कुल पेज दृश्य

रविवार, 27 सितंबर 2015

मेरा स्‍वर्णिम भारत--(प्रवचन--30)

द्वैत भ्रांति है—(प्रवचन—तीसवां)

प्‍यारे ओशो!
कमत्‍यागान्‍न संन्‍यासौ न प्रैषोच्‍चारणेनतु।
संधौ जीवात्‍मनौरैक्‍यं संन्‍यास: परिकीर्तित:।।

कर्मों को छोड़ देना कुछ सन्‍यास नहीं है। इसी प्रकार मैं संन्‍यासी हूं
ऐसा कह देने से भी कोई संन्‍यासी नहीं होता है।
समाधि में जीव और परमात्‍मा की एकता का भाव होना ही
संन्‍यास कहलाता है।

प्‍यारे ओशो! संन्‍यास के प्रसंग में कहे गये मैत्रेयी उपनिषाद् के
इस सूत्र को हमारे लिए बोधगम्‍य बनाने की अनुकंपा करें।

नन्द मैत्रय!
कर्मत्यागान्न संन्यासौ न.......
संन्यास सदियों से कर्म का त्याग ही समझा जाता रहा है। और कर्म का त्याग मन का त्याग नहीं है। कर्म के त्याग से एक भ्रांति भर पैदा होती है—भ्रांति गहरी और खतरनाक। जैसे कोई गाली न दे, अपमान न करे, तो स्वभावत: क्रोध न उठेगा। इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम्हारे भीतर क्रोध की समाप्ति हो गयी। जब भी कोई गाली देगा और अपमान करेगा, सदियों—सदियों भी क्रोध सोया रहा हो, पुन: फन उठाकर खड़ा हो जाएगा। सिर्फ अनुकूल परिस्थिति नहीं मिल रही थी। यूं जैसे बीज तो हों, वर्षा न हो, तो खेत में पड़े रह जाएं। लेकिन जब वर्षा होगी तब बीज अंकुरित हो जाएंगे।
बीज तो मन में है संसार के। संसार तो केवल उन मन के बीजों को अंकुरित होने का अवसर है, परिस्थिति है। लेकिन मनुष्य बहिर्मुखी है। वह हमेशा बाहर देखता है। वह सोचता है यह संसार है जो मुझे उलझाए है। संसार किसी को नहीं उलझाए है। उलझाए है तुम्हारा मन। लेकिन मन को तो तुम तब देखो जब भीतर मुड़ो। बाहर ही देखते हो। तो लोभी सोचता है धन के कारण लोभ है। असलियत उलटी है। लोभ के कारण धन है। धन की दौड़ है, धन की अभीप्सा है, धन की वासना है। लोभ जड़ है।
कामी सोचता है कि स्त्री के कारण कामवासना है। यह गणित को शीर्षासन करवाना है। कामवासना के कारण स्त्री में रस है। और वासना तुम्हारे भीतर है, स्त्री बाहर है। लोभ तुम्हारे भीतर है, धन बाहर है। क्रोध तुम्हारे भीतर है, अपमान, गाली—गलौज बाहर है। लेकिन हम तो बाहर ही देखते हैं, भीतर तो देखते नहीं।
इससे स्वभावत: जिन्होंने उथला—उथला जीवन को समझना चाहा है, वे संसार से भागने लगे। उन्होंने देखा कि संसार में उपद्रव है। लेकिन तुम जहां भी जाओगे भागकर सिर्फ परिस्थिति से बचोगे, बीज कहां जाएंगे? बीज तो जन्मों—जन्मों तक पीछा करेंगे। इस जन्म में छिप रहोगे गुफा में हिमालय की, फिर अगले जन्म में फिर परिस्थिति उपलब्ध होगी, फिर मौसम आएगा, फिर वसन्त आएगा, फिर बीज फूटेंगे, फिर फूल लगेंगे। ऐसे भगोड़ेपन से कोई संन्यास नहीं हो सकता है। संन्यास हो ही सकता है केवल संसार में, क्योंकि संसार परीक्षा है। धन हो और लोभ न हो तब संन्यास। सुन्दर से सुन्दर स्त्रियां हों, पुरुष हों और वासना न जगे, तब संन्यास। पद पर बैठने की सुविधा हो, सम्भावना हो, लेकिन भीतर पद पर बैठने की कोई आकांक्षा न हो, तब संन्यास।
संन्यास तो बाजार में ही परीक्षित होगा, वहीं कसौटी है। यह जो भगोड़ा संन्यासी है, यह तो ऐसा सोना है जो कसौटियों से भाग गया।
कसौटियों से भाग गए तो असली होओ कि नकली, क्या पता चलेगा? सच्चे हो कि खीटे, कैसे जानोगे? संसार में सारा उपाय है, प्रतिपल मौके हैं। अगर तुम्हारी आग बुझ ही गयी हो भीतर से तो ही शांति रहेगी, सन्नाटा रहेगा। अगर जरा—सी भी चिनगारी भीतर मौजूद है तो फिर सारे जंगल में आग लग जाएगी—फिर—फिर.......! क्योंकि एक चिनगारी काफी है। संसार में तो ईंधन उपलब्ध होता है। मगर ईंधन भी उसको जलाएगा जिसके भीतर चिनगारी हो। नहीं तो ईंधन पड़ा रहेगा। किसी ने तुम्हें गाली दी, तुमने सुन ली, पड़ी रही। तुम्हारे भीतर कुछ भी न होगा। हा, अगर तुम्हारे भीतर अहंकार है तो कुछ होगा। अहंकार चिनगारी है। अहंकार का अर्थ है: तुम्हारे भीतर कोई घाव है जिस पर गाली चोट कर देती है।
और तुमने खयाल किया? अगर घाव हो तो उसी—उसी पर चोट लगती है। अगर पैर में घाव हो, तो कुर्सी लग जाएगी, बिस्तर से उतरोगे तो चोट खा जाओगे, जूते में पैर डालोगे और चोट खा जाओगे, देहरी पार करोगे और चोट लग जाएगी, और बच्चा आएगा और उसी पैर पर चढ़कर खड़ा हो जाएगा। और तब कोई सोचने लगता है कि माजरा क्या है! इसी—इसी पैर को क्यों चोट लग रही है, जबकि इस पर घाव है? चोट रोज लगती थी, पता नहीं चलता था क्योंकि घाव नहीं था। आज घाव है, इसलिए पता चलता है। घाव सिर्फ पता चलवाता है। घाव कोई चोटों को आमन्त्रित नहीं करता। लेकिन घाव संवेदनशील होता है।
अहंकार के कारण कोई तुम्हें गाली नहीं देता; लेकिन अहंकार संवेदनशील है—बहुत संवेदनशील है। गाली तो दूर, जो आदमी रोज तुमसे नमस्कार करके गुजरता था, अगर आज बिना नमस्कार किये गुजर गया तो भी चोट लग जाएगी। तो भी भीतर तर्क खड़ा हो जाएगा कि अच्छा! तो इस आदमी की यह हैसियत कि आज बिना जयराम जी किये चला गया! इसको मजा चखाकर रहूंगा! कोई कसूर नहीं किया, कोई गाली नहीं दी, कोई अपमान नहीं किया, मगर यह भी अपमान हो गया।
अगर अहंकार है तो खोज ही लेगा कुछ—न—कुछ पीड़ित होने को, परेशान होने को। हां, यह हो सकता है कि तुम दूर छिपकर बैठ जाओ, जहां कोई परिस्थिति न आए—न सूरज, न हवा, न वर्षा, तो स्वभावत: बीज पड़े रह जाएंगे। मगर बीजों में ही बन्धन है।
इसलिए पतंजलि ने दो तरह की समाधियां कहीं—सबीज समाधि और निर्बीज समाधि। वह भेद बहुत गहरा है। वह भेद बहुत विचारणीय है। असल में सबीज समाधि को समाधि कहना नहीं चाहिए। बस समाधि जैसी मालूम होती है; समाधि का धोखा है। सबीज समाधि का अर्थ है : अहंकार तो भीतर है, लेकिन बीज की तरह है। और बीज की तरह है, इसलिए दिखायी नहीं पड़ता। अंकुरण हो, पत्ते निकलें, शाखाएं ऊगें, फल लगें, फूल लगें, तो दिखाई पड़ेगा। अभी अदृश्य है। अगर तुम बीज को काटोगे भी तो बीज के भीतर न तो फूल मिलेंगे, न रंग मिलेंगे, न पत्ते मिलेंगे—कुछ भी न मिलेगा। बीज को तो अवसर चाहिए।
संसार में अवसर है। हिमालय की गुफा में अवसर नहीं है, बस इतना ही फर्क है। और अगर तुम मुझसे पूछो, तो जहां अवसर है वहीं रहना उचित है, क्योंकि वहीं निर्बीज समाधि फलित हो सकती है। हिमालय की गुफा में जो समाधि फलित होगी, वह सबीज समाधि होगी। ऊपर से सब शांत हो जाएगा मगर भीतर तो सारी सम्भावना मौजूद है अशांत होने की। भीतर तो मवाद भरी है, फोड़ा पक रहा है। ही, कोई चोट नहीं पड़ रही, इसलिए पीड़ा नहीं हो रही है। लेकिन जब भी चोट पड़ेगी....... और चोट कभी—न—कभी पड़ेगी; और किस बात से चोट पड़ जाए, बड़ा मुश्किल है कहना!
एक आदमी अपनी कर्कश पत्नी से परेशान था—बहुत परेशान था। भाग गया! लोग भागते ही ऐसे हैं, सौ में से निन्यान्नबे तुम्हारे संन्यासी ऐसे ही भागते हैं। किसी की पत्नी उसे परेशान कर रही है, किसी की नौकरी खो गयी है, किसी का दिवाला निकल गया है, कोई जुए में हार गया; कोई पद और प्रतिष्ठा की दौड़ में जीत नहीं पाया, निराश हो गया है, उदास हो गया है; जीवन की चिन्ताओं ने, जीवन के सन्तापों ने छाती पर पहाड़ रख दिये हैं; इस सबसे घबड़ाकर आदमी भागता है।
भागनेवाले सौ लोगों में निन्यान्नबे सिर्फ कायर होते हैं। और वह जो एक प्रतिशत. मैं छोड़ रहा हूं वह बिलकुल और तरह के लोग हैं। वे संसार से भागते नहीं, संसार ही उनसे छूट जाता है। उन्हें संसार में भी रहना पड़े तो कोई अड़चन नहीं है। मगर उन्होंने संसार में रहकर देख लिया, अब कोई ईंधन आग को जलाता नहीं। अब कोई गाली अपमान पैदा नहीं करती। कोई सत्कार छाती नहीं फुला देता। अब धन हो तो ठीक, न हो तो ठीक। पद हो तो ठीक, न हो तो ठीक। उन्होंने संसार की सारी कसौटियां पूरी कर लीं। ऐसे एक प्रतिशत लोग भी जंगल गये हैं—मगर संसार से भागकर नहीं, संसार उनसे गिर चुका था। जैसे पके पत्ते गिर जाते हैं। संसार खुद ही छूट गया था। रहते तो भी कोई बात न थी; न रहें तो भी कोई बात नहीं—कुछ भेद ही नहीं जैसे!
यह आदमी भागा। पत्नी के कर्कश होने से भागा था। जंगल में जाकर एक वृक्ष के नीचे बैठा, बड़ी शांति मालूम हो रही थी—जंगल की शांति, पहाड़ों का सन्नाटा, हिमाच्छादित शिखरों का मौन—बड़ा आनन्दित था। और तभी एक कौवे ने आकर उस पर बीट कर दी। भनभना गया! कि हद हो गई, घर छोड़कर आ गया, यहां भी शाति नहीं! एक कौवे ने, दुष्ट ने बीट कर दी! यह कभी सोचा भी न था कि कौआ भी अपने से दुश्मनी करेगा! अरे, पत्नी तो दुश्मन थी, ठीक था, उसको छोड़कर आ गये तो यह कौवा परेशान कर रहा है!. .अरब कौवे को क्या लेना—देना तुमसे, कौआ तो बेचारा बीट करता ही। तुम न होते तो भी करता। तुम थे तो भी की। कौवे को तो कुछ प्रयोजन नहीं है।
लेकिन इस आदमी को तो चोट लग गयी। भागा ही इसलिए था। और वही मौजूद हो गयी बात। इतना दुखी हो गया कि सोचा—संसार भी व्यर्थ है, संन्यास भी व्यर्थ है। कहीं शाति नहीं, अशांति ही अशांति है। तो जाकर पास ही एक नदी थी, उसके किनारे रेत में उसने सूखी लकड़ियां इकट्ठी कीं, आग लगाकर चिता पर चढ़ने को ही था कि दो—चार लोग आसपास में रहते थे झोपड़ों में, खेतों में, वे आ गए और उन्होंने कहा, भाई, रुक! तुझे मरना हो, कहीं और जाकर मर! यह कोई जगह है! यहां हम रहते हैं। तू जलेगा, तेरी बदबू फैलेगी। तू तो मर जाएगा, अभी हमें जीना है! और फिर पुलिस आएगी। तू तो मर जाएगा, पकड़े हम जाएंगे। कि आदमी कैसे मरा, क्यों मरा? हम क्या बताएंगे? तू भैया, कहीं और जाकर मर! इतना बड़ा संसार पड़ा है, तुझे यह घाट ही मिला मरने को! यह आदमी बोला, हद हो गयी! न जीने की सुविधा, न मरने की सुविधा! आदमी मर भी नहीं सकता! इसकी भी स्वतन्त्रता नहीं है।
जो आदमी भागेगा, उसको तो कहीं भी कारण परेशान होने के मिलते रहेंगे। उसे तुम स्वर्ग में भी बिठा दो तो भी वह कुछ भूल—चूके निकाल लेगा। निकाल ही लेगा! अभी भीतर के बीज मौजूद हैं।
तो जरूर पहाड़ पर, जंगल में एक तरह की शाति होगी—वह पहाड़ की शाति है। उसे तुम अपनी न समझ लेना। तुम्हारा उससे क्या लेना—देना! तुम नहीं थे तब भी थी—थीड़ी ज्यादा थी, तुम्हारे आने से थीड़ी कम हो गयी। तुम चले जाओ तो फिर ज्यादा हो जाएगी। वह जो पहाड़ का हिमाच्छादित मौन है, वह जो शीतलता है, वह पहाड़ की है। मगर भाति वहां पैदा हो सकती है कि देखो, मैं कैसा शांत हो गया! न कोई अब अहंकार है....... अब अहंकार हो तो कैसे हो! कोई गाली नहीं देता, कोई अपमान नहीं करता, कोई धक्के नहीं मारता, 'क्यू, में खडे हो, कोई आकर आगे खड़ा नहीं हो जाता—वहां कोई 'क्यू ही नहीं है।
जिन्दगी जहां तुम अकेले हो वहां स्वभावत: अवसरों से शून्य है।
इसका अर्थ यह होगा कि एक शांति जो बाहर है, उसे तुम अपनी समझ लोगे। वह तुम्हारी भ्रांति है। बीज भीतर रह जाएंगे। और जब भी कभी, जन्मों—जन्मों में...... कब तक बचोगे, कब तक भागोगे?....... जहां भी अवसर आया, बीज फिर पल्लवित हो जाएंगे। सबीज समाधि का कोई मूल्य नहीं है। समाधि तो निर्बीज हो तो ही समाधि है। सबीज समाधि तो धोखा है! और निर्बीज समाधि संसार में घटित हो सकती है। इसलिए मैं अतीत में जो संन्यास प्रचलित रहा उसका पक्षपाती नहीं हूं। और मैत्रेयी उपनिषद् मुझसे राजी है। मगर आश्चर्य तो यह है कि ये उपनिषद् लोग पढ़ते रहे मगर समझे कि नहीं समझे! संन्यासी पढ़ते रहे! अब इतना स्पष्ट है कि 'कर्मों को छोड़ देना कुछ संन्यास नहीं है', मगर सदियों से यह जाल चलता रहा, कर्मों को छोड़ना ही संन्यास रहा। कर्म—त्याग संन्यास है। छोड़ दो दुकान, छोड़ दो मकान, छोड़ दो पत्नी, छोड़ दो बच्चे, संन्यासी हो गये!
कर्मत्यागान्न संन्यासौ न प्रैषोच्चारणेन तु।
और इस बात की घोषणा करना भी संन्यास नहीं है कि मैं संन्यासी हूं घोषणा से क्या होगा? घोषणा भी तो अहंकार की ही है। मैं संन्यासी हूं यह घोषणा करने मात्र से कुछ भी नहीं होनेवाला है। यह घोषणा अहंकार को और परिपुष्ट करेगी, और मजबूत करेगी, और जीवन देगी और अहंकार संसार का बीज है। इसलिए संन्यासी को तो घोषणा का सवाल नहीं है, प्रतीति का सवाल है। मैं की बात नहीं है, विनम्रता की बात है। मगर विनम्र संन्यासी, तुम मुश्किल से ही पाओगे! संन्यासी अहंकारी होंगे। उनका अहंकार उनकी नाक पर चढ़ा बैठा होता है। उनकी अकड़ साधारण आदमी से बहुत ज्यादा। क्यों? क्योंकि उनके पास तर्क है। तर्क यह है कि तुम तो अभी भोगी हो, हम योगी हैं। तुम तो संसार में सड़ रहे हो, हमने संसार छोड़ दिया। तुम तो अभी धन के पीछे दौड रहे हो, हमने धन छोड़ दिया। उनका तर्क उनके अहंकार को और भी मजबूत करता है। और तुम्हारा सम्मान उनके अहंकार को और मजबूत करता है। तुम जाकर उनके चरण छूते हो, पांव पखारते हो, पैर धोकर पानी पीते हो, तुम पूजा की आरती उतारते हो, तुम उन्हें महात्मा कहते हो; स्वभावत: जब लोग महात्मा कहें, आदर दें, सम्मान दें तो अहंकार और भी धार पा जाता है। जैसे जंग लगी तलवार पर किसी ने धार रख दी हो, जंग झाडू दी हो।
इसलिए तो दुनिया में यह तथाकथित धार्मिक लोगों ने, महात्माओं ने जितने उपद्रव करवाए हैं, जितनी हिंसा इनके कारण हुई है, किसी के कारण नहीं हुई। फिर वे हिन्दू हों, कि मुसलमान हों, कि ईसाई हों, इससे 'कुछ फर्क नहीं पड़ता। इस पृथ्वी पर जितने लोग मारे गये हैं धर्म के नाम पर, धर्म की मूर्खता के नाम पर, उतने और किसी चीज के कारण नहीं मारे गये हैं।

एक मित्र ने पूछा है कि 'प्यारे ओशो! मुनि सन्मति जी सागर ने दुर्ग में चौमासा किया। उनके आगमन से जैन समाज के दिगम्बर सम्प्रदाय में व्रत—उपवास की प्रतिस्पर्धा शुरू हुई। इसके अन्तर्गत श्री बसंतीलाल जी बाकलीवाल, जो शक्कर की बीमारी से ग्रस्त थे, उन्होंने भी उपवास किया। छठवें व सातवें दिन उनकी हालत इतनी खराब हुई कि उन्हें अस्पताल में भर्ती करना पडा। दसवें दिन उनकी मृत्यु हो गयी। वे अन्तिम समय में पानी पीने के लिए मांगते रहे, पर उपवास भंग न हो, इसलिए उनके समाज और प्रियजन तथा पारिवारिक लोगों ने उन्हें पानी भी पीने को नहीं दिया। इसके बाद उनकी मृत्यु को शहीदी रंग देने की कोशिश की गयी। मुनि श्री सन्मति महाराज को जब यह घटना बतायी गयी तो उन्होंने कहा कि अगर थीड़ी देर पहले मुझे बताया होता तो मैं उन्हें उसी अवस्था में दिगम्बरत्व की दीक्षा दे देता और उनकी गति सुधर जाती। प्यारे ओशो! यह सब क्या है, कृपया कहें!

 पद्य भारती! यह सब सदियों—सदियों पुरानी विक्षिप्तता है, जो संन्यास के आवरण में छिपी है, संन्यास के ढोंग में दबी है। संन्यास की राख के भीतर अहंकार की आग है। व्रत—उपवास की भी प्रतिस्पर्धा शुरू होती है। वह भी कबड्डी का खेल है। आदमी समझ ही नहीं पाता! अभी कल खबर थी कि नागपुर की कुछ कालेज की लड़कियां वर्धा कबड्डी का खेल खेलने गयीं। तो वे विनोबा के आश्रम पवनार भी गयीं और विनोबा ने उनके साथ चालीस मिनट कबड्डी खेली। कैसी प्यारी बात!....... मगर यही कबड्डी का खेल चल रहा है, अलग—अलग नामों से। पयूर्षण के दिन आते हैं तो जैनों में स्पर्धा शुरू हो जाती है। कौन किसको मात करे? कौन कितना उपवास करे?
तो यह पद्य भारती ने लिखा है, ठीक लिखा है कि वहा व्रत और उपवास की प्रतिस्पर्धा शुरू हो गयी। और इसमें कई दफा झंझटें होने ही वाली हैं। क्योंकि जैनों का जो व्रत और उपवास है, .वह कोई वैज्ञानिक तो है नहीं। न इसकी कोई चिन्ता की जाती है कि शरीर की अवस्था भी उपवास करने की है या नहीं, जरूरत भी है या नहीं? न इस बात की फिकर की जाती है कि इसके परिणाम क्या होंगे? अगर आदमी डायबिटीज से बीमार था तो उपवास के परिणाम घातक हो सकते हैं; भयंकर हो सकते हैं। अगर शक्कर कम होने की बीमारी हो, तो तीन दिन के भीतर वह आदमी बेहोश हो जाएगा, कोमा में चला जाएगा। मृत्यु हो सकती है।
दसवें दिन उनकी मृत्यु हो गयी। वे अन्तिम समय बस पानी ही पानी की पुकार करते रहे। मगर कौन सुने? स्पर्धा की दुनिया है!
इतने जल्दी, दो—चार घण्टे की और बात है, दस दिन पूरे हो जाएं। दिगम्बर होगे—तो उनका दस दिन का पयूर्षण होता है। श्वेताम्बर होते तो शायद बच जाते; उनका आठ ही दिन होता है। यह दिगम्बर होने में खतरा हुआ! दस दिन का पयूर्षण, दो—चार घण्टे ही बचे होंगे और अब पानी पीने के लिए मांग रहे हैं। प्रियजन, घर के लोग, पत्नी, बच्चे, मां—बाप भी विरोध में रहे होंगे, क्योंकि अब दो—चार घण्टे ही की बात है। अरे, और खींच लो इतना खींचा है। अब क्या चार घण्टे के लिए योगभ्रष्ट होते हो! क्या कहेंगे लोग! पीछे तुम ही हमको परेशान करोगे कि रोका क्यों नहीं? अरे, मैं तो परेशानी में था, लेकिन तुम तो नहीं थे परेशानी में, तुम तो रोक सकते थे। और जहां स्पर्धा का सवाल हो, वहां जिन्दगी भी आदमी दाव पर लगाने को तैयार हो जाता है। और फिर धार्मिक स्पर्धा! आध्यात्मिक स्पर्धा!...... जैसे कि आध्यात्मिक भी स्पर्धा हो सकती है!
स्पर्धा ही संसार है। यह प्रतियोगिता ही तो संसार है। यही तो राजनीति है। दूसरे से आगे निकल जाऊं इसके अलावा और राजनीति का अर्थ क्या है! फिर किस तरह निकलूं आगे—धन से निकलूं पद से निकलूं व्रत से निकलूं उपवास से निकलूं—इससे क्या फर्क पड़ता है? ये तो बहाने हैं आगे निकलने के। यह तो खूंटियां हैं अपने अहंकार को टांगने की। कोई भी खूंटी काम दे देगी।'
अब चार ही घण्टे की बात रह गयी!
यह पद्य भारती का प्रश्न पढ़ रहा तो मुझे टालस्टाय की प्रसिद्ध कहानी याद आयी—कि एक आदमी के घर एक फकीर मेहमान हुआ। वह आदमी गरीब किसान था, छोटी—सी जमीन थी, किसी तरह गुजारा हो जाता था। उस फकीर ने कहा कि तू भी पागल है, इस छोटी—सी जमीन में कैसे गुजारा हो! किसी तरह जी रहा है—अधखाया, अधपीया—न ठीक वस्त्र है, न ठीक मकान है। मैं घूमता रहता हूं—परिव्राजक हूं—साइबेरिया में मैं ऐसे स्थान जानता हूं जहां मीलों जमीन पड़ी है! और बड़ी उपजाऊ जमीन। तू इस जमीन को बेच दे, इस मकान को बेच दे, इतने से पैसे को लेकर तू चला जा। मैं एक जगह तो ऐसी भी जानता हूं जहां लोग इतने पैसे में तुझे इतनी जमीन दे देंगे कि तू कल्पना भी नहीं कर सकता।
मोह जगा, लोभ जगा कि क्यों यहां पड़ा रहूं!
सुबह फकीर तो चला गया, लेकिन उसने अपनी जमीन बेच दी, मकान बेच दिया, पत्नी—बच्चों को कहा कि तुम ठहरो, थीड़ी देर यहां रुको, मैं जाकर वहां जमीन खरीद लूं मकान का इन्तजाम कर लूं फिर तुम्हें ले चलूंगा।
वह आदमी गया। जब पहुंचा तो सच में चकित हुआ। फकीर ने जो कहा था, ठीक था। मीलों उपजाऊ जमीन पड़ी थी। दूर—दूर तक कोई आदमी का पता न था। बामुश्किल तो आदमियों को खोज पाया कि किनसे खरीदनी है! किसकी है? गांव के लोगों ने कहा, भई किसी की नहीं है। मगर हमारा यह नियम है कि अगर इतना पैसा—अगर एक हजार रुपया तुम देते हो, तो तुम दिनभर में जितनी जमीन घेर सकते हो घेर लो, वह तुम्हारी। और हमारे पास कोई मापदण्ड नहीं है। तुम चलना शुरू करो और खूंटियां गड़ाते जाओ; दिनभर में तुम जितनी जमीन घेर सकते हो, घेर लो; बस यही हमारा हिंसाब है, इसी तरह हम जमीन बेचते हैं। उसकी तो आंखें फटी की फटी रह गयीं। भरोसा ही नहीं आया। जरा—सा जमीन का टुकड़ा था उसके पास जिसको वह बेचकर आया था—और दिनभर में तो न—मालूम कितनी घेर लेगा! मजबूत काठी का आदमी था—किसान था—उसने कहा, अरे, दिनभर तो मैं मीलों का चक्कर मार लूंगा! गजब हो गया! फकीर ने ठीक कहा था।
दूसरे दिन सुबह ही उसने जितना पैसा लाया था दे दिया और उसने कहा कि मैं अब जमीन घेरने निकलता हूं। उन्होंने कहा कि निकलो! सुबह सूरज उदय होते हुए निकला। कहा कि सूरज डूबने के पहले लौट आना। अगर सूरज डूब गया तो पैसे डूब गये। सूरज डूबने के पहले लौट आना, तो जितनी जमीन तुमने घेर ली, वह तुम्हारी, यह शर्त है। उसने कहा कि बिलकुल लौट आऊंगा। वह भागा। चलना क्या, ऐसा कोई मौका चलने का होता है! भागा, दौड़ा! अपने जीवन में ऐसा कभी नहीं दौड़ा था। जितनी जमीन घेर ले, उसकी होनेवाली थी। दिन में कई दफा—साथ ले गया था रोटी भी, पानी भी, भूख भी लगी, दौड़ भी रहा था, ऐसा कभी दौड़ा भी नहीं था, मगर उसने कहा एक दिन अगर भोजन न किया तो कोई हर्ज है! कोई मर थीड़े ही जाऊंगा! मगर भोजन करके बैद आधा घण्टा खराब हो जाए इतनी देर में तो और आधा मील जमीन घेर लूंगा। पानी भी न पीया। उसने कहा, एक दिन में कोई मर थीड़े ही जाता है! और प्यास बहुत लग रही थी, क्योंकि धूप तेज होने लगी थी। पसीना—पसीना हो रहा था। ऐसा कभी दौड़ा भी न था, मगर...... पानी पास में था, थर्मस साथ ले गया था—लेकिन यह कोई समय है पानी पीने में गंवाने का! और पानी पी लो, पेट भारी हो जाए दौड़ न सको! बेहतर यही है कि आज दौड़ ही लो। अभी थीड़े ही घण्टों की बात है, सूरज डूबते—डूबते पहुंच जाना है, फिर जी भरकर भोजन करूंगा, विश्राम करूंगा—अरे, दो दिन सोया ही रहूंगा! फिर तो जिन्दगी में चैन ही चैन है। आज एक दिन की मेहनत और फिर जिन्दगीभर मजा ही मजा!
तुम भी यही सोचते। कोई भी गणित को समझनेवाला आदमी यही सोचता, जो उसने सोचा। उस पर हंसना मत, वह तुम्हारे ही भीतर छिपा हुआ मन है। वह आदमी कहीं बाहर नहीं है, वह तुम ही हो।
वह आदमी दौड़ता ही रहा, दौड़ता ही रहा। उसने सोचा था कि जब सूरज ठीक मध्य में आ जाएगा, आधा दिन हो जाएगा, तब लौट पडूगा। क्योंकि फिर लौटती यात्रा भी पूरी करनी है। सूरज मध्य में आ गया लेकिन मन न माने, क्योंकि आगे की जमीन और उपजाऊ, आगे की जमीन और उपजाऊ! जैसे—जैसे आगे बढ़े और उपजाऊ जमीन! सुबह जो घेरी थी, उससे बेहतर जमीन; और उससे बेहतर जमीन आगे पड़ी है। सोचने लगा कि थीड़ा तेजी से दौडूं तो जल्दी नहीं है लौटने की, थीड़ी देर में भी लौटा तो चलेगा मगर यह जमीन छोड़ने जैसी नहीं है। और सामने विस्तार ही था, जिसका कोई अन्त ही न होता था।
अब तो करीब—करीब एक चौथाई दिन ही बचा था। तब उसने कहा, अब खतरा है, अब लौटना चाहिए। अब सारी ताकत लगा दी। उसने रोटी फेंक दी, थर्मस फेंक दी, वस्त्र—कोट निकालकर फेंक दिया कि अब वजन रखना ठीक नहीं, अब तो ऐसे भागना है कि जैसे मौत पीछे लगी हो—क्योकि सूरज डूबा जा रहा है। भागा, भागा! सूरज के डूबते—डूबते करीब—करीब पहुंच गया। गांवभर इकट्ठा था, लोग जोर से हाथ हिला रहे थे, इशारा कर रहे थे कि तेजी से, तेजी से, और तेजी से, क्योंकि सूरज डूब रहा है। उसे लोग दिखाई पड़ रहे थे, उनकी आवाजें सुनाई पड़ रही थीं, वे उसे बढ़ावा दे रहे थे कि भागो, भागों, चूको मत, इशारा कर रहे थे सूरज की तरफ—उसे सब दिखाई पड़ रहा था, पहाड़ी पर खडे हुए लोग, मगर उसके पैर जवाब दे रहे थे। कंठ सूख गया था, आवाज भी नहीं निकल सकती थी। गिरा, अब गिरा, तब गिरा, ऐसी हालत हो रही थी। और यह कोई समय है गिरने का! और आखिर—आखिर— आखिर पहुंचते—पहुंचते गिर ही पड़ा! वह जो खूंटी सुबह गाड गया था, उससे केवल छह फीट दूर। सरकने की कोशिश की, लेकिन उतनी भी ताकत बची न थी।
गांव की भीड़ इकट्ठी हो गयी थी और लोग खिलखिलाकर हंस रहे थे। मरते वक्त उसने इतना ही पूछा कि तुम खिलखिला क्यों रहे हो, हंस क्यों रहे हो? उन लोगों ने कहा, हम इसलिए हंस रहे हैं कि तुम पहले आदमी नहीं हो, इसी तरह यहां बहुत लोग आकर मर चुके हैं। आज तक कोई भी खूंटी तक नहीं पहुंच पाया। यह हम जो धंधा कर रहे हैं, सस्ता नहीं है। अब तुम मर ही रहे हो, तुम्हें बता देते हैं। हम सुबह से ही जानते हैं कि तुम्हारे हजार रुपये गये। तुम सोचते हो कि तुम न—मालूम कितनी जमीन पा लोगे, लेकिन आज तक कोई पा नहीं सका। इसी खूंटी के पास कितने लोगों को हमने मरते देखा है। हमारे बुजुर्गों ने मरते देखा है, उनके बुजुर्गों ने मरते देखा है। सदियों से यह धंधा चलता रहा है। हम यह धंधा ही करते हैं। तुम कोई नये आदमी नहीं हो। एक आदमी और आ गया है, कल सुबह वह दौड़ेगा। मगर फिर भी तुम काफी करीब आ गये, केवल छह फीट दूर, शांति से मरो!
मगर क्या वह आदमी खाक शांति से मरे! जीवनभर की मेहनत का पैसा गया और दिनभर उसने जो मेहनत की थी, जीवनभर में न की थी, वह भी व्यर्थ गयी और यह खूंटी छह फीट दूर! आंखों के सामने दिखाई पड़ रही है, हाथ फैलाता है लेकिन छू नहीं पाता।
हाथ टटोलता है, आंखें धुंधली हुई जा रही हैं, सूरज डूबता जा रहा है और वह आदमी भी मर रहा है। सूरज के डूबते—डूबते वह आदमी मर गया।
टालस्टाय की यह प्रसिद्ध कहानी है, बहुत प्रसिद्ध कहानियों में एक है —'हाउ मच लैंड डजु ए मैन रिक्यायर,' आदमी को कितनी जमीन की जरूरत है? केवल छह फीट! क्योंकि वे जो छह फीट बच रहे थे, उसी में उन्होंने उसकी कब खोद दी और उसा में गड़ाकर उसको दफना दिया। आदमी को कितनी जमीन की जरूरत है? केवल छह फीट। वह सब दौड़— धूप व्यर्थ गयी।
वही हालत बेचारे बसंतीलाल जी बाकलीवाल की हो गयी। क्या वसंत आया! बस, खूंटी छह फीट ही दूर रह गयी थी तो घर के लोगों ने सोचा : अब कोई पानी पिलाने का वक्त है! अरे, दस दिन गुजार लिये? सागर पार कर गये, अब किनारे पर आकर और भ्रष्ट हो रहे हो! नमोकार मंत्र पढ़ा होगा, देवी—देवताओं को स्मरण किया होगा, कहा होगा कि भैया, मंत्र का स्मरण करो., नमोकार पढ़ो—नहीं तुम पढ़ सकते हो, हम पढ़ रहे हैं। वह नमोकार पढ़ रहे होंगे और बंसतीलाल कह रहे थे कि पानी, पानी!....... कोई नमोकार अब सुनायी पड़ता हैं ऐसी हालत में!....... मुझे पानी दे दो! शायद पानी दे दिया होता तो वह आदमी बच भी जाता। उसको मार डाला इन लोगों ने। ये हत्यारे हैं।
यह तो न—मालूम कैसा देश है और न—मालूम कैसा कानून है इस देश का कि यहां हत्यारे भी बच जाते हैं।इन सारे लोगों की साजिश है। इस साजिश में ये तुम्हारे मुनि सन्मति सागर भी सम्मिलित हैं। —शायद वही इसमें सबसे बड़े अपराधी हैं। उन्होंने उन्हें यह प्रेरणा दी होगी कि करो उपवास, इससे मोक्ष सुनिश्चित है। मौत मिली! मोक्ष वगैरह का तो कोई पता नहीं। और सुनते हो, आखिरी मजा यह कि जब वे मर गये तो फिर उसको शहीदी रंग देने की कोशिश की गयी। अहंकार हमारा पीछा ही नहीं छोड़ता। उन्हीं घर के लोगों ने जिन्होंने मारा, प्रियजनों ने _ समाज के— नेताओं ने, पंचायत के लोगों नै जिन्होंने मारा, उन्हीं मुनि ने जिनके आदेश से यह आदमी मरा—यह हिंसा हो गयी; यह मुनि पानी तो छानकर पीते होंगे और यह आदमी को मार दिया, जिंदा मार दिया! मगर इस तरकीब से मारा है, ऐसे धार्मिक ढंग से मारा है कि इसको कोई जुर्म भी नहीं कहेगा—हालांकि है यह जूर्म। यह हत्या का जुर्म है। और यह किसी एक मुनि के ऊपर नहीं है, यह हिंन्‍दुस्‍तान के तुम्हारे तथाकथित सारे साधु—महात्माओं के ऊपर इस तरह को बहुत—सी हत्या का जुम्मा है। मगर वह हत्या सब छिपी रह जाती है। सुंदर वस्त्रों में छिपी रह जाती है। उसका पता ही नहीं चलता। कानून उसका पकड़ नहीं पाता।
कानून पकड़े भी कैसे क्योंकि यही मुनि—महात्मा वहां भी छाती पर बैठे हुए हैं। यही नीति के निर्धारक हैं। यही समाज के मूल्यों के निर्माण करनेवाले हैं। यही मार्गद्रष्टा हैं। इन्हीं उपदेष्टाओं ने तो इस देश को पाखंड से भर दिया है। यहां हत्या भी हो जाती है और कानोंकान खबर भी नहीं चलती। अब उसको शहीदी रंग देने की कोशिश की गयी कि ये धार्मिक शहोद हो गये। इन्होने अपना जीवन कुर्बान कर दिया। वह आदमी कुर्बान करना ही नहीं चाहता था, वह मांग रहा था पार्ना, उसका पानी न दिया, जबरदस्ती शहीद करवा दिया।
और आखिरी बात उन्होंने कही कि अगर थीडी देर पहले मुझे बताया होता तो मैं उसी अवस्था में दिगम्बरत्व की दीक्षा दे देता ओर उनकी गति सुधर जाती। तुम्हें शायद पता न हो कि दिगम्बरत्व की दीक्षा से उनका क्या प्रयोजन है। मैं जानता हूं एक जैन साधु को—गणेशवर्णी को—उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी दिगम्बर जैनों में। प्रतिष्ठा का कारण कुछ और न था, छोटा सा था, मगर उसी कारण प्रतिष्ठा होती। प्रतिष्ठा का कारण यह था कि वे थे तो पैदाइशी हिंदू और फिर उन्होंने हिन्दू धर्म का त्याग कर दिया और जैन धर्म की दिगम्बर शाखा में वे साधु हो गये। जब कोई हिन्दू जैन हो जाए तो जैनों की छाती फूल जाती है। जब कोई जैन हिन्दू हो जाए तो हिन्दुओं की छाती फूल जाती है। स्वभावत:, क्योंकि इससे सिद्ध हो गया कि जैन धर्म श्रेष्ठ है, नहीं तो क्यों गणशवर्णी जैसे बूद्धिमान आदमी—बुद्धिमानी का केवल इतना ही सबूत दिया था उन्होंने जिंदगी में कि वे जैन हो गये थे और तो कोई सबूत दिया नहीं। मगर
अब उनकी बुद्धिमानी की खूब चर्चा करनी पड़ेगी। कोई हिन्दू ईसाई हो जाए, उसको खूब सम्मान मिलता है। वह दो कौड़ी का हिन्दू था, ईसाई होते ही से एकदम उसका मूल्य बढ़ जाता है—ईसाइयों में बढ़ जाता है। हिन्दुओं में गिर जाता है। हिन्दुओं में तो दुश्मन हो गया वह, पथभ्रष्ट हो गया, द्रोही सिद्ध हुआ, धर्मद्रोही।
एक ईसाई साधु हो गये—सरदार सुंदर सिंह। जब तक वे सरदार थे, किसी को पता ही नहीं था कि वे बड़े प्रतिभाशाली हैं। एक तो सरदार थे, तो किसको पता चले कि प्रतिभाशाली हैं। जब वे ईसाई हो गये तो सारी दुनिया में ईसाइयों ने उनकी दुंदुभी पीट दी कि वे महान प्रतिभाशाली हैं। ऐसा आदमी ही नहीं है। ये महात्मा बहुत पहुंचे हुए हैं। सिक्‍खों में उनका बहुत अपमान हो गया। सिक्‍खों में पहले अपमान भी नहीं था, सम्मान भी नहीं था—किसी को पता ही नहीं था कि सरदार जी में ऐसे गुण हैं। मगर वह पता ही जब चला—दोनों बातों का पता एक साथ चला। सुंदर सिंह ईसाई हो गए तो ईसाइयों को पता चला कि इनमें महान प्रतिभा छिपी है। यह तो मसीहा की हैसियत के आदमी हैं। और सिक्‍खों को पता चला कि यह आदमी शैतान है। इसने धर्मद्रोह किया। ईसाइयों ने उनकी जगत भर में प्रशंसा की। जगह—जगह उनका सम्मान हुआ। पोप ने उन्हें निमंत्रित किया; दूर—दूर देशों में उन्होंने यात्राएं कीं, बड़े—बड़े विश्वविद्यालयों में उनको मानद उपाधियां दी गयीं कि हिन्दुस्तान में ऐसा आदमी ही पैदा नहीं हुआ। यह है महात्मा असली! क्योंकि उन्होंने घोषणा कर दी कि जीसस के मुकाबले और कोई भी नहीं है। न नानक, न कबीर, न बुद्ध, न महावीर, न कृष्ण—ये सब फीके पड़ गये हैं जीसस के सामने! बस, यही उनकी प्रतिभा थी। मगर यहां सिक्‍खों को तो आग लग गयी छाती में। अब सिक्‍ख कोई ऐसे तो नहीं कि चुप बैठ जाएं। सिक्‍ख और चुप बैठ जाएं—असंभव! जब सुंदर सिंह वापिस आए तो उनका पता ही नहीं चला, वे कहां गये। सिक्‍खों ने सुनते हैं खातमा ही कर दिया उनका। किसने किया, यह भी पता नहीं है। मगर सिक्‍खों ने हो किया होगा और किसको क्या पड़ी थी! ?? ने निकाल ली होगी कृपाण, सत श्री अकाल और फैसला कर दिया होगा। गये थे हिमालय की यात्रा को सुंदर सिंह, फिर लौटे ही नहीं। कोई पंच प्यारे पहुंच गये होंगे, कि अब तेरे को बताए देते हैं तेरी प्रतिभा! तूने धर्मद्रोह किया।
यही हालत गणेशवर्णी की थी। हिन्दुओं में तो उनका विरोध था। जाति के वे सुनार थे। और जिस गांव से वे आते थे, दमोह से, जब मैं दमोह गया तो लोगों ने कहा, अरे वह सुनट्टा! मैंने कहा, तुम सुनट्टा कहते हो! पागल हो गये हो?
दिगम्बर जैनों में उससे ज्यादा प्रतिष्ठित कोई आदमी ही नहीं है अब। जो जन्मजात दिगम्बर मुनि थे, वे उनसे सब पीछे पड़ गये। और वे मुनि भी नहीं थे।...... दिगम्बर में पांच सीढियां होती हैं। ब्रह्मचर्य से शुरू होता है; साधु—पहले ब्रह्मचारी होता है—फिर छुल्लक होता है, फिर ऐसे बढ़ते—बढ़ते अंत मे मुनि होता है। धीरे— धीरे छोड़ता जाता है। ब्रह्मचारी एक चादर रखता है, दो लंगोट रखता है। फिर छुल्लक चादर छोड़ देता है, 'दो लंगोट रखता है। फिर फक, एक ही लंगोट रखता है। ऐसे बढ़ते—बढ़ते फिर मुनि, नग्न हो जाता है, कुछ भी नहीं रखता।
दिगम्बरत्व की दीक्षा का अर्थ होता है : नग्न दीक्षा। दिगम्बर यानी बस आकाश ही जिसके वस्त्र हैं। और दिगम्बर होकर जो मरता है, वही मोक्ष जाता है। जब गणेशवर्णी मरे तो मरने तक वे छुल्लक ही थे। दिगम्बरत्व की दीक्षा अभी उन्होंने नहीं ली थी। आकांक्षा तो थी, मगर हिम्मत नहीं जुटा पाए थे नग्न होने की। मरते वक्त, आखिरी क्षण में उन्होंने कहा कि जल्दी से मुझे दिगम्बरत्व की दीक्षा दिलवा दो। मर रहे हैं, चिकित्सकों ने कह दिया है कि बस, अब आखिरी बड़ी है, अब उन्होंने सोचा, अब आखिरी घड़ी क्या घबड़ाना? अरे, अब नंगा ही होना है, अब मरना ही है; तो घडीभर पहले ही नग्न हो जाओ। अगर नग्न होने से मोक्ष मिलना है तो यह अवसर चूकना ठीक नहीं। इतने सस्ते में मोक्ष मिलता हो तो चूकना ठीक है भी नहीं! मरते वक्त जल्दी से मुनि को बुलाया गया—क्योंकि मुनि की दीक्षा मुनि ही दे सकता है। कोई दिगम्बर मुनि ही मुनि की दीक्षा दे सकता है। जब तक दिगम्बर मुनि को बुलाकर लाया गया तब तक वे बेहोश हो गये थे। उन्होंने होश खो दिया था। और उनको बेहोशी में ही दिगम्बरत्व की दीक्षा दे दी। अब बेहोशी में तुम किसी को भी दिगम्बरत्व की दीक्षा दे दो। अरे, लंगोटी ही थी, निकाल दी। वे बेहोश पड़े हैं, जंतर—मंतर पढ़कर और लंगोटी अलग कर दी उनकी। वे दिगम्बर हो गये। मोक्ष प्राप्त हो गया। और बस, जीवनभर की साधना पूर्ण हो गयी। और वह आदमी बेहोश है, उसको पता ही नहीं कि दिगम्बर हुआ कि नहीं! वे चाहे यही खयाल लेकर मरे हों कि, दुख में ही मरे हों कि वह लंगोटी न छूटी सो न छूटी! उनको तो पता ही नहीं चलेगा।
अब तो तुम जिंदा को क्या, मरे को ही दे दो। अरे, जब पता ही नहीं चलने का सवाल है, तो क्या फर्क पड़ता है। आदमी कोमा में है, बेहोश पड़ा है, कि मर गया—सांस से क्या लेना—देना है—तो हर एक मुर्दे को ही दिगम्बरत्व की दीक्षा दे दो और मोक्ष पहुंचा दो। इन सज्जन ने, सन्मति जी सागर ने कहा, अगर जरा देर पहले मुझे बता देते.......। देखो तुम, दुष्टता का हिंसाब कुछ आको! कहने को तो ये अहिंसा से भरे हुए लोग हैं, मगर दुष्टता देखो! यह मुनि भी नहीं बोला कि पानी पिला देना था, आदमी मर रहा है। तो उसको पानी दे देना था; थीड़ी देर पहले मुझे कहा होता तो मैं कह देता कि पानी पिला दो, इसमें क्या बात है। छानकर पिला दो! मगर.! डिस्टिल्ड वाटर ले आओ, किसी भी तरह इस आदमी को बचा लो, मर रहा है। तुम नहीं पिलाकर इसको मार रहे हो। लेकिन् मुनि ने और भी ऊंची बात बतायी। उन्होंने कहा, तुमने अगर थीड़ी देर पहले मुझे कहा होता—पानी की तो बात ही नहीं उठायी, वह तो तुमने ठीक किया कि पानी नहीं दिया, नहीं तो भ्रष्ट हो जाता आदमी। दस दिन की साधना भी गयी, उपवास भी गया, श्रम भी गया और पतित भी हो गये! वह तो अच्छा किया, वह तो सवाल ही नहीं उठता—और उन्होंने आगे का कदम बताया कि अगर मुझे बता दिया होता तो उनके कपड़े और उतार लेता।
बसंतीलाल कपड़े पकड़ते—क्योंकि अभी वे होश में थे...... पानी माग रहे थे....... बसंतीलाल बड़े हैरान होते कि भैया, यह क्या कर रहे हो? मुझे पानी चाहिए और तुम कपड़े छीन रहे हो! मगर प्रियजन अगर उनके हाथ वगैरह पकड़ लेते तो करते क्या बसंतीलाल! दस दिन में कमजोर भी हो गये होंगे। भूखे दस दिन से पड़े थे, बीमार थे, उनकी हालत तो खस्ता हो रही होगी, उनको जबरदस्ती पकड़कर कोई मुंह पर हाथ रख देता. तू चुप रह! मुनि महाराज जो कर रहे हैं करने दो! बसंतीलाल लाख चिल्लाते कि मुझे नंगा नहीं होना है; अरे, सब गांव के लोग देख रहे हैं, मुझे नंगा नहीं होना है, मुझे मोक्ष नहीं जाना है, मगर कोई सुनता! मोक्ष जैसी चीज, तुम्हें जाना कि न जाना हो, जिनको भेजना है वे भेजेंगे। ऐसे लोगों की पूछने लगै कि जाना है कि नहीं जाना है, कोई जाए ही नहीं! दे देंगे धक्का। और कोई बुरा काम थीड़े ही कर रहे हैं! काम तो अच्छा कर रहे हैं। इसलिए जबरदस्ती भी अगर कपड़े छीन लिए जाते तो भी घोषणा हो जाती कि वे मोक्ष को प्राप्त हो गये।
इस तरह की बातों को संन्यास कहोगे?
मैत्रेयी उपनिषद् ठीक कहता है : 'कर्मों को छोड़ देना कुछ संन्यास नहीं है। इसी प्रकार 'मै, संन्यासी हूं' ऐसा कहने से भी कोई संन्यासी नहीं होता है।फिर संन्यासी कौन है? 'समाधि में जीव और परमात्मा की एकता का भाव होना ही संन्यास कहलाता है।अनुवाद में थीड़ी—सी भूल है। अकसर मुझे अनुवादों में भूल दिखाई पड़ती है। और उसका कारण यह है कि अनुवाद करनेवाले को खयाल भी नहीं होगा कि भूल कहां हो रही है। अनुवाद करनेवाले ने तो भाव से ही अनुवाद किया है। उसने तो ठीक ही सोचकर अनुवाद किया है। लेकिन चूंकि उसको स्वयं कोई अनुभव नहीं है—भाषा को जानता होगा, लेकिन चूंकि अनुभव नहीं है तो भूल होनी निश्चित है। समाधि में जीव और परमात्मा की एकता का भाव होना ही....... एकता का कोई भाव होता है? अनुभव होता है। एकता का भाव का तो अर्थ हुआ कि अभी हैं तो दो, मगर भाव एक का हो रहा है। जैसे दो प्रेमियों को होता है, कि दो शरीर और एक आत्मा। अरे, लाख तुम कहो कि दो शरीर और एक आत्मा, तुम्हें कोई मारेगा, तुम्हें कोई पीटेगा तब पता चलेगा कि तुम पिट रहे हो और पत्नी खडी देख रही है!
फजलू बाहर खड़ा था अपने घर के और अन्दर कुश्ती हो रही थी। पोस्टमैन ने आकर कहा कि तेरे पापा कहां हैं, फजलू? फजलू ने कहा कि पापा भीतर कुश्ती कर रहे हैं। पोस्टमैन ने भी खिड़की से झांककर देखा, चीजें गिर रही हैं, चंदूलाल और मुल्ला नसरुद्दीन में बड़े दांव—पेंच लग रहे हैं; घर के भीतर कुश्ती हो रही है, खुले बैठकखाने में, खिड़कियों से लोग देख रहे हैं, मोहल्ले—पडोस के लोग झांक रहे हैं। पोस्टमैन ने पूछा कि अरे, यह दोनों आदमियों में कौन तेरे पापा हैं? फजलू ने कहा, इसी बात की तो कुश्ती हो रही है। तय कर रहे हैं कि कौन मेरे पापा हैं। यही तो झगड़ा है। और इसीलिए तो मैं यहां बैठा हूं स्कूल नहीं गया हूं कि पक्का हो जाए कि कौन पापा है तो मैं स्कूल जाऊ। अब यह बात तो निर्णायक है कि कौन पापा! और तुम मुझसे पूछ रहे हो, अभी तय ही नहीं हुई बात तो मैं क्या बताऊं!
यह तो जीव और परमात्मा की एकता का भाव! भाव नहीं होता, अनुभव होता है। एक ही हैं। ही, दो हों तो फिर भाव की सम्भावना है। हैं तो दो मगर भाव एकता का हो रहा है। नहीं, जीव और परमात्मा दो कभी थे ही नहीं। दो की हमारी जो बात थी, वह भाव की बात थी। वह हमारी दृष्टि थी। वह हमारी भूल थी। वह हमारी भावना थी। अब जाना कि हम दो तो कभी थे ही नहीं, सदा एक थे। जब दो जानते थे तब भी दो नहीं थे, अब भी दो नहीं हैं। जिस दिन इस अनुभूति का अनावरण होता है कि अरे, मैं तो सदा ही इस अस्तित्व के साथ एक था—नहीं जानता था, यह बात और, मगर था तो सदा एक।
मूल सूत्र तो यही है : संधौ जीवात्मनौरेक्य संन्यास: परिकीर्तित। जिस दिन यह संधि अनुभव में आती है, यह जोड अनुभव में आता है, एक आनन्द की लहर दौड़ जाती है, रोआं—रोआं पुलकित हो जाता है कि अहा! मैं तो सदा एक ही था और दो मानकर कितने दुख झेले! कितनी पीड़ा पायी! यह अवस्था ही समाधि है। समाधि का अर्थ है : मैं और परमात्मा दो नहीं। एकता का भाव नहीं, खयाल रखना, दोहरा दूं फिर, मैं और परमात्मा एक हैं, ऐसी प्रतीति नहीं। इसीलिए ज्ञानियों ने एकवाद शब्द का उपयोग नहीं किया, अद्वैतवाद शब्द का उपयोग किया। दो नहीं हैं। एक हैं, अगर ऐसा भी कहें तो खतरा है। अगर जोर दें कि मैं और परमात्मा एक, तो इस बात की सम्भावना है कि भीतर कहीं अभी भी लग रहा है कि हैं तो दो, मगर एक मान लिया है। इसलिए हमने इस देश में अद्वैतवाद शब्द गढ़ा है।
पश्चिम में जब पहली दफे उपनिषदों का अनुवाद होना शुरू हुआ तो उनको बड़ी हैरानी हुई कि अद्वैतवाद! एकवाद क्यों नहीं कहते? सीधी बात, उल्टा कान क्यों पकड़ना? अगर एक ही है तो सिर्फ इतना कहो : एकवाद, मोनिज्म, लेकिन यह अद्वैतवाद, नान—डुआलिज्य, दो नहीं हैं, ऐसा उल्टा कान क्यों पकडना! उनकी समझ में बात कठिन थी, क्योंकि पश्चिम में मोनिज्म, एकवाद की धारणा के तो बहुत दार्शनिक हुए लेकिन अद्वैतवाद शब्द ही पश्चिम की किसी भाषा में नहीं था। हो भी नहीं सकता था। क्योंकि जो एकवादी थे, वे दार्शनिक मात्र थे; और अद्वय का जो अनुभव है, दो नहीं, यह समाधि का अनुभव है। इसमें जोर इस बात का है कि दो हम कभी भी नहीं थे, अब भी नहीं हैं, कभी हो भी नहीं सकते थे; मगर भ्रांति थी हमारी। जैसे रात तुम सोए और सपने में तुमने देखा कि तुम कहीं दूर चले गये, चांद—तारों पर घूम रहे हो और कोई ने हिलाकर जगा दिया, तो तुम चांद—तारों पर थीड़े ही जग जाओगे! जागोगे तो यहीं जहां सोए हो, अपने कमरे में। तुम यह थीड़े ही कहोगे कि भाई, क्या किया तुमने भी कैसी मुसीबत में डाल दिया, एकदम भागना पड़ा मुझे चांद—तारों से! इतनी लम्बी यात्रा और तुमने क्षण में करवा दी। तीर की तरह चलना पड़ा! किरण की गति से चलना पड़ा। बामुश्किल पहुंच पाया अपने कमरे में। यह कोई ढंग है किसी आदमी को ऐसा हड़बड़ाकर उठा देना! मैं कहा चांद पर था! नहीं, जागते ही तुम पाओगे कि चांद पर तुम थे ही नहीं; थे तो तुम यहीं, रातभर यहीं थे, मगर एक भ्रांति थी, एक स्वप्न था चांद पर होने का।
दो होना भांति है, स्वप्न है। एक होना सत्य है। लेकिन एक होना भाव नहीं है। भाव तो फिर विचार की ही बात हो गयी, विचार से थीड़ी गहरी। लेकिन भाव साधा जाता है और अनुभूति उघाड़ी जाती है।
मेरे पास एक सूफी फकीर को लाया गया था। तीस साल से उनकी यह भावदशा थी, भावाविष्ट थे, हर चीज में उन्हें परमात्मा दिखाई पड़ता था। वृक्ष के सामने खड़े हो जाएं और बातें करने लगें। उनके भक्त इससे बहुत प्रभावित होते थे। उनके शिष्य बहुत थे, शार्गिद बहुत थे। पत्थर के सामने खडे हो जाएं और बातें करने लगें—पत्थर से। और उनके शिष्यों का चेहरा देखने लायक था कि देखो, गुरुदेव किस अवस्था में हैं! मैंने उनसे कहा, ऐसा करो कि इन्हें तुम तीन दिन मेरे पास छोड़ दो। जब उनके शार्गिद उन्हें छोड्कर चले गये और उनको तीन दिन मेरे पास रहना पड़ा तो मैंने उनसे पहले दिन यह कहा कि मैं आपसे एक बात पूछता हूं : तीस साल से आपको यह अनुभव होता है। उन्होंने कहा, ही! हर चीज में मुझे परमात्मा दिखाई पड़ता है। दीवाल में, छप्पर में, फर्श में, हर जगह मुझे परमात्मा दिखाई पड़ता है। परमात्मा ही परमात्मा दिखाई पड़ता है। मैंने कहा, यह तो ठीक है। शुरुआत कैसे हुई? उन्होंने कहा, शुरुआत? मैंने इस तरह का भाव करना शुरू किया कि वृक्ष नहीं हैं, परमात्मा है। पहाड़ नहीं है, परमात्मा है। यह सूरज नहीं ऊग रहा है, परमात्मा क्या रहा है, परमात्मा की किरणें फैल रही हैं। यह चांद—तारे परमात्मा हैं। मैंने भाव करना शुरू किया। मैंने कहा, भाव तो कल्पना हुई। जब तुमने भाव करना शुरू किया था तो तुम्हें पता था कि सच में ऐसा है? उन्होंने कहा, कैसे पता हो सकता था? पता तो बाद में चला। जब भावना प्रगाढ़ हो गई तब पता चला कि जो भाव किया था वह ठीक था। मैंने कहा, यह तो बहुत अजीब बात हो गई। तुम भाव कुछ और भी करते, तो वह भी प्रगाढ़ हो जाता। तो फिर वह भी सत्य हो जाता। बुनियाद में ही झूठ है, आधार में झूठ है और उसी झूठ पर तुमने सारा यह मंदिर खड़ा कर रखा है।
मैंने कहा, एक काम करो! तीस साल तुमने भावना की तब तुम अनुभव कर पाते हो कि सब में परमात्मा है, तीन दिन के लिये यह भावना करना छोड़ दो। थीड़े तो वे झिझके। थीड़े तो डरे। मैंने कहा, डर रहे हो, इससे ही लगता है कि तुम्हें शक है कि तीन दिन में ही कहीं ऐसा न हो कि खिसक जाए बात। नहीं, उन्होंने कहा, मैं क्यों डरूंगा? मुझे अनुभव ही हो रहा है कि सबमें परमात्मा है। तो मैंने कहा, फिर तीन दिन में क्या हर्जा है? तीन दिन होने दो अनुभव, मगर तुम भाव मत करो। बोलना ही मत! न झाडू से, न पत्थर से, न दीवाल से। तीन दिन तुम यहां मेरे पास रहो—शागिर्दों को मैंने विदा कर दिया है, वह कोई आएंगे नहीं, तुम्हें चिंता करने कि जरूरत नहीं। मैं हूं और तुम हो। और तीन दिन तुम्हें कुछ करने नहीं दूंगा यह भावना।
झिझकते—झिझकते, डरते—डरते राजी हुए। और तीसरे दिन तो मुझ पर एकदम बिगड़ पड़े। नाराज ही हो गये। कहने लगे, मेरी तीस साल की साधना खराब कर दी। मैंने कहा, तुम थीड़ा सोचो तो! जो चीज सच थी, वह .तीन दिन में भूल सकती है? वह सच थी ही नहीं। वह सिर्फ तुमने भाव किया हुआ था। और भाव तो आदमी कुछ भी कर ले। तीस साल तक अगर गाय में भैंस देखे तो भैंस दिखाई पड़ने लगेगी। इसमें कौन—सी खूबी की बात है। अरे, तीस साल लंबा समय है। यह तो सिर्फ आत्मसम्मोहन हुआ। तुम जो चाहो वह हो जाएगा। सोने में मिट्टी दिख सकती है, मिट्टी में सोना दिख सकता है। इस तरह कोई अनुभुति तक नहीं पहुचता। यह तो सिर्फ आत्मसम्मोहित अवस्था है। और तीन दिन में फिसल गयी। तीस साल में सधी और तीन दिन में फिसल गयी। तो तुम खुद ही सोचो। नाराज मत होओ। बामुश्किल वे शांत हुए।
मैंने कहा ,. खुद विचार करो कि तीस साल का अनुभव अगर तीन दिन में गिर जाता हो तो कौन मजबूत है? और अब मत समय को गंवाओ! तीस साल तुमने यूं ही गंवाए, पानी पर लकीरें खींचते रहे। इस तरह नहीं कोई जाना जाता है कि मैं और परमात्मा एक हैं। मैं और परमात्मा एक हैं, यह तो समाधि का अनुभव है। तुम शांत हो जाओ, परमात्मा की फिकर छोड़ो—तुम्हें पता ही क्या परमात्मा का? है भी या नहीं, यह भी पता नहीं है। तो झूठों से शुरू मत करो! यात्रा का पहला कदम बहुत महत्वपूर्णं है, क्योंकि उसी से सब कुछ निर्धारित होगा। उससे दूसरा कदम निकलेगा, तीसरा कदम निकलेगा। अगर पहला ही गलत है तो सब कदम गलत हो जाएंगे।
जो लोग विश्वास करके धर्म के जगत में उतरते हैं, वे झूठ में ही जीते हैं। धर्म तो अनुसंधान है, खोजी है। और खोजी को विश्वासी नहीं होना चाहिए। विश्वास खोज में बाधा है। खोजी को तो कोई आकांक्षा—अभीप्सा भी नहीं होनी चाहिये। परमात्मा को पाने की भी नहीं, सत्य को पाने की भी नहीं, क्योंकि पता नहीं सत्य है भी या नहीं! अभी जिस चीज का पता नहीं है, उसको पाने की अभीप्सा कैसे करोगे? अभी तो मौन सन्नाटे में चलना चाहिए। अभी तो मौन होना सीखो! उनसे मैंने कहा कि निर्विचार होना सीखो। और जब निर्विचार की अवस्था सघन होगी, उस क्षण जो तुम्हें दिखाई पडेगा. वह सत्य होगा। फिर तीन दिन तो क्या, तीन जन्मों भी कोई चेष्टा करे तो तुम्हें सत्य से डिगा नहीं सकता।

 न सुकूने—दिल की है आरजू
न किसी अजल की तलाश है
तेरी जुस्तजू में जो खो गई
मुझे उस नजर की तलाश है
न सुकूने—दिल की है आरजू.......
जिसे तू कहीं भी न पा सका
मुझे अपने दिल में वो मिल गया
तुझे जाहिद इसका मलाल क्या
ये नजर नजर की तलाश है
न सुकूने—दिल की है आरजू......
तुझे दो जहां की खुशी मिली
मुझे दो जहां का आलम मिला
वो तेरी नजर की तलाश थी
ये मेरी नजर की तलाश है
न सुकूने—दिल की है आरजू.......
मेरी राहतों को मिटाके भी
तेरे गम ने दी मुझे जिंदगी
तेरा गम नहीं यूं ही मिल गया
मेरे उम्र भर की तलाश है
न सुकूने—दिल की है आरजू.......
रही नूर मेरी ये आरजू
न रहे ये गर्दिशे जुस्तजू
जो फरेब जल्यां न खा सके
मुझे उस नजर की तलाश है
न सुकूने—दिल की है आरजू
न किसी अजल की तलाश है
न सुकूने—दिल की है आरजू

 खोज क्या है? जो फरेब जल्वौ न खा सके! जो धोखा न खा सके, मुझे उस नजर की तलाश है।
लेकिन तुम तो धोखे से ही बात शुरू करते हो। लोगों ने तुमसे कहा है सदियों—सदियों से कि पहले मानो, तब जान सकोगे। मैं तुमसे कहता हूं यह बड़ी झूठी बात है, यह बड़ी जहरीली बात है। जिसने मान लिया, वह तो कभी भी जान न सकेगा। माना कि भटका। माना कि खोया। अगर जानना है तो मानना मत! क्योंकि मान ही लिया तो फिर खोजोगे कैसे? नजर ही खराब हो गई। नजर पर चश्मा चढ़ गया। नजर पर एक रंग छा गया। जो मान लिया, उसका रंग—फिर वही तुम्हें दिखायी पडने लगेगा। और नजर पर हरे रंग का चश्मा चढ़ा लो, दुनिया हरी दिखायी पड़ने लगेगी। और फिर तुम कहोगे दुनिया हरी है, क्योंकि मुझे हरा दिखायी पड़ता है। और तुम गलत भी नहीं कह रहे हो, तुम्हें हरी दिखायी पड़ती है? लेकिन यह चश्मे के कारण! आंख से चश्मे उतारने हैं, पहनने नहीं हैं। आंख से पर्दे गिराने हैं

 जो फरेब जल्यां न खा सके
मुझे उस नजर की तलाश है
वह दृष्टि, वह निर्मल दृष्टि, वह निर्दोष दृष्टि, जो धोखा न खा सके। लेकिन कोई गणेश जी की पूजा कर रहा है। यह कोई नजर है! कोई हनुमानजी की पूजा कर रहा है! कोई हनुमान चालीसा रट रहा है। कोई नमोकार मंत्र दोहरा रहा है! ये चश्मे हैं। कोई जैन है, कोई हिन्दू है, कोई मुसलमान है, ईसाई है, बौद्ध है—ये सब चश्मे हैं। तुमसे मैं कहना चाहता हूं : नानक सिक्‍ख नहीं थे इसलिए नानक से तुम्हें थीडा भी प्रेम हो, तो सिक्‍ख मत होना। महावीर जैन नहीं थे। अगर महावीर से थीड़ा भी प्रेम हो तो जैन मत होना और ईसा ईसाई नहीं थे। शब्द ही उन्होंने नहीं सुना था कि ईसाई जैसी भी कोई चीज होती है। और बुद्ध बौद्ध नहीं थे।
जरा थीड़ा सोचो तो! बुद्ध बुद्ध हो गये बिना बौद्ध हुए, तो तुम क्यों न हो सकोगे? और नानक बिना सिक्‍ख हुए सत्य को पा लिये तो तुम क्यों न पा सकोगे? और कबीर क्या कबीरपंथी थे? आज तक जिन्होंने भी जाना है उन्होंने जाना ही है, माना नहीं। और तुम सिर्फ मान रहे हो। मानना उधार है, जानना अपना है। मानने का अर्थ है : किसी और ने कह दिया है और तुमने मान लिया है।

 जिसे तू कहीं भी न पा सका
मुझे अपने दिल में वो मिल गया
हनुमान जी में खोज रहे हो? पहले यह भी तो पता कर लो कि हनुमान जी...... जरा इनकी शकल तो देखो! थीड़ा विचार तो करो! आदमी हो तुम, क्या कर रहे हो?
एक मैंने प्यारी कहानी सुनी है
रामदास राम की कथा कहते थे। कहानी है कि कथा वह इतनी प्यारी कहते थे कि हनुमान भी छिपकर सुनने आते थे—और उन्हें बड़ा मजा आता था कहानी सुनने में। रामदास जिस भाव से कहते थे, जिस अहोभाव से कहते थे—हालांकि हनुमान तो प्रत्यक्षदर्शी थे, उन्होंने तो देखी थी कहानी होते, मगर उनको भी सुनने में मजा आता था। रामदास के मुंह से सुनकर उनको भी बहुत—सी बातें पहली दफा दिखाई पड़नी शुरू हुई थीं। थे तो हनुमान जी ही! देखा जरूर होगा, मगर जब रामदास जैसे व्यक्ति अर्थ करें तो नयी—नयी अभिव्यंजनाएं होती हैं। नये फूल खिल जाते हैं। जहां कुछ भी न था वहां मरुद्यान खड़े हो जाते हैं। मरुस्थल मरुद्यानों में बदल जाते हैं। शब्दों में नये—नये काव्य, नये—नये गीत, नये—नये स्वर प्रगट होने लगते हैं।
मगर एक दिन बहुत मुश्किल हो गयी। क्योंकि रामदास वर्णन कर रहे थे हनुमान जी का ही, कि हनुमान जी गये सीता से मिलने अशोकवाटिका में और उन्होंने अशोकवाटिका में यह देखा कि चारों तरफ सफेद ही सफेद फूल खिले हुए हैं—चांदनी के, जुही के, चमेली के, सफेद ही सफेद फूल। अशोकवाटिका में सफेद ही सफेद फूल थे। हनुमान जी ही ठहरे! यूं तो वे कम्बल वगैरह ओढ़कर छिपकर बैठें थे कि पूंछ वगैरह दिखायी न पड़ जाए किसी को। खड़े हो गये। भूल ही गए कि हम हनुमानजी हैं और हमको इस तरह बीच में खड़े नहीं होना चाहिये। कहा कि बस, और सब तो ठीक है, यह बात गलत है। रामदास जैसे लोग, इस तरह की कोई हरकत करे!...... जैसे यहां कोई हनुमान जी खड़े हो जाएं!...... तो रामदास ने कहा', चुप! चुपचाप बैठ जा! हनुमान जी से कह दिया कि चुपचाप बैठ जा! रामदास जैसे फक्कड़ों का तो अपना हिंसाब है। वह तो हनुमान जी को क्या, रामचन्द्र जी को कह दें कि चुप! बीच—बीच में नहीं बोलना! शांति रखो!
हनुमान जी ने कहा, अरे, हद हो गयी। कम्बल भी फेंक दिया, कहा कि पहले देखो कि मैं कौन हूं! मैं खुद हनुमान हूं और मुझसे तुम कह रहे हो कि चुप बैठ जा! मैं गया था अशोकवाटिका कि तुम गये थे? कि तुम्हारा बाप गया था? मैं गया था और तुमसे कहता हूं कि फूल सब लाल रंग के थे? सफेद नहीं थे। अपनी कहानी में बदलाहट कर लो! रामदास तरह के लोग तो बड़े अलग ढंग के होते हैं, उन्होंने कहा, तुम हनुमान हो या कोई, तमीज रखो बदतमीजी नहीं चलेगी! उठाओ अपना कम्बल और शाति से बैठ जाओ! और मैं कहता हूं कि फूल सफेद थे और कहानी में फूल सफेद ही लिखे जाएंगे, मेरी कहानी को कोई नहीं बदल सकता। हनुमान जी तो बहुत गुस्से में आ गये। उन्होंने कहा कि मैं नहीं चलने दूंगा; तुम्हें मेरे साथ रामचन्द्र जी के पास चलना पड़ेगा। यह फैसला उन्हीं के सामने होगा। अब तुम मानते नहीं हो और मैं चश्मदीद गवाह हूं और तुम देख रहे हो कि मैं हनुमान हूं।. .सारी जनता प्रभावित हो गयी कि बात तो ठीक है, हनुमान जी खुद खडे हैं, अब जब ये कह रहे हैं तो यह रामदास को क्या हुआ है? बहक गये हैं क्या? अरे, बदल ले, इतनी—सी बात है! मगर रामदास जैसे लोग बदलते नहीं। चाहे कुछ भी हो जाए! उन्होंने कहा, ठीक है, रामचन्द्र जी के पास चलो, सीता मैया के पास चलो—जहां चलना हो!
हनुमान जी बिठाकर कंधे पर रामचन्द्र जी के पास ले गया। रामचन्द्र ने कहा कि हनुमान, पहले तो तुम्हें वहा जाना नहीं था। और गये अगर तुम तो अपने कम्बल में छिपा रहना था। और अगर तुम्हें बात गलत जंच रही थी तो एकांत में जाकर उनसे बात करनी थी। और फिर मुझसे भी पूछ लेना था, इसके पहले कि विवाद करो। रामदास जैसे आदमी से विवाद नहीं करना चाहिए। अरे, हनुमान जी ने कहा, हद हो गयी! आप भी इस तरह से बोल रहे हो, पक्षपात चल रहा है! न्याय का तो कहीं कोई हिसाब ही नहीं रहा! मैं गया अशोकवाटिका कि तुम गये थे, जी? न तुम गये, न ये रामदास का बच्चा गया, कोई कहीं गया? मैं गया था! तुम हो कौन? यह मेरी भलमनसाहत है कि मैं तुम्हारे पास लाया। रामदास का हाथ पकड़कर कहा कि चलो जी, सीता मैया के पास चलो! वही एक गवाह हैं, क्योंकि वे वहां रही थीं। इनको क्या पता? नाहक ही बीच में अड़ंगेबाजी कर रहे हैं। न इनको पता है, न तुमको पता है!
सीता के पास ले गये उनको। सीता ने कहा, हनुमान, शांत हो जाओ, फूल सफेद ही थे! रामदास जैसे आदमी से जिद्द नहीं करनी चाहिए। ये कहते हैं तो सफेद ही थे। हनुमान थीड़े ठंडे हुए कि अब बड़ा मुश्किल हो गया मामला! अब कहां से—और तो कोई गवाह ही नहीं है! अब सीता भी बदल गयीं! जिसको मैं ही बचाकर लाया और इतने उपद्रव किये—क्या—क्या उपद्रव नहीं करने पड़े! कहा—कहा की झझटें सिर पर नहीं आयीं! —और ये रामदास कौन सा खास काम कर दिया है जिसकी वजह से रामचन्द्र जी भी इसके साथ हैं, सीता भी कहती हैं कि ठीक ही कहते हैं, सफेद ही थे। तो हनुमान ने कहा कि मैं इतना भी पूछ सकता हूं कि ये सब मेरे साथ अन्याय क्यों हो रहा है? सीता ने कहा, अन्याय नहीं हो रहा है र हनुमान, तुम समझे नहीं; तुम इतने क्रोध में थे कि तुम्हारी आंखों में खून भरा हुआ था, इसलिए फूल तुम्हें लाल दिखाई पड़े थे। फूल तो सफेद ही थे। तुम्हारी दृष्टि क्रोध से भभक रही थी, सुर्ख हो रही थीं तुम्हारी आंखें—मैंने तुम्हारी आंखें देखी थीं—अता जल रही थी उनमें, खून उतरा हुआ था, तुम पर खून सवार था, तुम्हें कैसे फूल सफेद दिखायी पड़ते? तुम्हें हर चीज लाल दिखाई पड़ रही थी। रामदास जो कहते हैं, ठीक कहते हैं, फूल सफेद ही थे।
जब दृष्टि एक रंग से भरी हो, तो यह भूल हो जाना स्वाभाविक है। क्रोधित आदमी कुछ देख लेता है, शांत आदमी कुछ और देखता है। विचार से भरा हुआ कुछ देखता है। निर्विचार से भरा हुआ व्यक्ति कुछ और देखता है। यह समाधि का अनुभव है।

 जिसे तू कहीं भी न पा सका
मुझे अपने दिल में वो मिल गया
तुझे जाहिद इसका मलाल क्या
ये नजर नजर की तलाश है

 सच्चा खोजी तो नजर की तलाश करता है; उस नजर की जिस पर कोई पर्दा न हो—उस दृष्टि की, उस सम्यक् दृष्टि की, उस सम्यक् दर्शन की, उस समाधि की, उस सम्बोधि की।
मैत्रेयी उपनिषद् का सूत्र स्पष्ट है कि समाधि में जीव और आत्मा की दुई मिट जाती है। वे दो नहीं रह जाते। कभी थे भी नहीं, यह भी अनुभव हो जाता है। दुई हमारी भ्रांति थी। जैसे तुमने दो और दो चार गलती से पांच जोड़ रखे हैं। हिसाब करने बैठे हो, दो और दो चार, तुमने गलती से पांच लिख दिए। फिर किसी ने बताया कि दो और दो चार रहेंगे। और अब जब तुम्हें पता चल गया है दो और दो चार हैं _ तो क्या तुम कहोगे कि अब मुझे भाव हुआ कि दो और दो चार ही होते हैं, पांच नहीं। तो क्या तुम सोचते हो जब तुमने पांच लिखे थे तब दो और दो पांच हो गए थे? जब तुमने पांच लिखे थे तब भी वो चार ही थे। तुम लाख पांच लिखी, दो और दो चार ही रहेंगे। और अब जब तुम्हें पता चल गया है, दो और दो चार है, तो क्या तुम कहोगे कि अब मुझे भाव हुआ कि दो और दो चार ही होते हैं? नहीं, अब तुम कहोगे, मेरा पहला भाव गलत था। पहला भाव था मेरा कि दो और दो पांच होते हैं और अब जो हो रहा है, यह सत्य है कि दो और चार हैं। पहला था भाव और अब है अनुभूति।
कर्मत्यागान्न संन्यासौ न प्रैषोच्चारणेन तु।
संधौ जीवात्मनोरैक्यं संन्यास: परिकीर्तित:।।
समाधि में अनुभव होता है : दो नहीं हैं। और इस अनुभूति का नाम ही संन्यास है। इसलिये कोई संसार में करे कि पहाड़ में करे, कोई फर्क नहीं पड़ता। मुझसे तुम पूछो तो मैं कहूंगा : संसार में रहकर ही यह अनुभव करना उचित है, क्योंकि वहा परीक्षा है; वहा अवसर है परखते रहने का; कसौटी है।

 हमन है इश्क मस्ताना हमन को होशियारी क्या?
रहे आजाद या जग में, हमन दुनिया से यारी क्या?
जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर—बदर फिरते।
हमारा यार है हममें, हमन को इंतजारी क्या?
खलक सब नाम अपने को, बहुत कर सर पटकता है।
हमन हरि—नाम रांचा है, हमन दुनियां से यारी क्या?
न पल बिछुड़े पिया हमसे, न हम बिछुड़े पियारे से।
उन्हीं से नेह लागा है, हमन को बेकरारी क्या?
कबीरा इश्क का माता, दुई को दूर कर दिल से।
जो चलना राह नाजुक है, हमन सर बोझ भारी क्या?

ये सिर पर बहुत से विश्वासों और शास्त्रों का बोझ, सिद्धान्तों का बोझ व्यर्थ का भार है।

 कबीरा इश्क का माता, दुई को दूर कर दिल से।

 दो है नहीं, दुई हमारे दिल की भ्रांति है।
जब यह दुई की भांति गिर जाती है तब समाधि है। समाधि में समाधान है। और समाधिस्थ व्यक्ति के जीवन का नाम संन्यास है।

 अगर है शौक मिलने का, तो हरदम ली लगाता जा।
जलाकर खुदनुमाई को, भसम तन पर लगाता जा।।
पकड़कर इश्क की झाड— सफा कर हिजरए दिल को।
दुई की धूल को लेकर मुसल्लह पर उडाता जा।।
मुसल्लह फाड़, तसबीह तोड़, किताबें डाल पानी में।
पकड़ तू दस्त फिरश्तों का, गुलाम उनका कहाता जा।।
न मर भूखों, न रख रोजह, न जा मस्जिद, न कर सिजदा।
वक्ता तोड़ दे कूजा, शराबे शौक पीता जा।।
हमेशा खा, हमेशा पी, न गफलत से रहो इकदम।
नशे में सैर कर, अपनी खुदी को तू जलाता जा।।
न हो मुल्ला, न हो ब्रह्मन, दुई की छोड्कर पूजा।
हुक्म है शाह कलन्दर का, अनलहक तू कहाता जा।
कहे मंसूर मस्ताना, मैंने हक दिल में पहचाना।
वही मस्तों का मयखाना, उसी के बीच आता जा।।

 समाधि की शराब पीओ। उसकी मस्ती में डूबो। और जब तुम्हारे जीवन में वह शराब बहेगी तब संन्यास है। संन्यास उस मस्ती का नाम है जहां दुई गिर जाती है, जहां हम चांद—तारों, आकाश—बादलों, सूरज—पहाड़ों, सबके साथ अपने को एकात्म रूप से, सदैव शाश्वत रूप से जुडा हुआ पाते हैं। कभी टूटे नहीं और न कभी टूट सकते हैं, इस बात की अपरिहार्य प्रतीति संन्यास है।
आज इतना ही।

 'लगन महूरत झूठ सब' प्रवचनमाला से
दिनांक 26 नवम्बर 1980; श्री रजनीश आश्रम, पूना


1 टिप्पणी: