रसरूप भगवत्ता—(प्रवचन—सोहलवां)
प्यारे
ओशो!
आपने
उस दिन कहा कि 'रसो
वै सः' —कि
वह रस—रूप है।
परमात्मा
की यह परिभाषा
मुझे सब से
बढ़कर भाती है।
तैत्तिरीय
उपनिषद् का वह
पूरा श्लोक इस
प्रकार है :
रसों
वै सः।
रसं
ह्येवायं
लथ्यानन्दी
भवति। को
ह्येवान्यात्
व्य
प्राण्यात्।
यदव
आकाश आनन्दो न
स्यात्। एव
ह्येवानन्दयाति।
भगवान रस—रूप
है। उसी रस को
पाकर प्राणी—मात्र
आनंद का अनुभव
करता है। यदि
वह आकाश की
भांति सर्व—व्यापक
आनंदमय
तत्त्व न होता, तो
कोन जीवित
रहता और कोन प्राणों
की चेष्टा
करता?
वास्तव
में वही
तत्त्व सबके
आनंद का
मूलस्रोत है।
प्यारे
ओशो! हमें
इसका पूरा आशय
समझाने की अनुकम्पा
करें।
सहजानंद!
यह परिभाषा
अपूर्व है।
मनुष्य जाति
के समग्र
इतिहास में
इसके जोड़ की
कोई परिभाषा
नहीं है। ऐसे
तो परमात्मा
की भाषा हो
नहीं सकती, लेकिन
करनी ही हो, करनी ही पड़े,
तो इस
परिभाषा से
श्रेष्ठतर
परिभाषा की
कोई संभावना
नहीं है।
लेकिन इसे
समझना आसान
नहीं है। एक—एक
शब्द को बहुत
गौर से समझना
पड़े।
पहले
तो '
र स '।
दुनिया की
किसी भाषा में
इसका ठीक—ठीक
रूपांतरण
नहीं किया जा
सकता।
रूपांतरण
करते ही बात
विकृत हो जाती
है। क्योंकि
जिन्होंने इस
शब्द को जन्म
दिया होगा, उन्होंने
अनुभव का
निचोड़ इसमें
भरा है। यह
सामान्य शब्द
नहीं है; अनुभूतिजन्य
है। इस छोटे
से शब्द में
अनुभव का सागर
समाया हुआ है।
इस बूंद में
सिंधु है। इस
बूंद को कोई
समझ ले, तो
सारे सागरों
का रहस्य समझ
में आ जाये।
इस
शब्द के बहुत
पहलू हैं।
पहला पहलू तो
है कि रस का
अर्थ होता है—जो
सदा
प्रवाहमान है, जो
बह रहा है। वह
गति, गत्यात्मकता
'रस' शब्द
से सूचित होती
है।
जो
चीज ठहरी, वह
मरी। जो बहती रहा,
वह जीवित
रही। जल तो
वही है, जो
हौज में भरा
होता है! और
कुएं में भी।
शायद उसी कुएं
का जल हो।
लेकिन हौज का
जल मृत है, उसमें
प्रवाह नहीं
है। वह रस
नहीं है।
कुएं
का जल
प्रवाहमान है।
उसमें झरने
हैं। उसमें
स्रोत हैं।
उसमें गति है।
वह अनंत—अनंत
सागर से जुड़ा
है। परोक्ष
में दूर—दूर
झर—झरकर पानी
उस तक पहुंच
रहा है। वह तो
सिर्फ झरोखा
है। जिसमें से
सागर झांका है।
और सागर भी
ऐसा होकर
झांका है कि
अब पीया जा सकता
है। सागर से
पानी न पी
सकोगे। पीओगे
तो मृत्यु हो
जायेगी। सागर
को पृथ्वी की
बहुत सी तलों
से गुजरना पड़ता
है,
तब कहीं
पीने योग्य हो
पाता है। तब
कहीं हम उसे
अपना जीवन बना
सकते हैं। और
पानी के बिना
कोई जीवन नहीं
है। आदमी के
शरीर में
अस्सी
प्रतिशत तो
पानी ही है।
—कुएं का
पानी तुम पी
सकोगे; वह
तुम्हारे
पचाने योग्य
हो गया।
पृथ्वी ने उसे
शुद्ध किया, निर्मल किया।
झर—झरकर
निर्मल हुआ है।
बह—बहकर निर्मल
हुआ है। हौज
में तो सड़
जायेगा; कुएं
में नहीं सडता
है। देखने में
दोनों में एक
जैसा लगता है।
जब
कोई
बुद्धपुरुष
जीवित होता है, तो
उसके भीतर
धर्म रस—रूप
होता है। जैसे
कुएं में जल।
जैसे सरिता का
जल। और जब कोई
बुद्धपुरुष
विदा हो जाता
है, तो
पण्डितों के
पास उसके शब्द
छूट जाते हैं—जैसे
हौज में भरा
जल, जैसे
डबरों में भरा
जल। जिनके कोई
झरने नहीं
होते। जल तो
वही। देखने
में बिलकुल वहां,
फिर भी वही
नहीं।
बुद्धपुरुष
को तुम
आत्मसात कर
सकते हो, उसे
पी सकते हो, उसे पचा
सकते हो।
इसलिए जीसस ने
अनूठे वचन कहे
हैं।
अंतिम
विदाई में
जीसस ने अपने
शिष्यों के
लिए भोज दिया।
वह बड़ा
प्रतीकात्मक
है. 'अंतिम— भोज'। उस भोज में
जीसस ने अपने
शिष्यों को
कहा, 'इस
भोजन को तुम
साधारण भोजन
मत समझना। यह
मेरा मास है, मेरी मज्जा
है। इस शराब
को तुम साधारण
शराब मत समझना;
यह मेरा खून
है। मुझे खाओ,
मुझे पीओ, मुझे पचाओ।’
बड़े
अजीब से शब्द
हैं,
लेकिन बड़े
गहरे। जीसस यह
कह रहे हैं कि
तुम सिर्फ
मेरे अनुयायी
बनकर मत रह
जाना, नहीं
तो चूक जाओगे।
तुम मेरे
शब्दों के धनी
बनकर मत रह
जाना, नहीं
तो भटक जाओगे।
तुम्हारे
भीतर भी वही
चैतन्य
आविर्भूत
होना चाहिए, जो मेरे
भीतर हुआ। वही
ज्योति जलनी
चाहिए, जो
मेरे भीतर जली।
और ऐसा तो तब
होगा, जब
शिष्य अपने
गुरु को पचाने
को राजी हो
जाता है।
विद्यार्थी
पचाता नहीं; विद्यार्थी
तो याद करता
है।
विद्यार्थी
अंततः पण्डित
बन जायेगा।
शिष्य पचाता
है, पचाता
है—पीता है।
लीन करता है
अपने में। और
जब भोजन पच
जाता है, तो
तुम्हारा हो
जाता है। अब
तुम कैसे पता
लगाओगे कि
तुम्हारा खून
कहां से आया—दूध
से आया, सब्जी
से आया, फल
से आया—कहां
से आया! अब तो
पता लगाना भी
मुश्किल है।
खून—तुम्हारा
खून है। हड्डी—तुम्हारी
हड्डी है।
मज्जा—तुम्हारी
मज्जा है।
लेकिन जो
अनपचा रह जाये,
तो रुग्ण कर
देगा।
पण्डित
रुग्ण होता है।
उसके भीतर
अनपचा भोजन
पड़ा है।
बहुमूल्य
भोजन—मगर
अनपचा। लेकिन
ठंडा हो गया
भोजन!
शास्त्रों
में धर्म ठण्डा
हो जाता है, पचाने
'योग्य
नहीं रह जाता।
उसकी ऊर्जा भी
खो जाती है, ऊष्मा भी खो
जाती है। उसकी
श्वासें भी कब
की टूट चुकीं।
मृत लाश है!
वैसी ही लगती
है, जैसे
जीवित
बुद्धपुरुष
लगते थे। बस
देखने में
वैसी लगती है,
लेकिन कुछ
कमी है। और
कुछ क्या—सभी
कुछ कम है, आत्मा
ही नहीं है।
पिंजड़ा पड़ा है;
आत्मा तो उड़
गयी।
धर्म
रस है। लेकिन
कोई झरोखा
चाहिए, जिससे
तुम झांक सको।
कोई झरना
चाहिए, जिससे
तुम पी सको।
शब्द काम नहीं
देंगे।
शास्त्र काम
नहीं देंगे।
जानकारी और
ज्ञान काम
नहीं देगा।
ध्यान ही काम
दे सकता है।
क्योंकि
ध्यान से
स्वाद मिलता
है।
रस
का दूसरा पहलू
: रस का अर्थ है, जिसका
स्वाद लिया जा
सके। तुम शब्द
तो सुनते हो
मगर उनका
स्वाद कहां? जैसे 'ईश्वर'
शब्द तुमने
सुना। कोई
स्वाद आता है
तुम्हें!
तुम्हें
बिलकुल स्वाद
नहीं आता।’ईश्वर'
शब्द कान
में भनभनाता
है; एक कान
में गूंजता है,
दूसरे से
निकल जाता है।
तुम्हारे
भीतर कोई हलन—चलन
नहीं होती।
कोई गति नहीं
होती। कोई रस
नहीं बहता। तुम
मस्त नहीं हो
जाते। तुम
डोलने नहीं
लगते।
यूं
ही जैसे कोई 'शराब'
शब्द को
सुने, तो
क्या मस्त हो
जायेगा? पिये
—तो मस्त होगा।
पिये—तों
झूमेगा। पिये —तो
गायेगा। पिये—तों
नाचेगा। शराब
उसके रग—रेशे
में दौड़े, तो
उसका रोआं—रोआं
जाहिर करेगा
कि कुछ भीतर
घट रहा है, कोई
क्रांति हो
रही है।
धर्म
रस है अर्थात्
उसका स्वाद
लेना होता है।
खोपड़ी में भर
लेने से स्वाद
नहीं आता।
स्वाद तो
अनुभव से आता
है। तुम लाख
चर्चा सुनो
मिठाई की, लेकिन
कभी तुमने
मीठा न चखा हो,
तो चर्चा से
क्या होगा!
मीठा शब्द याद
हो जायेगा, लेकिन शब्द
में कुछ अर्थ
नहीं होगा।
तुम्हारे
लिये नहीं
होगा अर्थ, अर्थ उनके
लिए ही होगा
जिन्होंने
चखा है।
शब्दों
का एक खतरा है।
शब्दों से यह
भ्रांति पैदा
हो सकती है कि
मैं समझ गया।
जब शब्द समझ
में आ गया, तो
हम सोचते हैं :
बात समझ में आ
गयी। मगर शब्द
समझ में आने
से कुछ समझ में
नहीं आता।
'प्रेम' शब्द
तुम जानते हो;
खूब जानते
हो। सुबह से
शाम तक प्रेम
की चर्चा करते
हो। सारी
पृथ्वी पर
प्रेम ही
प्रेम चल रहा
है! पति पत्नी
को प्रेम कर
रहा है। पत्नी
पति को प्रेम
कर रही है।
मां—बाप
बच्चों को
प्रेम कर रहे
हैं। बच्चे
मां—बाप को
प्रेम कर रहे
हैं—और फिर भी
पृथ्वी पर
इतना अप्रेम
है, इतनी
घृणा है; इतना
वैमनस्य है, इतनी
शत्रुता है कि
सब एक दूसरे
की जान के ग्राहक
बने बैठे हैं!
सब एक दूसरे
की गर्दन पर
तलवारें
टिकाये हुए
हैं। जिसको
मौका मिल जाये,
वही गर्दन
काट देगा!
यह
मामला क्या
है! यह तमाशा
क्या है? इतना
प्रेम दिया जा
रहा है, लिया
जा रहा है और
परिणाम में
सिवाय
युद्धों के
कुछ नहीं
लगता! तीन
हजार साल में
पांच हजार युद्ध
लड़े गये हैं!
यह तुम्हारा
अतीत है! ये
तुम्हारे
सतयुग, स्वर्णयुग,
रामराज्य
की कथाएं हैं!
इस
अतीत को तुम
गुणगान गाते
थकते नहीं! ये
तुम्हारे
स्वर्णशिखर
हैं! ये तुमने
आकाश छुए हैं!
तीन
हजार साल में
पांच हजार
युद्ध! जैसे
आदमी लड़ता ही
रहा—लड़ता ही
रहा! और सारे
प्रेम का क्या
हुआ?
क्योंकि एक
व्यक्ति पति
भी होता है, बेटा भी
होता है, पिता
भी होता है, भाई भी होता
है, काका
भी होता है, मौसा भी
होता है, मामा
भी होता है—कितना
नहीं होता!
रिश्ते ही
रिश्ते हैं।
उसको कितना
प्रेम मिलता
है? इतना
सारा प्रेम
जानने के बाद
फल तो बड़े
कड़वे लगते ??
और
प्रेम की
कविताएं, और
प्रेम के गीत,
और प्रेम के
शास्त्र! ही
तुम प्रेम पर
बोलना चाहो तो
खूब बोल सकते
हो। मगर प्रेम
का तुम्हें
कुछ अनुभव
नहीं। अनुभव
नही—तो अर्थ
भी नहीं।
ऐसा
समझो कि अनुभव
से अर्थ आता
है;
शब्दों की
जानकारी से
अर्थ नहीं आता।
जिस दिन अंधे
की आंख खुलती
है, उस दिन
वह जानता है :
प्रकाश क्या
है। इसके पहले
लाख तुमने
समझाया हो, और लाख उसने
समझा हो.....।
अंधों की अलग
किताबें होती
हैं, बेल—लिपि
में लिखी हुई।
उन पर
उंगलियां फेर—फेरकर
उसने पढ़ लिया
हो; प्रकाश
के संबंध में
सारी जानकारी,
सारे सिद्धांत,
सारा भौतिक
शास्त्र—जों—जों
कहता है, अब
तक विज्ञान ने
जो खोजा है
प्रकाश के
संबंध में—कि
प्रकाश की गति
इतनी होती है.
एक सैकेंड में
एक लाख छियासी
हजार मील! कि
प्रकाश शुभ्र
रंग का होता
है! लेकिन अगर
उसे
स्पैक्ट्रम
से गुजारा
जाये, तो
वह सात रंगों
में टूट जाता
है, उससे
इंद्रधनुष बन
जाते हैं। यह
सब पढ़ सकता है
अंधा बेल—लिपि
में। और न पढ़
सकता हो, तो
तुम समझा सकते
हो, पढ़ —पढ़कर
तुम बता सकते
हो।
और
ध्यान रखना
अंधा सुनने
में बहुत कुशल
होता है—स्वभावत!
उसके पास आंखें
तो होती नहीं, तो
आंखों से जो
ऊर्जा व्यय
होती थी, वह
सब की सब
कानों को मिल
जाती है।
इसलिए अंधे
अच्छे
संगीतज्ञ
होते, अच्छे
गायक होते हैं।
उनकी ध्वनि पर
पकड़ गहरी होती
है।
आंख
से आदमी की
अस्सी
प्रतिशत
ऊर्जा व्यय
होती है।
अस्सी
प्रतिशत! बाकी
तुम्हारी चार
इंद्रियों को
केवल बीस
प्रतिशत
ऊर्जा मिलती
है। इसलिए तो
बहरे को देखकर
दया नहीं आती; वैसी
दया नहीं आती,
जैसी दया
अंधे को देखकर
आती है।
तुम्हारे पास
बहरे के लिये
कोई समादर —सूचक
शब्द नहीं है।
लेकिन अंधे को
तुम कहते हो—'सूरदासजी!' लंगड़े को
लंगड़ा ही कहते
हो; लंगड़ा
जी भी नहीं
कहते! बहरे को
बहरा ही कहते
हो; बहराजी
भी नहीं कहते!
लेकिन अंधे को
सूरदासजी कहते
हो। क्यों?
अंधे
पर बड़ी दया
आती है। दया
आने जैसी बात
है। क्योंकि
उसका अस्सी
प्रतिशत जीवन
कट गया। वह
केवल बीस
प्रतिशत से जी
रहा है। वह
केवल अपने
जीवन का
पंचमांश जी
रहा है। यूं
समझो कि न
जीने के बराबर
जी रहा है। आंख
ही नहीं तो
क्या जीवन! न
रंग है, न रूप
है, न
सौंदर्य है।
तुम कल्पना
नहीं कर सकते
कि रंग, रूप
और सौंदर्य के
न हो जाने पर
तुम्हारे
जीवन पर परदा
गिर जाता है।
बचता ही क्या
है! लेकिन
इसका एक
परिणाम होता है
कि यह अस्सी
प्रतिशत
ऊर्जा जो बचती
है, आंख की,
वह कान को
मिल जाती है।
कान आंख के
सबसे करीब है;
नम्बर दो।
तो
अंधा सुनता
बहुत गहराई से
है। उसकी
स्मृति बहुत
मजबूत होती है
गहराई की; भूलता
ही नहीं। एक
दफा सुन लेता
है, तो
भूलता नहीं।
उसकी सुनने के
संबंध में
संवेदनशीलता
बड़ी गहन होती
है। जैसे तुम
आदमी को उसके
चेहरे से
पहचानते हो, अंधा तो
चेहरे से नहीं
पहचान सकता।
वह उसकी पग—
ध्वनि तक को
पहचानने लगता
है। अंधा
जानता है—कोन
आ रहा है। वह
अपने मित्रों
के पैरों की
आवाज पहचानता
है। तुमने कभी
खयाल ही नहीं
किया होगा कि
आदमी आदमी के
पैरों की आवाज
में भी फर्क
होता है। मगर
अंधे को होता
है फर्क।
स्वभावत:
क्योंकि उसको
तो और कोई
पहचान बची नहीं।
इसलिए
अंधे को तुम
समझाओ, तो वह
समझने में
कुशल होता है।
शब्दों को तो
वह कान से सुन
लेता है, और
स्मृति में
समा जाते हैं।
मगर प्रकाश का
अनुभव कैसे
होगा?
और
प्रकाश का
अर्थ अंधे के
लिए क्या हो
सकता है! कुछ
भी नहीं हो
सकता। प्रकाश
तो दूर, अंधे
ने अंधेरा भी
नहीं देखा है।
आमतोर से तुम
सोचते हो कि
अंधा बेचारा
अंधेरे में
रहता होगा।
तुम इस गलती
में मत पड़ना।
अंधेरा देखने
के लिए भी आंख
चाहिए। आंख के
बिना अंधेरा
भी नहीं देखा
जा सकता। जब
प्रकाश नहीं
देखा जा सकता,
तो अंधेरा
कैसे देखोगे?
तुम
आंख बंद करते
हो,
तो अंधेरा
दिखाई पड़ता है।
लेकिन यह मत
सोच लेना इससे,
यह अनुमान
मत लगा लेना
कि बेचारा
अंधा अंधेरे में
रहता होगा।
अंधे को
अंधेरा भी कभी
नहीं दिखाई
पड़ा। आंख ही
नहीं, दिखाई
पड़ने का कोई
सवाल ही नहीं
उठता।
तो
इसको तुम
अंधेरा भी
नहीं समझा
सकते, प्रकाश
तो क्या खाक
समझाओगे! मगर
शब्द इसे याद
हो सकता है।
और यह अंधा पण्डित
हो सकता है
शब्द के आधार
पर। अंधों के
सिवाय और कोई
पण्डित होता
ही नहीं। सभी
पण्डित
सूरदास होते
हैं। पण्डित
यानी अंधा।
गये
थे समझने, गये
थे हीरे लेने—बीन
लाये कंकड़
पत्थर! गये थे
अनुभव लेने—लें
आये शब्द। और
सोचा कि
सम्पदा ले
आये!
'रस' शब्द
को खयाल में
रखो। उसका
अर्थ अनुभव, स्वाद।
सत्य
तुम्हारे कंठ
से उतरना
चाहिए; तुम्हारी
जीभ पर चखा
जाना चहिए।
सत्य की
प्रतीति
ऐद्रिक होनी
चाहिए। यह रस
का अर्थ है।
लेकिन
तुम्हारे
तथाकथित
महात्मा तो
इंद्रियों के
विपरीत हैं।
उनकी तो
चेष्टा यह है
कि सारी
इंद्रियों को
मार डालो। आंखें
हों,
तो फोड़ लो।
यही तो
उन्होंने
सूरदास की
कहानी में जोड
दिया है। अगर
यह कहानी सच
है तो सूरदास
मेरे लिए दो कोड़ी
के हो गये।
लेकिन मैं
सोचता हूं कि
यह कहानी सच
नहीं हो सकती,
क्योंकि
सूरदास के पद
इतने प्यारे
हैं कि यह कहानी
सच नहीं हो
सकती, कि
उन्होंने एक
सुंदर स्त्री
को देखकर आंखें
फोड़ ली थीं, कि न रहेंगी आंखें
और न बजेगी
बांसुरी!
मगर
आंखें बंद कर
लेने से बांसुरी
का बजना बंद
नहीं होता; और
जोर से बजती
है! भनभनाकर
बजती है!
सुंदर स्त्री
जा रही हो, आंख
बंद कर लो, और
भी सुंदर
मालूम पड़ने
लगेगी। इतनी
सुंदर कोई स्त्री
होती ही नहीं,
जितनी आंख
बंद कर लेने
से सुंदर हो
जाती है।
वास्तविक
स्त्री में तो
क्या खाक
सौंदर्य होता
है! दो दिन में
उड जायेगा!
थोड़े से परिचय
में तिरोहित
हो जायेगा।
अब
कितने ही
लहराते बाल
हों,
नागिन से
लहराते बाल
हों तो भी
क्या करोगे!
कब तक सिर
मारोगे! और
नाक बिलकुल
तोते जैसी हो,
तो भी क्या
करोगे! और रंग
भी बहुत गोरा
और चिट्टा हो,
तो क्या
करोगे! दो चार
दिन में सब
फीका हो जायेगा।
दो—चार दिन
में स्त्री के
शरीर का पूरा
भूगोल तुम
पहचान लोगे, सब नाप—जोख
कर लोगे, फिर
बैठे हैं हाथ
पर हाथ धरे!
लेकिन
अगर आंख बंद
कर ली, तो न
होगी कभी नाप—जोख,
न कभी होगी
पहचान—और गैर
पहचान में मन
कल्पना से भर
जाता है। खूब
कल्पना से भर
जाता है।
स्त्रियां इस
सत्य को जानती
हैं; सदियों
से जानती हैं।
इसलिये
स्त्रियां उन—उन
अंगों को
छिपाकर रखती
हैं, जिन
अंगों के
प्रति चाहती
हैं कि तुम्हारे
भीतर कल्पना
जगे! जितनी
छुपी स्त्री
हो, उतनी
ही तुम्हारी
कल्पना को
प्रज्जवलित
करती है।
स्त्री
की तो बात छोड
दो,
किसी खूसट बुढ्डे
को भी तुम
बुरके में
उढाकर जरा
रास्ते से निकाल
दो! समझो—मोरारजी
देसाई ही चले
जा रहे हैं!
बुरका ओढ़े हुए!
तो लोगों की
छातिया थम
जायेंगी, हृदय
की धड़कन बंद
हो जायेंगी।
दुकानें ठहर
जायेंगी। लोग
कहेंगे—जरा
रुको! जरा देख
तो लूं!
लुच्चे—लफंगे
पीछे लग
जायेंगे!
सीटियां बजने
लगेंगी; फिल्मी
गाने होने
लगेंगे! देखो
कैसी बांसुरिया
बजती हैं। वह
तो जब तक
बुरका नहीं
उघडेगा, तब
तक उपद्रव
बहुत फैल
जायेगा। दंगा—फसाद
हो सकता है! वह
तो बुरका जब
उघडेगा, तब
मैं
गंगा के
किनारे बैठा
था अपने एक
मित्र के साथ।
एक व्यक्ति
स्नान कर रहा
था—सुंदर देह, लम्बे
बाल। पीछे से
यूं लगता था, जैसे कोई
सुंदर स्त्री
हो! वे मित्र
बोले कि 'मुझसे
न रहा जायेगा।
मैं देखकर आता
हूं। जब देह
में ऐसा
सौष्ठव है, कोन जाने
चेहरा भी
सुंदर हो।’
मैंने
कहा,
'जाओ, जरूर
देख आओ।’
वे
गये। वहां से
बिलकुल सिर
पीटते लौटे।
कहा,
'हद्द हो गई,
एक साधु
महाराज नहा
रहे हैं।’
उनके
बड़े घुंघराले
बाल थे। बाल
पीछे उनके लटक
रहे थे। और
देह भी उनकी सुंदर
थी। जब ये
उनको देखकर
लौटे—चेहरा, तब
पता चला। अगर
बैठे ही रहते,
मुझसे
उन्होंने
ईमानदारी से न
कहा होता, तो
उस रात करवटें
बदलते। विचार
करते रहते।
सपने में
उतरते।’ और
वह स्त्री कोन
थी!' और
वहां कोई
स्त्री थी ही
नहीं। आंख बंद
कर लोगे तो
रूप नष्ट नहीं
होता—और
प्रगाढ़ हो
जाता है।
क्योंकि
कल्पना को
अवसर मिल जाता
है। इसलिए
स्त्रियां
अपने को
छिपाने की कला
में निष्णात
हो जाती हैं।
पश्चिम
की स्त्रियां
इतनी सुंदर
नहीं मालूम होतीं, यद्यपि
ज्यादा सुंदर
हैं। इतनी
सुंदर नहीं
मालूम होतीं,
जितनी पूरब
की स्त्रियां
मालूम होती
हैं। उसका कुल
राज इतना है
कि पश्चिम की
स्त्री ने एक
पुराना हिसाब
बंद कर दिया।
उसने पुरानी
चाल—बाजी बंद
कर दी, जो
संस्कृति और
धर्म के नाम
पर बडी
होशियारी से
थोपी गयी थी।
उसने अपने
शरीर को उघाड़
दिया है। वह
सहज
स्वाभाविक हो
गई है। लाखों
स्त्रियां
नग्न स्नान कर
रहीं हैं
समुद्र तटों
पर। कोई देखने
के लिए भीड़
इकट्ठी नहीं
होती। भीड़
इकट्ठी होती
ही तब है, जब
देखना
मुश्किल हो।
भारत
में जितने
धक्के लगते
हैं
स्त्रियों को, दुनिया
में कहीं नहीं
लगते।
धार्मिक देश
है! पुण्य
भूमि है! यहां
देवता पैदा
होने को तरसते
हैं! वे भी
इसलिए तरसते
होंगे! कि थक
गये उर्वशी और
मेनका से।
हेमा मालिनी
को धक्का देना
चाहते हैं।
खबरें तो
पहुंचती
होंगी! कोई
देवता भी ऐसा
थोड़े ही कि
अखबार न पढ़ते
होंगे! थोड़ी
देर से पहुंचते
होंगे अखबार,
पहुंचते तो
होंगे ही। पढ़—पढ़कर
उनके भी जी पर
सांप लोट जाता
होगा।
आंख
बंद करने से
नहीं कुछ
होनेवाला है।
सूरदास
ऐसी छूता नहीं
कर सकते।
लेकिन कहानी
यही कहती है, और
इसलिए कि
सूरदास का
सम्मान करती
है। कि अद्भुत
व्यक्ति थे, कि आंख फोड़
ली उन्होंने!
इतने मूढ़ नहीं
हो सकते। ऐसी
मूढ़ता से ऐसे
सुंदर पदों का
जन्म नहीं हो सकता।
ऐसे रसपूर्ण
पद हैं कि रस
का अनुभव हुआ
ही होगा। नहीं
तो यह रस कैसे
बहेगा! यह रस
कहीं न कहीं
से आ रहा है।
यह अंधे से
नहीं आ सकता।
यह तो बहुत
संवेदनशील
व्यक्ति से आ
सकता है। और
उन्होंने
जैसा वर्णन
किया है कृष्ण
के सौंदर्य का,
उससे
प्रतीत होता
है कि उनके
सौंदर्य का बोध
बडा प्रगाढ
रहा होगा।
तुम्हारे
धर्मों ने
तुम्हारी
इंद्रियों को मारने
की कला सिखायी
है। जिह्वा को
मार डालो!
महात्मा
गांधी अपने
भोजन के साथ
नीम की चटनी भी
खाते थे। अब
नीम की कोई
चटनी होती है!
तुमने कभी
सुनी? मगर
महात्मा जो न
करें, सो
थोडा! ऐसी ही
चीजों से तो
वे महात्मा
होते हैं।
पश्चिम
का एक विचारक
लुई फिशर
महात्मा
गांधी पर एक
किताब लिख रहा
था,
तो वह उनका
निकट अध्ययन
करने के लिए
उनके आश्रम
आया। महात्मा
गांधी ने उसे
अपने साथ भोजन
के लिए बिठाया।
और सब चीजें
तो उसने देखीं,
साथ में जब
नीम की चटनी
आयी', उसने
पूछा, 'यह
क्या है?' तो
महात्मा
गांधी ने कहा,
'जरा चखकर
देखो!' उसने
चखी, तो
जहर थी! उसने
कहा, 'हद्द
हो गई। यह कोई
भोजन है!'
महात्मा
गांधी ने कहा
कि 'इसे करने से
धीरे— धीरे
स्वाद पर
नियंत्रण आ
जाता है। रोज—रोज
इसको खाने से
आदमी का स्वाद
पर बल थिर हो जाता
है। तुम स्वाद
के गुलाम हो।
आदमी को होना
चाहिए स्वाद
का मालिक। सात
दिन तुम यहां
रहोगे, अभ्यास
करो।’ लुई
फिशर तो बहुत
घबड़ाया कि सात
दिन यहां मैं टिक
पाऊंगा इस नीम
की चटनी के
कारण! उसने यह
सोचकर कि पूरा
भोजन
खराब
करने के बजाय
यह बेहतर है
कि इसको एक ही
दफा पूरा का
पूरा गोला
गटककर पानी पी
लूं फिर भोजन
कर लूं ताकि
झंझट एक ही
दफे में खत्म
हो जाये, नहीं
तो पूरा भोजन
खराब होगा!
उसने
पूरा गोला गटक
लिया। और
महात्मा
गांधी ने कहा
कि 'और लाओ।
देखो कितनी
पसंद पड़ी! अरे
समझदार आदमी
हो, तो
उसको पसंद
पड़ेगी ही!'
अब
लुई फिशर यह
भी न बोल सका
कि पसंद नहीं
पड़ी है। अब
कैसे अपनी
समझदारी को
गंवाये! सो
बैठा रहा मन
मारे—और दूसरा
गोला आ गया।
उसने कहा, 'अब
आखिर में
निपटाऊंगा
इसको। पहले
पूरा भोजन
निपट लूं।’
एक
गोले की जगह
दो गोले मिलने
लगे रोज उसको!
वह अगर न खाये
पहला गोला, तो
गांधीजी कहें,
'अरे भूले
जा रहे हो!
चटनी पहले।’ फिर दूसरा
गोला आ जाये!
हर
आश्रमवासी को
नीम की चटनी
अनिवार्य थी।
ऐसे कहीं होगा, तो
फिर कोई जाकर
अस्पताल में.....
जीभ कोई बड़ी
भारी बात नहीं
है। उसमें
बहुत छोटे—छोटे
संवेदनशील
तंतु हैं, वे
जल्दी से मर
जाते हैं। नीम—वीम
से कहां मार
पाओगे!
जिंदगीभर
मारने में लग
जायेगी। जाकर
अपनी जीभ पर
एसिड डलवा आओ।
नहीं तो किसी
प्लास्टिक
सर्जन से कहना
कि जरा ये
छोटे—छोटे
तंतु हैं, इनको
साफ ही कर दो; काट ही डालो!
फिर तुम्हें
स्वाद ही न
आयेगा—न मीठा
न कडुवा! तुम
हो गये
जितेंद्रिय!
फिर हुए तुम
जैन! असली जैन!
जिह्वा पर
विजय हो गयी!
कहां
के पुराने
ढांचे—डरें
में पड़े हुए
हो;
बैलगाड़ियों
से सफर कर रहे
हो! अस्पताल
में चले जाओ, एक पांच
मिनट का काम
है; तुम्हारी
जबान साफ कर
दी जायेगी।
तंतु ही बहुत
थोड़े से हैं।
और पूरी जीभ
भी सारा अनुभव
नहीं करती।
जीभ पर भी
तंतु बटे हुए
हैं। किसी
हिस्से पर
कड़वे का अनुभव
होता है, किसी
हिस्से पर
मीठे का। किसी
हिस्से पर
नमकीन का—अलग—
अलग हिस्सों
पर! जरा—सी तो
जीभ है, लेकिन
उसके बड़े
संवेदनशील
तंतु हैं।
इनको मारने से
तुम सोचते हो
कि भोजन पर
तुम्हारी
विजय हो
जायेगी! तो
जीभ ही काट
डालो!
काटनेवाले
लोग हुए हैं, जिन्होंने
जीभ काट ली।
वे योगी समझे
गये!
कान
फोड़ लो, क्योंकि
संगीत है, कोयल
की पुकार है।
और ये सब
खतरनाक चीजें
हैं। कोयल की
पुकार—तुम
क्या सोचते हो,
कोयल कोई
भजन कर रही है!
और हिंदी में
भ्रांति होती
है। क्योंकि
हिंदी में 'कोयल' से
ऐसा लगता है
मादा पुकार
रही है। मादा
नहीं पुकारती।
मादाएं तो
सारी
दुनियाभर की,
चाहे किसी
पशु—पक्षी की
हों, आदमी
की हों, जानवरों
की हों, बहुत
होशियार हैं।
पुकार वगैरह
नहीं देतीं! 'कोयला' —कोयल
नहीं! यह
कोयला पुकार
रहा है। ये
सज्जन पुकार
रहे हैं! कोयल
तो चुपचाप
बैठी रहती है।
ये ही पुकार
मचाये रखते
हैं; ये ही
गुहारे मचाये
रखते हैं। वह
जो पपीहा
पुकार रहा है,
वह भी पुरुष
है। वह जो 'पी
कहां…… कह
रहा है. कहना
चाहिए—'प्यारी
कहां!' मूरख
है; भाषा
का ज्ञान नहीं।
अंट—शंट बोल
रहा है।
मगर
तुम सुन लेते
हो। तुम्हें
पता नहीं कि
यह सब पुकार
तो मची हुई है
वही—महात्माओं
के खिलाफ! यह
प्रकृति—रस बह
रहा है। तुम
कान फोड़ लो
अपने।
पक्षियों
के गीत हैं, संगीत
है—यह सब
खतरनाक है।
तुम्हारे
महात्माओं की
मानकर चलो, तो तुम अपनी
इंद्रियों को
धीरे— धीरे
फोड़ते चले जाओ,
तोड़ते चले जाओ।
अलग—अलग
धर्मों ने अलग—
अलग
इंद्रियों को
तोड्ने के
उपाय खोजे हुए
हैं। इस्लाम
संगीत के
खिलाफ है।
क्योंकि
संगीत कहीं न
कहीं
कामवासना से
जुडा हुआ है।
यह आकस्मिक
नहीं है कि
संगीत
कामवासना से
जुड़ा हुआ है, क्योंकि
सारे पशु—पक्षियों
की पुकारें और
गीत कामवासना के
ही अंग हैं।
मनुष्य ने भी
उनसे ही संगीत
सीखा है।
वेश्यालयों
में संगीत कोई
अप्रासंगिक
रूप से नहीं
चलता है।
दरबारों में
राजाओं के
जहां वैभव और
विलास था, वहां
संगीत की
महफिलें जमी
रहती थीं। जब
से दरबार उखड
गये, राजा
न रहे, संगीत
के प्राण भी
निकल गये।
संगीत में वह
ऊंचाइयां न
रहीं, क्योंकि
खरीददार न रहे।
अब फिल्मी
संगीत बचा है,
क्योंकि
खरीददार भी
तीसरी कोटि के
हैं, इसलिए
तीसरी कोटि का
संगीत भी होगा।
फिल्मी संगीत
को तुम गाली
मत दो। वह
जनता का संगीत
है! जनता
पार्टी का!
जनता की जितनी
बुद्धि, सार्वजनिक
जितनी अकल! वह
जो शास्त्रीय
संगीत था, वह
दरबारी था।
उसके लिए
संस्कार
चाहिए थे।
उसके लिए
वर्षों की
साधना चाहिए
थी। वर्षों की
साधना के बाद
भी मुश्किल से
मिलता था।
भारत
का अंतिम
सम्राट
बहादुर शाह
कवि भी था।
उसका कवि नाम
था 'जफर' —बहादुर
शाह जफर। मिर्जा
गालिब से वह
अपनी कविताओं
में संशोधन करवाता
था। गालिब
उसके गुरु थे।
और भी उसके
गुरु थे।
उर्दू शायरी
में यह परंपरा
है कि तुम
क्या लिखोगे
अपने आप! इतना
लिखा जा चुका
है! ऐसे—ऐसे
बारीक और
नाजुक खयाल
बांधे जा चुके
हैं कि किसी
गुरु के पास
बैठकर पहले
समझो। और जरा
से शब्दों के
तालमेल से
बहुत फर्क पड़
जाता है। तो
वह सीख लिया
करता था। उसने
एक दिन मिर्जा
गालिब को पूछा
कि ' आप
कितने गीत रोज
लिख लेते हैं?'
मिर्जा
गालिब ने कहा, 'कितने
गीत रोज! यह
कोई मात्रा की
बात है! अरे कभी
तो महीनों बीत
जाते हैं और
एक गीत नहीं
उतरता। और कभी
बरसा भी हो
जाती है। यह
अपने हाथ में
नहीं। यह तो
किन्हीं
क्षणों में
झरोखा खुलता
है। किसी
अलौकिक जगत से
किरण उतर आती
है, तो उतर
आती है। बंध
जाती है, तो
बंध जाती है।
छूट जाती है—छूट
जाती है। चूक
जाती है—चूक
जाती है! कभी
तो आधा ही गीत
बन पाता है, फिर आधा कभी
पूरा नहीं
होता—अपने हाथ
में नहीं।
प्रतीक्षा
करनी होती है।’
जफर
ने कहा, 'अरे
मैं तो जितने
चाहूं उतने
गीत लिख लूं।
पाखाने में
बैठे —बैठे
मुझे गीत उतर
आते हैं!'
गालिब
तो हिम्मत के
आदमी थे।
गालिब ने कहा
कि 'महाराज, इसलिए
आपके गीतों
में से पाखाने
की बदबू आती
है!'
हिम्मतवर
लोग थे। कोई
अब बहादुर शाह
सम्राट थे, इसलिए
कोई गालिब छोड़
देंगे उनको, ऐसा नहीं था।
कहा कि ' अब
मैं समझा। अब
मैं समझा राज!
कभी— कभी मुझे
भी बदबू आती
थी आपके गीतों
में. कि मामला
क्या लिखते हो
आप! कूड़ा—कर्कट!
अब जो पाखाने
में बैठकर
लिखोगे, तो
फिर ठीक ही है!
कृपा करके ऐसा
न करो।’
जफर
को चोट भी लगी, और
समझ में भी
बात आयी। और
इसके बाद ही
जो जफर ने जो
गीत लिखे—
थोड़े से लिखे,
मगर गजब के
लिखे। वे फिर
जैसे जफर ने
नहीं लिखे, रस ही बहा।
रस
का यह पहलू
समझो।
तुम्हारी
इंद्रियां
ज्यादा
संवेदनशील
होनी चाहिए।
उनकी
संवेदनशीलता
पराकाष्ठा पर
पहुंचनी चाहिए।
आंख उतना देखे, जितना
देख सकती है।
रूप की तहों
में उतर जाये;
रूप की
गहराईयों को
छू ले। कान
उतना सुने
जितना सुन
सकता है।
संगीत की
परतों और
परतों में
उतरता जाये; संगीत की
तलहटी को खोज
ले, ऐसी
डुबकी मारे, क्योंकि
मोती ऊपर नहीं
फिरते—तिरते;
गहरे में
पड़े होते हैं।’जिन खोजा
तिन पाइयां, गहरे पानी
पैठ। मैं बौरी
खोजन गई, रही
किनारे बैठ।’
और
मैं तुम्हारे
महात्माओं को
मैं देखता हूं
सब किनारे
बैठे हैं! डर
के मारे बैठे
हैं कि कहीं
डूब न जायें!
धार गहरी न हो; कहीं
बह न जायें—
भयभीत, सिकुड़े
हुए! किनारे
पर, पकड़े
बैठे हुए हैं
अपने को। अपनी
सारी
इंद्रियों को
तोड़ रहे हैं।
क्योंकि
भयभीत हैं कि
कहीं इस
इंद्रिय के
जाल में न फंस
जायें, उस
इंद्रिय के
जाल में न फंस
जायें!
इंद्रियों का
जाल नहीं है।
इंद्रियां तो
तुम्हारी रस
को ग्रहण करने
की संभावनाएं
हैं।
परमात्मा
तो सब रूपों
में छाया हुआ
है। आंख अगर
गहराई से
देखेगी, तो हर
रंग में उसका
रंग है। कान
अगर गहराई से
सुनेंगे तो हर
ध्वनि में उसकी
ध्वनि है, उसका
नाद है, ओंकार
है—'इक
ओंकार सतनाम!'
वह जगह—जगह
सुनाई पड़ेगा।
मगर बहुत गहरे
सुनने की कला आनी
चाहिए।
और
तब स्वाद में
भी वही मिलेगा।
धन्य थे वे
लोग,
अद्भुत थे
वे लोग, जिन
उपनिषद् के
ऋषियों ने कहा—'अन्न
ब्रह्म!' कि
अन्न ब्रह्म
है। ये लोग
स्वाद के
विपरीत नहीं
हो सकते!
जिन्होंने
भोजन में
भगवान को पा
लिया हो, ये
लोग स्वाद के
विपरीत कैसे
हो सकते हैं!
जो अन्न को भी
ब्रह्म कह सके,
ये
तुम्हारे
तथाकथित
महात्माओं से
बड़े अलग लोग
थे।
छूट
गये सूत्र
हमारे हाथ से
कहीं। रास्ता
कहीं भटक गया।
कहीं बीच में
हम और ही
दिशाओं में
निकल गये।
हमने
स्वास्थ्य का
मार्ग छोड़
दिया; हमने
रुग्ण होने की
दिशा पकड़ ली।
हम जीवन
विरोधी हो गये।
और जीवन
परमात्मा है।
अगर तुम
स्पर्श की
क्षमता में
पूरे के पूरे
प्रवीण हो जाओ,
तो तुम जो
छुओगे, उसी
में परमात्मा
का स्पर्श
मिलेगा।
सारी
इंद्रियां
संवेदनशील
होनी चाहिए।
संवेदना
पराकाष्ठा पर
होनी चाहिए, तब
तुम जानोगे कि
वह रसरूप है।
तुम
देखते हो, सहजानंद,
तुमने जहां
से भी इस
सूत्र का
हिंदी अनुवाद
लिया होगा, वह अनुवाद
किसी पण्डित
ने किया है।
वह अनुवाद
किसी द्रष्टा
का नहीं है।
तुम फर्क
देखो!
सूत्र
है— 'रसो वै सः।’सीधा—साधा
अर्थ है : 'वह
रसरूप है।’ लेकिन
अनुवाद में
तुम देखते हो
फर्क हो गया: 'भगवान रसरूप
है।’ 'वह 'तत्काल' भगवान
' हो गया! ' वह! का मजा और।’
भगवान ' में
बात बिगड़ गयी;
वह न रही।
क्योंकि
भगवान का अर्थ
हो गया—व्यक्ति।’वह' तो
निवैंयक्तिक
सम्बोधन था।’
भगवान' का
अर्थ हो गया—राम,
कृष्ण, बुद्ध,
महावीर—व्यक्ति।
व्यक्ति ही
भगवान हो सकता
है। जब भी हम ' भगवान' शब्द
का उपयोग करते
हैं, तो वह
व्यक्तिवाची
हो जाता है।
कृष्ण
को भगवान कहो—ठीक।
बुद्ध को
भगवान कहो—ठीक।
ये व्यक्ति
हैं। और इन
व्यक्तियों
ने रस पिया है।
इन
व्यक्तियों
ने 'वह' पिया
है, इसलिए
इनको भगवान कह
सकते हैं।’उसको'
जिसने पिया,
वह भगवान।
लेकिन उसको
भगवान मत कहो।
उसको भगवान
कहने से आकार
दे दिया, रूप
दे दिया। और
वह तो सभी
आकारों में
समाया हुआ है;
निराकार है।
वह तो निर्गुण
.है, सगुण
नहीं। वह तो
सभी आकृतियों
में है, इसलिए
उसकी आकृति
नहीं हो सकती।
'भगवान' कहा
कि मुश्किल हो
गयी शुरू।
भगवान कहते ही
तत्क्षण
तुम्हारी
धारणाएं जो
भगवान की हैं—किसी
के चतुर्भुजी
भगवान हैं; किसी के
त्रिमुखी
भगवान हैं; किसी के
भगवान के हजार
हाथ हैं! किसी
के भगवान का
कोई रूप है; किसी के
भगवान का कोई
रूप है! किसी
के भगवान गणेशजी
हैं; हाथी
की सूंड लगी
हुई है! किसी
के भगवान जी
हनुमानजी हैं!
बंदर
भी हंसते
होंगे, कि हम
ही भले, कि
किसी आदमी की
पूजा तो नहीं
करते! ये
आदमियों को
क्या हो गया
है! कि बंदरों
की पूजा कर
रहे हैं! हाथी
भी चुपचाप
मुस्कुराते
होंगे कि 'वाह'!
हम ही भले, कि आदमी मिल
जाये अकेले
में, तो वे
पटक ना दें
उसको कि
रास्ते पर लगा
दें! हम किसी
आदमी की पूजा
नहीं करते!
मगर यह हाथी
रूपधारी
गणेशजी की पूजा
हो रही है! 'जय
गणेश, जय
गणेश' का
गुंजार चल रहा
है! गणेशोत्सव
मनाये जा रहे हैं!
आदमी अद्भुत
है! वह कोई न
कोई रूप देना
चाहता है। कोई
न कोई रंग
भरना चाहता है।
तुम्हारा
मन निराकार
में जाने से
डरता है।
जिसने
यह भी अनुवाद
किया होगा, वह
निराकार से
घबड़ाया हुआ है।
और शायद उसे
पता भी न हो कि
उसने फर्क कर
दिया।
’रसो वै सः 'तो सीधा—साधा
शब्द है। मैं
तो संस्कृत
जानता नहीं, मगर यह तो
सीधी—सीधी बात
है। इसके लिए
कुछ संस्कृत
जानने की
जरूरत नहीं है।
इसमें ' भगवान'
कहीं आता
नहीं शब्द।’वह रसरूप है।’
यह सूत्र
गजब का है।
लेकिन जैसे ही
तुमने कहा—'भगवान रस—रूप
है', बात
बिगाड़ दी।
भगवान कैसे
रसरूप हो सकता
है! भगवत्ता
रसरूप हो सकती
है। मगर 'भगवत्ता'
फिर
व्यक्ति से
मुक्त हो गयी।
इसलिए मैं तुमसे
कहना चाहता
हूं : भगवान तो
हमने उन लोगों
को कहा है, जिन्होंने
भगवत्ता को
चखा और अनुभव
किया है।
इसलिए बुद्ध
को भगवान कहो—ठीक।
महावीर को
भगवान कहो—ठीक।
जीसस को भगवान
कहो—ठीक। कबीर
को, नानक
को भगवान कहो—ठीक।
मगर उस विराट
को मत सीमा
में बाधो।
उसमें तो सब बुद्ध
खो जाते हैं, सब महावीर
खो जाते हैं, सब कृष्ण और
सब क्राइस्ट
खो जाते हैं।
वह तो अनंत है।
ये तो सब उसकी
किरणें हैं; एक—एक किरणें।
तुम उसे
किरणों में मत
बांधो। उसकी
कोई सीमा नहीं
है।
इस
समय पश्चिम
में बहुत झगड़ा
है कि
परमात्मा को
हम क्या मानें—स्त्री
या पुरुष!
क्योंकि
स्त्रियों की
बगावत चल रही
है पश्चिम में।
और ठीक बगावत
चल रही है। अंग्रेजी
में तो स्त्री
और पुरुष के
लिए अलग—अलग
सर्वनाम हो
जाता है।
हिंदी में तो
नहीं होता।
इसलिए हिंदी
में तो हमें
सुविधा है।’वह
रसरूप है ' —कोई
अड़चन नहीं। लेकिन
अंग्रेजी में 'वह' को
क्या करोगे!
अगर कहो— 'ही',
तो वह पुरुष
हो गया। अगर
कहो— 'शी', तो वह
स्त्री हो
गया! अगर कहो— 'इट', तो वह
वस्तु हो गया!
अब
तक तो उसको 'ही'
कहा जाता
रहा है —पुरुषवाची।
मैंने
सुना है .कि
पिछला पोप जब
मरा,
तो उसके
मरने के बाद
एक अफवाह सारी
दुनिया में उड़
गयी थी। पता
नहीं तुम तक
पहुंची या
नहीं पहुंची!
कि जब वह
स्वर्ग के
द्वार पर
पहुंचा, और
उसने सेन्ट
पीटर से कहा
कि 'जल्दी
द्वार खोलो।
जीवनभर की आकांक्षा
तृप्त करनी है।
परम पिता
परमात्मा से
मुझे मिला दो!'
पीटर ने सिर
झुका लिया और
कहा कि 'सुनो,
एक बात पहले
खयाल में रखो।
एक तो वह परम
पिता नहीं है—परम
माता है! और
दूसरा गोरी
नहीं है; काली
है; नीग्रो
है! इन दो की
तैयारी रखो, फिर मिलवा
देता हूं!
नहीं तो एकदम
तुम्हारी छाती
टूट जायेगी
देखकर!'
वहीं
बैठ गये पोप
महाराज
दरवाजे पर। आंखें
बंद कर लीं कि
यह क्या हुआ!
स्त्री—पहले
ईश्वर, को
मानना—और फिर
वह भी नीग्रो!
नीग्रो को तो
घुसने न दें चर्च
में।
प्रसिद्ध
कहानी है कि
एक नीग्रो
चर्च में जाना
चाहता था, तो
उसने पादरी से
प्रार्थना की।
पादरी ने कहा
कि ' भई, कुछ
बुराई तो
नहीं!' क्योंकि
पादरी को
बोलना तो पड़ता
है मीठी—मीठी
बातें।’ अरे,
उसके सामने
तो सब बराबर
हैं। क्या
काला—क्या
गोरा! मगर
पहले पात्रता
अर्जित करो—चर्च
में आने से
क्या होगा!
पहले अपने को
शुद्ध करो!'
पादरी
ने सोचा, 'कोन
कब अपने को
शुद्ध कर
पाया! और ऐसी
शर्तें बता दूंगा
कि यह क्या, इसकी सात
पीढ़ियां भी शुद्ध
न हो पायें!' तो कहा, 'पहले
कामवासना
छोड़ो, लोभ
छोड़ो, तृष्णा
छोड़ो—सब छोड—छाड़कर—अहंकार
विसर्जित करो—फिर
आओ।
ये
शर्तें किसी
सफेद
चमडीवाले के
लिए नहीं लगायी
थीं कभी उसने।
यह पात्रता
सफेद
चमडीवाले से
नहीं मांगी
जाती थी। यह
सफेद
चमडीवालों का
ही चर्च था।
मगर पादरी
सीधा नहीं कह
सकता था। आखिर
पादरी को तो
अच्छी बातें
कहनी चाहिए; मीठी—मीठी;
सबसे! उसको
सबके प्रति
दयाभाव
दिखलाना
चाहिए। मगर
पीछे तो
राजनीति चलती
है—वही की वही।
काले और गोरे
का भेद बना ही
रहता है।
तो
बेचारा
नीग्रो सीधा—साधा
आदमी था, वह
जाकर
प्रार्थना
में लग गया, अपने को
शुद्ध करने
में लग गया।
पंद्रहवें
दिन वह आया।
उसको आते
देखकर..... दूर से
देखा पादरी ने
कि वह फिर आ
रहा है! उसने कहा,
'क्या इतने
जल्दी से सारी
शर्तें पूरी
कर लीं!' लेकिन
जैसे—जैसे
करीब आया, पादरी
बहुत हैरान
हुआ। उसे डर
लगा कि अब बड़ी
मुश्किल हो
गयी! उसके
चारों तरफ एक
आभा—मण्डल था,
जो कि
परमपुरुषों
के पास ही
होता है। लगता
है कि इस
नीग्रो ने तो
हाथ मार लिया!
इसको किस बल
पर रोकूंगा!
घुसने तो नहीं
देना है। यह
लगता तो परम
पवित्र होकर आ
रहा है। इसकी
सुगंध मालूम
होती है, दूर
से! इसकी
रोशनी साफ है,
इसके शरीर
के चारों तरफ
वर्तुलाकार
प्रकाश का पुंज
है। मारे गये!
उसने दरवाजे
पर ताला लगाकर
बाहर ही खड़ा
हो गया सड़क पर,
कि कहीं यह
घुसने ही लगे,
तो मैं रोक
भी न सकूंगा, इतना
प्रभावशाली
मालूम हो रहा
है। इसके
प्रभाव में न
आ जाऊं!
मगर
वह आया ही
नहीं। चर्च के
सामने थोड़ी
दूर खड़ा 'रहा।
वहा से
खिलखिलाकर
हंसा और लौट
गया! इससे और
बड़ी मुश्किल
हुई पादरी को।
भागा; रोका
कि 'सुन
भाई! चर्च में
नहीं आना है?'
उसने
कहा,
'अब तुमसे
क्या छिपाना।
कल रात
परमात्मा
प्रगट हुए और
कहने लगे— 'भइया,
तू नाहक
मेहनत कर रहा
है। वे मुझको
नहीं घुसने
देते! वे
तुझको क्या
घुसने देंगे!
वे हरामजादे
ऐसी—ऐसी
शर्तें बताते
हैं कि मैं
पूरी नहीं कर
पाता। तो तू
कहां की झंझट
में पड़ा है! और
मैं खुद ही आ गया।
अब तुझे वहां
जाने की जरूरत
नहीं है।’ तो
मैं तो सिर्फ
यह देखने आया
था कि क्या
गजब खेल चल रहा
है! तुम
परमात्मा को
घुसने नहीं
देते! और जब
तुमने मुझे
देखा, जल्दी
से तुमने ताला
मारा और चाबी
लगाकर खडे हो
गये! देखकर
मैं हंसा, कि
'अरे
बुद्धओ, तुम्हारा
मंदिर खाली
है! किस पर
ताला मार रहे हो!
तुम उसको
देखकर भी ताला
मार लेते हो।’
तो
अगर पोप बैठ
गया हो, उसकी
धक— धक बंद हो
गयी हो, या
झटका खाकर फिर
से मर गया हो, दुबारा, तो
कुछ आश्चर्य
नहीं है।
ईश्वर
को जैसे ही
तुमने रूप
दिया, आकार
दिया—झंझटें
खड़ी होंगी।
फिर ईश्वर
स्त्री है या
पुरुष? फिर
वह गोरा है या
काला? फिर
वह चीनियों
जैसा दिखाई
पड़ता है, कि
भारतीयों
जैसा या
अंग्रेजों
जैसा? बड़ी
मुश्किल खड़ी
हो जायेगी!
दुबला—पतला है,
मोटा—तगड़ा
है; जवान
है, का है? फिर हजार
सवाल खड़े हो
जाते हैं।
नहीं।
मैं तुमसे
कहना चाहता
हूं :
परमात्मा कोई
व्यक्ति नहीं
है। यद्यपि
परमात्मा की
परम ऊर्जा कभी—कभी
व्यक्तियों
में उतरी है।
और
तुम्हारे जो
अजीब तर्क हैं।
तुम्हारा
तर्क तो यह है
कि तुम कहते
हो,
कोई
व्यक्ति कैसे
परमात्मा हो
सकता है! और
मैं तुमसे
कहता हूं—व्यक्ति
ही परमात्मा
हो सकता है।
इसलिए बुद्ध
को तुम भगवान
कहो, मुझे
एतराज नहीं।
तुम कृष्ण को
भगवान कहो, मुझे एतराज
नहीं। मगर
भगवान को 'भगवान'
मत कहो।
उसमें मुझे
एतराज है।
क्योंकि फिर
तुम उसके लिए
सीमाएं बांध
रहे हो। भगवान
को तो सिर्फ
भगवत्ता कहो।
वह तो सिर्फ
गुण— धर्म है।
इसलिए बुद्ध
ने उसे ' धर्म'
कहा, और
लाओत्सु ने
उसे 'ताओ' कहा।
लाओत्सु ने
कहा कि उसका
कोई नाम नहीं,
इसलिए मैं
नाम गढ़ लेता हूं—ताओ।
ताओ का कुछ
अर्थ नहीं
होता। अ, ब,
स—कुछ भी
कहो; मगर
उसको कुछ ऐसा
नाम दो, जिससे
उसका रूप न
बनता हो। यही
तो हमने भी
किया इस देश
में; हमने
उसे ' ओंकार'
कहा। अब
तुमने कभी
सोचा—ओंकार
क्यों कहा? लोग ओंकार
का पाठ करते
रहते हैं; धुन
मचाये रखते
हैं—ओम्—ओम्।
कभी सोचते ही
नहीं कि हमने
उसे ओम् क्यों
कहा।
ओम्
वैसा ही है, जैसा
ताओ। ओम् का
क्या रूप रंग!
ओम् कोई
व्यक्ति नहीं
है। और इसलिए
हमने तो एक और
बात भी की जो
ताओवादियो ने
नहीं की। हम ओम्
को साधारण
भाषा के 'अ
उ म' से
नहीं लिखते।
हमने उसके लिए
अलग ही एक
प्रतीक बना
लिया ओंकार का,
ताकि वह
भाषा के
शब्दों से अलग
ही पड़ जाये।
प्रतीक मात्र
है हमारा ओम।
हमारी बारह
खड़ी में नहीं
आता कहीं भी।
हमारे
वर्णाक्षरों
में नहीं आता
कहीं भी।
अंग्रेजी में
लिखने में बड़ी
तकलीफ होती है।
अंग्रेजी में
अँ को कैसे
लिखो! 'ए यू
एम' करके
लिखना पड़ता
है। मगर वह
गलत है। इसलिए
मैक्समुलर ने,
जिसकी कि
गहरी पैठ थी
भारतीय
शास्त्रों
में, ओम्
को ओ के
प्रतीक में ही
लिखा; ए यू
एम में नहीं
लिखा, क्योंकि
वह गलती हो
जाएगी। उसको
तो प्रतीक ही
रखना पडेगा; उसका कोई
अनुवाद नहीं
हो सकता। जैसे
ताओ का कोई
अनुवाद नहीं
हो सकता, वैसे
ही ओम् का कोई
अनुवाद नहीं
हो सकता। ओं
कोई शब्द ही
नहीं है। जो
शब्द में नहीं
बंधता, उसकी
तरफ इशारा है।
इसलिए
मत कहो कि ' भगवान
रस—रूप है।’ कहो — 'भगवत्ता
रस —रूप है।’ फिर बेहतर
तो यही है कि 'वह' कहो।
क्योंकि 'वह'
में सब समा
जायेगा—स्त्री
भी, पुरुष
भी, वस्तु
भी।
हमारा
'वह' अंग्रेजी
के वह से बहुत
बड़ा है। हमारा
'वह' विराट
है। उसमें कोई
सीमा नहीं
बंधती।
दूसरा, सूत्र
का हिस्सा है
'रसं
ह्येवायं
लम्मानन्दी
भवति।'
अनुवादक
ने कहा है—'उसी
रस को पाकर
प्राणी—मात्र
आनन्द का
अनुभव करता है।’ इतने
ज्यादा
शब्दों की
जरूरत नहीं है।
सूत्र का तो
सिर्फ इतना ही
अर्थ होता है. 'उस रस को
उपलब्ध करना
ही आनंद है।’ र सं
ह्येवायं लम्मानन्दी
भवति।
संस्कृत को
जानने की
जरूरत ही नहीं
है। सीधी—सी
बात है। रसं
ह्येवायं लम्मा—उस
रस को जिसने
पा लिया, उपलब्ध
कर लिया, लब्ध
कर लिया; जो
उस रस—रूप हो
गया—उसे आनंद
उपलब्ध हुआ।
आनन्द की भी
कुंजी दें दी।
दुख
क्या है? उस रस
से स्मृत हो
जाना दुख है।
जैसे वृक्ष को
कोई जड़ों से
उखाड़ ले, जमीन
से उखाड़ ले, बस दुख शुरू
हो गया वृक्ष
के लिए, क्योंकि
जमीन में ही
उसका रस था।
जमीन से ही वह
रस पा रहा था।
जमीन से उखाड़
लिया, कि
सूखने लगा।
पत्ते झरने
लगे, पीले
पड़ने लगे। दो—चार
दिन हरा रह भी
जाए, तो रह
जाए, पुराने
रस के आधार पर।
जो रस के
संग्रह उसके
भीतर होंगे, कितनी देर
चलेंगे! थोड़ी
देर में चुक
जाऐंगे; फिर
सूख जाएगा। अब
रस की धारा
नहीं बहती; रोज—रोज रस
नहीं आता। अब
पुराने रस के
बल पर उधार
कितना चल सकता
है!
आनंद
का अर्थ है
अपनी जड़ों को
भगवत। में जमा
लेना। उसमें
जमा लेना; उसके
साथ जुड़ जाना।
हमारा
अहंकार हमें
तोड़ता है।’मैं
अलग हूं—बस, यही हमारी
भ्रांति है।
एक मात्र
भांति, एकमात्र
अज्ञान, कि
मैं पृथक हूं
अलग हूं। वही
हमें तोड़े हुए
है। जिस दिन
इसको छोड़ दोगे,
उस दिन तुम
उस रस से जुड़
जाओगे।
'रसं
ह्मेवायं
लथ्यानन्दी
भवति।’और
फिर क्या देर
है! आनंद ही
आनंद है। उसके
साथ जुड़ गए कि
पुन: रस के
स्रोत से जुड़
गए। फिर
तुम्हारी
जड़ें जीवित हो
उठेंगी, फिर
नये पत्ते आ
जाऐंगे। फिर
नये पत्ते, नये फूल, नये
फल। आया वसंत।
आया मधुमास!
फिर पक्षी नीड़
बनाएंगे। फिर
कोयल कूकेगी।
फिर पपीहा
बोलेगा। फिर
हवाओं में
नाचोगे तुम।
फिर सूरज की
किरणों में, और चांद की
किरणों में
नहाओगे।
लेकिन
तुम्हारे
तथाकथित
महात्माओं ने
तुम्हें प्रकृति
से तोड़ा है—जोड़ा
नहीं। उनकी
सारी चेष्टा
यह है कि तुम
कितने
अप्राकृतिक
हो जाओ। उनका
सारा उपाय यह
है कि
तुम्हारा
अहंकार कैसे
और मजबूत हो
जाये। इसलिए
तुम्हारे
साधु—संन्यासियों
का जैसा
अहंकार होता
है,
वैसा
अहंकार किसी
और का नहीं
होता! उनकी
नाक पर जैसा
अहंकार चढ़ा
होता है, वैसा
किसी के ऊपर
नहीं चढा होता
है।
स्वाभाविकत
भी चढेगा, क्योंकि
जो उन्होंने
किया है, किसने
किया है!
त्याग किया, तो अकड़ आयी।
धन छोड़ा, तो
अकड़ आयी।
पत्नी छोड़ी तो
अकडु आयी। तुम
तो छोड़ो!
और
इसलिए तुम
चकित होओगे
जानकर यह बात
कि जो लोग इन
महात्माओं को
पूजते हैं, वे
अकसर इनसे
विपरीत होते
हैं! जैसे जैन
मुनि को जैन
पूजते हैं।
जैन मुनि की
पूजा क्या है?
क्योंकि
उसने धन को
लात मार दी।
और जैनियों को
यही सबसे बड़ा
चमत्कार
दिखायी पड़ता
है दुनिया
में! धन को—और
लात मारना! धन
को तो वे छाती
से लगाते हैं।
सिर्फ
भारत एकमात्र
देश है जहां
लक्ष्मी की
पूजा होती है—नोटो
की पूजा होती
है! पहले कम से
कम चांदी के, सोने
के सिक्के
रखते थे। अब
वे भी न रहे।
अब तो कागज के
नोट रख लेते
हैं लोग!
लेकिन ताजे निकलवा
लाते हैं बैंक
से—बिलकुल
चमचमाते! उनको
रखकर पूजा
होती है। मेरे
घर में होती
थी! मगर जैसे
ही मुझे होश
आया, मैंने
अपने घर के
लोगों को कहना
शुरू किया, 'यह क्या
पागलपन है!
कुछ तो होश की
बात करो!' रुपये—नोट!
चांदी के
सिक्के बचा
रखे थे पुराने—पूजा
के ही लिए खास
करके। कि नोट
की पूजा करते
उतको भी थोड़ी
शर्म लगती थी!
और मैं हंसता
था कि 'यह
क्या कर रहे
हो!' तो
उन्होंने कुछ
सिक्के बचा
रखे थे। वे
कहते, 'चलो,
नोट हटा दो,
सिक्के रख
लेते हैं। मगर
हमारी पूजा
में बाधा मत
डालो!' मैं
उनसे कहता कि 'नोट हुए कि
सिक्के हुए, सब बराबर है,
चांदी का
हुआ नोट कि
कागज का हुआ
नोट—नोट का
मतलब नोट!
किससे बना है
इससे क्या
फर्क पड़ता है!
धातु से बना
है, कि
कागज से बना
है—दोनों ही
एक से हैं! मगर
तुम पूज रहे
हो। लक्ष्मी
की पूजा!'
दीपावली
का अवसर ही
लक्ष्मी—पूजा
का अवसर है! और
इस देश को हम
धार्मिक देश कहते
हैं!
आध्यात्मिक
देश! सारी
दुनिया
भौतिकवादी है, और
हम अध्यात्मवादी
हैं! और
दुनिया में
कहीं लक्ष्मी
की पूजा नहीं
होती। लोग
लक्ष्मी को
भोगते हैं।
भोगो मजे से।
पूजना क्या
है! लक्ष्मी
तुम्हारे पैर
दबाये—ठीक!
दबवा लो, कोई
हर्जा नहीं।
खुद विष्णु
भगवान दबवा
रहे हैं, तो
तुम्हें क्या
तकलीफ हो रही
है! लेटे हैं, और लक्ष्मी
पैर दबा रही
है!
अब
लक्ष्मी पैर
दबाती हो, तो
दबवा लिये, कि बाई! कोई
हर्जा नहीं।
मगर मूरख की
तरह तुम पूजा
कर रहे हो, तो
हद्द हो गई!
मगर तुम्हारी
भी तरकीब हम
समझ रहे हैं कि
मतलब
तुम्हारा
क्या है! तुम
भी समझ गये कि
लक्ष्मी की
पूजा करो, तो
लक्ष्मीनारायण
तक पहुंच हो
जायेगी! जैसे
कि किसी नेता
तक पहुंचना हो,
तो पत्नी की
सेवा करो।
साड़ी ले जाओ, मिठाई ले
जाओ।
आइसक्रीम
पहुंचा दो। फल—फूल
पहुंचाओ।
डाली लगा दो!
पत्नी की सेवा
करो। क्योंकि
तुम जानते हो
कि पति चाहे
कितना ही बहादुर
हो मगर पत्नी
के सामने बस
दुम दबा लेते
हैं! अगर
पत्नी ने कह
दिया कि इस
आदमी का खयाल
रखना, तो
अब उनके बस के
बाहर है। खयाल
रखना ही
पड़ेगा!
समझदार
आदमी सीधे—सीधे
कलेक्टर या
कमिश्नर या
गवर्नर या
मिनिस्टर के
पास नहीं जाते।
पत्नी की सेवा
करते हैं।
पत्नी जल्दी
प्रसन्न भी हो
जाती है। साड़ी
ले आये एक, और
चित्त
प्रसन्न हो
गया उनका! एक
गहना बनवा लाये,
और चित्त
प्रसन्न हो
गया। और जब
पत्नी
प्रसन्न हो गई,
तो पति की
क्या हैसियत
है!
तो
तुम वही तरकीब
लगा रहे हो
लक्ष्मी के
साथ।
लक्ष्मीनारायण
को प्रसन्न
करना है! तुम
जानते हो कि
यह बाई पांव
दबाती है
लक्ष्मीनारायण
के। पांव
दबाते—दबाते
कह देगी कि 'जरा
खयाल रखना. यह
फलां—फलां
आदमी है। यह
अपना आदमी है;
इसका ध्यान
रहे!' तो
लक्ष्मीनारायण
भी जानते हैं
कि ठीक है।
ध्यान रखना पड़ेगा
नहीं तो कल ये च्यूंटियां
लेगी; पांव—वांव
नहीं दबायेगी!
सोने नहीं
देगी। खोपड़ी
खायेगी! कि 'हां बाई, करेंगे।
जो कहेगी, वह
करेंगे!'
लक्ष्मी
की पूजा चल
रही है! क्या
बेहूदी बात है!
सिक्के पूज
रहे हो। और
फिर भी
तुम्हारी अकड़
नहीं जाती
आध्यात्मिक
होने की! और
तुम्हारे
भ्रम नहीं
टूटते!
जैन
धन का पागल है; परिग्रही
है। और इसलिए
जो धन को छोड़
देते हैं, कहता
है कि 'वाह!
यह है करामात!'
क्यों
करामात दिखाई
पड़ती है? मुझे
इसमें करामात
दिखाई नहीं
पड़ती।
क्योंकि पहले
तो मैं यह
मानता हूं कि
धन को पकड़ना
ही मूर्खता है।
वह पहली
मूर्खता। फिर
दूसरी
मूर्खता—उसको
छोड़ना! पकड़े
ही नहीं कभी, तो छोड़ना
क्या! अब जैसे
मुझसे कोई कहे
कि छोड़ो।
छोडूं क्या
खाक! कुछ कभी
पकड़ा नहीं।
जेब भी पास
में नहीं है!
एक पैसा बैंक
में नहीं है!
छोड़ना क्या
है! जहां अपना
कुछ है ही
नहीं, वहां
छोड़ना क्या है—पकड़ना
क्या है!
लेकिन
जो पकड़ने में
दीवाने हैं, वे
फिर छोड़ने का
आग्रह रखते
हैं। वे कहते
हैं : जो छोड़े, वही त्यागी।
यह भोगियों की
भाषा है। यह
भोगियों का
तर्क है।
लेकिन
जो पकड़ने में
दीवाने हैं, वेश्यालय
जिनकी वजह से
आबाद हैं, ये
उन मुनियों के
चरणों में सिर
रखेंगे कि 'वाह! क्या
करामात—स्त्री
को छोड्कर चल
दिये! अरे, हम
अपनी स्त्री
को क्या छोड़े,
अपने
पड़ोसियों की स्त्री
तक को नहीं
छोड़ पा रहे
हैं, और
तुम अपनी तक
को छोड्कर चल
दिये! है
करामात, है
चमत्कार!
त्याग इसको
कहते हैं! कि
दूसरों की भी
नहीं छोड़ सकते,
जो अपनी है
ही नहीं—पहली
बात। मगर उनको
भी नहीं छोड़
पा रहे हैं।
उन पर भी नजर
लगी रहती है!
अपने को तो
छोड़नी ही कैसे!'
मगर
जिसने छोड़
दिया—उसकी
पूजा!
तुम
अकसर पाओगे कि
जिस धर्म के
माननेवाले
जिस ढंग के
होंगे, ठीक
उससे विपरीत
उनकी पूजा के
आधार होंगे।
ठीक उसके
विपरीत! और
इससे समझ लेना
कि दोनों के
दोनों एक—सी
मूर्खता में
पड़े हैं।
वे
मुनि, वे
महात्मा और
उनके अनुयायी—इनमें
कुछ फर्क नहीं
है। इनका तर्क
एक है, गणित
एक है। ये
दोनों एक
दूसरे का गणित
समझते हैं। वह
मुनि भी जानता
है कि 'मुझे
क्यों पूजा
मिल रही है, क्योंकि
मैंने धन छोड़ा,
पत्नी छोड़
दी।’ पूजा
करनेवाला भी जानता
है कि 'महाराज,
ध्यान रखना!
कहीं अगर पकड़े
गये, तो
मुश्किल हो
जायेगी। धन
छूना ही मत; देखना ही मत।
स्त्री से
सावधान!'
तेरापंथ
जैनियों में
एक शास्त्र है, जिसमें
नौ बातें हैं।
नौ बातों की
आडू रखना। इन
नौ बातों का
ध्यान रखना।
इनमें से कोई
बात भीतर घुस
गई कि
तुम्हारा खातमा
है! तो जैसे
झाडू को बचाने
के लिए बागुड़
लगाते हैं, ऐसे ही नौ बागुड़!
एक बागुड़ से
भी काम नहीं
चलेगा; नौ बागुड़
लगाना है। और
उसके भीतर जो
पौधे होंगे, ये मुरदा तो
होने ही वाले
हैं। नौ बागुड़
जिस पर लगी हो,
नौ परकोटों
से जो घेरा
गया हो, और
जिसकी जिंदगी
इस बात पर
निर्भर हो कि
अगर जरा—सा कहीं
दरवाजा खुला
और हवा या
रोशनी आ गई या
एक हवा की लहर
आ गई या पानी
की एक बूंद आ
गई कि इनका सब नष्ट
हो गया!
जिसकी
चीजें इतनी
कमजोरी पर खड़ी
हों,
इसका बल
क्या! मगर
इसका बल एक है :
इसके अहंकार को
प्रशंसा मिल
रही है। गौरव
मिल रहा है।
इसकी अकड़ को
पूजा जा रहा
है।
जीवन—विरोधी
लोग सिर्फ
अहंकार का मजा
ले रहे हैं—और
कुछ भी नहीं।
और कुछ भी
नहीं। और
अहंकार अधर्म
है।
अहंकार
का अर्थ है : उस
रस से स्मृत
हो जाना।
इसलिए
तुम्हारे
तथाकथित साधु—संन्यासियों
में रस बिलकुल
नहीं दिखाई
पड़ता। वे तो
विरस होने की
बात सिखाते
हैं तुम्हें!
अब यह बडे मजे
की बात है!
तुम्हारा
सूत्र तो है— 'रसो
वै सः।’ तैत्तिरीय
उपनिषद् क्या
कहता है, और
तुम्हारे
महात्मा
तुम्हें क्या
समझाते हैं कि
विरस हो जाओ, विरागी हो
जाओ, उदासीन
हो जाओ। रस ही
न लो किसी चीज
में। रस का
त्याग करो।
जितना बन सके,
उतना करो!
जैनों
में दो व्रत
होते हैं—महाव्रत
और अणुव्रत।
तुमसे अगर
पूरा महाव्रत
न हो सके, रस
पूरा त्याग
करने का, तो
अणुव्रत तो
करो। कम से कम
थोड़ा छोड़ो।
तुमसे अगर नमक
समझो कि पूरा
नहीं छोड़ा
जाता कि हमेशा
बिना नमक का
भोजन करो, तो
सप्ताह में एक
दिन तो छोड़ दो।
तो अणुव्रत
हुआ! नमक का
क्या कसूर है!
नमक की क्या
खराबी है? एक
दिन नमक छोड
देते हैं लोग,
फिर उनकी
अकड़ देखो! चाल
देखो! अकड़े
हुए चल रहे हैं।
नमक छोड दिया
उन्होंने एक
दिन के लिए! एक
दिन शक्कर
नहीं खाते, तो गजब कर
दिया! एक दिन
घी नहीं खाया
तो क्या कहने
हैं।
कैसा
सस्ता महात्मापन
तुमने पैदा
किया है! और इन
बेईमानों के
लिए तरकीबें
सुझा दी हैं
कि चलो, तुमसे
महाव्रत तो
सधेगा नहीं
अभी; अहंकार
तुम उतना
तृप्त कर न
सकोगे। जितना
बन सके, उतना
कर लो। न सही
पहाड़, तो
चलो छोटी—मोटी
टेकरी ही सही;
मगर कुछ
अहंकार तो बना
लो अपना! तो वे
व्रत कर रहे
हैं। लेकिन
इससे रस से
टूट रहे हैं।
इसलिए उनके
चेहरों पर न
तो आनंद का
भाव है, न
प्रसन्नता है,
न
प्रमुदिता है।
न नृत्य है
उनके जीवन में,
न गीत है
उनके जीवन में।
न काव्य है, न संगीत है।
कुछ भी नहीं!
और
इन रूखे—सूखे
डूंठे लोगों
के पीछे बाकी
लोग चल रहे
हैं। सो वे
सारे के सारे
लोग अपने को
अपराधी समझ रहे
हैं। कि हम कब
ठूंठ बन
जायेंगे, तब
हम भी महात्मा
होंगे। जब तक
हम सूंठ नहीं
बने, तब तक
हममें पत्ते
लग रहे हैं।
बडा अपराध कर
रहे हैं हम।
हममें अभी भी
पत्ते लगते
हैं; क्या
करें! पिछले
जन्मों के
पापों के कारण
पत्ते लग रहे
हैं। फूल लग
रहे हैं। लगते
ही जाते हैं, रुकते ही
नहीं! हमारे
महात्मा देखो,
क्या ठूंठ
खड़े हुए हैं!
काष्ठवत्—परिभाषा
की गई है, तुम्हारे
महात्माओं की—सूखी
लकडी की
भांति! क्या
बातें कर रहे
हो! अरे, लकड़ी
ही होनी है, तो कम से कम
गीली तो रहो!
थोड़ा रस तो
बहने दो!
सूखी
लकड़ी की भांति
हो जाओ
बिलकुल!
बिलकुल ठूंठ!
कि सिवाय
अंगीठी में
लगा देने के
किसी काम के न
रहो! किसी के
चूल्हे में
गिरना है, जो
ठूंठ बनना है?
फूल कैसे
लगेंगे! और
गंध कैसे
उड़ेगी? और
परमात्मा ने
जो तुम्हारे
भीतर छिपाया
है, वह
प्रगट कैसे
होगा?
सूत्र
बड़ा साफ है।’रसं
ह्येवायं
लम्मानन्दी
भवति। उस रस
को उपलब्ध कर
लिया, बस
यही आनन्द है।
मैं
तुम्हें रस
सिखाता हूं—विरस
नहीं। मैं
तुम्हें राग
की कला सिखाता
हूं—वैराग्य
नहीं।
'को
ह्येवान्यात्
क: प्राण्यात्।’
रस
चला गया—तो
फिर कहां
जीवन! फिर
प्राण कहां? प्यारा
सूत्र है। ऐसा
कि उतर जाने
दो, रोयें—रोयें
में समा जाने
दो। उसके बिना
न कोई जीवन, न कोई प्राण।
और उसी से लड
रहे हो तुम!
पश्चिम
का इस सदी का
सबसे बड़ा
बुद्धपुरुष
जार्ज
गुरजिएफ कहा
करता था अपने
अनुयायियों
से कि 'एक बात
तुम खयाल रखना
कि तुम्हारे
सब महात्मा, चाहे हिन्दू
हों, चाहे
ईसाई, चाहे
यहूदी—परमात्मा
के खिलाफ हैं।’
जब
मैंने पहली
दफे यह वचन
पढ़ा,
तो इतना ही
मेरे लिए काफी
था कि इस आदमी
को कुछ दिखाई
पड़ा है। ऐसा
वचन मैंने कभी
देखा ही नहीं
था किसी और का! कि
'तुम्हारे
सब महात्मा
परमात्मा के
खिलाफ हैं।’ यह बात कोई
जाननेवाला ही
कह सकता है।
यह कोई पण्डित
नहीं कह सकता।
पण्डित की तो
क्या हैसियत
होगी! सोच भी
नहीं सकता।
ऊपर
से तो बडी
उलटी मालूम
पड़ती है कि
तुम्हारे
महात्मा
परमात्मा के
खिलाफ हैं! यह
कैसी बात! मगर
मैं भी अपने
अनुभव से कहता
हूं कि यह बात
सच है। गुरजिएफ
अब तो जिंदा
नहीं है, लेकिन
जहां भी उसकी
आत्मा होगी, उसको
आनन्दित होना
चाहिए। जितनी
गालियां उसको
पड़ी, उससे
पचास गुनी
ज्यादा मुझको
पड़ रही हैं!
उसको
जिंदगीभर
गालियां पड़ी।
मगर वह भी
ईर्ष्या करता
होगा मुझसे।
इतनी उसको भी
नहीं पड़ी।
मुझे सारी
दुनिया में पड़
रही हैं।
व्यापक
विस्तार से पड़
रही हैं। उसकी
तो बड़ी सीमा
थी बेचारे की!
थोड़े से लोग
ही उसको जान
पाये। उसने
बात ही कभी
सार्वजनिक
नहीं की। उसने
थोड़े से लोगों
से ही बात की।
उसने ऐरे—गैरे
नत्थूखैरों
को भीतर नहीं
आने दिया। मैं
ऐरे—गैरे
नत्थूखैरों
से भी सिर
फोड़ता हूं।
स्वभावत: गाली
ज्यादा खानी
पड़ेगी।
वह
तो सिर्फ अपने
शिष्यों से
बोलता था।
शिष्य उसके
इने—गिने थे।
सारी दुनिया
में मुश्किल
से तीन सौ!
उनसे—वह
दूसरों सें
बोलता नहीं था।
किताब उसने
अपनी जिंदगी
में सिर्फ एक
छपने दी। वह
भी करीब—करीब
जब मर रहा था, तब
छपी! वह भी जब
पहली दफे छपी,
तो उसने
सिर्फ एक हजार
कापियां छापी।
और वह भी हर
किसी को नहीं
बेच देता था।
उसने दाम इतने
ज्यादा रखे थे
कि हर कोई
खरीद नहीं
सकता था।
बामुश्किल
कोई हिम्मत कर
सकता था
खरीदने की। और
किताब इतनी
बडी थी, एक
हजार पृष्ठों
की थी। और
उसके 'लिखने
का ढंग ऐसा है
कि तुम दस
पन्ने पढ लो, तो समझना कि
भव—सागर पार
हो गये! एक—एक
वाक्य एक—एक
पन्ने में
जाता है!
वाक्य में
वाक्य चलता जाता
है! और वह इस—इस
तरह से शब्द
बनाता था—खुद
गढ लेता था—कि
जिनके अर्थ
तुम्हें किसी
शब्दकोश में
मिल सकते नहीं।
शब्दों को तोड़—मरोड़
देता था। जैसे
कुंडलिनी
लिखना हो, तो
कुंडलिनी कभी
नहीं लिखता था।
कुंडा—बफर! अब
तुम खोज—खोजकर
मर जाओ—कुंडा
बफर कहां है!
यह कुंडा—बफर
क्या है! वह
उसकी गाली थी।
जैसे
दो
रेलगाड़ियों
के डब्बों के
बीच में बफर लगे
रहते हैं, कि
कभी धक्का लगे
या गाड़ी को
एकदम से रोकना
पड़े, तो वे
जो बफर रहते
हैं, वे
एकदम डब्बों
को टकराने
नहीं देते। या
जैसे कार में
स्टिंग लगे
होते हैं; गड्डा
आ जाये, तो
स्टिंग गड्डे
को पी जाते
हैं। अंदर
बैठे आदमी
एकदम उछलकर
छप्पर से नहीं
लग जाते!
खोपड़ी नहीं
खुल जाती—वह
बफर। वह
कुंडलिनी
नहीं कहता था—कुडा—बफर!
वह कहता था—यह
आदमी के भीतर 'कुंडा—बफर' नाम की एक
शक्ति है, इसकी
वजह से उसको
धक्के नहीं
लगते; स्थिंग
है यह। जिंदगी
में ठोकरों पर
ठोकरें खाता
है, मगर
कुंडा—बफर सब
झेल जाता है!
यह एक तरह का
स्टिंग है। कि
गिरे, जल्दी
से कपड़े वगैरह
झाड़े। देखा
चारों तरफ :
कोई नहीं है।
फिर चल पड़े!
रोज
गिरते हो। और
यूं भी नहीं
कि नये—नये
गड्डों में
गिरते हो।
उन्हीं—उन्हीं
गड्डों में
रोज गिरते हो!
और कल ही कसम
खायी थी की अब गड्ढ़े
में नहीं गिरेंगे; कि
भाड़ में जाए
यह गड्डा, कितनी
दफा इसमें गिर
चुके! कोई सार
नहीं है। और फिर
आ गये। फिर ऐसे
भी नहीं!
क्योंकि उस
गड्डे में और
गिरनेवाले भी
हैं; कोई
तुम्हीं थोड़े
अकेले हो।
क्यू लगा हुआ
है। अपने क्यू
में खड़े हैं।
भईया क्या कर
रहे हो? —अब
क्या करें!
ऐसे तो कसम
खायी थी!
कल
ही मैं एक गीत
पढ़ रहा था
किसी कवि का।
उसने लिखा है
कि यूं तो हम
रोज शाम को
कसम खाते हैं, लेकिन
सुबह फिर पी
लेते हैं।
तोबा रोज रात
करते हैं और
रोज सुबह तोड़
लेते हैं। इस
तरह हम दुनिया
भी सम्हालते
हैं और जन्नत
भी सम्हालते
हैं! रात
जन्नत सम्हाल
लेते हैं; सुबह
यह दुनिया
सम्हाल लेते
हैं! फिर करें
भी क्या! फिर
घटायें ही कुछ
ऐसी घिर गयीं
कि पीने का मन
हो गया! और फिर
यह बत्तमीज मन—लालच
उठ आयी। और
पियक्कड़ों को
देखकर पीने का
मन हो गया! फिर सोचा,
अब एक दफा
और। अरे, बस
एक दफा और! कोई
बार—बार थोड़े
ही पीना है!
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
एक दिन तय
किया कि अब
नहीं पीना
शराब, क्योंकि
बहुत हो चुका।
डाक्टर कहता
है, मर
जाओगे। पत्नी
जान खाये जाती
है। बेटा पीछे
पड़ा रहता है
लट्ठ लिए! कि
तुम शराबघर
गये कि टांग
तोड़ दूंगा!
यहां तक हालत
आ गयी कि शराबघर
का मालिक तक
कभी—कभी मना
करता कि ' अच्छा,
उठो जी! अब
दरवाजा बंद
करें! कि अब
नहीं
पिलायेंगे
तुम्हें! अब
तुम ज्यादा पी
गये! अब तुम
गड़बड़ शुरू कर
दिये। तुम अब
बहकने लगे।’
एक
दिन तो यह
हालत हो गयी
कि शराबघर के
मालिक ने उसको
धक्के देकर
निकलवा दिया, क्योंकि
वह दो—चार
बोतलें पी
चुका है, और
अब ऐसी अंटशट
बातें बक रहा
है, और ऐसे
अंटशट काम कर
रहा है कि
दूसरे ग्राहक
देख—देखकर
लौटे जा रहे
हैं, कि
यहां कोई झगड़ा
होगा, मारपीट
होगी। उपद्रव
होने ही वाला
है! यह आदमी
किसी की हत्या
कर देगा! उसको
निकलवा बाहर
कर दिया। वह
दूसरे दरवाजे
से फिर आ गया।
उसने कहा, भाई,
एक बोतल!
उसने फिर उसे
निकलवाकर
बाहर कर दिया।
वह तीसरे
दरवाजे से
भीतर आ गया।
होटल के कई
दरवाजे थे!
उधर से भी
निकलवा दिया।
चौथे दरवाजे
से आया। जब
उसे फिर
निकलवाने लगा,
तो उसने कहा,
'मामला क्या
है! क्या
बस्ती के सभी
शराबखाने तेरे
बाप के हैं? जहां जाता
हूं वहीं
हरामजादा, तू
ही खड़ा रहता
है! चार
शराबघरों में
हो आया! इतना
होश मुझे भी
है कि तेरी
शकल मेरी पहचानी
हुई है। यह
देखकर चौंकता
हूं कि यह फिर
वही का वही
आदमी! तो क्या
बस्तीभर के
शराबघर तूने
ही खरीद लिए!'
जब
यह मुसीबत आ
गयी,
तो उसने एक
दिन कसम ही खा
ली कि क्या
बेइज्जती जगह—जगह
करनी। नाली
में गिरना, और सुबह रोज
घर जाना; और
घर पिटाई अलग
होती है। और
जो देखो वही
लानत—मलामत
करता है। जहां
जाओ वहीं लोग
उपदेश देते
हैं। हर कोई
उपदेश देने
लगता है।
उपदेश आदमी को
जहर जैसा लगता
है! कहा कि 'अच्छा,
आज नहीं
पिऊंगा।’ मगर
वह शराबघर
रास्ते में
पड़ता है! कहा, 'कुछ भी हो
जाये, आज
छाती कड़ी कर
लूंगा। अरे
मैं भी मर्द
बच्चा हूं!' शराबघर पास
आया, तो
पैर उसके
थरथराने लगे।
कई दफा मन
होने लगा, कि
' अरे एक
दिन और! अरे
आखिरी दिन है
रे! आज तो पी ले।
फिर कल से कर
लेना। अब जब
तय ही कर लिया
है, तो फिर
कल से कर लेना!'
रोज
मन ऐसा ही
हमारा होता है!
कुछ नयी बात
नहीं है! उसका
हुआ तो..... मगर
उसने कहा कि 'नहीं,
बहुत हो
चुका जी! यह कई
दफा हो चुका।
आज जो कसम
खायी, तो
पूरी करनी है।
नहीं जायेंगे!'
मगर
एकदम पांव
ठहरने ही लगे, आगे
ही न बढ़े, जैसे
हजारों मन बोझ
लदा हो पैरों
पर—कि मामला
क्या है! मगर
उसने कहा, 'आज
कुछ हो जाए; आज सिद्ध
करना है—मर्द
बच्चा हूं।’
चला
ही गया।
शराबघर की तरफ
आंख भी नहीं
उठाई। नीची आंख
रखी,
जैसे बौद्ध
भिक्षु रखता
है नीची आंख।
चार कदम से
आगे नहीं
देखता, क्योंकि
चार कदम से
आगे देखो कि
संसार में गिरे!
क्या
मजा है! तो एक—एक
चश्मा लगा लो, जिसमें
चार कदम से
आगे दिखाई न
पड़ता हो। सब
मुक्त हो
जाओगे, निर्वाण
को उपलब्ध हो
जाओगे! चार
कदम से आगे नहीं
देखता, कि
जरा ही आंख उठ
गयी चार कदम
से ज्यादा—पता
नहीं क्या दिख
जाये!
घबड़ाहट
के मारे नीचे
देखे, नजर
गड़ाये चला गया—चला
गया—चला गया!
मगर तिरछी
नजरों से तो
देख ही रहा कि
शराबघर निकला
जा रहा है, निकला
जा रहा है! जब
सौ कदम आगे
निकल गया, अपनी
पीठ ठोंकी और
कहा, 'बेटा,
नसरुद्दीन!
गजब कर दिया
तूने! अरे है
तू भी कोई महात्मा!
अब आ, इस
खुशी में तुझे
आज दुगुनी
पिलाता हूं!'
और
पहुंच गये
वापस! उस खुशी
में दुगुनी पी
रहा हूं। उस
दिन फिर
दुगुनी ही पी
रहे हैं!
क्योंकि उस दिन
उनको पता चला
कि अरे, दुगुनी
भी चल सकती है!
और जब मरना ही
है, तो फिर
क्या! और
उपदेश तो
झेलना ही है, तो अब क्या
थोड़ी पीना!
एक
दिन पत्नी
उसकी पहुंच गई, जब
बरदाश्त के
बाहर हो गया।
जाकर उसने बुरका
उतारकर फेंक
दिया।
नसरुद्दीन ने
कहा, 'अरे, यह क्या
करती है!
बुरका उतारती
है! और शराबघर
तू आयी क्यों?'
उसने
कहा कि 'तुम्हीं—तुम्हीं
मजा लूट रहे
हो!'
पत्नी
गयी थी इसको
शिक्षा देने, कि
जब मैं पहुंच
जाऊंगी, तो
यह शरम खायेगा,
संकोच
खायेगा कि यह
बदनामी! हद्द
हो गयी! और बैठ
गयी वह भी
जमकर। उसने
कहा कि 'ला
तेरी बोतल!'
अब
कुछ कह भी न
सका। कहे
क्या! अगर कहे
कि यह खराब
चीज है, तो वह
कहेगी कि फिर
पीता क्यों
है! सो बोतल
देनी पड़ी।
उसने
भी जल्दी से
बोतल कुडेली।
उसे क्या पता; कभी
पिया हो उसने
शराब! गटगट पी
गई बिना सोडा
मिलाये, पानी
मिलाये। एक ही
घूंट मुंह में
गया था कि
कडुवा जहर!
वहीं बुलक
दिया, कि 'सत्यानाश हो
तेरा! इसको
पीता है तू!'
नसरुद्दीन
मुस्कुराया
और कहा, 'तू
क्या समझती थी
री, कि मैं
कोई यहां
आनन्द मनाने
आता हूं! अरे
यह बड़ी
तपश्चर्या है।
बड़ी मुश्किल
से सधती है। देख,
यूं पी जाती
है।’ गटगट
पूरा बोतल पी
गया जल्दी से,
कि कहीं फिर
न मांगने लगे!
'तू यही
समझती है
जिंदगीभर से।
अब मत कहना कि
चले गुलछर्रे
उड़ाने। यह कोई
गुलछर्रे
नहीं हैं। यह
बड़ा कठिन
मार्ग है।’
लोग
गड्डों में
गिरते हैं; कठिन
मार्ग बताते
हैं। उन्हीं
गड्डों में
गिरते हैं; रोज—रोज
गिरते हैं।
कारण क्या
होगा?
एक
ही कारण है कि
तुम्हारे
जीवन में अमृत
का कोई स्वाद
नहीं है।
इसलिए तुम जहर
पी रहे हो। एक
ही कारण है कि
तुमने जीवन से
नाते तोड़ लिये
हैं,
इसलिए तुम
मृत्यु के
शिकंजे में पड़
गये हो। तुमने
विराट से अपनी
जड़ें अलग कर
ली हैं, तो
तुम क्षुद्र
अहंकार में
ग्रसित हो गये
हो। वही नर्क
है। अहंकार
नर्क है। और
अहंकार
मृत्यु है।
अहंकार के जो
पार गया वह
नर्क के भी
पार गया और मृत्यु
के भी पार गया।
वह क्तका अमृत
का अनुभव करता
है।
'को
ह्येवान्यात्
क: प्राण्यात्।’
अरे
कोन उसको खोकर
जीवित हो सका
है! कोन इसको
खोकर वस्तुत:
जान सका है कि
जीवन क्या है!
इसका अर्थ तुम
समझो।
इसका
अर्थ हुआ कि
वह रस और जीवन
पर्यायवाची
हैं। यही मैं
तुमसे कह रहा
हूं रोज—रोज
कहे जा रहा
हूं कि जीवन
और
३परम।ात्मा
पर्यायवाची
हैं। इसलिए जो
लोग जीवन का
विरोध करते
हैं,
वे ईश्वर के
दुश्मन हैं।
और तुम्हारा
सारा धर्म
जीवन का विरोध
सब तरह से
जीवन को काटो!
त्यागों!
भागो! जैसे
पाप हो गया है
कोई जीवित
होने से! जैसे
परमात्मा ने
कोई कसूर किया
है तुम्हें
जन्म देकर!
तुम शिकायत कर
रहे हो जीवन
का त्याग करके।
तुम क्या
अनुग्रह का
भाव प्रगट
करोगे! तुम
कैसे
धन्यावाद
दोगे उसे! तुम्हारे
मन में सिर्फ
शिकायतों ही
शिकायतों का ढेर
है। तुम्हें
परमात्मा मिल
जाये, तो
तुम उसकी
गर्दन पकड़
लोगे कि तू
बता कि तूने मुझे
क्यों पैदा
किया? क्या
जरूरत थी मुझे
पैदा करने की!
क्यों मुझे संसार
के जंजाल में
डाला?
यहां
लोग आ जाते
हैं! उनको पता
नहीं मेरी
जीवन—दृष्टि
का। वे मुझसे
पूछ लेते हैं
प्रश्न। आज ही
एक सज्जन ने
पूछा हुआ है कि
'हमें बताइये
कि भव—सागर से
कैसे मुक्त हो
जायें?'
तुम्हें
सिखाया ही यह
जा रहा है कि
भव—सागर से
मुक्त होना
है! अरे, भव—सागर
में तैरना
सीखो। मुक्त
कहां होना है!
जाओगे कहां? भव—सागर तो
सभी जगह है! 'भव' का
अर्थ समझते हो?
—जो है। जो
है, इसके
बाहर कैसे
जाओगे?
भव
का अर्थ है
अस्तित्व।
इससे बाहर
कहां जाओगे!
तुम
जब पूछते हो—'भव—सागर
से मुक्त होना
है'—तो तुम
यह कह रहे हो
कि हमें मरना
बता दो; आत्महत्या
करनी है।
तुम
जीवन से इतने
उदास क्यों हो? कोन
ने तुम्हारे
जीवन को
विषाक्त किया?
और तुम
उन्हीं के
शिकंजे में हो
अब भी। जो
तुम्हारी
गर्दन दबा रहे
हैं, तुम
सोचते हो; तुम्हारे
प्राण—रक्षक
हैं!
तुम
जीवन को जान
ही नहीं पाये।
नहीं तो यह कभी
भाषा न बोलते—
भव—सागर से
मुक्त होने की।
तुम पूछते—भव—सागर
में कैसे लीन
हो जाऊं? तुम
पूछते : कैसे
तल्लीन हो
जाऊं? जैसे
बूंद सागर में
उतर जाती है
और एक हो जाती है,
ऐसे मैं भी
कैसे एक हो
जाऊं। तब
तुम्हारा
प्रश्न सच में
धार्मिक होता!
उसके
बिना कोई जीवन
नहीं, कोई
प्राण नहीं।
'यदेष आकाश
आनन्दो न
स्यात्।
यह
है आकाश जैसा
विराट।
'यदेष आकाश
आनन्दो न
स्यात्।’और
उसमें आनन्द
हौ आनन्द का
विस्तार है।
आनन्द का कोई
अन्त नहीं।
अनंत आनन्द है।
और तुम दुख के
पूजक हो! जो
आदमी अपने को
दुख देता है
सब तरह से, तुम
उसको कहते हो—त्यागी—तपस्वी!
मैं तुम्हें
सुख कासम्मान
सिखाना चाहता
हूं; सुख
का सत्कार
सिखाना चाहता
हूं। कहता हूं
: खोलो अपने
द्वार। बांधो
बंदनवार। करो,
स्वागत सुख
का। क्योंकि
परमात्मा
महासुखरूप है।
आनन्द ही
आनन्द है।
'एष
ह्येवानन्दयाति।’
और
वह इसलिए तो
आनन्द है, क्योंकि
अनंत आकाश
जैसा है; कभी
चुकता नहीं।
तुम छोटे—मोटे
सुखों में
सोचते हो—सुख
पा लिया। तुम
गलती में हो।
इस बात को
थोड़ा गौर से
समझना।
तुम्हारे
छोटे—छोटे सुख
एक उपद्रव कर
रहे हैं। ये
तुम्हें
पण्डितों, पुरोहितों,
और साधु—महात्माओं
के जाल में
गिरा देते हैं।
क्योंकि वे
कहते हैं, 'तुम्हारे
छोटे —छोटे
सुख—कहां मिला
सुख? बताओ—कहा
मिला सुख?' और
तुम बता भी
नहीं सकते।
उनका तर्क ठीक
लगता है। वे
कहते हैं, 'ये
क्षण— भंगुर
सुख हैं। छोड़ो
इनको! चलो
हमारे साथ।
भजन—कीर्तन
करो। त्याग
तपश्चर्या
करो। सिर के
बल खड़े होओ।
उपवास करो।
भूखे रहो।
शरीर को गलाओ।
तब कहीं
जन्मों —जन्मों
में असली सुख
मिलेगा!'
तुम
उनसे तर्क
नहीं कर सकते।
क्योंकि तुम
भी जानते हो
किं तुम्हारे
सुखों में
तुम्हें सुख
नहीं मिला।
लेकिन मैं
तुमसे कहता
हूं : वे तुमसे
जो कह रहे हैं, गलत
कह रहे हैं।
तुम्हारे
सुखों में सुख
उतना ही मिला,
जितना मिल
सकता था। उससे
ज्यादा तुम
चाहते थे, वह
नहीं मिला। और
उसी का वे
फायदा उठा रहे
हैं।
अब
तुम चाहते थे
कि भोजन से
शाश्वत् सुख
मिल जाए! तो
तुम मूरख हो।
भोजन से कैसे
शाश्वत सुख
मिल सकता है? कल
फिर भूख लगेगी।
फिर तो एक दफे
भोजन कर लिया,
सो कर लिया
फिर दुबारा
भोजन न करना
पड़े! यह तुम
चाहते थे! तो
तुम्हारे चाह
की गलती थी।
भोजन का कोई
कसूर नहीं है।
तुमने चाह ही
असंभव बना ली
थी।
अब
तुम सोचते हो
कि इस शरीर
में रहने से
शाश्वत जीवन
मिल जाए! कैसे
मिलेगा! यह
शरीर ही बना
है—तो मिटेगा।
इसमें तो उतना
ही मिल सकता
है,
जितना मिल
सकता है। इससे
ज्यादा
मांगते हो, वह मिलता
नहीं। नहीं
मिलता—विषाद
पैदा होता है!
विषाद होता है—महात्मा
का जाल पड़ा।
उसने
तुम्हारी
गर्दन दबाई।
उसने कहा कि
मैं पहले ही
कह रहा था कि
यहां दुख ही
दुख है। फिर
भी मैं तुमसे
कहता हूं :
उसका तर्क गलत
है। यहां उतना
ही सुख है, जितना
किसी वस्तु
में हो सकता
है। अब कोई
रेत में से
तेल निचोड़ना
चाहे और न
निचुड़े; तो
इसमें रेत का
कसूर है? इसमें
तुम्हारी
मूढ़ता है—और
कुछ भी नहीं।
अब
लोग चाहते हों
कि धन से
ध्यान मिल जाए
तो गलती में
हैं। धन से
अच्छा मकान
मिल सकता है।
धन से सुंदर
बगीचा बन सकता
है—जरूर बनाओ।
मगर धन से
ध्यान नहीं
मिल सकता। तुम
धन से चाहते
हो ध्यान मिल
जाए! महात्मा
तुम्हारी
गर्दन पकड
लेता है। वह
कहता है —मिला
ध्यान? —नहीं
मिला। छोड़ो धन।
मैं
तुमसे कहता
हूं : धन से जो
मिल सकता है, वह
धन से लो।
बुद्धिमानी
इसमें है। और
जो ध्यान है, वह न तो धन से
मिलता है, न
धन छोड़ने से
मिलता है। जरा
मेरी बात पर
खयाल कर लेना।
क्योंकि वह जड़
की बात है।
मूल की बात है।
न
धन से ध्यान
मिलता है, न
धन को छोड़ने
से मिलता है।
तुम
जरा अपने
महात्माओं से
तो पूछो कि धन
छोड़ने से
ध्यान मिला? मैंने
पूछा है। और
तुम्हारा एक
महात्मा जवाब
नहीं दे सका।
मैंने
महात्माओं पर
वे सब तरकीबें
अपनायी, जो
तरकीबें वे
तुम पर अपनाते
हैं। और मैं
बड़ा हैरान हुआ।
पता नहीं
तुमने क्यों
नहीं ये
तरकीबें उन पर
अपनायी अब तक!
वे
तुमसे कहते
हैं,
भोजन से शाश्वत
सुख मिला? तुम
उनसे पूछो, 'तुमको उपवास
से शाश्वत सुख
मिला?' तुम
कम से कम भोजन
पाकर स्वस्थ
तो हो! कम से कम
शरीर में बल
तो है! उठ—बैठ
तो सकते हो!
पश्चिम
में भोजन की
सुविधा है, तो
लोग ज्यादा जी
रहे हैं। आज
रूस में डेढ़
सौ साल की
उम्र के
हजारों लोग हैं।
थोड़े—बहुत
नहीं, हजारों
की संख्या में।
कोई आदमी डेढ़
सौ साल का हो
जाए, तो
रूस में अखबार
में खबर नहीं
छपती। अभी एक
खबर छपी, जब
एक आदमी दो सौ
वर्ष का हो
गया। डेढ़ सौ
वर्ष के तो
बहुत लोग हैं।
और
यहां
तुम्हारे? अगर
कोई सौ वर्ष
का हो जाए, तो
हम कहते हैं—है
सतयुगी! क्या
गजब का आदमी
है! सौ वर्ष का
हो गया!
महात्मा
गांधी सोचते
थे कि एक सौ
पच्चीस वर्ष जीना
है। यह तो
पूना के लोगों
की कृपा हो
गयी उन पर, कि
उनको नहीं
जीने दिया!
नाघूराम
गोडसे ने उनको
जल्दी खतम कर
दिया, कि
काहे को इतनी
देर परेशान
होते हो!
छुटकारा दिला
दिया जीवन से
जल्दी! भव—सागर
से मुक्ति
करवा दी उनकी!
पूना के लोग
गजब के हैं! ये
भव—सागर से
मुक्ति
करवाते हैं!
एक सज्जन मुझे
भव—सागर से
मुक्ति करवा
रहे थे! —अभी
कुछ दिन पहले,
छुरा
फेंककर! क्या—क्या
समाज सेवी पड़े
हुए हैं! अब
मुझे अभी भव—सागर
से छूटना भी
नहीं है, तो
भी छुड़वा रहे
हैं! गांधीजी
को छुड़वाया, तो ठीक भी; उनको तो
छूटना भी था।
मैं तो भव—सागर
में बिलकुल
मजे से तैर
रहा हूं! मगर
इनके कष्ट
देखो! बेचारे
कितना कष्ट
उठाते हैं! अब
अगर इन पर
झंझट पड़ेगी, अब मुकदमा
चलेगा; सात
साल, दस
साल; सजा
भुगतेंगे! आये
थे सेवा करने!
यह
दुनिया बड़ी
बुरी है। करो
नेकी—बदी हाथ
लगती है! क्या
गजब की दुनिया
है! यहां भला
करने जाओ, बुरा
हो जाता है! आए
तो थे बेचारे
सेवा करने मेरी,
अब दस साल
उनको जेलखाने
में कहीं सेवा
न करनी पड़े!
मुझे यही
चिंता होती है
कि इस आदमी को,
बेचारे को
दस साल खराब न
हो जायें और!
एक
सौ पच्चीस
वर्ष जीने का
जो इरादा
महात्मा गांधी
का था, वे
सोचते थे, यह
आखिरी कल्पना
है। इससे
ज्यादा कोन जी
सकता है! और
उनकी धारणा यह
थी कि एक सौ
पच्चीस वर्ष
जियेंगे वे—अपने
उपवास, अपने
ब्रह्मचर्य
के बल पर! वह तो
अच्छा हुआ, भला हो नाथूराम
का! रामजी के
ही रूप समझो—नाथू—राम!
तभी तो
महात्मा
गांधी ने, जब
गोली लगी तो
कहा, 'हे
राम!' नाथूराम
कहने लायक समय
नहीं मिला, नहीं तो
पूरा नाम
लेते! तो
अंग्रेजी—हिसाब
से आखिरी
हिस्सा बोल
दिया, कि 'हे राम!' नाम
पूरा था—नाथू —राम!
राम
का ही रूप
समझो इनको, कि
आ गए, और
छुटकारा करवा
दिया!
लेकिन
अगर गांधी को
खुद मरना पड़ता—और
मरना ही पड़ता.....।
और एक सौ
पच्चीस वर्ष.....
मैं नहीं
सोचता कि वे
जी सकते थे।
भारत की भोजन
व्यवस्था
इतनी स्वस्थ
नहीं है कि यहां
एक सौ पच्चीस
वर्ष जीना
आसान हो जाए।
अगर
पहले मरना
पड़ता, तो वे
बडे दुखी मरते।
उस दुख से नाथूराम
ने बचा दिया।
वे दुखी मरते
कि मेरी
तपश्चर्या
में कमी रह गयी!
वे तो हर छोटी—मोटी
बात में समझ
लेते थे कि
मेरी
तपश्चर्या में
कमी रह गयी!
जैसे
तपश्चर्या से
कोई उम्र का संबध
है! तपश्चर्या
से उम्र का
कोई संबंध
नहीं है।
शंकराचार्य
तैंतीस साल की
उम्र में मर
गए। अगर
तपश्चर्या से
संबंध है, तो
जाहिर है कि
तपश्चर्या
इनकी गडबड़ थी!
और विवेकानंद
चौंतीस साल
में मर गए।
अगर
तपश्चर्या से
संबंध है, तो
जाहिर है कि
तपश्चर्या
गड़बड थी।
तपश्चर्या से
कोई संबंध
नहीं है।
आज
योरोप के
देशों में
अस्सी वर्ष, पच्चासी
वर्ष, नब्बे
वर्ष औसत उम्र
हैं। स्वीडन
की औसत उम्र
नब्बे वर्ष है।
अभी भारत की
औसत उम्र
छत्तीस वर्ष
है! तो अगर स्वीडन
में डेढ़ सौ
साल का आदमी ?? जाए, तो
क्या अड़चन है!
भारत में भी
नब्बे साल का
आदमी मिल जाता
है। छत्तीस
वर्ष औसत उम्र
है तब।
ये
जो हमारी
अकाक्षाएं
हैं.....। शरीर तो
मिटेगा ही—सौ
साल में मिटे, डेढ
सौ साल में
मिटे।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
तीन सौ साल
जिंदा रह सकता
है—कम से कम—अगर
पूरी
व्यवस्था दी
जाए तो। समझो,
तीन सौ साल
भी जिंदा रह
गया, तो भी
मिटेगा तो हां,
जायेगा तो
ही। जो चीज पैदा
हुई है, वह
जायेगी। इससे
तुम अगर
शाश्वत की आकांक्षा
कर रहे .हो, तो
भूल तुम्हारी
है। इससे उतना
ही मांगो, जितना
यह दे सकता है।
उससे तुम
ज्यादा मांगते
हो, फिर वह
मिलता नहीं, तो फिर
तुम्हारे
साधु—महात्मा
कहते हैं कि 'देखो, नहीं
मिला न! कहा था
न! छोड़ो —छोड़ा!'
मैं
उनके तर्क को
गलत मानता हूं।
मैं तुमसे
कहता हूं कि
तुमने ज्यादा
मांगा, वह
तुम्हारी
गलती थी।
ज्यादा मत
मांगो। जो मिल
सकता है, वह
मांगों। और जो
नहीं मिल सकता,
उसके लिए और
रास्ते खोजो।
इसको छोड़ने से
वह नहीं मिल
जाएगा।
न
तो धन को
पकड़ने से, धन
को भोगने से
ध्यान मिलता
है, न
छोड़ने से
ध्यान मिलता
है। मैं ऐसे
मुनियों को
जानता. हूं
जिनको सत्तर साल
घर छोड़े हो गए;
नब्बे—नब्बे
साल की उम्र
के हो गए हैं; और उनसे
मैंने पूछा कि
' ध्यान
मिला कि नहीं?'
वे कहते कि
अभी नहीं
मिला! क्या
करें? कैसे
ध्यान करें? चित्त तो
अभी भी काम
करता है! मन तो
अभी भी
विचारों से
भरा हुआ है!'
तो
मैंने कहा, 'एक
बात तो साफ
हुई तुम्हें
कि नही—कि घर—द्वार
छोड़ने देने से
मन नहीं छूट
जाता! मन का घर—द्वार
छोड़ने से क्या
संबंध है! मन
को छोड़ने की प्रक्रिया
अलग है। विधि
अलग है, विज्ञान
अलग है।’ इसलिए
मैं अपने
संन्यासी को
कहता हूं कि
तुम विज्ञान
समझो जीवन का।
शरीर
को स्वस्थ
रखना है—भोजन।
लेकिन भोजन से
कुक आत्मवान
नहीं हो जाओगे।
ही आत्मा को
स्वस्थ रखना
है तो तुम्हें
दूसरा भोजन
तलाशना होगा—ध्यान, प्रेम,
मौन, शून्य—तों
तुम्हारी
आत्मा स्वस्थ
होगी। और
दोनों स्वस्थ होने
चाहिए। इनमें
कुछ विरोध
नहीं है—कि
स्वस्थ शरीर
में स्वस्थ
आत्मा नहीं हो
सकती! कि ठीक
भोजन करते
ध्यान नहीं हो
सकता। मैं तो
मानता हूं
बिलकुल उलटी
बात है।
ठीक
भोजन करो, तो
ही ध्यान कर
पाओगे, नहीं
तो ध्यान नहीं
कर पाओगे।’ भूखे भजन न
होहि गोपाला!'
तो जरा भूखे
होकर भजन तो
करों! ऊपर—ऊपर
भजन निकलेगा—
भीतर— भीतर
भूख लगी
रहेगी! भीतर—
भीतर खयाल.
चलता रहेगा कि
कब भोजन मिले!
यह भजन कब
खत्म हो! भजन
कर ही इसीलिए
रहे हो, कि
भोजन मिले!
लेकिन
जब पेट भरा हो, तो
स्वभावत:
सरलता से, सहजता
से भजन का
आनंद हो सकता
है; ध्यान का
आनंद हो सकता
है।
जीवन
का एक क्रमिक
क्रम है। शरीर
की जरूरतें
पहले पूरी
होनी चाहिए।
फिर मन की
जरूरतें पूरी
होनी चाहिए।
फिर आत्मा की
जरूरतें पूरी
होनी चाहिए।
जब तीनों की
जरूरतों में
एक तालमेल बन
जाता है, तब—
रसो वै सः! तब
चौथी, तुरीय
अवस्था पैदा होती
है। तब तुम
जान पाओगे, वह रस—रूप
क्या है; वह
आनंद क्या है!
वह आकाश क्या
है!
'वह आकाश की
भांति सर्व—व्यापक
आनंदमय तत्व न
होता, तो कोन
जीवित रहता!
और कोन
प्राणों की
चेष्टा करता?
वास्तव में
वही तत्व सबके
आनंद का
मूलस्रोत है।’
जीवन
को चाहो; जीवन
को जीयो—समग्रता
से, सम्पूर्णता
से। भगोड़ापन
नहीं, भय
नहीं; क्योंकि
जीवन
परमात्मा का
पर्यायवाची
है। जीवन ही
वह रस है।
'जो
बोलैं तो
हरिकथा' प्रवचनमाला
से
दिनाँक
24 जुलाई 1980; श्री
रजनीश आश्रम
पूना।
thank you guruji
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