प्यारे
ओशो!
आहारशुद्धौ
सत्वशुद्धि)।
सत्वशुद्धौ
हवा स्मृति:।
स्मृतिलाभै
सर्वग्रंथीनां
विप्रमोक्ष।।
आहार की
शुद्धि होने
पर सत्व की
शुद्धि होती
है,
सत्य की
शुद्धि होने
पर ध्रुव
स्मृति की
प्राप्ति
होती है।
और स्मृति
की प्राप्ति
से समस्त
ग्रंथियां खुल
जाती हैं।
प्यारे
ओशो!
छादोग्योपनिषद्
के इस सूत्र
की व्याख्या
करने की
अनुकंपा करें।
सत्यानंद!
आहार की
शुद्धि होने
पर सत्व की
शुद्धि होती
है। आहार का
अर्थ है : जो भी
बाहर से भीतर
लिया जाए।
जो
भीतर है, वह
सत्य। जो
स्वरूप है, वह सत्व। और
जो उस पर
आच्छादित
होता है, वह
आहार। इसलिए आहार
से भोजन मात्र
न समझना। भोजन
तो आहार का एक
छोटा—सा अंग
है—और वह बहुत
महत्वपूर्ण
भी नहीं, बहुत
गौण अंग है।
जो
भी हम बाहर से
भीतर लेते हैं—कान
से ध्वनि, शब्द,
आंख से रूप,
नाक से गंध,
हाथ से
स्पर्श—हमारी
पांचों
इंद्रियां
पांच द्वार
हैं, जिनसे
हम बाहर के जगत
को भीतर
आमंत्रित
करते हैं।
प्रत्येक
इंद्रिय का आहार
है। अस्सी
प्रतिशत आहार
तो हम आंख से
लेते हैं, बीस
प्रतिशत शेष
चार
इंद्रियों से।
इसमें जो हम
जिह्वा से
लेते हैं—भोजन,
स्वाद—वह तो
अति गौण है।
मगर नासमझों
के कारण गौण
प्रमुख हो गया
है। कुछ पागल
अपना पूरा
जीवन इसी
चिंता में
व्यतीत करते
हैं—क्या खाएं,
क्या न खाएं;
क्या पीए, क्या न पीए; कितनी देर
रखा हुआ दूध
पी सकते हैं
या नहीं; कितनी
देर का घी ले
सकते हैं कि
नहीं।
कल
मुझे पत्र
मिला है, ऊंझा
फार्मेसी के
मालिक का। जैन
हैं वे। और दो
जैन मुनियों
ने उन्हें कहा
कि तुम कुछ
ऐसी औषधियां
तैयार करते हो
जिनमें थोड़े न
थोड़े अंश में
अलकोहल होती
है और यह तो जैन
शास्त्रों के
बहुत विपरीत
बात है। तुम
शराब ही बेच
रहे हो। पांच
प्रतिशत ही सहां,
मगर है तो
शराब। तो बंद
करो इस तरह की
औषधियों का
निर्माण।
ऊंझा
फार्मेसी के
मालिक चिंता
में पड़ गये
होंगे कि अब
क्या करना।
अगर उन
औषधियों का
उत्पादन बंद
कर दें तो सारा
धंधा जाए। और
मुनि जो कहते
हैं सो बात ही
सच है, शास्त्र
की है, जंचती
है। मुझे कभी
उन्होंने
पत्र लिखा न
था। ऐसे समय
में उन्हें
मेरी याद आयी
कि अगर कोई बचा
सकता है..... तो
मुझे लिखा है,
'अब आप जैसा
आदेश करें।
क्या मैं इन
औषधियों को
बंद कर दूं
क्योंकि इनमें
पाच प्रतिशत
या तीन
प्रतिशत शराब
होती है, या
इनका उत्पादन
जारी रखूं? आप जैसा
कहें?'
उन्होंने
भी ठीक आदमी
से पूछा!
भरोसे से पूछा
है कि मैं तो
कहूंगा नहीं
कि बंद करो।
क्योंकि शराब
पांच प्रतिशत
क्या, सौ
प्रतिशत भी
शुद्ध शाकाहार
है। इसमें
इतनी चिंता की
क्या बात है? और औषधि में
जा रही है, लोगों
की चिकित्सा
के काम आ रही
है, यह तो
सेवा ही हो
गयी।
तुम्हारे लिए
धंधा हुआ, पर
साथ—साथ सेवा
भी हो गयी।
मगर जैन
मुनियों की न
पूछो। उनकी
चिंता बस यही
है। उनका मन
ही यहां अटका
हुआ है।
ऐसे—ऐसे
पागल हैं
जिनका हिसाब
लगाना
मुश्किल है।
मैं
एक महात्मा के
साथ यात्रा कर
रहा था—हिंदू
हैं। सिर्फ गऊ
का दूध ही
पीते हैं। और
सब चीजों को
अशुद्ध मानते
हैं;
दुग्ध— आहार
ही केवल शुद्ध
है। मैंने
उनसे पूछा कि
तुम यह भी तो सोचो
कि गऊ तो घास
खाती है, और
भी न मालूम
क्या—क्या
खाती है, और
उसी से यह दूध
बनता है।
अंततः तो यह
घास—पात से ही
बन रहा है।
दूध शुद्ध हो
गया, और
घास—पात? मैंने
कहा, अगर
तुम समझदार हो
तो गऊ को
क्यों कष्ट
देना, घास—पात
खाओ! सीधा दूध
पैदा करो।
इतना लंबा
रास्ता क्यों
लेना? और
गऊ को कष्ट दे
रहे हो, उससे
काम ले रहे हो
और उसको
गऊमाता भी
कहते हो।
जब
उनके साथ
यात्रा की तब
तो मैं और भी
मुश्किल में
पड़ा। क्योंकि
वे केवल सफेद
गऊ का ही दूध
पीये! मैंने
उनसे पूछा, 'भलेमानस,
कोई काली
गाय का दूध
क्या काला हो
जाता है? दूध
तो सफेद ही
होगा। तुम
सफेद दूध पीओ,
यह समझ में
आता है, मगर
काली और सफेद
गाय का क्या हिंसाब
रखना?'
वे
कहने लगे, 'रंग
का बड़ा महत्व
है : सफेद रंग—दैवी!
और काला रंग—आसुरी!'
मैंने
कहा,
'होगा, गऊ
का काला रंग
आसुरी, मगर
तुमसे कह कोन
रहा है कि तुम
काला रंग पीओ?
दूध में तो
रंग आता नहीं,
चमड़ी पर रंग
है, चमड़ी
से तुम्हें
क्या लेना—देना!
फिर
तो जब मैंने
पूरी जानकारी
की कि उनका हिंसाब—किताब
यों बहुत
जालसाजी का था।
हिंसाब—किताब
यूं था कि कोई
स्त्री नहाए
और गीले वस्त्र
पहने ही गऊ का
दूध लगाये, तब
वे दूध पीते
थे—शुद्ध!
सर्दी के दिन,
ठिठुरती
स्त्रियां
गीले वस्त्र
पहने हुए उनके
लिए दूध
लगायें।
मैंने कहा, 'तुम नरक के
भागी होओगे।
पी लो दूध तुम
सोचकर कि
शुद्ध है, मगर
तुम यह जो
करवा रहे हो
कार्य, यह
तो सीधा सताना
है।
लेकिन
करीब—करीब
भारत का सारा
धर्म आहार पर
ठहर गया है।
बस भोजन ही
हमारो चितना
का कारण बन
गया है। हमारी
चितना, हमारी
साधना, हमारी
सत्वशुद्धि, सब भोजन पर
अटक गयी है।
और इस सूत्र
के कारण ही यह
उपद्रव हुआ है।
सूत्र
नासमझों के
हाथ में पड़
जायें तो यही
परिणाम
होनेवाला है।
मैंने
सुना है कि
अहमदाबाद में
डोंगरे महाराज
का भागवत—सप्ताह
चल रहा था।
संयोजक के
यहां डोंगरे
महाराज अन्य
पंडित—पुरोहितों
के साथ भोजन
कर रहे थे। एक
कटोरी में
बैंगन की
सब्जी परोसी
गयी,
तो डोंगरे
महाराज ने उस
कटोरी को
उठाकर भोजन की
थाली में से
अलग कर दिया।
पास ही बैठे
पंडित
पोपटलाल ने
पूछा, 'क्यों
महाराज जी, बैगन की सब्जी
आपने भोजन की
थाली से
निकालकर अलग
क्यों रख दी?'
डोंगरे
महाराज ने धीर—गंभीर
मुद्रा में
उत्तर दिया, 'कमाल
है, पंडित
जी, आपको
इतना भी पता
नहीं है कि
सावन में
बैंगन खाने से
अगले जन्म में
मनुष्य
मूर्खों जैसी
बातें करता
है!'
पंडित
पोपटलाल ने
डोंगरे
महाराज को
थोड़ी देर गौर
से घूरकर देखा
और कहा, 'महाराज
यह बात आपको
पिछले जन्म
में पता नहीं
थी।’
पिछले
जन्म में खाए
बैगन, तभी ऐसी
बातें सूझ रही
हैं! गरीब
बैंगन, सावन
का प्यारा
महीना, क्या
उपद्रव मचाया
हुआ है! लेकिन
अच्छे से अच्छे,
सुंदर से
सुंदर
स्वर्णसूत्र
भी बुद्धओं के
हाथ में पड़
जाएं तो उनकी
दुर्गति हो
जाती है। सोने
को छू दे, मिट्टी
हो जाए।
चिलम
फूंकते हुए
उस्ताद ने
शागिर्द से
कहा,
'जब भी किसी
से बात करो, निहायत साफ—सुथरी
एवं
विद्वतापूर्ण
भाषा में हां,
ताकि उसे
आभास हो जाए
कि तुम किसी
अच्छे उस्ताद
के शागिर्द हो।’
संयोग
से एक चिंगारी
चिलम से
निकलकर
उस्ताद के साफे
पर पड़ गयी।
शागिर्द मन ही
मन पांच मिनट
तक शब्दों का
संयोजन करते
हुए बोला, 'हुजूर,
फैजगंजूर, मौलाना—ओ—मुख्तदाना,
किब्ला—ओ—कवाम,
हुजूर के
दस्तारे अजमत
असार पर (
अर्थात् साफे
पर)..... एक अखगेर
नाहंजार
शरवार आतिशकदये
चिलम से परवाज
करके शोला
अफगन है।’ अर्थात्
एक चिंगारी
आपके साफे पर
बैठी हुई है।
लेकिन तब तक
साफे के साथ—साथ
उस्ताद की
चांद भी ली
देने लगी थी।
यह
सूत्र तो
प्यारा है— 'आहार
शुद्धौ
सत्वशुद्धि' लेकिन आहार
का बड़ा व्यापक
अर्थ है। साफ
है आहार का
अर्थ, जिसे
बाहर से भीतर
लिया जाए—आहार।
निश्चित ही
तुम जो बाहर
से भीतर ले
जाओगे, वह
तुम्हारे
स्वरूप पर
आच्छादित
होगा। भीतर जो
है वह
तुम्हारा
स्वरूप है।
धूल ले जाओगे
तो धूल
आच्छादित
होगा जायेगी।
स्वर्ण ले
जाओगे तो
स्वर्ण
आच्छादित हो
जायेगा। जो भी
तुम बाहर से
भीतर ले जाओगे
वही तुम्हारे
चित्त के
दर्पण पर
जमेगा और उससे
ही तुम्हारा
जीवन
निर्धारित
होगा।
कैसे
इसकी शुद्धि
हो?
आहार तो
करना ही होगा।
आंखें
देखेंगी ही; कम देखें
ज्यादा देखें,
लेकिन
देखेंगी ही।
तो वही देखना
जो देखने
योग्य है, सुंदर
है, प्रीतिकर
है, आह्लादित
करता है।
लेकिन
लोग गलत चीजें
देखते हैं।
अगर रास्ते पर
दो व्यक्ति
कुश्तम—कुश्ती
कर रहे हों, दंगा—फसाद
कर रहे हों, वाह गुरुजी
की फतह बोल
रहे हों, तो
देखो भीड़
इकट्ठी हो
जाती है।
मुफ्त तमाशा कोन
न देखे। सर्कस
हो रहा है।
लाख काम
छोड्कर लोग
वहीं खडे हो
जाते हैं।
पहले यह मजा
देख लें, फिर
काम कर लेंगे।
कोई यह नहीं
सोचता कि जब
तुम दो
आदमियों को लडते
हुए देखोगे तो
तुम हिंसा का आहार
कर रहे हो।
तुम अपने भीतर
गाली—गलौज ले
जा रहे हो। वे
दोनों आदमी
गालियां बक
रहे हैं, अभद्र
व्यवहार कर
रहे हैं, अशोभन
शब्द बोल रहे
हैं।
और
जब भी दो पुरुष
लड़ते हैं तो
हैरानी की बात
है. लड़ते
पुरुष हैं मगर
गालियां
स्त्रियों को
देते हैं। वह
उसकी मां को
ठीक कर रहा है, वह
उसकी बहन को
ठीक कर रहा है,
वह उसकी
बेटी को ठीक
कर रहा है। यह
भी थोड़ी सोचने
जैसी बात है
यह कि समाज
बातें तो करता
है स्त्री
समादर की, मगर
यह समादर है!
बातें तो यूं
की जाती हैं
कि जहां—जहां
नारी की पूजा
होती है वहां—वहां
देवता रमण
करते हैं। और
स्त्री की
पूजा के नाम
पर हो क्या
रहा है? सदियों
से क्या हो
रहा है? सिवाय
अपमान और
अनादर के कुछ
भी नहीं। अगर
दो आदमी लड़
रहे हैं तो एक—दूसरे
से निपटो, इसमें
स्त्रियों को
बीच में लाने
की क्या जरूरत
है? इसमें
किसी की मां
ने तुम्हारा
क्या बिगाड़ा;
किसी की
पत्नी ने, किसी
की बेटी ने, तुम्हारा
क्या बिगाडा?
लेकिन गाली
तो स्त्रियों
को ही दी
जाएगी। लड़े
कोई—अपमान तो
स्त्री का ही
होगा, लड़े
कोई। और तुम
खड़े होकर यूं
पीते हो; जैसे
अमृत मिल गया
हो! जहां झगड़ा
हो रहा हो
वहां क्या तुम
सोचते हो कोई
आदमी झपकी ले
ले, नींद
में चला जाए? कभी नहीं!
धर्म—सभा में
लोग नींद में
जाते हैं।
शास्त्र
सुनते हैं तो
नींद आती है।
माला फेरते
हैं तो झपकी
खाते हैं।
लेकिन दो आदमी
गालियां दे
रहे हों, तो
सोए हुओं की
तो बात छोड़ दो,
मुर्दों को
भी अगर पता चल
जाए तो उठकर
खड़े हो जायें!
कि जरा देख
लें फिर सो
जायेंगे कब
में, ऐसी
जल्दी क्या है?
यह मजा तो
और देख लें
जाते—जाते!
लेकिन
तुम आहार कर
रहे हो और वे
गालियां
तुम्हारे
दर्पण पर आच्छादित
हो रही हैं।
तुम
सुनते क्या हो? लोग
फिल्मी गाने
सुन रहे हैं, व्यर्थ की
बातें सुन रहे
हैं। एक—दूसरे
की निंदा सुन
रहे हैं—झूठी।
और कोई संदेह
नहीं उठाता।
ऐसा आदमी
खोजना
मुश्किल है
जिससे तुम
किसी की निंदा
करो और वह
संदेह उठाए।
ही प्रशंसा
करो तो हरएक
संदेह उठाएगा।
कहो किसी से
कि फला व्यक्ति
बड़ा साधु
चरित्र। और
दूसरा आदमी तत्क्षण
बोलेगा, 'छोड़ो
भी किन बातों
में पड़े हो!
अरे, यह
कलियुग है! हो
गये साधु
सतयुग में, अब नहीं
होते! सब
पांखडी हैं!
सब धोखेबाज
हैं। सब लूट—खसोट
में लगे हैं।
अरे, हर
ढोल में पोल
है।’ हजार
बातें कहेगा
वह आदमी।
तुमने सिर्फ
इतना ही कहने
की भूल की थी
कि फलां आदमी
साधु है। एक
से एक बातें
वह निकालेगा,
बात में से
बातें
निकालता
जाएगा। और अगर
तुम किसी आदमी
की निंदा करो
तो कोई इनकार
न करेगा। यूं
पी जाएगा जैसे
प्यासा आदमी
धूप से थका—मादा
ठंडा जल पी
जाए! यूं पी
जाएगा, इनकार
ही न करेगा।
कभी न कहेगा
कि भाई ऐसी
निंदा पर मुझे
भरोसा नहीं
आता, वह
आदमी इतना
बुरा नहीं हो
सकता।
किसी
की प्रशंसा
करो और तुम तत्क्षण
पाओगे कि कोई
तुम्हारी बात
को मानने को
राजी नहीं है।
लोग प्रमाण
मांगेंगे। और
किसी की निंदा
करो और तत्क्षण
लोग अंगीकार
करने को राजी
हैं : न प्रमाण
कोई मांगता, न
इनकार कोई
करता। ये
हमारे आहार के
ढंग हैं।
अशुद्ध को तो
हम आहार कर
लेते हैं और
शुद्ध को हम
इनकार करते
हैं। सदियों—सदियों
तक संदेह जारी
रहते हैं। आज
भी लोगों को
भरोसा नहीं है
कि महावीर या
बुद्ध जैसे
लोग सच में
हुए।
इतिहासज्ञ खोज
में लगे रहते
हैं, सिद्ध
करने में लगे
रहते हैं कि
ऐसे आदमी हो
कैसे सकते हैं?
कल्पनाएं
हैं, पुराणकथाएं
हैं, किवदंतिया
हैं। लेकिन
कोई शक नहीं
करता सिंकदर
पर, कोई शक
नहीं करता
नादिरशाह पर,
चंगेजखान
पर, तैमूरलंग
पर। हत्यारों
पर कोई शक
नहीं। जीसस पर
शक है, जुदास
पर कोई शक
नहीं। राम पर
तुम्हें शायद
शक हो, लेकिन
रावण पर कोई
शक नहीं। यह
तो रावण को
मानने के लिए
तुम्हें राम
को मानना पड़ता
है, मानते
तो तुम रावण
को ही हो।
लेकिन रावण को
अकेला कैसे
मानें? बिना
राम की पृष्ठ—
भूमि के रावण
को मानना
मुश्किल होगा।
इसलिए निमित्त
मात्र राम को
भी स्वीकार कर
लेते हो।
अच्छे
पर हमें संदेह
है। फूलों पर
हमें भरोसा
नहीं, कीटों
पर हमारी
श्रद्धा है।
नकार हमारी
जीवन दृष्टि
है—विधेय नहीं।
हम ऐसे ही हैं,
जिनको नरक
पर कभी भी कोई
संदेह नहीं
उठता। मैंने
आज तक ऐसी
किताब नहीं
देखी जिसने
नरक पर संदेह
उठाया हो कि
नरक नहीं है।
लेकिन स्वर्ग
पर संदेह
उठानेवाली
बहुत किताबें
है। शैतान के
खिलाफ लिखी
मैंने एक
किताब नहीं
देखी, ईश्वर
के खिलाफ लिखी
हजारों
किताबें देखी
हैं। यह कैसा
आदमी है! हम
क्या कर रहे
हैं?
और
ध्यान रहे, अगर
काटे चुनोगे
तो कांटे ही
तुम पर इकट्ठे
हो जाएंगे—फिर
चुभेंगे भी।
इतने चुभेंगे,
इतनी पीड़ा
देंगे, इतने
घाव से भर
देंगे, इतनी
मवाद फैल
जाएगी, इतने
नासूर हो
जाएंगे कि फिर
फूल मिल भी
जायें तो
भरोसा न आएगा।
फूलों
पर भरोसा करो।
फूलों को भीतर
ले जाओ। फूलों
से अपने
प्राणों को
आच्छादित करो—इतना
कि अगर कांटे
मिल भी जायें
तो भी फूलों
से आच्छादित
आत्मा उनसे
अप्रभावित
रहे। लेकिन
लोग अजीब हैं!
मैं
मुल्ला
नसरुद्दीन के
घर बैठा हुआ
था। उसका बेटा
फजल आया और
मुल्ला ने आव
देखा न ताव और
लगा उसकी
पिटाई करने।
चार—छह झपाटे
जोर से लगा
दिए। वह
बेचारा बच्चा
रोने लगा!
मैंने पूछा कि
मैं देख रहा
हूं उसने कोई
कसूर किया
नहीं, एक शब्द
बोला नहीं, तुम उसे मार
क्यों रहे हो—?
मुल्ला
नसरुद्दीन
कहने लगा, 'इसके
कसूर के लिए
मार ही कोन
रहा है। अरे
दो दिन बाद
इसका परीक्षा—फल
निकलनेवाला
है और मैं आज
ही बाहर जा
रहा हूं।’
अभी
से इंतजाम किए
दे रहा है वह।
अजीब लोग हैं!
मगर ऐसे ही
लोगों से यह
दुनिया भरी है।
तुम भी अपने
भीतर अगर
खोजोगे तो ऐसे
ही आदमी को
पाओगे छिपा
हुआ। क्योंकि
सीधा—सीधा देख
लोगे तब तो
फिर उसका जीना
मुश्किल हो
जाएगा।
आहार
शुद्धि का
अर्थ है. अपने
भीतर वही ले
जाना, जो
प्रीतिकर हो,
स्वादिष्ट
हो, सुमधुर
हो, सुंदर
हो, सत्य
हो, ताकि
तुम्हारे
भीतर के
स्वरूप पर
शृंगार आए; जवानी आए—ताकि
तुम्हारे
भीतर स्वरूप
निखरे, प्रगट
हो; उस पर
उभार आए, गर्द
गुबार न जम
जाए।
'आहारशुद्धौ
सत्वशुद्धि'।
और
उसी आहार में
एक छोटा—सा
हिस्सा भोजन
है। जरूर उसका
भी विचार करना, लेकिन
वही सब कुछ
नहीं है। इतना
ही काफी विचार
है कि अपने
भोजन के लिए
किसी को कष्ट
मत देना, दुख
मत देना। इतना
ही विचार काफी
है। जब भोजन
बिना किसी को
दुख दिये हो
सकता हो तो पशुओं
को काटना और
मारना अनुचित
है। जब फल और
सब्जियां और
अनाज तुम्हारे
लिए परिपूर्ण
पौष्टिक हो
जाते हों तो
क्या जरूरत है
कि पशुओं को
मारो? क्या
जरूरत है इतना
दुख देने की? और अगर इतना
दुख तुम दोगे
तो स्वभावत:
तुम कठोर होते
चले जाओगे।
मांसाहारी
कठोर होगा ही
नहीं तो मांसाहारे
कैसे करेगा? और जब कठोर
होगा तो
मनुष्यों के
साथ भी कठोर
होगा। अब
कठोरता कोई
नियम थोड़े ही
मानती है कि
इसके साथ कठोर
होंगे, उसके
साथ कठोर नहीं
होंगे। और जब
कठोर होगा तो
अपनों के साथ
भी कठोर होगा,
परायों के
साथ ही थोड़े
कठोर होगा। और
जब कठोर होगा
तो अपनों के
ही साथ नहीं, अपने साथ भी
कठोर होगा।
कठोरता तो एक
भीतर बैठ गयी
चट्टान की तरह
है। सबसे पहले
तो खुद के
प्रति कठोर हो
जाएगा, दुष्ट
हो जाएगा।
इसी
मुल्ला
नसरुद्दीन को
मैंने एक दिन
देखा साइकिल
पर बैठा चला
जा रहा है, फजलू
को आगे बिठाए
है। बीच—बीच
में उसको
चपतें लगा रहा
है। मैंने
रोका। मैंने
कहा कि
नसरुद्दीन, खैर उस दिन
तुम बोले थे
कि इसका दो
दिन बाद
परीक्षा—फल
निकलनेवाला है,
अब कोन—सी
मुसीबत आ गयी
है? और तुम
रह—रहकर इसे
मार रहे हो।
नसरुद्दीन
ने कहा, 'क्या
करूं, साइकिल
में घंटी ही
नहीं है।’
बेटे
से घंटी का
काम ले रहे
हैं। सो बेटा
रो रहा है, वे
उसको चपतें
लगा रहे हैं।
जैसे ही उनको
भीड़ हटानी
होती, चपत
लगा देते हैं
एक, बेटा
रोने लगता है।
तुम
कठोर होओगे ही।
तुम क्या भोजन
कर रहे हो
उसमें इतना ही
विचार पर्याप्त
है कि हिंसा न
हो,
अकारण
हिंसा न हो।
कम से कम
हिंसा हो, न्यूनतम
हिंसा हो।
जितना हिंसा
से बचा जा सके,
शुभ है, ताकि
तुम्हारी
कोमलता नष्ट न
हो जाए। सवाल
अहिंसा का
नहीं है, सवाल
तुम्हारी
कोमलता का है।
इसको भी खयाल
रखना, नहीं
तो कुछ बुद्ध
इसी फिक्र में
लगे रहते हैं
कि कहीं चींटी
न दब जाए, कहीं
मच्छर न दब
जाए। मगर उनको
असली बात भूल
गयी, दृष्टि
गलत चीज पर
टिक गयी। असली
बात इतनी है
कि तुम्हारी
कोमलता न मर
जाए। क्योंकि
तुम्हारी
कोमलता के
द्वार से ही
सत्य का
पदार्पण होगा।
तुम जितने
कोमल होओगे
उतनी ही
संभावना है कि
तुम्हारे
भीतर बांसुरी,
आनंद का गीत
उठे, उत्सव
जगे, परमात्मा
तुम्हारे
भीतर बजाए।
उसके लिए
तुम्हारी
कोमलता जरूरी
है। यह कोई
मच्छर—मक्खी
मारने का सवाल
नहीं है, सवाल
तुम्हारी
कोमलता का है।
और तुम अगर
मच्छर, मक्खी,
चींटियां
मारने से बच
भी गये, लेकिन
इस बचने में
ही कठोर हो
गये, तो सब
व्यर्थ हो गया,
किया—कराया
सब व्यर्थ हो
गया। क्योंकि
असली बात थी
कि भीतर की
कोमलता.....!
और
ऐसा हुआ।
जैनों में
आचार्य तुलसी
का पंथ है—तेरापंथ।
महावीर ने तो
अहिंसा की बात
कही थी कि
तुम्हारी
कोमलता
प्रगाढ़ हो।
लेकिन महावीर
की ही परंपरा
में पैदा हुआ
तेरापंथ कहता
है,
अगर तुम
रास्ते से जा
रहे हो और कोई
प्यासा मर रहा
हो तो उसे
पानी मत
पिलाना।
क्योंकि
तुमने अगर उसे
पानी पिलाया
तो तुम उसके
कर्म में बाधा
डाल रहे हो।
कर्म फल भोग
रहा है वह।
पिछले जन्मों
में सावन के
महीने में
बैंगन खायी
होगी! वह अपना
कर्मफल भोग
रहा है, न
खाता बैंगन, न इस तरह के
फल भोगता! वह
अपना कर्मफल
भोग रहा है और
तुम बाधा डाल
रहे हो—पानी
पिलाकर! तो
तुम उसके
कर्मफल को आगे
सरका रहे हो।
फिर कल भोगेगा,
फिर परसों
भोगेगा। तुम
उसके जीवन में
उलझन खड़ी कर
रहे हो। तो
तुम कोई अच्छा
काम नहीं कर
रहे। यह मत
सोचना कि तुम
सेवा कर रहे
हो। यह तो
भूलकर मत
सोचना।
तेरापंथ
में सेवा का
निषेध है।
क्योंकि सेवा
का अर्थ है :
हिंसा। तुमने
बाधा डाल दी, यह
हिंसा हो गयी।
और
फिर,
और भी
झंझटें हैं। हिंसाब—किताब
लगानेवाले
लोग कैसे—कैसे
हिंसाब—किताब
लगा लिये!
कहां से कहां
निकल गये!
कितने दूर
निकल गये! अगर
तुमने इस आदमी
को पानी पिला दिया
और यह बच गया—अभी
मर रहा था—और
बचकर अगर समझो
कि कल इसने
चोरी की—कल का
क्या भरोसा? चोरी करे, किसी की
स्त्री ले
भागे, जुआ
खेले, किसी
की हत्या कर
दे—फिर उस सब
पाप के
भागीदार तुम
भी होओगे।
क्योंकि न तुम
इसे बचाते, न किसी की
स्त्री यह
भगाता। न तुम
इसे बचाते, न यह चोरी
करता। न तुम
इसे बचाते, न यह हत्या
करता।
तुम्हारे
बचाने ने ही
तो सारी चीज
के लिए शुरुआत
करवा दी, बीज
बी दिये। तुम
ही बीज
बोनेवाले हो।
फसल में तुमको
भी हिस्सा
बांटना पड़ेगा।
इसलिए सावधान!
तेरापंथ कहता
है कि चुपचाप
अपने रास्ते
पर चलते चले
जाना। वह लाख
चिल्लाए पानी—पानी;
तुम सुनना
ही मत। ऐसी
झंझट में पड़ना
मत। उसको भी
कोई लाभ नहीं
है तुम्हारे
पानी पिलाने
सें—उसको
प्यासा मरना
ही पड़ेगा।
जितना कर्म
किया है बुरा
उतना फल भोगना
ही पड़ेगा। और
तुम नाहक अपने
जीवन को बिगाड़
लोगे आगे के लिए।
पता नहीं अब
यह क्या करे
बच जाने के
बाद, क्या
न करे! इसलिए
चुपचाप अपनी राह
पर चले जाना।
कल्पना
भी महावीर ने
न की होगी कभी
कि मेरी अहिंसा
की दृष्टि का
ऐसा अर्थ भी
हो सकता है!
अर्थ नहीं
कहेंगे इसे, अनर्थ
कहेंगे। मगर
उधार जिनके
जीवन हैं, उधार
जिनकी जीवन—दृष्टि
है, उनसे
अनर्थ ही हो
सकता है।
चंदूलाल
ढब्यूजी से कह
रहे थे, 'ढब्यू
जी, कल जो
तुम मुझसे
छाता ले गये
थे वह वापिस
दे दो, भाई।’
ढब्यूजी
ने कहा, 'क्या
तुम्हें वह
अभी चाहिए, बिलकुल अभी
चाहिए? उसे
तो मेरा मित्र
मुल्ला
नसरुद्दीन ले
गया है।’
चंदूलाल
ने कहा, 'छाता
मुझे तो नहीं
चाहिए ढब्यू
जी, पर
जिससे मैं
लाया था, वह
कह रहा है कि
उसने जिससे
छाता लिया था
वह लेने के
लिए उसके घर
पर आकर खड़ा
हुआ है।’
यूं
उधारी चल रही
है।
महावीर
कुछ कहते हैं, लेकिन
उधार—उधार
होते—होते, आचार्य
तुलसी तक
पहुंचते—पहुंचते
कैसी दुर्गति
हो जाती है! और
यही आचार्य
तुलसी जैसे
लोग महावीर की
परंपरा को
बचानेवाले
लोग हैं! यहां,
जो वस्तुत:
नष्ट
करनेवाले लोग
हैं, बचानेवाले
बन बैठे हैं।
भक्षक रक्षक
बने बैठे हैं।
आहार
की जरूर
विचारणा होनी
चाहिए, क्योंकि
तुम मनुष्य हो,
तुम चुनाव
कर सकते हो—क्या
खाना, क्या
नहीं खाना; क्या पीना, क्या नहीं
पीना। बस, इतना
ही सूत्र
ध्यान रहे कि
किसी को अकारण
कष्ट न हो।
क्योंकि कष्ट
दोगे तो कठोर
हो जाओगे।
कठोर हो जाओगे
तो बंद हो
जाओगे। बंद हो
जाओगे तो
परमात्मा को
पाना असंभव है।
फूल जैसी
कोमलता चाहिए,
ताकि
परमात्मा तुम
पर यूं उतरे
जैसे शबनम की
बूंदें सुबह
फूल पर जम
जाती हैं; जैसे
ओस के मोती
फूल की कोमल
पंखुड़ियों पर
चमकते हैं!
ऐसा तुम पर, वह जो दिव्य
अवतरण है, संभव
हो सके! मगर
फूल की पंखुड़ी
चाहिए। फूल
जैसे रहना!
और
भोजन को ही सब
मत समझ लेना। आहार
बड़ी चीज है, बहुत
बड़ी चीज है।
बुद्ध
ने अपने
भिक्षुओं से
कहा : आंखों को
नीची करके चलो।
चार फीट देखो, बस
इतना काफी है।
चलने के लिए
इतना काफी है।
चार फीट आगे
देख रहे हो, इतना बहुत
है। लेकिन तुम
तो सारे
पोस्टर पढ़ रहे
हो, सड़क के
किनारे लगे।
उन्हीं
पोस्टरों को
रोज पढ़ रहे हो,
क्योंकि
उसी रास्ते से
रोज निकलते हो।
वही 'हमाम
साबुन' है।
वही 'पहलवान
छाप बीड़ी', वही
'चारमीनार
सिगरेट', कितनी
बार नहीं पढ़
चुके हो! क्या
सार है आंखें
खराब करने से?
लेकिन
पढ़ोगे उसी को
तुम! अखबारों
में लोग वही पढ़
रहे हैं, फिल्मों
में लोग वही
देख रहे हैं।
वही फिल्म तुम
देख रहे हो
जन्मों—जन्मों
से, वही
त्रिकोण—दो
आदमी, एक
औरत। फिर चाहे
वे दो आदमी
राम और रावण
हों और औरत सीता
हो या कोई हों,
इससे कुछ
फर्क नहीं
पड़ता, वही
कहानी है—दो
आदमी, एक
औरत। या दो
औरतें, एक
आदमी।
त्रिकोण होना
चाहिए, कहानी
बनने लगी। और
कहानी में
होगा क्या? तुम्हें
भलीभांति पता
है, क्या
होना है। तुम
खुद ही लिख सकते
हो कहानी।
इतनी फिल्में
देख चुके हो।
दो फिल्में
देखो, तीसरी
कहानी लिख दो।
पांच उपन्यास
पढ़ो, छठवां
लिख डालो। यूं
ही तो किताबें
लिखी जाती हैं,
यूं ही
फिल्में बनती
हैं।
वही
गीत तुम सुन
चुके हो बहुत
बार—वही 'लारे —लप्पा'!
कब तक लारे —लप्पा
करते रहोगे? जरा कानों
को कुछ
सम्हालो। आंखों
को जरा संयम
दो। क्या
बोलते हो, क्या
सुनते हो, क्या
गुनते हो—इसके
पीछे विवेक तो
होना ही चाहिए।
महावीर ने
कहा. विवेक से
उठे, विवेक
से बैठे, विवेक
से चले, विवेक
से देखे, विवेक
से सुने, क्योंकि
मनुष्य को
पशुओं से अलग
करनेवाला तत्व
विवेक है।
'आहारशुद्धौ
सत्वशुद्धि।’
और
तुम जो भीतर
ले जा रहे हो, अगर
यह शुद्ध है
तो तुम्हारे
भीतर जो छिपा
हुआ स्वरूप है;
वह ढंकेगा
नहीं; उघडेगा,
निखरेगा, ताजा होगा, नहाएगा—सद्य:स्नात्!
'सत्वशुद्धौ
ध्रुवा
स्मृति:।’
और
जिसने अपने
भीतर के सत्व
को शुद्धता
में जान लिया
है;
उसकी
स्मृति ध्रुव
हो जाती है।
'स्मृति' शब्द
को खयाल में
रखना। स्मृति
उस अर्थों में
प्रयोग नहीं
हो रहा, जिस
अर्थों में
तुम करते हों—याददाश्त
के अर्थों में
नहीं, 'मेमोरी'
के अर्थों
में नहीं।
क्योंकि वैसी
स्मृति तो
कंप्यूटर में
भी होती है, उसके लिए
आदमी होना
जरूरी नहीं है।
कंप्यूटर
तुमसे ज्यादा
याददाश्त
वाला होता है
और उसकी
याददाश्त में
कम भूलें होती
हैं, तुमसे
तो भूलें हो
सकती हैं। अब
तो मशीनें बन
गयी हैं जो सब
याद रख लें।
अब तो तुम्हें
कुछ याद रखने
की जरूरत नहीं
है। जो काम मशीन
कर देती है, उस काम में
कोई गुणवत्ता
नहीं है।
फिर
स्मृति से
क्या अर्थ है? हवा
स्मृति:.! उसे
ऐसी स्मृति
उपलब्ध हो
जाती है—अडिग,
अचल, चंचलता
से शून्य, थिर।
यह बड़ा अलग
अर्थ है
स्मृति का।
बुद्ध ने इसके
लिए उपयोग
किया है : 'सम्मासति'। महावीर ने
इसको कहा है : 'सम्यक्
स्मृति'।
दोनों का एक
ही अर्थ है.
सम्मासति
पाली है, सम्यक्
स्मृति
प्राकृत। ठीक—ठीक
बोध। स्मृति
से याददाश्त
का सवाल नहीं
है, स्मरण
का सवाल है—अपना
स्मरण, आत्म—स्मरण।
तुम भूल गये
हो कि तुम कोन
हो। तुम्हें
याद ही न रही
कि तुम कोन हो,
किसलिये हो,
कहां से आए
हो, कहां
जा रहे हो? तुम्हें
कुछ भी पता
नहीं।
मैंने
सुना है, एडीसन,
अमरीका का
एक बहुत बड़ा
वैज्ञानिक, या चाहो तो
कहो कि दुनिया
का एक बहुत
बड़ा वैज्ञानिक,
क्योंकि
उसने एक हजार
आविष्कार
किये। एक आदमी
ने इतने
आविष्कार कभी
नहीं किये।
मगर बहुत
भुलक्कड़, अतिशय
भुलक्कड़! एक
बार खुद अपना
नाम ही: भूल
गया। औरों का
नाम भूल जाना
तो तुमने सुना
होगा, अपना
नाम भूल जाना
बड़ी कठिन बात
है, बड़ी
मुश्किल बात
है। लोग नींद
में भी नहीं
भूलते। तुम सब
यहां सो जाओ.....
जैसे मैं
छांदोग्य उपनिषद
पर बोलता ही
रहूं बोलता ही
रहूं बोलता ही
रहूं तो फिर
तुम क्या
करोगे? तुमकी
सोना ही पड़ेगा।
आखिर बचने के
लिए आदमी को
कुछ तो ढाल
चाहिए।
छांदोग्य उपनिषद
पर बोलते—बोलते
तुम देखोगे, यह तो खतरा
हुआ जा रहा है।
जल्दी से तुम
अपनी ढाल
सम्हाल लोगे
और सो जाओगे।.....
तुम सब सो जाओ
और मैं पुकार
दूं :
सत्यानंद! तो
कोई नहीं
सुनेगा, लेकिन
सत्यानंद
कहेगा कि भई कोन
नींद खराब
करने आ गया!
क्यों परेशान
कर रहे हो!
नींद
में भी अपना
नाम नहीं
भूलता। गहरी
नींद में भी, अतिशय
गहरी नींद में,
सुषुप्ति
में भी अपना
नाम याद रहता
है। लेकिन
एडीसन को एक
बार अपना नाम
भूल गया। पहले
महायुद्ध में
राशन शुरू हुआ
अमरीका में, वह कतार में
खड़ा था और जब
उसकी पुकार
आयी—थामस
अल्वा एडीसन—तो
वह इधर—उधर
देखने लगा। जो
आदमी पुकार
रहा था, उसको
भी पता था कि
यही आदमी
ग्लीसन है, क्योंकि
इसके अखबारों
में फोटो देखे
थे, जाना—माना
आदमी था, जग—जाहिर
था। उसने फिर बुलाया—
थामस अल्वा
एडीसन! और
एडीसन इधर—उधर
देखने लगा।
उसने कहा, मामला
क्या है! और
ग्लीसन के
पीछे जो खड़ा
था उस आदमी ने
भी कहा कि बात
क्या है! वह
आपको बुला रहा
है, आप सुन
नहीं रहे!
ग्लीसन ने कहा,
ठीक याद
दिलाया। वही
मैं सोच रहा
था कि नाम कुछ
पहचाना—सा
मालूम पड़ता है।
कहीं न कहीं
सुना है।
धन्यवाद!
तुमने अच्छी
याद दिला दी।
एक
दिन सुबह—सुबह
एडीसन बैठा था।
उसकी पत्नी
आयी..... उसने कह
रखा था कि जब
मैं सोच—विचार
में हूं तो
मुझे कभी बाधा
मत डालना.....
नाश्ता लेकर
आयी थी, तो
नाश्ता उसने
बगल में रख
दिया और
चुपचाप चली गयी
कि जब वह सोच—विचार
पूरा कर लेंगे
तो नाश्ता कर
लेंगे। तभी एक
मित्र आ गया।
उसने नाश्ता
देखा रखा हुआ
बगल में, ग्लीसन
को विचारमग्न
देखा, उसने
सोचा इनको
विचार करने दो,
तब तक मैं
नाश्ता कर लूं।
उसने नाश्ता
कर लिया। खाली
प्लेटें
सरकाकर एक तरफ
रख दीं। तब तक
एडीसन अपने
सोच—विचार के
जगत से वापिस
लौटे। खाली
प्लेटें
देखीं, मित्र
को देखा, कहा,
भाई जरा तुम
देर से आए।
मैं नाश्ता कर
चुका। जरा ही
पहले आ गये
होते तो साथ—साथ
नाश्ता कर
लेते।
मित्र
ने कहा, कोई
चिंता न करें।
मित्र बहुत
हैरान हुआ।
उसे भरोसा ही
नहीं आया कि
हद हो गयी, नाश्ता
मैं कर गया
हूं और यह
आदमी खाली
प्लेटें
देखकर कह रहा
है कि मैं
नाश्ता कर
चुका!
एक
बार एडीसन
ट्रेन में सफर
कर रहा था, टिकिट
कलेक्टर आया,
उसनें
टिकिट पूछी।
ग्लीसन ने इस
खीसे में देखा,
उस खीसे में
देखा, सब
खीसे टटोल
डाले, सूटकेस
खोलकर सामान
फैला दिया, जब बिस्तर
खोलने लगा तो
टिकिट
कलेक्टर ने
कहा कि आप
चिंता न करें,
मैं आपका
विद्यार्थी
रह चुका हूं
और मैं आपको जानता
हूं कि आप
बिना टिकिट
नहीं चलेंगे,
टिकिट होगा,
जरूर होगा।
ग्लीसन ने कहा
कि चुप, टिकिट
की कोन चिंता
कर रहा है! अरे,
सवाल यह है
कि मुझे जाना
कहां है? बिना
टिकिट के यह
पता कैसे
चलेगा? तू
बतायेगा! कोन
बतायेगा अब
मुझे, अब
मैं झझट में
पड़ा! तू भी खोज।
मेरे बिस्तर
में देख, मेरे
सूटकेस में
देख।
विद्यार्थी
रहा है, चल
साथ दे! बिना
टिकिट के पता
कैसे चलेगा कि
मुझे जाना
कहां है, मैं
निकला कहां के
लिए था?
हमारी
हालत यूं ही
है। तुम्हें
भी पक्का पता
नहीं कि तुम कोन
हो। और जो नाम
तुम सोचते हो
तुम्हारा है, वह
तो तुम्हारा
है नहीं, वह
तो दे दिया है।
वह तो लेबिल
लगा दिया औरों
ने। वे कुछ और
लगा देते।
सत्यानंद न
कहकर मैं
इन्हें
नित्यानंद नाम
दे देता, फिर?
यह
नित्यानंद
सत्यानंद ही
हो जाते।
अखंडानंद हो
जाते, मुक्तानंद
हो जाते, कुछ
भी..... .इनके
भाग्य में कुछ
न कुछ होना
बदा था।.....कोई न
कोई नाम जरूरी
है, मगर
नाम तुम्हारा
अस्तित्व तो
नहीं है।
स्मृति
का अर्थ है—उनकी
स्मृति, जो
मैं हूं जो
मैं लेकर आया
हूं इस जगत
में, जो
मेरे भीतर
चैतन्य का
स्रोत है; वह
क्या है? कहां
से मैं आ रहा
हूं और किस
दिशा में मेरी
गति हो रही है?
मैं क्या कर
रहा हूं इस
क्षण? उससे
कोई संबंध है
मेरे आने—जाने
का या नहीं या
व्यर्थ की
बातों में उलझ
गया हूं? जाना
कहीं और था, चल पड़ा हूं
कहीं और; पहुंचना
कहीं और है, दिशा पकड़ ली
है कोई और।
यही
तो दुख है
हमारा। सारी
पृथ्वी दुखी
लोगों से भरी
है। क्या है
दुख?
इतना ही दुख
है कि हम वह कर
रहे हैं जिसका
हमारे स्वरूप
से कोई तालमेल
नहीं है। सुख
का अर्थ होता
है ऐसी चर्या,
जिससे
हमारे स्वरूप
का कोई तालमेल
न हो। और आनंद
का अर्थ होता
है : ऐसा जीवन, जो हमारे
भीतर के छंद
के साथ बिलकुल
एकरूप हो; तालमेल
ही न हो, एक
ही हो जाए।
जिस क्षण हम
इस जगत के
धर्म को अपने
भीतर के धर्म
के साथ
निमज्जित कर
लेते हैं, इसमें
डूब जाते हैं
और इसे अपने
में डुबा लेते
हैं, जिस
दिन बूंद सागर
में डूब जाती
है और सागर
बूंद हो जाता
है, उस दिन
जीवन में आनंद
है; उस दिन
जीवन में छंद
है। वही छांदोग्य
उपनिषद का सार
है। उस दिन
जीवन में गीत,
बांसुरी।
उस दिन पायल
बजती है, अर
बजते हैं। उस
दिन ढोल पर
थाप पड़ती है।
उस दिन जीवन
में पहली बार
पता चलता है
कि कितना बड़ा
अहोभाग्य है—एक
श्वांस लेना
भी!
'सत्वशुद्धौ
ध्रुवा
स्मृति:'।
आत्म—स्मरण
का नाम स्मृति
है। इसी
सम्मासति, सम्यक्
स्मृति को
मध्ययुग के
संतों ने—कबीर
ने, दादू
ने, रैदास
ने, फरीद
ने—'सुरति'
कहा है।
सुरति
सम्मासति का
ही रूप है, लोकभाषा
में—और भी
प्यारा हो
गया! 'सम्यक्
स्मृति' थोड़ा
कठिन, 'सुरति'
सीधा—साफ हो
गया।
लेकिन
सुरति के नाम
से बड़ा धोखा
चल रहा है—खासकर
पंजाब में।
क्योंकि
पंजाब में
नानक ने सुरति
की दुंदुभी बजा
दी और नानक के
पास जो आए वे
भीगकर लौटे, अमृत
से भीगकर लौटे।
लेकिन सदा
होता है यह।
नानक ने लोगों
को सुरति दी
अर्थात्
स्मृति दी
अपनी। उन्हें
याद दिलायी
खुद की और अब
पंजाब में क्या
चल रहा है? सुरति—शब्द—योग!
उसका उससे कोई
नाता नहीं।’शब्द—योग'! वह केवल
मंत्रोच्चार
का ही दूसरा
नाम है। बैठे —बैठे
राम—राम, राम—राम
कह रहे हैं
तोतों की तरह;
या जो भी
तुम्हें
प्यारा शब्द
हो, वही.....
ओंकार का नाद
करो, कि
नमोकार मंत्र
पढ़ो, कि
जपुजी पढ़ो।
लेकिन शब्दों
को दोहराने से,
मंत्रों को
दोहराने से
केवल .आत्म—सम्मोहन
पैदा होता है,
सुरति पैदा
नहीं होती।
वस्तुत: उल्टी
ही बात होती
है, विस्मृति
पैदा होती है,
सुरति पैदा
नहीं होती।
अपना स्मरण
क्या खाक आएगा
शब्दों से!
अपना स्मरण तो
निःशब्द में
आता है। सुरति—निःशब्द—योग
कहो तो समझ
में आए। सुरति—शब्द—योग!
शब्द तो ढांक
लेता है। शब्द
ही तो उपद्रव
है। शब्द ही
तो हमारा मन
है। सारे
शब्दों से
मुक्त होना है,
ताकि
निस्तब्धता
छा जाए, ताकि
मौन उतर आए, ताकि भीतर
सन्नाटा हो।
उसी सन्नाटे
में अपनी
स्मृति आएगी।
जब कुछ भी न
बचेगा याद
करने को, तभी
अपनी याद आएगी।
जब तक कुछ और
बचेगा तब तक
याद उसी में
उलझी रहेगी।
'आहारशुद्धौ
सत्वशुद्धि।
सत्वशुद्धौ
हवा स्मृति:।
स्मृतिलाभै
सर्वग्रंथीनां
विप्रमोक्ष।’
और
जिसको अपनी
सुरति आ गयी, जिसको
अपना स्मरण आ
गया, उसकी
सारी ग्रंथिया
टूट जाती हैं।
यह शब्द बड़ा
प्यारा है। ये
सूत्र छोटे—छोटे
शब्दों पर खड़े
हैं। सूत्र का
अर्थ ही होता
है : बीज।
इनमें
विस्तार नहीं
होता है।
इनमें बात
थोड़े में कही
जाती है।
सूत्र का अर्थ
होता है.
टेलीग्राम।
और ध्यान रखना,
टेलीग्राम
का ज्यादा
परिणाम होता
है। तुम पूरा
का पूरा
शास्त्र लिख
भेजो, टेलीग्राम
का ज्यादा
परिणाम होता
है। तुम पूरा
का पूरा
शास्त्र लिख
भेजो किसी को
कि 'जोग
लिखा महा
शुभस्थाने और
सब जने राजी
खुशी हैं। और
आगे हाल यह है'.....
और चलते जाओ
तो भी उसका वह
परिणाम नहीं
होता। और
इसलिए जो
समझदार हैं, वे लंबी
चिट्ठी लिखने
के बाद क्या
लिखते हैं—' थोड़ा लिखा
और ज्यादा
समझना! अरे, चिट्ठी लिखी
है और तार
समझना!' गजब
कर दिया, तो
तार ही भेज
देते न! 'चिट्ठी
लिखी और तार
समझना!' मगर
लिखने में राज
है। तार समझने
का मतलब है कि
जब तार आ जाता
है तो ज्यादा
अर्थ लाता है;
शब्द कम
होते हैं, अर्थ
ज्यादा होता
है। चिट्ठी
में शब्द
ज्यादा होते
हैं, अर्थ
कम होता है।
इसलिए कहते
हैं कि चिट्ठी
लिखी और तार
समझना।
ये
तार हैं।
सूत्र का अर्थ
होता है :
संक्षिप्त, बिलकुल
सार। जरा भी
असार को नहीं
रखा है, सब
हटा दिया है।
सिर्फ सार को
ही बचाया है।
इनमें एक—एक
शब्द
महत्वपूर्ण
है।
'सर्वग्र
थीनां'
—सारी
ग्रंथियां।
ग्रंथि का
अर्थ होता है :
गांठ। और
हममें गांठें
ही गाठें हैं।
उन्हीं
गांठों के
कारण तो हम सब
अष्टावक्र हो
गये हैं, जगह—जगह
से टेढ़े हो
गये हैं। आदमी
तो कहा मिलते
हैं—ऊंट चले
जा रहे हैं, ऊंट!
कतारबद्ध ऊंट!
जगह—जगह
गांठें हैं—ऊंट
की खूबी यही
है। सब जगह से
तिरछा है।
यहूदियों
की कथा है कि
जब भगवान सबको
बना चुका तब
उसने ऊंट
बनाया—बचा
खुचा जो सामान
था। मतलब :
कहीं की ईंट
कहीं का रोड़ा, भानुमति
ने कुनबा
जोड़ा! ऊंट को
उसने बनाने का
इरादा नहीं
रखा था। बना
चुका हाथी, घोड़े, गधे—सब
बना चुका—आदमी,
औरतें, पशु—पक्षी।
बच रहा होगा
सामान। हमेशा
जब तुम मकान
बनाते हो, तो
कुछ सीमेंट बच
गयी, कुछ
चूना बच गया, कुछ ईंट बच
गयीं, कोई लक्कड़—पत्थर
बच गये, अब
इन सबको
मिलाकर कुछ
बना दिया। ऐसे
ऊंट बना।
इसलिए ऊंट
दिखता भी है
अजीब। क्या
उनकी चाल, क्या
उनके पैर, क्या
उनकी देह की
संरचना!
यहूदियों
में दूसरी
कहानी है कि
ऊंट को भगवान ने
आखिरी समय में
बनाया, जब वह
बिलकुल थक
चुका था और
झपकी खाने लगा
था। ऐसा थोप—
थापकर किसी
तरह खतम किया।
आखिरी मामला
था, निपटें,
सुलझें, झंझट
मिटाएं।
छठवें दिन
आखिरी चीज ऊंट
बनायी। और फिर
सोया तो तब से
सोया ही है।
क्योंकि
यहूइदयों में
तो छह दिन में
सृष्टि बन गयी
और सातवें दिन
के बाद फुरसत।
सांतवा दिन—इसीलिए,
रविवार
छुट्टी का दिन
है। मगर
तुम्हारा तो
सोमवार होता
है, परमात्मा
का फिर सोमवार
नहीं हुआ। फिर
दफ्तर नहीं
गये वे। फिर
तो जो
उन्होंने टांग
पसारी! अरे, घोड़े क्या
ऊंट भी बेचकर
सो गये!
ग्रंथि
का अर्थ होता
है. गांठ। और
जितनी
ग्रंथियां
होती हैं उतना
ही आदमी इरछा—तिरछा
होता है।
कहेगा कुछ, मतलब
उसका कुछ और
होगा। करना
कुछ और चाहेगा,
करेगा कुछ
और। जाएगा
उत्तर और जाना
चाहेगा
दक्षिण। उसकी
बात का भरोसा
करना मुश्किल
होता है।
तुम्हें
सोचना पड़ता है
कि इसका मतलब
क्या, इसके
इशारे का मतलब
क्या!
मैंने
सुना है, दो
व्यापारी.....
फलीभाई
पहचानते
होंगे उनको!
वही शेयर
बाजार..... बंबई
के आदमी थे
दोनों.....
बोरीबंदर पर
मिले। एक ने
दूसरे से पूछा
कि भाई, कहां
जा रहे हो? उसने
कहा, 'कहीं
नहीं, यहीं
दादर तक जा
रहा हूं।’ दूसरे
ने कहा, 'अरे,
तू किसी और
को बुद्ध
बनाना, मुझे
पक्का पता है
कि तू दादर ही
जा रहा है।’
देखते
हो मजा! उसने
कहा,
'मुझे पक्का
पता है कि तू
दादर ही जा
रहा है! तू किसी
और को बुद्ध
बनाना!' क्योंकि
जाएगा कहीं, व मुझे
मालूम है। तू
सोचता होगा कि
दादर को
बताएगा तो मैं
समझूंगा थाना
जा रहा है।
मगर मैं पक्का
पता लगाकर आया
हूं कि तू
दादर ही जा
रहा है।
अब
बेचारा सच बोल
रहा है कि
दादर ही जा
रहा हूं मगर
माने कोन!
इस
जगत में इतने
तिरछे लोग हैं।
यहां सभी
राजनीति में
पड गये हैं।
छोटे—छोटे
बच्चे तक
राजनीति में
पड़ जाते हैं।
पड़ना ही पड़ता
है। क्योंकि
मां कहती है
कि हंसो, अरे
मैं तुम्हारी
मां हूं
मुस्कुराओ, क्या पड़े हो!
छोटा—सा
बच्चा!
मनोवैज्ञानिक
ने खोज की है
कि छह सप्ताह
का बच्चा
राजनीति
सीखना शुरू कर
देता है। जैसे
ही माताराम को
आते देखता है,
मुस्कुराने
लगता है। कोई
मतलब नहीं है
उनको
मुस्कुराने
का। इन
माताराम को
आते देखता है,
मुस्कुराने
लगता है। कोई
मतलब नहीं है
उनको
मुस्कुराने
का। इन
माताराम को
देखकर उनको
कोई
प्रसन्नता
नहीं हो रही
है। मगर झंझट
से बचना है तो
मुस्कुराहट
ठीक है। पोपला
मुंह खोल देता
है। न कुछ दात
है, न हृदय
में कोई
मुस्कुराहट
का अभी सवाल
है, मगर
होंठ फाड़ देता
है। माताराम
प्रसन्न हो
जाती हैं।
स्वागत हो गया।
बाप आते हैं, वे भी झूले
पर खडे होकर
बेटे को देखते
हैं। बेटे को
मुस्कुराना
पड़ता है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
अपनी पत्नी, बेटा
फजलू और छोटे
बच्चे को लेकर—अभी
नया—नया, दो
ही साल का
बच्चा—किसी के
घर निमंत्रित
थे, भोजन करने
गये थे। सबने
छोटे बच्चे को
अभी पहली दफा
देखा था, इसलिए
सभी छोटे
बच्चे की बात
कर रहे थे।
गृहपति ने कहा
कि बाल तो
बिलकुल
नसरुद्दीन, तुमसे मिलते
हैं। अरे, तुम्हारे
बाल देख लो कि
इसके बाल देख
लो। गृहपत्नी
ने कहा, नसरुद्दीन
की पत्नी से
कि गुलजान, आंखें तो बस
बिलकुल तुमसे
मिलती हैं।
ऐसा लगता है, बिलकुल
तुम्हारी आंखों
की ही
प्रतिध्वनि!
फजलू
चुपचाप खड़ा
रहा कि देखें
मेरे बाबत भी
कुछ बोला जाता
है कि नहीं।
जब देखा कि
कुछ कोई नहीं
बोल रहा और
उसने कहा, 'पाजामा
मेरा है!
मिलता ही नहीं,
बिलकुल
मेरा है!'
क्या
करोगे! जहां
सब अपनी—अपनी
चला रहे हैं, अपनी—अपनी
धाक जमा रहे
हैं—कोई के
बाल, किसी
की आंखें!
आखिर लड़का यह
भी तो सोचे कि
आखिर मेरी भी
कोई इज्जत है,
मेरी भी कोई
प्रतिष्ठा है!
इनके मिलते
होंगे, मगर
मेरा पाजामा
बिलकुल मेरा
है! कसम खाकर
कहता हूं।
मुहल्ले—पड़ोस
के लड़कों को लाकर
गवाही में खड़ा
कर सकता हूं।
सालों मैंने
पहना है और अब
यह पहन रहा है।
छोटे—छोटे
बच्चों को भी
अहंकार पकड़ना
शुरू होता है।
और वहीं से
गांठ पड़नी
शुरू होती है।
और मां—बाप भी
अहंकार को
पकड़ाते हैं, जहर
पिलाते हैं।’कुछ करके
दिखाना! अरे, दुनिया में
आए हो तो कुछ करके
दिखाओ! कुछ
नाम ही कर जाओ!'.....
जैसे जो नाम
कर गये पहले, कुछ बहुत कर
गये! क्या हो
गया उनके नाम
के कर जाने से?.....
मगर हर
बच्चे को हम
कहते हैं. कुछ
होकर दिखाओ, कुछ बनकर
दिखाओ। यह बन
जाओ, वह बन
जाओ। स्कूल
भेजते हैं, स्कूल में
भी वही दौड़
महत्वाकांक्षा
की—प्रथम आओ!
स्वर्णपदक
जीतो! कुछ न
कुछ दुनिया के
सामने अपने
अहंकार की
घोषणा देनी है।
इससे
ग्रंथियां
पैदा होती हैं।
महत्वाकांक्षा
ग्रंथियां
लाती है। और
महत्वाकांक्षा
हीनता पैदा
करवाती है कि
मैं अभी कुछ
भी नहीं। न
सिकंदर बन
पाया, न अशोक
बन पाया, न
अकबर बन पाया,
न बुद्ध बन
पाया, न
महावीर बन
पाया, कुछ
भी नहीं।
जिंदगी यूं ही
चली जा रही है!
अभी तक कोई
अपनी छाप नहीं
छोड़ पाया
दुनिया पर।
हस्ताक्षर
नहीं कर पाया।
तो हीनता पैदा
होती है।
महत्वाकांक्षा
का जहर हीनता
पैदा कर देता
है। और हीनता
बड़ी गांठ है।
फिर आदमी धन
से, पद से, प्रतिष्ठा
से, किसी
भी तरह से—अगर
अच्छी तरह से
न मिले तो गलत
तरह से; चोरी
से, बेईमानी
से, गुंडागर्दी
से—फिर
साध्यों की
फिक्र नहीं रह
जाती कि वह
शुभ साधन से
ही मिलने
चाहिए। मिलने
चाहिए—साधन
फिर शुभ हों
कि अशुभ।
केलिफोर्निया
में दो वर्ष
पहले एक आदमी
ने सात
हत्याएं की—दो
घंटे के भीतर।
जो मिला उसको
सूट कर दिया।
यह भी नहीं
देखा, किसको
शट कर रहा है।
पीछे से भी
मार दी गोली
लोगों को।
उनका चेहरा भी
नहीं देखा था
पहले कभी। उस
पर जब अदालत
में मुकदमा
चला तो
मजिस्ट्रेट
भी हैरान था।
उसने पूछा कि
तुमने यह किया
क्यों? अरे,
लोगों की
कोई दुश्मनी
होती है तो
कोई किसी को
मारता है, समझ
में आता है, कोई तर्क है।
तुमने तो ऐसे
आदमियों को
मारा, जिनको
तुमने जिंदगी
में पहले देखा
भी नहीं था।
इसमें एक आदमी
तो पहले दफा
ही
केलिफोर्निया
आया था। और
उसका तुमने
चेहरा भी नहीं
देखा था, पीछे
से गोली मार
दी! उस आदमी ने
कहा, 'मुझे
इसकी कोई
फिक्र नहीं।
मैं अपनी
तस्वीर
अखबारों में
देखना चाहता
हूं! अरे, जिंदगी
यूं ही चली जा
रही है! कोई
चर्चा ही नहीं!
आज हर जबान पर
मेरा नाम है।
गांव की चर्चा
मैं हूं। जो
देखो मेरी बात
कर रहा है।
जिंदगी सफल हो
गयी। अब फांसी
लगे, कोई
फिक्र नहीं।
उसकी भी चर्चा
होगी। मर
जाऊंगा, मगर
याद छोड
जाऊंगा।’
जार्ज
बर्नार्ड शा
को जब नोबल
प्राइज मिली
तो उसने इनकार
कर दिया लेने
से। वह पहला
आदमी था इनकार
करनेवाला। एक
तो नोबल
प्राइज का
मिलना, सारी
दुनिया में
चर्चा हुई।
प्रथम, अखबारों
की सुर्खियों
में नाम आया
और दूसरे दिन
उसने इनकार कर
दिया लेने से।
फिर अखबार छपी।
यह पहला मौका
था कि कोई
नोबल प्राइज
लेने से इनकार
कर दे। नोबल
प्राइज के लिए
तो लोग मर
जाते हैं।
हजार कोशिश
करते हैं, सिफारिशें
करवाते हैं, चेष्टाएं
करते हैं, क्या
नहीं करते
आदमी! और इसने
नोबल प्राइज
को इनकार कर
दिया। मिलने
से भी बड़ी
खबरें छपी कि
यह इतिहास में
पहली घटना है,
इतना बड़ा
पुरस्कार—कोई
बीस लाख रुपये
मिलने हैं—और
सारे जगत में
सम्मान, ऐसा
कोई पुरस्कार
नहीं और
बर्नार्ड शा
ने इनकार कर
दिया! बहुत
चर्चा हुई, बहुत शोरगुल
मचा। दो—तीन
दिन बर्नार्ड
शा को बहुत
खोजा गया, उसका
पता ही न चले
कि वह कहां है।
तीन दिन बाद
पता चला। वह
अपने गांव चला
गया था। उस पर
बड़ा दबाव डाला
गया।
इंग्लैंड की
सरकार ने दबाव
डाला, दुनिया
के बड़े—बड़े
प्रसिद्ध
लोगों ने पत्र
लिखे, तार
किए कि भई ऐसा
मत करो, इसमें
अपमान है नोबल
प्राइज बांटनेवाली
कमेटी का। तुम
स्वीकार करना
और उस हाथ से
दान कर देना, मगर स्वीकार
कर लो।
मगर
वह भी टिका
रहा,
सात दिन तक
अखबारों में
रोज चर्चा
चलती रही कि
आज इस महाराजा
ने प्रार्थना
की, आज उस
राजा ने
प्रार्थना की,
आज इस लेखक
ने, कल उस
कवि ने। सात
दिन तक उसने
धूम— धड़ाका
मचा दिया।
सारी दुनिया
की सब खबरें
गौण हो गयीं।
सातवें दिन
उसने घोषणा की
कि जब इतने
लोग आग्रह कर
रहे हैं तो
मैं कैसे
इनकार कर सकता
हूं मैं
स्वीकार करता
हूं।
उसने
नोबल प्राइज
स्वीकार की।
फिर अखबार में
खबर छपी।
और
उसने एक हाथ
से दस्तखत किए
स्वीकार करने
के और दूसरे
हाथ से उसको
दान कर दिया
एक संस्था को.....
फेबियन
सोसायटी को
दान कर दिया।.....
फिर अखबारों
में खबर छपी
कि उसरे
स्वीकार किया, मगर
अद्भुत दानी
कि बीस लाख
रुपये यूं दान
कर दिए कि दो
पैसे भी आदमी
देने में
सोचता है, बीस
लाख रुपये
देने में..... और
आज के बीस लाख
नहीं, उस
दिन के बीस
लाख बहुत थे।
आज का तो एक
करोड़ रुपया भी
उससे कम है उस
दिन के बीस
लाख रुपए आज
के करोडों
रुपए से भी
ज्यादा थे।
कुछ चीजों के
दाम तो सात सौ
गुने ज्यादा
हो गए हैं उस
दिन से अब तक।
रुपये की तो
कीमत ही गिरती
चली गयी है
रुपये का तो
कोई मूल्य ही
नहीं रहा।
भिखमंगे को भी
तुम रुपया दो
तो वह धन्यवाद
नहीं देता; उल्टे उसको
देखता है कि
असली है कि
नकली। मतलब
तुम पर अहसान
कर रहा है
स्वीकार करके।
अखबार
में खबरें
छपीं, बहुत
खबरें छपीं।
और फिर पता
चला कि वह
फेबियन
सोसायटी जो थी
वह जार्ज
बर्नार्ड शा
की ही बनायी
हुई एक छोटी—सी
समिति थी, जिसके
वही अध्यक्ष
थे और वही
सदस्य थे, एकमात्र—और
कोई भी नहीं।
फिर तो बहुत
शोरगुल मचा, कि यह तो हद
हो गयी, यह
तो बेईमानी हो
गयी। यूं
पंद्रह दिन तक
उस आदमी ने
सारी दुनिया
को उलझाए रखा।
और सोलहवें
दिन उसने
घोषणा कर दी
कि इसमें क्या
संकोच की बात
है। सच बात तो
यह है कि
मैंने जानकर
यह सब किया, क्योंकि
नोबल प्राइज
मिली, एक
दिन छप गयी
खबर, खतम
हो गयी बात, यह भी कोई
बात है! अरे, नोबल प्राइज
मिली तो इसको
जितना खींचा
जा सके लंबा, जितने दिन
तक अखबारों
में टिका जा
सके—टिकना
चाहिए इसलिए
तो मैंने इतना
पूरा नाटक किया।
फिर
खबर छपी कि यह
नाटक था पूरा
का पूरा। यह
नाटककार नाटक
ही कर रहा था।
यह इसने किसी
को दान वगैरह
किए नहीं, इस
हाथ से अपने
को ही दान कर
लिए वापिस। यह
धोखाधड़ी थी।
यह आदमी
बेईमान है।
जगह—जगह
असम्मान और
व्यंगचित्र
छपे। मगर उसने
कहा कि इसमें
क्या बात है!
मैंने पूरा
लाभ लेना चाहा
जितना लाभ
लिया जा सकता
है। क्या यूं
ही नोबल
प्राइज मिली
और बस ले ली, किसी को पता
भी न चला, कानों—कान
खबर न हुई! एक—एक
बच्चे को पता
चल गया।
ऐसी
ग्रंथियां मन
में पैदा हो
जाती हैं—अहंकार
की,
विशिष्टता
की, खास
होने की।
'स्मृ तिलाभै'
लेकिन
जिसको अपना
स्मरण आ गया, उसकी
ये सारी
ग्रंथियां
मिट जाती हैं।
फिर उससे ऊपर
कुछ भी नहीं
है—न धन है, न
पद है, न
प्रतिष्ठा है।
जिसको अपना
स्मरण आ गया, उसे तो परमपद
मिल गया, परमधन
मिल गया। उस
परमपद और
परमधन का नाम
मोक्ष ही है।
’स्मृतिलाभै
सर्वग्रंथीना
विप्रमोक्ष'।
उसका
सभी
ग्रंथियों से
मोक्ष हो जाता
है,
मुक्ति हो
जाती है। सारी
ग्रंथिया
टूटकर गिर
जाती हैं, जैसे
जंजीरें
टूटकर गिर गयी
हों किसी कैदी
की।
इस
सूत्र को बहुत
सावधानी
पूर्वक समझना।
आहार अर्थात्
जो बाहर से
भीतर आता है।
स्मृति
अर्थात् आत्म—स्मृति।
ग्रंथियां
अर्थात् वे सब
आकांक्षाएं
जो तुम्हें
बांधे हुए हैं; वासनाएं
जो तुम्हें
बांधे हुए हैं;
गांठें
जिनमें तुम
उलझ गए हो।
जैसे मछली जाल
में फंसी हो
और तडूफती हो।
जिसकी सारी
ग्रंथियां
टूट जाती हैं,
उसका ही
मोक्ष है।
'लगन
महूरत झूठ सब'
प्रवचनमाला
से
दिनांक
28 नवम्बर 1980; श्री
रजनीश आश्रम
पूना
thank you guruji
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