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शुक्रवार, 4 सितंबर 2015

तंत्र--सूत्र--(भाग-3)--प्रवचन--38

जीवन एक मनोनाट्य है—(प्रवचन—अडतीसवां)

प्रश्‍नसार:
1—आधुनिक मन अतीत अनुभवों की धूल से कैसे तादात्‍म्‍य कर लेता है?
2—जीवन को साइकोड्रामा की तरह देखने पर व्‍यक्‍ति अकेलापन अनुभव
करता है। तब फिर जीवन के प्रति सम्‍यक दृष्‍टि क्‍या है?
      3—मौन और लीला—भाव में साथ—साथ कैसे विकास करें?
      4—आप कहते है स्‍वीकार रूपांतरण करता है, लेकिन तब वासनाओं
            के स्‍वीकार में मैं पशुवत क्‍यों अनुभव करता हूं?

पहला प्रश्न :

आधुनिक समय में मूलभूत मन किस प्रकार अतीत के ज्ञान और अनुभवों से तादात्‍मय कर लेता है?
न शुद्ध है और उसमें कोई अशुद्धि नहीं प्रवेश कर सकती। यह असंभव है। मन बुद्ध— भाव है, मन परम है। लेकिन जब मैं मन कहता हूं तो उसका मतलब तुम्हारे मन से नहीं है, मेरा मतलब उस मन से है जिसमें मैं—तू नहीं है। तुम अशुद्धि हो।
और ठीक तुम्हारे पीछे मूलभूत मन है। तुम धूल हो। इसलिए पहले तो यह समझने की कोशिश करो कि तुम क्या हो और तभी तुम समझोगे कि मौलिक मन अतीत से, स्मृतियों से, धूल से तादात्म्य कैसे कर लेता है।
तुम क्या हो? अगर इसी वक्‍त मैं पूछूं कि तुम क्या हो तो तुम इस प्रश्न का उत्तर दो ढंग से दोगे। एक उत्तर शाब्दिक होगा जिसमें तुम अपने अतीत का वर्णन करोगे। तुम कहोगे कि मेरा अमुक नाम है, मैं अमुक परिवार का हूं मेरा अमुक धर्म है, मैं अमुक देश का रहने वाला हूं। तुम कहोगे कि मैं शिक्षित हूं या अशिक्षित हूं मैं धनी हूं या गरीब हूं। ये सब के सब अतीत के अनुभव हैं; और तुम ये सब नहीं हो। तुम उनसे होकर गुजरे हो, वे तुम्हारी राह में आए हैं, लेकिन तुम्हारा अतीत इकट्ठा होता जाता है। यह शाब्दिक उत्तर होगा, लेकिन यह सही उत्तर नहीं होगा। यह तुम्हारा मन बोल रहा है, तुम्हारा झूठा अहंकार तर्क दे रहा है।
अगर तुम अभी अपने पूरे अतीत को अलग हो जाने दो, अगर तुम अपने मां—बाप, अपने परिवार, अपने धर्म और देश को—जो कि सब के सब आकस्मिक हैं—भूल जाओ और सिर्फ अपने साथ रहो, तो तुम कौन हो? कोई नाम—रूप तुम्हारी चेतना में नहीं प्रकट होगा; सिर्फ यह बोध रहेगा कि तुम हो। तुम यह नहीं कह सकोगे कि तुम कौन हो; तुम इतना ही कहोगे कि मैं हूं। जिस क्षण तुम कौन का उत्तर दोगे, तुम अतीत में चले गए।
तुम मात्र चैतन्य हो, एक शुद्ध मन, एक निर्दोष दर्पण। अभी, इसी क्षण तुम हो। तुम क्या हो? मात्र एक बोध कि मैं हूं।मैं' भी जरूरी नहीं है, तुम जितने गहरे जाओगे उतने ही अधिक हूं—पन को, अस्तित्व को अनुभव करोगे। अस्तित्व शुद्ध मन है। लेकिन इस अस्तित्व का कोई आकार नहीं है, यह निराकार है। इस अस्तित्व का कोई नाम नहीं है, यह अनाम है।
लेकिन जो तुम वस्तुत: हो, उससे तुम्हारा परिचय देना कठिन होगा। समाज में दूसरों से संबंधित होने के लिए तुम्हें नाम—रूप की जरूरत पड़ेगी। तुम्हारा अतीत तुम्हें नाम—रूप देता है। नाम और रूप उपयोगी है; उनके बिना जीना कठिन होगा। वे जरूरी है; लेकिन तुम वे सब नहीं हो। वे सिर्फ लेबल हैं। लेकिन इस उपयोगिता के कारण मौलिक मन नाम और रूप के साथ तादात्म्य कर लेता है।
एक बच्चा जन्म लेता है, वह अभी शुद्ध चैतन्य है। लेकिन उसे पुकारने के लिए, उसकी पहचान के लिए तुम उसे एक नाम दे देते हो। आरंभ में बच्चा अपने लिए भी अपने नाम का ही उपयोग करेगा। वह यह नहीं कहेगा कि मुझे भूख लगी है, वह कहेगा कि राम को भूख लगी है—राम अगर उसका नाम है। वह कहेगा कि राम को बहुत भूख लगी है। बाद में वह सीखेगा कि ऐसा कहना ठीक नहीं है, मैं अपने लिए राम का उपयोग नहीं कर सकता; इस नाम से तो दूसरे मुझे पुकारेंगे। और तब वह अपने लिए मैं का उपयोग सीखेगा। पहले वह नाम के साथ तादात्म्य करेगा; फिर मैं के साथ।
यह उपयोगी है, तुम्हें इसकी जरूरत है। इसके बिना जीना कठिन होगा। लेकिन इसी उपयोगिता के कारण व्यक्ति नाम के साथ तादात्म्य कर लेता है, अपने को नाम ही समझने लगता है।
तुम इस तादात्म्य के पार जा सकते हो। और जब तुम इसके पार जाने लगते हो, तब तुम अपने मूलभूत चैतन्य को पुन: प्राप्त होने लगते हो। तब तुम्हारा ध्यान आरंभ हो गया। लेकिन यह ध्यान तभी आरंभ होता है जब तुम अपने नाम—रूप से, नाम—रूप के जगत से निराश हो जाते हो, हताश हो जाते हो। धर्म का आरंभ ही तब होता है जब तुम नाम—रूप के जगत से निराश हो जाते हो, पूरी तरह निराश हो जाते हो, जब पूरी चीज ही अर्थहीन हो जाती है। और नाम—रूप के जगत की अर्थहीनता का अहसास तुम्हें बेचैन कर देता है। और वह बेचैनी ही धर्म की खोज का शुभारंभ है।
तुम बेचैन होते हो, क्योंकि नाम के साथ, लेबल के साथ पूरी तरह एकात्म होना असंभव है। नाम नाम रहता है और तुम वह रहते हो जो तुम हो। नाम तुम्हें ढंक थोड़े ही पाता है, वह तुम्हारी समग्रता नहीं बन सकता। और देर— अबेर तुम इस नाम से ऊब जाते हो, तुम जानना चाहते हो कि मैं सचमुच कौन हूं। और जिस क्षण तुम ईमानदारी से, निष्ठापूर्वक पूछते हो कि मैं कौन हूं तुम दूसरी ही यात्रा पर निकल गए; तुम नाम के पार जाने लगे।
यह तादात्म्य स्वाभाविक है। एक और कारण भी है जिसके कारण तादात्म्य इतना सरत्‍न है। यह कमरा है। अगर मैं तुमसे कहूं कि इस कमरे को देखो, तो तुम कहां देखोगे? तुम दीवारों को देखोगे। लेकिन दीवारें कमरा नहीं हैं; कमरा तो वह खाली स्थान है जो दीवारों से घिरा है। दीवारें तो उस स्थान की सीमाएं हैं जिसे हम कमरा कहते हैं। लेकिन अगर मैं कहूं कि कमरे को देखो तो तुम दीवारों को ही देखोगे। क्योंकि कमरे को, शून्य स्थान को नहीं देखा जा सकता। वैसे ही तुम भी आंतरिक आकाश हो, नाम और रूप तो दीवारें हैं। वे तुम्हें सीमा देते हैं, वे तुम्हें परिभाषा देते हैं, वे तुम्हें एक निश्चित स्थान देते हैं। तुम उस 'निश्चित' के साथ तादात्म्य कर सकते हो, अन्यथा तुम शून्य भर हो, ना—कुछ हो। वहां शून्य ही है, वहाँ आंतरिक आकाश ही है।
इसे इस तरह देखो। तुम श्वास लेते हो, श्वास छोड़ते हो। अगर तुम चुपचाप सिर्फ
श्वास लो और छोड़ो, अगर तुम्हारे मन में कोई विचार न हो और तुम किसी पेड़ के नीचे बैठकर सिर्फ श्वास लेते—छोड़ते रहो, तो तुम्हें कैसा लगेगा? तुम्हें लगेगा कि एक आकाश बाहर है और एक आकाश भीतर है और श्‍वास भीतर से बाहर, बाहर से भीतर आ—जा रही है। लेकिन तुम कहां हो? वहां सिर्फ दो आकाश हैं और तुम्हारा कंठ द्वार का, दोनों तरफ खुलने वाले द्वार का काम कर रहा है। भीतर आने वाली श्वास द्वार से भीतर आती है, बाहर जाने वाली श्वास फिर उसी द्वार से बाहर जाती है। तुम्हारा कंठ दोनों तरफ खुलने वाले द्वार का काम करता है और उसके दोनों ओर दो आकाश हैं—एक बाहरी और एक भीतरी। और अगर यह द्वार टूट जाए तो फिर दो आकाश कहां, एक ही आकाश होगा।
अगर तुम भीतर की इस शून्यता को अनुभव करोगे तो तुम भयभीत हो जाओगे। तुम कुछ सुनिश्चित, कुछ परिभाषित होना चाहते हो। लेकिन भीतर कुछ भी सीमित—परिभाषित नहीं है। जैसे बाहरी आकाश असीम है, वैसे ही भीतरी आकाश भी असीम है। यही कारण है कि बुद्ध जोर देकर कहते हैं कि आत्मा नहीं है, तुम आकाश मात्र हो—रिक्‍त और निस्सीम। अपने को इस असीम आकाश की भांति अनुभव करना कठिन है, उसके लिए कठिन साधना की जरूरत है। मनुष्य सीमाओं के साथ बंध जाता है। अपने को उस भांति समझना आसान है—सीमाओ के साथ समझना आसान है। तुम्हारा नाम एक सीमा है, तुम्हारा शरीर एक सीमा है, तुम्हारे विचार भी एक सीमा हैं। बाहरी उपयोग के लिए, अपनी सुविधा के लिए भी तुम तादात्म्य कर लेते हो। और एक बार तादात्म्य के होते ही यह संग्रह बढ़ता ही चला जाता है। और इस संग्रह से अहंकार संतुष्ट अनुभव करता है।
तुम धन के साथ तादात्‍मय करते हो और धन का संग्रह करने में लग जाते हो। और उससे तुम्हें लगता है कि मैं बढ़ रहा हूं। तुम एक बड़ा घर बनाते हो; फिर उससे बड़ा घर बनाते हो; फिर उससे भी बड़ा घर बनाते हो; और तुम्हें भाव होता है कि मैं बड़े से बड़ा हो रहा हूं। और इसी भांति लोभ का जन्म होता है। लोभ विस्तार है, अहंकार के विस्तार का उपाय है।
लेकिन तुम अपने अहंकार को कितना ही बढा लो, तुम कभी असीम नहीं हो सकते। और तुम अपने अंतस में असीम हो। अगर तुम उस शून्य में झांक सको तो तुम असीम हो। यही वजह है कि अहंकार कभी तृप्त नहीं होता, अंततः उसे हताशा ही हाथ आती है। क्योंकि अहंकार असीम नहीं हो सकता, वह सदा सीमित ही रहेगा।
इसीलिए मनुष्य में एक आध्यात्मिक असंतोष बना रहता है। तुम असीम हो, उससे कम से कभी काम नहीं चलेगा; उससे कम से तुम कभी तृप्त न हो सकोगे। लेकिन हर सीमा सीमित होगी। और उसकी जरूरत है। वह जरूरी है, उपयोगी भी है, लेकिन वह सच नहीं है। वह सत्य नहीं है।
यह जो आंतरिक दर्पण है, आंतरिक मन है, वह शुद्ध चैतन्य है—चैतन्य मात्र है।
प्रकाश को देखो। तुम कहते हो कि यह कमरा प्रकाश से भरा हुआ है। लेकिन तुम प्रकाश को कैसे देख सकते हो? तुमने खुद प्रकाश को कभी नहीं देखा है, तुम उसे देख नहीं सकते। तुम सदा कोई प्रकाशित वस्तु देखते हो। प्रकाश दीवार पर पड़ता है, किताबों पर पड़ता है, लोगों पर पड़ता है। और उन वस्तुओं पर प्रकाश प्रतिबिंबित होता है। क्योंकि तुम इन वस्तुओं को देख पाते हो, तुम कहते हो कि प्रकाश है। और जब तुम वस्तुओं को नहीं देख पाते तो कहते हो कि अंधेरा है। तुमने कभी शुद्ध प्रकाश को, स्वयं प्रकाश को नहीं देखा है। प्रकाश सदा दूसरों से प्रतिबिंबित होकर दिखाई देता है।
चैतन्य या बोध प्रकाश से भी ज्यादा शुद्ध है। वह अस्तित्व में शुद्धतम संभावना है। अगर तुम समग्रत: शांत हो जाओ तो सभी सीमाएं विलीन हो जाएंगी और तुम यह नहीं कह पाओगे कि मैं कौन हूं। तुम मात्र हो। क्योंकि तुलना के लिए कोई विषय नहीं है, तुम नहीं कह सकते कि मैं देखने वाला हूं या आत्मा हूं या चैतन्य हूं। चैतन्य की इस शुद्धता के कारण तुम सदा अपने को किसी अन्य वस्तु के द्वारा जानते हो, तुम अपने को सीधे—सीधे नहीं जान सकते।
इसलिए जब तुम सीमाएं बनाते हो तो तुम्हें ऐसा लगता है कि तुम अपने को जानते हो। नाम के साथ तुम समझते हो कि मैं अपने को जानता हूं; धन के साथ तुम समझते हो कि मैं अपने को जानता हूं। तुम्हारे आस—पास कोई सीमा बनती है और शुद्ध चैतन्य प्रतिबिंबित हो उठता है।
जब बुद्ध बुद्धत्व को उपलब्ध हुए तो उन्होंने कहा कि मैं नहीं रहा। जब तुम भी उस अवस्था को उपलब्ध होओगे तो तुम भी कहोगे कि मैं नहीं रहा। क्योंकि सीमा के बिना तुम कैसे हो सकते हो? जब शंकर ज्ञान को उपलब्ध हुए तो उन्होंने कहा कि मैं पूर्ण हो गया, ब्रह्म हो गया।
दोनों एक ही अर्थ रखते हैं। अगर तुम पूर्ण हो तो भी तुम न रहे। पूर्ण या शून्य दो ही संभावनाएं हैं और दोनों में तुम नहीं रहते हो। अगर तुम पूर्ण हो, ब्रह्म हो, तो तुम नहीं हो। और जब तुम नहीं हो, समग्रत: शून्य हो, तब भी तुम नहीं हो।
यही कारण है कि तादात्म्य करना जीवन का आवश्यक अंग हो जाता है। और यह अच्छा है। क्योंकि जब तक तादात्म्य नहीं होगा तब तक अतादात्‍मय भी संभव नहीं हो सकता है। जब तक तुम तादात्म्य नहीं बनाते तब तक तुम तादात्म्य—मुक्ति को कैसे उपलब्ध होओगे? कम से कम एक बार तो तादात्‍मय करना जरूरी है।
इसे ऐसे समझो। अगर तुम स्वस्थ पैदा होते हो और कभी बीमार नहीं होते तो तुम कभी भी अपने स्वास्थ्य को नहीं जान सकते, उसके प्रति बोधपूर्ण नहीं हो सकते। तुम उसे नहीं जान सकते, क्योंकि स्वास्थ्य के बोध के लिए रोग की, बीमारी की पृष्ठभूमि आवश्यक है। यह जानने के लिए कि तुम स्वस्थ थे या कि स्वास्थ्य क्या है, तुम्हें बीमार पड़ना होगा। दूसरा ध्रुव, विपरीत छोर जरूरी हो जाता है।
पूर्वी गुह्य विद्या कहती है कि संसार इसीलिए है कि तुम्हें परमात्मा का अनुभव हो सके। संसार विपरीत पृष्ठभूमि निर्मित करता है। किसी स्कूल में जाकर देखो, शिक्षक काले ब्लैकबोर्ड पर सफेद खड़िया से लिखता है। वह सफेद दीवार पर भी लिख सकता है, लेकिन तब लिखना व्यर्थ होगा। वह दिखाई ही नहीं पड़ेगा, वह अदृश्य होगा। दिखाई देने के लिए काले ब्लैकबोर्ड पर सफेद खड़िया से लिखना जरूरी है। सफेद लिखावट के दृश्य होने के लिए काला ब्लैकबोर्ड जरूरी है।
संसार ब्लैकबोर्ड है और उसके कारण तुम दृश्य हो जाते हो। यह अंतर्निहित ध्रुवीयता है, विपरीतता है। और यह अच्छा है। यही कारण है कि हमने पूर्व में यह कभी नहीं कहा कि संसार बुरा है। हम संसार को एक विद्यापीठ की भांति, एक प्रशिक्षण—भूमि की भांति लेते हैं।
यह शुभ है, क्योंकि उसकी पृष्ठभूमि में ही तुम अपनी शुद्धता को जान सकते हो। जब तुम संसार में आते हो तो तुम तादात्म्य कर लेते हो। तादात्म्य के साथ तुम प्रवेश करते ते, संसार शुरू होता है। तुम्‍हें अपने आंतरिक स्‍वास्‍थ्‍य को जानने के लिए बीमार होना ही होगा।
सारे संसार में यह बुनियादी प्रश्न पूछा जाता रहा है कि यह संसार क्यों है? यह किसलिए है? अनेक उत्तर दिए गए हैं; लेकिन वे सभी उत्तर व्यर्थ हैं। केवल यह दृष्टि बहुत गहरी और अर्थपूर्ण मालूम होती है कि जगत एक पृष्ठभूमि भर है, इसके बिना तुम अपने अंतरस्थ चैतन्य के प्रति सजग नहीं हो सकते।
मैं तुम्हें एक कहानी कहूंगा। एक धनी आदमी—अपने देश का सर्वाधिक धनी व्यक्ति—अशांत हो गया। बहुत निराश हो गया। उसे लगा कि जीवन अर्थहीन है। उसके पास सब कुछ था जो धन से खरीदा जा सकता था, लेकिन सब कुछ व्यर्थ सिद्ध हुआ। सच्चा अर्थ तो सिर्फ उसमें होता है जो धन से नहीं खरीदा जा सकता। उसके पास सब कुछ था जो वह खरीद सकता था—वह दुनिया की हर चीज खरीद सकता था—लेकिन अब क्या किया जाए? वह निराशा से, गहन असंतोष से भरा था।
तो एक दिन उसने अपने सभी कीमती आभूषण, सोने के गहने, हीरे—जवाहरात इकट्ठे किए और उन्हें एक पोटली में बांधा और उस आदमी की खोज में निकल पड़ा जो उसे कुछ मूल्यवान दे सके, सुख की एक झलक दे सके। वह उस व्यक्ति को अपने जीवन की सारी कमाई भेंट कर देने को तैयार था। वह एक गुरु से दूसरे गुरु के पास गया; उसने दूर—दूर की यात्रा की; लेकिन कोई उसे सुख की एक झलक भी नहीं दे सका। और वह अपना सब कुछ, अपना पूरा राज्य देने को राजी था।
फिर वह एक गांव पहुंचा और मुल्ला नसरुद्दीन का पता पूछा। वह उस गांव का फकीर था। किसी गांव वाले ने उससे कहा कि मुल्ला गांव के बाहर झाडू के नीचे बैठकर ध्यान कर रहा है। तुम वहीं जाओ; और अगर इस फकीर से तुम्हें शांति की झलक न मिले तो तुम शांति को भूल ही जाना। तब पृथ्वी पर कहीं भी तुम्हें शांति नहीं मिलेगी। अगर यह आदमी उसकी झलक नहीं दे सकता तो उसकी संभावना ही नहीं है।
वह आदमी बहुत उत्सुक हो उठा और तुरंत नसरुद्दीन के पास पहुंच गया, जो झाडू के नीचे बैठा था। सूरज डूब रहा था। उस आदमी ने कहा कि यह रही मेरे जीवन भर की कमाई; मैं सब तुम्हें दे दूंगा अगर तुम मुझे सुख की एक झलक दे सको।
मुल्ला नसरुद्दीन ने सुना। सांझ उतर रही थी और अंधेरा घिर रहा था। उसे कोई उत्तर दिए बिना ही मुल्ला ने उस धनी का थैला छीन लिया और उसे लेकर जोर से भागा। स्वभावत:, धनी व्यक्ति भी उसके पीछे—पीछे चीखता—चिल्लाता हुआ भागा। मुल्ला को गांव की सड़कों का पता था, लेकिन अजनबी होने के कारण उस धनी आदमी को उनका कुछ पता नहीं था। वह मुल्ला को नहीं पकड़ सका। सारे गांव के लोग उस आदमी के पीछे हो लिए। वह आदमी तो पागल हो रहा था, चिल्ला रहा था. मैं लुट गया, मेरी जिंदगी भर की कमाई लुट गई। मैं भिखमंगा हो गया, दरिद्र हो गया। वह धाड़ मारकर रो रहा था।
फिर नसरुद्दीन उसी झाड़ के पास पहुंच गया जहां वह पहले बैठा था। उसने झाड़ के नीचे थैले को रख दिया और खुद झाड़ के पीछे जा छिपा। धनी आदमी भी पहुंचा; वह थैले पर गिर पड़ा और खुशी के मारे रोने लगा। नसरुद्दीन ने झाड़ के पीछे से देखा और कहा : क्या तुम सुखी आदमी हो? क्‍या तुम्‍हें थोड़ी झलक मिली? उस आदमी ने कहा: मैं उतना सुखी हूं जितना धरती पर कोई आदमी हो सकता है।
क्या हुआ? शिखर होने के लिए घाटी का होना जरूरी है। परमात्मा को जानने के लिए संसार जरूरी है। संसार घाटी भर है। आदमी वही था; थैला वही था। कुछ नयी बात नहीं हुई थी। लेकिन उस आदमी ने कहा कि अब मैं सुखी हूं—उतना सुखी जितना संसार का कोई आदमी हो सकता है। और कुछ मिनट पहले यह व्यक्ति दुखी था। कुछ नहीं बदला था—आदमी वही था, थैला वही था, झाडू वही था—कुछ नहीं बदला था; लेकिन वह आदमी अब नाच रहा था। बस विपरीतता घटित हुई थी, वैषम्य घटित हुआ था।
चेतना तादात्म्य बनाती है, क्योंकि तादात्म्य से ही संसार बनता है। और संसार के माध्यम से तुम स्वयं को पुन: उपलब्ध हो सकते हो।
जब बुद्ध निर्वाण को उपलब्ध हुए तो उनसे पूछा गया कि आपने क्या पाया। बुद्ध ने कहा कि मैंने पाया तो कुछ नहीं, उलटे बहुत कुछ गंवाया। मैंने कुछ नहीं पाया, क्योंकि अब मैं जानता हूं कि मैंने जो पाया वह सदा से था ही; वह मेरा स्वभाव था। बुद्ध ने कहा कि मेरा स्वभाव कभी मुझसे छिना नहीं था; इसलिए कुछ पाने का प्रश्न नहीं उठता। मैंने वह पाया है जो था ही, जो पाया हुआ ही था। हौ, मैंने अपना अज्ञान गंवाया।
तादात्म्य अज्ञान है। यह इस जागतिक लीला का, इस महाखेल का हिस्सा है कि तुम्हें अपने को खोना पड़ेगा, ताकि अपने को पुन: पा सको। यह अपने को खोना अपने को पाने का एक उपाय है, और एकमात्र उपाय है। अगर तुमने बहुत कुछ पहले ही खो दिया है तो तुम पुन: पा सकते हो। और अगर अभी बहुत नहीं खोया है तो और खोना होगा। उसके पहले कुछ नहीं किया जा सकता, उसके पहले कोई उपाय नहीं है। जब तक तुम घाटी में, अंधेरे में, संसार में पूरी तरह नहीं खो जाते, तब तक कुछ नहीं किया जा सकता है। खोओ, ताकि पा सको।
यह विरोधाभासी मालूम पड़ता है। लेकिन जगत ऐसा ही है, प्रक्रिया ऐसी ही है।

 दूसरा प्रश्न:

यदि यह प्रतीति हो की जीवन एक साइाकोड्रामा है तो व्‍यक्‍ति विरक्‍त और अकेला अनुभव करने लगता है। इस भांति उसके जीवन की निष्‍ठा, तींव्रता और गहराई खो जाती है। कृपापूर्वक समझाएं कि इस स्‍थिति में क्‍या किया जाए। तब फिर जीवन के प्रति सम्‍यक दृष्‍टि क्‍या है?

दि यह प्रतीति हो कि जीवन एक साइकोड्रामा है तो व्यक्ति विरक्‍त और अकेला अनुभव करने लगता है।
तो अनुभव करो! समस्या क्यों बनाते हो? अगर तुम विरक्‍त और अकेले अनुभव करते हो तो उसे अनुभव करो। लेकिन हम समस्या पैदा किए जाते हैं। जो भी होता है, हम तुरंत उससे समस्या निर्मित कर लेते हैं। अकेले और विरक्‍त अनुभव करो। और अगर तुम अपने अकेलेपन के साथ सहजता से रह सके तो वह विसर्जित हो जाएगा। और अगर तुम अकेलेपन के पार जाने के लिए उसके साथ कुछ कर रहे हो तो वह कभी विलीन न होगा; वह बना रहेगा।
अभी मनोविज्ञान में एक नयी दृष्‍टि पैदा हुई है जो कहती है कि अगर तुम किसी चीज के साथ, बिना उसे समस्या बनाए, रह सके तो वह मिट जाती है। और यह तंत्र की बहुत पुरानी सिखावन है। जापान में पिछले दस—बारह वर्षों से एक छोटी सी चिकित्सा—विधि प्रयोग की जा रही है। और पश्चिम के मनोविश्लेषक और मनोचिकित्सक इस विधि का अध्ययन कर रहे हैं। यह झेन चिकित्सा है और बहुत अदभुत है।
अगर कोई व्यक्ति विक्षिप्त या पागल हो जाता है तो उस पुरुष या स्त्री को एकांत कमरे में रख दिया जाता है और उससे कह दिया जाता है : अपने साथ रहो, तुम जैसे भी हो अपने साथ रहो। तुम विक्षिप्त हो तो ठीक है। तब विक्षिप्त ही हो जाओ और उसके साथ रहो। और डाक्टर कोई हस्तक्षेप नहीं करते हैं। उसे भोजन दे दिया जाता है, उसकी जरूरतें पूरी कर दी जाती हैं, उसका ध्यान रखा जाता है, लेकिन कोई हस्तक्षेप नहीं किया जाता है। रोगी को स्वयं के साथ रहना है। और दस दिन के अंदर उसमें बदलाहट होने लगती है। पश्चिमी मनोविश्लेषण वर्षों श्रम करता है और बुनियादी रूप से कुछ भी नहीं बदलता है।
इस झेन रोगी को क्या होता है? बाहर से कोई हस्तक्षेप नहीं होता है। बस इस तथ्य की स्वीकृति होती है कि ठीक है, तुम विक्षिप्त हो, उसमें कुछ नहीं किया जा सकता। झेन कहता है कि एक वृक्ष छोटा है और एक वृक्ष बहुत बड़ा है, तो ठीक है; एक छोटा है और दूसरा बड़ा; उसमें कुछ नहीं किया जा सकता। जैसे ही तुम किसी चीज को स्वीकार कर लेते हो, तुम उसका अतिक्रमण करने लगते हो।
इंग्लैंड के एक बड़े मौलिक मनोचिकित्सक आर डी लैग ने यह प्रस्तावित किया है कि अगर हम पागल आदमी को अपने आप पर छोड़ दें, ध्यान दें, प्रेम दें, उसकी जरूरतें पूरी कर दें, लेकिन उसके साथ हस्तक्षेप न करें, तो वह तीन—चार सप्ताह के भीतर पागलपन से मुक्‍त हो जाएगा। उनका कहना है कि अगर कोई हस्तक्षेप न किया जाए तो पागलपन दस दिनों से ज्यादा नहीं टिक सकता। अगर तुम हस्तक्षेप करोगे तो तुम प्रक्रिया को लंबा दोगे।
लेकिन जब तुम हस्तक्षेप नहीं करते हो तो क्या होता है? तुम अकेलापन अनुभव करते हो तो अकेलापन अनुभव करो—वही तुम्हारी स्थिति है। लेकिन जब तुम अकेलापन अनुभव करते हो तो तुम कुछ करने लगते हो; और तब तुम बंट गए। तब तुम्हारा एक हिस्सा अकेलापन अनुभव करता है और दूसरा हिस्सा उसे बदलने में लग जाता है। यह गलत है और बेतुका है। यह तो ऐसा ही है जैसे तुप अपने जूते के बंद पकड़कर अपने को ऊपर आकाश में उठाने की कोशिश करो। यह बात ही बेतुकी है। तुम अकेले हो, तो क्या कर सकते हो? कोई दूसरा भी कुछ करने को नहीं है। तुम अकेले हो तो अकेले रहो। यही तुम्हारी नियति है, तुम इसी भांति बने हो। और जब तुम इसे स्वीकार कर लेते हो तो क्या होता है? अगर तुम स्वीकार कर लो तो तुम्हारा विभाजन समाप्त हो जाएगा; तुम एक हो जाओगे, तुम अखंड हो जाओगे।
तो अगर तुम उदास और खिन्न हो तो उदास और खिन्न रहो, कुछ करो मत। और तुम कर भी क्या सकते हो? तुम जो भी करोगे वह तुम्हारी उदासी से ही तो आएगा। उससे तो उलझन और बढ़ेगी। तुम परमात्मा से प्रार्थना कर सकते हो, लेकिन तुम्हारी प्रार्थना इतनी उदास होगी कि वह परमात्मा को भी उदास कर जाएगी। उतनी हिंसा मत करो। तुम्हारी प्रार्थना भी उदास होगी ही। तुम ध्यान कर सकते हो। लेकिन तब तुम क्‍या करोगे? उदासी वहां भी बनी रहेगी। क्योंकि तुम उदास हो, तुम जो भी करोगे, उदासी तुम्हारा पीछा करेगी। उससे उलझन बढ़ेगी, निराशा ही हाथ आएगी। सफलता संभव नहीं है। और असफल होने पर उदासी और सघन होगी। और यह दुष्टचक्र चलता रहेगा।
इससे तो अच्छा है कि पहली उदासी के साथ ही रहो। दूसरे और तीसरे चक्र गढ़ने से क्या फायदा? पहले के साथ ही रहो। जो मौलिक है वह सुंदर है। दूसरा झूठा होगा; तीसरा तो और दूर पड जाएगा। उन्हें मत रचो। पहला ही सुंदर है। तुम उदास हो, उसका मतलब है कि अस्तित्व अभी तुम्हारे साथ इसी रूप में घटित हो रहा है। तुम उदास हो तो उदास रहो। प्रतीक्षा करो और साक्षी रहो।
तुम बहुत देर तक उदास नहीं रह सकते, क्योंकि इस जगत में कुछ भी स्थायी नहीं है। यह जगत एक प्रवाह है। जगत तुम्हारे लिए अपने मूलभूत नियम को नहीं बदल सकता, ताकि तुम सदा के लिए उदास रह सको। यहां कुछ भी स्थायी नहीं है, हर चीज प्रवाहमान है, हर चीज बदल रही है। अस्तित्व नदी की भांति है, वह तुम्हारे लिए—सिर्फ तुम्हारे लिए—नहीं रुक सकती कि तुम सदा—सदा उदास बने रहो। अस्तित्व की नदी बह रही है, वह आगे बढ़ चुकी। अगर तुम अपनी उदासी को देखोगे तो पाओगे कि तुम्हारी उदासी भी अगले क्षण वैसी ही नहीं रहेगी। वह भिन्न हो गई है, वह बदल गई है। बस उसे देखो, उसके साथ रहो। कुछ करो मत। बस इसी तरह कुछ न करने से रूपांतरण घटित होता है। और इसे ही प्रयत्‍नहीन प्रयत्न कहते हैं।
तो उदासी को अनुभव करो। उसका स्वाद लो, उसे जीओ। यह तुम्हारी नियति है। तब अचानक तुम्हें लगेगा कि उदासी विलीन हो गई। क्योंकि जो आदमी उदासी को भी स्वीकार करता है, वह उदास कैसे रह सकता है? जो चित्त उदासी को भी स्वीकार कर लेता है, वह उदास नहीं रह सकता। उदासी के होने के लिए अस्वीकार करने वाला चित्त जरूरी है। वह कहता है : यह अच्छा नहीं है, वह अच्छा नहीं है, यह नहीं होना चाहिए, वह नहीं होना चाहिए; ऐसा नहीं होना चाहिए वैसा नहीं होना चाहिए। वह सब कुछ को इनकार करता है, नामंजूर करता है, उसे कुछ भी स्वीकार नहीं है। उसके लिए 'नहीं' बुनियादी है। ऐसा चित्त सुख में भी कुछ इनकार योग्य खोज लेगा।
अभी कल ही एक आदमी मेरे पास आया और उसने कहा. ध्यान में गहराई आ रही है और मैं बहुत आनंदित अनुभव करता हूं लेकिन मुझे संदेह होता है कि कहीं यह आनंद भ्रम तो नहीं है! क्योंकि पहले कभी मैंने ऐसा आनंद नहीं जाना था; यह मेरी भांति हो सकती है। इससे मैं संदेह में पड़ गया हूं। कृपा करके मेरा संदेह दूर करें।
अगर इनकार करने वाले मन को सुख भी घटित हो तो वह उस पर भी संदेह करेगा। उसे लगेगा कि कुछ गड़बड़ हो गई है। मैं और सुखी? जरूर कहीं कुछ गड़बड़ है। सिर्फ चंद दिनों के ध्यान से ऐसा नहीं हो सकता है।
अस्वीकार करने वाले चित्त के लिए सब कुछ अस्वीकार है। लेकिन अगर तुम अपने म् अकेलेपन को, अपनी उदासी को, अपने दुख को स्वीकार कर सको तो तुम उसके पार जाने लगे। स्वीकार ही अतिक्रमण है। स्वीकार करके तुमने उदासी के पाव के नीचे से जमीन हटा दी; उदासी अब खड़ी नहीं रह सकती।
इसे प्रयोग करो। जो भी तुम्‍हारी चित्‍त—दशा हो उसे स्‍वीकार करो और उस समय की प्रतीक्षा करो जब वह खुद बदले। तुम उसे नहीं बदल रहे हो। तब तुम उस सौंदर्य को अनुभव करोगे जो आता ही तब है जब चित्त—दशा अपने आप बदलती है। तुम पाओगे कि यह ऐसा ही है जैसे सूरज सुबह उगता है और सांझ डूबता है, और उसके उगने—डूबने का सिलसिला चलता रहता है और उसके लिए कुछ नहीं किया जा सकता।
अगर तुम अपनी चित्त—दशा को अपने आप बदलते देख लो तो तुम उसके प्रति तटस्थ रह सकते हो, तुम उससे दूर, मीलों दूर रह सकते हो जैसे कि कहीं दूर यह सब घट रहा है। जैसे सूरज उगता और डूबता है, वैसे ही उदासी आती—जाती है, सुख आता—जाता है, पर तुम उसमें नहीं हो। दुख—सुख अपने आप आते—जाते हैं, चित्त—दशाएं अपने आप आती—जाती हैं।यदि यह प्रतीति हो कि जीवन एक साइकोड्रामा है तो व्यक्ति विरक्‍त और अकेला अनुभव करने लगता है।
तो वैसा अनुभव करो!
'इस भांति उसके जीवन की निष्ठा, तीव्रता और गहराई खो जाती है।
तो उसे खो जाने दो। जो निष्ठा और गहराई खो सकती है, वह सच्ची नहीं है, वह नकली है, झूठ है। और यह अच्छा है कि गलत चीजें नष्ट हो जाएं। सच्ची गहराई कैसे नष्ट हो सकती है? सच्ची गहराई की परिभाषा ही यह है कि वह नष्ट नहीं हो सकती चाहे तुम कुछ भी करो। अगर तुम बुद्ध को अशांत कर सको तो वे बुद्ध नहीं हैं। तुम चाहे जो भी करो, वे अनुद्विग्न रहेंगे, शांत रहेंगे। बेशर्त अनुद्विग्नता ही बुद्ध—स्वभाव है।
सच्चा कभी नष्ट नहीं होता, सच्चा सदा बेशर्त है। मैं तुम्हें प्रेम करता हूं और कहता हूं कि क्रोध मत करो, क्रोध करोगे तो मेरा प्रेम खो जाएगा। ऐसा प्रेम जितनी जल्दी खो जाए उतना अच्छा। अगर प्रेम सच्चा है तो तुम कुछ भी करो, उससे उसमें फर्क नहीं पड़ेगा; प्रेम रहेगा। और तभी उसका कोई मूल्य है।
अगर संसार को साइकोड्रामा की भांति, नाटक की भांति देखने से तुम्हारे जीवन की तीव्रता, तुम्हारी गहराई खो जाती है, तो वह तीव्रता, वह गहराई बचाने योग्य नहीं थी। वह झूठी थी। वह तीव्रता विदा हो जाती है, क्योंकि वह नाटक का एक खेल भर थी। और तुम सोचते थे कि वह सच्ची थी और उसमें गहराई थी। अब तुम जानते हो कि वह नाटक का हिस्सा थी। वैसे ही जो निष्ठा खो जाती है वह सच्ची नहीं थी। तुम सोचते थे कि वह सच्ची थी, लेकिन सच्ची नहीं थी। इसी कारण से जीवन को नाटक की तरह देखते ही वह निष्ठा विलीन हो गई।
यह ऐसा ही है, मानो एक अंधेरे कमरे में रस्सी पड़ी थी और तुम्हें लगा कि सांप है। लेकिन सांप है नहीं। अब तुम एक दीया लेकर कमरे में आते हो और सांप खो जाता है और सिर्फ रस्सी रह जाती है। दीए के आने पर जो सांप खो गया वह सांप कभी नहीं था।
अगर तुम जीवन को अभिनय की भांति देखोगे तो जो झूठ है वह विलीन हो जाएगा और जो सत्य है वह पहली दफा तुममें प्रकट होगा। रुको और असत्य को खो जाने दो। प्रतीक्षा करो। एक अंतराल होता है, जब असत्य बिदा होता है और सत्य प्रकट होता है, उसके पहले एक अंतराल होगा। जब झूठी छायाएं बिलकुल खो जाएंगी, जब तुम्हारी आंखें उनसे बिलकुल खाली हो जाएंगी,जब तुम्‍हारी आंखें झूठी छायाओं से मुक्‍त हो जाएंगी, तब तुम उस सत्य को देख सकोगे जो सदा था। लेकिन उसके लिए प्रतीक्षा चाहिए।
'कृपापूर्वक समझाएं कि इस स्थिति में क्या किया जाए।
कुछ भी नहीं। कृपा करके कुछ भी मत करो। तुमने बहुत कुछ क्र—करके ही तो सब गड्ड—मड्ड कर दिया है। तुम करने में इतने कुशल हो कि तुमने अपने चारों ओर इतनी उलझन, इतना उपद्रव पैदा कर लिया है—न केवल अपने लिए, बल्कि दूसरों के लिए भी। कुछ भी मत करो, वह तुम्हारी अपने ऊपर बड़ी करुणा होगी। थोड़ी करुणा करो। कुछ मत करो, क्योंकि झूठा मन, उलझा हुआ मन, सब कुछ को और भी उलझा देता है। उलझे हुए मन के साथ कुछ करने की बजाय प्रतीक्षा करना बेहतर है, ताकि उलझन विसर्जित हो जाए। वह विसर्जित होगी; क्योंकि इस जगत में कुछ भी स्थायी नहीं है। सिर्फ गहन धैर्य की जरूरत है।
मैं तुम्हें एक कहानी कहूंगा। बुद्ध एक जंगल से गुजर रहे थे। दिन तप रहा था, ठीक दोपहरी थी। उन्हें प्यास लगी, तो उन्होंने अपने शिष्य आनंद से कहा : वापस जाओ। अभी हमने एक छोटा सा झरना पार किया था, वहां जाओ और मेरे लिए पानी ले आओ। आनंद वापस गया। लेकिन वह झरना बहुत छोटा था और अभी—अभी कुछ बैलगाड़ियां उससे गुजरी थीं। पानी हिल गया था और गंदा हो गया था। सारा कीचड़ ऊपर आ गया था और पानी पीने योग्य नहीं रहा था।
आनंद ने सोचा कि मैं लौट चलूं और वह लौट गया। उसने बुद्ध से कहा कि वह पानी तो बिलकुल गंदा हो गया है और पीने योग्य नहीं है। आनंद ने कहा : मुझे आज्ञा दें कि मैं आगे जाऊं। यहां से कुछ मीलों पर ही एक नदी है, मैं जाकर उससे पानी ले आता हूं। लेकिन बुद्ध ने उससे कहा कि नहीं, उसी झरने पर वापस जाओ।
बुद्ध ने कहा तो आनंद को फिर वहीं वापस जाना पड़ा। लेकिन वह आधे मन से गया, क्योंकि वह जानता था कि मैं पानी नहीं ला पाऊंगा; सिर्फ समय गंवाना होगा। और उसे भी प्यास लग रही थी। लेकिन जब बुद्ध ने कहा तो उसे जाना पड़ा। वह फिर बुद्ध के पास लौटकर बोला आपने नाहक जिद्द की। वह पानी पीने योग्य नहीं है। लेकिन बुद्ध ने फिर कहा. तुम फिर वहीं जाओ। और बुद्ध के कहने पर आनंद को फिर वहीं जाना पड़ा।
आनंद जब तीसरी बार झरने पर पहुंचा तो पानी बिलकुल साफ था। कीचड़ बैठ गया था, सूखे पत्ते बह गए थे और पानी फिर शुद्ध का शुद्ध था। तब आनंद हंसा। वह पानी लेकर नाचता हुआ वापस आया। वह बुद्ध के चरणों पर गिर पड़ा और बोला. आपके सिखाने के ढंग अदभुत हैं। आपने आज मुझे एक महान पाठ दिया—कि सिर्फ धैर्य चाहिए और कुछ भी हमेशा नहीं रहता है।
और बुद्ध की मूलभूत देशना यही है कि कुछ भी स्थायी नहीं है, सब कुछ बहा जा रहा है। फिर चिंता क्यों? उसी झरने पर वापस जाओ, अब तक सब कुछ बदल गया होगा। कुछ भी बिना बदले नहीं रहता है। सिर्फ धैर्य चाहिए। फिर—फिर वहीं जाओ। क्षणों की बात है और पत्ते बह जाएंगे और कीचड़ बैठ जाएगा और फिर पानी स्वच्छ हो जाएगा।
और जब आनंद दूसरी बार झरने पर जा रहा था तो उसने बुद्ध से कहा कि आप जाने को कहते हैं तो मैं जाता हूं; लेकिन क्या मैं वहां पानी को स्वच्छ करने के लिए कुछ कर सकता हूं? बुद्ध ने कहा कि कुछ मत करना, अन्यथा तुम पानी को और गंदा कर दोगे। और झरने में उतरना भी मत; बाहर ही रहना। किनारे बैठकर प्रतीक्षा करना। तुम झरने में उतरकर उपद्रव ही पैदा करोगे। झरना अपने आप ही बहता है, उसे बहने देना।
कुछ भी स्थायी नहीं है। जीवन एक प्रवाह है। हेराक्लाइटस ने कहा है कि तुम एक ही नदी में दो बार नहीं उतर सकते, एक ही नदी में दो बार उतरना असंभव है। क्योंकि नदी तो बह गई; उसका सब कुछ बदल गया। और यही नहीं कि नदी बह गई, तुम भी इस बीच बह गए हो, तुम भी बदल गए हो। तुम भी एक नदी हो।
हर चीज की क्षणभंगुरता को देखो। जल्दी मत करो। कुछ भी करने की चेष्टा मत करो। बस प्रतीक्षा करो। समग्रत: निष्‍क्रिय होकर प्रतीक्षा करो। और तुम अगर प्रतीक्षा कर सके तो रूपांतरण होगा। प्रतीक्षा ही रूपांतरण बन जाएगी।

 तीसरा प्रश्न :

साक्षी की साधना मुझ मौन, स्थिर और शांत बना देती है, लेकिन मेरे मित्र मुझसे कहते हैं कि मैं गंभीर हो गया हूं। और वे जो कहते हैं उसमें कुछ सार भी मालूम देता है।  कृपया समझाएं की कोई व्‍यक्‍ति कैसे मौन और लीला— भाव में साथ— साथ विकास करे।

 दि तुम सचमुच मौन हो गए हो तो तुम्हें इसकी फिक्र न रहेगी कि दूसरे क्या कहते हैं। और यदि दूसरों की राय अभी तुम्हारे लिए महत्वपूर्ण है तो तुम मौन नहीं हुए हो। सच तो यह है कि तुम इंतजार में हो कि वे कुछ कहें, कि वे प्रशंसा करें कि तुम मौन हो गए हो। क्या तुम्हारे मौन को उनके समर्थन की जरूरत है? तुम्हें उनके प्रमाणपत्र की जरूरत है? तब तुम आश्वस्त नहीं हो कि तुम मौन हो गए हो।
दूसरों के मत अर्थपूर्ण हैं, क्योंकि तुम खुद कुछ नहीं जानते हो। मत कभी ज्ञान नहीं है। तुम दूसरों के मत इकट्ठे किए जाते हो, क्योंकि तुम्हें पता नहीं है कि तुम क्या हो, तुम कौन हो, तुम्हें क्या हो रहा है। तुम्हें दूसरों से पूछना पड़ता है कि मुझे क्या हो रहा है।
तुम्हें दूसरों से पूछना पड़ेगा? अगर तुम सच में मौन और शांत हो गए हो तो न कोई मित्र हैं और न कोई मत अर्थपूर्ण हैं। तब तुम हंस सकते हो। उन्हें कहने दो जो वे कहना चाहें। लेकिन नहीं, तुम प्रभावित होते हो। वे जो कुछ कहते हैं वह तुममें गहरे उतर जाता है, तुम उससे उत्तेजित हो जाते हो। तुम्हारा मौन झूठा है, आरोपित है, अभ्यासजन्य है। वह सहज रूप से तुममें नहीं खिला है। तुमने जबरदस्ती अपने को मौन कर लिया है, लेकिन भीतर अभी उबल रहे हो। यह मौन सतह पर ही है। अगर कोई कहता है कि तुम मौन नहीं हो, अगर कोई कहता है कि यह अच्छा नहीं है, या अगर कोई कहता है कि यह झूठा है, तो तुम अशांत हो जाते हो और तुम्हारा मौन खो जाता है। मौन खो गया है। इसीलिए तुम मुझसे यह पूछ रहे हो।
और वे जो कहते हैं उसमें कुछ सार भी मालूम देता है।
तुम गंभीर हो गए हो। पर गंभीर होने में गलत क्या है? अगर तुम गंभीर ही पैदा हुए हो, गंभीर होने को ही पैदा हुए हो, तो तुम गंभीर होओगे। तुम जबरदस्ती खेलपूर्ण नहीं हो सकते; अन्यथा तुम्हारा खेलपूर्ण होना ही गंभीर हो जाएगा और तुम उसको भी नष्ट कर दोगे। कई खिलाडी भी बड़े गंभीर होते है। वह अपने खेलों में इतने गंभीर हो जाते है कि खेल और ज्यादा चिंता और उपद्रव के कारण बन जाते हैं।
मैं किसी व्यक्ति के संस्मरण पढ़ रहा था जो कि एक बडा उद्योगपति था और रोज—रोज की समस्याओं से पीड़ित था। किसी ने उससे कहा कि तुम गोल्फ खेलो, उससे तुम्हारी चिंता कम हो जाएगी। उसने गोल्फ खेलना शुरू किया, लेकिन वह वही आदमी रहा। वह अपने गोल्फ के बारे में इतना उत्तेजित हो गया कि उसकी नींद खो गई। वह सारी रात गोल्फ खेला करता। पहले काम का बोझ था, अब गोल्फ दूसरा बोझ बन गया—पहले से भी बड़ा बोझ। वह गोल्फ खेलता था, लेकिन गंभीर मन से, पुराने मन से खेलता था।
अगर तुम गंभीर हो तो गंभीर हो, उसके बारे में कुछ भी नहीं किया जा सकता। गंभीर होओ और गंभीर बने रहो। तब तुम खेलपूर्ण होने लगे। तब तुम अपनी गंभीरता के प्रति गैर—गंभीर होने लगे; तुम गंभीर न रहे। तब तुम अपनी गंभीरता को खेल की तरह लेने लगे। तुम कहते हो कि ठीक है, परमात्मा ने मुझे यही भूमिका अदा करने को दी है, सो मैं गंभीर आदमी होऊंगा और गंभीरता की भूमिका निभाऊंगा।
तो गहरे में गंभीरता विसर्जित होने लगी। मेरी बात समझे? तुम खेल में गंभीरता ला सकते हो और तुम गंभीरता को खेल बना सकते हो। अगर तुम उदास हो, गंभीर हो, तो सब से कह दो कि मैं जन्मजात गंभीर हूं और मैं गंभीर रहूंगा। लेकिन अपनी गंभीरता के संबंध में गंभीर मत बनो। बस गंभीर रहो। और जब तुम इसके बारे में हंस सकते हो तो गंभीरता विदा हो जाएगी। और तुम्हें पता भी नहीं चलेगा कि वह कब चली गई।
और दूसरे क्या कहते हैं, उस पर ध्यान मत दो। यह एक बीमारी है। वे दूसरे तुम्हें विक्षिप्त कर देंगे। वे दूसरे कौन हैं? और तुम्हें उनमें इतनी रुचि क्यों है? वे तुम्हें पागल बनाते हैं और तुम उन्हें पागल बनाते हो, क्योंकि उनके लिए तुम दूसरे हो। दूसरे की राय को इतना महत्व क्यों देना? अपने स्वयं के अनुभवों पर ध्यान दो, अपने स्वयं के अनुभवों के प्रति प्रामाणिक रहो। अगर तुम्हें गंभीर रहना रास आता है तो वही ठीक है। अगर तुम समझते हो कि साक्षी की साधना से तुम मौन और शांत हो गए हो तो दूसरे की फिक्र क्या करनी! दूसरों के मत से उत्तेजित क्या होना!
लेकिन हम आश्वस्त नहीं हैं, इसलिए दूसरों के मत बटोरते रहते हैं। तुम्हें तो हस्ताक्षर— अभियान चलाना चाहिए। लोगों से कहो कि अगर आप सोचते हैं कि मैं बुद्ध हो गया हूं तो इस पर हस्ताक्षर कर दें। और जब हर कोई हस्ताक्षर कर दे, कम से कम जब बहुमत तुम्हारे साथ हो, तो तुम बुद्ध हो गए। लेकिन बुद्ध होने का मार्ग यह नहीं है।
'और कृपापूर्वक समझाएं कि कोई व्यक्ति कैसे मौन और लीला— भाव में साथ—साथ विकास करे।
विकास होता है। इससे अन्यथा कभी नहीं हुआ है। व्यक्ति मौन और लीला— भाव में साथ—साथ विकसित होता है। लेकिन अगर तुम्हारा मौन झूठा है तो समस्या खड़ी होती है। जिन्होंने भी मौन जाना है वे सदा लीलापूर्ण रहे हैं, सदा गैर—गंभीर रहे हैं। वे हंस सके; दूसरों पर ही नहीं, अपने ऊपर भी हंस सके।
आज से चौदह सौ साल पहले बोधिधर्म भारत से चीन गए थे। उन्होंने अपना एक जूता अपने सिर पर रखा हुआ था—एक जूता पांव में था और दूसरा सिर पर। चीन का सम्राट बू उसके स्वागत के लिए आया हुआ था। यह देखकर वह परेशान हो उठा। अफवाहें तो बहुत सुनी थीं कि यह आदमी अजीबोगरीब है, लेकिन वह बुद्धपुरुष था और सम्राट अपने राज्य में उसका स्वागत करना चाहता था। वह परेशान हो गया। उसके दरबारी भी परेशान हो गए। वे सोचने लगे कि यह किस तरह का व्यक्ति है! और बोधिधर्म हंस रहा था।
दूसरों के सामने कुछ कहना अशोभन होता, इसलिए सम्राट चुप रहा। जब सभी लोग चले गए और बोधिधर्म और सम्राट बोधिधर्म के कमरे में गए तो सम्राट ने पूछा कि आप अपने को इस तरह मूर्ख क्यों बना रहे हैं? आप अपना एक जूता सिर पर क्यों रखे हुए हैं?
बोधिधर्म हंसा और बोला : क्योंकि मैं अपने ऊपर हंस सकता हूं। और यह अच्छा है कि आप मेरी असलियत को जान लें कि मैं ऐसा व्यक्ति हूं। और मैं अपने सिर को पांव से ज्यादा मूल्य नहीं देता हूं मेरे लिए दोनों समान हैं। मेरे लिए ऊंच—नीच विलीन हो गए हैं। और दूसरी बात मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि मैं इस बात की जरा भी परवाह नहीं करता कि दूसरे मेरे बारे में क्या कहते हैं। और यह अच्छा है, जिस क्षण मैंने आपके राज्य में प्रवेश किया, मैंने चाहा कि आप जान लें कि मैं किस तरह का आदमी हूं।
यह बोधिधर्म एक दुर्लभ रत्‍न है। बहुत कम लोग हुए हैं जो उनकी तुलना में आ सकें। वे क्या बता रहे थे? वे यही बता रहे थे कि अध्यात्म के इस मार्ग पर तुम्हें व्यक्ति की तरह अकेले चलना है, समाज यहां अप्रासंगिक हो जाता है।
कोई व्यक्ति जार्ज गुरजिएफ के साक्षात्कार के लिए आया था। आने वाला एक बड़ा पत्रकार था। गुरजिएफ के शिष्य बहुत उत्सुक थे कि अब एक बड़े समाचारपत्र में उनके गुरु की कहानी, उसके चित्र और समाचार छपने जा रहे हैं। उन्होंने उस पत्रकार का बहुत खयाल रखा, उसकी अच्छी तरह देखभाल की। वे अपने गुरु को करीब—करीब भूल ही गए और पत्रकार के आस—पास मंडराते रहे।
और फिर साक्षात्कार शुरू हुआ, लेकिन दरअसल वह साक्षात्कार कभी शुरू ही नहीं हुआ। जब पत्रकार ने कोई प्रश्न पूछा तो गुरजिएफ ने कहा एक मिनट रुको। उसके बगल में ही एक स्त्री बैठी थी; गुरजिएफ ने उससे पूछा कि आज कौन सा दिन है? उस स्त्री ने कहा कि आज रविवार है। गुरजिएफ ने कहा. यह कैसे हो सकता है? कल तो शनिवार था, तो आज रविवार कैसे हो सकता है? कल तो तुमने कहा था कि आज शनिवार है, शनिवार के बाद रविवार कैसे आ सकता है?
पत्रकार उठ खड़ा हुआ और उसने कहा कि मैं जाता हूं यह आदमी तो पागल मालूम पड़ता है। सभी शिष्य हैरान थे, जो कुछ घटित हुआ, उन्हें कुछ समझ में नहीं आया। जब पत्रकार चला गया तो गुरजिएफ हंस रहा था।
दूसरे क्या कहते हैं यह प्रासंगिक नहीं है। तुम स्वयं जो अनुभव करते हो, उसके प्रति प्रामाणिक बनो, लेकिन प्रामाणिक बनो। अगर तुम्हें सच्चा मौन घटित हुआ हो तो तुम हंस सकते हो।
डोजेन एक झेन गुरु था। उसके संबंध में कहा जाता है कि जब वह बुद्धत्व को उपलब्ध हुआ तो अनेक लोगों ने पूछा कि उसके बाद आपने क्या किया? डोजेन ने कहा कि मैंने एक प्‍याली चाय बुलायी। अब और करने को क्‍या था; सब तो समाप्‍त हो चुका था। और डोजेन अपनी गैर—गंभीरता के प्रति गंभीर था और अपनी गंभीरता के प्रति गैर—गंभीर था। सच ही तब क्या बच रहता है?
ज्यादा मत ध्यान दो कि दूसरे क्या कहते हैं। और एक बात स्मरण में रख लो कि मौन को ऊपर से थोपो मत, उसका अभ्यास मत करो। अभ्यासजन्य मौन गंभीर होगा, रुग्ण होगा, तनावग्रस्त होगा। लेकिन सच्चा मौन कैसे आता है? इसे समझने की कोशिश करो।
तुम तनावग्रस्त हो, तुम दुखी हो, तुम उदास हो। तुम क्रोधी, लोभी, हिंसक हो। हजार रोग हैं। और तुम शांति का अभ्यास कर सकते हो। ये रोग तुम्हारे भीतर बने रह सकते हैं और तुम शांति की एक पर्त निर्मित कर सकते हो। तुम टी .एम या भावातीत ध्यान कर सकते हो, या किसी मंत्र का जाप कर सकते हो। मंत्र तुम्हारी हिंसा को नहीं बदलने वाला है, न वह तुम्हारे लोभ को बदलने वाला है। मंत्र गहरे में बसी किसी वृत्ति को नहीं बदल सकता है। मंत्र सिर्फ ट्रैंक्वेलाइजर का काम करता है, बस ऊपर—ऊपर तुम थोड़ा शांत अनुभव करोगे। यह केवल ट्रैंक्वेलाइजर है—ध्वनि निर्मित ट्रैंक्वेलाइजर।
और नींद अनेक—अनेक उपायों से लायी जा सकती है। जब तुम निरंतर किसी मंत्र को दोहराते हो तो तुम्हें नींद आने लगती है। किसी ध्वनि की सतत पुनरुक्ति ऊब और नींद पैदा करती है, तुम विश्राम अनुभव करते हो। लेकिन यह विश्राम सतह पर ही रहता है, भीतर तुम वही के वही बने रहते हो। किसी मंत्र का रोज—रोज जाप करते रहो और तुम्हें शांति अनुभव होगी। लेकिन वह असली शांति नहीं है। क्योंकि उससे तुम्हारे रोग नहीं मिटते हैं, क्योंकि तुम्हारे व्यक्तित्व का ढांचा वैसा ही बना रहता है। बस ऊपर से रंग—रोगन हो जाता है। मंत्र—जाप बंद करो, अभ्यास बंद करो और तुम्हारे सारे रोग फिर ऊपर आ जाएंगे।
यह रोज हो रहा है। साधक एक गुरु से दूसरे गुरु के पास जाते रहते हैं; और वे न जाने क्या—क्या अभ्यास करते रहते हैं। लेकिन जब वे अभ्यास बंद करते हैं तो पाते हैं कि वे वही के वही हैं, उन्हें कुछ भी घटित नहीं हुआ।
इस तरह कुछ भी नहीं घटित होगा। यह साधा हुआ मौन है। तुम्हें उसे साधते ही रहना होगा। और अगर तुम उसे साधते रहोगे तो वह एक आदत की तरह तुम्हारे साथ रहेगा। और आदत के टूटते ही वह बिखर जाता है।
सच्चा मौन कोई सतही विधि के साधने से नहीं आता; वह बोध से आता है। तुम जो भी हो, उसके प्रति बोधपूर्ण ही नहीं होना है, बल्कि तुम जो हो उसकी तथ्यता के साथ रहना है। तथ्य के साथ रहो। यह बहुत कठिन है, क्योंकि मन बदलाहट चाहता है। वह चाहता है कि कैसे हिंसा को बदले, कैसे उदासी को बदले, कैसे दुख को बदले। मन भविष्‍य में किसी भांति अपनी छवि बेहतर करने के लिए बदलाहट की खोज करता है। यही कारण है कि व्यक्ति किसी न किसी विधि की खोज में लगा रहता है।
तुम तथ्य के साथ रहो, उसे बदलने की चेष्टा मत करो। एक वर्ष तक यह प्रयोग करो। एक तारीख तय कर लो और कह दो कि इस तारीख से एक वर्ष तक मैं बदलाहट की भाषा में नहीं सोचूंगा; मैं जो भी हूं उसके ही साथ रहूंगा, मैं बस सजग और बोधपूर्ण रहूंगा।
मैं यह नहीं कहता कि तुम्हें कुछ नहीं करना है, लेकिन तुम्हें सजगता को अपनी साधना बना लेना है। तुम्हें सजग रहना है, बदलाहट की भाषा में नहीं सोचना है। जो भी तुम हो—भले, बुरे या दोनों के बीच में—उसके साथ तुम्‍हें एक वर्ष जीना है। और तब एक दिन तुम पाओगे कि तुम वही नहीं रहे जो थे। सजगता सब कुछ बदल देगी।
झेन साधना में इसे झाझेन कहा जाता है। झाझेन का अर्थ है. सिर्फ बैठना, कुछ किए बिना सिर्फ बैठना। जो होता है वह होता है, तुम बस बैठे हो। झाझेन का मतलब है बिलकुल निष्‍क्रिय होकर बैठना। झेन मंदिरों में साधक वर्षों बैठे रहते हैं और पूरे दिन बैठे रहते हैं। तुम्हें लगेगा कि वे ध्यान कर रहे हैं। नहीं, वे ध्यान नहीं कर रहे हैं, वे बस मौन बैठे हैं। और मौन बैठने का यह अर्थ नहीं है कि वे किसी मंत्र द्वारा मौन निर्मित कर रहे हैं, वे सिर्फ बैठे हैं।
अगर उनका कोई पांव सुन्न हो जाता है तो वे उसे अनुभव करते हैं, तो वे उसके प्रति सजग रहते हैं। अगर उनका शरीर थक जाता है तो वे सजग देखते हैं कि शरीर थक गया। शरीर को ऐसा ही होना है। अगर विचार चलते हैं तो वे उन्हें देखते हैं। वे उन्हें रोकने की चेष्टा नहीं करते हैं। वे कुछ भी नहीं करते हैं। विचार हैं, जैसे आकाश में बदलिया हैं। और वे जानते हैं कि बादल आकाश को नहीं नष्ट कर सकते, वे बस आते—जाते हैं। ऐसे ही चेतना के आकाश में विचार चलते हैं, आते—जाते हैं। वे उन्हें रोकते नहीं; वे उनके साथ जबरदस्ती नहीं करते। वे कुछ भी नहीं करते हैं; वे बस जागरूक हैं, देख रहे हैं कि विचार चल रहे हैं।
कभी उदासी की बदली आ जाती है और सब कुछ धुंधला— धुंधला हो जाता है; और कभी सुख की धूप फैल जाती है और सब कुछ नाचने लगता है—मानों चेतना पर सर्वत्र फूल ही फूल खिल गए हैं। लेकिन साधक किसी से भी विचलित नहीं होते—न बदली से और न धूप से। वे बस बैठे देखते रहते हैं कि चीजें चल रही हैं। वे मानों नदी के किनारे बैठे हैं और सब कुछ बहा जा रहा है, वे किसी भी चीज को बदलने की चेष्टा नहीं करते।
अगर कोई बुरा विचार आता है तो वे यह नहीं कहते कि यह बुरा विचार है। क्योंकि जैसे ही तुम कहते हो कि यह बुरा विचार है वैसे ही तुम्हें उसे बदलने का लोभ पकड़ता है। यह कहकर कि यह बुरा है तुमने उसे हटा दिया, उसे निंदित कर दिया और अब तुम उसे अच्छे विचार में बदलना चाहोगे। वे इतना ही कहते हैं कि यह यह है और वह वह है, उसमें कोई निंदा नहीं रहती, कोई मूल्यांकन नहीं रहता; कोई औचित्य सिद्ध करने की चेष्टा भी नहीं रहती। वे सिर्फ जागरूक रहते हैं, साक्षी रहते हैं।
कभी—कभी वे साक्षी रहना भूल जाते हैं, लेकिन वे उससे भी विचलित नहीं होते। वे जानते हैं कि ऐसा होता है, वे जानते हैं कि मैं साक्षी रहना भूल गया, अब फिर स्मरण आ गया है और मैं फिर साक्षी रहूंगा। वे उसे समस्या नहीं बनाते हैं। वे सिर्फ उसे जीते हैं जो है। वर्ष आते हैं, वर्ष जाते हैं और वे बैठे रहते हैं और उसे देखते रहते हैं जो है। और फिर एक दिन सब कुछ विलीन हो जाता है। एक स्वप्न की तरह सब कुछ विलीन हो जाता है और तुम जाग जाते हो, जागरण को उपलब्ध हो जाते हो।
यह जागरण अभ्यास की चीज नहीं है, इसे साधा नहीं जाता है। यह बोध तुम्हारा स्वभाव है—मूलभूत स्वभाव। यह बोध का विस्फोट घटित हुआ, क्योंकि तुमने धीरज से प्रतीक्षा की, तुमने धीरज से निरीक्षण किया और तुमने कोई समस्या नहीं बनायी। यह एक बुनियादी बात स्मरण में रख लो. समस्या मत बनाओ, समस्या मत निर्मित करो।
अभी दो—तीन दिन पहले एक स्‍त्री यहां आयी थी। उसने पूछा कि मेरा मन बहुत कामुक है, मैं क्या करूं? एक दूसरा व्यक्ति आया और उसने कहा कि मैं बहुत हीन अनुभव करता हूं हीनता की ग्रंथि से पीड़ित हूं मुझे कुछ सलाह दें। मैंने उस व्यक्ति से कहा कि तुम अगर हीन अनुभव करते हो तो हीन अनुभव करो! जानो कि मैं हीन अनुभव कर रहा हूं। इसमें करना क्या है? कुछ नहीं करना है। अगर कोई कामुक अनुभव करता है तो उसे कामुक अनुभव करना चाहिए। उसे जानना चाहिए कि मैं कामुक हूं। लेकिन जब मैं किसी को ऐसी बात कहता हूं तो वह बहुत हैरान हो जाता है। वह तो अपने को बदलने के लिए किसी विधि की खोज में आया था।
कोई भी अपने को स्वीकार नहीं करता है। तुम अपने ही दुश्मन हो। तुमने अपने आपको कभी प्रेम नहीं किया। तुम अपने साथ कभी सहज नहीं रहे। और यह हैरानी की बात है, तुम अपेक्षा करते हो कि दूसरे तुम्हें प्रेम करें और तुम स्वयं अपने को प्रेम नहीं कर सकते। तुम अपने ही विरोध में हो। तुम चाहोगे कि हर ढंग से अपने को मिटा दो और पुनर्निर्मित करो। अगर तुम्हारा बस चले तो तुम दूसरा व्यक्ति निर्मित कर लो। और तुम उससे भी संतुष्ट नहीं होओगे, क्योंकि उसके पीछे भी तो तुम्हीं रहोगे।
अपने को प्रेम दो, अपने को सम्मान दो और अनावश्यक समस्याएं मत खड़ी करो। सब समस्याएं अनावश्यक हैं, आवश्यक समस्याएं होती ही नहीं। मुझे तो अब तक नहीं मिली हैं। अपनी तथ्यता के साथ जीओ और रूपांतरण घटित होगा। लेकिन यह रूपांतरण परिणाम नहीं है, तुम उसे जबरदस्ती नहीं ला सकते। यह परिणाम नहीं, उप—उत्पत्ति है। अगर तुम अपने को स्वीकार करते हो और सजग रहते हो तो वह आता है। तुम उसे जबरदस्ती नहीं ला सकते, तुम यह नहीं कह सकते कि मैं इसे लाकर रहूंगा। और अगर तुम जबरदस्ती करोगे तो तुम्हें कोई झूठा अनुभव हो जाएगा और उसे कोई भी हिला दे सकता है।

 अंतिम प्रश्न :

आय कहते हैं कि स्वीकार रूपांतरित करता है, लेकिन फिर ऐसा क्यों होता है कि जब मैं अपनी भावनाओं और वासनाओं को स्वीकार करता हूं तो मैं रूपांतरित अनुभव करने की बजाय अपने को पशुवत अनुभव करता हूं?

ही तुम्हारा रूपांतरण है, यही तुम्हारा सत्य है। और पशु होने में गलत क्या है? मैंने अब तक एक भी ऐसा मनुष्य नहीं देखा है जिसकी तुलना पशु से की जा सके। सुजुकी कहा करता था : मैं मनुष्य की तुलना में एक मेंढक को—एक मेंढक को भी—ज्यादा प्रेम करता हूं। सरोवर के किनारे बैठे मेंढक को तो देखो, वह कितना ध्यानमग्न बैठता है! उसे देखो, वह इतना ध्यानमग्न है कि सारा संसार भी उसे नहीं हिला सकता। वह बैठा है और बैठा है, सारे जगत के साथ एक होकर बैठा है। और सुजुकी कहा करता था कि जब मैं अज्ञानी था तो मनुष्य था और जब मैं बुद्धत्व को उपलब्ध हुआ तो मैं बिल्ली हो गया।
बिल्ली को देखो। वह विश्राम में उतरने का राज जानती है और उसने विश्राम—कला पर एक भी किताब नहीं पढ़ी है। बिल्ली को देखो; कोई मनुष्य बिल्ली से बेहतर गुरु नहीं हो सकता। बिल्ली विश्रामपूर्ण है और सका है। तुम अगर विश्रामपूर्ण होगे तो तुरंत नींद में चले जाओगे। और बिल्‍ली अपनी नींद में भी सजग रहती है। प्रत्‍येक क्षण उसका शरीर तनावरहित और विश्रामपूर्ण रहता है।
पशु होने में बुरा क्या है? मनुष्य के अहंकार ने तुलना निर्मित की है; वह कहता है कि हम पशु नहीं हैं। लेकिन कोई पशु मनुष्य नहीं होना चाहेगा। पशु अस्तित्व के साथ बड़े नैसर्गिक ढंग से रहते हैं, लयबद्ध होकर जीते हैं। वे चिंताग्रस्त नहीं होते; वे तनावग्रस्त नहीं होते। निश्चित ही, वे कोई धर्म निर्मित नहीं करते, क्योंकि उन्हें धर्म की जरूरत नहीं है। उनके समाज में मनोविश्लेषक भी नहीं होते; इसलिए नहीं कि वे विकसित नहीं हैं, बल्कि इसलिए कि उनकी जरूरत नहीं है। पशुओं में गलत क्या है? यह निंदा क्यों?
यह निंदा मनुष्य के अहंकार का हिस्सा है। मनुष्य सोचता है कि मैं सर्वश्रेष्ठ हूं। किसी पशु ने उसकी श्रेष्ठता की घोषणा की स्वीकृति नहीं दी है। डार्विन ने कहा कि आदमी बंदर का विकास है। लेकिन अगर तुम बंदरों से पूछोगे तो मुझे नहीं लगता कि वे मानेंगे कि आदमी विकास है; वे यही कहेंगे कि आदमी पतन है। मनुष्य अपने को केंद्र मानता है। इसकी कोई जरूरत नहीं है, यह अहंकार की बकवास है।
अगर तुम पशुवत महसूस करते हो तो इसमें कुछ गलत नहीं है। पशुवत हो जाओ; और समग्रता से हो जाओ, पूरे होश से हो जाओ। वह होश ही पहले तुम्हारे पशु को उघाड़ेगा, क्योंकि वही तुम्हारा यथार्थ है। तुम्हारी मनुष्यता झूठी है, चमड़ी से ज्यादा नीचे वह नहीं जाती। कोई तुम्हारा अपमान करता है और तुम्हारा मनुष्य नहीं, तुम्हारा पशु बाहर आ जाता है। कोई तुम्हारी निंदा करता है और तुम्हारा पशु बाहर आ जाता है, मनुष्य नहीं। पशु ही है, मनुष्य तो नहीं के बराबर है।
अगर तुम सब कुछ स्वीकार कर लेते हो तो यह नहीं के बराबर मनुष्य विदा हो जाएगा। यह झूठा है। और तुम अपने सच्चे पशु को जान सकते हो। और सच्चाई को जानना शुभ है। और अगर तुम सजगता साधते रहे तो तुम इसी पशु के भीतर परमात्मा को पा लोगे। और झूठे मनुष्य की बजाय सच्चा पशु होना बेहतर है—सदा बेहतर है। सच्चाई असली बात है।
तो मैं पशुओं के विरोध में नहीं हूं; मैं केवल खो के विरोध में हूं। झूठे मनुष्य मत बनो; सच्चे पशु बनो। उस सच्चाई से ही तुम प्रामाणिक हो जाओगे, प्राणवान हो जाओगे। तुम ज्यादा से ज्यादा होशपूर्ण होते जाओ और धीरे—धीरे तुम उस अंतर्तम केंद्र पर पहुंचोगे जो पशु से ज्यादा सच है—और यही परमात्मा है।
ध्यान रहे, परमात्मा तुममें ही नहीं है, वह सभी पशुओं में भी है। और वह पशुओं में ही नहीं है, वह वृक्षों में भी है, चट्टानों में भी है। परमात्मा सब कुछ का बुनियादी केंद्र है। और तुम झूठे होकर उसे खो देते हो, सच्चे होकर उसे पा लेते हो।

आज इतना ही।




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