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शनिवार, 26 सितंबर 2015

मेरा स्‍वर्णिम भारत--(प्रवचन--28)

गुरु स्‍वयं एक उपाय है—(प्रवचन—अट्ठाइसवां)

प्यारे ओशो।
शादयायनीय उपनिषद्स की महिमा इस प्रकार गाता है:

गुरुरेव परौ धर्मो गुरूरेव परा गति:।
एकाक्षर प्रदातमम् नाभिनन्दति।
तस्‍य श्रुत तपो ज्ञानं स्रवत्यामघटाम्‍बुवत्।।

गुरु ही परम धर्म है, गुरु ही परम गति है।
जो एक अक्षर के दाता गुरु का आदर नहीं करता
उसके श्रुत, तप और ज्ञान धीरे—धीरे ऐसे ही
क्षीण होकर नष्ट हो जाते हैं
जैसे कच्चे घड़े का जल।
प्यारे ओशो! क्या ऐसा ही है?

स्‍वरूपानंद, सत्य को अभिव्यक्ति देनेवाले शब्द दुधारी तलवार की भांति हैं। उनसे रक्षण भी हो सकता है, भक्षण भी। वे जीवन के लिए पाथेय बन सकते हैं—मार्ग, इशारा—और जीवन पर बोझ भी बन सकते हैं, भार भी बन सकते हैं। इतना भार कि उनके नीचे दबी आत्मा की मुक्ति असंभव हो जाए। इसलिए जिन्होंने जाना है उन्होंने कहा : सत्य की खोज पर निकलना खड्ग की धार पर चलने के समान है। जैसे कोई नंगी तलवार पर चलता हो। बहुत सावधानी की जरूरत है। जरा असावधानी, जरा चूक और जन्मों के लिए भटकाव हो जाए। जितनी ऊंचाई से तुम गिरोगे उतना ही खतरा है। और सत्य तो आकाश में उड़ता हुआ पक्षी है। गौरीशंकर के शिखर भी बहुत पीछे छूट जाते हैं। बदलिया भी नीचे रह जाती हैं। वहां एक—एक श्वास सावधानी की होनी आवश्यक है।
यह सूत्र उन खतरनाक सूत्रों में से एक है, जिन्हें गलत समझ लो तो जहर हो जाएं और ठीक समझ लो तो अमृत। और गलत समझ लेना सदा आसान है। क्योंकि गलत समझ तो हम सबके पास है। समझ को ठीक करना तो साधना से संभव होता है—ध्यान से, चैतन्य को निखारने से, धोने से, स्वच्छ करने से। गलत समझ सभी के पास है, उपलब्ध ही है।
यह सूत्र गुरु की महिमा के संबंध में प्रतीत होता है, असल में यह शिष्यत्व की महिमा का सूत्र है। गुरु तो बहाना है। मगर न शिष्य समझे, न गुरु समझे। शिष्यों ने इस सूत्र को गुरु की पूजा—आराधना का आधार बना लिया। और तथाकथित गुरुओं ने इसे शोषण का उपाय समझ लिया—सहारा मिल गया उपनिषदे का, वेदों का, कुरान का, बाइबिल का।
यह बात तुम पहले से ठीक से ध्यान में ले लेना। मैं चाहूंगा, दोनों अर्थ तुम्हारे सामने साफ हो जाएं। देखने में तो यही लगता है कि उपनिषद् कह रहा है— गुरुरेव परौ धर्मो गुरुरेव पर? गति:; गुरु ही परम धर्म है, गुरु ही परम गति है—गुरु की महिमा गा रहा है! इसलिए स्वरूपानंद ने पूछा कि उपनिषद् गुरु की महिमा इस प्रकार गाता है। मैं तुमसे कहना चाहता हूं इसमें गुरु की महिमा की बात ही नहीं है। गुरु तो बहाना है, निमित्त मात्र है। और बहाने की इसलिए जरूरत है कि बिना बहाने के तुम अपने अहंकार का समर्पण न कर सकोगे। तुमने अहंकार—स्व झूठ अपने भीतर पाल रखा है। तुम इसे सच ही मानकर चल रहे हो। और मानकर चल रहे हो, इसलिए यह सत्य ही हो गया है। तुम्हारे लिए तो सत्य ही हो गया है। जब तुम किसी सद्गुरु के पास पहुंचोगे, किसी बुद्ध के पास, किसी कृष्ण के पास, तो वह तुम्हें कहेगा : छोड़ दो यह अहंकार, क्योंकि यही बाधा है तुम्हारे और परमात्मा के बीच, इसके अतिरिक्त और कोई दीवाल नहीं है; यह हट जाए तो द्वार खुल जाए; यह मिट जाए तो सेतु बन जाए; यह है तो परमात्मा नहीं है। इसलिए कृष्ण ने कहा : मामेकं शरणं व्रज। हे अर्जुन, तू मेरी शरण आ!
जो कृष्ण—विरोधी हैं, वे कहेंगे, यह तो कृष्ण का अहंकार हुआ। कोई आदमी यह कहे कि मेरी शरण आ, अब और क्या प्रमाण चाहिए अहंकार के! खुद अपने मुंह से कहे कि मेरी शरण आ; मामेकं शरणं व्रज, मुझ एक की शरण आ, किसी और की शरण न चले जाना! मगर कृष्ण असल में केवल इतना ही कह रहे हैं कि तुमने जिस अहंकार को सत्य मान रखा है, उसे तू मुझे दे दे, मैं ले लेता हूं। क्या को तो पता है : अहंकार है ही नहीं। न कुछ देने को है, न कुछ लेने को है। मगर शिष्य तो मानकर जी रहा है कि अहंकार बहुत कुछ है, उसकी सारी संपदा और प्राण वही है, उसकी आत्मा वही है। वह तो गुरु के प्रेम में ही शायद छोड़ पाए तो छोड़ पाए। वह भी—'शायद' अर्जुन ने भी बहुत बचने की चेष्टा की, बचाव किया, हजार तर्क खोजे, हजार बहाने बताए—यह भी शर्त पूरी करने को कहा कि पहले मुझे अपना विराट रूप तो दिखाओ! मैं यह तो जानूं कि तुम परमात्मा हो! कोशिश एक ही थी कैसे छोड़ दूं अपना अहंकार तुम्हारे चरणों में! पहले मुझे आश्वस्त तो करो कि यही हैं वे चरण जिनमें मैं अपने अहंकार को समर्पित करूं!
पूरी गीता में अर्जुन अपने अहंकार को बचाने की चेष्टा कर रहा है और कृष्ण उसके अहंकार को मिटाने की चेष्टा कर रहे हैं, और मजा यह है कि अहंकार है ही नहीं। न बचाए बचता है, न मिटाए मिटता है। हो तो मिटे, हो तो बचे। मगर क्या को दिखायी पड़ता है कि नहीं है। पर आज अर्जुन को कैसे एकदम से कहो कि नहीं। असम्भव होगा उसके लिए यह समझना। वह छोटा—सा बच्चा जो अपनी गुड़िया को छाती से लगाए दिनभर घूमता रहता है, मां देखती है कि थक गया है, परेशान हो रहा है, गुड़िया वजनी है; मां समझाती है कि अब गुड़िया को सुला देने का समय हो गया, आखिर गुडिया को भी सोना होगा, न तू भी सोता है, न गुड़िया को....... दिन भर जगाए रखेगा तो मर ही न जाएगी, लिटा दे बिस्तर पर! सर्दी भी है, कम्बल ओढा दे, लोरी मैं गाए देती हूं सो जाने दे! मां तो भली— भांति जानती है कि गुड़िया का क्या सोना और क्या जागना, मगर इस पागल का छुटकारा कैसे कराओ! नहीं तो यह गुड़िया को लादे फिरेगा!
मेरे एक अमरीकी संन्यासी हैं एक बन्दूक लिये घूमते थे। और उसको छिपाए रखते थे। मगर बड़ी बन्दूक थी, लाख छिपाए तो भी दिखाई पड़ जाती थी लोगों को। और छिपाने की कोशिश के कारण और लोगों को सन्देह हुआ कि बात क्या है? बन्दूक छिपानी क्यों? अगर रखनी है तो रखो मगर छिपाने की क्या कोशिश? वह एक बड़े झोले में उस बन्दूक को रखकर कन्धे पर लटकाए रखते थे। लेकिन किसी ने झांककर देख लिया। और उसने देखा कि वह बाजार में भी जाते हैं तो बन्दूक झोले में लटकाए रखते हैं। उन मित्रों ने शीला को खबर की कि यह आदमी खतरनाक मालूम होता है। यह आदमी बन्दूक लिये चलता है। शीला ने उस बेचारे संन्यासी को बुलाया और कहा कि भई, दिन—रात बन्दूक रखने का क्या प्रयोजन है?...... तब भी वह झोला अपने कन्धे पर लटकाए थे।....... वह आदमी कहने लगा, मैं ऐसी मुसीबत में हूं कि जिसका हिसाब नहीं। न लटकाऊं तो बनती नहीं, लटकाऊं तो मुसीबत है। ये मेरे छोटे छोकरे को देखती हो? यह असली बन्दूक नहीं है, खिलौना है—निकालकर उन्होंने बन्दूक बतायी, खिलौना है—मगर इतनी बड़ी है कि इससे ढोयी नहीं जाती। और यह दुष्ट बिना इस बन्दूक के हिलता नहीं! जब तक यह बन्दूक साथ न हो, यह चलनेवाला नहीं। और मैं फंस गया हूं इसको यहां ले आया हूं! मैंने सोचा था कि इसकी भी यात्रा हो जाएगी, मगर यह मेरी जान लिये ले रहा है! रात को भी उठ—उठकर देख लेता है कि बन्दूक इसके बिस्तर पर लेटी है कि नहीं? और बन्दूक इतनी बड़ी है कि खुद तो लेकर चल सकता नहीं, सो मुझे लेकर चलना पड़ रहा है। बाजार में भी लोग देखते हैं गौर से मुझे कि यह आदमी बन्दूक क्यों लिए है? और चूंकि लोग गौर से देखते हैं, मैं छिपाता हूं। मैं छिपाता हूं तो लोग और गौर से देखते हैं। और मैं छिपाता हूं तो यह छोकरा झोले में झांक—झांककर देखता है कि बन्दूक है या नहीं?
बुद्ध ने कहा : सद्गुरुओं का एक ही काम है—बच्चों के लिए उपाय खोजना—डिवाइसेज। वे उपाय उतने ही झूठ होते हैं जितने बच्चों के खिलौने। जैसे एक कांटे से हम दूसरे कांटे को निकाल लेते हैं और फिर दोनों काटो को फेंक देते हैं, वैसे ही एक झूठ एक दूसरे झूठ को निकाल जाता है और फिर दोनों को फेंक दिया जाता है।
अब मां को तो पता है कि बोझ ही ढो रहा है यह बच्चा! मगर करो क्या! इस बच्चे को अभी यह समझाना कि यह सिर्फ खिलौना है, गलत होगा, बेमानी होगा; इसे समझ में न आएगा, यह रोएगा; इसके लिए तो कोई उपाय खोजना पडेगा।
गुरु की तरफ से तो बात साफ है कि अहंकार नहीं है। अगर गुरु भी मानता हो कि अहंकार है, तो अभी गुरु नहीं है। गुरु तो वही है जिसे पता चल गया है कि मैं नहीं हूं केवल परमात्मा है; केवल भगवत्ता है। मैं नहीं हूं भगवान है। जैसा गुरु को पता चल गया है, वैसा ही पता चलवाना चाहता है शिष्य को भी, मगर अभी शिष्य तो बहुत दूर है; उस शिखर को छूना अभी दूर है; अभी तो जो नहीं है, उसको पकड़े बैठा है। लेकिन जो नहीं है, वह भी जब तुम पकड़े होते हो—और जोर से पकड़े होते हो—तो उसे छुड़ाने के लिए कोई उपाय करना होगा। गुरु खुद को भी उपाय बना लेता है। वह कहता है : ठीक, मैं सम्हालकर रख लूंगा, तू अहंकार को मुझे दे दे। क्या तू सोचता है, तेरे पास ज्यादा सुरक्षित है? मेरे पास ज्यादा सुरक्षित होगा। मैं इसकी ज्यादा साज—सम्हाल कर लूंगा।
गुरु की सारी चेष्टा यह है कि शिष्य में श्रद्धा जगाए, प्रेम उमगाए—इतना प्रेम, इतनी श्रद्धा कि वह अपने इस अहंकार को, जो प्राणों से भी प्यारा है उसे गुरु के चरणों में रख दे। रखते ही राज खुल जाएगा। रखते ही शिष्य को भी पता चल जाएगा कि जो उसने रखा है, वह है नहीं। कहते हैं न : 'मुट्ठी बंधी हो तो लाख की, खुल जाए तो खाक की!' वह ठीक है बात। वह कहावत जिसने भी ईजाद की हो, खूब जानकर ईजाद की है।बंधी मुट्ठी लाख की,' वह जब तक भीतर छिपाया हुआ था अहंकार तब तक लाख का था। मुट्ठी बंधी थी।खुली मुट्ठी खाक की।गुरु के चरणों में रखकर उसको भी तो दिखायी पड़ जाएगा कि क्या चरणों में रखा है? कुछ भी तो नहीं! था ही नहीं जो!
गुरु का काम है : शिष्य से उसको छीन लेना जो उसके पास नहीं है। और दूसरा काम है : उसे वह दे देना जो उसके पास है ही। गुरु का काम बड़ा बेबूझ है, अटपटा है। जो नहीं है, उसे छीनना है और जो है, जो है ही, उसे देना है। अहंकार को लेना है और आत्मा को देना है। और मजा यह है कि अहंकार है ही नहीं, आत्मा ही है। मगर तुम जब तक अहंकार को माने हो, जब तक 'नहीं' पर तुम्हारी आंखें टिकी हैं, तब तक 'है' का तुम्हें दर्शन न होगा।
इसलिए गुरु स्वयं ही एक उपाय है।
पतंजलि ने बहुत अद्भुत सूत्र कहा। पतंजलि ने तो मनुष्य के जीवन में क्रांति लाने के लिए जो विधियां बतायी हैं, ईश्वर को भी उस विधियों में एक विधि माना है। पतंजलि यह कहते ही नहीं कि ईश्वर है या नहीं—यह सवाल ही नहीं है—ईश्वर भी एक आलम्बन है अहंकार को छोड़ने का। मान लो तो पत्थर भी काम का हो जाता है, और न मानो तो स्वयं बुद्ध भी सामने खड़े हों तो किस काम के। मान लो तो पत्थर की मूर्ति भी बुद्ध की जीवन में क्रांति ले आए। क्यों? क्योंकि पत्थर की भूतइr के सामने भी अहंकार चढ़ाया जा सकता है। हालांकि जरा कठिनाई होगी; क्योंकि पत्थर की भूइrत न समझाएगी, न तर्क करेगी, न तुम्हारे तर्कों का खंडन करेगी, न तुम पर चोट करेगी; मगर अगर तुम्हारा भाव गहरा हो, तुम्हारी प्रीति गहरी हो, तुम्हारी श्रद्धा गहन हो, तो पत्थर की ग्रतइr के सामने भी रख दे सकते हो। और वहीं मुट्ठी खुल जाएगी। और वहीं पता चल जाएगा कि अहंकार तो था ही नहीं, मैं एक झूठ के साथ जी रहा था। मैंने एक सपने को अपने भीतर सजा रखा था। मैं सपने में ही जीता था, उठता था, बैठता था, चलता था। सपना टूट गया, नींद खुल गयी।
यह तो मूल प्रयोजन है इस सूत्र का। यह गुरु की महिमा नहीं, अहंकार का खंडन है।
गुरुरेव परौ धर्मो गुरुरेव परा गति:।
गुरु ही परम धर्म है। क्योंकि अहंकार छूटा कि तुम्हें अपने स्वभाव का पता चला। धर्म का अर्थ होता है स्वभाव—न हिंदू न मुसलमान, न ईसाई, न जैन, न बौद्ध। ये सम्प्रदाय हैं, धर्म नहीं। ये अलग—अलग सम्प्रदाय हैं धर्म तक पहुंचने के। दुनिया में कोई तीन सौ सम्प्रदाय हैं। सब धर्म तक पहुंचते हैं। तीन सौ रास्ते हैं। सम्प्रदाय का मतलब : रास्ता, मार्ग, नाव, घाट। किस घाट उतरे, क्या फर्क पड़ता है! घाट बहुतेरे; नदी तो एक है।नदी एक घाट बहुतेरे।इस पार से उस पार चले गये, किस नौका में बैठे इससे भी क्या फर्क पड़ता है! नौका इस रंग की थी कि उस रंग की, कि यह झंडा लगा था नौका पर कि वह झंडा लगा था, क्या फर्क पड़ता है! नौका वह जो उस पार ले जाए—कि कोई घाट हो, कोई तीर्थ हो....... तीर्थ का मतलब होता है, घाट ही....... कोई तीर्थ हो, कोई घाट हो, कोई तीर्थकर हो, कोई मल्लाह हो!....... तीर्थंकर का मतलब होता है : मल्लाह; माझी, नाविक, जो तुम्हारी नाव को खेकर ले जाए इस पार से उस पार!....... कोई हो, महावीर कि बुद्ध, कि कृष्ण, कि क्राइस्ट, कि मुहम्मद, चलेगा, क्या अंतर है! उस पार पहुंच जाओ।
धर्म है : स्वभाव। और हमें पता नहीं कि हम कौन हैं। हम कुरान खोले बैठे हैं, पुरान खोले बैठे हैं और हमें पता नहीं कि हम कौन हैं। हम शास्त्र पढ़ रहे हैं और हमें पढ़नेवाले का भी पता नहीं। हम सिद्धात समझ रहे हैं और हमारे भीतर जो समझ का सूत्र है उससे भी हमारी पहचान नहीं है। और वही है धर्म। धर्म का अर्थ है : अपने को जान लेना; अपने स्वभाव को पहचान लेना; अपने चैतन्य से परिचित हो जाना।
गुरु ही परम धर्म है। गुरु का अर्थ है : वह, जो अपने स्वभाव से परिचित हो गया है। जिसने आत्मसाक्षात्कार कर लिया है। आत्मसाक्षात्कार को उपलब्ध व्यक्ति के पास—काश, तुम अपने अहंकार को समर्पित कर सको तो उसके दर्पण में—उसके निर्मल दर्पण में तुम्हारी छवि झलक जाएगी। उसके दर्पण में तुम पहली बार अपने मौलिक स्वरूप को पहचान पाओगे। उसकी वीणा का संगीत जब उठा है—काश, तुम अपने अहंकार को, अपनी मन—बुद्धि को उसके चरणों में रख दो तो तुम शून्य हो जाओगे। उस शून्य में उसकी वीणा के स्वर तुम्हारे भीतर भी प्रवेश करने लगेंगे।
वैज्ञानिकों ने प्रयोग किये हैं। एक बंद कमरे में एक कोने में वीणा बजाता है कोई और दूसरे कोने में वीणा सिर्फ टिकाकर रख दी है, कोई बजा नहीं रहा, कोई बजानेवाला नहीं है। लेकिन कमरा बंद है, कमरे में कोई सामान नहीं है ताकि वीणा के स्वरों में कोई अवरोध न हो। वीणावादक वीणा बजाता है और हैरानी की बात है कि दूर दूसरे कोने में रखी वीणा के तार झनझनाने लगते हैं। एक वीणा बजती है, दूसरी वीणा के तार बिना बजाए बजने लगते हैं।
बस यही घटना गुरु और शिष्य के बीच घटती है। गुरु बज उठा है, उसकी बांसुरी बज गयी, शिष्य को अभी बजना है। बजने की क्षमता उसकी उतनी ही है जितनी गुरु की। गीत उसके भीतर उतने ही हैं, संगीत उसके भीतर उतने ही हैं, उसके प्राणों में उतना ही आलोक है, उसके भीतर वही साम्राज्य है, वही उसका स्वभाव है जो गुरु का, जरा भी भेद नहीं, रंच मात्र भेद नहीं। लेकिन किसी बजती हुई वीणा के पास अगर वह बैठ जाए तो शायद उसे अपनी स्मृति आ जाए, अपनी याद आ जाए; शायद उसके भीतर भी हृदयतंत्री पर कुछ झंकार हो जाए, कोई चोट पड़ जाए।
एक बुझे दीये को हम जले हुए दीये के करीब ले आते हैं—और एक क्रांति घट जाती है। बुझा दीया जैसे—जैसे जले दीये के करीब आता है वैसे—वैसे संभावना जले दीये से ज्योति के बुझे दीये में उतर जाने की बढ़ती जाती है। और फिर आती है वह अभूतपूर्व घड़ी, वह क्रांति का क्षण, जब अचानक छलांग लग जाती है। जला दीया अपनी ज्योति से बुझे दीये को जला देता है। और मजा यह है कि जला दीया कुछ खोता नहीं और बुझे दीये को सब कुछ मिल जाता है।
आध्यात्मिक जीवन का सारसूत्र यही है : देनेवाले का कुछ जाता नहीं और लेनेवाले को सब कुछ मिल जाता है।
यह गुरु की महिमा नहीं, शिष्य की ही महिमा है। लेकिन फिर क्यों, उपनिषद् का ऋषि शिष्य की ही महिमा लिख देता, शिष्यत्व की महिमा लिख देता! खतरा था उसमें भी, खतरा है इसमें भी। उसमें और भी ज्यादा खतरा था। कम खतरे को चुना है। जब दो खतरे हों तो कम खतरे को ही चुनना चाहिए। शिष्य की महिमा में खतरा था कि अहंकार शिष्य का और मजबूत हो जाए। जिसकी बहुत सम्भावना है, क्योंकि शिष्य के पास अभी तो अहंकार ही है। गुरु की महिमा में खतरा है—सिर्फ उन गुरुओं को खतरा है जो सच में ही गुरु नहीं। जो सच में गुरु हैं, उनको तो कोई भी खतरा नहीं है। जिसने अपने अहंकार को देख ही लिया है, उसकी असत्ता देख ली है, उसके लिए तो कोई खतरा नहीं। उसकी तुम कितनी ही महिमा गाओ, उसके चरणों में सिर रखो, फूल चढ़ाओ, उसकी आरती उतारो, कुछ फर्क नहीं पड़ता। खतरा तो उसको है जो मिथ्या गुरु है। मगर जो मिथ्या ही है, उसके खतरे की क्या चिंता करना, वह तो खतरे में है ही। और जो मिथ्या नहीं है, उसकी क्या चिंता करना, वह तो खतरे के बाहर हो ही गया; अब कोई उपाय नहीं है उसे खतरे में वापिस लाने का।
लेकिन अब और खतरा है, वह यह कि शिष्य अपने अहंकार को तो न छोडे सिर्फ गुरु के गुणगान करने लगे। वह छोटा खतरा है। उतना बड़ा खतरा नहीं है जितना शिष्य का अहंकार मजबूत हो जाए।
इस सूत्र में यह खतरा है, कि सुनकर गुरुरेव परौ धर्मो गुरुरेव परा गति:, कि गुरु ही परम धर्म और गुरु ही परम गति, तुम सोचो कि अब क्या करना! अब तो गुरु की पूजा, आरती उतारेंगे, अर्चना करेंगे, वंदना करेंगे, गुरु का नाम स्मरण करेंगे, गुरु— भक्ति करेंगे। बस, चूक गये तुम! बात चूक गये! तुम्हारा तीर जगह पर न लगा!
मैंने डायोजिनीज के संबंध में सुना है। यूनान का एक बहुत मस्त फकीर हुआ। एक बाजार में तीरंदाज अपनी कला दिखला रहा था—सिक्खड़ ही था। दिखाने का शौक ज्यादा था, अभी दिखाने योग्य कुछ था नहीं। तीर तो मारता था लेकिन निशाने पर एक तीर लगता नहीं था। कोई तीर इस तरफ चला जाता, कोई उस तरफ चला जाता, कोई बीच में ही गिर जाता, कोई पार निकल जाता, कोई तीर ऊपर उड़ जाता, कोई नीचे गिर जाता। डायोजिनीज गया और जहां उसने तीर के लिए निशाना बना रखा था, एक तख्ती टांग रखी थी, उसके नीचे बैठ गया। भीड़ ने कहा, पागल हो गये हो, डायोजिनीज? तुम्हें कभी अकल आएगी या नहीं? डायोजिनीज इस तरह के कामों के लिए प्रसिद्ध था। बड़ा फक्कड़ आदमी था। उसकी बहुत प्यारी कहानियों में एक कहानी यह भी है—कि वह बैठ गया वहां नीचे। भीड़ ने कहा, तुम पागल हो गये हो? डायोजिनीज ने कहा, पागल तुम हो! क्योंकि यह आदमी जिस तरह का तीरंदाज है, यह जगह सबसे ज्यादा सुरक्षित है। यहां इसका तीर आनेवाला नहीं। और कहीं भी खड़ा होना खतरे से खाली नहीं है। चारों दिशाओं में इसके तीर जा रहे हैं, सिर्फ इस तख्ते पर इसका कोई तीर नहीं लगा है।
आदमी मूर्च्छा में जीता है। कहीं चलता है, कहीं पहुंच जाता है। कहीं तीर चलाता है, कहीं लग जाता है। मगर अहंकार ऐसा है कि स्वीकार नहीं करता कि मेरे तीर गलत लग रहे हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने बेटे फजलू को लेकर शिकार पर गये थे। बेटे के सामने बड़ी हांक रहे थे; बड़े तीसमारखां हो रहे थे। फजलू ने कहा, 'पापा, अब कुछ दिखलाइये भी, बातचीत बहुत हो गयी।मुल्ला नसरुद्दीन ने फौरन अपनी बन्दूक उठायी, भरी और तभी एक बगुला झील के ऊपर उड़ा। मुल्ला नसरुद्दीन ने बन्दूक चलायी। बगुले को न लगनी थी, न लगी। फजलू इससे पहले कि कुछ बोले—मुल्ला थीड़ी देर तो उड़ते हुए बगुले को देखता रहा और बोला, 'देख, बेटा देख, चमत्कार देख! अरे, मरा हुआ बगुला उड़ रहा है!'...... आदमी मानने को राजी थीड़े ही होता है कि मेरे निशाने नहीं लगे। चमत्कार दिखलाता है कि देखो, मरा हुआ बगुला उड़ रहा है।....... फजलू ने कहा, 'वही तो पापा मैं सोचूं कि बन्दूक भी चल गयी और बगुला भी उड़ रहा है!' नसरुद्दीन ने कहा, 'चमत्कार होते हैं, बेटा! दुनिया में चमत्कार ही चमत्कार हैं! देखनेवाले चाहिए, आंख चाहिए, तो चमत्कारों की कोई कमी नहीं है।चूकने की सम्भावना है, अगर तुम गुरु की पूजा में लग जाओ। निशाना भटक गया। गुरु की पूजा का सवाल नहीं है, गुरु के चरणों में अपने अहंकार को चढ़ा देने का सवाल है। फूल चढ़ाने से कुछ भी न होगा और न आरती—वंदना से! अहंकार को रख दो उसके चरणों में, समर्पित कर दो! बस, हो गयी पूजा, हो गयी वंदना, हो गयी अर्चना! अहंकार को उसके चरणों में रखते ही तुम पाओगे कि जो था ही नहीं मगर भीतर छुपा था तो दिखायी नहीं पड़ता था, अब प्रगट हो गया, मुट्ठी खुल गयी। उसी क्षण दिखायी पड़ेगा अपना स्वभाव, अपनी आत्मा, अपने चैतन्य की प्रतीति।
इसी को कहा है : 'जो एक अक्षर के दाता गुरु का आदर नहीं करता।एक अक्षर! अक्षर शब्द बड़ा प्यारा है; जिसका कभी क्षय न हो; जो कभी विनष्ट न हो।जो एक अक्षर का दाता गुरु का आदर नहीं करता उसके श्रुत, तप और ज्ञान धीरे— धीरे ऐसे ही क्षीण होकर नष्ट हो जाते हैं जैसे कच्चे घैड़े का जल।जिसने गुरु का आदर नहीं किया—आदर का मतलब. फिर मत चूक जाना! जिसने गुरु के चरणों में अपना अहंकार नहीं रखा। वही आदर है, और कोई आदर नहीं।जिसने गुरु का आदर नहीं किया। उसके श्रुत',....... उसने जो सुन रखा है। और तुम्हारा ज्ञान है क्या? श्रुत है! जाना तो है नहीं, सुना है!
यह श्रुत शब्द बड़ा प्यारा है, बड़ा सार्थक है। इसलिए हमने शास्त्रों को श्रुतियां कहा है, स्मृतियां कहा है। सुना है, याददाश्त में रख लिया है। श्रुतियां हमने सुना, स्मृतियां हमने याददाश्त में रखा। अभी जाना नहीं है, बोध नहीं है, अनुभव नहीं है, अपनी कोई प्रतीति नहीं है। जैसे तुमने सुना है कि आग जलाती है; यह श्रुत। और तुम्हारा हाथ जला, यह श्रुत नहीं है। किसी ने कहा, आग जलाती है; किसी ने कहा, पानी से प्यास बुझ जाती है। यह किसी ने कहा है। पता नहीं ठीक हो, पता नहीं गलत हो। लेकिन जब तुम स्वयं जान लोगे तब गलत और सही का सवाल नहीं उठेगा, तब प्रमाणों की कोई जरूरत नहीं होगी। ज्ञान स्वयं प्रमाण है। ज्ञान अपना प्रमाण स्वयं है। कोई साक्षी नहीं चाहिए, कोई गवाह नहीं चाहिए। मगर श्रुत के लिए तो गवाहियां चाहिए। इसलिए शास्त्र को समझाने के लिए पंडित चाहिए,व्याख्याकार चाहिए, पुरोहित चाहिए। और फिर भी कहं। समझ में आता है! फिर भी क्या खाक समझ में आता है! सुन लेते हो, याद भी कर लेते हो—और जैसे सुन लेते हो वैसे ही भूल भी जाते हो। मगर गुरु के पास बैठकर अगर अहंकार उसके चरणों में न रखा तो जल्दी ही तुम पाओगे कि श्रुत किसी काम नहीं पड़ता। गुरु के पास मौका था जान लेने का।
इसलिए जो गुरु के पास केवल सुनने के लिए जाता है वह गलती करता है; व्यर्थ जा रहा है। सुनने का काम तो शास्त्र पढ़कर घर पर ही हो सकता है। यह तो किसी पंडित—पुरोहित के पास बैठकर भी हो सकता है। इसके लिए किसी सद्गुरु के पास होने की आवश्यकता नहीं है। कबीर को खोजो, नानक को खोजो, फरीद को खोजो, रैदास को खोजो, बेकार, क्या जरूरत! साखिया तो कबीर की लिखी हुई रखी हैं, गुरुग्रन्ध तो मौजूद है, गुरु को क्या खोजना, पढ़ लेंगे; भाषा ही समझने की बात है, तो सीख लेंगे। काश, भाषा की ही बात होती तो दुनिया में सभी ज्ञानी हो गये होते! जो भी सुशिक्षित होता वही बुद्ध हो जाता। लेकिन सुशिक्षित होने से बुद्धत्व का कोई सम्बन्ध नही है। अशिक्षित भी बुद्ध हो गये हैं। मुहम्मद अशिक्षित थे, जीसस भी अशिक्षित थे, कबीर भी अशिक्षित थे, लेकिन बुद्ध हो गये। और शिक्षितों से सारी दुनिया भरी पड़ी है आज, कितने बुद्ध हैं दुनिया में? शिक्षा और बुद्धत्व का कोई नाता नहीं है। तुम कितना ही जान लो, अगर सुना हुआ ही है जाना हुआ तो किसी काम न आएगा। तुम जो भी निष्पत्तिया निकालोगे, गलत होंगी।
मैंने सुना, एक बहुत बड़ा दार्शनिक झील के तट पर खड़ा था और देख रहा था कि एक मछुआ मछलियों को पकड़ने के लिए जाल बुन रहा है। बड़ा प्रभावित होकर देख रहा था। दार्शनिक ही था। मंत्रमुग्ध होकर देख रहा था। आखिर मछुए ने पूछा कि आप बड़ी देर से देख रहे हैं और आप आनन्दित भी मालूम होते हैं देखकर, आखिर आपके इतने प्रसन्न होने का, इतने जिज्ञासा से भरे होने का क्या कारण है? दार्शनिक ने कहा, 'मैं यह देख रहा हूं कि तू किस गजब से छोटे—छोटे छेदों को इकट्ठा कर रहा है! आज तक मैंने ऐसा कलाकार नहीं देखा। छोटे—छोटे छेद जोड़ता जा रहा है। जाल बना रहा है।मछुए को खयाल ही नहीं है कि वह छोटे छेद जोड़ रहा है! वह तो सोच रहा है कि वह धागे जोड़ रहा है! यह तो दार्शनिक की खोज हुई : छोटे—छोटे छेदों को जोड़ रहा 'है। ऐसी ऊंची बातें दार्शनिक ही खोज सकते हैं।
इमेनुअल कांट ने दो बिल्लियां पाल रखी थीं। उनके मारे बहुत परेशान था। क्योंकि जब तक वे लौट न आएं तब तक वह सो' नही सकता था। किसी मित्र ने कहा कि तुम व्यर्थ परेशान होते हो। एक छेद कर दो दरवाजे में, जब भी उनको आना होगा लौट आएंगी। अब बिल्लियां ही हैं। चूहों की तलाश में निकली हैं रात में। कभी देर हो जाती है, कभी जल्दी हो जाती है। अब कोई चूहों के रेस्टरां तो हैं नहीं कि गये और बेयरे को बुलाया और कहा कि ले आ दो चूहे! दो प्लेट चूहे! खोजेगी बेचारी, कहीं पाएंगी—कभी देर से पाएंगी, कभी जल्दी, तुम नाहक रात आधी—आधी खराब करते हो! फिर गुस्सा होते हो, भनभनाते हो। फिजूल की बात, छोटा—सा काम, इतने बड़े बुद्धिमान आदमी, एक छेद कर दो, बिल्लिया जब आएंगी, आ जाएंगी और सो जाएंगी। बात जंची इमेनुअल कांट को।
दूसरे दिन मित्र ने देखा, हैरान हो गया। उसने दो छेद किये हुए थे। मित्र ने पूछा, दो छेद किसलिए किये हैं? इमेनुअल कांट ने कहा, दो बिल्लियां हैं न—एक छोटी, एक बड़ी! एक छेद में से दोनों कैसे घुसेंगी?....... जैसे कि एक साथ घुसना है! अरे, इतनी अकल तो बिल्लियों में भी है कि एक साथ नहीं घुसेंगी! मगर दार्शनिकों की अकल का क्या कहो!....... उसने गणित के हिसाब से दो छेद कर दिये। एक बड़ी बिल्ली के लिए बड़ा छेद, एक छोटी बिल्ली के लिए छोटा छेद। इतना ही नहीं, कोई भूलचूक न हो जाए, उसने छोटे छेद पर लिख दिया : 'छोटी बिल्ली के लिए', बड़े छेद पर लिख दिया : 'बड़ी बिल्ली के लिए'। अरे, बड़ी बिल्ली कहीं छोटे छेद में घुस जाए तो फंस जाए। और छोटी बिल्ली अगर बड़े छेद से निकले तो निकल जाए!
दार्शनिक बडी चिंताएं कर लेते हैं, बड़ी तार्किक चिंताएं कर लेते हैं।
श्रुत ज्ञान नहीं है, ज्ञान का घोखा है।
इसलिए सूत्र ठीक कहता है कि अगर गुरु के पास रहकर अहंकार को समर्पित न किया, तो तुम जान न पाओगे। गुरु के पास सुनते ही मत रहना,...... क्योंकि सुनने का काम तो दो कौड़ी के पंडित करवा देते हैं। सत्यनारायण की कथा कोई भी करवा देता है। न उसमें सत्य होता है, न नारायण होते हैं, कथा पूरी हो जाती है। न कहनेवाले को पता है, न सुननेवाले को पता है। कहनेवाले ने कह दिया, सुननेवाले ने सुन लिया, न कहनेवाले ने कहा, न सुननेवाले ने सुना, बात जहां थी वहीं की वहीं रही। कितनी दफा सत्यनारायण की कथा हो चुकी, तुम्हें पता चला कि सत्य क्या है? कि नारायण क्या है? अरे, उससे भी तो पूछो जो करवाता है रोज, मुहल्ले में इधर से उधर करवाता फिरता है, दिन में पांच—सात जगह करवा देता है सत्यनारायण की कथा, उसको सत्य का कुछ पता है? किसी को प्रयोजन ही नहीं है! किसी को लेना—देना भी नहीं है।
संत भीखण हुए। राजस्थान के एक छोटे—से गांव में बोल रहे थे। सुननेवाले सुन रहे थे। जैसे सुननेवाले सुनते हैं! धार्मिक सभाओं में कोई सुनने के लिए तो जाता नहीं। धार्मिक सभाओं में तो लोग सोने के लिए जाते हैं। चिकित्सक तक जिनको नींद नहीं आती है, अनिद्रा की बीमारी है, उनसे कहते हैं—भैया, सत्संग करो! सत्संग में जिनको नींद न आए, वह बड़ा गजब का आदमी है। जिसको रातभर भी नींद नहीं आती, उसको जैसे ही ब्रह्मचर्चा शुरू हुई कि नींद आनी शुरू हो जाती है। और फिर दिनभर के थके—मांदे लोग, सांझ को भीखण का भाषण सुनने आए थे, गांव का जो सबसे बडा धनपति था, आसोजी, वह स्वभावत: धनपति था गांव का तो सबसे आगे बैठा था, भीखण के बिलकुल सामने बैठा था—मारवाड़ी था; बड़ी तोंद! और जब नींद में आए तो ऐसा घुर्राए और पूरा पेट हिले कि भीखण जी का बोलना मुश्किल कर दिया उसने। आखिर भीखण ने कहा, 'आसोजी, सोते हो?' जल्दी से उसने आंख खोली, उसने कहा, 'नहीं —नहीं महाराज, कभी नहीं! अरे आप प्रवचन करें और मैं सोऊ!'...... भीखण भाषण करें और मैं सोऊ!. 'कभी नहीं, कभी नहीं! आंख बंद करके सुनता हूं? महाराज।
भीखण ने फिर बोलना शुरू किया। वह कोई आंख बंद करना तो था नहीं। क्योंकि आंख बंद करने से कोई घुर्राता नहीं। मगर फिर आसोजी घुर्राने लगे। भीखण ने फिर कहा, 'आसोजी, सोते हो?' अब जरा आसोजी को गुस्सा आ गया। गांवभर सुन रहा है, बार—बार मेरा ही नाम लेकर कहते हैं, सोते हो, सोते हो! उसने कहा—'आपका हुआ क्या है? आपको व्याख्यान देना है कि बस मुझ पर ही नजर रखनी है? अरे, पूरा गांव देख रहा है, पूरा गांव सुनने आया है, गांवभर में चर्चा होगी कि आसोजी सो रहे थे—क्यों ऐसी बात कहते हैं आप? मैंने आपका क्या बिगाड़ा? अरे, मैं तो ध्यानपूर्वक सुन रहा हूं।
भीखण ने फिर बोलना शुरू कर दिया, आसोजी फिर सो गये, फिर घुर्राए। भीखण ने कहा, 'आसोजी, जीते हो?' भीखण ने कहा, 'नहीं —नहीं, महाराज! फिर आप वही बातें करने लगे! बिलकुल नहीं।भीखण ने कहा, 'अब आप फंस गये। क्योंकि मैंने वह बात कही ही नहीं।वे वही सुन रहे हैं कि सोते हो। अब नींद में ही हैं वे, किसी तरह पुरानी याद रखी—श्रुत था—याद रहा कि दो दफे पूछ चुके हैं : सोते हो, तो इस बार भी वही पूछा होगा। अबकी बार सवाल बदल दिया था भीखण ने। खूब तरकीब थी। कहा, 'आसोजी जीते हो?' मगर आसोजी नींद में थे, इनकार कर गये। कि नहीं—नहीं, महाराज, कभी नहीं! कौन कहता है? आप कैसी बातें करते हो? आप क्यों बार—बार वही बात करते हो? भीखण ने कहा, 'अब न चलेगा, अब मैंने वही बात नहीं की। अब मैंने कुछ और बात की।लेकिन वहां सुननेवाला कौन है?
गुरु के पास भी जो सुनने के लिए इकट्ठा हुआ है, वह गली कर रहा है। यह काम तो दो कौड़ी के आदमी कर देंगे। गुरु के पास तो अहंकार विसर्जित करो, तो दृष्टि खुले। सत्य कानों से नहीं आता—याद रखना—आंखों से आता है। सुना सुनी की है नहीं, लिखा लिखी की है नहीं, देखा देखी बात। कान से नहीं आता सत्य। नहीं तो ग्रामोफोन रिकार्डों से आ जाए। आंख से आता है, देखने से आती है दृष्टि—दर्शन।
जो व्यक्ति गुरु के पास भी सुन रहा है या पुराने सुने हुए को लेकर बैठा है, उसका श्रुत क्षीण हो जाएगा। सुने हुए का कोई मूल्य ही नहीं है। वह तो अब खोया, तब खोया! उसका तप भी व्यर्थ हो जाएगा। जिसने सुन—सुनकर तप किया है उसका तप भी गलत होता है। तुम भी उपवास करते हो, क्योंकि तुमने सुना कि महावीर ने उपवास किया और उपवास करके परम सत्य को पा लिया। बात उल्टी है। महावीर ने परम सत्य पाया और इसलिए कभी—कभी उपवास हुआ—किया नहीं। करने और होने में फर्क है। महावीर कभी—कभी ध्यान में ऐसे मग्न हो जाते थे कि दिन बीत जाता और भूख की याद ही नहीं आती—शरीर की ही याद नहीं आती तो भूख की कैसे याद आए? शरीर की ही बात बिसर जाती तो स्वभावत: भूख की बात भी बिसर जाती। यही उपवास शब्द का अर्थ है। उपवास का अर्थ है : अपने निकट होना; आत्मा के निकट होना। इतने निकट होना कि शरीर बहुत दूर—बहुत दूर रह जाए। उसकी ध्वनि भी सुनायी न पड़े। इतना पीछे छूट जाए कि दिखायी भी न पड़े कि अब है या नहीं।
उपवास शब्द बहुत प्यारा है। अब तो राजनेता भी जो करते हैं उसको उपवास कहते हैं लोग। अनशन कहो! भूख मर रहे हैं, यह कहो। लेकिन उपवास मत कहो। उपवास बड़ा ऊंचा शब्द है। वह तो सिर्फ महावीर और बुद्ध जैसे व्यक्तियों के लिए सार्थक है। मोरारजी देसाई जो करते हैं, अनशन है, उपवास नहीं। उपवास के लिए तो कुछ और ही प्रक्रिया चाहिए। उपवास तो ध्यान का फल है। जब कोई ध्यान में डुबकी लगाता है गहरी, और आत्मा में ठहर जाता है। तो शरीर को भूल जाता है, दिनों भूल सकते हैं। शरीर की भी स्मृति न आए। तो उतनी देर भीतर वास हुआ, इसलिए भोजन की जरूरत न पड़ी—याद ही न पड़ी तो जरूरत कैसे पड़ती! शरीर से इतने दूर निकल गये कि शरीर खबर भी न दे पाया कि मैं भूखा हूं कि मैं प्यासा हूं—यह उपवास!
लेकिन जिसने किसी तरह भूख को सम्हाल रखा है, किसी तरह अनशन किये बैठा है, नहीं खाएंगे, लेकिन मन में खाने ही खाने के विचार चल रहे हैं, भोजन ही भोजन के विचार चल रहे हैं—चलेंगे ही, क्योंकि बैठे तो तुम शरीर के पास हो और भ्रांति यह पैदा कर रहे हो कि उपवास है। सच तो यह है कि जब तुम अनशन करोगे तो तब तुम शरीर के पास ज्यादा रहोगे, रोज से भी ज्यादा रहोगे। इस तरह का तप तो क्षीण हो जाएगा। वह कोई टिकनेवाली चीज नहीं; ये तो पानी पर खींची गयी लकीरें है। तुम खींच भी न पाओगे और मिट जाएगी।
और जिसको तुम ज्ञान कहते हो, वह क्या है? सिर्फ सूचना मात्र। ये सूचनाएं भी काम आनेवाली नहीं हैं। समय पर काम नहीं आएंगी।
लोग इस देश में आत्मा की अमरता को मानते हैं। लेकिन घर में कोई मर जाए, फिर देखो! फिर भूल गये सब ज्ञान! बिसर गया सब ज्ञान! बैठे रो रहे हैं!
मेरे गांव में एक वैद्यराज थे। उनके घर ज्ञानी हमेशा ठहरते थे। महात्माओं का अड्डा था। जब उनकी पहली पत्नी चल बसी और मैंने उनको रोते देखा तो मैंने कहा, 'पंडित जी, आप क्या कर रहे हैं? आप....... और रो रहे हैं! यह आपको शोभा देता है! अरे, आपको मैंने हजारों दफे सुना है यह कहते कि आत्मा अमर है! तो पत्नी मरी थीड़े! मर सकती ही नहीं। नैनम् छिंदन्ति शस्त्राणि, अरे, शस्त्र छेद नहीं सकते, नैनम् दहति पावकः। आपको ही मैंने सुना है गीता पढ़ते कि अग्नि जल नहीं सकती,शस्त्र छेद नहीं सकते। तो पत्नी मरी थीड़े ही है, अमर हो गयी। और कोई साधारण पत्नी थी! आपकी पत्नी थी! ज्ञानी की पत्नी थी! और ज्ञानी का ऐसा सक्का चला और ऐसे महात्मा जमे रहे यहां—और आपसे ज्यादा सेवा तो महात्माओं की उसने की! वे मुझसे बोले कि अभी यह बकवास न करो। मैंने कहा, 'बकवास! यह तो तत्वज्ञान है, पंडित जी!' 'अरे,' उन्होंने कहा, 'तुम मेरा पीछा छोड़ो। तुम्हें भी ऐसे उल्टे अवसर सूझते हैं तत्वज्ञान के! इधर मेरी पत्नी मर गयी, तुम्हें तत्वज्ञान सूझा है!' मैंने उनसे कहा, 'मैंने तो सोचा कि यही ठीक अवसर है तत्वज्ञान छेड़ने का। कि साफ—साफ हो जाएगा कि तत्वज्ञान है या नहीं?' मैंने उनसे कहा, '...... .वैसे आपकी मर्जी, लेकिन अब खयाल रखना, अब कभी यह अगर कहते सुना आपको कि आत्मा अमर है तो फिर मुझसे बुरा कोई नहीं!' उन्होंने कहा, 'तुम्हारा मतलब?' मैंने कहा कि मैं मतलब बताऊंगा। अब कभी इस घर में ठहरने नहीं दूंगा किसी महात्मा को।
फिर इसके बाद मैं उनको गीता पढ़ते देखता था। मैं फौरन पहुंच जाता था कि बंद करो! वह मुझे देखकर गीता बंद कर देते थे, कहते : तुम जाओ। तुम क्यों मेरे पीछे पड़े हो? मेरी पत्नी मर गयी तब तुम तत्वज्ञान बताने आए और अब मैं शाति से तत्वज्ञान पढ़ रहा हूं तो तुम कहते हो गीता बंद करो! मैंने कहा कि जब अवसर हो तभी परीक्षण है। उसी वक्त मौका था कि आपको मैं हंसता—मुस्कुराता देखता, आनन्दित देखता, तो जानता कि ज्ञान ज्ञान है। यह केवल सूचना थी। और वही सूचना फिर इकट्ठी कर रहे हो। फिर समय गंवा रहे हो। उन्हीं बुद्धओं के साथ फिर समय गंवा रहे हो। जिंदगी भी पूरी उन्हीं के साथ गयी, तुम्हारी पत्नी उन्हीं की सेवा करते—करते मरी और तुम भी उन्हीं की सेवा करते—करते मरोगे। उनको भी पता नहीं कि आत्मा अमर है या नहीं। उनकी हालत देखकर मैं कह सकता हूं उनको पता नहीं कि आत्मा अमर है या नहीं।
ज्ञान सूचना ही अगर है तो व्यर्थ का फ्लू—करकट है, बहा दो, जला दो, होली में डाल दो। लेकिन एक और भी ज्ञान है, जो अहंकार को छोड़ने से उपलब्ध होता है। एक और भी तप है, जो अहंकार को छोड़ने से उपलब्ध होता है। एक और भी बोध है, जो किसी बुद्ध के चरणों में बैठने से उपलब्ध होता है।
यह चरणों में बैठना ही 'आदर' है। आदर का मतलब कुछ यूं नहीं होता कि तुम औपचारिक रूप से चरण छुओ। इस देश में तो चरण छूना एक औपचारिकता है—कोई किसी के चरण छू रहा है। जो देखो उसी के चरण छू रहा है। चरण छूने से जैसे कुछ हो जाएगा! चरण छूने से कुछ भी न होगा। भावपूर्वक अहंकार का विसर्जन—तब यह सूत्र तुम्हें गहरा मालूम पड़ेगा—
गुरुरेव परौ धर्मो गुरुरेव परा गति:।
जिसके चरणों में तुमने अपने अहंकार को चढ़ा दिया, वही तुम्हारा गुरु है। गुरु शब्द भी अच्छा है। गुरु का अर्थ होता है : जिससे अंधकार मिट जाए। गुरु शब्द का अर्थ होता है : जो अहंकार को मिटा दे; जो ज्योति की भांति है। और निश्चित ही ज्योति ही गति है। क्योंकि छोटी—सी ज्योति भी तुम्हें मिल जाए तो तुम्हारी सूर्य की तरफ यात्रा शुरू हो गयी। एक किरण पकड़ ली तो सूरज तक पहुंच जाएंगे; फिर कोई सन्देह नहीं। एक नदी की धार में तुम उतर गए तो सागर तक पहुंच जाओगे। पहुंच ही जाओगे!
एकाक्षर प्रदातममू नाभिनन्दति।
अभागा है वह व्यक्ति जो अक्षर देनेवाले को भी अभिनन्दन न करता हो, अहंकार जिसके चरणों में न रखता हो, जिसके सामने झुकता न हो।
तस्य हत तपो ज्ञानं सवत्यामघटाखवत्।।
उसका सब कुछ ऐसे क्षीण हो जाता है जैसे कच्चे घड़े में भरा हुआ जल। बह जाएगा, जल ही नहीं बह जाएगा धीरे—धीरे, घड़ा भी बह जाएगा। जल भी जाएगा, घड़ा भी जाएगा। और जिसने अहंकार को चढ़ाया, वह पक्का घड़ा है। वह अग्नि से गुजरा, पक्का। अब उसमें जो भी भरा जाएगा, भरा रहेगा। पक्का घड़ा हो जाए व्यक्ति तो अमृत से भर सकता है। लेकिन उस पकान के लिए, उस परम अवसर की तलाश में तुम्हें कुछ गंवाना पड़ेगा। हालांकि जब गंवाओगे तब लगेगा गंवा रहे हो, गंवाने के बाद तो तुम हैरान होओगे—तुमने कुछ भी गंवाया नहीं, कमाया ही कमाया।
इस दुनिया का गणित तुम ठीक से समझ लो। इस दुनिया में कमाओ तो कमाओगे, गंवाओगे तो गंवाओगे। लेकिन इसके पार जो दुनिया है, वहा अगर कमाओगे तो गंवाओगे, अगर गंवाओगे तो कमाओगे। जीसस ने कहा है : धन्य हैं वे जो अन्तिम खड़े हैं, क्योंकि मेरे प्रभु का राज्य उन्हीं का है। धन्य हैं वे जो अन्तिम खड़े हैं। वे जिन्होंने अपने अहंकार को छोड दिया। जो इतने विनम्र हो गए हैं कि अब अन्तिम खड़े हो सकते हैं। मेरे प्रभु का राज्य उन्हीं का है।
आज इतना ही।

 'लगन महूरत झूठ सब' प्रवचनमाला से
दिनांक 27 नवम्बर 1980; श्री रजनीश आश्रम, पूना

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