दिनांक
6 अगस्त 1978;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
प्रश्नसार:
1—क्या
भक्ति में
डूबने के
पूर्व जीवन की
बहुत—सी
समस्याएं
सुलझाना
आवश्यक नहीं
है?
2—मनुष्य—जीवन
का संघर्ष
क्या है?
3—वासना
क्या है और
प्रार्थना
क्या है?
4—क्या
अंतसमय में
रामनाम लेने
से मुक्ति हो
जाती है?
पहला
प्रश्न :
जीवन
में बहुत दुःख
हैं और बहुत—सी
समस्याएं
हैं। क्या
प्रेम और
भक्ति में डूबने
के पूर्व
उन्हें
सुलझाना
आवश्यक नहीं
है?
भाई
मेरे, उन्हें सुलझाओगे
कैसे? उलझाव
ही यही है कि
प्रेम का अभाव
है। जीवन की
समस्याएं ही
इसलिए हैं कि
प्रेम के रसस्रोत
से हमारे
संबंध छूट गए
हैं। भक्ति का
प्रवाह नहीं
है इसलिए जीवन
में समस्याओं
के डबरे
भर गए हैं।
तुम तो
यह कह रहे हो, अभी
लोग बहुत
बीमार हैं, अभी औषधि की
बात करने से
क्या फायदा? पहले लोग तो
ठीक हो लें, पहले लोग स्वस्थ
हो लें फिर
औषधि की चिंता
करेंगे। तुम्हारा
प्रश्न ऐसा
है।
भक्ति
औषधि है।
भक्ति का अर्थ
क्या है? भगवान
से जुड़ने
का उपाय। उससे
नहीं जुड़े हैं
यही तो दुःख
है। उससे टूट
गए हैं यही तो
पीड़ा है। उसे
भूल गए हैं, विस्मरण कर
बैठे हैं यही
तो अंधकार है।
उसकी तरफ पीठ
कर ली है और
कचरे की तरफ
उन्मुख हो गए
हैं। धन से
जुड़ गए हैं, ध्यान से
टूट गए हैं।
पद से जुड़ गए
हैं, परमात्मा
से टूट गए
हैं। देह से
जुड़ गए हैं, आत्मा से
टूट गए हैं।
इससे ही जीवन
में इतना दुःख
है।
और यह
दुःख बिना
प्रेम और
भक्ति में
डूबे मिटेगा
नहीं। और ये
समस्याएं
उलझी ही
रहेंगी। तुम
जितना सुलझाओगे
उतनी उलझती
जाएंगी
क्योंकि तुम
ही उलझे हुए हो।
तुम तो सुलझो!
सुलझानेवाला
तो सुलझे!
तुम जो भी
करोगे, गलत
हो जाएगा।
ऐसा ही
समझो कि एक
पागल आदमी भवन
बनाए। यह भवन बनेगा
नहीं। बनेगा
भी तो गिरेगा।
इससे तो बिना
भवन के रह
लेना बेहतर
है। इस पागल
आदमी ने बहुत
भवन बनाए हैं, सब
गिर गए । यह
पागल आदमी जो
भी करेगा
उसमें इसके
पागलपन की छाप
होगी।
आदमी
ने कुछ कम
उपाय किए हैं
समस्याएं हल
करने के लिए? समस्याएं
कम हुईं? पांच
हजार साल में
एक भी समस्या
नहीं मिटी। हां,
पांच हजार
साल के लंबे
चेष्टा के
इतिहास में नई—नई
समस्याएं
जरूर खड़ी हो
गईं। पुरानी
अपनी जगह हैं
और नई
समस्याओं की कतारें
बंध गई हैं।
पुरानी
समस्या तो
जाती ही नहीं,
उसको
सुलझाने में
नई समस्याएं
और आ जाती
हैं।
लेकिन
कुछ लोग इस
पृथ्वी पर हुए
हैं जिनके जीवन
में समस्या
नहीं थी, जिनके
जीवन में
समाधान था।
लेकिन समाधान
आता कहां से
है? समाधान
आता है समाधि
से। ये दोनों
शब्द एक ही धातु
से बने हैं।
जिसका चित्त
भीतर मौन हो
जाता है, शून्य
हो जाता है, उस शून्य
चित्त में
पूर्ण का
अवतरण होता
है।
और
तुम्हारे
भीतर
परमात्मा का
प्रकाश आ जाए
तो सारी
समस्याएं ऐसे
ही तिरोहित हो
जाती हैं, जैसे
दीये के जल
जाने पर
अंधेरा
तिरोहित हो जाता
है; या
सूरज के निकल
आने पर रात
विदा हो जाती
है। अंधेरी
रात में तुम
पक्षियों से
कितनी ही प्रार्थनाएं
करो कि गाओ
गीत, कि खोलो
कंठ; कि
कोयल, तुझे
हुआ क्या? क्यों
चुप हो? तुम्हारी
सब चेष्टाएं
व्यर्थ
जाएंगी। सूरज
को उगने दो, पक्षियों के
कंठों से
गीतों के झरने
फूटने लगेंगे।
अनायास हो
जाता है।
परमात्मा
के जैसे ही
कोई व्यक्ति
करीब पहुंचना
शुरू होता है, उसके
जीवन से झरने
फूटने शुरू हो
जाते हैं। उसके
जीवन की छाया
में जो भी आ
बैठता है वह
भी भर जाता
है। उसका
प्यासा कंठ भी
पहली बार अमृत
का स्वाद लेता
है।
तुमने
जो प्रश्न
पूछा, कुछ नया
नहीं। बार—बार
पूछा गया है, सदियों में
पूछा गया है।
कवियों ने गीत
लिखे हैं कि
अभी प्रेम
कैसे करें?
भटक
रहे हैं अभी
कारवां गरीबी
के
लरज
रही है जबीं
आस्मानों—अंजुम की
तरस
रहे हैं खुशी
के लिए हजारों
दिल
अभी
लबों को इजाजत
नहीं तबस्सुम
की
अभी हंसें
कैसे? अभी
ओंठों को
हंसने की
इजाजत नहीं
है। अभी बहुत
गरीबी है; गरीबी
के काफिले के
काफिले चल रहे
हैं।
तुम
सोचते हो, तुम्हारे
हंसने को रोक
लेने से गरीबी
के काफिले रुक
जाएंगे? तुम
हंसो तो
गरीबी मिटे।
तुम्हारे
रोने से गरीबी
मिटनेवाली
नहीं है।
तुम्हारे
हंसने से फूल झरें.....। और
ऐसा अक्सर हो
गया है कि
जिसके पास कुछ
भी नहीं था और
अगर हंस पाया
है दिल खोलकर
तो अमीर हो
गया है। और
जिनके पास सब
कुछ है, अगर
हंस भी नहीं
पाते हैं दिल
खोलकर, तो
उनकी अमीरी दो
कौड़ी की
है। उनसे
ज्यादा भिखमंगे
और तुम कहां खोजोगे?
मैं
तुझको भूल गया
हूं इसका ऐतबार
न कर
मगर
खुदा के लिए
मेरा इंतजार न
कर
अजब
घड़ी है मैं इस
वक्त आ नहीं
सकता
सरूरे—इश्क
की दुनिया बसा
नहीं सकता
कवि
सदा कहते रहे
हैं,
अभी कैसे हम
प्रेम की
दुनिया बसाएं?
पहले ठीक तो
हो ले सारा
इंतजाम। पहले
अर्थ—व्यवस्था
बदले, क्रांति
हो, फिर हम
प्रेम
करेंगे। हम तो
तब प्रेम
करेंगे जब——
सनमखानों के दरवाजों
पै ताले पड़
चुके होंगे
मजाहब गल
चुके होंगे, अकाइद सड़ चुके
होंगे
नई
रूहें, नए कालिब, नया
मकसद, नया
मंशा
जनूने—सरफरोशी
बाइसेत्तामीरे—नौ
होगा
जब नई
सुबह होगी, नए
मनुष्य का
जन्म होगा——तब!
उसके पहले
नहीं। तब तो
तुम कभी प्रेम
न कर पाओगे।
और प्रेम ही न
किया तो भक्ति
तो फिर बहुत
दूर का पड़ाव
है। प्रेम का
अंकुर ही न
फूटा तो भक्ति
का पौधा कभी
बड़ा न होगा।
प्रेम के ही
पौधों में
भक्ति की
संभावना है।
प्रेम का पौधा
ही बढ़ते—बढ़ते
एक दिन भक्ति
के फूलों में
रूपांतरित होता
है।
जाग
उठो वक्फएत्तब्दीर
मिले या न
मिले
ख्वाब
फिर ख्वाब है, ताबीर
मिले या न
मिले
हम
तो खून अपना चिरागों
में जलाते
जाएं
इससे
क्या, सुबह
की तनवीर
मिले या न
मिले
फिर
लोगों ने देखा
भी कि हजारों
तो साल हो गए, क्रांति
आती नहीं, कुछ
बदलता नहीं।
बाहर की
दुनिया तो
वैसी की वैसी,
नरक की नरक
बनी रहती है।
नाम बदल जाते
हैं, लेबल
बदल जाते हैं;
और कुछ भी
नहीं बदलता।
तो फिर.....।
तो भी
चलते रहो। तो
भी क्रांतिकारी
कहता है, जाग
उठो वक्फएत्तब्दीर
मिले या न
मिले। कोई
फिक्र न करो, मंजिल हाथ
आएगी कि नहीं।
ख्वाब
फिर ख्वाब है, ताबीर
मिले या न
मिले——यह सपना
देखने जैसा है
कि दुनिया
अच्छी बनाएंगे।
फिर दुनिया
अच्छी बने या
न बने।
हम
तो खून अपना चिरागों
में जलाते
जाएं
इससे
क्या, सुबह
की तनवीर
मिले या न
मिले
सुबह
हो या न हो, मगर
हम अपना खून चढ़ाते
जाएं, हम
अपनी
कुर्बानी
देते जाएं।
आदमी ने बहुत
कुर्बानी दी
और सब व्यर्थ
गईं। आदमी ने
बहुत—सी वेदियों
पर अपने को चढ़ाया,
और सब वेदियां
झूठी सिद्ध
हुई हैं। कोई
तारा नहीं उगा,
कोई प्रकाश
नहीं जन्मा।
हां, लेकिन
कुछ लोगों के
जीवन में तारे
उगे हैं——कोई
बुद्ध, कोई
मीरा, कोई जगजीवन, कोई कबीर, कोई नाचा!
तुम
क्या सोचते हो, कबीर
नाचे तब
दुनिया की
सारी
समस्याएं हल
हो गई थीं? समस्याएं
अपनी जगह थीं
फिर भी कबीर
नाचे। और कबीर
के नाचने से
समस्याओं के
हल होने की
तरफ इशारा
हुआ। अगर कबीर
नाच सकते हैं
समस्याओं के
रहते हुए तो
तुम क्यों नहीं
नाच सकते? और
अगर सारी
दुनिया यह तय
कर ले कि
समस्याओं को
रहने दो, हम
नाचेंगे, हम
गाएंगे, हम प्रेम भी
करेंगे, हम
कल की
प्रतीक्षा न
करेंगे, हम
आज जिएंगे,
तो मैं
तुमसे कहता
हूं, समस्याएं
मिट जाएं।
इतने लोग नाचे,
इतने लोग
गीत गाएं, समस्याएं
टिकेंगी
कहां? किस
हृदय में जगह
बना सकेंगी? जहां नाच भर
जाएगा वहां से
समस्याओं को
विदा हो जाना
होगा। और जहां
प्रेम उमगेगा
वहां से उलझनें
अपने आप गिर
जाएंगी।
प्रेम
सुलझाता है।
और
भक्ति तो परम
समाधान है।
भक्ति का अर्थ
यही है कि
मेरी कोई
समस्या न रही।
जो पाना था, पा
लिया। जिसे
पाना था, पा
लिया। और जिसे
पाना था उसे
अपने भीतर पा
लिया; उसे
स्वयं में पा
लिया। वही
मेरा स्वरूप
है।
ऐसे
सच्चिदानंद
में जो भर गया, डूब
गया, रसलीन हो गया, यह
व्यक्ति दूसरों
के बुझे दीये
भी जला सकता
है। इसके पास,
इसके
सत्संग में नई
किरणें उतर
सकती हैं। इसके
सिवा दुनिया
की समस्याओं
को मिटाने का
और कोई उपाय
नहीं है।
तुम
कहते हो, जीवन
में बहुत दुःख
हैं। मैं भी
यही कहता हूं कि
जीवन में बहुत
दुःख हैं।
लेकिन
तुम्हारे कारण
और मेरे कारण
भिन्न हैं।
तुम सोचते हो,
जीवन में
दुःख हैं
क्योंकि धन
नहीं है, धन
बढ़ जाए तो
दुःख कम हो
जाएं। अमरीका
में धन बढ़ गया,
दुःख कम
नहीं हुए, बढ़
गए; धन के
साथ बढ़ गए।
गरीब आदमी
कितने दुःख खरीदेगा? उसकी हैसियत
भी कम होती
है। दुःख
खरीदने की भी
हैसियत होनी
चाहिए न! अमीर
आदमी बड़े—बड़े
दुःख खरीदता
है; खरीद
सकता है। न खरीदेगा
तो धन का मतलब
क्या है?
मैंने
सुना है, एक
दर्जी हर
महीने लॉटरी
की टिकट खरीद
लेता था।
सालों से, वर्षों
से चल रहा था।
यह उसकी आदत
ही हो गई थी, एक टिकट
खरीद लेना हर
महीने। इससे
ज्यादा की हैसियत
भी न थी। एक
रुपए की एक
टिकट खरीद
लेता। कोई बीस
साल तक यही
करता रहा। और
एक दिन द्वार
पर एक बहुमूल्य
कार आकर रुकी,
लोग नीचे
उतरे, थैलियों में भरे हुए
नोट लाए और
कहा कि
तुम्हें
पुरस्कार मिल
गया है।
उसे तो
भरोसा ही नहीं
आया अपनी
आंखों पर।
उसने तो बात
ही छोड़ दी थी।
वह तो खरीदता
जाता था, आदत
हो गई थी। हर
महीने खरीदनी
है एक तो खरीद
लेता था। यह
सोचा नहीं था
कि मिलेगी।
लाखों रुपए
मिल गए लॉटरी
में।
उसने
तो ताला बंद
कर दिया। अब
काहे के लिए
वह दर्जीगीरी
करे?
सामने ही
कुआं था, चाबी
कुएं में फेंक
दी। अब क्या
प्रयोजन रहा?
साल भर में
पैसा तो फुंक
गया। शराब पी,
वेश्याओं
को भोगा, दुनिया
भर की यात्रा
कर आया। जितने
भी खर्च के
उपाय हो सकते
थे, सब कर
डाले। साल भर
में रुपया
खत्म हो गया।
रुपया ही खत्म
नहीं हुआ, दर्जी
भी आधा खत्म
हो गया। नींद
भी चली गई, चैन
भी चला गया।
बड़ा पछताने
लगा। परमात्मा
से प्रार्थना
करने लगा कि
तूने किस पाप
का मुझे यह
दंड दिया कि लॉटरी
मेरे नाम खोली?
तुझे और कोई
पापी न मिला? जिंदगी चैन
से चलती थी।
अपने दो पैसे
कमा लेता था, खाता था, पीता
था। रात शांति
से सोता तो था!
यह तो बड़ा उपद्रव
हो गया। आज टोकियो,
कल कलकत्ता,
परसों
दिल्ली.....जाना
ही पड़े। अब
करे भी क्या? रुपया जो
पास आ गया! आज
यह स्त्री, कल वह
स्त्री..... जाना
ही पड़े। करे
क्या? महंगे
से महंगे भोजन,
जो पचे भी
न। मगर करो
क्या? अब
गरीब की तरह
रूखी—सूखी
रोटी खाओ तो
दुनिया मूढ़
कहे न! अब गरीब
की तरह के
दुःख भोगो तो
अच्छा लगे? अब तो अमीर
के दुःख भोगना
पड़ेंगे। अमीर
के अपने दुःख
हैं। उसे रात
नींद नहीं
आती।
साल भर
में सब फुंक
गया। जब साल
भर बाद लौटा
तो उसके पड़ोसी
उसे पहचान भी
न सके।
बिल्कुल पिचक
गया था। डालडा
का खाली
डब्बा!
बिल्कुल पिचक
गया था। लोग
पहचाने भी
नहीं। आंखें
भीतर घुस गई
थीं,
चश्मा चढ़
गया था। लोगों
ने कहा, अरे
क्या तुम वही
हो जो यहां
दर्जी का काम
किया करता था?
मगर तुम तो
बड़े मस्त हुआ
करते थे। यह
तुम्हारी
क्या हालत हुई?
हम तो सोचते
थे, तुम
मजा लूट रहे
हो। उसने कहा,
मजे में ही
यह हालत हुई।
अब कुएं में
उतरना, चाबी
खोजना——!
कुएं
में उतरा, बामुश्किल
चाबी खोज
पाया। फिर
अपनी दुकान शुरू
कर दी। मगर
पुरानी आदत!
फिर उसने वह
एक रुपए की
टिकट खरीदनी
शुरू कर दी।
यह बिल्कुल
संयोग की बात
है लेकिन एक
साल बीता कि
उसको लॉटरी
फिर मिल गई।
जब उसको लॉटरी
मिली, उसने
अपना सिर पीट
लिया। उसने
कहा, मारे
गए! हे भगवान, तू क्यों यह
कष्ट दे रहा
है? अब फिर
उसी झंझट में
से गुजरना
पड़ेगा?
मगर
गुजरना पड़ा।
क्योंकि जब
हाथ पैसा आ
जाए,
करो भी क्या?
आदमी का
अज्ञान ऐसा, मूर्च्छा
ऐसी। मगर इस
बार लौट नहीं
पाया। आधा तो
पहले ही खत्म
हो गया था, आधा
इस बार खत्म
हो गया।
तुम यह
मत सोचना कि
धन के बढ़ने से
लोगों के दुःख
कम हो जाते
हैं। नहीं तो
अमरीका में
दुःख कम हो
जाते। तुम यह
भी मत सोचना
कि सबके पास
समान धन का
वितरण हो जाए
तो दुःख कम हो
जाते हैं। नहीं
तो रूस में
दुःख कम हो
जाते हैं।
समान धन का वितरण
करने में रूस
में आदमी की
आजादी भी चली
गई,
आत्मा भी
चली गई। समान
धन का वितरण
हो गया! साम्यवाद
आ गया, आदमी
की आत्मा सूख
गई।
सब तरह
के उपाय हो
चुके हैं। सब
उपाय असफल भी
हो चुके हैं।
सिर्फ एक उपाय
असफल नहीं हुआ
है क्योंकि
उसका वृहत
पैमाने पर
प्रयोग ही
नहीं हुआ है।
उसको असफल होने
का भी मौका
नहीं मिला, सफल
होने की तो
बात अलग।
बुद्धों ने जो
कहा है, वह
इक्के—दुक्के
लोगों ने
प्रयोग किए
हैं। और
जिन्होंने भी
प्रयोग किए
हैं उनके जीवन
में अपूर्व महिमा
प्रकट हुई है।
बड़े पैमाने पर
उसका प्रयोग नहीं
हुआ। अधिक लोग
उस रंग में
डूबे नहीं।
मैं तुमसे
जो भक्ति की
बात कह रहा
हूं,
इसीलिए कह
रहा हूं।
क्योंकि
मनुष्य जाति
के पूरे
इतिहास का
निष्कर्ष यही
है कि अगर राम
मिले तो सब
मिले। राम
चूका तो सब
चूका। फिर राम
जैसे भी मिले,
खोजो।
ध्यान से मिले,
ध्यान से
खोजो; प्रेम
से मिले, प्रेम
से खोजो। जिस
द्वार से मिलता
हो उसी द्वार
से प्रवेश कर
जाओ। द्वारों की
फिक्र मत करो।
कुरान से मिले
तो ठीक, और
गीता से मिले
तो ठीक; जहां
से मिले, जैसे
मिले! इसकी
फिक्र मत करना
किस नाव में
बैठकर उस तरफ
पहुंचे। उस
तरफ पहुंचो,
नाव कोई भी
हो——बड़ी हो कि
छोटी हो। एक
ही ध्यान अगर
रहे कि परमात्मा
से अपनी जड़ों
को जोड़ लेना
है तो तुम पाओगे,
तुम्हारे
दुःख मिटे।
और जिस
ढंग से
तुम्हारे
दुःख मिटते
हैं उसी ढंग
से सारी
दुनिया के
दुःख मिट सकते
हैं। क्योंकि
दुनिया में
व्यक्ति ही
हैं,
समाज कहां
है? तुम्हें
कभी समाज मिला——कि
चले जा रहे
हैं रास्ते पर,
समाज मिल
गया! चले जा
रहे हैं
रास्ते पर, देश मिल गया!
देश और समाज
कोरे शब्द
हैं। जो मिलता
है वह तो
व्यक्ति है।
अगर एक बुद्ध
के जीवन में
हो सकती है
बात, अगर
मेरे जीवन में
हो सकती है तो
तुम्हारे जीवन
में हो सकती
है। क्योंकि
हम सब एक
हड्डी—मांस—मज्जा
के बने हैं और
एक—सी
क्षमताएं हैं
हमारी।
इसलिए
मैं हिंदुओं
की अवतारवाली
धारणा में
बहुत रस नहीं
लेता; उसमें
थोड़ी भूल है।
मुझे जैनों और
बौद्धों की धारणा
ज्यादा
सार्थक मालूम
होती है।
हिंदू कहते
हैं, परमात्मा
अवतरित होता
है ऊपर से।
उससे आदमी की
आशा नहीं
जगती। तो ठीक
है, कृष्ण
भगवान के घर
से आए थे, पूर्ण
अवतार थे, ठीक
है, मस्त
रहे। हम जैसे
थे ही नहीं।
विशिष्ट थे, अवतार थे।
हम क्या करें?
हम तो अवतार
नहीं हैं।
अवतार
की धारणा में
आदमी को
परमात्मा से
तोड़ ही दिया
गया। तो जो
ऊपर से
उतरेंगे, ठीक
है, मस्त
होंगे, आनंदित
होंगे, रसपूर्ण
होंगे——कोई
राम, कृष्ण!
हम तो हड्डी—मांस—मज्जा
के बने आदमी
हैं, हम तो
इसी मिट्टी से
उठे हैं, इसी
मिट्टी में जिएंगे, इसी मिट्टी
में सरकेंगे।
हम कैसे आकाश
में उड़े? हमारे पास
पंख कहां हैं?
वे दिव्य
पुरुष थे, उनके
पास देह दिव्य
थी। वे अमृत
पुरुष थे। वे अमृत
के घर से आए
थे। वे विशेष
थे, संदेशवाहक
थे।
इस बात
में मुझे बहुत
ज्यादा रस
नहीं है क्योंकि
यह बात मनुष्य
को आशा नहीं
देती, मनुष्य
की आशा को
क्षीण करती
है।
जैनों—बौद्धों
की धारणा
ज्यादा
महत्त्वपूर्ण
है,
ज्यादा
गौरवपूर्ण
है। जैन और
बौद्ध कहते
हैं, परमात्मा
ऊपर से नहीं
उतरता, तुम्हारे
भीतर से ऊपर
की तरफ जाता
है; उठता
है। जैसे बीज
से अंकुर उठता
है, जैसे
दीये से
ज्योति ऊपर की
तरफ उठती है, जैसे धूप से
धुआं ऊपर की
तरफ उठता है।
परमात्मा
तुम्हारी
सुवास है जो
आकाश की तरफ
उठने लगती है।
महावीर
मनुष्य हैं, बुद्ध
भी मनुष्य
हैं। और
मनुष्य होते
हुए परम सत्ता
को पाया है।
उसमें
आश्वासन है।
इसमें
तुम्हारे लिए आशा
है। इसका अर्थ
हुआ : तुमसे
जरा भी भिन्न
नहीं हैं
बुद्ध।
बुद्ध
ने कहा है
अपने शिष्यों
से,
एक दिन मैं
तुम जैसा था।
और मैं तुमसे
कहता हूं, एक
दिन तुम मेरे
जैसे हो जाओगे
क्योंकि हम एक
ही जैसे हैं।
जैसे आज तुम
अंधेरे में
भटकते हो, मैं
भी भटकता था।
और जैसे आज
तुम्हें
चिंताएं घेरती
हैं, मुझे
भी घेरती थीं।
और जैसे आज
विचारों की
भीड़ तुम्हें
दबाए रखती है,
तुम्हारी
छाती पर बैठी
रहती है, मेरी
छाती पर भी
बैठी थी। आज
मैं उसके बाहर
हुआ हूं, कल
तुम भी हो
सकते हो। मैं
तुम्हारा
भविष्य हूं।
मुझे देखकर
तुम्हें अपने
पर श्रद्धा
आनी चाहिए।
बुद्ध
ने बड़ी अनूठी
बात कही : मुझे
देखकर
तुम्हें अपने
पर श्रद्धा
आनी चाहिए।
हड्डी—मांस—मज्जा
के मुझ मनुष्य
में यह हो
गया। तुम भी
हड्डी—मांस—मज्जा
के हो, तुममें
भी यह हो सकता
है। जब बीज
देख ले किसी
वृक्ष को अपने
पास आकाश में
उठा हुआ, तो
भरोसा आ जाता
है कि अगर
किसी और बीज
से वृक्ष पैदा
होते हैं और
फिर तारों से
बातें करते हैं
और बदलियों के
साथ अठखेलियां
करते हैं और
हवाओं में
नाचते हैं तो
मेरे भीतर भी
सोया हुआ है
कोई। उसे जगाऊं,
उसे पुकारूं।
जब मैं
तुमसे कहता
हूं,
परमात्मा
से जुड़ना
है तो तुम यह
मत सोचना कि
आकाश में बैठे
किसी परमात्मा
से जुड़ने
की मैं बात कर
रहा हूं। मैं
यही कह रहा
हूं, तुम्हारे
भीतर छिपी हुई
संभावना को
वास्तविक
करना है। तुम
भक्त बनो ताकि
भगवान बन सको।
इससे कम पर
राजी मत होना।
इससे कम पर जो
राजी हो गया
उसने
परमात्मा ने
जो भेंट दी थी
उसे अंगीकार
नहीं किया।
तुम्हारे
भीतर कुंजी
छिपी है; सारे
रहस्य खुल
जाएंगे उससे।
और तुम्हारी
समस्या मिटे
तो तुम्हारे
आसपास की
समस्याएं मिटनी
शुरू हो जाती
हैं।
तुमने
देखा नहीं, अगर
तुम क्रोधित
हो तो तुम
आसपास पच्चीस
तरह की
समस्याएं खड़ी
कर देते हो।
क्रोधी आदमी
अकेला ही थोड़े
समस्या में
रहता है। उसके
क्रोध के कारण
और लोगों के
जीवन में
समस्याएं खड़ी
कर देता है।
किसी को गाली
देगा, किसी
को मार देगा, किसी का
अपमान करेगा।
समस्याओं का
जाल फैलना
शुरू हो गया।
एक जरा—सा
कंकड़ झील
में फेंको, लहरें
उठनी शुरू हो
जाती हैं। और
फिर वे लहरें
दूर—दूर
किनारों तक
जाएंगी, अनंत
हो जाएंगी। एक
आदमी गाली
देता है तो
उसने एक कंकड़
फेंका चैतन्य
के सागर में।
अब इसकी
तरंगें उठेंगी
और तुम चकित
होओगे यह
जानकर कि ये
तरंगें
सदियों तक
चलेंगी।
छोटी—सी
घटनाएं दूर—दूर
तक,
दिग—दिगंत तक
परिणाम लाती
हैं क्योंकि
यहां सब जुड़ा
हुआ है। यह
संसार ऐसा है
जैसे मकड़ी
का जाला। कभी मकड़ी के
जाले के एक
धागे को पकड़कर
हिलाया है? और तुम चकित
हो जाओगे, पूरा
जाला हिल जाता
है। जरा—सा एक
धागा हिलाओ, सारे धागे, पूरा जाल
कंपने लगता
है।
पश्चिम
के कवि टनिसन
ने कहा है, घास
के एक पत्ते
को छुओ, और
तुमने दूर—दूर
के चांदत्तारे
छू लिए। सारा
अस्तित्व
जुड़ा है, संयुक्त
है, अंतर्निर्भर है।
तुम
जानकर यह
हैरान होओगे, एक
छोटी—सी घटना
के कारण सारी
दुनिया का इतिहास
कुछ से कुछ हो
जाता है।
नेपोलियन जिस
युद्ध में
हारा उसमें
हारने का कारण
बड़ा अद्भुत था।
नेलसन
उसका विपरीत
सेनापति
सत्तर
बिल्लियां
अपनी फौज के
सामने बांधकर
लाया था
क्योंकि उसे
यह खबर लग गई
थी कि
नेपोलियन
बिल्लियों से
डरता है।
और
डरता इसलिए था
कि जब नेपोलियन
छह महीने का
छोटा बच्चा था
तो उसको
रखवाली करनेवाली
औरत जरा बाहर
चली गई और एक
बड़ा बिलाव
उसकी छाती पर चढ़कर बैठ
गया। वह जो
घबड़ा गया छह
महीने का
बच्चा तो फिर
वह बड़ा हो गया, महायोद्धा
हो गया, सिंहों
से जूझ जाए
मगर बिल्ली
देखी कि उसकी
दम टूटने लगे।
बस बिल्ली देखी
कि वह छह
महीने के
बच्चे जैसा
व्यवहार करने
लगे; फिर
उसका होश—हवास
खो जाए।
नेपोलियन
हारा उस
बिल्ली के
द्वारा। अगर
नेपोलियन
जीतता तो
दुनिया का
इतिहास दूसरा
होता। शायद
हिंदुस्तान
पर अंग्रेजों
का राज्य कभी
न होता।
दुनिया की
सारी कहानी और
होती। जरा सोचो, एक
बिल्ली एक छह
महीने के
बच्चे की छाती
पर बैठ गई, उसने
सारी दुनिया
का इतिहास बदल
दिया। मगर जिंदगी
ऐसे ही जुड़ी
है।
क्रोधी
आदमी अपने
आसपास तरंगें
पैदा करता है।
हो सकता है
दुर्वासा ऋषि
ने जो तरंगें
पैदा की थीं, अब
तक तुम्हारी
खोपड़ी में काम
करती हों। जा
तो सकती नहीं,
यहीं कहीं
होंगी।
दुर्वासा
महाराज चले गए,
मगर उनकी
तरंगें तो
यहीं कहीं
होंगी। भटक
रही होंगी
अनंत आकाश
में। न मालूम
किसके
मस्तिष्क को
पकड़ लेंगी। न
मालूम किसके
मस्तिष्क के
तंतु कंप
जाएंगे। न
मालूम कौन
उनसे जुड़
जाएगा।
जैसा
क्रोध के साथ
होता है वैसा
ही प्रेम के
साथ भी होता
है। जब कोई
प्रेम से भरता
है तो उसके
पास प्रेम की
धार बहती है, प्रेम
की तरंगें
उठती हैं, संगीत
उठता है। वह
संगीत भी छूता
है अनंत—अनंत
काल तक। उसकी
भी ध्वनि सुनी
जाती है शाश्वत
रूप से।
बुद्ध
समाप्त नहीं
हो गए और न
जीसस समाप्त
हुए। यहां कुछ
भी कभी समाप्त
नहीं होता।
यहां सभी
शाश्वत होकर
जीता रहता है।
बुद्ध ने जो
स्पर्श किए थे
धागे चैतन्य
के,
वे आज भी
कंपित हो रहे
हैं। आज भी
कोई चाहे तो बुद्ध
से जुड़ जाए और
आज भी कोई
चाहे तो जीसस
से जुड़ जाए।
आज भी कोई खोज
ले सकता है
मार्ग।
तुम
जगत की
समस्याएं मिटाना
अगर चाहते हो, सच
में चाहते हो
तो अपनी
समस्याएं
मिटा लो। तुमने
एक बड़ा कदम
उठाया जगत् की
समस्याएं
मिटाने के
लिए।
लेकिन
मेरे देखे
अक्सर ऐसा है, जो
लोग जगत् की
समस्याएं
मिटाने में
उत्सुक होते
हैं ये वे लोग
हैं जो अपनी
समस्याओं को
मिटाने में
असमर्थ हैं, नपुंसक हैं।
ये इतने
नपुंसक हैं
अपनी
समस्याएं मिटाने
में कि ये
दूसरों की
समस्या
मिटाने में लग
जाते हैं ताकि
दिखाई न पड़े
कि अपनी भी झंझटें
हैं।
इसी
तरह के लोग समाजसेवक
हो जाते हैं, राजनीतिज्ञ
हो जाते हैं, सारी दुनिया
को ठीक करने
चल पड़ते हैं।
इनसे सावधान
रहना। ये
उपद्रवी लोग
हैं। ये खुद
अपना हल नहीं
कर पाए हैं
लेकिन दूसरे
का हल करने चल
पड़े हैं।
एक
डॉक्टर के घर
एक आदमी गया
और उसने कहा
कि मैं क्षय
रोग से पीड़ित
हूं। सब इलाज
करवा चुका हूं।
इस गांव के सब
डॉक्टरों के
चरण दबा चुका
हूं,
अब आप ही
बचे हैं। और
लोगों ने कहा
है कि आप इस
बीमारी में
बड़े अनुभवी
हैं। डॉक्टर
ने कहा, बहुत
अनुभवी हूं, मेरा तीस
साल का अनुभव
है। तुम
निश्चित ठीक
हो जाओगे।
दवाएं शुरू हो
गईं। छह महीने
तक दवाएं
चलीं। हालत और
बिगड़ती
चली गई। पैसा
भी जा रहा है, हालत भी
बिगड़ रही है, आखिर उस
आदमी ने पूछा,
आप कहते थे
तीस साल का
अनुभव है, कुछ
परिणाम नहीं
दिखाई पड़ता।
उसने कहा, तीस
साल का अनुभव
है। तीस साल
से मैं खुद ही
इसी बीमारी से
परेशान हूं।
इस तरह
के अनुभवी लोग
हैं। इस तरह
के अनुभवी लोगों
से सावधान
रहना। इस तरह
का अनुभवी
आदमी अगर
तुम्हारे पैर
दबाने लगे तो
बचना। अक्सर
जब कोई पैर
दबाता है तो
बचने का मन
नहीं होता, और
तुम पैर
फैलाकर लेट
जाते हो कि
चलो कोई समाजसेवा
कर रहा है, इसको
भी पुण्य हो
रहा है, अपने
को भी लाभ हो
रहा है। मगर
ध्यान रखना, जो लोग पैर
से शुरू करते
हैं, गर्दन
दबाने पर अंत
करते हैं।
जिसने पैर
दबाया वह
गर्दन दबाएगा।
आज नहीं कल वह
कहेगा, दिल्ली
जाऊंगा।
दिल्ली जाना
है। अब मुझे
दिल्ली भेजो।
अब मैंने इतनी
सेवा की, उसका
पुरस्कार
चाहिए। इतने
दिन ऐसे ही
थोड़े तुम्हारे
पैर दबाए! अब
थोड़ा गर्दन
दबाने का भी अवसर
दो।
एक
राजनेता
चुनाव में खड़ा
था और लोगों
को समझा रहा
था कि जिस
पार्टी को
आपने अब तक
चुनाव में जिताया
और तीस साल से
जिताते आए, उसने
तुम्हें चूस
लिया, लूट
लिया, तुम्हें
बरबाद कर
दिया। भाइयो,
अब एक अवसर
हमें भी दो।
कृपा
करके अपने को
ही बदलो।
दूसरों की
चिंता न करो।
तुम बदले तो
तुम्हारी
बदलाहट से
दूसरों को भी
लाभ निश्चित
होता है। और
दूसरा कोई
उपाय नहीं है।
दूसरा
प्रश्न :
मनुष्य—जीवन
का संघर्ष
क्या है? इस
संघर्ष का
लक्ष्य क्या
है?
मनुष्य
जीवन का
संघर्ष है
मनुष्य होने
के लिए। मनुष्य
मनुष्य की तरह
पैदा नहीं
होता। मनुष्य
केवल संभावना
लेकर पैदा
होता है। जन्म
के साथ कोई
मनुष्य नहीं
होता। कुत्ते
जरूर कुत्ते
होते हैं, बिल्लियां
बिल्लियां
होती हैं।
कबूतर कबूतर
होते हैं, कौवे
कौवे होते
हैं। मगर कोई
मनुष्य जन्म
के साथ मनुष्य
नहीं होता।
मनुष्यता
अर्जित करनी होती
है। यही
मनुष्य का भेद
है इस सारी
पृथ्वी पर।
यही मनुष्य की
गरिमा है, गौरव
है। और यही
मनुष्य का
संताप और पीड़ा
।
तुम
कुत्ते से यह
नहीं कह सकते
कि तुम पूरे
कुत्ते नहीं
हो। कहो, तुम्हीं
को खुद भद्दा
लगेगा कि यह
बात ही क्या
कह रहा है। सब
कुत्ते पूरे
कुत्ते हैं।
लेकिन तुम
किसी आदमी से
कह सकते हो कि
भाई, तुम
पूरे आदमी नहीं
हो। और इसमें
कुछ असंगति
नहीं होगी, कुछ गलती
नहीं होगी।
अक्सर
तो अधिक लोगों
के संबंध में
यही सत्य है
कि वे पूरे
आदमी नहीं हैं
। कुत्ता तो
पूरा का पूरा
पैदा होता है।
तुमने देखा? मनुष्य
का बच्चा इस
जगत् में सबसे
असहाय बच्चा
है। हिरन का
बच्चा पैदा
हुआ और चला
अपने काम पर।
गाय का बच्चा
पैदा हुआ और
खड़ा हुआ।
मनुष्य के
बच्चे को अपने
पैरों पर खड़े
होने में पचास
साल लगते हैं
। पचहत्तर साल
की उम्र में
पच्चीस साल :
एक तिहाई अपने
पैर पर खड़े
होने में लग
जाते हैं। जब
तक बेटा
विश्वविद्यालय
से न लौटे, नौकरी
न करे, तब
तक अपने पैर
पर खड़ा नहीं
होता। पच्चीस
साल पैर पर खड़े
होने में लग
जाते हैं।
मनुष्य
का बच्चा सबसे
ज्यादा असहाय
है। मनुष्य के
बच्चे को छोड़
दो बिना मां—बाप
के,
एक बच्चा
नहीं बचेगा।
पशु—पक्षियों
के बच्चे बच
जाएंगे। वे
पूरे के पूरे
पैदा होते
हैं। कुछ फिर
और अर्जित
नहीं करना है।
आदमी के बच्चे
को सब कुछ
अर्जित करना
है। उसे सब
सीखना है, विकसित
होना है, निखरना
है, बनना
है। आदमी का
जीवन एक
सृजनात्मक
प्रक्रिया
है।
तभी तो
कोई कुत्ता
कुत्ते से ऊपर
नहीं उठ पाता।
कुत्ते से
नीचे भी नहीं
गिरता, खयाल
रखना; ऊपर
भी नहीं उठता।
आदमी आदमी से
नीचे भी गिर
सकता है और
आदमी से ऊपर
उठ जाए तो
गौतम बुद्ध।
और आदमी भी हो
जाए तो भी बड़ी
सुगंध पैदा
होती है।
मनुष्य
का संघर्ष है
मनुष्य होने
के लिए। और जो
मनुष्य हो
जाता है उसे
पता चलता है
कि मैं परमात्मा
हो सकता हूं
अब। मनुष्य के
जन्म पर जन्म
होते हैं। सारे
पशु एक बार
जन्मते हैं, मनुष्य
दो बार जन्मता
है। इसलिए
हमारे पास एक कीमती
शब्द हैः
द्विज——दुबारा
जन्मा।
ब्राह्मण को
द्विज कहते
हैं। सभी
ब्राह्मण
द्विज होते
नहीं, प्रतीक
मात्र है।
मेरे लेखे जो
द्विज हो उसको
ब्राह्मण
कहना चाहिए।
सभी
ब्राह्मणों
को द्विज नहीं
कहना चाहिए।
जो द्विज हो
उसको
ब्राह्मण कहना
चाहिए, फिर
चाहे वह चमार
ही क्यों न
हो।
द्विज
का अर्थ है : जो
दुबारा
जन्मा। एक तो
जन्म हुआ मां—बाप
से। एक
संभावना लेकर
हम आए हैं कि
मनुष्य हो
सकते हैं। फिर
मनुष्य हो गए, फिर
दूसरा जन्म
होता है स्वयं
के भीतर, स्वयं
के अंतस्तल
में, स्वयं
की अंतरात्मा
में। उस दूसरे
जन्म से कोई
बुद्ध होता है,
महावीर
होता है, कृष्ण
होता है। वह
दूसरा जन्म
मनुष्य को
ब्राह्मण
बनाता है।
क्यों
ब्राह्मण
बनाता है? क्योंकि
उस दूसरे जन्म
से व्यक्ति
ब्रह्मा को
अनुभव करता है
इसलिए
ब्राह्मण हो
जाता है। सभी
ब्राह्मण
द्विज नहीं
होते, सभी
द्विज
ब्राह्मण
होते हैं। मगर
द्विज होना तो
बड़ी दूर की
बात है, हम
तो पहले जन्म
को ही पूरा
नहीं कर पाते।
हमारा पहला
जन्म ही अधूरा
रह जाता है।
हम आदमी ही नहीं
हो पाते।
डायोजनीज
जिंदगी भर एक
लालटेन लिए
घूमता रहा।
दिन हो कि रात, भरी
सूरज की
दुपहरी में भी
लालटेन लिए
रहता था जलती।
और कोई भी
मिलता तो गौर
से उसका चेहरा
देखता लालटेन
उठाकर। लोग
पूछते, होश
में हो? क्या
कर रहे हो? वह
कहता, मैं
आदमी की तलाश
कर रहा हूं।
और जब
मर रहा था
लोगों ने पूछा
कि भई, जिंदगी
हो गई——लालटेन
रखे था अपने
बगल में, जब
मर रहा था——तुम्हें
जिंदगी हो गई
आदमी की तलाश
करते, भरी
दुपहरी में
लालटेन लेकर
खोजते थे, आदमी
मिला? उसने
कहा, आदमी
तो नहीं मिला
पर परमात्मा
का धन्यवाद, है मेरी
लालटेन चोरी
नहीं गई, यही
क्या कम है? मेरी लालटेन
बच गई। ऐसे—ऐसे
लोग मिले, कि
मुझे लालटेन
बचने का डर हो
गया था। एक से
एक पहुंचे हुए
पुरुष मिले।
मेरी लालटेन
बच गई यही क्या
कम है? आदमी
तो नहीं मिला।
आदमी
ही आदमी नहीं
हो पाता। और
आदमी हो जाए
तो फिर दूसरा
द्वार खुलता
है।
एक
समय था,
मुझे
किसी की खोज
नहीं थी
खो
भी जाऊं,
तो
अंदर विश्वास कहीं
था
मुझे
खोज लेगा ही
कोई
एक
समय था,
जब
मेरा कुछ खोया—सा
था
और
खोजता था मैं
उसको
ले
अंदर विश्वास
कहीं पर
पा
ही जाऊंगा
तारों में, फूलों
में
दुनिया
की अनगिन चलती—फिरती
छायाओं में
एक
समय था,
अपना
खोया पाने का
संतोष मुझे था
पर
मानव की छाती
में
संतोष
नहीं ज्यादा
दिन टिकता
असंतोष
अधिकारप्राप्त
वासी जो उसमें
वही
जन्म लेने,
पलने, बढ़ने
के कारण
उसे
नहीं रहने
देता है
सच
पूछो तो मानव
का संघर्ष
नहीं है
खोए—चाहे
को उपलब्ध
प्राप्त करने
में
है
उस उद्धत
अधिवासी को ही
निकालकर
अपना
घर खाली रखने
में
कांटा
आए या गुलाब
की कलिका आए,
स्वागत
पाए
एक तो
प्रक्रिया है
कि हम मनुष्य
बनें। मनुष्य
बनने की
प्रक्रिया
अस्मिता की
प्रक्रिया है, अहंकार
की प्रक्रिया
है। फिर एक
दूसरी प्रक्रिया
है कि हम
अहंकार से
मुक्त हों, अहंकार के
पार जाएं। और
जो अहंकार के
पार जाता है——
सच
पूछो तो मानव
का संघर्ष
नहीं है
खोए—चाहे
को उपलब्ध
प्राप्त करने
में
है
उस उद्धत
अधिवासी को ही
निकालकर
अपना
घर खाली रखने
में
कांटा
आए या गुलाब
की कलिका आए,
स्वागत
पाए
फिर एक
घड़ी आती है जब
तुम्हारे
भीतर अहंकार
छाप जमाकर बैठ
जाता है, उस
अहंकार से
मुक्त होना
पड़ता है। यह
बहुत उल्टी
प्रक्रिया
मालूम होगी।
ऐसे ही जैसे
तुम सीढ़ी से चढ़कर छत की
तरफ जाते हो
तो पहले सीढ़ी
लगाते हो, सीढ़ी
बनाते हो, फिर
सीढ़ी पर चढ़ते
हो। लेकिन फिर
सीढ़ी पर ही
बैठे नहीं रह
जाते; नहीं
तो छत पर कभी
नहीं पहुंच
पाओगे। छत पर
पहुंचते हो
तभी, जब
तुम सीढ़ी को
छोड़ देते हो।
सीढ़ी को पीछे
छोड़ देते हो।
और समझदारों
ने तो कहा है
कि सीढ़ी को
गिरा देना
ताकि लौटने का
कोई उपाय ही न
रह जाए; ताकि
यात्रा आगे ही
आगे हो।
अहंकार
एक सीढ़ी है।
हम बच्चे को
गरिमा सिखाते हैं
उसकी अस्मिता
की। हम उसे
कहते हैं तू
है;
तू विशिष्ट
है। अपने को
सम्हाल, अपने
को निखार, अपने
गौरव—गरिमा को
बढ़ा। अपने को
सिद्ध कर। फिर
एक घड़ी आती है,
हमें उससे
कहना पड़ता है,
अब यह
अहंकार खूब हो
गया, यह
महत्वाकांक्षा
खूब हो गई। अब
इसे छोड़। अब यह
सीढ़ी गिरा दे।
अब अपने को
खाली कर। अब
यह जो उद्धत
अधिवासी भीतर
बैठ गया है, यह जो अहंकार,
इसको भी
जाने दे। अब
इसको विदा कर
दे। अब शून्य
हो जा।
विरोधाभासी
लगता है मार्ग, कि
पहले अहंकार
को बनाना पड़ता
है, फिर
उसको विदा
करना पड़ता है।
मगर यही मार्ग
है। राह पर
चलना होता है
मंजिल पर
पहुंचने के लिए।
फिर मंजिल पर
पहुंचने के
लिए राह को
छोड़ देना होता
है।
ऐसे ही
आधी यात्रा
मनुष्य बनने
की और फिर आधी यात्रा
मनुष्य से
मुक्त होने
की। जिस दिन
तुम मनुष्य हो
जाओगे, धन्यभागी हो क्योंकि
आधी यात्रा
पूरी हुई। अब
मंदिर बहुत
दूर नहीं। तुम
मंदिर के
योग्य हो गए।
अब दूसरी और
भी कठिनतर
चढ़ाई
शुरू होगी——शिखर
पर पहुंचने का
अंतिम
संघर्ष। अब
मनुष्य को भी
विदा कर देना
होगा। अब
तुम्हें
सीखना होगा
शून्य होनाः
कि मैं ना—कुछ
हूं। इसी को
तो ध्यान कहते
हैं, समाधि
कहते हैं। अब
तुम्हें
निर्विचार
होना होगा, निर्अहंकार होना होगा, निर्विकार
होना होगा। अब
तुम्हें
बिल्कुल मिट
जाना होगा कि
तुम बचो ही न।
और जिस घड़ी
तुम बिल्कुल
मिट जाओगे, उसी घड़ी तुम
पाओगे, परमात्मा
हो गए हो। इधर
मिटे, उधर
हुए। यह अंतिम
आहुति है जो
मनुष्य को
देनी पड़ती है।
यही
मनुष्य का
संघर्ष हैः
पहले मनुष्य
बनो,
फिर मनुष्य
से मुक्त हो
जाओ। मनुष्य
के ऊपर बड़ा
दायित्व है
क्योंकि
मनुष्य पर
परमात्मा ने
बड़ा भरोसा
किया है। सारे
पशुओं को पूरा—पूरा
पैदा कर दिया
है क्योंकि
भरोसा नहीं है
कि वे अपने से
ऊपर बढ़
पाएंगे। आदमी
को खाली छोड़ दिया,
स्वतंत्रता
दी है। अवसर
दिया है कि तू
अपने को बना, निर्मित कर।
इस अर्थ में
मनुष्य को
परमात्मा ने
स्रष्टा
बनाया है कि
तू अपना सृजन
कर। और सृजन
में आनंद है।
और जो अपने को
बना लेगा उसके
आनंद की कोई
सीमा नहीं है।
थोड़ा
सोचो तो! जब एक
मां एक बच्चे
को जन्म देती है
तो कैसी महिमा—मंडित
हो जाती है!
कैसी आभा
झलकने लगती
है! जब तक
स्त्री मां
नहीं बनती तब
तक उसमें एक आभा
की कमी होती
है;
तब तक
स्त्री कल
जैसी होती है,
फूल नहीं
होती। जब एक
बच्चे को जन्म
देती है तब पंखुड़ियां
खुल जाती हैं,
तब फूल हो
जाती है।
तुमने
गर्भवती
स्त्री को
देखा? उसके
चेहरे पर एक
दीप्ति आ जाती
है। उसके भीतर
एक नया जीवन
उमग रहा है, एक नया
प्राण, एक
नया प्रारंभ।
परमात्मा ने
उसे एक धरोहर
दी है।
और जब
कोई स्त्री
मां बन जाती
है तो सिर्फ
बच्चे का ही
जन्म नहीं
होता; वह एक
पहलू है
सिक्के का।
दूसरा पहलू यह
है कि एक मां
का भी जन्म
होता है।
स्त्री
स्त्री है, लेकिन मां
बात ही और है।
मातृत्व का
जन्म होता है,
प्रेम का
जन्म होता है।
तुमने
एक कवि की
कविता को पूरा
होते देखा? तब
वह नाच उठता
है। उसने कुछ
बनाया। तुमने
एक चित्रकार
को अपने चित्र
को पूरा करते
देखा है? उसकी
आंखें देखीं?
कैसा
विस्मय—विमुग्ध!
भरोसा नहीं कर
पाता कि मुझसे
और यह हो सकता
है? संगीतज्ञ
जब सफल हो जाता
है संगीत को जन्माने
में तो उसके
प्राण आनंद की
बाढ़ से भर
जाते हैं।
मगर ये
सब छोटे सुख
हैं। जब कोई
व्यक्ति अपने भीतर
बुद्धत्व को जन्माने
में सफल होता
है,
उसके सामने
ये सब छोटे
सुख हैं। सारे
संगीतज्ञ, सारे
कवि, सारे
चित्रकार, सारे
मूर्तिकार भी
इकट्ठे हो जाएं
तो उसे एक
आनंद का.....कोई
तुलना नहीं हो
सकती। सब
इकट्ठे हो
जाएं तो भी उस
आनंद के सामने
बूंद की तरह
हैं, वह
आनंद सागर की
तरह है।
अपने
को सृजन करने
का आनंद , अपने
भीतर छिपी हुई
संभावना को
वास्तविक बना
लेने का आनंद.....।
सृजन का अर्थ
क्या है? सृजन
का अर्थ है : जो
अदृश्य है।
उसे दृश्य में
लाना। अभी तक
कविता नहीं थी
जगत् में और
तुमने एक
कविता बनाई अदृश्य
में थी, उसे
खींचकर दृश्य
में लाए।
शून्य में थी,
उसे शब्द का
परिधान दिया।
अव्यक्त थी, उसे व्यक्त
किया।
एक
मूर्तिकार ने
मूर्ति बनाई।
अभी पत्थर अनगढ़
पड़ा था। किसी
ने सोचा भी न
था कि इस
पत्थर में कुछ
हो सकता है।
उसने छेनी
उठाई और पत्थर
में मूल्य आ
गया और पत्थर
में जीवन
मालूम होने
लगा। पत्थर
में बुद्ध उठे
कि मीरा उठी
कि कृष्ण उठे, कि
पत्थर में
बांसुरी बजी,
कि पत्थर
में फूल खिले।
जो अदृश्य था
वह दृश्य हुआ।
सबसे
बड़ा अदृश्य
कौन है? परमात्मा
सबसे बड़ा
अदृश्य है; और जब
तुम्हारे
भीतर दृश्य हो
जाता है तो
सबसे बड़े सृजन
की घटना घटती
है। मनुष्य का
संघर्ष यही
सृजन है।
परमात्मा को
जन्म देना है।
तीसरा
प्रश्न :
वासना
क्या है और
प्रार्थना
क्या है?
मेरे
देखे, एक ही
सीढ़ी के दो
छोर——जैसे बीज
और वृक्ष; जैसे
अंडा और
मुर्गी।
वासना ही एक
दिन पंख पा लेती
है और
प्रार्थना बन
जाती है।
वासना प्रार्थना
है जन्म की
प्रक्रिया
में। वासना
अंधेरे में
टटोल रही है
मार्ग
प्रार्थना
होने का। वासना
भटकना है, मार्ग
की खोज है, द्वार
की तलाश है।
इसलिए मेरे मन
में वासना की
कोई निंदा
नहीं है।
मेरे
मन में निंदा
है ही नहीं; किसी
भी बात की
निंदा नहीं
है। मेरे मन
में सर्व
स्वीकार है
क्योंकि मैं
देखता हूं, जब सब
परमात्मा को
स्वीकार है तो
उसमें से कुछ
भी अस्वीकार
करना
परमात्मा को
अस्वीकार करना
है।
मैंने
सुना है, सूफी
फकीर बायजीद
एक पड़ोसी से
बहुत परेशान
था। सालभर
से उसके पड़ोस
में था। वह
बड़ा उपद्रवी
था पड़ोसी। जब
बायजीद ध्यान
करने बैठता तब
वह ढोल बजाने
लगता; या
बायजीद नमाज
पढ़ता तो वह
गालियां बकने
लगता। बायजीद
शिष्यों को
समझाता तो वह
कुछ उपद्रव मचा
देता। कूड़ा—करकट
इकट्ठा करके
बायजीद के झोंपड़े
में फेंक
देता।
एक रात
बायजीद
प्रार्थना
करा,
प्रार्थना
करके उठ रहा
था, परमात्मा
की झलक से भरा
था। झलक इतनी
स्पष्ट थी कि
उसने कहा, हे
प्रभु! इतनी
कृपा की है कि
मुझे आज झलक
दी है, इतना
और कर दो कि इस
पड़ोसी से
छुटकारा करो।
और पता है
परमात्मा की
क्या आवाज
बायजीद को
सुनाई पड़ी? उसने कहा, बायजीद, इस
आदमी को मैं
पचास साल से
बर्दाश्त कर
रहा हूं और तू
तो अभी साल ही
भर हुआ.....! और
पचास साल तो
इस जिंदगी के!
पिछली जिंदगियों
का तो हिसाब
ही मत रख। अगर
मैं इसे
बर्दाश्त कर
रहा हूं और
मैंने आशा
नहीं छोड़ी
और मैं आशा
बांधे हूं कि
यह भी बदलेगा।
तू भी आशा न
छोड़।
परमात्मा
अगर वासना के
विपरीत होता
तो वासना होती
ही नहीं।
महात्मा
विपरीत है
इसलिए मैं कहता
हूं,
महात्मा
गलत है।
परमात्मा
विपरीत नहीं
है वासना के।
हर बच्चे को
वासना से
सजाकर भेजता
है, वासना
भरकर भेजता है।
वासना
ऊर्जा है, शुद्ध
ऊर्जा है, संपदा
है। कहां
लगाओगे इस पर
सब कुछ निर्भर
करेगा। यही
वासना धन में
लग जाएगी तो
धन—कुबेर हो
जाओगे। यही
वासना पद के
पीछे पड़ जाएगी
तो किसी देश
के
राष्ट्रपति
हो जाओगे। यही
वासना
परमात्मा की
दिशा में लग
जाएगी तो
प्रार्थना हो
जाएगी।
वासना
शुद्ध ऊर्जा
है। वासना
तटस्थ है।
वासना अपने आप
में कोई
लक्ष्य लेकर
नहीं आयी है, लक्ष्य
तुम्हें तय
करना है। फिर
तुम्हारी ऊर्जा
उसी दिशा में
बहनी शुरू हो
जाती है।
स्त्री को
प्रेम करोगे
तो वासना घर बसाएगी।
परमात्मा को
प्रेम करोगे,
मंदिर
बनेगा। परिवार
को प्रेम
करोगे तो छोटा—सा
परिवार होगा
सारे संसार के
विरोध में।
सारे संसार को
प्रेम करोगे
तो कोई विरोध
में न होगा।
सारा संसार
तुम्हारा घर
होगा। तुम पर
निर्भर है।
वासना
प्रार्थना का
बीज है। और जब
तक वासना प्रार्थना
नहीं बन जाती
है तब तक
तुम्हें
संसार में लौट—लौटकर
आना पड़ेगा
क्योंकि
तुमने पाठ
सीखा नहीं।
फिर भेज दिए
जाओगे कि और
जाओ,
फिर उसी
कक्षा में
भर्ती हो जाओ।
जब तक तुम उत्तीर्ण
न हो जाओ.....। और
उत्तीर्ण
होने की कसौटी
क्या है? जिस
दिन तुम्हारी
सारी वासना
रूपांतरित हो
जाए
प्रार्थना
में, जिस
दिन परमात्मा के
अतिरिक्त
तुम्हें कुछ
और दिखाई न
पड़े। तुम चाहो
तो परमात्मा
को। फिर चाहे
तुम किसी से
भी संबंध जोड़ो,
किसी को भी
चाहो लेकिन हर
चाहत में
परमात्मा की
ही चाहत हो।
तुम्हारी
पत्नी में
परमात्मा दिखाई
पड़े, तुम्हारे
बेटे में
परमात्मा
दिखाई पड़े, तुम्हारे
मित्र में परमात्मा
दिखाई पड़े, तुम्हारे
शत्रु में
परमात्मा
दिखाई पड़े।
इसलिए
जीसस ने कहा
है,
शत्रु को भी
प्रेम करना
अपने जैसा। यह
मत भूल जाना
कि उसमें भी
परमात्मा
छिपा है। एक
क्षण को भी यह
बात विस्मरण
मत करना, नहीं
तो उतनी
प्रार्थना
चूक जाएगी; उतने तुम
प्रार्थना से
नीचे गिर
जाओगे।
बिहिश्ते—रंगों—बू
को दिल में मेहमां
कर दिया तुमने
गमें—इम्रोज को ख्वाबे—परीशां कर
दिया तुमने
जहाने—कैफो—कम के मरहलों
में इक
तबस्सुम से
खिरद को
बे—नियाजे—सूदो—नुक्सां
कर दिया तुमने
मुहब्बत
की निगाहों ने
उगाया रेत में
सब्ज
हमारा
दिल बयाबां
था, खयाबां कर दिया
तुमने
मिट्टी
में वासना के
कारण ही प्राण
पड़ गए हैं, रेगिस्तान
में मरुद्यान
उगा है। इस
जीवन में
तुम्हें
जितनी
हरियाली दिखाई
पड़ती है, सब
वासना की है।
पक्षी गीत
गाते हैं, वे
वासना के गीत
हैं। कोयल
अपने प्रेमी
को पुकार रही
है। मोर अपने
प्रेमी के लिए
नाच रहा है।
वे जो उसने
सुंदर पंख फैलाए
हैं वे वासना
के पंख हैं।
वह मोर—पंखों
का जो सौंदर्य
है वह वासना
का ही सौंदर्य
है। फूल खिले
हैं, पूछो
वैज्ञानिक से;
वे सब वासना
के ही फूल
हैं। उन फूलों
में वृक्षों
के रजकण हैं, वीर्यकण हैं।
तितलियां
अपने पैरों
में लगाकर
उन्हें
पहुंचा देगी
उनकी मंजिल तक।
अगर
तुम गौर से देखोगे
तो तुम चकित
हो जाओगे। तुम
जब गुलाब के
फूल तोड़कर
परमात्मा के
चरणों पर चढ़ाते
हो तो तुमने
गुलाब की
वासना
परमात्मा के
पैरों पर चढ़ायी——चढ़ानी थी
अपनी वासना।
मुहब्बत
की निगाहों ने
उगाया रेत में
सब्ज
हमारा
दिल बयाबां
था, खयाबां कर दिया
तुमने
किनारे—आरजू
में फूल बरसा
कर तबस्सुम के
मेरे
जौके—सुखन
को गुल—बदामां
कर दिया तुमने
नशीली
मदभरी
आंखों की वे छलकी हुई
बूंदें
मिजाजे—आबो—गिल
में जिन्सेत्तूफां
कर दिया तुमने
परमात्मा
ने मिट्टी में
जीवन पैदा
कैसे किया? कैसे
फूंके
प्राण? किस
सूत्र पर फूंके
प्राण? वासना
के सूत्र पर
ही।
जवानी
की हविस को
बेकली बख्शी
मुहब्बत की
मुहब्बत
को तरक्की
देकर ईमां
कर दिया तुमने
पहले
जवानी को, हविस
को बेकली
बख्शी
मुहब्बत की।
बेचैनी दी जवानी
को वासना की।
जवानी
की हविस को बकली
बेक्शी
मुहब्बत की
मुहब्बत
को तरक्की
देकर ईमां
कर दिया तुमने
और फिर
एक दिन
मुहब्बत को ही
बढ़ाया, बढ़ाया,
चढ़ाया, चढ़ाया——ईमां कर
दिया तुमने।
उसी को धर्म
बना दिया, उसी
को प्रार्थना
बना दिया।
अदाहो
शुक्रिया
क्या इस नजर
की दिलनवाजी
का
कि
जिसको मजहरी
के दिल में पैकां
कर दिया तुमने
रबाबे—दिल
में मेरे फाकाकश
दुनिया के शेवन
के
उसे
अपनी मुहब्बत
में गजलख्वां
कर दिया तुमने
वे
तुम्हारे
भीतर जो अभी
गीत उठ रहे
हैं,
शुरू में तो
वासना के
होंगे लेकिन
वे ही गीत, जरा
उनकी दिशा
बदले, वे
ही गीत तीर बन
जाएं
परमात्मा की
तरफ तो प्रार्थना
के हो जाएंगे।
इसलिए
अक्सर
प्रार्थना की
गहराइयों में
वासना के
प्रतीक पाए
जाते हैं। सिग्मंड
फ्रायड यह
नहीं समझ सका; उसे
प्रार्थना का
कुछ पता नहीं
था। उसने समझा
कि मीरा जैसे
भक्तों ने जो
बातें की हैं
वे दबी हुई
वासना की हैं।
उसके समझने का
भी कारण है।
तुमने
भी भक्तों के
वचन सुने हैं।
कितने भक्तों
की तो मैंने
तुमसे बात की
है। तुम्हें
बार—बार कुछ
बातें समझ में
आती होंगी। मीरा
कहती है कि
सेज सजायी
है,
फूलों से सजायी है।
प्यारे, तुम्हारी
प्रतीक्षा
करती हूं, कब
आओगे? यह
तो वासना का
प्रतीक है।
सेज फूलों से
सजाना, प्रेमी
की प्रतीक्षा!
कि सेज सजाकर
बैठी हूं और
तुम नहीं आए।
और रात बीत
चली और सुबह
होने के करीब
है। क्या आज
भी न आओगे?
मीरा
की चर्चा नहीं
की है फ्रायड
ने क्योंकि मीरा
का फ्रायड को
पता नहीं था।
लेकिन ईसाई
फकीर——उनकी
चर्चा की है। थेरेसा की
चर्चा की है
जो कि मीरा का
ईसाई
पर्यायवाची
है,
कि थेरेसा
के मन में
वासना है। कि
वह कहती है कि
मुझे गले लगा
लो। वह कहती
है कि मैं तो
जीसस, तुम्हारे
ही विवाह में
बंध गई हूं।
मैंने तो तुमसे
ही गांठ जोड़
ली है। तुम
मेरे दुल्हा।
वह तो भला
हो कि उसको
कबीर का पता
नहीं था, नहीं
तो वह और झंझट
खड़ी करता।
क्योंकि
स्त्री कहे
जीसस को कि
तुम मेरे
दूल्हा, चलो,
चलेगा।
स्त्री है, क्षमा की जा
सकती है। मगर
कबीर, वे
कहते हैं, "मैं
तो राम की
दुल्हनिया।' पुरुष होकर
राम की
दुल्हनिया!
फ्रायड तो न
मालूम क्या—क्या
पढ़ लेता
इसमें। कबीर
की खूब फजीहत
करवाता। बच गए
कबीर हलाकान
होने से। नहीं
तो वह कहता, इसमें होमोसेक्सुआलिटी
के लक्षण हैं।
क्योंकि
फ्रायड को हर
चीज में वासना
दिखाई पड़ती
है।
और
उसकी गलती भी
नहीं है। हर
चीज में वासना
है। लेकिन उसे
यह पता नहीं
है कि ऐसी भी
घड़ियां आती
हैं,
जब वासना
अपने से ऊपर
उठती है, नए
रंग लेती है, नए निखार
लेती है, नए
पंख खोलती है।
प्रतीक
तो वही रहते
हैं क्योंकि
आदमी की भाषा कहां
? और कहां से
हम प्रतीक
लाएं? अब
कितना प्यारा
प्रतीक है, कबीर जब
कहते हैं कि
मैं तेरी
दुल्हनिया।
कुछ कह रहे हैं
जो और किसी
ढंग से कहा
नहीं जा सकता।
इस जगत् में
प्रेम के
संबंध से और
कोई गहरा
संबंध नहीं
है। अब कैसे जतलाएं कि
परमात्मा से
हमारा क्या
संबंध हो गया
है! कैसे जतलाएं
इस दुनिया को?
क्या
कहें कि
दुकानदार और
ग्राहक का जो
संबंध है वही
परमात्मा का
और हमारा संबंध
है?
जंचेगा
नहीं। कि
पार्टी और
पार्टी के
सदस्य का जो
संबंध है वही
परमात्मा का
और हमारा
संबंध है? वह
भी जंचेगा
नहीं क्योंकि
पार्टी बदलने
में देर कितनी
लगती है? आयाराम,
गयाराम ! रामजी
कभी इधर, रामजी
कभी उधर। कुछ
पता चलता
नहीं। सांझ
कहीं थे, सुबह
कहीं। झंडा बदलने
में देर कितनी
लगती है! डंडे
पर कोई भी झंडा
लगा लिया।
होशियार आदमी
अपनी सूटकेस
में सभी झंडे
रखता है। जब
जैसी जरूरत
होगी!
कैसे
कहें कि
परमात्मा से
जो हमारा
संबंध हुआ वह
किस तरह का
संबंध है!
नहीं, कबीर
ठीक ही कह रहे
हैं, कि वह
संबंध सिर्फ
प्रेम से ही
कहा जा सकता
है। उसकी
ताजगी ऐसी है।
उसे पति—पत्नी
का संबंध भी
नहीं कह सकते।
क्योंकि पति—पत्नी
का संबंध तो
बासा हो जाता
है और परमात्मा
का संबंध सदा
ताजा रहता है।
सुहागरात
चुकती ही
नहीं।
अब
फ्रायड अगर
सुहागरात
शब्द सुन ले
तो एकदम कहेगा
कि बस ठहरो, पहले
इसका विश्लेषण
होना चाहिए।
सुहागरात!
सुहागरात
उससे कभी
चुकती ही
नहीं।
मनुष्यों के
संबंध में जो सुहागरातें
आती हैं, आती
हैं, चली
जाती हैं।
यहां तो सब
चीज पुरानी हो
जाती है।
परमात्मा के
साथ कोई चीज
कभी पुरानी
नहीं होती, सब सदा नई, ताजी। सुबह
की ओस की तरह
ताजी और स्वच्छ
और कुंआरी!
इसलिए
कबीर यह नहीं
कहते कि मैं
तेरी पत्नी। जंचती
नहीं बात।
दुल्हनिया!
अभी—अभी, ताजीत्ताजी! अभी शायद
घूंघट भी नहीं
उठा। अभी गांठ
बांधी ही गई
है। शायद
शहनाई अभी बज
रही है। इतनी
ताजी! अभी
शायद
मंत्रोच्चार
चल ही रहा है।
शायद वेदी की
अग्नि भी अभी बुझी
नहीं है। अभी
मेहमान भी
विदा हुए नहीं
हैं। वह पुलक,
ताजी पुलक!
अभी—अभी खिली
हुई कली, उससे
ही तुलना दी
जा सकती है।
दुल्हन के
हृदय से ही
तुलना दी जा
सकती है। उसकी
छाती धड़क
रही है। आनंद—विभोर
है। रोआं—रोआं
रोमांचित है।
प्यारे का
मिलन हो गया
है। कितने
दिनों की
प्रतीक्षा है!
कितने रातों
का इंतजार! कितने
आंसू! आज सब
सफल हो गए
हैं। वह घड़ी आ
गई, परम
घड़ी आ गई।
प्रेम
से ही
प्रार्थना
समझायी जा
सकती है। क्योंकि
हमारे पास इस
जगत् में
प्रेम से और
गहरा कोई
संबंध नहीं
है।
तुम
वासना के
विपरीत मत हो
जाना। वासना
के पार जाना
है लेकिन जो
वासना के
विपरीत हो
जाता है वह वासना
के पार नहीं
जा पाता।
वासना में उलझ
जाता है, संघर्ष
में पड़ जाता
है, द्वंद्व
में पड़ जाता
है। तुम तो
वासना से मैत्री
रखना। वासना
का साथ ले
लेना। जहां तक
वासना ले जा
सके वहां तक
उसका उपयोग कर
लेना। वासना की
तरंग पर चढ़
जाना; जितनी
दूर तक ले जा
सके तुम्हारी
नाव को, ले
चलना।
और जब
वासना आगे न
ले जा सकेगी
तब तुम पाओगे, एक
और बड़ी तरंग
आयी
प्रार्थना
की। लेकिन
वासना की
यात्रा पहले
पूरी हो जानी
चाहिए, तभी
प्रार्थना की
तरंग आती है।
वासना तुम्हारे
पास है, प्रार्थना
तुम्हारा
भविष्य है।
वासना की सीमा
तुम्हें पूरी
करनी ही होगी।
जो कच्चे भाग
जाते हैं उनके
जीवन में
प्रार्थना
कभी नहीं आती।
इसलिए
मैं कहता हूं
अपने
संन्यासी को, संसार
से भागना मत, संसार को
पूरा जी लेना।
परमात्मा ने
भेजा है तो
जीने के लिए
भेजा है, भागने
के लिए नहीं
भेजा।
परमात्मा भगोड़ों
में भरोसा ही
नहीं करता। और
हम तो भगोड़ों
में इतना
भरोसा करते
हैं कि जिसका
हिसाब नहीं।
हम तो भगोड़ों
को बड़ा सम्मान
देते हैं।
जरा
सोचो, तुम्हारे
तर्क की
भ्रांति तो
देखो! युद्ध
से कोई भाग
जाता है तो
तुम उसको कायर
कहते हो और जीवन
के युद्ध से
जो भाग जाते
हैं, उनको
तुम महात्मा
कहते हो। चले
गए हिमालय, बैठ गए एक
गुफा में, तुम
उनके चरण छूने
चले जाते हो।
ये भगोड़े
हैं। ये कमजोर
हैं। ये इतने
बलशाली नहीं
थे कि जगत् की
चुनौती को झेल
सकते।
लेकिन
हम भगोड़ों
का इतना आदर
करते हैं कि
हमने कृष्ण को
नाम ही दे रखा
हैः रणछोड़दासजी।
रणछोड़दासजी
के मंदिर भी
हैं। रणछोड़दास
का मतलब समझते
हो?
रण छोड़ भागे
जो। भगोड़ेजी!
मगर तुम्हारे
सभी महात्मा रणछोड़दासजी
हैं।
तुम
छोड़कर मत
भागना। जीना
है,
इस संघर्ष
से गुजरना है।
इस आग से
गुजरकर ही निखरोगे,
कुंदन बनोगे।
वासना
ही धीरे—धीरे उस
अनुभव में ले
जाएगी जहां
तुम पाओगे कि
वासना अंधेरे
में टटोलना था, प्रार्थना
रोशनी है।
वासना टटोलने
जैसा था, प्रार्थना
रोशन जगत् है।
मगर वासना में
जो भी महत्त्वपूर्ण
था वह
प्रार्थना
में बच जाता है;
जो भी कचरा
था वही जल
जाता है।
इसलिए कबीर
कहते हैं, मैं
तेरी
दुल्हनिया। मीरा
कहती है, मैंने
सेज सजायी
है, तुम
आओ। प्यारे, तुम आओ।
प्रीतम को
पुकारती है।
यह
सुराही, यह
फरोग—ए—मै—ए—गुल
रंग, यह
जाम
चश्म—ए—साकी
की इनायत के
सिवा कुछ भी
नहीं
तुम एक
दफा वासना की
कठिनाइयों से
गुजर जाओ, अछूते
निकल जाओ, फिर
उसका प्रसाद बरसता
है।
यह
सुराही, यह
फरोग—ए—मै—ए—गुल
रंग, यह
जाम
चश्म—ए—साकी
की इनायत के
सिवा कुछ भी
नहीं
फिर
उसका प्रसाद
है। उनको
मिलती है यह
भेंट, जो
वासना से पककर
आते हैं; जो
वासना के जगत्
से इतना जीकर
आते हैं कि अब
वासना की उन
पर कोई पकड़
नहीं रह जाती।
अगर दबायी वासना,
पकड़ जारी
रहेगी। वासना
भीतर से पकड़े
रहेगी, पुकारती
रहेगी। तुम बच
न सकोगे। अगर
वासना को निकल
जाने दिया सहज,
स्वाभाविक
सरलता से, तुम
एक दिन हलके
हो जाओगे।
मेरे
निरीक्षण में
यह बात है और
मनोवैज्ञानिक
इस बात से
राजी हैं कि
अगर कोई
व्यक्ति ठीक से, सम्यक्क—रूपेण जीवन
को जिए तो
बयालीस साल की
उम्र होते—होते
वासना अपने आप
प्रार्थना
में रूपांतरित
होने लगेगी।
जैसे चौदह साल
की उम्र में
अचानक वासना
जगती है वैसे
ही अट्ठाईस
साल की उम्र में
वासना अपने
पूरे शिखर को
पहुंच जाती
है। चौदह साल
और——और बयालीस
साल की उम्र
में शिखर से
नीचे उतर जाती
है।
पश्चिम
की शोधें
भी इस बात के
करीब आ रही
हैं कि बयालीस
साल के बाद
मनुष्य की
असली समस्या
जीवन की नहीं
होती, धर्म की
होती है।
बयालीस साल के
बाद जो उलझनें
आती हैं वे इस
बात की हैं कि
हम कैसे जीवन
को धार्मिक
अर्थ दें, कैसे
जीवन को धार्मिक
रंग दें! और
अगर बयालीस
साल तक धर्म
का कोई रंग
जीवन में न
रहा हो तो
आदमी
विक्षिप्त
होने लगता है।
कार्ल गुस्ताफ
जुंग ने लिखा
है कि मेरे
पास जितने
मरीज आए हैं
उनमें मैंने
सदा यह पाया
है कि बयालीस
साल या उसके
बाद के मरीजों
का असली सवाल
मनोवैज्ञानिक
नहीं है, आध्यात्मिक
है।
जीवन
को सहज जियो।
तुम्हारे
प्रश्न में
इसी की गंध
है। शायद तुम
सोचते हो
वासना अलग है, प्रार्थना
अलग है। नहीं,
प्रार्थना
की ही
प्राथमिकता
है वासना; भूमिका
है। यद्यपि
भूमिका ही
ग्रंथ नहीं
है। भूमिका के
पार जाना
होगा।
वासना
क—ख—ग है, बाराखड़ी है, वर्णमाला
है। वर्णमाला
पर ही नहीं
रुक जाना है।
कोई कालिदास
की कविताएं
सिर्फ
वर्णमाला ही
नहीं हैं, वर्णमाला
से बहुत
ज्यादा हैं। पिकासो के
चित्र कोई रंग
और कैनवास का
जोड़ ही नहीं
हैं, रंग
अर केनवॉस
से बहुत
ज्यादा हैं।
जब कोई
संगीतज्ञ
वीणा बजाता है
तो सिर्फ हाथ
और तारों का
ही जोड़ नहीं
है, हाथ और
तारों के बीच
में कुछ
अनहोना घट रहा
है। नहीं घटना
चाहिए ऐसा घट
रहा है। कुछ
असंभव हो रहा
है।
वासना
तो वर्णमाला
है।
प्रार्थना उस
वर्णमाला से
बनायी गई
कविता है।
वासना तो
ईंटों जैसी
है। उन्हीं
ईंटों से मकान
भी बनता है
तुम्हारा, वेश्या
का घर भी बनता
है उन्हीं
ईंटों से और उन्हीं
ईंटों से
मंदिर भी बनता
है, यह
खयाल रखना। ईंटें वही
हैं, बनानेवाले
पर सब निर्भर
है।
उसकी
कृपा होती है
उस पर ही जो
जीवन से
गुजरता है
बिना भागे।
कहता है, जहां
मुझे ले जाना
है, जिन अंधेरों
में मुझे ले
जाना है, मैं
जाऊंगा।
जिन गङ्ढों
में मुझे
गिरना है, मैं
गिरूंगा।
क्योंकि गङ्ढों
में अगर तू
गिराता है तो
इसीलिए
गिराता होगा,
ताकि मैं
चलना सीख
सकूं। बिना गङ्ढे में
गिरा कोई चलना
सीखा है?
जरा
सोचो कि कोई
मां अपने
बच्चे को
गिरने ही न दे।
फिर बच्चा
चलना नहीं सीख
पाएगा। गिरने
देना होगा।
उसके घुटने भी
टूटेंगे, चमड़ी
भी छिलेगी,
कभी खून भी
गिरेगा। उसे
गिरने देना
होगा। ऐसे ही
वह एक दिन खड़ा
होगा। गिर—गिरकर
खड़ा होगा। खड़े
होने के पीछे
हजार बार गिरना
जुड़ा है।
घुटने के बल
सरकेगा पहले।
तुम यह मत
कहना उससे कि
यह ठीक नहीं, यह मनुष्य
की गरिमा से
नीचे है।
घुटने के बल
सरकता है मर्द
बच्चा होकर? खड़ा हो! पहले
दिन से तुम
खड़ा करना
चाहोगे, वह
कभी खड़ा ही
नहीं हो
पाएगा। उसे
घुटने के बल भी
सरकने देना।
वासना
ऐसी ही है
जैसे
प्रार्थना
घुटने के बल
सरक रही है।
प्रार्थना
ऐसी ही है
जैसे बच्चा
खड़ा हो गया।
अब सरकना नहीं
पड़ता जमीन पर।
अब योग्य हो
गए पैर। अब
मजबूत हो गए
पैर।
परमात्मा
जिन अंधेरों
में ले जाए, जाना।
श्रद्धावान
वही है। उसी
को मैं श्रद्धालु
कहता हूं, जो
भागता ही नहीं;
जो कहता है,
जो दिखाओगे,
देखेंगे; जहां ले
जाओगे, जाएंगे,
जहां गिराओगे,
गिरेंगे;
जो भूल करवाओगे,
करेंगे।
तुम जो करोगे,
जो
तुम्हारी
मर्जी है, होने
देंगे। हम सब
तुम्हारी
मर्जी पर
छोड़ते हैं।
ऐसा आदमी एक
दिन पककर आता
है। उसी पकान
में वह
माधुर्य है
जिसका नाम
प्रार्थना
है। प्रार्थना
ऊपर से उतरती
है।
वासना
नीचे से ऊपर
की यात्रा है।
प्रार्थना
ऊपर से नीचे
की यात्रा है।
आधी यात्रा तुम्हें
करनी है वासना
की,
आधी यात्रा
परमात्मा
करेगा। एक कदम
तुम चलो तो तालमुद
कहती है कि
परमात्मा
हजार कदम चलता
है।
और
पहली बार जब
तुम्हें
परमात्मा की
झलकें दिखाई पड़नी शुरू
होंगी, तब
तुम भी चौंकोगे।
तुम्हें भी
वही भ्रांति
होगी जो फ्रॉयड
को होती है।
तुम भी कहोगे,
यह क्या हो
रहा है? यह
क्या है? क्योंकि
वे पहली झलकें
भी तुम्हारे
प्रेम के इशारों
से भरी होंगी।
वे पहली झलकें
भी तुम्हारे
प्रेम की
अनुभूतियों
से सिक्त
होंगी।
मुझे
धोखा न देती
हों कहीं तरसी
हुई नजरें।
तुम्हीं
हो सामने या
फिर वही
तस्वीर—ए—ख्वाब
आयी?
बहुत
बार लगेगा कि
परमात्मा को
अनुभव कर रहा
हूं कि यह
मेरी कोई
वासना उठ रही
है?
शुरू—शुरू
में
स्वाभाविक है
यह भ्रांति।
जल्दी ही भ्रांति
मिट जाती है
क्योंकि
वासना के बाद
तुम हमेशा
अतृप्त छूटते
हो।
प्रार्थना के
पहले भी
तृप्ति है, मध्य में भी
तृप्ति है, अंत में भी
तृप्ति है।
बुद्ध ने कहा
है, मैं
तुम्हें जो फल
दे रहा हूं वह
पहले भी मीठा है,
मध्य में भी
मीठा है, अंत
में भी मीठा
है।
वासना
जो फल देती है, पहले
बहुत मीठे, पीछे बहुत कड़ुवे हो
जाते हैं।
वासना के सब
फल आज नहीं कल
जहर हो जाते
हैं। आश्वासन
तो होता है
अमृत का, मिलता
है जहर।
प्रार्थना
मीठी ही मीठी
है; मिठास
है, मदिरा
है।
और तुम
फिक्र न करो, उसकी
अनुकंपा अपार
है। तुम एक
बार उसके साथ
चलो तो।
हमने
तो ऐसियों
से किनारा न
किया
लेकिन
तूने दिल आजुर्दा
न किया
हमने
तो की है
जहन्नुम की
तदबीर
मगर
तेरी रहमत ने
गवारा न किया
हमने
तो ऐसियों
से किनारा न
किया——हमने तो
बुरी बातें न छोड़ीं, न
बुरे लोग छोड़े,
न बुरी
आदतें छोड़ीं।
हम तो भोग—विलास
में उतरे, गए।
हमने
तो ऐसियों
से किनारा न
किया
लेकिन
तूने दिल आजुर्दा
न किया
लेकिन
तू भी खूब
छाती रखता है!
तू कभी हारा
नहीं। तूने
कभी आशा न छोड़ी।
हम कितने ही
बड़े गङ्ढे
में गिरे, तूने
सदा आशा रखी
कि हम गौरीशंकर
पर कभी
प्रतिष्ठित
होंगे। तूने
दिल दुःखी न किया।
तू निराश न
हुआ। तू हताश
न हुआ।
हमने
तो ऐसियों
से किनारा न
किया
लेकिन
तूने दिल आजुर्दा
न किया
हमने
तो की है
जहन्नुम की
तदबीर
और
हमने तो जो भी
किया उससे नरक
जाएं यह सीधी
तार्किक
निष्पत्ति
है।
हमने
तो की है
जहन्नुम की
तदबीर
मगर
तेरी रहमत ने
गवारा न किया
लेकिन
तेरी करुणा
कैसे
बर्दाश्त
करती? तेरी
करुणा कैसे
हमें नरक में
गिरने देती?
वासना
अगर
श्रद्धापूर्ण
हो तो एक दिन
प्रार्थना तुम्हारे
भीतर उतरेगी।
उसकी अनुकंपा
तुम पर बरसेगी।
प्रार्थना
आती है, लायी
नहीं जाती। जो
लोग थोप—थोपकर
प्रार्थना ले
आते हैं उनकी
प्रार्थना का
कोई भी मूल्य
नहीं है। जो
जबरदस्ती
प्रार्थना करते
रहते हैं
क्योंकि करनी
चाहिए——भय के
कारण, लोभ
के कारण, वे
जानते ही नहीं
कि प्रार्थना
का अर्थ क्या
है। उन्हें
प्रेम का भी
कुछ पता नहीं
है।
इश्क
है कैफे—बेखुदी, इसको
खुदी से क्या
गरज
जिसकी
फिजा हो वस्लो—हिज्र, इश्क
वो इश्क ही
नहीं
जिसको
लाभ और हानि, मिलन
और विरह, नरक
और स्वर्ग की चिंता
बनी है उसे
अभी प्रेम का
पता ही नहीं
है। प्रेम न
तो लाभ की
फिक्र करता है,
न हानि की
फिक्र करता
है। न तो
प्रेम भयभीत
होता है
स्वर्ग से, न लिप्सा से
भरता है
स्वर्ग की।
इश्क
है कैफे—बेखुदी——इश्क
में तो आदमी
अहंकार को भूल
ही जाता है; तभी
तो आनंद उमगता
है। जहां
अहंकार गया
वहीं आनंद के
झरने फूटते
हैं। इश्क है कैफे—
बेखुदी——यह तो आत्मत्तल्लीनता
का नाम है।
इसको खुदी से
क्या गरज? लोभ
और भय तो सब
अहंकार के
हैं।
.....इसको
खुदी से क्या
गरज
जिसकी
फिजा हो वस्लो—हिज्र
और
जिसको एक ही
खयाल बना है——यह
कैसे पा लूं, वह
कैसे पा लूं, ईश्वर कैसे
मिल जाए, मोक्ष
कैसे मिल जाए,
वैकुंठ
कैसे मिल जाए!
जिसकी
फिजा हो वस्लो—हिज्र, इश्क
वो इश्क ही
नहीं
——उसे
अभी पता ही
नहीं कि प्रेम
क्या है।
प्रेम मांगता
ही नहीं।
वासना
मांग है, प्रेम
दान है।
प्रार्थना
दान है। जब
तुम प्रार्थना
में भी कुछ
मांगते हो
परमात्मा से,
तुम भूल गए।
तुमने वासना
को ही
प्रार्थना का
नाम दे दिया
फिर। जब तक
मांग है तब तक
वासना है। और
जब तक मांग है,
तुम भिखारी
हो। और ध्यान
रखना, भिखारियों
को परमात्मा
नहीं मिलता, सम्राटों को
मिलता है।
मालिकों को
मिलता है। मालिक
है तो मालिकों
को मिलता है।
उस जैसे होओगे
तो ही मिलेगा
न! जैसे तो
तैसा मिलेगा
न!
वासना
को जियो, अनुभव
करो। जागरूक
होकर वासना की
पूरी प्रतीति
लो। उसकी
क्षणभंगुर
सुख की झलक भी
देखो और क्षण
के पीछे
आनेवाली लंबी
अंधेरी रात, विषाद, दुःख
और पीड़ा को भी
भोगो। वासना
में कभी—कभी
खिले हुए फूल
को भी सूंघो
और वासना के
सारे कांटों
को भी छिद
जाने दो तुम्हारे
हृदय की गहराई
तक, ताकि
तुम्हें
वासना का पूरा
रूप प्रकट हो
जाए। इन्हीं थपेड़ों
में तुम पक
जाओगे। इसी पकान से एक
दिन तुम पाओगे,
आ गए बाहर।
वासना छोड़नी
नहीं पड़ती, वासना
के अनुभव से
एक दिन वासना
छूट जाती है।
और जिस दिन
वासना छूट
जाती है उसी
दिन वही ऊर्जा
जो वासना में
संलग्न थी, मुक्त होती
है; धूप के
धुएं की भांति
आकाश की तरफ
उठती है। और जिस
दिन तुम्हारे
भीतर आकाश की
तरफ उठना शुरू
होता है उस
दिन आकाश भी
तुम्हारे ऊपर
झुकना शुरू हो
जाता है। उस
मिलन का नाम
ही स्वर्ग, मोक्ष, वैकुंठ,
या जो तुम
और नाम देना
चाहो।
चौथा
प्रश्न :
क्या
यह सत्य नहीं
है कि अंत समय
"रामनाम' के
स्मरण से
निश्चय ही
मुक्ति हो
जाती है?
धर्म
इतना सस्ता
नहीं है। काश
धर्म इतना
सस्ता होता तो
फिर कोई जरूरत
ही न थी। फिर
बुद्ध नाहक छह
साल ध्यान की
चेष्टा में रत
रहे। नासमझ
थे! तुम
ज्यादा
समझदार हो।
फिर महावीर
बारह वर्ष मौन
रहे,
पागल थे।
तुम ज्यादा हुशियार!
अंत समय में
एक बार नाम ले
लेंगे राम का।
पहली
बात :
जिन्होंने यह
कहा है, तुम
उनका अर्थ भी
नहीं समझे।
तुम कुछ का
कुछ समझ गए।
तुम अर्थ का
अनर्थ कर लिए
हो। जरूर शास्त्रों
में ऐसे वचन
हैं लेकिन
उनका अर्थ बड़ा
और है।
ज्ञानियों
ने कहा है कि
अंत समय
निर्णायक है। क्योंकि
अंतिम समय में
तुम्हारी नई
जीवनयात्रा
का पहला बीज
पड़ेगा। जब तुम
मर रहे हो, जब
तुम्हारी
मृत्यु आ रही
है तो नए जीवन
का प्रारंभ हो
रहा है। एक
तरफ दरवाजा
बंद हो रहा है,
दूसरी तरफ
दरवाजा खुल
रहा है। तो
अंतिम घड़ी बड़ी
निश्चयात्मक
घड़ी है। उस
घड़ी तुम जो भी
याद करोगे
उसका परिणाम
होने वाला है।
अगर अंत घड़ी तुम
हरिनाम को
स्मरण कर लो
तो निश्चय ही
तुम्हारी
यात्रा
प्रभावित
होगी।
ऐसा
समझो, एक छोटा
प्रयोग करो तो
तुमको समझ में
आ जाएगा। रात
सोते वक्त
जैसे—जैसे
नींद उतरने
लगे, हलकी—हलकी
खुमारी आ
गई है नींद
की। अभी एकदम
सो भी नहीं गए
हो, एकदम
जागे भी नहीं
हो, मध्य
में अटके हो; तब कोई भी एक
विचार
दोहराते रहना
मन में। कोई भी
एक विचार! "दो
और दो चार, दो
और दो चार, दो
और दो चार'——और
इसी को
दोहराते—दोहराते
सो जाना। तुम
बड़े चौंकोगे,
जब तुम सुबह
उठोगे तो जो
पहला विचार
तुम्हें याद
आएगा वह होगा,
"दो और दो
चार; दो और
दो चार।' जो
अंतिम था रात
वही सुबह
प्रथम हो
जाएगा।
ठीक
ऐसा ही मृत्यु
और जन्म के
बीच घटता है
क्योंकि
मृत्यु भी एक
गहरी नींद है।
मरते समय जो
अंतिम विचार
होगा वह जन्म
के साथ पहला
विचार हो
जाएगा। और अगर
हरि—स्मरण से
अंत हो तो हरि—स्मरण
से प्रारंभ
होगा। और
जिसका जीवन
गर्भ में भी
हरि—स्मरण से
प्रारंभ हो
जाए उसके जीवन
में क्रांति
तो हो ही
जाएगी इसमें
कोई शक नहीं।
मगर
तुम कुछ और
मतलब समझ गए
हो। हरि—स्मरण
अंत में कौन
कर सकेगा? वही
कर सकेगा
जिसने जीवनभर
किया हो।
जिसने जीवनभर
दूसरी चीजों
का स्मरण किया
है वह मरते वक्त
हरि—स्मरण कर
सकेगा तुम
सोचते हो? असंभव!
जिसने सदा धन
को ही सोचा, जिसको जीवन
में बस एक ही
संगीत संगीत
मालूम पड़ा——रुपए
की खनखनाहट; और जिसने
सौंदर्य जाना
तो एक——हरे नोट
का सौंदर्य; उस आदमी को
तुम सोचते हो
मरते वक्त हरि—स्मरण
आएगा? नोटों
की गड्डियां
दिखाई
पड़ेंगी।
और
दिखाई पड़नी
बिल्कुल
स्वाभाविक है, तर्कयुक्त
हैं क्योंकि
यही वह जिंदगी
भर इकट्ठा
किया, अब
सब छूटा जा
रहा हैं। इसी
को इकट्ठा
करने में मारे
गए। गड्डियों
पर गड्डियां
दिखाई
पड़ेंगी। वह धन
जो इकट्ठा कर
लिया है वह उसे
दिखाई पड़ेगा।
यह तिजोड़ी
जो छूटी जा
रही है, यह
उसे दिखाई
पड़ेगी। इस अंत
घड़ी में हरि
नाम का वह
स्मरण करेगा
कैसे?
अंत
समय में हरि
नाम का स्मरण
तो तभी संभव
है जब जीवन भर
इसकी तैयारी
की गई हो। तुम
क्या सोचते हो
अचानक वृक्ष
में फल लग
जाएगा? बीज
बोया हो, खाद
डाली हो, पानी
सींचा हो,
वृक्ष पर बागुड़
लगाई हो, वृक्ष
को बचाया हो
हजार
उपद्रवों से——जानवर
हैं, बच्चे
हैं, फिर
तूफान हैं, आंधी हैं, तुषार है, पाला है, ओले
हैं, इन
सबसे बचाया हो
तब कहीं एक
दिन वृक्ष में
फल लगते हैं।
जीवन
भी एक वृक्ष
है। अंत में
हरि—नाम का फल
तभी लग सकता
है जब जीवन भर
उसकी तैयारी
की हो; जब सब
भांति उसका
आयोजन किया
हो। तुम क्या
सोचते हो ऊपर
से कोई चिपका
देगा हरिनाम?
कि तुम मर
रहे हो, कोई
तुम्हारी खोपड़ी
पर लिख देगा
हरिनाम।
ऐसा ही
हो रहा है।
कोई तो मरता
है,
कोई दूसरा
उसके कान में
कह रहा है, "राम जपो राम'। दूसरा कह
रहा है राम
जपो राम। और
उस आदमी को कुछ
भी सुनाई भी
नहीं पड़ेगा।
सुनाई पड़ भी
नहीं सकता है।
लेकिन मतलब
लोगों ने यही
समझ लिया है।
शास्त्र
जब कहते हैं
तो ठीक ही
कहते हैं कि
अंत समय जो
परमात्मा का
स्मरण करेगा
वह मुक्त हो
जाएगा। लेकिन
अंत समय कौन
परमात्मा का
स्मरण करेगा? वही
करेगा अंत समय
परमात्मा का
स्मरण, जिसने
जीवनभर स्मरण
को साधा हो, सम्हाला हो।
लेकिन लोग
अपने मतलब की बात
निकाल लेते
हैं। तुम
शास्त्र थोड़े
ही पढ़ते हो, तुम खुद को
शास्त्र में
पढ़ते हो।
मैंने
सुना, एक
सर्कस कंपनी
ने विज्ञापन
छपवाया कि आज
दिखाए
जानेवाले
सर्कस के शो
में एक
बिल्कुल नया खेल
दिखाया
जाएगा। यह
विज्ञापन
पढ़कर सर्कस देखने
के लिए भीड़
उमड़ पड़ी।
सर्कस शुरू
होने पर
दर्शकों ने
देखा कि एक
सुंदर लड़की ने
ओंठों पर लिपिस्टक
लगाकर सिंह के
पिंजरे में
प्रवेश किया
और सिंह ने
अपनी जुबान
से लड़की के ओठों
की लिपिस्टक
पोंछ डाली।
यह खेल
देखते वक्त
सारे दर्शक
स्तंभित हो
गए। खेल खत्म
होते ही
तालियों की
गड़गड़ाहट से
शामियाना गूंज
उठा। तभी
लाउडस्पीकर
से आवाज आयी, अगर
इसी प्रकार का
खेल करने की
किसी दर्शक की
हिम्मत हो तो
वह सामने आ
जाए। उसे पांच
हजार रुपया
पुरस्कार—स्वरूप
दिया जाएगा।
कुछ समय तो
सन्नाटा छाया रहा,
फिर एक
दुबला—पतला
नौजवान सामने
आया और उसने
चुनौती स्वीकार
कर ली। उसे जब लिपिस्टक
दी गई तो वह
बोला कि मैं
यह चुनौती
स्वीकार करने
के लिए तैयार
हूं। मेरी
शर्त यही है
कि मैं सिंह
की भूमिका निभाऊंगा।
वैसे मेरा नाम
भी सरदार भूटासिंह
है।
ऐसी ही
समझ होती है।
कुछ पढ़ते हो, कुछ
समझते हो।
अपने मतलब की
निकाल लेते
हो। सरदार भूटासिंह
ने कहा, पहले
इस सिंह को
निकाल पिंजड़े
के बाहर करो, फिर मैं
भीतर जाऊंगा
और सिंह की
भूमिका निभाऊंगा।
नाम भी मेरा
सरदार भूटासिंह
है।
तुम
शास्त्र तो पढ़
लेते हो, लेकिन
शास्त्र कैसे पढ़ोगे? तुम्हारे
पास ध्यान
कहां जो
शास्त्र का
अर्थ दे सके? तुम्हारे
पास भक्ति
कहां जो शास्त्र
तुम्हारे
हृदय में गूंज
पैदा कर सके? चालाकी है, बेईमानी है,
पाखंड है, उसी में से
तुम हिसाब
निकाल लोगे।
तुम पूछते हो,
"क्या यह
सत्य नहीं है
कि अंत समय
राम—राम के
स्मरण से
निश्चय ही
मुक्ति हो
जाती है?'
अंत
समय स्मरण वही
आएगा जिसका
स्मरण जीवनभर
रहा है।
मैंने
सुना है, श्री 1008
महर्षि
भूतनाथ मरे। मरणशय्या
पर महर्षि पड़े
थे। शिष्य
इकट्ठे हो गए
थे, सोचते
थे कि कुछ
गहरी बात
कहेंगे। ऐसे जिंदगीभर
ज्यादा बोले
नहीं थे।
क्योंकि
भूतनाथ के गुरु
उनको कह गए थे
कि बोलना भर
मत, नहीं
तो भद्द हो
जाएगी। चुप
रहना! तेरे
चुप रहने में
ही लोग तुझे
बुद्धिमान
समझेंगे। तू बोला
कि फंसा।
सो
भूतनाथ चुप ही
रहे थे। मगर
उनकी चुप्पी
का बड़ा प्रभाव
पड़ा था लोगों
पर। खोपड़ी में
तो उनके बहुत
कुछ चलता था।
खोपड़ी पर
किसका बस!
गुरु भी कहे
तो भी क्या
होनेवाला है!
लेकिन ओंठ वे
बंद रखे थे।
उनकी ख्याति खूब
हो गई थी। कई
उनके शिष्य थे
कि गुरु हो तो
ऐसा! देखो
कैसा मौन बैठा
है! बोलता ही
नहीं। मौनी ही
तो मुनि
कहलाते हैं।
तो उन्होंने
सोचा, मरते
वक्त
प्रार्थना की
कि गुरुदेव, कुछ तो बोल
जाओ! कोई
संदेश दे जाओ।
डोल
रहे थे भूतनाथ
आधे जिंदा, आधे
मुर्दा।
धुंधला—धुंधला—सा
सब था। सब
शिष्य पास आकर,
कान लगाकर
तत्पर हो गए।
सन्नाटा छा
गया। मालूम है
भूतनाथ क्या
बोले? बोले,
अब हम तो जा
रहे हैं, मुन्नीबाई का ध्यान
रखना। हमारी
बड़ी प्रेमी
थी। और मुन्नीबाई
थी गांव की
वेश्या। यही
घूमता रहा
होगा खोपड़ी
में। उस वक्त
भी यही घूम
रहा होगा कि मुन्नीबाई
का क्या होगा! मुन्नालाल
तो चले, मुन्नीबाई का क्या
होगा?
कहां
का हरिनाम! जिंदगीभर
मौन रहे, मरते
वक्त मुन्नीबाई
याद आयी।
लेकिन याद वही
आएगा जो भीतर
चलता रहा है।
मरते क्षण तुम
धोखा न दे
पाओगे।
जिंदगी में
भला धोखा दे
लो, मौत
तुम्हारी
असलियत खोल
देगी।
ऐसा ही
हुआ सेठ चूहड़मल
फूहड़मल
के साथ। पढ़
लिया शास्त्र
में कि अंत
समय हरिनाम ले
लो,
प्रभुनाम ले लो; सो
बेटे का नाम
ही उन्होंने भगवानदास
रख दिया। इतना
तो पक्का था
कि मरते वक्त
बेटे को
बुलाना पड़ेगा
क्योंकि चाबी
भी देनी पड़ेगी,
तिजोड़ी भी संहलवानी
पड़ेगी, आने
के लिए इशारे
भी देने
पड़ेंगे आगे के
लिए। तो इसी
बहाने नाम
परमात्मा का
ले लेंगे।
इसीलिए
तो लोग अपने
बेटों का नाम
भगवान के नाम
पर रखते हैं।
हिंदुओं में, मुसलमानों
में सारे नाम
सदियों से
भगवान के नाम
पर रख गए हैं।
पीछे एक
चालबाजी है।
वह चालबाजी यह
है कि चलो इसी
बहाने जब भी
बुलाया, "भगवानदास!' ऊपरवाले
भगवान
समझेंगे कि
हमको बुला रहा
है। ऐसे वहां
भी खाते में लिखापढ़ी
होती रहेगी। न
बुलाना पड़ेगा,
न कोई भजन—कीर्तन
करना पड़ेगा।
दिन में दो—चार—दस
दफे तो बेटे
को बुलाना ही
पड़ेगा।
मगर
पहले ही से
बात बिगड़ गई। भगवानदास
इसके पहले कि भगवानदास
की तरह जाने
जाते, भग्गू
हो गए। भगवान
ऊपर नाराज
होने लगा।
क्योंकि जब भी
वह बुलाए बाप,
"भग्गू!' बहुत
गुस्सा आए
भगवान को कि
हद्द हो गई! यह
सोचते थे कि खाताबही
में पुण्य
लिखा जाएगा, नरक की
तैयारी होने
लगी।
फिर
मरने का वक्त
आया,
चूहड़मल फूहड़मल
ने भग्गू को
बुलाया, भग्गू
आए भी। अब
जैसे भग्गू
होते हैं वैसे
थे वे। पैंट
पहना था संकरी
मोहरीदार।
छपी छींट की बुशशर्ट
पहने थे।
दिलीप कट बाल कटवाए हुए
थे। चूहड़मल
फूहड़मल
को आग लग गई।
कहा, अरे
भग्गू, नालायक,
उल्लू के
पट्ठे! बाप तो
मर रहा है और
तू हीरो बना
घूम रहा है!
चूहड़मल फूहड़मल अब
तक नरक में
पड़े हैं।
क्योंकि तुम
भगवान को कहोगे
नालायक, उल्लू
के पट्ठे तो
फल पाओगे। ऐसी
बातों में मत
उलझना। ऐसी
झंझटों से दूर
रहना। ऐसे तो
बिना ही पुकारे
चले गए होते
तो भी ठीक था।
और
तीसरी घटना :
एक थे बाबा मुर्दानंद।
"सीताराम—सीताराम' की
रट लगाए रखते।
बस, कुछ भी
कहो वे सीताराम—सीताराम
ही कहते। कोई
कुछ भी कहे, वे सीताराम—सीताराम!
उन्होंने एक
तोता भी पाल
रखा था। वह
तोता भी दोहराता,
सीताराम—सीताराम।'
दोनों में
कभी—कभी तो
बिल्कुल छिड़
जाती
प्रतियोगिता——
"सीताराम—सीताराम।'
तोता भी
कहता, "सीताराम—सीताराम।'
बाबा मुर्दानंद
का गुण ही यह
था कि वे एक
टांग पर
वर्षों खड़े रहे
थे। वही उनकी
खूबी थी, और
उनमें कुछ था
नहीं।
ऐसी खूबियों
से तो लोग
महात्मा हो
जाते हैं। एक
टांग पर खड़े
रहे,
गजब कर
दिया! ऐसे सब
बगुले एक टांग
पर खड़े हैं। और
सब बगुले खादी
पहनते हैं——शुभ्र
सफेद! सब
बगुले गांधीवादी
हैं।
ऐसे
बाबा मुर्दानंद
एक ही पैर पर
खड़े—खड़े बड़े
प्रसिद्ध हो
गए थे। उनकी
देखा—देखी
तोता भी एक
टांग पर खड़ा
रहता था। आखिर
बाबा मुर्दानंद
का तोता था, कोई
साधारण तोता
नहीं था। और
फिर जोश में आ
जाता था। जब
बाबा मुर्दानंद
एक टांग पर
खड़े होकर कहते,
"सीताराम—सीताराम',
तो वह भी एक
टांग पर खड़ा
होकर कहता, "सीताराम—सीताराम।'
इसकी बड़ी
महिमा थी। लोग
आते, इसका
दर्शन करने
आते थे कि
बाबा तो हैं
ही पहुंचे हुए,
तोता भी बड़ा
पहुंचा हुआ
है। तोते बड़े
धार्मिक होते
हैं। और
धार्मिक लोग
बिल्कुल तोते
होते हैं।
फिर
बाबा मुर्दानंद
के मरने का
वक्त आया। ऐसे
तो वे मरे—मराए
थे ही। मगर
मरे—मराए
हो तो भी मौत
आती है। मौत
छोड़ती ही नहीं
पीछा। जिंदों
को भी मारती
है,
मुर्दों को
भी मारती है।
मौत आ गई।
शिष्य भी इकट्ठे
हो गए, बड़ी
भीड़ इकट्ठी हो
गईं पूरी गोबरपुरी
भर गई बाबा मुर्दानंद
के शिष्यों
से। सब आखिरी
संदेश पाने की
इच्छा में
आतुर हैं
संदेश बाबा
कुछ दे जाएं।
जिंदगी भर एक
टांग पर खड़े
रहे। ऐसी
तपश्चर्या न
देखी न सुनी।
और बाबा मुर्दानंद
ने क्या कहा, पता है? उन्होंने
कहा, हाय, मेरे तोते
को चिउड़ा
कौन खिलाएगा?
मियां मिट्ठु
बोल उठा "सीताराम—सीताराम!' और कहते हैं
कि बाबा तो
नरक गए, मियां
मिट्ठु
वैकुंठ चला
गया, क्योंकि
उसने मरते
वक्त "सीताराम—सीताराम!'
बाबा मुर्दानंद
अभी भी नरक
में पड़े सोच
रहे होंगे, मेरे
तोते को चिउड़ा
कौन खिलाएगा?
नरक में
करोगे भी क्या?
जो यहां
सोचा है उसी
की जुगाली
करनी पड़ती है।
खयाल करना, नरक में
जुगाली होती
है। जैसे
भैंसें करती
हैं न जुगाली!
पहले घास चर
लिया, फिर
बैठी, फिर
जुगाली कर रही
हैं। संसार
में चरना हो
जो भी चरना हो,
फिर नरक में
जुगाली करनी
पड़ती है। फिर
उसी—उसी को चरो,
बार—बार चरो।
तोता तो चला गया
मोक्ष।
मगर
मुझे शक है इस
कहानी पर।
तोता भी कैसे
मोक्ष जा सकता
है?
तोते को भी
क्या मतलब सीताराम
से? क्या
प्रयोजन? अर्थ
भी तो पता
नहीं है तोते
को। निरर्थक
इस उच्चार से
क्या होता है?
यंत्रवत
तोता दोहराता
है, "सीताराम—सीताराम'।
तो तुम
यह भी मत
सोचना कि मैं
तुमसे यह कह
रहा हूं कि
अगर जीवनभर
अभ्यास करोगे
"सीताराम—सीताराम—सीताराम', तो
मरते वक्त सीताराम
निकल जाएगा।
वह तोते जैसा
होगा। अभ्यास
का मतलब यह
नहीं है कि
तुम सीताराम
की रटंत लगाए
रखो। अभ्यास
का अर्थ है, तुम
परमात्मा की
प्रतीति को
अनुभव करना
शुरू करो। तुम
उसको धीरे—धीरे
अपने से जोड़ो,
अपने को
उससे जोड़ो।
आकाश
में तारे हों
तो कभी लेटकर
घास पर आकाश के
तारों को देखो——शांत, मौन!
तुम्हें उसकी
छबि थोड़ी—थोड़ी
झलकेगी। जब
बसंत आए और
सुगंधित हवाएं
बहें तो
कभी वृक्षों
के तले जाकर
बैठो, तुम्हें
वहां
परमात्मा की
मौजूदगी थोड़ी
अनुभव होगी।
बसंत उसी की
खबर लाता है।
उसी से गुजरने
के कारण तो
कलियां फूल बन
जाती हैं। वही
पास से गुजरता
है इसलिए तो
मधुमास होता है।
सूरज
उगे सुबह तो "सीताराम—सीताराम' करके
चूक मत जाना।
नहीं तो लोग
बस "सीताराम—सीताराम' कर रहे हैं, सूरज उग रहा
है उसको देख
ही नहीं रहे।
परमात्मा
द्वार पर उग
रहा है और वे सीताराम—सीताराम
में लगे हैं।
सूरज उगे तो
भर आंख देखना।
यह उसका ही
रंग, उसका
ही ढंग, यह
उसकी लाली, यह उसका
प्रकाश!
ऐसा ही
भीतर भी एक
दिन सूरज उगता
है। बाहर के सूरज
को देखते—देखते
भीतर की भी
स्मृति जगेगी, सुधि
जगेगी। रात
आकाश में चांद
हो तो चांद से
थोड़ी गुफ्तगू
करना, थोड़ा
वार्तालाप
करना। संगीत
कहीं हो, सुनना;
डुबकी
मारना।
संगीत
निकटतम ले
जाता है
परमात्मा के
क्योंकि
संगीत में
भाषा नहीं
होती, शब्द
नहीं होते
इसलिए गलत
समझने का उपाय
नहीं होता। न
संगीत सच होता
है न झूठ होता
है, संगीत
बस होता है।
ऐसा ही
परमात्मा भी
है। तुम वीणा
सुनकर डुबकी
मार लेना।
सुनते रहना; सुनते—सुनते
सन्नाटा छा
जाएगा। सुनते—सुनते
तुम्हारे
भीतर की वीणा
भी झंकृत होने
लगेगी। जब
तुम्हारी
भीतर की वीणा
बाहर की वीणा के
साथ झंकृत
होने लगे, तब
तुम्हें अहसास
होगा, क्या
अर्थ है
परमात्मा का।
मैं
तुमसे सीताराम—सीताराम
जपने को नहीं
कह रहा हूं।
मैं कह रहा
हूं कि तुम
जीवन में
जितने उपाय से
हो सके, जितने
ढंग से हो सके,
परमात्मा
को याद करने
के बहाने
खोजो। हर बहाना
उसकी याद का
बना लो। हर
बहाने से उसे
पुकार लो। हर
बहाने से अपने
और उसके बीच
धीरे—धीरे
सेतु बनाते
जाओ तो एक दिन
मृत्यु की घड़ी
में उसके
अतिरिक्त और
कोई भी न
बचेगा। सब छूट
जाएगा। वही
संगी है, वही
साथी है।
फिर
तुम तोते की
तरह,
मियां मिट्ठु
की तरह सीताराम—सीताराम
नहीं कहोगे।
कहना ही नहीं
पड़ेगा। कहने
की बात है क्या?
कुछ
दोहराने की
बात है क्या? लेकिन
तुम्हारा
अंतस्तल भावाभिभूत
होगा, उसकी
सुवास से भरा
होगा। तुम
उसके संगीत
में डूबे—डूबे
विदा हो
जाओगे। और जो
उसके संगीत
में डूबकर
विदा हो गया
उसके लिए
मृत्यु अमृत
बन जाती है।
उसके लिए देह
से छूटना दुःख
का कारण नहीं
होता, आनंद
का कारण होता
है। उसे देह
से छूटने का
अर्थ मुक्ति
होती है, स्वातंत्र्य
होता है, परम
स्वतंत्रता
होती है। पूरा
आकाश अपना हुआ।
एक छोटे—से घड़े
में बंद थे, उससे मुक्त
हो गए। सारा
विराट अपना
हुआ। एक छोटे
आंगन से छूटे
और सारा आकाश
अपना। खोया
कुछ भी नहीं, पाया सब। और
वह आंगन भी इस
सारे आकाश में
सम्मिलित है
ही; इसलिए
वह कहीं गया
नहीं।
ऐसे
आनंद—भाव से
नाचते हुए, मस्त,
मगन, तृप्त,
संतुष्ट, एक गहरे
परितोष में
अगर डूबते—डूबते
तुम विदा हो
जाओ तो इसका
नाम है प्रभु—स्मरण।
मगर
तुम तो
शास्त्रों को
अपने हिसाब से
समझ लेते हो।
तुम
शास्त्रों पर
थोड़ी दया करो।
शास्त्रों का
अर्थ भी समझना
हो तो
शास्ताओं से
पूछो, खुद
अर्थ मत लगाओ।
तुम्हारी
चालबाजी, तुम्हारा
पाखंड, तुम्हारी
बेईमानियां,
तुम्हारी होशियारियां
शास्त्र के
शब्दों को भी इरछा—तिरछा
कर देंगी। उन
पर ऐसी
व्याख्या
आरोपित कर देंगी
कि अगर कृष्ण
की किताब होगी
तो कृष्ण सिर
पीट लेंगे और
बुद्ध की
किताब होगी तो
बुद्ध सिर पीट
लेंगे।
लोगों
ने ऐसे—ऐसे
अर्थ लगा लिए
हैं कि कृष्ण
जरूर सोचते
होंगे कि अगर
मैं चुप ही
रहा होता तो
अच्छा था। कम से
कम अनर्थ तो न
होता। अब गीता
की एक हजार
टीकाएं हैं।
जिसको जो मन
हो वैसा अर्थ
लगाओ। जिसको
जो अर्थ डालना
हो डाल दो। और
कैसा मजा है, विपरीत
अर्थ लोग
निकालते हैं।
कोई कहता है
अद्वैतवाद है
गीता में, कोई
कहता है
द्वैतवाद है;
और दोनों
अपना अर्थ
निकाल लेते
हैं। शंकराचार्य
अपना अर्थ
निकाल लेते
हैं, रामानुज
अपना अर्थ
निकाल लेते
हैं, निंबार्क
अपना, वल्लभ
अपना। सब अपना
अर्थ निकाल
लेते हैं।
यह तो
खूब मजा हुआ!
या तो गीता
में कोई अर्थ
है ही नहीं, इसलिए
जिसकी जो
मर्जी हो
निकाल लो। या
फिर गीता इतना
काव्यपूर्ण
वक्तव्य है कि
उसमें अर्थ
तरल हैं, बहते
हुए हैं। तुम
जब तक तरल न हो
जाओगे, बह
न जाओगे उसके
साथ तब तक तुम
जो भी निकालोगे,
गलत होगा।
गीता
तुम्हारे
चित्त की
शून्यता में
प्रकट हो तो
ही अर्थ का
अनुभव होगा।
अगर तुमने
विचारपूर्वक
अपनी बुद्धि
लगाकर गीता के
अर्थ निकाले
तो तुमने गीता
के साथ अनाचार
किया, बलात्कार
किया।
मैंने
बहुत गीता की
टीकाएं देखी
हैं उनमें से
अधिकतम बलात्कार
हैं,
जबरदस्ती
है, तोड़—मरोड़
है। अर्थ पहले
से ही तय किए
बैठा है आदमी,
अब गीता का
भी सहारा लेना
है। तो जिसको
निकालना हो
वही निकाल लो।
शंकराचार्य
ने संन्यास निकाल
लिया गीता में
से, कि सब
छोड़ा——अकर्म।
लोकमान्य तिलक
को कर्म
निकालना था, कर्म निकाल
लिया——कि जूझो!
छोड़ना नहीं है,
कर्म से ही
मुक्ति है।
तुम
जरा देखो तो, जिसकी
जो मर्जी!
जीसस के वचनों
के साथ यही
हुआ है, मुहम्मद
के वचनों के
साथ यही हुआ
है। यह सभी के
वचनों के साथ
हुआ है
क्योंकि आदमी
सब तरफ एक—सा
बेईमान है। वह
हिंदू हो कि
मुसलमान कि
जैन कि बौद्ध,
कुछ फर्क
नहीं पड़ता।
बुद्धि
बेईमान है।
बुद्धि से
अर्थ मत निकालो।
हृदय
ईमानदार है।
हृदय को ही
ईमान का पता
है। हृदय
श्रद्धालु
है। मगर
तुम्हारा
हृदय तो सोया
पड़ा है; उसे
जगाओ। जब हृदय
जगेगा तो
तुमसे कभी भूल
न होगी। तब तुम
चकित हो जाओगे,
जिंदगी की
किताब में से
तुम्हें अर्थ
मिलने लगेंगे।
एक पत्ता सूखकर
गिरेगा और
तुम्हारे
सामने
शास्त्रों के
सार खुल
जाएंगे। एक
कली चटकेगी
और फूल बनेगी
और तुम्हारे
सामने उपनिषद्
नाच उठेंगे।
एक पक्षी आकाश
में उड़ेगा
और वेदों की
सारी सुवास
बिखेर जाएगा।
रामकृष्ण
को पहली समाधि
अनुभव हुई थी, काली
घिरी थी घटा।
आषाढ़ के दिन!
बादल नए—नए आए
थे। घुमड़कर
घिरी थी घटा।
और रामकृष्ण
चले आ रहे थे, खेत से लौट
रहे थे। और
बगुलों की एक
कतार सरोवर के
किनारे.....रामकृष्ण
के आने की वजह
से, बगुले
बैठे होंगे, उड़े।
बगुलों की एक
शुभ्र कतार.....होंगे
दस—पंद्रह
बगुले। पीछे
काली घटा, उसमें
से गुजर गई
बगुलों की
कतार, जैसे
बिजली कौंध
जाए।
रामकृष्ण
वहीं गिर पड़े जमीन
पर आनंद—मग्न
हो, विभोर
हो। समाधि लग
गई।
यह
पहली समाधि
है। वेद पढ़ते
हुए नहीं लगी
थी,
गीता सुनते
हुए नहीं लगी
थी। "सीताराम—सीताराम' जपते हुए
नहीं लगी थी ।
अजीब समाधि
लगी!
घर
उठाकर लाए गए।
तरंगित हो रहे
थे। रोआं—रोआं
नाच रहा था।
घंटों बाद आंख
खुली। पूछा, क्या
हुआ? रामकृष्ण
ने कहा, मैं
वही नहीं हूं
जो था। पुराना
गया! मैं कुछ और
ही हो गया
हूं। कैसे हुआ,
नहीं
जानता। बस
इतना ही कह
सकता हूं कि
बगुलों कि
कतार उड़ी।
लोगों ने कहा,
पागल!
बगुलों की
कतार तो हम भी
उड़ते देखते
हैं, हम को
नहीं हुआ!
काली घटाएं
हमने भी देखी
हैं, तू
कोई नया है? तेरी उम्र
भी क्या!
हमारी तो
जिंदगी हो गई।
रामकृष्ण
की उम्र कुल
तेरह वर्ष थी।
तब। फिर हुआ
कैसे यह? दूसरों
ने भी बगुले
देखे थे उड़ते,
काली घटाएं
भी देखी थीं, मगर नहीं
हुआ था।
बुद्धि बीच
में पर्दा थी।
रामकृष्ण भोलेभाले
थे, बहुत
सरल—चित्त थे;
एकदम सीधे—सादे
थे। हृदय से
देखा गया।
हृदय की आंख, और बगुलों
का उड़ना, और यह सफेद
चांदी की
कतार! यह
बिजली का कौंध
जाना! यह
सौंदर्य!
अभिभूत हो गए।
गिर पड़े भूमि
पर। आंखों से
आनंद के आंसू
बहने लगे। लोटने
लगे आनंद में।
नृत्य शुरू हो
गया।
यही
नृत्य बढ़ते—बढ़ते
उन्हें
परमहंस के पद
तक ले गया। बेपढ़े—लिखे
थे। दूसरी
कक्षा तक पढ़े, लेकिन
बड़े—बड़े
ज्ञानी फीके
पड़ गए। बड़े—बड़े
पंडित दो कौड़ी
के हो गए।
रामकृष्ण की
महिमा हृदय की
महिमा है। सभी
संतों की
महिमा हृदय की
महिमा है।
तुमसे
मैं इतना ही
कहूंगा, शास्त्र
में क्या लिखा
है इसको
बुद्धि से व्याख्या
मत करना, अन्यथा
चूकोगे।
पहले बुद्धि
को विदा करो, पहले बुद्धि
को नमस्कार
करो, पहले
बुद्धि को हटाओ
और फिर
शास्त्र हो कि
जीवन हो, कहीं
से भी
परमात्मा
पुकारेगा, आवाज
सुनाई पड़ेगी।
परमात्मा
पुकार ही रहा
है,
प्रतिपल
पुकार रहा है।
हर घड़ी उसकी
पुकार तुम्हारे
द्वार पर आती
है। उसके हाथ
तुम्हारे हृदय
पर हर बार
दस्तक देते
हैं मगर तुम
वहां नहीं हो।
तुम कहीं और
हो। तुम सिर
में भटक गए
हो। तुम
विचारों के
जंगल में खोए
हो। तुम अपने
घर पाए ही
नहीं जाते। और
परमात्मा को
तुम्हारा एक
ही पता याद है——तुम्हारा
हृदय। वह वहीं
आता है। वह
बेचारा वहीं खोजे चला
जाता है। और
मिलन हो नहीं
पाता। तुम
अपने हृदय में
उपस्थित हो
जाओ, मिलन
होगा। मिलन
सुनिश्चित
है।
आज
इतना ही।
THANK YOU GURUJI
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