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शनिवार, 26 सितंबर 2015

कहै वाजिद पुकार--(प्रवचन--05)

साधां सेती नेह लगे तो लाइए—(प्रवचन—पांचवां)
दिनांक 25 सितम्‍बर 1976;
श्री रजनीश आश्रम, पूना

सूत्र:

साधां सेती नेह लगे तो लाइए
जे घर होवे हांण तहुंछिटकाइए।।
जे नर मूरख जान सो तो मन में डरै
हरि हां, वाजिद, सब कारज सिध होय कृपा जे वह करै।।
बेग करहु पुन दान बेर क्यूं बनत है।
दिवस घड़ी पल जाय जुरा सो गिनत है।।
मुख पर देहैं थाप सूंज सब लूटिहै
हरि हां, जम जालिम सूं वाजिद, जीव नहिं छूटिहै।।
कहै वाजिद पुकार सीख एक सुन्न रे।
आड़ो बांकी बार आइहै पुन्न रे।।
अपनो पेट पसार बड़ौ क्यूं कीजिए।
हरि हां, सारी मैंत्तैं कौर और कूं दीजिए।।
धन तो सोई जाण धणी के अरथ है।
बाकी माया वीर पाप को गरथ है।।
जो अब लागी लाय बुझावै भौन रे।
हरि हां, वाजिद, बैठ पथर की नाव पार गयो कौन रे।।

जो भी होय कछु गांठि खोलिकै दीजिए।
साईं सबही माहिं नाहिं क्यूं कीजिए।।
जाको ताकूं सौंप क्यूं न सुख सोवही
हरि हां, अंत लुणै वाजिद, खेत जो बोवही।।
जोध मुए ते गए, रहे ते जाहिंगे
धन सांचता दिन—रैण कहो कुण खाहिंगे।।
तन धन है मिजमान दुहाई राम की।
हरि हां, दे ले खर्च खिलाय धरी किहि काम की।।
गहरी राखी गोय कहो किस काम कूं
या माया वाजिद, समर्पो राम कूं।।
कान अंगुली मेलि पुकारे दास रे।
हरि हां, फूल धूल में धरै न फैले बास रे।।

है वाजिद पुकार!
साधां सेती नेह लगे तो लाइए
जे घर होवे हांण तहुंछिटकाइए।।
जे नर मूरख जान सो तो मन में डरै
हरि हां, वाजिद, सब कारज सिध होय कृपा जे वह करै।।
एक—एक शब्द बहुमूल्य है। हीरों में तौला जाए ऐसा!
साधां सेती नेह लगे तो लाइए
प्रेम करना हो तो किसी साधु से करना। प्रेम ही करना हो तो साधु से करना; कर सको तो साधु से करना। क्योंकि बाकी सब प्रेम डुबाने वाले हैं, साधु से हुआ प्रेम पार लगाने वाला है। साधु से हुआ प्रेम सत्य से हुआ ही प्रेम है।
साधु का अर्थ है——झरोखा, जिससे सत्य की थोड़ी—सी झलक मिली। साधु का अर्थ है——जैसे बिजली कौंध गई; राह दिखी, मार्ग मिला। साधु का अर्थ है——हमारे पास तो आंखें नहीं हैं, हमें तो परमात्मा की कोई प्रतीति नहीं होती, लेकिन किसी के पास आंखें हैं और किसी को उसकी प्रतीति हुई है, और उसके पास भी बैठ जाते तो वर्षा की दो बूंदें हम पर भी पड़ जातीं! साधु से प्रेम का अर्थ है——सत्संग।
शास्त्र से नहीं मिलेगा सत्य, क्योंकि शास्त्र तो मुर्दा हैं। शास्त्र में तो तुम वही पढ़ लोगे जो तुम पहले से ही जानते हो। शास्त्र में तो तुम अपने को ही पढ़ लोगे।
साधु जीवंत है। साधु का अर्थ है——अभी शास्त्र जहां पैदा हो रहा है। शास्त्र का अर्थ है——कभी वहां साधु था। साधु तो जा चुका है, रेत पर पड़े चिह्न रह गए हैं। पक्षी तो उड़ गया है, पिंजड़ा पड़ा रह गया है। शास्त्र का अर्थ है——साधुओं की याद। साधु का अर्थ है——शास्त्र जहां अभी पैदा हो रहा है। जहां शास्त्र में अभी नए पल्लव आ रहे हैं, नई कलियां उग रही हैं, नए फूल खिल रहे हैं। फूल शब्द में तो सुगंध नहीं होती, ऐसे ही शास्त्र में भी सुगंध नहीं होती, क्योंकि शास्त्र तो केवल शब्द मात्र हैं। और कितना ही तुम पाकशास्त्र पढ़ो, इससे भूख न बुझेगी। भोजन पकाना होगा। भोजन ही भूख मिटाएगा
साधु भोजन है। उसके पाठ, उसकी शिक्षाएं, उसकी देशनाएं, उसकी मौजूदगी——सब पौष्टिक है। जीसस ने कहा है अपने शिष्यों से: कर लो मेरा भोजन। पी लो मुझे, खा लो मुझे, पचा लो मुझे।
इसी अर्थ में कहा है। फिर पीछे तुम दोहराओगे शब्दों को। फिर शब्दों को कितना ही दोहराओ, उन दोहराए गए शब्दों से तुम्हारा मस्तिष्क भरा—भरा हो जाए, तुम्हारे प्राण तो खाली के खाली ही रहेंगे। साधु अभी जीवंत तरंग है। अभी वहां संगीत उठ रहा है। अभी कान खोलो, अभी हृदय खोलो, तो तुम्हारे भीतर भी दौड़ जाए लहर। तुम भी कंपित हो उठो। तुम भी नाच जाओ! तुम्हारी आंखें भी गीली हो जाएं। तुम भी भीग जाओ!
साधां सेती नेह लगे तो लाइए
बन सके तो एक बात बना लेना, कहते हैं वाजिद——कहते हैं पुकार—पुकारकर——कि बन सके, जिंदगी में कुछ बनाने जैसा है अगर तो एक बात है: सत्संग में डुबकी लगा लेना; किसी साधु से मैत्री बना लेना; किसी साधु के प्रेम में पड़ जाना।
और निश्चित ही यह प्रेम जैसा ही मामला है। जैसे प्रेम हो जाता है, ऐसे ही सत्संग है। प्रेम कोई कर नहीं सकता; या कि तुम सोचते हो कर सकते हो? किसी की आज्ञा पर तो प्रेम नहीं किया जा सकता। कोई कहे कि करो इस व्यक्ति को प्रेम, और व्यक्ति कितना ही सुंदर हो और कितना ही मोहक हो, लेकिन कैसे प्रेम करोगे? प्रेम कोई कृत्य तो नहीं है जिसे तुम जन्मा लो!
और अगर करोगे, तो अभिनय होकर रह जाएगा, नाटक हो जाएगा। हां, छाती से छाती लगा सकते हो, गलबांही डाल सकते हो, लेकिन हृदय तो कोसों फासले पर रहेंगे। हड्डियां मिल जाएंगी, भीतर छिपे हुए प्राण तो एक साथ नहीं नाचेंगे। गले में बांहें डालने से तो कोई बांह नहीं डलती। प्राण तो दूर—दूर ही रह जाएंगे, अनंत फासला होगा। अभिनय हो जाएगा। अभिनय तो प्रेम नहीं! इसलिए प्रेम कोई कृत्य नहीं है जिसको तुम कर सको। प्रेम तो घटना है जो घटती है, आकाश से उतरती है और तुम भर जाते हो! जैसे वर्षा होती, मेघ घिरते, ऐसे ही आकाश में मेघ घिरते हैं प्रेम के और बरसते हैं!
हां, यह सच है कि जो घड़ा उलटा रखा हो, वह आकाश से बरसते मेघ के क्षण में भी खाली का खाली रह जाएगा। जो घड़ा सीधा रखा हो, वह भर जाएगा। तो ज्यादा से ज्यादा हमारे हाथ में इतना है कि हम अपने घड़े को सीधा रखें और जब प्रेम आए तब हम अंगीकार करें। हम अपने खिड़की, द्वार—दरवाजे खुले रखें, और जब प्रेम का झोंका आए तो हम उसे आनंद से स्वागत करें, मंगल—गीत गाएं। प्रेम के हवा के झोंके को हम ला नहीं सकते, बुला भी नहीं सकते, पुकार भी नहीं सकते, आता है तब आता है।
प्रेम की यह महत्वपूर्ण घटना तुम समझ लेना। होता है तब होता है, आदमी के हाथ के बाहर है। और जो आदमी के हाथ के भीतर है, वही परमात्मा के हाथ नहीं। जो आदमी के हाथ के बाहर है, वही परमात्मा के हाथ में है। जो आदमी कर लेता है, वह तो दो कौड़ी का है। जो आदमी के हाथ के भीतर है, वह आदमी से छोटा है। प्रेम ऐसी घटना है जो तुम से बड़ी है। प्रेम तुम्हारे भीतर नहीं घट सकता; हां, तुम अपने को प्रेम में समाविष्ट कर ले सकते हो। तो खुले रहना!
वाजिद कहते हैं: साधां सेती नेह लगे तो लाइए
जब घटना घटने लगे तो रोकना मत, लग सके तो लग जाने देना। यह प्रेम बने तो बन जाने देना, बाधा मत डालना।
और हजार बाधाएं डालता है मन, क्योंकि मन प्रेम के बड़े विपरीत है। मन क्यों प्रेम के विपरीत है? मन इसलिए प्रेम के विपरीत है कि प्रेम में मन को मरना होता है। प्रेम तो मन की मृत्यु पर ही खड़ा होता है। मन को तो मरना होता है, अहंकार को मरना होता है, मैं—भाव को मरना होता है। प्रेम की बुनियाद ही अहंकार की मृत्यु पर रखी जाती है। अहंकार की जली हुई राख पर ही प्रेम का मंदिर उठता है। इसलिए अहंकार डरता है, मन भयभीत होता है। मन हजार उपाय करता है बच निकलने के, भाग जाने के।
इस बात को ख्याल में रखकर वाजिद कह रहे हैं: हो सके तो हो जाने देना, रोकना मत।
साधां सेती नेह लगे तो लाइए
अगर साहस बन सके, तो हो जाने देना यह अपूर्व घटना। जब प्रेम बनता हो तो लाख मन कहे, लाख तर्क दे। और मन के पास बहुत तर्क हैं। मन के पास तर्क ही तर्क हैं, और तो कुछ है भी नहीं। और प्रेम तर्क नहीं है, प्रेम अतक्र्य है।
जैसे समझो, जिनका मुझसे प्रेम बन गया है, उनसे कोई पूछे, उत्तर नहीं दे पाते हैं। उत्तर देने का कोई उपाय नहीं है। उन्हें कोई भी कह सकता है तुम पागल हो गए हो! वे अपनी सुरक्षा भी न कर पाएंगे। वे विवाद भी न कर सकेंगे। उनके ओंठ सिए रह जाएंगे, उनसे शब्द भी न फूटेगा। और अगर उन्होंने चेष्टा करके कुछ कहा, तो उनको खुद ही दिखाई पड़ेगा कि यह वह नहीं है जो हम कहना चाहते थे, यह वही नहीं है जो हुआ है। शब्द बड़े छोटे हैं, प्रेम आकाश जैसा विराट। कैसे समाओ शब्दों में उसे? और प्रेम अतक्र्य है, इसलिए कोई नहीं कह सकता कि क्यों हो गया है। प्रेम के लिए कोई "क्यों' का उत्तर नहीं है।
साधारण प्रेम के लिए भी "क्यों' का उत्तर नहीं होता। तुम किसी स्त्री के प्रेम में पड़ गए, या किसी पुरुष के प्रेम में पड़ गए, या किसी से मैत्री बन गई। और तुमसे कोई पूछे——क्यों? तलाशो, खोजो; कोई उत्तर सूझता नहीं। और जितने उत्तर तुम दोगे, सब झूठे हैं। जैसे तुम कहोगे कि यह स्त्री सुंदर है——इसलिए। मगर यह स्त्री सुंदर है! और भी तो सैकड़ों लोग हैं, वे कोई इसके प्रेम में नहीं पड़े। और यह स्त्री सुंदर है! एक दिन पहले, तुम्हारे प्रेम में पड़ने के एक दिन पहले, यह स्त्री तुम्हारे सामने से निकली होती, तो तुम प्रेम में नहीं पड़ गए होते। हो सकता है यह तुम्हारे मोहल्ले में ही रही हो। वर्षों तुमने इसे आते—जाते देखा हो। और कभी प्रेम की तरंग नहीं उठी थी; और एक दिन उठी और घटना घटी। शायद इसके पहले तुमने ध्यान भी न दिया हो कि यह कौन है। शायद इसका चेहरा भी ठीक से न देखा हो। अब कहते हो——क्योंकि यह सुंदर है इसलिए प्रेम हो गया! सुंदर यह कल भी थी और परसों भी थी, सुंदर यह सदा से थी। आज क्यों प्रेम हुआ? इस क्षण में क्यों प्रेम हुआ?
तुम उलटी बात कर रहे हो। यह स्त्री सुंदर मालूम होने लगी, क्योंकि प्रेम हो गया है। तुम कह रहे हो कि सुंदर होने के कारण प्रेम हो गया है। प्रेम हो जाने के कारण अब यह सुंदर मालूम होती है। जिससे प्रेम हो जाता है, वही सुंदर मालूम होता है। इसलिए लोग कहते हैं, किसी मां को अपना बेटा कुरूप नहीं मालूम होता, किसी बेटे को अपनी मां कुरूप नहीं मालूम होती। जहां प्रेम हो जाता है, वहीं सौंदर्य दिखाई पड़ने लगता है। प्रेम की आंख ही सौंदर्य की जन्मदात्री है।
तो साधारण प्रेम के लिए भी निरुत्तर हो जाना पड़ता है। इतना ही कह सकते हो——बस हो गया, असहाय, अवश, अपने हाथ में नहीं! जब साधारण प्रेम के संबंध में ऐसी बात है, जो कि तुम्हारे निम्नतम व्यक्तित्व से घटता है, तुम्हारे जीवन की सबसे नीची ऊर्जा से घटता है, कामवासना से घटता है...।
प्रेम की तीन सीढ़ियां हैं: काम, प्रेम, भक्ति।
काम सबसे नीची घटना है। आमतौर से जिसको तुम प्रेम कहते हो, वह कामवासना ही होती है। उसके रहस्य तुम्हारे शरीर के भीतर छिपे होते हैं। उसके रहस्य तुम्हारी कामवासना की वृत्ति में दबे होते हैं। उसके रहस्य तुम्हारे हारमोन और तुम्हारा रसायन—शास्त्र। उसका रहस्य तुम्हारा अचेतन चित्त है। कामवासना को ही लोग प्रेम कहते हैं। सबसे निम्नतम ऊर्जा तुम्हारी जो है, जीवन की सीढ़ी का जो पहला सोपान है, उसका भी तुम उत्तर नहीं दे पाते। वह भी बेबूझ मालूम होती है बात।
प्रेम काम के बाद की सीढ़ी है। प्रेम और अड़चन की बात है; और सूक्ष्म हो गई। ऐसा समझो कि काम घटता है तुम्हारे शारीरिक रसायन में, तुम्हारे शरीर की भौतिक प्रक्रिया में, प्रेम घटता है तुम्हारे हृदय की गहराइयों में। प्रेम मानसिक है, काम शारीरिक है, भक्ति आध्यात्मिक है। वह तो तुम्हारे शरीर, मन दोनों के पार है। वह तो तुम्हारी ऊंची से ऊंची सीढ़ी है। वह तो तुम्हारी ऊंची से ऊंची उड़ान है। उस भक्ति को ही नेह कह रहे हैं। इसलिए प्रेम नहीं कहा, नेह कहा। प्रेम से तुम्हें शायद भूल हो जाए। शायद तुम प्रेम से सामान्य प्रेम की बातें समझ लो। इसलिए वाजिद ने उसे नेह कहा। यह तो सबसे ऊंची घटना है। और जितनी ऊंची होती जाती है बात, उतनी ही मुश्किल होती जाती है, उतनी बेबूझ होती जाती है, उतनी रहस्यपूर्ण होती जाती है। आश्चर्यचकित, विस्मय—विमुग्ध! तुम ठगे—से रह जाते हो, तुम लुटे—से रह जाते हो! अवाक, श्वासें बंद, विचार बंद! तर्क तो कब के बहुत पीछे छूट गए, जैसे उड़ती धूल कारवां के पीछे छूट जाती है। कारवां तो कितना आगे बढ़ गया!
नहीं, उत्तर नहीं है। उत्तर कोई नहीं दे पाएगा। तुमने किया होता तो उत्तर भी दे पाते। तुमने किया ही नहीं है, तुम पर प्रसाद की वर्षा हुई। परमात्मा उतरा है और तुम्हारे प्राणों को आंदोलित कर गया है। परमात्मा आया है और उसने तुम्हारे हृदयतंत्री के तार छेड़ दिए हैं। परमात्मा आया और तुम्हारी बांसुरी में एक फूंक मार गया, एक टेर मार गया है! उसी टेर का नाम नेह है। उसी टेर का नाम भक्ति है, प्रार्थना है।
साधु से जो प्रेम होता है, वह प्रार्थना है। उसमें न तो काम है; शरीर का नाता नहीं है वह। न ही साधारण अर्थों में जिसको हम प्रेम कहते हैं वही है; मन का नाता भी नहीं है वह। वह तो प्राण से प्राण का संवाद है। वह तो आत्मा से आत्मा की वार्ता है। वह तो केंद्र का केंद्र से मिलन है।
हो जाता है कभी; हो जाता है यह जीवन का सौभाग्य है। हो जाने दो तो तुम धन्यभागी हो। रोकना मत, अटकाना मत; क्योंकि बहुत हैं अभागे जो अटका लेते हैं, रोक लेते हैं।
और रोकना चाहो तो रोक सकते हो, यह बात भी ख्याल में ले लेना। करना चाहो तो कर नहीं सकते, लेकिन रोकना चाहो तो रोक सकते हो। तुम भीतर हवा के झोंके को निमंत्रण नहीं दे सकते कि आओ। जैसे अभी वृक्ष चुप खड़े हैं, हवा का कोई झोंका नहीं आ रहा। हम लाख कहें कि आओ हवाओ आओ; हमारे कहने से कुछ भी न होगा, जब हवा का झोंका आएगा तब आएगा। लेकिन जब हवा का झोंका आए, तब भी तुम हो सकता है द्वार—दरवाजे बंद किए, ताले मारे भीतर बैठे रहो। तो हवा का झोंका आए, फिर भी तुम वंचित हो सकते हो, हवा का झोंका न आए तो तुम ला नहीं सकते।
इस बात को ख्याल में रखना, इस जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है उस संबंध में विधायक रूप से कुछ भी नहीं किया जा सकता, लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि नकारात्मक रूप से बहुत कुछ किया जा सकता है। आकाश के बादल बरसें, इसके लिए तो घड़ा क्या कर सकता है? घड़ा पुकारे तो भी क्या होगा? आकाश के बादल घड़े की बातें सुनेंगे नहीं। लेकिन बादल बरसते हों, घड़ा उलटा हो सकता है, घड़ा छिपकर छप्पर के नीचे जा सकता है, घड़ा छिद्रवाला हो सकता है——भर भी जाए और खाली हो जाए।
साधां सेती नेह लगे तो लाइए
हो सके यह बात तो बन जाने देना। बनती हो तो बन जाने देना, बनती हो तो बाधा मत डालना। और मन हजार बाधाएं खड़ी करेगा, कहेगा——क्या पागलपन है! कैसा पागलपन है! यह क्या कर रहे हो?
वहां मेरे सामने एक मित्र दिखाई पड़ रहे हैं——स्वामी देवानंद भारती। पटियाला के एडवोकेट हैं। आए थे शिविर में भाग लेने; शायद सोचा भी न होगा कभी कि संन्यास घटेगा। घटा तो घट जाने दिया, बाधा न डाली। फिर यह तो उनकी कल्पना के बाहर ही रहा होगा कि संन्यास देते वक्त मैं उनसे कहूंगा——अब कहां जाते पटियाला! यह तो कल्पना में भी नहीं सोचा होगा! और जब मैंने उनसे कहा: अब कहां जाते पटियाला! तो उन्होंने कहा: अच्छा, तो यहीं रह जाऊंगा। अब कोई उनसे पूछेगा, क्या उत्तर दे पाएंगे? कैसा उत्तर दे पाएंगे? हो जाने दिया।
फिर जाते थे कि सब व्यवस्था तो वहां कर आएं, फिर महीने—पंद्रह दिन में लौट आएंगे। मैंने कहा: ठीक है, जाकर व्यवस्था कर आओ। मुझसे ले भी गए विदा, लेकिन अभी तक गए नहीं। तो मैंने लक्ष्मी को पूछा कि पूछना, हुआ क्या? तो लक्ष्मी ने पूछा तो उन्होंने कहा: जाने का मन ही नहीं होता, तो खबर कर दी है कि वहां जो करना हो कर लेना।
यह है हो जाने देना। यह तो बिलकुल पागलपन की बात है। लेकिन इतनी सामर्थ्य हो तो ही सत्य की उपलब्धि हो सकती है। यह कोई सस्ता सौदा नहीं है, खड्ग की धार कहा है। "प्रेम—पंथ ऐसो कठिन', ऐसा कहा है। कबीर ने कहा है: जो घर बारै आपनो चले हमारे संग——जो सब जला सकता हो! जब देवानंद ने कहा कि अच्छा, रुक जाऊंगा, यहीं रह जाऊंगा, तो मुझे लगा कबीर ने कैसे लोगों की बात कही होगी—
—जो घर बारै आपनो...!
जे घर होवे हांण तहुंछिटकाइए।।
अगर हानि भी होती हो, घर में जो है वह भी जाता हो।
जे घर होवे हांण तहुंछिटकाइए।।
तो भी भागना मत, छिटक मत जाना। सब डूबता हो तो डूब जाने देना। तो ही यह नेह लग सकता है। तो ही यह प्रीति लग सकती है। तो ही यह प्रीति का बिरवा ऊग सकता है। तो ही एक दिन इस प्रीति में फूल लग सकते हैं——स्वर्ण के फूल!
साधां सेती नेह लगे तो लाइए
साधु दिखाई पड़ जाए, तुम जरा आंखें यहां—वहां न बचाना, सीधे—सीधे देख लेना। तुम हृदय को छिपाना मत, सामने कर देना। फिर कुछ हो जाता है, कुछ हो जाता है जो अत्यंत रहस्यपूर्ण है; जिसका कोई गणित न बिठाया जा सका है, न बिठाया जा सकता है, न बिठाया जा सकेगा। परमात्मा के मार्ग बड़े सूक्ष्म और बड़े अज्ञात हैं।
मैंने तुमसे कहा अभी देवानंद के संबंध में कि उन्होंने कभी सोचा भी न होगा कि पूना जाते हैं तो गए सदा को कि पटियाला मिट ही गया! मैंने भी संन्यास देने के पहले क्षण—भर को नहीं सोचा था कि उनसे मैं यह कहूंगा। ऐसा मैं किसी से कहा भी नहीं हूं कभी कि संन्यास देते से ही कह दूं। धीरे—धीरे पकड़ना होता है किसी को। पहुंचा पकड़ा, फिर धीरे—धीरे आगे बढ़ना होता है। ऐसा एकदम से माला गले में डालकर मैंने उनसे कहा——न जानता हूं उन्हें, न वे मुझे जानते हैं——कि अब कहां जाते हो? जो उनकी आंख में देखा——उस क्षण जैसे कोई मेरी बांसुरी से दे गया टेर उन्हें!
मैं भी थोड़ा चौंका, ऐसा तो किसी नियम के अनुकूल नहीं है। यह बात तो ठीक नहीं है कहनी, यह तो किसी को अड़चन में डालने वाली बात हो सकती है। नए—नए व्यक्ति को इस तरह का कहना। हो सकता है वह "हां' न कह पाए, तो अपराध—भाव अनुभव होगा उसे। और "हां' कह दे और पूरा न कर पाए, तो भी अपराध—भाव अनुभव होगा उसे। "हां' कह दे और पूरा भी कर ले, लेकिन कहीं कोई मन का हिस्सा "न' कहता रह जाए, तो अड़चन बन जाएगी, दुविधा हो जाएगी, द्वंद्व हो जाएगा।
पर परमात्मा के रास्ते अति सूक्ष्म हैं! वही बोल गया देवानंद को। उसने ही कहलवा लिया मुझसे, उसने ही कहलवा लिया उनसे। अब वही उन्हें जाने नहीं दे रहा है। वे कहते हैं, दरवाजे से बाहर निकलने का मन ही नहीं होता, पैर ही नहीं जाते पटियाला की तरफ। भेज दी है खबर अपने कारकून को कि ले आ कुछ किताबें कानून की, यहां भगवान को वकीलों की जरूरत भी है, तो अब यहीं अदालत में उलझेंगे। हो गया पटियाला का काम समाप्त।
जे घर होवे हांण तहुंछिटकाइए
वे आए बज्म में, इतना तो "मीर' ने देखा
फिर इसके बाद चिरागों में रौशनी न रही
प्रेमी आ जाए तो सब चिराग फीके पड़ जाते हैं।
वे आए बज्म में, इतना तो "मीर' ने देखा
बस इतना ही दिखाई पड़ता है कि कोई आया, आया, आया...।
फिर इसके बाद चिरागों में रौशनी न रही
फिर सब चिराग फीके पड़ गए, बुझ गए! प्रेम की घड़ी जब आती है तो फिर एक ही दिखाई पड़ने लगता है, और सब विदा हो जाते हैं।
यहां जिनका मुझसे प्रेम है, उन्हें और कोई नहीं दिखाई पड़ता। मैं हूं यहां और वे हैं। बाकी इतनी भीड़ है, बाकी लोग बैठे हैं, ऐसा अहसास होता रहता है कि बाकी लोग भी हैं, मगर कहीं दूर, बहुत दूर, हजारों कोसों की दूरी पर लोग मौजूद हैं——एक परिधि पर, लेकिन केंद्र पर मैं हूं और वे हैं।
वे आए बज्म में, इतना तो "मीर' ने देखा
फिर इसके बाद चिरागों में रौशनी न रही
ऐसा ही हो जाता है। ऐसा ही प्रेम पागल है। प्रेम—पंथ ऐसो कठिन। कठिन है, क्योंकि अहंकार को जाना पड़ता है; अन्यथा तो बड़ा सरल है, बड़ा सुगम है, बड़ा सहज है। अहंकार छोड़ने का साहस हो, तो प्रेम से सरल फिर और क्या है? क्योंकि तुम्हें कुछ करना ही नहीं, सब होना शुरू होता है। सब प्रसाद है, प्रयास बिलकुल भी नहीं है।
जिंदगी पर है गुमानेसायाएगेसूए—दोस्त
सांस लेता हूं तो मिलता है सुरागेबूए—दोस्त
गर्दिशे—ऐय्याम मुंह तकती है मेरा और मैं
चूमता जाता हूं आंखों से गुबारेकूए—दोस्त
जज्बे—दिल का है यही आलम तो इक दिन देखना
खिज्र दीवानों से पूछेंगे निशाने—कूए—दोस्त
लगजिशेपैहम ने आखिर दस्तगीरी की रविश
बेत्तकल्लुफ बढ़ गए मेरी तरफ बाजूए—दोस्त
जिंदगी पर है गुमानेसायाएगेसूए—दोस्त
तुम जरा सरको निकट, तुम जरा प्रेम के पास आओ, तो प्रीतम की जुल्फों की छाया, प्रीतम की जुल्फों का साया, तुम्हें मिल जाए!
जिंदगी पर है गुमानेसायाएगेसूए—दोस्त
जैसे प्यारी प्रियतमा के केश तुम्हारे चेहरे को घेर लें, छाया दे दें।
सांस लेता हूं तो मिलता है सुरागेबूए—दोस्त
और फिर तुम श्वास भी लो, तो भी प्यारे की ही गंध आए, या प्रियतमा की गंध आए।
गर्दिशे—ऐय्याम मुंह तकती है मेरा और मैं
संसार की मुसीबतें मुझे देख रही हैं, मैं उनको देख रहा हूं।
चूमता जाता हूं आंखों से गुबारेकूए—दोस्त
और प्यारे की गली की जो धूल है, वह चूम रहा हूं। अब मुझे कोई मुसीबतें न रहीं, कोई समस्याएं न रहीं।
चूमता जाता हूं आंखों से गुबारेकूए—दोस्त
जज्बे—दिल का है यही आलम तो इक दिन देखना
अगर भावनाओं की यही बाढ़ आती रही, अगर भावनाएं ऐसी ही उभरती रहीं, उठती रहीं, आकाश की यात्रा पर निकलती रहीं; अगर भावनाओं की ऐसी राशि पर राशि संगृहीत होती चली गई...।
जज्बे—दिल का है यही आलम तो इक दिन देखना
खिज्र दीवानों से पूछेंगे निशाने—कूए—दोस्त
खिज्र, सूफियों की धारणा है कि एक देवता, खिज्र नाम का एक देवता, एक पैगंबर अदृश्य लोक से जगत में घूमता रहता है, उन लोगों के लिए जो प्यासे हैं। राह दिखाता है, उन लोगों के लिए जिनके मन में परमात्मा की किरण जगी है। उनका हाथ पकड़ता है, उन्हें सम्यक मार्ग पर ले जाता है। सूचनाएं देता है, इंगित करता है। एक अदृश्य पैगंबर का नाम है खिज्रखिज्र राह बताता है भटकों को। और ये प्यारे वचन देखना!
जज्बे—दिल का है यही आलम तो इक दिन देखना
खिज्र दीवानों से पूछेंगे निशाने—कूए—दोस्त
अगर यही भावनाएं उठती रहीं, यही दीवानगी उठती रही, प्रेम की यही बाढ़ आती रही, आती रही, तो तुम एक दिन देखना, एक मजे की बात देखना कि खिज्र को भी इस तरह के दीवानों से रास्ता पूछना पड़ेगा कि परमात्मा कहां है!
जज्बे—दिल का है यही आलम तो इक दिन देखना
खिज्र दीवानों से पूछेंगे निशाने—कूए—दोस्त
पर नेह लगे, प्रेम जगे, भाव उठें, उठने देना।
साधां सेती नेह लगे तो लाइए
जे घर होवे हांण तहुंछिटकाइए।।
हानि तो होगी बहुत। हानि इसलिए होगी बहुत कि तुमने गलत से संबंध जोड़ रखा है। तुमने व्यर्थ से नाते जोड़ रखे हैं। जैसे ही तुम किसी साधु से नाता जोड़ोगे, व्यर्थ से नाते टूटने लगेंगे; अपने—आप टूटने लगेंगे। रोशनी से संबंध बनाओगे, अंधेरे से संबंध टूट जाएगा। दोनों संबंध साथ—साथ हो भी नहीं सकते। जीवन का हाथ पकड़ोगे, मौत से नाता टूट जाएगा। तो कुछ जो व्यर्थ है, वह तो छूटेगा। स्वास्थ्य से दोस्ती बनाओगे, बीमारी से दोस्ती छूट जाएगी। दोनों दोस्तियां साथ तो नहीं चल सकतीं!
जे घर होवे हांण तहुंछिटकाइए।।
तो घबड़ाना मत, साधु की दोस्ती में कुछ तो गंवाना पड़ेगा। गंवाने वाले ही कुछ कमाते हैं। हां, जो जाता है, वह व्यर्थ है; और जो आता है, बड़ा सार्थक है। लेकिन जब जाता है, तब तो सार्थक का कुछ पता नहीं होता।
जैसे मैं तुम्हें कहूं——चलो उस किनारे चलें। छोड़ो यह किनारा! यह किनारा तुम्हें दिखाई पड़ता है। इस किनारे पर तुम रह चुके हो जन्मों—जन्मों। तुमने घर बना लिया, तुमने परिवार बसा लिया। मैं कहता हूं——बैठो मेरी नाव में, चलो उस तरफ! कहै वाजिद पुकार——आ जाओ, बैठो नाव में, उस तरफ ले चलते हैं। उस तरफ का किनारा न तो तुम्हें दिखाई पड़ता है, इतना दूर है। न तुमने कभी किसी से दोस्ती बांधी है, जो उस किनारे का रहा हो। वह किनारा है भी, इस पर भी कैसे भरोसा आए?
और अगर मेरी नाव में बैठे, तो यह किनारा तो छूटने लगेगा! मझधार में पहुंचकर एक ऐसी घड़ी भी आती है संक्रमण की, जब यह किनारा तो छूट गया और दूसरा अभी दिखाई भी नहीं पड़ा। तब घबड़ाहट होती है। तब छिटक जाने की इच्छा होती है——कि लौट जाओ, दूरी बढ़ती जा रही है किनारे से, अभी भी लौट जाओ। छलांग लगा जाओ नाव से, वापिस तैर जाओ अपने किनारे पर। तो बहुत से छलांग लगा जाते हैं, वापिस तैर जाते हैं।
फिर जब तुम वापिस तैरकर पहुंच जाओगे अपने किनारे पर, तो स्वभावतः लोग पूछेंगे, क्या हुआ? कैसे लौट आए? तो अपनी आत्मरक्षा के लिए बहुत से तर्क दोगे——कि वह नाव गलत थी कि वह मांझी गलत था कि दूसरा किनारा है ही नहीं। तुम्हें अपनी आत्मरक्षा तो करनी होगी! तुम यह तो न कहोगे कि मैं कायर हूं, इसलिए लौट आया। तुम यह तो न कहोगे कि भयभीत हो गया, इसलिए लौट आया। तुम यह तो न कहोगे कि वह किनारा दिखाई नहीं पड़ता था और यह किनारा हाथ से जाने लगा। मैंने सोचा, मैं भी किस पागलपन में पड़ गया! तुम यह तो नहीं कहोगे। शायद तुम दूसरों से तो कहोगे ही नहीं, अपने से भी नहीं कहोगे। तुम अपने से भी यही कहोगे कि अच्छा ही हुआ लौट आए, दूसरा कोई किनारा नहीं है। किस पागल के साथ दोस्ती बना ली थी! कहां चल पड़े थे! अच्छा—भला घर, अच्छा—भला किनारा, सब सुख—सुविधाएं छोड़कर कहां चल पड़े थे!
तो छिटकने के तो बहुत मौके आते हैं। इसलिए ख्याल रखना, वाजिद ठीक कह रहे हैं, छिटक मत जाना! लेकिन जो बढ़ते चले जाते हैं, छिटकते नहीं, उनके जीवन में वह परम प्रकाश एक दिन घटता है।
समझता क्या है तू दीवानगाने—इश्क को जाहिद
ये हो जाएंगे जिस जानिब उसी जानिब खुदा होगा
ये जो प्रेमी हैं, ये जिस तरफ खड़े हो जाते हैं, उसी तरफ परमात्मा हो जाता है। जिनके जीवन में प्रेम की दीवानगी आ गई, उनके जीवन में सब आ गया। उनके हाथ में परमात्मा की कुंजी आ गई!
समझता क्या है तू दीवानगाने—इश्क को जाहिद
त्यागी हैं, तपस्वी हैं, उनको प्रेम का रस नहीं है। वे प्रेम की नाव में नहीं बैठते। वे अपना इंतजाम कर रहे हैं स्वयं। अपने त्याग से, अपनी तपश्चर्या से वे सोच रहे हैं, परमात्मा को पाकर रहेंगे।
परमात्मा पाया नहीं जा सकता। और जिस परमात्मा को हम पा लेंगे, वह हमसे छोटा होगा। और जिस परमात्मा को हम पा लेंगे, वह हमारे अहंकार का एक आभूषण बनकर रह जाएगा। वह हमारी प्राप्ति है, वह हमारे अहंकार को न मिटा पाएगा। परमात्मा पाया नहीं जाता; परमात्मा आता है, उतरता है, उसका अवतरण होता है।
समझता क्या है तू दीवानगाने—इश्क को जाहिद
और त्यागी—व्रती, प्रेमियों को पागल ही समझते रहते हैं कि इनको क्या हो गया! स्वभावतः जो आदमी उपवास कर रहा है, शीर्षासन लगाए खड़ा है, कांटों पर सोया है, नंगा खड़ा है; वह मीरा को देखेगा वीणा बजाते, गीत गाते, नाचते; सोचेगा, पागल हो गई, ऐसे कहीं कुछ होता है! अरे उपवास करो, व्रत करो, नाचने—गाने से क्या होगा? कांटों पर लेटो, कांटों की सेज बनाओ, वीणा बजाने से क्या होगा?
उसे पता ही नहीं है कि प्रेमियों को कुछ और दर्शन हो गया है, कोई और झरोखा खुल गया है, कोई और द्वार मिल गया है।
समझता क्या है तू दीवानगाने—इश्क को जाहिद
ये हो जाएंगे जिस जानिब उसी जानिब खुदा होगा
प्रेम के पागलपन का ऐसा बल है कि प्रेमी जिस तरफ हो जाएगा, उसी तरफ परमात्मा होगा।
लेकिन बीच से छिटक जाने के बहुत पड़ाव आते हैं। चलते—चलते लोग भाग जाते हैं। हिम्मत छोड़ देते हैं, साहस टूट जाता है।
जे नर मूरख जान सो तो मन में डरै
और उनको मूरख समझना, जो ऐसा डरकर छिटक जाएं। उनको बिलकुल पागल समझना! एक तो वे हैं पागल, जो परमात्मा की तरफ चल पड़े हैं; वे धन्यभागी हैं। और एक वे हैं पागल, जो मूढ़ता के कारण व्यर्थ को और क्षुद्र को पकड़कर रुक जाते हैं। क्यों उनको मूरख कहते हैं? इसलिए कहते हैं कि जो तुम्हारे पास है, उससे तुम्हें कुछ मिला भी नहीं और उसको छोड़ते भी नहीं!
जरा सोचो, तुम जैसी जिंदगी जीए हो, उसमें क्या मिला? क्या पाया? पचास वर्ष बीत गए, साठ वर्ष बीत गए, इतना अनुभव के लिए काफी नहीं है! क्या मिला? हाथ क्या लगा? हाथ खाली के खाली हैं। हां, नहीं मैं कहता हूं कि तुम्हारे पास बैंक—बैलेंस न होगा, तिजोड़ी न होगी——होगी। धन होगा, दौलत होगी, प्रतिष्ठा होगी। मगर यह कुछ हाथ लगा?
एक बार पुनर्विचार करो, तो तुम हैरान होओगे कि इस संसार में विफलता के अतिरिक्त और कुछ हाथ लगता ही नहीं। सफलता के पीछे भी विफलता ही छिपी होती है। सफलता भी विफलता का ही एक नाम है, एक परिधान है। लेकिन अंततः आती है मौत और सब पड़ा रह जाता है।
इसलिए वाजिद कहते हैं: जे नर मूरख जान सो तो मन में डरै
जो डर गए इस परम यात्रा से और सिकुड़ गए। और जल्दी से अपने द्वार बंद कर लिए और न उतरने दी उसकी किरण, न आने दी उसकी हवा, न बहे उसकी तरंग में। बंद कर लिए अपने कान, न सुनी उसकी टेर। जल्दी—जल्दी डर जाने वाले लोग यह यात्रा नहीं कर पाते। साहस चाहिए, दुस्साहस चाहिए, जोखम उठाने की हिम्मत चाहिए। हिसाब—किताब से यह मार्ग तय नहीं होता।
जो मैं करम न समझता तेरे तगाफुल को
तो बार—बार यह दिल मुझसे बदगुमां होता
रविश! कविस ही को हम आशियां बना लेते
अगर ख्याल में भी ख्वाबेआशियां होता
बहुत बार लगेगा कि परमात्मा दिखाई तो पड़ता नहीं। कुछ उसके मिलने के प्रमाण भी मिलते नहीं।
जो मैं करम न समझता तेरे तगाफुल को
लेकिन भक्त वही है, प्रेमी वही है, जो उसके उपेक्षा—भाव को भी उसकी कृपा समझता है।
जो मैं करम न समझता तेरे तगाफुल को
तो बार—बार यह दिल मुझसे बदगुमां होता
तो यह जो मेरा दिल है बार—बार संशय पैदा करता, बदगुमां हो जाता, संदेह खड़े करता। लेकिन मैंने तेरी उपेक्षा को भी तेरी कृपा समझा। मैंने समझा कि तू पका रहा है। मैंने समझा कि तू जला रहा है। मैंने समझा कि तू आग में डाल रहा है। क्योंकि यही तो निखारने के उपाय हैं।
जो मैं करम न समझता तेरे तगाफुल को
तो बार—बार यह दिल मुझसे बदगुमां होता
भक्त को विरह और उपेक्षा के क्षण भी आते हैं। जब पुराना किनारा छूट जाता, नए की झलक भी नहीं मिलती। पुराना घर गिर जाता है, नए की कोई खबर नहीं, भनक भी नहीं। पुराना जीवन सब अस्त—व्यस्त हो जाता है, और नए के सूत्र हाथ नहीं लगते। और लगता है कि संसार तो गया, और परमात्मा है भी या नहीं? उसकी उपेक्षा मालूम होती है।
भक्त पुकारता है, और उत्तर में आकाश चुप रहता है। भक्त रोता है, और परमात्मा के हाथ उसके आंसू पोंछने नहीं आते। भक्त तड़पता है, और कोई सांत्वना नहीं आती। कोई कान में आकर गीत नहीं गुनगुना जाता। सो नहीं सकता, विरह में जलता है, लेकिन कोई लोरी नहीं गाता। कितनी देर, कितनी देर तक बर्दाश्त यह उपेक्षा—भाव? कहीं ऐसा तो नहीं कि परमात्मा मिलेगा ही नहीं——संशय उठने लगते हैं मन में!
नहीं, लेकिन जो प्रेमी हैं, उनके मन में संशय उठते ही नहीं। संशय उठते हैं सिर्फ भयभीत लोगों को। अक्सर लोग सोचते हैं कि नास्तिक बड़ा हिम्मतवर आदमी होता है। नहीं, नास्तिक सिर्फ डरा हुआ आदमी है। वह इतना डरा हुआ है कि अगर परमात्मा हुआ तो मुझे फिर यात्रा पर जाना होगा। इसलिए कहता है, परमात्मा है ही नहीं। न होगा बांस, न बजेगी बांसुरी! है ही नहीं परमात्मा, इसलिए अब किसी यात्रा पर अज्ञात की जाना नहीं है। न कुछ खोजना है, न कोई अभियान करना है।
अभियान से बचने का यह उपाय है। नास्तिकता परमात्मा को इनकार इसलिए नहीं करती कि परमात्मा नहीं है; क्योंकि खोजा ही नहीं तो नहीं कैसे कहोगे? जाना ही नहीं, तलाशा ही नहीं, तो इनकार कैसे करोगे? नास्तिकता मान लेती है कि ईश्वर नहीं है। क्योंकि ईश्वर अगर है, तो फिर प्राणों में एक अड़चन शुरू होगी——कि जो है, उसे खोजो; जो है, उसे पाओ; जो है, उसे बुलाओ। फिर यह जीवन अस्त—व्यस्त होगा। और वह अभियान इतना बड़ा है कि उस अभियान में सभी कुछ दांव पर लग जाता है। तो नास्तिक इनकार कर देता है ईश्वर को।
मगर तुम यह मत सोचना कि तुम्हारे आस्तिक नास्तिक से कुछ बेहतर हैं। तुम्हारे आस्तिक भी भय के कारण ईश्वर को स्वीकार कर लेते हैं; वे कहते हैं कि हां, आप हैं। आप हैं ही; खोजने का सवाल ही क्या? खोजने की जरूरत ही क्या है? क्यों करें सत्संग? आप तो हैं ही। मंदिर में चढ़ा आएंगे दो फूल। मरते वक्त राम—राम जप लेंगे। कभी—कभार सत्यनारायण की कथा करवा लेंगे। कभी दो पैसे दान कर देंगे। कुछ ऐसा करते रहेंगे थोड़ा—थोड़ा। आप हैं, हम तो मानते ही हैं; खोजना क्या है?
नास्तिक भय के कारण इनकार कर देता है, ताकि खोजना न पड़े; आस्तिक भय के कारण स्वीकार कर लेता है, ताकि खोजना न पड़े। प्रेमी न इनकार करता, न स्वीकार करता, प्रेमी खोज पर निकलता है। प्रेमी के भीतर प्यास है, तलाश है।
और निश्चित ही यह प्रेम सीधा—सीधा परमात्मा से नहीं हो सकता, क्योंकि परमात्मा का न तो कोई रूप है, न कोई रंग है! किससे करोगे प्रेम? यह प्रेम तो किसी सदगुरु से ही हो सकता है। फिर सदगुरु से ही सरकते—सरकते, धीरे—धीरे...। सदगुरु है ही वही, जो तुम्हें धीरे—धीरे रूप से छुड़ा दे, अरूप से मिला दे; दृश्य से मुक्त करवा दे, अदृश्य से जुड़ा दे; जो धीरे—धीरे स्थूल को छीन ले, और सूक्ष्म की सीढ़ियां तुम्हें दे दे।
साधां सेती नेह लगे तो लाइए
जे घर होवे हांण तहुंछिटकाइए।।
जे नर मूरख जान सो तो मन में डरै
हरि हां, वाजिद, सब कारज सिध हो कृपा जे वह करै।।
कर लेना प्रेम किसी सदगुरु से; क्योंकि उसकी कृपा हो जाए तो सब पूरा हो जाता है, सब सध जाता है।
बेग करहु पुन दान बेर क्यूं बनत है।
और जो भी कर सको शुभ, करो, देर न करो।
आदमी का मन उल्टा है, अशुभ तत्क्षण करता है, शुभ कहता है कल करेंगे। अगर किसी ने गाली दी, तो जवाब अभी देता है, उठा लेता है पत्थर राह के किनारे पड़ा हुआ। ऐसा नहीं कहता कि कल कि आएंगे भाई कल; कि लाएंगे पत्थर, देंगे जवाब; कि चौबीस घंटे बाद आना, अभी हम फुरसत में नहीं हैं। कोई गाली दे दे, तुम हजार काम छोड़कर वहीं जूझ जाते हो। गलत को करने में बड़ी तत्परता है!
लेकिन मन में भाव उठे——ध्यान, तो सोचते हो: करेंगे, जल्दी क्या है? जिंदगी पड़ी है, कर लेंगे। कितने लोग हैं जिन्हें मैं जानता हूं, जो ध्यान करना चाहते हैं, लेकिन टालते रहते हैं कल पर। व्यर्थ को आज कर लेते हैं, सार्थक को कल पर टाल देते हैं। कितने लोग हैं जिन्हें मैं जानता हूं, जो संन्यास में छलांग लेना चाहते हैं, लेकिन टालते रहते हैं कल पर।
ऐसा हुआ एक बार, एक वृद्ध महिला बंबई में संन्यास लेना चाहती थी। न मालूम दोत्तीन वर्षों से निरंतर बार—बार आती, कहती कि लेना तो है, मगर और थोड़े दिन। इधर मेरे लड़के का विवाह हो रहा है, विवाह में जरा अच्छा न लगेगा कि मैं गैरिक वस्त्र और माला पहनकर खड़ी होऊंगी; मेहमान आएंगे, सब प्रियजन इकट्ठे होंगे...यह जरा निपट जाए। फिर कुछ और काम आ जाता, फिर कुछ और काम आ जाता। एक दिन मुझसे मिलने आई थी——कई बार आ चुकी——तो मैंने कहा: अब तू मेरा पीछा भी छोड़। तेरे जब सब काम निपट जाएं, तभी तू आ जाना। अगर मैं बचूं तो आ जाना, या तू बचे तो आ जाना। मुझे लगता नहीं तेरे काम निपटेंगे; तेरे काम निपटने के पहले तू निपट जाएगी।
और यही हुआ। संयोग की ही बात थी, वह मुझसे मिलकर लौटी और रास्ते में ही एक कार से टकरा गई। सांझ तो उसका लड़का भागा हुआ आया कि मां अस्पताल में बेहोश पड़ी हैं, बचने की उम्मीद नहीं। होश आया ही नहीं फिर, दूसरे दिन चौबीस घंटे बाद मृत्यु हो गई।
उनके लड़के ने मुझे आकर कहा कि उनकी बड़ी इच्छा संन्यास लेने की थी। आप कृपा करके माला दे दें। और हम गैरिक वस्त्र उन्हें उढ़ा देंगे और माला पहना देंगे।
मैंने कहा: तुम्हारी मर्जी। मगर मुर्दों के कहीं संन्यास होते हैं! जिंदा रहते तुम्हारी मां संन्यास न ले पाई। तीन साल से तो बार—बार आती थी——काम निपट जाएं सब। अब काम तो सब पड़े रह गए, खुद निपट गई! अब तुम मुर्दा लाश के लिए संन्यास दिलवाना चाहते हो? मुझे कुछ हर्जा नहीं है, तुम्हारा मन तृप्त होता हो तो यह माला ले जाओ। गैरिक वस्त्र पहना देना, माला पहना देना।
मैंने कहा: बजाय अब मां को संन्यास दिलवाने के, तुम अपने संन्यास की सोचो।
कहा कि अभी तो...अभी तो मेरी मां मर गई और अभी तो इस झंझट में हूं। अभी कैसे ले सकता हूं! लूंगा। मैंने कहा: फिर वही भूल! यही तुम्हारी मां कहती रही।
बेटे के उस दिन से मुझे दर्शन ही नहीं हुए। क्योंकि अब वह डरा होगा कि अब जाऊंगा, तो वह बात, सवाल उठेगा कि अब संन्यास का क्या है? अब तो उनका बेटा, अगर मैं बचा रहा, तो शायद आए तो आए। जब वह चल बसें, कि पिताजी की बड़ी इच्छा थी संन्यास लेने की; वह चले गए इच्छा ही करते—करते, माला दे दो।
लोग शुभ को टालते चले जाते हैं। वाजिद कहते हैं: बेग करहु पुन दान! पुण्य करना हो, दान करना हो, शुभ करना हो, तो वेग करो, जल्दी करो, त्वरा से करो, अभी करो। बेर क्यूं बनत है! कहीं देर करने से बनती है? बात बिगड़ न जाए!
दिवस घड़ी पल जाए जुरा सो गिनत है।।
और प्रतिपल मौत करीब आ रही है। मृत्यु खड़ी गिनती गिन रही है——एक, दो, तीन, चार, पांच, छह, सात, आठ, नौ, दस——और गए। मौत खड़ी गिनती गिन रही है, कब दस हो जाएंगे, कब "बस' आ जाएगा, कहा नहीं जा सकता। एक—एक पल गिना जा रहा है और एक—एक पल कम हुआ जा रहा है।
बेग करहु पुन दान बेर क्यूं बनत है।
दिवस घड़ी पल जाए जुरा सो गिनत है।।
मुख पर देहैं थाप सूंज सब लूटिहै
आएगी मौत और देगी तमाचा मुंह पर, भर देगी धूल से तुम्हारे मुख को!
सूंज सब लूटिहै
और सब साज—सामान जो तुमने इकट्ठा किया है, सब लुट जाएगा, सब पड़ा रह जाएगा। और इसी को इकट्ठा करने में जिंदगी गंवाई; और यह सब इकट्ठा मौत छीन लेगी। तो तुम जिंदगी जीए कहां? मौत की सेवा करते रहे! तुम्हारी जिंदगी मौत की सेवा में जा रही है, क्योंकि यह सब तुम मौत के लिए इकट्ठा कर रहे हो, वही छीन लेगी। इसमें से तुम्हारे साथ कुछ भी जाने वाला नहीं है। और जो तुम्हारे साथ नहीं जाने वाला है, वही व्यर्थ है।
कुछ ऐसा कमा लो जो मौत छीन न सके। वही धन है, जो मौत न छीन सके। उसी धन का नाम ध्यान है। ध्यान ही एक मात्र धन है जो मौत नहीं छीन सकती, और शेष सब छीन लेगी। लेकिन ध्यानी ध्यानपूर्वक मरता है, अपने ध्यान को सम्हाले—सम्हाले मरता है। वह ध्यान को सम्हालकर ले जाता है मौत के पार। मौत भी उसके ध्यान को जला नहीं पाती। नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः
न तो शस्त्र छेद पाते, न आग जला पाती, ऐसा भी कुछ है। वही तुम्हारी आत्मा है। उसी आत्मा को उघाड़ लेने का उपाय ध्यान है।
मुख पर देहैं थाप सूंज सब लूटिहै
हरि हां, जम जालिम सूं वाजिद, जीव नहिं छूटिहै।।
और एक बात पक्की है, लाख करो तुम उपाय, वह जो जल्लाद है मौत का, वह जो यमदूत है, उससे तुम छूट न सकोगे। वह तो आ ही रहा है। उसने जाल तो फेंक ही दिया है। तुम्हारी गर्दन में फांसी तो लग ही गई है, अब कस रहा है, कसता जा रहा है, किसी भी क्षण कस जाएगी फांसी पूरी!
कहै वाजिद पुकार सीख एक सुन्न रे।
वाजिद कहते हैं पुकारकर कि एक चीज सीख लो, शून्य सीख लो। शून्य यानी ध्यान। चित्त निर्विचार हो जाए, शून्य हो जाए। कुछ न बचे, सिर्फ बोध मात्र रह जाए; सिर्फ होश और साक्षी बचे।
कहै वाजिद पुकार सीख एक सुन्न रे।
बस इसमें सारी बात आ गई। वाजिद ने सारे शास्त्रों का शास्त्र कह दिया। सब उपनिषद, सब कुरान, सब बाइबिल, सब वेद, सब धम्मपद इस एक छोटे—से शब्द "शून्य' में समा जाते हैं। जिसने शून्य जान लिया, उसने पूर्ण जान लिया। क्योंकि शून्य पूर्ण का द्वार है।
कहै वाजिद पुकार सीख एक सुन्न रे।
आड़ो बांकी बार आइहै पुन्न रे।।
बस शून्य को पाने का जो पुण्य है, वही बचाएगा मौत के क्षण में। वही आएगा आड़े, और कोई चीज आड़े नहीं आ सकती।
आड़ो बांकी बार आइहै पुन्न रे।।
बस एक ही पुण्य है करने जैसा——शून्य भाव, समाधि! वही आड़े आएगी, और संपदा कोई आड़े नहीं आ सकती। शक्ति कोई आड़े नहीं आ सकती, शांति ही आड़े आएगी।
हमें दैरो—हरम के तफरकों से काम ही क्या है
सिखाया है किसी ने अजनबी बनकर गुजर जाना
कुछ यहां है न वहां, जल्वाएजानां के सिवा
आखिर इस कशमकशे—दैरो—हरम का बाइस?
अब इससे क्या गरज यह हरम है कि दैर है
बैठे हैं हम तो सायाए—दीवार देखकर
हमें दैरो—हरम के तफरकों से काम ही क्या है
मंदिर—मस्जिद के झगड़े छोड़ो। सच्चे धार्मिक को मंदिर और मस्जिद के झगड़ों से क्या लेना—देना? शास्त्रों के विवाद से कोई प्रयोजन नहीं।
हमें दैरो—हरम के तफरकों से काम ही क्या है
सिखाया है किसी ने अजनबी बनकर गुजर जाना
कोई साधु से नेह बन जाए, तो वह तुम्हें सिखाएगा: इनसे अजनबी होकर गुजर जाओ! ये मंदिर—मस्जिद छोड़ो। इनमें मत उलझो। इनके झगड़ों में मत उलझो। ये सब राजनीति के ही प्रकारांतर जाल हैं। इनसे बचकर निकल जाओ। तुम तो शून्य साध लो। हिंदू हो तो, मुसलमान हो तो, ईसाई हो तो, जैन हो तो, बौद्ध हो तो, कोई फिक्र न करो, शून्य साध लो।
कुछ यहां है न वहां, जल्वाएजानां के सिवा
मंदिर हो कि मस्जिद, यहां हो कि वहां, आकाश हो कि पृथ्वी, एक उस प्यारे के जलवे के सिवा और तो कहीं भी कुछ नहीं। उसी का काबा, उसी का कैलाश!
कुछ यहां है न वहां, जल्वाएजानां के सिवा
बस उस एक प्यारे का ही महोत्सव हो रहा है!
आखिर इस कशमकशे—दैरो—हरम का बाइस?
और बड़ी हैरानी होती है धार्मिक व्यक्ति को कि मंदिर—मस्जिद के झगड़ों का कारण क्या है? अगर मंदिर—मस्जिद झगड़ते हैं, तो पहचाना ही नहीं उन्होंने। झगड़ा और मस्जिद—मस्जिद के बीच अगर होता हो, तो आश्चर्य! मगर होता है। मंदिर और मस्जिद के बीच तो होता ही है, मस्जिद और मस्जिद के बीच भी होता है, मंदिर और मंदिर के बीच भी होता है! झगड़े की तो ऐसी अदभुत कला है कि एक ही मंदिर में पूजा करने वाले लोगों के बीच भी होता है!
मैं एक गांव से गुजरा, एक जैन मंदिर पर ताला पड़ा था। मैंने पूछा कि मामला क्या है? और पुलिस का सिपाही खड़ा है। तो उन्होंने कहा: आज बारह साल से मंदिर बंद है; पुलिस के कब्जे में है। तो झगड़े का कारण क्या आ गया? तो उन्होंने कहा: दिगंबर और श्वेतांबरों में झगड़ा हो गया। दोनों का मंदिर एक ही है। छोटा गांव है। थोड़े—से दिगंबर, थोड़े—से श्वेतांबर, अलग—अलग मंदिर बनाने की सामर्थ्य भी नहीं है, तो एक ही मंदिर है। उसी में उन्होंने तरकीब लगा ली, समय बांट लिया है——बारह बजे दिन के पहले दिगंबरों का रहता है, बारह बजे के बाद श्वेतांबरों का हो जाता है। मूर्ति वही है, बारह बजे के पहले दिगंबर पूजा करते हैं, बारह बजे के बाद श्वेतांबर पूजा करते हैं। उसी में झगड़ा हो गया। कोई दिगंबर जरा ज्यादा भक्ति—भाव में आ गए और बारह बजे के बाद भी पूजा करते चले गए। लट्ठ चल गए। मारपीट हो गई। पुलिस का ताला पड़ गया।
कैसा पागलपन है! कुछ होश है आदमी को!
कुछ यहां है न वहां, जल्वाएजानां के सिवा
आखिर इस कशमकशे—दैरो—हरम का बाइस?
कारण क्या है इन झगड़ों का? इन झगड़ों का कारण है मनुष्य की मूढ़ता, मनुष्य का अहंकार, मनुष्य की सत्ता—लोलुपता!
अब इससे क्या गरज यह हरम है कि दैर है
मेरे संन्यासी को मैं कहता हूं, तुम फिक्र ही मत करना!
अब इससे क्या गरज यह हरम है कि दैर है
मंदिर हो कि मस्जिद, किसी की भी दीवाल, जहां छाया हो, बैठ जाना।
अब इससे क्या गरज यह हरम है कि दैर है
बैठे हैं हम तो सायाए—दीवार देखकर
हम तो दीवार की छाया में बैठ गए हैं। शांत होने में लगे हैं। शून्य होने में लगे हैं।
कहै वाजिद पुकार सीख एक सुन्न रे।
आड़ो बांकी बार आइहै पुन्न रे।।
अपनो पेट पसार बड़ौ क्यूं कीजिए।
हरि हां, सारी मैंत्तैं कौर और कूं दीजिए।।
कितना बड़ा पेट करते चले जा रहे हो! बढ़ाते जाते हो चीजें व्यर्थ की। जोड़ते जाते हो कूड़ाकबाड़। कुछ भी बांधकर न ले जाओगे। सब ठाठ पड़ा रह जाएगा जब बांध चलेगा बंजारा! तो जब तक दो दिन हैं हाथ में, इसमें से कुछ किसी को दे सको तो दे दो, कुछ बांट सको तो बांट दो, क्योंकि मौत छीन ही लेगी।
अपनो पेट पसार बड़ौ क्यूं कीजिए।
अरसए—दहर भी तेरे लिए कम ऐ वाइज!
और मेरे लिए इक गोशाएमैखाना बहुत
सर्द इस दौर में है सीनाए—आदम वर्ना
जिंदगी के लिए सोजेदिले—परवाना बहुत
हम कहां जाएं बयाबाने—मुहब्बत से रविश
खाक उड़ाने के लिए है यही वीराना बहुत
कुछ हैं जिनके लिए हर चीज कम है, पूरा संसार मिल जाए, तो भी कम है। यह प्यारा वचन है।
अरसए—दहर भी तेरे लिए कम ऐ वाइज!
ऐ तपस्वी, ऐ त्यागी, ऐ परलोक के आकांक्षी, तुझे परमात्मा का इतना विराट संसार भी काफी नहीं! तू बहिश्त की मांग करता है, स्वर्ग की मांग करता है। तू कहता है परलोक चाहिए! यह इतना प्यारा लोक, ये चांदत्तारे, ये वृक्ष, ये लोग——ये सब तुझे काफी नहीं!
अरसए—दहर भी तेरे लिए कम ऐ वाइज!
यह संपूर्ण संसार भी तेरे लिए कम है!
और मेरे लिए इक गोशाएमैखाना बहुत
और मुझे तो मधुशाला के एक कोने में बैठने मिल जाए, तो बस काफी।
और मेरे लिए इक गोशाएमैखाना बहुत
मधुशाला यानी सत्संग। जहां मधु छाना जा रहा हो, जहां शराब ढाली जा रही हो। जहां पियक्कड़ जुड़े हों, जहां रिंद बैठे हों, जहां मद्यपों की भीड़ हो।
और मेरे लिए एक गोशाएमैखाना बहुत
सर्द इस दौर में है सीनाए—आदम वर्ना
इस जमाने में मनुष्य का हृदय बड़ा ठंडा है, उत्साहहीन है।
सर्द इस दौर में है सीनाए—आदम वर्ना
जिंदगी के लिए सोजेदिले—परवाना बहुत
नहीं तो एक परवाने का दिल हो भीतर, बस जिंदगी जीने के लिए काफी है।
जिंदगी के लिए सोजेदिले—परवाना बहुत
पतंगे का दिल हो पास में, बस पर्याप्त। और चाहिए क्या? परमात्मा की शमा जल रही है और तुम्हारे पास परवाने का दिल है, पतंगे का दिल है। बस हो गई बात, बहुत हो गई बात!
साधां सेती नेह लगे तो लाइए
परवाने बनो, पतंगे बनो! और कहीं कोई ज्योति चल उठी हो परमात्मा की, उस ज्योति में जाओ जल मरो; क्योंकि उस जल मरने से ही अमृत का जन्म होगा।
अरसए—दहर भी तेरे लिए कम ऐ वाइज!
और मेरे लिए इक गोशाएमैखाना बहुत
सर्द इस दौर में है सीनाए—आदम वर्ना
जिंदगी के लिए सोजेदिले—परवाना बहुत
धन तो सोई जाण धणी के अरथ है।
खूब मीठी परिभाषा की, खूब गहरी! धन तो वही है, जो उस मालिक की तरफ ले जाए।
धन तो सोई जाण धणी के अरथ है।
धणी यानी मालिक। जो उस मालिक की तरफ ले जाए, धणी की तरफ ले जाए, वही धन है।
तो ध्यान ही धन है, और कोई धन नहीं है। बाकी कितना ही धन तुम्हारे पास हो, सब निर्धनता को ही छिपाने का उपाय है। निर्धनता मिटती नहीं ऐसे, छिपती भला हो। मगर मौत सब उघाड़ देगी! सब घाव उघाड़ देगी। अभी तो हमने खूब इंतजाम कर लिए हैं! जहां—जहां घाव हैं, वहां—वहां गुलाब के फूल रख दिए हैं। भीतर मवाद है, ऊपर से गुलाब का फूल रख दिया है! और भ्रांति खा रहे हैं कि सब ठीक है, फूल उग रहे हैं गुलाब के हमारी देह में! मौत आएगी, सब फूल छीन लेगी——सब मवाद बिखर जाएगी!
धन तो सोई जाण धणी के अरथ है।
बाकी माया वीर पाप को गरथ है।।
बाकी तो सब पाप का ही ढेर लग रहा है ।
हमको शिकवा तो नहीं शैखोबरहमन से मगर
बेगरज कुफ्र ही उनका है न इस्लाम इनका
और तुम्हारे पंडित—पुरोहित, मंदिर और मस्जिद के पुजारी और मौलवी, इनमें कुछ बहुत भेद नहीं है। और इनका धर्म धर्म भी नहीं है, बस स्वार्थ का ही नया नाम है।
हमको शिकवा तो नहीं शैखोबरहमन से मगर
बेगरज कुफ्र ही उनका है न इस्लाम इनका
दोनों में से किसी की भी बात निःस्वार्थ नहीं है। बस यहीं की धन—संपदा बटोर रहे हैं, और उस लोक में भी इसी तरह की धन—संपदा बटोरने की आकांक्षा कर रहे हैं।
भक्त तो कहता है: बस तेरे चरणों की धूल हो जाऊं तो पर्याप्त। मुझे कोई और बैकुंठ नहीं चाहिए, उस प्यारे की गली की धूल ही बैकुंठ है! तेरे प्रेम की एक किरण मिल जाए तो बहुत, मुझे कोई बहुत सूरज नहीं चाहिए। तेरी मधुशाला का एक कोना मिल जाए तो बहुत।
और मेरे लिए इक गोशाएमैखाना बहुत
जो अब लागी लाय बुझावै भौन रे।
और यह आग लगी है——जिसको तुम संसार कह रहे हो, और जिसको तुम धन—संपदा कह रहे हो——यह आग लगी है!
जो अब लागी लाय बुझावै भौन रे।
कौन इसे बुझा सकेगा? बड़ी मुश्किल में पड़ोगे।
मगर तुम तो इसी आग में और ईंधन डालते जा रहे हो। वासना की आग, तृष्णा की आग——और ईंधन डालते चले जाते हो!
हरि हां, वाजिद, बैठ पथर की नाव पार गयो कौन रे।।
तुम ऐसी मूढ़ता की प्रक्रिया में लगे हो, जैसे कोई पत्थर की नाव बनाकर सागर को पार करने की योजना कर रहा हो! डूबोगे, बुरी तरह डूबोगे, डूबे ही हुए हो और भी डूब जाओगे! उबरने का तो एक ही उपाय है:
साधां सेती नेह लगे तो लाइए
कहै वाजिद पुकार सीख एक सुन्न रे।
आड़ो बांकी बार आइहै पुन्न रे।।
बस एक शून्य का पुण्य ही मृत्यु और तुम्हारे बीच आड़ बन जाता है। एक शून्य ही है, जिसको मृत्यु नहीं छीन पाती। एक शून्य ही है, जिससे तुम निखरते हो, पवित्र होते हो, निर्मल होते हो, निर्दोष होते हो। एक शून्य ही है, जो तुम्हारे अहंकार से तुम्हें पार ले जाता है, अतिक्रमण कराता है। एक शून्य ही है जो द्वार है परमात्मा का।
जो भी होय कछु गांठि खोलिकै दीजिए।
कुछ हो, तो गांठ बांध—बांधकर मत बैठे रहो, ले—दे लो। क्योंकि जीवन प्रेम बनना चाहिए। जीवन बांटने की एक प्रक्रिया होनी चाहिए। जो भी हो, जो भी कर सको, हो जाने दो तुम्हारे जीवन से। यह देह भी चली जाएगी, यह धन भी चला जाएगा——यह सब चला जाएगा।
जो भी होय कछु गांठि खोलिकै दीजिए।
क्योंकि मौत तो फिर छीन ही लेगी। फिर तुम गांठ में बांधकर ले जा न सकोगे।
ऐ मेरे खुदा! जिस मिट्टी से जब्बारों के दिल बनते हैं
उस मिट्टी में मजबूरों के कुछ आंसू भी शामिल कर दे
ऐ मेरे खुदा! इन तिनकों को किश्ती की तरह बहने जो न दे
कश्कोल न भर उस दरिया का, उस दरिया को साहिल कर दे
ऐ मेरे खुदा! इस जुल्मत को आंखों का जो काजल बन न सकी
या दिल पै किसी के दाग बना, या रुख पै किसी के तिल कर दे
ऐ मेरे खुदा! जिस मिट्टी से जब्बारों के दिल बनते हैं
जिस मिट्टी से जल्लादों के, अत्याचारियों के दिल बनते हैं, उस मिट्टी में थोड़ी—सी कुछ और चीज मिला दे।
उस मिट्टी में मजबूरों के कुछ आंसू भी शामिल कर दे
कि उन्हें थोड़ी सहानुभूति आए, कि थोड़ा प्रेम उमगे
ऐ मेरे खुदा! इन तिनकों को किश्ती की तरह बहने जो न दे
ये छोटे—छोटे तिनके, ये असहाय लोग; इनके बहने में भी लोग बाधा डाल रहे हैं, इनको बहने भी नहीं देते।
ऐ मेरे खुदा! इन तिनकों को किश्ती की तरह बहने जो न दे
कश्कोल न भर उस दरिया का...
उस सागर के भिक्षा—पात्र में पानी मत डाल!
कश्कोल न भर उस दरिया का, उस दरिया को साहिल कर दे
उस सागर को किनारा बना दे, वहां सागर न बना। जहां छोटे—छोटे लोग, निरीह, असहाय लोग डूब जाते हों——उस दरिया को साहिल कर दे——उस सागर को किनारा बना दे; उससे पानी छीन ले।
ऐ मेरे खुदा! इस जुल्मत को आंखों का जो काजल बन न सकी
या दिल पै किसी के दाग बना, या रुख पै किसी के तिल कर दे
कुछ तो हो जाओ। अगर जिंदगी कालिख ही कालिख है, तो भी कम से कम इतनी तो प्रार्थना कर ही सकते हो:
ऐ मेरे खुदा! इस जुल्मत को आंखों का जो काजल बन न सकी
या दिल पै किसी के दाग बना, या रुख पै किसी के तिल कर दे
कुछ तो जिंदगी को सुंदर कर जाओ। किसी के रुख पे एक तिल ही बन जाओ, अगर नहीं बन सके किसी की आंख का काजल! बन सको तो किसी की आंख का काजल बन जाओ।
सदगुरु यही तो करता है——किसी की आंख का काजल बनता है। जिन्हें दिखाई नहीं पड़ता, उन्हें दिखाई पड़ने का उपाय करता है। जिनके हृदय प्रेम से शून्य हो गए हैं, उन्हें फिर से प्रेम की उमंग से भरता है। कुछ तो करो!
जो भी होय कछु गांठि खोलिकै दीजिए।
साईं सबही माहिं नाहिं क्यूं कीजिए।।
न कहना बंद करो। नकार से संबंध तोड़ो। "हां' तुम्हारे जीवन की प्रक्रिया बन जाए, शैली बने।
साईं सबही माहिं नाहिं क्यूं कीजिए।।
परमात्मा सभी में है, इनकार किसे कर रहे हो!
अभी आजादिएइन्सां है फरेबेइन्सां
दिलेइन्सां है निशाना अभी इन्सानों का
साफ कहने पै हूं मजबूर सुन ऐ वादे—सबा!
तेरे गुलशन पै है साया अभी जिंदानों का
बारहा इश्क की टूटी हुई किश्ती ने "रविश'
सर झुकाया है उभरते हुए तूफानों का
छोटी—सी टूटी हुई प्रेम की किश्ती भी बड़े—बड़े तूफानों का सर तोड़ देती है!
बारहा इश्क की टूटी हुई किश्ती ने "रविश'
सर झुकाया है उभरते हुए तूफानों का
ऐसी प्रेम की किश्ती का बल है। तुम जरा प्रेम बनो। और प्रेम बनने का मतलब होता है, तुम्हारे जीवन की प्रक्रिया प्रेम की प्रक्रिया हो——बांटो!
अभी आजादिएइन्सां है फरेबेइन्सां
अभी तो आदमी की आजादी एक झूठ है, आदमियों का एक धोखा है।
दिलेइन्सां है निशाना अभी इन्सानों का
अभी तो हर आदमी एक दूसरे के दिल पर तीर के निशान लगा रहा है।
साफ कहने पै हूं मजबूर सुन ऐ वादे—सबा!
ऐ सुबह के समीर, सुन!
तेरे गुलशन पै है साया अभी जिंदानों का
हालांकि तूने बगिया बसाई है, लेकिन तेरी बगिया पर कारागृहों की छाया पड़ रही है।
बारहा इश्क की टूटी हुई किश्ती ने "रविश'
सर झुकाया है उभरते हुए तूफानों का
लेकिन एक प्रेम की छोटी—सी टूटी किश्ती भी बड़े से बड़े सागर को पार कर जाती है। एक प्रेम की छोटी—सी टूटी हुई किश्ती ही सारे कारागृहों के पार ले जाती है, सारी जंजीरों के पार ले जाती है।
साईं सबही माहिं नाहिं क्यूं कीजिए।।
जाको ताकूं सौंप क्यूं न सुख सोवही
और जिसका है, उसको सौंपकर सुख से क्यों नहीं सोते! मेरीत्तेरी करके क्यों चिंता कर रहे हो? सब उसका है, ऐसा जिसे दिखाई पड़ गया, उसकी चिंता समाप्त हो गई। फिर क्या चिंता है? मेरा है तो चिंता है; मेरा है तो कोई छीन न ले, मेरा है तो कहीं खो न जाए, मेरा है तो बढ़े, घट न जाए——ये हजार चिंताएं हैं। जब तक नहीं है तब तक चिंता है कि कैसे हो; और जब हो जाता है तब चिंता होती है कि अब बचे कैसे? चिंता ही चिंता है। अहंकार चिंता के अतिरिक्त जीवन में कुछ लाता नहीं।
जाको ताकूं सौंप——उसका उसी को सौंप दो। न तुम कुछ लेकर आए थे, न तुम कुछ लेकर जाओगे। थोड़ी देर का खेल है, खेल लो। थोड़ी देर का अभिनय है मंच पर, कर लो। जो खेल खिलाए, खेल लो। जैसा रखे वैसा रह लो।
जाको ताकूं सौंप क्यूं न सुख सोवही
और फिर सोओ तानकर चादर सुख से। फिर तुम्हारा न कुछ है, न छिन सकता है। मौत भी तुमसे कुछ न ले सकेगी। फिर मौत का भय भी विलीन हो जाता है। मौत का भय ही क्या है? यही भय है कि सब छीन लेगी। जिसने सब उसका ही है ऐसा मान लिया, उसको मौत का भय भी समाप्त हो जाता है। वह निर्भय हो जाता है।
हरि हां, अंत लुणै वाजिद, खेत जो बोवही।।
ऐसा खेत बोओ जो लुटे न। लेकिन तुम ऐसा खेत बो रहे हो, जो अंत में लुट ही जाने वाला है। थोड़ी समझदारी बरतो। प्रेम का पागलपन पागलपन दिखाई पड़ता है संसार के लोगों को, लेकिन जो जानते हैं, उनकी आंखों में वही समझदारी है।
जोध मुए ते गए, रहे ते जाहिंगे
बड़े—बड़े योद्धा जा चुके; जो रह गए हैं, वे भी जाने की तैयारी कर रहे हैं। मौत किसी को छोड़ती नहीं।
जोध मुए ते गए, रहे ते जाहिंगे
धन सांचता दिन—रैण कहो कुण खाहिंगे।।
और जो दिन—रात धन ही जोड़ने में लगा है, वह जरा सोचे तो——तुम कल चले जाओगे, कौन इस धन को खाएगा? और कितना गंवाया इसके पीछे! कितने लड?, कितने झगड़े! कितनी बुराइयां मोल लीं! कितनों के दिल दुखाए! कितनों के जीवन संकट में डाले!
तन धन है मिजमान दुहाई राम की।
यह वचन तो बड़ा अनूठा है! समझो, स्वाद लो इसका——बड़ी मिठास फैल जाए प्राणों पर।
तन धन है मिजमान दुहाई राम की।
बड़ी अजीब बात कही वाजिद ने कि तन और धन दोनों मेहमान हैं, दोनों चले जाएंगे। दुहाई राम की——यह परमात्मा की बड़ी अनुकंपा है!
तुम थोड़ा चौंकोगे, इसमें क्या अनुकंपा हुई? तन भी चला जाएगा, धन भी चला जाएगा, और यह महाराज कहते हैं——दुहाई राम की! वह इसलिए कहते हैं कि अगर तन न जाता और धन न जाता तो तुम सदा के लिए तन और धन में ही खो जाते। तुम आत्मा को कभी जान न पाते। तुम्हें परमात्मा की स्मृति ही न आती। जरा सोचो, अगर तन यह सदा रहता, मौत न आती; यह धन जो तुम्हारा है, सदा रहता, कभी छिनता नहीं——कितने लोग मंदिर जाते? कितने लोग मस्जिद जाते? कौन पूजा करता? कौन प्रार्थना में पुकारता? किसलिए? कौन परमात्मा को खोजता?
जरा कल्पना करो, तुम अपनी ही कल्पना करो कि तुम्हें मिल गया शाश्वत शरीर और शाश्वत धन। परमात्मा खुद भी द्वार पर आकर खड़ा हो जाए, तुम कहोगे आगे बढ़ो! प्रयोजन क्या है? इसलिए कहते हैं——दुहाई राम की! कि तेरी बड़ी कृपा है कि तन तूने ऐसा दिया जो छिन जाएगा; धन भी ऐसा मिलता है, जो आज हाथ, कल हाथ से खो जाएगा। तेरी याद नहीं भूल पाती इसलिए। इसलिए तेरी याद करनी ही पड़ती है। सिर्फ मूढ़ ही हैं, जो तेरी याद नहीं करते। जिनमें थोड़ी भी बुद्धि है, वे तेरी याद करेंगे ही। तूने याद का बड़ा आयोजन कर रखा है। तूने मौत बिठा रखी है, जो गिनती बोल रही है: एक, दो, तीन...दस हुए कि बस। तूने मौत बिठा रखी है। तूने जीवन क्षणभंगुर दिया है। धन हाथ में आता है और छिन जाता है, कुछ टिकता नहीं। तूने अपूर्व कृपा की! दुहाई राम की!
हरि हां, दे ले खर्च खिलाय धरी किहि काम की।।
इसलिए जितनी देर हाथ में है, उसे लुटा लो। कबीर ने कहा है: दोनों हाथ उलीचिए यही सज्जन को काम। बांट लो। दो घड़ी उत्सव मना लो। छिन तो जाएगा ही; देने का रस ले लो।
और देने में तुम्हारे भीतर कुछ घट जाएगा जो काम आएगा। बांटने में तुम्हारे भीतर कुछ बच जाएगा। यह उल्टा गणित है जीवन का। यहां जो बचाते हैं, उनका सब खो जाता है; और यहां जो बांट देते हैं, उनका सब बच जाता है।
गहरी राखी गोय कहो किस काम कूं
और तुम खोद—खोदकर गड़ा रहे हो जमीन में। वाजिद तो राजस्थानी थे, तो वह राजस्थानियों की आदत बता रहे हैं, मारवाड़ियों की।
गहरी राखी गोय कहो किस काम कूं
और खूब गड़ा दिया है गहरे, मगर किस काम की है यह?
या माया वाजिद, समर्पो राम कूं।।
गहरे मत गड़ाओ, ऊपर उठाओ। राम को समर्पित करो। कहां जमीन में गड़ा रहे हो, आकाश को दो।
या माया वाजिद, समर्पो राम कूं।।
कान अंगुली मेलि पुकारे दास रे।
वाजिद कहते हैं कि तुम्हारे कानों में अंगुली डाल—डालकर पुकार रहा हूं; फिर मत कहना कि मैंने तुम्हें चेताया नहीं था। मौत जब द्वार पर आ जाए, तब मत कहना कि मैंने चेताया नहीं था। कान में अंगुली डाल—डालकर चेताया है!
कान अंगुली मेलि पुकारे दास रे।
हरि हां, फूल धूल में धरै न फैले बास रे।।
तुम कैसे पागल हो! जैसे कोई फूलों को जमीन में गड़ा दे, फिर क्या खाक बास फैलेगी! ऐसे तुम धन को जमीन में गड़ा रहे हो। बांट लो, तो बास फैले। ले—दे लो, तो बास फैले! मौत आए, इसके पहले प्रेम का खूब विस्तार कर लो। मौत आए, इसके पहले अपने भीतर शून्य की गहराई बढ़ा लो। अगर गड़ाना है कुछ, तो भीतर शून्य को गड़ाओ। अगर फैलाना है कुछ, तो बाहर प्रेम को बढ़ाओ। बस ये दो काम कोई आदमी कर ले, वही संन्यासी है——भीतर शून्य को गहरा करे, बाहर प्रेम को फैलाए।
और शून्य और प्रेम एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। प्रेम——बाहर, बहिर्मुख; शून्य——अंतर्मुख। शून्य यानी ध्यान, प्रेम यानी भक्ति। बस ये दो को साध लो। ये दो पंख तुम्हें मिल जाएं, तुम पहुंच जाओगे उस प्रभु के द्वार तक। तुम्हें कोई रोक न सकेगा।
भूख को आपने गैरत बख्शी
प्यास को जब्त की ताकत बख्शी
नासबूरी को कनाअत बख्शी
और बंदों पै अता क्या होगी!
चश्मे—वाइज को बसीरत की नजर
कल्बेमुनअम को मुहब्बत का शरर
आहे—मजलूम को थोड़ा—सा असर
और शाइर की दुआ क्या होगी!
भूख को आपने गैरत बख्शी
प्यास को जब्त की ताकत बख्शी
परमात्मा ने खूब दान दिए हैं!
भूख को आपने गैरत बख्शी
भूख को एक गौरव दिया।
प्यास को जब्त की ताकत बख्शी
और प्यास को हम संयमित कर सकें, रोक सकें, देर तक प्यासे रह सकें, ऐसा धीरज दिया।
नासबूरी को कनाअत बख्शी
और बेसब्री को संतोष दिया। बेसब्र को भी संतोष की संपदा दी है; अगर वह उसका उपयोग करे, तो बेसब्री चली जाए।
और बंदों पै अता क्या होगी!
इससे बड़ी और क्या अनुकंपा हो सकती थी हम पर।
चश्मे—वाइज को बसीरत की नजर
जरा ये तुम्हारे तथाकथित त्यागी—व्रतियों को थोड़ी बुद्धि और दे दो।
चश्मे—वाइज को बसीरत की नजर
इनको थोड़ी बुद्धिमत्ता और दे दो।
कल्बेमुनअम को मुहब्बत का शरर
और धनिक के हृदय को प्रेम छू जाए, इसकी थोड़ी—सी आशा की किरण दे दो।
कल्बेमुनअम को मुहब्बत का शरर
आहे—मजलूम को थोड़ा—सा असर
और पीड़ित की आह में थोड़ी ताकत आ जाए, इतना और कर दो।
और शाइर की दुआ क्या होगी!
और कवि क्या मांग सकता है! ऐसे तुमने बहुत दिया है।
भूख को आपने गैरत बख्शी
प्यास को जब्त की ताकत बख्शी
नासबूरी को कनाअत बख्शी
और बंदों पै अता क्या होगी!
चश्मे—वाइज को बसीरत की नजर
कल्बेमुनअम को मुहब्बत का शरर
आहे—मजलूम को थोड़ा—सा असर
और शाइर की दुआ क्या होगी!
इतना और कर दो। परमात्मा यह भी कर रहा है; हम नहीं होने देते। हम अड़चन डाल रहे हैं। परमात्मा आतुर है हमसे मिलने को। उसके हाथ हमें टटोलते हैं अंधेरे में। मगर हम भागे—भागे हैं, हम छिटकेछिटके हैं। और यह दौड़ तुम्हारी कितने जन्मों से चल रही है! और कितने जन्मों तक इसी दौड़ में डूबे रहना है? कुछ पाया नहीं। दीन और दरिद्र! क्या ऐसे ही दीन और दरिद्र बने रहना है? कब जागोगे!
कहै वाजिद पुकार सीख एक सुन्न रे।
बस एक शून्य को सीख लो, फिर यह व्यर्थता का संसार समाप्त हुआ। फिर तुम सार्थक जगत में प्रविष्ट हुए।
धन तो सोई जाण धणी के अरथ है।
फिर तुम्हें मालिक से जोड़ने वाला धन मिल गया, "धणी' से जोड़ने वाला धन मिल गया। फिर सेतु बना तुम्हारे जीवन में——ध्यान का, समाधि का, भक्ति का, प्रेम का।
इस जगत में बुद्धिमान वे ही हैं, जो अपने हृदय में शून्य को बसा लेते हैं और जो अपने जीवन में प्रेम को फैला देते हैं। शून्य में होनी चाहिए तुम्हारे जीवन की जड़ें और प्रेम के खिलने चाहिए तुम्हारी शाखाओं पर फूल! भीतर शून्य, निर—अहंकार, निपट शून्य; और बाहर प्रेम की आभा!
बुद्ध ने कहा है: जिसको समाधि फलित होती है, उसके आसपास अपने—आप करुणा की आभा फैल जाती है।
बुद्ध के शब्द हैं: समाधि, करुणा; वाजिद के शब्द हैं: सुन्न, शून्य, प्रेम। इस शून्य की तरफ जाने में प्रेम पहला कदम होगा, नहीं तो तुम इस शून्य की तरफ न जा सकोगे। कोई शून्य हो गया हो, उससे जुड़ना होगा। और उससे जुड़ने की कला प्रेम है।
इसलिए कहते हैं:
साधां सेती नेह लगे तो लाइए
बन सके, किसी साधु के प्रेम में पड़ सको, तो पड़ जाओ।
जे घर होवे हांण तहुंछिटकाइए
फिर चाहे कुछ भी हो; सौदा कितना ही महंगा पड़े; और कुछ भी चुकाना पड़े कीमत, फिर छिटककर भागना मत। फिर कायर मत बन जाना, फिर भगोड़े मत बन जाना। प्रेम जो मांगे, देना। प्रेम जहां ले जाए, जाना। प्रेम जलाए तो जलना। प्रेम मारे तो मरना——प्रेम—पंथ ऐसो कठिन!
पर उसी मृत्यु में से अमृत का झरना फूटता है। और उसी सूली पर, जिस पर प्रेम तुम्हें चढ़ाएगा, सिंहासन निर्मित होता है। जो प्रेम में मरने को तैयार है, वह परमात्मा में अपूर्व जीवन को पा लेता है, शाश्वत जीवन को पा लेता है।
तो प्रेम में मरने की कला ही धर्म है। और जो धर्म में डूबा, वह अनंत में, शाश्वत में, अमृत में प्रविष्ट हो जाता है। एक विराट जीवन तुम्हारे चारों तरफ मौजूद है। मगर तुम अपने में सिकुड़े बैठे हो। खुलो! गांठें खोलो! ग्रंथियां तोड़ो!
ये वाजिद के आज के सूत्र बड़े बहुमूल्य हैं! सीधे—सादे आदमी के सूत्र, पर परम की तरफ इशारा भरा है उनमें। बस इतना ही कर लो। थोड़ा—सा ही करना है।
सर्द इस दौर में है सीनाए—आदम वर्ना
जिंदगी के लिए सोजेदिले—परवाना बहुत
पतंगे हो जाओ, परवाने हो जाओ! और कहीं मिल जाए कोई जलती हुई शमा, तो देर मत करना, कल पर मत टालना, ले लेना छलांग!
अरसए—दहर भी तेरे लिए कम ऐ वाइज!
और मेरे लिए इक गोशाएमैखाना बहुत
कहीं मिल जाए मधुशाला——आ गया घर! बस एक छोटे कोने में पड़ रहना——जहां प्रभु—प्रेम की बात होती हो, और जहां प्रभु—प्रेम की शराब ढाली जाती हो, और जहां प्रभु—प्रेम के गीत गाए जाते हों, स्तुतियां उठती हों, जहां प्रभु—प्रेम का आनंद बरसता हो——फिर उस मधुशाला में एक छोटा—सा कोना भी मिल जाए, द्वार पर भी पड़े रहे, तो भी स्वर्ग में हो! इतना—सा कर लो, बस इतना—सा कर लो:
अरसए—दहर भी तेरे लिए कम ऐ वाइज!
और मेरे लिए इक गोशाएमैखाना बहुत
सर्द इस दौर में है सीनाए—आदम वर्ना
जिंदगी के लिए सोजेदिले—परवाना बहुत

आज इतना ही।


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