चांदनी
को छू लिया है—(प्रवचन—दसवां)
दिनांक
30 सितम्बर,
1976;
श्री रजनीश
आश्रम, पूना
प्रश्नसार:
1— भगवान, जब मैं यहां
आई तब बहुत
अस्वस्थ थी।
अब मैं जा रही
हूं पूरी
स्वस्थता
पाकर। आपका
प्रेम मुझ पर
हमेशा ही
बरसता रहता है,
इसके लिए
बहुत
अनुगृहीत
हूं।
2—चूंकि
हम अपनी व्यक्तिगत
समस्याएं स्वयं
हल नहीं कर पाते,क्या
इस कारण लिया संन्यास
उचित है?
3—मनुष्य
के हित आपकी अथक
चेष्टा देखकर
में चकित रह जाता
हूं। लेकिन लोग
सो रहे है और सत्य
जीना तो दूर सत्य
सुनने को भी तैयार
नहीं है।
4—क्या
भक्त अकेले विश्वास
के सहारे जी सकता
है?
पहला
प्रश्न:
भगवान, जब मैं यहां
आई तब बहुत
अस्वस्थ थी।
अब मैं जा रही
हूं पूरी
स्वस्थता
पाकर। आपका
प्रेम मुझ पर
हमेशा ही
बरसता रहता है,
इसके लिए
बहुत
अनुगृहीत
हूं।
दुलारी!
अस्वस्थ
मनुष्य मात्र
है। जिन्हें
हम साधारणतः
स्वस्थ मानते
हैं, वे भी
स्वस्थ नहीं
हैं। शरीर का
स्वस्थ होना तो
आसान, मनुष्य
का स्वस्थ
होना निश्चित
ही कठिन है। और
शरीर स्वस्थ
हो भी जाए तो
कुछ बनता नहीं,
बिगड़ी बात नहीं
बनती। बिगड़ी
बात तो तभी
बनती है जब
मनुष्य
स्वस्थ हो।
मनुष्य
की अस्वस्थता
से मेरा अर्थ
क्या है? जब
तक मनुष्य
परमात्मा से
टूटा—टूटा है,
तब तक
अस्वस्थ है।
जैसे वृक्ष उखड़ा—उखड़ा
हो जमीन से, तो बीमार
होगा। जड़ें
चाहिए भूमि
में, तो ही
रसधार वृक्ष
में बहेगी
जीवन की।
मनुष्य भी एक
वृक्ष है। और
जब तक
परमात्मा में
उसकी जड़ें न
हों...।
परमात्मा
यानी यह विराट
अस्तित्व।
इससे अलग—थलग
होना बीमार
होना है। इससे
अलग—अलग जीना
अस्वस्थ जीना
है। इसके साथ
समग्र रूप से
लीन होकर जीना,
तल्लीन
होकर जीना
स्वस्थ जीना
है।
स्वस्थ
शब्द को भी
ख्याल करो, उसका अर्थ
होता है—स्वयं
में जो स्थित
हो गया है। और
स्वयं में वही
स्थित है, जो
परमात्मा में
स्थित है।
क्योंकि स्व
और परमात्मा,
आत्मा और
परमात्मा
भिन्न नहीं
हैं। मनुष्य अलग
है, यही
हमारी
भ्रांति है और
यही हमारे
विषाद का मूल
है। इसी
भ्रांति को
अहंकार कहते
हैं। मैं अलग
हूं, बस इस
भ्रांति पर
सारी
भ्रांतियां
निर्मित होती
हैं। मैं अलग
हूं, तो
मुझे अपने को
बचाना है। मैं
अलग हूं, तो
मुझे लड़ना है,
जीतना है, सिद्ध करना
है स्वयं को।
प्रमाण देना
है जगत को कि
मैं कुछ हूं, विशिष्ट हूं,
अद्वितीय
हूं। धन कमाना
है, कि बड़े
पद पर पहुंचना
है; यश
कमाना है, कि
प्रसिद्धि।
मगर मुझे कुछ
साबित करना है
कि मैं साधारण
नहीं हूं, असाधारण
हूं, दूसरों
से ऊपर हूं; किसी भी
कारण—ज्ञान के
कारण, त्याग
के कारण, धन
के कारण, पद
के कारण—लेकिन
मैं दूसरों से
ऊपर हूं।
महत्वाकांक्षा
का जन्म होता
है, इस
बीमारी के
कारण कि मैं
अलग हूं। और
जो महत्वाकांक्षा
से ग्रस्त हो
गया, ज्वरग्रस्त
है और उसकी
आत्मा में
ज्वर है। उसकी
आत्मा सड़ने
लगेगी। उसकी
आत्मा में घुन
लग गया। अब
कभी शांति न
होगी। अब
अशांति ही
जीवन होगा। अब
संताप और
चिंता ही गहन
होते जाएंगे।
अब जीवन रोज—रोज
नर्क की सीढ़ियां
उतरेगा।
जिसने
जाना कि मैं
इस जगत के साथ
एक हूं, भिन्नता
छोड़ी। इस
विराट के
संगीत में एक
अंग हो गया, एक स्वर हो
गया। अपना छंद
अलग न रखा।
अपनी गति भिन्न
न रखी। अपने
को डुबा
दिया सागर
में! वही
स्वस्थ हो
जाता है। सागर
में डूबने की
यही कला मैं
यहां सिखा रहा
हूं दुलारी!
इसलिए
मेरे पास
बैठकर अगर
स्वयं में
स्थित होने की
थोड़ी—सी
प्रतीतियां
तुम्हें हो
जाएं, तो
तुम धन्यभागी
हो। फिर
उन्हीं
प्रतीतियों
को गहरे करते
जाना। फिर
उन्हीं
प्रतीतियों
को संजोना, संवारना, फिर—फिर
पुकारना।
मेरे पास
बैठकर जो
स्वास्थ्य अनुभव
हो, जो रस
का स्वाद लगे,
उसे यहीं मत
छोड़ जाना, उसे
साथ ले जाना।
उसकी गूंज
तुम्हारे
भीतर गूंजती
ही रहे। उठो
तो उसमें उठना,
बैठो तो
उसमें बैठना।
रात सोओ तो
उसमें ही डूबना,
सुबह जागो
तो उसी में
जागना। तो फिर
कितनी ही दूरी
हो मेरे और
तुम्हारे बीच,
सत्संग
जारी रहेगा।
भौतिक दूरी
सत्संग में बाधा
नहीं बन सकती।
और मैं
दुलारी को
जानता हूं, दूर रहकर भी
सत्संग कर
पाती है। हजार
बाधाएं हैं।
उसे यहां
पहुंचना भी
कठिन होता है।
फिर भी किसी
तरह पहुंच
जाती है।
परिवार है, समाज है, उनकी
हजार बाधाएं
हैं। लेकिन उन
बाधाओं के पार
भी, उसका
सतत राग मेरे
साथ जुड़ा है।
चांदनी
को छू लिया है, हाय, मैंने
क्या किया है
अब विसुध मन—प्राण
मेरे, बीन—सा
झंकृत हिया है
एक बार
थोड़ा—सा स्वाद
लगना शुरू हो
जाए, तो हिया
झंकृत हो उठता
है! उसी झंकार
को प्रार्थना
कहते हैं, या
पूजा, या
अर्चना।
चांदनी
को छू लिया है, हाय, मैंने
क्या किया है
अब विसुध मन—प्राण
मेरे, बीन—सा
झंकृत हिया है
छू
लिया मैंने
शरद के
मेघ
का, उजला
किनारा
छू
लिए नभ फूल, जैसे
छू
लिया संसार
सारा
मदिर
मधुरस का कलश
था या कि अमृत
पी लिया है
चांदनी
को छू लिया है, हाय, मैंने
क्या किया है
स्निग्ध
सम्मोहन, नयन का
मौन
आमंत्रण विवश
था
छू
लिया अंगार
मैंने
अब
करूं क्या मन
विवश था
मैं
नहीं अपना, किरण के
स्वप्न ने
क्या कर दिया
है
चांदनी
को छू लिया है, हाय, मैंने
क्या किया है
कांप
कर चुप रह गई
वह
शुभ्र
बेले की कली
सी
मुड़
गई हर बात मन
की
एक
अनजानी गली सी
एक
क्षण में आज
मैंने एक जीवन
जी लिया है
चांदनी
को छू लिया है, हाय, मैंने
क्या किया है
मन
डरेगा भी
बहुत। इसीलिए
तो लोग स्वस्थ
होने से घबड़ाए
हैं। लोगों ने
अस्वस्थ होने
को पकड़ रखा
है। कहते जरूर
हैं लोग कि हम
शांत होना
चाहते हैं, लेकिन
अशांति को
छोड़ते नहीं!
कहते जरूर हैं
लोग कि हम
परमात्मा
पाना चाहते
हैं, लेकिन
अहंकार को
छोड़ते नहीं।
कहते जरूर हैं
लोग, हम
प्रेम पाना
चाहते हैं और
देना और लेना
चाहते हैं
प्रेम, लेकिन
वैमनस्य,
ईष्या और
क्रोध और
हिंसा जोर से
गठरी में बांधकर
बैठे हैं! लोग
कहते कुछ हैं,
करते ठीक
उल्टा हैं!
जिस
दिन यह
विरोधाभास
तुम्हें
दिखाई पड़ जाए, उस दिन जिस
गठरी को तुमने
अब तक संपत्ति
मानकर
सम्हाला है, उसे सागर
में डुबा
देना, तत्क्षण
क्रांति होनी
शुरू हो
जाएगी। शांति को
चाहने की
जरूरत नहीं है,
सिर्फ
अशांति के बीज
मत बोओ—पर्याप्त
है।
स्वास्थ्य
अपने—आप घट
जाता है।
अस्वस्थ होने
में हमारा बड़ा
न्यस्त
स्वार्थ है।
हमने हजार
कारणों से
अस्वस्थ रहना
चाहा है, इसलिए
अस्वस्थ हैं।
इस जगत में
कोई भी मनुष्य
किसी और के
कारण अस्वस्थ
नहीं है, अपने
ही कारण
अस्वस्थ है।
बीमारी में
हमारे स्वार्थ
जुड़े हैं।
बीमार आदमी को
मिलती है सहानुभूति,
संवेदना, सत्कार, सम्मान।
देखते
हो, घर में
बच्चा बीमार
हो जाए, तो
सारे घर के
ध्यान का
केंद्र हो
जाता है। बचपन
से ही हम गलत
बात सिखा देते
हैं। बच्चे को
हमने बीमार
रहने की कला
सिखा दी। कौन
नहीं चाहता कि
सब मुझ पर
ध्यान दें? कौन नहीं
चाहता कि मैं
सबकी आंखों का
तारा हो जाऊं?
और बच्चा
जानता है, सबकी
आंखों का तारा
मैं तभी होता
हूं, जब
अस्वस्थ होता
हूं, बीमार
होता हूं, रुग्ण
होता हूं। जब
स्वस्थ होता
हूं, किसी
की आंख का
तारा नहीं
होता। बल्कि
उलटी बात घटती
है। बच्चा
स्वस्थ होगा,
ऊर्जा से
भरा होगा, नाचेगा,
कूदेगा,
चीजें तोड़
देगा, झाड़
पर चढ़ेगा।
जो देखो वही डांटेगा। जो
देखो वही
कहेगा: मत करो
ऐसा, चुप
रहो, शांत
बैठो। सम्मान
पाना दूर रहा,
सहानुभूति
पानी दूर रही।
उत्सव में
आशीष पाना दूर
रहा, उत्सव
में मिलती है
निंदा। नाचता
है तो सारा घर
विपरीत हो
जाता है, सारा
परिवार—पड़ोस
विपरीत हो
जाता है।
बीमार होकर पड़
रहता है, सारा
घर अनुकूल हो
जाता है।
हम एक
गलत भाषा सिखा
रहे हैं। हम
बीमारी की राजनीति
सिखा रहे हैं!
हम यह कह रहे
हैं कि जब तुम बीमार
होओगे, हमारी
सबकी
सहानुभूति के
पात्र होओगे।
यह तो बड़ी
रुग्ण
प्रक्रिया
हुई। जब बच्चा
प्रसन्न हो, नाचता हो तब
सहानुभूति
देना, तो
जीवन—भर प्रसन्न
रहेगा, नाचेगा।
लेकिन
नहीं, ऐसा
नहीं होता। इस
कारण एक बहुत
बेहूदी घटना मनुष्य—जाति
के इतिहास में
घट गई। वह
घटना क्या है,
समझना!
क्योंकि
उसमें बहुत
कुछ प्रत्येक
के लिए
कुंजियां
छिपी हैं—बड़ी
कुंजियां
छिपी हैं! हर
बच्चे को दुख
में, पीड़ा
में, बीमारी
में, परेशानी
में
सहानुभूति
मिलती है; उत्सव
में, आनंद
में, मंगल
में, नाच
में, गान
में विरोध
मिलता है।
इससे बच्चे को
धीरे—धीरे यह
भाव होना शुरू
हो जाता है
पैदा कि सुख में
कुछ भूल है और
दुख में कुछ
शुभ है। दुख
ठीक है, सुख
गलत है। दुख
स्वीकृत है
सभी को, सुख
किसी को
स्वीकार नहीं
है।
इसी
तर्क की गहन
प्रक्रिया का
अंतिम
निष्कर्ष यह
है कि
परमात्मा को
भी सुख
स्वीकार नहीं
हो सकता, दुख
स्वीकार
होगा। इसी से
तुम्हारे
साधु—संन्यासी
स्वयं को दुख
देने में लगे
रहते हैं।
उनकी धारणा यह
है कि जब इस
जगत के माता—पिता
दुख में
सहानुभूति
करते थे, तो
वह जो सबका
पिता है, वह
भी दुख में
सहानुभूति
करेगा। जब इस
जगत के माता—पिता
सुख में नाराज
हो जाते थे—उछलता
था, कूदता
था, नाचता
था, प्रसन्न
होता था, तो
विपरीत हो
जाते थे—तो वह
परम पिता भी
सुख में
विपरीत हो
जाएगा। इस
आधार पर सारे
जगत के धर्म
भ्रष्ट हो गए।
इस आधार के
कारण विषाद, उदासी, आत्महत्या,
आत्मनिषेध—ये
धर्म की सीढ़ियां
बन गईं। अपने
को सताओ!
तुम
सोचते हो, जो आदमी
काशी में
कांटों की सेज
बिछाकर उस पर लेटा
है, वह
क्या कह रहा
है? यह
छोटा बच्चा
है। यह मूढ़
है। यह कोई
ज्ञानी नहीं
है, यह
निपट मूढ़
है! यह उसी
तर्क को फैला
रहा है, कि
देखो मैं
कांटों पर
लेटा हूं! अब
तो हे परम पिता,
अब तो मुझ
पर ध्यान दो!
अब तो आओ मेरे
पास! अब और क्या
चाहते हो? वह
जो जैन मुनि
उपवास कर रहा
है, शरीर
को गला रहा है,
सता रहा है,
वह क्या कह
रहा है? वह
यह कह रहा है
कि अब तो अस्तित्व
मेरे साथ
सहानुभूति
करे! अब और
क्या चाहिए!
अब कितना और
करूं! ईसाइयों
में फकीर हुए
जो रोज सुबह
उठकर अपने को कोड़े
मारते थे। और
जब तक उनका
शरीर
लहूलुहान न हो
जाए। यही उनकी
प्रार्थना
थी। और जो
जितना अपने शरीर
को लहूलुहान
कर लेता था, नीला—पीला
कर लेता था, उतना ही बड़ा
साधु समझा
जाता था।
देखते
हो इन पागलों
को!
विक्षिप्तों
को! इनको पूजा
गया है सदियों—सदियों
में। तुम भी
पूज रहे हो! इस
देश में भी यही
चल रहा है। यह
तर्क बड़ा
बचकाना है और
बड़ा भ्रांत।
परमात्मा
उनसे प्रसन्न
है जो प्रसन्न
हैं।
परमात्मा
तुम्हारे
माता—पिता की
प्रतिकृति
नहीं है।
तुम्हारे
माता—पिता तो
उनके माता—पिता
द्वारा
निर्मित किए
गए हैं। यही
जाल जो तुमने
सीख लिया है, उन्होंने भी
सीखा है।
यह
समाज पूरा का
पूरा, सुखी
आदमी को
सत्कार नहीं
देता।
तुम्हारे घर में
आग लग जाए, पूरा
गांव
सहानुभूति
प्रगट करने
आता है—आता है
न? दुश्मन
भी आते हैं।
अपनों की तो
बात ही क्या, पराए भी आते
हैं। मित्रों
की तो बात
क्या, शत्रु
भी आते हैं।
सब सहानुभूति
प्रगट करने आते
हैं कि बहुत
बुरा हुआ।
चाहे दिल उनके
भीतर प्रसन्न
भी हो रहे हों,
तो भी
सहानुभूति
प्रगट करने
आते हैं—बहुत
बुरा हुआ। तुम
अचानक सारे
गांव की
सहानुभूति के
केंद्र हो
जाते हो।
तुम
जरा एक बड़ा
मकान बनाकर
गांव में
देखो! सारा
गांव
तुम्हारे
विपरीत हो
जाएगा। सारा
गांव तुम्हारा
दुश्मन हो
जाएगा।
क्योंकि सारे
गांव की ईष्या
को चोट पड़
जाएगी। तुम
जरा सुंदर
गांव में मकान
बनाओ, सुंदर
बगीचा लगाओ।
तुम्हारे घर
में बांसुरी
बजे, वीणा
की झंकार उठें।
फिर देखें, कोई आए
सहानुभूति
प्रगट करने!
मित्र भी पराए
हो जाएंगे।
शत्रु तो
शत्रु रहेंगे
ही, मित्र
भी शत्रु हो
जाएंगे। उनके
भीतर भी ईष्या
की आग जलेगी, जलन पैदा
होगी। इसलिए
हम सुखी आदमी
को सम्मान
नहीं दे पाते।
इसलिए हम जीसस
को सम्मान न दे
पाए, सूली
दे सके। हम
महावीर को
सम्मान न दे
पाए, कानों
में खीले
ठोंक सके। हम
सुकरात को
सम्मान न दे
पाए, जहर
पिला सके।
तुम
देखते हो, मेरे साथ इस
देश में जो
व्यवहार हो
रहा है, उसका
कुल कारण इतना
है कि मैं
उनकी सहानुभूति
नहीं मांग
रहा। इसका कुल
कारण इतना है कि
मैं उनकी
सहानुभूति का
पात्र नहीं
हूं। मैं उनकी
सहानुभूति का
पात्र हो जाऊं,
वे सब
सम्मान से भर
जाएंगे।
लेकिन मैं
प्रसन्न हूं,
आनंदित हूं,
रसमग्न
हूं। मैं
ईश्वर के
ऐश्वर्य से
मंडित हूं।
कठिनाई है!
मैं फूलों की
सेज पर सो रहा
हूं और वे
केवल कांटों
की सेज पर सोने
वाले आदमी को
ही सम्मान
देने के आदी
हो गए हैं।
इसलिए उनका
विरोध
स्वाभाविक
है। वे खुद रुग्ण
हैं। उनका
पूरा चित्त
हजारों साल की
बीमारियों से
ग्रस्त है।
इस जगत
ने आज तक
आनंदित
व्यक्ति को
सम्मान नहीं
दिया है। यह
सिर्फ दुखी
व्यक्तियों
को सम्मान
देता है। उनको
त्यागी कहता
है। उनको
महात्मा कहता
है। इस वृत्ति
से सावधान
होना, यह
तुम्हारे
भीतर समाज ने
डाल दी है।
तुम जब रूखे—सूखे
वृक्ष हो
जाओगे और
तुम्हारे
पत्ते झड़ जाएंगे
और तुममें फूल
न लगेंगे, तब
यह समाज
तुम्हें
सम्मान देगा।
और मैं
तुमसे कहता
हूं: इस
सम्मान को दो कौड़ी का
समझकर छोड़
देना। चाहे यह
सारा समाज
तुम्हारा
अपमान करे, लेकिन हरे—भरे
होना, फूल खिलने
देना। पक्षी
तुम्हारा
सम्मान
करेंगे, चांदत्तारे तुम्हारा
सम्मान
करेंगे, सूरज
तुम्हारा
सम्मान करेगा,
आकाश
तुम्हारे
सामने
नतमस्तक
होगा। छोड़ो
फिक्र
आदमियों की, आदमी तो
बीमार है।
आदमियों का यह
समूह तो बहुत
रुग्ण हो गया
है। और यह एक
दिन की बीमारी
नहीं है—लंबी
बीमारी है, हजारों—हजारों
साल की बीमारी
है। इसके बाहर
कोई मुश्किल
से छूट पाता
है।
मनुष्य
ने अपने दुख
में बहुत
स्वार्थ जोड़
लिए हैं।
तुमने देखा, इसलिए लोग
अपनी व्यथा की
कहानियां खूब
बढ़ा—चढ़ाकर
कहते हैं।
अपने दुख की
बात लोगों को
खूब बढ़ा—चढ़ाकर
कहते हैं।
इसीलिए कि दुख
की बात जितनी
ज्यादा
करेंगे, उतना
ही दूसरा आदमी
पीठ थपथपाएगा,
सहानुभूति
देगा। लोग
सहानुभूति के
लिए दीवाने
हैं, पागल
हैं। और
सहानुभूति से
कुछ मिलने
वाला नहीं है।
क्या होगा सार
अगर सारे लोग
भी तुम्हारी
तरफ ध्यान दे
दें?
तुमने
कहानी तो सुनी
है न, कि एक
गरीब औरत ने
बामुश्किल
आटा पीस—पीसकर
सोने की चूड़ियां
बनवाईं।
चाहती थी कि
कोई पूछे—कितने
में लीं? कहां
बनवाईं? कहां खरीदीं?
मगर कोई
पूछे ही न; सुख
को तो कोई
पूछता ही
नहीं! घबड़ा गई,
परेशान हो
गई; बहुत
खनकाती फिरी
गांव में, मगर
किसी ने पूछा
ही नहीं।
जिसने भी चूड़ियां
देखीं, नजर
फेर ली। आखिर
उसने अपने झोपड़े
में आग लगा
दी। सारा गांव
इकट्ठा हो
गया। और वह
छाती पीट—पीटकर,
हाथ जोर से
ऊंचे उठा—उठाकर
रोने लगी—लुट
गई, लुट गई!
उस भीड़ में से
किसी ने पूछा
कि अरे, तू
लुट गई यह तो
ठीक, मगर
सोने की चूड़ियां
कब तूने बना
लीं? तो
उसने कहा: अगर
पहले ही पूछा
होता तो लुटती
ही क्यों! यह
आज झोपड़ा
बच जाता, अगर
पहले ही पूछा
होता।
सहानुभूति
की बड़ी आकांक्षा
है—कोई पूछे, कोई दो मीठी
बात करे। इससे
सिर्फ
तुम्हारे भीतर
की दीनता
प्रगट होती है,
और कुछ भी
नहीं। इससे
सिर्फ
तुम्हारे
भीतर के घाव
प्रगट होते
हैं, और
कुछ भी नहीं।
सिर्फ दीनऱ्हीन
आदमी
सहानुभूति
चाहता है।
सहानुभूति एक
तरह की
सांत्वना है,
एक तरह की
मलहम—पट्टी
है। घाव इससे
मिटता नहीं, सिर्फ छिप
जाता है। मैं
तुम्हें घाव
मिटाना सिखा
रहा हूं।
और
दुलारी तक पाठ
पहुंच रहे
हैं। उसका
प्रश्न अर्थपूर्ण
है। प्रश्न कम
है, उसका
निवेदन है।
कहा: "जब मैं
यहां आई थी तब
बहुत अस्वस्थ
थी।'
हूं ही
मैं यहां
इसलिए कि जो
अस्वस्थ हैं, आएं। जो
अपने से टूट
गए हैं, आएं।
ताकि मैं
उन्हें उनसे
ही जोड़ दूं।
"अब
मैं जा रही
हूं पूरी
स्वस्थता
पाकर।'
लेकिन
ख्याल रखना, स्वास्थ्य
का सम्मान
नहीं होता।
इसलिए स्वास्थ्य
को सम्मान न
मिले, तो
परेशान मत
होना।
स्वास्थ्य को
अपमान मिलता
है।
स्वास्थ्य को
सिंहासन नहीं
मिलता, सूली
मिलती है!
स्वास्थ्य की
यही कीमत है; जो चुकाने
को राजी होते
हैं, जो यह
सौदा करने को
राजी होते हैं,
उन्हीं को
स्वास्थ्य
मिलता है। मैं
तुम्हें गीत
दे रहा हूं।
मैं तुम्हें
नृत्य दे रहा
हूं। मैं
तुम्हें
उत्सव दे रहा
हूं। यह उत्सव
कहीं भी
समादृत नहीं
हो सकता। मैं
तुम्हें एक नई
जीवन—ज्योति
दे रहा हूं।
जब तुम वापिस
लौटोगे बुझे दीयों
के पास, तो
बुझे दीए
नाराज होंगे,
प्रसन्न
नहीं होंगे।
इसे बर्दाश्त
न कर सकेंगे
कि जो उन्हें
नहीं हुआ है
वह तुम्हें
कैसे हो गया!
और जिसे
स्वास्थ्य का
थोड़ा—सा भी
अनुभव हुआ है,
उसके भीतर
एक गहन
आकांक्षा
पैदा होती है,
अभीप्सा
पैदा होती है
और—और दूर के
किनारे की
यात्रा करने
की। जब जरा—से
संस्पर्श से
इतना
स्वास्थ्य और
सुख अनुभव होता
है, तो जब
हम बिलकुल ही
डूब जाएंगे, राई—रत्ती
पीछे हम अपने
को बचाएंगे
नहीं, तब
कितना होगा!
अवर्णनीय है,
अनिर्वचनीय
है, अव्याख्य
है!
आज
लहरों का
निमंत्रण पार
से।
मूक
नयनों का
समर्पण प्यार
से।
आज
पूनम की किरण
चंदन लुटाती,
भीगती
रजनी मिलन के
गीत गाती,
रूप
दूना हो गया
शृंगार से।
आज
लहरों का
निमंत्रण पार
से।
कौन
यह मन में गहरता
जा रहा है,
स्वप्न
सा बनकर लहरता
जा रहा है,
भावना
डूबी हुई आभार
से।
आज
लहरों का
निमंत्रण पार
से।
रेशमी
अलकें
जरा—सी झुक गई
हैं,
कांपती
पलकें जरा—सी
रुक गई हैं,
आज
भावों का
विसर्जन भार
से।
आज
लहरों का
निमंत्रण पार
से।
प्रीत
के मधुमास
गाता गीत है,
हर
तरफ ही प्यार
का संगीत है,
गंध
बेसुध हो गई
अभिसार से।
आज
लहरों का
निमंत्रण पार
से।
जैसे—जैसे
रस उमगेगा, दूर का
किनारा
पुकारेगा—कहै
वाजिद पुकार!
वह दूर के
किनारे की
पुकार है। मैं
पुकार रहा हूं
तुम्हें
दूसरे किनारे
से, कि
दुलारी बढ़ो!
कि बढ़ती आओ!
छोड़ना होगा यह
किनारा। इस
किनारे की बड़ी
सुरक्षाएं
हैं, वे भी छोड़नी
होंगी। इस
किनारे के
अपने स्वार्थ
हैं, सुविधाएं
हैं, वे छोड़नी
होंगी। और इस
जगत में मेरे
देखे, सबसे
कठिन बात है—दुखों
को छोड़ना, बीमारियों
को छोड़ना, उदासियों को छोड़ना।
सबसे कठिन बात
है! आनंद को
स्वीकार करना—सबसे
कठिन बात है।
क्योंकि दुख
से तो हम बचपन
से राजी हैं, दुख से तो हम
बचपन से सहमत
हैं। दुख को
तो हमने स्वीकार
कर लिया है कि
यही जीवन का
ढंग है।
और मैं
तुमसे कहता
हूं, दुख जीवन
का ढंग नहीं, जीवन की
विकृति है।
दुख जीवन की
स्वाभाविकता नहीं
है। जीवन को न
जीने के कारण
दुख है। दुख है
जीवन के
लंगड़ेपन के
कारण, जीवन
के कारण नहीं।
और लंगड़ेपन को
तुमने सीख लिया
है। हमें सब
तरफ से बांध
दिया गया है।
छोटी—छोटी
धारणाओं से
बांध दिया गया
है, व्यर्थ
की धारणाओं से
बांध दिया गया
है।
एक
व्यर्थ की
धारणा हमें
सिखा दी गई है
कि तुम्हें
दुखी होना ही
पड़ेगा, क्योंकि
पिछले जन्मों
का कर्म
तुम्हें भोगना
है। यह धारणा
अगर मन में
बैठ गई कि मैं
पिछले जन्मों
के कर्मों को
भोग रहा हूं, तो सुख का
उपाय कहां है?
इतने—इतने
जन्म! कितने—कितने
जन्म! चौरासी
कोटि योनियां!
इनमें कितने
पाप किए होंगे,
थोड़ा हिसाब
तो लगाओ! इन
सारे पापों का
फल भोगना है।
सुख हो कैसे
सकता है! दुख
स्वाभाविक
मालूम होने
लगेगा। ये
आदमी को दुखी
रखने की
ईजादें हैं।
मैं
तुमसे कहता
हूं: कोई पाप
नहीं किए हैं, कोई कर्म का
फल नहीं भोगना
है। तुम अभी
जागे ही नहीं,
तुम अभी हो
ही नहीं, पाप
क्या खाक
करोगे! पाप
बुद्ध कर सकते
हैं। लेकिन
बुद्ध पाप
करते नहीं।
अकबर
की सवारी
निकलती थी और
एक आदमी अपने
मकान की
मुंडेर पर चढ़
गया और
गालियां बकने
लगा। सम्राट
को गालियां!
तत्क्षण पकड़
लिया गया।
दूसरे दिन
दरबार में
मौजूद किया
गया। अकबर ने
पूछा: तू पागल
है! क्या कह
रहा था? क्यों
कह रहा था? उसने
कहा मुझे
क्षमा करें, मैंने कुछ
कहा ही नहीं।
मैंने शराब पी
ली थी। मैं
बेहोश था। मैं
था ही नहीं!
अगर आप मुझे
दंड देंगे, तो ठीक नहीं
होगा, अन्याय
हो जाएगा। मैं
शराब पीए था।
अकबर
ने सोचा और
उसने कहा: यह
बात ठीक है; दोष शराब का
था, दोष
तेरा नहीं था।
तू जा सकता
है। मगर अब
शराब मत पीना।
शराब पीने का
दोष तेरा था।
शराब पीने के
बाद जो कुछ तेरे
मुंह से निकला,
उसमें तेरा
हाथ नहीं, यह
बात सच है।
आज भी
अदालत पागल
आदमी को छोड़
देती है, अगर
पागल सिद्ध हो
जाए। क्यों? क्योंकि
पागल आदमी का
क्या दायित्व?
किसी पागल
ने किसी को
गोली मार दी।
अदालत क्षमा
कर देती है, अगर सिद्ध
हो जाए कि
पागल है।
क्योंकि पागल
आदमी को क्या
दोष देना, उसे
होश ही नहीं
है!
तुम
होश में रहे
हो? ये जो
चौरासी कोटि योनियां
जिनके संबंध
में तुम
शास्त्रों
में पढ़ते हो, तुम होश में
थे? तुम्हें
एकाध की भी
याद है? अगर
तुम होश में
थे, तो याद
कहां है? तुम्हें
एक बार भी तो
याद नहीं आती
कि तुम कभी वृक्ष
थे, कि तुम
कभी एक पक्षी
थे, कि तुम
कभी जंगल के
सिंह थे।
तुम्हें याद
आती है कुछ? शास्त्र
कहते हैं; तुम्हें
याद नहीं। और
तुम गुजरे हो
चौरासी कोटि
योनियों से।
तुम
बेहोश थे, तुम
मूर्च्छित
थे। मूर्च्छा
में जो भी
किया गया, उसका
क्या मूल्य है?
परमात्मा
अन्याय नहीं
कर सकता। इस
दुनिया की अदालतें
भी इतना
अन्याय नहीं
करतीं, तो
परमात्मा तो
परम कृपालु है,
वह तो महाकरुणावान
है। सूफी कहते
हैं—रहीम है, रहमान है, करुणा का
स्रोत है। इस
जगत की
अदालतें, जिनको
हम करुणा का
स्रोत कह नहीं
सकते, वे
भी क्षमा कर
देती हैं
मूर्च्छित
आदमी को।
मैं
तुमसे कहता
हूं बार—बार:
तुम जागो, उसके बाद ही
तुम्हारे
कृत्यों का
लेखा—जोखा हो
सकता है। यह
मैं एक अनूठी
बात कह रहा हूं,
जो तुमसे
कभी नहीं कही
गई है। मैं
अपने अनुभव से
कह रहा हूं।
मुझे चौरासी
कोटि योनियों
के पाप नहीं
काटने पड़े और
मैं उनके बाहर
हो गया हूं।
तुम भी हो
सकते हो। तुम्हें
भी काटने की
झंझट में पड़ने
की कोई जरूरत नहीं
है। और काट
तुम पाओगे
नहीं, वह
तो सिर्फ दुखी
रहने का ढंग
है। वह तो दुख
को एक
व्याख्या
देने का ढंग
है। वह तो दुख
में भी अपने
को राजी कर
लेने की
व्यवस्था, आयोजन
है। क्या करें,
अगर दुख है
तो जन्मों—जन्मों
के पापों के
कारण है। जब कटेंगे
पाप, जब फल
मिलेगा, तब
कभी सुख होगा—होगा
आगे कभी।
ऐसा ही
तुम पहले भी
सोचते रहे, ऐसा ही तुम
आज भी सोच रहे
हो, ऐसा ही
तुम कल भी
सोचोगे, अगले
जन्म में भी
सोचोगे। जरा
सोचो, फर्क
क्या पड़ेगा? अगले जन्म
में तुम कहोगे
कि पिछले
जन्मों के पापों
का फल भोग रहा
हूं। और अगले
जन्म में भी तुम
यही कहोगे।
तुम सदा यही
कहते रहोगे, तुम सदा यही
कहते रहे हो।
तुम दुख से
बाहर कब होओगे?
और तुम्हें
किसी एक जन्म
की याद नहीं
है। तुम्हें—पिछले
जन्मों की तो
फिक्र छोड़ो—तुम्हें
अभी भी याद
नहीं है कि
तुम क्या कर
रहे हो। तुम
अभी भी होश
में कहां हो? तुम्हारे
पास होश का
दीया कहां है?
सिर्फ
बुद्ध—पुरुष
अगर पाप करें, तो
उत्तरदायी हो
सकते हैं। मगर
वे पाप करते
नहीं, क्योंकि
जाग्रत
व्यक्ति कैसे
पाप करे? अब
तुम मेरी बात
समझो। जाग्रत
व्यक्ति कैसे
पाप करे? और
सोया व्यक्ति,
मैं कहता
हूं, कैसे
पुण्य करे? जैसे अंधा
आदमी तो टटोलेगा
ही, ऐसा
मूर्च्छित
आदमी तो गलत
करेगा ही।
जैसे अंधा
आदमी टेबल—कुर्सी
से टकराएगा
ही। दरवाजे से
निकलने के
पहले हजार बार
उसका सिर
दीवारों से
टकराएगा; स्वाभाविक
है। आंख वाला
आदमी क्यों टकराए? आंख
वाला आदमी
दरवाजे से
निकल जाता है।
आंख वाले आदमी
को दीवारें
बीच में आती
ही नहीं, न कुर्सियां,
न टेबलें,
कुछ भी बीच
में नहीं आता।
न वह टटोलता
है, न वह
पूछता है कि
दरवाजा कहां
है? सिर्फ
दरवाजे से
निकल जाता है।
हां, आंख
वाला आदमी अगर
दीवार से टकराए,
तो हम दोष
दे सकते हैं, कि यह तुम
क्या कर रहे
हो? मगर
आंख वाला
टकराता नहीं।
और जिसको हम
दोष देते हैं,
वह अंधा है।
एक
अंधा आदमी एक
रात अपने
मित्र के घर
से विदा हुआ।
जब चलने लगा, तो अमावस की
अंधेरी रात थी,
मित्र ने
कहा कि ऐसा
करो, लालटेन
लेते जाओ, रात
बहुत अंधेरी
है।
अंधा
हंसने लगा, उसने कहा: यह
भी खूब मजाक
रही। मुझे तो
दिन और रात सब
बराबर है, लालटेन
लेकर मैं क्या
करूंगा? लालटेन
होने से भी
मुझे दिखाई
पड़ने वाला
नहीं। मुझे
दिखाई ही पड़ता
होता तो क्या
कहना था। यह
भी तुमने खूब
मजाक किया!
क्या मेरा
व्यंग्य कर
रहे हो—मुझ
अंधे का? दया
खाओ, व्यंग्य
तो न करो।
लेकिन
मित्र
व्यंग्य नहीं
कर रहा था।
मित्र ने कहा, कि नहीं, व्यंग्य
और मैं करूं? मैं तो
इसलिए कह रहा
हूं कि लालटेन
हाथ में ले
जाओ, यह तो
मैं भी जानता
हूं तुम्हें
दिखाई नहीं पड़ेगा,
लेकिन
तुम्हारे हाथ
में लालटेन
होगी तो कोई दूसरा
तुमसे न टकराए,
कम से कम
इतना तो हो
जाएगा। नहीं
तो अंधेरे में
कोई दूसरा
टकरा जाए। तुम
दूसरों को
दिखाई पड़ते
रहोगे, यह
भी क्या कम है?
लालटेन तो
ले जाओ। यह
तर्क जंचा, अंधे को भी
जंचा, कि
बात तो सच है, लालटेन हाथ
में होगी कोई
दूसरा मुझसे
नहीं टकराएगा।
यह भी कुछ कम
नहीं है। पचास
प्रतिशत तो
सुरक्षा हो
गई! चला लेकर।
मगर
वहीं भूल हो
गई, उसी तर्क
में भूल हो
गई। तर्क
अक्सर ऐसी ही
भ्रांतियों
में ले जाते
हैं। तर्क से
लिए गए
निष्कर्ष
अक्सर भ्रांत
होते हैं। दस
कदम भी नहीं
चल पाया था कि
कोई आदमी आकर
टकरा गया।
अंधा तो बड़ा
नाराज हुआ।
चिल्लाया:
क्या तुम भी
अंधे हो!
लालटेन नहीं
दिखाई पड़ती? लालटेन ऊंची
करके दिखाई।
उस आदमी ने
कहा कि सूरदास
जी, क्षमा
करें, आपकी
लालटेन बुझ गई
है।
अब
अंधे की
लालटेन बुझ
जाए, तो उसे
कैसे पता चले?
और मैं कहता
हूं, तर्क
की बड़ी
भ्रांति हो
गई। अंधा अगर
बिना लालटेन
के चलता, तो
अपनी लकड़ी
ठोंककर चलता,
आवाज करता
चलता, पुकारता
चलता—कि भाई
मैं आ रहा हूं,
ख्याल रखना!
आज लालटेन के
नशे में चल
रहा था। उसने
फिर लकड़ी भी
नहीं पटकी, आवाज भी
नहीं दी, और
उपाय ही छोड़
दिए। जब
लालटेन हाथ
में है, तो
अब क्या लकड़ी
पटकनी और क्या
आवाज देनी? आज अकड़ से
चला। इसके
पहले तो लकड़ी
ठोंककर चलता
था, ताकि
लोगों को पता
रहे कि अंधा आ
रहा है। आज लकड़ी
ठोंककर नहीं
चला। तर्क ने
बड़ी भ्रांति
पैदा कर दी।
मूर्च्छित
आदमी, तुम्हें
जरा भी तो याद
नहीं पिछले
जन्मों की। पिछले
जन्मों को तो
छोड़ दो, पता
नहीं हुए भी
हों न हुए हों,
कौन जाने? तुम्हें मां
के गर्भ की
याद है? नौ
महीने की
तुम्हें याद
है जो तुमने
मां के गर्भ
में गुजारे?
यह तो पक्का
है कि नौ
महीने मां के
गर्भ में गुजारे।
इसमें तो शक
नहीं करेगा
कोई, नास्तिक
भी शक नहीं
करेगा। लेकिन
तुम्हें याद
है? तुम्हें
कुछ एकाध भी
याद है? कुछ
सुरत आती है? छोड़ो मां के गर्भ
की भी, क्योंकि
मां के गर्भ
में बंद पड़े
थे एक कोठरी में।
लेकिन गर्भ से
पैदा हुए, कोठरी
के बाहर आए थे,
तुम्हें
जन्म के क्षण
की याद है? तब
तो आंखें खुली
थीं न! कान भी
खुल गए थे।
देखा भी था, सुना भी
होगा।
तुम्हें याद
है? कुछ
याद नहीं। अगर
तुम पीछे
याददाश्त में
लौटोगे, तो
ज्यादा से
ज्यादा चार
साल की उम्र
तक जा पाओगे।
फिर चार साल
बिलकुल खाली
पड़े हैं। जन्म
के दिन से
लेकर चार वर्ष
की उम्र तक
कुछ भी याद
नहीं आता—कोरे
पड़े हैं। जब
इस जीवन की यह
हालत है, तो
तुम्हें
पिछले जन्मों
की क्या याद!
और
तुमने कितनी
बार तय किया
है कि अब
क्रोध नहीं
करेंगे, अब
चाहे कुछ भी
हो जाए, क्रोध
नहीं करेंगे।
और किसी ने
गाली दे दी और
क्रोध आ गया।
तब तुम बिलकुल
भूल गए हो—कितनी
बार कसम खाई
थी कि क्रोध न
करेंगे। तुम्हारी
याददाश्त का
भरोसा क्या? क्रोध करके
फिर पछताए
हो।
मैं
ऐसे लोगों को
जानता हूं, जो रोज कसम
खाकर सोते हैं
रात कि कल
सुबह तो ब्रह्ममुहूर्त
में उठना है। अलार्म
भी भर देते
हैं। और खुद
ही अलार्म को
जोर से पटक
देते हैं हाथ,
बंद कर देते
हैं। और फिर
सुबह पछताते
हैं। जब आठ
बजे उठते हैं,
फिर पछताते
हैं, कि आज
फिर भूल हो गई!
कल फिर कोशिश
करेंगे। यह वे
जिंदगी भर से
कर रहे हैं।
यह भी उनकी
आदत का हिस्सा
हो गया है—अलार्म
बजाना, बंद
करना, फिर
सुबह पछताना—यह
सब उनकी शैली
हो गई है। रोज
रात तय करके
सोना कि सुबह
उठना है...।
क्या
तुम्हारी
याददाश्त है? जो आदमी
सांझ तय करके
सोता है कि
सुबह उठना है,
वही आदमी
बिस्तर पर
सुबह कहता है—छोड़ो भी, इतनी जल्दी
क्या है? आज
क्या, कल
उठेंगे। वही
आदमी दो घंटे
बाद पछताता है,
कि
कैसा...फिर
मैंने वही भूल
कर दी!
तुम्हारा
होश कितना है? तुम बिलकुल
बेहोश हो। तुम
जरा चेष्टा
करो, रास्ते
पर चलो और
ख्याल रखो कि
चलने का होश
रहे कि मैं चल
रहा हूं।
मिनिट भी न
बीत पाएगा कि
होश खो जाएगा,
तुम हजार
दूसरी बातों
में खो जाओगे।
तब अचानक याद
आएगी एक बार—अरे,
मैं कहां
चला गया! मैं
क्या सोचने
लगा!
जरा
घड़ी—भर बैठ
जाओ आंख बंद
करके और कहो
कि शांत बैठेंगे; विचार न
करेंगे। क्षण—भर
भी तो
निर्विचार
नहीं हो पाते
हो। इतनी तो तुम्हारी
अपने पर
स्वामित्व की
दशा है! अपने विचार
को भी रोक
नहीं पाते, कर्म को तुम
क्या बदल
पाओगे? विचार
जैसी निर्जीव
चीज, थोथी,
कूड़ा—करकट जैसी, उसको भी
नहीं रोक
पाते! अगर कोई
विचार
तुम्हारे सिर
में घूमने ही
लगे, तुम
उसको लाख
हटाने की
कोशिश करो, नहीं हटता।
तुम्हारा वश
कितना है!
ऐसी
अवश दशा में
तुम्हारे पिछले
जन्मों के पाप
तुम्हें दुख
दे रहे हैं, तो फिर दुख
से कोई
छुटकारे का
उपाय होने
वाला नहीं है।
मैं
तुमसे कहता
हूं, पिछले
जन्मों से
दुखों का कोई
लेना—देना
नहीं है। दुख
अगर किसी कारण
हो रहा है, तो
तुम
मूर्च्छित हो
अभी इस कारण
दुख हो रहा है।
मूर्च्छा दुख
है। जागो!
और जागने में
कोई बाधा नहीं
डाल रहा है
सिवाय तुम्हारी
अपनी
मूर्च्छा की
आदत के और
मूर्च्छा के
साथ तुम्हारे
पुराने
संबंधों के, कोई बाधा
नहीं है।
लकीरें
पड़ गई हैं, लीक पर चल
रहे हो! दुखी
होने की आदत
हो गई है। भूल
ही गए हो—मुस्कुराना
कैसे? भूल
ही गए हो—नाचना
कैसे? बस
उतनी ही याद
दिलाना चाहता
हूं।
मत लाओ
बीच में ये
सिद्धांत, अन्यथा तुम
कभी आनंद को
उपलब्ध न हो
सकोगे। लेकिन
खूब सिद्धांत
हमने बनाए
हैं! हम कहते
हैं: पहले
पुण्य करेंगे,
फिर आनंद
मिलेगा। और
मैं तुमसे
कहता हूं:
आनंदित हो जाओ,
तो
तुम्हारे
जीवन में
पुण्य का
कृत्य शुरू हो
जाए। आनंद से
पुण्य पैदा
होता है। आनंद
पुण्य का
परिणाम नहीं है,
पुण्य आनंद
का परिणाम है।
तो
दुलारी, स्वास्थ्य
की थोड़ी—सी
भनक तेरे कान
में पड़ी है, इसको गहरा!
दुख का जाल पकड़ना
चाहेगा। दुख
की पुरानी
आदतें हमला बोलेंगी।
सम्हालना
अपने को। जगाए
रखना अपने को।
जागते रहो, तो सत्संग
जारी है। सो
जाओ, सत्संग
खो जाता है।
दूसरा
प्रश्न:
चूंकि
हम अपनी
व्यक्तिगत
समस्याएं
स्वयं हल नहीं
कर पाते, क्या इस
कारण लिया गया
संन्यास उचित
है?
मूल
प्रश्न
अंग्रेजी में
है—इज इट
फेअर टु टेक
संन्यास, बिकाज यू कैननाट
साल्व योर
पर्सनल प्राब्लम्स?
पूछा
है डाक्टर
राजेंद्र आई.
देसाई ने।
डाक्टर देसाई, संन्यास का
संबंध
समस्याओं को
हल करने से है
ही नहीं। मैं
समस्याएं हल
नहीं करता।
मैं व्यक्तिगत
समस्याएं हल
नहीं करता, मैं तो
व्यक्ति को
मिटाने का
उपाय बताता
हूं जिससे
सारी
समस्याएं
पैदा होती
हैं।
तुम
कहते हो:
चूंकि हम अपनी
व्यक्तिगत
समस्याएं
स्वयं हल नहीं
कर पाते...।
तुम तो
पैदा करते हो, हल कैसे
करोगे? तुम्हीं
तो पैदा करने
वाले हो, हल
कैसे करोगे? तुम्हीं तो
समस्या हो, हल कौन
करेगा? स्व
जाए, तो
स्वयं से पैदा
होने वाली
समस्याएं
जाएं। इसलिए
तुम यह मत
सोचना कि
संन्यास कोई
समस्याओं को
हल करने की
विधि है। हम
तो जड़ काटते
हैं, शाखाएं
नहीं। पत्ते—पत्ते
क्या काटना!
और एक पत्ता
काटो तो तीन
निकल आते हैं।
एक समस्या हल
करो, तीन
पैदा हो
जाएंगी। यही
रिवाज है।
तुमने देखा न,
वृक्ष को
घना करना हो
तो पत्ते काट
देता है माली।
क्यों? क्योंकि
जानता है, वृक्ष
क्रोध में आ
जाएगा; एक
पत्ता काटा, वृक्ष उत्तर
में तीन पत्ते
पैदा करता है।
माली को हराने
की चेष्टा
शुरू हो जाती
है—कि समझा
क्या है तूने
अपने को! एक
शाखा काटो, तीन शाखाएं
निकल आती हैं।
वृक्ष घना
होने लगता है।
वृक्ष भी जवाब
देता है, चुनौती
अंगीकार कर
लेता है।
अहंकार
में समस्याएं
लगती हैं, अहंकार के
वृक्ष पर
समस्याओं के
पत्ते लगते हैं,
शाखाएं—प्रशाखाएं
ऊगती
हैं। तुम एक
समस्या हल करो,
और तीन
समस्याएं
उसकी जगह खड़ी
हो जाएंगी।
तुम एक प्रश्न
का उत्तर खोजो,
और उसी
उत्तर में से
तीन नए प्रश्न
खड़े हो जाएंगे।
यही तो पूरे
मनुष्य का
इतिहास है।
जाल छूटता
नहीं, बढ़ता
चला जाता है।
हम तो
जड़ काटते हैं, हम तो मूल
काटते हैं। हम
कहते हैं, पत्ते—पत्ते
क्या उलझना? और मजा यह है
कि जड़ दिखाई
नहीं पड़ती। वह
भी वृक्ष की
तरकीब है, क्योंकि
दिखाई पड़े तो
कोई काट दे।
तो वृक्ष जड़
को छिपाकर
रखता है, उसको
जमीन में
छिपाकर रखता
है—अंधेरे में
दबी रहती है
जड़। पत्ते ऊपर
भेज देता है, कोई डर नहीं—कट
भी जाएंगे, लुट भी
जाएंगे, पक्षी
ले जाएंगे, जानवर चर
लेंगे, आदमी
छांट देंगे—कोई
फिक्र नहीं। अगर
जड़ें शेष हैं,
तो फिर
पत्ते निकल
आएंगे। पत्ते
मूल्यवान नहीं
हैं। पत्तों
का आना—जाना
होता रहता है।
पतझड़ में
अपने—आप गिर
जाएंगे, अगर
किसी ने न भी
छीने तो। वसंत
में फिर पुनः
अंकुरित हो
जाएंगे। बस
जड़ें बची रहनी
चाहिए।
देखते
हो, वृक्ष
जड़ों को कैसे
छिपाकर रखता
है! किसी को
पता ही नहीं
होने देता।
अगर तुम पूरा
वृक्ष भी काट
दो तो भी कोई
फिक्र नहीं है
वृक्ष को।
जड़ें शेष हैं,
तो नए अंकुर
निकल आएंगे।
ऐसी ही अवस्था
तुम्हारी है।
समस्याएं ऊपर
हैं, समस्याओं
की जड़ भीतर
है। जड़ है—अहंकार।
संन्यास
का अर्थ होता
है—अहंकार का
समर्पण।
संन्यास का और
क्या अर्थ है? संन्यास का
इतना अर्थ है—मैं
थक गया, अब
मैं अपने मैं
को छोड़ता हूं।
और
डाक्टर देसाई
को वही अड़चन
हो रही है।
संन्यास लेना
चाहते होंगे, नहीं तो
प्रश्न ही न
उठता। डाक्टर
हैं, पढ़े—लिखे हैं, सम्मानित
हैं। सूरत के
डाक्टर हैं, प्रसिद्ध
हैं वहां, डरते
होंगे—लोग
देखेंगे
गैरिक
वस्त्रों में,
कहेंगे कि
एक अच्छा भला
आदमी और पागल
हुआ! मरीज भी
संदिग्ध हो
जाएंगे कि अब
इनसे आपरेशन
करवाना? क्या
भरोसा
संन्यासियों
का! आपरेशन
करते—करते
कुंडलिनी
ध्यान करने
लगें! इनसे
दवा लेनी? क्या
भरोसा पागलों
का! डर लगता
होगा।
मैं
डाक्टर देसाई
की तकलीफ
समझता हूं, डर लगता
होगा।
संन्यास का मन
में भाव तो
उठा है, नहीं
तो प्रश्न ही
नहीं उठता।
लेकिन अब बचना
भी चाहते हैं।
और बचना इस
ढंग से चाहते
हैं, जिसमें
सम्मान भी शेष
रहे।
तो वे
पूछ रहे हैं:
चूंकि हम अपनी
व्यक्तिगत
समस्याएं
स्वयं हल नहीं
कर पाते, क्या
इस कारण लिया
गया संन्यास
उचित है?
फिर
संन्यास कब
लोगे? जब
सारी
व्यक्तिगत
समस्याएं हल
कर लोगे तब! फिर
संन्यास की
जरूरत क्या
होगी? यह
तो ऐसे ही हुआ
कि कोई मरीज
डाक्टर के पास
तब जाए, जब
स्वस्थ हो
जाए। डाक्टर
देसाई डाक्टर
हैं, इसलिए
यह उदाहरण ठीक
होगा। कोई
मरीज कहे कि
क्या हम अपनी
बीमारी खुद
ठीक नहीं कर
सकते, इसलिए
डाक्टर के पास
जाना उचित
होगा? जाएंगे,
जब बीमारी
चली जाएगी।
मगर तब जाने
का अर्थ क्या
होगा? क्या
प्रयोजन होगा?
बुद्ध
ने कहा है, मैं वैद्य
हूं। नानक ने
भी कहा है कि
मैं चिकित्सक
हूं। दुनिया
के बड़े ज्ञानी
वस्तुतः
दार्शनिक
नहीं हैं, चिकित्सक
हैं। बुद्ध ने
कहा है। मुझसे
व्यर्थ के
प्रश्न मत
पूछो, अपनी
मूल बीमारी
कहो और इलाज
लो। अपनी जड़ उघाड़ो और
मुझे काट देने
दो।
मैं भी
चिकित्सक
हूं। आखिर
डाक्टरों को
भी तो चिकित्सक
की जरूरत पड़ती
है न!
समस्याएं हल
करके आओगे, फिर तो कोई
जरूरत न रह
जाएगी।
भय
क्या है? अहंकार
बाधा डालता
है। अहंकार
कहता है, किसी
के सामने जाकर
अपनी
समस्याएं
प्रगट करना? छिपाए रहो
भीतर, मत
कहो किसी से।
ऊपर एक मुखौटा
लगाए रहो कि
अपनी कोई
समस्याएं
नहीं हैं। ऊपर
चाहे दूसरों
को धोखा दे लो,
भीतर तो
समस्याएं हैं
और तुम तो जलोगे
उनकी आग में, तुम तो तड़पोगे
उनकी आग में।
और
अक्सर कुछ
व्यवसाय ऐसे
हैं—जैसे
डाक्टर का
व्यवसाय, मनोवैज्ञानिक
का व्यवसाय, कि ये अपनी
समस्याएं
प्रगट नहीं कर
सकते, क्योंकि
ये दूसरों की
समस्याएं हल
करते हैं।
इनको डर लगता
है—अगर हम
अपनी
समस्याएं
प्रगट करें, तो लोगों को
पता न चल जाए
कि ये तो खुद
ही अभी परेशान
हैं! अगर
डाक्टर बीमार
हो जाता है, तो खबर नहीं
करना चाहता कि
किसी को पता
चले कि मैं
बीमार हो गया
हूं। क्योंकि
बीमारों को अगर
पता चल जाए कि
डाक्टर खुद ही
बीमार होता है,
तो कहीं
बीमार छिटक न
जाएं। तो
डाक्टर को
छिपाना पड़ता
है। अगर
मनोवैज्ञानिक
मानसिक रोग से
ग्रस्त होता
है, तो
किसी को बता
नहीं पाता, छिपाता है।
यह
तुम्हें
मालूम है, कि
मनोवैज्ञानिक,
किसी भी
दूसरे
व्यवसाय की
बजाय दुगनी
मात्रा में
पागल होते
हैं! और किसी
भी व्यवसाय के
मुकाबले दुगनी
मात्रा में
आत्महत्या
करते हैं!
यह तो
होना नहीं
चाहिए।
मनोवैज्ञानिक
तो दूसरों को
सुलझाने का
उपाय करता है, जिनके मन गुत्थियां
बन गए हैं। ये
खुद ही दुगनी
संख्या में
आत्महत्या
करें, यह
बात तो शोभादायक
नहीं मालूम होती!
यह खुद ही
दुगुनी
मात्रा में
पागल हों, यह
बात तो ठीक
नहीं मालूम
होती।
लेकिन
इसके पीछे
कारण है। और
कारण यही है
कि मनोवैज्ञानिक
बेचारा अपने
दुख किससे कहे? और सब तो
अपने दुख
मनोवैज्ञानिक
के पास ले आते
हैं और उसके
सिर में डाल
आते हैं। वह
सारे लोगों की
चिंताएं लेकर
विचार करता
है। उसकी
चिंताएं कौन
ले? और
डरता भी है कि
अगर मैं अपनी
चिंताएं
प्रगट करूं, तो इसका
परिणाम
व्यवसाय पर
बुरा होगा।
इसलिए ऊपर से
एक मुखौटा
लगाए रखता है,
मुस्कुराता
रहता है।
समस्याएं
भीतर इकट्ठी होती
जाती हैं, वह
ऊपर
मुस्कुराता
रहता है। वह
ऊपर से सलाहें
देता रहता है
उन्हीं
समस्याओं के
हल करने की, जो वह अपनी
भी अभी हल
नहीं कर पाया
है।
यही
भेद है एक
मनोवैज्ञानिक
में और एक सदगुरु
में। सदगुरु
वह है, जिसकी
समस्याएं हल
हो गईं। जिसकी
अब कोई समस्या
नहीं है।
मनोवैज्ञानिक
वह है, जिसकी
अभी उतनी ही
समस्याएं हैं
जितनी मरीजों
की। लेकिन
उसने उधार ज्ञान
इकट्ठा कर
लिया है, उधार
उत्तर इकट्ठे
कर लिए हैं।
उन उत्तरों के
सहारे वह
दूसरों को
सहयोग देता
है। और कभी—कभी
अंधेरे में
चलाए गए तीर
भी लग जाते
हैं, यह
दूसरी बात। लग
गया तो तीर, नहीं लगा तो
तुक्का! कभी—कभी
अंधेरे में
चलाए तीर भी
लग जाते हैं।
एक
प्रदर्शनी
भरी थी, उसमें
मुल्ला नसरुद्दीन
अपने
शागिर्दों को
लेकर
प्रदर्शनी
दिखाने ले गए।
वहां कई स्टाल
थे। एक स्टाल
पर तीरंदाजी
चल रही थी, लोग
तीर चला रहे
थे, दांव
लगा रहे थे।
रुपए लगाने
पड़ते थे, और
अगर तीर लग
जाए तो उससे
पांच गुने
रुपए
दुकानदार
देता था। तीर
न लगे तो
तुम्हारे
रुपए डूब गए।
मुल्ला ने
जाकर रुपए रखे,
टोपी
संभाली, प्रत्यंचा
खींची, अपने
शागिर्दों को
कहा: गौर से
देखो! सारे
शिष्य खड़े हो
गए, दुकानदार
भी उत्सुक हुआ
कि मामला क्या
है? और
मुल्ला
शानदार आदमी
मालूम पड़ता है—बुजुर्ग,
और शिष्य भी
हैं कोई दस—बीस
साथ में, कोई
पहुंचा हुआ
पुरुष है।
उसने
बड़ी शान—बान
से तीर चलाया।
और जो होना था
वह हुआ। तीर पहुंचा
ही नहीं वहां
तक, लगने की
तो बात दूर, बीच में ही
गिर गया। भीड़
जो खड़ी थी, हंसने
लगी। भीड़
इकट्ठी हो गई
थी देखने। खूब
लोग खिलखिलाकर
हंसने लगे कि
यह भी खूब रहा
मामला। इतनी
शान से आए—बड़ी
टोपी वगैरह
लगाकर और चूड़ीदार
पजामा, अचकन, गांधी
टोपी—इतनी शान
से आए, इतने
शिष्यों को
लेकर आए और
तीर वहां तक
पहुंचा ही
नहीं! लोग
हंसे।
मुल्ला
ने कहा: चुप नासमझो!
अपने शिष्यों
से कहा: सुनो, देखा, यह
उस तीरंदाज का
तीर है, जिसे
अपने पर भरोसा
नहीं।
सन्नाटा
छा गया, कि
मामला क्या है?
यहां तो कोई
शिक्षण चल रहा
है! यह उस
तीरंदाज का
तीर है, जिसको
अपने पर भरोसा
नहीं है।
चलाता जरूर है,
लेकिन
पहुंच ही नहीं
पाता। दूसरा
तीर उठाया, फिर टोपी सम्हाली,
तीर चलाया;
इस बार पूरी
ताकत लगा दी।
तीर पार निकल
गया, निशान
के ऊपर से पार
निकल गया, लगा
ही नहीं। फिर
लोग हंसे।
उसने
कहा: तुम नासमझो, चुप रहोगे
कि नहीं!
शिष्यों से
कहा: सुनो, यह
उस तीरंदाज का
तीर है, जो
जरूरत से
ज्यादा
आत्मविश्वास
से भरा है।
अब तो
लोग फिर
सन्नाटे में आ
गए, कि बात
कुछ गहरी हो
रही है! यह कोई
तीर ही चलाने की
बात नहीं हो
रही। तीसरा
तीर मुल्ला ने
उठाया, संयोग
की बात कि लग
गया।
दुकानदार के
पास पहुंचा और
कहा: पांच गुने
पैसे!
दुकानदार ने
पैसे तो दे
दिए पांच गुने
और पूछा कि
लेकिन अब इस
तीसरे तीर के
संबंध में कुछ
कहो! उसने कहा:
यह मुल्ला नसरुद्दीन
का तीर है।
जो लग
जाए वह तीर, जो नहीं लगे
वह तुक्का! यह
मुल्ला नसरुद्दीन
का तीर है! अगर
यह भी न लगता, तो वह कोई और
बहाना खोजता।
जब तक न लगता
तब तक वह
बहाने खोजता
जाता।
यही
मनोवैज्ञानिक
कर रहा है। जब
तक नहीं लगता, वह बहाने
खोजता जाता
है। इसलिए
मनोविज्ञान
की प्रक्रिया
बड़ी लंबी चलती
है।
मनोविश्लेषण—तीन
साल, पांच
साल, सात
साल...। और सच तो
यह है कि
मनोविश्लेषण
कभी भी अंत पर
नहीं आता। यह
मुल्ला का तीर
तो लग गया, मनोवैज्ञानिक
का तीर कभी
नहीं लगता।
लेकिन मरीज थक
जाता है, एक
मनोवैज्ञानिक
से दूसरे
मनोवैज्ञानिक
के पास चला
जाता है। वहां
थक जाता है, तो तीसरे के
पास चला जाता
है। ऐसे
जिंदगी चुक जाती
है। लेकिन अब
तक पूरी
पृथ्वी पर
लाखों मनोवैज्ञानिक
हैं, लेकिन
एक भी व्यक्ति
ऐसा नहीं है, जो यह कह सके
कि उसके
मनोविज्ञान
की सारी समस्याएं
उन्होंने हल
कर दी हैं।
उनकी ही हल
नहीं हुई हैं!
लेकिन
मनोवैज्ञानिक
कहां जाए? पश्चिम में
तो सदगुरु
जैसी घटना
घटती नहीं।
इसलिए
मनोवैज्ञानिक
को पूरब आना
पड़ रहा है।
तुम जानकर यह
हैरान होओगे
कि मेरे
संन्यासियों
में हजारों
मनोवैज्ञानिक
हैं, मनोचिकित्सक
हैं। और उनके
आने का कुल
कारण इतना है
कि वे थक गए
हैं; दूसरों
की समस्याएं
कब तक हल करते
रहें, अपनी
अभी हल नहीं
हुई हैं। अब
उनको बात खलने
लगी—हम खुद ही
भ्रांत हैं, हम किसको
समझा रहे हैं?
डाक्टर
देसाई, तुम
अपने को बचाना
चाहते हो—अच्छे
शब्दों के जाल
में कि क्या
यह संन्यास
लेना उचित
होगा? फिर
कब उचित होगा?
अभी औषधि की
जरूरत है!
और
तुम्हें अभी
यह भी पक्का
पता नहीं है
कि तुम्हारी
समस्या क्या
है। समस्याएं
समस्या नहीं
हैं।
समस्याएं तो
पत्ते हैं, समस्या तो
भीतर छिपी है,
वह अहंकार
है। और
संन्यास उसी
जड़ को काटने
की प्रक्रिया
है।
संन्यास
का अर्थ होता
है—समर्पण, किसी के
चरणों में
जाकर अपने को
समर्पित कर देना।
जिससे प्रेम
हो जाए। जिसके
भीतर थोड़ी—सी
उसकी बांसुरी
बजती सुनाई पड़
जाए। जिसके भीतर
से थोड़ी—सी
उसकी हवा की
झलक मिलने
लगे। जिसके
पास उसके
सौंदर्य का
थोड़ा—सा आभास
हो। बस, उसके
चरणों में सब
छोड़ देना। उस
छोड़ने में
क्रांति घट
जाती है।
क्योंकि उस
छोड़ने में
तुम्हारा अहंकार
पहली दफा
झुकता है। वही
झुकना जड़ का
कट जाना है।
हां, अगर न झुके, तो संन्यास
से भी कुछ न
होगा।
संन्यास फिर
ऊपर—ऊपर रह
गया। वर्षा भी
हो गई, मगर
तुम भीगे
नहीं। कुछ सार
न हुआ। भीतर
झुकना! तो
समस्याओं की
समस्या, सारी
समस्याओं का
मूल आधार
विसर्जित हो
जाता है।
डरो
मत! संन्यास
की आकांक्षा
उठी हो, तो
आने दो प्रभु
को भीतर। उसने
पुकारा है, इसलिए उठी
होगी, डाक्टर
देसाई! उसकी
पुकार को
समझो। उसकी
पुकार में
अपनी पुकार भी
जोड़ दो।
सलिल—गीत
उतरो हे! भू
पर।
पावन
रे! तुम
ज्योति—किरण
दो
कुहर—म्लान, मानव—उर—अम्बर।
प्रेम—अमिय
से प्लावित तन—मन,
सजग
तृप्ति—चेतन
जग—जीवन,
करो
भाव के मधुर
रूप—मय,
चरण—शब्द
से निज तुम
सुंदर।
अखिल
सृजन को विमल
दृष्टि दो,
सरस!
तप्त को समय—वृष्टि
दो,
कण—कण
के जीवन में, कल का
कंचन
बन जागो
हे! भास्वर!
मधु
के मधु तुम
आतप के बल,
पावस
के स्वर हिमऱ्हासोज्ज्वल,
युगऱ्युग
के अनुभव से
भव का,
सुभग
करो मग, मग के श्रम—हर।
समगुण, समरस, पूर्ण,
कर्म—सम,
एक
प्रगति
अनुराग, अगम गम,
जन—जिह्वा—जगती
पर विचरो—
यश
के अग्र, व्यथा के
अनुचर।
सलिल—गीत
उतरो हे! भू
पर।
पावन
रे! तुम
ज्योति—किरण
दो
कुहर—म्लान, मानव—उर—अम्बर।
आदमी
का हृदय बहुत
अंधेरे से भरा
है। पुकारो
ज्योति को; वही पुकार
है संन्यास।
सीधे तुम
परमात्मा को न
पुकार सकोगे,
क्योंकि
उसका तुम्हें
कोई अनुभव
नहीं है। इसलिए
किसी ऐसे आदमी
से जुड़ जाओ, जिसे उसका
अनुभव हो।
उसके झरोखे से
झांको।
गुरु
तो एक झरोखा
है। गुरु यानी
गुरुद्वारा। वह
तो द्वार है।
उस द्वार से
तुम झांको
खुले आकाश को।
तुम्हारा
द्वार बंद है।
गुरु के सान्निध्य
में सरको, पास आओ, निकट
आओ। इस निकट
आने का
प्राथमिक चरण
संन्यास है।
संन्यास
है दीक्षा इस
बात की कि अब
मैं पास आना चाहता
हूं, कि मुझे
और पास ले लो, कि मुझे
निकट से निकट
ले लो।
सलिल—गीत
उतरो हे! भू
पर।
पावन
रे! तुम
ज्योति—किरण
दो
कुहर—म्लान, मानव—उर—अम्बर।
मेरा
हृदय बहुत
अंधेरे से भरा, बहुत कुहर—म्लान
है, बहुत
बदलियां भरी
हैं—आओ, उतरो।
मेरे भीतर
शोरगुल ही
शोरगुल है, भीड़—भाड़ है—उतरो
गीत बनकर।
सलिल—गीत
उतरो हे!
इस
पुकार को सुनो, अनसुना न
करो। संन्यास
अगर समर्पण बन
सके, तो
महाक्रांति
है।
समस्याएं
मैं नहीं
सुलझाता, जड़
काट देता हूं,
समस्याएं
अपने आप
तिरोहित हो
जाती हैं।
किसी वृक्ष की
जड़ काट दो; हां,
कुछ दिन तक
वृक्ष के
पत्ते फिर भी
हरे रहेंगे—बस
कुछ दिन तक, फिर अपने—आप
कुम्हला
जाएंगे, गिर
जाएंगे। नए
अंकुर फिर न
आएंगे। जल्दी
ही ठूंठ खड़ा
रह जाएगा। ऐसे
ही मैं जड़
काटता हूं। समस्याओं
को सुलझाने का
कौन झंझट करे,
एक—एक
समस्याएं सुलझाओ।
तो कब सुलझ
पाएंगी? कैसे
सुलझ पाएंगी?
और तुम एक सुलझाओगे,
तब तक
तुम्हारा
पुराना मन दस
नई उलझा लेगा।
यही तो
तुम्हारी
जिंदगी की कथा
और व्यथा है—एक
सुलझ नहीं
पाती, दूसरी
उलझ जाती है।
अक्सर तो ऐसा
हो जाता है कि
एक को सुलझाने
से बचने के
लिए आदमी और
बड़ी समस्या
उलझा लेता है।
क्योंकि जब
बड़े दुख आ
जाते हैं, छोटे
दुख भूल जाते
हैं।
एक
मित्र हैं, अकेले हैं।
उनको अकेले की
समस्या है, एकाकीपन
खलता है।
दूसरे मित्र
हैं, पत्नी
है। उनकी यह
समस्या है कि
दो बर्तन खटकते
हैं, झंझट
होती है।
तीसरे मित्र
हैं, उन्होंने
बच्चे पैदा कर
लिए हैं। पहले
अकेले थे, समस्या
थी। लोगों ने
कहा, दो हो
जाओ, समस्या
हल हो जाएगी।
तो दो हो गए; समस्याएं
दुगुनी हो
गईं! फिर
लोगों ने कहा:
बाल—बच्चे
होने चाहिए, तब समस्या
हल होगी। अब
बाल—बच्चे हो
गए। समस्या तो
हल नहीं हो
रही, समस्याएं
बढ़ रही हैं, अब बाल—बच्चों
की समस्याएं
हैं।
मगर
इसमें एक लाभ
है: जैसे—जैसे
समस्या बड़ी
होती जाती है, जैसे—जैसे
समस्या का जाल
उलझता जाता है,
तुम अपने को
भूलते चले
जाते हो। तुम
इतने व्यस्त
हो जाते हो, फुरसत कहां?
लोगों पर
इतनी चिंताएं
हो जाती हैं
कि चिंतित होने
की भी फुरसत
नहीं बचती!
मुल्ला
नसरुद्दीन
मुझसे एक दिन
कह रहा था कि
अगर आज कोई
दुर्घटना घट
जाए, तो मेरे
पास तीन
सप्ताह तो
फुरसत ही नहीं
है; पहले
की ही
समस्याएं
इतनी खड़ी हैं।
अगर आज कोई
दुर्घटना घट
जाए, तो
मैं तीन
सप्ताह तो
ध्यान भी नहीं
दे पाऊंगा उस
पर। तीन
सप्ताह के
बाद! क्योंकि
तीन सप्ताह तक
के लिए तो
पहले से ही
क्यू लगा है, फुरसत किसे
है?
छोटी
समस्या को
भुलाने के लिए
लोग बड़ी
समस्या खड़ी कर
लेते हैं; जरा इस मन की
चाल को देखना,
पहचानना।
इससे
व्यस्तता बनी
रहती है।
तुम
जरा सोचो, अगर
तुम्हारी
सारी
समस्याएं हल
कर दी जाएं—अभी,
इसी वक्त; एक जादू का
डंडा फिराया
जाए और
तुम्हारी
सारी
समस्याएं हल
कर दी जाएं, तुम एकदम किंकर्तव्यविमूढ़
खड़े रह जाओगे।
तुम कहोगे—अब
क्या करें? अब कहां
जाएं? तुम
कहोगे कि लौटा
दो मेरी
समस्याएं, वापिस
कर दो मेरी
समस्याएं। अब
मैं क्या करूंगा?
मेरा सारा
कृत्य छीन लिया।
मेरे सारे
जीवन का अर्थ
छीन लिया! अब
मेरे होने में
सार क्या है? तुम एकदम
पाओगे
निस्सार हो
गए! इसलिए लोग उलझाए चले
जाते हैं। नई
समस्याएं गढ़ते
चले जाते हैं।
रोते भी रहते
हैं कि
समस्याएं बहुत
हैं और जड़ भी
नहीं काटते।
डाक्टर
देसाई, अगर
आकांक्षा उठी
है संन्यास की
और जड़ काटने
की, तो
चूको मत। मन
तो हजार
तरकीबें
बताएगा। यह तरकीब
बड़ी सुंदर मन
ने बताई, मन
ने कहा कि अभी
क्या संन्यास
लेना, पहले
समस्याएं हल
कर लो! मन
जानता है
भलीभांति कि न
होंगी
समस्याएं हल,
न होगा
संन्यास! पहले
समस्याएं हल
कर लो—कितना
सम्यक विचार
मन ने दिया, कितना साफ—सुथरा!
फिर आना गौरवपूर्वक
संन्यास
लेने। मगर फिर
किसलिए? गौरवपूर्वक अस्पताल
जाकर आपरेशन करवाओगे, जब बीमारी
कोई भी नहीं! किसलिए? क्यों?
मगर
ऐसा दिन कभी
आएगा भी नहीं।
जो मन यह सवाल
उठा रहा है, यह मन नए—नए
सवाल उठाए
जाएगा। मन का
सवाल उठाना
स्वभाव है। मन
नई उलझनें खड़ी
कर लेता है, बड़ी उलझनें
खड़ी कर लेता
है। उन्हीं
उलझनों में
व्यस्त रहता
है। व्यस्त
रहने से ऐसा
लगता है, हम
कुछ कर रहे
हैं।
अपनी
समस्याएं अगर
छोटी पड़ जाती
हैं, तो लोग
दूसरों की
समस्याएं भी
ले लेते हैं।
पास—पड़ोसियों
की सुलझाने
लगते हैं।
अपनी सुलझी
नहीं है, सारे
देश की
सुलझाने लगते
हैं, मनुष्य—जाति
की सुलझाने
लगते हैं।
राजनीति ऐसा
ही उपाय है।
जिनकी अपनी
समस्याएं
नहीं सुलझीं
हैं, वे
दूसरों की
समस्याएं
सुलझा रहे
हैं! इन उपद्रवियों
के कारण
समस्याएं और
उलझ जाती हैं,
सुलझना तो
मुश्किल ही हो
जाता है। अगर
राजनीतिज्ञ
एक सौ वर्ष के
लिए शांत हो
जाएं, तो
निन्यानबे
प्रतिशत
समस्याएं तो
एकदम सुलझ
जाएं, क्योंकि
उनको खड़ा करने
वाला ही कोई न
हो। जरा तुम
सोचो, सारे
दुनिया के
राजनीतिज्ञ
सौ साल के लिए
तय कर लें कि
चुप रहेंगे, नहीं चुनाव
लड़ेंगे, समस्याएं
अपने—आप विदा
हो जाएंगी।
क्योंकि ये ही
खड़ी कर रहे हैं
समस्याएं।
हिंदुस्तानी
राजनीतिज्ञ
पाकिस्तानी
राजनीतिज्ञ
के लिए समस्या
खड़ी कर रहा
है। पाकिस्तानी
राजनीतिज्ञ
हिंदुस्तानी
राजनीतिज्ञ के
लिए समस्या
खड़ी कर रहा
है। दक्षिण का
राजनीतिज्ञ
उत्तर के
राजनीतिज्ञ
के लिए समस्या
खड़ी कर रहा
है। उत्तर का
राजनीतिज्ञ
दक्षिण के लिए
समस्या खड़ी कर
रहा है। बस
समस्याएं खड़ी
कर रहे हैं, एक—दूसरे के
लिए समस्याएं
खड़ी कर रहे
हैं! यह जाल तुम
जरा गौर से
देखो। अगर
राजनीतिज्ञ
सौ साल के लिए
विदा ले लें, तो
निन्यानबे
प्रतिशत
समस्याएं तो
अपने—आप गिर
जाएं। और जो
एक प्रतिशत
बचे वह हल की
जा सकती है।
इन सौ की वजह
से, वह एक
भी हल नहीं हो
पा रही है।
मनुष्य—जाति
खूब उलझ गई
है। और उलझाव
का बड़े से बड़ा
कारण तो यही
है कि बहुत—से
सुलझाव करने
वाले लोग
मौजूद हैं, जो खुद भी सुलझे
नहीं हैं। मगर
उनको एक रस है,
रस यही है
कि वे दूसरों
की बड़ी
समस्याओं में
उलझ जाते हैं,
अपनी भूल
जाते हैं। घर
की छोटी—मोटी
समस्याओं की
कौन फिक्र करे?
जब तुम
प्रधानमंत्री
हो जाओ, तो
कौन फिक्र करे
घर की छोटी—मोटी
समस्याओं की?
बड़ी
समस्याएं
सामने हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक दिन राह से
चला जा रहा था—बड़ा
घिसटता, बड़ा
खीझता, बड़ी
गालियां
बकता। मैंने
पूछा: नसरुद्दीन,
बात क्या है?
तो उसने
कहा: देखते
नहीं, मेरे
पैर सूजे जा
रहे हैं, ये
जूते छोटे
हैं। मगर
मैंने कहा: यह
बात मैं पहले
भी बहुत बार
सुन चुका हूं।
यह रोज का ही
गोरखधंधा है।
तुम दूसरे
जूते क्यों
नहीं खरीद
लेते? ये
दो नंबर छोटे
जूते क्यों
खरीदे? उसने
कहा: यह मैं
कभी नहीं
करूंगा। आप
समझे नहीं, यही जूते तो
मेरे जीवन का
सुख हैं। दिन—भर
इनको गाली
देता हूं, इससे
चित्त लगा
रहता है। एक
काम बना रहता
है। और फिर एक
बड़ा मजा है कि
जब घर लौटता
हूं शाम को, थका—मांदा, इन जूतों से
परेशान, और
जब इनको खोलकर
मैं फेंकता
हूं और बिस्तर
पर लेटता हूं,
तो मैं कहता
हूं—हे प्रभु!
ऐसा आनंद आता
है जूते
निकालने से!
अब ये जूते
मैं छोड़ दूं
तो वह आनंद भी
गया। उतना ही
आनंद है मेरे
जीवन में, और
मेरे जीवन में
कोई आनंद भी
नहीं है।
तुम्हारी
जिंदगी में
आनंद क्या है? तुम्हारे
दुख की फांसी
थोड़ी देर के
लिए हल्की हो
जाती है, बस
वही आनंद है।
तुम दुख छोड़ोगे
कैसे? क्योंकि
उस दुख के साथ
ही तुम्हारा
आनंद भी चला
जाएगा। एक दिन
पत्नी नहीं झगड़ती, बड़ा
सुख मिलता है।
मगर वह इसलिए
मिल रहा है कि वह
रोज झगड़ती
है, ख्याल
रखना। अगर झगड़ना
ही छोड़ दे, तो
सुख भी गया।
फिर कैसा सुख?
तुम्हारा
सुख भी
तुम्हारे दुख
के बीच में से
आता है, तुम्हारे
दुख की ही उप—उत्पत्ति
है।
आओ
मेरे पास, मैं
तुम्हारी जड़ काटूं।
यही काम चल
रहा है। और एक
बार तुम्हारी
जड़ कट जाए, एक
बार तुम्हें
होश आ जाए कि
तुम नहीं हो, परमात्मा
है। बस, हल
आ गया। इसलिए
हम उस दशा को
समाधि कहते
हैं, क्योंकि
उस दशा में
समाधान है।
तीसरा
प्रश्न:
मनुष्य
के हित आपकी
अथक चेष्टा
देखकर मैं चकित
रह जाता हूं।
लेकिन लोग सो
रहे हैं और
सत्य जीना तो
दूर सत्य
सुनने को भी तैयार
नहीं हैं!
अच्युत
बोधिसत्व! मैं
कोई ऐसा काम
नहीं कर रहा हूं, जो मुझे थका
रहा हो। अथक
चेष्टा मत
कहो। मैं थक
ही नहीं रहा
हूं। यह श्रम
है ही नहीं, यह प्रेम
है। मैं इसे
करने में
तुम्हारे ऊपर
कोई कृपा नहीं
कर रहा हूं। स्वांतः सुखाय
रघुनाथ गाथा।
मैं अपने मजे
में रघुनाथ का
गीत गा रहा
हूं। तुम सुन
लेते हो, यह
गौण है। तुम न
आओगे, तो
वृक्षों को
सुनाऊंगा, पक्षियों
से बात कर
लूंगा।
तुम्हारा
होना निमित्त
मात्र है। मैं
तुम पर कोई
कृपा नहीं कर रहा
हूं। तुम मुझे
भूलकर भी
धन्यवाद न
देना। तुम
भूलकर मेरा
अनुग्रह कभी
मानना मत।
क्योंकि उसकी
कोई जरूरत ही
नहीं है। मैं
अपनी मस्ती
में गीत गा
रहा हूं।
तुमने सुन लिया,
यह
तुम्हारी
कृपा है।
तुमने
स्वीकार कर
लिया, तो
मैं तुम्हारा
अनुगृहीत
हूं। चेष्टा
जैसी कोई चीज
ही नहीं है
यहां। मैं कोई
प्रयत्न नहीं
कर रहा हूं।
यह कोई प्रयास
नहीं है। मैं
किसी की सेवा
नहीं कर रहा
हूं।
सेवा
शब्द ही मेरी
दृष्टि में
गंदा है। मैं
तो अपने आनंद
में मस्त हूं।
मैं अपना गीत
गा रहा हूं।
तुम्हें
प्रीतिकर
लगता है, तुम
आ जाते हो, सुन
लेते हो। तुम
सुन लेते हो, तुम पास बैठ
जाते हो, मुझे
गाने की
सुविधा जुटा
देते हो, मैं
तुम्हारा
अनुगृहीत
हूं। न तो कोई
अथक चेष्टा चल
रही है, क्योंकि
यह चेष्टा ही
नहीं है, और
थकने का
कोई प्रश्न ही
नहीं है। अथक
चेष्टा तो वहां
होती है, अच्युत,
जहां लोग
दूसरों की
सेवा करते हैं
कर्तव्य भाव
से—करना है, सेवा करनी
है। मैं क्यों
तुम्हारी
सेवा करूं? कोई क्यों
तुम्हारी
सेवा करे? सब
अपने सुख में जीएं।
एक
ईसाई मां अपने
बच्चे को समझा
रही थी कि बेटा, दूसरों की
सेवा करना
चाहिए। भगवान
ने तुम्हें
इसीलिए बनाया
है कि तुम
दूसरों की
सेवा करो।
बेटा
बुद्धिमान था, उस छोटे—से
बच्चे ने—और
छोटे बच्चे
अक्सर ऐसी बातें
पूछ लेते हैं
कि बूढ़े जवाब
न दे सकें—उस
छोटे बच्चे ने
कहा: यह तो मैं
समझ गया कि
मुझे इसलिए
बनाया है कि
दूसरों की
सेवा करूं।
दूसरों को किसलिए
बनाया है? इसका
भी उत्तर
चाहिए।
मां
जरा मुश्किल
में पड़ी होगी, अब क्या कहे?
अगर कहे, दूसरों को
इसलिए बनाया
है कि तुम
सेवा करो, तो
यह तो बड़ा
अन्याय है, कि मुझको
सेवा करने के
लिए बनाया और
उनको सेवा
करवाने के
लिए! यह तो मूल
से अन्याय हो
गया! अगर मां
यह कहे कि
दूसरों को
इसलिए बनाया
है कि वे तुम्हारी
सेवा करें और
तुम्हें
इसलिए बनाया है
कि तुम उनकी
सेवा करो, तो
बेटा कहेगा, अपनी—अपनी
सब कर लें, क्यों
फिजूल की झंझट
खड़ी करनी!
मैं
यही कह रहा
हूं। इस
दुनिया में
बहुत हो चुकी
दूसरों की
सेवा, कुछ
सार हाथ नहीं
आया। दूसरों
की सेवा के
नाम पर बहुत
थोथे धंधे चल
चुके। सेवा के
नाम पर सत्ताधिकारियों
ने लोगों का
शोषण किया है।
जो भी सेवक बनकर
आता है, आज
नहीं कल
सत्ताधिकारी
हो जाता है।
जो तुम्हारे
पैर दबाने से
शुरू करता है,
एक दिन
तुम्हारी
गर्दन दबाएगा!
जब तुम्हारे
पैर दबाए तभी
चेत जाना, अन्यथा
पीछे बहुत देर
हो जाती है।
फिर चेतने
से कुछ सार
नहीं। क्यों
करेगा कोई
सेवा तुम्हारी?
और सेवा
करेगा, तो
बदला मांगेगा;
पुरस्कार
चाहेगा।
मेरी
दीक्षा यही है
तुम्हें: अपने
आनंद से जीयो।
इतना ही
पर्याप्त
होगा कि तुम
किसी दूसरे के
आनंद में बाधा
न बनो। इतना
ही पर्याप्त
होगा कि तुम
अपने आनंद का
नृत्य नाचो और
अपना गीत गाओ।
शायद
तुम्हारे
आनंद की तरंग
दूसरों को भी लग
जाए और वे भी
आनंदित हो
जाएं। शायद
थोड़ी गुलाल
तुमसे उड़े
और वे भी लाल
हो जाएं! थोड़ा
रंग तुमसे छिटके
और वे भी रंग
जाएं। यह
दूसरी बात है।
तुमने सेवा की, ऐसा सोचना
मत।
कोयल
गाती है। तुम
क्या सोचते हो
कवियों की सेवा
कर रही है, कि लिखो
कविताएं, देखो
मैं गा रही
हूं! जागो कवियो!
उठाओ अपनी
कलमें, लिखो
कविताएं! मैं
आ गई सेवा
करने को फिर।
कि पपीहा
पुकारता है, कि संतो जागो!
कि देखो मैं
पिय को पुकार
रहा हूं, तुम
भी पुकारो!
मैं तुम्हारी
सेवा करने आ
गया। तुम इस
जगत में देखते
हो, कौन
किसकी सेवा कर
रहा है? कोयल
गीत गा रही है—अपने
आनंद से।
पपीहा पुकार
रहा है—अपने
रस में
विमुग्ध हो।
फूल खिले हैं—अपने
रस से। चांदत्तारे
चलते—अपनी
ऊर्जा से। तुम
भी अपने में जीओ।
मैं
तुम्हें सेवक
नहीं बनाना
चाहता। मेरे
पास लोग आ
जाते हैं, वे कहते हैं,
आप अपने
संन्यासियों
को क्यों नहीं
कहते कि जनता
की सेवा करें?
क्यों
करें? क्यों
किसी की कोई
सेवा करे? और
कितने दिन से
सेवा चल रही
है, हजारों
साल हो गए, लाभ
क्या है? मैं
नहीं सिखाता
सेवा करना। और
इसका यह अर्थ
नहीं है कि
तुमसे सेवा
नहीं होगी।
ख्याल समझ लेना,
भेद समझ
लेना। सेवा
तुमसे तभी
होगी, जब
तुम करोगे
नहीं। जब तुम
अपने आनंद में
मग्न हो जाओगे।
जब तुम जागोगे
और तुम्हारा
दीया जलेगा—तब
तुमसे सेवा
होगी।
तुम्हारे
बिना किए होगी।
तुम्हारी
चेष्टा से
मुक्त होगी।
तुम्हारा प्रयास
नहीं होगा।
तुम्हारे
भीतर से
परमात्मा
बहेगा और कुछ
घटनाएं घटेंगी,
लेकिन तुम
उनके कर्ता
नहीं रहोगे—साक्षी
मात्र।
तो मैं
कोई सेवा नहीं
कर रहा, कोई
अथक चेष्टा
नहीं कर रहा।
और तुम
कहते हो, अच्युत,
लोग सो रहे
हैं; सत्य
जीना तो दूर
सत्य सुनने को
भी तैयार नहीं।
उनकी
मर्जी। उन पर
नाराज भी मत
होना। इतनी
स्वतंत्रता
तो होनी चाहिए
कि कोई सत्य
को सुनना चाहे
तो सुने और
सत्य को कोई
जीना चाहे तो
जीए। इतनी
स्वतंत्रता
परमात्मा ने दी
है। ये
स्वतंत्रता
के दो पहलू
हैं। अगर सत्य
भी जबर्दस्ती
थोपा जाता, तो सत्य न रह
जाता। मनुष्य
की गरिमा यही
है कि स्वतंत्र
है। चाहो तो
मूर्च्छित
रहो, सोए
रहो, ओढ़ लो
चादर और। तुम
मालिक हो
अपने। जब मेरी
कोई नहीं सुनता
तो तुम यह मत
सोचना कि मैं
खिन्न होता
हूं या उदास
होता हूं। मैं
देखता हूं
उसकी गरिमा, उसका गौरव, उसकी महिमा।
परमात्मा ने
उसे
स्वतंत्रता
दी है, सुनना
चाहे सुने, न सुनना
चाहे न सुने।
अगर मुझे गाने
की स्वतंत्रता
दी है, तो
कम से कम उसे
सुनने या न
सुनने की
स्वतंत्रता
तो दी ही है न!
मैं कौन हूं
जो मेरी बात
सुने ही? ऐसी
सुनने की कोई
मजबूरी नहीं
है। और फिर
मेरी बात माने
भी?
मगर
तुम्हारे
महात्मा यह
करते रहे हैं।
इसलिए
तुम्हें यह
ख्याल मेरे
संबंध में भी
आ जाते हैं।
तुम्हारे
महात्मा यह
करते रहे हैं—हमारी
सुनो, नहीं
तो हम अनशन कर
देंगे। बड़े
मजे की बात है!
महात्मा
गांधी छोटी—छोटी
चीजों पर
आश्रम में
अनशन कर देते
थे।
ये
अनशन
हिंसात्मक
हैं। इनमें
कहां की अहिंसा
है! कोई आदमी
चाय पी ले
आश्रम में, इतनी भी
स्वतंत्रता
नहीं। और तरकीब
देखते हो, उसके
सिर पर डंडा
लेकर गांधी
खड़े नहीं हो
जाते, इसलिए
हिंसा किसी को
दिखाई भी नहीं
पड़ेगी। मगर एक
सूक्ष्म डंडा
लेकर खड़े हो
गए, जो कि
ज्यादा घातक
है, ज्यादा
संघातक है, ज्यादा
अमानवीय है।
उन्होंने तीन
दिन का उपवास
कर दिया। अब
वह कहते हैं
कि मैं अपने
को मार
डालूंगा, अगर
मेरी नहीं सुनोगे।
इसको वह कहते
हैं
सत्याग्रह!
सब
आग्रह असत्य
के होते हैं, सत्य का कोई
आग्रह होता ही
नहीं। जहां
आग्रह है वहां
असत्य है।
आग्रह क्यों?
मैंने अपनी
बात कही।
तुम्हें
सुननी थी सुन
ली, नहीं
सुननी थी नहीं
सुनी; माननी
थी मान ली, नहीं
माननी थी नहीं
मानी। तुम
तुम्हारे
मालिक, मैं
मेरा मालिक।
इतना ही क्या
कम है कि तुम
मौजूद थे, कि
तुम आए थे।
फिर सुना नहीं
सुना, गुना
नहीं गुना, जीए नहीं
जीए, तुम्हारी
मर्जी। मैं
कोई अनशन नहीं
करूंगा। अनशन
तो हिंसा है।
मैं तुम्हें दबाऊंगा
नहीं। यह तो
तुम्हें सताने
का उपाय है।
अब तुम
थोड़ा सोचो, कि अगर मैं
अनशन कर दूं
और कहूं कि
तुम्हें ऐसा
करना पड़ेगा, यह खाना
पड़ेगा, वह
पीना पड़ेगा, नहीं तो मैं
उपवास करता
हूं, तो
तुम्हारे ऊपर
मैं तुम्हारी
छाती पर पत्थर
रख रहा हूं।
मैं यह कह रहा
हूं कि देखो
तुम सिगरेट
पीना नहीं
छोड़ते और मैं
मरने को तैयार
हूं तुम्हारे
लिए—जरा मेरी
सेवा देखो!
मैं अपनी जान
दे रहा हूं तुम्हारे
लिए और तुम
सिगरेट पीना
नहीं छोड़ सकते!
अब तुम
में अगर थोड़ी
भी ममता होगी, थोड़ा भी
प्रेम होगा, थोड़ी भी दया
होगी, तुम
कहोगे कि यह
भी क्या
सिगरेट पीने
के लिए किसी
की जान जाए!
तुम दबाव
करोगे अपने
पर। तुम कहोगे
कि नहीं; मैं
कसम खाता हूं
अब कभी सिगरेट
न पीऊंगा। मगर
यह दबाव में
ली गई कसम है; यह
जबर्दस्ती
है। यह तो
बंधन हुआ। यह
तो तुम्हारे
ऊपर जंजीर डाल
दी गई! यह
मुक्ति नहीं
है, यह
मुक्ति का
मार्ग नहीं
है।
मैं तो
कह देता अपनी
बात; और मैं
कहता रहूंगा।
सुनने वाले
सुन लेंगे, पीने वाले
पी लेंगे, जीने
वाले जी लेंगे—तुम्हारी
मौज।
रवि—किरन
के
शर—निकर
शत,
यह
हरिद्रा पीत,
नील
अंबर में
सुशब्दायित
हुआ
जिनका
अमर संगीत,
जब
बिखरने
फूट
पड़ने
के
लिए आतुर;
खिल
रही
अरविंद
सी
प्राची
दिशा की
जब
अरुण पांखुर;
तब
कुहासे की
चदरिया तान
तन, मन, प्राण
पर इस ओर
सो
रहे हो?
सोते
रहो।
किंतु
क्या रुक
जाएगा
उगता
हुआ नव भोर?
निश्चित
नहीं;
भोर
तो आकर रहेगा
इस
धरा के
मौज
भरते,
मुक्त
अंबर में
विचरते,
पांखियों
का
शोर
तो छाकर
रहेगा।
सुबह
होती है, सूरज
ऊगता। तुम सोए
रहो चादर ओढ़कर,
इससे कोई
सूरज थोड़े ही
रुक जाएगा।
तुम पड़े रहो
दबे अपने
बिस्तर में; इससे
पक्षियों के
गीत थोड़े ही
रुक जाएंगे।
इससे पक्षी
नाराज थोड़े ही
हो जाएंगे।
इससे सूरज उदास
थोड़े ही हो
जाएगा। कि
सूरज कहेगा कि
अब मैं
सत्याग्रह
करूंगा! कि
मैं अनशन करता
हूं! कि मैं
आया, इतनी
दूर से आया, कितनी अनंत
की यात्रा
करके आया, रात
के अंधेरे को
पार करके आया,
पूरी
पृथ्वी का
चक्कर लगाकर
आया, और
तुम सो रहे हो!
पापी कहीं के! जागो, अन्यथा
मैं लौट जाऊंगा,
कि सिकोड़
लूंगा अपनी
किरणें। सूरज
ऐसा कुछ भी नहीं
कहता।
सो
रहे हो?
सोते
रहो।
किंतु
क्या रुक
जाएगा
उगता
हुआ नव भोर?
निश्चित
नहीं;
भोर
तो आकर रहेगा
इस
धरा के
मौज
भरते,
मुक्त
अंबर में
विचरते,
पांखियों
का
शोर
तो छाकर
रहेगा।
बस, ऐसा ही मेरा
गीत है—पक्षियों
का गीत जो
सुबह होता है।
ऐसी ही मेरी
जीवन—दशा है—जैसे
सूरज ऊगता।
कोई देखे, कोई
न देखे, इससे
कुछ अंतर नहीं
पड़ता है। मैं
कोई अथक चेष्टा
नहीं कर रहा, अच्युत। मैं
कोई सेवा नहीं
कर रहा। मैं
निपट अपने ढंग
से जी रहा
हूं। और यही
मेरी देशना
है: तुम भी
निपट अपने ढंग
से जीओ—अपनी
महिमा में, अपनी
स्वतंत्रता
में। नहीं
किसी के सेवक
बनना, नहीं
किसी को सेवक
बनाना।
हां, और निश्चित
तुमसे बहुत
प्रकाश बहेगा,
बहुत प्रेम
जगेगा। तुमसे
बहुतों का
कल्याण होगा,
मगर तुम
किसी का
कल्याण करने
मत जाना।
कल्याण करने
वाले लोगों ने
बड़ी हानि
पहुंचा दी है।
मैंने
सुना, चीन
में एक मेला
भरा। एक आदमी
एक कुएं में गिर
पड़ा; कुएं
पर पाट नहीं
थी। एक बौद्ध
भिक्षु पास से
निकला। वह
आदमी भीतर से
चिल्ला रहा है—मुझे
बचाओ! मैं मर जाऊंगा, मुझे बचाओ!
शोरगुल बहुत
है; मेला, बाजार भरा
है; कौन
किसकी सुन रहा
है! बौद्ध
भिक्षु कुएं
के पास से
निकलता था; फिर ध्यान
की उसे आदत भी
थी, शांत
होने का ढंग
भी था। उसे
सुनाई पड़ गई
आवाज। उसने
कुएं में झांककर
देखा। जो
डूबता था आदमी,
बड़ा
प्रसन्न हुआ,
उसने कहा:
आप आ गए, हे
भिक्षु देवता,
मुझे बचाओ!
भिक्षु ने
कहा: देखो, सुनो,
यह जगत तो
दुख है। बचकर
भी क्या करोगे?
भगवान
बुद्ध नहीं कह
गए—जन्म दुख
है, जीवन
दुख है, जरा
दुख है, मृत्यु
दुख है, सब
दुख है! बचकर
क्या करोगे? मरना तो
पड़ेगा ही, आज
मरे कि कल, सब
बराबर है। फिर
अपने कर्मों
का फल भोग रहे
हो। फल तो
भोगने ही पड़ते
हैं, नहीं
तो कोई
निस्तार नहीं
है। मैं इतना
ही तुम्हें कह
सकता हूं, शांति
से मरो।
यह
तुम्हारे
दर्शन—शास्त्रियों
का निष्कर्ष
है—चुपचाप मर
जाओ!
भिक्षु
तो अपने
रास्ते पर चला
गया। और ख्याल
रखना, हंसना
मत भिक्षु पर।
उसने जो कहा, वही
तुम्हारे
कर्म के
सिद्धांत का
तार्किक निष्कर्ष
है। उसके पीछे
ही आया एक कन्फ्यूशी।
कन्फ्यूशियस
तो समाज की
व्यवस्था, नियम,
कानून, इनके
रूपांतरण में
विश्वास करता
है। कन्फ्यूशी
ने आवाज सुनी,
उसने नीचे झांककर
देखा। वह आदमी
बोला कि बचाओ
मुझे भाई, मैं
मरा जा रहा
हूं। अब
ज्यादा देर
टिक न सकूंगा,
ठंड बहुत है,
मेरे हाथ—पैर
गले जा रहे
हैं। उस कन्फ्यूशी
ने कहा: तू
घबड़ा मत, महात्मा
कन्फ्यूशियस
ने पहले ही
कहा है कि हर
कुएं पर पाट होनी
चाहिए। इस
कुएं पर पाट
नहीं है, इसका
फल यह हुआ कि
तू मर रहा है।
मत घबड़ा, सब
कुओं पर पाट बंधवाकर
रहेंगे। सारे
देश में सुधार
करवाकर
रहेंगे। क्रांति
करनी होगी तो
क्रांति
करेंगे, कानून
बदलना पड़े तो
कानून
बदलेंगे, तू
घबड़ा मत।
उसने
कहा: वह तो
होगा ठीक, मगर मेरा
क्या होगा? मुझे बचाओ।
मगर उस आदमी
को तो अब इसकी
फिक्र ही नहीं;
एक—एक
आदमियों की
कौन फिक्र करे?
वह तो जाकर
बीच मंच में
खड़ा हो गया और
उसने लोगों को
चिल्ला—चिल्लाकर
कहना शुरू
किया, कि
सुनो भाइयो,
देखो
महात्मा कन्फ्यूशियस
की बात सच
सिद्ध हो रही
है। उसने इस
बात को एक
उदाहरण बना
लिया कि यह
उदाहरण है—हर
कुएं पर पाट
होनी चाहिए।
वह सामाजिक
क्रांति में
संलग्न हो
गया।
पीछे
से एक ईसाई
फकीर आया, उसने जल्दी
से अपने झोले
में से रस्सी
निकाली, रस्सी
डाली। आदमी
कुछ बोल ही नहीं
पाया, उसके
पहले रस्सी
पहुंच गई उसके
पास। वह आदमी
तो कुछ सोच ही
रहा था: बोलना
भी कि नहीं
बोलना, कहना
भी कि नहीं
कहना, कि
चुपचाप मर ही
जाने में सार
है? कि
बौद्ध भिक्षु
ने शायद ठीक
ही कहा, कोई
निकालने वाला
मिलने वाला
नहीं है। वह कन्फ्यूशी
गया, वह और
शोरगुल मचा
रहा है। वैसे
मेरी कोई सुन
लेता, तो
अब सुन भी
नहीं सकता—इतना
शोरगुल मचा
रहा है। तो वह
सोच ही रहा था,
कहना कि
नहीं। मगर
ईसाई ने तो
तत्क्षण
रस्सी डाल दी,
उस आदमी को
खींचा, कपड़ा उढ़ाया।
उस आदमी ने
कहा: धर्म
तुम्हारा
असली है। तुमने
सेवा की।
उस
ईसाई ने कहा:
भाई, सेवा की
बात मत करो।
यह तो हमने
इसलिए
तुम्हें
निकाला कि
हमें स्वर्ग
जाने की
आकांक्षा है। और
जीसस ने कहा
है: जो सेवा
करेगा वही
मेवा पाएगा।
इसीलिए तुम
देखते हो, हम
रस्सी साथ ही
लेकर चलते
हैं। झोले में
ही रखी हुई थी,
कि कहीं कोई
गिरे, हम
मौके की तलाश
में रहते हैं।
और यह कन्फ्यूशी
ठीक बातें
नहीं कह रहा
है। अगर सब
कुओं पर पाट हो
जाएगी, तो
लोग गिरेंगे
कैसे? और
अगर लोग गिरे
नहीं, तो
लोग बचाएंगे
कैसे? सेवा
करने वालों का
क्या होगा? फिर मेवा
कैसे मिलेगा?
कुओं पर पाट
की कोई जरूरत
नहीं है। जिन
पर हैं उनके
भी अलग कर दो।
सेवा फैलनी
चाहिए। और तुम
अपने बच्चों
को भी समझा
जाना कि ऐसे
ही कुओं में
गिरते रहें, क्योंकि
हमारे बच्चे
आएंगे, वे
उनको निकालते
रहेंगे। बिना
सेवा के तो
स्वर्ग मिल
नहीं सकता!
तुम हंसो मत।
मैंने स्वामी करपात्री
की एक किताब
पढ़ी, जिसमें
उन्होंने
लिखा है—समाजवाद,
साम्यवाद
नहीं आने
चाहिए, क्योंकि
अगर साम्यवाद
आ जाएगा और
सबमें धन का समान
वितरण हो
जाएगा, फिर
दान का क्या
होगा? न
कोई देने वाला
बचेगा, न
कोई लेने
वाला। और दान
तो धर्मों का
धर्म है। तो
धर्म नष्ट हो
जाएगा।
तर्क
देखते हो! जब
मैं करपात्री
महाराज की
किताब पढ़ रहा
था, तो मुझे
यह चीनी कहानी
याद आई कि करपात्री
को भी उसमें
जोड़ देना
चाहिए। वही
तर्क! और कई को
तर्क जंचता
होगा, क्योंकि
कई करपात्री
को मानने वाले
लोग भी हैं। जंचती
होगी यह बात, कि ठीक है, अगर दान ही
धर्म का सार
है, अगर
दान ही धर्म
का मूल है, और
संपत्ति बांट
दी गई—कोई
भिखारी न बचा—कोई
मांगने वाला न
रहा, फिर
दान कैसे होगा?
और दान नहीं
होगा तो धर्म
कैसे होगा?
ठीक
कहा उस ईसाई
फकीर ने कि
भैया, गिरते
रहना...बाल—बच्चों
को भी समझा
जाना, गिरते
रहो। कुओं पर
पाट बनाना मत।
हमारे बाल—बच्चे
भी हैं, आखिर
उनको भी
स्वर्ग जाना
है। तुम गिरते
रहोगे, तो
हम सेवा करते
रहेंगे। तुम कोढ़ी हो
जाओगे, हम
पैर दबाएंगे।
तुम बीमार हो
जाओगे, हम
अस्पताल
खोलेंगे। तुम
यह संतति—निग्रह
करने वालों की
बात मत सुनना,
तुम तो
बच्चे पर
बच्चे पैदा
करना, ताकि
हम स्कूल
खोलें और उनको
शिक्षा दें।
नहीं हमारे
स्वर्ग का
क्या होगा?
मैं
तुम्हें सेवा
नहीं सिखाता।
मैं तुम्हें अपने
आनंद से जीना
सिखाता हूं।
हां, तुम्हारे
आनंद से जीने
में अगर कुछ
घटे। अगर तुम
कुएं के पास
जाओ और किसी
को गिरा हुआ
देखो और
तुम्हारा
आनंद—भाव
तुम्हें उसे
निकालने के
लिए कहे, अहेतुक,
न स्वर्ग
जाने की
आकांक्षा, न
अखबार में खबर
छपवाने
की आकांक्षा,
न बड़े
महावीर—चक्र
मिल जाएं
तुम्हें, महावीर—पदक
मिल जाए, स्वर्ण—पदक
मिले, सरकारी
सम्मान मिले,
कि सरकारी
संत समझे जाओ—ऐसी
कोई
आकांक्षा।
नहीं ऐसा कोई
सवाल। बस उस गिरते
डूबते आदमी को
देखकर तुम्हारे
प्राण ही
रस्सी बन
जाएं!
तुम्हारा
होना ही उसे
बचाने को आतुर
हो जाए। सेवा
की दृष्टि से
नहीं—जरा भी
सेवा की
दृष्टि से
नहीं—सहज हो।
और उसे बचाकर
तुम अपने
रास्ते पर चले
जाओ। तुम उसका
धन्यवाद भी
मांगने की
आकांक्षा न
दिखाओ। तुम यह
भी न कहो कि भई
ख्याल रखना, मैंने
तुम्हें
बचाया, भूल
मत जाना! इतनी
भी आकांक्षा आ
गई, तो
तुमने आनंद से
नहीं बचाया।
और आनंद से जो
बचाता है वह
परमात्मा के
हाथ का उपकरण
हो जाता है।
भोर
तो आकर रहेगा
रवि—किरन
के
शर—निकर
शत,
यह
हरिद्रा पीत,
नील
अंबर में
सुशब्दायित
हुआ
जिनका
अमर संगीत,
जब बिखरने
फूट
पड़ने
के
लिए आतुर;
खिल
रही
अरविंद
सी
प्राची
दिशा की
जब
अरुण पांखुर;
तब
कुहासे की
चदरिया तान
तन, मन, प्राण
पर इस ओर
सो
रहे हो?
सोते
रहो।
किंतु
क्या रुक
जाएगा
उगता
हुआ नव भोर?
निश्चित
नहीं;
भोर
तो आकर रहेगा
इस
धरा के
मौज
भरते,
मुक्त
अंबर में
विचरते,
पांखियों
का
शोर
तो छाकर
रहेगा।
आखिरी
प्रश्न:
क्या
भक्त अकेले
विश्वास के
सहारे जी सकता
है?
विश्वास
तो थोथी बात
है, झूठी बात
है। भक्त तो
प्रेम के
सहारे जीता है,
विश्वास के
सहारे नहीं।
विश्वास की
जरूरत तो उनको
पड़ती है, जिनके
जीवन में
प्रेम नहीं
है। भक्त को
तो अस्तित्व
को देखकर
प्रेम उमगता
है। हरे वृक्षों
को देखकर
आलिंगन करने
की कामना जगती
है। संगीत
सुनकर
संगीतमय हो
जाने की
अभीप्सा जगती
है। तारों को
देखकर तारों
के साथ नाचने
का मन होता
है। भक्त को
तो अस्तित्व
के प्रति प्रेम
जगा है।
विश्वास की
भक्त को जरूरत
ही नहीं है।
भक्त को तो
श्रद्धा जगी
है।
और
श्रद्धा और
विश्वास में
बड़ा फर्क है।
विश्वास होता
है सिर का, श्रद्धा
होती है हृदय
की। विश्वास
तो सिद्धांत
का होता है।
जैसे तुम
हिंदू घर में
पैदा हुए तो
तुम्हारे
विश्वास
हिंदू हैं; इससे तुम
भक्त नहीं हो
गए। तुम मुसलमान
घर में पैदा
हुए तो
तुम्हारे
विश्वास मुसलमान
हैं; इससे
तुम भक्त नहीं
हो गए। भक्त न
तो हिंदू होता,
न मुसलमान,
न ईसाई, न
जैन, न
बौद्ध—भक्त तो
बस भक्त होता
है; उतना
होना
पर्याप्त है;
विशेषण
रहित होता है।
भक्त
को तो हृदय
में श्रद्धा
जगती है। भक्त
तो विश्वासों
से बिलकुल
मुक्त होता
है। विश्वास
तो उधार होते
हैं, दूसरों
के दिए होते
हैं—बासे
होते हैं—उच्छिष्ट।
श्रद्धा अपनी
होती है।
इसलिए
भक्त अनुभव
मांगता है, भक्त अनुभव
तलाशता है।
भक्त को थोथे
विश्वास तृप्त
नहीं कर पाते।
प्रश्न तुमने
ठीक ही पूछा
है, भक्त
विश्वास के
सहारे नहीं जी
सकता। भक्त को
तो विश्वास
में सहारा
दिखाई भी नहीं
पड़ता।
छांह
तो देते नहीं, मधुमास लेकर
क्या करूंगी!
बांह
तो देते नहीं, विश्वास
लेकर क्या
करूंगी!
टूटकर
बिखरी हृदय की
कुसुम—सी कोमल
तपस्या,
स्वप्न
झूठे हो गए
हैं,
आरती
के दीप का मधु—नेह
चुकता जा रहा
है,
फूल
जूठे हो गए
हैं,
आ
गई थी द्वार
पर तो साधना
स्वीकार करते
अब
कहां जाऊं
बताओ!
तृप्ति
तो देते नहीं, यह प्यास
लेकर क्या
करूंगी!
बांह
तो देते नहीं, विश्वास
लेकर क्या
करूंगी!
आज
धरती से गगन
तक मिलन के
क्षण सज रहे
हैं,
चांदनी
इठला रही
है
स्वप्न—सी
वंशी हृदय के
मर्म गहरे कर
रही है
गंध
उड़ती जा रही
है
मंजरित
अमराइयों
में, मदिर
कोयल कूकती है
पर
अधर मेरे जड़ित
हैं
गीत
तो देते नहीं, उच्छवास
लेकर क्या
करूंगी!
बांह
तो देते नहीं, विश्वास
लेकर क्या
करूंगी!
डूबती
है सांझ की
अंतिम किरण—सी
आस मेरी
और
आकुल प्राण
मेरे
किस
क्षितिज की
घाटियों में
खो गए
प्रतिध्वनित
होकर
मौन, मधुमय गान
मेरे,
चरण
हारे पंथ चलते, मन उदास थका—थका
सा,
कौन
दे तुम बिन
सहारा,
सांस
तो देते नहीं, उल्लास लेकर
क्या करूंगी!
बांह
तो देते नहीं, विश्वास
लेकर क्या
करूंगी!
भक्ति
तो प्रेम की
ही पराकाष्ठा
है। जैसे
प्रेम
विश्वास नहीं
मांगता, बांह
मांगता है।
प्रेमी चाहता
है—आलिंगन दो,
भरोसे
नहीं।
आश्वासन नहीं,
आलिंगन दो।
सांस
तो देते नहीं, उल्लास लेकर
क्या करूंगी!
बांह
तो देते नहीं, विश्वास
लेकर क्या
करूंगी!
जैसे
प्रेयसी
मांगती है
बांह, ऐसे
भक्त मांगता
है बांह। भक्त
शब्दों से
राजी नहीं
होता, सिद्धांतों
से राजी नहीं
होता, शास्त्रों
से राजी नहीं
होता, भक्त
अनुभव मांगता
है। भक्त कहता
है: आओ मेरी आंख
के सामने। खोलो
मेरे हृदय के
द्वार। आओ हम
गठबंधन में बंधें। आओ
हम नेह को
बांधें। आओ हम
भांवर डालें।
भक्त इससे कम में
राजी नहीं है।
जो इससे कम
में राजी है, कभी भक्त न
हो पाएगा।
भक्त
की आकांक्षा
परम की है, चरम की है, आत्यंतिक की
है। भक्त तो
भगवान हो जाना
चाहता है, भगवान
में लीन हो
जाना चाहता
है। इसलिए
भक्त निरंतर
उलझता है, झगड़ता
है, शिकायत
करता है, नाराज
होता है, रूठता
है। परमात्मा
से उसकी सीधी—सीधी
बात चलती है, जैसे प्रेमी
की प्रेमी से
चलती है।
इसलिए तो भक्त
पागल समझा
जाता है।
क्योंकि
तुम्हें दिखाई
नहीं पड़ता
परमात्मा—किससे
बातें कर रहा
है भक्त? किससे
जूझता है? किससे
रूठता है?
रामकृष्ण
को ऐसे दिन आ
जाते थे, जब
वह ताला मार
देते थे मंदिर
में। दो—दो, चार—चार दिन
मंदिर ही नहीं
जाते थे, प्रार्थना
ही नहीं करते
थे। पीठ किए
बैठे रहते
मंदिर की तरफ।
उनके शिष्य
कहते कि
परमहंस देव, प्रार्थना
कब होगी? नहीं
होगी, वे
कहते। जब
हमारी नहीं
सुनी जाती, तो हम भी
क्यों
प्रार्थना
करें? अब
हम रूठ गए हैं,
अब जब मनाए
जाएंगे तब।
और कोई
अज्ञात हाथ
मनाता भी, कोई अज्ञात
हाथ बुलाता
भी। फिर कभी
प्रार्थना
ऐसी जमती कि
दिन—दिन बीत
जाता। सुबह से
शुरू होती, सांझ आ जाती—भक्त
आते और जाते, लोग आते और
जाते—प्रार्थना
बंद ही न होती,
ऐसे रसमग्न
हो जाते! वही
आदमी जो कभी
ताला मार देता,
कभी ऐसा
रसमग्न हो
जाता! कभी जो
रूठ जाता था, कभी मनाता
भी था।
भक्त
तो प्रेम को
जानता है।
प्रेम तो
अनुभव है, विश्वास
नहीं।
आने
को कहकर भी, आए तुम मीत
नहीं
ऐसी
तो रीत नहीं, ऐसी तो रीत
नहीं।
जिसके
स्वर सुन पायल
की गतियां रुक
जाएं,
रतनारे
नयनों के पलक उठें, झुक जाएं।
झीलों
में पाल भरी
नावों से सपन तिरें,
बिन
पावस कजरारे
बदरा से गगन घिरें।
जो
मन प्राणों पर
जादू बनकर छा
जाएं,
आया
इन अधरों पर, फिर वैसा
गीत नहीं।
आने
को कहकर भी, आए तुम मीत
नहीं,
ऐसी
तो रीत नहीं, ऐसी तो रीत
नहीं।
सुरभित
तो हैं कलियां, पर वैसी गंध
नहीं,
लगता
ज्यों मधुवन
से, हो
कुछ संबंध
नहीं।
जाने
क्यों मधुऋतु
है रूठी
अमराई से,
अपना
ही आंगन क्यों
वंचित शहनाई
से?
फागुन
के मदमाते
गीत अधर भूल
गए,
जाए
फिर अब का भी
सावन यूं बीत
नहीं।
आने
को कहकर भी, आए तुम मीत
नहीं,
ऐसी
तो रीत नहीं, ऐसी तो रीत
नहीं।
तुम
यदि आ पाओ तो, पतझर मधुमास
बने,
माथे
की रेखाएं, अधरों का
हास बने।
पारस
तुम, छू
लूं यदि, तन
कंचन बन जाए,
जीवन
की हर परिभाषा, नूतन बन
जाए।
आने
को कहकर भी, आए तुम मीत
नहीं,
ऐसी
तो रीत नहीं, ऐसी तो रीत
नहीं।
कितना
भी समझाऊं, पर तेरी
छाया बिन,
हो
पाई है अब तक
दर्पण से
प्रीत नहीं।
आने
को कहकर भी, आए तुम मीत
नहीं,
ऐसी
तो रीत नहीं, ऐसी तो रीत
नहीं।
भक्त
जूझता है, उलझता है, प्रेम के
डोरे फेंकता
परमात्मा पर।
और उत्तर भी
आते हैं। भक्त
को ही उत्तर
आते हैं, ज्ञानी
तो रूखा—सूखा
रह जाता है, शास्त्रों
में ही डूबा
रह जाता है।
प्रेम की सरस
धार बहती नहीं,
प्रेम के
फूल नहीं
खिलते और न
प्रेम के
पक्षी चहचहाते
हैं। भक्त का
रास्ता तो बड़ा
मधुर है, मधुसिक्त है। भक्त तो
मधुशाला में
पीता है रस
उसका।
नहीं, भक्त
विश्वास के
सहारे न जीता
है, न जी
सकता है। भक्त
तो अनुभव
मांगता है।
भक्त तो कहता
है—आओ, आलिंगन
में बंधो। और
ऐसी घटना घटती
है, ऐसी
अपूर्व घटना
घटती है। ऐसा
क्षण आता है, जब भक्त का
भगवान से मिलन
होता है।
उन्हीं क्षणों
की याद तो
तुम्हें दिला
रहा हूं। मैं
तुम्हें
विश्वास नहीं
देना चाहता, मैं तुम्हें
बांह देना चाहता
हूं।
छांह
तो देते नहीं, मधुमास लेकर
क्या करूंगी!
बांह
तो देते नहीं, विश्वास
लेकर क्या
करूंगी!
विश्वास
लेना भी मत, बांह ही
लेनी है, छांह ही
लेनी है।
तृप्ति
तो देते नहीं, यह प्यास
लेकर क्या
करूंगी!
बांह
तो देते नहीं, विश्वास
लेकर क्या
करूंगी!
विश्वास
लेना भी नहीं।
तृप्ति
मांगना। छोटे
से राजी भी मत हो
जाना।
खिलौनों से
तृप्त मत हो
जाना।
गीत
तो देते नहीं, उच्छवास
लेकर क्या
करूंगी!
बांह
तो देते नहीं, विश्वास
लेकर क्या
करूंगी!
गीत
मांगना—जागता, जीता, तड़फता,
श्वास
लेता। गीत
मांगना, कि
तुम्हारा
हृदय उपनिषद
की गूंज बन
जाए। गीत
मांगना, कि
तुम्हारे
भीतर छिपा
कबीर गुनगुना
उठे। गीत
मांगना, कि
तुम्हारे
भीतर पुकार
उठे वाजिद!
कहै वाजिद पुकार!
आज
इतना ही।
समाप्त
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