दुःख से जागो—(प्रवचन—पंद्रहवां)
प्यारे
ओशो!
श्रीमद्भागवत
में यह श्लोक
है :
यश्च
मूढतमो लोके
यश्च बुद्धे:
परं गत:।
तावुभौ
सुखमेघेते
क्लिश्यत्यन्तरितो
जन:।।
संसार
में जो अत्यंत
मूढ़ है और जो
परमज्ञानी है,
वे
दोनों सुख में
रहते हैं।
परंतु जो
दोनों की बीच
की स्थिति में
है,
वह
क्लेश को
प्राप्त होता
है। क्या ऐसा
ही है,
प्यारे
ओशो?
आनंद
मैत्रेय!
निश्चय ही ऐसा
ही है। मूढ़ का
अर्थ है—सोया
हुआ,
जिसे होश
नहीं। जी रहा
है, लेकिन
पता नहीं
क्यों! चलता
भी है, उठता
भी है, बैठता
भी है—यंत्रवत्!
जिंदगी कैसे
गुजर जाती है,
जन्म कब मौत
में बदल जाता
है,
दिन कब
रात में ढल
जाता है—कुछ
पता ही नहीं
चलता। जो इतना
बेहोश है, उसे
दुख का बोध
नहीं हो सकता।
बेहोशी में
दुख का बोध कहां!
झेलता है दुख,
पर बोध नहीं
है, इसलिए
मानता है कि
सुखी हूं।
करीब
—करीब
प्रत्येक
व्यक्ति इसी
भ्रांति में
है कि सब ठीक
है। जिससे
पूछो—कैसे हो —वही
कहता— 'ठीक हूं।’
और ठीक कुछ
भी नहीं। सब
गैर —ठीक है।
जिससे पूछो, वही कहता है,
'मजा है!
आनंद है!
परमात्मा की
बड़ी कृपा है!' शायद उसे यह
भी बोध नहीं
कि वह क्या कह
रहा है।
न
सुननेवाले को
पड़ी है, न
बोलनेवाले को
पड़ी है कुछ
सोचने की।
कहनेवाला कह
रहा है, सुननेवाला
सुन रहा है। न
कहनेवाले को
प्रयोजन है—क्यों
कह रहा है। न
सुननेवाले को
चिंता है कि
क्या कहा जा
रहा है! ऐसी
बेहोशी में
सुख की
भ्रांति होती
है। पशु ऐसी
ही बेहोशी में
जीते हैं—और
निन्यान्नबे
प्रतिशत
मनुष्य भी।
'पशु' शब्द
बड़ा प्यारा है।
पशु का अर्थ
है —जो पाश में
बंधा हो। ’पशु'
का अर्थ
सिर्फ 'जानवर'
नहीं; पशु
का बड़ा
वैज्ञानिक
अर्थ है—बंधा
हुआ; मोह
के पाश में
बंधा हुआ; मूर्च्छा
के बंधनों में
जकडा हुआ; आसक्तियो
में; खोया
हुआ सपनों में।
पशुओं
को तुमने दुखी
न देखा होगा, रोते
न देखा होगा, पीड़ित न
देखा होगा।
इसलिए तो
पशुओं में कोई
बुद्ध नहीं
होता। जब पीड़ा
का ही पता न
चलेगा, तो
पीड़ा से मुक्त
होने की बात
ही कहा उठती
है! प्रश्न ही
नहीं उठता।
मनुष्यों
में कभी कोई
एकाध व्यक्ति
बुद्धत्व को
उपलब्ध होता
है,
कभी।
अंगुलियों पर
गिने जा सकते
हैं ऐसे लोग; करोड़ों में
कोई एक। कोन
बुद्धत्व को
उपलब्ध होता
है? वही
जिसे जीवन की
पीड़ा ठीक—ठीक
दिखाई पड़ती है,
जिसे इतना
होश आ जाता है
कि जीवन दुख
ही दुख है।
आशा है सुख की,
मगर मिलता कहां?
दौड़ते हैं
पाने के लिए, मगर पहुंचता
कोन है? हाथ
खाली के खाली
रह जाते हैं।
धन
भी इकट्ठा हो
जाता है, पद पर
भी बैठ जाते
हैं, मगर
भीतर की
रिक्तता नहीं
भरती, सो
नहीं भरती।
भीतर का दीया
नहीं जलता, सो नहीं
जलता। धन से
जलेगा भी कैसे?
पद से भीतर
रोशनी भी कैसे
होगी? कोई
संबंध नहीं
दोनों का। धन
बाहर है, भीतर
निर्धनता है।
बाहर के धन से
भीतर की
निर्धनता
कैसे मिटे? महल में रहो
कि झोपड़े में,
रहोगे तो
तुम ही! तुम
अगर झोपड़े में
दुखी हो, तो
महल में भी
दुखी रहोगे!
तुम अगर झोपड़े
में सोये हो, तो महल में
सोओगे। लेकिन
झोपड़े में जो
है, वह भी
सोच रहा है, 'सुखी हूं।’ राह के
किनारे जो
भिखमंगा बैठा
है—लगड़ा, लूला,
अंधा, बहरा,
कुष्ठ से
गला जा रहा है,
हाथ —पैर
गिर रहे हैं
टूट—टूटकर—वह
भी जीये जा
रहा है! पता
नहीं किस आशा
में! किस भांति
में!
'कल सब ठीक हो
जाएगा।’ कल
कभी आता है? जो नहीं आता,
उसी का नाम
कल है। तुम
किसी भिखमंगे
से भी कहोगे—किसलिए
जी रहे हो? तो
नाराज हो
जायेगा।
तुम्हें नहीं
दिखाई पड़ेगा
कोई कारण जीने
का। लेकिन
जीवेषणा ऐसी
है कि हर हाल
आदमी जीये जाता
है!
गहन
अकाल के दिनों
में माताएं
अपने बच्चों
को काटकर खा
गयीं! बापों
ने अपनी
बेटियां बेच
दीं। टूट गये
सब नाते; छूट
गये सब रिश्ते।
अपने जीवन की आकांक्षा
इतनी है कि
आदमी कुछ भी
कर सकता है!
जिसके लिए जीते
थे, उसी को
मार भी सकता
है। ऐसी
अवस्था में
पता नहीं चलता।
काटो में
बिंधे पड़े
रहते हैं, और
फूलों के सपने
देखते रहते
हैं!
यह
श्लोक ठीक
कहता है कि 'जो
संसार में
अत्यंत मूढ़
हैं, वे
सुखी हैं।’ सुखी इसलिए
कि उनकी मूढ़ता
इतनी सघन है
कि उन्हें
मूढ़ता का भी
पता नहीं।
छूता का पता
जिसे चल गया, वह तो छू न
रहा।
कल
ही मैंने देखा
श्री मोरारजी
देसाई का एक
वक्तव्य। एक
पत्रकार
परिषद में
उनसे पूछा गया
कि 'आप आचार्य
रजनीश का
गुजरात में
आगमन हो रहा
है—कच्छ में—उसका
विरोध करेंगे
या नहीं? आप
विरोध की
अगवानी क्यों
नहीं करते? कच्छ में
प्रवेश न हो, इस विरोध
में आप
नेतृत्व
क्यों हाथ में
नहीं लेते?
तो
उन्होंने कहा
कि 'कच्छ की
जनता ही विरोध
करेगी। और
आचार्य रजनीश
का वे ही लोग
समर्थन करते
हैं, जो
मूर्ख हैं, मूढ़ हैं!' मैंने
वक्तव्य पढ़ा,
तो सोचा या
तो मोरारजी
देसाई को अपना
वक्तव्य वापस
लेना चाहिए या
फिर मेरा
समर्थन करना
चाहिए। दो में
से कुछ एक
करना चाहिए।
अगर वक्तव्य
सही है, तो
मेरा समर्थन
करना चाहिए, क्योंकि वे
तो मूढ़ता में
सर्वोच्च हैं।
अरे, प्रधानमंत्री
का पद तो आया—गया!
अब तो
भूतपूर्व हो
गये; भूत
हो गये! लेकिन
मूढ़ता तो निज
की संपदा है, उसमें कभी
भूतपूर्व
होने की
संभावना नहीं
दिखती। मगर
परम मूढ़ता यह
है कि दूसरों
को मूढ़ समझते
हैं। खुद की
मूढ़ता का खयाल
नहीं होता।
एक
से एक
मूर्खतापूर्ण
बातें वह रोज
कहते हैं! और
खयाल में भी
नहीं कि क्या
कह रहे हैं!
कच्छ
की जनता को
मुझसे कोई
विरोध नहीं है।
अगर विरोध है, तो
मोरारजी
देसाई को और
उनके साथ हारे
गये
राजनीतिज्ञों
को—इने—गिने
थोड़े से लोग।
कच्छ की जनता
तो स्वागत के
लिए तैयार है।
रोज कच्छ से
लोग यहां आ
रहे हैं।
अभी
परसों ही
मांडवी का एक
प्रतिनिधि
मंडल आठ व्यक्तियों
का यह निवेदन
करने आया था
कि आप जो कच्छ
के,
मोरारजी
देसाई के जो
संगी—साथी हैं,
वे जो
शोरगुल मचा
रहे हैं, उस
भ्रांति में
आप जरा भी न
पड़ना। हम आपके
—स्वागत के
लिए आंखें
बिछाए बैठे
हैं।
कच्छ
के लोगों को
कोई विरोध
नहीं है।
विरोध है तो
ये कुछ कछुओं
को—जिनकी चमड़ी
इतनी मोटी है
कि जिसमें कुछ
घुसता ही
नहीं!
मूढ़
सुखी अनुभव
करता है अपने
को,
इसलिए कि
उसे दुख का
बोध नहीं होता।
इसीलिए तो जब
किसी का
आपरेशन करते
हैं, तो
पहले उसे
बेहोश कर देते
हैं। बेहोश हो
गया, तो
फिर दुख का
पता नहीं चलता।
फिर उसके हाथ
काटो, पैर
काटो, अपेंडिक्स
निकाल लो। जो
करना हो करो, उसे कुछ पता
नहीं। होश में
किसी की
अपेंडिक्स
निकालोगे, तो
आसान नहीं
मामला।
डाक्टर की
गर्दन दबा
देगा—लड़ने को,
मरने को, मारने को
राजी हो
जायेगा—कि यह
क्या कर रहे—मेरा
पेट काट रहे!
मेरे प्राण
निकल रहे हैं!
भागने लगेगा।
पहले उसे
बेहोश कर देते
हैं।
और
यही
प्रक्रिया
मृत्यु की है।
मरने के पहले
अधिकतम लोग
बेहोश हो जाते
हैं— क्षणभर
पहले, क्योंकि
मृत्यु तो बड़े
से बड़ा आपरेशन
है। आत्मा
शरीर से अलग
की जायेगी।
अपेंडिक्स
क्या है!
आत्मा का शरीर
से अलग होना—इससे
बड़ी और पीड़ा
की कोई बात
क्या होगी!
सत्तर—अस्सी—नब्बे
साल दोनों का
संग—साथ रहा।
जुड़ गये, एक
दूसरे में मिल
गये, तादात्म्य
हो गया। उस
सारे
तादात्म्य को
छिन्न—भिन्न
करना है। तो
प्रकृति
बेहोश कर देती
है; सिर्फ
कुछ बुद्धों
को छोड्कर।
क्योंकि उनको
बेहोश नहीं
किया जा सकता।
वे जागे ही
जीते हैं, जागे
ही सोते हैं, जागे ही
मरते हैं।
इसलिए मरते ही
नहीं।
क्योंकि
जागकर वे
देखते रहते
हैं—शरीर मर
रहा है, मैं
नहीं मर रहा
हूं।
मुस्कुराते
रहते हैं।
देखते रहते
हैं कि शरीर
छूट रहा है।
लेकिन मैं
शरीर नहीं हूं।
मन विदा हो
रहा है, लेकिन
मैं मन नहीं
हूं। वस्तुत:
तो वे बहुत
पहले ही शरीर
और मन से मुक्त
हो चुके। मौत
आयी उसके पहले
मर चुके। उसके
पहले
उन्होंने
शाश्वत जीवन
को जान लिया।
बुद्ध
की जब मृत्यु
हुई,
तो उनके
शिष्य रोने
लगे। बुद्ध ने
कहा, 'चुप
हो जाओ नासमझो।
मुझे मरे तो
लंबा अरसा हो
गया। मैं
बयालीस साल
पहले उस रात
मर गया, जिस
दिन बुद्ध हुआ।
अब क्या रो
रहे हो!
बयालीस साल
बाद! आज कुछ
नया नहीं हो
रहा है। यह तो
घटना घट चुकी।
बयालीस साल
पहले उस रात
पूर्णिमा की—मैंने
देख लिया कि
मैं शरीर नहीं,
मन नहीं।
बात खत्म हो
गयी। मौत तो
उसी दिन हो
गयी। रोओ मत।
रोने का कुछ
भी नहीं है।
क्योंकि जो है,
वह रहेगा।
और जो नहीं है,
वह नहीं ही
है। वह जाता
है, तो
जाने दो। सपने
ही टूटते हैं—सत्य
नहीं टूटते
हैं।
तो
जो परम ज्ञान
को उपलब्ध है, वह
भी सुखी—'महासुख'
बुद्ध ने
उसे कहा है—
भेद करने को।
अज्ञानी
सुखी होता है।
धन मिल जाता
है,
लाटरी मिल
जाती है—सुखी
हो जाता है।
पद मिल जाता
है—सुखी हो
जाता है।
खिलौनों में—माटी
के खिलौनों
में भरम जाता
है! एक भ्रम
टूटता नहीं कि
दूसरे भ्रमों
में उलझ जाता
है। नये—नये
भ्रम खड़े करता
रहता है।
झमेले में लगा
रहता है। यह
कर लूं—वह कर
लूं—आपाधापी!
इसमें इतना
उलझाव होता है,
इतना
व्यस्त कि पता
ही नहीं चलता
कि कब जिंदगी
आयी, कब
जिंदगी गुजर
गयी! कब सुबह
हुई, कब
सांझ हो गयी!
कब सूरज उगा, कब डूब गया!
बचपन
खिलौनों में
निकल जाता है, जवानी
भी खिलौनों
में निकल जाती
है। बदल जाते
हैं खिलौने।
बच्चों के
खिलौने छोटे
हैं, स्वभावत:,
जवानों के
खिलौने जरा
बडे हैं! मगर
आश्चर्य तो यह
है कि बुढ़ापा
भी खिलौनों
में ही निकलता
है। कम से कम
बुढ़ापे में
आते—आते तो
जाग जाना
चाहिए। मरने
के पहले तो
जाग जाना
चाहिए। मरने
के पहले तो
सारे व्यर्थ
के जाल—जंजाल
से छुटकारा कर
लेना चाहिए।
मरने के पहले
जीवन क्या है—इसकी
पहचान हो जानी
चाहिए। जिसको
हो जाती है—उसे
महासुख।
यह
श्लोक कीमती
है। यह कहता
है—'यश्च
मूढ़तमों लोके
यश्च बुद्धे:
परं गत:।’ वे
जो मूढ़ हैं, वे भी सुखी
हैं
नकारात्मक
अर्थो में।
क्योंकि उनको
दुख का पता
नहीं। और वे
जो
बुद्धपुरुष
हैं, बुद्धजन
हैं, जो
परम गति को
उपलब्ध हुए, वे भी सुखी
हैं—विधायक
अर्थों में।
उन्हें पता है
कि सुख क्या
है। वे
महासुखी हैं।
भेद को समझ
लेना। दोनों
का सुख अलग—अलग
है।
मूढ़
का सुख वैसा
ही है, जैसा
बेहोश आदमी का
आपरेशन हो रहा
हैं और उसे
पता नहीं।
काशी
के नरेश का
आपरेशन हुआ
उन्नीस सौ आठ
में।
अपेंडिक्स का
आपरेशन था।
लेकिन काशी के
नरेश ने
क्लोरोफार्म
लेने से इनकार
कर दिया। और
कहा कि 'इसकी
कोई जरूरत
नहीं है। मैं
जानता हूं कि
मैं शरीर नहीं।
आपरेशन करो।’
अंग्रेज
डाक्टर बड़ी
मुश्किल में
पड़े। आपरेशन
करना तत्क्षण
जरूरी है, नहीं
तो मौत हो
सकती है।
अपेंडिक्स
फूट सकती है।
संघातिक
स्थिति है।
ठहरा नहीं जा
सकता। और काशी
के नरेश को
जबरदस्ती भी
नहीं की जा सकती।
वे कहते हैं
कि 'बेहोश
करने की कोई
जरूरत नहीं है।
मैं ध्यान करता
रहूंगा, तुम
आपरेशन कर
देना!'
कभी
यह घटना घटी न
थी इसके पहले।
डाक्टरों ने
बहुत झिझकते
हुए समझाने की
कोशिश की।
लेकिन समझाने
के लिए समय भी
न था। तब
मजबूरी में
उन्होंने कहा
कि 'ठीक है।
थोड़ी—सी
चीरफाड़ करके
देखी कि क्या
परिणाम होता
है। लेकिन
काशी—नरेश तो
आख बंद किये
मस्त ही रहे। आंखों
से आनंद के आंसू
झरते रहे। फिर
उन्होंने
अपेंडिक्स भी
निकाल ली। वे
आनंद के आंसू
झरते ही रहे।
चेहरे पर एक
आभा—जैसे पता
ही न चला! जैसे
उन्होंने कुछ
इस बात का हिसाब
ही न लिया।
अपेंडिक्स
पहली दफा
मनुष्य जाति
के इतिहास में
बिना बेहोश
किये निकाली
गयी।
चिकित्सक
चकित थे।
भरोसा न आता
था अपनी आंखों
पर—कि इतना
बड़ा आपरेशन हो
और कोई
व्यक्ति हिले—डुले
भी नहीं! पूछा
उन्होंने
काशी नरेश को
कि 'इसका राज क्या
है?'
उन्होंने
कहा,
'राज कुछ भी
नहीं। राज
इतना ही है कि
मैं जानता हूं—मैं
शरीर नहीं हूं।
मैं साक्षी
हूं। मैं अपने
साक्षी— भाव
में रहा। मैं
देखता रहा कि
अपेंडिक्स
निकाली जा रही
है। पेट फाड़ा
जा रहा है।
औजार चलाए जा
रहे हैं। मैं
द्रष्टा हूं।
शरीर अलग है।
मैं यूं देखता
रहा, जैसे
कोई किसी और
के शरीर की
शल्यक्रिया
देखता हो। मैं
शरीर नहीं हूं
और ही है शरीर।’
ज्ञान
को उपलब्ध
व्यक्ति के
लिए कोई दुख
नहीं है, क्योंकि
दुख शरीर और
मन के ही होते
हैं; आत्मा
का कोई दुख
नहीं होता।
आत्मा का
स्वभाव आनंद
है।
हमने
शरीर के साथ
अपने को एक
मान रखा है, तो
हम दुखी हैं।
मन के साथ
अपने को जोड़
रखा है, तो
हम दुखी हैं।
मन यानी माया,
मन यानी मोह।
मन यानी सारा
संसार; यह
सारा विस्तार।
मन और शरीर से
अलग जिसने
अपने को जान
लिया, वह
परम बुद्धत्व
को उपलब्ध हो
जाता है। फिर
वहां कोई दुख
नहीं है। फिर
वहा महासुख है,
परम शांति
है—आनंद ही
आनंद—अमृत ही
अमृत!
और
यह बात भी सच
है कि इन
दोनों के बीच
में जो है, वह
दुखी है। मूढ़—उसे
पता नहीं, बेहोश
है। प्रबुद्ध—उसे
पता है, परिपूर्ण
होश है। इन
दोनों के मध्य
में जो है, वह
दुखी है। वह
बड़े झमेले में
है—न यहां का, न वहा का। न
घर का न घाट का—धोबी
का गधा है! इधर
शरीर खींचता
है, उधर
आत्मा
पुकारती है।
इधर बाहर की
दुनिया
आकर्षित करती
है, उधर
भीतर का लोक
निमंत्रण
देता है। यहां
धन खींचता है,
वहां ध्यान
पुकारता है—खेचातानी!
कोई टांग खींच
रहा है! कोई
हाथ खींच रहा
है!
जरा—जरा—सा
होश भी है, मगर
धुंधला—
धुंधला; इतना
नहीं कि
महासुख दिखाई
पड़ जाये। मगर
इतना होश है
कि दुख दिखाई
पड़ता है। इतनी
रोशनी नहीं कि
अंधेरा मिट
जाये। मगर
इतनी रोशनी है
कि अंधेरा
दिखाई पड़ता है।
जैसे सुबह—सुबह,
भोर में, अभी सूरज
नहीं निकला; अभी रात के
आखिरी तारे
नहीं डूबे।
कुछ—कुछ हल्की—सी
रोशनी है। और
गहन अंधकार भी—साथ—साथ!
मध्य में जो
है, वह
संध्या काल
में है। उसकी
बड़ी विडंबना
है। न यहां का,
न वहा का! वह
त्रिशंकु की
भांति लटक
जाता है—न इस
लोक का, न
परलोक का।
कुछ
लोगों की यह
गति है। खासकर
उन लोगों की, जिनके
जीवन में थोड़ी—सी
धार्मिकता है।
जिनके जीवन
में थोडा—सा
प्रार्थना का
स्वर सुनाई
पड़ा है। जिनके
जीवन में क्रांति
की थोड़ी—सी
चिनगारी पड़ी
है। वे बड़े
दुखी हो जाते
हैं। और वे तब
तक दुखी
रहेंगे, जब
तक वे परम
सत्य को न पा
लें।
बुद्ध
बहुत दुखी हो
गये थे, तभी
तो राजमहल
छोड़ा। और जिन
घटनाओं को
देखकर दुखी
हुए थे, उन्हीं
घटनाओं को तुम
रोज देखते हो,
और तुम्हें
कुछ भी नहीं
होता! चार
घटनाओं का
उल्लेख है।
बुद्ध
जब पैदा हुए, तो
ज्यातिषियो
ने कहा कि 'सम्राट,
हम बड़े
संकोच से भरे
हैं। आपके
बेटे का
भविष्य बडा
अनिश्चित है।
या तो यह
चक्रवती
सम्राट होगा।
अगर रुक रहा
संसार में, तो यह सारे
जगत का विजेता
होगा। लेकिन
पक्का नहीं कह
सकते। एक
संभावना यह भी
है कि सब
त्यागकर
संन्यासी होगा।
तब यह
बुद्धत्व को
उपलब्ध होगा।
या तो चक्रवती
सम्राट या
बुद्ध।’
सिर्फ
एक युवक
ज्योतिषी भी
मौजूद था।
कोदन्ना उसका
नाम था। वह भर
चुप रहा।
सम्राट ने
पूछा कि 'तुम
कुछ नहीं कहते?'
उसने एक
अंगुली उठायी।
सम्राट ने कहा,
'इशारे मत
करो। साफ—साफ
कहो। क्या
कहना चाहते हो
एक अंगुली
उठाकर?
कोदन्ना
ने कहा कि 'मैं
सुनिश्चित
रूप से कहता
हूं कि यह
व्यक्ति बुद्धत्व
को उपलब्ध
होगा।’
सम्राट
को बहुत धक्का
लगा कि एक ही
बेटा था। वह
भी बुढ़ापे में
पैदा हुआ था!
यह संन्यस्त हो
जायेगा। फिर
मेरे
साम्राज्य का
क्या होगा!
इसे कैसे रोका
जाये कि यह
संन्यस्त न हो।
हर
मां—बाप
बच्चों को
रोकते हैं—कहीं
संन्यस्त न हो
जायें! बड़ी
हैरानी की
दुनिया है। और
मजा यह कि अगर
किसी और का
बेटा
संन्यासी हो जाये, तो
यही मां—बाप
उसके चरण छूने
जाते हैं!
इनका खुद का
बेटा संन्यासी
होने लगे, तो
इनको अड़चन आती
है। अड़चन
इसलिए आती है
कि इनके
न्यस्त
स्वार्थ को
धक्का लगता है।
अड़चन इसलिए
आती है कि
बेटा हमसे आगे
जा रहा है!
इससे अहंकार
को भी पीड़ा
होती है। हम
जो न कर पाये, वह बेटा कर
रहा है, कि बेटी
कर रही है!
और
फिर बुद्ध के
पिता ने जो
बड़ा विस्तार
कर रखा था धन
का,
साम्राज्य
का, उसका
क्या होगा!
जीवन उसी में
गंवाया था।
बड़ी आशा थी इस
बेटे की कि
बेटा मिल
जायेगा, तो
सम्हालनेवाला
कोई होगा। हम
तो न रहेंगे, लेकिन अपना
कोई खून का
हिस्सा
सम्हालेगा!
क्या—क्या
मोह हैं
दुनिया में!
हम न होंगे तो
कम से कम हमारा
बेटा
सम्हालेगा।
खुद के बेटे
नहीं होते, लोग
दूसरों के
बेटे गोद ले
लेते हैं और
भ्रांतियां
बना लेते हैं
कि अपना है।
कोई
अपना
सम्हालेगा, तो
भी भरोसा है
कि चलो, हमारा
श्रम व्यर्थ
नहीं गया।
श्रम तो
व्यर्थ ही गया।
जब तुम ही चले
गये, तो
तुम्हारे
श्रम का क्या
मूल्य है!
बुद्ध
के पिता बड़े
चिंतित हुए।
पूछने लगे कि 'कोई
रास्ता बताओ —कैसे
इसको रोकें?'
तो
उन
ज्योतिषियों
ने कहा, 'अगर
इसे रोकना हो,
तो चार
चीजों का पता
मत चलने देना।
बीमारी होती
है—यह पता मत
चलने देना।
क्योंकि
बीमारी में
इसे दुख होगा।
दुख होगा, तो
फिर बचना
मुश्किल होगा।
बुढ़ापा आता है,
यह पता मत
चलने देना, क्योंकि
बुढ़ापे का अगर
इसको खयाल आ
जायेगा, तो
मौत ज्यादा
दूर नहीं है
फिर। और मौत
होती है—यह
इसे पता मत
चलने देना। और
चौथी बात कि
संन्यास की भी
संभावना है—यह
इसे पता मत
चलने देना। बस,
ये चार
बातों से
बचाये रखना।
और इसे पिलाओ
शराब और
रंगरेलियां
मनाने दो।
सम्राट हो तुम,
सुंदरतम
स्त्रियां
इकट्ठी कर दो,
उन्हीं में
भूला रहे, भटका
रहे। संगीत
चले। नाच चले।
शराब चले। दौर
पर दौर चलें।
इसको बेहोश
रखो। अगर इसे
बेहोश रखने
में समर्थ हो
गये, तो यह
चक्रवर्ती
सम्राट हो
जायेगा।’ सम्राट
ने कहा, 'फिर
ठीक है।’
उसने
बुद्ध के लिए
अलग—अलग ऋतुओं
के लिए अलग—अलग
महल बनवाये।
गर्मी के लिए
अलग महल। ऐसे
स्थान में ऐसे
मौसम में, ऐसे
वातावरण में,
जहां सब
ठंडा था, शीतल
था। उसे गर्मी
का पता न चले।
सर्दी में और
जगह—जहां सब
गर्म था उसे
सर्दी का पता
न चले। वर्षा
में ऐसी जगह
जहां थोड़ी
बूंदाबांदी
हो। वर्षा का
मजा भी हो, लेकिन
वर्षा की पीड़ा
न हो।
सम्राट
ने सारी सुंदर
स्त्रियां, जितनी
सुंदर
युवतियां
राज्य में मिल
सकती थीं, सब
को उठा लिया।
वह उसके हाथ की
—बात थी।
बुद्ध को
सिर्फ
लड़कियों से
घेर दिया।
खिलौने ही
खिलौने दे
दिये। और सारी
सुविधाएं
जुटा दीं।
श्रेष्ठतम
चिकित्सक
बुद्ध के पीछे
लगा दिये कि
बीमारी आने के
पहले ही इलाज
करें। बीमारी
आये—फिर इलाज
नहीं—बीमारी
आने के पहले
इलाज। बुद्ध
को पता ही न
चले कि बीमारी
आनेवाली थी।
और
किसी के को
बुद्ध के
महलों में
जाने की आज्ञा
न थी। यहां तक
कि कोई सूखा
हुआ पत्ता
बुद्ध के बगीचे
में नहीं
टिकने दिया
जाता था। सूखे
पत्ते को
देखकर शायद
उन्हें याद आ
जाये कि कभी
हमें भी तो
नहीं सूख जाना
पड़ेगा। आज हरे
हैं,
कल कहीं
सूखकर वृक्ष
से गिर तो न
जायेंगे!
कुम्हलाए हुए
फूल रात में
अलग कर देते
थे। बुद्ध के
बगीचे में
माली रातभर
काम करते थे।
कुम्हलाए फूल,
सूखे पत्ते,
पीले पड़ गये
पत्ते—सब अलग
कर दिये जाते
थे।
बुद्ध
को ऐसे धोखे
में रखा गया।
लेकिन कब तक
धोखे में
रखोगे! जिंदगी
से कैसे किसी
को छिपाया जा
सकता है!
एक
महोत्सव में—युवक
महोत्सव में
बुद्ध भाग
लेने जा रहे
थे—उसका
उद्घाटन करने।
राजकुमार ही
उसका उद्घाटन
करता था।
रास्ते पर
डुंडियां पीट
दी गयी थीं कि
कोई का न
निकले, कोई
बीमार न निकले,
कोई मुरदे
की लाश न
गुजरे, कोई
संन्यासी न निकले।
मगर दुनिया
बडी है। किसी
बहरे ने सुना
ही नहीं कि
डुंडी पिटी।
किसी बीमार को
पता ही न चला
कि डुंडी पिटी।
बड़ी राजधानी
थी।
और
जब बुद्ध का
रथ जा रहा था
राजधानी में
से,
तो
उन्होंने
देखा एक आदमी
को : कमर झुक
गयी है।
रुग्ण! खांस
रहा, खखार
रहा! पूछा कि 'क्या हो गया
इसको?'
सारथी
ने कहा कि 'मुछे
आज्ञा नहीं है
कि मैं आपको
इस तरह की बातों
के संबंध में
कहूं!'
बुद्ध
ने कहा, 'मैं
तुम्हें
आज्ञा देता
हूं कि बोलो।
क्या हो गया
इसे?'
बुद्ध
को इनकार भी
नहीं किया जा
सकता।
राजकुमार है।
तो उसने कहा, 'मजबूरी
है। लेकिन आपके
पिता की आज्ञा
नहीं है।’ बुद्ध
ने कहा, 'जब
मैं तुमसे
कहता हूं जवाब
दो, अन्यथा
नौकरी से तुम
अलग किये जाते
हो!'
उस
सारथी ने कहा, 'मालिक
नाराज न हों।
यह आदमी बीमार
है। इसको क्षय
रोग हो गया है।
यह तपेदिक से
बीमार है। यह
खांस रहा है, खखार रहा है।’
बुद्ध
ने कहा, 'क्या
मैं भी कभी
बीमार हो सकता
हूं?'
इसको
कहते हैं
प्रतिभा।
इसको कहते हैं
बुद्धिमता।
इसको कहते हैं
प्रखर
तेजस्विता—मेधा!
उस आदमी का
प्रश्न तत्क्षण
अपने पर लागू
हो गया।’क्या
मैं कभी बीमार
हो सकता हूं?'
उस
सारथी ने कहा
कि 'मैं क्या
कहूं आपसे!
लेकिन देह है,
तो बीमारी
है। देह तो
बीमारियों का
घर है। इसमें
सब बीमारियां
छिपी हैं। आज
नहीं कल..... अभी
आप जवान हैं।
अभी सब स्वस्थ
है। सब सुंदर
है। मगर कब
टूट जायेगा
स्वास्थ्य, कहा नहीं जा
सकता। टूट ही
जाता है। मगर
खयाल रखें, अपने पिता
को मत कहना कि
मैंने ये
बातें आपसे
कहीं। नहीं तो
मेरा
अस्तित्व
खतरे में है।’
बुद्ध
ने कहा, 'तुम
चिंता मत करो।’
और
तभी एक का
आदमी गुजरा, बहुत
जराजीर्ण। और
बुद्ध ने पूछा,
'इसे क्या
हो गया? इसे
कोन सी बीमारी
है?'
सारथी
ने कहा, 'इसे
कोई बीमारी
नहीं है। यह
बुढ़ापा है। यह
सबको होता है।
यह बीमारी
नहीं है, यह
सहज जीवन का
अंतिम चरण है।’
बुद्ध
ने कहा, 'क्या
ऐसी ही
झुर्रियां
मेरे चेहरे पर
पड़ जायेंगी!
ऐसी ही शिकन!
ऐसा ही कमजोर
मैं हो
जाऊंगा! आंखें
मेरी ऐसी ही
धुंधली हो
जायेंगी? ही
बहरा मैं हो
जाऊंगा?'
सारथी
ने कहा, 'मजबूरी
है। मगर
प्रत्येक को
एक दिन इसी
तरह हो जाना
पड़ता है। सब
चीजें आखिर थक
जाती हैं।
इंद्रियां थक
जाती हैं, टूटने
लगती हैं, बिखरने
लगती हैं।
बुढ़ापे से कोन
बच सका है!'
और
तभी एक् मुरदे
की लाश निकली
और बुद्ध ने
पूछा, 'अब इसे
क्या हो गया
है? ये किस
आदमी को
बांधकर लिये
जा रहे हैं? '
सारथी
ने कहा, 'यह
बुढ़ापे के बाद
की घटना है।
यह आदमी मर
गया।’
और
तब उसी लाश के
पीछे एक
संन्यासी—गैरिक
वस्त्रों में!
बुद्ध ने कहा, 'यह
आदमी गैरिक
वस्त्र क्यों
पहने हुए है? इसके हाथ
में भिक्षा का
पात्र क्यों
है? इस
आदमी की यह
शैली क्या है?'
तो
पता चला कि यह
संन्यासी है।
इसने सारे
संसार को छोड़
दिया है।
क्यों छोड़
दिया है? इसलिए
कि जीवन में
दुख है, बीमारी
है, बुढ़ापा
है, मृत्यु
है। यह आदमी
अमृत की तलाश
में चला है।
बुद्ध
ने कहा, 'लौटा
लो; रथ को
वापस लौटा लो।
मैं बीमार हो
गया। मैं का
हो गया। मैं
मर गया—यूं
समझो। मुझे भी
सत्य की तलाश
करनी होगी।’
'वे महोत्सव
में भाग लेने
नहीं गये। लौट
आये। और उसी
रात उन्होंने
गृहत्याग कर
दिया।
ये
चार सत्य
तुम्हें रोज
दिखाई पड़ते
हैं—बीमार भी
दिखाई पड़ता है, तुम
भी बीमार पड़ते
हो। बूढ़ा भी
दिखाई पड़ता है,
तुम भी बूढ़े
हो रहे हो। रोज
हो रहे हो।
प्रतिपल हो
रहे हो।
जिसको
तुम जन्मदिन
कहते हो, वह
जन्मदिन थोड़े
ही है; मौत
और करीब आ गयी!
उसको जन्मदिन
कह रहे हो!
लोग
जन्मदिन मनाते
हैं! लेकिन
मौत करीब आ
रही है। एक
साल और बीत
गया। एक बरस
और बीत गया।
जिंदगी और
छोटी हो गयी।
तुम सोचते हो, जिंदगी
बड़ी हो रही है?
जिंदगी
छोटी हो रही
है!
जन्मने
के बाद आदमी
मरता ही जाता
है। पहले ही
क्षण से मरना
शुरू हो जाता
है। यह मरने
की प्रक्रिया
सत्तर—अस्सी
साल लेगी, यह
और बात। धीरे—धीरे
क्रमश: आदमी
मरता जाता है।
लेकिन
तुम देखकर भी
कहां देखते हो।
तुम बेहोश हो।
इसलिए तुम
सुखी हो।
बुद्ध बहुत
दुखी हो गये।
मध्य में आ
गये। मूढ़ न
रहे। अभी परम
ज्ञान नहीं
हुआ है। मगर
बीच की हालत आ
गयी। बहुत
दुखी हो गये।
तलाश में निकल
गये।
जब
आदमी बहुत
दुखी होता है, तभी
तलाश में
निकलता है।
मगर दुख को
अनुभव करने के
लिए भी
बुद्धिमत्ता
चाहिए। धन्यभागी
हैं वे, जो
दुख को अनुभव
कर सकते हैं, क्योंकि
जिन्होंने
दुख को अनुभव
किया, उन्होंने
फिर दुख से
मुक्त होने की
चेष्टा भी की।
करनी ही पड़ेगी।
बुद्ध
छह वर्ष अथक
तपश्चर्या
किये, ध्यान
किये। और एक
दिन परम
बुद्धत्व को
उपलब्ध हुए, तब महासुख
के झरने फूटे।
तब अमृत रस
बरसा। तब जीवन
का राज खुला, रहस्य खुला।
तब भीतर का
सूरज उगा।
ध्यान मिला, तो भीतर का
धन मिला।
समाधि मिली, तो सब
समस्याओं का
समाधान मिला।
फिर कोई दुख न
रहा। फिर कोई
संताप न रहा।
यह
सुत्र बिलकुल
ठीक है—
'यश्च मूढ़तमो
लोके यश्च बुद्धे:
परं गत:।’
बड़ा
विरोधाभासी
सूत्र है कि
मूढ़ों की गति
और परम
बुद्धों की
गति एक अर्थ
में समान है।
छू भी सुखी, बुद्ध
भी सुखी। मगर
उनका सुख बड़ा
अलग— अलग। मूढ़
बेहोशी के
कारण सुखी; बुद्ध होश
के कारण सुखी।
जमीन आसमान का
भेद है।
'ताबुभौ
सुखमेघेते
क्लिश्यत्यन्तरितो
जन:।’
लेकिन
जो बीच में
हैं,
मध्य में
हैं, उनको
बड़ा क्लेश है।
लेकिन मध्य
में आना ही
होगा। पशुता
छोड़नी ही होगी;
मनुष्य
होना ही होगा।
मनुष्य दुखी होगा;
मनुष्य
मध्य में होगा।
लेकिन उस दुख
से गुजरे बिना
कोई बुद्धत्व
तक नहीं जा
सकता। वह कीमत
चुकानी पड़ती
है। जो उस
कीमत को
चुकाने से बचेगा,
वह पशुता के
जगत में हां, मूढ़ता के
जगत में ही
उलझा रह जाता
है।
और
तुम यही कर
रहे हो।
अधिकतम लोग
यही कर रहे
हैं। किसी तरह
अपने को भुलाए
रखो;
उलझाए रखो।
जाल बुनते रहो
उलझाव के। और
कल पर टालते
रहो—मनुष्य
होने की
संभावना को।
कल मौत आयेगी।
तुम
बहुत बार जन्मे
हो और बहुत
बार ऐसे ही मर
गये! अवसर
तुमने कितना
गंवाया है—हिंसाब
लगाना
मुश्किल है!
अब और न गंवाओ।
यह कीमत चुका
दो। यह दुख से
थोड़ा गुजरना
पड़ेगा। और
जितने जल्दी
चुका दो, उतना
बेहतर है। यह
दुख ही
तपश्चर्या है।
यह दुख ही
साधना है। इस
दुख की सीढ़ी
से चढ़कर ही कोई
परमसुख को
उपलब्ध हुआ है।
और कोई उपाय
नहीं है। बचकर
नहीं जा सकते।
इसलिए
शास्त्र कहते
हैं कि देवता
भी देवलोक से
निर्वाण को
नहीं पा सकते।
पहले उन्हें
मनुष्य होना
पड़ेगा।
मनुष्य हुए
बिना कोई
बुद्धत्व को
उपलब्ध नहीं
हो सकता है, क्योंकि
मनुष्य
चौरस्ता है।
देवता
सुखी हैं।
शराब पी रहे
हैं।
अप्सराओं को
नचा रहे हैं।
और उसी तरह के
उपद्रव में
लगे हैं, जिसमें
तुम लगे हो।
कुछ फर्क नहीं
है! थोड़ा बड़े
पैमाने पर है
उनका जरा।
उनकी उम्र
लंबी होगी।
उनकी देह
सुंदर होगी।
मगर सब यही
जाल है, जो
तुम्हारा है —यही
ईर्ष्या—यही
वैमनस्य है!
तुमने
कहानियां तो
पढ़ी हैं कि
इंद्र का
सिंहासन बड़े
जल्दी डोल
जाता है। कोई
तपश्चर्या
करता है, इंद्र
का सिंहासन
डोला! घबड़ाहट
चढ़ती है कि यह आदमी
कहीं इंद्र न
हो जाये! वही
राजनीति, वही
दाव—पेंच! और
इंद्र करते
क्या हैं? भेज
देते हैं
अप्सराओं को—मेनका
को, उर्वशी
को कि भ्रष्ट
करो इस तपस्वी
को। यह भ्रष्ट
हो जाए तो मैं
निश्चित सोऊ।
मगर क्या खाक
निश्चित सो
पाओगे! इतनी
बड़ी पृथ्वी है,
कोई न कोई
तपश्चर्या
करेगा, कोई
न कोई ध्यान
करेगा। नींद कहां?
देवता
भी दुखी हैं, उतने
ही जितने तुम।
लेकिन न
तुम्हें पता
है, न
उन्हें पता है।
वे भी बेहोश
हैं। इसलिए
शास्त्र ठीक
कहते हैं कि
मनुष्य हुए बिना.....।
मनुष्य के
चौराहे से तो
गुजरना ही
होगा। यह
चौराहा है। यहां
से पशु की तरफ
रास्ता जाता
है; यहां
मनुष्य की तरफ
रास्ता जाता
है; यहां
से देवत्व की
तरफ रास्ता
जाता है; और
यहां से
बुद्धत्व की
तरफ भी रास्ता
जाता है।
मनुष्य
चौराहा है।
चारों रास्ते यहां
मिलते हैं।
अगर तुम समझो, तो
जीवन एक परम
सौभाग्य है।
अगर तुम जागो,
तो मनुष्य
होने से
बुद्धत्व
होने की तरफ
मार्ग जा रहा
है; तुम
उसे चुन सकते
हो।
लेकिन
लोग शराब
पीयेंगे! अगर
दुखी होंगे, तो
शराब पीयेंगे।
क्यों आदमी
शराब पीता है—दुखी
होता है तो? भुलाने के
लिए। पशु हो
जायेगा शराब
पीकर।
जो
समझदार है, वह
ध्यान करता है।
वह ध्यान की
शराब पीता है।
वह समाधि की
तरफ बढ़ता है।
वह कहता है, ऐसे भुलाने
से क्या होगा!
भुलाने से दुख
मिटता तो नहीं।
फिर कल सुबह
होश आयेगा।
फिर दुख वहीं
के वहीं पाओगे।
और बड़ा हो
जायेगा।
रातभर
में दुख भी
बड़ा हो रहा है।
जब तुम सो रहे
हो,
तब दुख भी
बड़ा हो रहा है।
सुबह चिंताओं
के जाल और खड़े
हो जायेंगे।
कल जब तुमने
शराब पी थी, जितनी
चिंताएं थीं,
सुबह पाओगे—और
ज्यादा हो
गयीं, क्योंकि
शराब पीकर भी
तुम कुछ
उपद्रव करोगे
न! किसी को
गाली दोगे, किसी को
मारोगे, किसी
के घर में घुस
जाओगे। किसी
की स्त्री को
पकड़ लोगे। कुछ
न कुछ उपद्रव
करोगे! सुबह
तुम पाओगे—और
झंझटें हो
गयीं!
हो
सकता है सुबह
हवालात में
पाओ अपने को; कि
किसी नाली में
पड़ा हुआ पाओ।
कुत्ता मुंह
चाट रहा हो! कि
जीवन—जल छिड़क
रहा हो। और
झंझटें हो
गयीं! सुबह घर
पहुंचोगे, तो
पत्नी खड़ी है—मूसल
लिए हुए! इससे
निपटो! दफ्तर
जाओगे, वहां
झंझटें खड़ी
होंगी। हजार
भूल—चूके
होंगी।
क्योंकि नशा
सरकते—सरकते
उतरता है।
थोड़ी—सी छाया
बनी ही रहती
है। कुछ का
कुछ हो जायेगा।
कुछ का कुछ
बोल जाओगे।
कुछ का कुछ कर
गुजरोगे। और
चिंताएं बढ़
जायेंगी और
दुख बढ़
जायेंगे। कल
मुश्किल थी.....।
और हो सकता है
कि जेब ही कट
जाये!
बीमारियां थीं
और बीमार हो
जाओगे!
जिंदगी
वैसे ही उलझी
हुई थी, शराब
से सुलझ नहीं
जायेगी।
गालियां दे
दोगे। झगड़े कर
लोगे। कुट
जाओगे, पिट
जाओगे। किसी
को पीट दोगे, छुरा मार
दोगे—पता नहीं
बेहोशी में
क्या कर
गुजरोगे! इतना
तय है कि
चिंताएं कम
नहीं होंगी; बढ़ जायेंगी।
संताप गहन हो
जायेगा। फिर
और शराब पीना—इसको
भुलाने के
लिए! अब तुम
पड़े दुष्ट—चक्र
में।
एक
ही उपाय है—जागो, होश
से भरो।
अगर
दुख हैं, तो
उनका भी उपयोग
करो। दुख का
एक ही उपयोग
किया जा सकता
है—और वह यह है
कि साक्षी बनो।
और जितना
साक्षी— भाव
बढ़ेगा, उतना
दुख क्षीण
होता जायेगा।
इधर भीतर
साक्षी जगा कि
रोशनी हुई, दुख कटा, अंधेरा
कटा।
जिस
दिन तुम परम
साक्षी हो जाओगे, द्रष्टा
मात्र, उस
दिन जीवन में
कोई दुख नहीं।
उस दिन जीवन
परमात्मा है!
'ज्यूं
था त्युं
ठहराया' प्रवचन
माला से
दिनांक
17 सितम्बर 1980;
श्री रजनीश आश्रम
पूना।
thank you guruji
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