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बुधवार, 9 सितंबर 2015

प्रभु की पगड़ंडियां--(प्रवचन--07)

प्रभु—मंदिर का चौथा द्वार: उपेक्षा—(प्रवचन—सातवां)

दिनांक 3 दिसम्‍बर, 1968; रात्री
ध्‍यान—शिविर नारगोल
प्रभु के मंदिर के चौथे द्वार पर हम खड़े हो गए हैं। उस द्वार पर लिखा है उपेक्षा, इनडिफरेंस। करुणा, मैत्री और मुदिता के बाद जो द्वार पार करना होता है साधक को, वह द्वार है उपेक्षा। और बड़ी कठिनाई होगी यह समझने में कि करुणा, मैत्री और मुदिता सीख लेने के बाद उपेक्षा का, इनडिफरेंस का क्या अर्थ हो सकता है?
परमात्मा की दिशा में जो गतिमान होना चाहते हैं, उन्हें निश्चित ही परमात्मा से विरोधी, जो कुछ है उसके प्रति उपेक्षा का भाव ग्रहण करना होता है। सत्य की दिशा में जो जाना चाहते हैं उन्हें जो असत्य है उसके प्रति उपेक्षा का भाव ग्रहण करना होता है। सार की जो खोज में लगे हैं, असार के प्रति उन्हें उपेक्षा दिखानी पड़ती है।
इन तीन द्वारों को पार कर लेने के बाद भी मनुष्य के मन के आस—पास बहुत कुछ व्यर्थ कचरा—कूड़ा इकट्ठा रह जाता है। उस सारे कूड़े—करकट को भी इस चौथे द्वार के बाहर ही छोड़ देना होता है, क्योंकि परमात्मा के पास कुछ भी लेकर नहीं जाया जा सकता है—परिपूर्ण खाली और शून्य होकर जाना होता है। यहां अंतिम वस्त्र भी छोड़ देने होते हैं।
चौथे द्वार पर सब—कुछ छोड़ देना होता है— सारे वस्त्र, सारे मुखौटे, सारा व्यक्तित्व जिसे हमने कल तक मूल्यवान समझा था, जिसे कल तक हमने संवारा, सजाया था, जिसे कल तक हमने बहुत आयोजन से संगृहीत किया था। वह सारा का सारा व्यक्तित्व चौथे द्वार के बाहर ही छोड़ देना होता है। सब—कुछ छोड़ कर ही उस चौथे द्वार में प्रवेश मिलता है, इसलिए यह उपेक्षा की अग्नि में वह सब—कुछ जला देना होता है जो असार है, जो व्यर्थ है, जो हमें घेरे हुए है।
उपेक्षा नकारात्मक है। जिन तीन द्वारों की हमने बात की वे विधायक थे, पाजिटिव थे। वे तीन द्वार करुणा, मैत्री, मुदिता, तीनों ही विधायक गुण थे। उपेक्षा कोई विधेयक गुण नहीं है। वे तीनों गुण भीतर से प्रकट करने के लिए थे। यह चौथा गुण भीतर से प्रकट करने को नहीं है। यह तो हमारे बाहर जो व्यर्थ, असार इकट्ठा हो जाता है जन्म—जन्म की यात्रा में, उस सबके निषेध के लिए है, उस सबको छोड़ देने के लिए है।
चौथा यह द्वार अत्यंत निगेटिव, अत्यंत नकारात्मक है। जैसे स्वर्ण को शुद्ध और निखर आने के पहले अग्नि से गुजरना पड़ता है, ताकि जो व्यर्थ है, जो स्वर्ण नहीं है वह जल जाए और स्वर्ण पूरी तरह शुद्ध हो सके। वैसे ही अंतिम घड़ी में उपेक्षा की अग्नि से साधक को निकलना पड़ता है, ताकि जो व्यर्थ है वह छूट जाए, नष्ट हो जाए। और जो नष्ट नहीं हो सकता है, नहीं छूट सकता है, केवल वही शेष रह जाए।
अग्नि से गुजरने पर स्वर्ण को पता चलता है कि मेरे भीतर कुछ है जो नष्ट नहीं हो सकता है और कुछ था जो नष्ट हो गया है। जो नष्ट हो गया है वह स्वर्ण नहीं था—वह मेरा स्वभाव नहीं था, वह मेरी आत्मा नहीं थी। जो बच रहा है वही मैं हूं। अग्नि से गुजर कर ही शात होता है कि क्या है मेरे भीतर सत्य और क्या था मेरे भीतर व्यर्थ। उपेक्षा, पूर्ण उपेक्षा से गुजर कर ही शात होता है— जो बचा रहता है वही परमात्मा तक जा सकता है और जो जल जाता है और समाप्त हो जाता है, राख हो जाता है, वह द्वार पर छूट जाता है।
उपेक्षा का क्या अर्थ है? इस अर्थ को समझाने के पहले मैं एक कहानी कहूं ताकि वह अर्थ खयाल में आ सके।
जापान का एक छोटा सा गांव था। उस गांव में आया था एक संन्यासी, एक युवा संन्यासी। बहुत सुंदर, बहुत स्वस्थ, बहुत महिमाशाली। उसकी प्रतिभा का प्रकाश शीघ्र ही दूर—दूर तक फैल गया। उसकी सुगंध बहुत से लोगों के मन को लुभा ली। गांव का वह प्यारा हो गया। वर्ष बीते, दो वर्ष बीते, वह उस गांव का प्राण बन गया। उसकी पूजा ही पूजा थी।
लेकिन एक दिन सब उलट हो गया। सारा गांव उसके प्रति निंदा से भर गया। सुबह ही थी अभी, सर्दी के दिन थे। सारा गांव उस फकीर के झोपड़े की तरफ चल पड़ा। उन्होंने जाकर उस फकीर के झोपड़े में आग लगा दी। वह फकीर बैठा हुआ था बाहर, धूप लेता था। वह पूछने लगा, क्या हो गया है, क्या बात है, आज सुबह ही सुबह इतनी भीड़, आज सुबह ही सुबह इस झोपड़े पर आग लगा देना? हो क्या गया है, बात क्या है?
भीड़ में से एक आदमी आगे आया और एक छोटे से बच्चे को लाकर उस संन्यासी की गोद में पटक दिया और कहा हमसे पूछते हो बात क्या है? इस बच्चे को पहचानो!
उस संन्यासी ने गौर से देखा और उसने कहा अभी मैं अपने को ही नहीं पहचानता तो इस बच्चे को कैसे पहचान सकूंगा? कौन है यह बच्चा, मुझे पता नहीं है!
लेकिन भीड़ हंसने लगी और पत्थर फेंकने लगी और कहा बहुत नादान और भोले बनते हो। इस बच्चे की मां ने कहा है कि यह बच्चा तुमसे पैदा हुआ है और इसलिए हम सारे गांव के लोग इकट्ठे हुए हैं। हमने तुम्हारी जो प्रतिमा बनाई थी वह खंडित हो गई। हमने तुम्हें जो पूजा दी थी वह हम वापस लेते हैं और इस नगर में हम तुम्हारा मुंह दुबारा नहीं देखना चाहेंगे।
उस संन्यासी ने उनकी तरफ देखा। उतनी प्यार से भरी हुई आंखें—उसकी आंखें तो सदा ही प्यार से भरी हुई थीं, लेकिन उस दिन उसका प्यार देखने जैसा था। लेकिन वे लोग नहीं पहचान सके उस दिन उस प्यार को, क्योंकि वे इतने क्रोध से भरे थे कि प्यार की खबर उनके हृदय तक नहीं पहुंच सकती थी। नहीं पहचान सके उस दिन उन आंखों को जिनसे करुणा छलकी पड़ती थी, क्योंकि अंधे सूरज को कैसे देख सकते हैं? सूरज खड़ा रहे द्वार पर और अंधे वंचित रह जाते हैं। उस दिन वे अंधे थे क्रोध में, निंदा में। उस दिन नहीं दिखाई पड़ा उस संन्यासी का प्रकाश।
वह संन्यासी हंसने लगा। फिर वह बच्चा रोने लगा था जो उसकी गोद में गिर पड़ा था। वह उस बच्चे को समझाने लगा। और उन लोगों ने पूछा कहो, यह तुम्हारा बच्चा है? है न?
उस संन्यासी ने सिर्फ इतना कहा: इज इट सो? ऐसी बात है? आप कहते हैं तो ठीक ही कहते होंगे। फिर वे गांव के लोग वापस लौट गए।
फिर दोपहर वह संन्यासी भीख मांगने उस गांव में निकला। कौन देगा उसे भीख लेकिन? वे लोग जो उसके चरण छूने को लालायित होते थे, वे लोग जो उसके चरणों की धूल उठा कर माथे से लगाते थे, उन्होंने उसे देख कर अपने द्वार बंद कर लिए। लोगों ने उसके ऊपर यूका, पत्थर और छिलके फेंके। और वह संन्यासी चिल्ला—चिल्ला कर उस गांव में कहने लगा कि होगा कसूर मेरा, लेकिन इस भोले बच्चे का कोई कसूर नहीं। कम से कम इसे दूध तो मिल जाए। लेकिन यह गांव बहुत कठोर हो गया था। उस गांव में उस बच्चे को भी दूध देने वाला कोई न था। फिर वह उस घर के सामने जाकर खड़ा हो गया जिस घर की लड़की ने यह कहा था कि यह बच्चा संन्यासी से पैदा हुआ है। वह वहां चिल्लाने लगा कि कम से कम इस बच्चे के लिए दूध मिल जाए।
वह लड़की आई बाहर और अपने पिता के पैरों पर गिर पड़ी और उसने कहा क्षमा करना! इस संन्यासी से मेरा कोई भी संबंध नहीं है। मैंने तो इस लड़के के असली बाप को बचाने के लिए संन्यासी का झूठा नाम ले दिया था। भीड़ इकट्ठी हो गई। बाप उस संन्यासी के पैर पर गिरने लगा और कहने लगा लौटा दें इस बच्चे को। नहीं—नहीं, यह बच्चा आपका नहीं है।
वह संन्यासी पूछने लगा इज इट सो? नहीं है मेरा? ऐसा है क्या, मेरा नहीं है यह बच्चा?
वे लोग कहने लगे तुम हो कैसे पागल! तुमने सुबह ही क्यों न कहा कि यह बच्चा मेरा नहीं है।
वह संन्यासी कहने लगा इससे क्या फर्क पड़ता है। बच्चा किसी का तो होगा। इससे क्या फर्क पड़ता है कि बच्चा किसका है। बच्चा बच्चा है, इतना ही साफ है, इतना ही काफी है। और इससे क्या फर्क पड़ता था, तुमने एक झोपड़ा तो जला ही दिया था और एक आदमी को तो गालियां दे ही चुके थे। अब मैं और कहता कि मेरा नहीं है, तो तुम एक झोपड़ा शायद और जलाते, किसी एक आदमी को और गालियां देते। उससे फर्क क्या पड़ता था?
पर वे लोग कहने लगे तुम हो कैसे पागल! तुम्हारी सारी इज्जत मिट्टी में मिल गई और तुम चुपचाप बैठे रहे जब कि बच्चा तुम्हारा नहीं था।
वह संन्यासी कहने लगा. उस इज्जत की अगर हम फिकर करते तो चौथे दरवाजे पर ही रुक जाते। नहीं उस इज्जत की कोई चिंता नहीं है, उसकी कोई अपेक्षा नहीं है। वह तुम्हारा जो आदर तुमने दिया था, हमारी तरफ से मांगा नहीं गया था और चाहा नहीं गया था। तुमने छीन लिया, तुम्हारा दिया हुआ आदर था, तुम्हारे हाथ की बात थी, न हमने मांगा था, न छीनते वक्त हम रोकने के हकदार थे। नहीं, वह कहने लगा चौथे द्वार पर हम रुक जाते। गांव के लोग पूछने लगे, कौन सा चौथा द्वार?
उसी चौथे द्वार की मैं आपसे बात कर रहा हूं। उस चौथे द्वार पर लिखा है उपेक्षा, इनडिफरेंस। जीवन में जो व्यर्थ है उसके प्रति उपेक्षा। उस युवा संन्यासी ने अदभुत उपेक्षा प्रकट की। नहीं, जरा भी चिंता न ली इस बात की कि लोग क्या कहेंगे, पब्लिक ओपिनियन, जनमत क्या कहेगा!
जो आदमी जनमत के संबंध में सोचता रहता है, वह कभी परमात्मा तक नहीं पहुंचता है, इसे स्मरण रख लेना। लोग क्या कहेंगे? इससे ज्यादा कमजोर, इस बात को सोचने से ज्यादा नपुंसक कोई वृत्ति नहीं है कि लोग क्या कहेंगे। जो लोग भी इस चिंता में पड़ जाते हैं कि लोग क्या कहेंगे, वे भीड़ के जो असत्य हैं उन्हीं असत्यों में जीते हैं और उन्हीं असत्यों में मर जाते हैं, वे कभी सत्य की खोज नहीं कर पाते हैं।
सत्य की खोज के लिए भीड़ से मुक्त हो जाना जरूरी है, वह जो क्राउड है हमारे चारों तरफ, जो भीड़ है हजारों—हजारों साल की, वह जो कलेक्टिव माइंड है, वह जो हजारों साल का बना हुआ चित्त है, वह चित्त अत्यंत असत्यों से संस्कारित है। वही जनमत बन जाता है। वही कहता है यह गलत है, यह सही है, इसे देंगे आदर, इसे नहीं देंगे आदर। जो उसके आदर की अपेक्षा करेगा, जो उससे सम्मान चाहेगा, वह सदा झूठ के गड्डे में ही बंधा रहेगा और उसी में मर जाएगा।
नहीं, जो सत्य की खोज में चले हैं उन्हें आदर की क्या अपेक्षा हो सकती है, सम्मान की क्या अपेक्षा हो सकती है? वे सत्य के लिए अपमानित हो सकते हैं, असम्मानित हो सकते हैं, लेकिन असत्य के साथ सम्मानित होने को राजी नहीं हो सकते। यह बड़ी हैरानी की बात है कि हम जनमत से कितने भयभीत लोग हैं। हजारों लोग मंदिरों में सिर्फ इसलिए जाते हैं कि आस—पास के लोग मंदिरों में जाते देख कर कहते हैं कि यह आदमी धार्मिक है। न उन्हें मंदिर में जाने से कोई प्रयोजन है, न उन्हें मंदिर में कोई अर्थ है, न मंदिर में उनके हृदय की कोई प्रार्थना गूंजती है। लेकिन आस—पास लोगों की आंखें कहती हैं कि जो आदमी मंदिर जाता है वह धार्मिक है। बस वे मंदिर चले जाते हैं और लौट आते हैं। ऐसे झूठे आदमी धर्म की दुनिया में कैसे प्रवेश कर सकते हैं? लोग कहते हैं, बस, यही उनके सारे जीवन की फिलॉसफी है कि लोग क्या कहते हैं!
लोग क्या कहते हैं? और अगर लोगों को यह सत्य मिल गया होता तो दुनिया दूसरी हो गई होती।
लोगों के हाथ में सत्य नहीं है। भीड़ के हाथ में सत्य की संपदा नहीं है। सत्य की संपदा हमेशा व्यक्ति को उपलब्ध होती है। भीड़ कभी एक साथ प्रभु के मंदिर में प्रविष्ट नहीं होती। एक—एक आदमी निजी एकांत में वहां प्रवेश करता है। तो जो आदमी भीड़ से बहुत भयभीत है वह आदमी कभी इस चौथे मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकता। चौथे द्वार को पार नहीं कर सकता। यह चौथा द्वार इसलिए बहुत कठिन है।
सारा जगत कहता हो कि यह है सत्य और अगर आपको सत्य नहीं मालूम पड़ता है, तो कर दें उपेक्षा उस पूरे जगत की, समस्त उस जनमत की—सारे जगत के कहने की, सारे जगत के कथन की। दुनिया के तीर्थंकर कहते हों, अवतार कहते हों, बुद्धपुरुष कहते हों, पैगंबर कहते हैं, लेकिन आपका विवेक नहीं कहता है, तो कर दें उपेक्षा उस सारे हजारों साल के इतिहास की और परंपरा की, तो ही आप सत्य के चौथे दरवाजे में प्रवेश कर सकते हैं, अन्यथा नहीं।
जो आदमी अपने विवेक को बेच कर और भयभीत होता है और कहता है, लोग कहते हैं इसलिए मानता हूं महावीर कहते हैं इसलिए मानता हूं बुद्ध कहते हैं इसलिए मानता हूं कृष्ण कहते हैं इसलिए मानता हूं मोहम्मद कहते हैं इसलिए मानता हूं जरथुस्त्र कहते हैं इसलिए मानता हूं जो आदमी इस भांति कहता है कि फलां कहता है इसलिए मानता हूं वह आदमी मानने की दुनिया में ही मर जाएगा। वह जानने के जगत में प्रवेश नहीं कर सकता। जिसे जानने तक पहुंचना है, ज्ञान तक, उसे मानने की सारी की सारी परंपरा को छिन्न—भिन्न कर देना होगा। उसे बड़ी गहरी उपेक्षा की जरूरत है, वह कह सके सारी दुनिया को कि ठीक, मैं इस रास्ते पर जाता हूं जो यह अकेले का रास्ता है। वह आंख हटा सके सारी दुनिया से कि लोग क्या कहते हैं, यह पब्लिक ओपिनियन, यह जनता का मत, यह लोगों का, भीड़ का कहना, यह मनुष्य की सत्य की खोज में अदभुत रूप से खतरनाक बाधा है, यह एक बहुत बड़े पहाड़ की तरह खड़ा हुआ है।
उपेक्षा चाहिए बड़ी तीव्र और गहरी, इंटेंस इनडिफरेंस चाहिए, टोटल इनडिफरेंस चाहिए। अगर ठीक से समझें, तो इस तरह की उपेक्षा को जो उपलब्ध होता है, उसी को संन्यासी कहा जाता है। वही है जिसने रिनन्सिएशन किया, जिसने संन्यास लिया।
संन्यासी का अर्थ क्या है? संन्यास का अर्थ है जिसने सत्य के अतिरिक्त अब सब—कुछ मानना छोड़ दिया। जिसके लिए सत्य के अतिरिक्त अब और कुछ भी नहीं है। अब जो सत्य के पक्ष में है और शेष सबकी उपेक्षा है जिसके मन में। इस चौथे द्वार पर पहुंच कर जो व्यक्ति खड़ा हो जाता है, वह संन्यास के द्वार पर खड़ा है। अगर भीतर प्रविष्ट हो गया है तो वह उस दुनिया में चला गया है जहां संन्यासी जाते हैं। वह उस आकाश में उठ गया है जहां सब सीमाएं टूट जाती हैं और व्यक्ति पार हो जाता है।
हिंदू हूं मैं, मुसलमान हूं मैं, ईसाई हूं मैं, जैन हूं मैं, पारसी हूं मैं—जिनके मन ऐसे बंधे हैं वे इस चौथे दरवाजे पर पार नहीं हो सकते। आज तक कोई हिंदू उस दरवाजे के पार नहीं हुआ, कोई मुसलमान पार नहीं हुआ, कोई ईसाई पार नहीं हुआ। वे लोग पार हुए हैं जो हिंदू मुसलमान, ईसाई की बेवकूफी को दरवाजे के बाहर छोड़ देते हैं। जो सिखाया गया, पढ़ाया गया, जो मत, जो सिद्धांत, जो किताब पकड़ा दी गई बचपन से, उपेक्षा से छोड़ देते हैं उसे कि ठीक! अब हम जाते हैं उस जगह जहां हम जानना चाहते हैं और दूसरे के जानने पर विश्वास करने को हम राजी नहीं हैं। है कठिन, है बहुत आर्डुअस, बहुत कठिन, क्योंकि हमारे प्राणों की बहुत गहराई में, अनकाशस गहराइयों में, अचेतन गहराइयों में संस्कार है, कंडीशनिंग है। गहरे तक यह बात बैठी हुई है कि मैं हिंदू हूं गहरे तक यह बात बैठी हुई है कि गीता में सत्य है, गहरे तक यह बात बैठी हुई है कि बाइबिल परम ग्रंथ है, गहरे तक यह बैठा हुआ है कि वेद, वेद अपौरुषेय है और भगवान का लिखा हुआ है। इस पर कब सोचा आपने, कब जाना आपने? कब आपको पता चला यह?
नहीं, भीड़ दोहरा रही है और आप चुपचाप भीड़ की बात दोहरा रहे हैं। आप कोई ग्रामोफोन के रिकॉर्ड हैं? आम आदमी हैं या क्या हैं? आपने जाना कि जो है बाइबिल में वह सत्य है? नहीं, दो हजार वर्ष से लेकिन प्रचार किया जा रहा है, प्रोपेगेंडा किया जा रहा है कि बाइबिल में जो है वह सत्य है और जो बाइबिल की बात मान कर चलेंगे वे प्रभु को उपलब्ध हो जाएंगे, जो नहीं मानेंगे वे नरक में सडेंगे। सारी दुनिया में हजार तरह के लोग हजार तरह की बातें प्रोपेगेट कर रहे हैं; प्रोपेगेंडा कर रहे हैं; प्रचार कर रहे हैं।
इस चौथे दरवाजे पर सारे प्रचार के प्रति उपेक्षा जरूरी है, इस सारे प्रोपेगेंडे के प्रति उपक्षा जरूरी है। और यह कहना जरूरी है कि चुप! बस, मैंने सुन ली ये सारी बातें, अब मैं उस खोज में जाता हूं जहां मैं जानूंगा। नहीं मैं बाइबिल ले जाना चाहता अपने साथ, न गीता, न कुरान, न मैं कृष्ण का हाथ पकड़ना चाहता, न महावीर का, न बुद्ध का। हाथ मुझे भी दिए हैं भगवान ने, मैं अब अपने ही हाथ से खोज शुरू करता हूं। नहीं पकडूगा किसी का हाथ, नहीं किसी गुरु को, नहीं किसी शास्त्र को। नहीं, अब मैं अकेले की उस यात्रा पर जाता हूं जहां परमात्मा प्रत्येक अकेले आदमी की प्रतीक्षा करता है। लेकिन इतनी उपेक्षा हमारे भीतर है? हम गुरु को कह सकते हैं कि क्षमा करो और अब मुझे अकेला जाने दो। अब नहीं मैं आपकी पूंछ पकड़ कर चलूंगा। नहीं, अब कृपा करो! मुझे जाने दो। अब मैं अनुगमन नहीं करूंगा। अब मैं अपनी आंखों से, अपने पैरों से चलना चाहता हूं।
इतनी उपेक्षा की तैयारी है भीतर कि हम गुरुओं को नमस्कार कर सकें, नमस्कार तो रोज करते हैं, पूर्ण नमस्कार—कि अब हम नमस्कार कर लेते हैं, अब हमें क्षमा कर दें, अब हम अपनी अकेली यात्रा पर जाने का साहस जुटाना चाहते हैं। बहुत अकेला है वह रास्ता, वहां कोई गुरु नहीं है। बहुत अकेला है वह रास्ता, वहां कोई हाथ पकड़ कर ले जाना वाला नहीं है। बहुत अकेला है वह रास्ता, वहां प्रत्येक व्यक्ति को अत्यंत अकेले जाने का साहस, करेज जुटाना पड़ता है। अकेले होने का साहस! उपेक्षा का अर्थ है. अकेले होने का साहस। करेज टु बी अलोन। उपेक्षा का अर्थ है अकेले होने का साहस।
एक चर्च में एक पादरी अपने सुनने वालों को करेज क्या है, साहस क्या है, यह समझाता था। वह समझा रहा था कि साहस क्या है न: उसने बताया कि अकेले होने का नाम साहस है। एक बच्चे ने पूछा उस चर्च में बैठे हुए कि हमें थोड़ा सा किसी कहानी से समझा दें तो हम समझ जाएं, किसी उदाहरण से। अकेले होने का क्या मतलब?
तो उस पादरी ने कहा कि समझ लो कि तुम तीस विद्यार्थी हो और पहाड़ पर गए हो पिकनिक के लिए सैर के लिए, यात्रा के लिए। दिन भर तुमने यात्रा की। रात तुम थके—मांदे अपनी जगह ठहरने को आ गए हो। रात तुम इतने थक गए हो कि जल्दी से अपने बिस्तरों में जाने की इच्छा है। तीस में से उनतीस बच्चे अपने—अपने बिस्तरे में कंबल ओढ़ कर सो गए हैं, लेकिन एक बच्चा कोने में खड़े होकर प्रार्थना कर रहा है। रात्रि की अंतिम प्रार्थना। ठंडी रात, दिन भर का थका हुआ बच्चा और उनतीस बच्चों ने टेम्पटेशन दिया उसको कि मैं भी सो जाऊं। उनतीस सो गए हैं अपने—अपने बिस्तरों में। नहीं, लेकिन वह उनतीस को इनकार करता है और एक कोने में खड़े होकर अपनी रात्रि—कालीन प्रार्थना पूरी करता है। इसको, उस पादरी ने कहा मैं कहता हूं साहस।
फिर एक महीने बाद वह पादरी उस चर्च में वापस आया और उसने कहा कि बच्चों! मैंने पिछली बार तुम्हें साहस के संबंध में कुछ समझाया था। क्या तुम याद कर सकते हो कि मैंने क्या समझाया था?
जिस बच्चे ने पूछा था उसने खड़े होकर कहा आपने कहा था अकेले होने का साहस, बस, यही असली साहस है। यही अकेले होने की हिम्मत। बस, यही धार्मिक आदमी का लक्षण है।
उस पादरी ने पूछा मैंने तुम्हें एक घटना भी समझाई थी, क्या तुम दोहरा सकते हो?
उस बच्चे ने कहा कि हमने उस घटना को और अच्छा बना लिया है।
उस पादरी ने पूछा मतलब?
उसने कहा कि समझ लीजिए कि आप तीस संन्यासी हैं किसी पहाड़ पर गए हुए हैं। तीस पादरी पहाड़ पर गए हुए हैं। दिन भर के थके—मांदे, भूखे आप रात में घूम कर अपने स्थान पर वापस लौटे हैं। उनतीस पादरी ठंड में कंपते हुए एक—दूसरे के डर से प्रार्थना कर रहे हैं और एक कंबल के भीतर जाकर सो गया है। तो आपने समझाया था, यह है साहस, और निश्चित ही पहले वाले मामले से दूसरे वाले मामले में ज्यादा साहस की जरूरत है।
लेकिन धार्मिक आदमी को गहरे से गहरे साहस को, अकेले होने के साहस को जुटाना पड़ता है। और उपेक्षा का मैं मतलब यह लेता हूं कि आप इतने आत्म—विश्वास से भर गए हैं कि सारे जगत के मत की उपेक्षा कर सकते हैं। और धार्मिक आदमी आत्म—विश्वास से ही निर्मित होता है, सेल्फ—कांफिडेंस से निर्मित होता है। जितना आत्म—विश्वास से भरा हुआ व्यक्ति होगा उतना ही सारे जगत के प्रति, लोगों के प्रति, लोग क्या कहते हैं, परंपराएं क्या कहती है, रूढियां क्या कहती हैं, शास्त्र क्या कहते हैं, गुरु क्या कहते हैं, इस सबके प्रति वह उपेक्षा कर सकता है। जितना आत्म—विश्वास कम होगा उतनी ही उपेक्षा जुटानी मुश्किल है। आत्म—विश्वास बिलकुल नहीं होगा तो वह आदमी कभी भी उपेक्षा के इस द्वार से पार नहीं हो सकता है।
धार्मिक मनुष्य आत्म—विश्वास ही तो उसका सहारा है, लेकिन क्या कभी आपने सोचा कि जब आप जनमत की उपेक्षा नहीं कर पाते हैं तो आप अपने आत्म—विश्वास की हत्या कर रहे हैं, आप अपने बल को तोड़ रहे हैं। जब भी आप झुकते हैं असत्य के लिए, मत के लिए, भीड़ के लिए तभी आप परमात्मा की विपरीत दिशा में यात्रा कर रहे हैं।
नहीं, जो आपका विवेक कहता है उसके अतिरिक्त सारी चीजें उपेक्षा कर देने जैसी हैं। जो आपकी चेतना कहती है उसका अनुसरण करना है, किसी दूसरे का अनुगमन नहीं। लेकिन हमारे ऊपर तो हजारों साल में ज्ञान थोपा गया है। बड़े मजे की बात है कि ज्ञान भी जैसे थोपा जा सकता है किसी के ऊपर। ज्ञान कोई वस्त्र तो नहीं हैं कि हम पहन लें और ज्ञानी हो जाएं। लेकिन आज तक पृथ्वी पर यही हुआ है कि ज्ञान भी हमने वस्त्रों की तरह मान रखा है। उसको हम पहन लेते हैं और ज्ञानी हो जाते हैं। किताब पढ़ लेते हैं और तानी हो जाते हैं। हजारों साल की जो थाती है उसको पकड़ लेते हैं और ज्ञानी हो जाते हैं, जैसे कि ज्ञान बाहर से इकट्ठा किया जा सकता है?
नहीं, ज्ञान तो आता है भीतर से, लेकिन जो बाहर के ज्ञान को पकड़ लेते हैं उनके भीतर का ज्ञान फिर कभी नहीं आ पाता। ज्ञान तो आता है वहां से जहां हमारे प्राणों का मूल—स्रोत है, लेकिन हम ज्ञान खोजते हैं किताबों में, शास्त्रों में, शब्दों में। उस ज्ञान को जो पकड़ कर बैठ जाते हैं वे पंडित हो जाते हैं, ज्ञानी कभी नहीं हो पाते। पंडित और ज्ञानी सदा के दुश्मन हैं। पंडित और ज्ञानी में कभी कोई मेल नहीं रहा, आगे भी कभी होने की संभावना नहीं है। पंडित तानी होने का धोखा है। पंडित है डिसेप्शन, पंडित है एक हिपोक्रेसी, एक पाखंड। उसे कुछ भी पता नहीं है, लेकिन उसने कुछ बातें पता कर ली हैं और उन बातों को दोहराए चला जाता है और समझता है कि मुझे पता है।
एक आदमी प्रेम के संबंध में किताबें पढ़ ले और कहने लगे कि मुझे प्रेम का पता है, क्योंकि मैंने प्रेम के संबंध में सारी किताबें पढ़ी हैं। तो हम कहेंगे, वह प्रेम का पंडित है, लेकिन प्रेमी नहीं है। प्रेम से वह कभी गुजरा ही नहीं। किताबें पढ़ने से फुर्सत मिलती तो प्रेम भी करता। प्रेम से गुजरने का मौका नहीं आया, लेकिन किताबें उसने प्रेम के संबंध में सारी पढ़ ली हैं।
जैसे कोई तैरने के संबंध में शास्त्र पढ़ ले, और आप भूल से समुद्र में उसको धक्का दे दें, तो जो उसकी गति हो जाए। सत्य के सागर में पंडित की भी वही गति हो जाती है। किताब उसने पढ़ी थी तैरने के बाबत। किताब उसने पढ़ी थी, वह समझा सकता था कि तैरने की कला क्या है, तैरने की टेकनिक क्या है, वह समझा सकता था, तैरने पर भाषण दे सकता था, वह तैरने पर पीएचडी. लिख सकता था, लेकिन तैर नहीं सकता था।
तैरना एक बात है, तैरने के संबंध में जानना दूसरी बात है। ज्ञान एक बात है और जान के संबंध में जान लेना दूसरी बात है। परमात्मा को जानना एक बात है और परमात्मा के संबंध में जानना बिलकुल दूसरी बात है।
तो जिन लोगों को यह चौथा द्वार पार करना है उन्हें सीखे हुए ज्ञान के प्रति उपेक्षा बरतनी पड़ेगी। पहली उपेक्षा भीड़ के मत के प्रति आवश्यक है। दूसरी उपेक्षा परंपरा से मिले हुए ज्ञान के प्रति जरूरी है। वह जो ज्ञान हमने सीख लिया है, जो कल्टीवेटेड है। बचपन से ही हमें सिखाई जा रही हैं बातें! कोई हमसे पूछता तो नहीं कि तुम कुछ जानते हो; लेकिन सिखा हमें सभी लोग रहे हैं। और बचपन से ही आदमी सीखना शुरू कर देता है। तोते की तरह सारी बातें उसे मालूम हो जाती हैं। उससे पूछो, परमात्मा है? वह कहेगा, है। उससे पूछो, आत्मा है? वह कहेगा, है। लड़ने—झगड़ने को राजी हो जाएगा अगर कोई कह दे कि परमात्मा नहीं है। लेकिन कोई कभी पूछता नहीं कि तुझे पता कहां से चल गया परमात्मा का? यह तूने जाना कहां से कि आत्मा है? वह कहेगा, मेरे पिताजी ने ऐसा कहा। और पिताजी भी कहेंगे कि मेरे पिताजी ने ऐसा कहा, और उनके पिताजी भी यही कहेंगे और पिताजी के पिताजी को आप पूछते चले जाएं आप पाएंगे कि उनके पिताजी ने ऐसा कहा।
कहीं ज्ञान इस तरह ट्रांसफर होता है? यह कोई मकान है, जमीन—जायदाद है?
बुद्ध एक बार एक जंगल में बैठे हुए थे और एकदम जंगल में जैसे एक भूकंप आ गया हो। सारे जानवर बुद्ध के सामने से भागते हुए निकले। थोड़ी देर तो वे बैठे देखते रहे कि मामला क्या है? लेकिन जब उन्होंने देखा कि पूरे जंगल के पशु—पक्षी सभी भागे जा रहे हैं एक दिशा में, तो उन्हें भी थोड़ी हैरानी हुई। उन्होंने एक हिरण को पकड़ कर पूछा कि बात क्या है, कहां भागे जाते हो? उसने कहा कि छोड़िए, इधर रुकने की फुर्सत नहीं है। आपको पता नहीं, आखिरी दिन आ गया है दुनिया का, सृष्टि नष्ट होने के करीब है! महाप्रलय आ रहा है!
लेकिन बुद्ध ने पूछा कि तुझे कहा किसने? उसने कहा कि वे जो लोग आगे जा रहे हैं। आगे वालों के पीछे बुद्ध भाग कर पहुंचे, उन्हें रोका, पकड़ा, पूछा कि जा कहां रहे हो? शेर भी भागे जा रहे हैं, हाथी भी भागे जा रहे हैं। जाते कहां मित्र? उन्होंने कहा कि आपको पता नहीं, महाप्रलय आ रहा है? लेकिन बताया किसने? तो उन्होंने कहा वे लोग जो आगे जा रहे हैं। बुद्ध भागते— भागते बड़े परेशान हो गए, क्योंकि जो भी मिला उसने कहा, जो लोग आगे जा रहे हैं।
आखिर में, सबसे आखिर में खरगोशों की एक भीड़ मिली। उनसे बुद्ध ने पूछा कि दोस्तो! कहां भागे चले जा रहे हो? उनकी तो हालत समझ सकते हैं। जब शेर और हाथी भाग रहे हों तो बेचारे खरगोश! उन खरगोशों ने तो रुकने की भी हिम्मत नहीं की। भागते ही भागते चिल्लाया कि वह जो आगे— आगे एक खरगोश था उनका नेता। उन्होंने बुद्ध ने बामुश्किल उसको पकड़ा और पूछा कि दोस्त! कहां भाग रहे हो? क्योंकि उसके आगे अब कोई भी नहीं था। उसने कहा. कहां भाग रहा हूं? महाप्रलय होने वाली है। किसने तुझे कहा? उसने कहा. किसी ने कहा नहीं, ऐसा मुझे अनुभव हुआ है। अनुभव तुझे कैसा हुआ?
मैं एक वृक्ष के नीचे सो रहा था, दोपहर थी, ठंडी हवाएं चल रही थीं और एक छाया में सोया हुआ था, वह खरगोश कहने लगा, फिर एकदम से कोई जोर की आवाज हुई और मेरी मां ने मुझसे बचपन में कहा था कि जब ऐसी आवाज होती है तो महाप्रलय आ जाता है। बुद्ध ने उस खरगोश से कहा पागल! किस वृक्ष के नीचे बैठा था? वह कहने लगा आमों का वृक्ष था। बुद्ध ने कहा कोई आम तो नहीं गिरा था? उसने कहा यह भी हो सकता है। बेचारा खरगोश! आम भी काफी है गिर जाए तो। बुद्ध उसे लेकर उस वृक्ष के पास लौटे। वहां तो काफी आम गिरे थे। वह खरगोश कहने लगा, जरूर मैं इस जगह सोया हुआ था। ये आम ही गिरे होंगे। लेकिन मेरी मां ने मुझे कहा था कि जब महाप्रलय होती है तो बड़े जोर की आवाज होती है। आवाज बड़े जोर की थी। और सारा जंगल भाग रहा था एक खरगोश के कहने पर!
सारी दुनिया भाग रही है करीब—करीब ऐसे ही। हम भी अगर इस भांति भागते हैं जीवन में......एक आदमी खबर कर देता है, हिंदू—मुस्लिम दंगा हो गया, फिर कोई भी नहीं पूछता कि किस खरगोश ने यह हरकत शुरू की है। फिर गांव का मौलवी, पंडित, संन्यासी, धार्मिक, पूजा—पुजारी, माला फेरने वाला, जनेऊ वाला, तिलक— छापे वाले सब भागने लगते हैं। हिंदू—मुसलमान दंगा हो गया है!
यह सारी मनुष्य—जाति अत्यंत एब्‍सर्डिटी, छूता से भरी हुई है और इस मूढ़ता की बुनियाद में एक बात है, वह यह कि हम दिए हुए ज्ञान को पकड़ कर तृप्त हो जाते हैं। उसे स्वीकार कर लेते हैं। जो आदमी बाहर से आए हुए ज्ञान से चुपचाप राजी हो जाता है उस आदमी के भीतर वह घटना पैदा नहीं होती कि उसका अपना ज्ञान पैदा हो सके। अपना ज्ञान पैदा होता है उस वैक्यूम में, उस शून्य में जब आप बाहर के ज्ञान को इनकार कर देते हैं। कह देते हैं कि नहीं, हमारे द्वार पर नहीं है प्रवेश इस जान का जो दूसरे का है। जो दूसरे का है वह हमारे लिए अज्ञान के ही बराबर है, अज्ञान से भी ज्यादा खतरनाक है। अज्ञान कम से कम अपना तो है। और यह ज्ञान है दूसरे का। जो आदमी दूसरे के ज्ञान को कह देता है कि नहीं, अज्ञान है मेरा और मेरे ज्ञान से ही टूट सकता है। इस गणित को बहुत गहराई में समझ लेना जरूरी है।
अज्ञान है मेरा तो मेरे ज्ञान से ही टूट सकता है, अज्ञान अगर दूसरे का होता तो दूसरे के ज्ञान से भी टूट सकता था। लेकिन अज्ञान है मेरा और ज्ञान है महावीर का, ज्ञान है बुद्ध का, ज्ञान है कृष्ण का। नहीं, किसी दूसरे के ज्ञान से आपका अज्ञान नहीं टूट सकता है— यह असंभव है। यह असंभव है। यह कभी भी संभव नहीं था और कभी संभव नहीं होगा। यह जीवन के शाश्वत नियमों में एक नियम है कि मेरा अज्ञान मेरे ज्ञान से टूटेगा किसी दूसरे के ज्ञान से नहीं। इसलिए दूसरे के ज्ञान के प्रति उपेक्षा चाहिए, इनडिफरेंस चाहिए। उस चौथे दरवाजे पर दूसरे से इकट्ठा किया सारा ज्ञान छोड़ देना पड़ता है, सारा ज्ञान वहीं छोड़ जाना पड़ता है। बड़ी पीड़ा होती है।
ज्ञान छोड़ने में बड़ी पीड़ा होती है, क्योंकि जान छोड़ने का मतलब है अज्ञानी बनना। ज्ञान बहुत रस देता है। दो—चार गीता के श्लोक कंठस्थ हैं, दो—चार उपनिषद के महान वाक्य याद हैं और बस काफी ज्ञान हो गया। फिर और क्या कमी रह गई ज्ञान में आपके? यह ज्ञान सिर्फ अहंकार की तृप्ति करता है, अज्ञान को तोड़ता नहीं। इसलिए तो ज्ञानी इतने अहंकारी दिखाई पड़ते हैं। ये पंडित, तथाकथित ज्ञानी, इनसे ज्यादा अहंकारी मनुष्य खोजना मुश्किल है, इससे ज्यादा ईगोइस्ट! और ये ही तथाकथित पंडित दुनिया को एक नहीं होने देते हैं। हिंदू— मुसलमान का झगड़ा थोड़े ही है, मुसलमान पंडित और हिंदू पंडित का झगड़ा है। ईसाई और जैन का झकड़ा थोड़े ही है, ईसाई पंडित और जैन पंडित का झगड़ा है। झगड़े सब पंडितों के हैं। और जब तक दुनिया में पंडितों को आदर है, झगड़े नहीं मिट सकते। सारे पांडित्य को छोड़ देना पड़ता है उस द्वार पर, इस सारे अहंकार को कि ' मैं जानता हूं।
कहां जानते हैं हम? क्या जानते हैं हम? एक पत्थर को भी हम नहीं जानते, राह के किनारे पड़े हुए पत्थर को और दावा करते हैं परमात्मा को जानने का! हद अहंकार है, हद दंभ है। एक पत्थर भी मैं उठा लूं हाथ में और पूछूं अपने से कि क्या है यह, तो कोई उत्तर नहीं आता। पत्थर बेबूझ पहेली की तरह हाथ पर खड़ा रह जाता है। उलटाऊं, चारों तरफ देखूं खोजूं और बीनूं लेकिन कहीं कोई प्रवेश नहीं मिलता। पत्थर बेबूझ पहेली है, एक मिस्टरी है, एक रहस्य है। एक छोटा सा पत्थर भी एक रहस्य है। समुद्र की आती हुई एक छोटी सी लहर भी एक रहस्य है। शायद वह उतना ही बड़ी रहस्य है, जितना बड़ा परमात्मा, क्योंकि वह लहर भी परमात्मा का एक हिस्सा है। एक पत्थर उतना ही बड़ा रहस्य है जितना परमात्मा, क्योंकि अगर परमात्मा कहीं है तो इस पत्थर में भी है। एक पत्थर का भी हमें पता नहीं है और अहंकार इतना है कि हम कहते हैं कि हमें परमात्मा का पता है!
नहीं, इस अहंकार को लेकर प्रवेश नहीं पा सकते हैं चौथे द्वार पर। यहां इस सारे पागलपन को......इस सारे ज्ञान के प्रति उपेक्षा दिखानी पड़ेगी, छोड़ कर रख देना होगा जैसे सांप अपनी केंचुल छोड़ कर आगे बढ़ जाता है, ऐसे ही सारे ज्ञान को छोड़ देना होगा। अज्ञानी बन जाना पड़ेगा, इग्नोरेंट। अदभुत है अज्ञान भी। बहुत इनोसेंस है वहां, बहुत निर्दोष भाव है वहां।
सुकरात हो गया था का। लोग उससे कहते थे, तुम महान ज्ञानी हो। सुकरात कहता था, कैसे हो पागल तुम? जब मैं नहीं जानता था तो मैं भी समझता था कि मैं जानता हूं। जब से मैंने जाना, तब से मैं समझ गया कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूं। सुकरात कहता था कि जब नहीं जानता था मैं, तब सोचता था कि मैं जानता हूं। जब से जाना तब से यह भी जाना कि नहीं जानता हूं कुछ। उस द्वार पर प्रवेश पाना है तो जानने का सारा भ्रम छोड़ देना पडेगा। सच में जानते हैं कुछ हम? क्या जानते हैं? क्या जानते हैं हम? अपने को भी नहीं जानते तो और हम क्या जान सकते हैं? लेकिन भ्रम बहुत है हमें जानने का।
एक छोटे से गांव में अमरीका के एक दिन एक सुबह घटना घट गई। छोटा सा गांव, गांव का छोटा सा स्कूल। उस स्कूल में प्रदर्शनी चलती है, वर्ष के अंत की। बच्चों ने बहुत खेल—खिलौने बनाए हैं। उस गांव में एक बूढ़ा भी ठहरा हुआ है— अनजान, अजनबी; घूमने चला आया है। वह उस स्कूल में पहुंच गया। वह बच्चों के खिलौने देख रहा है। उन बच्चों ने बिजली के खिलौने भी बनाए हैं, बिजली की मोटर है, बिजली का पानी का जहाज है। वे बच्चे समझा रहे हैं, गांव के ग्रामीण देख रहे हैं। उन्हीं में एक नया का भी है जो ग्रामीण तो नहीं मालूम पड़ता, वह भी बड़े गौर से देख रहा है। बच्चे उसे भी समझा रहे हैं। वे समझा रहे हैं कि बिजली से चलते हैं खिलौने, इलेक्ट्रिसिटी से चलते हैं, विद्युत से चलते हैं।
वह का पूछने लगा तुम बता सकते हो बिजली क्या है? यह विद्युत क्या है? वॉट इज इलेक्ट्रिसिटी? बच्चे कहने लगे कि बहुत मुश्किल है। यह तो हमें पता नहीं। हम तो सिर्फ ये खिलौने बना लिए हैं। हमारा जो शिक्षक है उसे हम बुला लाते हैं, वह ग्रेजुएट है विज्ञान का, वह बता सकेगा, वह बी. एससी. है। वे उसको पकड़ लाए हैं।
उस शिक्षक से वह का पूछने लगा कि मैं जानना चाहता हूं कि विद्युत क्या है? वह भी कहने लगा कि विद्युत ऐसे काम करती है।
उसने कहा. वह मैं नहीं पूछता कि हाउ इलेक्ट्रिसिटी वर्क्स? वह मैं नहीं पूछता। मैं पूछता हूं वॉट इज इलेक्ट्रिसिटी? है क्या? यह नहीं पूछता, कैसे काम करती है!
उस आदमी ने तो सोचा था कि गांव का का है, यह क्या फर्क कर सकेगा 'क्या' और 'कैसे' में! लेकिन उस के ने कहा. मैं यह नहीं पूछता, कैसे बिजली काम करती है, मैं पूछता हूं क्या है?
वह विज्ञान का स्नातक घबड़ाया, क्योंकि विज्ञान सिर्फ कैसे का उत्तर दे पाता है, क्या का कोई उत्तर नहीं दे पाता! विज्ञान बता सकता हैं—हाउ, व्हाई, क्यों, कैसे, लेकिन विज्ञान नहीं कह सकता—वॉट, क्या? क्या का कोई उत्तर नहीं है। पर इस के ने तो एक ऐसा मामला खड़ा कर दिया जो मुश्किल से बड़े—बड़े विचारक खड़े कर सकते हैं।
उसने कहा कि ठहरिए। मैं अपने प्रधान अध्यापक को बुला लाता हूं वे विज्ञान के डॉक्टर हैं। वह डॉक्टर भी आ गया। वह भी समझाने लगा कि ऐसे—ऐसे काम करती है बिजली।
उसने कहा कि इससे नहीं चलेगा। मैं पूछता हूं क्या है बिजली? उस प्रधान अध्यापक ने कहा. क्षमा करिए, आपने हमें बड़ी मुश्किल में डाल दिया। यह तो बताना बहुत मुश्किल है।
वह का खिलखिला कर हंसने लगा। उसने कहा कि छोड़ो, 'क्या' के संबंध में बच्चे और के सब बराबर हैं। तुम्हारे स्कूल के बच्चे भी उतना ही जानते हैं बिजली के बाबत, जितना तुम। क्या के मामले में वे भी नहीं जानते, तुम भी नहीं जानते। और तुम चिंता मत करो, शायद तुम्हें पता नहीं, मैं कौन हूं! मैं हूं एडिसन। वह था अमरीका का सबसे बड़ा वैज्ञानिक एडिसन, जिसने एक हजार आविष्कार किए। जिसने बिजली का आविष्कार किया, जिसने रेडियो बनाया। एक आदमी ने एक हजार खोजें कीं। ऐसा कोई दूसरा आदमी दुनिया में कभी हुआ नहीं। वह था एडिसन। वह कहने लगा, मैं हूं एडिसन। क्षमा करना, मैं भी नहीं जानता वॉट इज इलेक्ट्रिसिटी? मुझे भी पता नहीं है कि यह बिजली क्या है? यह बिजली है क्या बला? यह मुझे पता नहीं है। और वह कहने लगा एडिसन, घबड़ाओ मत, चिंतित मत हो जाओ। आदमी कभी भी नहीं जान सकेगा कि बिजली क्या है। वह जो क्या, वह जो वॉट, वहां तो सब ज्ञान मिट्टी हो जाता है।
और परमात्मा का मतलब क्या है? परमात्मा का मतलब है वॉट, क्या! वह है अल्टीमेट वॉट, वह है अंतिम क्वेश्चन मार्क, वह है आखिरी प्रश्न! वहां आपका ज्ञान लेकर जाइएगा भीतर? वह अंतिम प्रश्न—चिह्न है, वह है चरम प्रश्न, आखिरी प्रश्न जीवन के सत्य का। वहां आप ज्ञान लेकर जाइएगा? ये किताबें सिर पर रख कर लेकर जाइएगा कि हमको गीता लिए भीतर घुस जाने दो, कि हम कुरान लाए हैं। यह बड़ी पवित्र किताब है। हम यह वेद का बोझ ढो रहे हैं, इतनी दूरी से लाए हैं इतनी मोटी किताब। हमको भीतर ले जाने दो।
उस द्वार पर लिखा है कि नहीं, ज्ञान भीतर नहीं जा सकता। आप भीतर जा सकते हैं, ज्ञान बाहर छोड़ दें। ज्ञान के प्रति एक इनडिफरेंस, एक उपेक्षा करनी पड़ती है, तब आदमी परम ज्ञान में प्रविष्ट होता है। यह बात बड़ी उलटी मालूम पड़ेगी। ज्ञान जो छोड़ देता है उसे ज्ञान उपलब्ध होता है। जो ज्ञान को पकड़े बैठा रह जाता है वह अज्ञानी ही रह जाता है, उसे भी ज्ञान उपलब्ध नहीं होता है।
एक बात भीड़ क्या कहती है उसके प्रति उपेक्षा। परंपराएं क्या ज्ञान देती हैं उसके प्रति उपेक्षा। और तीसरी अंतिम उपेक्षा है वह उपेक्षा है फल की, भविष्य की उपेक्षा। क्या मिलेगा मुझे, कब मिलेगा मुझे, इसकी बिलकुल उपेक्षा चाहिए।
एक आदमी ध्यान के लिए बैठता है, पंद्रह मिनट आंख बंद किए बैठा रहता है। फिर सोचता है अभी तक तो कुछ भी नहीं मिला है, बड़ी देर लगाई, अब तक तो आ जाना था भगवान। हम पंद्रह मिनट से बैठे हुए हैं, 'मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?' कर रहे हैं और आपका अभी तक कुछ पता नहीं! एकाध—दो दिन करता है, फिर कहता है छोड़ो। इतनी जल्दी, इतना सस्ता! आपने बड़ी कृपा की कि पंद्रह मिनट बैठ कर कहने लगे कि ' मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?' भगवान पर बड़ा ऋण किया। अपने खातेबही में लिख लेना कि हमने इतनी देर यह—यह किया था। इतना सस्ता, इतना बिना कीमत, इतने जल्दी! क्या हम मजाक समझते हैं जिंदगी को? हम मजाक ही समझते हैं शायद।
नहीं, फल के प्रति बिलकुल उपेक्षा चाहिए, तो प्रवेश हो सकता है। मिलेगा या नहीं मिलेगा, नहीं चिंता जरा भी। हम तो प्रार्थना किए ही चले जाएंगे, हम तो प्यास का निवेदन करते ही रहेंगे, हम तो पुकार दिए ही चले जाएंगे, मिलो या न मिलो! नहीं है फिकर इसकी कि आ जाओ, नहीं है चिंता इसकी कि द्वार खुल जाएं, हम तो द्वार पर धक्के दिए ही चले जाएंगे, हम तो ठोकते ही रहेंगे द्वार को, हम थकेंगे नहीं। हमें तुम्हारे उत्तर की प्रतीक्षा भी नहीं है, हम कोई जल्दी में भी नहीं हैं, हम अनंतकाल तक प्रतीक्षा कर सकते हैं।
प्रेम हमेशा प्रतीक्षा करने को तैयार होता है। सिर्फ सौदेबाज प्रतीक्षा करने को तैयार नहीं होता। वह कहता है जल्दी निपटाइए। प्रेम तो प्रतीक्षा करने को राजी है अनंतकाल तक। अंनतकाल तक प्रतीक्षा करने को राजी है। सुनी है मजनू की कहानी। लैला को उसका पिता लेकर भाग गया है। प्रेमियों से ये पिता बहुत ही डरते हैं। वह एकदम भाग गया है लैला को लेकर। मजनू को खबर आई तो वह भागा हुआ गया है। एक गांव में पड़ाव पड़ा है उसके पिता का। राह के एक किनारे छिप कर वह मजनू प्रतीक्षा करता है। लैला वहां से गुजरी तो उसने पूछा, उसने पूछा कब तक लौटोगी? कब तक आओगी? लैला तो बोल न सकी, पिता पास था और लोग पास थे। उसने हाथ से इशारा किया कि आऊंगी, जरूर आऊंगी। जिस वृक्ष के नीचे उसने वायदा किया था, मजनू उसी वृक्ष के नीचे टिक कर खड़ा हो गया।
कहते हैं, बारह वर्ष बीत गए और मजनू वहां से नहीं हिला, नहीं हिला, वह खड़ा ही रहा उसी वृक्ष से टिका हुआ। कहते हैं कि धीरे— धीरे वह वृक्ष की छाल और मजनू की खाल जुड़ गई। कहते हैं उस वृक्ष का रस उस मजनू के प्राणों और शरीरों में बहने लगा। कहते हैं उसके हाथ—पैर से भी शाखाएं निकल गईं और पत्ते छा गए।
और बारह वर्ष बाद लैला उस रास्ते से वापस निकली। उसने वहां पूछा लोगों से कि मजनू नाम का एक युवक था वह दिखाई नहीं पडता, वह कहां है? लोगों ने कहा कैसा मजनू? बारह साल पहले हुआ करता था। बारह साल से तो वह दिखाई नहीं पड़ा इस गांव में। लेकिन ही, कभी—कभी रात के सन्नाटे में उस जंगल से आवाज आती है—लैला, लैला, लैला! जंगल से आवाज? लेकिन आदमी हम दिन में जाते हैं, वहां कोई नहीं दिखाई पड़ता, उस जंगल में कभी कोई आदमी दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन कभी—कभी उस जंगल से आवाज आती है। लोग तो डरने लगे उस रास्ते से निकलने में। एक वृक्ष के नीचे ऐसा मालूम पड़ता है कि जैसे कोई है, और कोई है भी नहीं। और कभी—कभी वहां से एकदम आवाज आने लगती है—लैला, लैला!
वह लैला भागी हुई वहां गई। वहां तो कहीं मजनू दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन एक वृक्ष से आवाज आ रही थी। वह उस वृक्ष के पास गई। मजनू अब वहां नहीं था। वह वृक्ष ही हो गया था, लेकिन उस वृक्ष से आवाज आती थी, लैला, लैला! वह सिर पीट—पीट कर उस वृक्ष पर रोने लगी और कहने लगी, पागल! तू वृक्ष से हट क्यों नहीं गया? वह वृक्ष कहने लगा, प्रतीक्षा कहीं हटती है?
और परमात्मा के खोजी पंद्रह मिनट में हट जाते हैं और फिर यह सोचते हुए लौटते हैं कि नहीं, यह जरा मुश्किल है, शायद यह नहीं हो सकेगा।
अकबर एक रात एक जंगल में ठहरा हुआ था। शिकार को गया था और रास्ता भटक गया था। एक वृक्ष के नीचे बैठ कर अपनी सांझ की नमाज पढ़ता था। झुका है नीचे, नमाज पढ़ता है। एक औरत उसके पास से भागी हुई निकल गई है उसके नमाज के वस्त्र पर पैर रखती हुई, उसको धक्का भी लग गया अकबर को। उसने चौंक कर धीरे से आंख खोल कर देख ली, जैसे पूजा—प्रार्थना करने वाले बीच—बीच में आंख खोल कर देख लेते हैं कि कौन है, क्या बात है? उनकी आंखें तैयार ही रहती हैं कि जरा मौका वे थोड़ा सा खोल कर देख लें कि मामला क्या है!
फिर उसने जल्दी से आंखें बंद करके नमाज शुरू कर दी कि कोई बदतमीज औरत है, इसको यह भी पता नहीं कि एक आदमी नमाज पढ़ता है। लेकिन उसने जल्दी—जल्दी नमाज पूरी की, क्योंकि यह कोई साधारण बात भी न थी कि देश का बादशाह नमाज पढ़े और कोई साधारण सी ग्रामीण औरत उसे धक्का देती हुई निकल जाए। यह बहुत अशिष्ट था। उसने जल्दी से नमाज पूरी की, घोड़े पर सवार हुआ, भागा, औरत लौटती थी रास्ते पर वापस। उसने उसे रोका और कहा. बदतमीज औरत! अशिष्ट! तुझे इतना भी पता नहीं है कि कोई प्रार्थना कर रहा है, नमाज पढ़ रहा है, तू धक्के देती हुई निकली? उसने कहा कैसा धक्का? कहां थे आप? उसने कहा कि मैं नमाज पढता था फलां—फलां रास्ते के किनारे।
वह स्त्री कहने लगी. बड़ा आश्चर्य, मुझे तो पता ही नहीं! क्योंकि धक्का अगर मेरा आपको लगा होगा तो आपका भी मुझको लगा होगा। यह कोई एक तरफा तो लग नहीं सकता धक्का। लेकिन मुझे पता नहीं कि आपका धक्का मुझे कब लगा। असल बात यह है कि मैं अपने प्रेमी से मिलने जा रही थी, बहुत दिन बाद वह लौटने को था, तो मैं भागी हुई गई थी कि बीच रास्ते में उसका स्वागत करूं। तो मुझे पता नहीं कि रास्ते में कौन नमाज पढ़ता था, कौन नहीं पढ़ता था। मुझे तो खयाल ही न था कुछ, मुझे तो उसकी प्रतीक्षा थी।
लेकिन क्या मैं पूछ सकती हूं सम्राट, कि आप तो परमात्मा के दरवाजे पर सिर टेके लेटे हुए थे। आपको मेरा धक्का कैसे पता चल गया? मैं एक साधारण से प्रेमी के लिए भाग कर जाती थी और मुझे आपका धक्का पता न चला। और आप परम प्रेमी के लिए, प्रीतम के लिए, वह जो बिलॅविड है उसके लिए आप सिजदा किए थे, सिर झुकाए बैठे थे, आपको मेरे धक्के का पता चल गया एक नाचीज औरत का?
सम्राट अकबर ने अपनी जीवनी में लिखवाया है कि मुझे पहली दफा पता चला कि कैसी है मेरी प्रार्थना कैसी है मेरी प्रतीक्षा, क्या कर रहा हूं; शायद अपने को धोखा दे रहा हूं। एक साधारण प्रीतम, एक साधारण प्रेमी की भी प्यास इतनी गहरी पकड़ लेती है प्राणों को, तो परमात्मा को कितनी गहरी प्यास पकड़ेगी, तब वह उपलब्ध हो सकेगा, इसे सोचना जरूरी है।
तो तीसरी बात फल के प्रति उपेक्षा, जल्दी के प्रति उपेक्षा, अधैर्य के प्रति, इंपेशंस के प्रति उपेक्षा। अभी हो जाए, अभी हो जाए। नहीं—नहीं, कोई चिंता नहीं कि जन्म—जन्मों में न हो, लेकिन हम पुकारते रहेंगे, हम पुकार देते रहेंगे, हम प्रार्थना करते रहेंगे, हम प्यास जगाए रहेंगे, हम पूछते ही चले जाएंगे, पूछते ही चले जाएंगे, पूछते ही चले जाएंगे। अगर जीवन और जगत में कहीं भी कोई प्राणों का स्रोत है तो क्या इतनी प्रार्थना, इतनी पुकार इतनी प्यास का कोई उत्तर नहीं होगा? अगर कहीं भी कोई जीवन का सत्य है तो क्या इतनी आतुरता में बुलाई गई आवाज खाली ही वापस लौट आएगी?
नहीं, इन सारी आकांक्षाओं, अपेक्षाओं, एक्सपेक्टेशंस—यह हो जाए, यह हो जाए, इन सबको एकदम छोड़ देना होगा। यह है चौथा द्वार। इस चौथे द्वार में जब प्रविष्ट हो जाता है, उसके लिए फिर कोई द्वार नहीं बचते, कोई मार्ग नहीं बचते, फिर परमात्मा उसे खींच लेता है।
एक आदमी छत पर खड़ा है। जब तक खड़ा है तब तक ठीक, छत से कूद पड़े फिर उसे गिरने के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ता है। जमीन का ग्रेविटेशन खींच लेता है, जमीन का गुरुत्वाकर्षण अपने आप खींच लेता है। छत से गिर जाने के बाद आदमी यह नहीं पूछता है कि अब मैं जमीन तक पहुंचने के लिए क्या करूं? नहीं साहब, पूछने का वक्त ही नहीं मिलता है, जमीन खींच लेती है। चौथे दरवाजे तक आदमी को कुछ करना पड़ता है, चौथे दरवाजे के बाद परमात्मा का ग्रेविटेशन है, चौथे दरवाजे के बाद परमात्मा की कशिश है, चौथे दरवाजे के बाद परमात्मा का गुरुत्वाकर्षण है। वह खींच लेता है। उस गुरुत्वाकर्षण का नाम ही ग्रेस, प्रसाद, कृपा अनुकंपा है।
चार दरवाजे हमें पार करने पड़ते हैं। इसके बाद हमें कुछ भी नहीं करना पड़ता है। हम खींच लिए जाते हैं, हम बुला लिए जाते हैं, हम पुकार लिए जाते हैं। छत हमें छोड़ देनी पड़ती है, फिर तो पृथ्वी खींच लेती है लेकिन हम छत ही न छोड़े तो पृथ्वी भी कुछ नहीं कर सकती है। इन चौथे दरवाजे के बाद क्या होगा, वह कहना कठिन है। बस यहां तक आदमी की यात्रा पूरी हो जाती है, उसके बाद परमात्मा की यात्रा शुरू होती है। फिर हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है। फिर कुछ होता है, फिर कुछ अपने आप होता है।
और स्मरण रहे अंतिम बात. एक कदम भी जो परमात्मा की ओर चलता है, आश्वासन है सदा का कि परमात्मा उसकी ओर हजार कदम चलने को हमेशा तैयार है।
एक कदम हम और शेष सब परमात्मा पूरा कर लेता है; लेकिन हम ऐसे अभागे हैं कि एक कदम भी हम चलने को तैयार नहीं हैं। इन तीन दिनों में ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं। इसलिए नहीं कि मेरी बातें सुन कर आप विचार में लगेंगे, बल्कि इसलिए कि इन बातों से कोई धक्का आपको लगेगा और कोई यात्रा शुरू हो जाएगी। अनंत है यात्रा। धन्य हैं वे लोग जो उस यात्रा पर निकल पड़ते हैं। धन्य हैं वे लोग जो उस यात्रा पर बुला लिए जाते हैं। धन्य हैं वे लोग जिनकी आंखें प्रभु की ओर उठ जाती हैं।

मेरी बातों को इतने प्रेम और इतनी शांति से इन दिनों में सुना, उसके लिए बहुत—बहुत अनुगृहीत हूं। और सबके भीतर बैठे परमात्मा को अंत में प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

ब इसके बाद हम अपने शिविर के रात्रि के अंतिम ध्यान के लिए बैठेंगे और फिर विदा हो जाएंगे। थोड़े— थोड़े फासले पर बैठेंगे, कोई किसी को छूता हुआ न हो। जरा भी बात न करें, चुपचाप हट जाएं और शांति से बैठ जाएं। बैठ जाएं शांति से। शरीर को ढीला छोड़ दें। आराम से बैठ जाएं। आंख बंद करनी हो बंद कर लें, आधी खोलनी हो खोल लें। अब मैं सुझाव दूंगा, मेरे सुझावों के साथ अनुभव करें, शरीर शिथिल हो रहा है......बिलकुल ढीला छोड़ दें जैसे कोई प्राण ही नहीं हैं। शरीर शिथिल हो रहा है, शरीर शिथिल हो रहा है, शरीर शिथिल हो रहा है, शरीर शिथिल हो रहा है, जैसे है ही नहीं, इतना ढीला छोड़ दें। है भी कहां शरीर। जिस मिट्टी का हिस्सा है, उसी के साथ एक समझ लें। छोड़ दें, है ही कहां। मिट्टी है, पृथ्वी है, पौधे हैं, उन्हीं में वह भी है। उन्हीं में कल तक था, कल फिर उन्हीं में खो जाएगा। है भी कहां, आपका कहां है। छोड़ दें बिलकुल ढीला, जैसे शरीर है ही नहीं। शरीर शिथिल हो रहा है......शरीर शिथिल हो रहा है......शरीर शिथिल हो रहा है......शरीर शिथिल हो रहा है......शरीर बिलकुल शिथिल हो गया...।
श्वास भी शांत हो रही है......श्वास शांत हो रही है, श्वास शांत हो रही है, श्वास शांत हो रही है......छोड़ दें, श्वास को भी बिलकुल ढीला छोड़ दें। श्वास शांत हो गई है, श्वास शांत हो गई है, श्वास शांत हो गई है......श्वास बिलकुल शांत हो गई है..।
मन भी शांत हो रहा है......इतनी है शांत रात, छोड़ दें मन को भी, डूब जाएं इस रात में। मन शांत हो रहा है, मन शांत हो रहा है, मन शांत हो रहा है......मन शांत हो गया, मन शांत हो गया, मन शांत हो गया, मन शांत हो गया...। अब दस मिनट के लिए शांत शून्य में बैठे हुए सागर के गर्जन को सुनते रहें, हवाओं के झोंकें आएंगे, कोई पक्षी बोल उठेगा, कोई और आवाज होगी, चुपचाप इन सारी आवाजों को सुनते रहें, सिर्फ सुनते रहें, सुतने ही सुनते बिलकुल शून्य में प्रवेश हो जाएगा। सुनें, शांत सुनते रहें..... दस मिनट के लिए सुनें।......
सुनें, सागर का गर्जन आया, शून्य मन में गूंज आएगी सागर की लौट जाएगी, आप चुपचाप सुनते रहें, देखते रहें। सुनें......सुनें, सुनते—सुनते ही मन शून्य हो जाएगा। मिट जाएंगे आप, रह जाएगी रात, चांद, चांदनी, वृक्ष, सागर, आप मिट जाएंगे। खो जाएं बिलकुल इस सबमें। सुनें...।
मन शून्य हो रहा है......मन बिलकुल शून्य होता जा रहा है......मन शून्य हो रहा है......मन शून्य हो रहा है......खो जाएं, बिलकुल खो जाएं इस रात में। मन शून्य हो रहा है......बस, सुनते ही सुनते मन बिलकुल शून्य हो जाएगा। सुनें......मन शून्य हो रहा है......देखें भीतर, मन बिलकुल शून्य होता जा रहा है......एक सन्नाटा, एक नीरव सन्नाटा......मन बिलकुल शून्य हो रहा है......बिलकुल शीतल सन्नाटा, भीतर सब ठंडा और शांत होता जा रहा है......मन शून्य हो रहा है......मन शून्य हो रहा है......मन शून्य हो रहा है......मिट गए हम, कहां हैं, एक शून्य रह गया है, बिलकुल शून्य रह गया। मन शून्य हो गया है...।
सुनें, सुनते रहें आवाजों को, गर्जन को......सुनते—सुनते ही मन बिलकुल शून्य हो जाएगा। मन बिलकुल शांत और शून्य हो गया है......मन शून्य हो गया है......परमात्मा करे इस शून्य में रोज—रोज प्रगति होती चली जाए, रोज गहरा होता चला जाए। मन शून्य हो गया है......मन शून्य हो गया है......इस शून्य को ठीक—ठीक पहचान लें। रोज—रोज इसमें प्रवेश करना है।
अब धीरे— धीरे दो—चार गहरी श्वास लें... प्रत्येक श्वास के साथ और भी शांति बढ़ती मालूम होगी। धीरे— धीरे दों—चार गहरी श्वास लें......फिर धीरे— धीरे आंख खोलें... जैसी शांति भीतर है, वैसी ही शांति बाहर है। धीरे— धीरे आंख खोलें
ये जो ध्यान के प्रयोग हमने यहां किए हैं, इन्हें आप यहीं मत छोड़ जाना, लौट कर सुबह—सांझ, जब भी सुविधा हो, इन्हें जारी रखना। थोड़े ही श्रम और थोड़े ही अभ्यास से बिलकुल अपरिचित अनुभव आने शुरू हो जाएंगे। थोड़े ही श्रम से बहुत परिणाम आ सकते हैं।

अब हमारी यह अंतिम बैठक भी समाप्त हुई।

 (साधना पथ समाप्‍त)

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