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रविवार, 27 सितंबर 2015

कहै वाजिद पुकार--(प्रवचन--07)

हंसा जाय अकेला—(प्रवचन—सातवां)
दिनांक 27 सितम्‍बर 1967;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।
सूत्र:
टेढ़ी पगड़ी बांध झरोखा झांकते
ताता तुरग पिलाण चहूंटे हांकते।।
लारे चढ़ती फौज नगारा बाजते।
वाजिद, ये नर गए विलाय सिंह ज्यूं गाजते।।
दो—दो दीपक जोए सु मंदिर पोढ़ते
नारी सेतीं नेह पलक नहीं छोड़ते।।
तेल फुलेल लगाए कि काया चाम की।
हरि हां, वाजिद, मर्द गर्द मिल गए दुहाई राम की।।
सिर पर लंबा केस चले गज चालसी
हाथ गह्यां समसेर ढलकती ढाल सी।।
एता यह अभिमान कहां ठहराहिंगे
हरि हां, वाजिद, ज्यूं तीतर कूं बाज झपट ले जाहिंगे।।
कारीगर कर्तार कि हून्दर हद किया।
दस दरवाजा राख शहर पैदा किया।।
नख—सिख महल बनाय दीपक जोड़िया
हरि हां, भीतर भरी भंगार कि ऊपर रंग दिया।।
काल फिरत है हाल रैण—दिन लोइ रे।
हणै राव अरु रंक गिणै नहिं कोइ रे।।
यह दुनिया वाजिद बाट की दूब है।
हरि हां, पाणी पहिले पाल बंधे तो खूब है।।
सुकरित लीनो साथ पड़ी रहि मातरा
लांबा पांव पसार बिछाया सांथरा।।
लेय चल्या बनवास लगाई लाय रे।
हरि हां, वाजिद, देखै सब परिवार अकेलो जाय रे।।
भूखो दुर्बल देखि नाहिं मुंह मोड़िए
जो हरि सारी देय तो आधी तोड़िए।।
दे आधी की आध अरध की कौर रे।
हरि हां, अन्न सरीखा पुन्य नाहिं कोइ और रे।।

लो आ पहुंचा सूरज के चक्रों का उतार
रह गई अधूरी धूप उम्र के आंगन में
हो गया चढ़ावा मंद, वर्ष—अंगार थके
कुछ फूल शेष रह गए समय के दामन में
खंडित लक्ष्यों के बेकल साए ठहर गए
थक गए पराजित यत्नों के अनरुके चरण
मध्याह्न बिना आए पियराने लगी धूप
कुम्हलाने लगा उमर का सूरजमुखी बदन
वह बांझ अग्नि जो रोम—रोम में दीपित थी
व्यक्तित्व—देह को जला स्वयं ही राख हुई
साहस गुमान की दोज उगी थी जो पहले
वह पीत चंद्रमा वाला अंधा पाख हुई
रंगीन डोरियां ऊर्ध्व कामनाओं वाली
थे खींचे जिनसे नए—नए आकाश—दीए
हर चढ़े बरस ने तूफानी उंगलियां बढ़ा
अधजले दीप वे एक—एक कर बुझा दिए
तन की छाया—सी साथ रही है अडिग रात
पथ पर अपने ही चलते पांव चमकते हैं
रह जाती ज्यों सोने की रेख कसौटी पर
सोने के बदले सिर्फ निशान झलकते हैं
आ रहीं अंधिकाएं भरने को श्याम रंग
हर उजले क्षण का चमक—चंदोबा मिटता है
नक्षत्र भावनाओं के बुझते जाते हैं
हर चांद कामना का सियाह हो उठता है
हर काम अधूरे रहे, वर्ष रस के बीते
वय के वसंत की सूख रही आखिरी कली
तूफान भंवर में पड़कर भी मोती न मिले
हर सीपी में सूनी वंध्या चीत्कार मिली
मनुष्य का जीवन मृत्योन्मुख है। जन्म के बाद मृत्यु के अतिरिक्त और कुछ भी सुनिश्चित नहीं। जैसे हुई सुबह, ऊगा सूरज, सांझ सुनिश्चित हो गई; ऐसे ही जन्म हुआ, मृत्यु निश्चित हो गई। जन्म का ही दूसरा पहलू है मृत्यु। जन्म और मृत्यु के बीच जो जागा नहीं, वह व्यर्थ ही जीया। मृत्यु देखकर भी आती जो जागा नहीं, वह कैसे और जागेगा? मृत्यु अदभुत उपाय है। इसलिए वाजिद कहते हैं: दुहाई राम की। प्रभु की बड़ी कृपा है कि उसने मृत्यु दी। तब भी ऐसे अभागे और मंदबुद्धि लोग हैं कि नहीं जागते। अगर मृत्यु न होती, तब तो कोई जागता ही नहीं! मृत्यु है, फिर भी लोग सोए हुए हैं। मौत आ रही है, पक्का भरोसा है, बचने का कोई उपाय नहीं है, भागने की कोई सुविधा नहीं है; हम मृत्यु के हाथ में उसी क्षण पड़ गए जिस दिन जन्म हुआ; निरपवाद रूप से प्रत्येक को मरना है। फिर भी जागते नहीं; फिर भी जीवन की आपाधापी में ऐसे व्यस्त हैं जैसे मौत कभी नहीं होगी। लोगों को देखो तो भरोसा नहीं आता कि मौत होती है। क्षुद्र—क्षुद्र बातों पर लड़े जा रहे हैं, मरे जा रहे हैं। छोटे—छोटे पद पर, छोटे—मोटे धन पर, छोटी प्रतिष्ठा पर, अहंकार की पताकाएं उड़ा रहे हैं!
गिर जाएंगे, इन्हीं झंडों के साथ धूल में गिर जाएंगे। पता है पास—पड़ोस में जो खड़े थे अभी, वे गिर गए हैं, अपनी भी घड़ी आती होगी। जब भी कोई अरथी निकलती है, याद करना, तुम्हारी अरथी निकलने का क्षण करीब आ रहा है। जब कोई चिता धूधू कर जलती है, अपने को उस चिता पर कल्पना करना। देर नहीं है; वर्ष, दो वर्ष कि दस वर्ष, फर्क क्या पड़ता है?
मृत्यु को जो सोचने लगता, विचारने लगता, उसके जीवन में क्रांति घटित होती है। धर्म असंभव था अगर मृत्यु न होती। पशुओं के पास कोई धर्म नहीं है, क्योंकि उन्हें मृत्यु का बोध नहीं है। पशु सोच नहीं पाता कि मरेगा; उतना विचार नहीं, उतना विवेक नहीं। जो मनुष्य भी बिना मृत्यु को सोचे—विचारे जीते हैं, पशु जैसे जीते हैं, फिर उनमें और पशु में बहुत भेद नहीं। क्या भेद होगा? एक ही भेद है मनुष्य में और पशु में कि पशु मृत्यु की धारणा नहीं कर पाता, मनुष्य कर पाता है। जो मनुष्य इस धारणा को नहीं करता, इसको दबाता है, इससे आंख चुराता है, उसने मनुष्य होने से बचने की ठान रखी है। वह कभी मनुष्य न हो पाएगा। और जो मनुष्य ही न हो पाए, उसके परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग अवरुद्ध हो गया।
मनुष्य मनुष्य होता है मृत्यु को स्वीकार करके, देखकर, जानकर, पहचानकर, मृत्यु को जगह देकर अपने हृदय में। जैसे ही तुमने अपनी मृत्यु को पहचाना, वैसे ही तुम और होने लगोगे।
मृत्यु की पहचान से ही संन्यास का जन्म हुआ, ध्यान का जन्म हुआ। यदि मृत्यु है तो कुछ आयोजन करने होंगे। अगर मिट ही जाना है; और यहां जो हमने कमाया है, सब छिन जाएगा, सब पड़ा रह जाएगा, तो कुछ ऐसा भी कमाना चाहिए जो मृत्यु में साथ जाए। यहां के तो संगी—संबंधी सब दूर खड़े रह जाएंगे; पहुंचा देंगे मरघट तक, फिर लौट जाएंगे—उन्हें अभी और जीना है। अभी उनके बहुत काम अधूरे पड़े हैं। एक दिन उनके काम ऐसे ही अधूरे पड़े रह जाएंगे जैसे तुम्हारे पड़े रह गए। लेकिन अभी उन्हें बोध नहीं, अभी होश नहीं। लोग मरघट पर भी जाते हैं किसी की चिता जलाने तो वहां भी संसार की ही बातें करते हैं, वहां भी बैठकर बाजार की ही बातें करते हैं। वहां भी अफवाहें गांव की...उन्हीं अफवाहों में तल्लीन होते हैं। उधर किसी की लाश जल रही है, वे पीठ किए गपशप करते हैं।
वे गपशप तरकीबें हैं, वे उस मृत्यु के तथ्य को झुठलाने के उपाय हैं। वे नहीं देखना चाहते कि जो कल तक जिंदा था, आज जिंदा नहीं है। वे नहीं देखना चाहते—जो कल हम जैसा चलता था, हम जैसा ही लड़ता था, हम जैसा ही जीवन की हजार—हजार कामनाओं से भरा था, आज राख हुआ जा रहा है। वे घबड़ाते हैं, उनके हाथ—पैर कंपे जाते हैं। यह तथ्य वे स्वीकार नहीं कर सकते कि ऐसे ही एक दिन हम भी गिरेंगे और मिट्टी में खो जाएंगे।
अगर इस तथ्य को तुम स्वीकार कर लो—करना ही पड़े, अगर थोड़ा भी विवेक हो तो करना ही पड़े, थोड़ा भी बोध हो तो करना ही पड़े—इस तथ्य की स्वीकृति के साथ ही तुम नए होने लगोगे; क्योंकि फिर तुम्हें जीवन और ही ढंग से जीना होगा। ऐसे जीना होगा कि मृत्यु आए उसके पहले तुम्हारे पास कुछ हो जो मृत्यु छीन न सके—ध्यान हो, प्रार्थना हो, प्रभु की थोड़ी अनुभूति हो, समाधि का थोड़ा अनुभव हो, थोड़ी आत्मा की सुवास उठे! क्योंकि देह ही मरती है, आत्मा नहीं मरती। दीया ही टूटता है, ज्योति तो उड़ जाती है फिर नए दीयों की तलाश में। पिंजड़ा ही जलता है, पक्षी तो उड़ जाता है।
मगर इस पक्षी की पहचान कहां? इस हंस की पहचान कहां? तुम तो देह से जुड़े जी रहे हो, ऐसे कि तुमने पूरा तादात्म्य कर लिया है, मानते हो यही देह मैं हूं, और इसी देह के आयोजन में संलग्न हो। और मैं तुमसे यह भी नहीं कहता कि देह का तिरस्कार करो, यह भी नहीं कहता कि देह का अनादर करो। वह भी प्रभु की भेंट है; उसका सम्मान करो, उसका स्वागत करो। देह मंदिर है उसका। लेकिन मंदिर में ही मत खो जाओ, मंदिर में छिपी मूर्ति को भी तलाशो
दुनिया में दो तरह के लोग हैं। एक जो मंदिर की दीवालों में ही खो गए हैं, मूर्ति तक नहीं पहुंच पाते; वे सांसारिक लोग कहे जाते हैं। और दूसरे हैं जिनको हम त्यागी कहते हैं—भोगियों से विपरीत; वे मंदिर के दुश्मन हो गए हैं। वे कहते हैं हम मंदिर की दीवालें तोड़ देंगे, क्योंकि इन्हीं दीवालों के कारण हम भटकते हैं। तो कुछ हैं जो दीवालें उठाने में लगे हैं, कुछ हैं जो दीवालें तोड़ने में लगे हैं; न तो उठाने वाले मूर्ति तक पहुंच पाते हैं, न तोड़ने वाले मूर्ति तक पहुंच पाते हैं, दोनों ही दीवालों में उलझ जाते हैं।
मैं तुम्हें यह बात कहना चाहता हूं कि तुम्हारे भोगी और तुम्हारे त्यागी में जरा भी भेद नहीं है। तुम्हारा भोगी शरीर के पीछे दीवाना है, शरीर के प्रेम में दीवाना है। तुम्हारा त्यागी शरीर की दुश्मनी में दीवाना है। मगर दोनों की आंखें शरीर पर अटकी हैं। एक भोजन जुटा रहा है सुस्वादु से सुस्वादु; और एक भूखा मर रहा है, उपवास कर रहा है, शरीर को सड़ा रहा है, गला रहा है, तपा रहा है, सुखा रहा है। मगर दोनों की नजर शरीर पर अटकी है। मूर्ति को कैसे खोजोगे? दीवाल में ही उलझे रह जाओगे? जिससे मैत्री होती है उससे भी हम उलझ जाते हैं, जिससे शत्रुता होती है उससे भी हम उलझ जाते हैं।
इसलिए मैं अपने संन्यासी को कहता हूं: देह सुंदर है, देह प्यारी है, परमात्मा की भेंट है। उसकी सुरक्षा करो, उसकी उपेक्षा न करना। लेकिन उसमें ही खो भी मत जाना। और इस डर से कि कहीं खो न जाएं, उससे लड़ने मत लगना, अन्यथा लड़ाई में खो जाओगे। देह को अंगीकार करो। देह को स्वीकार करो। और देह को ही सीढ़ी बना लो उसकी तलाश में, जो देह के भीतर छिपा है और देह नहीं है।
देह मरेगी। देह ही जन्मी है, देह ही मरेगी; तुम न तो जन्मे, तुम न मरोगे। तुम शाश्वत हो। मगर उस शाश्वत की थोड़ी झलक मिले तो फिर मृत्यु आनंद हो जाए। फिर मृत्यु में विषाद नहीं है, फिर मृत्यु तो परमात्मा का द्वार हो जाती है।
लेकिन अभी तुम जैसे हो, अभी तुम जैसे जी रहे हो, पछताओगे एक दिन; मौत जब द्वार पर दस्तक देगी, बहुत रोओगे, बहुत तड़पोगे!
लो बीत चली वासंती बेला जीवन की
धूमिल हो चली ललित—स्मृति कल्पित फूलों की,
विहंसा होगा उद्यान कभी मन—आंगन में—
अब तो है स्मृति केवल जीवन की भूलों की।
है कुछ—कुछ स्मरण कि प्राची में था जीवन—रवि,
वह चमक रहा था पूर्व क्षितिज में तेजवान,
पर जो अब आकाशोन्मुख होकर के देखा—
तो देखा, प्रायः पूर्ण हुआ है दिवसऱ्यान
सुन उस प्रभात में मुक्त पंछियों का गायन,
सोचा था, जीवन होगा मंगल—गायनमय,
पर, अब जब आ पहुंची श्यामा संध्या बेला—
तो देखा, रुंधे कंठ से निकली एक न लय।
अनमिल असाधना युक्त, दिगभ्रमित जीवन—क्षण,
कट गए यम, नियम, आसन, प्राणायाम शून्य,
श्वासें न सधीं, आसन न जमा, चापल न गया
अस्तित्व रहा विश्वास—शून्य उपराम—शून्य।
क्या मिला? नहीं कुछ भी तो मिला यहां मुझको,
जीवन यह एक मिला था, वह भी खो बैठे।
क्या ही विचित्र लीला है किसी खिलाड़ी की
हम एक भले थे, किंतु व्यर्थ दो हो बैठे!
क्या मिला? नहीं कुछ भी तो मिला यहां मुझको—किस दिन सोचोगे इस बात को; क्या आखिरी दिन सोचोगे? तब तो समय न बचेगा, कुछ करने का उपाय न रहेगा!
क्या मिला? नहीं कुछ भी तो मिला यहां मुझको,
जीवन यह एक मिला था, वह भी खो बैठे।
यह जीवन एक अवसर है—चाहो गंवा दो, चाहे सम्हाल लो। यह जीवन एक मौका है—चाहो व्यर्थ में डुबा दो, चाहे सार्थक की तलाश में लगा दो। व्यर्थ में डुबाया, तो मौत में बहुत तड़पोगे। मृत्यु बड़ी भयंकर अमावस की रात की तरह आएगी। और अगर जीवन को सार्थक की खोज में लगाया, तो मृत्यु एक मित्र की तरह आती है, पूर्णिमा की रात की तरह आती है—प्रकाशोज्ज्वल, शीतल; प्रभु के निमंत्रण की तरह, नेह—निमंत्रण की तरह आती है।
जीवन को जो ठीक से जी लेता है, उसे मृत्यु में अमृत का स्वाद मिलता है। मृत्यु इस जगत का सबसे बड़ा रहस्य है। अगर ठीक से जीए, सम्यकरूपेण जीए, ध्यानपूर्वक जीए, संन्यस्त भाव से जीए, जल में कमलवत जीए, तो मृत्यु से तुम्हें अमृत का स्वाद मिलेगा। बरस जाएंगे मेघ तुम पर आनंद के, सच्चिदानंद के। लेकिन अगर गलत जीए, ध्यानशून्य जीए, चंचल मन के साथ जीए, कभी थिर न हुए, कभी ध्यान में न रमे, तो फिर मौत आएगी; और जो—जो तुमने कमाया था, सब झपटकर ले जाएगी। तब रोओगे; पर फिर कुछ हो नहीं सकता। तब क्या करोगे पछताकर भी? फिर पछताए होत का जब चिड़िया चुग गई खेत!
लेकिन जो पहले जागरूक हो जाता है, समय के पहले जाग जाता है, मौत के आने के पहले संभल जाता है, उसके जीवन में बड़े रहस्यों के द्वार पर द्वार खुलते चले जाते हैं। वह व्यक्ति जो ठीक से जीना जान लेता है, ठीक से मरना भी जान लेता है।
मृत्यु अंधेरी है केवल उनके लिए, जिन्होंने जीवन की कला न जानी; अन्यथा मृत्यु बड़ी उज्ज्वल है; अन्यथा मृत्यु है ही नहीं, इसलिए उज्ज्वल है। मृत्यु जीवन का अंत है उनके लिए, जिन्होंने धन—पद में ही सब गंवा दिया। और मृत्यु एक नए जीवन का उदघाटन है उनके लिए, जिन्होंने धन और पद के पार भी कुछ खोजा—ध्यान खोजा, प्रभु खोजा। उनके लिए तो मृत्यु केवल एक गर्त है—अंधकार, खाई—खड्ड जिसमें जीवन गिरेगा और विला जाएगा—जो अहंकार में जीए हैं। और उनके लिए जो निरअहंकार भाव से जीए हैं, जिन्होंने अकड़ में अपनी जिंदगी न गंवाई, जो व्यर्थ अकड़े नहीं—उनके लिए मृत्यु जीवन की सबसे ऊंची अनुभूति, गौरीशंकर है, सबसे ऊंचा शिखर है! होना भी चाहिए। जीवन का अंत क्यों हो मृत्यु, जीवन की पूर्णाहुति क्यों न हो? जीवन की समाप्ति क्यों हो मृत्यु, जीवन के आनंद का अंतिम शिखर क्यों न हो? जीवन का फूल क्यों न खिले मृत्यु में!
इसलिए दो तरह के लोग हैं: एक जो मरते हैं; और एक जो मरते नहीं, बल्कि मृत्यु में भी अमृत का रसपान करते हैं। वही तुम बनना, दूसरे तुम बनना।
कौन थकान हरे जीवन की।
बीत गया संगीत प्यार का,
रूठ गई कविता भी मन की।
वंशी में अब नींद भरी है
स्वर पर पीत सांझ उतरी है।
बुझती जाती गूंज आखिरी—
इस उदास वन—पथ के ऊपर
पतझर की छाया गहरी है,
अब सपनों में शेष रह गई
सुधियां उस चंदन के वन की।
रात हुई पंछी घर आए,
पथ के सारे स्वर सकुचाए
म्लान दिया—बत्ती की बेला—
थके प्रवासी की आंखों में
आंसू आ—आकर कुम्हलाए,
कहीं बहुत ही दूर उनींदी
झांझ बज रही है पूजन की।
कौन थकान हरे जीवन की।
नहीं, दूर मंदिरों में बजती हुई पूजन की घंटियां तुम्हारे जीवन की थकान को न हर सकेंगी। वे घंटियां तुम्हारे प्राणों के प्राण में बजनी चाहिए। दूर मंदिरों में होती पूजन तुम्हारे किस काम की? मस्जिदों में होती अजान तुम्हारे किस काम की? गिरजाघरों में होती हुई प्रार्थना का संगीत तुम्हारे किसी काम न आएगा। ये तुम्हारे अंतस्तल में बजनी चाहिए घंटियां, ये दीए वहां जलने चाहिए, यह आरती वहां उतरनी चाहिए।
मगर लोगों ने बड़ी तरकीबें खोज ली हैं। दुकान भी उनकी बाहर है, मंदिर भी उनका बाहर है; बाहर में ही खोए हैं। दुकान से मंदिर चले जाते हैं, तो भी भेद नहीं पड़ता। धन भी उनका बाहर है, भगवान भी उनका बाहर है। धन से भगवान में भी लग जाते हैं, तो भी अंतर नहीं पड़ता। भीतर कब जाओगे? मृत्यु तो तुम्हारे भीतर घटेगी। वहां रुक जाएंगी श्वासें, वहां हृदय की धड़कन शांत हो जाएगी। वहां अगर तुम जागो, वहां की अगर तुम्हें थोड़ी पहचान हो जाए, तो श्वास के टूटने पर भी तुम नहीं टूटोगे; हृदय की धड़कन बंद हो जाने पर भी तुम धड़कते रहोगे—और भी महत्तर रूप में, और भी दिव्यतर रूप में, और भी नई ऊंचाइयों पर, और नए आकाशों में!
आज के वाजिद के शब्द सीधे—सादे हैं, मृत्यु के संबंध में हैं, तुम्हें चेताने के लिए हैं, चेतावनी है!
टेढ़ी पगड़ी बांध झरोखा झांकते
अकड़े हुए हैं लोग अहंकार से, पगड़ियां भी सीधी नहीं बांधीं!
टेढ़ी पगड़ी बांध झरोखा झांकते
जब वाजिद ने यह कहा तो राजपूतों के दिन थे, राजस्थान—राजपूत टेढ़ी पगड़ी बांधकर अपने झरोखों में बैठकर झांकते—अकड़ से, अहंकार से। जरा भी खयाल नहीं, सब धूल में मिल जाएगा। यह पगड़ी, यह अकड़, ये झरोखे, ये महल—सब धूल में मिल जाएंगे!
टेढ़ी पगड़ी बांध झरोखा झांकते
ताता तुरग पिलाण चहूंटे हांकते।।
तेजत्तर्रार घोड़ों पर बैठकर, जीन कसकर चारों दिशाओं में घूमते। बड़ी अकड़ थी, बड़ी गति थी अहंकार की!
लारे चढ़ती फौज नगारा बाजते।
आगे चलते, पीछे फौज चलती, नगाड़े बजते।
वाजिद, ये नर गए विलाय सिंह ज्यूं गाजते।।
जो सिंह की तरह दहाड़ते थे—ये नर वाजिद कहां विला गए? ये किस मिट्टी में खो गए? कहां गईं वे पगड़ियां, वे महलों के सुंदर झरोखे, घोड़ों पर बंधी हुई मचानें, घोड़ों पर बैठे हुए, मूंछ पर ताव देते, नगाड़े बजाकर चलने वाले लोग? जिनके आगे—पीछे फौज—फांटा चलता; जो इतने बलशाली मालूम पड़ते थे, जो दहाड़ देते तो लोगों के प्राण कंप जाते। लेकिन वे भी विला गए! वे भी कहीं मिट्टी में खो गए! उनका भी अब कुछ पता नहीं चलता!
वाजिद, ये नर गए विलाय सिंह ज्यूं गाजते।।
ये कहां विला गए? सोचो जरा, तुम भी सोचो। कहां है अब सिकंदर महान? कहां है नेपोलियन? कहां खो जाते हैं सम्राट?
लेकिन इतना लंबा इतिहास अतीत का, फिर भी मृत्यु का बोध नहीं होता। एक बड़ी गहन भ्रांति है कि हर आदमी यही सोचे चला जाता है कि दूसरे मरते हैं, मैं नहीं मरूंगा। तुमने महाभारत की कथा तो सुनी है न, कि पांडव प्यासे हैं, जंगल में भटक गए हैं। और एक झील पर पानी भरने पांच भाइयों में से एक भाई गया है। और जैसे ही झुका है पानी पीने को और पानी भरने को, एक यक्ष वृक्ष पर से आवाज दिया: रुक, या तो मेरे पांच प्रश्नों का उत्तर दे, या अगर पानी छुआ तो मौत घट जाएगी। मेरे पांच प्रश्नों का पहले उत्तर चाहिए। अगर ठीक उत्तर दिया तो ठीक, नहीं तो मृत्यु परिणाम होगा।
पहला भाई इस तरह गिर गया, उत्तर नहीं दे पाया और पानी पीने की कोशिश की; प्यास ऐसी थी। दूसरा भाई और वही, तीसरा भाई और वही...। और अंत में युधिष्ठिर आए—चारों भाई कहां खो गए? देखा, चारों की लाशें पड़ी हैं झील के तट पर। चारों ने जिद्द की, उत्तर नहीं दे पाए फिर भी पानी पीने की जिद्द की। युधिष्ठिर झुके, यक्ष फिर बोला...। उसमें एक प्रश्न आज के काम का है; सारे प्रश्न अर्थपूर्ण थे, मगर एक प्रश्न यह था कि संसार में सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है? युधिष्ठिर ने कहा: सबसे बड़ा आश्चर्य यही है कि हम रोज लोगों को मरते देखते हैं, फिर भी यह भरोसा नहीं आता कि मैं मरूंगा!
यह ठीक उत्तर था। सबसे बड़ा आश्चर्य ताजमहल नहीं है, और सबसे बड़ा आश्चर्य इजिप्त के पिरामिड नहीं हैं, और न बेबीलोन का उलटा लटका हुआ गार्डन और न अलेग्जेन्ड्रिया का लाइट हाऊस। ये चमत्कार नहीं हैं, ये बड़े आश्चर्य नहीं हैं। सबसे गहन आश्चर्य यह है कि रोज मरते देखकर भी, रोज लोगों को मरते देखकर, रोज मृत्यु के प्रमाण देखकर भी यह भरोसा आता ही नहीं कि मैं मरूंगा! भरोसे की बात—यह प्रश्न ही नहीं उठता कि मैं मरूंगा। मन कहे चला जाता है, जैसे सदा कोई और मरता है, दूसरा मरता है।
टेढ़ी पगड़ी बांध झरोखा झांकते
अब पगड़ियां तो नहीं बांधी जातीं, मगर टेढ़ापन तो वही का वही है! इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता कि तुमने गांधी टोपी लगा रखी है; गांधी टोपी भी तिरछी है, वहां भी अकड़ है! इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, आदमी वैसा का वैसा है। अब कोई घोड़ों पर चढ़कर नहीं चलता, इससे क्या फर्क पड़ता है? अब तुम सिंहों जैसे नहीं दहाड़ते और न ही तुम्हारे आगे—पीछे फौज—फांटा चलता है। मगर इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। नए आदमी ने नए ढंग के फौज—फांटे खोज लिए हैं। नए आदमी ने नए ढंग की पगड़ियां खोज ली हैं। नए आदमी ने नए घोड़े खोज लिए हैं। मगर एक बात सुनिश्चित है, वही की वही, कि तुम इस भ्रांति में जीते हो कि मैं मिटूंगा नहीं। मिट्टी मेरा क्या बिगाड़ पाएगी! मैं मौत को जीतकर रहूंगा, मैं मौत को हराकर रहूंगा।
मौत को कभी कोई नहीं हरा पाया। हां, दुनिया में एक काम मौत के साथ हो सकता है—मौत जानी जा सकती है; हरा कोई भी नहीं सकता। और जो जान लेता है, वह हैरान हो जाता है—हराने को वहां कुछ है ही नहीं, मौत है ही नहीं!
इसलिए न तो मौत को कोई जीत सकता है, न जीतने की कोई संभावना है; जो है ही नहीं, उसे कैसे जीतोगे? मौत तो अंधेरे जैसी है, अंधेरे को कोई जीत सकता है? लड़ो, मारो, टकराओ—तुम्हीं टूट जाओगे, अंधेरा अपनी जगह रहेगा। हां, अंधेरे के साथ तो एक ही काम किया जा सकता है—ज्योति जलाओ, और अंधेरा नहीं पाया जाता। ध्यान की ज्योति के जलते ही मृत्यु नहीं पाई जाती, तलाशत्तलाश कर भी नहीं पाई जाती। और तब तुम जानते हो कि जो मरते हैं, वे भी मरते नहीं।
मगर यह पहले अंतस्तल में उदघाटन करना होगा! छोटी—छोटी चीजों पर अकड़ो मत, अकड़ को जाने दो। अकड़ में ही जीवन गंवा रहे हो! मरते—मरते तक भी लोग अकड़े हैं! उम्र हो जाती है, थक जाते हैं, फिर भी दौड़े चले जाते हैं।
टाल्सटाय की प्रसिद्ध कहानी है कि एक आदमी के घर एक संन्यासी मेहमान हुआ—एक परिव्राजक। रात गपशप होने लगी, उस परिव्राजक ने कहा कि तुम यहां क्या ये छोटी—मोटी खेती में लगे हो! साइबेरिया में मैं यात्रा पर था तो वहां जमीन इतनी सस्ती है—मुफ्त ही मिलती है। तुम यह जमीन छोड़—छाड़ कर, बेच—बाच कर साइबेरिया चले जाओ। वहां हजारों एकड़ जमीन मिल जाएगी इतनी जमीन में। वहां करो फसलें; और बड़ी उपयोगी जमीन है। और लोग वहां के इतने सीधे—सादे हैं कि करीब—करीब मुफ्त ही जमीन दे देते हैं।
उस आदमी को वासना जगी। उसने दूसरे दिन ही सब बेच—बाच कर साइबेरिया की राह पकड़ी। जब पहुंचा तो उसे बात सच्ची मालूम पड़ी। उसने पूछा कि मैं जमीन खरीदना चाहता हूं। तो उन्होंने कहा, जमीन खरीदने का तुम जितना पैसा लाए हो, रख दो; और जमीन का हमारे पास यही उपाय है बेचने का कि कल सुबह सूरज के ऊगते तुम निकल पड़ना और सांझ सूरज के डूबते तक जितनी जमीन तुम घेर सको घेर लेना। बस चलते जाना...जितनी जमीन तुम घेर लो। सांझ सूरज के डूबते—डूबते उसी जगह पर लौट आना जहां से चले थे—बस यह शर्त है। जितनी जमीन तुम चल लोगे, उतनी जमीन तुम्हारी हो जाएगी।
रात—भर तो सो न सका वह आदमी। तुम भी होते तो न सो सकते; ऐसे क्षणों में कोई सोता है? रात—भर योजनाएं बनाता रहा कि कितनी जमीन घेर लूं। सुबह ही भागा। गांव इकट्ठा हो गया था। सुबह का सूरज ऊगा, वह भागा। उसने साथ अपनी रोटी भी ले ली थी, पानी का भी इंतजाम कर लिया था। रास्ते में भूख लगे, प्यास लगे, तो सोचा था चलते ही चलते खाना भी खा लूंगा, पानी भी पी लूंगा। रुकना नहीं है; चलना क्या है, दौड़ना है। दौड़ना शुरू किया; क्योंकि चलने से तो आधी ही जमीन कर पाऊंगा, दौड़ने से दुगनी हो सकेगी—भागा...भागा...।
सोचा था कि ठीक बारह बजे लौट पडूंगा, ताकि सूरज डूबते—डूबते पहुंच जाऊं। बारह बज गए, मीलों चल चुका है, मगर वासना का कोई अंत है? उसने सोचा कि बारह तो बज गए, लौटना चाहिए; लेकिन सामने और उपजाऊ जमीन, और उपजाऊ जमीन...थोड़ी सी और घेर लूं। जरा तेजी से दौड़ना पड़ेगा लौटते समय—इतनी ही बात है, एक ही दिन की तो बात है, और जरा तेजी से दौड़ लूंगा। उसने पानी भी न पीया, क्योंकि रुकना पड़ेगा उतनी देर—एक दिन की ही तो बात है, फिर कल पी लेंगे पानी, फिर जीवन—भर पीते रहेंगे। उस दिन उसने खाना भी न खाया। रास्ते में उसने खाना भी फेंक दिया, पानी भी फेंक दिया, क्योंकि उनका वजन भी ढोना पड़ रहा है, इसलिए दौड़ ठीक से नहीं हो पा रही। उसने अपना कोट भी उतार दिया, अपनी टोपी भी उतार दी—जितना निर्भार हो सकता था हो गया।
एक बज गया, लेकिन लौटने का मन नहीं होता, क्योंकि आगे और—और सुंदर भूमि आती चली जाती है। मगर फिर लौटना ही पड़ा; दो बजे तक तो लौटा। अब घबड़ाया। सारी ताकत लगाई; लेकिन ताकत तो चुकने के करीब आ गई थी। सुबह से दौड़ रहा था, हांफ रहा था, घबड़ा रहा था कि पहुंच पाऊंगा सूरज डूबते तक कि नहीं। सारी ताकत लगा दी। पागल होकर दौड़ा। सब दांव पर लगा दिया। और सूरज डूबने लगा...। ज्यादा दूरी भी नहीं रह गई है, लोग दिखाई पड़ने लगे। गांव के लोग खड़े हैं और आवाज दे रहे हैं कि आ जाओ, आ जाओ! उत्साह दे रहे हैं, भागे आओ! अजीब सीधे—सादे लोग हैं—सोचने लगा मन में; इनको तो सोचना चाहिए कि मैं मर ही जाऊं, तो इनको धन भी मिल जाए और जमीन भी न जाए। मगर वे बड़ा उत्साह दे रहे हैं कि भागे आओ!
उसने आखिरी दम लगा दी—भागा, भागा, भागा...। सूरज डूबने लगा; इधर सूरज डूब रहा है, उधर भाग रहा है...। सूरज डूबते—डूबते बस जाकर गिर पड़ा। कुछ पांच—सात गज की दूरी रह गई है; घिसटने लगा। अभी सूरज की आखिरी कोर क्षितिज पर रह गई—घिसटने लगा। और जब उसका हाथ उस जमीन के टुकड़े पर पहुंचा जहां से भागा था, उस खूंटी पर, सूरज डूब गया। वहां सूरज डूबा, यहां यह आदमी भी मर गया। इतनी मेहनत कर ली! शायद हृदय का दौरा पड़ गया। और सारे गांव के सीधे—सादे लोग जिनको वह समझता था, हंसने लगे और एक—दूसरे से बात करने लगे—ये पागल आदमी आते ही जाते हैं! इस तरह के पागल लोग आते ही रहते हैं! यह कोई नई घटना न थी, अक्सर लोग आ जाते थे खबरें सुन कर, और इसी तरह मरते थे। यह कोई अपवाद नहीं था, यही नियम था। अब तक ऐसा एक भी आदमी नहीं आया था, जो घेरकर जमीन का मालिक बन पाया हो।
यह कहानी तुम्हारी कहानी है, तुम्हारी जिंदगी की कहानी है, सबकी जिंदगी की कहानी है। यही तो तुम कर रहे हो—दौड़ रहे हो कि कितनी जमीन घेर लें! बारह भी बज जाते हैं, दोपहर भी आ जाती है, लौटने का भी समय होने लगता है—मगर थोड़ा और दौड़ लें! न भूख की फिक्र है, न प्यास की फिक्र है। जीने का समय कहां है? पहले जमीन घेर लें, पहले तिजोड़ी भर लें, पहले बैंक में रुपया इकट्ठा हो जाए; फिर जी लेंगे, फिर बाद में जी लेंगे, एक ही दिन का तो मामला है। और कभी कोई नहीं जी पाता। गरीब मर जाते हैं भूखे, अमीर मर जाते हैं भूखे, कभी कोई नहीं जी पाता। जीने के लिए थोड़ी विश्रांति चाहिए। जीने के लिए थोड़ी समझ चाहिए। जीवन मुफ्त नहीं मिलता—बोध चाहिए।
सिर्फ बुद्धपुरुष जी पाते हैं। उनके जीवन में एक प्रसाद होता है, एक लयबद्धता होती है, एक छंद होता है। वे जी पाते हैं, क्योंकि वे दौड़ते नहीं। वे जी पाते हैं, क्योंकि वे ठहर गए हैं। वे जी पाते हैं, क्योंकि उनका चित्त अब चंचल नहीं है। इस संसार में जमीन घेरकर करेंगे क्या? इस संसार का सब यहीं पड़ा रह जाएगा; न हम कुछ लेकर आते हैं, न हम कुछ लेकर जाएंगे।
पगड़ी सीधी करो। घोड़ों से उतरो। फौज—फांटे को नमस्कार लो! समय है, अभी रुक जाओ! मत कहो कि कल, मत कहो कि परसों, क्योंकि कल कभी आता नहीं।
दो—दो दीपक जोए सु मंदिर पोढ़ते
जहां एक दीए के जलाने से काम हो जाता, वहां अपने महलों में दो—दो दीपक जलाते थे।
दो—दो दीपक जोए सु मंदिर पोढ़ते
नारी सेतीं नेह पलक नहीं छोड़ते।।
जिन्होंने पल—भर को अपनी प्रेयसी, अपनी पत्नी को नहीं छोड़ा था पल—भर को नहीं छोड़ते थे, पलक नहीं झपते थे।
तेल फुलेल लगाए कि काया चाम की।
कि चमड़े की देह पर भी खूब तेल—फुलेल लगाते थे।
हरि हां, वाजिद, मर्द गर्द मिल गए दुहाई राम की।।
कि राम तेरा भी खूब चमत्कार! कि तेरा भी खूब प्रसाद कि ऐसे मर्द गर्द मिल गए, आज मिट्टी में पड़े हैं। जो चमड़ी पर तेल—फुलेल लगाते थे! जो चमड़ी पर सोने के शृंगार सजाते थे! जहां एक दीए से काम चल जाता वहां दो दीए जलाते थे, जिनके महलों में सदा दीवाली होती रहती थी! जो अपने प्रेमियों से क्षण—भर को न बिछुड़ते थे—वे गए! कहां गए?
हरि हां, वाजिद, मर्द गर्द मिल गए दुहाई राम की।।
वे बड़े मर्द, बड़े हिम्मतवर लोग, बड़े जानदार लोग, बड़े शानदार लोग, गौरव—गरिमा वाले लोग, सब मिट्टी में मिल गए। आखिर में तू सबको मिट्टी में मिला देता है!
च्वांगत्सु—चीन का एक बहुत बड़ा रहस्यवादी संत, गुजरता था एक मरघट से। एक खोपड़ी पड़ी थी, सांझ का वक्त था, अंधेरा होने लगा था, पैर टकरा गया खोपड़ी से। तो रुका, झुककर खोपड़ी को नमस्कार किया, खोपड़ी को उठाकर सिर से लगाया। उसके शिष्यों ने कहा: आप विक्षिप्त तो नहीं हो गए हैं! आप यह क्या कर रहे हैं? उसने कहा: पागलो, तुम्हें पता नहीं, यह कोई छोटे लोगों का मरघट नहीं है। यहां इस मरघट में सिर्फ बड़े—बड़े सम्राट, बड़े वजीर, बड़े धनपति...यह बड़े लोगों का मरघट है! यह खोपड़ी किसी बड़े आदमी की खोपड़ी है! अगर यह जिंदा होता और मेरा पैर इसके सिर में लग जाता, तो आज अपनी दुर्गति हो जाती। यह तो मौके की बात है कि यह मौजूद नहीं है। मगर खोपड़ी बड़े आदमी की है, इसलिए नमस्कार कर रहा हूं, इसलिए क्षमा मांग रहा हूं।
वह मजाक कर रहा है। वह उस खोपड़ी को अपने साथ ले आया। फिर जिंदगी—भर वह खोपड़ी उसके पास ही रही। बैठता तो खोपड़ी पास रखकर बैठता, रात सोता तो खोपड़ी उसके बिस्तर के पास रखी रहती। लोग आते तो वे पूछते, यह खोपड़ी किसलिए रखी है? तो वह कहता: ताकि मुझे याद रहे, ताकि मैं भूलूं, बिसरूं न कि ऐसे ही एक दिन मेरी खोपड़ी भी मरघट में पड़ी होगी; राह चलते लोगों के पैर लगेंगे। इस खोपड़ी ने मुझे खूब ज्ञान दिया है! एक दिन एक आदमी गुस्से में आकर मारने को तैयार हो गया था, जूता उतार लिया था। मैंने खोपड़ी की तरफ देखा, और मुझे हंसी आ गई! मैंने कहा: भाई मार ले। यह मार तो पड़ती रहेगी सदियों तक, लोगों के पैरों में पड़ा रहूंगा—यह खोपड़ी देखी! फिर बोल भी न सकूंगा, चीं भी न कर सकूंगा। तो तू आज ही मार ले, क्या फर्क पड़ता है? जब लोगों के पैरों में पड़ा ही रहूंगा सदियों तक, तो एक दफा और सही, तू मार ही ले।
च्वांगत्सु कहता था: इस खोपड़ी से मुझे बड़ी याद बनी रहती है।
कोई जरूरत नहीं है कि तुम खोपड़ी पास रखो, लेकिन याद तो रखो पास! स्मरण तो रहे!
हरि हां, वाजिद, मर्द गर्द मिल गए दुहाई राम की।।
मगर वाजिद की खूबी यह है कि ऐसी संकटपूर्ण स्थिति को भी वे कहते हैं—दुहाई राम की! राम तेरी कृपा! मर्दों को भी गर्द में मिला दिया!
क्यों इसे कहते हैं राम की कृपा? इसलिए कहते हैं कि यह तेरे चेताने का उपाय है, यह तेरा जगाने का ढंग है। फिर भी मूढ़ों को कोई क्या कहे, फिर भी नहीं जागते लोग! लोग ऐसे सोए हैं कि मौत चारों तरफ नाचती रहती है, तांडव करती रहती है, फिर भी उन्हें होश नहीं आता!
जागो! मौत पास आती जाती है; किसी भी घड़ी पकड़ लेगी और मर्द गर्द में मिल जाएंगे! एक बार इस मौत को तुम जीवन का अनिवार्य अंग मानकर अंगीकार करो, और तुम्हारी जिंदगी तत्क्षण बदलनी शुरू हो जाएगी। क्योंकि फिर तुम और ढंग से उठोगे, और ढंग से बैठोगे। फिर तुम, कोई गाली दे जाएगा तो क्रोध न करोगे—क्या सार है? फिर तुम हार जाओगे तो दुखी न होओगे। फिर तुम जीत के लिए दीवाने न होओगे। फिर सफलता आए कि विफलता, सब बराबर मालूम होगी। तुम एक तरह के सम्यकत्व में प्रविष्ट हो जाओगे। तुम्हारे भीतर समता का फूल खिलने लगेगा। दुख आए तो दुख, सुख आए तो सुख—तुम साक्षी बने देखते रहोगे।
जहां मौत ही आनी है, वहां क्या फर्क पड़ता है कि दो दिन इत्र—फुलेल लगाया कि नहीं लगाया! कि बहुमूल्य वस्त्र पहने कि नहीं पहने! कि महलों में विराजे कि नहीं विराजे! क्या फर्क पड़ता है? विराजे तो ठीक, नहीं विराजे तो ठीक। महल में रहे तो और झोपड़े में रहे तो, तुम्हें अंतर न पड़ेगा।
और मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि तुम महलों में रहते होओ तो भाग जाओ छोड़कर। मैं तुमसे यह भी नहीं कह रहा हूं कि तुम झोपड़े बना लो और झोपड़ों में रहो। मैं तुमसे सिर्फ इतना ही कह रहा हूं कि झोपड़े में रहो कि महल में, एक बात याद रखो कि झोपड़े में भी मौत घटती है, महल में भी मौत घटती है; मौत के लिए कोई दरवाजा बंद नहीं। मौत के लिए सब तरफ द्वार है।
इसलिए महल में भी ऐसे रहो जैसे धर्मशाला में रहते हो। और झोपड़े में भी ऐसे रहो जैसे धर्मशाला में रहते हो। सराय में रहने की कला संसार में रहने की कला है।
सिर पर लंबा केस चले गज चालसी
अदभुत लोग थे, मस्त लोग थे; मस्त हाथियों जैसे चलते थे।
सिर पर लंबा केस चले गज चालसी
हाथ गह्यां समसेर ढलकती ढाल सी।।
हाथों में नंगी तलवारें थीं और ढालें थीं। मगर मौत का हमला हुआ, तो न तलवारें काम आती हैं, न ढालें काम आती हैं। और जब मौत का हमला होता है, तो हाथी भी ऐसे गिर जाते हैं जैसे चूहे गिर जाते हैं। क्या फर्क है? अकड़ तो चूहों में भी होती है; कोई चूहे में कम अकड़ नहीं होती हाथी से!
मैंने सुना है कि एक चूहा अपने बिल से निकला। सामने ही एक हाथी खड़ा था। हाथी ने चूहे की तरफ देखा और कहा कि तुम कौन हो? इतने छोटे, इतने ओछे! इस छोटे—से छेद में समा गए! तुम्हारा होना न होने के बराबर है।
चूहे ने कहा: माफ करिए, बात ऐसी नहीं है। कुछ दिनों से मेरी तबियत खराब है। मैं कोई छोटा नहीं हूं, जरा बीमार रहा हूं, बीमारी से उठा हूं। चूहों की भी अकड़ है! हाथियों की होगी। मगर फर्क क्या है? मौत के सामने चूहे और हाथी सब बराबर हो जाते हैं। मौत के सामने सब समान हैं। मौत बड़ी समाजवादी है। मौत भेद नहीं करती।
और जब मौत भेद नहीं करती तो तुम भी भेद न करो। जब मौत भेद नहीं करती, तो जीवन में भी भेद न करो। अभी से अपने को "ना—कुछ' मानो, तो मौत तुम्हें चोट न पहुंचा सकेगी। अभी से अपने को "ना—कुछ' जानो, तो मौत तुम्हें क्या मिटा सकेगी? तुम खुद ही अपने को मिटा दो!
यही कला संन्यास है—स्वयं को मिटा देना, स्वयं को शून्य कर लेना।
कहते हैं वाजिद: कहै वाजिद पुकार, सीख एक सुन्न रे।
एक शून्य को सीख लो। मरने के पहले मर जाओ। मरने के पहले अहंकार को विदा कर दो; कह दो कि मैं नहीं हूं। फिर तुम चकित होओगे, मौत आएगी और तुम्हारे भीतर मिटाने को कुछ न पाएगी।
सिर पर लंबा केस चले गज चालसी
हाथ गह्यां समसेर ढलकती ढाल सी।।
एता यह अभिमान कहां ठहराहिंगे
वाजिद कहता है, इतना अभिमान—कहां ठहरोगे! कहां रुकोगे!
एता यह अभिमान...।
ऐसा लगता है कि तुम रुकोगे ही नहीं, तुम तो बढ़ते ही चले जाओगे। तुम तो सारा जगत जीतकर रहोगे! ऐसा लगता है कि तुम तो मौत को भी पछाड़ दोगे!
एता यह अभिमान कहां ठहराहिंगे
इतनी अकड़? तुम तो मौत को पानी पिला दोगे, ऐसा लगता है!
लेकिन कौन कब मौत को पानी पिला पाता है? ढालें, तलवारें, सब पड़ी रह जाती हैं। मौत आती है, सब सुरक्षा के उपाय पड़े रह जाते हैं, कुछ काम नहीं आता। मौत के सामने हम एकदम असुरक्षित हो जाते हैं। उसके सामने हम एकदम निरीह, असहाय हो जाते हैं।
सिर्फ एक व्यक्ति उसके सामने असहाय नहीं होता—जिसने जाना कि मैं नहीं हूं; जिसने शून्य को जाना। वह तो मौत के सामने हंसता है। वह तो मौत से भी मजाक करता है।
एक झेन फकीर मर रहा था। ऐसे फकीर मौत से भी मजाक कर सकते हैं। मरने के वक्त उसके सारे शिष्य इकट्ठे हो गए हैं। उसने आंख खोलीं और कहा कि एक बात पूछूं, कभी तुमने किसी की खबर सुनी है जो बैठे—बैठे मरा हो पद्मासन में? एक शिष्य ने कहा: क्यों? तो उसने कहा कि अगर कोई न मरा हो पद्मासन में बैठकर तो मैं पद्मासन में बैठकर मरना चाहता हूं! एक बात रह जाएगी। किसी ने कहा कि नहीं, हमने सुना है कि कुछ फकीर पद्मासन में बैठकर मरे हैं। तो उसने कहा: तुमने सुना है कभी कोई खड़ा—खड़ा मरा हो? तो हम खड़े—खड़े मरते हैं।
यह मजाक देखते हैं, यह व्यंग्य—तो हम खड़े—खड़े मर जाते हैं, एक बात रह जाएगी! मगर किसी ने कहा कि हमने यह भी सुना है कि अतीत में एक दफा एक भिक्षु खड़े—खड़े मरा था। तो उसने कहा: अब एक ही उपाय रहा कि हम शीर्षासन करके मरते हैं।
और वह शीर्षासन लगाकर खड़ा हो गया। उसके शिष्य भी घबड़ा गए। कोई मौत से ऐसी मजाक करता है! अब वह मर गया कि जिंदा है, यह भी कुछ समझ में नहीं आता। वह शीर्षासन लगाए खड़ा है; उसकी सांस भी खो गई—अब उसको शीर्षासन से उतारना चाहिए कि नहीं उतारना चाहिए?
तब उन्हें याद आई कि उस फकीर की बड़ी बहिन भी भिक्षुणी है पास के ही विहार में। वे भागे गए कि उससे पूछो। वह भी पहुंची हुई सिद्ध महिला थी। वह आई और उसने कहा कि सुन, जिंदगी—भर हर बात में व्यंग्य और मजाक, कम से कम मौत के साथ शराफत और शिष्टाचार का व्यवहार करना चाहिए! तुम हमेशा अटपटी चाल चलते रहे। ढंग से मरो! तो फकीर उछलकर बैठ गया। उसने कहा: तो ठीक है, फिर ढंग से मरे जाते हैं। बहिन यह कह कर चली गई, और फकीर ढंग से मर गया—लेट गया बिस्तर पर, जैसे मरना चाहिए मर गया।
यह बहिन भी अदभुत रही होगी, जिसने कहा—ढंग से मरो, यह कोई बात है! जैसे मौत कोई बात ही नहीं; न फकीर को कोई बात है, न उसकी बहिन को कोई बात है—मौत कोई बात ही नहीं! एक शिष्टाचार तो रखो कम से कम।
मृत्यु के साथ भी व्यंग्य हो सकता है; मगर तभी, जब तुम मरने के पहले मर चुके होओ। मरने के पहले मर जाना संन्यास है। मरने के पहले जान लेना कि जो मरेगा वह मरा ही हुआ है। मरने के पहले पहचान लेना कि जो मरणधर्मा है, उसकी ही मृत्यु होगी; और जो अमृत है उसकी कभी कोई मृत्यु नहीं होती। और मेरे भीतर दोनों हैं। जो मरणधर्मा है, जो पृथ्वी से मिला है, वह पृथ्वी में वापिस चला जाएगा। और जो अमृत है, उसकी कहीं मृत्यु होती है!
मैं वही हूं—अमृतस्य पुत्रः! अमृत के पुत्र हो तुम!
ऐसी पहचान चाहिए। उपनिषद के वचन कंठस्थ कर लेने से नहीं अनुभव आ जाएगा। ऐसे बैठकर दोहराते रहे—अमृतस्य पुत्रः! अमृतस्य पुत्रः! कुछ भी न होगा; मौत आएगी और सब भूल जाओगे, चौकड़ी भूल जाओगे! याद ही न रहेगा उपनिषद। एकदम घबड़ा जाओगे। देह को पकड़ने लगोगे, कंपने लगोगे। शास्त्र पढ़ने से नहीं होगा, स्वयं का साक्षात्कार चाहिए।
एता यह अभिमान कहां ठहराहिंगे
हरि हां, वाजिद, ज्यूं तीतर कूं बाज झपट ले जाहिंगे।।
सीधे—सादे आदमी हैं वाजिद, वे कहते हैं: कि इतना अभिमान, कहां ठहरोगे? और पता है तुम्हें?
ज्यूं तीतर कूं बाज झपट ले जाहिंगे
जैसे बाज पक्षी तीतर को कभी भी झटककर ले जाए, कभी भी पकड़कर ले जाए, ऐसे ही मौत आएगी बाज की तरह और तीतर की तरह हो जाओगे—झपटकर ले जाएगी, उसके पंजे में पड़ोगे। छोड़ो भी यह अभिमान!
मौत के रहते भी मनुष्य अभिमानी है, यह आश्चर्य है! अगर मौत न होती तो दुनिया का क्या हाल होता, कहना मुश्किल है। अगर मौत न होती तो कैसा भयंकर अभिमान होता दुनिया में, कहना मुश्किल है। मौत है, फिर भी अभिमान है, अकड़ है। मौत को झुठलाकर, भुलाकर आदमी अकड़ा चला जाता है। जरा देखो! जरा पहचानो!
जिस जमीन पर तुम बैठे हो, वैज्ञानिक कहते हैं, उस जमीन पर—जिस जमीन पर तुम बैठे हो—उस पर कम से कम आठ आदमियों की लाशें मिट्टी बन चुकी हैं। इतने आदमी इस जमीन पर रह चुके हैं। यहां ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहां मरघट न बन चुका हो। मरघट बस्तियां बन जाते हैं, बस्तियां मरघट बन जाती हैं, यह बदलाहट होती रहती है, यह होती रहती है।
हड़प्पामोहनजोदड़ो की खोज हुई। हड़प्पा के नगर की खुदाई में बड़ी हैरानी हुई—सात परतें मिलीं हड़प्पा की खुदाई में! मतलब हड़प्पा नगर सात बार बसा और उजड़ा, सात बार बस्ती बसी और मरघट बना। सात परतें! सदियां लगी होंगी, हजारों—हजारों साल लगे होंगे। किसी नगर को बसने और उजड़ने में सात बार काफी समय लगेगा!
सारी जमीन बस चुकी, उजड़ चुकी। लोगों ने घर बनाए और वहीं कब्रें बनीं। जहां अकड़कर खड़े हुए, वहीं धूल में गिर गए। एक बार जब कोई लौटकर पीछे देखता है—कितने—कितने लोग इस जमीन पर रह चुके और गए! और कितने लोग अभी हैं और चले जाएंगे! और कितने लोग आएंगे और जाते रहेंगे! इस विस्तार को तुम जरा गौर करो, तुम्हारी अकड़ एकदम छोटी हो जाएगी। आदमी बड़ा छोटा है, बहुत छोटा है। सत्तर साल जी लेना क्षण—भर जैसा है इस विराट के विस्तार में!
जमीन की उम्र चार अरब वर्ष है, अब तक जमीन चार अरब वर्ष से जिंदा है। सूरज जमीन से हजारों गुना पुराना है। और हमारा सूरज बहुत जवान है; बूढ़े सूरज हैं। हमारी जमीन तो बहुत नई है, नई—नवेली बहू समझो; इसलिए इतनी हरी—भरी है। बहुत—सी पृथ्वियां हैं दुनिया में जो उजड़ गईं, जहां अब सिर्फ राख ही राख रह गई है—न वृक्ष ऊगते, न मेघ घिरते, न कोयल कूकती, न मोर नाचते।
अनंत पृथ्वियां हैं, वैज्ञानिक कहते हैं, जो सूख गई हैं। कभी वहां भी जीवन था। कभी यह पृथ्वी भी सूख जाएगी। हर चीज पैदा होती है, जवान होती है, बूढ़ी होती है, मरती है। यह सूरज भी चुक जाएगा; यह सूरज भी रोज चुक रहा है, क्योंकि इसकी ऊर्जा खत्म होती जा रही है। इससे किरणें रोज निकल रही हैं और समाप्त हो रही हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि कुछ हजार वर्षों में यह सूरज ठंडा पड़ जाएगा। इस सूरज के ठंडे पड़ते ही पृथ्वी भी ठंडी हो जाएगी, क्योंकि उसी से तो इसको रोशनी मिलती है, प्राण मिलते, ताप मिलता, ऊर्जा मिलती, ऊष्मा मिलती; उसी से तो उत्तप्त होकर जीवन चलता है, फूल खिलते हैं, वृक्ष हरे होते हैं, हम चलते हैं, उठते हैं, बैठते हैं।
हमारा तो सत्तर साल का जीवन है, इस पृथ्वी का समझो कि सत्तर अरब वर्ष का होगा। सूरज का और समझो सात सौ अरब वर्ष का होगा। और महासूर्य हैं, जिनका और आगे, आगे होगा। आदमी की बिसात क्या है? इस सत्तर साल के जीवन में मगर हम कितने अकड़ लेते हैं!
एता यह अभिमान कहां ठहराहिंगे
लड़ लेते हैं, झगड़ लेते हैं, गाली—गलौज कर लेते हैं, दोस्ती—दुश्मनी कर लेते हैं, अपना—पराया कर लेते हैं, मैंत्तू की बड़ी झंझटें खड़ी कर देते हैं। अदालतों में मुकदमेबाजी हो जाती है, सिर खुल जाते हैं।
अगर हम मृत्यु को ठीक से पहचान लें, तो इस पृथ्वी पर वैर का कारण न रह जाए। जहां से चले जाना है, वहां वैर क्या करना? जहां से चले जाना है, वहां दो घड़ी का प्रेम ही कर लें। जहां से विदा ही हो जाना है, वहां गीत क्यों न गा लें, गाली क्यों बकें? जिनसे छूट ही जाना होगा सदा को, उनके और अपने बीच दुर्भाव क्यों पैदा करें? कांटे क्यों बोएं? थोड़े फूल उगा लें, थोड़ा उत्सव मना लें, थोड़े दीए जला लें! इसी को मैं धर्म कहता हूं।
जिस व्यक्ति के जीवन में यह स्मरण आ जाता है कि मृत्यु सब छीन ही लेगी; यह दो घड़ी का जीवन, इसको उत्सव में क्यों न रूपांतरित करें! इस दो घड़ी के जीवन को प्रार्थना क्यों न बनाएं! पूजन क्यों न बनाएं! झुक क्यों न जाएं—कृतज्ञता में, धन्यवाद में, आभार में! नाचें क्यों न, एक—दूसरे के गले में बांहें क्यों न डाल लें! मिट्टी मिट्टी में मिल जाएगी। यह जो क्षण—भर मिला है हमें, इस क्षण—भर को हम सुगंधित क्यों न करें! इसको हम धूप के धुएं की भांति क्यों पवित्र न करें, कि यह उठे आकाश की तरफ, प्रभु की गूंज बने!
एता यह अभिमान कहां ठहराहिंगे
हरि हां, वाजिद, ज्यूं तीतर कूं बाज झपट ले जाहिंगे।।
आता ही होगा बाज, कभी भी झपट ले जाएगा। इसके पहले कि बाज झपट ले, तुम स्वयं ही जागो!
कारीगर कर्तार कि हून्दर हद किया।
कि परमात्मा भी खूब कारीगर है, खूब कुशल है।
दस दरवाजा राख शहर पैदा किया।।
यह तुम्हारी जो देह है, शरीर है, इसमें दस दरवाजे रखे हैं और एक पूरा शहर बसा दिया है। तुम्हारे भीतर एक बस्ती बसी है! वैज्ञानिक कहते हैं, प्रत्येक व्यक्ति के भीतर कम से कम सात करोड़ जीवाणु हैं—सात करोड़! बंबई छोटी बस्ती है, कलकत्ता भी बहुत छोटी बस्ती है; कलकत्ता में एक करोड़ आदमी हैं, तुम्हारे शरीर में सात करोड़ जीवित अणु हैं—सात करोड़ जीवन! बड़ी बस्ती तुम्हारे भीतर बसी है! एक अर्थ में तुम एकदम छोटे हो, एक अर्थ में तुम भी विस्तीर्ण हो।
कारीगर कर्तार कि हून्दर हद किया।
कि हद कर दी हुनर की!
दस दरवाजा राख शहर पैदा किया।।
और दस दरवाजे रखे हैं इंद्रियों के—पांच कर्मेंद्रियां, पांच ज्ञानेंद्रियां—ये दरवाजे रखे हैं। इन्हीं दरवाजों से तुम जीवन से संबंध बनाते हो, और इन्हीं दरवाजों से एक दिन मौत आएगी। इन्हीं दरवाजों से तुम बाहर जाते हो—इन्हीं आंखों से तुम बाहर जाते हो, इन्हीं हाथों से तुम बाहर टटोलते हो, स्पर्श करते हो, इन्हीं कानों से तुम बाहर सुनते हो—इन्हीं इंद्रियों से मृत्यु भीतर प्रवेश करेगी।
यह जानकर तुम हैरान होओगे कि प्रत्येक व्यक्ति अलग इंद्रिय से मरता है। किसी की मौत आंख से होती है, तो आंख खुली रह जाती है—हंस आंख से उड़ा। किसी की मृत्यु कान से होती है। किसी की मृत्यु मुंह से होती है, तो मुंह खुला रह जाता है। अधिक लोगों की मृत्यु जननेंद्रिय से होती है, क्योंकि अधिक लोग जीवन में जननेंद्रिय के आसपास ही भटकते रहते हैं, उसके ऊपर नहीं जा पाते। तुम्हारी जिंदगी जिस इंद्रिय के पास जीयी गई है, उसी इंद्रिय से मौत होगी। औपचारिक रूप से हम मरघट ले जाते हैं किसी को तो उसकी कपाल—क्रिया करते हैं, उसका सिर तोड़ते हैं। वह सिर्फ प्रतीक है। समाधिस्थ व्यक्ति की मृत्यु उस तरह होती है। समाधिस्थ व्यक्ति की मृत्यु सहस्रार से होती है।
जननेंद्रिय सबसे नीचा द्वार है। जैसे कोई अपने घर की नाली में से प्रवेश करके बाहर निकले। सहस्रार, जो तुम्हारे मस्तिष्क में है द्वार, वह श्रेष्ठतम द्वार है। जननेंद्रिय पृथ्वी से जोड़ती है, सहस्रार आकाश से। जननेंद्रिय देह से जोड़ती है, सहस्रार आत्मा से। जो लोग समाधिस्थ हो गए हैं, जिन्होंने ध्यान को अनुभव किया है, जो बुद्धत्व को उपलब्ध हुए हैं, उनकी मृत्यु सहस्रार से होती है।
उस प्रतीक में हम अभी भी कपाल—क्रिया करते हैं। मरघट ले जाते हैं, बाप मर जाता है, तो बेटा लकड़ी मारकर सिर तोड़ देता है। मरे—मराए का सिर तोड़ रहे हो! प्राण तो निकल ही चुके, अब काहे के लिए दरवाजा खोल रहे हो? अब निकलने को वहां कोई है ही नहीं। मगर प्रतीक, औपचारिक, आशा कर रहा है बेटा कि बाप सहस्रार से मरे; मगर बाप तो मर ही चुका है। यह दरवाजा मरने के बाद नहीं खोला जाता, यह दरवाजा जिंदगी में खोलना पड़ता है। इसी दरवाजे की तलाश में सारे योग, तंत्र की विद्याओं का जन्म हुआ। इसी दरवाजे को खोलने की कुंजियां हैं योग में, तंत्र में। इसी दरवाजे को जिसने खोल लिया, वह परमात्मा को जानकर मरता है। उसकी मृत्यु समाधि हो जाती है। इसलिए हम साधारण आदमी की कब्र को कब्र कहते हैं, फकीर की कब्र को समाधि कहते हैं—समाधिस्थ होकर जो मरा है।
प्रत्येक व्यक्ति उस इंद्रिय से मरता है, जिस इंद्रिय के पास जीया। जो लोग रूप के दीवाने हैं, वे आंख से मरेंगे; इसलिए चित्रकार, मूर्तिकार आंख से मरते हैं। उनकी आंख खुली रह जाती है। जिंदगी—भर उन्होंने रूप और रंग में ही अपने को तलाशा, अपनी खोज की। संगीतज्ञ कान से मरते हैं। उनका जीवन कान के पास ही था। उनकी सारी संवेदनशीलता वहीं संगृहीत हो गई थी। मृत्यु देखकर कहा जा सकता है—आदमी का पूरा जीवन कैसा बीता। अगर तुम्हें मृत्यु को पढ़ने का ज्ञान हो, तो मृत्यु पूरी जिंदगी के बाबत खबर दे जाती है कि आदमी कैसे जीया; क्योंकि मृत्यु सूचक है, सारी जिंदगी का सार—निचोड़ है—आदमी कहां जीया।
हरि हां, वाजिद, ज्यूं तीतर कूं बाज झपट ले जाहिंगे।।
जल्दी ही बाज तो आएगा, उसके पहले तैयारी कर लो। अगर तुम सहस्रार पर पहुंच जाओ, तो फिर मौत का बाज तुम्हें झपटकर नहीं ले जा सकता। फिर तो परमात्मा तुम्हें तलाशता आता है। अगर तुम किसी और इंद्रिय से मरे, तो वापिस लौट आना पड़ेगा देह में; क्योंकि बाकी सब द्वार देह में हैं। सहस्रार देह का द्वार नहीं है, आत्मा का द्वार है। सहस्रार ग्यारहवां द्वार है, बाकी दस द्वार शरीर के हैं। ग्यारहवें द्वार को तलाशो—तुम्हारे भीतर है, बंद पड़ा है।
अब तो वैज्ञानिक भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि मस्तिष्क का आधा हिस्सा बिलकुल निष्क्रिय पड़ा है। और बहुत चकित होते हैं कि क्या कारण होगा, क्यों मस्तिष्क का आधा हिस्सा बिलकुल निष्क्रिय है, किसी काम में नहीं आ रहा है?
प्रकृति कोई चीज ऐसी पैदा नहीं करती जो बेकाम हो, पैदा करती है तो काम होना ही चाहिए। आधा मस्तिष्क काम कर रहा है, आधा मस्तिष्क बिलकुल बंद पड़ा है। वही आधा मस्तिष्क सहस्रार के क्षण में सक्रिय होता है। उसी आधे मस्तिष्क से प्रार्थना जन्मती है। उसी आधे मस्तिष्क से ध्यान उपजता है। वह आधा मस्तिष्क तभी सक्रिय होता है, जब कोई बुद्धत्व को उपलब्ध होता है, तब तक सक्रिय नहीं होता। ऐसा ही समझो जैसे तुम्हारे घर में एक द्वार बंद है, और तुम कई बार सोचते हो यह द्वार कहां खुलता होगा? और सब द्वार तो तुमने देखे हैं, मगर यह द्वार किस दिशा में ले जाता है? किस खजाने की तरफ? पता नहीं किस गुफा में, कहां ले जाता है? जो व्यक्ति अपने भीतर थोड़ा—सा खोजबीन करेगा, उसे जल्दी ही सहस्रार के द्वार पर जिज्ञासा उठनी शुरू हो जाएगी।
विज्ञान तो अब इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि मस्तिष्क का आधा हिस्सा निष्क्रिय है; योग तो आज पांच हजार साल से यह कह रहा है कि मस्तिष्क का आधा हिस्सा निष्क्रिय है। उसको सक्रिय करने के बहुत उपाय किए हैं योग ने। अनेक आसन खोजे हैं उस आधे को सक्रिय करने के लिए। उस आधे को सक्रिय करने के लिए ही शीर्षासन का उपयोग किया गया है, ताकि खून की धारा उस आधे मस्तिष्क को जाकर चोट करने लगे, उसे सक्रिय करे। श्वास की प्रक्रियाएं विकसित की गई हैं। क्योंकि मस्तिष्क का भोजन आक्सीजन है, मस्तिष्क जीता है आक्सीजन पर। जितनी ज्यादा प्राणवायु तुम लेते हो, उतना ही मस्तिष्क सक्रिय होता है।
इसलिए रात अगर तुम सोने के पहले पंद्रह मिनिट प्राणायाम कर लो, फिर रात—भर न सो सकोगे—मस्तिष्क सक्रिय हो जाएगा। इसलिए रात भूल कर भी प्राणायाम नहीं करना चाहिए, या विपस्सना जैसी ध्यान की विधि रात में नहीं करनी चाहिए, अन्यथा नींद खराब हो जाएगी। सुबह की विधियां हैं, सूरज के उगने के साथ करनी चाहिए।
जितनी तुम श्वास लेते हो, उतना मस्तिष्क सक्रिय होता है। जैसे ही आक्सीजन कम होती है, सबसे पहले मस्तिष्क मरने लगता है। इसलिए जिस व्यक्ति के भीतर आक्सीजन की कम होने की संभावना होती है, चिकित्सक तत्क्षण आक्सीजन देते हैं; क्योंकि एक दफा मस्तिष्क खराब हो जाए, तो फिर सुधरने का उपाय नहीं है। छह सेकेंड में नष्ट होना शुरू हो जाता है। आक्सीजन न पहुंचे तो छह सेकेंड के भीतर मस्तिष्क के तंतु मरने शुरू हो जाते हैं; बड़े सूक्ष्म नाजुक तंतु हैं।
प्राणायाम का प्रयोग क्या है? प्राणायाम का इतना ही अर्थ है—सामान्य रूप से जितनी प्राणवायु हम अपने भीतर ले जाते हैं, उससे ज्यादा प्राणवायु को हम भीतर ले जाएं, फेफड़ों को पूरा भरें। फेफड़े में छह हजार छिद्र हैं; आमतौर से जो हम श्वास लेते हैं, उसमें दो हजार छिद्रों तक ही श्वास जाती है। जब हम दौड़ते हैं, तैरते हैं, तो तीन हजार से चार हजार छिद्रों तक श्वास जाती है। छह हजार छिद्रों तक श्वास तो केवल प्राणायाम में ही जाती है। और जब पूरे छह हजार छिद्रों तक श्वास पहुंचती है, तो तुम्हारे पूरे मस्तिष्क को प्राणवायु उपलब्ध होनी शुरू होती है। वह जो निष्क्रिय पड़ा हिस्सा है, उसमें भी प्राणवायु का संचार होता है। वह भी सक्रिय होने लगता है।
वहीं खिलता है जीवन का कमल। और एक बार वहां का द्वार खुल जाए, एक बार वहां का कमल खुल जाए, फिर—फिर कोई मृत्यु नहीं है, फिर अमृत है। तभी तुम जानोगे कि तुम अमृत के पुत्र हो।
कारीगर कर्तार कि हून्दर हद किया।
दस दरवाजा राख शहर पैदा किया।।
नख—सिख महल बनाय दीपक जोड़िया
मिट्टी से तो बना दिया है नख—शिख, शरीर; बड़ी सुंदर प्रतिमा बना दी, और भीतर फिर एक दीपक जोड़ दिया है, भीतर फिर एक ज्योति जोड़ दी है, जीवात्मा जोड़ दी है। बाइबिल कहती है: परमात्मा ने आदमी को मिट्टी से बनाया और फिर श्वास फूंकी। ये प्रतीक हैं। आदमी मिट्टी है, सांस के माध्यम से कुछ उसमें चल रहा है जो मिट्टी नहीं है। इसलिए सांस बंद हुई कि आदमी गया।
नख—सिख महल बनाय दीपक जोड़िया
हरि हां, भीतर भरी भंगार कि ऊपर रंग दिया।।
और इस देह में तो कचरा ही कचरा भरा है, और ऊपर से सुंदर रंग भी दे दिया; खूब तू भी कारीगर कुशल है! देह में तो भूसा ही भूसा भरा है, मिट्टी ही मिट्टी है, मगर ऊपर से खूब रंग दे दिया है—सुंदर चमड़ी चढ़ा दी, नख—शिख दे दिया, सौंदर्य दे दिया!
और आदमी इसी सौंदर्य में भटक जाता है। दर्पण के सामने खड़ा अपने ही सौंदर्य में मोहित होता रहता है। और सब भंगार है, सब कूड़ा—करकट है, कचरा है, सब धोखा है, सब सौंदर्य चमडी से ज्यादा गहरा नहीं है। कभी जाकर अस्पताल आपरेशन देख लेना चाहिए। कभी किसी का पोस्टमार्टम होता हो, तो जाकर जरूर देख लेना चाहिए। इससे तुम्हें बोध होगा कि तुम्हारे शरीर में क्या भरा है। भंगार! वाजिद ठीक कहते हैं, व्यर्थ का कूड़ा—करकट भरा है। मगर खूब कारीगर है परमात्मा कि भंगार को लीप—पोत कर ऊपर से ऐसा सुंदर कर दिया है कि आदमी धोखा खा जाता है, कि आदमी दर्पण के सामने खड़ा होकर सोचता है—यही मैं हूं। यही तुम नहीं हो। जो दर्पण में दिखाई पड़ता है, वह तो भंगार ही है! जो देख रहा है वह तुम हो, जो दिखाई पड़ रहा है वह तुम नहीं हो। दृश्य तुम नहीं हो, द्रष्टा तुम हो, साक्षी तुम हो। उस साक्षी के सूत्र को पकड़ो। उसी सूत्र को पकड़कर सहस्रार तक पहुंच जाओगे!
काल फिरत है हाल रैण—दिन लोइ रे।
लोगो! ध्यान रखो!
काल फिरत है हाल रैण—दिन लोइ रे।
मृत्यु दिन—रात घूम रही है खोजती तुम्हें, तलाशती तुम्हें। भागो कहीं, बच न पाओगे।
मैंने सुना है, एक सम्राट ने रात सपना देखा कि किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा। लौटकर उसने देखा सपने में, एक काली छाया—भयंकर, वीभत्स, घबड़ाने वाली! पूछा: तू कौन है? उस छाया ने कहा: मैं मृत्यु हूं, और तुम्हें सूचना देने आई हूं। कल सूरज के डूबते तैयार रहना, लेने आती हूं।
आधी रात ही नींद खुल गई; ऐसे सपने में किसकी नींद न खुल जाएगी? घबड़ाकर सम्राट उठ आया। आधी रात थी, सपना शायद सपना ही हो; मगर कौन जाने, कभी—कभी सपने भी सच हो जाते हैं।
इस दुनिया में बड़ा रहस्य है। यहां जो सच जैसा मालूम पड़ता है, अक्सर सपना सिद्ध होता है। और कभी—कभी ऐसा भी हो जाता है कि जो सपना जैसा मालूम होता है, सत्य सिद्ध हो जाता है। सपने और सत्य में यहां बहुत फर्क नहीं है, शायद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
सम्राट डरा। रात ही, आधी रात ही ज्योतिषी बुलवा लिए, कहा कि सपने की खोजबीन करो। उस समय के जो फ्रायड होंगे, जुंग, एडलर—मनोवैज्ञानिक—सब बुला लिए। राजधानी में थे बड़े—बड़े मनोवैज्ञानिक और ज्योतिषी और विचारक, वे सब आ गए अपने—अपने शास्त्र लेकर; और उनमें बड़ा विवाद छिड़ गया कि इसका अर्थ क्या है। कोई कुछ अर्थ करे, कोई कुछ अर्थ करे; अपने—अपने अर्थ।
सम्राट तो घबड़ाने लगा। वैसे ही बिगूचन में पड़ा था, इनके अर्थ सुनकर और इनका विवाद सुनकर और उलझ गया। शास्त्रों से अक्सर लोग सुलझते नहीं, उलझ जाते हैं। पंडितों की बातों को सुनकर लोगों का समाधान नहीं होता, और समाधान पास हो तो वह भी चला जाता है। तर्कजाल से समाधान हो भी नहीं सकता।
उनमें बड़ा विवाद छिड़ गया। उनमें बड़ा अहंकार का उपद्रव मच गया। उनको प्रयोजन ही नहीं सम्राट से। सम्राट ने कई बार कहा कि भाई मेरे, नतीजे की कुछ बात करो, क्योंकि सूरज ऊगने लगा। और सूरज ऊगने लगा, तो सूरज के डूबने में देर कितनी लगेगी? मुझे कुछ कहो कि मैं करूं क्या? मगर वे तो विवाद में तल्लीन थे। वे तो अपने शास्त्रों से उद्धरण दे रहे थे। वे तो अपनी बात सिद्ध करने में लगे थे।
आखिर, सम्राट का बूढ़ा नौकर था, उसने सम्राट के पास आकर कहा: यह विवाद कभी समाप्त नहीं होगा और सांझ जल्दी आ जाएगी। मैं जानता हूं कि पंडितों के विवाद कभी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचते। सदियां बीत गईं, कोई निष्कर्ष नहीं है! जैन—बौद्ध अभी भी विवाद करते हैं; हिंदू—जैन अभी भी विवाद करते हैं; ईसाई—हिंदू अभी भी विवाद करते हैं—विवाद जारी है। आस्तिक—नास्तिक विवाद कर रहे हैं—विवाद जारी है। हजारों साल बीत गए, एक भी तो नतीजा नहीं है। तो क्या आप सोचते हैं सांझ होते होते नतीजा ये निकाल पाएंगे? इनको करने दो विवाद। मेरी मानो, यह महल—इस महल में अब क्षण—भर भी रुकना ठीक नहीं है, यहां से भाग चलें। भाग जाओ। तुम्हारे पास तेज घोड़ा है, ले लो; और जितनी दूर निकल सको इस महल से निकल जाओ। इस महल में जो सूचना मौत ने दी है, तो इस महल में अब रुकना ठीक नहीं। इनको विवाद करने दो; बचोगे तो बाद में इनका निष्कर्ष समझ लेना।
बात सम्राट को भी समझ में आई, कुछ करना जरूरी है। और क्या किया जा सकता है? लिया उसने अपना तेज घोड़ा और भागा। पंडित विवाद करते रहे, सम्राट भागा। सांझ होतेऱ्होते काफी दूर निकल आया, सैकड़ों मील दूर निकल आया; ऐसा तेज उसके पास घोड़ा था। खुश था बहुत। एक आमों के बगीचे में सांझ हुई, तो रुका। घोड़े को बांधा। न केवल महल छोड़ आया था, साम्राज्य भी अपना पीछे छोड़ आया था। यह दूसरे राज्य में प्रवेश कर गया था। घोड़े को बांधा, घोड़े को थपथपाया, धन्यवाद दिया, कहा कि तू मुझे ले आया इतने दूर! दिन में तूने एक बार रुककर भी श्वास न ली। मैं तेरा अनुगृहीत हूं।
जब वह यह कह ही रहा था और सूरज ढल रहा था, अचानक चौंका, वही हाथ जो रात सपने में देखा था, कंधे पर है। लौट कर देखा—मौत खड़ी है, खिलखिलाकर हंस रही है। सम्राट ने पूछा कि बात क्या है? मौत ने कहा कि धन्यवाद मुझे देने दें आपके घोड़े को, आप न दें। क्योंकि मैं बेचैन थी, इसलिए रात सपने में आई थी। मरना तुम्हें इस अमराई में था, और इतना फासला और कुल चौबीस घंटे बचे! तुम पहुंच पाओगे कि नहीं, चिंता मुझे थी। मौत तुम्हारी यहां घटनी थी। घोड़ा ले आया, ठीक वक्त पर ले आया, गजब का घोड़ा है!
तुम भागोगे कहां? कौन जाने तुम जहां भागकर जा रहे हो, वहीं मौत घटनी हो, उसी अमराई में! मौत तो घटनी है। भागकर जाने का कोई उपाय नहीं है। मौत तुम्हें चारों घड़ी खोज रही है, चारों आयाम खोज रही है।
काल फिरत है हाल रैण—दिन लोइ रे।
हणै राव अरु रंक गिणै नहिं कोइ रे।।
और मौत किसी की चिंता नहीं करती कि तुम धनी हो कि गरीब, पदवीधारी हो कि पदवीऱ्हीन, राजा हो कि रंक—किसी की गिनती नहीं करती।
यह दुनिया वाजिद बाट की दूब है।
हरि हां, पाणी पहिले पाल बंधे तो खूब है।।
यह ऐसा ही समझो, यह दुनिया ऐसे है, जैसे हाट भरी हो, बाजार भरा हो; और डर हो, आकाश में बादल घिरे हों, तुम अपनी दुकान लगा रहे हो। पानी गिरने के पहले अगर पाल तन जाए, तो ठीक है।
हरि हां, पाणी पहिले पाल बंधे तो खूब है।।
खयाल रखना, ये बादल तो घिरे हैं आकाश में मृत्यु के, इनके पहले पाल तन जाए तो ठीक है—इनके बरसने के पहले! मौत इसके पहले तुम्हें पकड़े, तुम जरा अमृत का स्वाद ले लो, तो पाल तन जाए। मौत आए, इसके पहले तुम परमात्मा को थोड़ा जान लो, तो बात बन जाए, तो बिगड़ी बन जाए।
हरि हां, पाणी पहिले पाल बंधे तो खूब है।।
पानी तो बरसेगा, बादल घिर रहे हैं, घुमड़ रहे हैं, बिजली कौंध रही है। और जल्दी करो, अपना तंबू तान लो, कुछ सुरक्षा का उपाय कर लो। यहां का तो सब यहीं पड़ा रहा जाएगा, इसलिए इससे कोई सुरक्षा नहीं हो सकती, कुछ परलोक की सुध लो।
डोला लिए चलो तुम झटपट, छोड़ो अटपट चाल रे
सजन—भवन पहुंचा दो हमको, मन का हाल बिहाल रे
बरखा—रितु में सब सहेलियां मैके पहुंचीं आय रे
बाबुल घर से आज चलीं हम पिय घर लाज बिहाय रे
उनके बिन बरसती रातें कैसे कटें अचूक रे
पिय की बांह उसीस न हो तो मिटे न मन की हूक रे
डोले वालो बढ़े चलो तुम, आया संध्या काल रे
ढली दुपहरी, किरनें तिरछी हुईं, सांझ नजदीक रे
अभी दूर तक दीख पड़े है पथ की लंबी लीक रे
आज सांझ के पहले ही तुम पहुंचा दो पिय—गेह रे
हम कह आई हैं इंदर से, रात पड़ेगा मेह रे
घन गरजेंगे, रस बरसेगा, होगी सृष्टि निहाल रे
डोला लिए चलो तुम जल्दी, छोड़ो अटपट चाल रे
बाबुल के घर नेह भरा है, पर है द्वैत विचार रे
साजन के नव नेह सलिल में है अद्वैत विहार रे
हृदय से हृदय, प्राण से प्राण आज मिलें भरपूर रे
पिय—मय तिय—मय पिय जब हों तब हो संभ्रम दूर रे
दूर करो पथ के अंतर का अटपट जंजाल रे
डोले वालो बढ़े चलो तुम, आया संध्या काल रे
जल्दी करो, सांझ घिरने लगी!
डोले वालो चले चलो तुम झटपट, छोड़ो अटपट चाल रे
सजन—भवन पहुंचा दो हमको, मन का हाल बिहाल रे
उस प्रभु का थोड़ा अनुभव हो जाए!
ढली दुपहरी, किरनें तिरछी हुईं, सांझ नजदीक रे
अभी दूर तक दीख पड़े है पथ की लंबी लीक रे
आज सांझ के पहले ही तुम पहुंचा दो पिय—गेह रे
और भी बहुत—बहुत जन्मों में तुम चले हो और पिया के घर तक नहीं पहुंचे। सांझ बहुत बार पड़ गई है और तुम पिया के घर से दूर ही रह गए। और—और न मालूम कितने बाजारों में और कितनी हाटों में तुम्हारी दुकान उजड़ी है!
वर्षा आ गई, मेघ बरसे, और तुम पाल नहीं तान पाए हो। इस बार न चूको। बार—बार चूके हो, इस बार न चूको। अब कुछ करो!
ठीक कहते हैं वाजिद—
यह दुनिया वाजिद बाट की दूब है।
हरि हां, पाणी पहिले पाल बंधे तो खूब है।।
तो मजा आ जाए, पानी के पहले पाल बंध जाए, मौत के पहले अमृत का थोड़ा स्वाद आ जाए। आ जाए अमृत का स्वाद, तो जिंदगी कुछ और हो जाती। जिंदगी ही कुछ और नहीं हो जाती, मौत भी कुछ और हो जाती है, सारा स्वाद बदल जाता है। दृष्टि बदल जाती है, तो सारी सृष्टि बदल जाती है।
क्यों बजाई बांसुरी? मैं तो, सजन, आ ही रही थी;
अयुत जन्मों की तृषा भर नयन में ला ही रही थी।
फिर तो मृत्यु उस प्यारे की पुकार बन जाती है, उसकी टेर बन जाती है। फिर तो उसकी बांसुरी बन जाती है। फिर तो झटपट आदमी तैयार हो जाता है, चलने को तत्पर हो जाता है। प्रिय मिलन...देह की बाधा है, वह भी छूटी जा रही है। आत्मा उन्मत्त हो जाती है। मस्त हो जाती है।
क्यों बजाई बांसुरी? मैं तो, सजन, आ ही रही थी;
अयुत जन्मों की तृषा भर नयन में ला ही रही थी।
क्या बताऊं कब सुने थे तव सुरति—आह्वान के स्वन?
युग अनेकों हो चुके हैं जब सुना था वह निमंत्रण!
किंतु झंकृत हैं अभी तक उन स्वरों से प्राण, तन, मन;
नवल स्वर—शर क्यों पुरानी कसक अस्थायी नहीं थी!
सजन, मैं आ ही रही थी।
क्या कहूं है पंथ कैसा, क्या दशा है चरणत्तल की?
क्या कहानी मैं सुनाऊं आज निज मात्रा विकल की?
स्वेद झलका भाल पर, पद तले शोणित—धार झलकी;
किंतु मैं तव निठुरता पर, सतत मुसका ही रही थी;
सजन, मैं आ ही रही थी।
क्या कहूं, कब श्याम घन बन तुम घिरोगे मन गगन में?
क्या बताऊं, मधु पवन बन कब लगोगे तप्त तन में?
कुछ कहो तो, शरद—शशि बन कब खिलोगे शून्य मन में?
क्यों बजाई वेणु? मैं ये प्रश्न सुलझा ही रही थी;
सजन, मैं आ ही रही थी।
याद है: मैंने तुम्हारे हैं कभी पद—पद्म चूमे;
तव कमल—मुख पर कभी हैं मत्त मम दृग भृंग झूमे;
पूर्ण अंगीकार में था लुप्त द्विविधा—रूप तू—मैं।
विलग होकर भी मिलन के गीत मैं गा ही रही थी;
सजन, मैं आ ही रही थी।
क्यों बजाई बांसुरी? मैं तो, सजन, आ ही रही थी;
अयुत जन्मों की तृषा भर नयन में ला ही रही थी।
मृत्यु तो तब उस सजन की, उस प्यारे की पुकार मालूम होती है—उसकी बांसुरी की टेर! जैसे यमुना तट पर, दूर वंशी—वट में कृष्ण ने बजाई हो बांसुरी और राधा भाग चली हो और कहती हो—क्यों बजाई बांसुरी? मैं तो आ ही रही थी। ऐसी ही मृत्यु प्रतीत होती है उसे, जिसने पानी के पहले पाल बांध लिया।
प्यारा दूर नहीं है; देह से तादात्म्य है, इसलिए दूर है। देह से तादात्म्य छूटे, तो निकट है। प्यारा दूर नहीं है, देह की ही दीवाल है, इसलिए दिखाई नहीं पड़ता है। देह से थोड़े ऊपर उठो, तो दर्शन हो, तो दरस—परस हो।
विचरहु पिय की डगरिया, बसहु पिया के गांव;
पिय की डयौढ़ी बैठिकै, रटहु पिया कौ नांव।
रात अंधेरे पाख की, दीपक हीन कुटीर;
आय संजोवहु दीयरा, हियरा भयौ अधीर।
विहंसौ झूला झूल प्रिये, मम रसाल की डाल;
कूकौ कोकिल—सी तनिक गूंजे सब दिक—काल।
हम विराग आकाश में बहुत उड़े दिन—रैन;
पै मन पिय—पग—राग में लिपट रह्यौ बेचैन।
व्यर्थ भए निष्फल गए जोग साधना यत्न;
कौन समेटे धूरि जब मन में पिय सो रत्न।
कहं धूनी की राख यह, कहं पिय चरण पराग?
कहां बापुरी विरति यह, कहां स्नेह रस राग?
अरुणा भई विभावरी ढूंढ़त पिय कौ गांव;
कितै पिया की डगरिया, कितै पिया कौ ठांव?
पूछो, खोजो—
अरुणा भई विभावरी ढूंढ़त पिय कौ गांव;
कितै पिया की डगरिया, कितै पिया कौ ठांव?
पूछो, खोजो; ठांव दूर नहीं, गांव दूर नहीं। रुकें पांव, तो आ गया गांव। ठहरें पांव, तो आ गया गांव। चित्त दौड़े न, चित्त भागे न, ठहरे, थिर हो—बस आ गया गांव। और उस प्यारे की थोड़ी—सी भी झलक मिल जाए, एक बिजली भी कौंध जाए, तो बस है। फिर बोध हो जाएगा कि नहीं कोई मृत्यु कभी हुई है, न हो सकती है।
सुकरित लीनो साथ पड़ी रहि मातरा
दौलत तो सब पड़ी रह जाएगी, हां जो थोड़ा—सा कुछ शुभ किया हो, वह साथ जाएगा।
सुकरित लीनो साथ पड़ी रहि मातरा
और तो सब पड़ा रह जाएगा, कुछ शुभ किया हो, कुछ सेवा की हो, कुछ आनंद—भाव से बांटा हो, कुछ दिया हो...। जो—जो छीना है, झपटा है, वह सब तो पड़ा रह जाएगा; जो दिया है, वह साथ जाएगा।
यह बड़ा बेबूझ गणित है। जीसस का प्रसिद्ध वचन है: जो तुमने छीना है, झपटा है, वह तो छीन लिया जाएगा, झपट लिया जाएगा; जो तुमने दिया है, जो तुमने बांटा है, वही तुम्हें अंत में मिल जाएगा। बांटो!
सुकरित लीनो साथ पड़ी रहि मातरा
लांबा पांव पसार बिछाया सांथरा।।
चले अब, पड़ गए अरथी पर, पसार दिए पांव। सब पड़ा रह गया, जो छीना था, झपटा था। औरों ने छीना था, झपटा था, उनका पड़ा रह गया; फिर तुमने छीना—झपटा, तुम्हारा पड़ा रह जाएगा। यह जमीन यहां रह जाएगी, यह धन यहां रह जाएगा—यह सब यहां रह जाएगा।
तुम साथ क्या ले जा सकोगे? शुभ—भाव, ध्यान की आनंद—दशाएं, ध्यान की आनंद—दशा में तुम से बहा हुआ प्रेम; तुमने अपनी जीवन—ऊर्जा जो बांटी, वही तुम साथ ले जाओगे।
यह उलटा नियम—जो तुम जोड़ते हो, वह पड़ा रह जाएगा; जो तुम बांटते हो, वही साथ जाएगा।
लेय चल्या बनवास लगाई लाय रे।
अब चले, बंध गई अरथी, जल्दी ही लोग आग लगा देंगे। पड़े रहोगे वन में।
हरि हां, वाजिद, देखै सब परिवार अकेलो जाय रे।।
और चले अकेले, अब कोई साथी नहीं, संगी नहीं, सारा परिवार खड़ा देखता है। जिनको अपना माना, जिनको सोचा था साथ देंगे—वे सब भी साथी—संगी जीवन के हैं, मृत्यु में तुम अकेले हो। मृत्यु में तो सिवाय परमात्मा के और कोई साथ नहीं हो सकता। इसलिए कुछ साथ उससे जोड़ो! कुछ रस उससे लगाओ! कुछ पिया का गांव खोजो, कुछ पिया की राह खोजो!
भूखो दुर्बल देखि नाहिं मुंह मोड़िए
जो हरि सारी देय तो आधी तोड़िए।।
अगर परमात्मा ने तुम्हें पूरी रोटी दी है, तो कम से कम आधी तो बांट दो।
जो हरि सारी देय तो आधी तोड़िए
दे आधी की आध...।
न दे सको आधी, तो आधी की आध सही। न दे सको आधी की आध, तो कम से कम अरध की कौर! कुछ तो बांट लो!
दे आधी की आध अरध की कौर रे।
हरि हां, अन्न सरीखा पुन्य नाहिं कोइ और रे।।
तुम्हारे चारों तरफ लोग हैं, जिनके जीवन में बहुत तरह के दुख हैं—शरीर के दुख हैं, मन के दुख हैं, आत्मा के दुख हैं। कुछ भी बंटा लो, कोई भी दुख बंटा लो। किसी का दुख थोड़ा कम कर सको तो करो।
लेकिन हम तो उलटा करते हैं, हम लोगों के दुख बढ़ा देते हैं, घटाने की तो बात और। हम जिस चित्त की महत्वाकांक्षा की दौड़ में जीते हैं, वहां लोगों के दुख बढ़ जाते हैं, घटते नहीं।
थोड़ा बांट लो दुख!
मगर कौन बांट सकेगा दुख? वही बांट सकेगा दुख दूसरों के, जिसके भीतर सुख का आविर्भाव हुआ हो। तुम खुद ही दुखी हो, तो क्या खाक तुम दूसरों के दुख बांटोगे।
इसलिए मैं तुमसे यह नहीं कहता कि तुम जाओ और लोगों की सेवा में लग जाओ। पहले तो मैं कहता हूं कि पहले तुम जागो। पहले वह जो रोटी, जिसकी बात कर रहे हैं वाजिद, तुम्हारे भीतर तुम्हारे हाथ तो लग जाए, फिर तुम बांट लेना—आधी बांटना, पूरी बांटना!
और मैं तुमसे कहता हूं, जब हाथ लगती है वह रोटी, तो आधी कौन बांटने की फिक्र करता है, पूरी ही बांटता है! क्योंकि उसके बांटने में वह और बढ़ती है। जितना बांटते हो, उतनी बढ़ती है भीतर की संपदा। जितना उलीचते हो, उतने नए—नए झरनों से रसधार तुम्हारे भीतर बही चली आती है।
जो बांटने से घट जाए, वह तो प्रेम नहीं। जो बांटने से घट जाए, वह तो संपदा नहीं। लेकिन पहले हो। हो सकती है, क्योंकि जिसकी हम तलाश कर रहे हैं, वह हम से बाहर नहीं है।
व्यर्थ भए निष्फल गए जोग साधना यत्न।
कौन समेटे धूरि जब मन में पिय सो रत्न।
तुम्हारे भीतर ही प्यारा है, रत्नों का रत्न है, संपदाओं की संपदा है। जीसस ने कहा—साम्राज्य प्रभु का तुम्हारे भीतर है। लेकिन तुम भिखमंगे बने हो। तुम धूल बटोर रहे हो। तुम कूड़ा—करकट मांग रहे हो। तुम दूसरों के सामने हाथ फैलाए खड़े हो। जरा भीतर खोजो।
और एक बार जिसने भीतर देखा, उसे पता चलता है कि मैं सम्राटों का सम्राट हूं। भगवत्ता मेरा स्वभाव है। भगवान मेरे भीतर विराजा है। फिर बांटने की यात्रा शुरू होती है। फिर बांटने का आनंद शुरू होता है।
मन के विश्वास का यह सोनचक्र रुके नहीं
जीवन की पियरी केसर कभी चुके नहीं
उम्र रहे झलमल
ज्यों सूरज की तश्तरी
डंठल पर विगत के
उगे भविष्य संदली
आंखों में धूप लाल
छाप उन ओंठों की
जिसके तन रोओं में
चंदरिमा की कली
छांह में बरौनियों के चांद कभी थके नहीं
जीवन की पियरी केसर कभी चुके नहीं
मन में विश्वास
भूमि में ज्यों अंगार रहे
अगरुई नजरों में
ज्यों अलोप प्यार रहे
पानी में धरा गंध
रुख में बयार रहे
इस विचार—बीज की
फसल बार—बार रहे
मन में संघर्ष फांस गड़कर भी दुखे नहीं
जीवन की पियरी केसर कभी चुके नहीं
आगम के पंथ मिलें
रांगोली रंग भरे
संतिए—सी मंजिल पर
जन—भविष्य दीप धरे
आस्था—चमेली पर
न धूरी सांझ घिरे
उम्र महागीत बने
सदियों में गूंज भरे
पाप में अनीति के मनुष्य कभी झुके नहीं
जीवन की पियरी केसर कभी चुके नहीं
बांटो, और तुम चकित हो जाओगे।
जीवन की पियरी केसर कभी चुके नहीं
जो जितना बांटता है इस जीवन की केसर को, उतनी बढ़ती चली जाती है। यह एक छोटा—सा बीज तुम्हारे भीतर पड़ जाए तुम्हारे हृदय में कि बांटना पाना है, पकड़ना गंवाना है, तो तुम्हारे लिए अध्यात्म का गणित समझ में आ गया।
अर्थशास्त्र का एक गणित है—पकड़ो तो बचेगा, छोड़ा कि गया। अध्यात्म का गणित बिलकुल उलटा है—पकड़ा कि गंवाया, छोड़ा कि पाया। उपनिषद कहते हैं: तेन त्यक्तेन भुंजीथाः। जिन्होंने छोड़ा, उन्होंने पाया। तेन त्यक्तेन भुंजीथाः। यह पूरा अध्यात्म का गणित इसमें समाविष्ट है—इस छोटे—से सूत्र में!
लेकिन देने के पहले होना चाहिए। तुम बांटोगे क्या खाक! जब तुम्हारी आंखें अंधेरे से भरी हैं, और जब तुम्हारे हृदय में किसी संपदा का कोई बोध नहीं है, और तुम्हें अमृत का कोई स्वाद नहीं मिला—बांटोगे क्या खाक! जब मिले अमृत का स्वाद तो बंटना शुरू हो।
जीवन की पियरी केसर कभी चुके नहीं
और फिर जीवन में मस्ती ही मस्ती है। बांटने का मजा आ गया। रसधार बही।
अलमस्त हुई मन झूम उठा, चिड़ियां चहकीं डरियां डरियां
चुन ली सुकुमार कली बिखरी मृदु गूंथ उठीं लरियां लरियां
किसकी प्रतिमा हिय में रखि के नव आर्ति करूं थरियां थरियां
किस ग्रीव में हार ये डालूं सखी, अंसुआन ढरूं झरियां झरियां
सुकुमार पधार खिलो टुक तो इस दीन गरीबिन के अंगना
हंस दो, कस दो रस की रसरी, खनका दो अजी कर के कंगना
तुम भूल गए कल से हलकी चुनरी गहरे रंग में रंगना
कर में कर थाम लिए चल दो रंग में रंग के अपने संगना
निज ग्रीव में माल—सी डाल तनिक कृतकृत्य करौ शिथिला बहियां
हिय में चमके मृदु लोचन वे, कुछ दूर हटे दुख की बहियां
इस सांस की फांस निकाल सखे, बरखा दो सरस रस की फुहियां
हरखे हिय, रास रसे जियरा, खिल जाएं मनोरथ की जुहियां
अलमस्त हुई मन झूम उठा, चिड़ियां चहकीं डरियां डरियां
चुन ली सुकुमार कली बिखरी मृदु गूंथ उठी लरियां लरियां
किसकी प्रतिमा हिय में रखि के नव आर्ति करूं थरियां थरियां
किस ग्रीव में हार ये डालूं सखी, अंसुआन ढरूं झरियां झरियां
एक आनंद, एक अहोभाग्य, एक सुप्रभात उतर आती है। सूरज ऊगता है। आरती होनी शुरू हो जाती है!
लेकिन जब तक तुम कूड़ा—करकट बटोर रहे हो, रोते ही रहोगे! उस प्यारे के गले में हाथ न डाल पाओगे। उस प्यारे के गले में हाथ डालने का उपाय भी तुम्हारे भीतर है, मार्ग भी तुम्हारे भीतर है।
नृत्य हो सकता है जीवन, उत्सव हो सकता है जीवन। होना चाहिए! न हो पाए, तो तुमने अपने को स्वयं धोखा दिया। होना ही चाहिए! जैसे हर बीज को वृक्ष होना चाहिए और फूल बनना चाहिए, ऐसे हर मनुष्य को खिलना चाहिए, परमात्ममय होना चाहिए, और जब तक भक्त भगवान न हो जाए, तब तक रुकना नहीं चाहिए, बढ़ते ही चलना चाहिए। तब तक याद रहे, कुछ अधूरा है, कुछ अभी भरा नहीं, कुछ खाली है, कुछ रिक्त है। और तब तक जीवन में असंतोष है।
वर्षा हो जाती है संतोष की, जैसे ही मृत्यु के पार अमृत का आकाश दिखाई पड़ता है। यह आकाश दूर भी नहीं है। और इस आकाश तक जोड़ने वाला द्वार भी तुम्हारे भीतर है। उस द्वार को ही वाजिद ने कहा है—शून्य; विचार से मुक्त हो जाओ, निर्विचार हो जाओ।
कहै वाजिद पुकार सीख एक सुन्न रे।

आज इतना ही।


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