दिनांक
26 सितम्बर 1976;
श्री रजनीश
आश्रम, पूना।
प्रश्नसार:
1—क्या
आप संगीत, काव्य और
सौंदर्य पर
कुछ कहना
चाहेंगे? अंततः
सब कुछ परमात्मामय
हो जाए, इसके
लिए ये तीन
बातें साधना
हैं न?
2—मुझे
लगता है,
बेशक मैं आपसे
दूर हूं, फिर
भी आपके इतने करीब
हूं, शायद ही
कोई इतने करीब
हो। न मैंने आपसे
संन्यास लिया
है, न ही आपके
हस्तकमलों
का आशीर्वाद।फिर
भी ऐसी प्रतीति
का कारण क्या
है?
3—योग,
ध्यान और अध्यात्म
का वैज्ञानिक संबंध, इतनी प्यारी
वाणी और आपका दर्शन
कर मैं स्वयं
को धन्यभागी
स्वीकार करता
हूं। फिर भी इतने
प्यारे प्रभु
का कुछ धार्मिक
और राजनैतिक लोग
विरोध क्यों करते
है? मुझे यह
विरोध अच्छा नहीं
लगता, मैं क्या
करूं?
पहला
प्रश्न:
भगवान, सोहनबाई के एक पत्र
में आपने लिखा
था, वह याद
आया——"जीवन को संगीतपूर्ण
बनाओ, ताकि
काव्य का जन्म
हो सके। और
फिर सौंदर्य
ही सौंदर्य है,
और सौंदर्य
ही परमात्मा
का स्वरूप है।'
क्या
आप संगीत, काव्य और
सौंदर्य पर
कुछ कहना
चाहेंगे? अंततः
सब कुछ परमात्मामय
हो जाए, इसके
लिए ये तीन
बातें साधना
हैं न?
तरु!
साधना एक है, शेष दो अपने—आप
चले आते हैं।
शेष दो परिणाम
हैं। बीज तो
एक ही बोना है,
फिर उस बीज
में बहुत
पत्ते लगते
हैं, बहुत
शाखाएं—प्रशाखाएं,
फल और फूल।
बीज एक ही
बोना है। एक
ही साधना है——इक
साधे सब सधे, सब साधे सब
जाए। तीन को
साधने में पड़ो,
उलझ जाओगे।
क्योंकि वे
तीन भिन्न—भिन्न
नहीं हैं, वे
एक—दूसरे से
संबंधित हैं,
एक की ही
शृंखला है।
संगीत
साधना है।
संगीत की
साधना से अपने—आप
काव्य का
आविर्भाव होता
है। काव्य है
संगीत की
अभिव्यक्ति।
काव्य है
संगीत की देह।
और जैसे ही
संगीत का जन्म
होता है, वैसे
ही सौंदर्य का
बोध पैदा होता
है। संगीत की
संवेदनशीलता
में ही जो
अनुभव होता है
अस्तित्व का,
उस अनुभव का
नाम सौंदर्य
है। काव्य है
देह संगीत की,
सौंदर्य है
आत्मा संगीत
की। तुम साधो
एक संगीत, फिर
ये दोनों——देह
और आत्मा अपने—आप
प्रकट होने
शुरू होते
हैं।
और
संगीत का अर्थ
समझ लेना।
संगीत से मेरा
अर्थ स्थूल
संगीत से नहीं
है। क्योंकि
स्थूल संगीत
को साधने वाले
तो बहुत लोग
हैं; न तो वहां
काव्य है, न
वहां सौंदर्य
है, न कोई परमात्मा
की प्रतीति
हुई है। होंगे
वे वीणा बजाने
में कुशल, लेकिन
अंतर की वीणा
नहीं बजी है।
जगा लिए होंगे
उन्होंने
स्वर तारों को
छेड़कर, लेकिन
प्राणों के
तार अभी नहीं छिड़े हैं।
हो गए होंगे
कुशल ध्वनि को
जन्माने
में, लेकिन
वह कुशलता
बाहर की
कुशलता है।
संगीत
से मेरा
प्रयोजन अंतःसंगीत
से है——हृदय की
वीणा पर जो
बजता है; प्राणों
की गुहा में
जो गूंजता है;
तुम्हारे
अंतरतम में जो
जागता है। उस
संगीत को ही
संतों ने
अनाहत नाद कहा
है। वीणा छेड़कर
एक संगीत पैदा
होता है, वह
अनाहत नाद
नहीं है, वह
आहत नाद है; क्योंकि छेड़ना
पड़ता है, चोट
करनी पड़ती है;
टंकार से
पैदा होता है——इसलिए
आहत। वीणा के
तार पर चोट
करनी पड़ती है।
दो की टक्कर
होती है।
तुम्हारी
अंगुली टकराती
है वीणा के
तार से। इन दो
के द्वंद्व के
बीच में एक
संगीत होता है,
उसका नाम है
आहत नाद। वह
पैदा होगा और
मरेगा। वह समय
के भीतर घटने
वाली घटना है;
अभी है, अभी
नहीं हो
जाएगा। उसका
शुरू है और
अंत है।
लेकिन
संतों ने
समाधि में एक
ऐसा नाद सुना, जिसका न कुछ
प्रारंभ है और
न कोई अंत है।
समाधि में एक
ऐसा नाद सुना,
जिसको झेन
फकीर कहते हैं——एक
हाथ की बजाई
गई ताली। एक
हाथ से कोई
ताली नहीं
बजती। ताली
बजने के लिए
दो हाथ चाहिए।
बाहर तो दो
चाहिए ही, तभी
ताली बजेगी।
मगर भीतर एक
अपूर्व घटना
घटती है। वहां
तो दो हैं ही
नहीं, फिर
भी नाद पैदा
होता है। उसी
को इस देश में
हमने ओंकार
कहा है। उसी
का प्रतीक है
ओम। यह ओम महत्वपूर्ण
प्रतीक है। ओम
शब्द का कुछ
अर्थ नहीं है,
यह सिर्फ
प्रतीक है।
प्रतीक है उस अंतर्ध्वनि
का, जो बज
ही रही है, जो
तुम्हें
बजानी नहीं
है। तुम भीतर
जाओ और सुनो।
तुम थोड़ा
ठहरो। तुम
थोड़े शांत हो
जाओ। तुम्हारे
मस्तिष्क में
चलता कोलाहल
थोड़ा रुके। और
अचानक चकित
होकर पाया
जाता है कि यह
स्वर तो सदा
से गूंज रहा
था, सिर्फ
मैं इतना
व्यस्त था
बाहर कि भीतर
का न सुन पाया!
यह
स्वर बारीक है, सूक्ष्म है।
यह स्वर ही
तुम्हारी
आत्मा है। यह
संगीत ही तुम
हो जो बज रहा
है। यह अनाहत
है। न वीणा है
वहां, न
वीणावादक है।
न वहां ज्ञाता
है, न
ज्ञेय है। न
वहां द्रष्टा है,
न दृश्य है।
वहां सब द्वैत
खो जाता है।
वहां एक ही
बचता है। उसे
एक भी कैसे
कहें? जहां
दो न हों, वहां
एक का बहुत
अर्थ नहीं
होता। इसलिए
ज्ञानियों ने
उसे एक भी
नहीं कहा, कहा
अद्वैत। इतना
ही कहा कि दो
नहीं हैं वहां,
बस। एक
कहेंगे तो
शायद
तुम्हारे मन
में सवाल उठना
शुरू हो जाए
कि जहां एक है
वहां दो भी
होगा, तीन
भी होगा। एक
तो संख्या का
हिस्सा है। एक
में कोई अर्थ
नहीं होता।
जहां दो न हों,
वहां एक में
क्या अर्थ
होगा? वहां
एक में कोई
अर्थ न रह
जाएगा। एक
अर्थहीन हो
जाएगा। इसलिए
ज्ञानियों ने
एक न कहा; कहा
अद्वैत। इतना
ही कहा कि
वहां दो नहीं
हैं; निषेध
से कहा।
क्योंकि
विधेय से
कहेंगे तो कहीं
तुम भाषा की
उलझन में न पड़
जाओ।
इसको
ही मैं संगीत
कह रहा हूं।
इस संगीत को
सुनते ही
तुम्हारा
जीवन काव्यमय
हो जाता है।
फिर काव्य से
अर्थ नहीं है
कि तुम कविता
लिखो तो काव्य।
उठो—बैठो तो
भी काव्य है।
बुद्ध उठते
हैं तो काव्य
है, बैठते
हैं तो काव्य
है। उनके उठने—बैठने
में एक प्रसाद
है, एक
लालित्य है, एक अपूर्व
उपस्थिति है——पारलौकिक,
दैविक! जो
इस पृथ्वी की
नहीं मालूम
होती। जैसे
मिट्टी में
अमृत उतर आया
है। बुद्ध के
उठने—बैठने
में छंद है।
तुमने
खयाल भी किया
होगा, जब
भीतर एक छंदबद्धता
होती है तो
तुम्हारे
बाहर भी छंदबद्धता
होती है। जब
भीतर तनाव और
चिंता होती है,
तब
तुम्हारे
बाहर भी
बेढंगापन
होता है। चिंतित
आदमी चलता है
तो उसके चलने
में लय नहीं
होता, स्वर
नहीं होता, विसंगति
होती है। उसके
चलने में एक ऊबड़—खाबड़पन
होता है। उसके
चलने में एक रसमयता
नहीं होती।
उसका चलना ऐसा
ही होता है
जैसे कच्चे
रास्ते पर, ऊंचे—नीचे
रास्ते पर।
उसका चलना ऐसे
ही होता है, जैसे कोई सिक्खड़
वीणा बजा रहा
हो। स्वरों के
बीच तारतम्य
नहीं होता; स्वरों के
बीच संबंध
नहीं होता, संगति नहीं
होती। और अगर
तुम ठीक से
परखो, तो
तुम चलते हुए
आदमी को देखकर
कह सकते हो कि
भीतर आदमी
शांत है या
अशांत है।
सिगमंड
फ्रायड के
संबंध में कहा
जाता है, हजारों
लोगों का
मनोविश्लेषण
करने के बाद
वह ऐसी अवस्था
में आ गया कि
मरीज दरवाजे
से भीतर प्रवेश
करता था, और
वह जान लेता
कि उसकी अड़चन
क्या है।
क्योंकि तुम्हारे
भीतर की चिंता
तुम्हारी देह
पर लिखी होती
है, तुम्हारी
आंखों से
झलकती होती
है। तुम्हारे चेहरे
पर छाप होती
है उसकी।
तुम्हारा
शरीर बोलता
है। तुम्हारा
शरीर मौन नहीं
है, मुखर
है। जब भीतर
शांति होती है
तो चेहरे पर
भी शांति होती
है। जब भीतर
शांति होती है
तो आंखों में
भी एक गहराई
होती है। जब
भीतर आनंद भरा
होता है, तुम्हारे
चलने में एक
उत्साह होता
है, एक
उमंग होती है।
जैसे फूल
खिले! जैसे
दीया जले!
जैसे
तुम्हारे
जीवन में
चारों तरफ
उत्सव ही
उत्सव है! जब
तुम्हारे
भीतर उत्सव
होता है तो
तुम्हें बाहर
भी उत्सव दिखाई
पड़ता है। जब
तुम भीतर
रंगरेली कर
रहे होते हो
तो सारा
अस्तित्व
रंगों से भर
जाता है। अस्तित्व
तो रंगों से
भरा ही है, लेकिन
चूंकि भीतर
रंगरेली नहीं
हो रही, भीतर
की होली नहीं
खेली जा रही, इसलिए बाहर
के रंग
तुम्हें दिखाई
नहीं पड़ रहे
हैं।
तुम
बाहर वही देख
पाओगे, जो
तुम भीतर हो।
बुद्ध देखते
हैं तो काव्य
है, बैठते
हैं तो काव्य
है, उठते
हैं तो काव्य
है, सोते
हैं तो काव्य
है।
आनंद
बुद्ध के पास
चालीस वर्षों
तक रहा। उसी कमरे
में सोया
जिसमें बुद्ध
सोते थे। एक
दिन उसने
बुद्ध से
पूछा: आप मुझे
चकित करते
हैं! आप सोते
भी ऐसे हैं
जैसे सजग हों।
आपके सोने में
भी आपके चौबीस
घंटे का लय—छंद
टूटता नहीं।
आप सोते भी
हैं तो ऐसे
जैसे सम्हले
हों, जैसे
भीतर एक
सावधानी हो।
नींद में भी
आपको मैंने
हाथ—पैर पटकते
नहीं देखा।
क्या
होगा कारण? जिसके भीतर
चित्त में
चिंताएं नहीं
रहीं, वह
नींद में भी
हाथ—पैर क्यों
पटकेगा? नींद में भी
तुम हाथ—पैर
इसलिए पटकते
हो कि दिन—भर
हाथ—पैर पटक
रहे हो।
आपाधापी! वही
नींद में भी गूंजती
चली जाती है।
तुम्हारी
नींद भी
तुम्हारी नींद
है न! तुम अगर
बेचैन हो, तुम्हारी
नींद भी बेचैन
होगी। तुम अगर
उद्विग्न हो,
तुम्हारी
नींद भी
उद्विग्न
होगी। तुम
परेशान हो, तुम्हारी
नींद में भी
परेशानी की
छाया होगी। तुम
सपने भी दुखद देखोगे——कोई
पटक रहा है
पहाड़ से! छाती
पर पत्थर रखा
है! और हो सकता
है तुम्हारा
हाथ ही रखा हो
अपनी छाती पर,
मगर तुम्हें
लगेगा पत्थर
रखा है।
क्योंकि
पत्थर तुम्हारी
छाती पर रखा
है, तुमने
ही रख लिया
है। कि भूत—प्रेत
तुम्हारी
छाती पर कूद
रहे हैं!
ये दुख—स्वप्न
जो तुम देखते
हो, ये दुख—स्वप्न
आकस्मिक नहीं
हैं। यह
तुम्हारे दिन—भर
की कमाई है।
यह तुम्हारी
पूंजी है। यही
तुम्हारी जिंदगी
है। ऐसे तुम
जीते हो। उसकी
ही छाया गूंजती
रह जाती है।
दिन—भर जो
किया है, उसकी
अनुगूंज
रात—भर सुनी
जाती है।
आनंद
पूछने लगा
बुद्ध से:
क्या है राज
इसका?
बुद्ध
ने कहा: जब से
चित्त शांत
हुआ, सपने आते
नहीं।
समाधिस्थ
व्यक्ति को
सपने नहीं
आते। सपने विचार
से ग्रस्त मन
को आते हैं।
और तुम भी
जानते हो, क्योंकि जब
तुम्हारा मन
बहुत विचार—ग्रस्त
होता है तो
तुम्हारी
नींद बहुत
सपनों से भर
जाती है। अगर
अत्यधिक
विचार—ग्रस्त
हो जाए, तो तो नींद
समाप्त ही हो
जाती है, तुम
सो ही नहीं
पाते। तुम तो
करवटें ही
लेते रहते हो।
जब
तुम्हारी
जिंदगी में रस
बहता है, समझो
तुम्हारे
जीवन में किसी
से प्रेम हो
गया, तो
तुम्हारे
सपने तत्क्षण
रूप बदल लेते
हैं। उनमें एक
माधुर्य आ
जाता है, एक
मिठास आ जाती
है। कोई
बांसुरी बजने
लगती है। यह
तो तुम्हारा
भी अनुभव है।
जब जीवन में
सब ठीक चल रहा
होता है, तुम्हारा
सपना भी ठीक
चलता होता है।
जब जीवन में
सब अस्त—व्यस्त
होता है, तुम्हारी
रात भी अस्त—व्यस्त
हो जाती है।
इससे तुम थोड़ा
अनुमान लगा सकते
हो बुद्धों की
निद्रा का। उस
निद्रा में तुम्हारा
उपद्रव नहीं
है। उस निद्रा
में एक गहराई
है, समाधि
की ही गहराई
है। उस
सुषुप्ति में
और समाधि में
जरा भी भेद
नहीं है।
तो
बुद्ध की तो
निद्रा भी
जाग्रत है।
तुम्हारा
जागरण भी नींद
से भरा है।
तुम नाम—मात्र
को जागे हो, बुद्ध नाम—मात्र
को सोए हैं।
इसको मैं कहता
हूं संगीतबद्धता।
और जब भीतर संगीतबद्धता
शुरू हो जाती
है तो
तुम्हारे व्यक्तित्व
में काव्य छा
जाता है। यह
भी हो सकता है,
तुम गीत गाओ;
बहुत संतों
ने गाए हैं।
अकारण नहीं है
यह बात। मीरा
नाची! पद
घुंघरू बांध
मीरा नाची रे।
चैतन्य मस्त
होकर, मृदंग
बजाकर नाचने
लगे। आकस्मिक
नहीं है यह बात।
लेकिन जो नहीं
भी नाचे, महावीर
नहीं नाचे, लेकिन फिर
भी अगर तुम
महावीर के पास
बैठोगे तो उनके
आसपास की हवा
का कण—कण
नाचता हुआ
पाओगे। बुद्ध
नहीं नाचे, लेकिन नृत्य
तो वहां है।
वहां नहीं तो
फिर कहां? वहां
नहीं तो फिर
कहीं भी नहीं।
इसको
मैंने काव्य
कहा——अभिव्यक्ति।
फिर कैसे होगी
अभिव्यक्ति, अलग—अलग ढंग
से होगी——कोई
गीत लिखेगा, कोई इकतारा
ले लेगा, कोई
मूर्ति गढ़ेगा,
कोई चित्र
बनाएगा। कोई
जुलाहा होगा
कबीर जैसा तो
कपड़े ही बुनेगा;
लेकिन यह अब
कपड़ा
नहीं बुन रहा
है, काव्य
बुन रहा है।
इसके कपड़े के
बुनने में भी अब
काव्य है।
इसलिए
तो वे कहते
हैं: झीनी—झीनी
बीनी रे
चदरिया! रामरस
भीनी! जब
कबीर चादर
बुनते थे तो
ऐसे मस्त हो
जाते थे, जैसे
मीरा मस्त
होती है नाचते
क्षण में! जरा—भी
भेद नहीं, वही
मस्ती!
क्योंकि राम
खरीदने आएंगे
इस चादर को।
यह चादर राम
के लिए ही
बुनी जा रही
है। क्योंकि
कबीर के लिए
अब राम के
अतिरिक्त और
कोई है ही
नहीं——अब राम
ही राम हैं।
कबीर जब बेचते
थे काशी में जाकर
अपनी चादरों
को, तो जो
भी ग्राहक आता
उसी से कहते
कि राम, ले
जाओ, तुम्हारे
लिए ही बुनी
है। "राम' ही
शब्द का उपयोग
करते। और बहुत
जतन से बुनी है।
और ऐसी बुनी
है कि जिंदगी—भर
साथ देगी।
गोरा
कुम्हार मटकियां
बनाता था सो
बनाता ही रहा, पर भेद हो
गया, जमीन—आसमान
का भेद हो गया!
अब भी मिट्टी
कूटता है, अब
भी चाक पर घड़े
बनाता है, मगर
अब इसमें एक
छंद है। इसके
हाथ में एक
जादू है। ये घड़े जादुई
हो गए! इन घड़ों
में आकाश उतर
आया! ये घड़े
साधारण न रहे।
जैसे पारस ने
छू लिया लोहे
को और सोना हो
जाए, ऐसा
गोरा कुम्हार
ने छू दी जो
मिट्टी, वही
सोना हो गई!
मैं जब
कहता हूं
काव्य है, तो मेरा
अर्थ ऐसा नहीं
कि तुम कविता
ही रचना। लेकिन
तुम्हारी
जिंदगी काव्य
हो जाएगी, तुम्हारा
आचरण काव्य हो
जाएगा। और जिस
चीज से भी
काव्य में
बाधा पड़ेगी, वही
तुम्हारे
आचरण से गिर
जाएगी। जैसे
क्रोध गिर
जाएगा, क्योंकि
क्रोध का
काव्य नहीं बन
सकता! करुणा घनी
हो जाएगी, क्योंकि
करुणा का ही
काव्य बन सकता
है। जैसे कामवासना
धीरे—धीरे
तिरोहित हो
जाएगी, क्योंकि
कामवासना
कितना ही
चेष्टा करो, काव्य नहीं
बन सकती। काम
की जगह प्रेम
का जन्म होगा;
प्रेम का
काव्य बन सकता
है। और फिर
प्रेम में भक्ति
की ऊंचाइयां
उठेंगी!
भक्ति
महाकाव्य है!
ऐसा
समझो, कामवासना
गद्य, प्रेम
पद्य।
कामवासना का
गणित है; क्योंकि
कामवासना
शोषण है, पारस्परिक
शोषण एक—दूसरे
का। अपने
निमित्त
दूसरे का
उपयोग कर लेना,
दूसरे को
साधन बना लेना,
दूसरे का एक
यंत्र की
भांति उपयोग
कर लेना। इसलिए
कामवासना तो
बिकती है
बाजार में।
वेश्या से
खरीद ले सकते
हो। और अब जो
देश बहुत
विकसित हो गए
हैं, वहां
वेश्याएं ही
नहीं होतीं, वेश्य भी
होते हैं।
वहां पुरुष
वेश्याएं भी होती
हैं। क्योंकि
स्त्री भी
पीछे क्यों
रहे! जब
पुरुषों ने
वेश्याएं खोज
लीं, तो
स्त्रियां
क्यों पीछे
रहें!
उन्होंने भी वेश्य
खोज लिए।
कामवासना
खरीदी जा सकती
है, बेची जा
सकती है; लेकिन
प्रेम नहीं
खरीदा जा सकता,
बेचा जा
सकता।
कामवासना
गणित का अंग
है। दुकान हो
सकती है उसकी,
लेकिन
प्रेम की कोई
दुकान नहीं हो
सकती। प्रेम
का तो सिर्फ
मंदिर ही होता
है। और भक्ति
तो पूर्ण रूप
से आकाश की
बात है! उसका
तो मंदिर भी नहीं
होता। उसमें
तो मिट्टी की
छाप ही नहीं
रह जाती।
भक्ति
तो ऐसे है
जैसे फूलों की
सुवास!
कामवासना ऐसे
है जैसे बीज।
प्रेम ऐसे है
जैसे फूल।
भक्ति ऐसे है
जैसे सुवास; न दिखाई
पड़ती, न
पकड़ में आ
सकती, उड़
चली! पंख लग गए!
काव्य
पैदा होता है
तुम्हारे
भीतर संगीत के
अनुभव से।
तुम्हारा
समस्त आचरण काव्यपूर्ण
हो जाता है। काव्यपूर्ण
आचरण को मैं
नैतिक आचरण
कहता हूं——यह
मेरी
परिभाषा। तुम मुझसे
पूछो कि नीति
क्या है, तो
मैं कहूंगा काव्यपूर्ण
आचरण। ऐसा
आचरण, जिसमें
कविता हो।
मेरी नीति की
परिभाषा सौंदर्य—शास्त्र
परक है।
सौंदर्य
कसौटी है।
नीति मैं उसको
नहीं कहता जो
तुमने
जबर्दस्ती
थोप ली है।
नीति मैं उसको
कहता हूं, जो
तुम्हारे
भीतर के संगीत
को सुनने से
तुम्हारे
जीवन में
अवतरित होनी
शुरू हुई है।
आई है, लाई
नहीं गई है।
आरोपित नहीं
है; स्वतःस्फूर्त
है, स्फुरणा
हुई है।
बाहर
काव्य प्रकट
होता है और
भीतर एक बोध
पैदा होना
शुरू होता है——जिस
बोध को मैं
कहता हूं
सौंदर्य।
सौंदर्य का बोध
ही परमात्मा
का बोध है।
जिस दिन
तुम्हें सारा
जगत सौंदर्य
से भरा हुआ
दिखाई पड़ने
लगता है, जिस
क्षण तुम्हें
सब सुंदर हो
जाता है, उस
क्षण तुम
जानना कि
परमात्मा से
पहचान हुई। परमात्मा
का न कोई रूप
है, न कोई
रंग है, न
आकार, न
नाम।
परमात्मा
सौंदर्य की
सघन प्रतीति
है।
इसलिए
तरु, सोहन के
पत्र में
मैंने जो लिखा——"जीवन
को संगीतपूर्ण
बनाओ, ताकि
काव्य का जन्म
हो सके।' काव्य
को तुम ला
नहीं सकते——उसका
जन्म होता है,
अपने से
होता है। बस
तुम इतना ही
करो कि जीवन संगीतपूर्ण
हो। और फिर
सौंदर्य ही
सौंदर्य है!
उसको भी तुम
थोप नहीं सकते,
आरोपित
नहीं कर सकते।
और सौंदर्य ही
परमात्मा का
स्वरूप है।
तीन नहीं
साधने, तुम
एक साधो। बस
एक साधो! एक
ओंकार सतनाम!
बस उस एक स्वर
को, एक नाद
को सुनो। छोड़ो
सब विचार।
जैसा
कल कहा न
वाजिद ने: कहै
वाजिद पुकार, सीख एक
सुन्न रे।
एक
शून्य को सीख
लो। शून्य
अर्थात चित्त
निर्विचार हो
जाए। भीड़—भाड़
चित्त की शांत
हो जाए, कोलाहल
बंद हो जाए।
बस कोलाहल बंद
होते ही, अचानक
जो भीतर बज ही
रहा है सदा से,
जो
तुम्हारे
जीवन का जीवन
और प्राणों का
प्राण है, वह
संगीत सुनाई
पड़ने लगता है।
उस संगीत की
फिर दो
अभिव्यक्तियां
हैं: उसकी
आत्मा है
सौंदर्य का
बोध और उसकी
देह है काव्य
की
अभिव्यक्ति।
तब तुम्हारा
जीवन एक छंद
है। एक सध जाए,
दो अपने—से
उसके पीछे चले
आते हैं।
दूसरा
प्रश्न:
मुझे
लगता है, बेशक मैं
आपसे बहुत दूर
हूं, फिर
भी आपके इतने
करीब हूं, शायद
ही कोई इतने
करीब हो। न
मैंने आपसे
संन्यास लिया है,
न ही आपके हस्तकमलों
का आशीर्वाद।
फिर भी ऐसी
प्रतीति का
कारण क्या है?
सलाहुद्दीन!
संन्यास की
तैयारी हो रही
है। थोड़े डरे
हो। मन को
अपने समझा मत
लेना इतने से।
यह तो शुरुआत है।
यह तो बूंदाबांदी
है, अब जल्दी
ही बाढ़ आने को
है। यह तो
वसंत का पहला फूल
खिला, यह
तो वसंत के
आगमन की खबर
भर है, अभी
तो करोड़ों—करोड़ों
फूल खिलने
को हैं। इतने
से रुक मत
जाना सलाहुद्दीन!
तुम्हारे
प्रश्न से
मुझे ऐसा लगता
है कि तुम सोचते
हो——बस हो गया।
होना शुरू हुआ
है, और यह
केवल शुरुआत
ही है——क, ख, ग। इस सूत्र
को पकड़ो। लंबी
यात्रा करनी
है अभी। जो
हुआ है, शुभ
है, सुंदर
है।
मेरे
पास होने के
लिए भौतिक रूप
से मेरे पास होना
जरूरी नहीं है, क्योंकि पास
होना प्रेम का
एक नाता है, देह का
नहीं। पास
होने से इतना
ही अर्थ है कि
तुम्हारा
हृदय अब मेरे
हृदय के साथ धड़क रहा
है। तुम हजार
कोस की दूरी
पर रहो, अगर
तुम्हारा
हृदय मेरे साथ
रसलीन है,
तो तुम पास
हो। और शरीर
भी तुम्हारा
मेरे पास बैठा
रहे, छूते
हुए हम एक—दूसरे
को बैठे रहें,
हाथ में हाथ
लेकर बैठे
रहें, और
फिर भी अगर
दिल साथ—साथ न धड़कें, रोएं साथ—साथ न फड़कें, तो
हजारों कोसों
की दूरी है।
पास और दूरी
की बात देह की
बात नहीं है।
काश, देहें ही लोगों को
पास लाती
होतीं तो पति—पत्नी
हैं, सब
पास होते। मगर
पति—पत्नियों
से ज्यादा दूर
आदमी न पाओगे।
तुम्हारे
नाम ने मुझे
मुल्ला नसरुद्दीन
का नाम याद
दिला दिया सलाहुद्दीन!
नसरुद्दीन
एक नाटक देखने
गया था। नाटक
में जो हीरो था, बड़ा अदभुत
और बड़ा
प्रेमपूर्ण
अभिनय कर रहा
था। नसरुद्दीन
ने अपनी पत्नी
से कहा कि
अदभुत अभिनय!
बहुत देखे
अभिनेता, मगर
जैसा प्रेम का
अभिनय यह
व्यक्ति कर
रहा है——जितना
वास्तविक
प्रेम का
अभिनय——ऐसा
मैंने कभी
नहीं देखा।
नसरुद्दीन
की पत्नी
बोली: और
तुम्हें पता
है कि जिसके
प्रति वह
प्रेम प्रकट
कर रहा है, वह वास्तविक
जीवन में उसकी
पत्नी है।
नसरुद्दीन
ने कहा: तब तो
हद्द का
अभिनेता है, तब तो इसका
कोई मुकाबला
ही नहीं! अपनी
पत्नी के
प्रति और ऐसा
प्रेम प्रकट
कर रहा है! यह
असंभव घटना
है।
पति—पत्नी
दूर हो जाते
हैं, पास रहते—रहते।
पास रहने से
ही कोई पास
नहीं होता।
दूर होने से
ही कोई दूर
नहीं होता।
पास होना और
दूर होना
आंतरिक
घटनाएं हैं।
तुम मेरे पास
अनुभव कर रहे
हो, यह शुभ
है। लेकिन अभी
और पास आना है;
उतने ही पास
आना है जितना
परवाना शमा के
पास आता है।
जरा भी दूरी
नहीं बचनी
चाहिए। उसी
पास आने का
ढंग है
संन्यास।
अब तुम
यह मत सोच
लेना कि बिना
ही संन्यास के
जब पास आना हो
गया तो हम
दूसरों से
भिन्न हैं, विशिष्ट
हैं। दूसरे
संन्यास लेकर
पास जाते हैं,
हम तो वैसे
ही चले गए।
ऐसी चालबाजियां
मत कर लेना।
मन बहुत
होशियार है।
मन बहुत चालाक
है। मन जो
करना चाहता है,
जो करवाना
चाहता है, उसके
लिए तर्क खोज
लेता है। मन
कहेगा कि देखो
सलाहुद्दीन,
न संन्यास
लिया, न
आशीर्वाद
लिया, फिर
भी इतने पास आ
गए। अब क्या
जरूरत है
संन्यास की?
और मैं
जानता हूं, मुसलमान हो
तुम, अड़चन
आएगी संन्यास
लोगे तो; ज्यादा
अड़चन आएगी, जितनी किसी
और को आ सकती
है। मुश्किल
में पड़ोगे।
मेरे मुसलमान
संन्यासी हैं,
बड़ी
मुश्किल में
पड़े हैं!
लेकिन हर
मुश्किल एक
चुनौती बन
जाती है।
जितनी
मुश्किल उतनी
ही विकास की
संभावना का
द्वार खुल
जाता है। तुम
संन्यासी हो
जाओगे, होना
पड़ेगा ही, अब
लौटने का मैं
नहीं देखता कि
कोई उपाय है, या बचने की
कोई जगह है।
तो अड़चनें
आएंगी। और
तुम्हारा मन
सारी अड़चनों
के जाल खड़े
करेगा, कि
इतनी
मुसीबतें
होंगी! और पास
तो तुम बिना ही
इसके आ रहे
हो।
बहुत
लोग हैं जो
कहते हैं, हम तो भीतर
से पास हैं।
बाहर से
संन्यास लेने की
क्या जरूरत, हम तो भीतर
से संन्यासी
हैं। और मैं
जानता हूं, वे सब
चालबाजी की
बातें कर रहे
हैं। चालबाजी
की इसलिए
बातें कर रहे
हैं, क्योंकि
भीतर के
संन्यास की तो
वे सोचते हैं
कोई कसौटी है
नहीं। भीतर के
संन्यास को तो
जांच—परख का
कोई उपाय है
नहीं।
जो
भीतर से संन्यासी
है, वह बाहर
से भी क्यों
डरेगा? जैसे
भीतर, वैसे
ही बाहर; एकरस
हो जाना
चाहिए। हां, अकेले बाहर
से संन्यासी
होने का कोई
अर्थ नहीं है।
जो बाहर से
संन्यासी है,
उससे मैं
कहता हूं——भीतर
से संन्यासी
हो जाओ।
क्योंकि
अकेले बाहर से
संन्यासी रहे,
तो व्यर्थ
है। आवरण बदला
तो क्या बदला,
अंतस बदलना
चाहिए। लेकिन
जो कहता है
मैं भीतर से
संन्यासी हूं,
उससे मैं
कहता हूं:
बाहर से भी हो
जाओ। क्योंकि
बाहर और भीतर
एक हो जाने
चाहिए।
जीसस
का बहुत
प्रसिद्ध वचन
है कि जब बाहर
भीतर हो जाएगा, और जब भीतर
बाहर हो जाएगा,
और जब बाहर—भीतर
दोनों एक हो
जाएंगे, तभी
जानना कि तुम
परमात्मा के
निकट आने शुरू
हुए।
लेकिन
मन चालाक है।
और मन जहां तक
बचे जोखम
नहीं लेना
चाहता। मन
जहां तक बन
सके वहां तक सुरक्षा
के उपाय करता
है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
बहुत कंजूस
है। एक दिन
अपनी पत्नी के
साथ चौपाटी पर
घूमने गया।
काफी देर
घूमने के बाद
अंत में नसरुद्दीन
ने अपनी पत्नी
से कहा: क्या
खयाल है, एक
भेल और खाई
जाए?
एक और
का क्या मतलब, मैंने तो
अभी कोई भेल
खाई नहीं!
नसरुद्दीन
के हृदय को
बड़ी ठेस लगी।
वह बोला: भूल
गईं, शादी के
एक साल बाद जब
हम यहां घूमने
के लिए आए थे, तब हमने एक
भेल खाई थी।
उस बात
को हुए तो तीस
साल हो गए।
लेकिन कृपण आदमी
का मन एक ढंग
से काम करता
है, अपनी
सुरक्षा में
लगा रहता है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
के घर एक
मेहमान आए।
मुल्ला
उन्हें भोजन
कराने बैठा।
मेहमान भोजन
पूरा करने के
करीब हैं, उठना—उठना
चाहते हैं कि नसरुद्दीन
ने अपनी पत्नी
को आवाज दी, कहा: अरे भाई,
डाक्टर
साहब के लिए
एक गरम—गरम पूड़ी
और लाओ।
मेहमान ने हाथ
हिलाते हुए
कहा कि नहीं—नहीं
नसरुद्दीन,
मैंने पहले
ही चार खा ली
हैं, अब बस
करें। मुल्ला
ने कहा: अरे
भाई, गिन
कौन रहा है, खा तो तुम
सात चुके हो।
एक और ले लो, एक में और
क्या बिगड़
जाएगा।
गिन
कौन रहा है, और बैठा—बैठा
गिन रहा है।
मन की गिनतियां
हैं।
तो सलाहुद्दीन, यह तो अच्छा
हुआ कि तुम
मेरे बिना पास
आए पास हो! जब
बिना पास आए
इतने पास हो
तो खयाल रखना,
पास आकर और
कितने पास न आ
जाओगे! मन की
कंजूसी में मत
पड़ना। मन
की गिनती में
मत उलझना। मन
की सबसे बड़ी
कंजूसी यही है
कि वह तुम्हें
प्रेम से
वंचित रखता है।
यह
जानकर
तुम्हें
हैरानी होगी
कि कृपणता प्रेम
के अभाव से
पैदा होती है।
इसलिए कंजूस
प्रेम नहीं कर
सकता और
प्रेमी कंजूस
नहीं हो सकता।
आदमी कंजूस
इसलिए हो जाता
है कि प्रेम
की जोखम
नहीं उठा
पाया।
व्यक्तियों
से प्रेम नहीं
कर पाया तो
वस्तुओं से
प्रेम करने
लगता है। वस्तुओं
से प्रेम करने
में एक सुविधा
है, खतरा
नहीं है।
व्यक्तियों
से प्रेम करने
में बड़ा खतरा
है। किसी
स्त्री के
प्रेम में
पड़ोगे, खतरे
में पड़े। किसी
पुरुष के
प्रेम में
पड़ोगे, खतरे
में पड़े। किसी
मित्र से
मैत्री बांधोगे,
खतरा शुरू
हुआ! क्योंकि
कल मित्र
बीमार होगा, तो सहायता
भी करनी होगी।
कल मित्र
मुसीबत में पड़ेगा,
तो उसकी
चिंता भी लेनी
होगी।
वस्तुओं से
प्रेम करने
में खतरा नहीं
है। इसलिए
कृपण आदमी वस्तुओं
से प्रेम करता
है।
और
सबसे बड़ा खतरा
तो मेरे जैसे
आदमी के प्रेम
में पड़ना
है; क्योंकि
मेरे साथ
प्रेम में
पड़ने का अर्थ
है कि तुमने
अपने ही हाथ
अपनी मृत्यु
का आयोजन किया।
यह तो आत्मघात
है! संन्यास
यानी आत्मघात!
इसका अर्थ है
कि अब मैं
अपने "मैं' को
छोड़ता हूं। यह
तो बड़ी से बड़ी जोखम है।
बदनामी होगी,
समाज में अड़चनें
आएंगी। महंगा
यह सौदा है।
लेकिन
ध्यान रखना
कुछ चीजें हैं
जो सस्ते में नहीं
मिलतीं।
और सस्ते में
मिल जाएं, तो किसी काम
की नहीं
होतीं।
मुल्ला
नसरुद्दीन
कंजूस थे,
यानी
कि एकदम
मक्खीचूस थे,
एक
दिन बाजार में
आकर,
फलों
के दुकानदार
के पास जाकर,
बोले,
"यह
लो पांच पैसे
का सिक्का लो,
और
जल्दी से एक
बढ़िया—सा केला
दो!'
दुकानदार
चकराया,
पांच
पैसे का
सिक्का उठाया,
भरोसा
न आया,
और
मुल्ला को
देखकर
मुस्कुराया,
"लीजिए
हुजूर!
यह केला लीजिए,
लेकिन
मेहरबानी
करके यह बता
दीजिए
कि
क्या हुजूर के
यहां
किसी
पार्टी की
तैयारी हो रही
है,
जो
इतनी जोरदार
खरीददारी हो
रही है?'
एक
केला! पांच
नगद पैसे!
कि
क्या हुजूर के
यहां
किसी
पार्टी की
तैयारी हो रही
है,
जो
इतनी जोरदार
खरीददारी हो
रही है?
मुल्ला
को किसी ने
कभी पांच पैसे
का केला भी खरीदते
नहीं देखा था।
अहंकार
सिर्फ जोड़ना
जानता है——सिर्फ
जोड़ना जानता
है। अहंकार महाकृपण
है। संन्यास निरअहंकार
होने की
प्रक्रिया
है। संन्यास
है, वह जो जोड़ने
की पुरानी आदत
है, उससे
छुटकारा।
संन्यास तो
सिर्फ एक
प्रतीक है।
इसके भीतर बड़ी
लंबी
प्रक्रिया
है। यह जीवन को
रूपांतरण करने
की कीमिया है।
और सस्ते में
जीवन का रूपांतरण
नहीं होता।
पत्नी—पीड़ित
पति ने "तलाक' का खर्च
पूछा,
तो
वकील ने बताया, "एक हजार।'
पति
ने कहा, "वाह सरकार,
शादी
में तो पंडित
जी ने खर्च
कराए थे
सिर्फ
चार।'
वकील
ने कहा
"ठीक
कह रहे हो,
सस्ते
काम का परिणाम
ही तो——
सह
रहे हो।'
सलाहुद्दीन, दूर—दूर से
पास होना
सस्ता काम है।
अब पास से पास
हो जाओ। दूर
से हो सके, यह
शुभ, यह
सौभाग्य।
लेकिन इतने पर
रुक मत जाना, कंजूसी मत
ले आना। मेरी
तरफ आना शुरू
हुए हो तो आते
चले जाना, जब
तक कि मिट ही न
जाओ। मुझे
मौका दो कि
तुम्हें मिटा सकूं,
मुझे मौका
दो कि तुम्हें
समाप्त कर
सकूं; कि
तुम्हारी
रूपरेखा न रह
जाए, कि
तुम्हारा
चिह्न भी न
छूटे।
क्योंकि जहां
तुम पूरे मिट
जाओगे, वहीं
परमात्मा
पूरा तुममें
प्रकट होता
है।
कहै
वाजिद पुकार, सीख एक
सुन्न रे।
एक
शून्य मात्र
सीख लो। उस
शून्य को चाहो
मृत्यु कहो, चाहे उस
शून्य को
संन्यास कहो——ये
सिर्फ नाम
हैं। ये जो
गैरिक वस्त्र
मैंने संन्यासियों
को दे दिए हैं,
ये तो केवल
अग्नि के
प्रतीक हैं।
ये तो इस बात की
सूचना हैं कि
अब मैं जलाने
को तैयार हूं,
अपने को
जलाने को
तैयार हूं, कि मैं चढ़ा
अपने हाथ अपनी
चिता पर!
संन्यास
एक घोषणा है
कि अब मैं
अपने अतीत से
अपने को
विच्छिन्न
करता हूं; कि जिस ढंग
से अब तक जीया
था, उस
शैली को बदलता
हूं। अब ऐसे जीऊंगा
जैसे
परमात्मा है,
अब तक ऐसे
जीया जैसे
परमात्मा
नहीं है। अब
ऐसे जीऊंगा
जैसे मैं
आत्मा हूं, अब तक ऐसे
जीया जैसे मैं
शरीर हूं। अब
ऐसे जीऊंगा
जैसे मैं
शून्य हूं, अब तक ऐसे
जीया जैसे मैं
अहंकार हूं।
अब तक सिर्फ
जीवन का हिसाब—किताब
किया, अब
मृत्यु के पार
जो है और जन्म
के पहले जो है,
उसे भी
सोचना, उसे
भी विचारना, उसे भी ध्याना
है। अब मैं
शाश्वत में जीऊंगा——समय
में नहीं, क्षणभंगुर
में नहीं।
जन्म और
मृत्यु में
नहीं, अमृत
की तलाश में जीऊंगा।
संन्यास
तो सिर्फ एक
बाह्य घोषणा
है। लेकिन बाहरी
घोषणा से भीतर
की यात्रा
शुरू होती है।
और बाहर की
घोषणा से ही
शुरू हो सकती
है, क्योंकि
तुम अभी बाहर
हो। इसलिए
बाहर से ही काम
शुरू करना
पड़ेगा।
ओ
पिया,
आग
लगाए बोगनबेलिया!
पूनम
के आसमान में
बादल
छाया,
मन
का जैसे
सारा
दर्द छितराया,
सिहर—सिहर
उठता है
जिया
मेरा,
ओ
पिया!
लहरों
के दीपों में
कांप
रही यादें,
मन
करता है
कि
तुम्हें सब
कुछ
बतला
दें,
आकुल
हर
क्षण को
कैसे
जिया,
ओ
पिया!
पछुआ
की सांसों में
गंध
के झकोरे,
वर्जित
मन लौट गए
कोरे
के कोरे,
आशा
का थरथरा
उठा दीया,
ओ
पिया!
तुम्हारे
भीतर आशा का
एक दीया थरथरा
उठा है सलाहुद्दीन!
बड़े झंझावात
हैं, बचाना
इसे। बड़े अंधड़,
बड़े तूफान
हैं इसे बुझा
देने को, बचाना
इसे।
आशा
का थरथरा
उठा दीया,
ओ
पिया!
अभी यह
छोटी—सी
ज्योति है, यह विराट हो
सकती है। पड़ी
होगी सुप्त
जन्मों—जन्मों
से। शायद पहले
भी सदगुरुओं
से सत्संग
किया होगा——रह
गई होंगी
छापें
अंतस्तल में,
अचेतन में
पड़े रह गए
होंगे बीज।
उठे होओगे किसी
बुद्ध के पास,
किसी
मुहम्मद के
पास, किसी
नानक के पास।
बैठे होओगे किसी
कबीर के पास।
देखा होगा
मीरा को नाचते,
कि चैतन्य
को, कि
रूमी को; कि
सुना होगा अनलहक
का नाद मंसूर
से। कहीं न
कहीं बीज पड़ा
रहा होगा; मेरी
बातें सुनकर
उस बीज में
अंकुरण शुरू
हो गया है।
आशा
का थरथरा
उठा दीया,
ओ
पिया!
अब इसे
बुझ मत जाने
देना। अंकुर
छोटे होते हैं
तो कोमल होते
हैं, जल्दी मर
सकते हैं। बाड़
लगा लो अंकुर
के चारों तरफ,
बागुड़ लगा लो——वही बागुड़
संन्यास है।
अभी
बहुत होने को
है। अभी बूंद
गले के नीचे
उतरी, अभी
गागर दूंगा, अभी सागर
दूंगा! आगे बढ़ो
और हिम्मत
करो!
छोड़ो
संकोच, छोड़ो मन के तर्कजाल।
अड़चनें
आएंगी। अड़चनें
आती ही हैं।
बिना अड़चनों
के कोई विकास
नहीं, न
कोई प्रौढ़ता
है। संकट आते
हैं; अगर
उनका सम्यक
उपयोग कर लो
तो शुभ बन
जाते हैं। हर
संकट
आशीर्वाद बन
सकता है।
और
मुझे
तुम्हारी
चिंता है, और तुम्हारी
तकलीफों का
मुझे खयाल है।
मुसलमान होकर
संन्यस्त
होने में अड़चनें
बहुत हैं।
हिंदू
संन्यासी हो
जाता है, तो
लोग सोचते हैं
ठीक है! कोई
खास अड़चन नहीं
आ जाती। लेकिन
मुसलमान...।
पाकिस्तान से
कुछ लोग चोरी
छिपे यहां आते
हैं, संन्यास
लेना चाहते
हैं। लेकिन
कहते हैं: माला
हम छिपा कर
रखेंगे, क्योंकि
पाकिस्तान
में अगर किसी
को पता चल गया
कि हम माला
रखे हुए हैं, कोई चित्र
माला में है, तो जिंदा
रहना मुश्किल
हो जाएगा।
तो मैं
उनसे कहता हूं——मर
ही जाना! ऐसे
तो मरना ही
पड़ेगा न; मृत्यु
सार्थक हो
जाएगी।
संन्यास के
लिए मरे तो
सत्य के लिए
मरे। मर ही
जाना! जीकर भी
क्या करोगे? और दस—बीस
साल किसी तरह
जी लोगे, जीकर
भी क्या
करोगे! जीने
से भी क्या
होने वाला है?
एक
सूत्र याद रखो——जिस
व्यक्ति के
जीवन में ऐसी
कोई चीज है
जिसके लिए वह
मर सकता है, उसी व्यक्ति
के पास जीवन
है। जिसके पास
जीवन से बड़ी
कोई चीज है, उसी के पास
जीवन है।
जिसके पास ऐसी
कोई संपदा है
जिसके लिए वह
मरने को भी
राजी हो जाए, झिझके न, उसी
ने जीवन को
जाना है। उनके
ऊपर ही
परमात्मा की
अनुकंपा होती
है, उन पर
ही उसका
प्रसाद बरसता
है।
तीसरा
प्रश्न:
योग, ध्यान और
अध्यात्म का
वैज्ञानिक
संबंध, इतनी
प्यारी वाणी
और आपका दर्शन
कर मैं स्वयं को
धन्यभागी
स्वीकार करता
हूं।
फिर
भी इतने
प्यारे प्रभु
का कुछ
धार्मिक और राजनैतिक
लोग विरोध
क्यों करते
हैं? मुझे
यह विरोध
अच्छा नहीं
लगता; मैं
क्या करूं?
धर्मेश्वर!
यह विरोध
बिलकुल
स्वाभाविक
है। तुम्हें
अच्छा नहीं
लगता, यह भी
स्वाभाविक
है। लेकिन जो
विरोध कर रहे
हैं, वे भी
मजबूर हैं।
उनकी मजबूरी
भी समझो। उन
पर थोड़ी दया
खाओ। उनके
अंतस्तल में
झांको। उनके भीतर
सबल कारण हैं
विरोध के।
उनके न्यस्त
स्वार्थों पर
चोट पड़ रही
है। वे कैसे
एकदम मेरा विरोध
करना बंद कर
दें! यह विरोध
तो बढ़ेगा, यह
घटने वाला
नहीं है। यह
तो घटेगा उसी
दिन जब मैं
चला जाऊंगा,
उसके पहले
तक तो नहीं
घटने वाला है।
हां, मेरे
चले जाने पर
यह विरोध
बिलकुल
समाप्त हो जाएगा।
जो विरोध करते
हैं, वे भी
सहयोगी हो
जाएंगे। ऐसा
ही सदा हुआ
है। लेकिन जब
तक मैं हूं, तब तक यह
विरोध बढ़ेगा।
और जितना मैं बढूंगा——यानी
मेरे संन्यासी
बढ़ेंगे, मेरे लोग बढ़ेंगे——उतना
यह विरोध
बढ़ेगा।
क्योंकि उतनी
चोट पड़ने लगेगी
न्यस्त
स्वार्थों
पर।
अब
मंदिर का
पुजारी कैसे न
विरोध करे!
थोड़ी दया करो
उस पर। मस्जिद
का मुल्ला
कैसे विरोध न
करे!
गुरुद्वारे
का ग्रंथी
कैसे विरोध न
करे! चर्च का
पादरी कैसे विरोध
न करे! मैं
उसके ही
व्यक्तियों
को तो छीने ले
रहा हूं। वह
जो कल चर्च
जाता था, यहां
आने लगा। वह
जो कल
गुरुद्वारा
जाता था, यहां
आने लगा। वह
जो कल मंदिर
में पूजा करता
था, उसने
मंदिर की तरफ
पीठ कर ली है।
वह कैसे विरोध
न करे, उसकी
जड़ें हिल रही
हैं!
फिर जो
मैं कह रहा
हूं, वह मौलिक
रूप से भिन्न
है उसकी
धारणाओं से।
उसकी धारणाओं
से उतना ही
भिन्न है, जितना
कि जीसस के
वचन उससे
भिन्न थे और
बुद्ध के। यह
जानकर
तुम्हें
हैरानी होगी
कि जीसस का विरोध
यहूदी
पुरोहितों ने
किया था। ऐसा
मत सोचना कि
यहूदियों ने
किया था। यह
भ्रांति फैल
गई है सारे
जगत में कि
जीसस का विरोध
यहूदियों ने
किया था। नहीं,
यहूदी
पुरोहितों ने
किया था। और
उसमें भी तुम खयाल
रखना, यहूदी
पर जोर मत
देना, पुरोहित
पर जोर देना।
अगर आज जीसस
आएं तो ईसाई
पुरोहित उतना
ही विरोध
करेगा, क्योंकि
अब उसके
न्यस्त
स्वार्थों पर
चोट पड़ेगी।
पुरोहित
के न्यस्त
स्वार्थ क्या
हैं?
उसका
न्यस्त
स्वार्थ यह है
कि परमात्मा
और मनुष्य के
बीच सीधा
संबंध नहीं
होना चाहिए।
क्योंकि सीधा
संबंध हो जाए
तो दलाल की
कोई जरूरत नहीं
रह जाती।
पुरोहित दलाल
है, वह बीच
में खड़ा है।
वह कहता है:
तुम्हें जो
कुछ कहना है
मुझसे कहो, मैं
परमात्मा से
कहूंगा। तुम
सीधे मत कहो।
अगर तुम सीधे
ही कह देते हो,
तो उसका
सारा होने का
अर्थ ही खो
गया। मैं यज्ञ
करवाऊंगा,
मैं
परमात्मा की
आहुति चढ़ाऊंगा,
मैं वेद के
पाठ पढूंगा, मैं उसे पुकारूंगा;
तुम
पुकारने का जो
खर्च हो वह
मुझे दे देना।
प्रार्थना
मैं करूंगा, प्रार्थना
के दाम तुम
चुका देना।
परमात्मा से
मैं बोलूंगा,
तुम मुझसे
बोलो।
तुम्हें क्या
करना है, तुम्हें
क्या चाहिए, मुझे कह दो।
तुम सीधे
प्रत्यक्ष
परमात्मा से प्रार्थना
मत करना।
पुरोहित का
मतलब है——बिचवइया।
मैं
तुमसे कह रहा
हूं, कोई
जरूरत नहीं है
बिचवइए
की। तुम सीधे
ही पुकारो।
प्रार्थनाएं
नौकरों से
नहीं करवाई
जातीं। यह तो
ऐसे ही हुआ कि
तुम एक नौकर
रख लो और कहो
कि जाओ मेरी
पत्नी को मेरी
तरफ से प्रेम
निवेदन कर दो!
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक स्त्री के
प्रेम में था।
उसने बहुत
पत्र लिखे, कम से कम दिन
में तीन लिखता
था——सुबह, दोपहर,
सांझ।
महीने, दो
महीने के ही
प्रेम ने उसका
घर पत्रों से
भर दिया। फिर
जैसे प्रेम
आते हैं जाते
हैं, ऐसे
यह प्रेम भी
आया और गया।
तो मुल्ला गया
उस स्त्री के
पास और कहा कि
मेरे पत्र कम
से कम वापिस
लौटा दो। उस
स्त्री ने
कहा: इन
पत्रों का तुम
क्या करोगे? मुल्ला ने
कहा: अब तुमसे
क्या छिपाना,
अब तो बात
भी खत्म हो
गई। एक पंडित
जी से लिखवाता
था। मुफ्त
नहीं लिखवाए
हैं, एक—एक
पत्र के पैसे
चुकाने पड़े
हैं। और अभी
मेरी जिंदगी
तो खत्म नहीं
हो गई; यह
प्रेम खत्म हो
गया, कल
किसी और से
होगा, इन्हीं
पत्रों का काम
वहां उपयोग कर
लूंगा। ये
पत्र मुझे
जिंदगी—भर काम
दे सकते हैं।
पत्र मेरे
वापिस लौटा
दो।
पत्र, प्रेम—पत्र,
भी लोग उधार
लिखवा रहे
हैं! प्रेम—पत्र
भी तुम खुद न लिखोगे!
प्रार्थना भी
तुम खुद न
करोगे! और मैं
तुमसे कहता
हूं कि अगर
तुम्हारी प्रार्थना
तुतलाहट भी हो
तो भी
तुम्हारी ही
होनी चाहिए, तो ही
परमात्मा तक पहुंचेगी।
और किसी ने
चाहे उसे ठीक
वेद के शब्दों
में बांधकर
गाया हो, तो
भी नहीं पहुंचेगी,
क्योंकि
उधार हो गई।
संस्कृत का
सवाल नहीं है,
हार्दिक का
सवाल है। अरबी
का सवाल नहीं
है, आत्मा
का सवाल है।
तुम अपने
प्राणों से पुकारो; तुम रोओ, तुम्हारे
आंसू गिरें।
पुजारी रो रहा
है। और पुजारी
क्या खाक
रोएगा! वह
अभिनय कर रहा
है रोने का।
पुजारी नाच
रहा है, तुम
बैठे देख रहे
हो। तुम दर्शक
हो गए हो। परमात्मा
चाहता है तुम
भागीदार होओ,
तुम जुड़ो।
तो मैं
जो यहां तुमसे
कह रहा हूं, वह है सीधे
परमात्मा से
प्रत्यक्ष की
बात। पुजारी—पुरोहित
को चोट लगेगी।
फिर मैं कुछ
और बातें तुमसे
कह रहा हूं, जो उसने
तुमसे कभी
नहीं कही हैं,
बल्कि
तुमसे विपरीत
बातें कही
हैं। उसने तुम्हें
सदा डराया है।
और मैं कहता
हूं, डरना
मत, नहीं
तो परमात्मा
से टूट जाओगे।
तुलसीदास
ने कहा है: भय
बिन होय न
प्रीति। और
मैं तुमसे कहता
हूं: भय जहां
है, वहां
प्रीति हो ही
नहीं सकती। तो
तुलसीदास
का माननेवाला
अगर मुझसे
नाराज हो जाए
तो आश्चर्य तो
नहीं। क्योंकि
मैं तो कहता
हूं, भय और
प्रेम विपरीत
हैं। जिससे
प्रेम होता है
उससे भय नहीं
होता, और
जिससे भय होता
है उससे प्रेम
नहीं होता। मैं
कह रहा हूं, ईश्वर—भीरु
मत बनना, ईश्वर—प्रेमी
बनो। और
पुराना सारा
धर्म भय पर
खड़ा है। भय पर
खड़े करने का
कारण है। आदमी
का शोषण करना
हो तो पहले
उसे भयभीत
करना जरूरी है,
बिना भयभीत
किए आदमी का
शोषण नहीं हो
सकता। पहले
डरा दो उसे, घबड़ा दो
उसे।
मैं एक
डाक्टर को
जानता हूं; उनके घर मैं
मेहमान होता
था, बैठकर
मैं देखता कि
वह मरीजों को
डरवाते। जिसको
सर्दी—जुकाम
हुआ है, उसको
वह एकदम इस
तरह बात करते
जैसे
निमोनिया हो
गया है कि डबल
निमोनिया हो
गया है। मैंने
यह दो—चार बार
देखा। मैंने
उनसे पूछा कि
बात क्या है? आप मरीज को
बहुत घबड़ा
देते हैं!
उन्होंने कहा:
मरीज को घबड़ाओ
मत, तो
मरीज फंदे में
नहीं आता।
मालूम है मुझे
भी सर्दी—जुकाम
है, लेकिन
निमोनिया की
बात करो तो
मरीज घबड़ाता
है। हालांकि
सर्दी—जुकाम
है, इसलिए
ठीक भी कर
लेंगे जल्दी,
कोई अड़चन भी
नहीं है। और
मरीज को अगर
यह खयाल रहे
कि निमोनिया
ठीक किया गया
है, तो वह
सदा के लिए
अपना हो जाता
है। और इतनी
जल्दी ठीक
किया गया! तो
दोहरे फायदे
हैं! पर मैंने कहा,
यह तो बात
गलत है, यह
तो बात अनुचित
है। तुम तो
धर्म—पुरोहितों
जैसा काम कर
रहे हो!
मगर
बहुत डाक्टर
हैं जो इस तरह
जीते हैं, जो तुम्हारी
छोटी—सी
बीमारी को खूब
बड़ा करके बता
देते हैं। और
मजा ऐसा है कि
मरीज इन्हीं
डाक्टरों से
प्रसन्न होता
है। जो उसकी
बीमारी को खूब
बड़ा करके बता
देते हैं, वे
ही उसको बड़े
डाक्टर भी
मालूम होते
हैं। अगर तुम
समझ रहे हो कि
तुम्हें
निमोनिया हुआ
है, और तुम
गए और कोई
डाक्टर कह दे: छोड़ो
बकवास, सर्दी—जुकाम
है, दो दिन
में चला
जाएगा। तुम
प्रसन्न नहीं
होते; तुम्हारा
चित्त राजी
नहीं होता; तुमको चोट
लगती है। तुम
इतनी बड़ी
बीमारी लेकर आए——तुम
कोई छोटे—मोटे
आदमी हो!
तुम्हें कोई
छोटी—मोटी
बीमारियां
होती हैं! बड़े
आदमियों को
बड़ी बीमारियां
होती हैं। तुम
बड़े आदमी हो, तुम बड़ी
बीमारी लेकर
आए हो और यह
बदतमीज कहता है
कि सर्दी—जुकाम
है बस, ठीक
हो जाएगा, ऐसे
ही ठीक हो
जाएगा। जो
डाक्टर मरीज
से कह देता है
ऐसे ही ठीक हो
जाएगा, उससे
मरीज प्रसन्न
नहीं होते।
मेरे
गांव में एक
नए डाक्टर आए।
सीधे—सादे
आदमी थे। उनकी
डाक्टरी न
चले। किसी ने
मेरी उनसे
पहचान करा दी।
उन्होंने
मुझसे पूछा कि
मामला क्या है? मेरी
डाक्टरी
क्यों नहीं
चलती? मैंने
कहा कि मैं
जरा आऊंगा,
देखूंगा एक—दो
दिन बैठकर कि
बात क्या है।
तो
उनकी बैठ जाता
था
डिस्पेंसरी
पर जाकर। जो मैंने
देखा, तो
मामला साफ हो
गया। वह
मरीजों को
डरवाते न। मरीज
बता रहा है
बड़ी बीमारी, वह कहते: यह
कुछ नहीं है, यह मिक्शचर
ले लो, ठीक
हो जाएगी।
किसी—किसी
मरीज को कह
देते कि
तुम्हें
बीमारी ही नहीं
है, दवा की
कोई जरूरत
नहीं है। और
मरीज अपनी
बीमारी की कथा
कह भी न पाता
और वह मिक्शचर
तैयार करने
लगते। मैंने
उनके मरीजों
से पूछा।
उन्होंने कहा
कि हमें यह
बात जंचती
नहीं। हम अभी
अपनी बीमारी
की पूरी बात
भी नहीं कह
पाए और यह
सज्जन जल्दी
से दवाई बनाने
लगते हैं।
कुशल
डाक्टर थे, मगर कुशल
राजनीतिज्ञ
नहीं थे। मरीज
को सिर्फ बीमारी
ही थोड़े ही
ठीक करवानी है,
मरीज को कुछ
और रस भी है——उसकी
बात ध्यान से
सुनी जाए, उस
पर ध्यान दिया
जाए। तड़प
रहा है, कोई
ध्यान नहीं
देता। घर जाता
है, कहता
है सिर में
दर्द, तो
पत्नी कहती है,
लेटे रहो, ठीक हो
जाएगा। कोई
ध्यान नहीं
देता। कोई
उसकी चारों
तरफ खाट के
बैठकर हाथ—पैर
नहीं दबाता।
कोई कहता नहीं
कि अहा! ऐसा सिरदर्द
कभी किसी को
नहीं हुआ।
कितनी मुसीबत
में पड़े हो!
कैसा कष्ट झेल
रहे हो! हम
बच्चों के लिए,
पत्नी के
लिए, परिवार
के लिए कैसा
महान हिमालय
सिर पर ढो रहे
हो! उसी से
सिरदर्द हो
रहा है——कोई उस
पर ध्यान नहीं
देता। और यह
डाक्टर के पास
आया है; यह मिक्शचर
बनाने लगा, इसने मरीज
की बात ही
नहीं सुनी।
होम्योपैथी
डाक्टरों का
बड़ा प्रभाव का
एक कारण है कि
वे खूब लंबी
चर्चा सुनते
हैं; तुम्हारी
ही नहीं, तुम्हारे
पिता को भी
क्या बीमारी
हुई थी, उसकी
भी तुमसे
पूछते हैं।
पिता के पिता
को भी क्या
हुई थी, उसकी
भी तुमसे
पूछते हैं।
बचपन से लेकर
अब तक कितनी
बीमारियां
हुईं, वह
सब पूछ लेते
हैं। मरीज को
बड़ी राहत
मिलती है——यह
कोई आदमी है
जो इतना रस ले
रहा है!
पश्चिम
में मनोवैज्ञानिकों
का बहुत
प्रभाव है, क्योंकि वे
घंटों
तुम्हारी
बकवास सुनते
हैं; मगर
इतने ध्यान से
सुनते हैं
जैसे तुम अमृत
वचन बोल रहे
हो।
एक ही
मकान में दो
मनोवैज्ञानिक
काम करते थे——एक
बूढ़ा, एक
जवान। दोनों
सांझ को जब
लौटते, लिफ्ट
से एक ही साथ
नीचे उतरते
थे। जवान सदा
टूटा—फूटा, हारा—थका; दिन—भर
पागलों की
बातचीत सुनना,
मानसिक
बीमारों की
बातें सुनना;
थक मरता।
मगर बूढ़ा जैसा
सुबह ताजा आता
था, वैसा
ही सांझ ताजा
जाता था। आखिर
उस युवक ने कहा:
हद हो गई! मैं
जवान हूं, मुझे
ये मरीज मिटा
डालते हैं दिन—भर
में! रौंद
डालते हैं
बुरी तरह से!
ऐसी—ऐसी बकवास
मुझे सुननी
पड़ती है, ऐसी
फिजूल की
बातें, जिनका
कोई सार नहीं
है; मगर
सुनना पड़ता है,
क्योंकि
फीस उसी की
मिलती है। आप
थकते नहीं? वह बूढ़ा
मुस्कुराया, उसने कहा:
सुनता कौन है!
मैं बैठा—बैठा
मुस्कुराता
रहता हूं, उनको
लगता है कि
सुन रहा हूं।
सुनता कौन है,
ऐसे भी मैं
बहरा हूं।
सुनो
चाहे न सुनो, मगर कम से कम
दिखाओ तो कि
सुन रहे हो।
पहले भयभीत कर
दो, पहले
डरा दो, शंकित
कर दो। जैसे
ही आदमी शंकित
हुआ, आत्मवान
नहीं रह जाता,
उसकी
श्रद्धा अपने
पर कम हो जाती
है। और जब किसी
आदमी की अपने
पर श्रद्धा कम
हो जाए, तभी
दूसरे पर वह
श्रद्धा कर
सकता है, नहीं
तो नहीं कर
सकता, यह
खयाल रखना।
यह
पुरोहित का
बुनियादी
व्यवसाय
सूत्र है: पहले
आदमी को उसकी
स्वयं की
श्रद्धा से
वंचित कर दो, उसे डरा दो——पापी
हो, महापापी
हो, जन्मों—जन्मों
के कर्म तुम
पर पड़े हैं, सड़ोगे नर्क में।
नर्क की खूब
वीभत्स
तस्वीर खींचो
कि कैसे सड़ाए
जाओगे! कैसे गलाए
जाओगे! कैसे
आग में डाले
जाओगे! कैसे
जलते कड़ाहों
में चुड़ाए
जाओगे! पहले
उसे खूब डरा
दो, उसे
ऐसा भयभीत कर
दो कि वह
कंपने लगे, कि उसका
रोआं—रोआं खड़ा
हो जाए। फिर
कहो कि मैं
तुम्हें बचा सकता
हूं! आओ, जब
तक मैं हूं, घबड़ाओ मत। डर की
कोई वजह नहीं
है, मैं
तुम्हें बचा
लूंगा, मैं
बचावनहारा
हूं। बस यह
तरकीब है।
मैं
तुमसे कह रहा
हूं, तुम पापी
नहीं हो, तुम
परमात्मा हो।
मैं तुमसे कह
रहा हूं, तुम्हारे
ऊपर कोई
कर्मों का बोझ
नहीं है। क्योंकि
तुमने जो कर्म
किए वे होश
में नहीं किए,
उनका बोझ
तुम पर हो
नहीं सकता।
जैसे कोई शराब
पीने में गाली
बक दे, उसको
हम क्षमा कर
देते हैं——शराब
पीए था; कौन
उस पर ध्यान
देता है! वही
आदमी बिना
शराब पीए गाली
दे, तो तुम
बर्दाश्त न कर
सकोगे। एक
आदमी गाली दे रहा
हो, तुम
गुस्से में
आने ही आने को
थे, गर्दन
दबाने को ही
थे, कि कोई
कह दे: भई, वह
शराबी है, शराब
पीए है। बस
तुम ढीले हो
जाते हो, तुम
कहते हो फिर
जाने दो। शराब
पीए है तब
इससे क्या
झंझट लेनी! यह
होश में ही
नहीं है तो
इसका उत्तरदायित्व
क्या है?
तुम
होश में ही
नहीं हो, तुम्हारा
उत्तरदायित्व
क्या है? हां,
बुद्ध अगर
पाप करें तो
उत्तरदायी
होंगे। तुम पाप
करोगे, तुम्हारा
क्या खाक
उत्तरदायित्व
है! तुम हो ही
नहीं अभी; तुम्हारे
भीतर बोध की
किरण नहीं
पैदा हुई। इसलिए
तुमने जो भी
किया है अब तक——पाप
और पुण्य
दोनों, सपने
में किए गए
हैं। तुम साधु
बने तो सपना
था, तुम
चोर बने तो
सपना था। मैं
तुमसे कहता
हूं, तुम
पर कोई बोझ
नहीं है अतीत
का। मैं तुमसे
कहता हूं, तुमने
कोई पाप कभी
नहीं किया है।
तुम्हारा अंतरतम
उज्ज्वल है, कुंवारा है,
उस पर कोई
कालिख की रेख
नहीं लगी।
यह
अड़चन की बात
है पंडित को, पुरोहित को;
उसका सारा
व्यवसाय
समाप्त हो
जाएगा। उसकी
नाराजगी
स्वाभाविक
है। राजनेता
भी परेशान है,
क्योंकि
मैं कहता हूं
तुम्हें
राजनेताओं की भी
कोई आवश्यकता
नहीं है।
तुम्हें
राजनेताओं की
इसलिए
आवश्यकता
पड़ती है कि
तुम्हें अपने पर
विश्वास नहीं
है। तुमने
आत्मविश्वास
खो दिया है।
इसलिए
तुम्हें किसी
के कंधे का
सहारा चाहिए।
तुम्हें किसी
के पीछे चलने
की वृत्ति पड़ गई
है। कोई भी हो,
लेकिन
तुम्हें किसी
के पीछे चलना
है, आगे
कोई चलना
चाहिए। तुम
बुद्धू से
बुद्धू आदमियों
के पीछे चल
सकते हो, मगर
पीछे ही चल
सकते हो।
तुम्हें सदा
शंका है। तुम
यह नहीं मान
सकते कि मैं
अपनी तरह से
चलकर और ठीक
जगह पहुंच जाऊंगा।
राजनेता भी
नहीं चाहता कि
तुम में
आत्मविश्वास जगे।
तुममें जितना
आत्मविश्वास
कम है, उतना
ही राजनेता का
बल है।
जिस
देश में जितना
आत्मविश्वास
बढ़ेगा, उतना
ही राजनेता का
बल कम हो
जाएगा। जिस देश
में लोग
आत्मविश्वासी
हो जाएंगे, अपनी बुद्धि
पर भरोसा
करेंगे, अपनी
चेतना से
जीएंगे, उस
देश में
राजनेताओं की
क्या जरूरत रह
जाएगी? हां,
सरकारी
नौकर होंगे, राजनेता की
कोई जरूरत
नहीं रह
जाएगी।
सरकारी नौकर
ठीक हैं। उनका
काम है जनता
की सेवा कर देना,
उसकी वे तनख्वाह
पा लेते हैं।
लेकिन उनको
सिर पर बिठाने
की कोई जरूरत
नहीं है। तो
जो कीमत
तुम्हारे घर
में रसोइए
की है, उससे
ज्यादा कीमत खाद्यमंत्री
की नहीं होनी
चाहिए। वह
रसोइया है, पूरे प्रदेश
का समझ लो, या
कि पूरे देश
का समझ लो।
ठीक है, अच्छा
काम मिले, अच्छा
काम करे, उसे
आदर मिल जाना
चाहिए, पुरस्कार
मिल जाना
चाहिए। मगर
राजनेता लोगों
के सिर पर
सवार रहे, इसकी
कोई आवश्यकता
नहीं है।
जैसे—जैसे
मनुष्य
ज्यादा
प्रबुद्ध
होगा वैसे—वैसे
राजनीति कम
होती जाएगी।
राजनीति के
दिन गए, लद
गए! भविष्य
नहीं है
राजनीति का
कोई। और अच्छा
है कि राजनीति
समाप्त हो जाए
दुनिया से।
क्योंकि
राजनीति ने
दिया क्या
सिवाय झगड़े, खून—खराबे,
युद्धों के?
लोगों को लड़ाया है; लोगों को लड़ाकर
ही राजनेता
जीता है।
इसलिए हर
लोकतंत्र में
दो पार्टियां
कम से कम
चाहिए, ताकि
वे पार्टियां
लड़ें, लोगों
को बांटें।
और किसी भी
हालत में लुटोगे
तुम।
तुम्हें
पता है न उन दो
बिल्लियों का
जो एक बंदर से
बंटवारा करने
पहुंच गई थीं——बंटवारा
करवाने। बंदर
ने ले ली
तराजू, तौलने
लगा। कभी
इसमें थोड़ा
ज्यादा हो गया
तो उसमें से
थोड़ा एक कौर
निकालकर उसने
खा लिया, ताकि
बराबर हो जाए।
तब दूसरे में
कम हो गया, तो
उसमें थोड़ा
डाला, फिर
जोड़ा। धीरे—धीरे
वह सारा भोजन
पचा गया।
बिल्लियां
बैठी देखती रह
गईं।
लड़ोगे
कि कोई
तुम्हारे सिर
पर शोषण
करेगा।
बुद्धिमान
समाज राजनीति
से मुक्त होगा, पुरोहित से
भी मुक्त होगा,
राजनेता से
भी मुक्त
होगा। संगठनबद्ध
धर्म के दिन
भी गए और
राजनीति के भी
दिन गए; और
दुर्दिन थे
वे। तो मेरी
बातें अगर
राजनेताओं और
धार्मिक
गुरुओं को चोट
करती हों, परेशानी
में डालती हों,
स्वाभाविक
है।
फिर
मैं तुमसे
कहता हूं, तुम्हारी
देह भी सुंदर
है उतनी ही
जितनी तुम्हारी
आत्मा। मैं
देह और आत्मा
के बीच कोई खंड,
कोई भेद, कोई द्वैत
खड़ा नहीं करना
चाहता।
तुम्हारे सभी
तथाकथित धर्म
शरीर—विरोधी
हैं, जीवन—विरोधी
हैं। उनका
नियम यह रहा
है कि तुम
जीवन से जितनी
दुश्मनी
करोगे, उतने
परमात्मा के
निकट जाओगे।
मेरी सलाह है
कि तुम जीवन
में जितने
डूबोगे, जितना
रस लोगे, जितने
रसमग्न होओगे,
उतने
परमात्मा के
निकट आओगे। और
मैं कहता हूं कि
मैं ठीक हूं
और वे गलत
हैं। क्यों? क्योंकि यह
जीवन
परमात्मा का
विस्तार है——उसकी
ही लीला, उसका
ही कृत्य।
अगर
परमात्मा
जीवन—विरोधी
है, तो जीवन
हो ही क्यों? कभी सोचो इस
छोटी—सी बात
पर——अगर
परमात्मा जीवन—विरोधी
है, तो
जीवन है ही
क्यों? क्या
परमात्मा की
इतनी भी
सामर्थ्य
नहीं है कि
जीवन को रोक
दे। फिर कैसा
सर्वशक्तिमान
है? क्या
इतना भी उसे
पता नहीं है
कि वासनाओं को
तोड़ दे। बच्चे
ही ऐसे पैदा
करे, जिनमें
वासना का बीज
ही न हो।
जिनमें न रस
की कोई
आकांक्षा हो,
न स्वर का
जिन्हें कोई
बोध हो, न
रूप का कोई
खयाल हो। ऐसे
बच्चे पैदा
करे, जो
शरीर हों ही
नहीं, सिर्फ
आत्मा ही
आत्मा हों।
मगर
परमात्मा
सुनता नहीं
तुम्हारे
महात्माओं
की। परमात्मा
बच्चे पैदा
करता है
देहधारी और
उनके भीतर
सारी जीवन की आकांक्षाएं, अभीप्साएं
पैदा करता है।
यह सारा
विस्तार
परमात्मा का
है। यह उसके
विपरीत नहीं
है। कोई कविता
कवि के विपरीत
होती है? और
कोई चित्र
चित्रकार के
विपरीत होता
है? और कोई
संगीत किसी
संगीतज्ञ के
विपरीत होता है?
तो फिर
चलेगा ही
क्यों? अगर
मुझे वीणा से
विरोध है, तो
मैं वीणा
बजाऊं क्यों?
और अगर
मनुष्य को
संसार से
मुक्त होने की
ही आकांक्षा
परमात्मा की
है, तो
संसार बनाने
की कोई जरूरत
नहीं।
नहीं, परमात्मा
चाहता है
संसार से गुजरो,
संसार का
अनुभव करो; क्योंकि
अनुभव से ही
बोध निखरेगा,
आत्मा
प्रगट होगी।
यह अनुभव की
पाठशाला है। इसलिए
मैं कहता हूं,
संसार को
छोड़ना नहीं है,
भागना नहीं
है। शरीर से
दुश्मनी नहीं
साधनी है।
जीवन का निषेध
नहीं करना है।
जीवन का अंगीकार
करो। बांहें
भर लो जीवन को,
गलबांहें डालो
जीवन को, आलिंगन
करो जीवन का।
जीवन उत्सव
है।
इसलिए
धर्मगुरु
नाराज है, क्योंकि मैं
जीवन का
पक्षपाती
हूं।
धर्मगुरु
नाराज है, वह
कहता फिरता है
कि मैं लोगों
को भ्रष्ट कर
रहा हूं, क्योंकि
मैं उनको जीवन
की शिक्षा दे
रहा हूं, इसलिए
भ्रष्ट कर रहा
हूं। वह कहता
फिरता है कि
मैं नास्तिक
हूं कि
चार्वाकवादी
हूं, क्योंकि
मैं लोगों को
सुख की शिक्षा
दे रहा हूं।
और मैं तुमसे
कहता हूं, अब
तक तुम्हें
दुखी रखने का
आयोजन किया
गया है। और
तुम जितने
ज्यादा दुखी
हुए, दुख
के कारण तुमने
परमात्मा को
याद किया।
और
खयाल रखना, जो दुख के
कारण
परमात्मा को
याद करता है, परमात्मा को
याद करता ही
नहीं।
क्योंकि दुख के
कारण करता है,
तो परमात्मा
से कुछ हेतु
है——मेरा दुख
छीन लो! मेरा
दुख हर लो! तो
कुछ स्वार्थ
है। यह
प्रार्थना
शुद्ध नहीं
है। यह प्रार्थना
कलुषित है।
अगर
नहीं है यह
दस्ते—हविस की
कमजोरी
तो
फिर दराजिए—दस्ते—दुआ
को क्या कहिए
अगर
नहीं है यह
दस्ते—हविस की
कमजोरी
अगर यह
तृष्णा की
कमजोरी नहीं
है, तो फिर
प्रार्थना के
बाद जो हाथ
तुम फैलाते हो
आकाश की तरफ, उनके लिए हम
क्या कहें? किसलिए फैलाते हो?
अगर
नहीं है यह
दस्ते—हविस की
कमजोरी
तो
फिर दराजिए—दस्ते—दुआ
को क्या कहिए
तो
फिर हाथ क्यों
फैलाते हो?
परमात्मा
से भी कुछ
मांगोगे, तो
तुम्हारा
परमात्मा से
संबंध नहीं जुड़ेगा।
कुछ मत मांगो।
मांग वासना
है। मांगना
भिखमंगापन
है। तो मैं तो
कहता हूं, परमात्मा
से मांगो मत, धन्यवाद दो।
उसने इतना
दिया है, इसके
लिए धन्यवाद
दो; और मत
मांगो। तो मैं
कहता हूं, दुख
के कारण
परमात्मा को
याद करोगे, तो गलत होगी
याद, सुख के
कारण याद करो।
तुम मेरा फर्क
समझो। मैं एक क्रांति
कर रहा हूं।
दुख के कारण
तुम्हारी प्रार्थना
में
भिखमंगापन
होता है।
तो
फिर दराजिए—दस्ते—दुआ
को क्या कहिए
तो फिर
वह प्रार्थना
के बाद जो तुम
हाथ फैलाते हो
और झोली आकाश
की तरफ, उनको
क्या कहें हम?
तृष्णा ही
है, हेतु
है। और प्रेम
तो अहेतुक
होना चाहिए।
अहेतुक प्रेम
तभी हो सकता
है, जब तुम
जीवन का आनंद जीयो, अनुभव
करो। और ऐसे
कृतज्ञ हो जाओ
कि किन्हीं कृतज्ञता
के क्षणों में
झुको और
धन्यवाद दो।
प्रार्थना
धन्यवाद होनी
चाहिए; तब
तुमने सम्राट
की तरह
प्रार्थना
की। मैं चाहता
हूं, तुम
सम्राट की तरह
प्रार्थना
करो, भिखमंगों की तरह
नहीं। भिखमंगों
से परमात्मा
भी परेशान आ
गया होगा। कम
से कम तुम्हारी
प्रार्थना
में तो
तुम्हारा
सम्राट—भाव
प्रकट हो। कम
से कम
प्रार्थना
में तो तुम कुछ
न मांगो, धन्यवाद
दो, क्योंकि
बहुत उसने
दिया है। तो
मैं तुम्हें
सुख सिखाता
हूं, ताकि
सुख से
तुम्हारी
प्रार्थना उमगे। और
सुख से जब
प्रार्थना
उठती है, तो
उसमें बड़ी
सुवास होती है,
बड़ा
सौंदर्य होता
है। और
तुम्हारी
मांगी गई प्रार्थनाएं
पूरी कहां
होती हैं? फिर
भी तुम मांगे
चले जाते हो!
तुम्हारी
मांगी गई
प्रार्थनाएं
पूरी नहीं
होतीं, मगर
तुम्हारा
भिखमंगापन
गहरा होता
जाता है।
दुआ
से कम नहीं
होता है जोर तूफां का
खुदा
का हाल यह है, नाखुदा को
क्या कहिए
कौन
सुनता है
तुम्हारी
प्रार्थनाओं
को! भिखमंगों
की
प्रार्थनाएं
न कभी सुनी गई
हैं, न कभी
सुनी जाएंगी।
दुआ
से कम नहीं होता
है जोर तूफां
का
तुम
कितनी ही
प्रार्थनाएं
करो, तूफान
इनसे कम नहीं
होते, न
उनका जोर कम
होता है।
खुदा
का हाल यह है, नाखुदा को
क्या कहिए
जब
परमात्मा की
ऐसी हालत है, तो मांझी को
क्या दोष दे
रहे हो!
लेकिन
तुम मांझियों
को दोष देते
रहते हो। तुम
कहते हो: मस्जिद
में पूरी नहीं
हुई, तो अब
मंदिर में
जाएंगे।
मंदिर में
पूरी नहीं हुई,
गुरुद्वारा
जाएंगे।
गुरुद्वारा
में पूरी नहीं
हुई, तो
चलो किसी फकीर
की कब्र पर
जाएंगे। मगर
तुम मांझी
बदलते रहते हो
और भिखमंगापन
तुम्हारा जारी
रहता है।
मैं
तुम्हें कुछ
और, कोई और ही
पाठ सिखा रहा
हूं। इसलिए
नाराज है
धर्मगुरु।
उसने तुम्हें
जीवन—विरोधी
पाठ सिखाया, मैं जीवन—स्वीकार
का पाठ सिखा
रहा हूं। उसने
तुम्हें शरीर
की दुश्मनी
सिखाई, मैं
शरीर से प्रेम
सिखा रहा हूं।
उसने तुम्हें
निंदा सिखाई——यह
भी गलत, वह
भी गलत, सब
गलत। उसने
तुम्हें
चारों तरफ
गलतियों के
बोझ से भर
दिया और
तुम्हें दीनऱ्हीन
कर दिया।
मैं
कहता हूं, कुछ भी गलत
नहीं; बोधपूर्वक
जो भी करो, ठीक।
बोध सही, अबोध
गलत। बस सीधे
से सूत्र हैं——जाग्रत
होकर तुम जो
भी करो, होशपूर्वक
जो भी करो, ठीक
है।
नागार्जुन
से एक चोर ने
पूछा था: आप
कहते हैं
होशपूर्वक जो
भी करो, वह
ठीक है। अगर
मैं
होशपूर्वक
चोरी करूं तो?
नागार्जुन
ने कहा: तो
चोरी भी ठीक
है; होशपूर्वक
भर करना, शर्त
याद रखना!
उस चोर
ने कहा: तो ठीक
है, तुमसे
मेरी बात बनी।
मैं बहुत
गुरुओं के पास
गया, मैं
जाहिर चोर
हूं। जैसे
गुरु
प्रसिद्ध हैं,
ऐसे ही मैं
भी प्रसिद्ध
हूं। सब गुरु
मुझे जानते
हैं। आज तक
पकड़ा नहीं गया
हूं। सम्राट
भी जानता है; उसके महल से
भी चोरियां
मैंने की हैं,
मगर पकड़ा
नहीं गया हूं।
अब तक मुझे
कोई पकड़ नहीं
पाया है। तो
जब भी मैं
किसी गुरु के
पास गया, तो
वे मुझसे यही
कहते हैं——पहले
चोरी छोड़ो,
फिर कुछ हो
सकता है। चोरी
मैं छोड़ नहीं
सकता। तुमसे
मेरी बात बनी।
तुम कहते हो
चोरी छोड़ने की
जरूरत ही नहीं
है?
नागार्जुन
ने बड़े अदभुत
शब्द कहे थे।
नागार्जुन ने
कहा था: तो जिन
गुरुओं ने
तुमसे कहा चोरी
छोड़ो, वे भी चोर ही
होंगे; भूतपूर्व
चोर होंगे, इससे ज्यादा
नहीं। नहीं तो
चोरी से उनको
क्या लेना—देना?
मुझे चोरी
से क्या लेना—देना?
मैं तुमसे
कहता हूं होश
सम्हालो, फिर
तुम्हें जो
करना हो करो।
मैं तुम्हें
दीया देता हूं;
फिर दीए के
रहते भी
तुम्हें
दीवाल से
निकलना हो, तो निकलो।
मगर मैं जानता
हूं, जिसके
हाथ में दीया
है, वह
द्वार से
निकलता है।
मैं नहीं कहता
कि दीवाल से
मत निकलो।
अंधेरे
में जो आदमी
है, उससे
क्या कहना कि
दीवाल से मत
निकलो! वह तो
टकराएगा ही, वह तो
गिरेगा ही।
उसे तो द्वार
कैसे मिलेगा?
दीवाल बड़ी
है; चारों
तरफ दीवालें
ही दीवालें
हैं। हमने ही
खड़ी की हैं।
निकल नहीं
पाओगे। और जब
निकलोगे नहीं,
बार—बार
गिरोगे। और
पुजारी—पंडित
चिल्ला रहे
हैं कि दीवाल
से टकराए
कि पाप हो
गया। फिर टकराए,
फिर पाप हो
गया! और जितने
तुम घबड़ाने
लगोगे, उतने
ज्यादा
टकराने
लगोगे। उतने
तुम्हारे पैर
कंपने
लगेंगे।
नागार्जुन
ने ठीक कहा——मैं
दीया देता हूं, अब तुझे
दीवाल से
निकलना हो, तेरी मर्जी;
मगर दीया भर
न बुझ पाए, दीए
को सम्हाले
रखना।
वह चोर
पंद्रह दिन
बाद आया, उसने
कहा: मैं हार
गया, तुम
जीत गए। तुम
आदमी बड़े
होशियार हो।
तुमने खूब
मुझे धोखा
दिया। मैं
जिंदगी—भर
लोगों को धोखा
देता रहा, तुमने
मुझे धोखा दे
दिया! आज
पंद्रह दिन से
कोशिश कर रहा
हूं
होशपूर्वक
चोरी करने की,
नहीं कर
पाया।
क्योंकि जब
होश सम्हलता
है, चोरी
की वृत्ति ही
चली जाती है; जब चोरी की
वृत्ति आती है,
तब होश नहीं
होता।
तुम
जरा करके
देखना, तुम
भी करके देखना,
होशपूर्वक
झूठ बोलकर
देखना। होश सम्हलेगा,
सच ओंठों पर
आ जाएगा। होश
गया, झूठ
बोल सकते हो।
जरा
होशपूर्वक
कामवासना में उतरकर
देखना। होश
आया, और
सारी वासना
ठंडी पड़ जाएगी,
जैसे तुषारपात
हो गया! होश
गया, उत्तप्त
हुए। बेहोशी
में ताप है, ज्वर है।
होश शीतल है।
होशपूर्वक
कोई कामवासना
में न कभी
उतरा है, न
उतर सकता है।
इसलिए मैं
तुमसे नहीं
कहता कामवासना
छोड़ो, मैं
तुमसे कहता
हूं होश
सम्हालो। फिर
जो छूट जाए, छूट जाए; जो
न छूटे, वह
ठीक है।
होशपूर्वक
जीवन जीने से
जो बच जाए, वही
पुण्य है; और
जो छूट जाए, छोड़ना ही
पड़े होश के
कारण, वही
पाप है। मगर
पाप—पुण्य का
मैं तुम्हें
ब्योरा नहीं
देता, मैं
तो सिर्फ दीया
तुम्हारे हाथ
में देता हूं।
और
तुम्हारे
पंडित—पुरोहित, तुम्हारे
राजनेता, तुम्हारे
नीतिशास्त्री,
उनका काम
यही है: फेहरिस्त
बनाओ, नियम
बनाओ, कानून
बनाओ; इतने
कानून दे दो
कि आदमी दब
जाए, मर
जाए!
बौद्ध
ग्रंथों में
तैंतीस हजार
नियम हैं नीति
के। याद भी न
कर पाओगे।
कैसे याद
करोगे? तैंतीस
हजार नियम! और
जो आदमी
तैंतीस हजार
नियम याद करके
जीएगा, वह जी पाएगा?
उसकी हालत
वही हो जाएगी,
जो मैंने
सुनी है, एक
बार एक सेंटीपीड,
शतपदी की हो
गई।
यह
शतपदी, सेंटीपीड जो जानवर
होता है, इसके
सौ पैर होते
हैं। चला जा
रहा था सेंटीपीड,
एक चूहे ने
देखा। चूहा
बड़ा चौंका, उसने कहा:
सुनिए जी, सौ
पैर! कौन—सा
पहले रखना, कौन—सा पीछे
रखना, आप
हिसाब कैसे
रखते हो? सौ
पैर मेरे हों
तो मैं तो डगमगाकर
वहीं गिर ही
जाऊं। सौ पैर
आपस में उलझ
जाएं, गुत्थमगुत्था
हो जाए। सौ
पैर! हिसाब
कैसे रखते हो
कि कौन—सा
पहले, फिर
नंबर दो, फिर
नंबर तीन, फिर
नंबर चार, फिर
नंबर पांच...सौ
का हिसाब!
गिनती में
मुश्किल नहीं
आती?
सेंटीपीड
ने कभी सोचा
नहीं था; पैदा
ही से सौ पैर
थे, चलता
ही रहा था।
उसने कहा: भाई
मेरे, तुमने
एक सवाल खड़ा
किया! मैंने
कभी सोचा नहीं,
मैंने कभी
नीचे देखा भी
नहीं कि कौन—सा
पैर आगे, कौन—सा
पहले। लेकिन
अब तुमने सवाल
खड़ा कर दिया, तो मैं सोचूंगा,
विचारूंगा।
सेंटीपीड
सोचने लगा, विचारने लगा;
वहीं लड़खड़ाकर
गिर पड़ा। खुद
भी घबड़ा गया
कि कौन—सा
पहले, कौन—सा
पीछे।
एक
जीवन की सहजता
है। तुम्हारे
नियम, तुम्हारे
कानून सारी
सहजता नष्ट कर
देते हैं।
तैंतीस हजार
नियम! कौन—सा
पहले, कौन—सा
पीछे? तैंतीस
हजार का हिसाब
रखोगे, मर
ही जाओगे, दब
ही जाओगे, प्राणों
पर पहाड़ बैठ
जाएंगे। मैं
तो तुम्हें सिर्फ
एक नियम देता
हूं——होश।
बेहोशी छोड़ो,
होश
सम्हालो। और
ये तैंतीस
हजार नियम भी
बेईमानों को
नहीं रोक
सकते। वे कोई
न कोई तरकीब
निकाल लेते
हैं।
अंग्रेजी में
एक कहावत है——कि
जहां भी
संकल्प है, वहीं मार्ग
है। उस कहावत
में थोड़ा फर्क
कर लेना
चाहिए। मैं
कहता हूं——जहां
भी कानून है, वहीं मार्ग
है। तुम बनाओ
कितने कानून
बनाते हो, मार्ग
निकाल लेगा
आदमी।
ऐसा
हुआ कि बुद्ध
के पास एक
भिक्षु आया।
बुद्ध का नियम
था कि जो भी भिक्षापात्र
में पड़ जाए, उसे स्वीकार
कर लेना
चाहिए। इसलिए
नियम बनाया था,
ताकि
भिक्षु मांग न
करने लगें
सुस्वादु
भोजनों की। जो
भी पड़ जाए भिक्षापात्र
में, रूखी—सूखी
रोटी, या
सुस्वादु
भोजन, जो
भी पड़ जाए भिक्षापात्र
में, उसे
चुपचाप
स्वीकार कर
लेना चाहिए।
ना—नुच नहीं
करना। यह नहीं
लूंगा, वह
लूंगा, ऐसे
इशारे नहीं
करना। अपनी
तरफ से कोई
वक्तव्य ही
नहीं देना। भिक्षापात्र
सामने कर देना,
जो मिल जाए।
ताकि गृहस्थों
पर व्यर्थ बोझ
न पड़े।
एक दिन
ऐसा मुश्किल
हो गया, एक
भिक्षु मांगकर
आ रहा था कि एक
चील ऊपर से
मांस का एक
टुकड़ा उसके भिक्षापात्र
में गिरा गई।
अब वह बड़ी
मुश्किल में
पड़ा। नियम कि
जो भी भिक्षापात्र
में पड़ जाए! अब
करना क्या? इसको छोड़ना
या ग्रहण करना?
अगर छोड़े, तो नियम
टूटता है। अगर
ग्रहण करे, तो मांसाहार
होता है; वह
भी नियम टूटता
है। अब करना
क्या? तो
उसने जाकर
बुद्ध से कहा।
भिक्षु—संघ
में खड़ा हुआ
और उसने कहा
कि ऐसी
प्रार्थना है,
बड़ी उलझन
में पड़ गया; दो नियमों
में विरोध आ
गया है। अगर
इसका स्वीकार
करूं, तो
मांसाहार हो
जाएगा, हिंसा
हो जाएगी। अगर
अस्वीकार
करूं, तो
आपने कहा है——भिक्षापात्र
में जो पड़े, स्वीकार कर
लेना।
बुद्ध
थोड़ा सोच में
पड़े; अगर कहें
कि स्वीकार
करो, तो
खतरा है, क्योंकि
मांसाहार को
स्वीकृति
मिलती है। अगर
कहें
अस्वीकार करो,
तो और भी
बड़ा खतरा है; क्योंकि
चीलें कोई रोज—रोज
थोड़े ही मांस गिराएंगी,
यह तो
दुर्घटना है
एक। अगर यह कह
दें कि जो ठीक न
हो छोड़ देना, तो बस अड़चन
शुरू हो जाएगी
कल से ही।
भिक्षुओं को
जो ठीक नहीं
लगेगा, वह
छोड़ देंगे; और जो ठीक
लगेगा, वही
ग्रहण
करेंगे। फिर
उनकी मांगें
शुरू हो
जाएंगी। फिर
बहुत—सा भोजन
व्यर्थ
फेंकने
लगेंगे।
उन्होंने
सोचा, और
उन्होंने कहा:
कोई फिक्र न
करो, जो भी भिक्षापात्र
में पड़ जाए, उसे स्वीकार
कर लेना।
क्योंकि चील
कोई रोज—रोज
मांस नहीं गिराएगी,
यह
दुर्घटना है।
मगर
बुद्ध को पता
नहीं कि
दुर्घटना बस
नियम बन गई! आज
चीन में, जापान
में, सारे
बौद्ध
मुल्कों में
मांसाहार
प्रचलित है, उसी घटना के
कारण! क्योंकि
मांसाहार में
अगर पाप होता,
तो भगवान ने
मना किया
होता। अब सवाल
यह है कि खुद
मारकर नहीं
खाना चाहिए, चील ने गिरा
दिया तो कोई
हर्जा नहीं!
इसलिए चीन और
जापान में तुम्हें
होटलें
मिलेंगी, जिन
पर तख्ती लगी
होती है——यहां
अपने—आप मर गए
जानवरों का
मांस ही बेचा
जाता है।
अब
इतने जानवर
अपने—आप रोज
कहीं नहीं
मरते कि पूरा
देश मांसाहार
करे। इतने
जानवर अपने—आप!
सारे देश बूचड़खानों
से भरे हैं।
फिर बूचड़खानों
में क्या हो
रहा है? फिर
बूचड़खाने
क्यों चल रहे
हैं? मगर
होटल के मालिक
को इसकी फिक्र
नहीं है; वह
इतना—भर तख्ती
लगा देता है
कि यहां अपने—आप
मर गए जानवरों
का मांस बेचा
जाता है। बस
ग्राहक को
फिक्र मिट गई!
ग्राहक भी
जानता है, दुकानदार
भी जानता है।
मगर वह एक
छोटी—सी
घटना...चील ने
बड़ी क्रांति
ला दी दुनिया
में! पूरा
एशिया
मांसाहारी है
उस एक चील की
वजह से।
कानून
में से लोग
रास्ते निकाल
लेते हैं। जहां—जहां
कानून, वहां—वहां
रास्ते। मैं
तुम्हें
कानून नहीं
देता, मैं
तो तुम्हें
सिर्फ बोध
देता हूं; ताकि
तुम अपने बोध
से ही जीयो।
जो तुम्हें
ठीक लगे किसी
क्षण में——समझपूर्वक,
विचारपूर्वक,
जागृतिपूर्वक,
वही करना।
फिर
ऐसा भी है कि
जो इस क्षण
में ठीक है, हो सकता है
दूसरे क्षण
में ठीक न भी
हो। इसलिए नियम
जड़ हो जाते
हैं। तो
पुरोहित और
राजनेता चिल्लाते
फिरते हैं कि
मैं लोगों को स्वच्छंदवादी
बना रहा हूं।
मैं लोगों को स्वच्छंदवादी
नहीं बना रहा।
और या फिर
स्वच्छंदता
की नई परिभाषा
करनी होगी
जैसी मैं करता
हूं। स्वच्छंद
की मैं
परिभाषा करता
हूं: स्वयं के
छंद को उपलब्ध
हो गया जो, भीतर
के संगीत को
उपलब्ध हो गया
जो। स्वच्छंदता
का अर्थ मैं
उच्छृंखलता
नहीं करता।
स्वच्छंदता
का अर्थ है——स्वयं
के छंद को
उपलब्ध। वही
जो मैंने
संगीत की बात
कही। फिर उससे
काव्य जन्मेगा
और उससे
सौंदर्य भी जन्मेगा।
इस छंदोबद्धता
का नाम धर्म
है। यह जगत तो छंदोबद्ध
चल रहा है; इसका छंद
कहीं भी टूटा
नहीं है। हम
टूट गए हैं इसके
छंद से; हम
दूर—दूर गिर
गए हैं, हम
छिटक गए हैं।
हमें वापिस
अपने छंद को
पा लेना है।
और अपने छंद
को पाते ही हम
जगत के छंद को पा
लेंगे। आत्मा
को पाते ही
परमात्मा मिल
जाता है। भीतर
का संगीत
सुनाई पड़ते ही
बाहर के आकाशों
में व्याप्त
सारा संगीत
सुनाई पड़ने
लगता है। फिर
बाहर बाहर
नहीं है, भीतर
भीतर
नहीं है; दोनों
एक हो जाते
हैं। जहां
दोनों एक हो
जाते हैं, वहीं
जीवन आया अपने
परम शिखर पर।
उनका
विरोध
स्वाभाविक
है। यह विरोध
जारी रहेगा धर्मेश्वर, इससे दुखी
मत होओ। उनके
विरोध को नहीं
रोका जा सकता,
रोकने की
जरूरत भी नहीं
है। फिर उनका
विरोध मेरा
काम भी करेगा।
उनके विरोध के
कारण बहुत लोग
मुझमें
उत्सुक हो
जाते हैं।
उनके विरोध के
कारण ही लोग
यहां चले आते
हैं।
अभी एक
मित्र
कलकत्ता से आए
हैं, पति—पत्नी;
सिर्फ इस
कारण आए हैं
कि इतना विरोध
सुना कि सोचा
कि अपनी आंख
से ही चलकर
देख लेना
चाहिए। न उनकी
धर्म में कोई
उत्सुकता थी,
न कोई ध्यान
में उत्सुकता
थी; मगर
इतना विरोध
सुना, सुनते—सुनते—सुनते
कान पक गए! तो
उन्होंने
सोचा कि एक
बार अपनी तरफ
से ही चलकर
देख लेना
चाहिए कि
मामला क्या
है! जिस आदमी
के पीछे इतने
लोग विरोध में
पड़े हों, कुछ
बात तो वहां
होनी चाहिए।
नहीं तो इतने
लोग विरोध भी
क्यों कर रहे
हैं? यहां
आकर चौंके।
यहां आए, तो
धीरे से ध्यान
में भी उत्सुक
हो गए। नाचे, गाए, विपस्सना
की। यहां आए
तो ऐसे डूबे
कि फिर दस दिन
रुक गए। और अब
कह कर गए हैं
कि सदा के लिए
आ जाना है।
तो
विरोधी से भी
कुछ नुकसान
थोड़े ही होता है; सत्य का कभी
कोई नुकसान
नहीं होता। गए
हैं वापिस, सब निपटा
आने को वहां
काम। कौन किस
कारण आ जाएगा,
कहना कठिन
है। परमात्मा
के रास्ते बड़े
अनूठे हैं।
इसलिए धर्मेश्वर,
दुखी होने
की कोई जरूरत
नहीं है। मैं
तो जो बात कर
रहा हूं, वह
बगावती है।
इसलिए विरोध
स्वाभाविक
है।
सूखे
हुए कुछ दरिया
होते, उजड़ा
हुआ इक सहरा
होता
जंजीर
पहन लेते हम
अगर, दुनिया
में तुम्हारी
क्या होता
कुछ
लोग अगर जंजीर
पहन लें——बुद्ध, महावीर, कृष्ण,
क्राइस्ट, जरथुस्त्र,
लाओत्सु——तो
क्या हो
तुम्हारी
दुनिया में? सूखे हुए
कुछ दरिया
होते——सूखे
हुए सागर
होते। उजड़ा
हुआ इक सहरा
होता——एक उजड़ा
हुआ मरुस्थल
होता।
जंजीर
पहन लेते हम
अगर, दुनिया
में तुम्हारी
क्या होता
होता
भी क्या
तुम्हारी
दुनिया में!
इस दुनिया में
रौनक क्यों है? इस दुनिया
में रौनक है
कुछ बगावती
लोगों के कारण।
विद्रोह की
अग्नि कुछ लोग
जलाते रहे हैं,
बुझने नहीं
दी। उनके कारण
इस जगत में
थोड़ी चमक है, दमक है, थोड़ी
गरिमा है, थोड़ा
गौरव है। नहीं
तो बस यह
मुर्दों की एक
जमात है, जो
किसी तरह जी
लेते हैं
धक्के खा—खाकर,
और किसी तरह
मर जाते हैं।
न उनके जीने
में कुछ सार, न उनके मरने
में कुछ सार।
मैं
तो हूं गुमकरदाए—दिल
ऐ "रविश'!
कौन
मेरा हमसफर
होने लगा
मैंने
तो अपना दिल डुबाया है, मैंने तो
अपने को
गंवाया है।
मैं
तो हूं गुमकरदाए—दिल
ऐ "रविश'!
मैं तो
एक पागल हूं, एक दीवाना, एक मतवाला, एक मदमस्त!
कौन
मेरा हमसफर
होने लगा
कौन
मेरे साथ
चलेगा? थोड़े—से
दीवाने ही चलेंगे,
थोड़े—से
पागल ही
चलेंगे, थोड़े—से
मस्तों
की टोली ही
चलेगी। यह
बिलकुल
स्वाभाविक
है। जो मैं कह
रहा हूं, यह
थोड़े—से
दुस्साहसी
लोग ही झेल
पाएंगे। शेष
तो नाराज
होंगे, क्योंकि
शेष की
दुकानों पर
चोट पड़ती है!
यहां
रहजनो—रहनुमा
एक थे
तेरी
राह में कौन हाइल न था
परमात्मा
के रास्ते में
लुटेरे तो
बाधा डालते ही
हैं, तुम
जिनको पथ—प्रदर्शक
मानते हो, वे
भी बाधा डालते
हैं।
यहां
रहजनो—रहनुमा
एक थे
यहां
लुटेरे और पथ—प्रदर्शक
सब एक थे।
यहां
रहजनो—रहनुमा
एक थे
तेरी
राह में कौन हाइल न था
परमात्मा
के रास्ते पर
सब बाधा डालते
हैं। क्योंकि
लुटेरा भी
नहीं चाहता कि
तुम उसके
रास्ते पर जाओ; तुम उसके
रास्ते पर चले
गए, तो तुम
लुटेरे की
सीमा के बाहर
चले गए। और
तुम्हारे पथ—प्रदर्शक
भी छिपे हुए
लुटेरे हैं; वे भी नहीं
चाहते कि तुम
उसके रास्तों
पर जाओ। नहीं
तो मंदिरों
में कौन जाएगा?
तीर्थों
में कौन जाएगा?
यज्ञ—हवन की
मूढ़ताएं
कौन करेगा, करवाएगा? यह इतना जो
जाल है शोषण
का फैला हुआ, यह एकदम
अस्त—व्यस्त
हो जाएगा।
नहीं, वे
कोई भी नहीं
चाहते। उनकी
नाराजगी
स्वाभाविक
है। उनकी
नाराजगी से घबड़ाओ मत।
उनकी नाराजगी
से नाराज भी
मत होना।
यह
कैसी महफिल है
जिसमें साकी!
लहू पियालों
में बंट रहा
है
मुझे
भी थोड़ी—सी तिश्नगी
दे कि तोड़ दूं
यह शराबखाना
ऐसी
करो
प्रार्थना अब
परमात्मा से——
यह
कैसी महफिल है
जिसमें साकी!
लहू पियालों
में बंट रहा
है
यहां
मंदिर—मस्जिद, सबकी
बुनियाद में
लहू है। यहां
अमृत के नाम
पर जहर बांटा
जा रहा है।
यहां धर्म के
नाम पर आदमी
काटे गए हैं, काटे जा रहे
हैं, काटे
जाते रहे हैं।
यह
कैसी महफिल है
जिसमें साकी!
लहू पियालों
में बंट रहा
है
मुझे
भी थोड़ी—सी तिश्नगी
दे कि तोड़ दूं
यह शराबखाना
सियाहियां
बुन रही हैं
रातें, तजल्लियां गढ़ रही
हैं सूरज
खुदा—औ—इबलीस
की शराकत में
चल रहा है यह
कारखाना
ऐसा
मालूम होता है
कि शैतान और
परमात्मा
दोनों का
षडयंत्र हो
गया है, दोनों
मिल गए हैं।
उनकी शराकत
में, उनकी
साझेदारी में
यह कारखाना चल
रहा है, ऐसा
मालूम होता
है। क्योंकि
यहां शैतान और
पुरोहित में
बड़ी दोस्ती
है। यहां शैतान
ही पुरोहितों
का असली खुदा
है!
कुलाहदारों
से कोई कह दे
कि यह वो
मंजिल है इरतिरा
की
जहां
खुदा के सिफात
पर भी नजर है
बंदों की नाकिदाना
कुलाहदारों
से कोई कह दे
कि यह है
तारीख की
अदालत
खड़ी
हुई है कतार
बांधे यहां नबूबत भी
मुजरिमाना
जो
राख के ढेर रह
गए हैं, वे अब उठें
गर्दे—राह
बनकर
हवा
की रफ्तार कह
रही है कि
काफिला हो
चुका रवाना
यह
तो एक छोटा—सा
काफिला है
दीवानों का।
जो
राख के ढेर रह
गए हैं, वे अब उठें
गर्दे—राह
बनकर
उठो, कब तक राख के
ढेर बने
रहोगे!
जो
राख के ढेर रह
गए हैं, वे अब उठें
गर्दे—राह
बनकर
हवा
की रफ्तार कह
रही है कि
काफिला हो
चुका रवाना
हम तो
चल पड़े। कुछ
दीवाने भी
हमारे साथ चल
पड़े! चलो, फिक्र
छोड़ो
लोगों की। लोग
तो कुछ—कुछ
कहते रहे हैं,
कहते
रहेंगे। उनकी
चिंता लेने
वाला आदमी तो
बड़ी मुश्किल
में पड़ जाता
है। वे तो हर
चीज की निंदा
करते हैं।
उनके पास
निंदा के
सिवाय कुछ और
बचा नहीं।
देखने वाली
आंखें नहीं
हैं। और अगर
थोड़ी देखने की
समझ भी है, तो
देखने की
हिम्मत नहीं
है। क्योंकि
अगर वे देखेंगे,
तो फिर
बदलाहट करनी
होगी। और
बदलाहट करना
कठिन सौदा है।
सारी जिंदगी
एक ढंग से जमा
ली है, उसमें
फिर फर्क लाना
होगा।
मैं
अपने गांव
जाता था, मेरे
एक शिक्षक, जो अब बूढ़े
हो गए थे, उनसे
सदा मिलने
जाता था।
आखिरी बार जब
मैं गांव गया,
तो उनका
लड़का मुझे
मिलने आया और
उसने कहा कि पिता
जी ने कहा है
कि राह तो मैं
देखता हूं
तुम्हारी कि
कब तुम आओ। जब
भी तुम आ जाते
हो, तो
मेरे हृदय में
फिर से जीवन आ
जाता है! मगर
मैं डरता भी
हूं तुमसे। और
अब मैं बूढ़ा
हो गया हूं और
तुम्हारी बातें
झेलने की
क्षमता
मुझमें नहीं
रही। मुझे पता
चला कि तुम आए
हो। मेरे घर
मत आना। और
हालांकि मैं
राह देखता हूं
और रोता हूं
कि तुम आते तो
अच्छा होता।
मैंने
उनके बेटे को
कहा कि एक बार
और आऊंगा, बस एक बार, क्योंकि
शायद फिर
दुबारा मैं इस
गांव में भी न आऊंगा।
फिर तब से गया
भी नहीं हूं
उस गांव। उनके
पास गया, मैंने
कहा: आप इतने
बेचैन! क्या
बेचैनी है? मेरे आने से
क्या भय है?
उन्होंने
कहा: भय यह है
कि अब मैं
मरने के करीब हूं, और तुम्हारी
बातें ठीक
लगती हैं। तो
मेरा पूरा
जीवन व्यर्थ
गया! अब मुझे
शांति से मर
जाने दो। यह
मानते हुए मर
जाने दो कि
मैंने जो पूजा—पाठ
किया था, ठीक
था। अब मैं
नहीं सुनना
चाहता कि
मैंने जो पूजा—पाठ
किया था, वह
व्यर्थ गया; कि मेरी
प्रार्थनाएं
व्यर्थ थीं, कि मेरी आकांक्षाएं
व्यर्थ थीं, कि मेरा
धर्म थोथा था।
डर लगता है
सुनने में, क्योंकि अब
मैं मौत के
किनारे खड़ा
हूं। अब बदलने
की जिंदगी को
समय भी कहां
रहा?
मैंने
उनसे कहा:
जिंदगी समय
में बदलनी भी
नहीं होती, एक क्षण में
बदलती है। अभी
इतने तुम
जिंदा हो। और
मैं तुमसे यह
भी कह दूं कि
अगर मैं न भी
आऊं, तो
कोई फर्क नहीं
पड़ता।
तुम्हें खुद
भी पता है, बात
हो ही चुकी है,
इसीलिए तो
डर रहे हो। यह
डर क्या कह
रहा है? यह
यही कह रहा है
कि तुम्हें
खुद भी पता है
कि तुमने जो
भवन बनाया था,
वह ताश के
पत्तों का महल
था। उसमें
सचाई नहीं है।
मैं कहूं या न
कहूं, मरते
वक्त मौत ही
तुम्हें
दिखला देगी।
अच्छा तो यही
है कि मौत दिखलाए,
उसके पहले
तुम देख लो।
अभी भी समय
है। कभी भी देर
नहीं हुई है।
अभी भी समय
है। एक क्षण
में क्रांति
हो सकती है।
परमात्मा
से दूर जाने
में हजारों
जन्म लगते हैं, पास आना एक
क्षण में हो
जाता है। ऐसा
ही समझो कि एक
आदमी पीठ करके
सूरज की तरफ
चल रहा है।
चलता जा रहा है,
दूर जा रहा
है, सूरज
से दूर जा रहा
है, सूरज
से हजारों मील
चल चुका है।
अगर आज हम उससे
कहें कि लौट
चलो सूरज की
तरफ! तो वह
कहेगा, अब
तो बहुत
मुश्किल, मैं
बूढ़ा हो गया।
मरने के करीब
हूं। हजारों
साल से चल रहा
हूं। अब
हजारों साल
लगेंगे लौटने
में।
मैं
उससे कहूंगा:
नहीं, तुम
सिर्फ दिशा मोड़कर खड़े
हो जाओ। जिस
तरफ पीठ है उस
तरफ मुंह कर
लो, और
सूरज सामने
है।
सूरज
से कोई दूर
नहीं जा सकता।
न कोई
परमात्मा से
दूर जा सकता
है। हां, पीठ
कर सकते हो
बस। फिर हजार
साल पीठ की कि
दस हजार साल, कोई फर्क
नहीं पड़ता।
मुड़ जाओ। जिस
तरफ अभी पीठ
किए हो उस तरह
मुंह कर लो, सन्मुख हो
जाओ। सन्मुख
होने का नाम
सत्संग है। और
जो तुम्हें
सन्मुख कर दे,
वही सदगुरु
है।
सदगुरु
की सदा निंदा
हुई है। उसके
लिए हमने सदा
सूली का आयोजन
किया है। उसके
लिए हमने जहर
दिया है, गोली
मारी है। यह
हमारी पुरानी
आदत है। इसलिए
धर्मेश्वर,
इससे
परेशान मत
होना। मेरी
बात पादरी—पुरोहितों
को चोट करती
है, नेताओं
को चोट करती
है, क्योंकि
मैं दो—टूक कह
देता हूं, जैसी
है बात वैसी
ही कह देता हूं।
मैं
जो यह मूक हूं,
व्यवहारी
दुनिया में
बहुत बड़ी चूक
हूं।
बचकानी
दुनिया है,
रोओ
तो दूध मिले,
अंतर
की पूंजी का
फिर
कैसे सूद
मिले!
आज
तो जमाना है
हुक्म का, हुकूमत का,
कैसे
हुंकार बनूं, मैं तो बस
हूक हूं।
सोने
के पिंजड़े
में
ऊंघ
रहा मिट्ठू है,
पीठ
पड़ी थप्पी
पर
झूम
रहा पिट्ठू
है।
जीना
ही धर्म यहां, "जी हां' ही
मर्म यहां,
कैसे
प्रिय पात्र
बनूं, मैं
जो दो—टूक
हूं।
दो—टूक
कहने से
कठिनाई है; और मुझे तो
कहना होगा।
मैं तो वही कह
सकता हूं जैसा
है, उसमें
रत्ती—भर भेद
नहीं कर सकता।
मैं तो वही
कहूंगा, जो
है। और तुम भी
वही सुनो, जो
है। और चिंता छोड़ो।
जन्म
और मृत्यु, सुख और दुख, आते हैं, चले
जाते हैं; सत्य
टिकता है, सत्य
शाश्वत है।
जीसस को सूली
दे दी, इससे
सत्य को थोड़े
ही सूली लग गई!
जीसस को सूली दे
दी, इससे
सत्य सिंहासन
पर विराजमान
हो गया! न दुखी
होओ, न
परेशान होओ, न नाराज होओ,
न उनके साथ
व्यर्थ की
झंझट में पड़ो।
उन्हें उनका
काम करने दो, तुम अपना
काम करो। अपनी
शक्ति इसमें
व्यय मत करना।
मेरे
संन्यासियों
से मेरा
निरंतर यही
कहना है:
व्यर्थ
विवादों में
मत पड़ो, व्यर्थ झगड़ों
में मत पड़ो।
तुम्हारी
ऊर्जा झगड़े
में उलझ जाएगी
तो तुम्हारी
हानि होगी।
कहने दो लोगों
को जो कहना है,
तुम अपनी
राह चले चलो, तुम अपना
गीत गाए चलो।
कोई होंगे
हिम्मतवर, जो
गीत को प्रेम
करते हैं, वे
तुम्हारे साथ
हो लेंगे। कोई
होंगे रस—पारखी,
रसज्ञ, रसिक,
वे
तुम्हारे साथ
हो लेंगे। बस
उन थोड़े—से
लोगों का साथ
हो जाना काफी
है।
जीवन
संघर्षों से
निखरता है, उजलता है। सत्य को
बड़ी कसौटियां
पार करनी होती
हैं। और सत्य कसौटियां
पार करने में
समर्थ है। झूठ
कसौटियों
से डरता है, सत्य तो कसौटियों
को आमंत्रित
करता है।
इसलिए जो मुझे
कहना है, वह
मैं जोर से कह
रहा हूं——कहै
वाजिद पुकार!
तुम भी अपने
जीवन की गूंज
को गूंजने दो।
छिपना मत, छिपाना
मत, उदघोषणा होने दो।
जीसस
ने कहा है: चढ़
जाओ मुंडेरों
पर मकानों की
और चिल्लाकर
कह दो जो
तुमने जाना
है। वही मैं
तुमसे कहता
हूं: चढ़ जाओ मुंडेरों
पर मकानों की
और चिल्लाकर
कह दो जो
तुमने जाना
है। कोई होंगे
रसज्ञ, कोई
होंगे रसिक, कोई होंगे
मस्त, जिन्हें
तुम्हारी
आवाज खींच
लेंगी, पुकार
लेगी। वे
तुम्हारे साथ
हो लेंगे।
काफिला तो चल
पड़ा। अब तुम
यहां—वहां की
बातों में मत उलझो, किनारे
की बातों में
मत उलझो।
बस पुकार देते
रहो, हांक
देते रहो; शायद
किनारों में
उलझे हुए कुछ
लोग तुम्हारे
साथ हो लेंगे।
मगर उन
पर नाराज मत
होना जिनका
विरोध है, उनका विरोध
भी स्वाभाविक
है। जराजीर्ण
नए का विरोध
करेगा ही।
मुर्दा जीवन
का विरोध
करेगा ही।
असत्य सत्य का
विरोध करेगा
ही। और जब भी सत्य
की किरण उतरती
है, तो
सारे अंधेरे
की ताकतें
इकट्ठी हो
जाती हैं, क्योंकि
सारे अंधेरे
की ताकतों
का जीवन संकट
में पड़ जाता
है। इसलिए जो
हो रहा है, ठीक
हो रहा है।
उसे स्वीकार
करो। और ध्यान
रखो, परमात्मा
के बड़े अनूठे
रास्ते हैं
काम करने के, वह विरोध से
भी अपनी बात
सधवा लेता है!
आज
इतना ही।
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