दिनांक
3 दिसम्बर; 1968, सुबह
ध्यान—शिविर—नारगोल।
मेरे
प्रिय आत्मन्!
प्रभु
के मंदिर पर
तीसरे द्वार
पर आज बात
करनी है। वह
तीसरा द्वार
है— उन दो
द्वारों को; करुणा
को, मैत्री
को जिन्होंने
समझा, वे
इस तीसरे
द्वार को भी
सहज ही समझ
लेंगे। तीसरा
द्वार है
मुदिता।
मुदिता का
अर्थ है.
प्रफुल्लता, आनंदभाव,
अहोभाव, चियरफुलनेस। आषाढ़ में
बादल घिरते
हैं। उनमें
भरा हुआ जल
करुणा है। फिर
वह जल बरस
पड़ता है
प्यासी
पृथ्वी पर। वह
बरसा हुआ जल
मैत्री है। और
फिर उस बरसे
हुए जल से जो
तृप्ति हो
जाती है पृथ्वी
के प्राणों
में, और
सारी पृथ्वी
हरियाली से भर
जाती है, खुशी
से और आनंद से
और नाच उठती
है।
वह
हरियाली, वह
प्रफुल्लता, वह खिल गए
फूल, वह
पहाड़—पहाड़, गांव—गांव, पृथ्वी का
कोना— कोना
जिस खुशी को
जाहिर करने
लगता है, वह
मुदिता है, वह
प्रफुल्लता
है, वह चियरफुलनेस
है।
जो
करुणा और
मैत्री से
गुजरते हैं, वे
अनिवार्यत:
तीसरे द्वार
के समक्ष खड़े
हो जाते हैं।
उनके जीवन की
सारी उदासी
तिरोहित हो
जाती है। उनके
जीवन की सारी
पीड़ा, सारा
दुख, सारा
बोझ समाप्त हो
जाता है। वे
निर्भार, वे
मुक्त, वे
आनंद की एक नई
ध्वनि से अनुप्रेरित
हो उठते हैं।
तीसरे द्वार
पर खड़े हो
जाना ही
प्रफुल्ल हो जाना
है, लेकिन
उसमें प्रवेश
तो अनंत आनंद
में ले जाता है।
वह
प्रवेश कैसे
होगा? उस
प्रवेश के
क्या अर्थ हैं,
उस सबको समझ
लेना जरूरी है।
और स्मरण रहे
कि जो परमात्मा
के द्वार पर
हंसते हुए
नहीं पहुंचते
हैं वे कभी भी
परमात्मा के
द्वार पर नहीं
पहुंचते हैं।
उदास आत्माएं,
थके और हारे
हुए मन, दुख,
पीड़ा और
विषाद से घिरे
हुए चित्त—नहीं,
इतने
अंधकार से भरी
हुई आत्माओं
के लिए परमात्मा
का द्वार नहीं
है।
लेकिन
आज तक धर्म के
नाम पर सिखाई
गई है उदासी, सिखाई
गई है एक
बोझिल
गंभीरता, सिखाया
गया है एक तरह
का संताप, सिखाई
गई है एक तरह
की चिंता।
धार्मिक होने
में और उदास
होने में कोई
गहरा संबंध
पिछले पांच
हजार वर्षों
में स्थापित हो
गया। इस संबंध
ने, इस गलत
संबंध ने
परमात्मा का
एक द्वार बंद
ही कर दिया, जिस द्वार
को पार किए
बिना कोई
प्रभु तक नहीं
पहुंचता है।
आदमी
को छोड़ कर
शायद जगत में
और कुछ भी
उदास नहीं है।
आदमी को छोड़
कर जगत में और
कुछ भी बोझिल, गंभीर
नहीं है। सारा
जीवन गीत गाता
हुआ जीवन है।
सारा जीवन
रंगों में, ध्वनियों
में, कितने
नृत्यों में
प्रकट होता
है! आदमी भर
बोझिल है, उदास
है। यह उदासी,
यह बोझिलता,
यह दुख— भाव,
यह दबा— हुआ—पन,
यह अपने
आपको बंद कर
लेना और कहीं
से फूल प्रकट
न हो जाएं, कहीं
से
मुस्कुराहट न
प्रकट हो जाए,
यह इतना भय—
भाव कैसे पैदा
हो गया है?
धर्मों
ने,
तथाकथित
संतों और आधे
महात्माओं ने
क्यों यह
उदासी की इतनी
बात प्रचलित
की है? सुख
के प्रति, आनंद
के प्रति, अहोभाव
के प्रति इतना
विरोध क्यों
है? असल
में त्त्वा
चित्त, दुखी
चित्त, परेशान
चित्त, ऐसे
लोग ही धर्म
की खोज में
जाते रहे हैं।
जिनका चित्त
दुखी है, पीडित
है, परेशान
है, संताप
से घिरे हैं, वे ही अपने
संताप, दुख
और पीड़ा से
छुटकारा पाने
के लिए धर्म
की यात्रा
करते रहे हैं।
स्वभावत: धर्म
के जगत की भी
हवा वैसी ही
हो गई है जैसी
अस्पतालों की
होती है। और
वे लोग जो
उदासी, चिंता
और अशांति से
बचने के लिए
धर्म की तरफ गए
थे वे अशांति,
उदासी से बच
गए—ऐसा नहीं; उन्होंने
धर्म को भी
अशांत और उदास
कर दिया।
स्वस्थ
चित्त
व्यक्ति, आनंदित
व्यक्ति, गीत
गाते हुए लोग,
नृत्य करते
हुए लोग, धर्म
की तरफ नहीं
गए हैं। और जब
तक वे लोग
धर्म की तरफ
नहीं जाएंगे,
तब तक यह
पृथ्वी
धार्मिक नहीं
हो सकती है। जिस
दिन हंसते हुए
लोग धर्म के
मार्ग पर बढ़ेंगे,
उस दिन वह
मार्ग फूलों
से भर जाएगा।
नहीं, रुग्ण,
अशांत और
उदास चित्त
खोजता है
मार्ग कि मैं
कैसे मुक्त हो
जाऊं अशांति
से, उदासी
से और वही
धर्म की
यात्रा करने
लगता है। मेरी
दृष्टि में यह
कोण, यह
दृष्टि, यह
खोज का
प्रारंभिक
बिंदु, यह
प्रस्थान ही
गलत है।
अशांति कैसे
कम हो, दुख
कैसे कम हो, इस भाव से जो
धर्म के पास
जाएगा वह धर्म
को भी विकृत
करता है, परवर्ट
करता है। जाना
चाहिए धर्म की
खोज में कि
शांति कैसे बढ़े,
आनंद कैसे
बढ़े, अहोभाव
कैसे गहरा हो।
अशांति कम हो
इस दृष्टि से
धर्म के पास
यह नकारात्मक
दृष्टि लेकर
जाना गलत है।
शांति कैसे
बढ़े, कैसे
गहरी हो, आनंद
कैसे बढ़े—दुख
कैसे कम हो, यह भाव नहीं!
ऊपर से देखने
में ये दोनों
बातें एक जैसी
लगती हैं। आप
कहेंगे कि दुख
कम हो या आनंद
बढ़े एक ही बात
है। नहीं, ये
दोनों बातें
भाषा में एक
जैसी लगती हैं,
ये एक ही
नहीं हैं।
एक
आदमी के घर
में अंधकार
घिरा है। वह
दो तरह से सोच
सकता है—
अंधकार कैसे
कम हो और
प्रकाश कैसे
बढ़े। अगर उसने
यह सोचा कि
अंधकार कैसे
कम हो, तो
अंधकार कैसे
कम किया जाए
इस दिशा में
उसका चिंतन
चलेगा।
अंधकार को
कैसे हटाया
जाए, अंधकार
को कैसे
मिटाया जाए, अंधकार से
कैसे लड़ा
जाए।
और
स्मरण रहे, अंधकार
से न कोई लड़
सकता है और न
अंधकार को कोई
हरा सकता है, क्योंकि
अंधकार है ही
नहीं। अगर
अंधकार होता
तो हम लड़ सकते
थे, तोड़
सकते थे, मिटा
सकते थे।
जिसने अंधकार
कैसे दूर किया
जाए इस दिशा
में खोज—बीन
शुरू की, वह
अंधकार पर अटक
जाएगा; उसे
प्रकाश का
खयाल भी आने
को नहीं है; उसका चित्त
अंधकार पर
अपने आप
केंद्रित हो
जाएगा। वह
सोचेगा
अंधकार को
कैसे मिटाऊं,
कैसी तलवार
ईजाद करूं, कितनी शक्ति
इकट्ठी करूं
कि अंधकार को
निकाल कर घर
के बाहर कर
दूं। वह मर
जाएगा, अंधकार
नहीं मिटा
पाएगा। उसने
अंधकार को
मिटाने के लिए
जो सीधा चिंतन
शुरू किया है
वह गलत है, क्योंकि
अंधकार की कोई
सत्ता नहीं है।
इसलिए अंधकार
पर सीधे कुछ
भी नहीं किया
जा सकता है।
सत्ता
है प्रकाश की।
अंधकार सिर्फ
प्रकाश का
अभाव है, अनुपस्थिति
है, स्सेंस है। एब्सेंस
के साथ आप कुछ
भी नहीं कर
सकते हैं।
प्रकाश जला
लिया जाए तो
अंधकार मिट
जाता है, अंधकार
को मिटाना
नहीं पड़ता।
प्रकाश आ जाए
तो अंधकार
नहीं है।
इसलिए अंधकार
को मिटाने की
भाषा में, निषेध
की, निगेटिव
की भाषा में
जो लोग सोचते
हैं, वे
अंधकार से ही
घिरे रह जाते
हैं। अंधकार
तो नहीं मिटता,
वे खुद ही
मिट जाते हैं
और गल जाते
हैं। जो सोचते
हैं प्रकाश
कैसे लाया जाए,
प्रकाश
कैसे बढ़ाया
जाए, प्रकाश
कैसे जलाया
जाए; वे पाजिटिव,
विधायक
भाषा में
सोचते हैं।
आज
तक का धर्म
नकारात्मक, निगेटिव
माइंड्स
की वजह से
विकृत और गलत
हो गया है। वे
लोग जो कहते
हैं अंधकार
कैसे हटाया
जाए, हिंसा
कैसे छोड़ी
जाए, बेईमानी
कैसे छोड़ी
जाए, असत्य
कैसे छोड़ा जाए,
वासना कैसे छोड़ी जाए, पाप कैसे
छोड़ा जाए; इस
भाषा में
सोचने वाले जो,
जो
नकारात्मक
बुद्धि के लोग
हैं उन लोगों
ने धर्म के
सारे मंदिर को
घेर लिया है।
अंधकार उससे
नष्ट नहीं हुआ,
असत्य उससे
नष्ट नहीं हुआ
दुख उससे नष्ट
नहीं हुआ, बल्कि
अंधकार से
लड़ते—लड़ते वे
सारी आत्माएं
भी अंधकार से
भर गईं, उदास
हो गईं, दुखी
हो गईं, अंधेरी
हो गईं और
उन्हीं
अंधेरी
आत्माओं की छाया
पूरी मनुष्य—जाति
पर पड़ रही है।
अंधेरे
को अलग करने
की भाषा में
सोचना
विक्षिप्तता है।
प्रकाश को
जलाने और
जगाने की भाषा
में सोचना वैज्ञानिकता
है।
प्रकाश
जलाया जा सकता
है। निश्चित
ही प्रकाश के
जलने पर
अंधकार नहीं
होता है।
अशांति भी
अभाव है, अनुपस्थिति
है। दुख भी
अभाव है, अनुपस्थिति
है। घृणा भी अभाव
है, अनुपस्थिति
है। वे किनकी अनुपस्थितिया
हैं?......उन्हें
बढ़ाने का
विचार—घृणा है
प्रेम की
अनुपस्थिति; प्रेम बढ़े, प्रेम जगे,
प्रेम गहरा
हो और घृणा
विलीन हो
जाएगी। असत्य
किसकी
अनुपस्थिति
है? सत्य
बढ़े, विकसित
हो, असत्य
क्षीण हो
जाएगा।
अशांति किस की
अनुपस्थिति
है? शांति
की
अनुपस्थिति
है। शांति जगे,
विकसित हो,
अशांति
नहीं पाई
जाएगी।
मुदिता का
तीसरा द्वार
कहता है
विधायकता, पाजिटिवनेस,
प्रफुल्लता।
आनंद को खोजो,
अशांति से
बचने की फिकर छोड़ो।
अशांति से
मुक्त होने का
भाव छोड़ो,
शांति को बढ़ाओ और
जगाओ। नकार और
निषेध की तरफ आंख
भी मत दो।
विधेय को, विधायक
को, जो है
उसको पुकारो,
उसको
चुनौती दो, उसको जगाओ
सोने से।
मुदिता का
अर्थ है पाजिटिविटी।
जीवन
में एक विधायक
प्रफुल्लता
चाहिए। लेकिन
हंसते हुए संत
पैदा ही नहीं
हुए,
प्रफुल्लित
लोग पैदा ही
नहीं हुए, मुस्कुराते
हुए लोग पैदा
ही नहीं हुए।
जितना रोता
हुआ आदमी हो
उतना ही
ज्यादा संत मालूम
पड़ता है।
जितना उसके
जीवन का सारा
रस सूख गया हो
उतना ही महान
मालूम पड़ता है।
कैसा है
मनुष्य! कैसा
है पागलपन!
हंसते हुए लोग
छोटे और बोझिल
मालूम पड़ते
हैं और उदास
लोग ऊंचे और
महान मालूम
पड़ते हैं।
जिस
दिन हम हंसते
हुए लोगों को
भी महानता की
दिशा में
अभिमुख कर
सकेंगे; जिस
दिन हम हंसने
को, आनंद
को, अहोभाव
को भी ईश्वर
का विरोधी
मानने की मूढ़ता
छोड़ देंगे उस
दिन तीसरा
द्वार खुलता
है। ऐसे मंदिर
चाहता हूं मैं—जो
नृत्य के, संगीत
के, हंसने
के मंदिर हों।
ऐसा
धर्म चाहता
हूं मैं—जो मुस्कुराहटों
का,
प्रफुल्लता
का, प्रमुदित
होने का धर्म
हो।
लेकिन
रुग्ण लोगों
ने घेर रखा है
धर्म को। उनसे
उसका छुटकारा
चाहिए, त्त्वा लोगों से
धर्म का
छुटकारा
चाहिए।
चीन
में तीन फकीर
हुए। उन्हें
तो लोग कहते
ही थे—लॉफिंग
सेंट्स।
वे हंसते हुए
फकीर थे। वे
बड़े अदभुत थे।
क्योंकि
हंसते हुए
फकीर! ऐसा
होता ही नहीं
है,
रोते हुए ही
फकीर होते हैं।
वे
गांव—गांव
जाते। अजीब था
उनका संदेश।
वे चौराहों पर
खड़े हो जाते
और हंसना शुरू
करते। एक
हंसता, दूसरा
हंसता, तीसरा
हंसता और उनकी
हंसी एक दूसरे
की हंसी को
बढ़ाती चली
जाती। भीड़
इकट्ठी हो
जाती और भीड़
भी हंसती और
सारे गांव में
हंसी की लहरें
गज जातीं।
तो
लोग उनसे
पूछते, तुम्हारा
संदेश, तो
वे कहते कि
तुम हंसो।
इस भांति जीओ
कि तुम हंस
सको। इस भांति
जीओ कि
दूसरे हंस
सकें। इस
भांति जीओ
कि तुम्हारा
पूरा जीवन एक
हंसी का फव्वारा
हो जाए। इतना
ही हमारा
संदेश है, और
वह हंस कर
हमने कह दिया।
अब हम दूसरे
गांव जाते हैं।
हंसी
कि तुम्हारा
पूरा जीवन एक
हंसी बन जाए।
इस भांति जीओ
कि पूरा जीवन
एक
मुस्कुराहट
बन जाए। इस
भांति जीओ
कि आस—पास के
लोगों की
जिंदगी में भी
मुस्कुराहट
फैल जाए। इस भांति
जीओ कि
सारी जिंदगी
एक हंसी के
खिलते हुए
फूलों की कतार
हो जाए।
हंसते
हुए आदमी ने
कभी पाप किया
है?
बहुत
मुश्किल है कि
हंसते हुए
आदमी ने किसी
की हत्या की
हो, कि
हंसते हुए
आदमी ने किसी
को भद्दी गाली
दी हो, कि
हंसते हुए
आदमी ने कोई
अनाचार, कोई
व्यभिचार किया
हो। हंसते हुए
आदमी और हंसते
हुए क्षण में
पाप असंभव है।
सारे पाप के
लिए पीछे
उदासी, दुख,
अंधेरा, बोझ,
भारीपन, क्रोध,
घृणा— यह सब
चाहिए। अगर एक
बार हम हंसती
हुई मनुष्यता
को पैदा कर सकें,
तो दुनिया
के नब्बे
प्रतिशत पाप तत्सण गिर
जाएंगे। जिन
लोगों ने
पृथ्वी को
उदास किया है,
उन लोगों ने
पृथ्वी को
पापों से भर
दिया है।
वे
तीनों फकीर
गांव—गांव
घूमते रहे, उनके
पहुंचते से
सारे गांव की
हवा बदल जाती।
वे जहां बैठ
जाते वहां की
हवा बदल जाती।
फिर वे तीनों
बूढ़े हो गए।
फिर उनमें से
एक मर गया
फकीर। जिस
गांव में उसकी
मृत्यु हुई, गांव के
लोगों ने सोचा
कि आज तो वे
जरूर दुखी हो
गए होंगे, आज
तो वे जरूर परेशान
हो गए होंगे।
सुबह से ही
लोग उनके झोपड़े
पर इकट्ठे हो
गए। लेकिन वे
देख कर हैरान
हुए कि वह
फकीर जो मर गया
था, उसके
मरे हुए ओंठ
भी मुस्कुरा
रहे थे। और वे
दोनों उसके
पास बैठ कर इतना
हंस रहे थे, तो लोगों ने
पूछा, यह
तुम क्या कर
रहे हो? वह
मर गया और तुम
हंस रहे हो?
वे
कहने लगे, उसकी
मृत्यु ने तो
सारी जिंदगी
को हंसी बना
दिया, जस्ट ए जोक। आदमी
मर जाता है, जिंदगी एक
जोक हो गई है, एक मजाक हो
गई है। हम
समझते थे कि
जीना है सदा, आज पता चला
कि बात गड़बड़
है। यह एक तो
हममें से खत्म
हुआ, कल हम
खत्म हो जाने
वाले हैं। तो
जिन्होंने
सोचा है कि
जीना है सदा, वे ही गंभीर
हो सकते हैं।
अब गंभीर रहने
का कोई कारण न
रहा। बात हो
गई सपने की।
एक सपना टूट
गया। इस मित्र
ने जाकर एक
सपना तोड़ दिया।
अब
हम हंस रहे हैं, पूरी
जिंदगी पर हंस
रहे हैं अपनी
कि क्या—क्या
सोचते थे
जिंदगी के लिए
और मामला आखिर
में यह हो
जाता है कि
आदमी खत्म हो
जाता है। एक
बबूला टूट गया,
एक फूल गिरा
और बिखर गया।
और
फिर अगर हम आज
न हंसेंगे, तो
कब हंसेंगे? जब कि सारी
जिंदगी मौत बन
गई और अगर हम न
हंसेंगे तो वह
जो मर गया
साथी, वह
क्या सोचेगा?
कि अरे! जब
जरूरत आई
हंसने की तब
धोखा दे गए।
जिंदगी में
हंसना तो आसान
है, जो मौत
में भी हंस
सके—वे लोग
कहने लगे—वही
साधु है।
फिर
वे उसकी लाश
को लेकर और
मरघट की तरफ
चले। गांव के
लोग तो उदास
हैं,
लेकिन वे
दोनों हंसे
चले जाते हैं।
और रास्ते में
उन्होंने कहा
कि जो उदास
हैं वे लौट
जाएं, क्योंकि
उसकी आत्मा तो
बड़ी दुखी होगी
कि जिंदगी भर
जो आदमी हंसा,
लोग इतना भी
धन्यवाद नहीं
देते कि उसकी
कब पर कम से कम
हंस कर विदा
दे जाएं।
लेकिन
लोग कैसे
हंसते? हंसने
की तो आदत न थी
और फिर मौत के
सामने कौन
हंसेगा? मौत
के सामने वही
हंस सकता है
जिसे मौत से
ऊपर की किसी
चीज का पता चल
गया हो। मौत
के सामने कौन
हंस सकता है? मौत के
सामने मरने
वाला कैसे हंस
सकता है! मौत के
सामने वही हंस
सकता है जिसे
अमृत का बोध
हो गया। वे
गांव के लोग
कैसे हंसते, मौत ने तो
उदासी फैला दी।
हम भी जब मौत
में उदास हो
जाते हैं तो
इसलिए नहीं कि
कोई मर गया है,
बल्कि
इसलिए कि अपने
मरने की खबर आ
गई। वह जो मौत
की उदासी है
वह हमारे
प्राणों को डरा
जाती है, भयभीत
कर जाती है।
नहीं, पर
वे दो फकीर
हंसते ही चले
गए। फिर लाश
चढ़ा दी गई अरथी
पर और लोग
कहने लगे, जैसा
रिवाज था, कि
कपड़े बदलो,
स्नान करवाओ।
उन्होंने कहा
कि नहीं, वह
हमारा मित्र
कह गया है कि
कपड़े मेरे
बदलना मत, स्नान
मुझे करवाना
मत। ऐसे ही
जैसा मैं हूं
चढ़ा देना, तो
उसकी बात तो
पूरी रखनी
पड़ेगी। उसको
चढ़ा दिया। और
फिर थोड़ी ही
देर में उस
भीड़ में हंसी
छूटने लगी, क्योंकि वह
आदमी जो मर
गया था अपने
कपड़ों में फटाके,
फुलझड़ी छिपा कर मर
गया था। उसकी
लाश चढ़ गई है
अरथी पर और फटाके,
फुलझड़ियां छूटनी
शुरू हो गई
हैं। कपड़ों
में अंदर उसने
सब छिपा रखा
था। धीरे—
धीरे वह भीड़
जो वहां
इकट्ठी थी, वह हंसने लगी।
और कहने लगी, कैसा आदमी
था, जिंदगी
भर हंसाता
था और मर गया
है अब, अब
है भी नहीं, फिर भी
इंतजाम कर गया
है कि तुम
अंतिम क्षण में
भी हंसना।
एक
हंसता हुआ
धर्म चाहिए, एक
धर्म जो हंस
सके। अब तक जो
धर्म रहा है
वह उदास है।
मुदिता
तीसरा द्वार
है। हंसते हुए
उस द्वार को
पार करना है।
निश्चित ही जो
आदमी पूरे
जीवन को एक
खुशी और एक
आनंद बनाना
चाहता है वह
आदमी भूल कर
भी दूसरे को
दुख नहीं दे
सकता।
क्योंकि
दूसरे को दुख
देना अपने लिए
दुख को आमंत्रण
भेजना है। जो
आदमी फूलों
में जीना
चाहता है वह
किसी के रास्ते
पर कांटा नहीं
रख सकता, क्योंकि
दूसरे के
रास्ते पर
कांटा रखना
दूसरे को
चुनौती देना
है कि मेरे
रास्ते पर
कांटे रखो। जो
आदमी उदास
रहना चाहता है
वही दूसरे
लोगों से
दुर्व्यवहार
कर सकता है, लेकिन जो
आदमी
प्रफुल्लित
होना चाहता है
उसे तो अपने
चारों तरफ
हंसी फैलानी
पड़ेगी। जो
आदमी खुश रहना
चाहता है उसे
चारों तरफ
खुशी बांटनी
पड़ेगी, क्योंकि
कोई आदमी
अकेला खुश
नहीं रह सकता।
यह जरा समझ
लेना जरूरी है।
अकेला
आदमी उदास रह
सकता है।
लेकिन खुशी, आनंद
में, प्रसन्नता
में अकेला
आदमी नहीं रह
सकता है। अगर
आप अकेले बैठे
हैं एक कोने
में उदास, दुखी,
पीड़ित, परेशान
तो कोई भी
आपसे यह नहीं
पूछ सकता आकर
कि अरे! तुम
अकेले बैठे हो
और उदास बैठे
हो। लेकिन अगर
अकेले में हंस
रहे हैं आप
जोर से खिलखिला
कर तो कोई भी
आकर पूछेगा कि
दिमाग खराब हो
गया है, अकेले
और हंस रहे हो?
लेकिन
अकेले में
उदास होने पर
कोई नहीं
पूछता कि
इसमें कोई
गड़बड़ है।
अकेले में
हंसते हुए
आदमी पर शंका
पैदा होती है।
इसका
कारण है।
क्योंकि
खुशी... खुशी एक कम्युनिकेशन
है,
खुशी एक
संवाद है, खुशी
एक समष्टि की
घटना है। आदमी
उदास अकेला हो
सकता है, लेकिन
आनंदित होना
एक शेयरिंग
है, एक
बंटवारा है।
इसलिए जितना
खुश आदमी होगा
उतना विराट
मित्रों का
उसका समूह
होगा, क्योंकि
जितना बड़ा
समूह होगा
मित्रों का
उतनी गहरी और
बड़ी खुशी
प्रकट हो सकती
है। अगर उदास
होना हो तो
अकेले में
जाना जरूरी है
और अगर आनंदित
होना है तो
विराट से
विराट होते
जाना जरूरी है।
जो
आदमी परम आनंद
को उपलब्ध
होते हैं उनके
लिए इस जगत का
कण—कण मित्र
हो जाता है।
तभी वे परम
आनंद को
उपलब्ध होते
हैं,
उसके पहले
नहीं। आनंद एक
शेयरिंग
है, आनंद
है मित्रों के
बीच एक
बंटवारा। दुख
है अकेलापन।
कभी आपने खयाल
नहीं किया
होगा जब आप
दुखी होते हैं
तो लोगों से
कहते हैं मुझे
छोड़ दें अकेला।
मुझे अकेला
छोड़ दें। जब
दुखी होते हैं
तो द्वार—दरवाजे
बंद कर लेते
हैं, खिड़की
बंद करके एक
कोने में पड़े
रह जाते हैं, क्योंकि
दुखी होने के
लिए अकेले
होने में सर्वाधिक
सुविधा होती
है। लेकिन जब
आप आनंद से भर
जाते हैं तो
द्वार—दरवाजे
तोड़ देते हैं,
आ जाते हैं
बाजार में, आ जाते हैं
लोगों के बीच
और पुकारने
लगते हैं कि
आओ मैं खुश
हूं आओ मेरे
करीब! खुशी बांटनी
पड़ती है, दुख
अकेला भोगना
पड़ता है—कभी
आपने शायद न
सोचा होगा।
महावीर, बुद्ध,
और
क्राइस्ट, या
मोहम्मद जिस
दिन आनंद से
भर गए, उस
दिन अपने
पहाड़ों और जंगलों
को छोड़ कर
भागे
बस्तियों की
ओर। जब तक
दुखी थे तब तक
गए जंगल में, पहाड़ पर। जब
भर गए आनंद से
तो भागे
बस्तियों की
ओर लोगों के
बीच। शायद ही
किसी ने कभी
सोचा है कि यह
क्यों हुआ? बुद्ध को, महावीर को, मोहम्मद को,
क्राइस्ट
को, सबको
लोगों ने
एकांत की तरफ
जाते देखा है
और फिर एकांत
से आते भी
देखा है। जो
आदमी गया था
एकांत की तरफ
वह उदास था, दुखी था। जो
आदमी लौट कर
आया है वह एक
और ही तरह का
आदमी था, वह
आनंद से भरा
था, प्रफुल्लित
था। जैसे ही
आनंद आया, भागे
वहां जहां बंट
सके, जहां
बांटा जा सके।
दुख
सिकोड़ता
है,
आनंद फैलाता
है। दुख अपने
में बंद करता
है, दुख
अहंकार में
केंद्रित कर
देता है, आनंद
अहंकार को तोड़
डालता है। बह
जाती है गंगा
प्राणों की
चारों तरफ, सब तरफ।
परमात्मा की
तरफ जाना है
तो अपने में सिकुड़ने
से काम नहीं
चल सकता है।
जाना है तो
फैलना पड़ेगा
इतना, इतना
कि अपने जैसा
कुछ भी न रह
जाए, फैलाव
रह जाए, एक
विस्तीर्ण हो
जाए प्राण। और
सहभागी बनना
होगा इतना कि
सारा जगत
सहभागी बन जाए।
सारा जगत, चांद,
तारे, सूरज
मित्र बन
जाएं!
लेकिन
इसकी जो, जो
बुनियादी
दृष्टि है, जो बेसिक फिलॉसफी
है, वह
क्या है? वह
है एक हंसता
हुआ व्यक्तित्व,
एक
प्रफुल्लित
व्यक्तित्व, एक नाचता
हुआ
व्यक्तित्व, एक नृत्य
करता हुआ
व्यक्तित्व।
और जैसा मैंने
कहा जितने
आनंदित आप
होना चाहते
हैं— स्मरण
रखिए, उतना
ही आनंद आपको
चारों तरफ
बांटना पड़ेगा
तब आनंद आपकी
तरफ बहना शुरू
होता है। हम
जो बांटते हैं
वही लौट आता
है, हम जो
देते हैं वही
गूंजता है
वापस और हमारे
प्राणों की
तरफ बह आता है।
जीवन
एक
प्रतिध्वनि
है। हम जो
कहते हैं, हम
जो करते हैं, हम जैसे
होते हैं बस
वैसा ही चारों
तरफ से लौटना
शुरू हो जाता
है। यह संभव
है क्या कि
मैं आपकी आंख
में प्रेम से झांकूं और
हजार गुना प्रेम
वहां से वापस
न आ जाए? यह
हो सकता है
किसी दिन कि
दो और दो चार न
हों, यह
कभी भी नहीं
हो सकता कि
मेरी आंख से
प्रेम आपकी
तरफ जाए और
वापसी में
घृणा लौट आए।
यह कभी नहीं
हो सकता।
दो
और दो चार न
हों यह हो
सकता है, क्योंकि
दो और दो का
चार होना
बिलकुल
काल्पनिक है,
बिलकुल इमैजिनरी
है। वह कोई
बड़ी सच्ची बात
नहीं है। दो
और दो पांच भी
हो सकते हैं, छह भी हो
सकते हैं, क्योंकि
गणित का सारा
खेल हमारा
बनाया हुआ खेल
है। चूंकि हम
नौ तक गिनती
करते हैं, नौ
तक फिगर
बना कर रखे
हैं हमने एक
से नौ तक। कोई
मजबूरी नहीं
है कि एक से नौ
तक फिगर
हों। एक से आठ
तक भी हो सकते
हैं और काम चल
जाएगा। एक से
तीन तक भी हो
सकते हैं और
काम चल जाएगा।
नौ तक होना
कोई मजबूरी
नहीं है वितान
की। कोई गणित
बंधा हुआ नहीं
है कि नौ तक
हों। सिर्फ एक
आदत है हमारी
कि हमने नौ तक
बना लिया और
सारी दुनिया
में वह बात फैल
गई।
हिंदुस्तान
से ही फैली वह
बात। यह नौ तक
के फिगर
हिंदुस्तान
ने ही बनाए।
फिर वह फैल गई।
लेकिन नौ कोई
मजबूरी नहीं
है। तीन से
काम चल सकता
है। एक दो तीन, फिर
आ जाएगा दस।
फिर ग्यारह
बारह तेरह, फिर आ जाएगा
बीस। काम चल
जाएगा। अगर एक
से तीन तक हम
हिसाब रखें तो
दो और दो
कितने होंगे?
दो और दो, दस हो
जाएंगे। यह
हमारी कल्पना
की बात है।
गणित हमारे
हाथ का खेल है।
गणित कहीं जगत
में कोई सत्य
नहीं है।
लेकिन
प्रेम हमारे
हाथ की बात
नहीं है। वह
बहुत गहरा
गणित है और
बुनियादी
सत्यों से एक
है। अगर मैं
आपकी आंख में
प्रेम से झांकूं
तो यह असंभव
है कि प्रेम
के अतिरिक्त
और कुछ लौट आए।
अगर कुछ और
लौटना हो तो
उसका मतलब है
कि मैंने प्रेम
से झांका
ही न होगा।
अगर
मैं चाहता हूं
कि मेरे ऊपर
आनंद की वर्षा
हो जाए तो
प्रतिपल मुझे
आनंद को
बांटते हुए जीना
होगा। चियरफुलनेस
का,
प्रमुदित
होने का, मुदिता
का यही अर्थ
है कि मैं आंनद
को बांटता हुआ
जीऊं। क्या
खर्च करना
पड़ता है
मुस्कुराने
में? लेकिन
लोग इतने
कंजूस हो गए
हैं कि
मुस्कुराते
भी नहीं। इतनी
कृपणता है कि
जिसे देने में
कुछ भी खर्च नहीं
करना पड़ता, उसे भी बहुत
सोच—सोच कर, विचार—विचार
करके मुस्कुराते
हैं। आदमी की
जांच—परख कर
लेते हैं कि
इसके साथ मुस्कुराना
है कि नहीं, अपना वाला
है कि नहीं, फिर
मुस्कुराते
हैं। अजनबी को
देख कर सख्त
हो जाते हैं, मुस्कुराते
नहीं।
मुस्कुराहट
भी इतनी मंहगी
बात है क्या? क्या
खर्च करना
पड़ता है? अंग्रेजी
में एक कहावत
है इट कास्ट नथिंग टु
बी काइंड,
प्रेमपूर्ण
होने में कुछ
भी तो खर्च
नहीं करना
पड़ता है! क्या
खर्च करना
पड़ता है? और
मजा यह है कि
प्रेमपूर्ण
होने से कितना
मिल जाता है
मुफ्त में
उसका कोई
हिसाब रखना
मुश्किल है, कितना मिल
जाता है! एक
अपरिचित, रास्ते
पर जरा सी
मुस्कुराहट
और कितनी मुस्कुराहटें
वापस लौट आती
हैं। और कैसी
उनकी सुगंध
भीतर प्रवेश
कर जाती है, और कैसे
उनका गीत
प्राणों में
बजने लगता है,
और कैसे
प्राणों की
वीणा पर कोई
तरंगित होने लगती
है बात।
लेकिन
नहीं, हम
अत्यंत कृपण
हैं। हमने
उदास होने की
कसम खा रखी है।
हम आनंदित
नहीं हो सकते
हैं। हमने जिद्द
बांध रखी है
कि हम उदास ही
होंगे। हम
उदास ही
रहेंगे और फिर
इन उदास हाथों
को लेकर हम
जाएंगे प्रभु
के पास। इन
उदास हाथों
में खिलते हुए
फूल भी अगर हम
ले जाएंगे तो
वे भी कुम्हला
जाएंगे और
उदास हो जाएंगे।
उनको भी प्रभु
के मंदिर पर
नहीं चढ़ाया
जा सकता है।
इन उदास
प्राणों को
लेकर हम
प्रार्थनाएं
और गीत लेकर
जाएंगे, वे
गीत भी उदास
हो जाएंगे, क्योंकि गीत
वही होता है
जो गाने वाला
होता है। और
फूल नहीं चढ़ते
हैं परमात्मा
के मंदिर में,
वे प्राण चढ़ते हैं
जो फूलों को
ले जाते हैं।
हम
क्या करें, कैसे
हम
प्रफुल्लित
हो जाएं? नहीं,
यह मत पूछिए
कि हम क्या
करें और कैसे
प्रफुल्लित हो
जाएं।
प्रफुल्लित
होने के हर
अवसर का उपयोग
करें और
प्रफुल्लित
हो जाएं। हो
जाएं
प्रफुल्लित, उठते—बैठते
ध्यान रखें कि
जहां भी हंसा
जा सकता है जरूर
हंसना है, जहां
खुश हुआ जा
सकता है जरूर
खुश होना है।
फिर धीरे—
धीरे जहां खुश
नहीं हुआ जा
सकता था वहां
भी खुश होने
की संभावना
बढ़ती जाएगी।
थोड़ी सी दिशा
चाहिए
व्यक्तित्व
को, एक बोध
चाहिए। यह बोध
व्यक्तित्व
के पास अगर
उपलब्ध हो जाए
कि जीवन का
सत्य उन्हीं
को उपलब्ध
होगा जो जीवन
के सत्य के
प्रति आनंद से
और खुशी से भरे
हुए यात्रा
करते हैं, जो
गीत गाते हुए
तीर्थ की
यात्रा करते
हैं, वे ही
लोग......चौबीस
घंटे तीर्थ की
यात्रा चल रही
है!
सुबह
आप उठ आए हैं, कभी
आपने सोचा कि
सुबह उठते से
ही आपने क्या
किया है? कभी
आपने फिकर की
कि सुबह उठते
से ही पहला
काम जीवन के
प्रति एक आनंद
का और अहोभाव
की दृष्टि है!
क्या सुबह
उठते ही आपने
जीवन को, परमात्मा
को धन्यवाद
दिया है कि
फिर एक दिन...! फिर
एक दिन उपलब्ध
हुआ है, फिर
जीवन, फिर आंखें
खुल गईं, फिर
अंधेरे से
प्रकाश, फिर
निद्रा से
जागरण! कभी इसके
लिए कोई कृतज्ञता
का भाव मन में
जगा है? सुबह
उठ कर कभी
धन्यवाद दिया
है हाथ जोड़ कर
अनंत को, फिर
एक दिन मुझको—जिसकी
कोई पात्रता न
थी, जो कल
सोया था तो यह
नहीं मान सकता
था कि एक दिन और
मिलेगा! जो
नहीं मान सकता
था, कोई
अधिकार न था, जिसकी कोई
योग्यता न थी,
जिसकी कोई
सामर्थ्य न थी
कि एक दिन और
मिलेगा, उसे
फिर एक दिन
मिल गया है, फिर जीवन!
लेकिन
नहीं, जीवन के
प्रति हमारी न
कोई धन्यता है,
न कोई भाव
है, न कोई कृतज्ञता
है, न कोई ग्रेटिटयूड
है। जीवन
मिलता है और
हम सड़ी—सड़ी चीजों
के प्रति कृतज्ञता
शापन करते हैं।
कोई एक व्यक्ति
आकर मुझे चार
आने का रूमाल
भेंट कर जाता
है तो मैं
कहता हूं
धन्यवाद। और
जीवन बरसा रहा
है पूरा जीवन
और कभी धन्यवाद
भी नहीं उठता,
कभी खुशी भी
नहीं उठती, कभी आनंद भी
नहीं उठता।
जो
चीज खो जाती
है उसके लिए
हम दुखी होते
हैं और शिकायत
करते हैं। और
जो चीज है
हमारे पास और
मिली है, उसके
लिए कोई
धन्यवाद नहीं
है! एक आदमी का
पैर टूट जाता
है और शिकायत
शुरू हो जाती
है और परमात्मा
पर शक प्रारंभ
हो जाता है कि
है भी या नहीं!
लेकिन दोनों
पैर वर्षों तक
चलते थे और एक
क्षण के लिए
भी कोई कृतज्ञता
और कोई
धन्यवाद न था।
जो हमें मिला है
उसकी कोई खुशी
नहीं है, जो
नहीं मिला है
उसके लिए पीड़ा
और शिकायत!
हम
आदमी कैसे हैं, हमारा
यह मन कैसा है!
एक कांटा गड़
जाएगा तो शिकायत
और वर्षों तक
चले और कांटा
नहीं गड़ा
तो धन्यवाद एक
भी नहीं। यह
व्यक्ति कैसा
है? यह
इसने उदास
होने का पक्का
कर रखा है, इसके
सोचने का ढंग
इसे उदासी में
ले जाने वाला
है।
एक
मुसलमान
बादशाह था।
उसके पास एक
का नौकर था जो
जीवन भर उसके
पास था। उस
बूढ़े नौकर से
ऐसा प्रेम था
उसका कि रात
भी वह का नौकर
उसके कमरे में
ही सोता, उसके
साथ ही यात्रा
करता। युद्ध
के मैदान पर
भी साथ था, महलों
में भी साथ था।
सम्राटों के
घर मेहमान
बनता तो भी वह
का साथ था। वे
एक दिन शिकार
खेलने गए हैं
और रास्ता भटक
गए हैं और एक
जंगल में खो
गए हैं। एक
वृक्ष के नीचे
थोड़ी देर
उन्होंने
विश्राम किया।
उस वृक्ष में
एक फल लगा हुआ
है। सम्राट जब
घोड़े पर बैठा
तो उसने हाथ
बढ़ा कर वह फल
तोड़ लिया।
उसने चाकू से
उस फल की एक
फांक निकाली
और जैसी उसकी
आदत थी वह
पहले उस के की
फिकर करता।
उसने एक फांक
निकाली, उस
के को चखने दी।
उस
बूढ़े ने कहा
कि अदभुत! ऐसा
फल तो कभी चखा
नहीं। एक और
देंगे महाराज? दूसरी
फांक और उसने
तीसरी भी
मांगी और
सम्राट देता
चला गया और वह
ऐसी कृतज्ञता
का भाव था
उसकी आंखों
में कि सम्राट
उसे रोक भी
नहीं सका। फिर
एक ही फांक बच
गई और एक ही फल
था उस वृक्ष
पर। सम्राट से
वह आखिरी फांक
भी मांगने लगा।
सम्राट
ने कहा तू तो
बड़ा पागल है।
एक फांक मुझे
भी नहीं चखने
देगा।
नहीं, वह
कहने लगा—
नहीं महाराज,
बहुत ही
स्वादिष्ट है,
नहीं आपको
चखने दूंगा।
हाथ
से छीनने लगा
तो सम्राट को
क्रोध आया।
उसने कहा. यह
तो हद हो गई।
पूरा फल तू खा
गया और इतनी
प्रसन्नता, और
इतना
सुस्वादु
होने की चर्चा
करता है तो एक
फांक मुझे चखने
नहीं देगा?
लेकिन
उस नौकर ने तो
हाथ से छीनना
ही चाहा।
सम्राट
ने कहा कि
नहीं, यह
अतिशय हो गई
बात। इतनी फांकें
तुझे दीं, यह
भी अतिशय था, लेकिन मैं
यह नहीं सोचता
था कि एक फांक
भी तू मेरे
लिए नहीं
छोड़ेगा।
लेकिन
वह नौकर कहने
लगा नहीं
महाराज! उसकी आंख
में आंसू आ गए।
कहने लगा कि
नहीं—नहीं, मुझे
दे दें।
लेकिन
सम्राट ने
जबरदस्ती
मुंह में वह
फांक रख ली।
वह तो कडुवा
जहर थी। उसने
कहा कि तू
कैसा पागल है, यह
तो जहर है
बिलकुल। तू
इसे क्यों खा
गया?
उस
बूढ़े ने कहा
था जिन हाथों
से बहुत मीठे
फल खाने को
मिले उनके एक कड़वे फल की
शिकायत करूं? जिन
हाथों से बहुत
मीठे फल खाने
को मिले—नहीं—नहीं,
इतना
अकृतज्ञ नहीं
हूं कि एक कड़वे
फल के लिए
शिकायत करूं।
फिर तुम्हारे
हाथ से आता था
वह फल, जीभ
ने कहा होगा, कड़वा है, आत्मा
ने नहीं कहा।
तुम्हारे हाथ
से आता था वह
फल, जीभ ने
कहा कि कडुवा
होगा, लेकिन
आत्मा ने नहीं
कहा। जिन
हाथों से इतने
मीठे फल, उन
हाथों के एक कड़वे फल की
शिकायत! नहीं—नहीं,
इतना अकृज्ञश
मैं नहीं हूं
वह का कहने
लगा। लेकिन हम
सब इतने ही
अकृतज्ञ हैं।
जीवन के अनंत—अनंत
आनंदों की
वर्षा में
उसका हमें कोई
बोध नहीं, लेकिन
जरा सी गड़बड़
और हम बोध से
भर जाते हैं।
यह एप्रोच,
जीवन को
देखने का यह
ढंग उदास और
दुखी होने की तैयारी
है।
मनुष्य
उदास है, क्योंकि
उसके जीवन के
देखने का ढंग
गलत है। अगर
मुदिता को
उपलब्ध होना
है तो जो मिल
रहा है उसके
लिए धन्यवाद
को गहरा करना
होगा, जो
पाया है उसके
लिए कृतज्ञता
का ज्ञापन
करना होगा। जो
मिला है, जो
मिलता रहा है,
जो बरस रहा
है चौबीस घंटे,
उस अनंत—अनंत
आनंद की राशि
के लिए भाव, प्रशंसा, अनुग्रह, ग्रेटिटयूड हो तो हम
प्रमुदित हो
सकते हैं, आनंदित
हो सकते हैं।
एक
आदमी यात्रा
पर था। बहुत ज्ञानदार
घोड़े को लेकर
वह यात्रा पर
गया था। एक
रात एक गांव
के बाहर वह
ठहरा। उसके
घोड़े पर तो
जिसकी आंख पड़
जाती, वही
ईर्ष्या से भर
जाता। ऐसा ज्ञानदार
घोड़ा देखा भी
नहीं गया था।
उस घोड़े की
चमक, उसकी
गति, उसकी
तेजी, उसकी
ज्ञान, उसके
पैरों की टाप......वह
घोड़ा ही और था।
रात बांधा है
उसने उस घोड़े
को। जिस गांव
से गुजरा है
लोगों ने कहा
है कि जो भी
दाम लेना है
ले लो, यह
घोड़ा छोड़ जाओ।
पर
उस आदमी ने
कहा. इस घोड़े
से मुझे प्रेम
है और प्रेम
को बेचा नहीं
जा सकता, दाम
कुछ भी हों यह
सवाल नहीं है।
तुम क्या दे
सकोगे दाम!
क्योंकि तुम
कितना भी दो, प्रेम बेचा
नहीं जा सकता।
इस घोड़े से
मुझे प्रेम है,
इसलिए यह
बात खत्म, इसका
सौदा नहीं
होता।
लेकिन
लोगों की आंखें
ईर्ष्या से भर
गईं थी उस
घोड़े के प्रति।
लोग खयाल में
थे कि कब मौका
मिल जाए। वह
रात उस दिन
उसने घोड़े को
गांव के बाहर
एक वृक्ष से
बांधा और सो
गया। सुबह उठा
तो घोड़ा वहां
नहीं था। शायद
घोड़ा चोरी चला
गया। कोई उसे
ले गया, या
क्या हुआ!
गांव के लोगों
में खबर फैल
गई कि वह ज्ञानदार
घोड़ा चोरी चला
गया। भीड़ वहां
इकट्ठी हो गई
और वे उस सवार
को कहने लगे
कि बड़े दुख की
बात है।
लेकिन
वह सवार भागा
गांव की तरफ
और मिठाइयां खरीद
लाया और वह जो
भीड़ इकट्ठी थी
उसको बांटने
लगा और कहने
लगा,
भगवान को
धन्यवाद दो।
पर
वे लोग कहने
लगे,
बात क्या
हुई है। घोड़ा
चोरी गया, भगवान
को धन्यवाद
किस बात का?
उसने
कहा: यही क्या
उसकी कम कृपा
है कि मैं
घोड़े के ऊपर नहीं
था,
मैं नीचे सो
रहा था। उसकी
अनुकंपा के
लिए प्रसाद
बांटता हूं।
ऐसा
आदमी उदास हो
सकता है? ऐसे
आदमी को बोझिल,
भारग्रस्त
और दुखी बनाया
जा सकता है? नहीं, उसके
जीवन का
दृष्टिकोण वह
है जो
प्रफुल्लता को
जन्म देगा।
घोड़ा गया था
चोरी, वह
कहने लगा, मैं
भी घोड़े के
ऊपर हो सकता
था, भगवान
को धन्यवाद न
दूं? उसकी
बड़ी कृपा, उसकी
अनुकंपा कि
रात जब मैं
सोया था तब
घोड़ा चोरी गया।
क्या
यह जीवन को
देखने का एक
ढंग नहीं हो
सकता है? धार्मिक
आदमी का यही
ढंग होगा।
अधार्मिक
आदमी देखेगा
घोड़ा चोरी चला
गया, धार्मिक
आदमी देखेगा
मैं बच गया
यही कुछ कम है!
जीवन
को हम कैसा
देखते हैं इस
पर निर्भर है
कि हम
प्रफुल्लित
होंगे या उदास, हम
आनंदित होंगे
या दुखी, हमारे
प्राण अंधकार
से भर जाएंगे
या आलोक से! हम
कैसे देखते
हैं जीवन को? आशा की तरफ
से, उज्जवल
पक्ष से, वहां
से जहां सफेद
फूल खिलते हैं
या वहा से जहां
कांटे पैदा
होते हैं। हम
कहां से देखते
हैं जीवन को? हम चांद—तारों
से नापते हैं
जीवन को या
गंदे डबरों से?
हम कहां से
जीवन का
मापदंड
इकट्ठा करते
हैं?
मुदिता
फलित होती है
जब कोई
व्यक्ति जीवन
को आशावादी
दृष्टि से
देखना शुरू
करता है। जिन
लोगों ने
निराशा से
जीवन को देखा
है वे उदास हो
गए हैं। उन्हीं
उदास लोगों से
धर्म अपवित्र
हो गया है।
चाहिए इतनी
खुशी, चाहिए
इतनी
मुस्कुराहट, चाहिए इतनी
हंसी के फूल
कि सारे मंदिर
फिर से पवित्र
हो सकें। नहीं
तो मंदिर उदासियों
के अड्डे हैं।
वहां की सारी
हवा मरघटी
हो गई है।
वहां जो लोग
बैठे हैं वे
मरे—मराए
लोग हैं। वे
करीब— करीब मर
गए हैं और
लाशें हैं। और
उन्हीं लाशों
के आस—पास
हमारा सारा
व्यक्तित्व
निर्मित किया
जा रहा है।
नहीं, इसे
पूर्ण इनकार
की जरूरत है।
इसके पूर्ण
निषेध की
जरूरत है। जोर
से सारे जगत
में धर्म के
इस उदास रूप
को तोड़ देने
की जरूरत है।
चाहिए एक
हंसता हुआ, सूरज की
बरसती रोशनी
की तरह, एक
मुस्कुराता
हुआ जीवित
धर्म—जीवंत
धर्म।
आपको
मैं तीसरी
सीढ़ी में कहना
चाहता हूं.
जीवन को बनाएं
एक खुशी और
प्रतिपल यह
ध्यान रखें कि
मैं कहीं ऐसा
तो नहीं सोच
रहा हूं, ऐसा
तो नहीं जी
रहा हूं जिससे
उदासी फलित
होगी, जिससे
उदासी आ जाएगी।
रोम
में एक सम्राट
ने अपने बड़े
वजीर को फांसी
की आशा दे दी
थी। उस दिन
उसका जन्म—दिन
था,
वजीर का
जन्म—दिन था।
घर पर मित्र
इकट्ठे हुए थे।
संगीतज्ञ आए
थे, नर्तक
थे, नर्तकियां थीं। भोज का
आयोजन था, जन्म—दिन
था उसका। कोई
ग्यारह बजे
दोपहर के बाद
सम्राट के आदमी
आए। वजीर के
महल को नंगी तलवारों
ने घेरा डाल
दिया। भीतर
आकर दूत ने
खबर दी कि
आपको खबर भेजी
है सम्राट ने
कि आज शाम छह
बजे आपको गोली
मार दी जाएगी।
उदासी
छा गई। छाती पीटी जाने
लगीं। वह घर
जो नाचता हुआ
घर था एकदम से
मुर्दा हो गया, सन्नाटा
छा गया, नृत्य,
गीत बंद हो
गए, वाद्य
शून्य हो गए।
भोजन का पकना,
बनना बंद हो
गया। मित्र जो
आए थे वे घबड़ा
गए। घर में
एकदम उदासी छा
गई। सांझ छह
बजे, बस
सांझ छह बजे
आज ही मौत!
सोचा भी नहीं
था कि जन्म—दिन
मृत्यु का दिन
बन जाएगा।
लेकिन
वह वजीर, वह
जिसकी मौत आने
को थी, वह
अब तक बैठा
हुआ नृत्य
देखता था। अब
वह खुद उठ खड़ा
हुआ और उसने
कहा कि वाद्य
बंद मत करो और
अब नृत्य
देखने से ही न
चलेगा, अब
मैं खुद भी नाचूंगा।
क्योंकि
आखिरी दिन है
यह। फिर इसके
बाद कोई दिन
नहीं है। और
सांझ को अभी
बहुत देर है।
और चूंकि यह
आखिरी सांझ है,
अब इसे
उदासी में
नहीं गंवाया
जा सकता। अगर
बहुत दिन
हमारे पास
होते तो हम
उदास भी रह सकते
थे। वह लक्जरी
भी चल सकती थी।
अब अवसर न रहा,
अब उदास
होने के लिए
क्षण भर का
अवसर नहीं है।
बजने दो वाद्य,
हो जाए
नृत्य शुरू।
आज हम नाच लें,
आज हम गीत
गा लें, आज
हम गले मिल
लें, क्योंकि
यह दिन आखिरी
है।
लेकिन
वह घर तो हो
गया था उदास।
वे वाद्यकार
हाथ उठाते भी
तो वीणा न
बजती। उनके
हाथ तो हो गए
थे शिथिल। वे
चौंक कर देखने
लगे। वह वजीर
कहने लगा, बात
क्या है? उदास
क्यों हो गए
हो?
वे
कहने लगे कि
कैसे, मौत
सामने खड़ी है,
हम कैसे
खुशी मनाए?
तो
उस वजीर ने
कहा जो मौत को
सामने देख कर
खुशी नहीं मना
सकता वह
जिंदगी में
कभी खुशी नहीं
मना सकता।
क्योंकि मौत
रोज ही सामने
खड़ी है। मौत
तो रोज ही
सामने खड़ी है।
कहां था पक्का
यह कि मैं
सांझ नहीं मर जाऊंगा? हर
सांझ मर सकता
था। हर सुबह
मर सकता था।
जिस दिन पैदा
हुआ उस दिन से
ही किसी भी
क्षण मर सकता
था। पैदा होने
के बाद अब एक
ही क्षण था
मरने का जो कभी
भी आ सकता था।
मौत तो हर दिन
खड़ी है। मौत
तो सामने है।
अगर मौत को
सामने देख कर
कोई खुशी नहीं
मना सकता तो
वह कभी खुशी
नहीं मना सकता।
और वह वजीर
कहने लगा, और
शायद तुम्हें
पता नहीं है, जो मौत के
सामने खड़े
होकर खुशी मना
लेता है उसके
लिए मौत
समाप्त हो
जाती है। उससे
मौत हार जाती
है, जो मौत
के सामने खड़े
होकर हंस सकता
है।
मजबूरी
थी। वह वजीर
तो नाचने लगा
तो वाद्य—गीत
शुरू हुए थके
और कमजोर हाथों
से। नहीं, सुर—
साज नहीं
बैठता था।
उदास थे वे
लोग, लेकिन
फिर भी जब वह
नाचने लगा था...।
सम्राट
को खबर मिली, वह
देखने आया।
इसकी तो
कल्पना भी न
थी। जान कर ही
जन्म—दिन के
दिन यह खबर
भेजी गई थी कि
कोई गहरा बदला
चुकाने की
इच्छा थी कि
जब सब खुशी का
वक्त होगा तभी
दुख की यह खबर
गहरा से गहरा
आघात पहुंचा
सकेगी। जब
सारे मित्र
इकट्ठे होंगे
तभी यह खबर— यह
बदले की इच्छा
थी।
लेकिन
जब दूतों ने
खबर दी कि वह
आदमी नाचता है
और उसने कहा
है कि चूंकि
सांझ मौत आती
है इसलिए अब
यह दिन गंवाने
के लायक न रहा, अब
हम नाच लें, अब हम गीत गा
लें, अब हम
मिल लें। अब
जितना प्रेम
मैं कर सकता
हूं कर लूं और
जितना प्रेम
तुम दे सकते
हो दे लो, क्योंकि
अब एक भी क्षण
खोने जैसा
नहीं है।
सम्राट
देखने आया।
वजीर नाचता था।
धीरे— धीरे, धीरे—
धीरे उस घर की
सोई हुई आत्मा
फिर जग गई थी।
वाद्य बजने
लगे थे, गीत
चल रहे थे।
सम्राट
देख कर हैरान
हो गया! वह उस
वजीर से पूछने
लगा,
तुम्हें
पता चल गया है
कि सांझ मौत
है और तुम हंस
रहे हो और गीत
गा रहे हो?
तो
उस वजीर ने
कहा. आपको
धन्यवाद! इतने
आनंद से मैं
कभी भी न भरा
था जितना आज
भर गया हूं और
आपकी बड़ी कृपा
कि आपने आज के
दिन ही यह खबर
भेजी। आज सब
मित्र मेरे
पास थे, आज सब
वे मेरे निकट
थे जो मुझे
प्रेम करते
हैं और
जिन्हें मैं
प्रेम करता
हूं। इससे
सुंदर अवसर
मरने का और
कोई नहीं हो
सकता था। इतने
निकट
प्रेमियों के
बीच मर जाने
से बड़ा सौभाग्य
और कोई नहीं
हो सकता था।
आपकी कृपा, आपका
धन्यवाद! आपने
बड़ा शुभ दिन
चुना है, फिर
मेरा यह जन्म—दिन
भी है। और
मुझे पता भी
नहीं था—बहुत
जन्म—दिन
मैंने मनाए
हैं, बहुत
सी खुशियों
से गुजरा हूं
लेकिन इतने
आनंद से भी
मैं भर सकता
हूं इसका मुझे
पता नहीं था।
यह आनंद की
इतनी इंटेंसिटी,
तीव्रता हो
सकती है मुझे
पता नहीं था।
आपने सामने
मौत खड़ी करके
मेरे आनंद को
बड़ी गहराई दे
दी। चुनौती और
आनंद एकदम
गहरा हो गया।
आज मैं पूरी
खुशी से भरा
हुआ हूं मैं
कैसे धन्यवाद
करूं?
वह
सम्राट अवाक
खड़ा रह गया।
उसने कहा कि
ऐसे आदमी को
फांसी लगाना
व्यर्थ है, क्योंकि
मैंने तो सोचा
था कि मैं
तुम्हें दुखी
कर सकूंगा।
तुम दुखी नहीं
हो सके, तुम्हें
मौत दुखी नहीं
कर सकती तो
तुम्हें मौत
पर ले जाना
व्यर्थ है।
तुम्हें जीने
की कला मालूम
है, मौत
वापस लौट जाती
है।
जिसे
भी जीने की
कला मालूम है
वह कभी भी
नहीं मरा है
और न मरता है, न
मर सकता है।
और जिसे जीने
की कला मालूम
नहीं वह केवल
भ्रम में होता
है कि मैं जी
रहा हूं वह
कभी नहीं जीता,
न कभी जीआ
है, न जी
सकता है। उदास
आदमी जी ही
नहीं रहा है, न जी सकता है।
उसे जीवन की
कला का ही पता
नहीं। केवल वे
जीते हैं जो
हंसते हैं, जो खुश हैं, जो प्रफुल्लित
हैं, जो
जीवन के छोटे
से छोटे कंकड़—पत्थर
में भी खुशी
के हीरे—मोती
खोज लेते हैं,
जो जीवन के
छोटे—छोटे रस
में भी
परमात्मा की
किरण को खोज
लेते हैं, जो
जीवन के छोटे—छोटे
आशीषों में, जीवन के
छोटे—छोटे
आशीषों की
वर्षा में भी
प्रभु की कृपा
का आनंद अनुभव
कर लेते हैं।
केवल वे ही
जीते हैं।
केवल वे ही
जीते हैं!
केवल वे ही
सदा जीए हैं
और कोई भी
आदमी जिंदा
होने का हकदार
नहीं है—जिंदा
नहीं है।
तो
चाहिए एक फैली
हुई
प्रफुल्लता
सुबह से सांझ
तक,
दिन में, रात में, सपनों
में भी। चाहिए
एक गीत जो
सारे जीवन को
घेर ले, उठते—बैठते—चलते
सारा जीवन एक
नृत्य बन जाए,
एक खुशी का आंदोलन;
तो हम प्रभु
के निकट
पहुंचना शुरू
होते हैं।
सिर्फ हंसते
हुए लोग ही
उसके पास
बुलाए जाते हैं,
सिर्फ
मुस्कुराते
हुए लोगों को
ही वह आमंत्रण
मिलता है।
यह
तीसरी बात—इसका
तो प्रयोग
करेंगे तो ही
संभव हो सकता
है। यह कैसे
संभव होगा?
कल रात
एक मित्र ने
पूछा था कि 'ध्यान
में आंसू बहते
हैं। हंसना भी
आ सकता है?'
बिलकुल
आ सकता है।
कोई कठिनाई
नहीं है। उसे
भी रोकने की
जरूरत नहीं है? अगर
पूरे प्राण
हंसने को, फूट
पड़ने को तत्पर
हों तो उसे भी
रोकने की जरूरत
नहीं है। ध्यान
में वह भी
संभावना घटित
हो सकती है।
ध्यान दमन
नहीं है, आंसू
हो या
मुस्कुराहट
जो भी प्रकट
हो जाना चाहे,
जो भी फैल
जाना चाहे, उसे मुक्त
छोड़ देना है।
जरा भी भय
नहीं लेना है।
प्राण जैसा
होना चाहें छोड देना
है। एक बार तो
हम कभी कुछ
क्षणों के लिए
छोड़ दें प्राणों
को कि वह जैसा
होना चाहें।
और तब उस
सरलता से, उस
सरलता से
प्राणों की
वास्तविकता
तक पहुंचना हो
सकता है। इस
तीसरे सूत्र
को ध्यान में
लेंगे और इसका
प्रयोग जीवन
में फैला
देंगे।
अब हम
सुबह के ध्यान
के लिए
बैठेंगे।
जरा
भी बात नहीं।
छोटी सी बात
भी शांत
वातावरण को
एकदम पत्थर की
तरह हिला देती
है,
जैसे झील पर
कोई पत्थर
फेंक दे। जरा
बात नहीं, जरा
आवाज नहीं।
चुपचाप हट
जाएं, जैसे
कोई हटा भी
नहीं। और
चुपचाप बैठ
जाएं।
आज
तीसरा दिन है।
सुबह का यह
ध्यान आखिरी
होगा। सुबह का
ध्यान, पूरी
शक्ति से इस
प्रयोग को
करना है। कुछ
मित्र पूरी
शक्ति से इस
प्रयोग को कर
रहे हैं और
उसके परिणाम
हैं। कुछ
मित्र पूरी
शक्ति नहीं
लगा रहे हैं।
न मालूम कितने—कितने
तरह के भय हैं,
वे रोक लेते
हैं। आधी
शक्ति
लगाएंगे तो
नहीं होगा।
कुछ मित्र तो बिलकुल
शक्ति नहीं
लगाते। थोड़े
ही लोग हैं वे,
वे एक—दूसरे
की तरफ देखते
रहते हैं कि
किसको क्या हो
रहा है। किसको
क्या हो जाएगा
उससे आपको कुछ
भी होने वाला
नहीं है।
किसके भीतर
क्या हो रहा
है इसे आप कभी
भी नहीं जान
सकेंगे।
दूसरे की फिकर
छोड़ दें। आपके
भीतर कुछ हो
उसकी चिंता
लें। यह कुछ
ऐसी बात नहीं
है कि हम
तमाशा देख
सकें, यह
कुछ ऐसी बात
नहीं है कि हम
बाहर से खड़े
होकर देख सकें
कि किसको क्या
हो रहा है।
किसको क्या हो
रहा है यह
बहुत मुश्किल
है बाहर से
देखना। यह तो
आप अपने भीतर
कुछ होगा तो
ही जान पाएंगे
कि क्या हो
रहा है। इसलिए
किसी की फिकर
न करें कि कोई
यहां दूसरा है।
आपके भीतर कुछ
हो तो भी फिकर
मत करें कि
कोई दूसरा
यहां पड़ोस में
मौजूद है।
यहां सारे
मित्र इकट्ठे
हैं। कोई
चिंता न लें
उसकी। और न
इसकी फिकर
करें कि दूसरे
को क्या हो
रहा है तो मैं देखूं।
नहीं, आप
अकेले हो जाएं।
आप अकेले हैं
यहां। कोई
दूसरा नहीं है।
और तब होने
दें पूरी
शक्ति से
प्रयोग को, पूरे संकल्प
से।
तो
हम सबसे पहले
शरीर को आराम
से शिथिल छोड़
कर बैठें।
जिन्हें आंख
बंद करनी हो
वे आंख बंद कर
लें। जिन्हें
आधी नासाग्र—दृष्टि
रखने में कोई
तकलीफ, कष्ट
न होता हो, वे
नासाग्र—दृष्टि
रखें, नाक
का अगला भाग
भर दिखाई पड़ता
रहे, इतनी आंख
खुली रहे। अगर
उसमें जरा भी
तनाव मालूम
पड़ता है तो आंख
बंद रखें। फिर
बिलकुल शांत
अपने को छोड़
दें।
आज
पूरी शक्ति
लगानी है। जरा
भी रुकावट
नहीं डालनी है।
कोई भय नहीं
लेना है।
क्योंकि कल
सुबह फिर हम
यहां बैठने को
नहीं होंगे।
छोड़ दें शांत, ढीला।
फिर अपने मन
में पूछें
पूरे संकल्प
के साथ, पूरी
शक्ति पूरे
प्राण—मैं कौन
हूं? गंज
जाए यह आवाज
पूरे
व्यक्तित्व
में, पूरे रोएं—रोएं
तक यह खबर
पहुंच जाए कि
मैं कौन हूं? एक—एक रोआं कंप
जाए और खड़ा हो
जाए और पूछने
लगे कि मैं
कौन हूं?.
मैं
कौन हूं?... पूछें
और पूछते चले
जाएं अपने
भीतर— मैं कौन
हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं?... यह
एक ही आवाज इस
पूरे सरू
वन को घेर ले, यह सागर का
गर्जन छोटा
मालूम पड़ने
लगे। मैं कौन
हूं? मैं
कौन हूं?......पूछें,
पूरी शक्ति
से, पूरी
ऊर्जा से, पूरे
प्राणों से।
जरा भी शक्ति
पीछे न छोड़े।
सारी शक्ति
लगा दें। जैसे
कोई पानी में
कूद पड़ता है
पूरे शरीर को
लेकर, ऐसा
कूद पड़े इस
जिज्ञासा में
कि मैं कौन
हूं? पूरी
शक्ति को लेकर।
मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं?... एक
ही प्रश्न, एक ही
प्रश्न।
तीव्रता से, तेजी से— मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं?......पूछें,
पूछें, पूछते
चले जाएं, एक
क्षण का विराम
नहीं— मैं कौन
हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं?... अकेले
हैं आप, कोई
नहीं यहां।
प्रत्येक
अकेला है।
पूछें पूरी
शक्ति से—मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं?......दस
मिनट के लिए
अब पूछें सतत।
जैसे समुद्र
की लहरें चली
आ रही हैं सतत
और टकरा रही
हैं किनारे से,
वैसे आपका
प्रश्न उठे
सतत—मैं कौन
हूं? मैं
कौन हूं?. ….लहर के पीछे
लहर और टकराए
प्राणों सें—मैं
कौन हूं? ताकि
भीतर— भीतर
खुदाइ होती
चली जाए, कुआं
खुदता चला जाए—मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं?... आखिर
तक पूछना है
प्राणों की
बिलकुल गहराई
तक—मैं कौन
हूं? वहां
है उत्तर, वह
आएगा। लेकिन
पूछें मैं कौन
हूं?...
मैं
कौन हूं? मैं
हूं कौन? मैं
कौन हूं?......पूरी
शक्ति, पूरे
प्राण—मैं कौन
हूं? मैं
कौन हूं?.. रोआं—रोआं
पूछे, पूरे
प्राण पूछे, श्वास—श्वास
पूछे मैं कौन
हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं?......कोई
भय नहीं, कोई
रोक नहीं। मैं
कौन हूं?......न आंसू
की फिकर, न
रोने की फिकर,
न हंसने की
फिकर। मैं कौन
हूं?......जो हो
होने दें, पूछते
चले जाएं—मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
हूं कौन?......एक
ही प्रश्न तीर
की तरह, तीर
की तरह भीतर
प्रवेश करे—मैं
कौन हूं?.. मन
के भवन का कोई
कोना अछूता न
रह जाए—मैं
कौन हूं? मैं
हूं कौन?.. पूछें,
पूछें, पूछें.
मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?......पूरा प्राण कंपने
लगेगा, पूरा
शरीर कंपने
लगेगा। मैं
कौन हूं?......एक
आंदोलन आ
जाएगा पूरे
व्यक्तित्व
में। मैं कौन
हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं?......पूछें
पूरी शक्ति से,
पूरी
तीव्रता से—
मैं कौन हूं?......पूछते ही
पूछते मन
बिलकुल शांत
हो जाएगा। उस
शांति में और
जोर से गंज
उठेगी— मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं?......दूसरा
क्षण मिलेगा
पूछने को या
नहीं, नहीं
कहा जा सकता।
पूछें पूरी
शक्ति से—मैं
कौन हूं?......तोड़
दें आखिरी
पर्दे, पूछ
डालें भीतर, पहुंच जाए
बात गहराई में,
ताकि आ सके
उत्तर।
मैं
कौन हूं?......बस, एक ही
प्रश्न, एक
ही प्रश्न, एक ही
प्रश्न—मैं
कौन हूं?... आंसू
आएं आ जाने
दें, रोना
आए आ जाने दें,
कुछ फिकर न
करें। पूछें.
मैं कौन हूं?......मन हलका हो
जाएगा। बह
जाने दें आंसुओ
को। पीछे गहरी
शांति छूट
जाएगी। एक्
तूफान निकल
जाने दें।
पूछें : मैं
कौन हूं?......पूछें,
पूछें, पूछें,
जरा भी
शिथिल न हों, पूछते चले
जाएं— मैं कौन
हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं?......पूछें,
पूछते—पूछते
ही मन बिलकुल
शांत और शन्य
में प्रवेश कर
जाएगा।
मैं
कौन हूं? मैं
हूं कौन?......पूछें
पूरी शक्ति से
कि थक जाएं, गिर जाएं, पूछें पूरी
शक्ति से—मैं
कौन हूं?......पूछें,
ताकि
परमात्मा
उत्तर दे सके।
मैं कौन हूं?......प्यास जब
पूर्ण होती है
तभी उत्तर आ
जाता है। मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं?......पूरी
प्यास से, पूरी
आतुरता से।
मैं कौन हूं? मैं हूं कौन?......सागर भी यही
पूछता है, सरू के
वृक्ष भी यही
पूछते हैं, सूरज भी यही पूख्ता है—मैं
कौन हूं?......सारा
जगत यही पूछने
लगे—मैं कौन
हूं?......पूछें,
पूछें मैं
कौन हूं?......मन
को जरा भी
विश्रांति न
लेने दें, पूछें
मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?
मैं कौन हूं?......पूछते ही पूल्ले
मन शांत होता
जाता है......मन
शांत होता
जाता है......पूछते
ही पूछते मन
बिलकुल शांत
होता जाएगा...।
मन शांत हो
रहा है......मन
शांत हो गया......जैसे
तूफान के पीछे
एक गहरी शांति
छा जाए। आखिरी
बार एक मिनट
और जोर से
पूछें मैं कौन
हूं? मैं
कौन हूं? मैं
कौन हूं?......लगा
दें पूरा दांव,
पूरी शक्ति—मैं
कौन हूं 7
अब
धीरे— धीरे दो—चार
गहरी श्वास
लें... धीरे—
धीरे दो—चार
गहरी श्वास
लें...। तूफान
निकल गया। मन
बिलकुल शांत
हो जाएगा।
धीरे— धीरे दो—चार
गहरी श्वास
लें...। शांत हो
जाएं। पूछना
छोड़ दें। दो—चार
गहरी श्वास
लें...। पूछना
छोड़ दें। दों—चार
गहरी श्वास
लें......फिर धीरे—
धीरे आंख
खोलें...।
सुबह की
बैठक समाप्त
हुई।
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