दिनांक
2 दिसम्बर; 1968, रात्री
ध्यान—शिविर, नारगोल।
मेरे
प्रिय आत्मन्!
बहुत से
प्रश्न पूछे
गए हैं।
एक मित्र
ने पूछा है कि
हम उन लोगों
के प्रति तो
प्रेमपूर्ण
हो सकते हैं
जो हमारे
प्रति
प्रेमपूर्ण
हो लेकिन उन
लोगों के
प्रति
प्रेमपूर्ण
कैसे हो सकते
हैं जो हमारे
प्रति
प्रेमपूर्ण
नहीं है?
बल्कि हमें हर
तरह की चोट
पहुंचाने की
भी कोशिश करते
हैं?
नहीं, हम
चूंकि प्रेमपूर्ण
नहीं हैं, इसलिए
हमें यह देखना
पड़ता है कि
कौन हमें प्रेम
करता है और
कौन हमें चोट
पहुंचाता है।
हम
प्रेमपूर्ण
हों तो इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता कि कौन
हमें प्रेम
करता है और
कौन हमें चोट
पहुंचाता है।
हमारा
प्रेमपूर्ण
होना हमारा
स्वभाव हो तो
इससे कोई भी
फर्क नहीं
पड़ता है कि
कौन हमारे साथ
क्या करता है!
लेकिन
हम
प्रेमपूर्ण
नहीं हैं, हमें
कोई प्रेम
करता है तो हम
प्रेमपूर्ण
होने की
व्यवस्था कर
लेते हैं। और
हमें कोई
प्रेम नहीं
करता है तो हम
घृणा की व्यवस्था
कर लेते हैं।
हमारे
प्राणों में
कहीं ऐसा नहीं
हो गया है कि
प्रेम हमारी
अवस्था हो।
प्रेम
भी हमारा एक
उत्तर है। जब
कोई प्रेम
करता है तो हम
प्रेम का
उत्तर देते
हैं। वह हमारे
बहुत ऊपर से
आता है, हमारे
गहरे से नहीं।
हमारे गहरे से
जब प्रेम आएगा
तो इससे कोई
भी फर्क नहीं
पड़ता है कि
कौन हमारे साथ
क्या करता है,
क्योंकि वह
प्रेम यह नहीं
मांगेगा कि
तुम मेरे साथ
प्रेम करो तो
मैं प्रेम
करूंगा। ऐसी
कंडीशन ऐसी
शर्त प्रेम के
साथ नहीं हो
सकती। अभी
हमारा प्रेम
कहता है कि
प्रेम दोगे तो
हम प्रेम
देंगे। अभी
हमें प्रेम
मिलता है तो
अच्छा लगता है
और उत्तर में
हम प्रेम देते
हैं। अगर प्रेम
नहीं मिलता तो
बुरा लगता है
और उत्तर में
हम प्रेम नहीं
देते हैं।
जिस
प्रेम की मैं
बात कर रहा
हूं जब मन
प्रेम की
अवस्था में
प्रवेश करता
है तो हमें यह
अच्छा नहीं
लगता है कि
दूसरे प्रेम
दें,
हमें यही
अच्छा लगने
लगता है कि हम
प्रेम दे रहे
हैं। यह फर्क
समझ लेना
जरूरी है।
जिसका हृदय
प्रेम में
प्रतिष्ठित
हुआ है, उसे
प्रेम देना
अच्छा लगता है।
उसे प्रेम
करना ही आनंद
है। वह प्रेम
दे पाता है, बस यही उसके
भीतर एक खुशी
और एक आनंद की
घटना बन जाती
है। प्रेम
देने में ही
वह आनंदित हो
जाता है। जैसे
बादल भर गए
हैं और बरस
जाते हैं, और
फूल खिल गया
है और सुंगध
बिखर जाती है,
और दीया जल
गया और प्रकाश
बंट जाता है, ऐसे ही जब
प्राण प्रेम
से भरते हैं
तो प्रेम बंटना
शुरू हो जाता
है। जरूरत तब
यह नहीं रह
जाती कि कोई
हमें प्रेम करे,
तब हम प्रेम
देंगे। नहीं,
प्रेम देने
के अतिरिक्त
कोई उपाय नहीं
रह जाता है।
तो
वह जो हमारे
सामने दुश्मन
की तरह आकर
खड़ा हो जाएगा
उसे दिखाई
पड़ेगा कि वह
दुश्मन है, लेकिन
प्रेमपूर्ण
हृदय को नहीं
दिखाई पड़ सकता
कि कोई दुश्मन
है।
प्रेमपूर्ण
हृदय को ऐसा
ही दिखाई
पड़ेगा कि कोई
पागल है, कोई
बीमार है, कोई
रुग्ण है, कोई
विक्षिप्त है।
इस बेचारे को
क्या हो गया
है!
मंसूर
का नाम सुना
होगा। मंसूर
को सूली दी गई।
एक लाख लोग
इकट्ठे थे मंसूर
को सूली पर
लटकाते समय।
लोग पत्थर
फेंक रहे थे
और गालियां दे
रहे थे, और मंसूर
हंस रहा था।
और जब सूली पर
उसे लटकाया
गया तो उसने
हाथ जोड़े और
परमात्मा से
कहा कि 'देखते
हो, इन
प्यारों को? ये सोच रहे
हैं कि मुझे
मार कर, मेरी
हत्या करके ये
तेरे प्यारे
बन जाएंगे, लेकिन इन
पागलों को कुछ
भी पता नहीं
कि ये क्या कर
रहे हैं।’
लेकिन
उसके शब्द जब
वह कह रहा है, ' ये
पागल!' जब
वह कह रहा है, ' ये बेचारे!' तो इनके
प्रति न तो
क्रोध है, न
दुश्मनी है, बल्कि इनके
प्रति भी
कितना प्रेम
है कि वह कह रहा
है कि इन
प्यारों को
पता नहीं कि
ये क्या कर
रहे हैं?
जीसस
को सूली दी गई।
सूली पर
लटकाते वक्त
उनसे कहा गया
कि तुम्हें
कुछ अंतिम बात
कहनी है? तो
जीसस ने कहा. 'एक ही बात
कहनी है कि हे
परमात्मा! इन सबको
क्षमा कर देना,
क्योंकि
इन्हें पता
नहीं है कि ये
क्या कर रहे
हैं।’ जीसस
का प्रेम से
भरा हुआ हृदय
यह नहीं समझ
पाया कि ये
दुश्मनी कर
रहे हैं, कि
ये चोट पहुंचा
रहे हैं, कि
ये शत्रु हैं
मेरे, कि
इनके लिए मेरे
मन में घृणा
जगनी चाहिए।
जिस मन में
प्रेम जाग गया
है उस मन में
घृणा के जागने
का उपाय भी
नहीं है, चाहे
कोई कुछ भी
करे।
एक
फकीर औरत थी, राबिया।
धर्मग्रंथ
में, उसके
धर्मग्रंथ
में कहीं एक
पंक्ति आती थी
कि शैतान से
घृणा करो।
उसने वह
पंक्ति काट दी।
अब
धर्मग्रंथों
में सुधार
नहीं किया जा
सकता! एक फकीर
उसके घर
मेहमान था।
उसने
धर्मग्रंथ
पढ़ा सुबह, तो
देख कर हैरान
हो गया कि एक
लकीर कटी हुई
है। उसने
राबिया से कहा
कि किसने की
है यह अशिष्टता।
धर्मग्रंथ
में सुधार? यह किसने
पंक्ति काट दी
है? राबिया
ने कहा. और
किसी ने नहीं,
मैंने ही
काटी है।
लेकिन मैं बड़ी
मुश्किल में
पड़ गई तो मुझे
काटना पड़ा।
वह
फकीर पूछने
लगा क्या
जरूरत थी? यह
तो ठीक ही
लिखा है कि
शैतान को घृणा
करो।
राबिया
कहने लगी वह
तो ठीक लिखा
है। जब तक
मेरे भीतर
प्रेम पैदा न
हुआ था तब तक
मुझे भी ठीक
लगता था, लेकिन
अब तो मैं बड़ी
मुश्किल में
पड़ गई। जब से प्रेम
पैदा हुआ तो
मैं घृणा करने
में असमर्थ हो
गई हूं। शैतान
को घृणा करो, वह ठीक है; लेकिन मैं
घृणा कैसे
करूं? मेरे
भीतर घृणा तो
बची नहीं, मेरा
तो कोना—कोना
हृदय का प्रेम
में भर गया है।
मैं घृणा कहां
से लाऊं? नहीं,
अब तो मैं
घृणा करने में
असमर्थ हो गई
हूं। अगर
शैतान भी मेरे
सामने खड़ा हो
जाएगा तो मैं प्रेम
ही कर सकती
हूं। क्योंकि
प्रेम ही मेरे
भीतर बचा है
और शायद अब
मैं पहचान भी
न सकूंगी कि
कौन शैतान है
और कौन भगवान!
क्योंकि
प्रेम की आंख
कैसे फर्क कर
पाएगी कि कौन
कौन है।
नहीं, हम
प्रेम जानते
नहीं हैं। हम
जिसे प्रेम
कहते हैं वह
सब लेन—देन और
सौदा है— वह सब
बारगेनिंग है।
हम कहते हैं
कि तुम मुझे
प्रेम करोगे
तो मैं…..! हम
पहले चाहते
हैं फिर देते
हैं। सब सौदा
है। सब नाप—
जोख है। प्रेम
में भी कोई
नाप—जोख हो
सकती है? कोई
सौदा हो सकता
है? प्रेम
भी कहेगा कि
तुम मुझे प्रेम
करोगे तो?
नहीं, प्रेम
ने यह कभी
नहीं कहा। यह
सिर्फ वे ही
लोग कह रहे
हैं जो प्रेम
से परिचित भी
नहीं हैं, जो
केवल प्रेम के
शब्द बोलते
हैं, प्रेम
की बातें करते
हैं, लेकिन
जिनके हृदय
में प्रेम का
जादू पैदा नहीं
हुआ, वह
प्रेम की
कीमिया पैदा
नहीं हुई, वह
प्रेम की
रसधार नहीं
जगी है।
प्रेम
सदा बेशर्त है, अनकंडीशनल
है। वह कोई
शर्त नहीं
बांधता कि
इसलिए करूंगा
प्रेम, इस
कारण से
करूंगा प्रेम।
जहां कारण है
और जहां शर्त
है, वहां
सौदा है, प्रेम
कहां! प्रेम
तो कहता है कि
चूंकि मैं भरा
हूं प्रेम से
तो अब मैं
क्या करूं, करूंगा
प्रेम।
क्योंकि
प्रेम ही मेरे
पास है, वही
मैं दे सकता
हूं वही मैं
बांट सकता हूं।
तो जिस प्रेम
की मैं बात कर
रहा हूं वह
प्रेम— नहीं, उस प्रेम को
नहीं दिखाई
पड़ता है कि
कौन चोट पहुंचा
रहा है, बल्कि
उलटी बात भी
हो सकती है।
जीसस
एक गांव से
गुजरते थे। एक
पागल कुत्ते
ने एक बाजार
की भीड़ में
उनके पैर में
काट लिया। भीड़
इकट्ठी हो गई।
लोगों ने उस
कुत्ते को पकड़
लिया और कहा
कि इसकी हत्या
कर दो। यह न
मालूम और
किनको काट
लेगा। लेकिन
जीसस उस
कुत्ते के ऊपर
हाथ फेर रहे
हैं और लोग
कहने लगे कि
यह आदमी उस
कुत्ते से भी
ज्यादा पागल
मालूम होता है।
इसके पैर में
काट लिया है, लहू
बह रहा है और
यह कुत्ते पर
हाथ फेर रहा
है।
और
जीसस कहने लगे, दोस्तो!
तुम सिर्फ यही
देखोगे कि
क्या उसने मेरे
पैर में काट
लिया। और उसके
दांत नहीं
देखते कि
कितने चमकदार
हैं, कितने
ताजे, कितने
प्यारे!
तुममें से
किसी के दांत
भी इतने साफ
नहीं हैं। तो
एक आदमी भीड़
में से
चिल्लाया कि
जरूर यह आदमी
जीसस होगा, क्योंकि
सिर्फ वही
आदमी एक ऐसा
है कि कुत्ता
उसे काटे तो
भी उसे कुत्ते
के चमकदार
दांत दिखाई
पड़े और काटा
हुआ दिखाई न
पड़े। जरूर यह
आदमी जीसस
होगा, लोगों
से वह कहने लगा।
यह
संभावना है।
प्रेम अगर
हृदय में पूरा
हो,
तो जिस
कुत्ते ने काट
लिया है उस
कुत्ते में भी
कुछ दिखाई पड़
सकता है जो
सुंदर है और
धन्यवाद देने
योग्य है। वह
प्रेम भीतर हो
तो दिखाई पड़
सकता है। वह
प्रेम भीतर न
हो तब बहुत
कठिनाई है, तब बहुत
मुश्किल है, और वह प्रेम
हमारे भीतर
नहीं है।
इसी
संबंध में एक
मित्र ने और
पूछा है कि
ओशो यह तो ठीक
है कि हम
प्रेम करें
करुणा से भरे
हुए हो लेकिन
अगर कोई देश
हम पर हमला कर
दे?
कोई
राष्ट्र हम पर
हमला कर दे? तो फिर हम
कैसे करुणा को
बचाएने फिर
कैसे हम प्रेमपूर्ण
होने?
सच
तो यह है, अगर
कोई भी देश, कोई भी समाज
प्रेमपूर्ण
हो जाए तो उसे
कोई भी दूसरा
देश दूसरा
नहीं दिखाई
पड़ेगा। वह
दूसरा देश
दूसरा दिखाई
पड़ता है
क्योंकि हमारे
हृदय
प्रेमपूर्ण
नहीं हैं।
दुनिया को
बांटने वाली
जितनी रेखाएं
हैं, वे
सारी रेखाएं
घृणा ने खींची
हैं। वे
रेखाएं प्रेम
के द्वारा
नहीं खींची गई
हैं।
हिंदुस्तान
और पाकिस्तान
को जो रेखा
बांटती है, वह रेखा
घृणा की रेखा
है।
हिंदुस्तान
को और चीन को
जो रेखा
बांटती है, वह रेखा
परमात्मा ने
कहीं भी नहीं
खींची हैं।
पृथ्वी कहीं
भी बंटी हुई
नहीं है।
चूंकि आदमी
घृणा से भरा
हुआ है, इसलिए
उसने पृथ्वी
बांट ली है।
और ये जो घृणा
के ठेकेदार
हैं
राजनीतिज्ञ, ये जो घृणा
का धंधा करते
हैं राजनीति
के लोग, ये
जो घृणा का
व्यवसाय करते
हैं और उसी पर
जीते हैं
उन्होंने
सारी दुनिया
को बांट कर
तोड़ डाला है।
दुनिया
में जिस दिन
प्रेम होगा, उस
दिन देश नहीं
हो सकते। देश
हैं, क्योंकि
प्रेम नहीं है।
लेकिन फिर भी
यह कहा जा
सकता है कि हम
प्रेम से भर
गए हों, फिर
भी तो कोई
दूसरा हम पर
हमला कर सकता
है। यह भय भी
चूंकि हमारे
भीतर प्रेम
नहीं है इसलिए
मालूम पड़ता है।
जिसके भीतर
प्रेम नहीं है
वह सदा भयभीत
है और जिसके
भीतर प्रेम है
वह अभय को, फियरलेसनेस
को उपलब्ध हो
जाता है।
नहीं, वह
भयभीत नहीं
होता कि कोई
हमला कर देगा।
और बड़े मजे की
बात है यह, हिंदुस्तान
डरता है कि
पाकिस्तान
हमला न कर दे
और पाकिस्तान
डरता है कि
हिंदुस्तान
हमला न कर दे।
अमरीका डरता
है कि रूस
तैयारी कर रहा
है, कहीं
हमला न कर दे।
रूस डरता है
कि अमरीका
तैयारी कर रहा
है, कहीं
हमला न कर दे।
सारी
दुनिया में
लोग एक—दूसरे
से डरे हुए
हैं। एक—दूसरे
से डरने के
कारण वे घृणा
को संजोते चले
जाते हैं।
युद्ध की
तैयारी करते
चले जाते हैं
और कोई भी यह
नहीं कहता कि
हम सारे लोग
जब एक—दूसरे
से डरे हुए
हैं तो बड़े
पागल हैं। एक
बार बैठ कर
निपटारा कर
लें कि कोई
किसी से न डरे।
क्योंकि जब एक—दूसरे
से डरना है तो
उसका मतलब यह
है,
उसका सीधा
मतलब यह है कि
हम बिलकुल
पागल हैं।
सारा
रूस घबड़ाया
हुआ है अमरीका
से। सारा
अमरीका
घबड़ाया हुआ है
रूस से। यह
क्या पागलपन
है?
क्या इस
बीसवीं सदी
में भी यह
संभव नहीं हो
पाया कि हम
समझ लें कि
किसी को किसी
से घबड़ाने की कोई
जरूरत नहीं है?
नहीं, इतना
प्रेम भी
हमारे भीतर
नहीं है कि हम
एक—दूसरे को
समझने को
तैयार हो जाएं।
दुनिया में
राष्ट्र और
देश हैं, क्योंकि
दुनिया में
प्रेम नहीं है।
प्रेम होगा तो
न कोई राष्ट्र
होगा, न
कोई देश होगा,
न कोई जाति
होगी। प्रेम
तो मिटा
डालेगा सब
बीमारियों को।
लेकिन आज एकदम
से तो सारा
देश प्रेम से
नहीं भर सकता
है!
पूछा जा
सकता है कि 'कुछ
लोग अगर प्रेम
से भी भर जाए
और फिर भी कोई
हमला हो तो वे
क्या करेगे?'
तो
मेरा कहना है
कि प्रेम से
भी लड़ा जा
सकता है। एक
छोटी सी घटना
बताऊं तो समझ
में आ सके। एक
मुसलमान
खलीफा था, उमर।
एक पड़ोस के
राजा से कोई
सात वर्षों से
युद्ध चलता था।
न मालूम कितने
लोग मरे, न
मालूम कितनी
लड़ाइयां हुईं,
लेकिन कोई
निपटारा न हो
सका। साथ में
युद्ध में
निपटारे का
क्षण आ गया।
उमर ने दुश्मन
को नीचे गिरा
लिया। उसके
घोड़े को मार
डाला। दुश्मन
की छाती पर चढ़
गया और भाला
उठा लिया उसकी
छाती में
भोंकने को। एक
क्षण और, और
छाती में भाला
भोंक दिया गया
होता, लेकिन
नीचे पड़े हुए
दुश्मन ने उमर
के मुंह पर
यूक दिया। उमर
ने थूक पोंछ
लिया और कहा
कि दोस्त! अब
लड़ाई कल होगी।
मैं उठ जाता
हूं। वह नीचे
पड़ा दुश्मन
कहने लगा.
पागल हो गए हो
तुम। ऐसा अवसर
सात वर्षों
में पहली बार
मिला है मुझे
खत्म कर देने
का। मुझे छोड़
कर क्या कर
रहे हो यह? यह
मौका क्यों
खोते हो?
उमर
कहने लगा कि
नहीं—नहीं। एक
खयाल था मेरे
मन में कि
लडूंगा प्रेम
से और शांति
से,
लेकिन
तुम्हारे थूकने
से मुझे क्रोध
आ गया। अब फिर
कल लड़ाई शुरू
करेंगे। अब
भाला उठाना
ठीक नहीं है।
वह उमर उतर
गया। उसने कहा
कि अब क्रोध आ
गया, अब
तुम्हारी
हत्या करना
ठीक नहीं है।
क्योंकि अब तक
लड़ाई उसूल की
थी, अब तक
लड़ाई
सिद्धांत की
थी। अब तक
मुझे लगता था
कि मैं उसके
लिए लड़ रहा
हूं जो सत्य
है। लेकिन
सत्य की लड़ाई
तो प्रेम से
की जा सकती है,
क्रोध से
नहीं।
तुम्हारे थूकने
से मुझे क्रोध
आ गया और मेरे
मन को हुआ कि
मार डालूं इसे।
पहली दफा
व्यक्तिगत
दुश्मनी
प्रकट हो गई।
नहीं, व्यक्तिगत
दुश्मनी मेरी
नहीं है और
व्यक्तिगत
दुश्मनी सत्य
के बीच में
लानी उचित
नहीं है। मैं
हट जाता हूं।
अगर कल तक
शांत हो सका
तो सुबह फिर
लड़ाई शुरू होगी।
और अगर नहीं
हो सका तो यह
लड़ाई खत्म हो
गई।
वह
दुश्मन तो हार
ही गया। वह तो
पैरों पर गिर
पड़ा। उसने तो
कल्पना भी न
की थी कि एक
आदमी सात वर्षों
से शांति से
लड़ रहा हो और
एक आदमी सात
वर्षों से
सत्य के लिए
लड़ रहा हो—न
उसके मन में
क्रोध है, न
हिंसा है। यह
संभावना है!
इस
संभावना को इस
भांति और भी
आसानी से समझा
जा सकता है।
आप एक आदमी से
दोस्ती रख
सकते हैं और
दोस्ती के भीतर
भी घृणा पाल
सकते हैं, क्रोध
पाल सकते हैं।
आप दोस्त
दिखाई पड़ सकते
हैं और भीतर
से घृणा और
क्रोध हो। ठीक
इससे उलटा भी
हो सकता है।
आप दुश्मन की
तरह लड़ भी
सकते हैं और
भीतर से करुणा
और प्रेम हो।
जिससे आप लड़
रहे हैं, उसके
भी अहित की
कोई कामना
नहीं है, उसको
भी हानि
पहुंचाने का
कोई विचार
नहीं है—लड़ाई
सत्य के तल पर
हो सकती है।
इसी
संबंध में एक
मित्र ने और
पूछा है कि
ओशो कृष्ण ने
तो इतना बड़ा
युद्ध किया तो
क्या वे
प्रेमपूर्ण
नहीं थे?
कृष्ण
जैसा प्रेम
करने वाला
आदमी पृथ्वी
पर मुश्किल से
हुआ है। कृष्ण
जैसा प्यारा
आदमी मुश्किल
से पृथ्वी पर
हुआ है।
करोड़ों वर्ष
लग जाते हैं
तब पृथ्वी उस
तरह के एकाध
आदमी को पैदा
करने में सफल
हो पाती है।
लेकिन वह लड़ाई
न क्रोध की थी, न
घृणा की थी।
वह लड़ाई सत्य
की और सत्य के
लिए थी। और
अत्यंत प्रेम
और अत्यंत
शांति से लड़ी
गई थी। दिन भर
लड़ते थे युद्ध
के मैदान में
और सांझ को एक—दूसरे
के शिविर में
जाकर गपशप भी
चलती थी। दिन
भर लड़ते थे
युद्ध के
मैदान में और
सांझ को एक—दूसरे
के खेमे में
बैठ कर बातचीत
भी चलती थी।
जिस भीष्म से
लड़ाई चली, युद्ध
समाप्त हो
जाने पर भीष्म
पड़े हैं मरणशय्या
पर। उससे ही—पहुंच
गए हैं—जो लड़े
थे वे ही
उपदेश लेने कि
धर्म के संबंध
में हमें कुछ
उपदेश दे दें!
अदभुत
लोग थे। बड़े
गजब के लोग
रहे होंगे।
जिससे चला है
युद्ध, जिससे
जी—जान से लड़े
हैं उससे भी
अंतिम क्षणों
में उसके
चरणों में बैठ
कर पूछने गए
हैं कि हमें
धर्म का अंतिम
उपदेश दे दें!
नहीं, वह
लड़ाई घृणा की
लड़ाई नहीं थी।
जब
तक दुनिया में
बुराई है, जब
तक दुनिया में
पाप है, जब
तक दुनिया में
असत्य और
अधर्म है; तब
तक जो शांत
हैं, जो
प्रेमपूर्ण
हैं उन्हें भी
लड़ना पड़ेगा।
लड़ना उनकी
इच्छा नहीं है,
हमेशा उनकी
मजबूरी है।
लेकिन उस लड़ाई
में भी प्रेम
को और करुणा
को खो देने का
कोई कारण नहीं
है।
एक
मेरे मित्र
जापान से लौटे।
वे वहां से एक
मूर्ति खरीद
लाए। वह मूर्ति
उनकी समझ के
बाहर उन्हें
मालूम पड़ी। पर
बहुत प्यारी
लगी तो वे उस
मूर्ति को ले
आए। मेरे पास
वे मूर्ति लाए
और कहने लगे, मैं
इसका अर्थ
नहीं समझा हूं।
यह बड़ी अजीब
मूर्ति मालूम
पड़ती है।
मूर्ति सच में
ही अजीब थी।
मैं भी देख कर
चौंका। और मैं
देख कर खुशी
और आनंद से भी
भर गया।
मूर्ति अदभुत
थी।
वह
मूर्ति थी एक
सिपाही की
मूर्ति, लेकिन
साथ ही वह एक
संत की मूर्ति
भी थी। उस
मूर्ति के एक
हाथ में थी
तलवार नंगी और
उस तलवार की
चमक उस मूर्ति
के आधे चेहरे
पर पड़ रही थी, और वह आधा
चेहरा ऐसा
मालूम पड़ता था
जैसे अर्जुन
का चेहरा रहा
हो। जैसे
तलवार की चमक
थी वैसा ही वह
आधा चेहरा जिस
पर तलवार चमक
रही थी, वह
आधा चेहरा भी
उतना ही चमक
से भरा हुआ था।
उतने ही शौर्य
से, उतने
ही ओज से, उतने
ही वीर्य से।
और दूसरे हाथ
में उस मूर्ति
के एक दीया था।
और दीये की
ज्योति की चमक
चेहरे के
दूसरे हिस्से
पर पड़ती थी।
और वह दूसरा
हिस्सा
बिलकुल ही
दूसरा था। वह
चेहरा ऐसा
मालूम पड़ता था
जैसे बुद्ध का
रहा हो—इतना
शांत, इतना
मौन, इतना
करुणा से भरा
हुआ। और वह एक
ही आदमी का
चेहरा था। और
एक हाथ में
तलवार और एक
हाथ में दीया।
वे
मेरे मित्र
पूछने लगे, मैं
समझा नहीं, यह कैसा
आदमी है?
मैंने
कहा इसी आदमी
की तलाश में
दुनिया है हमेशा
से। एक ऐसा
आदमी चाहिए जो
तलवार की तरह
अडिग भी हो, जो
तलवार की तरह
ओज से भी भरा
हो, समय
पड़ने पर जो
तलवार बन जाए।
लेकिन उस आदमी
के भीतर शांति
का और करुणा
का दीया भी हो।
जिस आदमी के
भीतर करुणा का
और शांति का
और प्रेम का
दीया है, उसके
हाथ में तलवार
खतरनाक नहीं
है। उसके हाथ
में तलवार भी
मंगल सिद्ध
होगी। और जिस
आदमी के भीतर
क्रोध और घृणा
का अंधकार है,
उसके हाथ
में तलवार भी
न हो, एक
छोटा सा कंकड़
भी खतरनाक
सिद्ध होने
वाला है। आदमी
भीतर कैसा है?
अगर अशांत
है तो उसके
हाथ की शक्ति
शैतान बन जाएगी
और अगर भीतर
आदमी शांत है
तो उसके हाथ
की शक्ति सदा
से भगवान के
चरणों में
समर्पित रही
है।
नहीं, उससे
घबड़ाने की
जरूरत नहीं है
कि आप शांत हो
जाएंगे तो आप
निर्वीय नहीं
हो जाएंगे।
शांत होने से
वीर्य और
ओजस्व बढ़ता है,
कम नहीं
होता। लेकिन
एक फर्क पड़
जाता है। शांत
आदमी का सारा
ओज, सारी
शक्ति सत्य के
पक्ष में खड़ी
होती है, असत्य
के पक्ष में
नहीं। शांत
आदमी का सारा
व्यक्तित्व
धर्म के लिए
समर्पित होता
है, अधर्म
के लिए नहीं।
शांत आदमी का
जो कुछ है, वह
सब परमात्मा
के लिए
समर्पित है।
वह युद्ध में
भी जा सकता है
तो भी वह
प्रार्थनापूर्ण
हृदय से ही
जाएगा, और
अशात आदमी
मंदिर में भी
जाता है तो
प्रार्थनापूर्ण
हृदय से नहीं।
यह फर्क समझ
लेना जरूरी है।
शांत
आदमी युद्ध के
मैदान पर भी
प्रेयरफुल होगा, वह
प्रार्थना से
भरा होगा। वह
जिनसे युद्ध
में खड़ा होना
पड़ा है, उसे
मजबूरी में एक
नेसेसरी ईविल
की तरह, एक
आवश्यक बुराई
की तरह। वह उनके
प्रति भी
परमात्मा से,
प्रार्थना
से ही भरा हुआ
होगा। वह उनकी
सदबुद्धि और
मंगल के लिए
भी प्रार्थना
करता होगा।
उसके हाथ में
तलवार होगी
लेकिन हृदय
में प्रार्थना
होगी। और
अशांत आदमी
मंदिर में
माला लेकर
बैठा है तो भी
उसके मन में
सबके मंगल की
कोई कामना
नहीं है। वह
माला लिए बैठा
है लेकिन उसके
भीतर—उसके
भीतर जो चल
रहा है, उसमें
प्रार्थना
जैसा कुछ भी
नहीं है, प्रेम
जैसा कुछ भी
नहीं है।
नहीं, इससे
बहुत भ्रांति
में पड़ जाने
की जरूरत नहीं
है कि हाथ में
क्या है? सवाल
हमेशा यह है
कि भीतर क्या
है? शांत
मनुष्य चाहिए
और शांत
मनुष्यों के
हाथ में शक्ति
का कभी भी दुरुपयोग
नहीं हो सकता
है।
शांत
मनुष्यों के
हाथ में शक्ति
पहुंच जाए तो शायद
बहुत जल्दी एक
ऐसी दुनिया भी
बन जाए जहां
शक्ति के
उपयोग की
जरूरत भी न रह
जाए। प्रेम और
शांति हो तो
राष्ट्र मिट
जाएंगे, जातियां
मिट जाएंगी, वर्ग मिट
जाएंगे।
प्रेम नहीं है,
इसलिए सारी
समस्या है।
एक
मित्र पूछते
हैं कि ओशो
शुभ कार्य
करने के लिए
भी तो अहंकार
की जरूरत होती
है अगर अहंकार
नहीं रह जाएगा
तब तो शुभ
कार्य भी कोई
नहीं करेगा!
उन्हें
पता नहीं।
उन्हें पता
नहीं कि जब तक
अहंकार है तब
तक कोई शुभ
कार्य करने का
विचार ही कर
सकता है, कर
कभी नहीं पाता
है। और जब तक
अहंकार है तब
तक शुभ कार्य
किया भी जाए
तो अंततः अशुभ
ही सिद्ध होता
है, शुभ
सिद्ध नहीं
होता। वह
अहंकार इतना
बड़ा जहर है कि
उसके साथ शुभ
कार्य हमेशा
विकृत हो
जाएगा। कभी भी
अहंकार के साथ
शुभ कार्य सफल
नहीं हो सकता।
यह ऐसे ही है
जैसे मटकी भर
दूध में एक
छोटी सी बूंद
भर जहर डाल दी
जाए और कोई
कहे कि इतने
से जहर से
क्या फर्क
पड़ता है। नहीं,
वह उतना सा
जहर उस पूरी
मटकी को जहर
बना देगा।
अहंकार
तो पायजन है, अहंकार
तो जहर है। वह
कितने ही बड़े
शुभ कार्य में
लगाया जाए, वह शुभ
कार्य भी पूरा
पायजनस और
जहरीला हो जाएगा।
दुनिया में
बहुत शुभ
कार्य किए गए
हैं, लेकिन
दुनिया शुभ
नहीं हो पाई
इसीलिए कि उन
शुभ कार्यों
के पीछे भी
अहंकार खड़ा है।
उन शुभ
कार्यों के
पीछे भी अशुभ
की शक्ति खड़ी
हुई है।
अहंकार कभी भी
शुभ कार्य
नहीं कर सकता
है। सच तो यह
है कि जब
अहंकार नहीं
रह जाता, तब
जो भी कार्य
होते हैं वे
सभी शुभ होते
हैं।
लेकिन
वे मित्र
पूछते हैं कि ' अहंकार
नहीं रह जाएगा
तब तो कार्य
ही बंद हो जाएंगे।’
नहीं, यह
किसने कहा? अहंकार नहीं
रह जाएगा तो
कार्य होंगे,
सिर्फ अशुभ
कार्य बंद हो
जाएंगे।
अहंकार जब तक
है तब तक अशुभ
कार्य होंगे,
शुभ कार्य
नहीं हो
सकेंगे।
अहंकार के
मिटते ही
व्यक्ति के
भीतर क्या घटना
घटती है? जैसे
ही अहंकार
मिटता है उसका
यह भाव चला
जाता है कि
मैं करने वाला
हूं मैं कर्ता
हूं। फिर एक
नये भाव का
उदय होता है
कि मैं तो हूं
ही नहीं, परमात्मा
ही है; वही
कर रहा है, वही
करवा रहा है।
फिर वह
व्यक्ति काम
करता है तो
ऐसा नहीं कि
मैं कर रहा
हूं। ऐसे करता
है कि वह करवा
रहा है। फिर
वह काम करता
है तो ऐसे
नहीं कि मैं
हूं उस काम के
पीछे। नहीं, वही है, परमात्मा
है, सर्व
है।
कबीर
कहते थे, कि जब
से मिट गया ‘मैं’ तब
से मैं एक
बांस की
पोंगरी हो गया।
गीत उसके हैं,
सिर्फ
मुझसे बहते
हैं, लोग
समझते हैं कि
मैं गा रहा
हूं। एक आदमी
बांसुरी पर
गीत गा रहा है,
बांसुरी को
भ्रम हो सकता
है कि मैं गा
रही हूं।
बांसुरी
सिर्फ बांस की
पोंगरी है, नहीं है
उसमें कुछ, सिर्फ एक
पैसेज, एक
मार्ग है
जिससे गीत
बहता है और
प्रकट हो जाता
है। कबीर कहते
थे, जब से
मिट गया ' मैं'
तब से मैं
एक बांस की
पोगरी हो गया।
अब गीत तेरे
हैं और लोग
समझते हैं कि
मैं गा रहा
हूं।
अहंकार
मिट जाता है तो
हमारे जीवन के
केंद्र पर
परमात्मा बैठ
जाता है, फिर
वही करता है।
और वह जो भी
करता है, अशुभ
कैसे हो सकता
है? अशुभ
करता हूं मैं,
और जिस दिन 'मैं' मिट
जाएगा उस दिन
जो भी होता है
वह सभी शुभ है।
शुभ की
परिभाषा ही
ऐसी की जा
सकती है और की
जानी चाहिए, वह कार्य शुभ
है जिसके पीछे
अहंकार नहीं
है। वह कार्य
अशुभ है, जिसके
पीछे अहंकार
है।
एक
आदमी मंदिर
बनाता है।
लगता है कि
शुभ कार्य हो
रहा है, मंदिर
बनाया जा रहा
है। फिर वह
मंदिर की छाती
पर अपना नाम
खोद देता है, बनाने वाले
का। फिर वह
मंदिर जहर हो जाता
है। इसीलिए तो
दुनिया में
इतने प्रकार
के मंदिर हैं।
अगर निर—अहंकारी
लोगों ने
मंदिर बनाए
होते तो सभी
मंदिर एक प्रकार
के होते।
मस्जिद, मंदिर,
गिरजा, गुरुद्वारा
कैसे हो सकते
थे? परमात्मा
के मंदिर बहुत
प्रकार के हो
सकते हैं? वे
सब टेम्पल्स
ऑफ गॉड होते।
वे परमात्मा
के मंदिर होते,
चाहे उनकी
शक्ल कोई भी
होती और
दीवालें कैसी
ही बनाई गई
होतीं और
झरोखे कैसे ही
निकाले गए होते
और मीनारें
लगाई गई होतीं
या गुंबद उठाए
गए होते या
कलश चढ़ाए गए
होते, वे
सब मंदिर होते
परमात्मा को
समर्पित।
लेकिन
नहीं, परमात्मा
का मंदिर पृथ्वी
पर आज तक नहीं
बन सका। सब
मंदिर
आदमियों के
हैं, इसलिए
एक मंदिर
हिंदुओं का है,
एक
मुसलमानों का
है, एक
ईसाइयों का है,
एक जैनियों
का है—परमात्मा
का मंदिर एक
भी नहीं है।
क्योंकि
परमात्मा के
मंदिर के साथ
कोई नाम, कोई
विशेषण नहीं
हो सकता। वह
सिर्फ मंदिर
होगा।
अब
तक मंदिर नहीं
बन पाया
दुनिया में, क्योंकि
मंदिर बनाने
के पीछे
अहंकार खड़ा है
और तब मंदिर
से शुभ फलित
नहीं हुआ।
मंदिर और
मस्जिदों ने
लड़ाया आदमी को।
मंदिरों और
मस्जिदों पर
खून बहा।
मंदिरों और
मस्जिदों पर
जितनी
हत्याएं हुईं आज
तक, उतनी
शराबघरों पर
भी नहीं हुई
हैं। चोरी के,
जुओं के
अड्डों पर
नहीं हुई हैं।
अगर हिसाब ही
लगाना हो तो
चोरी, जुआ
और शराबघर के
अड्डे
मंदिरों और
मस्जिदों से
ज्यादा
पुण्यकारी
साबित हुए हैं।
उन पर आज तक न
इतनी हत्या
हुई है, न
इतनी दुश्मनी
हुई है, न
इतनी गोलियां—बंदूकें
चली हैं, न
छुरे भोंके गए,
न
स्त्रियों की
इज्जत लूटी गई
है, न
बच्चों के
कल्ल किए गए
हैं।
नहीं, आज
तक अगर हिसाब
लगाना हो
कामों का तो
सारे मंदिर
हार जाएंगे
जुआघरों के
सामने भी। यह
अजीब सी बात
है। आदमी को
मधुशाला ने भी,
शराबघर ने
भी नहीं लडाया
इतना, जितना
मंदिर और
मस्जिदों ने
लड़ाया है।
शराब ने भी
मनुष्य को
इतना पागल
नहीं किया, जितना मंदिर
और मस्जिदों
ने किया है।
और बनाया था
जिन्होंने
इनको वे शुभ
कार्य कर रहे
थे और फलित
अशुभ हुआ।
पीछे अहंकार
था।
अहंकार
मंदिर के भी
पीछे हो तो
मंदिर शैतान
का घर हो जाता
है,
भगवान का
नहीं हो पाता।
शुभ के नाम पर
क्या—क्या
नहीं हुआ है, लेकिन उसके
परिणाम क्या
हुए हैं? उससे
निकला क्या है
जगत में? अगर
हम जीवन में
चारों तरफ आंख
फेर कर
देखेंगे तो
हमें दिखाई
पड़ेगा कि अशुभ
करने वाले
लोगों की बजाय
शुभ करने वाले
लोगों ने हमें
बहुत गड्डे
में और खतरे
में डाला। और
कारण उसका है
कि पीछे है—
अहंकार। शुभ
तो सिर्फ खोल
है, शुभ तो
सिर्फ आडू है।
अच्छे काम की
तो सिर्फ
बातचीत है, पीछे तो वह
अहंकार खड़ा
हुआ है। जब एक
आदमी कहता है
कि हिंदू धर्म
सबसे महान धर्म
है, तो यह
भूल कर भी मत
समझना कि उसे
हिंदू धर्म से
कोई भी मतलब
है। जब वह कह
रहा है कि
हिंदू धर्म
सबसे महान
धर्म है, तो
वह घूम—फिर कर
यह कह रहा है
कि मैं सबसे
महान मनुष्य हूं
क्योंकि मैं
हिंदू हूं।
मैंने
सुना है, पेरिस
के
विश्वविद्यालय
में एक
अध्यापक था और
उस अध्यापक ने
एक दिन अपनी
कक्षा में आकर
कहा—वह
दर्शनशास्त्र
का अध्यापक, फिलॉसफी का
प्रोफेसर—उसने
कहा कि मैं
दुनिया का
सबसे बड़ा आदमी
हूं!
उसके
विद्यार्थी
हंसने लगे और
उन्होंने कहा क्या
आप पागल हो गए
हैं?
यह आप कैसे
कह सकते हैं? उसने कहा न
केवल मैं कहता
हूं मैं सिद्ध
कर सकता हूं।
वह उठा और
अपनी छड़ी को
उठा कर उसने
दुनिया के नक्शो
पर रखा और कहा
उन
विद्यार्थियों
से कि मैं पूछता
हूं तुमसे, इस बड़ी
दुनिया में
सबसे श्रेष्ठ
देश कौन सा है?
वे
बच्चे सभी
फ्रांसीसी थे।
उन्होंने कहा
फ्रांस।
उसने
कहा चलो, एक
बात तय हो गई।
अब सारी
दुनिया का
सवाल खत्म। फ्रांस
सर्वश्रेष्ठ
है, यह तुम
मानते हो?
उन्होंने
कहा. हां, हम
मानते हैं।
उसने
पूछा अब मैं
तुमसे पूछता
हूं कि फ्रांस
में
सर्वश्रेष्ठ
नगर कौन सा है?
वे
सारे बच्चे
पेरिस के
बच्चे थे और
पेरिस के विश्वविद्यालय
में पढ़ते थे।
उन्होंने कहा
पेरिस। इसमें
क्या शक की बात
है!
तो
उस प्रोफेसर
ने कहा कि तब
सिद्ध हो गया
है कि पेरिस
दुनिया का
सर्वश्रेठ
नगर है, फ्रांस
सर्वश्रेष्ठ
देश है।
सर्वश्रेष्ठ
देश का जो
सर्वश्रेष्ठ
नगर है वह
सारी दुनिया
का
सर्वश्रेष्ठ
नगर हो गया।
उसने कहा : बात
खत्म हो गई अब
फ्रांस की, अब रह गया
पेरिस। मैं
तुमसे पूछता
हूं कि पेरिस
में
सर्वश्रेष्ठ
स्थान कौन सा
है? सारे
बच्चों ने कहा
युनिवर्सिटी,
विश्वविद्यालय,
विद्या का
केंद्र, विद्या
का मंदिर—यही
श्रेष्ठतम है!
उस प्रोफेसर
ने कहा तब
पेरिस भी खत्म,
रह गया
विश्वविद्यालय।
और मैं तुमसे
पूछता हूं इस
विश्वविद्यालय
में
सर्वश्रेष्ठ
विषय कौन सा
है, सब्जेक्ट
कौन सा है?
उन
बच्चों ने कहा
फिलॉसफी।
क्योंकि वे
सभी
दर्शनशास्त्र
के बच्चे थे।
उसने
कहा चलो, यह भी
खत्म। अब मैं
तुमसे पूछता
हूं कि
फिलॉसफी
विभाग का अध्यक्ष
कौन है? उन
बच्चों ने कहा
वह तो आप ही
हैं।
उसने
कहा तब यह सिद्ध
होता है कि
मैं दुनिया का
सर्वश्रेष्ठ मनुष्य
हूं!
यह
इतनी लांग रूट, इतना
लंबा रास्ता
आदमी अपने
अहंकार को
सिद्ध करने के
लिए लेता है।
कहता है भारत?
भारत सबसे
महान देश है।
पीछे घूम—फिर
कर पता
लगाइएगा तो
पता चलेगा, चूंकि ये
सज्जन भूल से
भारत में पैदा
हो गए हैं। ये
यह कहने के
लिए कि मैं
बहुत महान हूं
भारत तक को
महान बनाए दे
रहे हैं।
हिंदू धर्म
महान है, मुसलमान
धर्म महान है,
इस्लाम
महान है, ये
सब अहंकार की
घोषणाएं हैं।
लेकिन ये
घोषणाएं बड़ी
शुभ शक्ल लेकर
आती हैं। वे
कहती हैं, मातृभूमि,
मदरलैंड, और पीछे
बैठा है सिर्फ
अहंकार और कुछ
भी नहीं।
लेकिन 'मातृभूमि'
शब्द धोखे
खड़ा कर देता
है। लगता है
कि कितना
अच्छा आदमी है,
मातृभूमि
की बात कर रहा
है, मदरलैंड
की बात कर रहा
है। और आपको
पता है, ये
मदरलैंड और
फादरलैंड की
बात करने वाले
लोग बड़े
मिस्विवियस
हैं, ये
बहुत उपद्रवी हैं।
हिटलर
भी कहता है, फादरलैंड।
जर्मनी हमारी
पितृभूमि है,
यह हमारा
पितृदेश है।
स्टैलिन भी
वही कहता है, मुसोलिनी भी
वही कहता है, तोजो भी वही
कहता है, दुनिया
के सब पागल
यही कहते हैं,
मेरी
मातृभूमि! और
हमको लगता है
कि बड़ी ऊंची और
अच्छी बात कह
रहे हैं। और
खतरे में हमको
उतार देते हैं,
वे तत्क्षण
खतरे में उतार
देते हैं।
अहंकार
जहां है वहां
शुभ असंभव है, लेकिन
शुभ के वस्त्र
ओढ़े जा सकते
हैं और वस्त्र
धोखा दे देते
हैं। और स्मरण
रखना चाहिए कि
दुनिया में
जितनी बेईमानी
है वह हमेशा
ईमानदारी के
वस्त्र पहन कर
आती है। दुनिया
में जितना
असत्य है वह
हमेशा सत्य के
कपड़ों में
छिपा रहता है,
दुनिया में
जितना अधर्म
है वह हमेशा
धर्म के टीका—तिलक
लगा कर प्रकट
होता है।
दुनिया में
जितना पाप है,
वह हमेशा
पुण्य की
शब्दावली में
अपने को छिपाता
है और ढांकता
है।
मैंने
सुना है, दुनिया
बनी और
परमात्मा ने
सौंदर्य की
देवी और
कुरूपता की
देवी को बनाया।
वे दोनों
पृथ्वी पर
उतरती थीं। वे
एक सरोवर के
किनारे उतरी
होंगी, धूल
भर गई होगी
आकाश से
पृथ्वी तक आने
में।
उन्होंने
अपने वस्त्र
सरोवर के
किनारे रखे और
वे सरोवर में
स्नान करने
उतर गईं।
जब
सुंदरता की
देवी नहाने
लगी नग्न होकर
और थोड़े गहरे
पानी में चली
गई तब उस
कुरूपता की
देवी ने बाहर
निकल कर जल्दी
से सुंदरता की
देवी के
वस्त्र पहने
और दौड़ना शुरू
कर दिया।
सुंदरता
की देवी ने
देखा, अरे! वह
कुरूपता की
देवी तो भाग
गई है और उसके
वस्त्र भी ले
गई। वह बाहर
निकली, लेकिन
वह नग्न थी और
सुबह होने लगी
और लोग आने लगे।
अब मजबूरी थी।
वहां कुरूपता
के वस्त्र पड़े
थे और कुछ भी न
था। उसने वह
कुरूपता के
वस्त्र ही
पहने कि जब तक
वह न मिल जाए
कुरूपता की
देवी, तब
तक इन्हीं से
काम चला लूं।
वह उन
वस्त्रों को
पहन कर दौड़ी
उसके पीछे—सुनते
हैं वह अब तक
दौड़ रही है—लेकिन
वह वस्त्र बदल
नहीं पाई। वह
नहीं बदल
पाएगी।
कुरूपता
सदा सौंदर्य
का वेश लिए
रहती है।
अधर्म सदा
धर्म की बातें
करता रहता है।
शैतान सदा
मंदिरों में
पुजारी होकर
भर्ती हो जाते
हैं। शुभ का
नाम होता है, पीछे
अहंकार होता
है तो कभी शुभ
फलित नहीं
होता है।
लेकिन यह सच
है कि चूंकि
गलत चीजों के
पास अपने पैर
नहीं होते हैं
इसलिए हमेशा
पैर उन्हें उधार
मांगने पड़ते
हैं।
अहंकार
को भी अगर
अपनी घोषणा
करनी हो तो
उसे किसी शुभ
कार्य के पीछे
खड़े होकर
घोषणा करनी पड़ती
है। सीधे
अहंकार की घोषणा
को कौन सुनेगा, कौन
मानेगा? तो
वह अहंकार
कहता है कि
मैं एक मंदिर
बनाऊंगा, भगवान
का मंदिर!
अहंकार कहता
है कि मैं
समाज की सेवा
करूंगा!
अहंकार कहता
है कि मैं
दरिद्रों को
भगवान मानता
हूं
दरिद्रनारायण
मानता हूं मैं
उनके पैर
धोऊंगा!
अहंकार खोजता
है अच्छे—अच्छे
शब्द, अच्छा—अच्छा
ढंग और पीछे
स्वयं खड़ा हो
जाता है और प्रतिष्ठित
होता है।
सारा
शुभ कार्य
अहंकार के
कारण पाखंड हो
गया है।
नहीं, इस
भूल में भूल
कर भी मत पड़
जाना कि
अहंकार के रहते
शुभ कार्य हो
सकता है। रह
गई दूसरी बात,
कि अहंकार
के चले जाने
पर हम कुछ
करेंगे क्या?
नहीं, आप
कुछ भी नहीं
करेंगे।
क्योंकि आप तो
गए, अहंकार
ही तो आप थे।
आप गए, आप
कुछ नहीं
करेंगे, लेकिन
कुछ होगा और
वह होना आपसे
नहीं होगा, वह होना
परमात्मा से
होगा। सारा
जगत चल रहा है
और आदमी सोचता
है कि सिर्फ अहंकार
की वजह से मैं
चल रहा हूं।
आप
पैदा हुए तो
आपके अहंकार
ने आपके पैदा
होने में कौन
सा हाथ बंटाया? आप
बच्चे थे जवान
हो गए, आप
खाना खाते हैं
खाना पचता है,
खून बन जाता
है, रग—रेशे
में पहुंच
जाता है।
वैशानिक कहते
हैं कि अगर
खाने को पचाने
के लिए हम कोई
मशीन बिठाएं
तो इतना बड़ा
कारखाना बनाना
होगा, और
इतनी मेहनत
करनी पड़ेगी।
और एक आदमी
चुपचाप दिन—रात
खाना पचाता है,
खून बनाता
है और कुछ पता
भी नहीं चलता
है, कहीं
कोई शोरगुल भी
नहीं, फैक्ट्री
की कोई आवाज
भी नहीं। उस
आदमी को भी
पता नहीं चलता
कि रोटी कब
खून बन गई, कैसे
खून बन गई। आप
बनाते हैं खून
रोटी से? गले
के नीचे क्या
होता है, आपको
कुछ भी पता
नहीं। आदमी का
चौका और आदमी
का
पाकशास्त्र
गले के नीचे
नहीं जाता, बस वहीं तक
काम चलता है।
फिर नीचे क्या
होता है, उसका
हमें कुछ भी
पता नहीं!
जैसे
वृक्ष की जड़ें
जमीन के नीचे
अंधकार में चुपचाप
काम करती रहती
हैं,
वैसा ही मनुष्य
का पूरा व्यक्तित्व
चुपचाप काम कर
रहा है। सब हो
रहा है। लेकिन
अहंकार बीच—बीच
में कहता है
कि मैं यह कर
रहा हूं मैं
यह कर रहा हूं।
जहां—जहां वह
जोड़ देता है
कि मैं यह कर
रहा हूं वहीं अशुभ
की छाया पड़
जाती है। जहां
अहंकार की
छाया पड़ती है,
वहीं जहर
फैल जाता है।
नहीं, बुद्ध
या महावीर
जैसे लोग
निष्क्रिय
नहीं हो जाते
हैं बल्कि
साधारण लोगों
से ज्यादा
सक्रिय हो
जाते हैं।
लेकिन उन्हें
ऐसा नहीं लगता
कि हम कुछ कर
रहे हैं, उन्हें
लगता है कि हो
रहा है! डूइंग
का खयाल नहीं
रह जाता है, हैपनिंग का
खयाल आ जाता
है। चीजें हो
रही हैं; की
नहीं जा रही
हैं, कर
नहीं रहे हैं
हम। हवाएं चल
रही हैं, समुद्र
गर्जन कर रहा
है। चांद आकाश
से अमृत बरसा
रहा है, यह
सब हो रहा है।
जब मनुष्य का
अहंकार चला
जाता है तब
ऐसे ही सहज
उससे भी सब
होता है और
ऐसा सहज जो
होना है वही
शुभ है, वही
मंगलदायी है,
वही कल्याण
है।
एक
मित्र ने पूछा
है कि ओशो
ध्यान में पूछते
हैं हम : 'मैं
कौन हूं?' तो
उत्तर तो कोई
नहीं आता
लेकिन मन शांत
हो जाता है?
मन
जब पूर्ण शांत
हो जाएगा तब
उत्तर आएगा और
मन की शांति
से जल्दी राजी
मत हो जाना, पूछना
मत छोड़ देना।
होने दें मन
को शांत और
पूछते ही चले
जाएं, पूछते
ही चले जाएं।
मन गहरे से
गहरा शांत
होता चला
जाएगा और आप
अपनी
जिज्ञासा को
और गहरा और
तीव्र करते
चले जाएं।
जिज्ञासा
इतनी तीव्र हो
जाए कि उसके
आगे और जिज्ञासा
करने का कोई
उपाय न हो।
सारी शक्ति
संलग्न हो जाए,
तब एक
विस्फोट की
तरह मन
परिपूर्ण
शांत हो जाएगा।
इतना शांत हो
जाएगा कि आप
पूछना भी
चाहेंगे और
फिर प्रश्न
नहीं पूछा जा
सकेगा, शब्द
भी नहीं बनाया
जा सकेगा, विचार
भी नहीं उठाया
जा सकेगा।
इतनी शांति जब
भीतर आ जाएगी
कि आप पूछना
चाहें कि मैं
कौन हूं? असमर्थ
हो जाएंगे, नहीं पूछ
सकेंगे। यह
शब्द भी उस
शांति में
नहीं उठ सकेगा
तब उत्तर आएगा।
उत्तर
भीतर है, उत्तर
सदा भीतर है।
यह कैसे हो
सकता है कि हम
हैं और हमें
यह भी पता न हो
कि 'हम कौन
हैं!' हैं
हम, और यह
भी पता न हो कि 'हम कौन हैं!' यह कैसे हो
सकता है? यह
तो असंभव है।
हम जानते
होंगे किसी
गहरे तल पर कि
हम कौन हैं, और अगर हमीं
न जानते होंगे
गहरे तल पर तो
फिर तो जानने
का कोई उपाय
नहीं! फिर कोई
और कैसे जानता
होगा, फिर
और कोई कैसे
जानेगा अगर
मैं ही नहीं
जान सकूंगा कि
मैं कौन हूं?
लेकिन
बहुत गहरे में, बहुत
गहरे में छिपा
है वह राज, वह
सीक्रेट बहुत
गहरे में है।
समुद्रों की
गहराइयां
बहुत कम हैं—कहते
हैं पैसिफिक
कोई पांच मील
गहरा है, वहां
सूरज की किरण
भी नहीं
पहुंचती। यह
हमारा सागर भी
कोई कम गहरा
नहीं है, वह
भी कोई तीन, साढ़े तीन
मील गहराई पर
है, वहां
भी सूरज की
किरण नहीं
पहुंचती।
लेकिन ये
गहराइयां कुछ
भी नहीं हैं।
इनसे भी गहरी
जगह है हमारे
भीतर, और
वहां तक
प्रश्न को
पहुंचाना है।
सागर
तो आखिर पानी
है,
कितना गहरा
हो सकता है
बेचारा!
मनुष्य है
चैतन्य, काशसनेस।
चेतना का सागर
है, वह
कितना गहरा हो
सकता है। अतल
गहराई है वहां
चेतना की। उस
अतल गहराई तक
ले जाना है
प्रश्न को—गहरे,
गहरे, गहरे।
उतारते चले
जाना है उस
प्रश्न को
गहरे खड्ड में।
जब आखिरी जगह
पहुंच जाएगा
प्रश्न, तो
तीर की तरह वह
उस जगह को छेद
देगा जहां
छिपा है राज
और वह राज
बहना शुरू हो
जाएगा ऊपर की
तरफ।
निश्चित
ही जाना जा
सकता है कि
कौन हूं मैं, लेकिन
बहुत मजे हैं
उस जानने के
भी। पूछना तो
हम यही शुरू
करते हैं कि ' मैं कौन हूं?'
लेकिन जब आप
जानेंगे तो आप
पाएंगे, मैं
तो हूं ही
नहीं, कुछ
और ही है। इस
भूल में मत
रहना कि पता
चल जाएगा कि
मैं राधा—कृष्ण
हूं कि मैं
फलां आदमी हूं
कि मैं दुकानदार
हूं कपड़े का, कि मैं
किराने का
दुकानदार हूं
कि मैं फलां
दफ्तर में
क्लर्क हूं।
यह उत्तर नहीं
आने वाला है।
उत्तर तो आएगा
और पता चलेगा,
मैं तो हूं
ही नहीं, कुछ
और ही है, जिसको
‘मैं’ के
कारण मैं देख
ही नहीं पाता
था। है कुछ
अस्तित्व, एक्सिस्टेंस।
आत्मा—परमात्मा
यह सब उसी के
नाम हैं, 'जो
है।’ लेकिन
वह जो है वह
आएगा तभी जब
मैं पूछता ही
चला जाऊं, पूछता
ही चला जाऊं।
इतना पूछूं कि
पूछना भी
समाप्त हो जाए
और शून्य खड़ा
हो जाए। उसी
शून्य में पता
चलेगा कि कौन
हूं मैं। पता चलेगा
मैं तो हूं ही
नहीं, वही
है। परमात्मा
है।
और
उस उत्तर तक
जाने के लिए
गहरी खुदाई
करनी जरूरी है।
वह मैं कौन
हूं तो कुदाली
है,
उससे खोदते
चले जाना है, खोदते चले
जाना है। गहरे
से गहरे खोदते
चले जाना है—
अथक—जब तक कि
खोदने को कुछ
आगे बचे, तब
तक खोदते ही
चले जाना है।
जिस दिन आ
जाएगा जल—स्रोत,
कुदाली गिर
जाएगी अपने आप,
प्रश्न गिर
जाएगा।
लेकिन
छोटी—मोटी
शांति से
तृप्त नहीं हो
जाना है, यह
ध्यान रहे।
शांति के भी
बहुत तल हैं।
जो छोटी— मोटी
शांति से
तृप्त हो जाता
है, वह परम
शांति को
अनुभव नहीं कर
पाता। तो अगर
आप थोड़े बहुत
प्रयोग किए
ध्यान के, तो
जरूर शांति
आएगी, एक
तरह का
साइलेंस आएगा,
एक तरह की
आनंद की झलक
आएगी। लेकिन
रुक मत जाना, रुकना नहीं
है वहां।
क्योंकि जब तक
शांति का पता
चलता है तब तक
जानना आप कि
भीतर अभी
अशांति भी
मौजूद है, क्योंकि
शांति का बोध
बिना अशांति के
नहीं हो सकता।
जिस
आदमी को
प्रकाश दिखाई
पड़ता है उसका
मतलब है कि
अभी उसे
अंधेरा भी
दिखाई पड़ रहा
होगा। शांति
का अनुभव तभी
तक होता है जब
तक अशांति भीतर
मौजूद रहेगी।
जब शांति
परिपूर्ण हो
जाएगी तो
शांति का भी पता
नहीं चलेगा कि
मैं शांत हूं।
आदमी को
स्वास्थ्य का
भी पता तभी तक
चलता है जब तक
बीमारी पीछे
लगी हो, जब
बीमारी
बिलकुल न रह
जाए तो
स्वास्थ्य का
भी पता नहीं
चलता कि मैं
स्वस्थ हूं!
आप
हैरान होंगे, पता
हमेशा बीमारी
का चलता है, स्वास्थ्य
का कोई पता
चलता है? बीमारी
होती है तो
पता चलता है
कि स्वास्थ्य
गड़बड़ है। स्वास्थ्य
अगर पूरा हो
तो पता ही
नहीं चलेगा कि
मैं स्वस्थ
हूं। यह भाव
बीमार आदमी को
पैदा होता है
कि मैं स्वस्थ
हूं। स्वस्थ
आदमी को पता
ही नहीं चलता
कि मैं स्वस्थ
हूं। पूर्ण
शांति जब आएगी
तो पता भी
नहीं चलेगा कि
मैं शांत हूं
क्योंकि
अशांति ही
खत्म हो गई तो
पता कैसे
चलेगा। स्कूल
में मास्टर
लिखता है काले
तख्ते पर, सफेद
लकीरों से
लिखता है, सफेद
दीवाल पर नहीं
लिखता। सफेद
दीवाल पर
लिखेगा तो पता
ही नहीं चलेगा
कि क्या लिखा।
काले तख्ते पर
लिखना पड़ता है
सफेद लकीरों
से तो सफेद
लकीरें दिखाई
पड़ती हैं।
जब
तक भीतर
अशांति का
काला पर्दा है
तब तक थोड़ी—बहुत
शांति आएगी तो
दिखाई पड़ेगी।
अशांति के
काले तख्ते पर
शांति की सफेद
रेखाएं दिखाई
पड़ेगी। काले
घनघोर बादलों
में बिजली
चमकती हुई
दिखाई पड़ती है।
लेकिन जब पीछे
का तख्ता पूरा
ही गिर जाएगा
तो कहां दिखाई
पड़ेगी शांति, कहां
दिखाई पड़ेंगे सफेद
अक्षर ?
नहीं, उस
तल पर जहां
पूरी शांति है,
शांति का भी
पता नहीं।
इतनी अशांति
भी वहां नहीं
है कि पता चले
कि मैं शांत
हूं। यह पता
चलना कि मैं
शांत हूं
अशांत चित्त
का हिस्सा है।
यह अशांत
चित्त का ही
अनुभव है।
वहां तो यह
अनुभव भी नहीं
रह जाता। जहां
पूर्ण विराम
है, वहां
कोई अनुभव भी
नहीं है। वहां
कोई
एक्सपीरिएंस
भी नहीं है।
वहां तो कुछ
है, जो बस
है। उस तक
पहुंचना है।
इसलिए छोटी—मोटी
शांति से
तृप्त नहीं हो
जाना है।
धार्मिक
लोग जिन्हें
हम कहते हैं, वह
बड़ी छोटी—मोटी
शांति से
तृप्त हो जाते
हैं। एक आदमी
माला फेर लेता
है, एक
आदमी राम—राम
जप लेता है, एक आदमी कुछ
कर लेता है
थोड़ा सा, थोड़ा
सा मन हलका
लगता है, शांत
लगता है, फिर
निश्चित हो
जाता है कि
चलो हो गई
उपलब्धि, पहुंच
गए परमात्मा
तक। इतना
सस्ता नहीं है
परमात्मा तक
पहुंच जाना।
बड़ी अनंत
यात्रा है, इटर्नल
जर्नी है—बहुत
अंतहीन
यात्रा। वहां
प्रारंभ है, अंत है ही
नहीं। उस पर
हर शांति के
तल पर फिर खोज
करनी है और उस
क्षण तक खोज
करते चले जाना
है, जहां
शांति का भी
पता नहीं रह
जाएगा।
रामकृष्ण
कहते थे, एक
सागर के
किनारे—जैसे
हम इकट्ठे हो
गए— एक बार एक
मेला लगा।
सागर का तट और
बहुत भीड़ और
बड़ा मेला। दो
नमक के पुतले
एक गांव में
निवास करते थे।
गांव—गांव में
नमक के पुतले
निवास करते
हैं। ऐसे तो
हर आदमी नमक
का पुतला ही
है। वे दोनों
नमक के पुतले
भी उस मेले
में चले गए।
अब मेलों में
कोई अच्छे
आदमी जाते......नमक
के पुतले ही
जाते हैं। सो
चले गए वे
दोनों मेले
में। वे भीड़—
भाड़ में
समुद्र के
किनारे खड़े हो
गए। कई लोग
सोचते थे, पूछते
थे, समुद्र
कितना गहरा है?
नमक के
पुतलों को जोश
चढ़ गया। जितना
कच्चा पुतला
होता है उतनी
जल्दी जोश में
आ जाता है।
वे
नमक के पुतले
बोले कि ठहरो!
क्या बकवास
करते हो? क्या
खोज—बीन करते
हो, हम कूद
कर अभी जाते
हैं और पता
लगा आते हैं।
एक
नमक का पुतला
कूद गया। फिर
भीड़ इकट्ठी हो
गई वहां, वे
राह देखने लगे
कि लौटो, लौटो......लेकिन
उसका कोई पता
न चले। वह
लौटे ही नहीं!
अब नमक का
पुतला सागर
में जाए तो
लौटे कैसे! वह
तो गया, गया,
गया और
बिलकुल गया हो
गया। नीचे तो
पहुंच ही नहीं
पाया, पिघला
और खो गया।
थाह तो मिली
नहीं। थाह के
पहले खुद ही
मिट गया। वे
बहुत
प्रतीक्षा
करते रहे, बहुत
प्रतीक्षा की
उन्होंने।
फिर
मेला उजड़ गया, फिर
लोग घर—घर चले
गए और सोचते
ही चले गए कि
उस नमक के
पुतले का क्या
हुआ, वह
लौटा नहीं।
क्या मर गया, गया कहां? खो कहां गया?
नमक का
पुतला सागर
में खोजने
जाएगा तो
लौटेगा बच कर?
आदमी
परमात्मा में
खोजने जाएगा
तो लौटेगा बच कर? जैसे
नमक से बना है
सागर, उसका
ही पुतला है, फिर सागर
में गिरा, फिर
नमक खो गया।
आदमी बना है
परमात्मा से।
गया खोजने, खो गया।
कहां शांति, कहां अशांति?
गया, स्वयं
भी गया।
कबीर
कहते थे खोजत—खोजत
रे सखी, रह्या
कबीर हिराई।
खोजने
गया था सखी, खोजने
गया था
परमात्मा को,
लेकिन खोज—वोज
तो कुछ न हुई, कबीर ही खो
गया। गया था
खोजने, खो
गया खुद और
फिर बड़ी
मुश्किल हो गई।
बुंद
समानी समुंद
में,
सो कत हेरी
जाई।
और
वह बूंद गिर
गई समुद्र में, वह
कबीर की बूंद
गिर गई
परमात्मा में,
अब कहां
खोजो उसे कि
वह बूंद कहां
गई! कबीर पहले
यह गाते थे
बार—बार, ये
दो पंक्तियां
कि 'हेरत
हेरत हे सखी, रह्या कबीर
हिराई, बुंद
समानी समुंद
में सो कत
हेरी जाई।’
फिर
कुछ वर्षों के
बाद उन्होंने
थोड़ी बदलाहट कर
दी,
और बदलाहट
बड़ी अदभुत थी।
पहली पंक्ति
तो वही रही।
वे वही गाते
रहे कि ' हेरत
हेरत रे सखी, रह्या कबीर
हिराई '.. दूसरी
पंक्ति उन्होंने
बदल दी। पहले
वे कहते थे ' बुंद समानी
समुंद में, सो कत हेरी
जाई।’ फिर
बाद में कहने
लगे. ' समुंद समाना
बुंद में, सो
कत हेरी जाई।’
वह
समुद्र ही
बुंद में समा
गया। अब तो और
मुश्किल हो गई।
बुंद समुद्र
में गिर गई थी
तो कभी कल्प—
कल्प में खोज
भी सकते थे, लेकिन
यह तो और
मुश्किल हो गई।
पहले तो पता
चला था कि कि
बूंद समुंद
में गिर गई।
बाद में पता
चला, यह तो
बड़ी उलझन हो
गई। बूंद में
ही समुंद गिर
गया। अब तो
बहुत मुश्किल
हो गई, अब
कैसे खोजा जाए।
खो गया कबीर
खोजते—खोजते।
जो
भी खोजने जाता
है,
खो जाता है।
नहीं बचता ‘मैं’ वहां,
नहीं बचती
शांति, नहीं
बचता आनंद, नहीं बचता
कुछ। फिर जो
बच रहता है
वही है सत्य, वही है
परमात्मा, वही
है प्रभु।
और
बहुत से
प्रश्न हैं, अब
उन पर बात
संभव नहीं हो
सकेगी।
क्योंकि कल
सुबह भी तीसरे
द्वार पर बात
करनी है और
रात चौथे
द्वार पर।
अब हम
रात्रि के
ध्यान के लिए
बैठेंगे।
थोड़े—थोड़े
हट जाएं। एक—दूसरे
से थोड़े— थोड़े
दूर हो जाएं।
नहीं, बातचीत
जरा भी नहीं।
कोई किसी को
छूता हुआ न
बैठे। इतनी
बड़ी जगह है
लेकिन हमारा
छोटी— छोटी
जगह में बैठने
का मन ऐसा हो
गया है हमेशा का
बना हुआ कि
फैलने का मन
ही नहीं होता।
फैलाव कि थोड़ा
दूर हट जाएं, थोड़े दूर हो
जाएं। कोई
किसी को छूता
न रहे, यह
खयाल रहे।
इतनी
प्यारी रात, इसमें
जरूर बहुत
गहरे जाना
चाहिए। आप
नहीं गहरे गए
तो रात क्या
कहेगी, समुद्र
क्या कहेगा, सरू के
वृक्ष क्या
सोचेंगे कि
कैसे थे लोग, ऐसी थी
बढ़िया रात, ऐसा था चांद
और जरा भी
भीतर न गए?
सबसे
पहले शरीर को
आराम से बिठा
लें। फिर आंख
बंद करनी हो
तो बंद कर लें, आधी
खोलनी हो तो
आधी खोलें, जैसा मन हो।
फिर शांत बैठ
जाएं। फिर मैं
सुझाव देता
हूं मेरे
सुझाव के साथ
अनुभव करें।
अनुभव करें, शरीर शिथिल
हो रहा है... और
बिलकुल ढीला छोड़ते
जाएं अनुभव के
साथ ही शरीर
को, जैसे
शरीर में कोई
प्राण ही नहीं
हैं। छोड़ दें
बिलकुल, छोड़
दें......शरीर
शिथिल हो रहा
है, शरीर
शिथिल हो रहा
है......छोड़ दें...
अपने को पकड़े
रखने की जरूरत
क्या है? सम्हाल
लेगा
परमात्मा।
शरीर शिथिल हो
रहा है, शरीर
शिथिल हो रहा
है, शरीर
शिथिल हो रहा
है...।
इतनी
शांत रात है, छोड़
दें......शरीर भी
पिघल जाए और
हो जाए चांदनी
के साथ एक।
शरीर शिथिल हो
रहा है, शरीर
शिथिल हो रहा
है.. छोड़ दें......मिट
जाने दें, चांदनी
के साथ हो
जाने दें एक।
शरीर शिथिल हो
रहा है......शरीर
बिलकुल शिथिल
और शांत होता
जा रहा है, जैसे
है ही नहीं।
कहां है शरीर,
जैसे है ही
नहीं। शरीर
शिथिल हो गया......शरीर
शिथिल हो गया...।
श्वास
भी छोड़ दें..... आए
अपने से, जाए
अपने से, न
लें, न
छोड़े, हो
जाएगी धीमी
अपने आप।
श्वास शांत और
शिथिल हो रही
है, श्वास
शांत और शिथिल
हो रही है, श्वास
भी शांत होती
जा रही है, श्वास
शांत हो रही
है, श्वास
शांत हो रही
है, श्वास
शांत हो रही
है......श्वास भी
हो गई शांत, श्वास भी हो
गई मौन।......
मन
भी शांत हो
रहा है..... छोड़
दें मन को भी......मन
शांत हो रहा
है,
मन भी शांत
हो रहा है, मन
शांत हो रहा
है, मन
शांत हो रहा
है, मन
शांत हो रहा
है.. गिर जाने
दें बूंद मन
की सागर में......मन
शांत हो रहा
है......मन शांत हो
गया है......सब
शांत हो गया
है......हम भी हो गए
इस तट के एक
हिस्से चांद
की चांदनी के
साथ एक, वृक्षों
के साथ एक, सागर
के गर्जन के
साथ एक। मिट
गए हम, रह
गई शांति।
सब
शांत हो गया।
अब दस मिनट के
लिए डूबते
जाएं इस शांति
में गहरे से
गहरे। सुनाई
पड़ेगा सागर का
गर्जन, हवाएं
वृक्षों को
कपाएगी तो
सुनाई पड़ेगा,
सुनते रहें
चुपचाप, जैसे
निर्जन घर में
कोई आवाज
गूंजती हो, ऐसे हम भी हो गए
खाली, गूंजेगी
आवाज चली
जाएगी, आएगी
आवाज गूंजेगी
भीतर चली
जाएगी, हम
तो हैं नहीं
घर तो खाली है,
एक खाली
निर्जन मंदिर
में आवाज
गूंजती हो ऐसे
दस मिनट के
लिए चुपचाप
सुनते रहे
जाएं।...
सुनें, सागर
चिल्लाता है......सुनें,
सागर
बुलाता है......सुनते
रहें, सुनते
रहें......सुनते
ही सुनते मन
शांत हो जाएगा।
सुनें......सुनते—सुनते
ही मन शून्य
होता जाएगा।
मन शून्य हो
रहा है......सुनते
रहें रात के
सन्नाटे को, हवाओं के
झोंकों को।
सुनें, सागर
का गर्जन भीतर
तक पहुंच
जाएगा। उसकी
लहरें भीतर तक
टकराने
लगेंगी।
सुनें......सुनें,
मन शांत हो
रहा है, मन
गहरे शून्य
में उतर रहा
है... सुनें......मन
शांत होता जा
रहा है, मन
शून्य हो रहा
है......गूंजती है
आवाज, लौट
जाती है। मन
शून्य हो गया...
सुनें......कैसी
शांति, कैसा
शून्य उतर रहा
है, कैसी
शांति उतर रही
है।...
मन
शांत हो रहा
है......मन शांत हो
रहा है......मन
शून्य हो रहा
है......सुनते ही
सुनते मन मिट
जाता है। मिट
गए आप, रह गई
रात, रह
गया सागर, रह
गया चांद।
मन
हो रहा है
शांत......शांत......शांत
होता जा रहा
है......मन शून्य
हो रहा है......सुनें, सुनते
रहें, सुनते
जाएं, सुनते
ही सुनते मन शांत
होता जाता है..
मन शांत हो
गया है......मन
बिलकुल शांत
हो गया है...।
अब
धीरे— धीरे दो—चार
गहरी श्वास
लें......प्रत्येक
श्वास के साथ
और भी शांति
आती मालूम होगी।
धीरे— धीरे दो—चार
गहरी श्वास
लें......प्रत्येक
श्वास और भी
शांत करेगी।
फिर
धीरे— धीरे आंख
खोलें......बाहर
भी सब शांत है, बाहर
भी सब मौन है।
रात की
बैठक समाप्त
हुई।
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