प्यारे
ओशो!
मुंडकोपनिषद्
का यह सूत्र
कुछ अजीब लगता
है।
यह
कहता है:
श्लोक
इस प्रकार है :
स
यो ह वै तत्
परमंब्रह्मवेइ
ब्रह्मैव
भवति।
नास्याब्रह्मवित्
कुले भवति।
तरति
शोक तरति
पामानम्
गुहाग्रंथिभ्यो
विमुक्तोउमृतो
भवति।।
'जो उस परम
ब्रह्म को
जानता है,
वह ब्रह्म
ही हो जाता है।
उसके कुल
में ब्रह्म को
न जाननेवाला
पैदा नहीं
होता।
वह शोक से
तर जाता है, पाप
से तर जाता है,
और हृदय की
ग्रंथियों से
मुक्त होकर
अमृत बन जाता
है।’
प्यारे
ओशो! हमें इस
सूत्र का
गूढ़ार्थ
समझाने की
अनुकंपा करें।
सहजानंद!
यह सूत्र अजीब
लग सकता है, अजीब
है नहीं। लग
सकता है इसलिए
कि इसमें कुछ
अस्तित्व के संबंध
में बुनियादी
बातें कही गयी
हैं, जो
सामान्य तर्क
के अतीत हैं।
पहली
बात : हम जो भी
जानते हैं, जानने
के कारण उससे
एक नहीं हो
जाते। ज्ञाता
और ज्ञेय अलग—अलग
बने रहते हैं।
यही मन के
ज्ञान की
प्रक्रिया है।
जानना ज्ञाता
और ज्ञेय के
बीच एक संबंध
है। गाता
पृथक् है, गेय
पृथक् है।
जानने के
संबंध के कारण
वे एक नहीं हो
जाते हैं।
नहीं तो फूल
को जाननेवाला
फूल हो जाए और
पत्थर को
जाननेवाला
पत्थर हो जाए।
फिर तो
जाननेवाला
शेष ही न रहे।
जिसने पत्थर
को जाना, वह
पत्थर हो गया।
इसलिए सूत्र
अजीब लगता है।
लेकिन
मन के पार
जानने का एक
और जगत भी है—मनातीत।
उस जगत का
द्वार ही
ध्यान है।
वहां ताता और
ज्ञेय दो नहीं, एक
ही सिक्के के
दो पहलू हैं।
क्योंकि वहां
जानने को कोई
अन्य नहीं
होता, कोई
भिन्न नहीं
होता, वहां
जाननेवाला
स्वयं को ही
जानता है।
ध्यान की
प्रक्रिया को
खयाल में लो
तो सूत्र सरल
हो जाएगा।
ध्यान को बीच
में न लिया तो
सूत्र बेबूझ
रह जाएगा। ये
सारे सूत्र
ध्यान के
सूत्र हैं। ये
उपनिषद्
ध्यान की
गंगोत्री से
पैदा हुए हैं।
ये उन
द्रष्टाओं की
अनुभूइतयां
हैं, जिन्होंने
विचार की जो
सतत्
प्रक्रिया
चलती है, उससे
छुटकारा पा
लिया है।
ध्यान का अर्थ
होता है :
विचार की धारा
का ठहर जाना।
साधारणत:
तुम्हारे
भीतर विचारों
की सतत् शृंखला
लगी रहती है।
जैसे रास्ता
चल रहा हो—लोग
निकलते ही
रहते हैं, गुजरते
ही रहते हैं।
और रास्ता तो
कभी—कभी रात
बंद भी हो जाए,
लेकिन यह मन
के रास्ते पर
विचार दौड़ा ही
करते हैं। दिन
में विचार, रात में
स्वप्न; कभी
स्मृतियां, कभी वासनाएं,
कभी
आकांक्षाएं, कभी
कल्पनाएं—अंत
ही नहीं है न
ओर है न छोर है;
यह चलता ही
रहता है मन।
इस मन की सतत्
प्रक्रिया के
कारण तुम यह
भूल ही जाते
हो कि तुम
इससे पृथक् हो।
यूं
समझो कि किसी
दर्पण के
सामने से
चौबीस घंटे
अहर्निश, चेहरे
गुजरते रहें,
तो दर्पण को
मौका ही न
मिले जानने का
कि मैं इन गुजरते
हुए चेहरों से
अलग हूं। कभी—न—कभी
कोई—न—कोई
चेहरा बन रहा
है; एक
मिटता नहीं, दूसरा बन
जाता है—मिट
नहीं पाता कि
दूसरा बन जाता
है; मिटने
के पहले दूसरा
बन जाता है—हमेशा
दर्पण आच्छादित
है, तो
दर्पण को पता
कैसे चले कि
मैं पृथक्
हूं! इसलिए
ध्यान का
आविष्कार हुआ।
ध्यान का अर्थ
है : दर्पण को
मौका देना थीड़ी
देर को कि
उसमें कोई
प्रतिबिम्ब न
बने, ताकि
दर्पण यह समझ
ले कि मैं अलग
हूं और प्रतिबिम्बों
की जो धारा
मेरे सामने से
गुजरती है, वह अलग है।
जिस घड़ी दर्पण
के सामने से
कुछ भी नहीं
गुजरता, उस
घड़ी दर्पण
अपने को जान
पाता है।
तुम्हारी
चेतना दर्पण
है और विचार
दर्पण के सामने
से गुजरते हुए
दृश्य।
तुम्हारी
चेतना
द्रष्टा है, ज्ञाता
है और चेतना
के सामने से
जो गुजर रहा है,
वह ज्ञेय है।
जिस क्षण ध्यान
की गहन, मौन
अवस्था भीतर
पैदा होती है—जैसा
रज्जब ने कहा : 'जन रज्जब
ऐसी विधि जाने,
ज्यू था
न्यू ठहराया'—जब सब ठहर
जाता है, चित्त
में कोई तरंग
भी नहीं होती,
कोई भाव
नहीं होता, चित्त जब
यूं होता है जैसे
झील निप्तरंग
हो—थिर—तब
तुम्हें पहली
बार अनुभव
होता है कि
मैं पृथक् हूं
विचारों से।
और तुम्हारे
जानने की जो
क्षमता अब तक
विचारों में
उलझी थी, वह
जानने की
क्षमता अपने
पर ही लौट आती
है। अब
जाननेवाला
अपने को जानता
है। अब ज्ञाता
और ज्ञेय दो
नहीं होते, एक ही होता
है। वही जान
रहा है, वही
जाना जा रहा
है। इस
अनुशुइत का
नाम ही ब्रह्म—अनुभूति
है।
यह
सूत्र प्यारा
है;
गहन है, गढ़
है।
स यो ह वै
तत्
परमंब्रह्मवेद्,
ब्रह्मैव
भवति।
जिसने
ब्रह्म को
जाना, वह
ब्रह्म हो गया।
या जिसने अपने
को पहचाना, वह ब्रह्म
हो गया। यही
वेद है।
क्योंकि यही
असली जानना
है! दूसरे को
जानना भी कुछ
जानना है!
दूसरे को
जानकर भी क्या
करोगे? भीतर
अंधेरा रहा और
बाहर सारी
दुनिया रोशन
भी हो जाए तो
किस काम की है!
भीतर खाली रहे
और बाहर धन, पद और
प्रतिष्ठा के
अंबार भी लग
जाएं, तो
किस काम के
हैं! थीड़ी ही
देर में मौत
आएगी और सब
छीन लेगी, सब
पड़ा रह जाएगा।
जीवनभर की आपाधापी
व्यर्थ हो
जाएगी। जो
कमाया, सिद्ध
होगा मौत के
क्षण में कि
वह कमायी न थी,
गंवायी थी।
जो इकट्ठा
किया, मौत
के क्षण में
पता चलेगा कि
कंकड़—पत्थर
इकट्ठे किये
और हीरे
अपरिचित ही रह
गये। कूड़ा—करकट
इकट्ठा करते
रहे और सम्पदा
का एक बड़ा साम्राज्य
भीतर था, उस
तरफ पीठ ही
बनी रही।
जब
कोई व्यक्ति
स्वयं की तरफ
मुड़ता है तो
जिसे वह जानता
है,
वह कोई और
नहीं, वह
स्वयं की ही
सत्ता है।
वहां
जाननेवाला और
जाना
जानेवाला दो
नहीं होते।
इसलिए यह
सूत्र ठीक
कहता है : जो उस
परम ब्रह्म को
जानता है, वह
ब्रह्म ही हो
जाता है। यह
सूत्र धर्म की
पराकाष्ठा है।
बहुत थीड़े—से
धर्म इस ऊंचाई
तक उठे।
क्योंकि बहुत थीडे—से
धर्म इतना
साहस कर सके
हैं।
जैसे, ईसाई
समझ नहीं पाए
जीसस को। जीसस
तो कहते हैं
कि मैं और
मेरा पिता
अर्थात्
ब्रह्म, परमात्मा,
हम दोनों एक
हैं। लेकिन
ईसाइयों ने इस
बात को बिलकुल
गलत ढंग से
पकड़ा है। वे
कहने लगे कि
यह बात सिर्फ
जीसस के संबंध
में सच है कि
जीसस
परमात्मा से
एक हैं, किसी
और के संबंध
में यह सच
नहीं है। जबकि
जीसस अपने
संबंध में कुछ
भी नहीं कह
रहे हैं। जब
जीसस कहते हैं,
मैं और
परमात्मा एक
हैं, तो वे
जोसफ और मरियम
के बेटे जीसस के
संबंध में कुछ
भी नहीं कह
रहे हैं, वे
तो उस भीतर
छिपे हुए परम
चैतन्य के
संबंध में कह
रहे हैं। वही
परम चैतन्य
हमारा असली 'मैं' है।
वही हमारा
असली
अस्तित्व है।
वही हमारी
अस्मिता है।
वही हमारी
आत्मा है।’मैं'
उसकी तरफ ही
इशारा कर रहा
है। लेकिन
ईसाइयों ने
यूं पकड़ ली
बात!
अंधे
आदमी से
प्रकाश के
संबंध में कुछ
कहो,
वह कुछ—का—कुछ
पकड़ लेगा।
बहरे को संगीत
के संबंध में
कुछ समझाओ, वह कुछ—का—कुछ
पकड़ लेगा।
ईसाइयों ने यह
समझा कि जीसस
अपने संबंध
में कह रहे
हैं। जीसस उन
सबके संबंध
में कह रहे
हैं
जिन्होंने भी
जाना है। मगर
ईसाइयत उस तल
तक ऊंचा न उठ
पायी; ईसाइयत
उस ऊंचाई को न
छू सकी; ईसाइयत
में वह फूल न
खिल सका।
वही
परिणाम
इस्लाम में
हुआ। इसलिए
अलहिल्लाज
मैसूर को
मुसलमानों ने
सूली पर लटका
दिया। क्यों? क्योंकि
उसने अनलहक की
घोषणा की।
उसने कहा कि
मैं परमात्मा
हूं? और
मुसलमानों में
इस तरह की
घोषणा कुफ्र
है, पाप है,
महापाप है।
कोई कहे कि
मैं परमात्मा
हूं परमात्मा
के साथ कोई
बराबरी ' करे!
अलहिल्लाज
मंसूर
परमात्मा के
साथ बराबरी
नहीं कर रहा
था, क्योंकि
अलहिल्लाज यह
कह रहा था, मैं
तो हूं ही
नहीं, परमात्मा
है; बराबरी
का सवाल कहां
था! बराबरी तो
तब हो जब दो
हों! दो तो हैं
ही नहीं! अनलहक
का मतलब है :
मैं सत्य हूं।
मैं और सत्य, ऐसी दो
चीजें नहीं
हैं।
अलहिल्लाज
अपने संबंध
में कोई घोषणा
नहीं कर रहा
है।
अलहिल्लाज तो
मिट गया।
ध्यान में जौ
गया, उसका
अहंकार तो मिट
ही जाता है।
फिर जो शेष रह
जाता है, वह
परमात्मा है।
अलहिल्लाज
मंसूर का गुरु
था जुन्नैद।
उसने
अलहिल्लाज को
बहुत बार
समझाया कि देख, इस
बात को भीतर
ही पी जा! मैं
भी जानता हूं
लेकिन मत कह!
जुन्नैद का था,
जीवन के
कड़वे—मीठे
अनुभव उसने
लिए थे; अलहिल्लाज
जवान था!
जुन्नैद
अलहिल्लाज को
समझाता रहा कि
तू यह बात
कहेगा तो आज
नहीं कल तू
मुश्किल में पड़ेगा
और मुझे भी
मुश्किल में
डालेगा।
क्योंकि
अंततः यह दोष
मुझ पर भी
आएगा, कि
तेरा शिष्य
घोषणा कर रहा
है।
अलहिल्लाज
हमेशा
स्वीकार कर
लेता था कि अब
नहीं करूंगा।
लेकिन जब भी
ध्यान में
बैठता था, बस
भूल ही जाता
था! जब मैं ही न
रहा, तो
मैं के द्वारा
दिये गये वचन
कौन याद रखे? जिसने वचन
दिये थे वह तो
गया और जो
प्रगट होता, वह फिर वही
धुन उठा देता;
वही अनलहंक
का नाद। और
जुन्नैद कहता,
कितनी बार
तुझे समझाया
कि यह बात अगर
फैल गयी तो
मुश्किल खड़ी
होगी। तू तो
मारा ही जाएगा,
तेरे साथ
मेरा भी जो
काम चल रहा है,
जो सैकड़ों
लोग ध्यान को,
समाधि को
उपलब्ध हो रहे
हैं, इनकी
प्रक्रिया भी
अवरुद्ध हो
जाएगी। फिर वह
वायदा करता।
और फिर वायदा
टूट जाता!
अंततः
अलहिल्लाज ने
एक दिन कहा कि
अब और वायदा न
करूंगा, क्योंकि
बहुत वायदा
किया, वह
टूट—टूट जाता
है; असलियत
यह है कि जो
वायदा करता है,
वह तो मौजूद
नहीं होता, और जो मौजूद
होता है, उसने
कभी वायदा
नहीं किया।
मैं वहां होता
नहीं और जो
वहां होता है,
वह घोषणा
करता है। मैं
रोकूं तो कैसे
रोकूं!
जुन्नैद
ने कहा कि ऐसा
कर,
तू काबा की
यात्रा कर आ!.......
उन दिनों पैदल
ही यात्रा
करनी होती थी।
वर्ष लग जाते
थे। जुन्नैद
ने सोचा कि
काबा की
यात्रा कर
आएगा, तब
तक तो बात
टलेगी। इस बीच
कुछ भी हो
सकता है। समझ
आ जाए!....... लेकिन
पता है
अलहिल्लाज
मंसूर ने क्या
किया? वह
उठा और उसने
कहा, ठीक, आप आज्ञा
देते हैं तो
जाकर तीर्थयात्रा
कर आता हूं।
उठा और उसने
जुन्नैद के
तीन चक्कर
लगाए और फिर
बैठ गया सामने।
जुन्नैद ने
कहा, यह
क्या किया? उसने कहा, मेरे लिए
तुम ही काबा
हो। तुम्हारे
अलावा और कहां
काबा है! जब
जीवित गुरु को
पा लिया, तो
अब किस पत्थर
की पूजा करने
जाऊं! और
किसलिए? तुम्हारे
तीन चक्कर लगा
लिए, यात्रा
पूरी हो गयी।
अब कहां जाना
है! और वही
अनलहक का नाद।
वह
नाद मैसूर के
संबंध में
नहीं है।
मुसलमान गलत
समझे।
उन्होंने
व्यर्थ ही
मैसूर को सूली
दे दी।
लेकिन
इस देश में
धर्म के ऊंचे—से—ऊंचे
शिखर छुए गये।
वे दिन भी जा
चुके हैं। आज
भारत की मनोदशा
वैसी नहीं है, जो
उपनिषद् के
काल में थी।
आज तो भारत
बहुत दयनीय है।
अब तो यहां भी
आदमी जमीन पर
घिसट रहा है; आकाश में
उड़ने की
क्षमता उसने
खो दी। आज तो
यह घोषणा करना
कि मैं ब्रह्म
हूं खतरे से
खाली नहीं है।
लेकिन जो
जानेगा, वह
रुक भी नहीं
सकता है।
पहले अपनी
आवाज की लरजिश
पर तो काबू पा
लो
पहले अपनी
आवाज की लरजिश
पर तो काबू पा
लो
फिर प्रेम
के बोल तो
ओठों से निकल
जाते हैं
एक बार
कंपती हुई
आवाज ठहर जाए
फिर प्यार के
बोल तो अपने
से निकल जाते
हैं;
कुछ कहना
नहीं पड़ता।
फिर
प्यार के बोल
तो ओठों से
निकल जाते हैं...........
बस, एक
ही काम करना
जरूरी है कि
वह जो भीतर
चलता हुआ कंपन
है—
पहले
अपनी आवाज की
लरजिश पर तो
काबू पा लो
फिर
कुछ कहना नहीं
पड़ता, जो कहने
योग्य है, अपने
से निकल जाता
है। फिर उसे
रोका नहीं जा
सकता। ये
उपनिषद् के
वचन कहे नहीं
गये हैं, निकले
हैं। ये स्व—स्फूर्त
घोषणाएं हैं,
स्फुरणाएं
हैं।
जो
उस परम ब्रह्म
को जानता है, वह
ब्रह्म ही हो
जाता है।
स यो ह वै
तत्
परमंब्रह्मवेद्.......
और
यही वेद है।
वेद
शब्द बड़ा
प्यारा है।
वेद का अर्थ
है : जानना।
वेद बनता है
विद् से। विद्
का अर्थ होता
है. ज्ञान।
उसी से विद्वान
शब्द बना। वेद
कोई चार
संहिताओं में
समाप्त नहीं
हो गया है; कोई
ऋग्वेद, सामवेद,
यजुर्वेद, अथर्ववेद, उन पर
समाप्त नहीं
हो गया है; जब
भी दुनिया में
किसी व्यक्ति
ने अपने भीतर
परमात्मा का
साक्षात्कार
किया है, वेद
वहां फिर से
जन्मा है। हर
बुद्ध के साथ
वेद का जन्म
होता है। फिर
वह बुद्ध चाहे
मोहम्मद हों,
चाहे जीसस,
चाहे
जरथुस्त्र, चाहे
लाओत्सु, चाहे
महावीर, चाहे
कृष्ण, चाहे
कबीर, चाहे
नानक, कुछ
भेद नहीं पड़ता।
जिसने अपने को
जाना, जानते
ही उसके ओठों
से वेद फूट
पड़ते हैं।
क्योंकि वह
स्वयं ही
ब्रह्म हो गया।
असल
में यह कहना
कि स्वयं ही
ब्रह्म हो गया, भाषा
की भूल है।
ब्रह्म तो तुम
हो ही। सिर्फ
जानते नहीं हो,
सिर्फ बोध
नहीं है—सोए
हुए ब्रह्म हो।
बुद्ध जागे
हुए ब्रह्म
हैं। भेद कुछ
ज्यादा नहीं
है। जरा—सी
तुम भी करवट
लो और उठ आओ, बस, भेद
समाप्त हो
जाता है। कोई
गुणात्मक भेद
नहीं है। तुम
सोए हुए बुद्ध
हो, बुद्ध
जागे हुए
बुद्ध हैं। यह
उपनिषद् का
ऋषि जो कह रहा
है, यह
तुम्हारे
संबंध में
उतना ही सच है
जितना उसके
स्वयं के
संबंध में।
मगर तुम्हें
इसका पता नहीं
है। और जब तक
तुम्हें पता
नहीं है, तब
तक स्वभावत:
यह सूत्र अजीब—सा
लगेगा, कि
जिसे हम जानते
हैं, उसके
साथ हम एक
कैसे हो जाते
हैं? तुम
एक हो ही।
अब
यूं समझो, जो
तुम्हारे
भीतर जान रहा
है, वही
ब्रह्म है। वह
जो जानने की
क्षमता है, वही ब्रह्म
है। वह जो
तुम्हारे
भीतर बोध है, वही
बुद्धत्व है।
तुम्हारा
चैतन्य ही
परमात्मा का
एकमात्र प्रमाण
है।
और
सूत्र का
दूसरा हिस्सा
भी....... तुम्हें, सहजानंद,
दिक्कत में
डाला होगा।
क्योंकि उसका
सामान्य अर्थ
जो एकदम से
खयाल में आता
है, अड़चन
में
डालनेवाला है।’उसके कुल
में ब्रह्म को
न जाननेवाला
पैदा नहीं
होता।’ इसको
अगर तुमने
शाब्दिक
अर्थों में
लिया, तो स्वभावत:
बहुत अजीब—सा
लगेगा।
क्योंकि
बुद्ध का बेटा
राहुल कोई
पैदा होने से
ही बुद्धत्व
को उपलब्ध
नहीं हो जाता।
महावीर की
बेटी तो कभी
बुद्धत्व को
उपलब्ध हुई, इसका कोई
उल्लेख नहीं
है। और क्या
की सोलह हजार
पत्नियां थीं,
तो न—मालूम
कितने हजार
बेटे—बेटियां
हुए होंगे!
इतने हजारों
ब्रह्मज्ञानी
अगर एक साथ एक आदमी
पैदा कर देता
तो इस देश की
ऐसी दुर्गति न
होती! कहां खो
गये वे हजारों
कृष्ण के बेटे—बेटियां?
उनका तो कुछ
पता नहीं है।
इस
सूत्र का
शाब्दिक अर्थ
मत लेना, इस सुत्र
का बड़ा
संकेतात्मक
अर्थ है। यूं
समझो—
बुद्ध
ने कहा है :
मनुष्य की
चेतना एक
प्रवाह है—जैसे
नदी का प्रवाह।
बुद्ध का शब्द
है उस प्रवाह
के लिए : संतति।
आखिर
तुम्हारा
बेटा
तुम्हारा
क्यों कहलाता है? क्योंकि
तुम्हारे
प्रवाह से आया
है, तुम्हारे
प्रवाह का
हिस्सा है।
फिर उसका बेटा,
फिर उसका
बेटा, यह
प्रवाह है.......
संतति!
बुद्ध
ने कहा, जैसे
दीया जलाते
हैं हम सांझ
को, फिर
सुबह दीये को
बुझाते हैं, अगर कोई
तुमसे यह कहे
कि जो दीया
तुमने सांझ
जलाया था, जो
ज्योति तुमने सांझ
जलायी थी, क्या
वही तुम सुबह
बुझा रहे हो? तो तुम
मुश्किल में
पड़ोगे।
क्योंकि वही
ज्योति तो तुम
नहीं बुझा रहे
हो। वह ज्योति
तो न—मालूम
कितनी बार बुझ
चुकी। नहीं तो
धुआं कहां से
उठता है? प्रतिपल
पुरानी
ज्योति बुझकर धुआं
हो जाती है।
और उसकी जगह
नयी ज्योति आ
जाती है।
लेकिन पुरानी
ज्योति का बुझना
और नयी ज्योति
का आना इतनी
त्वरा से होता
है, इतनी
तीव्रता से
होता है कि
तुम्हारी आंख
देख नहीं पाती।
दोनों के बीच
अंतराल इतना
कम है और
शीघ्रता इतनी
है। नहीं तो यह
सत्य तो यही
है कि ज्योति
हर क्षण
पुरानी विदा
हो रही है, उड़ी
जा रही है धुआं
होकर, नयी
ज्योति उसकी
जगह ले रही है।
अगर वही
ज्योति रही, तो फिर तेल
जलेगा ही नहीं,
फिर बाती
जलेगी ही नहीं;
बाती उतनी
ही रहेगी, तेल
भी उतना ही
रहेगा—खर्च का
सवाल ही नहीं
उठता, ज्योति
वही है। लेकिन
ज्योति
प्रतिपल भागी
जा रही है।
तो
तुम क्या
कहोगे? क्या
तुम कहोगे, हम वही
ज्योति
बुझाते हैं
सुबह जो हमने
सांझ जलायी थी?
यह तो नहीं
कहा जा सकता। तो
क्या तुम यह
कहोगे कि हम
दूसरा दीया
बुझा रहे है; जो हमने
सांझ जलाया था,
वही नहीं; यह भी नहीं
कहा जा सकता।
क्योंकि दीया
तो यह वही है
जो सांझ जलाया
था। तो बुद्ध
ने एक नया
शब्द खोजा।
बुद्ध ने कहा :
यह उसी दीये
की संतति है।
वह दीया तो
बुझता रहा, लेकिन उसकी
संतति चलती
रही, उसका
प्रवाह चलता
रहा। यह उसी
शृंखला में
बंधी हुई आयी
ज्योति है। जो
ज्योति तुमने
जलायी थी, उसी
सिलसिले का यह
हिस्सा है, उसी सातत्य
का।
आज
विज्ञान भी इस
सत्य को
स्वीकार करता
है। इसलिए
विज्ञान के
पास भी संतति
जैसा एक शब्द है
: 'कंटीनम'।’कंटीनम' का
अर्थ होता है : 'कन्टीन्यूटी',
सातत्य।
तुम जब यहां
आए थे और तुम
जब घंटेभर बाद
यहां से जाओगे,
तो क्या तुम
सोचते हो तुम
वही व्यक्ति
हो जो जाए थे? नहीं। जो
आया था, उसमें
तो बहुत बदल
गया। थीड़ा—सा
तुम्हारे
भीतर बुढ़ापा
भी आ गया। एक
घंटा जिंदगी
बीत गयी। कुछ
तुम्हारे
भीतर मर भी
गया।
तुम्हारे
नाखून थीड़े बढ़
गये, तुम्हारे
बाल थीड़े बढ़
गये। कुछ
जीर्ण—शीर्ण
भी हो गया।
कुछ भोजन भी
पच गया—सुबह
से नाश्ता
करके आए थे—कुछ
मांस—मज्जा भी
बन गयी। तुम
वही तो नहीं
हो। और फिर
तुम मुझे
सुनकर जाओगे
तो कुछ नये
विचार भी
तुम्हारे
भीतर
प्रविष्ट हो
गये। कुछ
पुराने
विचारों को
धक्का देकर
उन्होंने निकाल
दिया होगा।
तुम वही नहीं
हो। लेकिन एक
अर्थ में तुम
वही हो। इस
अर्थ में तुम
वही हो कि अब
तुम जो जा रहे
हो, उसी की
संतति है, उसी
की संतान है।
जिस
वृक्ष के पास
से तुम गुजरकर
आए थे, जब
लौटकर जाओगे,
क्या वृक्ष
वही है? कुछ
पत्ते गिर गये,
कुछ नये
पत्ते ऊ—ग आए।
वही तो नहीं
है। वृक्ष थीड़ा
बड़ा भी हो गया,
जड़ें थीड़ी
गहरी भी हो
गयीं। हो सकता
है तुम जब आए
थे तो जो कली
थी, जब तुम
लौटकर जाओ फूल
बन गयी हो; पंखुड़ियां
खिल गयी हों, गंध उड़ गयी
हो। वृक्ष वही
तो नहीं है।
जीवन सतत्
प्रवाह है।
गतिमान है, गत्यात्मक
है। थिर नहीं
है। ठहरा हुआ
नहीं है। जड़
नहीं है। इसको
बुद्ध ने कहा
है : प्रवाह, संतति।
विज्ञान कहता
है : ' कंटीनम
'।
इस
बात को खयाल
में रखो तो
उपनिषद् का यह
सूत्र साफ हो
जाएगा—
'उसके कुल
में ब्रह्म को
न जाननेवाला
पैदा नहीं
होता।’ जिसने
एक बार ब्रह्म
को जान लिया, फिर उसकी
शृंखला में जो
भी चेतना आएगी,
उसकी चेतना
में जो नये—नये
पत्ते लगेंगे
और नये—नये
फूल खिलेंगे,
वे सब
ब्रह्म को
जाननेवाले
होंगे। इसका
मतलब तुम यह
मत समझ लेना
कि उसके बेटे
ब्रह्म को
जानने वाले
होंगे। बेटे
तो उसके शरीर
से आते है।
शरीर तो
ब्रह्म को
जानता नहीं।
चेतना ब्रह्म
को जानती है।
तो चेतना की
जो संतति होगी,
वह ब्रह्म
को जानने वाली
होगी। जिसने
जवानी में
ब्रह्म को
जाना, वह
बुढ़ापे में भी
ब्रह्म को
जानेगा।
हालांकि
बुढ़ापे में
कितनी धारा
बदल गयी, गंगा
का कितना पानी
वह गया। जिसने
जीते—जी
ब्रह्म को
जाना, वह
मरते क्षण में
भी ब्रह्म को
जानेगा। वह
उसी आनंद से
जीया, वह
उसी आनंद से
मरेगा भी।
उसकी मृत्यु
भी एक अपूर्व,
अद्वितीय
अनुभव होगी।
उसकी मृत्यु
भी एक उत्सव
होगी। वह जीवन
भी उत्सव से
जीया, उसका
जीवन गीतों से
भरा था, उसका
जीवन एक मादक
संगीत था, उसकी
मृत्यु भी उसी
मादकता का
अंतिम शिखर
होगी, गौरीशंकर
होगी।
साधारण
आदमी मरता है
तो हम उसे
जलाते हैं। और
करें भी क्या? लेकिन
हम भी रोते
हैं, वह भी
रोता हुआ विदा
होता है।
लेकिन जब कोई
बुद्ध विदा हो
तो रोना मत, क्योंकि वह रोता
विदा नहीं हुआ।
उसके साथ
अन्याय मत
करना। वह
हंसता गया, प्रफुल्लित
गया, तुम
भी नाचते हुए
उसे विदा देना।
तुम भी
आनंदमग्न
होकर विदा
देना। इसलिए
मैंने कहा है
कि मेरा कोई
भी संन्यासी
मरे
तो रोना मत, आसू
मत गिराना—उसके
साथ अन्याय
होगा—नाचना, आहादित होना।
दुख की कोई
बात नहीं है।
जो नहीं
मिटनेवाला
है,
नहीं
मिटेगा, 'जो
मिटनेवाला है,
वह मिटने ही
वाला था।
तू
जिस्म के
खुशरंग
लिबासों पै है
नाजां
तू जिस्म
के खुशरंग
लिबासों पै है
नाजां
पागल, मैं
रूह को
मोहताजे कफन
देख रहा हूं
मैं रूह को
मोहताजे कफन
देख रहा हूं.......
तू जिस्म
के खुशरंग
लिबासों पै है
नाजां
मैं रूह को
मोहताजे कफन
देख रहा हूं
हम हाल
उनकी स्थ का
दुनिया से
पूछते
लेकिन, दुनिया
गयी तो वहीं
जाकर रह गई.......
हम हाल
उनकी बल्य का
दुनिया से
पूछते
दुनिया
गयी तो वहीं
जाकर रह गई
कोई आये,
कोई जाये.......
कोई आये, कोई
जाये, ये
तमाशा क्या है
कोई आये, कोई
जाये ये तमाशा
क्या है
देखो, कोई
आये, कोई
जाये, ये
तमाशा क्या है?
कुछ समझ
में नहीं आता.......!
कुछ समझ
में नहीं आता
कि ये दुनिया
क्या है!
नींद से आंख
खुली है अभी.......
नींद से आंख
खुली है अभी
देखा क्या है
देख लेना
अभी कुछ देर
में.......
देख लेना
अभी कुछ देर
में दुनिया
क्या है
कोई आये, कोई
जाये, ये
तमाशा क्या है
देखो, कोई
आये, कोई
जाये, ये
तमाशा क्या है।
कुछ समझ
में नहीं आता
कि ये दुनिया
क्या है।
नींद से आंख
खुली है अभी
देखा क्या है
देख लेना
अभी कुछ देर
में दुनिया
क्या है
दम निकलते
ही हुआ.......
दम निकलते
ही हुआ बोझ
सभी पर भारी
अरे जल्द
ले जाओ.......
जल्द ले
जाओ अब इस ढेर
में रक्खा
क्या है
दम निकलते
ही हुआ बोझ
सभी पर भारी
अरे जल्द
ले जाओ.......
जल्द ले
जाओ अब इस ढेर
में रक्खा
क्या है
कोई आये, कोई
जाये, ये
तमाशा क्या है
कुछ समझ
में नहीं आता
कि ये दुनिया
क्या है
रेत की, ईंट
की, पत्थर
की हो या
मिट्टी की
इस दीवार
के साये का
भरोसा क्या है
रेत की, ईंट
की, पत्थर
की हो या
मिट्टी की
इस दीवार
के साये का
भरोसा क्या है
कोई आये, कोई
जाये, ये
तमाशा क्या है
कुछ समझ
में नहीं आता
कि ये दुनिया
क्या है
शौक गिनने
का अगर है तो
अमल को गिन ले
मेरे
दिलगीर इस
दौलत को गिनता
क्या है
शौक गिनने
का अगर है तो
अमल को गिन ले
मेरे
दिलगीर इस
दौलत को गिनता
क्या है देखो,
कोई आये, कोई
जाये, ये
तमाशा क्या है
कुछ समझ
में नहीं आता
कि ये दुनिया
क्या है
जख्म करके
वो तसल्ली भी
दिये जाते हैं.......
जख्म करके
वो तसल्ली भी
दिये जाते हैं.......
अरे, रफ्ता—रफ्ता.......
अरे रफ्ता—रफ्ता
सभी आ जायेंगे
डरता क्या है
रफ्ता—रफ्ता
सभी आ जायेंगे, डरता
क्या है?
जख्म करके
वो तसल्ली भी
दिये जाते हैं
रफ्ता—रफ्ता
सभी आ जायेंगे
डरता क्या है
अपनी
दानिश्त में
समझे कोई
दुनिया साहिद
अपनी
दानिश्त में
समझे कोई
दुनिया साहिद
वरना
हाथों में........
वरना
हाथों में
लकीरों के
इलावा क्या है
अपनी
दानिश्त में
समझे कोई
दुनिया साहिद
वरना
हाथों में
लकीरों के
इलावा क्या है
देखो कोई
आये, कोई
जाये, तमाशा
क्या है
तू जिस्म
के खुशरंग
लिबासों पै है
नाजां
मैं रूह को
मोहताजे कफन
देख रहा हूं
कोई आये, कोई
जाये, ये
तमाशा क्या है
कुछ समझ
में नहीं आता
कि ये दुनिया
क्या है
यह
जिंदगी समझ
में नहीं आएगी
जब तक कि तुम
भीतर न झांको।
बाहर देखते
रहो,
देखते रहो,
देखते रही,
कुछ समझ में
न आएगा। लेकिन
भीतर झांका कि
सब समझ में आ
जाता है।
क्योंकि
समझनेवाला
समझ में आ
जाता है।
देखनेवाला
दिखायी पड़ जाए
जाननेवाला
जानने में आ
जाए सब समझ के
आ जाता है। और
उस समझ के बाद
कोई छीन नहीं
सकता
तुम्हारे
ज्ञान को, तुम्हारे
बोध को।
बुद्धत्व पर
पहुंचकर कोई
गिरता नहीं है,
गिरना
असंभव है।
क्योंकि
बुद्धत्व कोई
ऐसी चीज नहीं
है जो तुमसे
भिन्न है। वह
तुम्हारा ही
परम आविष्कार
है। उससे
गिरना भी
चाहोगे तो
कैसे गिरोगे?
बुद्धत्व
को पाकर न कभी
कोई गिरा है, न कभी कोई
गिर सकता है।
नास्याब्रह्मवित्
कुले भवति।
उसके
कुल में, उसकी
संतति में, उसके प्रवाह
में, उसकी
चैतन्य धारा
में, उसकी
आत्मा की गंगा
में फिर कभी
भी अज्ञान पैदा
नहीं होता।
फिर हर
आनेवाला दिन
और भी निखार
लाता है। हर
आनेवाला क्षण
और नये फूल
खिला जाता है।
उसके जीवन में
फिर बसंत ही
बसंत है। उसके
जीवन में फिर
ऋचाएं उठने
लगती हैं, गीत
फूटने लगते
हैं, नृत्य
जगने लगता है।
तरति शोकं.......
वह
पार हो जाता
है दुख के।
दुख
क्या है? दुख
का आधार क्या
है, बुनियाद
क्या है? यही
कि हम अपने से
अपरिचित हैं।
अपने से
अपरिचित होना
दुख है। अपने
से परिचित हो
जाना आनंद है।
तरति शोकं
तरति पाणानम्
और
पाप क्या है? जो
अपने को नहीं
जानता, वह
जो भी करेगा, पाप है। इसे
जरा समझना।
वह
पुण्य भी
समझकर जो
करेगा, वह भी
पाप है। वह
पुण्य कर ही
नहीं सकता।
जिसने स्वयं
को नहीं जाना
है, उससे
पुण्य असंभव
है। क्यों!
इसलिए कि जो
भीतर अंधेरे
से भरा है, उस
अंधेरे से
कैसे प्रकाश
की किरणें
पैदा होंगी? जो भीतर
बेहोश है, उससे
तुम होश की
अपेक्षा न रखो।
वह चाहे
दिखावा कितना
ही करे!
मैं
रायपुर कुछ
समय के लिए प्रोफेसर
था। मेरे साथ
अंग्रेजी
विभाग में एक
प्रोफेसर थे, उन्हें
शराब पीने की
आदत थी। मगर
वे दिखावा यूं
करते थे कि
नहीं पीए हुए
हैं। मगर उनके
दिखावे के
कारण ही वे
फंसते थे। सभी
शराबी कोशिश
यही करते हैं
दिखलाने की।
वे कोशिश न
करें तो शायद
पकड में भी न
आयें। उनकी
कोशिश ही झंझट
कर देती है।
एक
दिन वे पीकर
मुझसे मिलने आ
गये। आते ही
वे मुझसे बोले
कि आप यह मत
समझना कि मैं पीए
हुए हूं।
मैंने कहा कि
हद कर दी
तुमने भी! मैं
क्यों समझूंगा
कि तुम पीए हो!
मगर तुमने यह
बात कही क्यों? नहीं,
उन्होंने
कहा, कुछ
लोग यह समझ
लेते हैं कि
मैं हमेशा ही
पीए हुए हूं।
अरे, कभी
होली—दीवाली पी
ली, बात रख
दी, मगर
रोज नहीं पीता।
मगर मैंने कहा,
तुमने यह
टोपी कैसे
उलटी लगा रखी
है? टोपी
सीधी थी, उन्होंने
जल्दी से उसको
उल्टी कर ली।
मैंने कहा, बिलकुल साफ
है कि तुम पीए
हुए नहीं हो, मगर यह कोट
तुमने उल्टा
पहन रखा है!
उन्होंने गौर
से देखा, अरे,
उन्होंने
कहा, हा! और
जब वे कोट
उल्टा करने
लगे, मैंने
कहा, अब
रुको, नाहक
कष्ट न करो, किसको धोखा
दे रहे हो?
तुम्हारी
चेष्टा कि तुम
नहीं पीए हुए
हो,
तुम्हें
कहीं भी फंसा
देगी। शराब
पीने के बाद
या भांग पी
लेने के बाद
आदमी यह कोशिश
करता है
दिखाने की कि
मैं नहीं पीए
हुए हूं।
सम्हलकर चलता
है। मगर उसका
सम्हलकर चलना
ही बताता है।
क्योंकि रोज
तो सम्हलकर
नहीं चलता था,
सम्हलने की
कोई जरूरत ही
नहीं थी। आदमी
जब होश में
होता है तो
चलता है, सम्हलने
की क्या जरूरत
है? जोर—जोर
से बोलता है!
कि कहीं कोई भूल—चूक
न हो जाए—सम्हल—सम्हलकर
बोलता है; उसी
में गड़बड़ हो
जाती है।
जिसको
आत्मज्ञान
नहीं है, वह
मंदिर बनवाए
तो भी पाप
होगा।
क्योंकि वह
मंदिर
परमात्मा के
लिए तो बनवा
ही नहीं सकता।
परमात्मा का
उसे कोई बोध
नहीं है। अब
तुम देखते हो
न कितने बिड़ला—मंदिर
बने हुए हैं।
जुगल किशोर
बिड़ला मुझे
मिले थे, तो
वह मुझसे कहने
लगे कि आप
जानकर तो खुश
होंगे कि
मैंने कितने
मंदिर बनवाए!
मैंने कहा, उनमें से एक
भी मंदिर
भगवान का नहीं
है, सब
बिड़ला—मंदिर
है। और पहली
दफे ही यह
अनूठी घटना
आपने की है।
यहां क्या के
मंदिर बनते थे,
राम के मंदिर
बनते थे, लेकिन
बिड़ला—मंदिर
बिलकुल नयी
चीज है!
उन्होंने कहा,
लेकिन किसी
ने मुझे यह
खयाल नहीं
दिलाया। यह
बात तो ठीक है
कि मंदिर
बिड़ला—मंदिर
क्यों कहलाए?
सदियों से
मंदिर बनते
रहे, लेकिन
कोई मंदिर
बनानेवाले के
नाम से नहीं
कहलाया था।
जिसकी मूर्ति
स्थापित हो, उसका मंदिर
होता है।
लेकिन बिड़ला—मंदिर।
लेकिन
सचाई यह है कि
आदमी मंदिर, मंदिर
के लिए नहीं
बनाता, उस
पत्थर के लिए
बनाता है जो
उसके नाम का
मंदिर पर
लगाया जाएगा।
यह जो मंदिर
पर लगाया हुआ
अहंकार का
पत्थर है, उसकी
ही सजावट है—मदिर
और कुछ भी
नहीं। उससे
भिन्न कुछ भी
नहीं। वह दान
भी करेगा तो
दान के पीछे
लोभ ही छिपा
होता है।
क्योंकि
शास्त्र कहते
हैं, पंडित—पुरोहित
समझाते हैं कि
यहां एक पैसा
भी अगर दान
किया तो
स्वर्ग में एक
करोड़ गुना
पाओगे। यह
सौदा करने
जैसा है! यह
इतना—लाटरी
समझो, सौदा
नहीं! एक पैसा
यहां लगाओगे,
करोड़ गुना
मिलेगा; कर
ही लेने जैसा
है! अरे, थीड़ा—बहुत
लगा दिया तो
हर्ज क्या है!
इतना अगर मिलनेवाला
है, तो जो
नहीं कर रहे
हैं धंधा, वे
गलती में हैं!
मगर यह धंधा
ही है, इसके
पीछे लोभ है।
इसके पीछे
स्वर्ग को
पाने की कामना
है।.
और
स्वर्ग के
पीछे क्या
इच्छा छिपी हुई
है?
कल्पवृक्ष
के नीचे
बैठेंगे, बहुत—सी
वासनाएं यहां
अधूरी रह गयी
हैं—किसकी
पूरी होती
हैं! बुद्ध ने
कहा है : वासना
दुभूर है; किसी
की भी पूरी
नहीं होती—तो
स्वर्ग में
पूरी कर लेंगे।
यहां तो बहुत
दौड़धूप करो, भाग—दौड़ करो,
बामुश्किल
से मारामारी
करो, तब भी थीड़ा—बहुत
कुछ मिलता है;
उससे कुछ
तृप्ति तो
होती नहीं, और प्यास बढ़
जाती है।
लेकिन
कल्पवृक्षों
के नीचे
बैठेंगे, आनंद
करेंगे—एक दफा
स्वर्ग पहुंच
जाएं।
तो
कल्पवृक्षों
की कल्पना ही
कमियों की
कल्पना है।
कल्पवृक्ष
भोगियों की
कल्पना है। जो
यहां नहीं भोग
पाए—यहां धूनी
रमाए बैठे हैं; आग
बरस रही सूरज
से और ये
चारों तरफ और
आग जलाकर बैठे
है; इसको
कहते हैं
तपश्चर्या!
आत्महिंसा कर
रहे हैं, अपने
को सता रहे
हैं, दुष्टता
कर रहे है हर
तरह की, मगर
इसको कहते हैं
तपश्चर्या।
मगर इनके भीतर
कामना क्या
सुलग रही है? यहां बाहर
की आग सुलग
रही और भीतर
कामना की आग
सुलग रही है
कि अरे, चार
दिन की बात है,
दो दिन तो
गुजर ही गये, दो दिन भी
गुजर जाएंगे
और फिर स्वर्ग
में आनंद ही
आनंद है, थीड़ा
कष्ट झेल ही
लो। इस थीड़े
से कष्ट के
पीछे उतना
आनंद नहीं
छोड़ा जा सकता।
वहां
कल्पवृक्षों
के नीचे
बैठेंगे और मजा
करेंगे। वहा
तो कामना की
और तत्क्षण
पूरी हो जाती
है। इधर चाहा
नहीं—तुम्हारी
चाह भी पूरी
नहीं हो पाती
कि कामना पूरी
हो जाती है।
बस, मन में
भाव उठा कि
कामना पूरी हो
जाती है। तो यहां
लोग पुण्य
करेंगे, तप
करेंगे, योग
करेंगे, दान
करेंगे, व्रत
उपवास करेंगे,
लेकिन आकांक्षा
क्या है? आकांक्षा
यही है कि
स्वर्ग में
भोगेंगे।
और
जो नहीं कर
रहे हैं तप—ब्रत—उपवास, उनकी
तरफ इन
उपवासियों की
नजर देखो।
उनको इस तरह
देखते हैं कि
जैसे कोई कीड़े—मकोड़े
हों। नर्क में
सड़ेंगे ये। ये
भी मजा है
तपश्चर्या का,
कि दूसरों
को नर्क में
सड़ता हुआ
देखने का भी
रस। नर्क की
जिनने ईजाद की
है, नर्क
की कल्पना को
जिन्होंने
ईजाद किया है,
ये बहुत
हिंसक और
दुष्ट—प्रवृत्ति
के लोग होंगे।
अपने लिए
स्वर्ग का
आयोजन कर लिया
है, दूसरों
के लिए नर्क
का आयोजन कर
दिया है। जो
हमारी मानकर
चले, वह
स्वर्ग; जो
हम जैसा रहे, वह स्वर्ग; और जो हमसे
विपरीत जाए, वह नर्क में
पड़ेगा। ये कोई
अच्छे
आदमियों के
लक्षण तो नहीं।
ये तो
सुसंस्कृत
आदमी के लक्षण
भी नहीं, धार्मिक
की तो बात ही छोड़
दो!
तो
ध्यान रखना, आत्मज्ञान
के बिना कोई
पाप से मुक्त
नहीं हो सकता।
ही, पाप को
छिपा ले सकता
है, ढाक ले
सकता है। मगर
पाप घूम—घूमकर
लौट आएगा।
पाप
है क्या? अंधकार
से भरे हुए
आदमी के कृत्य
का नाम पाप है।
अज्ञान से
पैदा हुए
कृत्य का नाम
पाप है। ज्ञान
से पैदा हुए
कृत्य का नाम
पुण्य है।
इसीलिए मैं
तुमसे नहीं
कहता कि पाप
मत करो, पुण्य
करो; मैं
कहता हूं :
अज्ञान को
तोड़ो और ज्ञान
को जगाओ। नींद
हटाओ, होश
को जगाओ। और
होश के बाद
तुम जो करोगे,
वह पुण्य है।
और बेहोशी में
तुम जो करोगे,
वह पाप है।
मेरी
व्याख्या
सीधी—साफ है।
और
अगर तुम इस
निर्णय में पड़
गये कि क्या
पाप है और
क्या पुण्य है, तो
तुम मुश्किल
में पड़ जाओगे।
बहुत मुश्किल
में पड़ जाओगे।
फिर मच्छरों
को मारना पाप
है या पुण्य? डी. डी .टी. का
उपयोग पाप है
या पुण्य? मच्छरदानी
बांधना पाप है
या पुण्य है, सवाल उठेगा।
क्योंकि
मच्छरदानी
बांधने का
मतलब मच्छरों को
भूखा मार रहे
हो। महापाप कर
रहे हो। जरा
सोच—समझकर
मच्छरदानी
बांधना। जैनी
भी मच्छरदानी
बांधते है।
इनको तो कम—से—कम
नहीं बांधना
चाहिए। क्या
महापाप कर रहे
हो! इतने
बेचारे
मच्छरों को, दीन—हीन
मच्छरों को
भूखा मार रहे
हो!
कल
मैंने देखा एक
वक्तव्य, मेरे
खिलाफ। जीव—दया
मंडल, बम्बई
ने वक्तव्य
दिया है कि
जीवों पर दया
करनी चाहिए, इसलिए गऊ—हत्या
बंद होनी
चाहिए। यह जीव—दया
मंडल को अपना
नाम बदल लेना
चाहिए। इसको
नाम रखना
चाहिए : जीव—शोषक
मंडल।
क्योंकि अगर
दया करनी है
तो मच्छर पर
करके दिखाओ, खटमल पर
करके दिखाओ।
गाय पर क्या
दया कर रहे हो!
गाय को तुम
चूसते हो। और
किस शास्त्र
में लिखा है
कि गाय के थन
में जो दूध
आता है, वह
तुम्हारे लिए
आता है—जीव—दया
मंडल वालों के
लिए आता है? वह बर्छियों—बछड़ों
के लिए आता है।
और तुम उसको
पी रहे हो और
जीवन दया कर
रहे हो तुम!
गाय के बच्चों
को भूखा मार
रहे हो! और गाय
के इन बछड़ों
को तुम फिर
बधिया करके
बैल बना रहे
हो!
लेकिन
जीव—दया मंडल।
उन्होंने
सब गाय का
गुणगान किया
है कि गाय से कितने
फायदे हैं।
इसी से तो बैल
मिलते, हल—बक्सर
जीते जाते, बैलगाड़ी
चलती; इसी
से दूध मिलता;
इसी से गोबर
मिलता, गोबर
गैस बनती, खाद
बनता है। तुम
जीव—दया कर
रहे हो कि गाय
तुम पर दया कर
रही है? मगर
गाय से भी पूछ
लो कि उसे दया
करनी है कि
नहीं? कि
तुम जबरदस्ती
दया करवा रहे
हो? जीव—दया
मंडल का क्या
अर्थ है? जीवों
से जबरदस्ती
अपने ऊपर दया
करवानी। अगर
सच में ही जीव—दया
मंडल हो, तो
मच्छरदानी की
खिलाफत करो, डी .डी .टी. का विरोध
करो, खटमलों
को मत मारो; खाट में
खटमल हो जाए
तो धन्यभागी
हो तुम, बिलकुल
महावीर
स्वामी होकर
लेट जाओ—नग—धढ़ग,
दिगम्बर—कि
आओ भाइयो एवं
बहनो, जी
भरकर पीओ।
पुण्य करो।
मच्छरों को
निमंत्रण दो।
मच्छरों को
मारो मत।
तिलचट्टे
इकट्ठे करो।
चूहे। ऐसी—ऐसी
चीजें इकट्ठी
करो, गऊ पर
क्या
तुम्हारा......
.सिर्फ दया गऊ
माता पर कर
रहे हो। और एक
गऊ नहीं कहती
कि तुम उसके
बेटे हो और
तुम्हीं
बुद्ध कहे चले
जाते हो कि हम
गऊ को माता मानते
हैं। और बैल
को बाप नहीं
मानते, बड़ा
मजा है। गऊ को
माता मानते हो,
बैल को बाप
क्यों नहीं
मानते? और यह
गाय के जो
बच्चे—कच्चे
होते हैं, इनको
भाई—बहन।
सिर्फ गऊ माता।
और जीव—दया
मंडल है। जीव—दया
मंडल का नाम
बदल लो, इसका
नाम रखो : जीव—शोषक
मंडल।
क्योंकि अगर
दया करनी है, तो अपना
शोषण करवाओ।
दया का मतलब
होता है तुम
कुछ त्याग करो।
तो गऊ को तुम
चूस रहे हो और
दया की बातें
कर रहे हो!
किसको धोखा दे
रहे हो?
कैसे
तय करोगे कि
क्या पाप है
और क्या पुण्य
है?
कौन—सी
सब्जी खाना
पाप है और कौन—सी
सब्जी खाना
पुण्य है? जैनों
के हिसाब से
जो भी सब्जी
जमीन के नीचे
पैदा होती है,
उसको खाना
पाप। आलू....... आलू
जैसा निरीह
प्राणी कि किसी
को भी देखकर
दया आ जाए, उसको
खाना पाप है!
क्योंकि वह
जमीन के नीचे
पैदा होता है।
अब जमीन के
नीचे पैदा
होने में कोई
कसूर है? अंधेरे
में पैदा होता
है। तो तुम
कोई रोशनी में
पैदा हुए हो? नौ महीने
तुम भी मां के
पेट में, अंधेरे
में रहे।
बिचारा आलू भी
जमीन के गर्भ
में रहता है, उससे ऐसी
क्या नाराजगी
है?
पर्यूषण
आते हैं तो
जैन हरी
सब्जियां
नहीं खाते!
मगर सुखाकर रख
लेते हैं। और
जिनको सुखाकर
रख लेते हैं
वे हरी थीं।
मगर पहले रख
लेते हैं, पर्यूषण
के पहले
सुखाकर रख
लेते हैं। सूख
गयीं फिर हरी
न रहीं।
और
एक मजा तो
मैंने देखा, एक
श्वेताम्बर
घर में मैं
मेहमान था, पर्यूषण के
दिन हरी
सब्जियां तो
नहीं, लेकिन
केले डटकर खाए
जा रहे हैं।
मैंने पूछा, मामला क्या
है? उन्होंने
कहा, ये थीड़े
ही हरे हैं।
हरी सब्जी, ये थीड़े ही
हरे हैं! ये तो
पीले हैं। हरी
सब्जी का
निषेध है।
तो
फिर आदमी
चालबाजिया
निकालता है, होशयारिया
निकालता है, बेईमानिया
निकालता है, रास्ते
बनाता है।
क्या—क्या
रास्ते नहीं
लोग बना लेते!
बुद्ध
ने कहा कि मरे
हुए जानवर का
मांस खाने में
कोई पाप नहीं
है,
क्योंकि
तुम हत्या तो
कर नही रहे।
बस, तरकीब
मिल गयी, सारे
दुनिया के
बौद्ध
मांसाहारी
हैं। तरकीब
मिल गयी। हर
बौद्ध देश में
होटलों पर
लिखा होता है
कि यहां सिर्फ
अपने—आप मर
गये जानवरों
का मास मिलता
है। इतने
जानवर एकदम से
अपने—आप बौद्ध
मुल्कों में
ही मरते हैं!
अपने आप! और किर्सो
मुल्क में
अपने आप नहीं
मरते। और मजा
यह है कि इन
बौद्ध
मुल्कों में
अगर इतने
जानवर अपने—आप
आत्महत्या कर
लेते हैं, तो
फिर कसाईघर
किसलिए खोले
हुए हैं।
कसाईघर में
क्या होता है 2:
आदमी मारे
जाते हैं? इतने
—इतने बड़े
बूचरखाने हैं,
ये किसलिए
हैं? मगर
होटल पर .वैसे
ही टंगी होती
है तख्ती जैसे
यहां टंगी
होती है कि
यहां शुद्ध घी
की मिठाइयां मिलती
हैं। अब तो ये
भी तख्तियां
टंगने लगीं कि
यहां शुद्ध
डालडा की
मिठाइयां
मिलती हैं, क्योंकि अब
यहां शुद्ध
डालडा भी कहां
मिलता है? शुद्ध
घी तो गयी बात,
अब तो शुद्ध
डालडा भी नहीं
मिलता। अब तो
शुद्ध कोई चीज
नहीं मिलती।
अब तो डालडा
घी की बात ही
छोड़ दो, शुद्ध
दवा भी नहीं
मिलती। तुम
मजे से इंजेक्शन
ले रहे हो, सोच
रहे हो कि ठीक
हो जाओगे और
पानी के इंजेक्शन
दिये जा रहे
हैं! और हो
सकता है पानी
भी शुद्ध न हो।
वह भी
म्युनिसिपल
के नल से भरा
गया हो।
आदमी
बेईमान है। और
आदमी तब तक
बेईमान रहेगा
जब तक भीतर
रोशनी नहीं है।
तब तक वह हर
तरकीब निकाल
लेगा। हर उपाय
खोज लेगा।
तर्क खोज लेगा।
और अपने को
तर्क की आडू
में खड़ा कर
लेगा।
जो
मांसाहारी
हैं दुनिया के, वे
भी तर्क खोजे
बैठे हुए हैं।
वे भी कहते
हैं कि
जानवरों की
आत्मा को
मुक्ति दिला
रहे हैं। नहीं
तो जानवर
मुक्त कैसे
होंगे? अब
कोई बेचारा
सूअर के शरीर
में बंद है
आत्मा, इसको
मुक्ति करवा
दो! सुअर के
शरीर से इसका
छुटकारा करवा
दो। जैसे कि
कोई जेलखाने
से किसी कैदी
को छुटकारा
करवाता है।
ऐसे सुअर के
शरीर में बंद
आत्मा को
मुक्त करवा दो।
वह मुक्त हो
जाए तो किसी
ऊंचे शरीर में
पैदा होगी।
कौन कहे कि
किसके तर्क
सही हैं और
किसके गलत हैं?
और
किस आधार पर
कहे?
हिन्दुस्तान
में दूध को
पवित्र आहार
समझा जाता है—शुद्धतम, सात्विक—और
ईसाइयों में
क्वेकर
सम्प्रदाय है,
वह दूध को
छूता नहीं।
क्योंकि दूध
बनता तो आदमी
के शरीर के
भीतर है, उसी
तरह जैसे खून
बनता है; या
गाय के शरीर
में बनता है, या भैंस के
शरीर में बनता
है, लेकिन
है तो यह 'एनीमल
प्राडक्ट', जैसा खून।
इसमें और खून
में कोई भेद
नहीं है।
इसलिए क्वेकर
दूध नहीं पीते
और
दुग्धाहारी को
महापापी
मानते हैं।
किसको सही
मानोगे? ये
तुम्हारे ऋषि—मुनि
सही हैं, जो
कह रहे हैं कि
दूध का आहार
सात्विक है? या क्वेकर
सही हैं?
तुम
अगर निर्णय
करने बैठोगे
कि क्या पुण्य
और क्या पाप, तो
बहुत उलझन में
पड़ जाओगे। सब
धागे उलझ
जाएंगे
तुम्हारे
जीवन के। न तो
पुण्य तय हो
पाएगा, न
पाप तय हो पाएगा।
इसलिए
मैं तुमसे यह
कहता ही नहीं
कि तुम तय करो
कि पुण्य क्या, पाप
क्या। मैं
कहता हूं : तुम
सिर्फ एक काम
करो कि भीतर
जागो! उस भीतर
के ब्रह्म को
जगा लो! फिर वह
ब्रह्म जो कहे,
वही पुण्य
है। और जो कहे
कि मत करो, वही
पाप है। और जब
तुम्हारे
भीतर की
अंतर्वाणी, अंतर्नाद
उठना शुरू
होता है, अंतर्वेद
जगता है। तब
तुम्हारे
जीवन में
पुण्य हो सकता
है। उसके पहले
पुण्य नहीं हो
सकता। उसके
पहले तो पाप
ही होगा। और
तुम जो भी
करोगे, गलत
कारण से करोगे।
रामकृष्ण
के पास एक
आदमी आया और
उसने कहा कि
मैँ जा रहा
हूं काशी, गंगा—स्नान
को, आपका
आशीर्वाद ले
आऊं सोचा; आप
क्या कहते हैं,
काशी—स्नान
से पाप धुलते
हैं या नहीं
धुलते? रामकृष्ण
ने कहा कि
जरूर घुलते
हैं? मगर
एक बात खयाल
रखना, तुमने
देखा गंगा के
तट पर बड़े—बड़े
वृक्ष लगे
होते हैं? देखा,
जरूर देखा!
वे किसलिए लगे
हैं? उसने
कहा कि यह भी
कोई बात है, अरे वृक्ष
हैं, लगे
हैं, नदी
के किनारे
वृक्ष ऊगते ही
हैं! रामकृष्ण
ने कहा, उसका
भी राज है।
तुम जब डुबकी
मारते हो तो
तुम्हारे पाप
वृक्षों पर
बैठ जाते हैं।
फिर तुम डुबकी
ही मारे रखना!
निकलना मत!
अगर निकले और
घर की तरफ चले
कि वे फिर तुम
पर सवार हो
जायेंगे! पाप
भी बड़े
होशियार है।
गंगा में जब
तक डूबे रहोगे,
ठीक है; वे
कहेंगे, डूबे
रहो; बेटा
कब तक डूबे
रहोगे, निकलोगे
कि नहीं? जब
निकलोगे, वे
फिर सवार हो
जाएंगे।
इसलिए सार कुछ
हाथ न आएगा।
रामकृष्ण
ने बात पते की
कही। अब कुछ
का खयाल है, गंगा
में नहा आए तो
पाप धुल गये।
और जिस गंगा
में इतने लोग
पाप धो चुके
हैं, उसमें
जरा सोच—समझकर
नहाना! पाप ही
पाप से भर गयी
होगी गंगा।
सदियों से नहा
रहे हैं लोग।
और सदियों से
पाप धो रहे
हैं वहां।
गंगा से
ज्यादा पापी
कोई नदी नहीं
हो सकती दुनिया
में। जरा, सोच—समझकर
नहाना! इससे
तो कोई नाले
में कहीं भी
नहा लेना तो
अच्छा है, किसी
डबरे में कूद
जाना तो अच्छा
है। शायद थीड़े—बहुत
पाप धुल भी
जाएं क्योंकि
डबरे में कोई
कूदा नहीं।
कोई गाय—
भैंसें कूदती
हैं, मगर
उनको कोई पाप
होता भी नहीं।
भैंसें वगैरह
जरूर गंगा
नहीं जातीं, वे डबरों
में जाती हैं—होशियार
हैं! कहते भी
हैं कि अक्ल
बड़ी कि भैंस? मै, तो
भैंस को ही
बड़ा मानता हूं।
क्योंकि अक्ल
जिनकी है वे
तो गंगा में
जाते हैं और
भैंस देखो, डबरे में
नहाती है। है
होशियार! कि
क्या जाना
गंगा में, इतने
पाप भरे हुए
हैं, वहा नहाने
से और झंझट
खड़ी हो जाएगी।
तुम
ऊपर से तय
करने बैठोगे
तो तुम कुछ भी
तय न कर पाओगे।
हर चीज को पाप
कहा गया है।
ऐसी कोई चीज
नहीं जिसको
दुनिया में
किसी धर्म ने
पाप न कहा हो।
और ऐसी भी कोई
चीज नहीं
जिसको दुनिया
में किसी धर्म
ने पुण्य न
कहा हो। किसकी
मानो? किस
आधार पर मानो?
जीसस
शराब पीते हैं।
शराब पीना पाप
है या पुण्य? जीसस
को कोई एतराज
नहीं है शराब
पीने में। और
अगर जीसस शराब
पी सकते हैं, तो फिर शराब
पीने में कैसे
पाप होगा? रामकृष्ण
मछली खाते हैं।
मछली खाना पाप
है या पुण्य? अगर
रामकृष्ण
मछली खा सकते
हैं, तो कैसे
पाप होगा? महावीर
नग्न रहते हैं।
नग्न रहना पाप
है या पुण्य? अगर नग्न
रहना पाप है
तो फिर महावीर
पाप कर रहे
हैं। लेकिन
महावीर कहीं
पाप कर सकते
हैं!
किसको
मानोगे?
और
दूसरा कभी भी
निर्धारक
नहीं हो सकता
है। निर्धारण
तुम्हारे
भीतर से आना
चाहिए। और
प्रत्येक व्यक्ति
को अपने जीवन
के लिए ज्योति
अपने ही भीतर
खोजनी पड़ती है।
इसलिए
मैं तुम्हें
आचरण नहीं
देता। मैं
तुम्हें
सिर्फ ध्यान
देना चाहता
हूं। आचरण दो
कौड़ी का है
बिना ध्यान के।
और ध्यान से
जो आचरण पैदा
होता है, तुम्हारे
अंतसू के
रूपांतरण से
जो आचरण पैदा होता
है, उसकी
आभा अलग, उसका
सौंदर्य अलग,
उसका रस अलग।
वही
यह सूत्र कह
रहा है:
तरति शोकं,
तरति
पाम्मानम्
इस
सूत्र की
अद्भुतता
देखते हो? साधारणत:
तुम्हारे
साधु—संत
तुमसे कहते है,,
पाप से
मुक्त हो जाओ
तो ब्रह्म को
जान लोगे। यह
सूत्र कह रहा
है : ब्रह्म को
जान लो तो पाप
से मुक्त हो
जाओगे। और यह
सूत्र सत्य है।
'गुहाग्रंथिभ्यो
विमुक्तोग्मृतो
भवति।।
'और हृदय की
ग्रंथियों से
मुक्त होकर
अमृत बन जाता
है।’
जिसने
अपने भीतर के
ज्ञाता को जान
लिया, द्रष्टा
को जान लिया, उसकी सारी
ग्रंथियां कट
गयीं। सारी
गाठें कट गयीं।
उसके। जीवन
में कोई गांठ
न रही। उसका
जीवन सीधा, साफ—सुथरा
हो गया। फिर
वह जैसा भी
जीता है, उसमें
एक सरलता है, एक।
विनम्रता है।
उसके जीवन में
फिर एक सादगी
है; थोपी
हुई सादगी
नहीं; जबरदस्ती
अपने को सादा
बनाने की
चेष्टा नहीं।
मगर उसके, जीवन
में एक सहज—स्फूर्त
सादगी है; जैसे
फूलों में
होती है; जैसे
चांद—तारों
में होती है; जैसे बच्चों
की आंखों में
होती है।
आज
इतना ही।
'दीपक बारा
नाम का' प्रवचनमाला
से
दिनांक
6 अक्ट्रबर 1980,
श्री रजनीश
आश्रम,
पूना
thank you guruji
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