प्यारे
ओशो,
यह
श्लोक भी
मंडकोपनिषद्
में है:
वेदान्त
विज्ञानसुनिश्चितार्था:सन्यास
योगाद्
यतय:शुद्ध—सत्वा:।
ते ब्रह्मलोकेषु
परन्तकाले
परामृता:
परिमुच्यन्ति
सर्वे।।
अर्थात्
वेदांत और
विज्ञान
(प्रकृति का
ज्ञान) इनके द्वारा
जिन्होंने
अच्छी तरह
अर्थ का निश्चय
कर लिया है और
साथ ही संन्यास
और योग के
द्वारा जो
शुद्ध स्वत्व
वाले हो गये
है, वे
प्रयत्नवान
ब्रह्मपरायण
लोग मरने पर
ब्रह्मलोक
में पहुंचकर
मुक्त हो
जाते है।
प्यारे
ओशो! हमें
इस सूत्र को
समझाने की
अनुकंपा
करें।
सहजानंद!
यह सूत्र तो
मूल्यवान है, लेकिन
इसकी जो
व्याख्याएं
की गयी हैं अब
तक, बड़ी
मूल्यहीन हैं।
तुमने भी
हिन्दी में
इसका जो अर्थ
किया है, वह
उन्हीं
व्याख्याओं
पर आधारित है
जो गलत हैं।
और गलत
व्याख्या
बहुत दिनों तक
चलती रहे तो ठीक
मालूम होने
लगती है।
पुनरुक्ति का
एक सम्मोहन है,
जादू है।
एडोल्फ हिटलर
ने अपनी
आत्मकथा ‘मेनकेंप्फ'
में लिखा है
कि झूठ को अगर
बार—बार
दोहराया जाए
तो वह सत्य हो
जाता है। और
उसने ऐसा लिखा
ही नहीं, उसने
बड़े से बड़े झुठे
को सत्य करके
दिखा भी दिया,
सिर्फ
पुनरुक्ति के
बल पर। दोहराए
गया, दोहराए
गया, पहले
लोग हंसे, फिर
लोग सोचने लगे,
फिर धीरे—
धीरे लोग
स्वीकार करने
लगे।
विज्ञापन
की सारी कला
ही इस बात पर
आधारित है : दोहराए
जाओ। फिर चाहे
हेमा मालिनी
का सौन्दर्य
हो,
चाहे परवीन
बाबी का, सबका
राजू लक्स
टायलेट साबुन
में है।
दोहराए जाओ—अखबारों
में, फिल्मों
में, रेडियो
पर, टेलीविजन
पर—और धीरे—धीरे
लोग मानने
लगेंगे। और एक
अचेतन छाप पड़
जाती है। और
फिर तुम जब
बाजार में
साबुन खरीदने
जाओगे और
दुकानदार
पूछेगा, कोन—सा
साबुन? तो
तुम सोचते हो
कि तुम लक्स
टायलेट खरीद
रहे हो! तुमसे
खरीदवाया जा
रहा है। वह जो
तुमने पढ़ा है
बार—बार! तुम
कहते हो, लक्स
टायलेट दे दो।
तुम यही सोचते
हो, यही
मानते हो कि
तुमने खरीदा,
मगर तुम
भांति में हो।
पुनरुक्ति ने
तुम्हें
सम्मोहित कर
दिया।
नये—नये
जब पहली दफा
विद्युत के
विज्ञापन बने
तो वे थिर
होते थे। फिर
वैज्ञानिकों
ने कहा कि थिर
का यह परिणाम नहीं
होता। जैसे
लक्स टायलेट
लिखा हो बिजली
के अक्षरों में
और थिर रहें
अक्षर, तो
आदमी एक ही
बार पढ़ेगा।
लेकिन अक्षर
जलें, बुझे,
जलें, बुझे,
तो जितनी
बार जलेंगे, बुझेंगे, उतनी बार
पढ़ने को मजबूर
होना पड़ेगा।
तुम चाहे कार
में ही क्यों
न बैठकर गुजर
रहे होओ, जितनी
देर तुम्हें
बोर्ड के पास
से गुजरने में
लगेगी, उतनी
देर में कम—से—कम
दस—पंद्रह दफा
अक्षर जलेंगे,
बुझेंगे, उतनी बार
पुनरुक्ति हो
गयी। उतनी
पुनरुक्ति तुम्हारे
भीतर बैठ गयी।
इस
तरह के
बहुमूल्य
सूत्र भी कूड़ा—कचरा
हो गये हैं, क्योंकि
उनके जो अर्थ
किये गये! एक—दो
दिन की
पुनरुक्ति
नहीं है, हजारों
वर्षों की
पुनरुक्ति है।
इसलिए
तुम्हें मेरे
साथ एक—एक
शब्द को पुन:
समझना होगा।
'वेदांत'।
इसका अर्थ
किया गया है
सदा से : वेदों
की पराकाष्ठा,
जो कि
नितांत झूठ है।
क्योंकि उपनिषद
वेदों की
पराकाष्ठा
नहीं हैं, वेदों
से बगावत हैं,
विद्रोह
हैं। उपनिषद
यानी वेदांत।
लेकिन इस झूठ
को इतना
दोहराया गया
है कि उपनिषद
में वेदों की
पराकाष्ठा है;
जैसे फूलों
की गंध होती
है ऐसे वेदों
के वृक्षों पर
उपनिषद के फूल
लगे हैं, इन
फूलों में जो
गंध उठ रही है,
उसकी जड़ें
वेदों में हैं।
यह बात सच
नहीं है। वेदांत
का अर्थ होता
है : जहां वेद
समाप्त हो गये,
जहां वेदों
का अंत हो गया।
इसके बाद जो
यात्रा है, उसके बाद जो
आयाम है, शास्त्रों
के पार, वेदों
के पार, शब्दों
के पार, सिद्धांतों
के पार, वह वेदांत
है।
वेद
बहुत लौकिक
हैं। कहीं
भूले—चूके कोई
सूत्र आ जाता
है जो प्यारा
है,
निन्यान्नबे
प्रतिशत तो
कचरा है। उपनिषद
उस कचरे की
पराकाष्ठा
नहीं हैं। उपनिषद
में वेदों का
स्पष्ट विरोध
है। कृष्ण ने
भी गीता में
वेदों का
स्पष्ट विरोध
किया है।
लेकिन विरोध
करने का ढंग
और फिर उस ढंग
पर की गयी
लीपा—पोती, सदियों—सदियों
में पंडितों
के चढ़ाए गये
रंग, तुम्हें
झूठ को मानने
को मजबूर कर
दिये हैं।
तुम्हारे
अचेतन में झूठ
बैठ गया है।
कृष्ण ने गीता
में स्पष्ट
कहा है कि वेद
लौकिक हैं, सांसारिक
हैं। जो
सांसारिक
बुद्धि के लोग
हैं, उनके
लिए हैं। और
जिन्हें
अध्यात्म की
खोज करनी है, उन्हें
वेदों के पार
जाना होगा।
यही
बात महावीर ने
कही। लेकिन
बहुत साफ ढंग
से कही। क्या
की बात को
लीपा—पोता गया
था। महावीर के
समय तक आते—आते, बुद्ध
के समय तक आते—आते
समाधिस्थ व्यक्ति
सजग हो गये थे
कि पंडितों ने
क्या दुर्व्यवहार
किया है। अब
दुबारा वैसा दुर्व्यवहार
न हो सके, इसलिए
महावीर और
बुद्ध ने
वेदों का
स्पष्ट विरोध
किया, सतत
विरोध किया।
परिणाम यह हुआ
कि बुद्ध और
महावीर को
हिन्दू समाज
स्वीकार न कर
सका, पचा न
सका, इनकार
कर दिया। उनको
भी पचा लिया
होता, अगर
उन्होंने भी
जरा—सा अवसर
दिया होता
अपने शब्दों
को तोड़े—मरोड़े
जाने का, तो
उनको भी पचा
लिया होता।
लेकिन वे सजग
थे कि जो
कृष्ण के साथ
हुआ, जो उपनिषद
के ऋषियों के
साथ हुआ, उनके
साथ न हो जाए।
उनकी सजगता का
यह परिणाम था
कि उन पर वेद
नहीं थोपे जा
सके। नहीं
थोपे जा सके
तो हिन्दुओं
के पास एक ही
उपाय था कि
बुद्ध और
महावीर की निंदा
करें, उनको
उखाड़ फेके।
बुद्ध
को तो बिलकुल
उखाड़ फेंका
भारत से। भारत
में उनकी कोई
रूपरेखा न बची, कोई
नामलेवा न बचा।
महावीर को इस
बुरी तरह से
नहीं उखाड़ा और
उसका भी कारण
था, क्योंकि
महावीर की बात
बहुत लोगों तक
पहुंच नहीं
सकती थी।
महावीर की बात
इतनी
दार्शनिक थी
कि बहुत थोड़े—से
लोगों तक
पहुंच सकती थी—उनसे
कुछ डर न था।
पहुंच—पहुंचकर
भी क्या होगा?
बहुत थोड़े—से
लोग ही उसको
समझ पायेंगे।
बुद्ध की बात
बड़ी सीधी थी, साफ थी। वह
करोड़ों लोगों
तक पहुंच सकती
थी। उसमें
खतरा था।
वेदांत
का अर्थ तुम
समझ लो, वेदों
की पराकाष्ठा
नहीं, वेदांत
का अर्थ सीधा
है : जहां
वेदों का अंत
हो जाता है।
वेदों की जहां
मृत्यु हो
जाती है।
वेदों की राख
से जो उठता है
वह वेदांत है।
वेदों की
परकाष्ठा
नहीं है, वेदों
से बगावत, विद्रोह!
और
होगी भी यह
बगावत, क्योंकि
वेद हैं क्या?
अगर तुम
वेदों के
पन्ने उलटाओ—कही
से भी खोल लो
वेद को—तो तुम
चकित होओगे कि
क्यों इन
शब्दों को, इन सूत्रों
को धर्म का
नाम दिया गया
है। साधारण आकांक्षाएं
हैं। कोई मांग
रहा है फसल
ज्यादा हो जाए;
कोई माग रहा
है इन्द्र से
कि वर्षा
ज्यादा हो जाए;
कोई मल रहा
है धन— धान्य; कोई माग रहा
है—उसके गउओं
के थनों में
दूध ही दूध भर
जाए। और इतना
ही नहीं, उसके
दुश्मन की
गउओं के थन
बिलकुल सूख
जायें। मेरे
खेत में वर्षा
हो इतना ही
नहीं, पड़ोसी
के खेत में
वर्षा हो ही न।
यह, इसको
भी अध्यात्म
कहोगे? यह
तो बड़ी निम्न
वृत्तियां
हुईं। मेरे
शत्रुओं को
नष्ट कर दे, हे इन्द्र
देवता, उन
पर बिजली गिरा
दे, उनको
राख कर दे।
इसको
अध्यात्म और
धर्म कहोगे? यह तो
मनुष्य की
सामान्य
ईर्ष्याएं, शत्रुताएं,
हिंसाएं, वैमनस्य, उसके ही
प्रतीक हैं।
जरूर कहीं—कहीं
वेद में कोई
सूत्र आ जाता
है जो बड़ा
प्यारा है, लेकिन सौ
में एक बार।
निन्यान्नबे
बार तो कचरा
ही हाथ लगेगा।
और उस कचरे
में वे हीरे
भी खो गये।
उपनिषद
हीरे ही हीरे
हैं। वहां
कचरा नहीं है।
उपनिषद
शब्द भी बड़ा
प्यारा है।
उसे समझो तो वेदांत
भी समझ में आ
जाएगा। उपनिषद
का अर्थ होता
है : गुरु के
पास बैठना है—उप—निषद्—पास
बैठना। बस, इतना
ही अर्थ है उपनिषद
का। गुरु के
पास मौन होकर
बैठना; जिसने
जाना है, उसके
पास शून्य
होकर बैठना।
और उस बैठने
में ही हृदय
से हृदय आंदोलित
हो जाते हैं।
उस बैठने में
ही सत्संग फल
जाता है। जो
नहीं कहा जा
सकता, वह
कहा जाता है।
जो नहीं सुना
जा सकता, वह
सुना जाता है।
हृदय की वीणा
बज उठती है।
जिसने जाना है,
उसकी वीणा
बज रही है।
जिसने नहीं
जाना है, वह
अगर पास सरक
आए तो उसके
तारों में भी
टंकार हो जाती
है।
संगीतज्ञों
का यह अनुभव
है,
अगर एक ही
कमरे में—खाली
कमरे में—सिर्फ
दो वीणाएं रखी
जाएं द्वार—दरवाजे
बंद हों और एक
वीणा पर
वीणावादक तार
छेड़ दे, संगीत
उठा दे, तो
दूसरी वीणा जो
कोने में रखी
है, जिसको
उसने छुआ भी
नहीं, उस
वीणा के तार
भी झंकृत होने
लगते हैं। एक
वीणा बजती है
तो हवाओं में आंदोलन
हो जाता है, हवाओं में
संगीत—लहरी
फैल जाती है, स्पंदन हो
जाता है। वह
स्पंदन जिस
वीणा को छुआ
भी नहीं है, उसके भीतर
भी सोए संगीत
में हलचल मचा
देता है। उसके
तार भी जैसे
नींद से जाग
आते हैं, जैसे
सुबह हो गयी।
आज
से डेढ़ सौ
वर्ष पहले एक
वैज्ञानिक ने
पहली दफा इस सिद्धांत
को खोजा। वह
इसे कोई नाम न
दे सका। फिर
अभी कुछ
वर्षों पहले, कोई
चालीस वर्ष
पहले कार्ल
गुस्ताव कै
नाम के बहुत
बड़े
मनोवैज्ञानिक
ने इसे नाम
दिया. 'सिक्रानिसिटी'। जिस वैज्ञानिक
ने पहली दफा
यह खोज की थी, वह एक
पुराने किले
में मेहमान था,
एक राजा के
घर मेहमान था।
और जिस कमरे
में वह था, दो
घडियां उस
कमरे में एक
ही दीवाल पर
लटकी हुई थीं।
पुराने ढब की
घड़ियां। मगर
वह हैरान हुआ
यह बात जानकर
कि उनका पेंडुलम
एक साथ घूमता
है। मिनिट और
सेकंड भी
भिन्न नहीं।
सेकंड सेकंड
वे एक साथ
चलतीं। इन दो
घड़ियों के बीच
उसे कुछ ऐसा
तालमेल
दिखायी पड़ा—वैज्ञानिक
था, सोच
में पड़ गया! कि
इस तरह की दो
घड़ियां उसने
देखी नहीं
जिनमें सेकंड
का भी फर्क न
हो। तो उसने
एक काम किया, कि यह संयोग
हो सकता है, उसने एक घड़ी
बंद कर दी रात
को। और दूसरे
दिन सुबह शुरू
की और दोनों के
बीच कोई तीन—चार
मिनिट का
फासला रखा।
चौबीस घंटे
पूरे होते—होते
दोनों घड़ियां
फिर साथ—साथ
डोल रही' थीं।
बराबर, सेकंड—सेकंड
करीब आ गये थे,
पेंडुलम
फिर साथ—साथ
लयबद्ध हो गये
थे। तब तो वह
चमत्कृत हो
गया। राजू
क्या है? आया
था दिन—दो दिन
के लिए, लेकिन
सप्ताहों रुका—जब
तक राजू न खोज
लिया।
राजू
यह था कि वह
जिस दीवाल पर
लटकी थीं, उस
पर कान लगा—लगाकर
वह सुनता रहा
कि क्या हो
रहा है, तब
उसे समझ में
आया कि एक घड़ी
की टिक्—टिक्
जो बड़ी घड़ी थी
उसकी टिक्—टिक्
दीवाल के
द्वारा दूसरी
घड़ी के
पेंडुलम को भी
संचालित कर
रही है, उसमें
एक लयबद्धता
पैदा कर रही
है। और बड़ी
घड़ी इतनी
बलशाली है कि
छोटी घड़ी करें
भी तो क्या
करे! वह छोटी
घड़ी सहज ही
उसके साथ लयबद्ध
हो जाती है।
उसने
इसको सिर्फ
लयबद्धता कहा
था। लेकिन दा
ने इसे पूरा
वैज्ञानिक
आधार दिया और 'सिंक्रानिसिटी'
कहा; और
सिर्फ घड़ियों
के लिए नहीं, जीवन के
समस्त आयामों
में इस
लयबद्धता के सिद्धांत
को स्वीकार
किया।
रहस्यवादी
तो इस सिद्धांत
से हजारों
वर्षों से
परिचित हैं।
सत्संग का यही
राज है, 'सिंक्रानिसिटी'। सद्गुरु
यूं समझो कि
बड़ी घड़ी, कि
बड़ा सितार।
शिष्य यूं
समझो कि छोटी
घड़ी, छोटा
सितार। और शिष्य
अगर राजी हो, श्रद्धा से
भरा हो और बड़े
सितार के पास
सिर्फ बैठ रहे—कुछ
न करे, तो
भी उसके तार
झंकृत हो
जाएंगे।
उपनिषद
का अर्थ है :
लयबद्धता। उप
का अर्थ होता
है : पास, निषद्
का अर्थ होता
है : बैठना।
यही उपासना का
अर्थ है। उप
आसन। पास
बैठना। यही
उपवास का अर्थ
है : पास बैठना।
मगर कैसे अर्थ
विकृत हो गये!
उपवास का अर्थ
हो गया—अनशन, भूखे मरना।
उपवास का अर्थ
होता है पास
वास करना—इतने
निकट हो जाना
गुरु के! हां, कभी—कभी यह
होगा कि गुरु
की निकटता में
ऐसा पेट भर जाएगा
कि शायद भूख
की याद भी न आए।
इसी कारण अनशन
की विकृति
पैदा हुई।
गुरु के आनंद
में डूबकर अगर
भोजन की याद न
आए, तो
उपवास; और
जबरदस्ती
भोजन न किया
जाए, तो
अनशन। अनशन
हिंसा है, उपवास
प्रेम है।
उनमें जमीन—आसमान
का भेद है।
इधर
सोहन बैठी है, उससे
पूछो। मैं
उससे पूछता था
जब उसके घर
मेहमान होता
था, पूना
आता था, कि
तू मुझे
खिलाती है—और
मेरे कारण न—मालूम
कितने मेहमान
दिनभर उसके घर
आते, उन
सबको खिलाती
है, और तू
कुछ खाती—पीती
दिखायी नहीं
पड़ती! तो वह
मुझसे कहने
लगी, जब आप
यहां होते हैं,
मुझे भूख ही
नहीं लगती।
मैं खुद चकित
हूं कि भूख
कहां खो जाती
है? मैं
इतनी भरी— भरी
हो जाती हूं
कि भीतर जगह
ही नहीं रहती।
प्रेम
भोजन से भी
बड़ा भोजन है।
और जरूर भरता
है,
बहुत भर
देता है। शायद
भोजन की याद
भी न आए। इस
कारण एक गलत
अर्थ हो गया
उपवास का.
अनशन।
उपासना
का अर्थ है.
पास बैठना।
उसका भी गलत
अर्थ हो गया।
अब तुम मूर्ति
की आराधना कर
रहे हो। थाली
सजायी हुई है, आरती
बनायी हुई है,
दीये जलाए
हुए हैं, धूप
जलायी हुई है
और इसको तुम
उपासना कह रहे
हो। नहीं, उपासना
तो केवल
सद्गुरु के
पास बैठना
होता है। और
उसके पास
बैठना ही आरती
है, आराधना
है। उसके पास
बैठना ही
तुम्हारे भीतर
के दीये का
जलना है। उसके
पास बैठते ही
तुम्हारे
भीतर धूप जल
उठती है, सुगंध
उठने लगती है।
वेदांत
पैदा हुआ उपनिषद
में;
गुरु—शिष्यों
के अंतरंग
सान्निध्य
में।
वेदांत
का अर्थ है :
जहां शब्द
नहीं हैं, जहां
शास्त्र नहीं,
जहां सिद्धांत
नहीं, जहां
वेदों का तो
अंत हो गया, जहां सब
शास्त्र बहुत
पीछे छोड़ दिये
गये—मन ही
पीछे छोड दिया
गया! मन में ही
शास्त्र हो सकते
हैं; मन के
पार तो
शास्त्र नहीं
हो सकते।
वेदांत है : मन
के पार उड़ान, अ—मनी दशा। वेदांत
है : ध्यान, समाधि।
तो
पहले तो
वेदांत का
अर्थ ठीक से
समझ लो, नहीं
तो भूल हो
जाएगी। फिर
मेरा अर्थ पकड़
में नहीं आएगा।
दूसरा
शब्द है : 'विज्ञान'। तुमने, सहजानंद,
विज्ञान का
अर्थ किया :
प्रकृति का
शान। क्योंकि
अब हम साइंस
के अर्थों में
विज्ञान शब्दों
का प्रयोग
करते हैं। यह
हमारी नयी बात
है। हमारे पास
साइंस के लिए
कोई शब्द न था,
हमने
विज्ञान शब्द
का उपयोग करना
शुरू कर दिया।
मगर तुम उपनिषद
पर इस अर्थ को
मत थोपो! उपनिषद
में तो
विज्ञान का
बहुत सीधा
अर्थ है, वह
है विशेष
ज्ञान।
विज्ञान यानी
विशेष ज्ञान।
ज्ञान वह है
जो दूसरों से
मिलता है और
विशेष ज्ञान
वह है जो अपने
भीतर ही
आविर्भूत होता
है। उसका कोई
साइंस से लेना—देना
नहीं है।
विज्ञान का
अर्थ प्रकृति
का ज्ञान नहीं
है। विज्ञान
का अर्थ है :
विशेष; उधार
नहीं, निज
का। वही उसकी
विशिष्टता है,
उसकी
अद्वितीयता
है।
वेदांत
और विज्ञान एक
ही सिक्के के
दो पहलू हुए। वेदांत
है. शास्त्र
के पार जाना—वह
है मार्ग—और
विज्ञान है
उपलब्धि; विशेष
ज्ञान की
प्रतीति, अनुभूति,
साक्षात्कार—विश्वास
नहीं, अपना
अनुभव। और तभी
जीवन का
सुनिश्चित
अर्थ पता चलता
है। अब इस वचन
को तुम' समझो
'वेदान्त
विज्ञान
सुनिश्चितार्था'
जिसने
वेदांत के
साधन से
विज्ञान को
उपलब्ध किया
है,
उसे जीवन का
अर्थ और
अभिप्राय पता
चलता है। उसके
बिना जीवन का
अर्थ पता नहीं
चलता है। मगर
इस पर कितना
कचरा थोपा गया
है! ऐसी ही
घटना और
शब्दों के साथ
भी हुई।
'संन्यास
योगाद् यतय:
शुद्ध— सत्वा:'
संन्यास
का अर्थ पकड़
गया,
जड हो गया; संसार को
छोड़ दे जो, वह
संन्यासी। तो
फिर जनक
संन्यासी
नहीं हैं।
लेकिन जनक से
ज्यादा किसने
जाना? और
अगर जनक संसार
में रहकर जान
सकते हैं, तो
संन्यास फिर
अपरिहार्य न
रहा। और
संन्यास
निश्चित ही
अपरिहार्य है,
अनिवार्य
है। संन्यास
के बिना कोई
भी नहीं जान
सकता। तो हमें
संन्यास को
कुछ पुन:
आविष्कार
करना होगा, इसके छिप
गये अर्थ को।
संन्यास
का अर्थ संसार
को छोड़ देना
नहीं है।
संन्यास का
अर्थ है : असार, व्यर्थ
जो हम पकड़े
हुए हैं, उसका
छूट जाना—छोड़ना
नहीं, छूट
जाना। भेद
स्पष्ट कर
लेना। वहीं
भूल हो गयी है।
जैसे महावीर
से तो
साम्राज्य
छूटा, लेकिन
देखनेवालों
ने समझा कि
छोड़ा।
देखनेवालों
का भी कसूर
नहीं, देखनेवालों
की अपनी
मुसीबत है।
देखनेवालों
की यह तकलीफ
है कि वे तो
पकड़े हुए हैं
धन को, वे
कैसे मानें कि
धन अपने से
छूट जाता है।
उनका अपने
जीवन का—एक
जीवन का नहीं,
अनंत जीवन
का—अनुभव यह
है कि वे तो और—और
पकड़ना चाहते
हैं। तो जब वे
देखते हैं कि
कोई व्यक्ति
छोड्कर चला
गया, तो
स्वभावत: वे
सोचते हैं, धन्य है, कैसा
त्याग किया!
कैसा
महात्यागी!
छोड दिया!
हमसे तो छूटती
नहीं एक कोड़ी
और इसने हीरे—जवाहरात
छोड़ दिये!
हमसे नहीं
छूटता कुछ भी
और इसने सब छोड़
दिया!
साम्राज्य
छोड़ दिया, लेकिन
यह दर्शकों की
दृष्टि है, यह महावीर
की अंतरंग
दृष्टि नहीं
है। महावीर से
पूछो। महावीर
ने छोड़ा नहीं
है, छूटा
है।
और
भेद तो बहुत
बड़ा है।
छोड़ने
का मतलब ही यह
होता है : अभी
लगाव कायम था, अभी
आसक्ति बनी थी,
जबरदस्ती
करनी पड़ी है, जैसे कोई
कच्चे फल को
तोड़ता है।
कच्चे फल को
तोड़ना पड़ता है,
पका फल अपने
से गिर जाता
है। और जब
पककर कोई फल
गिरता है, तो
न तो वृक्ष को
कोई घाव लगता,
न कोई पीड़ा
होती, सिर्फ
वृक्ष
निर्भार होता
है। और जब पका
फल गिरता है
तो पके फल को
भी कोई पीड़ा नहीं
होती। क्योंकि
पक गया, अब
पीडा का कोई
सवाल नहीं था।
अब यह गिरना
बिलकुल
नैसर्गिक है,
स्वाभाविक
है, आवश्यक
है, प्रकृति
के अनुकूल है।
एस धम्मो
सनंतनो। यही
धर्म है।
लेकिन जब कोई
कच्चे फल को
तोड़ता है, तो
तोड़ना पड़ता है।
फल को भी चोट
लगती है, क्योंकि
फल अभी कच्चा
है, अभी
पका ही नहीं, तुमने उसके
पूरे जीवन को
विकसित होने
का अवसर न
दिया; जैसे
किसी ने कली
को तोड़ लिया, फूल भी न
होने दिया। तो
निश्चित ही
तुमने हिंसा
की। और कच्चे
फल को तुम जब
तोड़ते हो, वृक्ष
को भी पीड़ा
होती है।
एक
ज्योतिषी के
जीवन में
उल्लेख है, अकबर
ने उसे बुलाया
था, बड़ी
उसकी ख्याति
सुनी थी। बहुत
दिन से ख्याति
सुन रहा था, लेकिन
बुलाने में
डरता भी था।
यूं अकबर ने
देश के सारे
के सारे रत्न
इकट्ठे कर
लिये थे!
तानसेन था
वहां, इस
देश का बडे से
बड़ा संगीतज्ञ,
उन दिनों का
ही नहीं, सारे—सारे
दिनों का; बीरबल
था वहा; और
तरह—तरह के
रत्न थे, नौ
रत्न थे—इस
ज्योतिषी के
लिए भी बहुत
खबरें आयी थीं
कि इसे भी
अपने दरबार
में बुला लो।
लेकिन एक खतरा
था कि
ज्योतिषी
बहुत मुंहफट
है। दो .और दो
चार, तो दो
और दो चार ही
कहता है। मगर
बात इतनी आती रहा,
आती रही कि
अकबर उत्सुक
होता गया, आखिर
उसने कहा कि
क्या कहेगा
आखिर, बुला
ही लो! एक दफा
तो देखें कि
वह क्या, किस
तरह का आदमी
है!
ज्योतिषी
आया। अकबर ने
पूछा कि कुछ
मेरे संबंध
में कहें।
ज्योतिषी ने
हाथ देखा और
कहा कि पहले
तुम मरोगे, फिर
तुम्हारे
बेटे मरेगे, फिर उनके
बेटे मरेगे।
अकबर ने कहा, यह भी कोई
बात हुई! तो
लोग ठीक ही
कहते थे। कुछ
और तुम्हें
नहीं सूझता? मैं मरूंगा,
मेरे बेटे मरेगे,
उनके बेटे मरेगे—यही
कहने तुम इतनी
दूर आए! और
मेरे दरबार
में और भी
ज्योतिषी हैं,
किसी ने कभी
यह नहीं कहा।
उसने कहा, वे
ज्योतिषी भी
यही कह रहे
होंगे, सिर्फ
लीप—पोतकर
कहते होंगे।
लेकिन मैं सच
कह रहा हूं।
और न केवल मैं
यह कह रहा हूं
यह
भविष्यवाणी
है, यह
मेरा
आशीर्वाद भी
कि पहले तुम
मरो, फिर
बेटे मरे, फिर
उनके बेटे मरे।
क्योंकि यही
प्रकृति का
नियम है। बेटे
तुम्हारे बाद मरे,
तुमसे पहले
न मर जाएं।
नहीं तो कच्चे
होंगे। तुम
पहले मरो।
बेटे पहले मर
जायें तो
दुर्घटना।
बाप पहले मरे
तो कोई
दुर्घटना
नहीं है। मैं
इतना ही कह
रहा हूं : बाप
का मरना पहले
बेटों से
बिलकुल ही
स्वाभाविक है;
तब तक बेटे
बाप हो जाएंगे,
फिर वे मरेगे,
फिर उनके
बेटे मरेगे—ऐसा
मरते ही
रहेंगे। मैं
तो सीधी—सीधी
बात कह रहा
हूं।
अकबर
को चोट तो लगी
क्योंकि कोई
ज्योतिषी को हाथ
नहीं दिखाता
कि सिर्फ वह
मृत्यु की ही
बात करे, मगर
ज्योतिषी ने
कहा, यही
एकमात्र
सुनिश्चित
चीज है। बाकी
तो सब चीजें
अनिश्चित हैं।
हो भी सकती
हैं, न भी
हों, मगर
यह पक्का ही
होगा। और मैं
पक्के की ही
बात करने का
आदी हूं।
कच्चे की मैं
बात नहीं करता।
जो होना ही है,
वही मैं
कहता हूं।
पका
फल जब गिरता
है तो
दुर्घटना
नहीं है।
लेकिन कच्चे
फल जो वृक्ष
से लटके हुए
हैं,
पके फल को
गिरते देखकर
सोचते होंगे,
अहा, कैसा
अद्भुत फल है!
हम तो छोड़ना
नहीं चाहते, पकड़ना चाहते
हैं—और रस पी
लें, और रस
पी लें; और
दो दिन जी लें,
अभी—अभी तो
आए हैं, अभी
क्या टूटना; और क्या
अद्भुत
त्यागी है यह
फल भी कि चल
दिया, मार
दी लात वृक्ष
को! यह कच्चे
फलों की
प्रतीति है।
और
कच्चे फल क्या
खाक कहेंगे
पके फलों के
संबंध में!
रामकृष्ण
के पास एक
आदमी आया।
बहुत से रुपये
लाया था एक
थैली में भरकर।
रामकृष्ण के
चरणों पर
चढ़ाने लगा।
रामकृष्ण ने
कहा कि क्यों, किसलिए?
तो उसने कहा,
आप
महात्यागी
हैं; और हम
किसी तरह तो
आपका सम्मान
करें!
रामकृष्ण ने
कहा, शब्द
वापिस ले लो!
मैं महाभोगी।
महात्यागी
तुम हो! कैसी
उलटी बातें
करते हो, रामकृष्ण
ने कहा, मुझ
भोगी को
त्यागी कहते,
और तुम हो
त्यागी और
अपने को भोगी
कहते; क्या
विनम्रता है
तुम्हारी भी!
वह आदमी तो
बहुत चौंका।
उसने कहा, आप
क्या कह रहे
हैं? परमहंसदेव,
आप होश में
हैं? आप और
भोगी! और मैं
और त्यागी!
रामकृष्ण ने
कहा, मैं
बिलकुल ठीक कह
रहा हूं।
क्योंकि
मैंने व्यर्थ
को छोड़ दिया
और सार्थक को
भोग रहा हूं।
और तुम व्यर्थ
को पकड़े हो और
सार्थक को
त्यागा हुआ है।
किसको भोगी
कहें? किसको
त्यागी कहें?
रामकृष्ण
जैसे लोग
शब्दों को
आत्मा देते
हैं,
अर्थ देते
हैं, क्योंकि
ये कोई पंडित
नहीं हैं।
मैं
भी मानता हूं
कि संन्यास
परम भोग है।
और जिनको तुम
भोगी कहते हो
वे सच में
समझो तो तुम्हारे
अर्थों में
संन्यासी हैं।
कंकड़—पत्थर तो
उन्होंने
छाती से लगा
रखे हैं, हीरे—जवाहरात
छोड़ दिये हैं।
हीरे और
जवाहरात
छोड़ने की उनकी
तैयारी है, लेकिन कंकड़—पत्थर
छोड़ने की नहीं।
कागज के नोटों
पर बैठे हुए
हैं, फन
मारकर। लोग
कहते हैं, मर
जाते हैं इस
तरह के लोग तो
सांप हो जाते
हैं; क्या
खाक मरकर
होंगे, वे
अभी ही सांप
हैं। जरा उनके
नोट पर नजर तो
करो, ऐसा
फुफकारेंगे!
कागज के नोटों
पर मरे जा रहे हैं!
और जीवन की
परम निधि भीतर
पडी है, उस
तरफ आंख भी
नहीं उठाते।
दौड़ रहे हैं
बाहर, पद
और प्रतिष्ठा
में।
तो
इन सारे
पागलों के बीच
जब कोई महावीर
या बुद्ध जैसा
व्यक्ति पैदा
होता है, तो
उसके संबंध
में गलत धारणा
बनेगी ही।
महावीर और
बुद्ध को ये
कहेंगे. कैसा
महान त्याग किया!
लेकिन महावीर
और बुद्ध से
पूछो। महावीर—बुद्ध
रामकृष्ण से
राजी होंगे, मुझसे राजी
होंगे।
संन्यास
का अर्थ है : जो
व्यर्थ है, जो
असार है, उसका
छूट जाना।
संसार का छूट
जाना नहीं, क्योंकि
संसार न तो
व्यर्थ है, न असार है।
संसार तो
दोनों है।
संन्यासी इस
ढंग से रहता
है, इस कला
से रहता है कि
सार को भोगता
है, असार
को छोड़ देता
है। और भोगी
इस मूढ़ता से
रहता है कि
असार को तो
पकड़ लेता है, सार से चूक
जाता है।
संन्यास
संसार के
छोड़ने का नाम
नहीं, सार
और असार के
विवेक का नाम
है। सार सार
की तरह दिखायी
पड़े, असार
असार की तरह।
यह
फिर एक पहलू
हुआ।
संन्यास
योगाद् यतय:
शुद्ध— सत्वा:।
और
इसका दूसरा
पहलू है : योग।
संन्यास का
अर्थ हुआ असार
का छूट जाना; योग
का अर्थ हुआ
सार से जुड़
जाना। योग का
अर्थ होता है
जुड़ना। असार'
से छूटना और
सार से जुड़ना,
यह दो पहलू
हुए। संन्यास
नकारात्मक है।
कचरे को छोड़
दिया, खाली
कर लिया अपने
को कचरे सें—विचारों
से, वासनाओं
से, इच्छाओं
से—और जैसे ही
तुम खाली हुए
कि परमात्मा
से जुड़े। जैसे
ही तुम खाली
हुए कि तुम
मिटे और
परमात्मा ही
बचा। उस परम
मिलन का नाम
योग है। योग
का मतलब
शीर्षासन
नहीं है। योग
का मतलब पदासन
नहीं है। योग
का मतलब कोई
शारीरिक
सर्कस नहीं है—कि
शरीर को तोड़
रहे हो, मरोड़
रहे हो, उल्टा—सीधा
कर रहे हो।
योग का अर्थ
है. जोड़, मिलन,
परम मिलन।
योग परम घटना
है जीवन की, जहां बूंद
सागर से मिल
जाती है और
मिलकर सागर हो
जाती है।
संन्यास
पहलू का एक
हिस्सा और योग
पहलू का दूसरा
हिस्सा।
संन्यास
नकारात्मक, योग
विधायक। जैसे वेदांत
नकारात्मक—शब्द
को छोड़ो, शास्त्र
को छोड़ो, सिद्धांत
को छोड़ो और
विज्ञान
विधायक—ताकि
तुम उस विशेष
अनुभूति, उस
विशेष ज्ञान
को उपलब्ध हो
जाओ जो जीवन
को धन्य कर
देती है। ऐसे
व्यक्ति
शुद्ध होता है,
शुद्ध सत्व
को उपलब्ध
होता है।
'ते ब्रह्मलोकेषु
परान्तकाले'
मगर
हम तो जब
पंडित की
व्याख्या में
पड़ जाते हैं
तो पंडित तो
जो भी
व्याख्या
करेगा वह गलत
होगी।
क्योंकि उसे
तो अनुभव नहीं
है। वह क्या
व्याख्या
करेगा?
'ते ब्रह्मलोकेषु
परान्तकाले'
मृत्यु
के बाद ऐसा
व्यक्ति
ब्रह्मलोक
में प्रवेश
करता है।
'परामृता: परिमुच्चन्ति
सर्वे'
और
वहां पहुंचकर, ब्रह्मलोक
में पहुंचकर—मरने
के बाद—वह
सर्वरूपेण
मुक्त हो जाता
है।
यह
व्याख्या
एकदम ही
भ्रांत है।
अगर तुम्हें
मेरे पहले दो
वचनों की
व्याख्या समझ
में आयी हो, तो
फिर अर्थ
बदलना होगा।
'ते ब्रह्मलोकेषु
परान्तकाले'
ब्रह्मलोक
कोई भौगोलिक
स्थान नहीं है
कहीं।
ब्रह्मलोक है
तुम्हारे
भीतर उस
अनुभूति का नाम
जब बूंद सागर
में मिलकर
सागर हो जाती
है,
वेदांत से
विज्ञान, संन्यास
से योग, और
इन सब को एक
शब्द में कहा
जा सकता है :
ब्रह्मसाक्षात्कार,
ब्रह्मानुभूति,
ब्रह्मलोक
में प्रवेश।
इसको तुम
भूगोल मत
समझना कि कहीं
ऊपर सात आकाशों
के पार कोई
ब्रह्मलोक है।
तुम्हारे
भीतर
ब्रह्मलोक है।
तुम्हारा
अन्तर्तम अभी
भी ब्रह्मलोक
में ही स्थापित
है। तुम बाहर
कितने ही भागो—दौडो,
लेकिन तुम
अभी भी उसी
कील पर ठहरे
हुए हो। तुमने
गाड़ी को चलते
देखा है। चाक
चलता है, कील
ठहरी रहती है।
कील है
ब्रह्मलोक।
और चाक है
तुम्हारा मन।
चाक तो चलता
चला जाता है, लेकिन कील
सदा ठहरी रहती
है। ऐसे ही
तुम्हारे
भीतर एक कील
है जो सदा
ठहरी हुई है, जो कभी नहीं
चलती। जो
शाश्वत है, नित्य है।
और मन का चाक
घूमता रहता है,
घूमता रहता
है। जिस दिन
मन का चाक भी
रुक जाता है
उस क्षण, तत्क्षण
तुम उस कील को
देखने में
समर्थ हो जाते
हो जो कभी
हिली नहीं, डुली नहीं, कभी बदली
नहीं, बदल
सकती नहीं।
और
मृत्यु के बाद
यह घटना नहीं
घटती, जीवन
में ही घटती
है। लेकिन
जीवन में भी
मरने की एक
कला है। जहां
अहंकार मिट
गया, वहां
मृत्यु घट गयी।
अहंकार की
मृत्यु पर
घटती है यह
बात। शरीर की
मृत्यु से
इसका कोई
संबंध नहीं है।
क्योंकि शरीर
मर भी जाए और
अहंकार बना
रहे तो तुम
फिर दूसरा
शरीर ग्रहण
करोगे। और
अहंकार मिट
जाए, शरीर
बना रहे, शरीर
से क्या लेना—देना
है। जब अहंकार
मिट गया तो
तुम शरीर से
मुक्त हो गये—शरीर
में रहते हुए
भी मुक्त हो
गये। इसलिए
हमनें जनक को
विदेह कहा है।
देह में रहते
हुए, संसार
में रहते हुए
विमुक्त कहा
है।
यह
मृत्यु की
धारणा कि मरने
के बाद
ब्रह्ममिलन
होगा, बड़ी
खतरनाक है।
क्योंकि इससे
हमें उस परम क्रांति
को स्थगित
करने के लिए
सुविधा मिल
जाती है कि अब
जो होना है वह
तो मृत्यु के
बाद होना है, तो जल्दी
क्या। बुढ़ापे
में साध लेंगे।
मरते वक्त साध
लेंगे।
मरणशैथ्या पर
साध लेंगे। और
कोई मौत खबर
देकर तो आती
नहीं, पूर्व
सूचना तो देती
नहीं कि अब
मैं आ रही हूं अचानक
आ जाती है, सो
साधने का अवसर
ही नहीं आता।
जिंदगीभर
सोचते रहे कि
स्मरण करना है
प्रभु का। खुद
तो नहीं कर
पाये, फिर
लोग अर्थी
बांधकर उठाते
हैं और 'राम—नाम
सत्य' बोलते
हैं। जो इनको
बोलना था, वह
दूसरे बोल रहे
हैं। दूसरे भी
इनके लिए बोल
रहे हैं, अपने
लिए नहीं बोल
रहे हैं। अपने
लिए तो वे
प्रतीक्षा
करेंगे
दूसरों की कि
भैया, हम
तुम्हारे लिए
बोल दिये, अब
कोई हमारे लिए
बोल देना!
मैं
जबलपुर बहुत
वर्षों तक रहा।
मेरे पड़ोस में
एक सज्जन थे, जो
हर एक ही
अर्थी में
सम्मिलित
होते थे।
मैंने उनसे
पूछा कि बात
क्या है कोई
भी मरे.....! इतने
तुम्हारे
दोस्त और
प्रियजन मुझे
दिखाई नहीं
पड़ते। कभी मैं
देखता नहीं कि
तुम्हारे घर
कोई भोजन करने
आया हो, कि
तुम किसी के
घर भोजन करने
गये हो, लेकिन
हर अर्थी में
तुम जरूर
सम्मिलित
होते हो। शादी—विवाह
का निमंत्रण
तुम्हें मिले
न मिले, मगर
अर्थी में तुम
जरूर
सम्मिलित
होते हो। तो
उन्होंने कहा,
ऐसा है कि
मरना तो मुझको
भी पड़ेगा, तो
सबकी अर्थियों
में सम्मिलित
होता रहूंगा
तो मेरी अर्थी
में भी लोग
सम्मिलित
होंगे। क्या
तुम मुझे
चाहते हो कुत्ते
की मौत मरूं, कि मैं मरूं
और कोई
सम्मिलित भी न
हो। उनके कोई
बच्चे नहीं थे,
शादी
उन्होंने की
नहीं थी, सो
वे बड़े भयभीत
थे इस बात से
कि मर जाऊं तो
कम—से—कम मरघट
तो
पहुचानेवाले
लोग होने
चाहिए। मैंने
कहा, तुम
मर ही गये तो
अब मरघट
पहुंचे कि
नहीं, इससे
क्या फर्क
पड़ता है! और
चार आदमी गये
मरघट पहुंचाने,
कि चार हजार
आदमी गये, इससे
भी क्या फर्क
पड़ता है! तुम
तो गये ही।
मगर वे बोले
कि नहीं, फर्क
पड़ता है। कोई
तो राम—नाम
दोहरानेवाला
हो। अरे, कोई
तो मरते वक्त
कान में कम—से—कम
गायत्री
मंत्र पढ़ दे।
जिंदगीभर
टालते रहते
हैं,
मरते वक्त
लोग मुंह में
गंगाजल डालते
हैं, कान
में गीता
सुनाते हैं।
वह आदमी मर
रहा है, कुछ
तो शर्म खाओ, कुछ तो
संकोच करो! इस
मरते आदमी का
अपमान तो न करो!
अरे, जिसने
जिंदगी भर यह
काम नहीं किया,
मरते वक्त
तो न करवाओ! जो
जिंदगीभर बचा,
उसको अब तो
भ्रष्ट न करो!
और यह क्या
खाक सुनेगा; जो जब जिंदा
था तब नहीं
सुना, अब
यह मरते समय
सुनेगा! अब यह
होश में है!
इसको कुछ
सुनायी नहीं
पड रहा है, यह
तो डूब रहा है।
यूं समझो जैसे
कोई पानी में
डूब रहा हो और
तुम घाट पर
खड़े हुए 'राम—नाम
सत्य' की
हुंकार मचा
रहे हो।
गायत्री
मंत्र पढ़ रहे
हो, कि
भैया डूब जा, सुन ले, आखिरी
वक्त सुन ले—काम
पड़ेगा!
इस
तरह की
सूत्रों की
व्याख्या ने
यह परिणाम हाथ
में ला दिया
कि मरने के
लिए हम टालने
लगे। संन्यास
यानी बुढापे
में पचहत्तर
साल के बाद! अब
आम तोर से
पचहत्तर साल
के बाद कितने
लोग जिंदा
रहते हैं।
सत्तर
स्वाभाविक
उम्र है।
पचहत्तर साल
के बाद जिंदा कोन
रहता है! दो—चार—दस
आदमी जिंदा रह
जाते होंगे।
मगर जो
पचहत्तर साल
तक संन्यास न
लेने का अभ्यास
जिसने किया है, वह
क्या पचहत्तर
साल की आदत को
इतनी आसानी से
छोड़ देगा!
हर
चीज का अभ्यास
मजबूत होता
चला जाता है।
एक
मित्र मेरे
शराब पीते हैं।
उनकी पत्नी
तीस साल से
उनके पीछे पड़ी
है कि शराब
छोड़ो! वह मेरे
पास भी बार—बार
आकर कहती है
कि आपकी ये
मानते हैं, आप
अगर एक दफा कह
दो, ये
जरूर छोड़ेंगे।
मगर आप चुप
बैठे हो, आप
कहते ही नहीं!
मैंने कहा, तू तीस साल
से कह रही है, कुछ परिणाम
न हुआ, तू
मेरे शब्द भी
खराब क्यों
करवाना चाहती
है; व्यर्थ
जाएंगे। उसने
कहा कि नहीं
जाएंगे, वे
भी कहते हैं
कि अगर भगवान
कह दें तो मैं
छोड़ दूंगा; क्योंकि
उनको पक्का
भरोसा है कि
आप कहेंगे ही नहीं।
आप एक दफा कह
दो, देख तो
लें, एक यह
भी प्रयोग हो
ले!
मैंने
उससे कहा, तो
एक काम कर, तू
तीस साल से कह
रही है कि
शराब छोड़ दो।
उसने कहा, ही।
तो मैंने कहा,
पहले तू यह
कर कि तू यह
कहना छोड़ दे—सात
दिन के लिए
सिर्फ। अगर
सात दिन तूने
यह बात नहीं
उठायी अपने
पति से, तो
आठवें दिन मैं
तेरे पति से
कहूंगा। उसने
कहा, राजी।
अरे, यह
कोई बड़ी कठिन
बात है! सात ही
दिन की बात है
न, आठवें
दिन आप कहोगे?
आठवें दिन
बिलकुल पक्का
है; सात
दिन तू कहना
ही मत, बात
ही मत उठाना।
और
पति को बुलाकर
मैंने कहा कि
यह वायदा हुआ
है। यह सात
दिन का सौदा
हुआ है। सात
दिन में अगर
यह एक बार भी
वचन तोड़ दे, तुम
फौरन मुझे खबर
करना। और नोट
करते जाना
कितनी दफे वचन
तोड़ा। उनकी
पत्नी बोली कि
अरे, सात
दिन का सवाल
है, सम्हाल
लूंगी। मगर
जिस ढंग से वह
कह रही थी, 'सम्हाल
लूंगी' और
उसके चेहरे पर
पसीना दिखायी
पड़ रहा था, मैंने
कहा कि तू देख,
सोच—समझ की
बात कर! अरे, उसने कहा, मेरा क्या
बिगड़ता है, नहीं
कहूंगी! फायदा
भी क्या है—तीस
साल तो कहकर
देख लिया, चलो
सात दिन का ही
तो सवाल है!
कुल सात दिन
की ही तो बात
है।
मगर
वह तीसरे दिन
मेरे पास आ
गयी। उसने कहा
कि न मैं सो
सकती, न मैं
खाना खा सकती,
मेरा सब
गड़बड़ हो गया
है, बिना
कहे मैं नहीं
रह सकती! मैं
तो कहूंगी!
मैंने कहा, अब तू जरा
सोच; जो
आदमी तीस साल
से शराब पी
रहा है, उसको
तू छुड़वाने की
कोशिश कर रही
है और तूने तो
शराब पी ही
नहीं, सिर्फ
शराब छुड़वाने
का अभ्यास
तुझे हो गया
है—हालाकि
फायदा भी कुछ
नहीं हुआ तीस
साल में। उस
अनुभव से भी
तुझे कुछ सीख
नहीं आयी। और
मैंने कुछ
ज्यादा मांग न
की थी, सिर्फ
सात दिन की—और
तू चाहती है
कि तेरा पति
जिंदगीभर के
लिए शराब छोड़
दे! अब जरा होश
की बात कर।
तेरा तो कुल
इतना हां, तेरा
क्या जाता है,
तू कोई शराब
तो पीती नहीं!
तेरे कोई शरीर
में तो शराब
घुस नहीं गयी
है! तेरे कोई
शरीर की जरूरत
तो हो नहीं
गयी है! तू तो
सिर्फ कहती है,
बकवास ही
करती है—और
तीस साल का
अनुभव यह है
कि उससे कुछ
फायदा भी नहीं
है। फिर भी तू
सात दिन चुप
नहीं रहती। तू
कहती है कि
मैं सो भी
नहीं सकती। बस
मुझे एक ही
धुन सवार रहती
है। और मैं
डरी रहती हूं
कि कहीं निकल
न जाए मुंह से।
खाना खाने
बैठते हैं ये
तो मैं अपने
को सम्हाल
लेती हूं।
इतना तनाव
मुझसे नहीं
सहा जाता। मैं
तो कहूंगी!
मैंने कहा, तू कहेगी तो
तूकह! लेकिन
फिर इतना
पक्का समझ, लेकिन जब तू
कहना नहीं छोड़
सकती तो यह
बेचारा शराब
कैसे छोडेगा!
और इसलिए तो
मैं नहीं कह
रहा हूं।
आदमी
हर चीज का
अभ्यासी हो
जाता है।
पचहत्तर साल
तक जिसने टाला
है,
पचहत्तर
साल तक जिसने
टालने का
अभ्यास किया है,
तुम सोचते
हो पचहत्तर
साल के बाद
एकदम से वह संन्यस्त
हो जाएगा। वह
पचहत्तर
जन्मों तक टालेगा।
मगर इन
सूत्रों ने
भांति दे दी—इनके
अर्थों ने, व्याख्याओं
ने—कि मरने के
बाद
ब्रह्मलोक
उपलब्ध होता
है। जिंदगी
में तो कुछ
होनेवाला
नहीं है। जब
जिन्दगी में
कुछ होनेवाला
नहीं है, तो
क्यों व्यर्थ
परेशान होओ!
अरे, अभी
तो खा लो, पी
लो, मजा कर
लो, यह चार
दिन की चांदनी
है, फिर
देखेंगे, निपट
लेंगे बाद
में! और कोई हम
अकेले थोड़े ही
हैं, इतने
लोग हैं, जो
सब पर गुजरेगी
वह हम पर भी
गुजरेगी। और
हम से भी बड़े—बड़े
पापी पड़े हैं।
अगर कतार भी
लगेगी, 'क्यू
भी लगेगा
कयामत के दिन
निर्णय का, तो हमारा
नम्बर तो न—मालूम
कब आएगा!
मुल्ला
नसरुद्दीन
अपने मौलवी से
पूछ रहा था कि
बिलकुल सच
बताओ, कयामत
के दिन में
निर्णय हो
जाएगा! उसने
कहा, बिलकुल
हो जाएगा!
नसरुद्दीन से
पूछा, कयामत
के दिन में
घंटे कितने
होंगे? मौलवी
ने कहा, चौबीस
घंटे होते हैं
दिन में तो!
चौबीस घंटे में
निर्णय हो
जाएगा—मुल्ला
ने कहा। वह
बड़ा
प्रफुल्लित
हुआ जा रहा था।
मौलवी ने पूछा,
तुम इतने
प्रफुल्लित
किसलिए हो रहे
हो? अरे
निर्णय होगा!
और मुल्ला ने
कहा कि जितने
लोग जमीन पर
पैदा हुए हैं
अब तक, वे सब
मोजूद होंगे?
क्योंकि
सभी को—मुसलमानो
में तो यही हिसाब
है : कयामत के
दिन एक दफा
निर्णय
होनेवाला है—चौबीस
घंटे में सबका,
अरबों—खरबों
लोग..... और
मुल्ला ने कहा,
एक बात और, स्त्रियां
भी मौजूद
रहेंगी? और
वह प्रसन्न
होता जा रहा!
मौलवी पूछने
लगा कि तुम
इतने क्यों
प्रसन्न हो? उसने कहा कि
मैं इसलिए
प्रसन्न हो
रहा हूं कि अगर
इतनी
स्त्रियां
मौजूद रहेंगी
तो इतना
शोरगुल
मचनेवाला है
कि क्या खाक
निर्णय होगा! कोन
निर्णय करेगा!
कोन सुनेगा!
अरे, कोन
किसकी सुनेगा!
इतनी
स्त्रियां
अरबों—खरबों,
क्या चर्चा
छिड़ेगी!! और
जन्मों—जन्मों
के बाद मिली
हुई सहेलियां
और क्या—क्या
घट चुका होगा
इस बीच! कितने
फैशन बदल गये
होंगे, कितनी
साड़ियां.....
उसने कहा, फिर
मुझे फिकर ही
नहीं है! यही
मुझे डर था।
और इतने आदमी,
और मुझ गरीब
की कोन पूछ
होगी वहा!
वहां बड़े—बड़े
पापी होंगे, अपना नम्बर
तो शायद ही
लगे! और भीड़—
भाड़ में अपन
कहीं भी छिपकर
खड़े रहेंगे।
चौबीस ही घंटे
का मामला है।
ये
भ्रांतियां
आदमी को
स्थगित करने
के लिए सुविधा
बना देती हैं।
मैं
तुमसे कहना
चाहता हूं इस
सूत्र का
मृत्यु से कोई
संबंध नहीं है।
इस सूत्र का अहंकार
की मृत्यु से
संबंध है—और
वही असली
मृत्यु हैं।
शरीर की
मृत्यु तो कोई
मृत्यु नहीं, फिर
आ जाओगे। हां,
अहंकार मरा,
तो मर गये।
फिर लौटना
नहीं है। वही
निर्वाण है।
’ते ब्रह्मलोकेषु
परान्तकाले
परामृता
परिमुच्चन्ति
सर्वे
और
जो अहंकार में
मर गया, जिसने
अहंकार को मर
जाने दिया, वह सब भांति
मुक्त हो गया,
क्योंकि
सारी
बीमारियां
अहंकार की हैं,
सारे बंधन अहंकार
के हैं। यह
कारागृह
तुम्हारे
अहंकार का है,
जिसमें तुम
बंद हो। कोई
तुम्हें रोक
नहीं रहा है, अभी तुम
चाहो तो इसी
क्षण कारागृह
के बाहर आ सकते
हो। न कोई
पहरे पर है, न कोई जेलर
है, न कोई
चौकीदार है, न दरवाजे पर
कोई ताला है।
यह कारागृह
तुम्हारा
निर्माण किया
हुआ है। और
तुम जिस क्षण
चाहो, इससे
छलांग लगाकर
बाहर आ सकते
हो।
एक
छोटा बच्चा, मकान
बन रहा था
किसी का तो
ईंटों का ढेर
लगा था, रेत
का ढेर लगा था,
वह उसी रेत
के ढेर में
खेल रहा था।
खेलते—खेलते
उसने अपने
चारों तरफ
ईंटे जमानी
शुरू कर दीं—ईंट
के ऊपर ईंट
रखता गया। जब
ईंटें उसके
गले तक आ गयीं
तब उसको समझ
में आया कि अब
निकलूंगा
कैसे? एकदम
घबड़ाहट में
चिल्लाया कि
बचाओ मुझे, मैं तो
बिलकुल बंद हो
गया! मैं तो
कैदी हो गया, बचाओ मुझे!
घबड़ाहट उसकी
स्वाभाविक थी।
ईंटे गले तक आ
गयीं, अब
निकलूंगा
कैसे? मगर
एक बात भूल
गया कि ईंटें
मैंने ही
जमायी हैं, जिस तरह
जमायी हैं, उससे उलटा
चल पडूं अलग
कर दूं। एक—एक
ईंट को हटा
दूं।
बुद्ध
एक दिन सुबह—सुबह
प्रवचन देने
आए और हाथ में
एक रूमाल लेकर
आए। लोग बहुत
चकित थे, क्योंकि
वे कभी कुछ
लेकर आते न थे,
हाथ में
रूमाल आज
क्यों था? रेशमी
रूमाल था, और
बैठकर इसके
पहले कि
प्रवचन दें, उन्होंने
रूमाल पर एक
गांठ के बाद
दूसरी, दूसरी
के बाद तीसरी,
चौथी, पांचवीं—पांच
गांठें
लगायीं। लोग
बिलकुल देखते
रहे टकटकी
बांधकर कि
क्या हो रहा
है? क्या
कर रहे हैं वे?
क्या आज कोई
जादू का खेल
दिखानेवाले
हैं? और
पांचों गांठें
लगाने के बाद
बुद्ध ने पूछा
कि भिक्षुओ, मैं एक
प्रश्न पूछता
हूं। अभी— अभी
तुमने देखा था,
यह रूमाल
बिना गांठों
के था, अब
गांठों से भर
गया। क्या यह
रूमाल वही है
जो बिना
गांठों का था
या दूसरा है? उनके शिष्य
आनंद ने कहा
कि भगवान, आप
हमें व्यर्थ
की झंझट में डाल
रहे हैं।
क्योंकि अगर
हम कहें यह
रूमाल वही है,
तो आप
कहेंगे, उसमें
गांठें नहीं
थीं, इसमें
गांठें हैं।
अगर हम कहें
यह रूमाल
दूसरा है, तो
आप कहेंगे, यह वही है।
अरे, गांठों
से क्या फर्क
पड़ता है, रूमाल
तो बिलकुल वही
का वही है। यह
रूमाल एक अर्थ
में वही है जो आप
लाए थे, क्योंकि
कोई बुनियादी
फर्क नहीं पड़ा
है और दूसरे
अर्थ में वही
नहीं है, क्योंकि
सांयोगिक
फर्क पड़ गया
है, इसमें
पांच गांठें
लग गयी हैं।
बुद्ध
ने कहा, तुम
में और मुझमें
बस, इतना
ही फर्क है—सायोगिक।
मैं गांठरहित
रूमाल हूं और
तुममें
गांठें लग गयी
हैं—और
लगानेवाले
तुम हो। फिर
बुद्ध ने कहा,
दूसरा
प्रश्न मुझे
यह पूछना है
कि मैं यह
गांठें खोलना
चाहता हूं
जैसे कि तुम
सब अपनी—अपनी
गांठें खोलना
चाहते हो।.....
गांठ शब्द
प्यारा है।
बुद्ध ने तो
जो शब्द
प्रयोग किया,
वह ग्रंथि
था। वह और भी
प्यारा शब्द
है। इसलिए
हमने बुद्ध को,
महावीर को
निर्ग्रंथ
कहा है। जिनकी
ग्रंथियां
टूट गयीं, जिनकी
गांठें खुल
गयीं। और है
ही क्या? सबसे
बड़ी गांठ यह
अहंकार की है।
यह सबसे बड़ी
ग्रंथि है। तो
बुद्ध ने कहा,
मुझे यह
गांठें खोलनी
हैं, जैसा
कि तुम सब
मेरे पास
इकट्ठे हुए हो
गांठें खोलने
के लिए, तो
मैं कैसे
खोलूं? और
बुद्ध ने उस
रूमाल के
दोनों छोर
पकड़कर खींचना
शुरू किया।
आनंद
ने कहा कि
भगवान, आप
क्या कर रहे
हैं? इस
तरह तो गांठें
और बंध जाएंगी।
आप रूमाल खींच
रहे हैं, गांठें
छोटी होती जा
रही हैं, खोलना
मुश्किल हो
जाएगा।
खींचने से
नहीं खुल सकती
हैं गांठें।
रूमाल को ढीला
छोड़िए, खींचिए
मत।
बुद्ध
ने कहा, यह
दूसरी बात भी
तुम समझ लो कि
जो भी खींचेगा,
उसकी
गांठें और बंध
जाएंगी। ढीला
छोड़ना होगा।
विराम चाहिए,
विश्राम
चाहिए, तनाव
नहीं। और
तुम्हारे
तथाकथित
धार्मिक लोग
बड़े तनावग्रस्त
हो जाते हैं।।गाठें
खोलने के लिए
ऐसे दीवाने हो
जाते हैं कि
ये खींचते ही
चले जाते हैं
रूमाल। कोई
उपवास कर रहा
है, कोई
सिर के बल खड़ा
है, कोई
धूनी रमाए हुए
है, यह
क्या है? ये
गांठें खींच
रहे हैं। ये
खींचते ही चले
जा रहे हैं।
इनका अहंकार
और मजबूत होता
जा रहा है—सूक्ष्म
जरूर हो रहा
है, पहले
मोटा दिखायी
पड़ता था, क्योंकि
गांठ पोली थी,
अब खिंच गयी
है तो छोटा हो
गया है, दिखायी
भी नहीं पड़ता—गांठ
इतनी छोटी हो
सकती है कि
दिखायी भी न
पड़े। और वही
खतरा है, कि
जब गांठ
दिखायी न पड़े
तो बहुत
मुश्किल हो जाती
है। उसका
खोलना
मुश्किल हो
जाता है।
खोलोगे भी
कैसे?
तो
बुद्ध ने कहा, मैं
क्या करूं, आनंद, तुम्हीं
कहो! तो आनंद
ने कहा, पहली
तो बात यह है
कि आप रूमाल
को ढीला छोड़
दें, इसी
वक्त ढीला छोड़
दें। जितना आप
खींचेंगे
उतना मुश्किल
हो जाएगा।
दूसरी बात, इसके पहले
कि हम सोचें
कैसे गाठें
खोली जाएं, मैं आपसे
पूछना चाहता
हूं : आपने
कैसे गांठें बांधी?
क्योंकि जब
तक हम यह न
जानें कि कैसे
गाठें बांधी,
तब तक कैसे
खुलेंगी, यह
नहीं जाना जा
सकता।
कैसे
गांठें बांधी, बस
इतना ही तो
सारा सार है।
तुमने कैसे
गांठ बांध ली
है, इसको
समझ लो, तो
खोलने में कुछ
देर नहीं।
तुमने कैसे
ईंटें रखकर
अपने चारों
तरफ कारागृह
बना लिया है? पैदा होते
से ही जो पहली
गांठ समाज, परिवार, शिक्षा,
धर्म, राज्य
व्यक्ति पर
बांधना शुरू
कर देते हैं, वह अहंकार
की गांठ है।
हम बच्चे को
कहने लगते हैं
: प्रथम आना
स्कूल में, गोल्ड मेडल
लाना, प्रतियोगिता
में जीतना, हारेना कभी
नहीं, टूट
जाना मगर
झुकना नहीं, कुल—मर्यादा
की प्रतिष्ठा!
हम अहंकार थोप
रहे हैं। हम
उसको गांठ
बांध रहे हैं।
फिर हम उससे
कहते हैं, आगे
बढ़ो!
महत्वाकांक्षी
बनो! धन कमाओ!
यश कमाओ! पद —प्रतिष्ठा
लाओ! तुम जैसा
चमकता हुआ कोई
भी न हो! तुम
सबको मात कर
दो, सबको
फीका कर दो! और
सब भी यही
करने में लगे
हैं। ऐसे
राजनीति पैदा
होती है।
राजनीति
अहंकार के
संघर्ष का नाम
है। और धर्म
अहंकार का
विसर्जन है।
किस
तरह तुम पर
गांठ बंधी है, जरा
उसे ठीक से
देख लो, खोलने
में कोई
कठिनाई न होगी।
महत्त्वाकांक्षा
ने गांठ बांधी
है। और
महत्त्वाकांक्षा
में क्या रखा
है! धन भी पा
लिया, पद
भी पा लिया, तो क्या
होगा! सब पड़ा
रह जग़रगा—जब
बांध चलेगा
बंजारा, सब
ठाठ पड़ा रह
जाएगा। तुम
बड़े पद पर भी
पहुंच गये तो
क्या होगा? होना क्या
है? क्या
पा लोगे? पाकर
भी क्या पा
लोगे? सिकंदर
ने क्या पा
लिया? तुम
क्या पा लोगे?
लेकिन हमें
होश ही नहीं, दौडे जा रहे
हैं। और भी
बेहोश लोग दौड़
रहे हैं, हम
भी उन्हीं के
साथ दौड़े जा
रहे हैं। रुको,
थोड़ा
विश्राम, थोड़ा
बैठ जाओ
किनारे पर, थोड़े हलके
हो लो, थोड़े
शात होकर देखो—यह
गांठ कैसे बंध
रही है? प्रतिस्पर्धा
कि कोई दूसरा
आगे न निकल
जाए। ईर्ष्या,
जलन से सब
गांठ को बांध
रहे हैं। बस, यह अहंकार
की गांठ न
बंधे, यह
अहंकार की
गांठ तुम खोल
लो कि मृत्यु
हो गयी। और
ऐसे जो मरता
है, वह
द्विज हो जाता
है। उसका
दूसरा जन्म हो
गया। शरीर तो
वही रहा, लेकिन
मौत भी हौ गयी,
जन्म भी हो
गया। इसी
मृत्यु की
चर्चा है इस
सूत्र में।
और
जिसने अहंकार
को मर जाने
दिया, वह
ब्रह्म में
प्रविष्ट हो
जाता है।
अहंकार के
अतिरिक्त और
कोई बाधा ही
नहीं है। यह
मैं अलग हूं
अस्तित्व से,
यही मुझे
रोक रहा है।
मैं एक हूं
अस्तित्व के
साथ, बस
इतना बोध, फिर
न कोई संधर्ष
है, न कोई
तनाव है, न
कोई विषाद है,
न कोई हारे
है, न कोई
असफलता है; फिर बूंद
सागर में एक
हो गयी, उसकी
अलग कोई
यात्रा ही न
रही। और जहां
सागर के साथ
मिलन है, वहीं
ब्रह्मलोक है।
और वह सागर
तुम्हारे
भीतर लहरा रहा
है। मगर तुम
गांठ बांधे
बाहर खड़े हो।
तुम अपने भीतर
नहीं जाते हो।
यह
सूत्र प्यारा
है। मगर अर्थ
मेरी दृष्टि
से समझना। अब
तक जो इसकी
व्याख्याएं
की गयी हैं, बुनियादी
रूप से गलत
हैं।
'दीपक
बारा नाम का' प्रवचनमाला
से
दिनांक
4 अक्ट्रबर 1980; श्री
रजनीश आश्रम
पूना
thank you guruji
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