दिनांक
23 सितम्बर 1976,
श्री ओशो आश्रम, पूना।
सूत्र:
पीव
बस्या
परदेस कि जोगन
मैं भई।
उनमनि
मुद्रा धार
फकीरी मैं लई।।
ढूंढया
सब संसार कि
अलख जगाइया।
हरि
हां, वाजिद,
वह सूरत वह
पीव कहूं नहिं
पाइया।।
जब तें कीनो
गौन भौन
नहिं भावही।
भई छमासी रैण
नींद नहिं आवही।।
मीत
तुम्हारी चीत रहत
है जीव कूं।
हरि
हां, वाजिद,
वो दिन कैसो
होइ मिलौं
हरि पीव कूं।।
कहिए
सुणिए
राम और नहिं
चित्त रे।
हरि-चरणन को
ध्यान सु धरिए
नित्त
रे।।
जीव
विलंब्या
पीव दुहाई राम
की।
हरि
हां, सुख-संपति
वाजिद कहो किस
काम की।।
तुमहि बिलोकत नैण भई हूं
बावरी।
झोरी
डंड भभूत पगन
दोउ पांवरी।।
कर जोगण को
भेष सकल जग डोलिहूं।
वाजिद, ऐसो मेरो
नेम राम मुख बोलिहूं।।
सूर
कमल वाजिद न
सुपने मेल है।
जरै
द्यौस अरु रैण
कड़ाई तेल है।।
हमही
में सब खोट
दोष नहिं स्याम
कूं।
हरि
हां, वाजिद,
ऊंच नीच सों
बंधे कहो किहि
काम कूं।।
भूखे
भोजन देह उघारे
कापरो।
खाय धणी को लूण
जाय कहां बापरो।।
भली-बुरी
वाजिद सबै
ही सहेंगे।
हरि
हां, दरगह को दरवेश
यहां ही
रहेंगे।।
हरिजन
बैठा होय तहां
चल जाइए।
हिरदै उपजै
ग्यान रामगुण
गाइए।।
परिहरिए
वह ठाम भगति
नहिं राम की।
हरि
हां, वाजिद,
बीन विहूणी
जान कहौ
किस काम की।।
मुझे
था शिक्वा-ए-हिज्रां
कि ये हुआ
महसूस
मिरे
करीब से होकर
वो नागहां
गुजरे
बहुत
हसीन मनाजिर
भी हुस्ने-फितरत
के
न
जाने आज तबीयत
पे क्यों गरां
गुजरे
मिरा
तो फर्ज
चमन-बंदी-ए-जहां
है फकत
मिरी
बला से, बहार
आए कि खिजां
गुजरे
कहां
का हुस्न कि
खुद इश्क को
खबर न हुई
रहेत्तलब
में कुछ ऐसे
भी इम्तिहां
गुजरे
भरी
बहार में ताराजी-ए-चमन
मत पूछ
खुदा
करे न फिर
आंखों से वो
समां गुजरे
कोई
न देख सका
जिनको दो
दिलों के सिवा
मुआमलात
कुछ ऐसे भी दर्मियां
गुजरे
कभी-कभी
तो इसी एक मुश्ते-खाक
के गिर्द
तवाफ
करते हुए
हफ्त-आस्मां
गुजरे
बहुत
अजीज है मुझको
उन्हीं की याद
"जिगर'
वो हादिसाते-मोहब्बत
जो नागहां
गुजरे
प्रेम
का पंथ प्यारा
भी, सहज-सुगम
भी, कठिन
और दुर्गम भी।
प्रेम का पंथ
प्यारा है, क्योंकि
प्रेम प्यारा
ही हो सकता
है। प्रेम मधुर
है, माधुर्य
है। लेकिन
प्रेम का पंथ
कठिन भी बहुत,
क्योंकि
अपने को मिटाए
बिना कोई चारा
नहीं। और जब
तक तुम न मिटो,
जब तक तुम "न'
न हो जाओ, तब तक
परमात्मा की
कोई प्रतीति
संभव नहीं है।
मुझे
था शिक्वा-ए-हिज्रां
कि ये हुआ
महसूस
मिरे
करीब से होकर
वो नागहां
गुजरे
जलना
होगा पहले तो
विरह की अग्नि
में।
मुझे
था शिक्वा-ए-हिज्रां
कि ये हुआ
महसूस
बड़ी
शिकायतें उठेंगी
विरह की रात
में, बहुत
संदेह
उठेंगे। बहुत
बार मन वापिस
संसार में लौट
जाने का होने
लगेगा।
क्योंकि
संसार भी हाथ
से गया, और
राम की कोई
खबर मिलती
नहीं! चले थे
प्रकाश की खोज
में, अंधेरा
और सघन होता
जाता है!
मुझे
था शिक्वा-ए-हिज्रां
कि ये हुआ
महसूस
और
विरह की बड़ी
शिकायत उठती
है मन में।
लेकिन तभी, उन्हीं
आखिरी क्षणों
में, जब
विरह की अग्नि
सहनी असह्य हो
जाती है...।
मिरे
करीब से होकर
वो नागहां
गुजरे
तभी
अचानक उसका
आगमन हो जाता
है। जब तुम
मिटे-मिटे
होने को हो, तभी अचानक...।
बहुत
हसीन मनाजिर
भी हुस्ने-फितरत
के
न
जाने आज तबीयत
पे क्यों गरां
गुजरे
और
जिसने उसकी एक
झलक देख ली, फिर प्रकृति
का सारा
सौंदर्य फीका
पड़ जाता है।
फिर सूरज में
रोशनी नहीं, जिसने उसकी
रोशनी देख ली!
फिर फूलों में
सुगंध कहां, जिसने उसकी
गंध पा ली! फिर
इस जगत का रूप,
इस जगत का
सौंदर्य, इस
जगत का रंग, सब फीका हो
जाता है, प्रतिबिंब
हो जाता है।
इस जगत का
श्रेष्ठतम संगीत
प्रतिध्वनि
से ज्यादा
नहीं रह जाता।
बहुत
हसीन मनाजिर
भी हुस्ने-फितरत
के
न
जाने आज तबीयत
पे क्यों गरां
गुजरे
फिर
प्रकृति का
बड़ा सौंदर्य
भी हृदय पर
बोझ जैसा
मालूम होता है, जिसने उसके
सौंदर्य को
जाना!
मिरा
तो फर्ज
चमन-बंदी-ए-जहां
है फकत
मिरी
बला से, बहार आए या खिजां
गुजरे
और
जिसने उसे देख
लिया, जिसकी
उससे आंखें
चार हो गईं, फिर कोई
फर्क नहीं
पड़ता इस संसार
में बहार आए कि
खिजां
गुजरे, फिर
बसंत हो कि पतझड़
हो, फिर
सफलता मिले कि
विफलता, कि
फिर सुख आए कि
दुख, कोई
फर्क नहीं
पड़ता। यही
विराग की परम
अनुभूति है।
लेकिन
भक्त का विराग
तपस्वियों
के विराग से
बड़ा भिन्न है।
तपस्वी विराग
साधता है, आयोजित करता
है, अभ्यास
करता है। भक्त
राग साधता है
परमात्मा से,
और जब राग
का तार जुड़
जाता है तो
संसार से विराग
अपने-आप घटित
हो जाता है।
और जो विराग
अपने से घटित
हो जाए, उसकी
महिमा अपार
है। जो विराग
जबर्दस्ती
थोप लिया जाए,
उसका दो कौड़ी
भी मूल्य नहीं
है। क्योंकि
जो थोपा है, ऊपर-ऊपर
रहेगा; जो
उठा है अंतस
से, वही
रूपांतरण
करता है, उसी
से क्रांति
होती है।
कहां
का हुस्न कि
खुद इश्क को
खबर न हुई
रहेत्तलब
में कुछ ऐसे
भी इम्तिहां
गुजरे
और जब
उस परम प्यारे
के सौंदर्य से
आंखें भरती
हैं, तो यह भी
याद नहीं पड़ता
कि क्या मैं
देख रहा हूं!
क्या घट रहा
है!
कहां
का हुस्न कि
खुद इश्क को
खबर न हुई
ऐसी
बेहोशी तारी
हो जाती है, ऐसा उन्माद
छा जाता है, ऐसा मस्त हो
जाता है मन!
कहां
का हुस्न कि
खुद इश्क को
खबर न हुई
रहेत्तलब
में कुछ ऐसे
भी इम्तिहां
गुजरे
उस
प्यारे की खोज
में, उस
प्यारे की राह
में ऐसे भी
क्षण आते हैं,
जब पता ही
नहीं चलता अपना,
न उसका। पता
ही मिट जाता
है, ज्ञान
ही खो जाता
है।
प्रेम
की पराकाष्ठा
तभी है, जब
ज्ञान बिलकुल
शून्य हो
जाए--न दृश्य
रहे, न
द्रष्टा रह
जाए; न
ज्ञाता, न
ज्ञानी। वहीं
मिलन है, वहीं
व्यक्ति
परमात्मा से
एक होता है।
वहीं बूंद
सागर से मिलती
है। प्रेम का
रास्ता प्यारा
भी बहुत, क्योंकि
प्रेम का
रास्ता है।
प्रेम से
ज्यादा मधुर
इस संसार में
कुछ और नहीं, उससे ज्यादा
सुस्वादु इस
संसार में कुछ
और नहीं।
प्रेम तो
मधुशाला है, मादक है, मधु
है। लेकिन
प्रेम को पीने
की तैयारी अति
कठिन है।
रहीम
का वचन है:
प्रेम-पंथ ऐसो
कठिन! कैसो
कठिन? क्या
कठिनाई होगी
प्रेम-पंथ की?
कठिनाई यह
है कि प्रेमी
को मिटना पड़ता
है, तब
प्यारा मिलता
है। मिलता है
तब तो बड़ा ही
अपूर्व है, मगर मिलने
के पहले जो
शर्त पूरी
करनी पड़ती है,
बड़ी दुर्गम
है।
वाजिद
के आज के
सूत्र विरह की
रात्रि के
सूत्र हैं।
खूब मनपूर्वक
उन्हें
समझना।
पीव
बस्या
परदेस कि जोगन
मैं भई।
उनमनि
मुद्रा धार
फकीरी मैं लई।।
ढूंढया
सब संसार कि
अलख जगाइया।
हरि
हां, वाजिद,
वह सूरत वह
पीव कहूं नहिं
पाइया।।
पीव
बस्या
परदेस कि जोगन
मैं भई।
प्यारा
बहुत दूर, यह भी ठीक
पता नहीं कि
कहां? प्यारा
बहुत दूर, यह
भी ठीक पता
नहीं कि कौन? प्यारा बहुत
दूर, यह भी
पता नहीं उसका
रूप क्या, रंग
क्या, नाम
क्या, धाम
क्या? प्यारा
बहुत दूर, यह
भी पता नहीं
कि है भी या
नहीं है।
भक्त
की पीड़ा!
प्यारे का
होना भी अभी
प्रमाणित
नहीं है।
सरोवर होगा भी
कहीं, इसका
कोई सबूत नहीं
है। सबूत तो
मिले कैसे, जब तक सरोवर
न मिल जाए! हां,
और लोग कहते
हैं--बुद्ध
कहते हैं, महावीर
कहते हैं, मीरा
कहती है, चैतन्य
कहते हैं--और
लोग कहते हैं।
पर औरों का कैसे
भरोसा हो? कौन
जाने झूठ ही
कहते हों!
क्योंकि कहने
वाले तो बहुत
कम हैं, उंगलियों
पर गिने जा
सकें इतने
हैं। और
परमात्मा
जिनको नहीं
मिला है, वे
तो अनंत हैं।
परमात्मा
जिनको नहीं
मिला, उनकी
तो बड़ी भीड़
है। जिनको
मिला, वे
तो बहुत कम
हैं, इक्के-दुक्के
कभी किसी को।
कौन जाने झूठ
ही कहते हों!
और कौन जाने
झूठ शायद न भी
कहते हों, खुद
ही धोखा खा गए
हों! किसी
सपने को सच
मान लिया हो, किसी मन की
भ्रांति में
उलझ गए हों, किसी विभ्रम
के शिकार हो
गए हों--कौन
जाने? कैसे
भरोसा करो?
दूसरे
पर भरोसा हो
नहीं सकता।
अपना अनुभव हो, तो ही
श्रद्धा उमगती
है। अपना
अनुभव न हो तो
विश्वास सब सांत्वनाएं
हैं--थोथी, ऊपर-ऊपर,
मन को
समझाने को हैं,
मान लेने की
हैं। और मान
लेने से कोई
यात्रा नहीं
होती।
तुमने
सुना है, सदा
कहा गया
है--विश्वास
करो तो ज्ञान
होगा। इससे
बड़ी झूठी कोई
और बात नहीं
हो सकती।
ज्ञान हो तो
विश्वास होता
है। विश्वास
पहले नहीं; विश्वास
परिणति है, निष्कर्ष
है। बोध हो तो
श्रद्धा का
फूल लगता है।
श्रद्धा पहले
नहीं हो सकती।
किसी तरह
ठोंक-ठांक
कर बिठा लोगे।
क्या उसका
मूल्य? कैसी,
क्या उसकी
अर्थवत्ता? भीतर तो
संदेह जगता
रहेगा। भीतर
तो प्रश्न बना
ही रहेगा।
इसलिए तुम
पृथ्वी पर
इतने धार्मिक
लोग देखते हो
और फिर भी
अधर्म के
सिवाय पृथ्वी
पर और क्या है!
यह है
दूरी
परमात्मा से।
उस प्रेमी की
कठिनाई समझो, जिसे उसके
प्रति प्रेम
पैदा हो गया
है जिसे देखा
नहीं, उसके
प्रति आकर्षण
पैदा हो गया
है जिसका कोई
पता नहीं। पता
हो तो भी
मिलना
सुनिश्चित
कहां है! मजनू
को पता है
लैला का, मिल
कहां पाती है!
मजनू की
पीड़ा कुछ भी
नहीं, कम से
कम उसे पता तो
है, कम से
कम उस रास्ते
पर तो खड़ा हो
जाता है जहां
से लैला
गुजरती है।
दूर से ही सही,
झलक तो देख
लेता है। मजनू
की पीड़ा कुछ
भी नहीं है
भक्त की पीड़ा
के मुकाबले।
कहां है वह
राह जहां भक्त
खड़ा हो जाए? कैसे खड़ा हो
जाए? कहां
खड़ा हो जाए? किस राह से
उसका गुजरना
होता है? किस
राह से निकलता
है उसका
स्वर्ण-रथ? किस घड़ी में
निकलता है
उसका
स्वर्ण-रथ।
कुछ भी तो पता
नहीं।
मगर
जिसका कोई पता
नहीं, उसके
प्रति भी
प्रेम का जन्म
हो सकता है।
बड़ी छाती
चाहिए इस
प्रेम के लिए!
भोजन का पता न
हो, भूख लग
सकती है न! तो
प्रेमी का पता
न हो, प्रेम
पैदा हो सकता
है। सरोवर का
पता न हो, प्यास
लग सकती है न!
मंजिल का पता
न हो, यात्रा
की आकांक्षा
तो जग सकती है
न! अज्ञात की
खोज पर निकलता
है भक्त। उसका
साहस अदम्य है;
कहो, दुस्साहस
है!
जो लोग
चांद पर जाते
हैं, हम उनका
बड़ा स्वागत
करते हैं; दुस्साहस
करते हैं वे!
लेकिन चांद पर
जाने में कोई
इतना
दुस्साहस
नहीं है। चांद
है तो, दिखाई
तो पड़ता है।
फासला कितना
ही हो, नापा
जा सकता है।
मगर परमात्मा
और आदमी के
बीच फासला ऐसा
है कि नापने
का कोई उपाय
नहीं। परमात्मा
दिखाई भी तो
नहीं पड़ता। इस
अदृश्य की
यात्रा पर जो
निकलता है उसकी
छाती समझते
हो! उसकी
हिम्मत, उसकी
जोखम
उठाने की...आग
में कूद जाने
की बात है!
तो ठीक
ही कहते हैं
रहीम:
प्रेम-पंथ ऐसो
कठिन!
पीव
बस्या
परदेस कि जोगन
मैं भई।
वाजिद
कहते हैं कि
तुम न मालूम
किस परदेश में
बसे हो। कितनी
दूरी पर
तुम्हारा घर
है, कुछ पता
नहीं। उस घर
में तुम हो भी
या नहीं, यह
भी पता नहीं।
कुछ मेरी
सोचोगे! और
मैं तुम्हारे
लिए जोगन हो
गई! और मैं
तुम्हारी
प्यास से भर
गई! और मैं
तुम्हें
पुकारती हूं!
और मेरा रोआं-रोआं
तुम्हारी
प्रार्थना बन
गया है! और मेरी
धड़कन-धड़कन में
तुम समा गए हो!
यह
पीड़ा है भक्त
की। यह पीड़ा
बड़ी अनूठी है।
और यह पीड़ा
बड़ी सौभाग्य
भी। जो बहुत धन्यभागी
हैं, उन्हीं
के जीवन में
ऐसा अवसर आता
है। अदृश्य से
जो आकर्षित हो
जाते हैं, अगोचर
की जो खोज पर
निकल पड़ते हैं,
अज्ञात में
जिनकी
उत्सुकता जग
जाती है, यही
मनुष्य-जाति
के नमक हैं!
इन्हीं के
कारण मनुष्य
के जीवन में
थोड़ा गौरव है,
थोड़ी गरिमा
है। नहीं तो
धन के खोजी
हैं, पद के
खोजी हैं, दिल्ली
की यात्रा पर
निकले लोग हैं,
ये कूड़ा-करकट
हैं! इन्हीं
के कारण
मनुष्य का
अगौरव है, अगरिमा
है। इन्हीं के
कारण मनुष्य पतित
है, क्षुद्र
है।
पीव
बस्या
परदेस कि जोगन
मैं भई।
उनमनि
मुद्रा धार
फकीरी मैं लई।।
उनमनि
मुद्रा धार!
इस शब्द "उनमनि' को समझना, क्योंकि यही
भक्त की साधना
का सार-सूत्र
है, रहस्यों
का रहस्य, महामंत्र,
मूल-बीज--उनमनि
मुद्रा। उनमन
का अर्थ होता
है वही जो झेन
फकीर नो-माइंड
से कहते हैं। उनमन का
अर्थ होता
है--जहां मन
नहीं, मन
के पार, मनातीत।
उनमनि
मुद्रा धार
फकीरी मैं लई।।
जिन्होंने
फकीरी ले ली
है और उनमनि
मुद्रा नहीं
धारी है, उनकी
फकीरी पाखंड
है!
इसलिए
मुझसे जब कोई
संन्यासी
पूछता
है--हमारे संन्यास
का नियम क्या? तो एक ही
नियम है: मन के
पार हो जाओ, ध्यान करो, उनमनि मुद्रा धारो।
मन को पोंछो
और मिटा दो।
मन
क्या है? विचारों
का सतत
प्रवाह। जैसे
राह चलती है!
दिन-भर चलती
है, चलती
ही रहती है, भीड़-भाड़
गुजरती ही
रहती है। कोई
इधर जा रहा है,
कोई उधर जा
रहा है, कोई
पूरब, कोई पश्चिम,
कोई दक्षिण,
कोई उत्तर!
ऐसा मन एक
चौराहा है, जिस पर
विचारों के
यात्री चलते
हैं, वासनाओं
के यात्री
चलते हैं, कल्पनाओं,
आकांक्षाओं
के यात्री
चलते हैं, स्मृतियों,
योजनाओं के
यात्री चलते
हैं।
तुम मन
नहीं हो, तुम
चौराहे पर खड़े
द्रष्टा हो, जो इन
यात्रियों को
आते-जाते
देखता है।
लेकिन इस
चौराहे पर तुम
इतने लंबे समय
से खड़े हो, सदियों-सदियों
से, कि
तुम्हें अपना
विस्मरण हो
गया है।
तुम्हें अपनी
ही याद नहीं
रही है। तुमने
मान लिया है कि
तुम भी इसी
भीड़ के हिस्से
हो जो मन में
से गुजरती है।
तुम मन के साथ
एक हो गए हो, तादात्म्य
हो गया है।
तुम मन की भीड़
में अपने को डुबा दिए
हो, भूल गए
हो, विस्मरण
कर दिए हो। और
यही मन
तुम्हें भरमाए
है। इसी मन का
नाम संसार है।
संसार
से तुम अर्थ
मत समझना--ये
निर्दोष हरे वृक्ष
संसार नहीं
हैं।
इन्होंने
तुम्हारा क्या
बिगाड़ा
है! कभी छाया
दे दी होगी
भला, और कभी फल
दे दिए होंगे,
और कभी तुम
पर फूल बरसा
दिए होंगे। इन
वृक्षों ने
तुम्हारा
क्या बिगाड़ा
है? इन चांदत्तारों
ने तुम्हारा
क्या बिगाड़ा
है? दिया
है खूब, लिया
तो तुमसे कुछ
भी नहीं है।
संसार से तुम
अर्थ यह जो
विस्तार है
अस्तित्व का,
ऐसा मत समझ
लेना। इस
संसार से
तुम्हारी
क्या हानि हुई
है? क्या
हानि हो सकती
है? यही
संसार तो
तुम्हें जीवन
दे रहा है।
नहीं, जिस संसार
से भक्त कहते
हैं मुक्त हो
जाओ, वह है
तुम्हारे मन
का संसार, मन
का विस्तार।
तुम्हारे मन
में जो ऊहापोह
चलता है, वह
जो भीड़
तुम्हारे मन
में सदा मौजूद
रहती है, वह
जो तरंगें बनी
रहती हैं
विचार की। और
जिनके कारण
तुम कभी शांत
नहीं हो पाते,
और जिनके
कारण तुम सदा
ही बिगूचन
और विडंबना
में उलझे रहते
हो, जिनके
कारण तुम सदा किंकर्तव्यविमूढ़
हो--क्या करूं,
क्या न करूं?
यह करूं, वह करूं? और
मन हजार
योजनाएं देता
है। कोई योजना
न कभी पूरी
होती, न
पूरी हो सकती
है। और मन
तुम्हें
कितने सब्जबाग
दिखलाता है, कितने
मरूद्यान!
कितने
सुंदर-सुंदर
सपने देता है
और उलझाता है
और भरमाता है
और अटकाता है।
मन माया है, संसार माया
नहीं है। मन
का संसार ही
माया है।
उनमनि
का अर्थ है--जागो!
यह जो मन का
जाल है, इसके
द्रष्टा बनो;
भोक्ता न
रहो, कर्ता
न रहो। इससे
जरा दूर हटो, इसके जरा
पार हटो।
रास्ते की भीड़
में अपने को एक
न मानकर
रास्ते के
किनारे खड़े हो
जाओ। रास्ते
के किनारे खड़े
हो जाना और
रास्ते को
चलते देखना, ऐसे जैसे
हमें रास्ते
से कुछ लेना-देना
नहीं
है--निरपेक्ष,
निष्पक्ष, उदासीन, तटस्थ,
साक्षी
मात्र--और उनमनि
दशा फलेगी।
क्योंकि जैसे
ही तुम मन से
अलग हुए कि मन
मरा।
तुम्हारे
सहयोग से ही
मन के विचार
चलते हैं। तुम्हारी
ही ऊर्जा
उन्हें जीवन
देती है। उनकी
अपनी कोई
ऊर्जा नहीं है, तुम्हीं अपने
सहयोग से
उनमें प्राण
डालते हो, श्वासें
डालते हो।
तुम्हारी ही
श्वासों से वे
जीते हैं और
तुम्हारे ही
हृदय की धड़कन
से धड़कते
हैं। तुमने
हाथ खींच लिया
कि उनके आधार
गए, कि वे
ताश के पत्तों
के महल की तरह
गिर जाएंगे।
उनके गिरने
में क्षण-भर
का भी विलंब
नहीं होगा। वे
तुम्हारे
मेहमान हैं, तुम मेजबान
हो। तुम उनका
स्वागत कर रहे
हो, इसलिए
वे तुम्हारे
मन में टिक गए
हैं। जिस दिन
तुम्हारा
स्वागत तुम
वापिस लौटा
लोगे और उन्हें
नमस्कार कर
लोगे और
कहोगे--बहुत
हो गया! और हट
जाओगे स्वागत
से, उसी
दिन मेहमान
विदा होने
शुरू हो जाएंगे!
और तब आती है
चित्त की उनमनि
दशा।
धीरे-धीरे
विचार दूर
होते जाते हैं,
दूर और
दूर...।
और मजा
समझ लेना, जैसे-जैसे
विचार दूर
होते हैं, वैसे-वैसे
परमात्मा
करीब होता है।
जितने ज्यादा
विचार
तुम्हारे मन
में हैं, उतनी
ही परमात्मा
से ज्यादा
दूरी है; जितने
कम विचार रह
जाएंगे, उतनी
ही कम दूरी।
विचार का
अनुपात
परमात्मा से
दूरी है। उसी
अनुपात में
दूरी होती है।
जिस दिन विचार
बिलकुल शून्य
हो जाएंगे, उस दिन कोई
दूरी न रह
जाएगी।
संन्यास की एक
ही प्रक्रिया
है--उनमनि
मुद्रा! इसलिए
संन्यास को
बाहर से
आयोजित नहीं
करना होता।
क्या खाएं,
क्या पीएं,
कैसे उठें,
कैसे बैठें--यह
सब गौण है।
असली बात भीतर
घटती है, अंतरतम
में।
उनमनि
मुद्रा धार
फकीरी मैं लई।
और
जिसने ऐसी
मुद्रा धारी, वही फकीर है,
वही
संन्यासी है।
ढूंढया
सब संसार कि
अलख जगाइया।
उनमनि
मुद्रा धार ली
है। सारे
संसार में ढूंढती
फिरती हूं, अलख जगाती
हूं, कि
कहीं होओ तो
मिल जाओ।
द्वार-द्वार
खटखटाती हूं,
पुकार पर
पुकार लगाती
हूं।
ढूंढया
सब संसार कि
अलख जगाइया।
हरि
हां, वाजिद,
वह सूरत वह
पीव कहूं नहिं
पाइया।।
लेकिन
जिसे भीतर
देखा है...बहुत
सूरतें हैं बाहर, मगर जो झलक
भीतर मिली है,
वह सूरत
कहीं दिखाई
नहीं पड़ती।
जिस प्यारे का
थोड़ा-सा स्वाद
भीतर मिला है उनमनि
मुद्रा में, जो अचानक
ज्योति की तरह
छा गया था, हजार-हजार
रंगों में फूट
पड़ा था, फिर
सारा संसार
अलख जगाकर
देख लिया है, न वैसा रंग
कहीं मिलता, न वैसा रूप
कहीं मिलता, न वैसा ढंग
कहीं मिलता।
संसार फीका हो
जाता है।
संसार बिलकुल
ही अर्थहीन हो
जाता है। इतना
भी अर्थ नहीं
रह जाता संसार
में कि इसे
छोड़कर भागो।
जो
छोड़कर भागते
हैं, उनको तो
अर्थ अभी कायम
है। वे तो भय
के कारण ही भाग
रहे हैं।
जिससे तुम
भयभीत हो, उसमें
तुम्हें बहुत
अर्थ होगा, नहीं तो
भयभीत भी क्या
होओगे! जो
आदमी रात छाया
देखकर भाग
जाता है, उसने
छाया को सच
माना होगा, तभी तो भागा;
सच न मानता
तो भागता भी
नहीं! इसलिए भगोड़ों को
कुछ भी पता
नहीं चलता है।
संन्यास
भगोड़ापन
नहीं है। अगर
तुम भागे, तो एक ही
सबूत दिया कि
तुमने अभी भी
छाया में सत्य
माना है, अभी
भी तुम्हें
लगता है कि
संसार में कुछ
है।
जिसने उनमनि दशा
धारी, और
जिसने भीतर
प्रीतम की
थोड़ी-सी भी
झलक पा ली--थोड़ी-सी,
रंच-मात्र,
एक किरण, झरोखा एक
बार खुला और
बिजली कौंधी--बस
जीवन में
रूपांतरण का
क्षण आ गया, आ गई
सुहागरात!
ढूंढया
सब संसार कि
अलख जगाइया।
हरि
हां, वाजिद,
वह सूरत वह
पीव कहूं नहिं
पाइया।।
न तो
वह सूरत दिखाई
पड़ती है, न
वह प्यारा
कहीं अनुभव
में आता है।
वह प्यारा
तुम्हारे
प्राणों के
प्राण में
छिपा है। यह रहस्य
है कि जिसे हम
खोज रहे हैं
वह खोजने वाले
में छिपा है, और शायद
इसीलिए हमारी
सारी खोज
व्यर्थ हो
जाती है।
दौड़-धाप होती
बहुत, आपा-धापी
होती बहुत, पहुंच कहीं
भी नहीं पाते।
चाक
हो सीनाए-कौनेन
तो खुल जाए यह
राज
जिंदगी
दर्द है, और दर्द सरापाए-गजल
चाक
हो सीनाए-कौनेन...
विश्व
का सीना अगर
खुले!
...तो
खुल जाए यह
राज
तो
यह रहस्य तुम्हें
पता चले--
जिंदगी
दर्द है, और दर्द सरापाए-गजल
जिंदगी
एक दर्द है, एक पीड़ा है, एक पीड़ा की
गजल है, एक
पीड़ा से भरा
हुआ गीत है, एक दुखांत
नाटक है, इसमें
सुख कहीं भी
नहीं है।
सुख का
आश्वासन देता
है जगत, सुख
मिलता नहीं।
सुख का भरोसा
दिलाता है, लेकिन सुख
कभी हाथ नहीं
आता। जितना
तुम खोजते हो,
उतना ही दूर
होता चला जाता
है। सुख बाहर
मिल नहीं सकता,
बाहर दुख
है। सुख भीतर
है। सुख
स्वभाव है।
सुख तुम्हारी
निजता में है।
सुख अपने घर
लौट आने में
है। सुख
विचारों से
मुक्त हो जाने
में है।
क्योंकि सुख
शांति में है
और विचार में
अशांति है।
जब तें कीनो
गौन भौन
नहिं भावही।
कहते
हैं वाजिद, जब से गौना
हो गया...।
गांव
में शादी होती
है तो गौना हो
जाता है, फिर
गौने के कई
वर्षों
बाद--गौना
बचपन में हो जाता
है--फिर
वर्षों बाद
विवाह रचता है,
दूल्हा आता
है, डोली
उठती है, भांवर
पड़ती है। बड़ा
प्यारा
प्रतीक है, गांव का
प्रतीक है।
जैसे किसी
लड़की का गौना
हो गया, अब
वह जानती है
कि प्यारा
कहीं है। अब
जानती है कि
सुनिश्चित
प्यारा है, और आज नहीं
कल प्यारे से
मिलन भी होगा।
लेकिन अभी
देखी नहीं
उसकी तस्वीर;
कौन है, कैसा
है, कुछ
पता नहीं।
जब तें कीनो
गौन भौन
नहिं भावही।
वाजिद
कहते हैं: ऐसे
ही तूने जो उनमनि
दशा में एक
झलक दिखा दी
थी, गौना तो
हो गया! अब जगत
में कुछ भाता
नहीं है। अब
तेरी याद बहुत
सताती है। झलक
नहीं थी, तब
तक याद में
कोई बल भी न
था। अब तो
श्रद्धा है कि
तू है, और
अब दूरी नहीं
सही जाती, अब
दूरी बहुत
खलती है!
ऐसा
मेरा भी
हजारों लोगों
के साथ ध्यान
का अनुभव है।
जब तक किसी को
ध्यान की झलक
नहीं मिली, तब तक भी वह
ध्यान के लिए
प्रयास करता
है, लेकिन
उसके प्रयास
आंशिक होते
हैं। हो भी
कैसे सकते हैं
पूर्ण? जिसकी
झलक ही नहीं
मिली उसको हम
पूरा-पूरा पुकारेंगे
भी कैसे? लेकिन
जब एक दफा झलक
मिल जाती है; एकाएक, अनायास
प्यारा पास से
गुजर जाता है,
उसके पांव
की आवाज कानों
में पड़ जाती
है; बस, फिर
उत्तप्त होती
है अग्नि, फिर
प्राण धू-धू
कर जलते हैं!
इसको
ठीक शब्द
उपयोग किया है
वाजिद ने; गांव के
ग्रामीण आदमी
हैं।
जब तें कीनो
गौन भौन
नहिं भावही।
अब
कुछ ठीक नहीं
लगता है।
थरथराता
है अब तलक खुर्शीद
सामने
तेरे आ गया
होगा
यह
सूरज अभी भी
कंप रहा है; पता नहीं कब
परमात्मा के
सामने आ गया
होगा, इसीलिए
थरथराता है।
थरथराता
है अब तलक खुर्शीद
सामने
तेरे आ गया
होगा
ऐसा ही
भक्त फिर थरथराता
है। उसे
रोमांच होता
रहता है। उसके
भीतर अहर्निश
पुकार उठती
रहती है, एक
ही पुकार--कि
जो अभी बूंद
की तरह मिला
है, वह अब
पूर्ण की तरह
मिल जाए! जो
अभी एक घूंट पीया है, उससे सरोबोर
होने की
आकांक्षा
जगती है।
लज्जते-बाकी
को ऐ जौके-फना!
रहने भी दे
कुछ
तो बह्रे-इम्तियाजे-जानो-जानां
चाहिए
एक-दो
चुल्लू में
बुझती है कहीं
रिन्दों
की प्यास
हर
निगाहे-मस्ते-साकी
सागरस्तां
चाहिए
आर्जू-ओ-शौक
तो है
अंजुमन-दर-अंजुमन
अब तिरा
जल्वा
गुलिस्तां-दर-गुलिस्तां
चाहिए
एक-दो
घूंट से कहीं
प्यास बुझी
है! और बढ़ जाती
है, और जग
जाती है, और
प्रज्वलित हो
जाती है।
एक-दो
चुल्लू में
बुझती है कहीं
रिन्दों
की प्यास
हर
निगाहे-मस्ते-साकी
सागरस्तां
चाहिए
अब तो
हर निगाह तेरी
ही निगाह हो
जाए, हर निगाह
से तेरी ही
शराब का सागर
बहने लगे, तब
मिले तृप्ति
तो शायद मिले।
एक
दो चुल्लू से
बुझती है कहीं
रिन्दों
की प्यास
हर
निगाहे-मस्ते-साकी
सागरस्तां
चाहिए
आर्जू-ओ-शौक
तो है
अंजुमन-दर-अंजुमन
अब तिरा
जल्वा
गुलिस्तां-दर-गुलिस्तां
चाहिए
अब तो
हर बगीचे
में, हर बाग
में, हर
चहक में, हर
पुलक में, सब
ओर तेरा ही
जल्वा हो, तेरा
ही उत्सव हो, तब कुछ बात
बने तो बने।
पहले तो आदमी
मांगता है, एक बूंद मिल
जाए। जब बूंद
मिल जाती है, जब स्वाद लग
जाता है, तब
मांगता है कि
अब सागर से कम
में काम न
चलेगा, अब
तू पूरा मिले,
पूरा-पूरा
मिले तो ही
काम चले!
जब तें कीनो
गौन भौन
नहिं भावही।
भई छमासी रैण
नींद नहिं आवही।।
मीत
तुम्हारी चीत
रहत है जीव कूं।
हरि
हां, वाजिद,
वो दिन कैसो
होइ मिलौं
हरि पीव कूं।।
अब
तो बस एक ही
धुन बजती है, एक ही राग छिड़ा
है।
भई छमासी रैण
नींद नहिं आवही।।
अब
कैसी नींद! अब
तो रात ऐसी हो
गई जैसे छह
महीने लंबी
हो! अब तो रात
काटे नहीं
कटती।
साधारण
आदमी इतना
परेशान नहीं होता, चले जाता है
जिंदगी में
धक्के खाते, रास्ते के
किनारे कंकड़
बीनते, क्योंकि
कंकड़ उसे
हीरे-जवाहरात
मालूम होते
हैं। और
छोटी-छोटी
सफलताएं हैं,
तहसीलदार
से एस. डी. ओ. हो
गया, एस. डी.
ओ. से कलेक्टर
हो गया, कलेक्टर
से कमिश्नर हो
गया, छोटी-छोटी
सफलताएं हैं।
और सोचता है
मंजिल करीब आ
रही है। चलता
जाता है मस्ती
में, चलता
जाता है
अहंकार की
तृप्ति में।
कहीं जा नहीं
रहा है, कोल्हू
का बैल है, न
कहीं जाने
वाला है, न
कहीं पहुंचने
वाला है।
कोल्हू का बैल
कहीं पहुंचता
थोड़े ही है, चलता दिन-भर
है। सोचता वह
भी होगा कि अब
मंजिल करीब आई,
अब मंजिल
करीब आई।
मंजिल कैसे
आएगी, गोल
चाक में घूम
रहा है! मंजिल
आनी कहां है, वहीं-वहीं
घूम रहा है!
इसलिए कोल्हू
के बैल की आंख
पर पट्टियां
बांध देते हैं,
ताकि उसे
दिखाई न पड़े।
उसे दिखाई पड़
जाए तो शायद
ठहर जाए, रुक
जाए।
मैंने
सुना है, एक
दार्शनिक, एक
तार्किक, एक
महापंडित
सुबह-सुबह तेल
खरीदने तेली
की दुकान पर
गया। विचारक
था, दार्शनिक
था, तार्किक
था, जब तक
तेली ने तेल
तौला, उसके
मन में यह
सवाल उठा--उस
तेली के पीछे
ही कोल्हू का
बैल चल रहा है,
तेल पेरा जा
रहा है--न तो
उसे कोई चलाने
वाला है, न
कोई उसे हांक
रहा है, फिर
यह बैल रुक
क्यों नहीं
जाता? फिर
यह क्यों
कोल्हू पर तेल
पेरे जा
रहा है? जिज्ञासा
उठी, उसने
तेली से पूछा
कि भाई मेरे, यह राज मुझे
समझाओ। न कोई हांकता, न कोई
कोल्हू के बैल
के पीछे पड़ा
है, यह
दिन-रात चलता
ही रहता, चलता
ही रहता, रुकता
भी नहीं!
उस
तेली ने कहा:
जरा गौर से
देखो, उपाय
किया गया है, उसकी आंख पर पट्टियां
बंधी हैं।
जैसे
तांगे में
चलने वाले
घोड़े की आंख
पर पट्टियां
बांध देते हैं, ताकि उसे
सिर्फ सामने
दिखाई पड़े।
इधर-उधर दिखाई
पड़े तो झंझट
हो, रास्ते
के किनारे घास
उगा है तो वह
घास की तरफ जाने
लगे, इस
रास्ते की तरफ
नदी की धार बह
रही है तो वह
पानी पीने
जाने लगे। उसे
कहीं कुछ नहीं
दिखाई पड़ता, उसे सिर्फ
सामने रास्ता
दिखाई पड़ता
है।
कोल्हू
के बैल की आंख
पर पट्टियां
बांधी हुई हैं, उस तेली ने
कहा। विचारक
तो विचारक, उसने कहा: वह
तो मैंने देखा
कि उसकी वजह
से उसे पता
नहीं चलता कि
गोल-गोल घूम
रहा है।
ऐसे ही
आदमी की आंख
पर पट्टियां
हैं--संस्कारों
की, सभ्यताओं
की, संप्रदायों
की, सिद्धांतों
की, शास्त्रों
की। बचपन से
ही हम पट्टियां
बांधनी
शुरू कर देते
हैं। हमारी
शिक्षा और कुछ
भी नहीं है, आंखों पर पट्टियां
बांधने का
उपाय
है--महत्वाकांक्षा
की पट्टियां,
कुछ होकर
मरना। जैसे
कोई कभी कुछ
होकर यहां मरा
है!
प्रधानमंत्री
बनकर मरना।
जैसे कि प्रधानमंत्री
बनकर मरोगे तो
मौत कुछ
तुम्हारे साथ भिन्न
व्यवहार
करेगी, कि
फिर तुम्हारी
मिट्टी मिट्टी
में नहीं
गिरेगी और
सोना हो जाएगी!
कुछ धन छोड़कर
मरना। जैसे धन
छोड़कर मरने
वाला किसी
स्वर्ग में
प्रवेश कर
जाएगा! कुछ
करके, नाम कमाकर
मरना।
तुम्हीं मर गए,
तुम्हारा
नाम कितनी देर
टिकेगा! कितने
लोग आए और
कितने लोग गए,
क्या नाम
टिकता है, किसका
नाम टिकता है!
सब पुंछ जाते
हैं। समय की रेत
पर पड़े हुए
चरण-चिह्न
कितनी देर तक
बने रहेंगे? हवा के
झोंके आएंगे
और पुंछ
जाएंगे। और
हवा के झोंके
न भी आए तो
दूसरे लोग भी
इसी रेत पर
चलेंगे, उनके
पैरों के
चिह्न कहां
बनेंगे, अगर
तुम्हारे
चिह्न बने
रहे!
तो बड़े
से बड़े नामवर
लोग होते हैं
और मिटते चले
जाते हैं, और उनके नाम
भूलते चले
जाते हैं। सब
धूल में समा
जाते हैं।
इतिहास के
पन्नों में
कहीं-कहीं
पाद-टिप्पणियों
में छोटी-मोटी
जगह नाम छूट
जाएगा। मगर
उसका भी क्या
मूल्य है!
इतिहास की
किताबें भी खो
जाती हैं, जल
जाती हैं, जला
दी जाती हैं।
आदमी कितनी
सदियों से जी
रहा है, इतिहास
तो हमारे पास
केवल दो हजार
साल का है। और जैसे-जैसे
इतिहास लंबा
होता जाएगा, पुराना
इतिहास छोटा
होता जाएगा, क्योंकि नए
को याद करें
कि पुराने को!
इसका क्या
मूल्य है? अनंत
काल में इसका
क्या मूल्य है?
मगर आंख पर पट्टियां
बांध देते
हैं! प्रथम
होकर बताना, छोटे बच्चे
को कहते हैं।
जहर डालते है
उसमें! राजनीति
भरते हैं उसके
प्राणों में।
उस
विचारक ने
कहा: पट्टियां
तो मुझे दिखाई
पड़ती हैं, ठीक वैसे ही
जैसे हर आदमी
की आंख पर पट्टियां
बंधी हैं। मगर
फिर भी मैं यह
पूछता हूं कि पट्टियां
तो बंधी हैं, कोई हांक तो
नहीं रहा है, यह चलता
क्यों है? रुक
क्यों नहीं
जाता? और
तेरी तो पीठ
है इसकी तरफ।
उसने कहा: जरा
गौर से देखो, मैंने इसके
गले में एक
घंटी बांध दी
है। जब तक इसकी
घंटी बजती
रहती है, मैं
समझता हूं कि
बैल चल रहा
है। जैसे ही
इसकी घंटी
बजना रुकती है,
उछलकर मैं जाकर
इसको हांक
देता हूं।
इसको कभी पता
नहीं चल पाता
कि हांकने
वाला पीछे है
कि नहीं। इधर
घंटी रुकी और
मैंने हांका।
यह कोड़ा
देखते हो बगल
में रखा है, यहीं
बैठे-बैठे
फटकार देता
हूं तो भी यह
चल पड़ता है।
विचारक
तो विचारक, उसने कहा: यह
भी मैं समझा।
घंटी भी सुनाई
पड़ रही है
मुझे। यह भी
तूने खूब
तरकीब की!
लेकिन मैं यह
पूछता हूं कि
यह बैल खड़ा
होकर और गला
हिलाकर घंटी
तो बजा सकता
है! तेली ने
कहा:
धीरे-धीरे!
आहिस्ता बोलो,
कहीं बैल
सुन ले तो
मेरी मुसीबत
हो जाए। तुम जल्दी
अपना तेल लो
और रास्ते पर
लगो। बैल न
सुन ले कहीं
तुम्हारी
बात। यह बैल
इतना तार्किक
नहीं है। बैल
सीधा-सादा बैल
है। यह कोई
दार्शनिक
नहीं है, यह
इतना गणित
नहीं बिठा
सकता कि खड़े
होकर गला हिलाने
लगे। यह तो
सिर्फ चालबाज
आदमी ही कर सकता
है!
साधारण
आदमी तो
कोल्हू का बैल
है, चलता
जाता है। उसकी
आंखों पर पट्टियां
बंधी हैं! उसे
ठीक-ठीक दिखाई
नहीं पड़ता कि
गोल घेरे में
चल रहा है, नहीं
तो रुक जाए।
तुम वही करते
हो सुबह रोज, वही दोपहर, वही सांझ, वही रात, जो
तुम सदा करते
रहे हो।
तुम्हें कभी
ख्याल में आया
कि तुम एक
वर्तुल में
घूम रहे हो? वही क्रोध, वही काम, वही
लोभ, वही
मोह, वही
अहंकार। तुम्हारे
सुख और
तुम्हारे दुख,
सब पुराने
हैं। वही तो
तुम कितनी बार
कर चुके हो, और उन्हीं
की तुम फिर
मांग करते हो,
फिर-फिर!
तुम गोल
वर्तुल में
घूम रहे हो और
सोचते हो
तुम्हारी
जिंदगी
यात्रा है?
जरा एक
वर्ष का अपना
हिसाब तो लगाओ, जरा डायरी
तो लिखनी शुरू
करो कि मैं
रोज-रोज क्या
करता हूं। और
चार-छह महीने
में तुम खुद
ही चकित हो
जाओगे। यह
जिंदगी तो कोल्हू
के बैल की
जिंदगी है! यह
तो मैं रोज ही
रोज करता हूं:
वही झगड़ा,
वही फसाद, फिर वही
दोस्ती, फिर
वही दुश्मनी।
तुम्हारे
संबंध, तुम्हारा
जीवन, तुम्हारे
रंग-ढंग, सब
वर्तुलाकार
हैं। इसलिए
तुम्हारी
जिंदगी में
कोई निष्कर्ष
आने वाला नहीं
है। तुम कहीं
पहुंचोगे नहीं।
तुम चलते-चलते
मर जाओगे, और
फिर किसी गर्भ
में पैदा होकर
चलने लगोगे।
इसलिए
हमने इस
वर्तुलाकार
चक्कर का ही
नाम संसार
दिया है।
संसार शब्द का
अर्थ होता है:
चाक, जो चाक की
तरह घूमता
रहे! तुम्हारी
जिंदगी एक चाक
की तरह घूम
रही है। इसलिए
ज्ञानी पूछते
हैं: इस आवागमन
से छुटकारा
कैसे हो? इस
चाक से हमारा
छुटकारा कैसे
हो? यह जो
संसार का चक्र
है, जिसमें
हम उलझ गए हैं,
इसको हम
कैसे छोड़ें?
कठिनाई
तो तब शुरू
होती है, जब
तुम्हारी
जिंदगी में
थोड़ी-सी झलक
मिलती है राह
की। आंख
तुम्हारी
थोड़ी-सी खुलती
है, तुम्हारी
पट्टी थोड़ी-सी
सरकती है आंख
पर बंधी, तुममें
थोड़ा होश आता
है। क्योंकि
तुम्हारे गले
में भी घंटियां
बंधी हैं और घंटियां
बजती रहती
हैं।
तुमने
कभी ख्याल
नहीं किया
होगा, तुम्हारे
गले में भी घंटियां
बंधी हैं। जरा
ही घंटी बजनी
बंद हुई कि
कोई कोड़ा
फटकारता है!
समझो कि तुम
एक महीना बीत
गया और पहली
तारीख को घर
तनख्वाह लेकर
न आए, पत्नी
ने कोड़ा
फटकारा! वह
घंटी है! वह
गले में बंधी
है। कि बजाई
नहीं तुमने, क्या मामला
है? तनख्वाह
कहां है? कहां
गंवाकर आ
गए! महीने-भर
कहां रहे? क्या
किया? तुम्हारे
गले में भी घंटियां
बंधी हैं। अगर
तुम जरा
ऐसा-वैसा किए,
समाज की
धारणा के
प्रतिकूल किए,
कि बस कोड़ा
किसी ने
फटकारा, किसी
ने तुम्हें
मुसीबत में
डाला।
मेरे
पास लोग आते
हैं, वे कहते
हैं: संन्यास
तो लेने की
बड़ी आतुरता है,
मगर गैरिक
वस्त्र पहनकर
गांव में
जाएंगे तो बड़ी
मुसीबत होगी।
मुसीबत
क्या होगी? लोग कोड़े
फटकारेंगे।
लोग कहेंगे, यह तुम्हें
क्या हो गया!
लोग चाहते हैं
तुम ठीक वैसे
रहो जैसे वे
हैं, जरा
भी भिन्न
नहीं। तुम जरा
ही भिन्न हुए
कि वे सब
बेचैन हो जाते
हैं। उनकी बेचैनी
का कारण क्या
है? उनकी
बेचैनी का
कारण यह है कि
तुम वर्तुल से
बाहर होने की
कोशिश कर रहे
हो! हम सब
कोल्हू के बैल
बने, और
तुम मुक्त
होने की
चेष्टा में
लगे, चलो
वापिस! उनकी
बर्दाश्त के
बाहर हो जाता
है। यह
बर्दाश्त
नहीं किया जा
सकता कि हमारे
ही जैसे
हड्डी-मांस के
आदमी तुम, इतना
साहस दिखला
रहे हो!
तुम्हें मजा चखाकर
रहेंगे।
तुम्हें
वापिस कोल्हू
में जोतकर
रहेंगे!
जब भी
कोई एक
व्यक्ति
गुलामों में
से मुक्त होने
लगे तो सबसे
ज्यादा नाराज
बाकी गुलाम
होते हैं। जब
कोई गरीब आदमी
अमीर होने लगे
तो सबसे ज्यादा
नाराज उसके
आसपास के गरीब
होते हैं।
क्योंकि उनके
अहंकार को चोट
लगती है, उन्हें
पीड़ा होती है
कि हम न कर पाए
और यह आदमी कर
रहा है! हम से न
हो सका तो हम
कमजोर, तो
हम नपुंसक, और यह आदमी
पुरुषार्थ
दिखला रहा है!
इस बात को स्वीकार
नहीं किया जा
सकता। इस आदमी
को पाठ पढ़ाना
ही पड़ेगा।
और फिर
उनकी भीड़ है, वह तुम्हें
पाठ पढ़ाना
शुरू कर देती
है। उसने कोड़े
फटकारने शुरू
किए! तुम्हें
घंटी बजानी
पड़ेगी! जैसे
सबकी घंटी बज
रही है, वैसे
तुम्हारी भी
बजनी चाहिए।
और जैसे सब
गोल वर्तुल
में घूम रहे
हैं, वैसे
ही तुम्हें भी
घूमना चाहिए।
समाज ने हर
बात का हिसाब
कर रखा है।
छोटी-छोटी बात
का! तुम्हारे
बाल कैसे कटना
चाहिए, यह
भी समाज ने
हिसाब कर रखा
है। उतनी भी
तुम्हें
स्वतंत्रता
नहीं है! उतनी
भी तुम्हें
स्वतंत्रता
नहीं है।
तुम्हें कपड़े
कैसे पहनना चाहिए,
वह भी समाज
ने इंतजाम कर
रखा है। कपड़े
पहनने तक की तुम्हें
आजादी नहीं
है! और आजादी
की बातें चलती
हैं, बड़ी
बातें चलती
हैं--ऐसी
आजादी, वैसी
आजादी। और तुम
चौबीस घंटे
गुलाम हो। कहां
की आजादी!
आजादी सिर्फ
एक थोथा शब्द
है, जिसको
हम दोहराते
रहते हैं
तोतों की तरह;
और बहुत दिन
दोहराने के
कारण खुद ही
भरोसा कर लेते
हैं कि जरूर
आजादी होगी, क्योंकि सभी
लोग
आजादी-आजादी
की बात कर रहे
हैं। आजादी
कहां है? तुम
जरा-सा भिन्न
होकर देखो!
इस
पृथ्वी पर
आजादी उस दिन
होगी, जिस
दिन हम
व्यक्ति को
भिन्न होने की
स्वतंत्रता
देंगे।
तुम्हारे
सारे साथी अगर
मस्जिद जाते
हैं, तुम
जरा मंदिर जाकर
देखो।
यहां
कुछ मुसलमान
मित्रों ने
संन्यास ले
लिया। उनकी
बड़ी मुसीबत हो
गई। बाकी
मुसलमान उनको मार
डालने की धमकी
देते हैं, जिंदा न
रहने देंगे।
तुम काफिर हो
गए! उन्होंने
कुछ बुरा नहीं
किया है, किसी
की हत्या नहीं
की है, किसी
की चोरी नहीं
की है, किसी
को धोखा नहीं
दिया है, सिर्फ
संन्यास लिया
है। और
संन्यास लेने
से न कोई
हिंदू होता, न कोई
मुसलमान होता,
न कोई ईसाई
होता।
संन्यास से तो
सिर्फ उन्होंने
एक दृढ़ किया
है निश्चय
अपने मन में
कि उनमनि
मुद्रा को धारेंगे,
ध्यान में
प्रवेश
करेंगे। उससे
किसी का नुकसान
नहीं हो रहा
है।
अब यह
बड़े आश्चर्य
की बात है, चोरी करो तो
समाज तुम्हें
स्वीकार कर
लेता है, कोई
हर्जा नहीं, क्योंकि वे
सब चोर हैं।
बेईमानी करो
तो भी ठीक है, झूठ बोलो तो
भी चलेगा।
लेकिन ध्यान,
संन्यास--नहीं
चलने दिया
जाएगा। हां, सब मस्जिद
जाते हैं, तुम
भी मस्जिद
जाओ। और सब
गुरुद्वारा
जाते हैं, तो
तुम भी
गुरुद्वारा
जाओ।
मुझे
पंजाब से पत्र
आते हैं सिक्ख
संन्यासियों
के कि हम बड़ी
मुसीबत में
हैं, क्योंकि
बाकी सिक्ख
हमें
बर्दाश्त
नहीं करते।
हमने उनका कुछ
बिगाड़ा
नहीं है। हम
ठीक वैसे के
वैसे हैं। हम
पहले से बेहतर
हो गए हैं। अब
हम
गुरुद्वारा
जाते हैं तो
हमारा
गुरुद्वारा
जाना सप्राण
है। अब हम
गुरुद्वारे
में एक आनंदमग्न
भाव को उपलब्ध
होते हैं। मगर
गैरिक वस्त्र
कष्ट दे रहे
हैं! माला
क्यों? तो
तुम सिक्ख
नहीं रहे!
हिंदू
की कठिनाई है, जैन की
कठिनाई है। सब
भीड़ें
अपने किसी
व्यक्ति को पंजे
के बाहर नहीं
होने देना
चाहतीं। तुम
पंजे के बाहर
हुए कि अड़चन
शुरू हुई। भीड़
तुम्हें घेर
लेगी कि वापस लौटो।
जैसे हम सब
हैं, वैसे
ही रहो।
छोटी-छोटी बात
पर नियम
हैं--बाल कितने
काटो, कैसे
काटो, कपड़े
कैसे पहनो, कैसे
उठो-बैठो। तुम
अपनी जिंदगी
को जरा विचार करना
कि तुम्हारी
स्वतंत्रता
कितनी है? और
तुम
पाओगे--नकार
है
स्वतंत्रता
के नाम पर, कोई
स्वतंत्रता
नहीं है।
जिंदगी
में हम ऐसे ही
जीते रहते
हैं। हमें पता
भी नहीं चलता
कि जिंदगी
क्या होने के
लिए थी! जिंदगी
क्या हो सकती
थी! जिंदगी
कैसा सौभाग्य
अपने में लिए
थी! यह तो पता
उन्हें ही
चलता है, जिन्हें
थोड़ी झलक
मिलनी शुरू
होती है। मगर
झलक के साथ एक
आनंद भी आता
है स्वतंत्र
होने का और एक
अड़चन भी आती
है। एक आनंद
भी आता है कि
प्रभु के निकट
होने लगे और
एक महत पीड़ा
भी आती है कि अब
बूंद से मन
नहीं भरता।
जब तें कीनो
गौन भौन
नहिं भावही।
भई छमासी रैण
नींद नहिं आवही।।
मीत
तुम्हारी चीत
रहत है जीव कूं।
अब एक
ही चिंता लगी
है, एक ही
चित्त में सतत
धार लगी है, एक ही स्मरण,
एक ही
ध्यान--प्यारे
का, मीत, मित्र का।
मीत
तुम्हारी चीत
रहत है जीव कूं।
बस
तुम्हारे में
ही ध्यान लगा
है--और मिलो, और मिलो, पूरे
मिलो!
जब तक
तुम्हें
परमात्मा की
कोई किरण नहीं
मिली, तब तक
तुम अपनी
अमावस की रात
में भी चले जा
रहे हो, तुम्हें
बोध भी नहीं
है। किरण
मिलेगी, प्रभात
की पहली किरण,
तब तुम्हें
याद पड़ेगा कि
कैसे अंधेरे
में जीए! और अब
प्रकाश की बड़ी
आकांक्षा
जगेगी, अभीप्सा
जगेगी।
इसीलिए लोग
सत्संग में
आने से डरते
हैं, भयभीत
होते हैं। भय
क्या है? भय
यही है कि
कहीं कोई किरण
न दिखाई पड़
जाए, अन्यथा
फिर हम कैसे
जीएंगे। फिर
किरण की तलाश शुरू
करनी पड़ेगी।
हरि
हां, वाजिद,
वो दिन कैसो
होइ मिलौं
हरि पीव कूं।।
अब तो
बस एक ही गूंज उठती
रहती है कि वह
दिन कैसा होगा, वह दिन कब
होगा, जब
पूरा का पूरा
मिलन हो
जाएगा। जरा-सी
झलक दे गए थे, जरा-सा
झोंका खुला था,
जरा-सी हवा
आई थी
तुम्हारी, और
ऐसे आनंदमग्न
कर गई है!
वहां
पीछे मेरे एक
संन्यासी, एडवोकेट
गोरे, बैठे
हैं। पुराने
समाज-सेवी
हैं। एक मिनिस्टर
को मिलने दो
दिन पहले गए, पुराने
मित्र हैं
मिनिस्टर के।
मिनिस्टर ने पूछा
कि आपको
संन्यास लेने
से क्या मिला?
और उन्हें
कुछ मिला है, उनकी जिंदगी
रूपांतरित हो
गई है। वृद्ध
हैं, लेकिन
जवानों की
मस्ती फीकी पड़
जाए इतने मस्त
हैं! तो
उन्होंने कहा:
मस्ती मिली, आनंद मिला।
और मिनिस्टर
ने क्या कहा? कि
मस्ती-आनंद
ठीक है, मस्ती-आनंद
से धर्म का
क्या संबंध? मैं पूछता
हूं, तुम्हें
मिला क्या
संन्यास से? पता नहीं, मिनिस्टर
सोचता है कि
अगर
मिनिस्टरी
मिलती तो कुछ
मिलता, कि
प्रधानमंत्री
हो जाते देश
के तो कुछ
मिलता! मिला
क्या? मस्ती
मिली, आनंद
मिला, यह
तो ठीक है।
जैसे मस्ती और
आनंद कोई चीज
ही नहीं! शायद
सोचते हों: धन
मिला? पद
मिला? प्रतिष्ठा
मिली?
लोग
भूल ही गए हैं
कि इस जीवन का
सबसे बड़ा धन
आनंद है। और
उन्होंने कहा
कि आनंद का
धर्म से क्या
संबंध? मस्ती
का क्या संबंध?
ये कोई धर्म
हैं!
धर्म
का किस बात से
संबंध
है--रामायण पढ़
लेने से? गीता
दोहरा लेने से?
अगर
रामायण पढ़
लेने से धर्म
का संबंध है, तो तो
फिर तोते भी
धार्मिक हो
जाएंगे!
रामायण से संबंध
नहीं है धर्म
का। और अगर
रामायण से कभी
संबंध जुड़ता
है धर्म का तो
तभी जुड़ता
है, जब
रामायण पढ़ने
से किसी को
मस्ती मिलती
है। तुलसीदास
का वचन है: स्वांतः
सुखाय
रघुनाथ गाथा।
जब भीतर सुख
का झरना फूट
पड़ता है, स्वांतः सुखाय, मस्ती छा
जाती है।
रोएं-रोएं में
शराब आ जाती है,
एक सुरूर आ
जाता है।
गोरे
ने ठीक कहा:
मस्ती मिली।
लेकिन शायद
मिनिस्टर
सोचता हो, गणेश जी के
दर्शन हुए?
गणेश
जी के दर्शन
से क्या होगा? गणेश जी मिल
भी जाएं तो
करोगे क्या? महाराष्ट्रियन मिनिस्टर
हैं, जरूर
गणेश जी का
दर्शन सोचते
होंगे कि गणेश
जी के दर्शन
हुए? नहीं
हुए; यह
कोई धर्म है।
स्वर्ग में
कोई सीट
रिजर्व हुई? नहीं हुई; यह कोई धर्म
है!
कोल्हू
के बैल! अगर
कोल्हू का कोई
बैल छूट जाए, मुक्त हो
जाए, जंगल
का सौंदर्य
मिल जाए उसे, मस्त होकर
नाचे जंगलों
में, स्वतंत्रता
से आचरण करे, विचरण करे, और फिर लौट
आए कोल्हू के
बैलों के पास।
तो वे पूछेंगे:
मिला क्या? घास मिलता
है? घंटी
बजती है? सोने
की घंटी मिली?
अच्छा
मालिक मिला? मिला क्या? और वह अगर
बैल
कहे--मस्ती
मिली, स्वतंत्रता
मिली, आनंद
मिला; तो
कोल्हू के बैल
कहेंगे: इससे
क्या मतलब है?
इसका करोगे
क्या? घंटी
कहां है सोने
की? कोई
मालिक मिला
ऐसा, गणेश
जी जैसा! पाया
क्या है तुमने?
अंधे
लोगों की अंधी
दुनिया है।
अगर तुम्हें
परमात्मा भी
मिल जाए, तो
भी वे
परमात्मा से
राजी न होंगे।
वे तुमसे कुछ
अंधेरे की बात
पूछेंगे। वे
तुमसे कुछ पूछेंगे,
जिसको वे
संपदा समझते
हैं, वह
मिला कि नहीं
मिला। इस कारण
इस देश की
सरकार मुझे
धार्मिक
मानने को राजी
नहीं है, और
यहां जो घट
रहा है यह
धर्म नहीं है।
क्योंकि
मस्ती, आनंद,
यह कैसा
धर्म? धर्म
के नाम पर तो
लोगों की
मस्ती खो जाती
है। वे उदास
हो जाते हैं, जराजीर्ण हो
जाते हैं, सूख
जाते हैं।
मुस्कुराहट
उनकी विलीन हो
जाती है। जीवन
का नृत्य सदा
के लिए उनका
साथ छोड़ देता
है। जब वे
मुर्दों की
भांति बैठ
जाते हैं, तब
लोग उनको कहते
हैं--ये
धार्मिक
व्यक्ति!
मीत
तुम्हारी चीत
रहत है जीव कूं।
हरि
हां, वाजिद,
वो दिन कैसो
होइ मिलौं
हरि पीव कूं।।
वह दिन
बड़ी मस्ती का
दिन होगा। वह
दिन बड़े आनंद
का दिन होगा।
गोरे ने ठीक
कहा।
कहिए
सुणिए
राम और नहिं
चित्त रे।
कहता
हूं तो राम, सुनता हूं
तो राम।
...और
नहीं चित्त
रे।
और
कहीं मेरा
ध्यान नहीं
जाता।
हरि-चरणन को
ध्यान सु धरिए
नित्त
रे।।
और
तुमसे भी मैं
यही कहता हूं, वाजिद कहते
हैं कि बस हरि
के चरणों में
ही चित्त को
लगा दो...नित्त
हरि के चरणों
में लगा दो।
जीव
विलंब्या
पीव दुहाई राम
की।
और
वाजिद कहते
हैं, मैं तो रम
गया राम में।
लेकिन यह
भक्तों की सदा
की घोषणा
रही--दुहाई
राम की। इसमें
मेरी कोई पात्रता
नहीं है, इसमें
मेरा कोई गुण
नहीं है।
दुहाई राम की!
राम की कृपा!
मैं तो अपात्र
था, मुझे
छुआ और पात्र
बना दिया। मैं
तो मिट्टी था,
मुझे देखा
और अमृत कर
दिया। मैं तो
लोहा था, आए
पारस पत्थर की
तरह, दिया
दरस-परस, हो
गया स्वर्ण!
दुहाई राम की!
भक्त कभी
क्षण-भर को भी
यह ख्याल नहीं
लाता कि मेरे
कारण जीवन में
कुछ हो रहा है
या हो सकता
है। जो होता
है उसकी
अनुकंपा से
होता है। उसकी
अनुकंपा अपार
है। मेरी
अपात्रता
अपार है, उसकी
अनुकंपा अपार
है। मेरा
अंधेरा भयंकर
है, मगर
उसकी रोशनी
कैसे भी
अंधेरे को
तोड़ने में समर्थ
है।
जीव
विलंब्या
पीव दुहाई राम
की।
मैं
अगर प्यारे
में रम गया
हूं तो दुहाई
राम की!
हरि
हां, सुख-संपति
वाजिद कहो किस
काम की।।
और अब
न सुख में कोई
मूल्य है, न संपत्ति
में कोई मूल्य
है। अब वे
सारे सुख और संपत्तियां,
आंखों की पट्टियां
और गले की घंटियां
हो गए! अब उनका
कोई मूल्य
नहीं है।
तुमहि बिलोकत नैण भई हूं
बावरी।
तुम्हें
ही
देखते-देखते
एक पागलपन छा
गया है, एक
बेहोशी आ गई
है।
तुमहि बिलोकत नैण भई हूं
बावरी।
और जब
तक तुम पागल
ही न हो उठो
देखते-देखते
परमात्मा को, तब तक रुकना
मत। पागल होना
ही पूर्णता
है। बावरा हो
जाना ही पूर्ण
आहुति है!
न सोजे-गम
को समझा और न दर्दे-दिल
को पहचाना
कहां
दुनिया ने हुस्नो-इश्क
की महफिल को
पहचाना
रहा
ना-आश्नां
जिनका
तसव्वुर
रहनुमाओं से
उन्हीं
गमगुश्तगाने-शौक
ने मंजिल को
पहचाना
मजाले-हक-शनासी
है यहां किसको, मगर वाइज!
तुझे
देखा तो हर अंदेशाए-बातिल
को पहचाना
हमें
पहचान लो, ऐ रहरवाने
वादिए-उल्फत!
कि
हमने नक्शपाए-रहबरे-कामिल
को पहचाना
जिसने
भक्त की पीड़ा
को नहीं समझा, जिसने भक्त
के रुदन को
नहीं समझा, जिसने प्रेम
की जलन को
नहीं समझा, आग को नहीं
समझा, उसने
कुछ भी नहीं
समझा।
न सोजे-गम को
समझा और न दर्दे-दिल
को पहचाना
कहां
दुनिया ने हुस्नो-इश्क
की महफिल को
पहचाना
यह
भक्त की
दुनिया तो
हुस्न की और
इश्क की दुनिया
है। हुस्न
यानी उस
प्यारे का
सौंदर्य, और
इश्क यानी
भक्त के हृदय
में जलती हुई
आग।
न सोजे-गम को
समझा और न दर्दे-दिल
को पहचाना
कहां
दुनिया ने हुस्नो-इश्क
की महफिल को
पहचाना
इसलिए
दुनिया हुस्न
और इश्क की
महफिल को नहीं
पहचान पाती
है। तुम भी
हुस्न और इश्क
की महफिल में
बैठे हो, दुनिया
तुम्हें नहीं
पहचान पाएगी।
मैं यहां दीवाने
पैदा कर रहा
हूं, दुनिया
तुम्हें नहीं
पहचान पाएगी।
रहा
ना-आश्नां
जिनका
तसव्वुर
रहनुमाओं से
उन्हीं
गमगुश्तगाने-शौक
ने मंजिल को
पहचाना
वे ही
लोग पहुंचे
हैं मंजिल तक, जो दीवाने
हैं, पागल
हैं! इतने पागल
हैं कि
शास्त्र भी
छोड़ दिए
उन्होंने, शास्ता
भी छोड़ दिए
उन्होंने।
पथ-प्रदर्शकों
की भी न सुनी।
चल पड़े अपने
प्रेम की
ज्योति से, अपने प्रेम
की आग से ही चल
पड़े।
रहा
ना-आश्नां
जिनका
तसव्वुर
रहनुमाओं से
नेताओं
के पीछे जो
नहीं चले, रहनुमाओं के
पीछे जो नहीं
चले, जो
अपरिचित ही
रहे नेताओं
से।
रहा
ना-आश्नां
जिनका
तसव्वुर
रहनुमाओं से
उन्हीं
गमगुश्तगाने-शौक
ने मंजिल को
पहचाना
उन्हीं
भूले-भटके
प्रेमियों ने, उन्हीं
पागलों ने
मंजिल को
पहचाना है, वे ही मंजिल
तक पहुंचे
हैं।
मजाले-हक-शनासी
है यहां किसको, मगर वाइज!
तुझे
देखा तो हर अंदेशाए-बातिल
को पहचाना
और अगर
तुम देखोगे
तथाकथित
त्यागियों, साधु-संन्यासियों
को, तो
ज्यादा से
ज्यादा
तुम्हें जो
दिखाई पड़ेगा,
वह इतना ही
दिखाई
पड़ेगा--हिसाब-किताब,
गणित, होशियारी,
चालाकी, सौदा,
दुकानदारी।
जिनको तुम
तथाकथित रूप
से त्यागी और
महात्मा समझते
हो, वे अगर
त्याग भी कर
रहे हैं तो एक
सौदे की तरह! परमात्मा
से कुछ पाना
है, तो
स्वभावतः
उसकी कीमत
चुका रहे हैं,
अपने को
पात्र बना रहे
हैं।
तुझे
देखा तो हर अंदेशाए-बातिल
को पहचाना
हमें
पहचान लो, ऐ रहरवाने
वादिए-उल्फत!
प्रेमी
कहते हैं, पहचानना हो
तो हमें पहचान
लो, हमें
देख लो।
हमें
पहचान लो, ऐ रहरवाने
वादिए-उल्फत!
कि
हमने नक्शपाए-रहबरे-कामिल
को पहचाना
कि
हमने
परमात्मा के
चरण-चिह्न
पहचाने हैं। मगर
वे चरण-चिह्न
उन्हीं को
दिखाई पड़ते
हैं, जो पागल
होने की
क्षमता रखते
हैं।
तुमहि बिलोकत नैण भई हूं
बावरी।
झोरी
डंड भभूत पगन
दोउ पांवरी।।
लगा ली
है भभूत
तुम्हारे ही
प्रेम की।
झोली ले ली है
तुम्हारी ही
आकांक्षा की।
पैरों में खड़ाऊं
डाल ली हैं, तुम्हारी
खोज के लिए चल
पड़ी हूं हाथ
में डंडा लेकर।
झोरी
डंड भभूत पगन
दोउ पांवरी।।
कर जोगण को
भेष सकल जग डोलिहूं।
और
प्रेमिका बनकर, विरहिणी
बनकर, जोगन
बनकर...।
कर जोगण को
भेष सकल जग डोलिहूं।
सारे
जगत में डोलूंगी।
वाजिद, ऐसो मेरो
नेम राम मुख बोलिहूं।।
मगर एक
कसम खा ली है
कि तुमसे
मिलकर रहूंगी, तुमसे बोलकर
रहूंगी।
तुमसे
आमना-सामना
करके रहूंगी।
तुम्हारे गले
में बांहें
डालकर
रहूंगी। एक
अर्थ! और
दूसरा
अर्थ--वाजिद
ऐसो मेरो
नेम राम मुख बोलिहूं--कि
अपने मुंह से
सिवाय
तुम्हारे नाम
के कुछ भी न बोलूंगी।
भटकती रहूंगी
सारे संसार
में, पुकारती
रहूंगी
तुम्हें ही और
तुम्हें ही। पी-कहां!
पी-कहां! जैसा
पपीहा
पुकारता और
टेरता, ऐसी
दीवानी होकर
तुम्हें
टेरती हुई
घूमूंगी।
उन्हें
नकाब उठाना भी
हो गया
दुश्वार
कुछ
इस तरह से
निगाहों ने इज्दहाम
किया
रहेत्तलब
में कहां इम्तियाजे-दैरो-हरम
जहां
किसी ने सदा
दी, वहीं
कयाम किया
दिले-रविश
को तेरे
इंतजार ने ऐ
दोस्त!
चिरागे-सुबह
किया आफताबे-शाम
किया
उन्हें
नकाब उठाना भी
हो गया
दुश्वार
कुछ
इस तरह से
निगाहों ने इज्दहाम
किया
भक्त
आंख ही आंख हो
जाता है। उसके
सारे शरीर पर
आंखें ही
आंखें उग आती
हैं! क्योंकि
उसकी दर्शन की
आतुरता ऐसी
है। आंखों की
भीड़ इकट्ठी हो
जाती है। उसका
सारा जीवन आंख
ही आंख बन
जाता है!
उन्हें
नकाब उठाना भी
हो गया
दुश्वार
और जब
इतनी आंखों की
भीड़ प्रेमी पर
पड़ेगी, प्रेयसी
पर पड़ेगी, तो
नकाब उठाना भी
मुश्किल हो
जाएगा।
उन्हें
नकाब उठाना भी
हो गया
दुश्वार
कुछ
इस तरह से
निगाहों ने इज्दहाम
किया
रहेत्तलब
में कहां इम्तियाजे-दैरो-हरम
प्यारे
की तलाश में
कहां खबर रही मंदिरों
की और मस्जिदों
की। भूल गए
काबा और
कैलाश!
रहेत्तलब
में कहां इम्तियाजे-दैरो-हरम
जहां
किसी ने सदा
दी, वहीं
कयाम किया
और
जहां किसी ने
उसका नाम लिया, वहीं झुक
गए। जहां उसकी
याद आ गई, वहीं
झुक गए, वहीं
पवित्र-स्थल आ
गया, वहीं
काबा हो गया।
जहां माथा
टेका, वहीं
काबा हो गया; जहां पूजा
की, वहीं
काशी हो गई।
दिले-रविश
को तेरे
इंतजार ने ऐ
दोस्त!
चिरागे-सुबह
किया आफताबे-शाम
किया
हर घड़ी
उसी की याद
में हो जाए।
हो जाती है। उनमनि
मुद्रा से
शुरू करो, चित्त को
शून्य करने से
शुरू करो।
चित्त की शून्यता
में अपने-आप
उसकी पुकार
उठने लगती है,
उसका नाद
गूंजने लगता
है।
सूर
कमल वाजिद न
सुपने मेल है।
जरै
द्यौस अरु रैण
कड़ाई तेल है।।
हमही
में सब खोट
दोष नहिं स्याम
कूं।
हरि
हां, वाजिद,
ऊंच नीच सों
बंधे कहो किहि
काम कूं।।
सूर
कमल वाजिद न
सुपने मेल है।
सूर्य
और कमल जब तक
मिलें नहीं, तब तक कमल
खिलता नहीं।
लेकिन हमारी
हालत ऐसी है, वाजिद कहते
हैं, जैसे
सूरज का और
कमल का मेल न
हो, सपने
में भी मेल न
हो। इसलिए हम
खिल नहीं पाते,
क्योंकि
तुम्हारा
सूरज रोशनी
नहीं बरसाता।
सूर
कमल वाजिद न
सुपने मेल है।
हमारी
हालत ऐसी हो
गई है, जैसे
कमल को सपने
में भी सूरज न
मिले। सपने
में भी तुम
मिल जाओ तो हम
खिल जाएं।
झूठे भी तुम
मिल जाओ तो हम
खिल जाएं। मगर
तुम मिलो तो
ही खिलें।
ख्याल रखना, भक्त की
सारी
जीवन-व्यवस्था
उसके प्रसाद
पर है! जैसे
सूरज उगे तो
कमल खिले!
जरै
द्यौस अरु रैण
कड़ाई तेल है।।
और जब
तक तुम न मिलो, तब तक दिन भी
हम जल रहे हैं,
रात भी हम
जल रहे हैं।
हमारी जिंदगी
ऐसी हो गई है, जैसे कोई
तिल में से
तेल निचोड़
रहा हो। हमारी
जिंदगी निचुड़
रही है, हम पीसे जा
रहे हैं!
जरै
द्यौस अरु रैण
कड़ाई तेल है।।
हमही
में सब खोट
दोष नहिं स्याम
कूं।
और
जानते हैं हम, शिकायत नहीं
कर रहे हैं।
हमही
में सब खोट...
अगर
कुछ भूल है तो
हमारी है।
हमही
में सब खोट
दोष नहिं स्याम
कूं।
तुम्हारा
कोई कसूर नहीं
है। हमारी खोट
क्या है? हमारी
खोट यह है--
हरि
हां, वाजिद,
ऊंच नीच सों
बंधे कहो किहि
काम कूं।।
हम
ऊंचे-नीचे की
भावना से बंधे
हैं, यही
हमारी खोट है।
यहां न कोई
ऊंचा है ,न
कोई नीचा; न
कोई ब्राह्मण,
न कोई शूद्र;
न कोई हिंदू,
न कोई
मुसलमान; न
कोई पुरुष, न कोई
स्त्री। ये सब
ऊपर के खेल
हैं। न कोई
धनी, न कोई
गरीब; न
कोई सफल, न
कोई असफल--ये
सब ऊपर के खेल
हैं। भीतर तो
एक ही विराजा
है। और भीतर हम
सब उसी एक से
जुड़े हैं, संयुक्त
हैं। इसलिए
जितने हमने
भेद कर लिए हैं
खड़े, उन्हीं
भेदों के कारण
परमात्मा से
हमारा सपने
में भी मेल
असंभव हो गया
है। और जब तक न
मिले परमात्मा,
जब तक उसका
सूरज न उगे, तब तक हमारा
कमल खिलेगा
नहीं।
फर्क
ख्याल रखना!
योगी, तपस्वी
कोशिश करता है
अपने सहस्रदल
कमल को खिला
लेने की--अपने
ही बल से, अपने
ही संकल्प से।
भक्त कहता है: ऊगोगे तुम,
होगी
प्रभात, खिलेगा
कमल, मेरे
किए क्या
होगा! मुझमें
तो खोट ही खोट
भरी हैं। और
बड़ी से बड़ी
खोट तो यह है
कि मैं भेद से
मुक्त नहीं हो
पाता, मुझे
भेद दिखाई ही
पड़ता रहता है।
किसी को देखता
हूं सुंदर, किसी को
कुरूप। किसी
को देखता हूं
बुद्धिमान, किसी को
बुद्धू। किसी
को देखता हूं
अच्छा, किसी
को देखता हूं
बुरा।
जरा
समझना, खोट
बड़ी
महत्वपूर्ण पकड़ी है
वाजिद ने।
हमारे जीवन
में हमने भेद
कर रखे हैं--भेद
पर भेद, भेदों
में भेद, पर्त-पर्त
भेद समा गए
हैं! कब तुम देखोगे
अभेद से? कब
तुम्हें
सिर्फ वही
दिखाई पड़ेगा?
कब तुम भूलोगे
सुंदर-असुंदर,
बुद्धि-अबुद्धि
के भेद? कब
तुम देखोगे
एक ही चैतन्य,
एक ही जीवन
का प्रसार? कब तुम
छोटी-छोटी
लहरों के
अंतरों से
बचोगे और एक
ही सागर को
सबके भीतर
समाया देखोगे?
जिस
दिन यह घटना
घट
जाएगी--अभेद, अद्वैत, उसी
क्षण सूरज उग
आएगा। सूरज
उगा ही हुआ है,
भेद ने
तुम्हारी
आंखों पर
पर्दा डाल
दिया है। मगर
कितने भेद
हमने खड़े कर
रखे हैं!
कितने भेद हमने
खड़े कर रखे
हैं, अगर
हम अपने भेदों
का हिसाब
लगाएं तो बड़ी
आश्चर्यजनक
अवस्था है!
इस देश
में, जिसको
धार्मिक होने
की भ्रांति है,
इतने भेद
हैं जितने
दुनिया के
किसी दूसरे
देश में नहीं
हैं। और
धार्मिक होने
की भ्रांति है
इस देश को! अगर
भेद इतने हैं,
तो सबूत है
कि तुम
धार्मिक नहीं
हो--भेद खबर दे रहा
है। अद्वैत की
बातें चल रही
हैं!
शंकर
के जीवन में
उल्लेख है कि
शंकर
सुबह-सुबह नहाकर
ब्रह्ममुहूर्त
में काशी के
गंगा-घाट पर सीढ़ियां
चढ़ रहे हैं, कि एक शूद्र
ने उन्हें छू
लिया। नाराज
हो गए, क्रुद्ध
हो गए, कहा
कि देखकर नहीं
चलते हो? आंख
नहीं है? मुझ
ब्राह्मण को
छू लिया! अब
मुझे फिर स्नान
करने जाना
पड़ेगा। शूद्र
ने जो कहा, लगता
है जैसे स्वयं
परमात्मा
शूद्र के रूप
में आकर शंकर
को जगाया
होगा। शूद्र
ने कहा: एक बात पूछूं? तुम
तो अद्वैत की
बात करते
हो--एक ही
परमात्मा है,
दूसरा है ही
नहीं। तो तुम
अलग, मैं
अलग?
शंकर ठिठके
होंगे। बड़ी
चोट पड़ी होगी।
बड़े-बड़े
विवादों में
जीते थे।
शास्त्रार्थ
में बड़े
प्रवीण थे।
दिग्विजय की
थी पूरे देश
की। आकर हारना
पड़ेगा इस
शूद्र से, यह कभी सोचा
भी न होगा।
मगर बात तो
चोट की थी। सुबह
के उस सन्नाटे
में, एकांत
घाट पर, शंकर
को कांटे की
तरह चुभ
गई। बात तो सच
थी--अगर एक ही परमात्मा
है, तो कौन
शूद्र, कौन
ब्राह्मण!
फिर उस
शूद्र ने कहा:
मेरे शरीर ने
तुम्हें छुआ
है, तो मेरे
शरीर में और
तुम्हारे
शरीर में कुछ
भेद है? खून
वही, मांस
वही, हड्डी
वही। तुम भी
मिट्टी से बने,
मैं भी
मिट्टी से
बना। मैं भी
मिट्टी में
गिर जाऊंगा,
तुम भी गिर जाओगे।
अगर मेरे शरीर
ने तुम्हारे
शरीर को छू लिया,
तो
अपवित्रता
क्या हो गई? मिट्टी मिट्टी
को छुए, इसमें
क्या
अपवित्रता है?
और अगर तुम
सोचते कि मेरी
आत्मा ने
तुम्हारी आत्मा
को छू लिया, तो क्या
आत्मा भी
पवित्र और
अपवित्र होती
है?
कहानी
कहती है, शंकर
उसके चरणों पर
झुक गए। इसके
पहले कि उठें,
शूद्र
तिरोहित हो
गया था। बहुत
खोजा घाट पर, बहुत दौड़े, कुछ पता न चल
सका। जैसे
परमात्मा ने
ही शंकर को
बोध दिया हो
कि बहुत हो
चुकी बकवास
माया और ब्रह्म
की, जागोगे
कब? बातें
ही करते रहोगे
अभेद की और सब
तरह के भेद पालते
रहोगे? जीओगे
भेद में, और
बातें करोगे
अभेद की? शंकर
की सब
दिग्विजय
व्यर्थ हो गई।
वे जो सब जीतें
थीं, हारें सिद्ध हो
गईं; और यह
जो हार हुई
शूद्र से, यही
जीत बनी। इसी
घटना ने उनके
जीवन को
रूपांतरित
किया। अब वे
केवल
दार्शनिक
नहीं थे, अब
केवल बात की
ही बात न थी, अब जीवन में
उनके एक नया
अनुभव
आया--नहीं कोई
भिन्न है, नहीं
कोई भिन्न हो
सकता है।
हरि
हां, वाजिद,
ऊंच नीच सों
बंधे कहो किहि
काम कूं।।
हम ही
बंधे हैं
ऊंच-नीच से, इसलिए तेरा
सूरज नहीं
उगता। भेद से
बंधे हैं, अभेद
का सूरज उगे
तो कैसे उगे? सब हमारी
खोट है।
मिलेगा तू, तो दुहाई
राम की।
भूखे
भोजन देह उघारे
कापरो।
तू
ही भूखे को
भोजन देता, नंगे को कपड़ा
देता।
खाय धणी को लूण
जाय कहां बापरो।।
मैं
तेरा ही तो
नमक खाता हूं, सब तरह से
तेरा नमक खाता
हूं। मैं तुझे
छोड़कर जाऊं तो
जाऊं कहां? और जिनको यह
भ्रांति है कि
वे अपना खा
रहे हैं, वे
गलती में हैं।
भूखे
भोजन देह उघारे
कापरो।
खाय धणी को लूण
जाय कहां बापरो।।
भली-बुरी
वाजिद सबै
ही सहेंगे।
तू
ही देने वाला
है, तो
भली दे तो, बुरी
दे तो, सभी सहेंगे।
हरि
हां, दरगह को दरवेश
यहां ही
रहेंगे।।
लेकिन
तेरे द्वार को
छोड़ेंगे
नहीं। हटाए
कितना ही, धक्के मारे
कितना ही, यहीं
रहेंगे। तेरा
द्वार नहीं छोड़ेंगे।
असफलता तो
असफलता, पीड़ा
तो पीड़ा, दुर्दिन
आएं तो भी
ठीक। मगर तू
ही देने वाला
है। तेरे हाथ
से जो भी आता
है, वह
मेरे लिए
सुदिन है, सौभाग्य
है। अगर तू
दुर्भाग्य भी
देता है, तो
जरूर उसमें
छिपा हुआ सौभाग्य
होगा।
हर्फ-शिकबा की
नारसाई तक
लुत्फ
था
शिकवा-ओ-शिकायत
का
शबे-महताब
हो कि
सुबहे-बहार
पैरहन
है तेरी लताफत
का
अब तो
पता चल गया! जब
तक पता नहीं
था, शिकायत
थी, अब तो
पता चल गया!
शबे-महताब
हो कि
सुबहे-बहार
रात
चांदनी हो छाई
आकाश में!
शबे-महताब
हो कि सुबहे-बहार
कि
फिर सुबह की
ठंडी हवा हो।
पैरहन
है तेरी लताफत
का
सब
तेरे ही
वस्त्र हैं।
तू ही रात पहन
लेता है चांदनी
का वस्त्र, तू ही सुबह
पहन लेता है
सुबह की ताजी
हवा का वस्त्र।
कभी दुख, कभी
सुख; कभी
वसंत, कभी पतझड़। मगर
तू ही है। अब
तेरे
वस्त्रों के
धोखे में हम न
आएंगे। अब
हमने तुझे देख
लिया है, अब
तू किसी भी
शकल में आ, हम
पहचान लेंगे।
मंसूर
को जब सूली
लगी, वह हंसने
लगा। किसी ने
भीड़ में से
पूछा, भीड़
में से किसी
ने पूछा कि
मंसूर हंसते
क्यों हो? उसने
कहा: मैं
इसलिए हंस रहा
हूं कि वह
फांसी की शकल
में आया, लेकिन
फिर भी मैं
उसे पहचान गया
हूं! वह मौत
बनकर आया है, लेकिन मुझे
धोखा न दे
पाएगा। मंसूर
हंसा, और
उसने आकाश की
तरफ देखकर कहा
कि कर तुझे जो
करना है, लेकिन
तू मुझे अब
धोखा न दे
पाएगा! मैं
तुझे इस शकल
में भी
पहचानता हूं।
भली-बुरी
वाजिद सबै
ही सहेंगे।
हरि
हां, दरगह को दरवेश
यहां ही
रहेंगे।।
यहीं
रहेंगे, आ गए मुकाम
पर!
जौकेऱ्यकीं
ने कुफ्र को ईमां बना
दिया
जिस
दर पै सर झुका
दरे-जानां
बना दिया
हुस्ने-खुलूसे-लगजिशे-आदम
तो देखिए
वीरानिए-जहां
को गुलिस्तां
बना दिया
क्या
आईने का जिक्र
है, उस
खुश जमाल ने
जिस
पर निगाह की
उसे हैरां
बना दिया
उस
राज को जो कल्बे-अजल
में न छुप सका
आखिर
अमानते-दिले-इन्सां
बना दिया
जौकेऱ्यकीं
ने कुफ्र को ईमां बना
दिया
जब
श्रद्धा पैदा
होती है तो
अधर्म भी धर्म
हो जाता है, दुख भी सुख
हो जाता है, मृत्यु भी महाजीवन
का द्वार हो
जाती है।
जौकेऱ्यकीं
ने कुफ्र को ईमां बना
दिया
जिस
दर पै सर झुका
दरे-जानां
बना दिया
सिर
झुकाना सीख
लो!
जिस
दर पै सर झुका
दरे-जानां
बना दिया
फिर
जहां सिर झुक
जाएगा, वहीं
प्यारे का घर
हो जाएगा। फिर
मंदिर जाने की
जरूरत नहीं है,
मंदिर
तुम्हारे साथ डोलेंगे।
जहां बैठ
जाओगे मस्त
होकर, वहीं
मंदिर बन
जाएगा। जहां
सिर झुका, वहीं
मस्जिद हो
जाएगी। जहां
तुम गीत गा
दोगे, वहीं
तीर्थ! जहां
तुम्हारे चरण
पड़ेंगे मस्ती के,
नाच के, नृत्य
के, वही
भूमि पवित्र
हो जाएगी।
जिस
दर पै सर झुका
दरे-जानां
बना दिया
हुस्ने-खुलूसे-लगजिशे-आदम
तो देखिए
वीरानिए-जहां
को गुलिस्तां
बना दिया
एक बार
झलक उसकी पड़
जाए आंखों में, फिर पतझड़
भी बहार है!
वीरानिए-जहां
को गुलिस्तां
बना दिया
फिर तो
वीरान भी
बगीचा बन जाता
है, मरुस्थल
मरूद्यान बन
जाता है।
क्या
आईने का जिक्र
है, उस
खुश जमाल ने
जिस
पर निगाह की
उसे हैरां
बना दिया
एक बार
उसकी आंख
तुम्हारी आंख
पर पड़ जाए; फिर चकित हो
उठोगे, अवाक
हो उठोगे, आश्चर्य
से ही भरे
रहोगे।
प्रतिपल, प्रति-श्वास
आश्चर्य की
श्वास होगी।
और जो
आश्चर्य-विमुग्ध
जीता है, वही
भक्त है! जो
आश्चर्य में
जीता है, वही
भक्त है।
भरोसा ही नहीं
आता! अपनी
पात्रता
देखता है तो
लगता है--नर्क
में होना
चाहिए था
मुझे! राम की
दुहाई देखता
है, स्वर्ग
में विराजमान
है! भरोसा ही
नहीं आता, विश्वास
ही नहीं बैठता
कि मुझ अपात्र
पर और इतनी
वर्षा प्रसाद
की!
उस
राज को जो कल्बे-अजल
में न छुप सका
जो
सारे विश्व के
भीतर भी नहीं
छुप पाता है
राज और रहस्य।
आखिर
अमानते-दिले-इन्सां
बना दिया
उसे
मेरे दिल के
भीतर अमानत की
तरह रख दिया।
उस रहस्य को, उस
आश्चर्यचकित
करने वाले
रहस्य को मेरी
संपदा बना
दिया।
हरिजन
बैठा होय तहां
चल जाइए।
जहां
कोई हरिजन
बैठा हो, जहां
कोई प्रभु का
प्यारा बैठा
हो, जहां
उसकी मस्ती
में कोई गीत
गा रहा हो, जहां
उसके भजन में
कोई झुका हो, जहां उसकी
मौज-मस्ती में
कोई नाचता
हो...।
हरिजन
बैठा होय तहां
चल जाइए।
चूकना
मत वह मौका, उसके पास
चले जाना।
उसकी गंध लेना,
उसका
प्रकाश पीना,
उसके रस में
डूबना, नहाना--यही
सत्संग है। और
सत्संग सरोवर
है, और जो
उस सरोवर में
उतर जाए उसे
भक्ति का स्नान
उपलब्ध होता
है!
हरिजन
बैठा होय तहां
चल जाइए।
हिरदै उपजै
ग्यान रामगुण
गाइए।।
बैठो
उनके पास जो
हरि के प्यारे
हो गए हैं, और तुम
पाओगे--अचानक
हृदय में उठने
लगा ज्ञान।
राम का गुण
तुम्हारे
भीतर भी फूटने
लगा, राम
के गीत
तुम्हारे
भीतर भी जगने
लगे।
परिहरिए
वह ठाम भगति
नहिं राम की।
बिना
राम की भगति
के, उस मंजिल
को न कोई
पहुंचा है, न कोई पहुंच
सकता है।
हरि
हां, वाजिद,
बीन विहूणी
जान कहौ
किस काम की।।
और
बिना प्यारे
के नववधू का
क्या मूल्य है? विहूणी--नई-नई वधू, और उसका
प्यारा उसे खो
जाए, और
प्रीतम न मिले,
तो
प्रियतमा का
क्या मूल्य
है!
हरि
हां, वाजिद,
बीन विहूणी
जान कहो किस
काम की।।
बिना
प्रीतम के
प्यारी का
क्या अर्थ!
तुम्हारे
जीवन में भी
अगर अर्थ नहीं
है तो एक ही
बात समझना, इसलिए नहीं
अर्थ नहीं है
कि तुम्हारे
पास धन कम है; क्योंकि
जिनके पास धन
बहुत है, उनके
जीवन में भी
अर्थ नहीं है।
जिनके पास बड़े
पद हैं, उनके
जीवन इतने ही
व्यर्थ हैं
जितने
तुम्हारे। इस
जगत की कोई
चीज जीवन में
अर्थ नहीं
देती। क्या
होगा अर्थ, अगर वधू को
हम
हीरे-जवाहरातों
से लाद दें और
उसका प्यारा
उसे कभी मिले
न! हम वधू को
स्वर्ण-सिंहासन
पर बिठाल
दें, और
उसका प्यारा
उसे कभी मिले
न--क्या होगा
अर्थ! न हों
हीरे, न
हों जवाहरात,
न हों
स्वर्ण-शिखर,
लेकिन
प्यारा मिल
जाए--सब मिल
गया।
परमात्मा के
मिलने में ही
जीवन में अर्थ
का उदय है, जीवन
में गरिमा है,
महिमा है।
लेकिन
परमात्मा के
मिलन पर ही!
और
आदमी जैसा जी
रहा है
अर्थहीन और
बड़ी चेष्टा
करता है कि
किसी तरह जीवन
में थोड़ा अर्थ
आ जाए, व्यर्थता
मिट जाए, मगर
मिटती नहीं।
इस सदी में
मनुष्य को
जितनी व्यर्थता
का अनुभव हो
रहा है, कभी
नहीं हुआ था।
क्योंकि इस
सदी का परमात्मा
से जितना
संबंध टूट गया
है, इतना
कभी न टूटा
था। वाजिद
जैसे लोग होने
कम हो गए। ये महफिलें
अब नहीं सजतीं,
ये सत्संग
अब नहीं होते।
अब तो हालतें
बदल गईं!
महात्मा
गांधी ने तो
अछूतों को
"हरिजन' का
नाम दे दिया।
अब हरिजन की
जो महिमा थी, वह कहां रही!
हरिजन हम उनको
कहते थे, जिन्होंने
परमात्मा को
पा लिया है, जो उसके
हैं। अब तो
"हरिजन' शब्द
सुनकर जो
ख्याल आता है,
वह ख्याल
आता है अछूतों
का।
अछूत
मिटने चाहिए, लेकिन अछूत
हरिजन नहीं
हैं यह मैं
तुमसे कहना चाहता
हूं। यह तो
सिर्फ व्यर्थ
की बकवास है! ब्राह्मण
सोचता था कि वह
ब्रह्मज्ञान
को उपलब्ध है
इसलिए
ब्राह्मण है;
वह उसकी मूढ़ता
थी। उस मूढ़ता
को उत्तर देने
के लिए गांधी
ने दूसरी मूढ़ता
की। उन्होंने
हरिजन कह दिया
अछूत को। न तो
ब्राह्मण
ब्रह्म को
उपलब्ध हुआ है,
क्योंकि
ब्राह्मण-कुल
में पैदा होने
से कोई ब्राह्मण
नहीं होता, न ब्राह्मण-कुल
को उपलब्ध
होता है, न
ब्रह्मज्ञान
को उपलब्ध
होता है।
उद्दालक
ने अपने बेटे
श्वेतकेतु को
कहा था--जब वह
लौटा
ब्रह्मविद्या
की शिक्षा
पूरी करके, वेदों को
कंठस्थ
करके--तो
उद्दालक ने
अपने बेटे को
कहा था कि
तूने वह भी
जाना या नहीं,
वह एक, जिसको
जानने से सब
जान लिया जाता
है? श्वेतकेतु
ने कहा: कौन-सा
एक? मैंने
चारों वेद
जाने, मैंने
सारे उपनिषद
जाने, मैंने
सब शास्त्र पढ़े, मगर
आप किस एक की
बात कर रहे
हैं?
उद्दालक
उदास हो गया, उसने कहा:
बेटा तू वापिस
जा, अभी
तूने जो जाना,
वह जानकारी
है। उस एक को
जानकर आ, जिसको
जान लेने से
कोई सभी जानने
के पार हो
जाता है। और
मैं तुझे याद
दिला दूं कि
हमारे कुल में
नाममात्र के
ब्राह्मण
नहीं होते रहे
हैं, हमारे
कुल में
वस्तुतः
ब्राह्मण
होते रहे हैं।
पूछा
श्वेतकेतु ने:
क्या अर्थ है
वस्तुतः ब्राह्मण
का? तो
उसने कहा: जो
ब्रह्म को जान
ले, वह
ब्राह्मण।
बुद्ध
ने भी यही कहा
कि जो ब्रह्म
को जान ले, वही
ब्राह्मण।
महावीर
ने भी यही कहा:
जो ब्रह्म को
जान ले, वही
ब्राह्मण।
ब्राह्मण
घर में पैदा
होने से कोई
ब्राह्मण नहीं
होता। यह एक मूढ़ता की
बात चल रही है
कि ब्राह्मण
घर में पैदा
हो गए तो
ब्राह्मण हो
गए! इस मूढ़ता
का उत्तर
गांधी ने
दूसरी मूढ़ता
से दिया कि
अछूत हरिजन
हैं। भंगी के
घर में पैदा
होने से कोई
हरिजन नहीं हो
जाता। "हरिजन' बड़ा
बहुमूल्य
शब्द है; इसे
मत लथेड़ो!
हां, अछूत
मिटना चाहिए;
लेकिन एक
बीमारी को
दूसरी बीमारी
से नहीं मिटाया
जा सकता, और
एक
अतिशयोक्ति
को दूसरी
अतिशयोक्ति
से नहीं मिटाया
जा सकता। न तो
ब्राह्मण ब्राह्मण
है, न
हरिजन हरिजन
है। दोनों
आदमी हैं।
ब्राह्मण से
ब्राह्मण शब्द
छीन लो, हरिजन
से हरिजन शब्द
छीन लो, दोनों
को आदमी रहने
दो। हां, जिस
दिन वे
जागेंगे और
परमात्मा को
जानेंगे, उस
दिन फिर उनको
ब्राह्मण कहो
या हरिजन कहो,
एक अर्थ ही
होता है।
हरिजन
बड़ा प्यारा
शब्द है, उसे
खराब कर दिया!
उसे राजनीति
की गंदगी में
घसीट दिया।
हरिजन
बैठा होय तहां
चल जाइए।
हिरदै उपजै
ग्यान रामगुण
गाइए।।
परिहरिए
वह ठाम भगति
नहिं राम की।
बिना
इसके, बिना
सत्संग के, बिना किसी
हरिजन का साथ
जोड़े, बिना
राम की भगति
के जगे
नहीं पहुंच
पाओगे। न ही
तुम्हारे
जीवन में कोई
अर्थ होगा, न ही कोई
सुगंध होगी, न ही कोई गीत
होगा।
हरि
हां, वाजिद,
बीन विहूणी
जान कहौ
किस काम की।।
तब तक
तुम ऐसे ही हो
जैसे प्यारे
के बिना उसकी प्रियतमा।
तुम्हारा
जीवन एक
मरुस्थल है।
खोजो पिया को! पुकारो
पिया को!
आज
इतना ही
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