दिनांक
29 सितम्बर,
1976;
श्री रजनीश
आश्रम, पूना
सूत्र:
खैर
सरीखी और न
दूजी वसत
है।
मेल्हे बासण मांहि
कहां मुंह कसत
है।।
तूं
जिन जाने जाय रहेगो ठाम
रे।
हरि
हां, माया
दे वाजिद धणी
के काम रे।।
मंगण आवत देख
रहे मुहुं
गोय रे।
जद्यपि
है बहु दाम
काम नहिं लोय
रे।।
भूखे
भोजन दियो
न नागा कापरा।
हरि
हां, बिन
दिया वाजिद पावे कहा वापरा।।
जल
में झीणा
जीव थाह नहिं कोय रे।
बिन
छाण्या
जल पियां
पाप बहु होय
रे।।
काठै
कपड़े छाण
नीर कूं पीजिए।
हरि
हां, वाजिद,
जीवाणी जल मांहि
जुगत सूं
कीजिए।।
साहिब
के दरबार पुकारया
बाकरा।
काजी
लीया जाय
कमर सों पाकरा।।
मेरा
लीया सीस
उसी का लीजिए।
हरि
हां, वाजिद,
राव—रंक का न्याव
बराबर
कीजिए।।
पाहन
पड़ गई रेख रात—दिन
धोवहीं।
छाले
पड़ गए हाथ मूंड़
गहि रोवहीं।।
जाको
जोइ सुभाव जाइहै
जीव सूं।
हरि
हां, नीम न
मीठी होय सींच
गुड़—घीव सूं।।
सतगुरु
शरणे आयक
तामस त्यागिए।
बुरी—भली
कह जाए ऊठ
नहिं लागिए।।
उठ
लाग्या
में राड़ राड़ में
मीच है।
हरि
हां, जा घर प्रगटै
क्रोध सोइ घर
नीच है।।
कहि—कहि वचन
कठोर खरुंठ
नहिं छोलिए।
सीतल
सांत स्वभाव सबन सूं
बोलिए।।
आपन
सीतल होय और
भी कीजिए।
हरि
हां, बलती
में सुण
मीत न पूला
दीजिए।।
बड़ा
भया सो कहा
बरस सौ साठ
का।
घणां पढया तो
कहा चतुर्विध
पाठ का।।
छापा
तिलक बनाय
कमंडल काठ का।
हरि
हां, वाजिद,
एक न आया
हाथ पसेरी आठ
का।।
मुहब्बत
की जहांबानी
के दिन हैं
जमीं
पर खुल्दसामानी
के दिन हैं
जो
हैं अपनी जगह खुर्शीदे—बुनियाद
अब
उन जर्रों
की ताबानी
के दिन हैं
इरादों
की बुलंदी ओज
पर है
हवादस
की पशेमानी
के दिन हैं
मुहब्बत
जल्वागर
है झोपड़ों
में
अब
इस दौलत की अरजानी
के दिन हैं
हर—इक
जंजीर है अब
पा—शिकस्ता
हर—इक
जिंदां
की वीरानी के
दिन हैं
जवाल
आमादा है तामीरे—औहाम
कमाले—फिक्रे—इनसानी
के दिन हैं
कसीदे
बादशाहों के
हुए खत्म
मुहब्बत
की गजलख्वानी
के दिन हैं
बहुत
मासूम है एक—एक
लगजिश
गरूरे—पाकदामानी
के दिन हैं
धर्म
की घोषणा
प्रेम की
घोषणा है।
धर्म का प्रयास
पृथ्वी पर
प्रेम के
प्रसाद को
उतार लेने के
लिए है। धर्म
की प्रार्थना—प्रभु
इस पृथ्वी पर
उतरे, इसके
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं
है। और प्रभु
के उतरने की
सीढ़ी है प्रेम।
प्रभु तक जाने
की सीढ़ी भी है
प्रेम; प्रभु
के हम तक आने
की सीढ़ी भी है
प्रेम। स्वभावतः
जिस सीढ़ी से
हम ऊपर जाते
हैं उसी सीढ़ी
से नीचे भी
आते हैं।
प्रेम जोड़ता
है—स्वर्ग को
और पृथ्वी को।
जिन्हें
स्वर्ग तक जाना
है, उन्हें
भी प्रेम की
सीढ़ी चढ़नी
होती है। और
अगर स्वर्ग को
लाना है
पृथ्वी पर, तो उसे भी
प्रेम की सीढ़ी
से ही लाना
होगा। धर्म का
सारसूत्र
प्रेम है।
मुहब्बत
की जहांबानी
के दिन हैं
प्रेम
के शासन के
दिन आ गए।
जमीं
पर खुल्दसामानी
के दिन हैं
जमीन
को स्वर्ग
जैसे बनाने का
समय आ गया।
जो
हैं अपनी जगह खुर्शीदे—बुनियाद
अब
उन जर्रों
की ताबानी
के दिन हैं
सूर्यों
के दिन तो सदा
से थे, अब एक—एक
अणु के सूरज
के जैसे
प्रकाशित हो
जाने के दिन आ
गए हैं। और
विज्ञान ने
पाया भी ऐसा
ही है कि एक—एक
अणु अपने भीतर
एक—एक सूर्य
है। इतनी ही
ऊर्जा का सागर
जैसे सूरज।
ऐसे ही एक—एक
मनुष्य भी
इतना ही विराट
है, जितना
परमात्मा।
पर
प्रेम के बिना
इस विराटता का
पता नहीं चलता।
प्रेम के बिना
हम सिकुड़ जाते
हैं, छोटे हो
जाते हैं।
प्रेम के साथ
हम फैलते हैं।
प्रेम
विस्तीर्ण
करता है।
जितना बड़ा
प्रेम होता है,
उतनी बड़ी
तुम्हारी
आत्मा होती
है। अगर तुम
किसी एक
व्यक्ति को
प्रेम करते हो,
तो भी तुम
थोड़े विराट हो
जाते हो; दो
को करते हो तो
और ज्यादा, तीन को करते
तो और ज्यादा!
और जिस दिन यह
सारा जगत
तुम्हारा
प्रेम—पात्र
हो जाएगा, तुम्हारा
प्रीतम, उस
दिन तुम्हारी
आत्मा इतनी ही
बड़ी होगी
जितना बड़ा
आकाश है!
हर—इक
जंजीर है अब
पा—शिकस्ता
जंजीरें
आदमी के पैरों
पर बहुत जीर्ण—शीर्ण
हो गई हैं; तोड़ देने का
वक्त आ गया है;
जरा—से झटके
में टूट
जाएंगी।
हर—इक
जंजीर है अब
पा—शिकस्ता
हर—इक
जिंदां
की वीरानी के
दिन हैं
और
कारागृह अब
वीरान हो जाने
चाहिए। कौन से
कारागृह? लोहे
के सींखचों
से जो बने हैं,
वे असली
कारागृह नहीं
हैं। असली
कारागृह तो वे
हैं जो
तुम्हारी
घृणा की ईंटों
से चुने गए हैं।
आदमी बंद है, तो घृणा, वैमनस्य,
क्रोध,र्
ईष्या, द्वेष—इनके
कारागृहों
में बंद है।
और आदमी मुक्त
होगा, तो
प्रेम के आकाश
में मुक्त
होगा। आ गए
दिन, जब
सारे कारागृह
वीरान हो जाएं,
मनुष्य
मुक्त हो!
लेकिन
मनुष्य प्रेम
के अतिरिक्त
और किसी तरह मुक्त
होता ही नहीं
है। जो लोग
मुक्त होना
चाहते हैं
बिना प्रेम के, उनके लिए
मुक्ति भी एक
नया बंधन हो
जाता है, और
कुछ भी नहीं।
इसलिए तुम
तुम्हारे
साधु—संतों को
भी नए बंधनों
में बंधा हुआ
पाओगे। उनका
बंधन नया है।
उनके बंधन पर
मोक्ष का नाम
लिखा है!
मगर
जिनके हृदय
प्रेम से
शून्य हैं, जिन्होंने
प्रेम की
रसधार तोड़ दी
है, और
जिन्होंने
प्रेम के सेतु
जला दिए हैं, वे लाख
चिल्लाते
रहें मोक्ष के
लिए, उन्होंने
मोक्ष का उपाय
मिटा दिया।
उनकी पुकार
कहीं भी पहुंचेगी
नहीं। उनकी
पुकार का कोई
परिणाम नहीं
होगा। उन्होंने
बीज ही दग्ध
कर दिया, जो
मोक्ष बनता
है। प्रेम का
बीज ही मोक्ष
का फूल बनता
है।
मनुष्य
के हृदय में
प्रेम से
मूल्यवान और
कुछ भी नहीं
है। इसलिए
मेरी सारी
शिक्षा, तुम्हारा
प्रेम जैसे—जैसे
विकसित हो, जिस—जिस
द्वार से
विकसित हो, जिस—जिस
माध्यम से, सब माध्यम
उपयोग करना
है। देह का
प्रेम भी सुंदर
है, लेकिन
उसी पर रुक मत
जाना। मन का
प्रेम भी सुंदर
है, लेकिन
उसी पर ठहर मत
जाना। आत्मा
का प्रेम भी सुंदर
है, लेकिन
वहां भी नहीं
रुकना है।
पहुंचना तो
परमात्मा तक
है। तभी
तुम्हारी
सारी जंजीरें टूटेंगी।
और
जंजीरें
बिलकुल जीर्ण—शीर्ण
हो गई हैं।
जरा झटका दे
दो कि टूट
जाएं। तुम्हारे
ऊपर जंजीरों
का प्रभाव
बहुत नहीं रह
गया है; सिर्फ
पुरानी आदतों
के कारण तुम जंजीरों के
प्रभाव में
हो। आज कौन
हिंदू हिंदू
है? कौन
मुसलमान मुसलमान
है? कौन
ईसाई ईसाई
है? अगर
लोग ईसाई हो
जाते हैं, तो
रविवार को हो
जाते हैं—जब
चर्च जाते
हैं। और अगर
कोई मुसलमान
हो जाता है, तो तब जब
हिंदुओं के
मंदिर जलाने
होते हैं। और
कोई हिंदू जब
हिंदू हो जाता
है, तो तब
जब घृणा और
वैमनस्य की
लपटें जलती
हैं। ये
जंजीरें, ये
कारागृह तुम
काम में ही तब
लाते हो, जब
कुछ गलत करना
होता है। जंजीरों
का ठीक उपयोग
हो भी नहीं
सकता। और
कारागृहों की
कोई सम्यक
परिणति हो भी
नहीं सकती।
ये
दीवालें
तुम्हें
दूसरों से अलग
करती हैं। मनुष्य
और मनुष्य के
बीच फासला खड़ा
करती हैं, भेद खड़ा
करती हैं।
मनुष्य को
मनुष्य का
दुश्मन बनाती
हैं। इनके
तोड़ने के दिन
आ गए! और एक झटके
में टूट
जाएंगी ये, क्योंकि ये
बड़ी जीर्ण—शीर्ण
हो गई हैं, बहुत
पुरानी हैं।
इनके प्राण तो
निकल ही चुके हैं,
तुम इन्हें
क्यों ढो रहे
हो यही
आश्चर्य की
बात है!
तुम्हारी आत्मा
का इनके साथ
कोई संबंध भी
नहीं रह गया
है।
हर—इक
जंजीर है अब
पा—शिकस्ता
हर—इक
जिंदां
की वीरानी के
दिन हैं
हर
कारागृह को
बरबाद कर देने
का समय आ गया
है। धर्म
मनुष्य को
तैयार करता
रहा है इस घड़ी
के लिए; वह
घड़ी करीब आ गई
है। महावीरों
ने, बुद्धों
ने, मोहम्मदों ने जिस घड़ी
की प्रतीक्षा
की थी, वह
घड़ी करीब आ
रही है! यह
पृथ्वी अब एक
हो सकती है।
सब दीवालें
गिराई जा सकती
हैं और सब
जंजीरें तोड़ी
जा सकती हैं।
जो उनकी
आकांक्षा थी,
आज पूरी हो
सकती है।
एक
बहुत अपूर्व
क्षण मनुष्य—जाति
के इतिहास में
करीब आ रहा
है। इस सदी के
पूरे होतेऱ्होते, तुम या तो
मनुष्य को
मिटा हुआ
पाओगे, या
मनुष्य का एक
नया जन्म देखोगे।
वह जन्म प्रेम
का जन्म होगा।
अब प्रेम का
मंदिर ही
बचेगा पृथ्वी
पर, और
मंदिर नहीं बच
सकते। और
मंदिरों की
जरूरत भी नहीं
है, सारे मंदिर
प्रेम के
मंदिर बन जाने
चाहिए। और
सारे मंदिरों
में प्रभु—उल्लास
के गीत गाए
जाने चाहिए।
हो चुकी उदासी
बहुत, हो
चुका विराग
बहुत, हो
चुकी त्यागत्तपश्चर्या
की बात बहुत, अब प्रेम का
गीत और प्रेम
का झरना फूटना
चाहिए। विराग
संसार से करने
की चेष्टा
असफल हो गई, अब परमात्मा
से राग करना
चाहिए। और मैं
तुमसे कहता
हूं, जो
परमात्मा से
राग कर लेता
है, उसका
संसार से
विराग अपने—आप
हो जाता है।
जो विराट के
प्रेम में पड़
जाता है, क्षुद्र
से उसके नाते
अपने—आप टूट
जाते हैं।
क्षुद्र
से नाते तोड़ने
की चेष्टा ही
छोड़ दो, विराट
से संबंध जोड़ो।
यह
मौलिक भेद है
मेरी दृष्टि
में और अन्य
दृष्टियों
में। अन्य
दृष्टियां
कहती हैं—अंधेरे
से लड़ो।
मैं कहता हूं—दीए
को जलाओ, अंधेरे
से लड़ो
मत। अंधेरे की
कोई औकात क्या?
अंधेरे का
अस्तित्व
क्या? अंधेरे
की शक्ति क्या?
दीया जलेगा,
और अंधेरा
नहीं हो जाएगा।
संसार को छोड़ो
मत, परमात्मा
से प्रेम कर
लो। और उसी
प्रेम में संसार
छूट जाएगा।
संसार में
रहते—रहते भी
तुम सांसारिक
नहीं रह
जाओगे। इसी
कीमिया को मैं
संन्यास कह
रहा हूं।
जवाल
आमादा है तामीरे—औहाम
अंधविश्वासों
के दिन लद गए।
कमाले—फिक्रे—इनसानी
के दिन हैं
अब तो
मनुष्य के
गौरव का दिन
आया। मनुष्य
की प्रतिभा के
निखार का दिन
आया।
कसीदे
बादशाहों के
हुए खत्म
हो
चुकीं स्तुतियां
राजनेताओं की
बहुत।
मुहब्बत
की गजलख्वानी
के दिन हैं
राजनीति
घृणा का
शास्त्र है।
यदि धर्म
प्रेम का
शास्त्र है तो
राजनीति घृणा
का शास्त्र
है। अगर धर्म
अद्वैत का
शास्त्र है तो
राजनीति
द्वैत का, भेद का
शास्त्र है।
अगर धर्म जोड़
सकता है, तो
राजनीति लड़ाती
है।
इसलिए
मैं कहता हूं, जिन धर्मों
ने तुम्हें लड़ाया हो, वे छद्मवेश
में
राजनीतियां
थीं, धर्म
नहीं थे।
तुम्हारे
पंडित, तुम्हारे
पुरोहित, तुम्हारे
मौलवी, तुम्हारे
पादरी—राजनीतिक
के हाथ के
प्यादों से
ज्यादा नहीं हैं।
मंदिरों और मस्जिदों
के पीछे
राजनीति के
झंडे हैं। अब
तक प्रेम का झंडा
उठ नहीं सका।
बहुत बार
उठाने की
कोशिश की गई
है। जीसस ने
उठाना चाहा और
बुद्ध ने
उठाना चाहा।
और बुद्ध के
विदा होते ही
झंडा गिर गया;
या झंडा अगर
रहा भी, तो
उसके पीछे
दूसरे झंडे
खड़े हो गए
हैं। बहुत बार
मनुष्य की
प्रज्ञा को
गौरव देने के
आयोजन किए गए।
तुम्हारे
भीतर
परमात्मा का
आवास है, इसकी
घोषणाएं
की गईं। लेकिन
तुम बार—बार
सो जाते हो और
भूल जाते हो।
तुम सपनों में
खो जाते हो!
तुम
बुद्धों की
बात सुनते ही
नहीं, तुम
बुद्धू
पुरोहितों के
चक्र में पड़
जाते हो। और
बुद्धू
पुरोहित को
तुम्हारी
मुक्ति से कोई
प्रयोजन नहीं
है। उसका
प्रयोजन है
तुम्हारे
शोषण से।
तुम्हारे
शोषण पर वह
जीता है। हां,
लफ्फाजी है,
सुंदर उसके
शब्द हैं, वेद
उसे कंठस्थ
हैं, कुरान
उसे याद है; पर उतनी ही
जैसे तोतों को
याद हो जाए! बस
तोता—रटंत से
ज्यादा कुछ भी
नहीं है! उसके
प्राणों में
कहीं भी
उपनिषदों की
गूंज नहीं है।
उसके जीवन में
कहीं धम्मपद
का कोई अनुभव
नहीं है। उसकी
श्वासों में
अभी कुरान की
तरन्नुम नहीं
बसी है। और न उसके
हृदय ने अभी
जाना है कि
परमात्मा
क्या है। उसने
तो धर्म को भी
मनुष्य के ऊपर
हावी होने का
एक कारगर उपाय
समझा है!
लद गए
वे दिन! अब
चाहो तो तुम
बाहर निकल आओ
अपने कारागृहों
से। सिर्फ
पुरानी आदत के
कारण तुम रुके
हो। दरवाजा
खुला पड़ा है।
दरवाजे टूट गए
हैं। जंजीरें सड़ गई हैं।
कोई कारण
कारागृहों
में रहने का
नहीं रह गया
है। सिर्फ
हिम्मत
जुटाने की बात
है। सिर्फ जरा—सा
साहस, और सब
लक्ष्मण—रेखाएं
जो तुम्हारे
पास खींची गई
थीं, सब
अंधविश्वास
कचरे के ढेर
में फेंक दिए
जा सकते हैं!
अब दिन आ गए
प्रेम के गीत
गाने के!
मुहब्बत
की गजलख्वानी
के दिन हैं
बहुत
मासूम है एक—एक
लगजिश
और
प्रेम के
रास्ते पर भूल
भी करो, तो
प्यारी है। और
घृणा के
रास्ते पर भूल
न भी करो, तो
भी भूल है।
इसे समझना, प्रेम का
जादू ऐसा है
कि उसके
रास्ते पर भूल
भी करो, तो
भूल नहीं रह
जाती। प्रेम
के रास्ते पर
भूल बड़ी भोली—भाली
हो जाती है, बड़ी निर्दोष
हो जाती है।
घृणा के
रास्ते पर बिलकुल
ठीक—ठीक भी
करो, तो भी
ठीक—ठीक सिर्फ
चालाकी होती
है, चालबाजी
होती है।
बहुत
मासूम है एक—एक
लगजिश
एक—एक
भूल बड़ी भोली—भाली
है।
गरूरे—पाकदामानी
के दिन हैं
अब इस
भोली—भाली
पवित्रता के गौरव
के दिन आ गए।
मनुष्य
को निर्दोष
बनाना है।
पांडित्य
नहीं देना है
मनुष्य को; पांडित्य
मनुष्य के
प्रेम की
हत्या कर देता
है। पंडित को
तुम प्रेमी न
पाओगे। पंडित
का मस्तिष्क
इतना कचरे से
भर जाता है कि
उसके हृदय को
गुनगुनाने का
मौका ही नहीं
रहता। पंडित
सिर में जीने
लगता है, हृदय
को भूल ही
जाता है। हृदय
की उसे याद ही
नहीं रह जाती।
और पंडित हृदय
की बात सुन भी
नहीं सकता।
क्योंकि हृदय
की बात पागलपन
की मालूम होती
है। जिसने
बुद्धि के
गणित को सब
कुछ समझ लिया,
उसे हृदय की
बात अंधी
मालूम होती
है। इसलिए पंडित
प्रेम को अंधा
कहते हैं। मैं
तुमसे कहता
हूं, प्रेम
ही सिर्फ आंखवान
है, प्रेम
के पास ही
सिर्फ आंख है।
क्योंकि उसी
आंख से
परमात्मा
देखा जाता है।
और बाकी सब
आंखें अंधी
हैं।
लेकिन
होशियार आदमी
प्रेम को अंधा
कहते हैं। जरूर
उनकी
होशियारी में
कहीं चूक है।
तार्किक
व्यक्ति कहते
हैं—बचना
प्रेम से, क्योंकि
प्रेम पागलपन
है। तर्क की
दृष्टि में
प्रेम पागलपन
है भी।
क्योंकि तर्क
कहता है छीनो—झपटो, और
प्रेम कहता है
दो। छीन—झपट
वाले तर्क के
लिए देने की
बात पागलपन तो
मालूम होगी
ही।
ये आज
के सूत्र दान
के सूत्र हैं।
दान का अर्थ है—दो; अशेष भाव से
दो। अपने को
पूरा दे डालो,
अपने को
चुका ही दो
देने में। कुछ
बचाना मत। जरा—सी
भी कृपणता मत
करना।
क्योंकि
तुमने जितनी कृपणता
की, उतने
ही तुम
परमात्मा से
वंचित रह
जाओगे। परमात्मा
उसे मिलता है,
जो अपने को
समग्रीभूत
रूप से दे
देता है। समर्पित
को मिलता है
परमात्मा। और
प्रेम की
पाठशाला में
ही समर्पण के
पाठ सीखे
जाते हैं।
बहुत
मासूम है एक—एक
लगजिश
घबड़ाना
मत प्रेम के
रास्ते पर अगर
पैर डगमगाएं।
डगमगाएंगे, क्योंकि तुम
कभी चले नहीं।
और प्रेम के
रास्ते पर अगर
तुम्हें नई—नई
अनुभूतियां
हों, तो
डरना मत, घबड़ाना
मत। अज्ञात का
भय लगता है।
अनजान, अपरिचित
का भय लगता
है। तुम अब तक
होशियारी से
जीए हो। सम्हल—सम्हलकर
चले हो।
तुम्हें लड़खड़ाने
का पता ही
नहीं है।
लेकिन लड़खड़ाने
की एक
निर्दोषता है, एक सरलता
है। शराबी को
देखा है लड़खड़ाते?
ऐसा ही
प्रेमी भी लड़खड़ाता
है। परमात्मा
की शराब को
पीकर लड़खड़ाता
है। मदमस्त हो
जाता है।
डोलने लगता
है। उसकी आंखें
गीली हो जाती
हैं। आंखें ही
नहीं, उसका
हृदय भी गीला
हो जाता है।
उसके सारे
प्राण एक नई
लय से भर जाते
हैं! अस्तित्व
के छंद से उसका
तालमेल होने
लगता है।
वृक्षों की
हरियाली उसे
अपनी हरियाली
मालूम होने
लगती है।
फूलों की लाली
उसे अपनी लाली
मालूम होने
लगती है। उधर
सूरज ऊगता है,
तो इधर उसे
लगता है उसके
भीतर भी कोई
ऊगा! अस्तित्व
के साथ उसका
एक समानांतर
संबंध हो जाता
है। उधर फूल
खिलते हैं, तो उसे लगता
है इधर भीतर
भी कोई खिला!
तब कोई जान
पाता है परमात्मा
को!
मगर
इसके लिए, इस अनुभूति
के लिए दान की
कला सीखनी
होगी। और दान
से इतना ही मत
समझ लेना कि
चले गए और
मंदिर में दो
पैसे दान कर
आए! यह फिर उसी
गणित की बात
हो गई, होशियारी
की बात हो गई।
कि चलो कुछ दे
लो, हो
कहीं
परमात्मा
किसी दिन तो
कहने को रह
जाएगा कि हमने
दान भी किया
था। यह दान दान
नहीं है, जो
प्रतिकार
मांगता है। यह
दान दान
नहीं है, जो
पुरस्कार
मांगता है। यह
दान दान
नहीं है, जो
हेतुपूर्वक
दिया गया है।
दान तो तभी
दान है, जब
आनंद से दिया
गया है—अहेतुक,
देने के ही
मजे से दिया
गया है; देने
में ही जिसका
पुरस्कार मिल
गया है। जिसके
पीछे लेने का
कोई विचार ही
नहीं है।
जिसके पीछे न
तो पुण्य की
कोई धारणा है,
न स्वर्ग और
बैकुंठ में
कुछ सुख पाने
का कोई आयोजन
है। जिसके
पीछे कोई
आयोजना ही
नहीं है, वही
दान है। और
दान का यह
मतलब नहीं है
कि भिखारी को
दो पैसे दे
देना और सोच
लेना
निश्चिंत हुए!
भिखारी
को तुम्हारे
दिए गए दो
पैसे, भिखारी
को कम दिए
जाते हैं, तुम
अपनी बेचैनी
को छिपाने के
लिए ही ज्यादा
सांत्वना
तलाश लेते हो।
तुम कहते हो, हमने कुछ तो
किया। न दो तो
तुम्हारे
भीतर चोट लगती
है, पीड़ा
होती है—तुम
भी तो अपराधी
हो! तुम्हें
लगता है, मैं
भी तो इस भिखमंगे
के भिखमंगेपन
का भागीदार
हूं। इस समाज
का मैं भी तो
हिस्सा हूं।
इस समाज ने
इसे भीख
मांगने पर
मजबूर कर दिया
है। तुम्हारे
भीतर अपराध की
वृत्ति पैदा होती
है। तुम्हें
लगता है कि
मैं कुछ
जिम्मेवार
हूं। कहीं
मैंने कोई
अनजाने पाप किया
है। दो पैसे
देकर तुम अपना
मन हलका कर
लेते हो। तुम
भिखारी को
नहीं देते
पैसे, तुम
अपने घाव पर
थोड़ी मलहम—पट्टी
रख लेते हो! कि
मंदिर में कुछ
दान कर आते हो,
कि तीर्थ
चले जाते हो।
ये सब धोखे
हैं। यह देना
नहीं है, यह
देने की
भ्रांति पैदा
करना है।
फिर
देना क्या है? देना बड़ी
अनूठी
प्रक्रिया
है। जिस भांति
तुम अपनी
प्रेयसी को
देते हो या
अपने बेटे को,
या अपने
मित्र को—किसी
और कारण से
नहीं, किसी
अपराध के भाव
से नहीं, कुछ
आगे पाने के
हिसाब से नहीं—स्वांतः सुखाय
रघुनाथ गाथा।
मस्ती में, आनंद में!
देने में ही
रस है। देना
ही अपने—आप
में पूर्ण हो
गया, इसके
आगे कुछ और
आकांक्षा
नहीं है। ऐसे
जब तुम दोगे—फिर
तुम किसको
देते हो, यह
सवाल नहीं है—ऐसे
जब तुम दोगे...।
और धन
ही देने की
बात नहीं है।
वह भी चालबाजी
है आदमी की।
जब भी दान की
बात उठती है, तो आदमी
सोचता है—धन।
धन तुम लाए भी
नहीं थे, दोगे
क्या खाक! जो
तुम्हारा
नहीं है, उसे
देने की
भ्रांति में
मत पड़ना।
जो तुम्हारा
नहीं है, वह
तुम्हारा है
ही नहीं। खाली
हाथ आए थे, खाली
हाथ जाओगे!
देने
की असली बात
तो उसे दो, जो तुम्हारा
है, जो तुम
हो। अपने को
दो। अपने से
बचने के लिए
आदमी धन दे
लेता है। वह
सोचता है—दिया
तो, कुछ तो
दिया। यह दान दान से
बचने का उपाय
है। अपने को
दो। जरूरी
नहीं है कि
तुम भिखमंगे
को दो पैसे दो
ही, लेकिन
कभी भिखमंगे
का हाथ अपने
हाथ में लेकर
दो घड़ी उसके
पास बैठ जाओ।
उसकी दुख—सुख
की सुन लो।
उससे दो बातें
कर लो। जैसे वह
भी मनुष्य हो—तुम्हारे
जैसा ही
मनुष्य, तुमसे
नीचा नहीं, तुम उससे
ऊपर नहीं। तो
शायद तुमने
ज्यादा दिया।
शायद तुमने
उसे मनुष्य
होने का गौरव
दिया। शायद
तुमने उसे
खींच लिया
उसके कूड़े—कचरे
से! तुमने उसे
महिमा दी। और
मैं यह नहीं कह
रहा हूं कि धन
मत देना।
लेकिन धन
तुम्हारे
विराट दान का
एक हिस्सा
होना चाहिए।
धन और दान
पर्यायवाची
नहीं हो जाने
चाहिए। ऐसे ही
पर्यायवाची
हो गए हैं इस
देश में, और
अन्य देशों
में भी! लोग धन
देकर सोच लेते
हैं—दान किया!
अब यह
भी खूब मजे की
बात है, पहले
इन्हीं से
शोषण कर लेते
हो! लाख का शोषण
कर लेते हो और
दस रुपए दान
कर देते हो!
इससे तुम्हें
सांत्वना हो
जाती है। मगर
किसको धोखा दे
रहे हो?
धन का
इतना मूल्य कि
हम त्याग को
भी धन से ही नापते
हैं! तो जैन
अपने
शास्त्रों
में महावीर के
त्याग का
वर्णन करते
हैं—कि इतने
हाथी, इतने
घोड़े, इतने
स्वर्ण—रथ, इतने महल, इतने हीरे—जवाहरात।
इतनी बड़ी
संख्या
गिनाते हैं, जो कि सच
नहीं मालूम
होती।
क्योंकि
महावीर एक बहुत
छोटी—सी जागीर
के मालिक थे।
इतना धन हो
नहीं सकता था।
महावीर एक
इतने छोटे
राज्य के
मालिक थे; एक
तहसील या बहुत
से बहुत दो
तहसील, बस
इतनी सीमा थी
उस राज्य की।
महावीर के
जमाने में
भारत में दो
हजार राज्य
थे। जरा—जरा
से टुकड़ों
में देश बंटा
था। एक बड़े
मालगुजार
समझो, कि
बड़े जागीरदार
समझो; कोई
सम्राट नहीं।
लेकिन वर्णन
शास्त्रों में
ऐसा किया जाता
है जैसे
चक्रवर्ती
सम्राट! इतना
धन इत्यादि था
नहीं। यह
शास्त्रों ने धन
इतना बढ़ाकर
बताया।
यह
क्यों बढ़ाकर
बताया होगा? और यह बढ़ता
गया है। जितना
पुराना
शास्त्र है, उतना कम
वर्णन है
हाथियों का, घोड़ों का। फिर
जैसे—जैसे
शास्त्र और
बढ़े, और
बढ़े, वर्णन
भी बढ़ता गया।
क्यों? क्योंकि
त्याग को बड़ा
कैसे बताएं!
त्याग को मापने
का भी हमारे पास
एक ही उपाय है,
वह धन है।
अगर महावीर के
पास कुछ भी
नहीं था, तो
उनको
महात्यागी
कैसे कहोगे? अगर महावीर
एक गरीब घर
में पैदा हुए
होते और त्याग
कर देते, तो
कोई भी त्याग
की बात थी ही
नहीं! लोग
कहते, था
क्या
तुम्हारे पास
जो त्याग
दिया!
यह तो
बड़े मजे की
बात हो गई, धनिक को भी
धन से तौलते
हो और त्यागी
को भी धन से ही
तौलते हो; दोनों
की कसौटी एक!
तब तो धन परम
मूल्य हो गया!
इस संसार में
भी उसी से
प्रतिष्ठा है
और उस संसार
में भी उसी से
प्रतिष्ठा
है। तो धन का
सिक्का तो
आत्यंतिक
सिक्का हो
गया! यहां ही
नहीं चलता, परलोक में
भी वही चलेगा!
फिर
महावीर के
मानने वालों
को लगा होगा
कि बुद्ध के
शास्त्रों
में इतने—इतने
हाथी—घोड़ों
का वर्णन है, उससे बढ़ाकर
बताओ। फिर यह
दौड़ मच गई
होगी, प्रतियोगिता
मच गई होगी।
बौद्ध बढ़ाकर
बताने लगे।
बुद्ध भी कोई
बहुत बड़े
सम्राट नहीं
थे। नेपाल की
एक छोटी—सी
जागीर के
मालिक थे।
कपिलवस्तु
कहां खो गई, पता भी नहीं
चलता। छोटा—सा
राज्य था।
लेकिन
हमारे पास और
कोई उपाय नहीं
है। ऐसा नहीं
है कि इस देश
में और लोगों
ने त्याग नहीं
किया। लेकिन
हिंदुओं के सब
अवतार
राजपुत्र, जैनों के
चौबीस
तीर्थंकर
राजपुत्र, बुद्ध
राजपुत्र। ये
तीन बड़े धर्म,
इन तीनों
बड़े धर्मों के
जो श्रेष्ठतम
पुरुष हैं, सब
राजपुत्र।
मामला क्या है?
मामला
साफ है।
गरीबों ने भी
छोड़ा, लेकिन
गरीबों के
छोड़ने पर
गिनती क्या
करोगे, कैसे
करोगे? अमीरों
ने छोड़ा, तो
गिनती हो सकी।
अमीरों ने
छोड़ा, तो
हमारे चित्त
पर छाप पड़ी; हमें लगा:
हां, कुछ
छोड़ा! हमारे
मन में धन का
इतना मूल्य है,
हम धन के
ऐसे दीवाने
हैं कि हमारे
सोचने की सारी
प्रक्रिया धन
से बंध गई है।
तो त्याग हो, तो भी धन! तो
भी हम पूछते
हैं—कितने का
त्याग? हमारा
पूछना वही है,
हमारा
जानना वही है,
हमारा
मानना वही है।
किसी ने दस
रुपए छोड़ दिए।
तुम कहोगे, क्या कोई
बड़ी भारी बात
कर दी? लाखों
छोड़ने वाले
पड़े हैं! किसी
ने करोड़
छोड़े तो कुछ
बड़ी बात हुई।
इस
मनुष्य की
भ्रांत
मनोदशा का
परिणाम यह हुआ
कि दान का
अर्थ ही धन से
बंध गया। जैसे
ही तुम सुनते
हो—दान दो, तुम्हें
ख्याल अपनी जेब
का आता है।
दान का
कोई अनिवार्य
संबंध धन से
नहीं है। दान
का संबंध जीवन
की एक शैली से
है। दान का
अर्थ है—जीवन
को बांटो!
जीवन को सिकोड़ो
मत, फैलाओ।
जीवन की
प्याली से
दूसरों की
प्याली में
जितना रस बह
सके बहने दो।
कृपण न होओ
जीवन में। अगर
हंसी दे सकते
हो किसी को, हंसी दो।
अगर नाच दे
सकते हो किसी
को, नाच
दो। आलिंगन दे
सकते हो किसी
को, आलिंगन
दो। किसी का
हाथ हाथ
में लेकर बैठ
सकते हो और
उसे राहत
मिलेगी, तो
राहत दो। किसी
के दुख में
रोओ, दो
आंसू गिराओ।
किसी की खुशी
में नाचो, मगन
हो जाओ—यह सब
दान है। दान
की अनंत संभावनाएं
हैं।
धन पर
दान को मत बांधो, नहीं तो
गरीब क्या दान
करेगा? धन
पर मत बांधो
दान को, नहीं
तो उल्टे
परिणाम होते
हैं। जिनको
दान करना है, पहले धन
इकट्ठा करना
होता है। और
धन इकट्ठा करने
में तुम कितना
कष्ट दे देते
हो दूसरों को!
और फिर उसी को
बांटते हो। जब
बांटना ही है,
तो इकट्ठा
क्यों करना? लेकिन लोग
सोचते हैं कि
धन होगा तभी
तो दान हो सकेगा।
और दान के
बिना तो मोक्ष
नहीं है।
गलत है
यह पूरा चिंतन, यह पूरी
तर्क—सरणी।
प्रत्येक
व्यक्ति दान
कर सकता है।
जिसके पास कुछ
भी नहीं है, वह भी खूब
दान कर सकता
है। और अक्सर
ऐसा होता है, जिसके पास
कुछ भी नहीं
है, वही
दान कर पाता
है। क्योंकि
उसे छोड़ने का
डर ही नहीं
होता। कुछ है
ही नहीं, तो
खोएगा
क्या? इसलिए
तुम अमीर आदमी
को कंजूस पाते
हो, गरीब
को कंजूस नहीं
पाते। गरीब दे
सकता है। ऐसे
ही नहीं है।
मैंने
सुना है, एक
गरीब आदमी की झोपड़ी
पर...रात जोर की
वर्षा हो रही
थी। फकीर था; छोटी—सी झोपड़ी
थी। स्वयं और
उसकी पत्नी, दोनों सोए
थे। आधी रात
किसी ने द्वार
पर दस्तक दी।
फकीर ने अपनी
पत्नी से कहा:
उठ, द्वार
खोल दे। पत्नी
द्वार के करीब
सो रही थी।
पत्नी ने कहा:
इस आधी रात
में जगह कहां
है? कोई
अगर शरण मांगेगा
तो तुम मना न
कर सकोगे।
वर्षा जोर की
हो रही है।
कोई शरण
मांगने के लिए
ही द्वार आया
होगा। जगह
कहां है? उस
फकीर ने कहा:
जगह? दो के
सोने के लायक
काफी है, तीन
के बैठने के
लायक काफी
होगी। तू
दरवाजा खोल!
लेकिन द्वार
आए आदमी को
वापिस तो नहीं
लौटाना है।
दरवाजा खोला।
कोई शरण ही
मांग रहा था; भटक गया था
और वर्षा
मूसलाधार थी।
तीनों बैठकर
गपशप करने
लगे। सोने
लायक तो जगह न
थी।
थोड़ी
देर बाद किसी
और आदमी ने
दस्तक दी। फिर
फकीर ने अपनी
पत्नी से कहा:
खोल। पत्नी ने
कहा: अब करोगे
क्या, जगह
कहां है? अगर
किसी ने शरण
मांगी? उस
फकीर ने कहा:
अभी बैठने
लायक जगह है, फिर खड़े
रहेंगे; मगर
दरवाजा खोल।
फिर दरवाजा
खोला। फिर कोई
आ गया। अब वे
खड़े होकर
बातचीत करने
लगे। इतना छोटा
झोपड़ा!
और तब
अंततः एक गधे
ने आकर जोर से
आवाज की, दरवाजे
को हिलाया।
फकीर ने कहा:
दरवाजा खोलो।
पत्नी ने कहा:
अब तुम पागल
हुए हो, यह
गधा है, आदमी
भी नहीं! फकीर
ने कहा: हमने
आदमियों के कारण
दरवाजा नहीं
खोला था, अपने
हृदय के कारण
खोला था। हमें
गधे और आदमी में
क्या फर्क? हमने
मेहमानों के
लिए दरवाजा
खोला था। उसने
भी आवाज दी
है। उसने भी
द्वार हिलाया
है। उसने अपना
काम पूरा कर
दिया, अब
हमें अपना काम
पूरा करना है।
दरवाजा खोलो!
उसकी औरत ने
कहा: अब तो खड़े
होने की भी
जगह नहीं है!
उसने कहा: अभी
हम जरा आराम
से खड़े हैं, फिर सटकर
खड़े होंगे। और
याद रख एक बात
कि यह कोई
अमीर का महल
नहीं है कि
जिसमें जगह की
कमी हो! यह
गरीब का झोपड़ा
है, इसमें
खूब जगह है!
यह
कहानी मैंने
पढ़ी, तो मैं
हैरान हुआ।
उसने कहा: यह
कोई अमीर का
महल नहीं है
जिसमें जगह न
हो। यह गरीब
का झोपड़ा
है, इसमें
खूब जगह है।
जगह महलों में
और झोपड़ों
में नहीं होती,
जगह हृदयों
में होती है।
अक्सर तुम
पाओगे, गरीब
कंजूस नहीं
होता। कंजूस
होने योग्य
उसके पास कुछ
है ही नहीं। पकड़े तो पकड़े क्या?
जैसे—जैसे
आदमी अमीर
होता है, वैसे
कंजूस होने
लगता है; क्योंकि
जैसे—जैसे पकड़ने
को होता है, वैसे—वैसे पकड़ने का
मोह बढ़ता है, लोभ बढ़ता
है।
निन्यानबे का
चक्कर पैदा हो
जाता है।
जिसके पास
निन्यानबे
रुपए हैं, उसका
मन होता है कि
किसी तरह सौ
हो जाएं। तुम
उससे एक रुपया
मांगो, वह
न दे सकेगा, क्योंकि एक
गया तो अट्ठानबे
हो जाएंगे।
अभी सौ की आशा
बांध रहा था, अब हुए पूरे,
अब हुए
पूरे। नहीं दे
पाएगा। लेकिन
जिसके पास एक
ही रुपया है, वह दे सकता
है। क्योंकि सौ
तो कभी होने
नहीं हैं। यह
चला ही जाएगा
रुपया।
तुमने
भी अपने मन
में यह तर्क
कई बार पाया
होगा। लोगों
के पास एक
रुपए का फुटकर
नोट होता है; जल्दी चला
जाता है। सौ
रुपए का नोट
होता है तो वह तोड़ता ही
नहीं। वह कहता
है तोड़ना ठीक
नहीं, क्योंकि
टूटा कि गया।
सौ पर पकड़
ज्यादा हो
जाती है। हजार
का हो, तो
और पकड़ ज्यादा
हो जाती है कि
कहीं टूट न
जाए। टूटा कि
गया। जितना कम
है उतनी पकड़
भी कम होती
है। और चला तो
जाएगा ही। अभी
नहीं तो थोड़ी
देर में चला
जाएगा। पकड़ने
का अर्थ भी
क्या है?
तो ऐसा
नहीं कि
गरीबों ने दान
नहीं किया। सच
तो यह है, गरीबों
ने महत दान
किया। मगर
उनका दान लेखे—जोखे में
नहीं आता।
उनके दान को
लेखे—जोखे
में लाने का
तराजू नहीं
है। उन्होंने
प्रेम दिया, धन नहीं था।
धन तो था ही
नहीं, देते
क्या? उन्होंने
प्रेम दिया।
महल तो थे
नहीं, हाथी—घोड़े,
हीरे—जवाहरात
तो थे नहीं; लेकिन जो था,
अपना जीवन
था, वह
दिया। अपना
प्रेम दिया।
अपनी
सहानुभूति दी।
अपनी करुणा
दी। मगर उसको
तो कैसे नापो?
किस तराजू
पर नापो?
इसलिए
धनियों का दान
तो खूब चर्चा
की जाती है! धनी
दानशाली
हो जाते हैं, दाता हो
जाते हैं।
गरीब का कोई
हिसाब नहीं
लगाया जाता।
धन से
दान को मत
जोड़ना। दान को
धन से मत
जोड़ना। दान बहुत
बड़ी बात है।
दान की उस
बहुत बड़ी घटना
में धन का दान
भी एक हिस्सा
मात्र है; और बहुत
छोटा, क्षुद्र
हिस्सा! कोई
बहुत बड़ा
हिस्सा नहीं
है; साधारण,
अतिसाधारण। उसमें
असली हिस्से
तो और हैं—आत्मा
के हैं, प्रेम
के हैं, ज्ञान
के हैं, बोध
के हैं।
अब
देखो मजा, महावीर ने
महल छोड़ा, धन—दौलत
छोड़ी; उसका
शास्त्रों
में खूब वर्णन
है। और फिर
जीवन—भर
उन्होंने
प्रेम बांटा,
ज्ञान
बांटा, ध्यान
बांटा; उसका
कोई वर्णन
नहीं है। उसको
कोई दान मानता
ही नहीं। मैं
चौंकता हूं
कभी यह देखकर
कि शास्त्र
लिखने वाले भी
कैसे अंधे लोग
होते हैं! फिर
कोई यह नहीं
कहता कि
महावीर ने
कितना ध्यान बांटा!
कितने लोगों
के ध्यान के
दीए जलाए!
ऐसे ही थोड़ी
जल जाते हैं
ध्यान के दीए।
महावीर की
ज्योति छलांग
लेती, तब
किसी बुझे दीए
में ज्योति
आती है।
महावीर अपने
प्राणों को डालते
जाते हैं।
कितने लोगों
में उन्होंने
अपने प्राण
डाले! कितने
लोगों की
श्वासें
सुगंधित हो
गईं! कितने
लोगों के जीवन
में शांति आई!
नहीं, इसका कोई
हिसाब नहीं
है। वह जो कंकड़—पत्थर
बांटकर
निकल गए थे
महल से...। वह
महल भी उनका
नहीं था। वे कंकड़—पत्थर
भी उनके नहीं
थे। वे छूट ही
जाने थे। आज
नहीं कल मौत
आती और सब छीन
लेती। उसका
हिसाब लगाया
गया है!
लेकिन
महावीर ने
कितने लोगों
को ध्यान
दिया! कितने
लोगों को
प्रेम दिया!
लोगों को ही
नहीं—फकीर के
गधे को याद
रखना—महावीर
ने कीड़े—मकोड़ों
को भी उतना ही
प्रेम दिया
जितना मनुष्यों
को। इसलिए पैर
भी फूंक—फूंककर
रखने लगे कि
किसी को चोट न
लग जाए! रात
महावीर करवट
नहीं बदलते थे, क्योंकि
करवट बदलें और
कोई रात कीड़ा—मकोड़ा आ
गया हो पीठ के
पीछे, विश्राम
कर रहा हो, दब
जाए, मर
जाए। तो एक ही
करवट सोते थे।
यह दान चल रहा
है! अब हीरे—जवाहरात
तो नहीं हैं
बांटने को, अब असली
हीरे—जवाहरात
बांटे जा रहे
हैं। मगर
हमारे तथाकथित
शास्त्र
लिखने वाले को
असली हीरे—जवाहरातों
का तो कोई पता
नहीं है।
कबीर
के पास महल तो
नहीं था छोड़ने
को, था ही
नहीं। इसलिए
कबीर
तीर्थंकर
बनने से वंचित
रह गए। इसलिए
कबीर अवतार न
बन सके। इसलिए
कबीर पैगंबर न
बन सके। इसलिए
कबीर चूक गए।
और कबीर ने जो
बांटा, कबीर
ने जीवन—भर जो
बांटा—जो
मस्ती बांटी,
जो आनंद
बांटा, जो
रस बांटा!
कबीर ने न
मालूम कितने
लोगों के जीवन
में फूल
बरसाए। उस
सबका हिसाब
कौन करेगा?
तो मैं
तुम्हारे मन
से यह भ्रांति
तोड़ देना
चाहता हूं कि
धन और दान
एकार्थी हैं।
दान बहुत बड़ी
घटना है। धन
का दान उस बड़ी
घटना में एक
छोटा—सा पहलू
है, बहुत
छोटा—सा पहलू।
असली बात है
प्रेम। दान और
प्रेम पर्यायवाची
हैं, दान
और धन
पर्यायवाची
नहीं हैं।
हम
दीवानों की
क्या हस्ती,
हैं
आज यहां कल
वहां चले,
मस्ती
का आलम साथ
चला,
हम
धूल उड़ाते
जहां चले,
आए
बनकर उल्लास
अभी,
आंसू
बनकर बह चले
अभी,
सब
कहते ही रह गए, अरे,
तुम
कैसे आए, कहां चले?
किस
ओर चले? यह मत पूछो
चलना
है; बस
इसलिए चले,
जग
से उसका कुछ
लिए चले,
जग
को अपना कुछ
दिए चले,
दो
बात कहीं, दो बात सुनीं।
कुछ
हंसे और फिर
कुछ रोए।
छककर
सुख—दुख के घूंटों
को
हम
एक—भाव से पिए
चले
हम भिखमंगों
की दुनिया में
स्वच्छंद
लुटाकर
प्यार चले,
हम
एक निशानी—सी
उर पर
ले
असफलता का भार
चले;
हम
मान रहित, अपमान रहित
जी
भरकर खुलकर
खेल चुके,
हम हंसतेऱ्हंसते
आज यहां
प्राणों
की बाजी हार
चले।
हम
भला—बुरा सब
भूल चुके,
नतमस्तक
हो मुख मोड़
चले,
अभिशाप
उठाकर होंठों
पर
वरदान
दृगों से
छोड़ चले,
अब
अपना और पराया
क्या?
आबाद
रहें रुकने
वाले!
हम
स्वयं बंधे थे, और स्वयं
हम
अपने बंधन तोड़
चले।
हम
दीवानों की
क्या हस्ती
हैं
आज यहां कल
वहां चले,
मस्ती
का आलम साथ
चला,
हम
धूल उड़ाते
जहां चले,
आए
बनकर उल्लास
अभी
आंसू
बनकर बह चले
अभी
दान
पर्यायवाची
है प्रेम का।
और केवल जो
मस्त होते हैं, वे ही जानते
हैं दान का
असली अर्थ। वे
अपने आंसू भी
बांट देते
हैं। अपनी मुस्कुराहटें
भी बांट देते
हैं। और एक
महत्वपूर्ण
बात ख्याल
रखना, वे
बांटते इसलिए
नहीं हैं कि
उत्तर में कुछ
मिले, कि
कुछ
प्रत्युत्तर
हो। वे बांटते
इसलिए हैं कि
बांटने में ही
आनंद है। स्वांतः
सुखाय।
यह शब्द स्वांतः
सुखाय
बड़ा
महत्वपूर्ण
है। यह धर्म
का आधार बिंदु
है।
जो भी
करना, स्वांतः सुखाय।
तुम्हें
अच्छा लग रहा
है, इसलिए
करना।
तुम्हें करने
में ही मजा आ
रहा है, इसलिए
करना। जिस
कृत्य के करने
में ही पुण्य
हो जाए, बस
वही कृत्य
पुण्य है।
पीछे मत देखना
कि कल पुण्य
होगा, कि
परसों पुण्य
होगा; कि
अच्छा स्वर्ग
में स्थान
मिलेगा, कि
अच्छी योनि
मिलेगी, कि
अगली बार राजा
के घर पैदा
होंगे, सोने
की चम्मचें
मुंह में लेकर
पैदा होंगे; कि अगली बार
ज्यादा उम्र
मिलेगी, ज्यादा
सुंदर सुखी
जीवन मिलेगा।
भविष्य
की योजना जिस
विचार में आ
गई, वही
विचार पाप हो
जाता है।
शुद्ध
वर्तमान में जो
सुखद है
तुम्हारे लिए,
बस वही दान
है, वही
पुण्य है। और
जो तुम्हारे
लिए सुखद है
वह अनिवार्यरूपेण
दूसरों के लिए
सुखद होता है,
क्योंकि
तुम और दूसरे
अलग नहीं हैं।
यहां एक का ही
विस्तार है।
इसलिए अगर
मेरे लिए कुछ
सुखद घट रहा
है तो उस सुख
की सरसराहट
दूसरों के प्राणों
में समाविष्ट
हो जाएगी।
और
तुमने इसे कभी—कभी
थोड़ा—थोड़ा
अनुभव भी किया
है। शायद बहुत
जागरूक होकर
विचार न किया
हो। किसी
व्यक्ति के
पास जाकर तुम
उदास हो जाते
हो; कारण समझ
में नहीं आता।
और किसी दूसरे
व्यक्ति के
पास जाकर तुम
प्रफुल्लित
हो जाते हो; कारण समझ
में नहीं आता।
एक व्यक्ति
तुम्हारे घर
आता है मिलने,
और पीछे एक
काली छाया छोड़
जाता है। और
दूसरा व्यक्ति
तुम्हारे घर
आता है, और
पीछे एक
उल्लासमय
वातावरण छोड़
जाता है। तुम
उदास बैठे थे,
किसी के आने
से हंसने लगते
हो। तुम हंसते
थे, किसी
के आने से
उदास हो जाते
हो।
तुमने
ख्याल किया, हम अलग अलग
नहीं हैं; हम
जुड़े हैं, हम
संयुक्त हैं।
प्रतिपल आदान—प्रदान
चल रहा है। हम
एक—दूसरे की
ऊर्जा से
आंदोलित हो
रहे हैं।
इसलिए तो कोई
नाचता है, और
तुम्हारे हाथ
थाप देने लगते
हैं। कोई गीत
गाता है, तुम्हारा
कंठ उल्लसित
हो जाता है।
तुम्हारे पैर
थाप देने लगते
हैं। कोई गीत
गा रहा है, तुम्हारे
पैरों में
कैसे उमंग आ
जाती है! यह
ऊपर की बात
हुई; ठीक
ऐसी ही भीतर
भी घटती है।
यह स्थूल बात
हुई, ऐसी
ही सूक्ष्म
बात भी घटती
है। तुम
आनंदित व्यक्ति
के पास जाओगे;
न तो वह गीत
गा रहा है, न
वह नाच रहा है,
लेकिन उसके
भीतर नाच चल
रहा है, उसके
भीतर गीत चल
रहा है। उसके
हृदय में परम
शांति है, शीतलता
है। उसके भीतर
स्वर्ग बसा
है। जरूर तुम्हारा
अंतस—चेतन भी
आंदोलित हो
जाएगा, तुम्हारे
अंतस—चेतन में
घूंघर बजने
लगेंगे।
तुम्हारा
अंतस—चेतन
उसके अंतस—चेतन
के साथ ताल—मेल
बिठाने
लगेगा।
तो जो
व्यक्ति सुख
में जी रहा है, शांति में
जी रहा है, ध्यान
में जी रहा है,
वह कुछ न भी
करे, तो
उसका जीवन दान
है। और जो
व्यक्ति दुख
में जी रहा है,
अशांति में
जी रहा है, वह
कितना ही दान
करे, तो भी
उसका जीवन दान
नहीं है।
इसलिए
मैं तुम्हें
दान की इस
पूरी
पृष्ठभूमि को
ख्याल में
दिलाना चाहता
हूं; अन्यथा
तुम वाजिद के
शब्दों को चूक
जाओगे। वाजिद के
शब्द सीधे—सादे
हैं। इतने
विस्तार से
उन्होंने यह
बात कही नहीं
है।
खैर
सरीखी और न
दूजी वसत
है।
सीधे—सादे
आदमी हैं, गांव के
ग्रामीण आदमी
हैं; कहते
हैं: दान जैसी
और दूसरी कोई
वस्तु नहीं है।
खैर
सरीखी और न
दूजी वसत
है।
खैरात, दान—उस जैसी
कोई दूसरी
वस्तु नहीं
है।
लेकिन
खैर शब्द में
दोहरे अर्थ
हैं। एक अर्थ
होता है—खैरात, दान। और खैर
का दूसरा अर्थ
होता है—पूछते
हैं न लोगों
से, सब ठीक—ठाक
तो है? भीतर
सब अच्छा है? खैर तो है? खैर का
दूसरा अर्थ है—भीतर
सब स्वच्छ, शांत, आनंद;
भीतर
सच्चिदानंद।
इसलिए खैर
जैसे छोटे—से
शब्द में इस
सीधे—सादे
गांव के
ग्रामीण आदमी
ने बड़े राज की
बात कह दी! खैर
खैरात है! जिस
व्यक्ति के
भीतर सुख का
साम्राज्य है,
उस व्यक्ति
के जीवन में
आनंद की अपने—आप
वर्षा होती
रहती है। उसके
आसपास जो आते
हैं, उन पर
भी बूंदा—बांदी हो
जाती है! तब
खैरात का कुछ
अर्थ है। तब
दान अर्थपूर्ण
है, सार्थक
है।
तुम्हारी
जिंदगी में
छीना—झपटी है।
तुम्हारी
जिंदगी में
सिवाय छीना—झपटी
के और कुछ भी
नहीं;र् ईष्या, वैमनस्य,
महत्वाकांक्षा।
और तुम थोड़ा
दान भी करते
जाते हो, इस
आशा में कि
परलोक में भी
थोड़ा बैंक—बैलेंस
होना चाहिए।
वहां भी थोड़ा
जमा रखना चाहिए।
कब जरूरत पड़
जाए, कौन
जाने? ऐसा
न हो कि वहां
बिलकुल खाली
हाथ पहुंच
जाएं! थोड़ा
वहां भी जमा
कर देना
चाहिए। काम पड़
जाए, कभी
किसी क्षण में
जरूरत आ जाए, तो परमात्मा
के सामने एकदम
सिर झुकाकर
खड़ा न होना
पड़े। दे दो
कुछ छोटा—मोटा।
अक्सर तो लोग
वही देते हैं
जो उनके काम का
नहीं होता।
इधर मेरे
अनुभव में यह
बात आई कि लोग
चीजें भेंट
देते हैं एक—दूसरे
को वही, जो
उनके काम की
नहीं होतीं।
कुछ चीजें ऐसी
हैं, जो
भेंट में ही
चलती रहती
हैं! एक से
दूसरे के पास,
दूसरे से
तीसरे के पास,
तीसरे से
चौथे के पास।
कुछ चीजें हैं
जो भेंट में
ही चलती रहती
हैं। कुछ
चीजों का लोग
उपयोग ही नहीं
करते। उपयोग
उनका कुछ है
नहीं। तुमको
किसी ने दे दी,
अब तुम क्या
करो उसका? तुम
किसी और को
बांट देते हो।
जीवन
असुरक्षा से जीओ, घबड़ाहट में जीओ,
चिंता में जीओ, बेचैनी
में जीओ, तो तुम
कितना ही दान
दो, तुम्हारे
दान का कोई
मूल्य नहीं
है। क्योंकि तुम
अपने भीतर से
प्रतिपल जहर
के फव्वारे
छोड़ रहे हो! वे
फव्वारे
लोगों को
विषाक्त
करेंगे। तुम
कुछ भी न दो; तुम मंगल
में जीयो,
तुम कुछ भी
न दो, तो भी
तुम दान कर
रहे हो।
अहर्निश दान
चल रहा है। जो
लेने वाले हैं,
ले लेंगे।
जो पीने वाले
हैं, पी
लेंगे।
जिन्होंने तय
ही कर लिया है
कि अपने को
दुखी ही रखना
है, उनकी
वे जानें।
किसी को
जबर्दस्ती
सुखी तो नहीं
किया जा सकता।
किसी पर सुख
जबर्दस्ती
थोपा नहीं जा
सकता। कोई सुखी
न होना चाहे, तो कोई उपाय
नहीं है उसे
सुखी करने का।
लेकिन जो भी
सुखी होना
चाहते हैं, वे तुम्हारी
तरंग को ले
लेंगे।
तुम्हारी तरंग
उनके भीतर एक
शुरुआत हो
जाएगी। उनके
भीतर भी गूंज
पैदा होने
लगेगी।
प्रार्थनापूर्ण
व्यक्ति के
पास जाते ही
प्रार्थना
पैदा होनी शुरू
हो जाती है।
जरूरी नहीं है
सभी को पैदा हो।
सिर्फ उन्हीं
को पैदा हो
जाती है, जो
अपने हृदय के
द्वार खोलकर
पास जाते हैं।
ऐसे पास जाने
का नाम ही
सत्संग है।
सत्संग का अर्थ
है—मेरे हृदय
के द्वार खुले
हैं। और मैं
किसी ऐसे
व्यक्ति के
पास बैठा हूं,
ऐसे
व्यक्तियों
के बीच बैठा
हूं, जो
प्रभु में लीन
हैं और मगन
हैं। जरूर
उनकी ऊर्जा
बहेगी। जरूर
उनकी ऊर्जा
तुम्हारे
भीतर के तारों
को छेड़
जाएगी। जरूर
उनकी वीणा
तुम्हारी
वीणा को भी उत्तेजित
कर देगी, उन्मत्त
कर देगी। उनकी
मस्ती
तुम्हें भी
डुला देगी।
तुम भी
आनंदमग्न
होने लगोगे।
खैर
शब्द बड़ा
प्यारा है।
भीतर खैर हो
तो बाहर खैरात
है। और तब धन
हो, न हो, कोई
फर्क नहीं
पड़ता। धन गौण
बात है। वाजिद
के पास तो कुछ
धन नहीं था, गरीब पठान
थे। मगर खूब
खैरात बांटी!
धन तो नहीं था,
कम से कम
बाहर का धन तो
नहीं था। भीतर
का धन बांटा!
और वही असली
धन है। उसे ही
बांटो तो
बांटना है!
खैर
सरीखी और न
दूजी वसत
है।
मेल्हे बासण मांहि
कहां मुंह कसत
है।।
बांटते
समय कंजूस की
तरह मुंह मत
रोक लेना। बांटते
समय बर्तन का
मुंह मत बांध
देना। बांटते समय
खुले हाथ
बांटना। दोई
हाथ उलीचिए।
उलीच देना! ले ले कोई ले ले, न ले
उसका
दुर्भाग्य!
मगर यह दोष
तुम पर न हो कि
तुमने उलीचा
नहीं था।
तुमने उलीचा
था!
फिर
ऐसे नासमझ भी
हैं, जो सरोवर
के किनारे आकर
भी प्यासे खड़े
रहेंगे।
लेकिन सरोवर
का कसूर नहीं
है। सरोवर
तैयार था, कंठ
में उतर जाने
को तैयार था; लेकिन झुकना
तो होगा। हाथ
की अंजुली तो
बनानी होगी।
सरोवर छलांग
लगाकर
तुम्हारे कंठ
में तो नहीं
उतर जा सकता।
और सरोवर ऐसी
छलांग लगाएगा
तो तुम भाग
खड़े होओगे, घबड़ा जाओगे।
सरोवर को
प्रतीक्षा
करनी होती है।
मौजूद है।
देने को राजी
है। तुम लेने
को जब भी राजी
हो जाओगे, घटना
घट जाएगी।
तो
कहते हैं: जब
तेरे पास देने
को कुछ हो तो
अपने द्वार—दरवाजे
बंद मत करना।
अपनी संपदा
खुली रखना। अपनी
संपदा को बहने
देना। कोई
पीने वाला आ
जाए, तो जितना
पीना चाहे पी
ले!
मेल्हे बासण मांहि
कहां मुंह कसत
है।।
तूं
जिन जाने जाय रहेगो ठाम
रे।
और जो—जो
चीजें तू पकड़
रहा है, ये
सब चली
जाएंगी। ये सब
सपने की तरह
आज नहीं कल खो जाएंगी।
जैसे सुबह जागकर
कोई पाता है
कि सब सपना खो
गया, ऐसे
ही मरते वक्त
तू पाएगा कि
यह सब सपना भी
खो गया!
कुछ
आंसू बन गिर
जाएंगे
कुछ
दर्द चिता तक
जाएंगे
उनमें
ही कोई दर्द
तुम्हारा भी
होगा
सड़कों
पर मेरे पांव
हुए कितने
घायल
यह
बात गांव की
पगडंडी बतलाएगी
सम्मान
सहित हम सब
कितने
अपमानित हैं
यह
चोट हमें जाने
कब तक तड़पाएगी
कुछ
टूट रहे सुनसानों
में
कुछ
टूट रहे तहखानों
में
उनमें
ही कोई चित्र
तुम्हारा भी
होगा
वे
भी दिन थे जब
मरने में आनंद
मिला
ये
भी दिन हैं जब
जीने से घबराता
हूं
वे
भी दिन बीत गए
हैं, ये
भी बीतेंगे
यह
सोच किसी
सैलानी—सा
मुसकाता हूं
कुछ
अंधियारे
में चमकेंगे
कुछ
सूनेपन
में खनकेंगे
उनमें
ही कोई स्वप्न
तुम्हारा भी
होगा
अपना
ही चेहरा
चुभता है
कांटे जैसा
जब
संबंधों की मालाएं
मुरझाती हैं
कुछ
लोग कभी जो
छूटे पिछले मोड़ों पर
उनकी
यादें नींदों
में आग लगाती
हैं
कुछ
राहों में
बेचैन खड़े
कुछ
बांहों में
बेचैन पड़े
उनमें
ही कोई प्राण
तुम्हारा भी
होगा
साधू
हो या हो सांप, नहीं अंतर
कोई
जलता
जंगल दोनों को
साथ जलाता है
कुछ
ऐसी ही है आग
हमारी बस्ती
में
पर
ऐसे में भी
कोई—कोई गाता है
कुछ
महफिल की जय
बोलेंगे
कुछ
दिल के दर्द टटोलेंगे
उनमें
ही कोई गीत
तुम्हारा भी
होगा
सब खो
जाएगा। मौत
आएगी सब खो
जाएगा। प्रेम
जिनसे किया वे, घृणा जिनसे
की वे; सब
सपनों में
टंगे चित्रों
जैसे धीरे—धीरे,
धीरे—धीरे
विदा हो
जाएंगे। सारी
जिंदगी ऐसी
लगेगी जैसे कहानी
में पढ़ी थी; अफसाना कोई;
कि देखी थी
कोई फिल्म, ऐसी हो
जाएगी!
कुछ
टूट रहे सुनसानों
में
कुछ
टूट रहे तहखानों
में
उनमें
ही कोई चित्र
तुम्हारा भी
होगा
जिनसे
बहुत राग बनाए
थे, संबंध
बनाए थे, आसक्तियां
बनाई थीं, उनके
चित्र भी
किन्हीं तहखानों
में पड़े रह
जाएंगे, किन्हीं
सुनसानों
में पड़े रह
जाएंगे।
वे
भी दिन थे जब
मरने में आनंद
मिला
ये
भी दिन हैं जब
जीने से
घबराता हूं
वे
भी दिन बीत गए
हैं, ये
भी बीतेंगे
यह
सोच किसी
सैलानी—सा
मुसकाता हूं
कुछ
अंधियारे
में चमकेंगे
कुछ
सूनेपन
में खनकेंगे
उनमें
ही कोई स्वप्न
तुम्हारा भी
होगा
इस जगत
के सारे अनुभव
स्वप्नों
जैसे खो जाएंगे।
इस जगत में
कुछ भी बचाने
जैसा नहीं है।
बांट दो! और
मजा यह है कि
जो बांट देता
है, उसका बच
जाता है। और
जो बचा लेता
है, उसका
लुट जाता है।
जीसस का
प्रसिद्ध वचन
है: जो
बचाएंगे, खो
देंगे; और
जो खोने को
राजी हैं, उनका
बच जाता है।
बड़ा उलटा गणित
है! साधारण गणित
तो कहता है:
बचाओ तो
बचेगा। गंवाओगे
तो खो जाएगा।
बांटोगे तो खो
जाएगा।
यह
असाधारण गणित
है धर्म का।
इसकी
प्रक्रिया उलटी
है। दे दो तो
बचेगा।
तुम्हारे पास
वही बचेगा, जो तुमने दे
दिया था।
बेबूझ—सी बात
है। वही बचेगा,
जो तुमने दे
दिया था। और
जो तुमने रोक
लिया था, वही
सड़ जाएगा,
गल जाएगा और
तुम्हारे साथ
बचेगा नहीं।
इस जगत
से जो सबसे
समृद्ध आदमी
है विदा होते
वक्त, वह
वही है जिसने
अपना प्रेम
बांटा, अपना
ध्यान बांटा,
अपना ज्ञान
बांटा, अपनी
ज्योति बांटी,
अपने को
बांटा! जो
उसके पास था, उसे बांटा।
तूं
जिन जाने जाय रहेगो ठाम
रे।
हरि
हां, माया
दे वाजिद धणी
के काम रे।।
इसलिए
जो कुछ है, उस परमात्मा
के काम में
लगा दो। जो
कुछ है, सारी
ऊर्जा
समर्पित कर
दो।
हरि
हां, माया
दे वाजिद धणी
के काम रे।।
वाजिद
ने धन और धणी
शब्द का
प्रयोग भी खूब
प्यारा किया
है। वे कहते
हैं: धन वही है
जो धनी के काम
आ जाए। धनी
कौन? मालिक, वह जो सबका
मालिक है, वही
धनी है। धन भी
उसका है। तुम
व्यर्थ ही बीच
में मालिक बन
गए हो।
तुम्हारी
मालकियत झूठी
है। तुम्हारा
स्वामित्व
झूठा है। सब
उसके काम आ
जाने दो। जो
तुम्हारा उपयोग
कर ले, उपयोग
हो जाने दो।
जैसा नचाए,
नाचो। जैसा जिलाए, जीयो। जो कराए, करो। सारा, सब उसकी
मर्जी पर छोड़
दो।
हरि
हां, माया
दे वाजिद धणी
के काम रे।।
मंगण आवत देख
रहे मुहुं
गोय रे।
वाजिद
राजस्थानी
थे। मारवाड़ियों
की आदत उन्हें
पता है; उसका
उल्लेख कर रहे
हैं—
मंगण आवत देख
रहे मुहुं
गोय रे।
मारवाड़ी
देखता है मंगने
को आता। मुंह
छिपाकर बैठ
जाता है। इधर—उधर
देखने लगता
है। मंगने
को नहीं
देखता।
मैंने
सुना है, एक भिखमंगे
ने एक मारवाड़ी
के द्वार पर
दस्तक दी। भरी
दुपहर, गर्मी
के दिन, खस
की टट्टियों
के पीछे सेठ
बैठा है। भिखमंगे
ने कहा: कुछ
मिल जाए
मालिक! सेठ ने
कहा, घर
में कोई भी
नहीं है। उसने
कहा: मैं
घरवाली को या
घरवालों को
मांग भी नहीं
रहा हूं। कोई
न हो, कोई
फिक्र नहीं, मगर कुछ मिल
जाए। दो रोटी
मिल जाएं। सेठ
ने कहा: आज घर
में खाना ही
नहीं पक रहा
है। कहीं निमंत्रण
है हमारा। तो
उसने कहा: दो
पैसे मिल
जाएं। मारवाड़ी
सेठ था, तो मारवाड़ी
ही भिखमंगा
रहा होगा! दो
पैसे मिल
जाएं। सेठ ने
कहा: यहां
पैसे—वैसे कुछ
नहीं हैं।
रास्ते लगो!
आगे बढ़ो!
भिखमंगा भी एक
ही था। उसने
कहा: तो तुम
भीतर बैठे
क्या कर रहे
हो? तुम भी
मेरे साथ आ
जाओ। न रोटी
है, न पैसा
है, न
घरवाली है, न घरवाले
हैं, कुछ
भी नहीं है; तो खाली
भीतर बैठे
क्या कर रहे
हो? चलो
साथ—साथ मांगेंगे।
आधा—आधा बांट
लेंगे।
मंगण आवत देख
रहे मुहुं
गोय रे।
मुंह
छिपाकर बैठ
जाते हो भिखमंगे
को आता देखकर!
जद्यपि
है बहु दाम
काम नहीं लोय
रे।।
खूब
तुम्हारे पास
है, लेकिन
इसका कोई
उपयोग नहीं
करते! इसका
कुछ काम नहीं!
लोग
जमीन में गाड़—गाड़कर
रखते हैं। इस
देश की गरीबी
के बड़े से बड़े
कारणों में एक
कारण है—धन को गड़ाकर
रखना, धन को
बचाकर रखना।
धन का
शास्त्र
समझना चाहिए।
धन जितना चले
उतना बढ़ता है।
चलन से बढ़ता
है। समझो कि
यहां हम सब
लोग हैं, सबके
पास सौ—सौ
रुपए हैं। सब
अपने सौ—सौ
रुपए रखकर
बैठे रहें! तो
बस प्रत्येक
के पास सौ—सौ
रुपए रहे।
लेकिन सब चलाएं।
चीजें खरीदें,
बेचें।
रुपए चलते
रहें। तो कभी
तुम्हारे पास हजार
होंगे, कभी
दस हजार
होंगे। कभी
दूसरे के पास
दस हजार होंगे,
कभी तीसरे
के पास दस
हजार होंगे।
रुपए चलते रहें,
रुकें न कहीं।
रुके रहते, तो सबके पास
सौ—सौ होते।
चलते रहें, तो अगर यहां
सौ आदमी हैं
तो सौ गुने
रुपए हो
जाएंगे।
इसलिए
अंग्रेजी में
रुपए के लिए
जो शब्द है वह करेंसी
है। करेंसी
का अर्थ होता
है: जो चलती
रहे, बहती
रहे। धन बहे
तो बढ़ता है।
अमरीका
अगर धनी है, तो उसका कुल
कारण इतना है
कि अमरीका
अकेला मुल्क
है जो धन के
बहाव में
भरोसा करता
है। कोई रुपए
को रोकता
नहीं। तुम
चकित होओगे
जानकर यह बात
कि उस रुपए को
तो लोग रोकते
ही नहीं जो
उनके पास है, उस रुपए को भी
नहीं रोकते जो
कल उनके पास
होगा, परसों
उनके पास
होगा! उसको भी,
इंस्टालमेंट पर चीजें
खरीद लेते
हैं। है ही
नहीं रुपए, उससे भी
खरीद लेते
हैं। इसका तुम
अर्थ समझो।
एक
आदमी ने कार
खरीद ली। पैसा
उसके पास है
ही नहीं। उसने
लाख रुपए की
कार खरीद ली।
यह लाख रुपया
वह चुकाएगा
आने वाले दस
सालों में। जो
रुपया नहीं है
वह रुपया भी
उसने चलायमान
कर दिया। वह
भी उसने गतिमान
कर दिया। लाख
रुपए चल पड़े।
ये लाख रुपए
अभी हैं नहीं, लेकिन चल
पड़े। इसने कार
खरीद ली लाख
की। इसने इंस्टालमेंट
पर रुपए
चुकाने का
वायदा कर
दिया। जिसने
कार बेची है, उसने लाख
रुपए बैंक से
उठा लिए।
कागजात रखकर। लाख
रुपए चल पड़े।
लाख रुपयों ने
यात्रा शुरू कर
दी!
अमरीका
अगर धनी है, तो करेंसी
का ठीक—ठीक
अर्थ समझने के
कारण धनी है।
भारत अगर गरीब
है, तो धन
का ठीक अर्थ न
समझने के कारण
गरीब है। धन का
यहां अर्थ है
बचाओ! धन का
अर्थ होता है
चलाओ। जितना
चलता रहे उतना
धन स्वच्छ
रहता है। और
बहुत लोगों के
पास पहुंचता
है। इसलिए जो
है, उसका
उपयोग करो।
खुद के उपयोग
करो, दूसरों
के भी उपयोग
आएगा।
लेकिन
यहां लोग हैं, न खुद उपयोग
करते हैं, न
दूसरों के
उपयोग में आने
देते हैं! और
धीरे—धीरे
हमने इस बात
को बड़ा मूल्य
दे दिया। हम
इसको सादगी
कहते हैं। यह
सादगी बड़ी मूढ़तापूर्ण
है। यह सादगी
नहीं है। यह
सादगी
दरिद्रता है।
यह दरिद्रता
का मूल आधार
है।
चलाओ!
कुछ उपयोग
करो। बांट सको
बांटो। खरीद
सको खरीदो। धन
को बैठे मत
रहो दबाकर! यह
तो तुम्हें
करना है तो
मरने के बाद, जब सांप हो
जाओ, तब
बैठ जाना गड़ेरी
मारकर अपने धन
के ऊपर! अभी तो
आदमी हो, अभी
आदमी जैसा
व्यवहार करो।
जद्यपि
है बहु दाम
काम नहिं लोय
रे।।
कब
इसका उपयोग
करोगे? कल
सब पड़ा रहा
जाएगा। न अपने
काम आया, न
दूसरों के काम
आया।
अभी तक
ऐसे कई खजाने
इस देश में
गड़े हैं जो
कभी काम नहीं
आए। अभी कुछ
दिन पहले तुम
अखबारों में
खबरें पढ़ते
रहे होओगे, जयपुर में
खजाना खोजा जा
रहा था। जिसने
गड़ाया
होगा वह भी
काम नहीं
लाया। तीन सौ
साल बीत गए खजाने
को गड़े। तीन
सौ साल से कोई
काम में नहीं
लाया। अब
खजाना मिल
नहीं रहा है।
शायद सदियों
तक किसी के
काम नहीं
आएगा। इतना धन
तुमने व्यर्थ
कर दिया। इतने
धन का तुमने
कोई उपयोग न
होने दिया तीन
सौ साल तक।
जिस आदमी ने गड़ाया
इसने जघन्य
पाप किया!
इसने इतने दिन
तक इस धन का
उपयोग
अवरुद्ध कर
दिया। कौन
इसका
जिम्मेवार है?
चलने दो धन
को!
मगर इस
देश की गरीबी
में अड़चन है।
इस देश की
गरीबी का जो मूल
आधार है, उसी
मूल आधार को
हमने बड़ा
दार्शनिक रूप
दे दिया है! हम
कहते हैं: लोग
सीधे—सादे
हैं। सादगी से
जीते हैं। फिर
रहो सादगी से!
फिर क्यों
रोते हो? फिर
गरीबी को
परमात्मा का
वरदान समझो।
कि तुम्हें
तुम्हारे
अध्यात्म का
फल दे रहा है
परमात्मा! कि
तुम्हारे पुण्यों
का फल मिल रहा
है! फिर क्यों
रोते हो? फिर
क्यों चीखते—चिल्लाते
हो? मगर एक
गहरी बात
ख्याल में
लेने जैसी
जरूरी है। जिन
आधारों के
कारण हम
परेशान होते
हैं, उन्हीं
आधारों से हम
जुड़ जाते हैं।
क्योंकि लंबा
हमारा संबंध
हो जाता है।
इतने दिनों से
उन आधारों को हम
पकड़े रहे
हैं कि आज
उनको छोड़ने की
हिम्मत नहीं
होती। और हमें
यह भी समझ में
नहीं आता कि
उन्हीं के
कारण हम
परेशान हैं।
लोगों
को उपयोग करना
सीखना चाहिए।
लोगों को उपयोग
के लिए तत्पर
होना चाहिए।
जितना उपयोग करोगे...।
लेकिन अगर कोई
आदमी धन का
उपयोग करे, तो हमारे
सबके मन में
उसके प्रति
निंदा है। अगर
तुम्हारे
गांव में कोई
अपने धन का
उपयोग करने
लगे, तो
उसका फिर
सम्मान कम हो
जाएगा। अगर वह
धन को गड़ाकर
रखे...। गांव
में उसी अमीर
आदमी को लोग
सम्मान देते
हैं, जो
गरीब जैसा
रहता है। यह
बड़े मजे की
बात है। लोग
कहते हैं—देखो,
कितना भोला—भाला,
कितना सीधा—सादा
आदमी है। इतना
धन है, मगर
रहता गरीब
जैसा है।
यह मूढ़
है। गरीब ही
होता, फिर
अमीर काहे के
लिए है? यह
तो ऐसा हुआ कि
घर में खाना
है, लेकिन
देखो, कैसा
भूखा मर रहा
है! कैसा गरीब
जैसा रहता है!
अच्छे ढंग के
कपड़े पहन सकता
है, लेकिन
गंदे कपड़े
पहने हुए है, फटे—पुराने
कपड़े पहने हुए
है। वही कपड़े
पहने रहता है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
से किसी ने
कहा कि बड़े
मियां, यह
कोट, गांव—भर
में इसकी
चर्चा होती है,
इसको छोड़ो
भी। एक
तुम्हारे
पिता जी थे; क्या शानदार
आदमी थे! कपड़े
पहनते थे, लज्जत
थी कपड़ों में
एक। खाते थे, पीते थे, ढंग
से रहते थे।
एक गरिमा थी।
एक तुम हो कि
यह कोट पहने
फिर रहे हो!
मुल्ला
नसरुद्दीन
ने कहा: भाई, क्या बात कर
रहे हो, यह
वही तो कोट है
जो मेरे
पिताजी पहनते
थे! वही कपड़ा,
वही कोट।
पिताजी पहनते थे
तो इसकी
प्रशंसा करते
थे और मैं
पहने हुए हूं
तो प्रशंसा
नहीं करते!
पिताजी
को मरे भी तीस
साल हो गए हैं; वही कोट
पहने हुए है!
मगर
गांव में ऐसे
आदमी की
प्रतिष्ठा है!
लोग कहते हैं—सीधा—सादा, सादगी से
जीता है।
धन, वह जो अटका
रहा है, वह
धन बहुगुणित
हो सकता था।
लेकिन उसने
बहुगुणित
नहीं होने
दिया। वह धन
चले कैसे? वह
चल तभी सकता
है, जब यह
धन का उपयोग सीखे, जब
यह धन को जीना सीखे। और
जरूरी नहीं है
कि सभी लोग
दानी हो
जाएंगे। उस
दिन की
प्रतीक्षा मत
करो कि सभी
लोग दानी हो
जाएंगे।
क्योंकि सभी
लोग दानी हो
जाएंगे तो दान
कौन लेगा? बड़ी
अड़चन आ जाएगी।
उस दिन तो धन
बिलकुल बेकार पड़ा
रह जाएगा। सभी
लोग दानी हो
जाएंगे तो धन
लेगा कौन? सभी
लोग कभी दानी
नहीं होने
वाले। लेकिन
सभी लोग इस
देश में कंजूस
होकर बैठे
हैं। इन दोनों
के बीच भी एक
उपाय है। अगर
तुम दूसरे के
काम के लिए
नहीं दे सकते,
तो कम से कम
अपने काम में
तो लो।
तो
वाजिद ठीक
कहते हैं:
नहीं दे सकते भिखमंगे
को, भिखमंगे को देखकर
मुंह छिपा
लेते हो, तो
कम से कम इतना
तो करो, अपने
काम में तो
लो।
तुम
अपने काम में
लोगे, तो भी
रुपया चल
जाएगा। रुपया
दूसरों के पास
पहुंच जाएगा।
क्योंकि काम
में लेने का
मतलब होता है
रुपया
तुम्हारे हाथ
से गया। तुम
गए और बाजार
में तुमने एक
बेले की माला
खरीद ली और
गले में डाल
ली। सादगी तो
न रही।
क्योंकि लोग
कहेंगे: अरे
यह क्या? अब
इस उम्र में
और बेले की
माला गले में
डालकर निकले
हो! सादगी तो न
रही, मगर
वह जो एक रुपया
तुमने बेले की
माला में
खर्चा, वह
चल पड़ा। वह एक
गरीब माली के
पास पहुंच
गया।
चलने
दो। अगर बांट
सकते हो, बांट
दो। अगर न
बांट सको, तो
कम से कम अपने
उपयोग में तो
ले लो। तुम
उपयोग में ले
लोगे, इसी
बहाने दूसरों
के पास पहुंच
जाएगा। मगर अटकाओ मत।
रोको मत। जमीन
में मत गड़ाओ।
जद्यपि
है बहु दाम
काम नहिं लोय
रे।।
भूखे
भोजन दियो
न नागा कापरा।
भूखा
आदमी सामने
खड़ा रहे, तो
तुम उसे भोजन
नहीं दे सकते।
नंगा आदमी खड़ा
रहे, तो
तुम उसे कपड़ा
नहीं दे सकते।
हरि
हां, बिन
दिया वाजिद पावे कहा वापरा।।
और अगर
तुम न दोगे, तो परमात्मा
से तुम न
पाओगे।
क्योंकि
जिसने दिया ही
नहीं, जिसने
देने में रस न
लिया, उसे
पाने का
सौभाग्य भी न
मिलेगा। जो
यहां देगा, जो खुलकर
देगा, उतना
ही परमात्मा
से पा सकेगा।
देकर हम पाने
की क्षमता
पैदा करते
हैं।
हरि
हां, बिन
दिया वाजिद पावे कहा वापरा।।
बात
इतनी—सी है, ऐ वाइजे—अफलाक नशीं!
क्या
मिलेगा उसे यज्दां
जिसे इन्सां
न मिला
जो
आदमी भी न हो
सका, उसे
परमात्मा
क्या खाक
मिलेगा!
नजर
के सामने दम
तोड़ते रहे इन्सां
यह
जिंदगी हो तो
इस जिंदगी से
क्या हासिल
मगर
ऐसा हो रहा
है। लोग
व्यर्थ को पकड़े
बैठे हैं। न
उपयोग करते
हैं, न उपयोग
करने देते
हैं। सदियों
से इस देश में
यह आदत हो गई
है। और इसके
ऊपर हमने बड़े
दर्शनशास्त्र
खड़े कर लिए
हैं।
कल
मुझसे कोई
पूछता था कि
मोरारजी
देसाई खादी में
पोलिएस्टर
मिलाकर पोलिएस्टर
खादी बनाना
चाहते हैं।
आपका इस संबंध
में क्या
ख्याल है?
वे
खादी पहनने वाले
व्यक्ति हैं।
और उनको इससे
बड़ा दुख हो
रहा है कि
खादी अशुद्ध
हो जाएगी।
मैंने कहा:
भाड़ में जाए
तुम्हारी
खादी। पोलिएस्टर
अशुद्ध हो
जाएगा। मैं सौ
प्रतिशत पोलिएस्टर
पहनता हूं। पोलिएस्टर
अशुद्ध तो न
करो। खादी तो
तुम्हारी जाए
जहां जाना हो।
खादी से मुझे
कुछ लेना—देना
नहीं है। खादी
की बकवास इस
देश को गरीब रखेगी।
मैं तो पोलिएस्टर
के पक्ष में
हूं; मगर सौ
प्रतिशत पोलिएस्टर!
उसमें और खादी
मिलाकर क्यों
खराब करते हो?
हर चीज को
अशुद्ध करने
को क्यों
मोरारजी भाई तुले
हैं?
अब मजा
यह है, अस्सी
प्रतिशत
उसमें पोलिएस्टर
होगा, वह
जो खादी बनने
वाली है। उसका
पोलिएस्टर
खादी नाम
होगा। अस्सी
प्रतिशत पोलिएस्टर
होगा, बीस
प्रतिशत खादी
होगी। क्यों
धोखा देते हो
दुनिया को? क्या
प्रयोजन है? साफ—साफ
क्यों नहीं
कहते कि पोलिएस्टर
की जरूरत है, खादी की
जरूरत नहीं
है। यह
बेईमानी
क्यों कर रहे
हो? अस्सी
प्रतिशत पोलिएस्टर
है तो सौ ही
प्रतिशत
क्यों नहीं? कम से कम
शुद्ध तो
होगा। यह बीस
प्रतिशत खादी डालकर
किसको धोखा दे
रहे हो?
मगर
हमारी पुरानी
धारणाएं, उनको
हम छोड़ना नहीं
चाहते। इसको
हम पोलिएस्टर
खादी कहेंगे।
मगर खादी बनी
रहेगी, खादी
नहीं जाएगी।
अब चरखे बना
लिए हैं
उन्होंने जो
बिजली से
चलेंगे। मगर
उसको कहेंगे
चरखा! चरखा ही
चलाना है
बिजली से, तो
मिलों का
क्या कसूर है?
मगर हम अपनी
पुरानी लीकों
को बड़ी
मुश्किल से छोड़ते
हैं। हम उनको पकड़े ही
रखते हैं। जो
चीज हमारी
जिंदगी को
खराब किए है, उसको भी हम
जोर से पकड़े
रखते हैं। हम
चिल्लाए चले
जाते हैं कि
यह तो हम छोड़ेंगे
नहीं। और अगर
कभी मजबूरी
में छोड़ना भी
पड़ता है, क्योंकि
जीवन बदला
जाता है, सारा
जगत बदल जाता
है, तो भी
हम आवरण रखते
हैं। बीस
प्रतिशत खादी
मिला देंगे, खादी का
बहाना तो
रहेगा। कहने
को तो रहेगा, हम खादी
पहने हुए हैं।
गए दिन
खादी के। और
खादी के साथ
कोई देश अमीर
नहीं हो सकता।
और मैं कोई
कारण नहीं
देखता कि देश
अमीर क्यों न
हो! मैं कोई
कारण नहीं
देखता कि लोग
समृद्ध क्यों
न हों! मैं कोई
कारण नहीं देखता
कि समृद्धि
सादगी के
विपरीत है।
समृद्धि की भी
एक सादगी होती
है; सादगी की
भी एक समृद्धि
होती है।
दरिद्रता को ही
सादगी के साथ
क्यों जोड़ रखा
है? दीनता
को सादगी के
साथ क्यों जोड़
रखा है? सौंदर्य
की भी एक
सादगी होती
है। आभिजात्य
में भी एक
सादगी होती
है। अगर सादगी
ही चुननी है, तो कुछ
ऊंचाई की
सादगी चुनो, जो ज्यादा
रसपूर्ण होगी,
ज्यादा
रुचिकर होगी।
लेकिन
एक गलत धारणा
जब किसी देश
को पकड़ लेती है, तो बड़ी
मुश्किल से
पीछा छोड़ती
है। और इस देश
के पीछे कई
गलत धारणाएं
हैं—इसकी छाती
पर सवार हैं!
भूखे
भोजन दियो
न नागा कापरा।
हरि
हां, बिन
दिया वाजिद पावे कहा वापरा।।
और कोई
भूखा है, उसको
भोजन नहीं
दिया। कोई
नंगा है, उसको
कपड़ा
नहीं दिया।
लेकिन उसके
पीछे भी हमने
दार्शनिक
सिद्धांत खोज
लिए हैं। हम
कहते हैं: जो
भूखा है, वह
अपने जन्मों
के, पिछले
जन्मों के
पापों के फल
भोग रहा है।
जो नंगा है, वह अपने
पिछले जन्मों
के पापों के
फल भोग रहा है।
हम क्या करें?
हमने एक बड़ा
सुंदर
सिद्धांत खोज
लिया है, जिसकी
आड़ में हम
छिप गए हैं! यह
है मुंह
छिपाना। यह है
अपने को
बचाना। अब
करुणा करने की
भी कोई जरूरत
न रही।
और
कैसे—कैसे
अदभुत
सिद्धांत
लोगों ने
निकाले हैं!
आचार्य तुलसी
जिस पंथ को
मानते हैं—तेरा
पंथ; उसका
सिद्धांत है
कि अगर कोई
प्यासा भी मर
रहा हो, तो
उसको पानी मत
पिलाना।
क्यों? क्योंकि
अगर तुमने उसे
पानी पिलाया
और समझ लो कि
पानी पिलाने
से वह मरता
हुआ आदमी नहीं
मरा, और
जाकर उसने
किसी की हत्या
कर दी। फिर
उसकी हत्या
में तुम्हारा
भी भाग हो
जाएगा। न तुम
उसे पानी देते,
न हत्या
होती।
देखते
हो तरकीब!
आदमी की करुणा
को नष्ट करने
के लिए और कोई
तरकीब इससे
ज्यादा कुशल
और चालाकी की
हो सकती है!
मतलब समझे तुम? मतलब यह हुआ
कि एक आदमी
कुएं में गिर
रहा है। तुम
मत कुछ कहना, न रोकना, न
बाधा डालना।
क्योंकि तुम
कौन हो बीच
में उसके कर्म
के बाधा डालने
वाले? उसको
करने दो जो कर
रहा है। और
कुएं में गिर
जाए तो
निकालना भी
मत। क्योंकि
उसने पिछले
जन्मों में
कुछ पाप किए
होंगे, उनके
कारण कुएं में
गिर रहा है।
तुमने निकाल लिया
बीच में, उसको
फिर से कुएं
में गिरना
पड़ेगा।
क्योंकि बिना
कुएं में गिरे
तो छुटकारा
नहीं है, निस्तार
नहीं है।
गणित
देखते हो!
गणित बिलकुल
साफ मालूम
पड़ता है। तर्क
शुद्ध मालूम
पड़ता है कि
अगर उसको पाप
का फल भोगना
ही है तो बीच
में आड़े
मत आओ। नहीं
तो तुमने नाहक
उसकी अड़चन बढ़ा
दी। फिर उसको
भोगना पड़ेगा।
फिर कहीं कुएं
में गिरेगा—किसी
दूसरे कुएं
में। तो तुमने
जो इतनी बाधा
डाल दी इसका
पाप तुम्हें
लगेगा—एक। और
तुमने एक कुएं
में गिरे आदमी
को निकाल लिया, और इसने
जाकर कल किसी
की हत्या कर
दी। है तो पागल,
तभी तो कुएं
में गिरा था!
कुछ भी कर
सकता है। तो फिर
उस हत्या में
तुम भी
भागीदार हो गए,
परोक्षरूपेण। क्योंकि न
तुम बचाते न
यह हत्या
होती। अब तुम
फंसे! अब
तुम्हें इसका
फल भोगना
पड़ेगा। न मालूम
किस नर्क में पड़ो।
इसलिए चुपचाप
अपने को बचाकर
निकल जाना।
यही यह
देश कर रहा है
सदियों से।
हरेक व्यक्ति
अपने—अपने को
बचाने में लगा
है कि किसी
तरह अपना आवागमन
छूट जाए। किसी
तरह अपने
कर्मों का जाल
छूट जाए। बाकी
सब जहां जाना
है जाएं। उनका
वे समझें। हम
यहां कहते
बहुत हैं
बातें प्रेम
की, प्रार्थना
की, परमात्मा
की, लेकिन
अगर हम गौर से
देखें तो इस
देश ने लोगों को
जितना
स्वार्थी
बनाया है उतना
किसी देश ने नहीं
बनाया। और स्वार्थ
का आधार क्या
है? मैं
अपनी देखूं,
तुम अपनी
देखो। मुझे
अपने कर्मों
के जाल से छूटना
है, तुम्हें
अपने कर्मों
के जाल से
छूटना है। न
तुम मेरे संगी—साथी
हो, न मैं
तुम्हारा
संगी—साथी
हूं।
यह
शुद्ध
स्वार्थ हो
गया। इसमें
सारी करुणा समाप्त
हो गई। इसमें
हृदय की सारी
ऊष्मा खो गई।
तुम हो गए
पत्थर, ठंडे
बरफ के पत्थर
जैसे ठंडे!
तुम्हारे
जीवन में कैसे
धर्म का बीज
अंकुरित होगा?
वाजिद
कहते हैं:
थोड़ा करुणा
लाओ। थोड़ा
प्रेम जगाओ।
जल
में झीणा
जीव थाह नहिं कोय रे।
बिन
छाण्या
जल पियां
पाप बहु होय
रे।।
काठै
कपड़े छाण
नीर कूं पीजिए।
हरि
हां, वाजिद,
जीवाणी जल मांहि
जुगत सूं
कीजिए।।
करुणापूर्वक जीयो। न
केवल
मनुष्यों के
प्रति, पशुओं
के प्रति, पौधों
के प्रति, छोटे—छोटे
जीवाणुओं के
प्रति। पानी
भी छानकर पीयो।
उसमें भी बहुत
जीवन हैं।
उनको नष्ट मत
करो। जितना बन
सके उतना जीवन
का सम्मान करो,
सत्कार
करो। जितना बन
सके उतना जीवन
को सहारा दो, सहयोग दो।
क्योंकि यह
सारा जीवन एक
ही जीवन है।
यहां किसी को
चोट पहुंचानी
अपने को ही
चोट पहुंचानी
है। जैसे कोई
अपने ही हाथ
से अपने ही
गाल पर चांटा
मार ले।
साहिब
के दरबार पुकारया
बाकरा।
और
बकरे ने
परमात्मा को
पुकारा।
काजी
लीया जाय
कमर सों पाकरा।।
और
काजी लिए जा
रहा था कमर से पकड़कर
बकरे को बलि
देने।
मेरा
लीया सीस
उसी का लीजिए।
और
बकरा कह रहा
है साहिब से, परमात्मा से,
कि मेरा
क्यों लेते? इसी का ले
लीजिए! पुण्य
यह कर रहा है, शीश मेरा जा
रहा है!
बुद्ध
एक गांव से
गुजरते थे।
वहां एक बकरे
की बलि दी जा
रही थी। यज्ञ—हवन
हो रहा था।
इस
धार्मिक देश
में ऐसे—ऐसे
यज्ञ—हवन हुए
हैं कि बड़ी
हैरानी होती
है कि इसको कैसे
धार्मिक कहो!
यहां अश्वमेध
यज्ञ होते थे, जिनमें अश्व
मारे जाएं।
यहां गऊमेध
यज्ञ होते थे,
जिनमें गऊ
मारी जाएं। और
यहां
शास्त्रों
में नरमेध
यज्ञ का भी वर्णन
है, जिनमें
नर मारे जाएं।
फिर धीरे—धीरे
यह मुश्किल
होता चला गया।
अब भी घटती
हैं घटनाएं।
अखबारों में
आए दिन खबर हो
जाती है कि
फलां जगह किसी
ने देवी पर
किसी बच्चे को
मारकर चढ़ा
दिया। ये
बिचारे
धार्मिक लोग
हैं, ये
शास्त्र के
हिसाब से ही
कर रहे हैं।
अब जरा मुश्किल
में पड़ गए हैं,
क्योंकि
इनका कोई
सहयोग नहीं
है। कानून
खिलाफ है।
सारी दुनिया
खिलाफ है। मगर
अगर गौर से देखो
तो ये बड़े
शास्त्रीय
हैं।
शास्त्रों
में यह सब
लिखा है।
बुद्ध
ने देखा, एक
बकरा काटा जा
रहा है।
ब्राह्मण बस
छुरी लेकर
तैयार है।
तुमको
मालूम है, ब्राह्मणों
की एक खास
जाति है—शर्मा!
शर्मा का मतलब
होता है—गर्दन
काटने वाले, शर्मन करने वाले।
अगर शर्मा
यहां कोई हो
छोड़ दे नाम वह।
वह नाम अच्छा
नहीं है। वह
हत्यारा है।
उसके भीतर
हत्या छिपी
है। शर्मा
ब्राह्मणों
का वह वर्ग जो
यज्ञों में
गर्दन काटे।
अब आज तो हालत
ऐसी है, कई
लोग जो
ब्राह्मण
नहीं हैं वह
भी शर्मा लिखते
हैं। सोचते
हैं कुछ
शानदार शब्द
मालूम होता है—शर्मा।
एक वर्मा थे, वह शर्मा
लिखने लगे।
मैंने कहा: यह
तुम क्या करते
हो! वर्मा भले
थे। शर्मा? नरक में
पड़ोगे!
बुद्ध
ने कहा: यह
क्या कर रहे
हो? उस
ब्राह्मण ने
कहा—जो काटने
ही जा रहा था
बकरे को—कि आप
चिंतित न हों;
यह बकरा
स्वर्ग
जाएगा।
क्योंकि यज्ञ
में जिसकी बलि
दी जाती है, वह स्वर्ग
जाता है। तो
बुद्ध ने कहा:
फिर अपने बाप
की बलि क्यों
नहीं देते? स्वर्ग जाने
का इतना सरल
उपाय! और यह
बकरा जाना भी
नहीं चाहता।
यह बकरा
चिल्ला रहा
है। यह भाग
रहा है। यह
जाना भी नहीं
चाहता। अपने
पिता जी को
भेज दो। या
खुद ही चले
जाओ। जब
स्वर्ग जाने
का ऐसा शौक
चढ़ा है, तो
बेचारा बकरा
क्यों जाए!
बकरे को क्यों
भेज रहे हो? इसने कब कहा
कि मुझे स्वर्ग
जाना है? यह
मजे से यहीं
जी रहा है। यह
बिलकुल मस्त
है। यह स्वर्ग
में है। तुम
नर्क में हो!
साहिब
के दरबार पुकारया
बाकरा।
काजी
लीया जाय
कमर सों पाकरा।।
मेरा
लीया सीस
उसी का लीजिए।
हरि
हां, वाजिद,
राव—रंक का न्याव
बराबर
कीजिए।।
वह
बकरा कह रहा
है कि प्रभु, कुछ तो
न्याय करो। यह
क्या अन्याय
हो रहा है! मुझे
जाना नहीं, मैं भेजा जा
रहा हूं। इनको
जाना है, ये
खुद जा नहीं
रहे, मुझको
भेज रहे हैं।
पाहन
पड़ गई रेख रात—दिन
धोवहीं।
छाले
पड़ गए हाथ मूंड़
गहि रोवहीं।।
जाको
जोइ सुभाव जाइहै
जीव सूं।
हरि
हां, नीम
न मीठी होय
सींच गुड़—घीव
सूं।।
महत्वपूर्ण
वचन है। वे
कहते हैं, प्रत्येक
व्यक्ति अपने
स्वभाव से जी
रहा है। जबर्दस्ती
न करो। किसी
के ऊपर
जबर्दस्ती थोपो मत
कुछ।
प्रत्येक को
उसके स्वभाव
से जीने दो।
जाको
जोइ सुभाव जाईहै
जीव सूं।
अपने—अपने
स्वभाव से
प्रत्येक जीव
जी रहा है।
अपने—अपने
स्वभाव से
परमात्मा की
यात्रा पर जा
रहा है।
हरि
हां, नीम
न मीठी होय
सींच गुड़—घीव
सूं।।
तुम
गुड़ डालो
और घी डालो, तो भी नीम
मीठी नहीं
होगी। मीठी
होने की जरूरत
भी नहीं है।
नीम का कड़वापन
उसका स्वभाव
है। कड़वेपन
में कुछ बुराई
भी नहीं है।
सच तो यह है, औषधि—शास्त्र
के अनुसार नीम
से ज्यादा
बहुमूल्य कोई
औषधि नहीं है।
तुमने
कहानी तो पंचतंत्र
की सुनी ही
होगी: कि चार
पंडित काशी से
पढ़कर लौटते
थे। सब अलग—अलग
विद्याओं में
निष्णात थे।
जब एक जगह
जंगल में ठहरे, तो उन्होंने
सोचा, अब
हम भोजन बनाएं।
तो उसमें जो
व्यक्ति औषधि—शास्त्र
का ज्ञाता था,
वनस्पति—शास्त्र
का ज्ञाता था,
उससे कहा कि
भई, तू
जाकर या तो
बाजार से
सब्जी खरीद ला,
पास में कोई
गांव हो, या
जंगल से, क्योंकि
तू वनस्पति—शास्त्र
का ज्ञाता है।
तो वह बेचारा
गया और नीम
तोड़ लाया।
क्योंकि
वनस्पति—शास्त्र
का ज्ञाता था।
नीम से ज्यादा
तो श्रेष्ठ
कोई वनस्पति
है नहीं। क्योंकि
इसमें इतने
गुण हैं: खून
शुद्ध करे, उम्र बढ़ाए,
वृद्ध को
जवान करे।
उसने बहुत
सोचा। पंडित
तो पंडित!
पंडित से
ज्यादा मूढ़
कोई आदमी नहीं
होता।
जो
व्याकरण का
ज्ञाता था, उसको छोड़ गए
थे कि तू
चूल्हा जलाकर
रख। तू शब्द—शास्त्र
का ज्ञाता है।
तो जब पानी तू चढ़ाएगा
चूल्हे पर तो खद—बद, खद—बद, खद—बद,
खद—बद
होगी। तो तू
ठीक से संगीत
उत्पन्न करना,
ताकि भोजन
भी सुंदर बने।
जब खद—बद, खद—बद
शुरू हुई तो
पंडित ने सोचा
कि यह तो कोई
शब्द है ही
नहीं। और
शास्त्र में
कहा है कि
अशब्द को न
बोलना न
सुनना।
क्योंकि
अशब्द जो सुने,
वह भी पाप
का भागीदार
है। और यह
अशब्द मालूम होता
है। यह कोई
शब्द तो हमने
देखा ही नहीं—खद—बद, खद—बद, खद—बद!
उसने उठाकर एक
डंडा जोर से
मारा। उस
बर्तन को तोड़त्ताड़कर
फेंक दिया।
उसने कहा कि
अशब्द को
सुनना!
और यही
गति हुई। जो
दर्शन—शास्त्री
था, उसको
भेजा था कि तू
घी खरीद ला।
क्योंकि
दर्शन—शास्त्र
की किताबों
में यह उल्लेख
बहुत आता है
कि घी पात्र
को सम्हालता
है कि पात्र
घी को सम्हालता
है। कौन किसको
सम्हालता है?
कौन मूल है?
तो तू घी का
ज्ञाता है।
इतने दिन से
पढ़ते—पढ़ते
दर्शन—शास्त्र
अब तो तुझे
पता चल ही गया
होगा कि कौन किसको
सम्हालता है?
वह गया।
उसने पढ़ा तो
बहुत था, लेकिन
कभी प्रयोग
करके नहीं
देखा था।
रास्ते में
सोचने लगा कि
पढ़ा तो बहुत।
पढ़ने से कुछ
निष्कर्ष भी
हाथ आया नहीं।
पात्र
सम्हालता घी को
कि घी
सम्हालता
पात्र को? आज
करके ही देख
लूं। उसने
उल्टा दिया
पात्र। सारा
घी नीचे गिर
गया। उसने कहा
कि सिद्ध हो
गया कि पात्र
ही सम्हालता
है। बड़ा
प्रसन्न खाली
पात्र लिए
लौटा।
पांडित्य से
जो जीना
चाहेंगे उनकी जिंदगी
में यही
परिणाम होते
हैं।
प्रत्येक
का अपना
स्वभाव है।
प्रत्येक को
उसके स्वभाव
से जीने की
स्वतंत्रता
दो।
जबर्दस्ती
दूसरों के ऊपर
आचरण न थोपो।
उनके अंतस को
आविर्भूत
होने दो।
क्योंकि जिस
दिन वे अपने
स्वभाव में
परिपूर्ण थिर
हो जाएंगे, उसी दिन
परमात्मा को
उपलब्ध हो
जाएंगे।
सतगुरु
शरणे आयक
तामस त्यागिए।
बुरी—भली
कह जाए ऊठ
नहिं लागिए।।
उठ लाग्या
में राड़ राड़ में
मीच है।
हरि
हां, जा
घर प्रगटै
क्रोध सोइ घर
नीच है।।
प्रेम
की चर्चा करने
में
स्वाभाविक है
कि क्रोध की
चर्चा की जाए, क्योंकि
प्रेम का ठीक
विपरीत है
क्रोध।
सतगुरु
शरणे आयक
तामस त्यागिए।
जब
सतगुरु की शरण
में आओ तो
आलस्य छोड़
देना, तंद्रा
छोड़ देना, मूर्च्छा
छोड़ देना।
होशपूर्वक
बैठना। सत्संग
उसी को उपलब्ध
होता है, जो
होशपूर्वक
बैठता है। जो
सोया—सोया
बैठा रहता है,
उसे सत्संग
उपलब्ध नहीं
होता। जो बैठे—बैठे
जम्हाई लेता
रहता है, उसे
सत्संग
उपलब्ध नहीं
होता। सत्संग
उसी को उपलब्ध
होता है, जो
जाग्रत है, जो सचेत है, सावधान है।
क्योंकि गुरु
जो है वह
सावधानी का परम
रूप है। तुम
भी थोड़े
सावधान हो जाओ,
तो संबंध
जुड़े। तुम भी
थोड़े उस जैसे
हो जाओ, तो
नाता बने, तो
सेतु बने। तुम
भी जागो, तो जागे से
दोस्ती बने।
सोए—सोए
दोस्ती न
बनेगी। इसलिए
तामस त्यागिए।
बुरी—भली
कह जाए ऊठ
नहिं लागिए।
और एक
बात ख्याल रख
लेना कि कोई
बुरा—भला कह
दे, तो उठकर
जवाब देने की
कोई जरूरत
नहीं। उसका स्वभाव
है। उसने बुरा—भला
कहा है, इससे
तुमसे कुछ भी
नहीं कहा है।
उसने सिर्फ अपना
स्वभाव प्रगट
किया है। उसकी
वह जाने। तुम
उत्तर देने मत
पड़ जाना।
उत्तर में पड़
गए कि तुम जाल
में आ गए!
बुद्ध
को किसी ने
गालियां दीं।
बुद्ध ने सुनी, और कहा कि
तुम्हारी बात
पूरी हो गई हो
तो मैं जाऊं? मुझे दूसरे
गांव जल्दी
पहुंचना है।
पर उस आदमी ने
कहा: हम
गालियां दे
रहे हैं, आपने
कुछ उत्तर
नहीं दिया? बुद्ध ने
कहा: अगर
उत्तर चाहिए
था तो दस साल
पहले आना था।
अब तो मैं
गालियां लेता
ही नहीं, तो
उत्तर कैसे
दूं? तुमने
दीं, तुम्हारी
मर्जी। मैंने
ली ही नहीं, इसलिए सवाल
उत्तर देने का
आता नहीं। जब
तक मैं न लूं, तुम्हारी
गाली व्यर्थ।
पिछले गांव
में लोग मिठाइयां
लेकर आए थे और
मैंने कहा, मेरा पेट
भरा है। तो वे मिठाइयों
के थाल वापस
ले गए। तुम
गालियां लेकर
आए हो—जो
जिसके पास है।
अब मैं कहता
हूं, मेरा
पेट भर चुका, मैं नहीं
लेता। अब तुम
क्या करोगे? ले जाओ
वापस। मुझे
तुम पर बड़ी
दया आती है।
ये गालियों से
भरे थाल ले
जाओ वापस। अभी
मैं जल्दी में
हूं। दूसरे
गांव पहुंचना
है। अगर फिर
भी तुम्हारा
मन कुछ और रह
गया हो देने
का, भरा न
हो, तो जब
मैं लौटूं,
तब तुम फिर
यह थाल ले
आना। और तब
मैं थोड़ा ज्यादा
समय लेकर आऊंगा।
बैठकर इस
वृक्ष के नीचे
तुम्हारी
पूरी बात सुन
लूंगा।
कैसी
गति न हो गई
होगी उस
मनुष्य की!
बुरी—भली
कह जाए ऊठ
नहिं लागिए।
उठ लाग्या
में राड़...
जवाब
दोगे तो झगड़ा
खड़ा होगा।
...राड़ में मीच है।
और
झगड़े में
हिंसा है, मृत्यु है।
और मृत्यु और
हिंसा, यही
तो अधार्मिक
व्यक्ति के
जीवन के ढंग
हैं। जीता कम,
मरता
ज्यादा है।
जीने कम देता
है लोगों को, मारता
ज्यादा है। न
खुद जीता है, न किसी को
जीने देता है।
हरि
हां, जा
घर प्रगटै
क्रोध सोइ घर
नीच है।
और जिस
घर में क्रोध प्रगटा, वही सबसे
नीचा हो गया।
वही नर्क में
गिर गया। और
कोई नर्क नहीं
है; प्रेम
स्वर्ग है, क्रोध नर्क
है।
कहि—कहि वचन
कठोर खरुंठ
नहिं छोलिए।
सीतल
सांत स्वभाव सबन सूं
बोलिए।।
आपन
सीतल होय और
भी कीजिए।
हरि
हां, बलती
में सुण
मीत न पूला
दीजिए।
कहीं
घास मत दो आग
में और। वैसे
ही कोई क्रोधित
है, अब तुम
कुछ और घास मत डालो उसकी
आग में।
अन्यथा और लपट
बढ़ जाएगी।
हरि
हां, बलती
में सुण
मीत न पूला
दीजिए।
जहां
आग लगी हो
वहां घास का
पूला और मत डालो।
वैसे ही कोई
क्रुद्ध है, अब तुम और
क्रोध मत करो।
अगर हो सके, सीतल सांत
स्वभाव...। जब
कोई क्रोधित
हो, तब तुम
शांत हो जाओ, शीतल हो
जाओ। गिरने दो
उसके तीर
तुम्हारी शीतलता
पर; बुझ
जाएंगे। और न
केवल उसके
अग्नि से भरे हुए
तीर बुझ
जाएंगे, तुम
उसके जीवन को
भी रूपांतरित
करने का एक
अवसर बन
जाओगे!
तुम्हारी
शीतलता उसे छू
लेगी। तुम्हारा
प्रेम उसे छू
लेगा।
बड़ा
भया सो कहा
बरस सौ साठ
का।
घणां पढया तो
कहा चतुर्विध
पाठ का।
छापा
तिलक बनाय
कमंडल काठ का।
हरि
हां, वाजिद,
एक न आया
हाथ पसेरी आठ
का।।
उम्र
से कोई बड़ा
नहीं होता।
वाजिद कहते
हैं कि तुम सौ
साल के हो जाओ, कि साठ साल
के हो जाओ, उम्र
से कोई बड़ा
नहीं होता।
बड़प्पन प्रेम
से उपलब्ध
होता है, शीतलता
से उपलब्ध
होता है, गंभीर
शांति से
उपलब्ध होता
है, प्रशांति
से उपलब्ध
होता है। उम्र
से कोई संबंध
बड़े होने का
नहीं है। और—
घणां पढया तो
कहा चतुर्विध
पाठ का।
तुम
चारों वेद
कंठस्थ कर लो, तो भी तुम
ज्ञानी न हो
जाओगे। ज्ञान
तो तुम्हारे
भीतर
निर्विचार
चित्त में
जन्मता है।
ध्यान में
ज्ञान का जन्म
होता है।
कहै
वाजिद पुकार
सीख एक सुन्न
रे।
बस एक
शून्य तुम सीख
लो, तो वाजिद
कहते हैं, तुमने
सारे शास्त्र
पा लिए। सब
कुरान, सब
पुराण, सब
वेद तुम्हारे
भीतर उमगने
लगेंगे, जन्मने
लगेंगे।
छापा
तिलक बनाय
कमंडल काठ का।
ऊपर
के आयोजनों
में ही समय मत
गंवा दो।
हरि
हां, वाजिद,
एक न आया
हाथ पसेरी आठ
का।
आठ
पसेरी का होता
है मन। यह
प्रतीक है, कि इस तरह के
ऊपर के आयोजन
से मन पकड़ में
न आएगा।
वाजिद, एक न आया हाथ
पसेरी आठ का।
प्रतीक!
आठ पसेरी का
मन होता था।
अब तो होता नहीं, वाजिद जब थे
तब होता था।
ऐसे ही
तुम्हारे
भीतर जो मन है,
वह हाथ न
आएगा बाहर के
आयोजनों से, आचरण से, चरित्र
से। नहीं, भीतर
की अंतर—ज्योति
से! शांत बनो, शून्य बनो।
प्रेम बनो, दान बनो।
जीवन बनो और
जीवन के लिए
छाया बनो, जीवन
बनो और जीवन
का सम्मान
बनो। क्योंकि
जीवन ही
परमात्मा है,
और कोई
परमात्मा
नहीं है।
जिसने जीवन को
प्रेम करना
सीख लिया, वह
परमात्मा के
करीब आने लगता
है। जीवन की
और प्रेम की सीढ़ियां चढ़ते—चढ़ते
ही एक दिन
परमात्मा का
मंदिर मिल
जाता है।
वाजिद
का पाठ, वाजिद
की सीख दो
शब्दों की है—अंत
में उन दो
शब्दों को याद
रखना—एक है
शून्य और एक
है प्रेम।
भीतर शून्य हो
जाओ, बाहर
प्रेम हो जाओ,
शेष सब अपने—आप
सध जाएगा।
और
शून्य और
प्रेम एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं।
शून्य—जब तुम
अकेले हो।
प्रेम—जब तुम
किसी के साथ
हो। प्रेम
संबंध और
शून्य असंबंध।
दोनों साध लो।
दोनों साथ—साथ
साध लो। और
तुमने सब साध
लिया!
परमात्मा तुम्हारा
हो ही गया!
परमात्मा
तुम्हारा है
ही।
शून्य
हो जाओ, तो
भीतर पहचान
में आ जाएगा।
और प्रेम हो
जाओ, तो
बाहर पहचान
में आ जाएगा।
शून्य की आंख
उसे भीतर खोज
लेती है। और
प्रेम की आंख
उसे बाहर खोज
लेती है। और
जिसने बाहर भी
जाना उसे, भीतर
भी जाना उसे, उसका बाहर
भी मिट गया, भीतर भी मिट
गया। और जो
बाहर और भीतर
के पार हो गया,
वही द्वंद्वातीत
है, वही
अद्वैत है।
आज
इतना ही।
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