाला है। न अतीत तुम्हारे मन के अनुकूल हुआ, न भविष्य तुम्हारे मन के अनुकूल होगा। इन दो पार्टी के बीच में आदमी पिसता है। और दोनों का ही कोई अस्तित्व नहीं है।
अतीत वह जो जा चुका—अब नहीं। और भविष्य वह, जो आया नहीं—अभी नहीं। दोनों के मध्य में छोटा सा बिंदु है अस्तित्व का। बस, बूंद की भांति है। अगर होश न रहा, तो चूक जाओगे।
यह सूत्र प्यारा है। यह संन्यास की परिभाषा है।
'भविष्य नानुसन्धते—भविष्य का अनुसंधान न करो।
जो नहीं है, उसके पीछे न दौड़ो। मगर साधारण आदमियों की तो बात छोड़ दो, जिनको तुम असाधारण कहते हो, जिनको तुम पूजते हो, वे भी जो नहीं हैं उसके पीछे दौड़ते हैं। राम भी स्वर्ण—मृगों के पीछे दौड़ते हैं! औरों की तो बात छोड़ दो। हाथ की सीता को गंवा बैठते हैं! इसमें कसूर रावण का कम है। रावण को नाहक दोष दिये जाते हो! अगर कहानी को गौर से देखो, तो रावण का कसूर ना के बराबर है। अगर कसूर है किसी का, तो राम का। स्वर्ण—मृग के पीछे जा रहे हैं! बुद्ध से बुद्ध आदमी को भी पता है कि मृग स्वर्ण के नहीं होते।
साधारण से साधारण आदमी कहता है कि सारा जग मृगमरीचिका है। देखते हो मजा! साधारण आदमी भी कहता है : जग मृगमरीचिका है। और राम सोने के मृग के पीछे चल पड़े! और क्या मृगमरीचिका होगी? इससे बड़ा और क्या भ्रमजाल होगा?
सीता को गंवा बैठे!
जब भी मैं राम, लक्ष्मण और सीता की तसवीर देखता हूं तो मुझे लगता है कि यह भविष्य, वर्तमान और अतीत की तसवीर है। राम हैं आगे, लक्ष्मण हैं पीछे, मध्य में हैं सीता। राम हैं अतीत—जो बीत गया, जो जा चुका, उसके पूजक। इसलिए तो दशरथ की मानकर चल पडे। न सोच किया, न विचार किया, न पूछा, न प्रश्न उठाया।
दशरथ की बात मानने योग्य थी ही नहीं। दशरथ की बात विद्रोह के योग्य थी। काश, राम ने विद्रोह किया होता, तो भारत की कथा और होती। तो भारत के जीवन का अर्थ और होता, इतिहास और होता। काश, राम ने विद्रोह किया होता, तो भारत इस तरह गुलामी में न जीता, इस तरह की पीड़ा में न जीता। लेकिन राम ने एक ऐसी बात को स्वीकृति दे दी, जो कि बुनियादी रूप से गलत थी। जिसमें कहीं भी कोई न्याय नहीं था। चौदह साल का वनवास अकारण!
दशरथ बूढ़े थे। बुढ़ापे में जो विवाह किया था, जो चौथी पत्नी थी, वह जवान! अकसर के पति जवान पत्नियों के चक्कर में होते हैं! के हैं—चक्कर में होना ही पडता है। अरे, जवानों को होना पड़ता है, तो को की तो बात ही क्या!
तो इस बुढ़ापे में जवान स्त्री ने जो कहा, वह मान लिया! यह भी अत्यंत मूर्च्छा की बात थी।
और राम हैं परंपरा के पूजक।रघुकुल रीति सदा चलि आयी।वे तो रघुकुल की रीति—रीति और रिवाज, परंपरा——उसके पोषक हैं। तो अन्याय हो, तो भी चलेगा। अन्याय के संबंध में भी बगावत नहीं है, विद्रोह नहीं है। और जहां अन्याय को पूजनेवालों को पूजा जाता हो, फिर स्वभावत: उस देश का दुर्भाग्य सुनिश्चित है।
वे अतीत के प्रतीक हैं—राम।
लक्ष्मण भविष्य के लिये आतुर हैं। तुम्हें याद होगा : स्वयंवर जब सीता का रचा गया, तो लक्ष्मण उचक—उचक पड़ते हैं! उनको रोकना पड़ता है, बार—बार। वे धनुष तोड्ने को एकदम आतुर हो रहे हैं। वे इसकी फिक्र नहीं करते कि बडे भैया मौजूद्र हैं—इनका भी कुछ खयाल करें! ऋषिए—मुनि उनको रोकते है—कि रुको। इन ऋषि—मुनियों का काम भी खूब है! अरे, तोड लेने दो बेचारे को, तोड़ना है तो! मगर उनको रोकते हैं कि तू मत तोडना!
वे एकदम आगे के लिए आतुर हैं; भविष्योन्यूख हैं। जल्दबाजी में हैं।
राम हैं अतीत उन्‍मूख। और सीता है' दोनों के मध्य में। और वह कोमल सी सीता—वहीं है वर्तमान।
इस सूत्र मै वर्तमान के लिए जो शब्द उपयोग हुआ है— वर्तमान निमेष—निमिष —मात्र! 'निमिष' शब्द कों समझना उपयोगी है। निमिष उस हिस्से को कहते हैं समय के, जिसको तोला —न जा सके र मापा न जा सके—सैकेंड नहीं, मिनट नहीं। निमिष का अर्थ होता है, जो —तुलना के बाहर है, इतना छोटा है! जैसे कि भौतिकशास्त्री कहते हैं कि परमाणु का जब विस्फोट करते हैं और इलेक्ट्रान हमारे हाथ लगते हैं, तो उनमें कोई वजन नहीं; वे तोले नहीं जा सकते। जो तोला नहीं जा सकता, उसको तो पदार्थ ही नहीं कहना चाहिये।
अंग्रेजी में शब्द है पदार्थ के लिए 'मैटर'। मैटर शब्द बडा महत्वपूर्ण है। पदार्थ से ज्यादा महत्वपूर्ण शब्द है। क्योंकि पदार्थ का तो अर्थ होता है—जिस पद में अर्थ हो।मैटर' बनता है 'मीटर' से। मीटर यानी जिससे तोला जाये, जो तुल जाये। मैटर का अर्थ होता है—जो तोला जा सकता है। लेकिन इलेक्ट्रान तो तोला नहीं जा सकता, मापा नहीं जा सकता—न तराजू पर, न इंच फिटों में; कोई उपाय नहीं है। इतना छोटा है, कि हमारे तोलने के साधन सब मोटे हो जाते हैं, सब स्थूल रह जाते हैं। वह हमारी तुलना के बाहर हो जाता है। ऐसे ही समय के उस अंतिम हिस्से को निमिष कहते हैं; जो तुलना के बाहर है, जो तोल के बाहर है; जिसकी कोई मात्रा नहीं होती; जो आया—और गया! जो आया नहीं, कि गया नहीं!
दो शिकारी, नये—नये, शिकार खेलने गये थे, दोनों बड़े तत्पर थे बिलकुल बंदूक लिये हुए और तभी एक खरगोश छलांग लगाया; एक झाड़ी से दूसरी झाड़ी में चला गया। दोनों बिलकुल तत्पर थे, लेकिन फिर भी चूक गये। एक ने दूसरे से पूछा कि 'मामला क्या हुआ? मैं भी तैयार, तुम भी तैयार; बंदूक के घोड़ों पर हाथ रखे थे; हुआ क्या? बात क्या हुई?'
उस दूसरे शिकारी ने कहा, मैं कहूं का! जब खरगोश निकल गया, तब मुझे दिखाई पड़ा! इतनी तेजी से निकला कि जब निकल रहा था तब तो मैं चूक ही गया। जब निकल गया, तब मुझे याद आयी कि अरे! मगर तब तक तो देर हो चुकी थी! तब तो गोली चलाने का कोई अर्थ ही न था।
ऐसा निमिष है। तुम्हें जब दिखाई पड़ता है, तब तक जा ही चुका होता है। जैसे ही तुम्हें याद आती है—यह वर्तमान! गया। अतीत हो गया। पहचाना—कि अतीत हो गया। सिर्फ जीया जा सकता है—जाना नहीं जा सकता। या कि यूं कहो कि जीना ही जानने का एक मात्र उपाय है। क्योंकि तुमने अगर जानने की कोशिश की, तो अतीत हो जायेगा। या अगर जल्दबाजी की, तो भविष्य रहेगा। अगर जरा—सी देर की, तो अतीत हो जायेगा। और देर करनी ही पड़ेगी, क्योंकि मन में इतनी गति नहीं है।
यूं तो मैंने सुना है .बहुत कि मन की बहुत गति है, मगर वह जो वर्तमान का क्षण है—मन से भी बहुत तीव्र गति से जाता है। मन उसके सामने कुछ भी नहीं। बहुत पिछड़ जाता है।
यह सूत्र संन्यास की आध्गरशिला है।भविष्य नानुसन्धते...........।न तो भविष्य का अनुसंधान करना; दौड़ना मत भविष्य के पीछे। यह भविष्य बस, स्वर्ण—मृग है। मगर हम सब दौड़ रहे हैं भविष्य के पीछे। अलग—अलग स्वर्ण—मृग हैं। कोई धन के पीछे, कोई पद के पीछे, कोई मोक्ष के पीछे, कोई परमात्मा के पीछे—मगर भागे हुए हैं लोग! कोई 'यहां' नहीं है। सब की आख 'वहां' टिकी हैं। और होना है 'यहां' और आंखें हैं वहां! इसलिए तुम्हारे और तुम्हारी आख में ही तालमेल नहीं हो पाता; उन दोनों में ही टूट हो जाती है। चलते हो कहीं, देखते हो कहीं!
यूनान की बड़ी प्रसिद्ध कथा है। एक बहुत बड़ा ज्योतिषी रात तारों का अध्ययन करता हुआ एक कुंए में गिर पड़ा। कुंए पर कोई घाट न था, कोई पाट न था। और उसकी आंखें अटकी थीं दूर आकाश के तारों पर। तो गिर पड़ा कुंए में। जब गिर पडा, तब होश आया। चिल्लाया।
रात थी अंधेरी, रास्ता निर्जन, गांव पीछे छूट गया। वह तो खेत में एक झोपड़े में रात और कोई तो न था, एक बूढ़ी औरत सोयी थी। वह भी रखवाली के लिए थी। आवाज सुनी तो आयी। बामुश्किल उस वृद्धा ने रस्सी डालकर उस ज्योतिषी को बाहर निकाला।
ज्योतिषी ने उसे बहुत—बहुत धन्यवाद दिया, बहुत अनुग्रह किया और कहा कि 'सुन, तुझे शायद पता भी न हो' कि मैं यूनान का सब से बड़ा ज्योतिषी हूं। तारों के संबंध में और तारों के माध्यम से मनुष्य के भविष्य के संबंध में मेरी घोषणाएं कभी गलत नहीं हुईं। बड़े—बड़े सम्राट दूर—दूर से अपना भविष्य पूछने मेरे पास आते हैं। हजारों रुपया मेरी फीस है। लेकिन तेरा भविष्य मैं मुफ्त बता दूंगा, क्योंकि तूने मेरा जीवन बचाया।
वह की स्त्री हंसने लगी। उसने कहा, 'बेटा, तू फिक्र मत कर। मैं तुझे कष्ट न दूंगी।
उसने कहा, 'नहीं—नहीं। कष्ट की कोई बात नहीं। तू कल आ जाना। यह मेरा पता रहा। तो तू किसी से भी पूछ लेगी एथेंस में, तो कोई भी मेरे घर का पता बता देगा। बच्चा—बच्चा जानता है।
'पर', उस बुढ़िया ने कहा, 'मुझे आना नहीं बेटा। तुझसे क्या अपना भविष्य पूछूंगी! तुझे एक कदम आगे का कुंआ तो दिखाई पड़ता नहीं! तू मेरे संबंध में क्या बतायेगा! तुझे अपना भविष्य पता नहीं है कि आज कुंए में गिरना है; कि आज जरा सम्हलकर चलूं कि आज चलूं ही नहीं—कि घर में ही रहूं। तू मुझे क्या भविष्य बतायेगा!'
और कहानी अद्भुत है, क्योंकि उस ज्योतिषी को इससे इतनी चोट लगी और बात इतनी साफ हो गयी कि उसने ज्योतिषी का धंधा छोड़ दिया। बात तो सच थी।
ऐसा हुआ : जयपुर में मेरे पास एक ज्योतिषी को लोग ले आये। एक हजार एक रुपया उनकी फीस थी। उससे कम वे हाथ भी नहीं देखते थे। मुझसे बोले कि ' आपको मेरी फीस पता है?'
मैंने कहा, 'जो भी फीस होगी...........।
उन्होंने कहा, 'नहीं। मैं आपको बता दूं। एक हजार एक।
मैंने कहा, 'तुम फिक्र छोड़ो। मैं एक हजार दो दूंगा! अब तुम आ ही गये हो; इतना कष्ट किये, तो खाली हाथ जाना उचित नहीं। तुम मजे से मेरे हाथ का अध्ययन करो।
कुछ बातें यहां—वहां की उन्होंने कीं, जो कि बंधी हुई बातें हैं, जो कि ज्योतिषी सभी को कहते हैं, जो कि सभी के संबंध में सही होती हैं। थोड़ा बहुत हेर फेर करना पड़ता है। और बातें इस ढंग से कहनी होती हैं कि उनमें हेर फेर करने की सुविधा होती है; गोलमाल करनी होती है।
फिर चलने का वक्त आया, तो वे राह देखें कि उनकी फीस मिले! मैंने कहा, 'अब आप जाइये भी। मैं कुछ और काम करूं!'
उन्होंने कहा, 'मैं तो जाऊं, लेकिन मेरी फीस!'
मैंने कहा, 'यह तो आपको पहले ही सोच लेना था! अपना हाथ देखकर घर से निकलना चाहिये!'
उन्होंने कहा, ' आपका मतलब?'
मैंने कहा, 'मेरा मतलब यह है कि मैं तो फीस देनेवाला नहीं हूं। तुम्हें मेरा हाथ देखते से समझ लेना था कि इस आदमी से फीस नहीं मिलनेवाली! सच तो यह है, कि तुमने मेरा इतना समय खराब किया, इसकी फीस तुम मुझे दो। और तुम निपट बुद्धहो, क्योंकि तुम्हें यह भी पता नहीं कि आज किसका हाथ देखने जा रहे हो; उससे फीस मिलनेवाली नहीं है!'
लेकिन यह ज्योतिषी एथेंस के उस ज्योतिषी जैसा बुद्धिमान नहीं था। मैंने सुना, वे अभी भी वहीं धंधा कर रहे हैं! उस एथेंस के ज्योतिषी ने तो धंधा छोड़ दिया। बात तो साफ हो गई कि मेरी आंखें तारों पर अटकी हैं; मुझे एक कदम आगे का तो पता नहीं चलता; कुंए में गिर जाता हूं क्या जानूंगा भविष्य!
भविष्य वह है जो जाना ही नहीं जाता और अतीत वह है जो जाना गया है। तो तुम भविष्य के संबंध में जो दौड़धूप करते हो, आपाधापी करते हो, वह अतीत के ही आधार पर करते हो। अतीत से ही सीढ़िया बनाते हो। और इन दोनों के बीच में वह निमिषमात्र छोटा—सा पल है, जो भागा जा रहा है—इतनी तेजी से कि अगर तुम अतीत और भविष्य में उलझे रहे, तो उससे चूकते ही जाओगे, चूकते ही जाओगे। और वही है सत्य।
भविष्य नानुसन्धते नातीत चिन्तयत्यसौ।...........
और न अतीत की चिन्ता। जो बीत गया—बीत गया। अब उधेड़बुन क्या! अब उसको अन्यथा तो किया नहीं जा सकता। अब तुम लाख उपाय करो, तो भी रत्तीभर उसे बदला नहीं जा सकता। जिसे बदला ही नहीं जा सकता, उसके संबंध में चिन्ता कैसी! क्यों समय खराब कर रहे हो उसके संबंध में? और जो आया नहीं है अभी—अभी कुछ किया नहीं जा सकता। और हम दोनों में ही उलझे हैं। इन दोनों का नाम संसार है।
संसार बाजार नहीं है—न दुकान है, न परिवार है। अतीत और भविष्य—इनका जो विस्तार है...........। अतीत अर्थात स्मृति; भविष्य अर्थात कल्पना। इन दोनों के बीच में तुम मरे जा रहे हो। यही तुम्हारा संसार है।
मैं भी अपने संन्यासियों से कहता हूं कि संसार छोड़ो, लेकिन उस संसार को छोडने को नहीं कहता, जिसको पुराने संन्यासी छोड्कर भागते रहे हैं। वे तो भगोड़े हैं। वे तो पलायनवादी हैं। वे तो कायर हैं। उन्होने तो पीठ दिखा दी। उन्होंने तो जीवन का अवसर खो दिया।
मैं कहता हूं : इस संसार को छोडो—मन संसार है। अतीत, भविष्य संसार है—इसको छोड़ दो; और वर्तमान में जीओ—अभी—यहीं।
थोड़ा सोचो, इस सौन्दर्य को, इस अपूर्व प्रसाद को—यहीं और अभी होने को। सब जैसे ठहर जाये। अतीत नहीं भविष्य नहीं, तो वह जो ठहराव है, वह जो थिरता है—वही ध्यान है, वही संन्यास है। उस थिरता में निर्मलता है, निर्दोशता है। उस थिरता में अहोभाव है, आश्चर्य है, रहस्य है। उस थिरता में परमात्मा का दर्शन है, मुक्ति है, निर्वाण है।
और योगवासिष्ठ का यह सूत्र इसलिये और भी महत्वपूर्ण है, इससे तुम्हें जाहिर होगा कि यह मेरे संन्यास की परिभाषा ही हो सकती है—पुराने संन्यास की परिभाषा नहीं। क्योंकि पुराना संन्यासी तो न केवल भविष्य की सोच रहा है...........। साधारण संसारी से तुम्हारा संन्यासी तो और भी बडे भविष्य की सोच रहा है! मृत्यु के बाद क्या होगा; स्वर्ग में क्या होगा! कितने स्वर्ग हैं? मोक्ष मिलेगा कि नहीं मिलेगा? किन पुण्यों के करने से स्वर्ग में प्रवेश मिलेगा? परमात्मा की उपलब्धि कब होगी?
धन की दौड तो यहीं है; उसकी तो सीमा है—मौत। मगर यह जो मोक्ष की और परमात्मा की और ब्रह्म— अनुभव की खोज में दौड़ रहा है, इसकी तो कोई सीमा ही नहीं। इसका भविष्य तो बडा असीम है! यह तो और भी बड़ा संसारी है, मेरे हिसाब से; क्योंकि इसका तो मन और भी बड़ा है। और तुम्हें तो इसी जन्म की फिक्र है। मगर यह तुम्हारा जो संन्यासी है, इसको पिछले—पिछले जन्मों की भी
फिक्र पड़ी है, कि पिछले जन्मों में जो पाप किये थे, कर्म किये थे, उनका भी निपटारा करना है उनका भी हिसाब करना है।
तुम्हारा भविष्य भी सीमित है—और अतीत भी। अतीत तुम्हारा जन्म से अब तक; और भविष्य तुम्हारा अब से मृत्यु तक। कोई बहुत ज्‍यादा नहीं! सत्तर साल जियोगे, तो समझ लो कि आया भविष्य—आधा अतीत। अगर पैंतीस साल की उम्र है अभी, अगर अभी बीच में खड़े हो तो। मगर तुम्हारा जो संन्यासी है, जिसको तुम धार्मिक कहते हो, उसकी मुसीबत तो सोचो! वह तो कह रहा है : चौरासी करोड़ योनियों में होकर आया हूं! चौरासी करोड़ योनियों में उन्होंने क्या—क्या काम नहीं किये होंगे! उन सब का हिसाब, उन सब का निपटारा करना है! एक—एक रत्ती—रत्ती कृत्य का चुकतारा करना होगा। इसका अतीत तो बहुत बड़ा है! यह तो कभी सुलझ पायेगा, इसकी संभावना न समझो। इतने उलझाव को कैसे सुलझायेगा?
और उलझाव आदमी का ही नहीं है; सब तरह के जानवरों का है। यह मछली भी रहा; यह केंचुआ भी रहा। अब इसने क्या—क्या उपद्रव न किये होंगे!
मैंने सुना है : एक केंचुए ने एक दूसरे केंचुए को देखकर कहा, अहा! पहली नजर का प्रेम इसको कहते हैं! मुझे तो तुझसे प्रेम हो गया!
दूसरे केंचुए ने कहा : 'अरे मूरख, मैं तेरा ही दूसरा हिस्सा हूं! 'नाहक की बकवास न कर!' क्योंकि केंचुए के दो मुंह होते हैं। वह उन्हीं का दूसरा हिस्सा था। उसने कहा, 'मूरख, व्यर्थ की बकवास न कर!'
अब केंचुए भी रहे होओगे। न मालूम कैसी—कैसी नजरों के प्रेम हुए होंगे! कभी—कभी खुद से भी प्रेम हुआ होगा। खुद ही से प्रेम के वार्तालाप हो गये होंगे। जंगली जानवर भी रहे होओगे। क्या—क्या नहीं रहे होओगे! चौरासी करोड़ योनियों में सब तो आ गया होगा। पत्थर से लेकर आदमी तक की लंबी यात्रा—इस सब का हिसाब किताब करना है। इसलिए तो तुम्हारा साधु इतना उदास हो जाता है! इतना चिंतित हो जाता है; इतना व्यथित हो जाता है। न दिन चैन, न रात चैन। कहां विश्राम उसे! और मैं बात कर रहा हूं—अनहद में बिसराम की। उसको कहां विश्राम? उसको तो उधेड़बुन ही उधेड़बुन है।
और फिर उसका भविष्य यहीं खत्म नहीं होता; मौत पर कोई समाप्ति नहीं होती। फिर आगे चलते ही जाना है। इन दोनों अनंत यात्राओं के बीच में उसका निमिष—पल मन्त्र का जो वर्तमान है, वह तो यूं दबकर पिस जायेगा कि जैसे दो चट्टानों के बीच में किसी ने जुही के फूल को दबा दिया हो! पता भी न चलेगा.। कभी खबर भी न मिलेगी।
नहीं। यह सूत्र मेरे ही संन्यास की बात कर रहा है।
छोडो अतीत को; छोड़ो भविष्य को।
और दूसरी बात भी मेरे संन्यासियों पर ही लागू हो सकती है : 'वर्तमान निमेषंतु हसन्नेवानुनर्तते 'हंसो। आनंदित होओ। प्रफुल्लित होओ। मग्नचित्त होकर जीओ। यह तो पुराने संन्यासी पर लागू नहीं हो सकता।
'हंसते हुए वर्तमान में जीना।पुराना संन्यासी तो कहेगा कि यह योगवासिष्ठ भी भ्रष्ट है। मैं तो भ्रष्ट हूं ही।
योगवासिष्ठ को लोग पढ़ते रहते हैं, लेकिन इसके अर्थ को नहीं समझते। न मालूम कितने शास्त्रों को पढ़ते रहते हैं, जिनके अर्थ नहीं समझते। अगर उनको अर्थ समझ में आ जाएं, तो बहुत चौंकें। बहुत हैरानी उन्हें हो। क्योंकि उनकी जीवन धारणाओं में, और उन शास्त्रों के मौलिक अर्थों में भेद होगा। होना ही चाहिये। क्योंकि शास्त्र तो उनसे जन्मे हैं, जिन्होंने जाना।
अब जिसने जाना है, उसने यह बात कही होगी। अज्ञानी तो नहीं कह सकता। वर्तमान के क्षण में जो मस्त होकर जी रहा है...........। अलमस्त, प्रमुदित, प्रफुल्लित। जिसका रोआं—रोआं नृत्य में लीग है, और जिसके कण—कण मैं गीत उठ रहा है—वैसा व्यक्ति ही संन्यासी है।
लेकिन तुम्हारे तथाकथित संन्यासियों को तुम देखो। उनकी शकलों पर बारह बज रहे हैं! हमेशा मातमी! हंसना तो जैसे सदियों से भूल गये हैं। और हंसे भी तो कैसे हंसे? चौरासी करोड़ योनियों का बोझ! कितना हिसाब—किताब निपटाना है! कर्मों के कितने जाल इकट्ठे हो गये हैं, और रोज होते जा रहे हैं। और रोज भूल पर भूल होती जा रही है। और अभी आगे भी बहुत यात्रा पड़ी है। धूल यूं ही बहुत जम गयी है और अभी यात्रा बहुत शेष है! और धूल जमेगी।
उनका संकट तो देखो! उनके प्राण कैसी विडम्बना में न पड़े होंगे! कहां हंसे, कैसे हंसे? हंस तो वही सकता है, जिसका कोई अतीत नहीं, कोई भविष्य नहीं—वर्तमान ही जिसके लिए सब कुछ है। उसके लिए क्या चिंता, क्या बोझ, क्या पीडा, कत मातम? उसके लिए जीवन उत्सव है।
निश्चित ही, सहजानंद! योगवासिष्ठ का यह श्लोक मैं जो कहता हूं उसकी तरफ ही इशारा है; और बहुत स्पष्ट इशारा है। जिसने भी कहा होगा, वह जाननेवाला रहा होगा, वह बुद्ध पुरुष रहा होगा।
शास्त्रों के संबंध में एक बात खयाल रखना, क्योंकि पुराने शास्त्र एक व्यक्ति के द्वारा लिखे हुए नहीं हैं; अनेक व्यक्तियों के द्वारा लिखे हुए हैं। उनमें चीजें जुड़ती चली गयीं। वे सब संहिताएं हैं। नये—नये लोग होते गये, नयी—नयी बातें जोड़ते चले गये। तो उनमें कभी—कभी अज्ञानियों ने भी जोड़ दिया है बहुत कुछ। ज्ञानियों के साथ—साथ अज्ञानियों के शब्द भी उनमें मिल गये हैं। इसलिए तुम्हें मेरी बातों में कई बार विरोधाभास मिलेगा।
योगवासिष्ठ के इस सूत्र का मैं समर्थन करूंगा। और तब तुम्हें अड़चन होती है, क्योंकि तुम्हें हैरानी यह होती है कि जब योगवासिष्ठ का एक सूत्र मैंने ठीक कहा, तो सब सूत्र ठीक होने चाहिए। सब सूत्र ठीक नहीं हो सकते, क्योंकि सब सूत्र एक ही ऊर्जा से पैदा नहीं हुए हैं।
वेद के एक सूत्र का मैं समर्थन कर दूंगा और दूसरे सूत्र का विरोध करूंगा। और उतने ही बलपूर्वक विरोध करूंगा, जितने .बलपूर्वक मैंने पहले का समर्थन किया था। और तुम विरोधाभास देखते हो, तो तुम्हारी भूल है। कहीं कोई विरोधाभास नहीं है।
संहिताएं हैं ये।........... बुद्ध के नाम से इतने शास्त्र हैं कि असंभव है यह कि एक व्यक्ति ने इतने शास्त्र लिखें हों या कहे हों। व्यास के नाम से इतने शास्त्र हैं कि असंभव है यह कि एक व्यक्ति ने इतने शास्त्र लिखे हों या कहे हों। व्यास का नाम स्वीकृत नाम हो गया; साख हो गई नाम की, तो जिसको भी अपनी किताब चलानी हो, वह व्यास का नाम उस पर लिख देता था! छपती तो थी नहीं किताबें; लिखी जाती थीं हाथ से। कोई कापीराइट तो थे नहीं उन दिनों। कोई सरकारी नियंत्रण था नहीं। तुम भी किताब लिखकर अगर उसको लिख दो—'व्यास रचित' तो कोई कुछ कर नहीं सकता था। तुमने चला दी व्यास की एक .और किताब! लेकिन व्यास के नाम की साख थी; साख का फायदा उठा लेना अच्छा था। तुम अपने नाम से लिखोगे, कोन पढ़ेगा! कोन सुनेगा? कोन मानेगा? लेकिन व्यास की है, तो फिर तो माननी ही होगी; गलत भी हो, तो भी माननी होगी।
कितनी रामायणें हैं! वाल्मीकि से लेकर तुलसीदास तक कितने लोगों ने रामायणें लिखीं! इनमें बहुत भेद हैं। एक—दूसरे से बहुत ज्यादा अलग—अलग बातें हैं। मगर राम की कथा है; राम की कथा ही साख है, तो कोई भी लिख दे राम की कथा—चल पड़ेगी! लौग उसे सिर पर लेंगे। लोगों को फिक्र ही नहीं कि उसके भीतर क्या है!
इसलिए जब मैं किसी सूत्र का समर्थन करूं, तो खयाल रखना : उस सूत्र का समर्थन कर रहा हूं—कोई योगवासिष्ठ कै पूरे जीवन —दर्शन का समर्थन नहीं कर रहा हू,। बहुत से सूत्र हैं जिनमें मेरा कुल इतना ही विरोध है, जितना मेरा समर्थन इस सूत्र के लिए है। क्योंकि मेरे पास अपनी कसौटी है। मुझे किसी शास्त्र से न कुछ लेना है, न देना है। मेरी कसौटी पर जो ठीक उतरेगा, वह ठीक। जो ठीक नहीं उतरेगा—वह नहीं ठीक। सोने को सोना कहूंगा; मिट्टी को मिट्टी कहूंगा। फिर वह चाहे योगवासिष्ठ में ही रखी मिट्टी क्‍यों न हो। और सोना अगर कचरे में भी पड़ा हो, तो भी उसे सोना ही कहूंगा।
इसलिए तुम्हें मेरी बातों में बहुत बार विरोधाभास दिखाई पड़े तो जल्दी मत कर लेना; सोचना—कारण होगा कुछ। जैसे इस सूत्र में तो मैं कोई शर्त न लगाऊंगा; बेशर्त स्वीकार करूंगा। यह तो मेरी ही बात है; यही तो मैं रोज कह रहा हूं तुमसे : कि क्षण में जीना सीखो; पल में जीना सीखो। अगर चाहते हो कि तुम्हारे जीवन में आनंद के फूल खिले; सुवास उड़े महोत्सव की; और परमात्मा तुम्हें घेरकर तुम्हारे साथ मदमस्त हो उठे—तो इतना ही करना जरूरी है। यही ध्यान की पूरी प्रक्रिया है। अतीत से अपने को छुडा लो। और अतीत ने तुमको नहीं पकडा है। तुमने अतीत को पकड़ा है इसलिए जब चाहो छोड़ दे सकते हो। और वर्तमान मौजूद है, कहीं खोजने जाना नहीं है। और भविष्य है ही नहीं; छोड़ने में क्या अड़चन है!
लेकिन बड़े अजीब लोग हैं—जो नहीं है, उसको भी छोड़ने में मुश्किल होती है! मुट्ठी खाली है, मगर उसको खोलने में डर लगता है कि कहीं खाली दिखाई न पड जाए! बांधे रहो तो कम से कम भरोसा तो बना रहता है कि कुछ होगा, तभी तो बंधे हुए हैं!
लोग अपनी मुट्ठी भी खोलने में डरते हैं कि कहीं खाली दिखाई न पड़ जाए! मगर तुम्हारी मुट्ठी है, तुम्हें पता ही है कि खाली है; खोलो या न खोलो।
भविष्य है नहीं; छोड़ने का सवाल नहीं। अतीत जा चुका है; छोडने का सवाल नहीं; छूट ही चुका है। जो है, उसे तुम छोड़ना भी चाहो तो छोड़ नहीं सकते हो। मगर कैसा उपद्रव है कि 'नहीं' के साथ उलझे हो और 'है' से चूक रहे हो। और जो है, वह परमात्मा का ही दूसरा नाम है।

 'अनहद में बिसराम' प्रवचनमाला से
दिनांक 14 नवम्बर 1980; श्री रजनीश आश्रम पूना

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