सूत्र:
64—छींक
के आरंभ में, भय में,
चिंता में,
खाई—खड्ढ
के
कगार पर,
युद्ध से
भागने पर,
अत्यंत
कुतूहल में,
भूख
के आरंभ में
और भूख के अंत
में, सत्त
बोध रखो।
65—अन्य
देशनाओं के
लिए जो
शुद्धता है वह
हमारे
लिए
अशुद्धता ही
है। वस्तुत:
किसी को भी
शुद्ध या
अशुद्ध
की तरह मत
जानो।
जीवन एक
विरोधाभास है।
निकट आने के
लिए तुम्हें
दूर की यात्रा
पर जाना पड़ता
है,
और जो पाया
ही हुआ है उसे
फिर पाना पड़ता
है।
कुछ
भी नष्ट नहीं
होता है।
मनुष्य सहज ही
बना रहता है; मनुष्य
शुद्ध ही बना
रहता है, मनुष्य
निर्दोष ही
बना रहता है।
इतनी सी बात
है कि वह भूल
गया है। न
शुद्धता नष्ट
होती है, न
निर्दोषता
नष्ट होती है।
बस, प्रगाढ़
विस्मरण हो
गया है। जो
पाना है वह
तुम हो ही; असल
में कुछ नया
नहीं खोजना है,
केवल उसे
उघाड़ना है, आविष्कृत
करना है, जो
है ही।
इससे
ही
आध्यात्मिक
साधना दोनों
है,
कठिन भी है
और सरल भी है।
मैं दोनों
कहता हूं। अगर
तुम समझ सको
तो यह बहुत
सरल है, आसान
है। लेकिन यह
बहुत कठिन भी
है, क्योंकि
तुम्हें उसे
समझना है जिसे
तुम बिलकुल
भूल गए हो और
जो इतना
स्पष्ट है कि
तुम कभी उसके
प्रति
होशपूर्ण
नहीं होते। यह
ठीक तुम्हारी
श्वास की
भांति है—जो
निरंतर, अबाध
चलती रहती है।
लेकिन चूकि
श्वास निरंतर
और अबाध चलती
रहती है, इसलिए
तुम्हें उसे
जानना जरूरी
नहीं है, उसके
लिए तुम्हारा
बोध जरूरी
नहीं है, बोध
उसकी
बुनियादी
जरूरत नहीं है।
तुम चाहो तो
उसके प्रति
बोधपूर्ण हो
सकते हो; यह
चुनाव की बात
है।
संसार
और निर्वाण दो
चीजें नहीं
हैं;
वे केवल दो
दृष्टियां
हैं, दो
विकल्प हैं।
तुम दोनों में
से किसी को भी
चुन सकते हो।
एक दृष्टि के
कारण तुम
संसार में हो।
और अगर दृष्टि
बदल जाए तो
वही संसार
निर्वाण हो
जाता है, वही
संसार
परमानंद बन
जाता है। तुम
वही रहते हो, संसार वही
रहता है; सिर्फ
दृष्टि और
परिप्रेक्ष्य
के बदलने की, चुनाव के
बदलने की बात
है। यह बिलकुल
आसान है।
एक
बार वह परम
आनंद उपलब्ध
हो जाए तो तुम
हंसोगे। एक
बार उसे जान
लिया जाए तो
तुम्हें
आश्चर्य होगा
कि मैं इसे
चूक कैसे रहा
था! वह तो सदा
से था, सिर्फ
देखे जाने की
प्रतीक्षा
में था; वह
तुम्हारा ही
था। बुद्ध
हंसते हैं।
कोई भी, जिसे
भी बुद्धत्व
उपलब्ध होता
है, हंसता
है; क्योंकि
पूरी बात
हास्यास्पद
लगती है। तुम
उसे खोज रहे
थे जो कभी
खोया नहीं था।
सारा प्रयत्न
बेतुका मालूम
पड़ता है।
लेकिन यह
अनुभव तभी
होता है जब
तुम पहुंच जाते
हो। इसलिए जो
ज्ञानोपलब्ध
हो जाते है वे
कहते है कि यह
बहुत सरल है।
लेकिन जिन्होंने
अभी नहीं पाया
है वे कहते
हैं कि यह बात
सबसे कठिन ही
नहीं, असंभव
है।
स्मरण
रहे,
जिन
विधियों की हम
यहां चर्चा
करेंगे वे
उनके द्वारा कही
गई हैं
जिन्होंने पा
लिया है। वे
बहुत सरल
मालूम पड़ेगी,
और वे सरल
ही हैं। लेकिन
हमारे मन को
इतनी सरल
चीजें नहीं
जंचती हैं।
यदि विधियां
इतनी सरल हैं
और मंजिल इतनी
निकट है कि
तुम वहीं हो, यदि सच ही
विधियां इतनी
सरल हैं और घर
पास ही है, तो
तुम अपनी ही
नजरों में
हास्यास्पद
मालूम पड़ोगे।
तो प्रश्न
उठेगा कि फिर
तुम उसे चूक
क्यों रहे हो?
अपने
अहंकार की
मूढ़ता को
समझने की बजाय
तुम सोचोगे कि
इतनी सरल
विधियां किसी
काम की नहीं
हैं।
यही
विडंबना है, धोखाधड़ी
है। तुम्हारा
मन कहेगा कि
इतने सरल उपाय
किसी काम के
नहीं हो सकते;
ये इतने सरल
हैं कि इनसे
कुछ नहीं हो
सकता। परम
सत्ता को और
पूर्ण तत्व को
प्राप्त करने के
लिए इतने सरल
उपाय कैसे
किसी काम के
हो सकते हैं? कैसे कारगर
हो सकते हैं? तुम्हारा
अहंकार कहेगा
कि ये किसी
काम के नहीं
हैं।
दूसरी
चीज याद रखने
की यह है कि
अहंकार सदा उस
चीज में उत्सुक
होता है जो
कठिन हो।
क्योंकि जो
कठिन है उसमें
चुनौती होती
है,
और अगर तुम
कठिनाई को हरा
सके तो उससे
तुम्हारा
अहंकार तृप्त
होता है।
अहंकार उसकी
तरफ कभी
आकर्षित नहीं
होता जो सरल
है। कभी नहीं!
अगर तुम अपने
अहंकार को
चुनौती देना
चाहते हो तो
तुम्हें किसी
कठिन चीज का
आयोजन करना
होगा। अगर कोई
चीज सरल है तो
उसमें आकर्षण
नहीं रहता; तुम उसे जीत
भी लो तो
तुम्हारे
अहंकार की
तृप्ति नहीं
होती है। पहली
बात तो अहंकार
कहेगा कि
उसमें जीतने
को कुछ था ही
नहीं, मामला
इतना सरल था।
अहंकार
कठिनाई खोजता
है—कुछ बाधाएं
जो पार की जा
सकें, कोई
शिखर जिस पर
चढ़ा जा सके।
और शिखर जितना
कठिन होगा, तुम्हारा
अहंकार उतना
ही सुख अनुभव
करेगा।
ये
विधियां इतनी
सरल हैं कि
तुम्हारे मन
को नहीं
आकर्षित कर
सकतीं। लेकिन
खयाल रहे, जो
चीज तुम्हारे
अहंकार को आकर्षित
करती है वह
तुम्हारे
आध्यात्मिक
विकास में
सहयोगी नहीं
हो सकती।
तुम्हारे
रूपांतरण में
तो वही चीज
सहयोगी हो सकती
है जो
तुम्हारे
अहंकार को न
जंचे, न
रास आए। लेकिन
यही होता है; अगर कोई
गुरु कहता है
कि यह उपाय
बहुत कठिन है,
दुष्कर है,
जन्मों—जन्मों
करने के बाद
थोड़ी झलक
मिलने की
संभावना है, तो उससे
तुम्हारा
अहंकार बहुत
प्रसन्न होता है।
ये
विधियां इतनी
सरल हैं कि
क्षण में, यहीं
और अभी घटना
घट सकती है।
लेकिन इस बात
से तुम्हारा
अहंकार
अप्रभावित, अछूता रह
जाता है। अगर
मैं कहूं कि
अभी इसी क्षण
तुम्हें वह सब
प्राप्त हो
सकता है जो
किसी भी
मनुष्य के लिए
संभव है, कि
तुम इसी क्षण,
अभी और यहीं,
तत््क्षण
बुद्ध या
क्राइस्ट या
कृष्ण हो सकते
हो, तो यह
बात तुम्हारे
अहंकार को
बिलकुल
प्रभावित
नहीं करेगी, तुम्हारे
अहंकार के साथ
उसका कोई
तालमेल नहीं
बैठेगा। तुम
कहोगे : यह
संभव नहीं है;
मुझे इसकी
खोज में कहीं
और जाना होगा।
और
ये विधियां
इतनी सरल हैं
कि तुम जिस
क्षण चाहो उसी
क्षण वह सब
उपलब्ध कर सकते
हो जो मनुष्य
चेतना के लिए
संभव है। और
जब मैं कहता
हूं कि ये विधियां
सरल हैं तो मेरे
कहने के कई
अर्थ हैं।
पहली बात कि
आध्यात्मिक
विस्फोट किसी
कारण से नहीं
होता; वह
अकारण घटता है।
अगर यह
विस्फोट किसी
कारण से होता
तो उसके लिए
समय की जरूरत
पड़ती, क्योंकि
कार्य—कारण को
घटित. होने के
लिए समय जरूरी
है। और अगर
समय कल के लिए
या अगले जन्म
के लिए इंतजार
करना होगा। तब
आने वाला क्षण
आवश्यक हो
जाएगा। अगर
कोई चीज सकारण
है तो पहले
कारण को घटित
होना होगा और
तब कार्य घटित
होगा। और तुम
कारण के बिना
कार्य को अभी
ही घटित नहीं
करा सकते; उसके
लिए समय जरूरी
होगा। लेकिन
आध्यात्मिक
घटना सकारण
नहीं होती है।
तुम तो उस
अवस्था में हो
ही; सिर्फ
स्मरण करने की
जरूरत है। यह
अकारण घटना है।
यह
ऐसा ही है
जैसे सुबह
किसी ने
तुम्हें
अकस्मात जगा
दिया है, और
तुम्हें पता
नहीं चलता है
कि तुम कहां
हो। क्षण भर
के लिए
तुम्हें पता
नहीं चलता है
कि तुम कौन हो।
गहरी नींद से
अचानक जगाए
जाने पर
तुम्हें स्थान
और समय की
प्रत्यभिज्ञा
नहीं रहती, लेकिन जरा
देर में ही
प्रत्यभिज्ञा
हो जाएगी। तुम
जैसे—जैसे सजग
होंगे वैसे—वैसे
तुम्हें साफ
होगा कि तुम
कौन हो, कि
तुम कहां हो
और तुम्हें
क्या हुआ है।
यह कारण—कार्य
की बात नहीं
है; यह
सिर्फ सजगता
की बात है।
सजगता के बढ़ते
ही तुम जान
लोगे, पहचान
लोगे।
ये
सभी विधियां
सजगता बढ़ाने
की विधियां
हैं। तुम वही
हो जो तुम
होना चाहते हो; तुम
वहीं हो जहां
पहुंचना
चाहते हो। तुम
अपने घर
पहुंचे हुए ही
हो। सच तो यह
है कि तुमने
उसे कभी छोड़ा
ही नहीं, तुम
सदा से वहीं
हो, लेकिन
सपने में खोए
हो और सोए हुए
हो।
तुम
यहां सो जा
सकते हो और
सपना देख सकते
हो,
और सपने में
तुम कहीं भी
जा सकते हो।
तुम अपने सपने
में स्वर्ग—नर्क
की यात्राएं
कर सकते हो।
क्या तुमने
खयाल किया कि
जब भी तुम
सपना देखते हो
तो सपने में
तुम कभी उस
कमरे में नहीं
होते जिसमें
सोए होते हो? यह बिलकुल
निश्चित है।
क्या तुमने
कभी इस बात पर
ध्यान दिया है?
तुम और कहीं
भी हो सकते हो,
लेकिन सपने
में तुम उसी
कमरे में और
उसी खाट पर
नहीं हो सकते जहां
वस्तुत: होते
हो। क्योंकि
तुम वहां हो
ही; इसलिए
उसके संबंध
में स्वप्न
देखने की
जरूरत नहीं
होती। स्वप्न
का अर्थ है कि
तुम यात्रा पर
हो। तुम इस
कमरे में सोए
हो सकते हो; लेकिन तुम
कभी इस कमरे
के बारे में स्वप्न
नहीं देख सकते।
उसकी जरूरत
क्या है? तुम
वहीं हो। मन
उसकी कामना
करता है जो
नहीं है; इसलिए
मन यात्रा
करता है। वह
लंदन और
न्यूयार्क जा
सकता है, कलकत्ता
जा सकता है, हिमालय और
तिब्बत जा सकता
है, कहीं
भी जा सकता है;
लेकिन वह
कभी यहां नहीं
होगा। वह कहीं
भी होगा, लेकिन
यहां नहीं।
और
तुम यहां हो; यह
हकीकत है। तुम
सपने देख रहे
हो और
तुम्हारी
दिव्य सत्ता
यहां है। तुम
वही हो, तत्वमसि!
लेकिन तुम
लंबी यात्रा
पर निकल गए हो।
और प्रत्येक
सपना सपनों की
एक नई
श्रृंखला
निर्मित करता
है। हर सपना
एक नया सपना
पैदा करता है,
और तुम
सपनों में ही
उलझते चले
जाते हो।
ये
सारी विधियां
तुम्हें सजग
बनाने की
विधियां हैं, ताकि
तुम अपने स्वप्नों
से निकलकर वहा
वापस आ जाओ
जहां तुम सदा
से हो, उस
अवस्था में आओ
जिसे तुमने कभी
नहीं खोया है।
और तुम इसे खो
भी नहीं सकते,
यह
तुम्हारा
स्वभाव है; यह तुम्हारा
असली
अस्तित्व है।
तुम इसे खो
कैसे सकते हो?
ये विधियां
तुम्हारी
सजगता को
बढ़ाने की,
उसे त्वरा
आरे तीव्रता
देने की
विधियां है।
बोध की तीव्रता
से पूरी बात
बदल जाती है।
बोध जितना तीव्र
होता है, स्वप्न
की संभावना
उतनी ही कम
होती है; तुम
सत्य के संबंध
में ज्यादा से
ज्यादा सजग हो
जाते हो। और
बजे जितना कम
होता है, तुम
उतने ही
ज्यादा स्वप्नों
में भटकने
लगते हो।
तो
कुल बात इतनी
है कि चित्त
की सोयी दशा
संसार है और
चित्त की सजग
दशा निर्वाण
है। सोए हुए
तुम वह हो जो
तुम दिखाई
पड़ते हो; जागकर
तुम वह हो जो
तुम हो। इसलिए
एकमात्र सवाल
यह है कि कैसे
बेहोश चित्त—दशा
को सजग चित्त—दशा
में बदला जाए
कैसे ज्यादा
बोधपूर्ण हुआ
जाए कैसे नींद
और स्वप्न
से बाहर आया
जाए। इसी कारण
से विधियां
सहयोगी हो
सकती हैं। एक
अलार्म घड़ी भी
सहयोगी हो
सकती है।
बिलकुल
मामूली
अलार्म घड़ी भी
सहयोगी हो
सकती है। अगर
अलार्म घड़ी
बजती ही रहे
तो वह भी
तुम्हें तुम्हारे
स्वप्न से
बाहर लाने में
हाथ बंटा सकती
है।
लेकिन
तुम अलार्म
घड़ी को भी
धोखा दे सकते
हो। तुम उसके
बाबत भी सपना
देख सकते हो, और
तब सारी चीज
व्यर्थ हो
जाती है। जब
अलार्म बजे तो
तुम उसे भी
अपने सपने का
हिस्सा बना ले
सकते हो। तुम स्वप्न
देख सकते हो
कि मैं एक
मंदिर में गया
हूं और मंदिर
की घंटियां बज
रही हैं। अब
तुमने अलार्म
घड़ी को भी
धोखा दे दिया।
वह तुम्हारी
नींद तोड़ सकती
थी; लेकिन
तुम उसे भी स्वप्न
में बदल ले
सकते हो, तुम
उसे भी अपने
सपने का
हिस्सा बना ले
सकते हो।
और
अगर तुमने 'इसे
अपने सपने का
हिस्सा बना
लिया, अगर
यह तुम्हारी स्वप्न—प्रक्रिया
का अंग बन ग,या, तो
फिर यह किसी
काम का न रहा।
तब तुम कोई भी
सपना देख सकते
हो, और
अलार्म घड़ी की
आवाज अलार्म
घड़ी की आवाज
नहीं रहेगी।
वह कुछ और चीज
हो जाएगी।’ तुम मंदिर
में हो और
मंदिर की
घंटियां बज
रही हैं; अब
जागने की
जरूरत नहीं
रही। तुमने
अलार्म को भी,
एक हकीकत को
भी स्वप्न
में बदल दिया।
और एक सपने को
दूसरे सपने से
नहीं तोड़ा जा
सकता; बल्कि
सपना और मजबूत
होता है।
ये
सारी विधियां
एक ढंग से
कृत्रिम
विधियां हैं।
वे तुम्हें
तुम्हारी
नींद की
अवस्था से
बाहर लाने के
उपाय मात्र
हैं। लेकिन
तुम उन्हें भी
अपने स्वप्न
का हिस्सा बना
ले सकते हो।
लेकिन तब तुम
चूक गए। तब
तुम पूरी बात
ही चूक गए। इसे
समझने की
कोशिश करो, क्योंकि
यह बहुत
बुनियादी है। और
इसे समझना
बहुत सहयोगी
होगा; अन्यथा
तुम अपने को
धोखा दिए जा
सकते हो।
उदाहरण
के लिए मैं
तुम्हें कहता
हूं कि संन्यास
में छलांग लो।
वह एक उपाय भर
है। तुम्हारी
पुरानी पहचान
टूट जाती है; तुम्हारा
पुराना नाम ऐसा
हो जाता है
मानो किसी
दूसरे का हो।
तुम अब अपने
अतीत को
ज्यादा
अनासक्त भाव
से देख सकते
हो; तुम अब
साक्षी हो
सकते हो। तुम
अब अलग हो; एक
दूरी निर्मित
हो जाती है।
यह दूरी पैदा
करने के लिए
ही मैं
तुम्हें नया नाम
और नए वस्त्र
देता हूं।
लेकिन तुम इसे
भी अपने सपने
का हिस्सा बना
ले सकते हो।
तब तुम पूरी
बात चूक गए।
तुम पुराने को
ही ढोते रह
सकते हो; तम
सोच सकते हो
कि पुराने
आदमी ने, अ
ने, संन्यास
लिया है। तुम
समझ सकते हो
कि मैने संन्यास
लिया है; और
यह 'मैं' पुराना ही
है। तुम सोच
सकते हो कि
मैंने वस्त्र
बदल लिए हैं, मैंने नाम
बदल लिया है; लेकिन
पुराना 'मैं'
जारी रहता
है।
अब
यह संन्यास भी
पुराने में
जुड़ गया। यह
नया नहीं है; अभी
भी यह अतीत से
जुड़ा है। और
अगर यह जुड़ा
है, अगर
तुमने
संन्यास
पुराने 'मैं'
से लिया है,
अगर तुमने
वस्त्र और नाम
भर बदल लिए
हैं, तो
तुम चूक गए। तुम्हें
मरना होगा; अब तुम
पुराने ही
नहीं बने रह
सकते।
तुम्हें
समझना होगा कि
पुराना मर गया
और यह एक नया
व्यक्ति है
जिसे तुम कभी
नहीं जानते थे,
और संन्यास
पुराने का
विकास नहीं, उससे सर्वथा
अलग बात है।
तब उपाय कारगर
हुआ, तब
अलार्म घड़ी ने
काम किया और
विधि उपयोगी
हुई। तब तुम
समझे।
ये
सारी विधियां
ऐसी हैं कि
तुम उन्हें
उपयोगी बना
सकते हो और
तुम उन्हें
चूक भी सकते
हो। यह तुम पर
निर्भर है।
लेकिन यह बात
ठीक से स्मरण
रहे कि
विधियां विधियां
हैं। अगर तुम
उनके सार को
समझ लो तो तुम
विधि के बिना
भी सजग हो
सकते हो।
उदाहरण के लिए, यह
भी संभव है कि
अलार्म घड़ी की
कोई जरूरत न
पड़े।
इसमें
जरा गहरे उतरी।
तुम्हें
अलार्म घड़ी की
जरूरत क्यों
पड़ती है? अगर
तुम तीन बजे
सुबह उठना
चाहते हो तो
तुम्हें
अलार्म की
क्यों जरूरत
होती है?
क्योंकि
गहरे में तुम
जानते हो कि
तुम अपने को
धोखा दे सकते
हो। गहरे में
तुम जानते हो
कि यदि तुम
सचमुच तीन बजे
उठना चाहते हो
तो तीन बजे उठ
जाओगे और तुम्हें
अलार्म की
जरूरत न पड़ेगी।
लेकिन घड़ी से
तुम्हारी
जिम्मेवारी
टल जाती है, अब
तुम
जिम्मेवार न
रहे। अब यदि
कुछ गड़बड़ होगी
तो उसकी
जिम्मेवारी
घड़ी पर होगी।
अब तुम आराम
से सो सकते हो।
अब घडी रखी है,
तुम बिना
किसी फिक्र के
सो सकते हो।
लेकिन
अगर तुम सचमुच
तीन बजे सुबह
जागना चाहते
हो तो तुम उठ
आओगे, किसी
घड़ी की जरूरत
नहीं है।
जागने की
त्वरा ही
जागने की घटना
बन जाएगी। तीन
बजे उठ आने का
यह संकल्प
इतना तीव्र हो
सकता है कि
शायद तुम सो
भी न पाओ।
जागने की
जरूरत न पड़े; तुम सारी
रात जागते ही
रहो। लेकिन
ठीक से सोने
के लिए घड़ी
जरूरी है, तब
तुम निश्चित
सो सकते हो।
लेकिन तुम
अपने को धोखा
भी दे सकते हो।
जब अलार्म बजे
तो तुम धोखा
दे सकते हो, तुम उसको भी
सपना बना ले
सकते हो।
ये
विधियां
इसीलिए उपयोगी
हैं क्योंकि
तुम्हारी
त्वरा कम है।
अगर तुम त्वरा
में हो, तो
किसी विधि की
जरूरत नहीं है।
तब तुम स्वयं
ही सजग हो
सकते हो।
लेकिन
तुम्हारी
त्वरा इतनी
नहीं है। विधि
के साथ भी तुम
सपना देखने लग
सकते हो। और
इसकी अनेक
संभावनाएं
हैं। पहली
संभावना तो यह
है कि तुम
विश्वास नहीं
करोगे कि ऐसी
विधियां सहयोगी
हो सकती हैं।
यह पहली बात
है। और तब
संपर्क ही
नहीं होगा।
दूसरी बात कि
तुम सोच सकते
हो कि बहुत
लंबी प्रक्रिया
की जरूरत है
और यह सधते—सधते
ही आएगी।
लेकिन कुछ
चीजें हैं जो
अचानक ही घटित
होती हैं; वे
कभी क्रमिक
ढंग से नहीं
होतीं।
मैंने
सुना है कि
मुल्ला
नसरुद्दीन को
उसके एक पडोसी
के बेटे के
जन्म—दिन पर
आशीर्वाद
देने के लिए
कहा गया। उसने
कहा : 'बेटे, मुझे
आशा है कि तुम
एक सौ बीस
वर्ष और तीन
महीने जीओगे।'
सब लोग इस 'और तीन
महीने' पर
आश्चर्यचकित
थे। बेटे ने
पूछा: 'लेकिन
क्यों? एक
सौ बीस वर्ष
तो ठीक है; यह
और तीन महीने
क्यों?' मुल्ला
नसरुद्दीन ने
कहा : 'मैं
नहीं चाहूंगा
कि तुम अचानक
मर जाओ; बस
एक सौ बीस
वर्ष जीओ और
मर जाओ। इतने
अचानक मर जाओ,
यह मैं नहीं
चाहूंगा; इसलिए
और तीन महीने
हैं।’
लेकिन
'और तीन
महीने' के
बावजूद तुम अचानक
ही मरोगे। तुम
जब भी मरोगे, अचानक ही
मरोगे।
प्रत्येक
मृत्यु
आकस्मिक
मृत्यु होती
है; कोई
मृत्यु
क्रमिक नहीं
होती।
क्योंकि तुम
या तो जीवित
हो या मृत हो, कोई क्रमिक
प्रक्रिया
नहीं है। इस
क्षण तुम
जीवित हो और
अगले क्षण मृत
हो सकते हो।
इसमें समय का
क्रम नहीं है,
मृत्यु
आकस्मिक है।
समाधि
भी आकस्मिक है।
आध्यात्मिक
विस्फोट भी
आकस्मिक है।
यह मृत्यु
जैसा ही है।
यह जीवन से
ज्यादा
मृत्यु जैसा
है,
यह आकस्मिक
है। यह किसी
भी क्षण घटित
हो सकता है।
और यदि तुम
तैयार हो तो
ये विधियां
सहयोगी हो सकती
हैं। वे
बुद्धत्व को
क्रमश: नहीं
लाएंगी; लेकिन
वे तुम्हें
क्रमश: उस
आकस्मिक घटना
के लिए तैयार
कर देंगी।
इस
भेद को स्मरण
रखो : वे
तुम्हें
तैयार कर रही हैं
ताकि समाधि की
वह आकस्मिक
घटना घट सके।
ये विधियां
समाधि की
विधियां नहीं
हैं। ये
तुम्हें
तैयार करने की
विधियां हैं, और
तब समाधि घटती
है।
तो
यह तुम पर
निर्भर है कि
तुम कैसे इन
विधियों का
उपयोग करते हो।
यह मत सोचो कि
एक लंबी
प्रक्रिया
जरूरी है। ऐसा
सोचना भी मन
की एक चालबाजी
भर हो सकता है।
मन कहता है कि
एक लंबी
प्रक्रिया की
जरूरत है; इससे
तुम्हें
स्थगित करने
का उपाय मिल
जाता है। तुम कह
सकते हो कि कल
करूंगा या
परसों करूंगा;
और इस भांति
तुम सदा के
लिए स्थगित
करते रह सकते
हो। स्थगित
करने वाला
चित्त सतत
स्थगित किए
जाता है।
प्रश्न यह
नहीं है कि
तुम इसे कल
करने वाले हो या
नहीं; प्रश्न
यह है कि तुम
आज नहीं करने
वाले हो। बात
इतनी—सी है।
और कल फिर आज
होकर आएगा, और तब यही मन
फिर कहेगा : 'बहुत अच्छा,
मैं इसे कल
करूंगा।’
और
स्मरण रहे, तुम
कभी कोई काम
वर्षों के लिए
स्थगित नहीं
करते, तुम
बस एक दिन के
लिए ही स्थगित
करते हो।
क्योंकि अगर
तुम वर्षों के
लिए स्थगित
करोगे तो अपने
को धोखा नहीं
दे पाओगे। तुम
कहते हो कि एक
दिन की ही बात
है, आज
नहीं कल कर
लूंगा। और यह
अंतराल इतना
छोटा है कि
तुम्हें कभी
अहसास नहीं
होता कि तुम
सदा के लिए
स्थगित कर रहे
हो।
कल
कभी नहीं आता
है। जब आता है, सदा
आज आता है। आज
सदा है। और जो
मन कल की भाषा
में सोचता है
वह सदा ही कल की
भाषा में
सोचेगा। और कल
कभी नहीं आता
है, कभी
नहीं आया है, कभी नहीं
आएगा
तुम्हारे हाथ
में जो है वह
बस वर्तमान
क्षण है।
इसलिए स्थगित
मत करो।
अब
हम विधियों
में प्रवेश
करेंगे।
पहली
विधि :
छीकं के
आरंभ में,
भय में,
चिंता में,
खाई— खड्ड के
कगार पर,
युद्ध से
भागने पर,
अत्यंत
कुतूहल में, भूख के आरंभ
में और भूख के
अंत में,
सतत बोध रखो।
यह
विधि देखने
में बहुत सरल
मालूम पड़ती है
: छींक के आरंभ
में,
भय में, चिंता
में, भूख
के पहले या
भूख के अंत
में सतत बोध
रखो।
बहुत
सी बातें
समझने जैसी
हैं। छींकने
जैसे बहुत सरल
कृत्य भी उपाय
की तरह काम में
लाए जा सकते
हैं। क्योंकि
वे कितने ही
सरल दिखे, दरअसल
वे बहुत जटिल
हैं। और जो आंतरिक
व्यवस्था है
वह बहुत नाजुक
चीज है।
जब
भी तुम्हें
लगे कि छींक आ
रही है, सजग
हो जाओ। संभव
है कि सजग
होने पर छींक
न आए, चली
जाए। कारण यह
है कि छींक
गैर—स्वैच्छिक
चीज है—अचेतन,
गैर—स्वैच्छिक।
तुम स्वेच्छा
से, चाह कर
नहीं छींक
सकते हो, तुम
जबरदस्ती
नहीं छींक
सकते हो। चाह
कर कैसे छींक
सकते हो?
मनुष्य
कितना असहाय
है! तुम चाह कर
एक छींक भी नहीं
ला सकते। तुम
कितनी ही
चेष्टा करो, तुम
छींक नहीं ला
सकते। एक
मामूली सी
छींक भी तुम
चाह कर नहीं
पैदा कर सकते
हो। यह गैर—स्वैच्छिक
है, स्वेच्छा
की जरूरत नहीं
है। यह
तुम्हारे मन
के कारण नहीं
घटित होती है;
यह
तुम्हारे
समग्र
संस्थान से, समग्र शरीर
से घटित होती
है।
और
दूसरी बात कि
जब तुम छींक
के आने के
पूर्व सजग हो
जाते हो—तुम
उसे ला नहीं
सकते, लेकिन
वह जब अपने आप
ही आ रही हो और
तुम सजग हो जाते
हो—तो संभव है
कि वह न आए।
क्योंकि तुम
उसकी
प्रक्रिया
में कुछ नयी
चीज जोड रहे
हो, सजगता
जोड़ रहे हो।
वह खो जा सकती
है। लेकिन जब
छींक खो जाती
है और तुम
सावचेत रहते हो,
तो एक तीसरी
बात घटित होती
है।
पहली
तो बात कि
छींक गैर—स्वैच्छिक
है। तुम उसमें
एक नयी चीज
जोड़ते हो, सजगता
जोड़ते हो। और
जब सजगता आती
है तो संभव है
कि छींक न आए।
अगर तुम सचमुच
सजग होगे, तो
वह नहीं आएगी।
शायद छींक
एकदम खो जाए।
तब तीसरी बात
घटित होती है।
जो ऊर्जा छींक
की राह से
निकलने वाली
थी वह अब कहां
जाएगी?
वह
ऊर्जा
तुम्हारी
सजगता में जुड़
जाती है।
अचानक बिजली
सी कौंधती है, और
तुम ज्यादा
सावचेत हो
जाते हो। जो
ऊर्जा छींक
बनकर बाहर
निकलने जा रही
थी वही ऊर्जा
तुम्हारी
सजगता में जुड़
जाती है और तुम
अचानक अधिक
सावचेत हो
जाते हो।
बिजली की उस
कौंध में
बुद्धत्व भी
संभव है।
यही
कारण है कि
मैं कहता हूं
कि ये चीजें
इतनी सरल हैं
कि व्यर्थ
मालूम पड़ती
हैं,
उनके
द्वारा होने
वाली
उपलब्धियों
की चर्चा असंभव
सी लगती है।
सिर्फ छींक के
जरिए कोई
बुद्ध कैसे हो
सकता है? लेकिन
छींक सिर्फ
छींक ही नहीं
है, तुम भी
उसमें पूरी
तरह सम्मिलित
हो। तुम जो भी
करते हो या
तुम्हें जो भी
होता है, उसमें
तुम भी पूरी
तरह मौजूद
होते हो। इसे
फिर से देखो, इसका
निरीक्षण करो।
जब भी छींक
आती है तो
उसमें तुम
समग्रत: होते
हो—पूरे शरीर
से होते हो, पूरे मन से
होते हो। छींक
सिर्फ
तुम्हारी नाक
में ही घटित
नहीं होती, तुम्हारे
शरीर का रोआं—रोआं
उसमें
सम्मिलित
रहता है। एक
सूक्ष्म कंपन,
एक सूक्ष्म
सिहरन पूरे
शरीर पर फैल
जाती है, और
उसके साथ पूरा
शरीर एकाग्र
हो जाता है।
और जब छींक आ
जाती है तो
सारा शरीर
राहत अनुभव करता
है, विश्राम
अनुभव करता है।
लेकिन
छींक के साथ
सजगता रखनी
कठिन है। और
यदि तुम उसमें
सजगता जोड़
दोगे तो छींक
नहीं आएगी। और
यदि छींक आए
तो जानना कि
तुम सजग नहीं
थे।
तो
तुम्हें सजग
रहना पड़ेगा।
छींक
के आरंभ में...........।
क्योंकि
छींक यदि आ ही
गयी तो कुछ
नहीं किया जा
सकता है। तीर
यदि चल चुका
तो तुम अब उसे
बदल नहीं सकते; यंत्र
चालू हो गया।
ऊर्जा अब बाहर
जाने के
रास्ते पर है;
उसे अब रोका
नहीं जा सकता।
क्या तुम छींक
को बीच में
रोक सकते हो? तुम कैसे
छींक को बीच
में रोक सकते
हो! जब तक तुम
तैयार होगे, वह आ चुकी
होगी। तुम उसे
बीच में नहीं
रोक सकते हो।
आरंभ
में ही सजग हो
जाओ। जिस क्षण
तुम्हें
उत्तेजना
अनुभव हो, लगे
कि छींक आने
वाली है, तभी
सावचेत हो जाओ।
अपनी आंखें
बंद कर लो और
ध्यानस्थ हो
जाओ। अपनी
समग्र चेतना
को उस बिंदु
पर ले जाओ
जहां छींक की
उत्तेजना
अनुभव होती हो।
ठीक आरंभ में
ही सजग हो जाओ।
छींक गायब हो
जाएगी, और
उसकी ऊर्जा
अधिक सजगता
में
रूपांतरित हो
जाएगी। और चूकि
छींक में
तुम्हारा
सारा शरीर
सम्मिलित है,
पूरा
संयंत्र
सम्मिलित है—और
तुम उसी क्षण
में सजग हो—वहा
मन नहीं होगा,
विचार नहीं
होगा, ध्यान
नहीं होगा।
छींक में
विचार ठहर
जाते हैं।
यही
कारण है कि
अनेक लोग
सुंघनी
सूंघना पसंद
करते हैं। यह
उन्हें
निर्भार कर
देता है; उनका
मन ज्यादा
विश्रामपूर्ण
हो जाता है।
क्यों? क्योंकि
क्षणभर के लिए
विचार ठहर
जाते हैं।
सुंघनी
उन्हें
निर्विचार की
एक झलक देती
है। सुंघनी
सूंघने से जो
छींक आती है
उसमें वे मन नहीं
रह जाते, शरीर
ही हो जाते
हैं। एक क्षण
के लिए सिर
विदा हो जाता
है; और
उन्हें बहुत
अच्छा लगता है।
अगर
तुम सुंघनी के
आदी हो जाओ तो
उसे छोड़ना बहुत
मुश्किल होता
है। यह
धूम्रपान से
भी ज्यादा
गहरा व्यसन है; धूम्रपान
उसके सामने
कुछ नहीं है।
सुंघनी
ज्यादा गहरे
जाती है, क्योंकि
धूम्रपान
सचेतन है और
छींक अचेतन है।
इसलिए
धूम्रपान
छोड़ने से भी
ज्यादा कठिन
सुंघनी छोड़ना
है। और
धूम्रपान को
बदलकर कोई
दूसरा व्यसन
ग्रहण किया जा
सकता है, धूम्रपान
के पर्याय हैं,
लेकिन
सुंघनी के
पर्याय नहीं
हैं। कारण यह
है कि छींक सच
में शरीर की
एक अनूठी घटना
है। इसके जैसी
दूसरी चीज
केवल काम—कृत्य
है, संभोग
है।
शरीर—शास्त्र
की भाषा में
जो लोग सोचते
हैं वे कहते
हैं कि संभोग
कामेंद्रिय
द्वारा
छींकने जैसा
है। और दोनों
में समानता भी
है;
यद्यपि यह
शत—प्रतिशत
सही नहीं है।
क्योंकि
संभोग में और
भी बहुत सी
बातें
सम्मिलित हैं।
लेकिन आरंभ
में, सिर्फ
आरंभ में
समानता भी है।
तुम कुछ चीज
नाक से बाहर
निकालते हो और
राहत अनुभव
करते हो, वैसे
ही कुछ चीज
कामेंद्रिय
से बाहर
निकालते हो और
राहत अनुभव
करते हो। और
दोनों ही
कृत्य गैर—स्वैच्छिक
हैं।
तुम
संभोग में
संकल्प के
द्वारा नहीं
उतर सकते; अगर
कोशिश करोगे
तो निष्फलता
हाथ आएगी।
विशेषकर
पुरुष तो जरूर
निष्फल होंगे,
क्योंकि
उनकी
कमेंद्रिय को
कुछ करना पड़ता
है। पुरुष की
कामेंद्रिय
सक्रिय है; लेकिन तुम
चाहकर उसे
सक्रिय नहीं
कर सकते। तुम
जितनी चेष्टा
करोगे, उतना
ही असंभव होता
जाएगा। यह
अपने आप होता
है, इसे
तुम सचेत होकर
नहीं कर सकते।
यही
कारण है कि
पश्चिम में
संभोग एक
समस्या बन गया
है। पिछली आधी
सदी के दौरान
पश्चिम में
काम—संबंधी
ज्ञान बहुत
विकसित हुआ है
और हर एक आदमी
इसके संबंध में
इतना सचेत है
कि संभोग
अधिकाधिक
असंभव हो रहा
है।
अगर
तुम सचेत हो
तो संभोग
असंभव हो
जाएगा। अगर
कोई व्यक्ति
संभोग के, समय
सचेत रहे, तो
वह जितना सचेत
होगा उतना ही
उसके लिए
संभोग कठिन होगा।
उसकी जननेंद्रिय
में उत्तेजना
ही नहीं होगी।
उसे प्रयास से
नहीं किया जा
सकता, और
तुम जितना
अधिक प्रयास
करोगे उतनी ही
मुश्किल हो
जाएगी।
इस
विधि का उपयोग
काम—संभोग में
भी किया जा
सकता है। आरंभ
में ही, जब
तुम्हें
उत्तेजना आती
मालूम हो, लेकिन
वह अभी आयी न
हो, सिर्फ
उसकी तरंगें
मालूम पड़ती
हों, तभी
तुम सावचेत हो
जाओ। तरंगें
खो जाएंगी, और वही
ऊर्जा सजगता
में गति कर
जाएगी। तंत्र
ने इसका उपयोग
किया है।
तंत्र ने इसका
कई ढंग से
उपयोग किया है।
एक सुंदर नग्न
स्त्री ध्यान
के विषय के
रूप में बैठी
होगी, और
साधक उस नग्न
स्त्री के
सामने बैठकर
उसके शरीर, उसके रूप और
अंग—सौष्ठव पर
ध्यान करेगा,
और अपने काम—केंद्र
पर उत्तेजना
उठने की
प्रतीक्षा
करेगा। और
ज्यों ही जरा
सी उत्तेजना
महसूस होगी, वह अपनी आंखें
बंद कर लेगा
और उस स्त्री
को भूल जाएगा।
वह साधक आंखें
बंद कर लेगा
और उत्तेजना
के प्रति सजग
हो जाएगा। तब
काम—ऊर्जा
सजगता में
रूपांतरित हो
जाती है। उसे
नग्न स्त्री
पर तभी तक
ध्यान करना है
जहां
उत्तेजना
महसूस होती है।
उसके बाद उसे आंख
बंद कर अपनी
उत्तेजना पर आ
जाना है और
वहीं सजग रहना
है—ठीक वैसे
ही जैसे छींक
में किया जाता
है। और यह
कौंध सी क्यों
घटित होती है?
कारण यह है
कि मन वहां
नहीं है।
बुनियादी बात
यह है कि अगर
मन नहीं है और
तुम सजग हो, तो सतोरी
घटित होगी; तुम्हें
समाधि की पहली
झलक मिलेगी।
विचार
ही बाधा है।
किसी भी ढंग
से यदि विचार
विलीन हो जाए
तो बात बन
जाती है।
लेकिन सजगता
के लिए विचार
का विदा होना
जरूरी है।
विचार नींद
में भी विलीन
हो जाता है।
तुम्हारे मूर्च्छित
होने पर भी
विचार ठहर
जाता है। और
जब तुम कोई
नशीले द्रव्य
लेते हो तो भी
विचार बंद हो
जाता है। इन
हालतों में भी
विचार विदा हो
जाता है, लेकिन
तब विचार के
पीछे जो तत्व
छिपा है उसके प्रति
सजगता नहीं
रहती है।
इसलिए
मैं ध्यान को
निर्विचार
चेतना कहता हूं।
तुम
निर्विचार और मूर्च्छित
एक साथ हो
सकते हो; लेकिन
उसका कोई
मूल्य नहीं है।
और तुम विचार
के साथ सचेतन
भी रह सकते हो;
वह तुम हो
ही। इन दो
चीजों को, चेतना
और निर्विचार
को इकट्ठा करो;
जब वे मिलते
हैं तो ध्यान
घटित होता है,
ध्यान का
जन्म होता है।
और
तुम इसका प्रयोग
छोटी—छोटी
चीजों के साथ
भी कर सकते हो।
सच तो यह है कि
कोई भी चीज
छोटी नहीं है।
एक छींक भी
अस्तित्वगत
घटना है।
अस्तित्व में
कुछ भी बड़ा
नहीं है, कुछ
भी छोटा नहीं
है। एक नन्हा
सा परमाणु भी
पूरे जगत को
मिटा सकता है।
और वैसे ही एक
छींक भी, जो
कि अत्यंत छोटी
चीज है, तुम्हें
रूपांतरित कर
सकती है।
तो
चीजों को छोटी—बड़ी
की तरह मत
देखो। न कुछ
बड़ा है और न
कुछ छोटा। अगर
तुम्हारे पास
गहरे देखने की
दृष्टि है तो
बहुत छोटी
चीजें भी
महत्वपूर्ण
हो जाती हैं।
परमाणुओं के
बीच में
ब्रह्मांड
छिपे हैं। और
तुम नहीं कह
सकते कि परमाणु
और ब्रह्मांड
में कौन बड़ा
है और कौन
छोटा। एक
अकेला परमाणु
अपने आप में
ब्रह्मांड है, और
बड़े से बड़ा
ब्रह्मांड भी
परमाणु के अतिरिक्त
कुछ नहीं है। तो
बड़े और छोटे की
भाषा में मत सोचो।
प्रयोग करो। और
यह मत कहो कि
छींक से क्या
होगा, मैं
तो जीवनभर
छींकता रहा
हूं और कुछ
नहीं हुआ! इस
विधि का
प्रयोग करो।
'छींक के
आरंभ में, भय
में.....।’
जब
तुम भयभीत
अनुभव करते हो
और भय प्रवेश
करता है, जब
तुम भय को
प्रवेश करते
देखो, ठीक
उसी क्षण सजग
हो जाओ, और
भय विलीन हो
जाएगा। बोध के
साथ भय नहीं
रह सकता है।
जब तुम सावचेत
हो तो भयभीत कैसे
हो सकते हो? तुम तभी
भयभीत होते हो
जब होश खो
देते हो। सच
में कायर वह
नहीं है जो
डरा हुआ है, कायर वह है
जो सोया हुआ
है। और बहादुर
वह है जो भय के
क्षणों में
बोध को जगा
लेता है। और
तब भय विदा हो
जाता है।
जापान
में वे
योद्धाओं को
सजगता का
प्रशिक्षण
देते हैं।
उनका
बुनियादी
प्रशिक्षण
सजगता के लिए
है;
शेष सब
चीजें गौण हैं।
तलवार चलाना,
तीर—धनुष
चलाना, सब
गौण हैं। झेन
सदगुरु
रिंझाई के
संबंध में कहा
जाता है कि वे
कभी भी तीर
चलाने में, तीर को ठीक
निशाने पर
मारने में सफल
नहीं हुए।
उनका तीर सदा
ही चूकता रहा,
वह कभी ठीक
निशाने पर
नहीं लगा। और
वे सबसे महान
धनुर्विद
माने जाते हैं।
तो
पूछा जाता है
कि रिंझाई
सबसे महान
धनुर्विद
कैसे कहलाए, जब
कि वे कभी
लक्ष्य पर
नहीं पहुंचे
और सदा निशाना
चूकते रहे? उनका तीर
कभी सही
निशाने पर
नहीं लगा, फिर
भी वे महान
धनुर्विद
कैसे माने गए?
रिंझाई
को मानने वाले
कहते हैं : 'अंत
नहीं, आरंभ
महत्वपूर्ण
है। हम इसमें
उत्सुक नहीं
हैं कि तीर
लक्ष्य पर पहुंच
जाए, हम
उसमें उत्सुक
हैं जहां से
तीर अपनी
यात्रा शुरू
करता है। हम
रिंझाई में
उत्सुक हैं।
जब तीर धनुष
से निकलता है
तो वे सजग हैं;
बस
पर्याप्त है। परिणाम
से कोई लेना—देना
नहीं है।’
एक
आदमी रिंझाई
का शिष्य था।
वह खुद भी बड़ा
धनुर्विद था; उसका
निशाना कभी
नहीं चूकता था।
फिर वह रिंझाई
के पास सीखने
के लिए आया।
तो किसी ने
उससे कहा, 'तुम
किससे सीखने
आए हो? वह
कोई गुरु नहीं
है; वह तो
शिष्य भी नहीं
है। वह एक असफल
व्यक्ति है।
और तुम तो
स्वयं बड़े
गुरु हो, और
रिंझाई से
सीखने जा रहे
हो?'
तो
उस धनुर्विद
ने कहा, ‘हां’ क्योंकि मैं
तकनीकी तल पर
सफल हूं; लेकिन
जहां तक चेतना
का सवाल है
मैं असफल हूं।
वे तकनीकी तल
पर असफल हैं, लेकिन जहां
तक चेतना का
सवाल है वे
धनुविद हैं और
गुरु हैं।
क्योंकि जब
तीर धनुष को
छोडता है, वे
उस समय सजग
होते हैं—और
वही असली बात
है।’
इस
धनुर्विद को, जो
तकनीकी रूप से
कुशल था, रिंझाई
के पास रहकर
वर्षों
धनुर्विद्या
सीखनी पड़ी। और
रोज उसके
निशाने शत—प्रतिशत
अचूक लगते। और
रिंझाई उससे
कहते, 'नहीं,
तुम असफल हो।
तकनीकी तौर से
तो तीर ठीक
चलता है, लेकिन
तुम वहां नहीं
होते हो, तुम
सजग नहीं होते
हो। तुम सोए—सोए
तीर छोड़ते हो।’
जापान
में वे अपने
योद्धाओं को
पहले सजग होने
का प्रशिक्षण
देते हैं।
बाकी बातें गौण
होती हैं।
योद्धा साहसी
व्यक्ति है, यदि
वह सजग हो सके।
और दूसरे
महायुद्ध में
पता चला कि
जापानी
योद्धाओं का
मुकाबला नहीं
है। उनकी शूरता
अतुलनीय है।
वह शूरता कहां
से आती है? शरीर
से वे उतने
मजबूत नहीं
हैं, लेकिन
वे भयभीत नहीं
हैं; क्योंकि
जागरूकता में,
सजगता में
भय नहीं प्रवेश
कर सकता। और
जब भी उन्हें
भय पकड़ता है, वे झेन
विधियों का
प्रयोग करते
हैं।
यह
सूत्र कहता है
: 'भय में, चिंता
में.....।’
जब
तुम चिंता
अनुभव करो, बहुत
चिंताग्रस्त
होओ, तब इस
विधि का
प्रयोग करो।
इसके लिए क्या
करना होगा? जब साधारणत:
तुम्हें
चिंता घेरती है
तब तुम क्या
करते हो? सामान्यत:
क्या करते हो?
तुम उसका हल
ढूंढते हो; तुम उसके
उपाय ढूंढते
हो। लेकिन ऐसा
करके तुम और
भी
चिंताग्रस्त
हो जाते हो, तुम उपद्रव
को बढ़ा लेते
हो। क्योंकि
विचार से
चिंता का
समाधान नहीं
हो सकता है, विचार के
द्वारा उसका
विसर्जन नहीं हो
सकता है। कारण
यह है कि
विचार खुद एक
तरह की चिंता
है। विचार
करके तुम
चिंता को
बढ़ाते हो।
विचार के
द्वारा तुम
उससे बाहर
नहीं आ सकते, बल्कि तुम
उसके दलदल में
और भी धंसते
जाओगे। यह
विधि कहती है
कि चिंता के
साथ कुछ मत
करो; सिर्फ
सजग होओ, बस
सावचेत रहो।
मैं
तुम्हें एक
दूसरे झेन
सदगुरु
बोकोजू के
संबंध में एक
पुरानी कहानी
सुनाता हूं।
वह एक गुफा
में अकेला
रहता था, बिलकुल
अकेला। लेकिन
दिन में या
कभी—कभी रात
में भी, वह
जोरों से कहता
था, 'बोकोजू।’
यह उसका
अपना नाम था।
और फिर वह खुद
कहता, 'ही
महोदय, मैं
मौजूद हूं।’ और वहा कोई
दूसरा नहीं
होता था। उसके
शिष्य उससे
पूछते थे, 'क्यों
आप अपना ही
नाम पुकारते
हैं, और
फिर खुद कहते
हैं, हौ
महोदय, मैं
मौजूद हूं?'
बोकोजू
ने कहा, 'जब भी
मैं विचार में
डूबने लगता
हूं तो मुझे सजग
होना पड़ता है,
और इसीलिए
मैं अपना नाम
पुकारता हूं
बोकोजू! जिस
क्षण मैं
बोकोजू कहता
हूं और कहता
हूं कि ही
महाशय, मैं
मौजूद हूं उसी
क्षण विचारणा,
चिंता
विलीन हो जाती
है।’
फिर
अपने अंतिम
दिनों में, आखिरी
दो—तीन वर्षों
में उसने कभी
अपना नाम नहीं
पुकारा, और
न ही यह कहा कि
हौ, मैं
मौजूद हूं। तो
शिष्यों ने
पूछा, 'गुरुदेव,
अब आप ऐसा
क्यों नहीं
करते?' बोकोजू
ने कहा, 'अब
बोकोजू सदा
मौजूद रहता है।
वह सदा ही
मौजूद है, इसलिए
पुकारने की
जरूरत न रही।
पहले मैं खो
जाया करता था,
और चिंता
मुझे दबा लेती
थी, आच्छादित
कर लेती थी, बोकोजू वहां
नहीं होता था,
तो मुझे उसे
स्मरण करना
पड़ता था। और
स्मरण करते ही
चिंता विदा हो
जाती थी।’
इसे
प्रयोग करो।
बहुत सुंदर
विधि है यह।
अपने नाम का
ही प्रयोग करो।
जब भी तुम्हें
गहन चिंता
पकड़े तो अपना
ही नाम पुकारो—बोकोजू
या और कुछ, लेकिन
अपना ही नाम
हो—और फिर खुद
ही कहो कि ही
महोदय, मैं
मौजूद हूं। और
तब देखो कि
क्या फर्क
पड़ता है।
चिंता नहीं
रहेगी; कम
से कम एक क्षण
के लिए
तुम्हें
बादलों के पार
की एक झलक
मिलेगी। और
फिर वह झलक
गहराई जा सकती
है। तुम एक
बार जान गए कि
सजग होने पर
चिंता नहीं रहती,
विलीन हो
जाती है, तो
तुम स्वयं के
संबंध में, अपनी आंतरिक
व्यवस्था के संबंध
में गहन बोध
को उपलब्ध हो
गए।
'खाई—खड्ड के
कगार पर, युद्ध
से भागने पर, अत्यंत
कुतूहल में, भूख के आरंभ
में और भूख के
अंत में, सतत
बोध रखो।'
किसी
भी चीज का उपयोग
कर सकते हो। भूख
लगी है, सजग हो
जाओ। जब तुम्हें
भूख महसूस
होती है तो
तुम क्या करते
हो? तुम्हें
क्या होता है?
जब तुम्हें
भूख लगती है
तो तुम उसे
कभी ऐसे नहीं
देखते कि
तुम्हें कुछ
हो रहा है; तुम
भूख ही हो
जाते हो। तब
तुम समझते हो
कि मैं भूखा
हूं। ऐसा ही
लगता है कि
मैं भूख हूं।
लेकिन तुम भूख
नहीं हो, तुम्हें
सिर्फ भूख का
बोध होता है। भूख
कहीं परिधि पर
घटित हो रही
है, और तुम
तो केंद्र हो,
तुम्हें
भूख का बोध हो
रहा है। भूख
विषय है; तुम
जानने वाले हो,
तुम साक्षी
हो। तुम भूख
नहीं हो; भूख
तुम्हें घटित
हो रही है।
तुम तब भी थे
जब भूख नहीं
थी, और तुम
तब भी रहोगे
जब भूख नहीं
रहेगी। भूख एक
घटना है; वह
तुम्हें घटित
होती है।
उसके
प्रति सजग होओ।
तब तुम भूख से
तादात्म्य
नहीं करोगे।
अगर तुम्हें
भूख लगे तो
उसके प्रति
सजग होओ कि
भूख है। उसे
देखो, उसका
साक्षात्कार
करो, उसे
जानो। क्या
होगा? तुम
जितने ही सजग
होंगे, भूख
उतनी ही तुमसे
दूर मालूम
पड़ेगी। और जितनी
सजगता कम होगी,
भूख उतनी ही
निकट मालूम
पड़ेगी। और अगर
तुम बिलकुल
सजग नहीं हो, तो तुम ठीक
केंद्र पर
अनुभव करोगे
कि मैं भूख ही
हूं। सजग होते
ही भूख तुम से
दूर हट जाती
है, भूख
वहा है और तुम
यहां हो। भूख
विषय है, तुम
साक्षी हो।
इसी
विधि के लिए
उपवास का
उपयोग किया
जाता रहा है।
वैसे अपने आप
में उपवास
किसी काम का
नहीं है। अगर
तुम भूख के
साथ इस विधि
का प्रयोग
नहीं कर रहे
हो तो उपवास
निपट मूढ़ता है, व्यर्थ
है।
महावीर
ने इसी विधि
के लिए उपवास
का प्रयोग किया
था,
और अब जैन
सिर्फ उपवास
कर रहे हैं, इस विधि के
बिना ही उपवास
कर रहे हैं।
तब यह मूढ़ता
है; तब तुम
सिर्फ भूखे मर
रहे हो और
इससे कोई लाभ
नहीं मिल सकता
है। तुम
महीनों भूखे
रह सकते हो, और भूख से
जुड़े रह सकते
हो कि मैं भूख
हूं। तब वह
व्यर्थ है, हानिकर है।
उपवास
करने की कोई
जरूरत नहीं है; तुम
रोज ही भूख को
अनुभव कर सकते
हो। लेकिन
कठिनाइयां
हैं। और
इसीलिए उपवास
उपयोगी हो
सकता है।
सामान्यत: हम
भूख लगने के
पहले ही अपने
को भोजन से भर
लेते हैं।
आधुनिक संसार
में भूख लगने
की जरूरत ही
नहीं पड़ती; तुम्हारे
भोजन के समय
निश्चित हैं,
और तुम भोजन
कर लेते हो।
तुम कभी नहीं
पूछते कि शरीर
को भूख लगी है
या नहीं; निश्चित
समय पर तुम
भोजन कर लेते
हो। भूख
तुम्हें नहीं
लगती है। तुम
कहोगे कि नहीं,
जब एक बजता
है तो मुझे
भूख लगती है।
वह झूठी भूख
हो सकती है; वह इसलिए
लगती है
क्योंकि यह
तुम्हारे
खाने का समय
है, एक बजा
है।
किसी
दिन एक खेल
करो;
अपनी पत्नी
या अपने पति
को कहो कि घड़ी
का समय बदल दे,
अभी बारह
बजा है और घड़ी
एक का समय बता
दे। तुम्हें
तुरंत भूख
मालूम होगी।
या घड़ी एक
घंटा पीछे कर
दी जाए; दो
बजा है और घड़ी
एक का समय
बताए। तब
तुम्हें उसी
समय भूख लगेगी।
तुम्हें घड़ी
देखकर भूख
लगती है। यह
कृत्रिम भूख है,
झूठी भूख है;
यह भूख
सच्ची नहीं है।
इसीलिए
उपवास सहयोगी
हो सकता है।
अगर तुम उपवास
करोगे तो दो—तीन
दिन तक झूठी
भूख मालूम
होगी। तीसरे
या चौथे दिन
के बाद ही
सच्ची भूख का
पता चलेगा। तब
वह मांग
तुम्हारे
शरीर की होगी, मन
की नहीं। जब
मन मांग करता
है तो वह झूठी
मांग है, शरीर
की मांग ही
सच्ची होती है।
और जब तुम
सच्ची भूख के
प्रति सजग
होते हो तो अपने
शरीर से
सर्वथा भिन्न
हो जाते हो।
भूख एक
शारीरिक घटना
है। और जब एक
बार तुम जान
लेते हो कि
भूख मुझसे भिन्न
है, मैं
उसका साक्षी
हूं तो तुम
शरीर के पार
चले गए।
लेकिन
तुम किसी भी
चीज का उपयोग
कर सकते हो।
ये तो उदाहरण
मात्र हैं। यह
विधि अनेक
ढंगों से
प्रयोग में
लाई जा सकती
है। तुम अपना
अलग ढंग भी
निर्मित कर
सकते हो।
लेकिन किसी एक
ही चीज पर सतत
प्रयोग करते
रहो। अगर तुम
भूख के साथ
प्रयोग कर रहे
हो तो कम से कम
तीन महीनों तक
भूख के साथ
प्रयोग करो।
तो ही तुम
किसी दिन शरीर
से तादात्म्य
तोड़ सकोगे।
रोज—रोज विधि
मत बदलों, क्योंकि
विधि का गहरे
जाना जरूरी है।
तीन महीने के
लिए किसी.
विधि को चुन
लो और उसमें
लगन से लगे
रहो; विधि
का प्रयोग करो,
और प्रयोग
जारी रखो।
और
सदा स्मरण रखो
कि आरंभ में
बोधपूर्ण
होना है। बीच
में बौधपूर्ण
होना बहुत
कठिन होगा, क्योंकि
इस तादात्म्य
के स्थापित
होते ही कि मैं
भूख हूं तुम
उसे फिर बदल
नहीं सकोगे।
मन के तल पर
तुम बदलाहट कर
सकते हो, तुम
कह सकते हो कि
नहीं, मैं
भूख नहीं हूं
साक्षी हूं; लेकिन वह
झूठ होगा। यह
मन ही बोल रहा
है; यह
तुम्हारे
प्राणों का
अनुभव नहीं है।
तो आरंभ में
ही बोधपूर्ण
होने की कोशिश
करो। और यह भी
स्मरण रहे कि
तुम्हें यह
कहना नहीं है
कि मैं भूख
नहीं हूं। यह
भी मन का धोखा
देने का एक
ढंग है। तुम
कह सकते हो ' भूख है, लेकिन
मैं भूख नहीं
हूं। मैं शरीर
नहीं हूं; मैं
ब्रह्म हूं।’
तुम्हें
कुछ भी कहना
नहीं है। तुम
जो भी कहोगे
गलत होगा, क्योंकि
तुम गलत हो।
यह दोहराना कि
मैं शरीर नहीं
हूं किसी काम
का नहीं होगा।
तुम कहते रहते
हो कि मैं
शरीर नहीं हूं
क्योंकि तुम
जानते हो कि
मैं शरीर हूं।
अगर तुम सच ही
जानते हो कि
मैं शरीर नहीं
हूं तो यह
कहने की क्या
जरूरत है? कोई
जरूरत नहीं है;
यह मूढ़ता
मालूम होगी।
बोधपूर्ण
होओ,
और तब उस
बोध में यह
भाव प्रगाढ़
होगा कि मैं
शरीर नहीं हूं।
यह विचार नहीं
होगा, भाव
होगा। यह
तुम्हारे सिर
की नहीं, तुम्हारे
पूरे प्राणों
की अनुभूति
होगी। तुम
दूरी महसूस
करोगे कि शरीर
बहुत दूर है
और मैं उससे
बिलकुल भिन्न
हूं और दोनों
के मिश्रण की
संभावना भी
नहीं है। तुम
दोनों को मिला
नहीं सकते हो।
शरीर शरीर है,
पदार्थ है,
और तुम
चैतन्य हो। वे
दोनों साथ रह
सकते हैं, लेकिन
एक—दूसरे में
घुलमिल नहीं
सकते। उनका
मिश्रण नहीं
हो सकता है।
दूसरी
विधि :
अन्य
देशनाओं के
लिए जो
शुद्धता है वह
हमारे लिए
अशुद्धता ही
है। वस्तुत:
किसी को भी
शुद्ध या
अशुद्ध की तरह
मत जानो।
यह
तंत्र का एक
बुनियादी
संदेश है।
तुम्हारे लिए
यह बड़ी कठिन
धारणा होगी, क्योंकि
यह बिलकुल ही
गैर—नैतिक
धारणा है। मैं
इसे अनैतिक
नहीं कहूंगा,
क्योंकि
तंत्र को नीति—अनीति
से कुछ लेना—देना
नहीं है।
तंत्र कहता है
कि शुद्धि—अशुद्धि
से कोई मतलब
नहीं है। इसकी
देशना
तुम्हें
शुद्धि—अशुद्धि
के ऊपर उठने
में, दरअसल
विभाजन के, द्वंद्व और
द्वैत के पार
जाने में
सहयोग देने के
लिए है।
तंत्र
कहता है कि अस्तित्व
अखंड है, अस्तित्व
एक है। और जो
द्वंद्व हैं
वे सब—स्मरण
रहे, सब के सब—मनुष्य
के बनाए हुए
हैं। द्वंद्व
मात्र मनुष्य—निर्मित
हैं; शुभ—अशुभ,
शुद्ध—अशुद्ध,
नैतिक—अनैतिक,
पुण्य—पाप,
ये सारी
धारणाएं
मनुष्य ने
निर्मित की
हैं। ये
मनुष्य की
मान्यताएं
हैं, ये
यथार्थ नहीं
हैं। क्या
अशुद्ध है और
क्या शुद्ध, यह तुम्हारी
व्याख्या पर
निर्भर है।
वैसे ही क्या
अनैतिक है और
क्या नैतिक, यह भी
तुम्हारी
व्याख्या पर
निर्भर है।
नीत्से
ने कहीं कहा
है कि सब
नैतिकता
व्याख्या है।
तो
कोई चीज इस
देश में नैतिक
हो सकती है और
वही चीज पड़ोसी
देश में
अनैतिक हो
सकती है। एक
ही चीज
मुसलमान के
लिए नैतिक हो
सकती है और हिंदू
के लिए अनैतिक
हो सकती है।
एक ही चीज
ईसाई के लिए
नैतिक और जैन
के लिए अनैतिक
हो सकती है।
या जो चीज
पुरानी पीढ़ी
के लिए नैतिक
थी,
नयी पीढ़ी के
लिए अनैतिक हो
सकती है। यह
दृष्टिकोण पर
निर्भर करता
है; यह
रुझान की बात
है। बुनियादी
रूप से यह एक
मान्यता है, झूठ है।
तथ्य बस तथ्य
होता है। नग्न
तथ्य बस तथ्य
होता है; वह
न नैतिक होता
है न अनैतिक, न शुद्ध न
अशुद्ध।
सोचो, पृथ्वी
पर यदि मनुष्य
न हो तो क्या
शुद्ध है और
क्या अशुद्ध?
तब चीजें
होंगी, सिर्फ
होंगी। न कुछ
शुद्ध होगा और
न कुछ अशुद्ध
होगा; न
कुछ शुभ होगा
और न कुछ अशुभ
होगा। मनुष्य
के साथ मन आता
है। और मन
विभाजन करता
है; मन कहता
है कि यह भला
है और वह बुरा
है।
और
यह विभाजन
संसार को ही
नहीं बांटता
है,
विभाजन
करने वाले को
भी बांट देता
है। अगर तुम
बांटते हो तो
उसमें तुम खुद
भी बंट जाते
हो। और जब तक
तुम बाह्य
विभाजनों को
नहीं भूलते, तब तक तुम
अपने आंतरिक
विभाजनों का
अतिक्रमण
नहीं कर सकते
हो। जो कुछ
तुम संसार के
साथ करते हो, तुम उसे
अपने साथ पहले
ही कर लेते हो।
सिद्ध
योग के महान
सदगुरु नरोपा
ने कहा है : 'इंच
भर का विभाजन,
और स्वर्ग
और नरक अलग—अलग
हो जाते हैं।’
इंच भर का
विभाजन! लेकिन
हम बांटते हैं,
नाम देते
हैं, निंदा
करते हैं, औचित्य
सिद्ध करते
हैं।
अस्तित्व के
शुद्ध तथ्य को
देखो, और
कोई नाम मत दो,
कोई लेबल मत
लगाओ। केवल
तभी तंत्र की
देशना को समझा
जा सकता है।
तथ्य को भला
या बुरा मत
कहो; तथ्य
पर अपने चित्त
को मत उतारो।
ज्यों ही तुम
तथ्य पर अपनी
धारणा आरोपित
करते हो, तुम
झूठ का
निर्माण कर
लेते हो। अब
यह तथ्य न रहा,
सत्य न रहा;
यह
तुम्हारा
प्रक्षेपण हो
गया।
यह
सूत्र कहता है
: 'अन्य देशनाओ
के लिए जो
शुद्धता है वह
हमारे लिए
अशुद्धता ही
है। वस्तुत:
किसी को भी
शुद्ध या
अशुद्ध की तरह
मत जानो।’
'अन्य
देशनाओं के
लिए जो
शुद्धता है वह
हमारे लिए अशुद्धता
ही है।’
तंत्र
कहता है कि जो
चीज अन्य
देशनाओ के लिए
बहुत शुद्ध
मानी जाती है, पुण्य
मानी जाती है,
वह हमारे
लिए पाप है।
क्योंकि उनकी
शुद्धता की
धारणा बाटती
है; उनके
लिए कुछ
अशुद्ध है।
अगर
तुम किसी को
संत कहते हो
तो तुमने किसी
को पापी बना
दिया। अब
तुम्हें कहीं न
कहीं किसी न
किसी को
निंदित करना
होगा, क्योंकि
संत पापी के
बिना नहीं हो
सकता। अब हमारे
प्रयत्नों की
व्यर्थता
देखो। हम
पापियों को
मिटाने में
लगे हैं, और
हम एक ऐसी
दुनिया की आशा
करते हैं जहां
पापी नहीं
होंगे, सिर्फ
संत होंगे। यह
अर्थहीन है, क्योंकि संत
पापी के बिना
नहीं हो सकते,
वे एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं। तुम
सिक्के के एक
पहलू को नहीं
मिटा परि सकते;
दोनों साथ
ही रहेंगे।
पापी और
पुण्यात्मा
एक ही सिक्के
के दो पहलू हैं।
अगर तुम
पापियों को
मिटा दोगे तो
पुण्यात्मा
भी संसार से
विदा हो
जाएंगे।
लेकिन घबराओ
मत, उन्हें
विदा होने दो।
वे किसी मूल्य
के नहीं सिद्ध
हुए हैं।
पापी
और संत एक ही
व्याख्या के, जगत
के प्रति एक
ही दृष्टिकोण
के अंग हैं।
यह दृष्टिकोण
कहता है कि यह
शुभ है और वह
अशुभ है। और
तुम यह नहीं
कह सकते कि यह
अच्छा है अगर
तुम यह न कहो
कि वह बुरा है।
शुभ की
परिभाषा के
लिए अशुभ
जरूरी है। शुभ
अशुभ पर
निर्भर है; पुण्य पाप
पर निर्भर है।
तुम्हारे
महात्मा
असंभव हैं, वे पापियों
के बिना नहीं
हो सकते।
उन्हें तो
पापियों का
अहसान मानना
चाहिए; वे
उनके बिना जी
नहीं सकते। वे
चाहे पापियों
की जितनी भी
निंदा करें, वे और पापी
एक ही घटना के
अंग हैं। पापी
संसार से तभी
विदा होंगे जब
महात्मा विदा
होंगे, उसके
पहले नहीं। और
पुण्य की
धारणा के बिना
पाप नहीं टिक
सकता है।
तंत्र
कहता है कि
तथ्य असली बात
है,
और
व्याख्या झूठ
है। व्याख्या
मत करो!
'वस्तुत:
किसी को भी
शुद्ध या
अशुद्ध की तरह
मत जानो।’
क्यों? क्योंकि
शुद्धि और
अशुद्धि सत्य
पर थोपी गई हमारी
व्याख्याएं
हैं, हमारे
दृष्टिकोण
हैं। इसे
प्रयोग करो।
यह विधि कठिन
है, सरल
नहीं है। कारण
यह है कि हम
द्वैतमूलक
विचारणा से
इतने ग्रस्त
हैं, उसमें
इतने डूबे हैं
कि हमें इसका
भी पता नहीं
रहता कि हम
किसकी निंदा
कर रहे हैं और
किसको उचित कह
रहे हैं। अगर
कोई व्यक्ति
यहां
धूम्रपान
करने लगे तो तुम
सचेतन रूप से
कुछ जाने बिना
ही उसे निंदित
कर दोगे; तुम
अपने अंतस में
उसकी निंदा कर
डालोगे।
तुम्हारी
दृष्टि में
निंदा हो चाहे
न हो, तुमने
उस व्यक्ति पर
नजर भी नहीं
डाली हो, लेकिन
तुमने निंदा
कर दी।
यह
विधि कठिन
होगी, क्योंकि
हमारी आदत
इतनी गहन है, प्रगाढ़ है।
तुम महज अपनी
भाव— भंगिमा
से, अपने
बैठने—उठने से
किसी को
निंदित कर
देते हो, किसी
को सही बताते
हो, और
तुम्हें इसका
होश भी नहीं
रहता कि तुम
क्या कर रहे
हो। तुम जब
किसी आदमी को
देखकर
मुस्कुराते
हो या नहीं
मुस्कुराते
हो, जब तुम
किसी को देखते
हो या नहीं
देखते हो, तुम
उसकी उपेक्षा
करते हो, तो
तुम क्या कर
रहे हो? तुम
अपनी पसंद—नापसंद
आरोपित कर रहे
हो। जब तुम
कहते हो कि
कोई चीज सुंदर
है तो तुम्हें
किसी चीज को
कुरूप कहना ही
होगा। और यह
बांटने वाली
दृष्टि साथ ही
साथ तुम्हें
भी बांट रही
है। तुम्हारे
भीतर दो
व्यक्ति हो
जाएंगे।
अगर
तुम कहते हो
कि कोई
व्यक्ति
क्रोध में है और
क्रोध बुरा है
तो तुम तब
क्या करोगे जब
तुम्हें
क्रोध होगा? तुम
कहोगे कि
क्रोध बुरा है।
तब समस्याएं
खड़ी होंगी, क्योंकि तुम
कहते हो कि यह
बुरा है, मुझमें
जो क्रोध है
वह बुरा है।
तब तुम अपने
को दो
व्यक्तियों
में बांटने
लगे, एक
बुरा व्यक्ति
होगा, पापी
होगा, और
दूसरा भला
व्यक्ति होगा,
महात्मा
होगा।
निश्चित
ही,
तुम अपने को
भीतर का
महात्मा
मानोगे और
भीतर के पापी
की निंदा
करोगे। तुम दो
में विभाजित हो
गए। अब निरंतर
लड़ाई चलेगी, संघर्ष होगा।
अब तुम व्यक्ति
न रहे, अब
तुम
भीड़ हो, तुम्हारे
भीतर गृह—युद्ध
चलेगा। अब मौन
गया, शाति
गई; तुम
तनाव और संताप
से भर जाओगे।
यही तुम्हारी
हालत है, लेकिन
तुम्हें पता
नहीं है कि
ऐसा क्यों है।
विभाजित
व्यक्ति शात
नहीं हो सकता; कैसे
हो सकता है? तुम अपने
शैतान को कहां
रखोगे? तुम्हें
उसे मिटाना
होगा। लेकिन
वह तुम ही हो; तुम उसे
नहीं मिटा
सकते। तुम दो
नहीं हो, सच्चाई
एक है, यथार्थ
एक है। लेकिन
अपनी बांटने वाली
दृष्टि के
कारण तुमने
बाह्य यथार्थ
को बांट दिया,
और उसके
अनुसार भीतरी
यथार्थ भी बंट
गया। इसलिए हर
एक आदमी स्वयं
से ही लड़ रहा
है।
यह
ऐसा ही है
जैसे कि हम
अपने ही दोनों
हाथों को लड़ाए, बायां
हाथ दाएं हाथ
से लड़े, दायां
हाथ बाएं हाथ
से लड़े। और
ऊर्जा एक ही
है, मेरे
दाएं और बाएं
हाथों में एक
ही ऊर्जा बह रही
है, मैं ही
दोनों हाथों
में बह रहा
हूं। लेकिन
मैं दोनों को
लड़ा सकता हूं
अपने एक हाथ को
दूसरे हाथ से
लड़ा सकता हूं।
और मैं एक
संघर्ष, एक
झूठा संघर्ष
खड़ा कर सकता
हूं। कभी—कभी
मैं अपने को
यह धोखा भी दे
सकता हूं कि
मेरा दाहिना
हाथ जीत रहा
है और बायां
हाथ हार रहा
है। लेकिन यह
धोखा है, क्योंकि
मैं जानता हूं
कि दोनों में
मैं ही हूं और
किसी भी क्षण
मैं अपने बाएं
हाथ को ऊपर कर सकता
हूं और दाएं
को नीचे कर
सकता हूं। मैं
ही दोनों में
हूं दोनों हाथ
मेरे हैं।
तो
तुम कितना ही
सोचो कि मेरे
भीतर का संत
जीत गया और
शैतान हार गया, स्मरण
रहे कि तुम
किसी भी क्षण
जगहें बदल
सकते हो, और
तब संत नीचे
होगा और शैतान
ऊपर होगा।
इससे ही भय
पैदा होता है,
असुरक्षा
का भाव पैदा
होता है, क्योंकि
तुम जानते हो
कि कुछ भी
निश्चित नहीं है।
तुम जानते हो कि
इस समय मैं
प्रेमपूर्ण
हूं और अपनी
घृणा को दबा
दिया है; लेकिन
तुम भयभीत भी
हो, क्योंकि
किसी भी क्षण
घृणा ऊपर आ
सकती है और प्रेम
नीचे दब सकता
है। और यह
किसी भी क्षण
हो सकता है, क्योंकि
भीतर तुम
दोनों हो।
तंत्र
कहता है कि
खंड मत करो, अखंड
रहो, और
केवल तभी तुम
जीत सकते हो।
अखंड
कैसे हुआ जाए? निंदा
मत करो; मत
कहो कि यह
अच्छा है और
वह बुरा है।
शुद्धता और
अशुद्धता की
सभी धारणाओं
को विदा कर दो।
संसार को देखो,
लेकिन मत
कहो कि यह
क्या है।
अज्ञानी रहो;
बहुत
बुद्धिमानी
मत दिखलाओ।
कुछ धारणा मत
बनाओ, चुप
रहो; न
निंदा करो और
न प्रशंसा।
अगर तुम संसार
के संबंध में
मौन रह सके तो
धीरे— धीरे यह
मौन तुम्हारे
भीतर भी
प्रवेश कर
जाएगा। और अगर
बाहर का
विभाजन
समाप्त हो जाए
तो भीतर का
विभाजन भी
समाप्त हो
जाएगा, क्योंकि
दोनों साथ ही
हो सकते हैं।
लेकिन
यह बात समाज
के लिए खतरनाक
है। यही कारण
है कि तंत्र
का दमन हुआ, उसे
दबाया गया।
समाज के लिए
यह दृष्टि
खतरनाक है कि
कुछ भी अनैतिक
नहीं है, कुछ
भी नैतिक नहीं
है; कुछ भी
शुद्ध नहीं है,
कुछ भी
अशुद्ध नहीं
है; चीजें
जैसी हैं वैसी
हैं।
एक
सच्चा
तांत्रिक यह
नहीं कहेगा कि
चोर बुरा है, वह
इतना ही कहेगा
कि वह चोर है; बस। और उसे
चोर कहने में
उसके मन में
कोई निंदा नहीं
है। अगर कोई
कहता है कि यह आदमी
महान संत है
तो तांत्रिक
कहेगा. हा, वह
संत है। लेकिन
उसे संत कहने
में कोई मूल्यांकन
नहीं है; वह
यह नहीं कहेगा
कि वह अच्छा
है। वह कहेगा:
ठीक है, यह
संत है और वह चोर
है। यह कहना
ऐसा ही है
जैसे यह कहना कि
यह गुलाब है
और वह गुलाब नहीं
है, यह
वृक्ष बड़ा है
और वह वृक्ष
छोटा है, कि
रात काली है
और दिन उजला
है। इसमें कोई
तुलना नहीं है।
लेकिन
यह खतरनाक है।
समाज एक की
निंदा और
दूसरे की
प्रशंसा किए
बिना नहीं रह
सकता है। समाज
नहीं रह सकता, क्योंकि
समाज द्वैत पर
खड़ा है।
इसीलिए तंत्र
का दमन किया
गया, उसे
समाज—विरोधी
समझा गया।
तंत्र समाज—विरोधी
नहीं है, बिलकुल
नहीं है।
लेकिन अद्वैत
कि दृष्टि
सामाजिक
धारणाओं का अतिक्रमण
कर जाती है।
वह समाज—विरोधी
नहीं है; वह
समाज का
अतिक्रमण है,
समाज के पार
उठ जाना है।
इसे
प्रयोग करो।
किसी
मूल्यांकन के
बिना, केवल
स्वाभाविक
तथ्यों के साथ,
कि अमुक यह
है और अमुक वह
है, संसार
में चलो। और
धीरे— धीरे
तुम्हें अपने
भीतर एक
अखंडता अनुभव
होगी।
तुम्हारे
विपरीत स्वर,
तुम्हारे
विरोध, तुम्हारे
अच्छे—बुरे सब
इकट्ठे हो
जाएंगे, वे
एक में मिल
जाएंगे। और
तुम एक इकाई
बन जाओगे। तब
न कुछ शुद्ध
होगा और न कुछ
अशुद्ध। तुम
यथार्थ को
सीधे जानते हो।
'अन्य
देशनाओं के
लिए जो
शुद्धता है वह
हमारे लिए
अशुद्धता ही
है।’
तंत्र
कहता है कि जो
दूसरों के लिए
बुनियादी बात
है वह हमारे
लिए जहर है।
उदाहरण के लिए, अहिंसा
पर आधारित
देशनाएं हैं,
जो कहती हैं
कि हिंसा अशुभ
है और अहिंसा
शुभ है। तंत्र
कहता है कि
हिंसा हिंसा
है और अहिंसा
अहिंसा, न
कुछ बुरा है, न कुछ भला।
कुछ देशनाएं
ब्रह्मचर्य
पर आधारित हैं;
वे कहती हैं
कि
ब्रह्मचर्य
शुभ है और
कामवासना पाप
है। तंत्र
कहता है, कामवासना
कामवासना है,
ब्रह्मचर्य
ब्रह्मचर्य
है। एक
ब्रह्मचारी
है और दूसरा
नहीं है।
लेकिन ये तथ्य
मात्र हैं, इनका
मूल्यों से
कुछ लेना—देना
नहीं है।
तंत्र यह कभी
नहीं कहेगा कि
ब्रह्मचारी
अच्छा है और
जो कामवासना
में डूबा है
वह बुरा है।
तंत्र यह कभी
नहीं कहेगा।
चीजें जैसी
हैं तंत्र
उन्हें वैसे
ही स्वीकार
करता है। और
क्यों? सिर्फ
तुम्हारे
भीतर अखंडता
निर्मित करने
के लिए।
यह
विधि
तुम्हारे
भीतर एक
अखंडता
निर्मित करने
के लिए, तुम्हारे
भीतर एक समग्र,
अखंड, द्वंद्वरहित
और विरोधरहित
सत्ता पैदा
करने के लिए
है। केवल तब
ही मौन संभव
है। जो
व्यक्ति किसी
वृत्ति से
भागता है वह
कभी शात नहीं
हो सकता है।
कैसे हो सकता
है? और जो
अपने भीतर
खंडित है, स्वयं
से ही लड़ रहा
है, वह जीत
कैसे सकता है?
यह असंभव है।
तुम ही दोनों हो,
फिर जीत
किसकी होगी? किसी की भी
जीत नहीं होगी;
तुम्हारी
ही हार होगी, क्योंकि
लड़ने में
तुम्हारी
ऊर्जा नाहक
नष्ट होगी।
यह
विधि तुम में
एक अखंडता
निर्मित
करेगी।
मूल्यों को
जाने दो; निर्णय
मत लो।
जीसस
ने कहीं कहा
है. 'दूसरे के
संबंध में कोई
निर्णय मत लो,
ताकि
तुम्हारे
संबंध में भी
निर्णय न लिया
जाए।’ लेकिन
यहूदियों के
लिए इसे समझना
असंभव हो गया,
क्योंकि
यहूदियों का
सारा चिंतन
नैतिकता पर निर्भर
है. यह शुभ है
और वह अशुभ है।
जीसस इस उपदेश
में—कोई
निर्णय मत लो—तंत्र
की भाषा बोल
रहे हैं। यदि
उनकी हत्या कर
दी गई, उन्हें
सूली पर
लटकाया गया, तो उसका
कारण यह उपदेश
था। उनकी
दृष्टि तंत्र
की दृष्टि थी : 'कोई निर्णय मत
लो।'
तो
मत कहो कि
वेश्या बुरी
है। कौन जानता
है?
और मत कहो
कि महात्मा
अच्छा है। कौन
जानता है? और
अंततः तो
दोनों एक ही
खेल के अंग हैं।
वे एक—दूसरे
पर निर्भर हैं,
परस्पर
जुड़े हैं।
इसलिए जीसस
कहते हैं. 'कोई
निर्णय मत लो।’
और यही
शिक्षा इस
सूत्र में है : 'दूसरे के
संबंध में कोई
निर्णय मत लो,
ताकि
तुम्हारे
संबंध में भी
निर्णय न लिया
जाए।’
अगर
तुम कोई
निर्णय नहीं
लेते हो, कोई
नैतिक
दृष्टिकोण
नहीं अपनाते
हो, तथ्यों
को वैसे ही
देखते हो जैसे
वे हैं, अपने
हिसाब से उनकी
व्याख्या
नहीं करते हो,
तो
तुम्हारे
संबंध में भी
निर्णय नहीं
लिया जाएगा।
तुम
पूरी तरह
रूपांतरित हो
गए हो। अब कोई
दिव्य सत्ता
तुम्हारे
संबंध में
निर्णय नहीं
लेगी; उसकी
जरूरत न रही।
तुम स्वयं
दिव्य हो गए; तुम स्वयं
परमात्मा हो
गए।
तो
साक्षी बनो, न्यायाधीश
नहीं।
आज
इतना ही।
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