प्यारे
ओशो!
'बलं वाव
विज्ञानाद्
भूय:; अपि ह
शतं
विज्ञानवतां
एको बलवान
आकम्पयते।
स यदा बली
भवति,
अथोत्थाता
भवति,
उत्तिष्ठर
परिचारिता
भवति,
परिचरर
उपसत्ता भवति,
उपसीदर
द्रष्टा भवति,
श्रोता भवति
मन्ता,
भवति
बोद्धा भवति
कर्त्ता भवति
विज्ञाता भवति।’
विज्ञान
से बल श्रेष्ठ
है, क्योंकि
एक बलवान
मनुष्य सौ
विद्वानों को
डराता है।
बलवान होने पर
ही मनुष्य
उठकर खडा होता
है; उठने
पर वह गुरु की
सेवा करता है;
सेवा करने
से वह गुरु के
पास बैठने
लायक बनता है;
पास बैठने
से द्रष्टा
बनता है, श्रोता
बनता है, मनन
करनेवाला
बनता है, बुद्ध
बनता है, कर्त्ता
बनता है, विज्ञानी
बनता है।
प्यारे
ओशो! छांदोग्य
उपनिषद के इस
अजीब—से सूत्र
का
आशय क्या
है, यह हमें
विशद् रूप से
समझाने की
अनुकंपा करें।
सहजानंद!
यह सूत्र
निश्चय ही
अजीब—सा मालूम
होता है, अजीब
है नहीं। है
तो बहुत
प्यारा; है
तो बहुत अनूठा,
अद्वितीय। छांदोग्य
उपनिषद का
जैसे सारा छंद
इसमें समा गया
है। जैसे सारा,
हजार—हजार
फूलों से
निचोड़कर कोई
इत्र इकट्ठा
करे, ऐसा
यह सूत्र है।
पर अजीब—सा
लगेगा, क्योंकि
सत्य भाषा में
आते—आते अजीब—सा
ही हो जाता है।
और हमारे पास
कोई सत्य का
अनुभव नहीं हो,
तो शब्द ही
हमारे हाथ
लगते हैं। और
शब्दों में
बड़ा खतरा है।
शब्द से
ज्यादा
खतरनाक कोई और
चीज नहीं।
समझे तो
पहुंचे; चूके
तो गिरे। खड़ग
की धार पर
चलने जैसा है।
तुम्हारी
बात मैं समझा
सहजानंद!
क्योंकि
सूत्र शुरू
होता है: 'बलं
वाव विशानाद्
भूय—विज्ञान
से बल श्रेष्ठ
है; और
सूत्र अंत
होता है— 'विज्ञाता
भवति —विज्ञानी
बनता है।
विज्ञान से बल
श्रेष्ठ है—ऐसा
प्रारंभ; फिर
बल की महिमा
और चर्चा। और
अंततः बल लाता
कहां है; —विज्ञाता
बनाता है।
सो
तुम उलझे
होओगे। सोचा
होगा यह कैसी
बात है! फिर और
भी बहुत बातें
हैं,
जो चिंता
पैदा करें।
क्योंकि एक
बलवान मनुष्य
सौ विद्वानों
को डराता है।
विद्वान तो हम
उसे कहते हैं,
जो जानता है।
और बलवान—वह
तो कोई बड़ी
महत्ता की बात
नहीं। कोई
गामा पहलवान
को बुद्ध के साथ
तुलना करने
बैठ जाये! तो
यूं ठीक है कि
एक गामा
पहलवान सौ
बुद्धों को
हरा दे। मगर
वह हराना ऐसे
ही होगा, जैसे
एक चट्टान
गुलाब के फूल
को दबा दे।
इससे चट्टान
कुछ गुलाब का
फूल नहीं हो
जाती, और न
ही गुलाब के
फूल पर जीत
जाती है।
फिर
बल की महिमा
छांदोग्य उपनिषद
गाता चलता है।’बलवान
होने पर
मनुष्य उठ खड़ा
होता है। उठने
पर गुरु की
सेवा। सेवा से
गुरु के पास
बैठने की
योग्यता। पास
बैठने से
द्रष्टा बनता
है।’ तब एक
मोड़ आया।
चले
थे विज्ञान के
विपरीत बल की
प्रशंसा में, और
बात कुछ और
होने लगी! 'द्रष्टा
बनता, श्रोता
बनता, मनन करनेवाला
बनता, बुद्ध
बनता, कर्ता
बनता।’ और
तब वर्तुल
पूरा होता है
कि 'बलवान
विज्ञानी
बनता है।’ तो
स्वभावत:
लगेगा कि बात
बेबूझ है।
तर्क से बेबूझ
लगेगी। तर्क
भी सुलझाता
नहीं, उलझाता
है। तर्क को
थोड़ा हटाकर
सहानुभूति से
इस सूत्र को
समझने की
कोशिश करो। एक—एक
शब्द को बहुत
ध्यानपूर्वक
लेना, क्योंकि
बारीक भेद हैं,
जो ऊपर से
दिखाई नहीं
पड़ते। और
इसलिए सदियों—सदियों
तक भूलें चलती
रहती हैं।
'वितान' और
'विज्ञाता'
एक—सा अर्थ
देते मालूम
होते हैं। मगर
उनमें एक—सा
अर्थ नहीं है,
विपरीत
अर्थ है।
विज्ञान है
बहिर्यात्रा,
और विज्ञाता
होना है
अंतर्यात्रा।
विज्ञान का
अर्थ है—वस्तु
को जानना, और
विज्ञाता
होना है
अंतर्यात्रा।
विज्ञान का
अर्थ है—वस्तु
को जानना, और
विज्ञाता का
अर्थ है—जाननेवाले
को जानना!
विज्ञान
तो पदार्थ का
होता है; और
विज्ञाता
होना—आत्मबोध
है, परमात्म
अनुभव है, सत्य
साक्षात है।
इसलिए 'विज्ञान'
और 'विज्ञाता'
शब्द को
सबसे पहले
स्पष्ट अलग—अलग
कर लो। एक ही
धातु से बनते
हैं दोनों।
भाषाकोष में
एक ही अर्थ है
दोनों का।
इसलिए भूल हो
सकती है।
लेकिन यह
सूत्र
जिन्होंने
कहा होगा, वे
कुछ भाषा के
जानकार ही
नहीं; अनुभव—रससिक्त—उस
परम विज्ञान
की, विज्ञाता
की अवस्था में
रहे हुए
व्यक्ति रहे होंगे।
तो
पहला भेद :
विज्ञान
अर्थात साइंस, और
विज्ञाता
अर्थात धर्म। विज्ञान
विचार पर
निर्भर होता
है, और
विज्ञाता
निर्विचार पर।
विज्ञान में
सोचना होता है;
विज्ञाता
होने में
सोचने का
अतिक्रमण
करना होता है।
जब
तक सोच—विचार
है,
तब तक मन
में उपद्रव है,
तब तक
झंझावत, आधियां,
तूफान; नाव
डांवांडोल!
किनारा
मिलेगा कि
नहीं मिलेगा!
कि मझधार में
ही डूब जाना
होगा! यूं ही
चिंता में
क्षण बीतते।
ऐसे ही संताप
में समय
गुजरता। अब
डूबे, तब
डूबे की हालत
होती।
विज्ञाता
का अर्थ है :
किनारा मिल
गया। आंधियां
समाप्त हुईं। आंधियां
ही नहीं—अब तो
झील पर लहरें
भी नहीं उठती।
अब तो झील
दर्पण बनी।
ऐसी शाति, ऐसा
मौन—कि सारा
आकाश वैसा ही
प्रतिफलित
होता है, जैसा
है।
विज्ञाता
पंडित नहीं
हैं,
प्रबुद्ध
है। विज्ञानी
पंडित है—प्रबुद्ध
नहीं। अल्वर्ट
आइंस्टीन और
गौतम बुद्ध का
जो भेद है.....।
यूं तो
अल्वर्ट
आइंस्टीन
पदार्थ के
संबंध में
जितना जानता
है, गौतम
बुद्ध नहीं
जानते। अगर
पदार्थ के
ज्ञान के
संबंध में ही
परीक्षण होना
हो, तो
आइंस्टीन ही
जीतेगा।
लेकिन अगर
स्वयं के बोध
के संबंध में
कोई तुलना
करनी हो, तो
आइंस्टीन
कहीं भी तराजू
पर नहीं
बैठेगा। और
अंततः वही
निर्णायक है।
मरते
समय,
आइंस्टीन
ने दो दिन
पूर्व ही कहा
कि 'मेरा
जीवन अकारथ
गया। मैं
व्यर्थ में
उलझा रहा।
मैंने उसे
नहीं जाना, जिसे जानना
था।’ क्या
जानना था!
जाननेवाले को
पहले जानना था।
अपने
को ही न जाना
और सब जानते
रहे! घर में ही
अंधेरा रहा, और
सारी दुनिया
में दीवाली
मनाते फिरे!
घर में ही
उत्सव न हुआ
और बाहर गुलाल
उड़ायी, रंग
उड़ाये! सब
थोथा हो गया।
जब
तक भीतर उत्सव
न हो,
तब तक बाहर
के वसंत का
क्या मूल्य
है! और जब तक भीतर
के फूल न खिले,
तब तक आये
मधुमास कि
जाये—सब बराबर
है। फूल खिले
कि झरे—क्या
करोगे! भीतर
ही प्रकाश न
हो, तो
सूरज उगे कि
डूबे, तुम
तो अंधेरे में
ही हो। उगता
है सूरज तब भी,
डूबता है तब
भी! अंधेरी
रात—तो भी
अमावस।
पूर्णिमा की
रात—तो भी
अमावस।
तुम्हारे
भीतर तो अमावस
ही बनी रहती!
और
मृत्यु के
क्षण में
अल्वर्ट
आइंस्टीन को
यह दिखाई पड़ना
शुरू हुआ कि
काश,
मैंने इतनी
ही ऊर्जा अपने
को जानने में
लगायी होती, तो आज
मृत्यु के पार
भी मेरे भीतर
कुछ है, शायद
उसे पहचान
लिया होता। आज
मृत्यु का भय
न पकड़ता। आज
मृत्यु का
अतिक्रमण
करने की मेरी
क्षमता होती!
मरते
समय एक ही भाव
अल्वर्ट
आइंस्टीन को
था कि अगर फिर
कभी जीवन मिले, तो
उस सारे जीवन
को अब धर्म की,
रहस्य की
खोज में लगा
दूंगा। और
सबसे बड़ा
रहस्यों का
रहस्य स्वयं
के भीतर है—होगा
भी; होना
भी चाहिए।
जाननेवाले को
जानने में ही
परम रहस्य है।
इस भेद को तुम
ठीक से समझ लो,
तो सूत्र
साफ होना शुरू
हो जायेगा।
'बलं वाव
विज्ञानाद्
भूय: —,ठीक
कहता है
छांदोग्य उपनिषद
का ऋषि—'विज्ञान
से बल श्रेष्ठ
है।’ विज्ञान
पदार्थ की
जानकारी।’बल'
किसे कह रहा
है वह! बल से भी
तुम किसी
पहलवान के बल
को मत समझ
लेना। बल से
भी उपनिषद के
ऋषि का अर्थ
होता है—अंतऊर्जा।
साधारण
आदमी ऐसा है, जैसे
छेदवाला घड़ा।
कितना ही भरो—भरता
नहीं। भरो—और
खाली हो जाता
है। कुछ रुकता
नहीं, कुछ
टिकता नहीं।
एक
सूफी फकीर के
पास एक युवक
ने आकर —कहा कि 'बहुत—बहुत
संतों के पास
गया हूं लेकिन
जिसकी तलाश है
वह नहीं मिलता।
अब आखिरी आपके
द्वार पर
द:सष्क दी है।
बस हताश हो
गया हूं बहुत
लोगों ने आपकी
तरफ इशारा
किया। बड़ी
लंबी यात्रा
करके, बड़े
दूर देश से
आता हूं।
निराश न भेज
देना। और यह
मेरा अंतिम
प्रयास है।
कुछ होना हो
तो हो जाये। न
होना हो, तो
न हो। बस, मैं
हारे गया हूं।’
उस
फकीर ने कहा, 'जरूर
होगा। को नही
होगा! लेकिन
एक छोटी—सी
शर्त पूरी
करनी पड़ेगी।
शर्त बहुत
छोटी है।’
उस
युवक ने कहा, 'मैंने
बडी—बड़ी
शर्तें पूरी
की। किसी ने
योग सिखाया, सिर के बल
खड़ा किया, तो'
खडा रहा।
किसी ने मंत्र
पढूवाए, तो
वर्षों मंत्र
दोहराता रहा।
किसी ने उपवास
करवाए, तो
उपवास किये; भूखा मरा।
जिसने, जो
कहा, वही
किया। ऐसी कोन—सी
शर्त होगी, जो मैंने
मूर्त नहीं
की! तुम भी
अपनी छोटी शर्त
कह दो। जरूर
पूरी करूंगा।’
उस
फकीर ने कहा, 'ये
सब बड़ी—बड़ी
बातें हैं। ये
मुझे नहीं
करनी हैं।
बहुत छोटी
शर्त है। अभी
मैं कुंए पर
रहनी भरने जा
रहा हूं। बस, तू इतना
करना कि जब
मैं पानी भरूं,
.तो बीच में
बोलना मत।
चुपचाप खड़े
रहना। इतना
अगर संयम तूने
रख लिया, तो
बस बहुत है।
फिर आगे का
काम मैं
सम्हाल लूंगा।
इतना तू कर ले।’
उस
युवक ने सोचा
कि मैं भी किस आदमी
के पास आ गया
हू! बडे तत्र
साधे, मंत्र
साधे, यत्र
साधे। और यह
पागल मालूम
होता है। यह
कुंए पर पानी
भला, तो भर
मजे से! मेरा क्या
बनता—बिगड़ता
है! मैं क्यों
बोलूंगा?
लेकिन
उसे पता न था।
कुंए पर पानी
भरना तो दूर, जब
फकीर ने अपनी
बालटी उठायी
और रस्सी
उठायी., तभी
उसके भीतर
झंझावात उठने
लगे। लेकिन
अपने को सम्हाला।
याद रखा कि
उसने कहा है
कि बोलना ही
मत।’मगर न
रहा जाये! फिर
भी अपने पर
संयम रखा।
पुराना संयमी
था। —लंबा
अभ्यासी था।
.अपनी जबान को
कसकर पकड़े रहा।
होठों को बंद
रखा। इधर—उधर
देखा कि देखो
ही मत। न
देखोगे, न
प्रश्न उठेगा।
और थोडी ही
दैर की बात 'है।
कुंए
पर फकीर
पहुंचा। उसने
बालटी में
रस्सी बांधी।
युवक यहां—वहां
देखे। फकीर ने
कहा,
'यहां—वहा
देखने की
जरूरत नहीं।
जो मैं कर रहा
हूं उसको देख
और चुपचाप खड़ा
रह, बोलना
मत। प्रश्न
उठाना मत।
इतनी शर्त तू
पूरी कर देना,
बाकी मैं सब
पूरी कर लूंगा।’
युवक
को देखना पड़ा।
मगर उसकी
बेचैनी तुम
नहीं समझ सकते।
उसकी मुसीबत
तुम नहीं समझ
सकते। जो देख
रहा था, उसे
देखकर बिना
बोले रहा न
जाता था।
फकीर
ने रस्सी
बांधी। बालटी
कुंए में डाली।
बड़ा हिलाया—डुलाया
बालटी को। बडा
शोरगुल मचाया
कुंए में।
पानी मैं डूबो
रही बालटी, तो
भरी हुई मालूम'
पड़ी। फिर
खींची, तो
खाली की खाली
आयी! फिर
दुबारा डाली'!
संयम टूटने
लगा युवक का।
जब तीसरी बार
बालटी डाली, युवक ने कहा,
'ठहरो! संयम
टूटने लगा
युवक का। जब
तीसरी बार
बालटी डाली, 'युवक ने कहा
ठहरो! भाड़ में
गया
ब्रह्मज्ञान!
इस बालटी में
पेंदी ही नहीं
है, और तुम
पानी भरने चले
हो! आखिर संयम
की भी एक हद्द
होती है! कब तक
साधू? और
यह संयम तो
ऐसा है कि
जन्म —कम बीत
जायेंगे, पानी
भरनेवाला
नहीं। यह
बालटी खाली
रहनेवाली है।
और तुमने
मुझसे वचन
लिया है कि जब
तक पाना न भर लूँ
बोलना मत। मैं
तो बोलूंगा।
और तुमसे कहे
देता हूं कि
तुमसे क्या
खाक मुझे
मिलेगा। अभी
तुम्हें खुद
ही यह पता
नहीं है कि बिना
पेंदी की
बाल्टी में
पानी भरने चले
हो! तुम क्या
मुझे
ब्रह्मज्ञान
दोगे!'
फकीर
ने कहा, 'बात
खतम हो गयी।
नाता—रिश्ता
टूट गया। शर्त
ही खतम हो गयी।
जब तू छोटा—सा
भी' काम
पुरा न कर सका।
अरे बस, यह
आखिरी बार था।
तीन बार का
मैंने तय किया
था। मगर तू
चूक गया। तीन
ही बार पूरे न
हो पाये और तुने
संयम छोड़
दिया! रास्ते
पर लग अपने।
ऐसे आदमी से
क्या होगा—जिसमें
इतना धीरज
नहीं! भाग। यह
तो मुझे भी
पता है कि
बालटी में
पेंदी नहीं है।
मैं कोई अंधा
हूं! बालटी
में पानी नहीं
भरेगा, यह
भी मुझे पता
है। यह तो
तेरी धीरज की
परोक्षा थी।
मगर तू असफल
हो गया। अब
मैं जानता हूं
कि क्यों तू
अब तक हताश है।
तू सदा हताश
रहेगा। एक
छोटा—सा काम न
कर सका! भाग जा।
अब यह शकल
मुझे मत दिखा।’
युवक
चला तो, लेकिन
अब बड़ी बेचैनी
में पड़ गया।
बात तो ठीक थी।
फकीर पागल
नहीं था। कुछ
बेबूझ था। सो
फकीर सदा हुए
हैं। फकीर, और बेबूझ न
हो, तो
क्या खाक
फकीर! फकीर और
कुछ
रहस्यपूर्ण न
हो, तो
क्या खाक फकीर;
पंडित होते
हैं तर्क —शुद्ध;
फकीर तो
तर्क —शुद्ध
नहीं होते; रहस्यमय
होते हैं; पहेली
की तरह होते
हैं।
'मैंने भी
क्या चूक कर
दी! जरा—सी देर
और रुक जाता, जरा—सी देर
की बात थी और
पता नहीं यह
आदमी क्या खाक
जानता हो!
जानता जरूर
होगा।
क्योंकि ऐसी
परीक्षा मेरी
कभी किसी ने
कभी ली न थी।’ रातभर सो न
सका। सुबह ही
उठकर पहुंच
गया। अंधेरे—
अंधेरे पहुंच
गया। फकीर के
द्वार पर सिर
पटककर पड़ रहा
और कहा कि 'मैं
हटूंगा नहीं
यहां से।
मुझसे भूल हो
गयी, मुझे
क्षमा कर दो।
एक अवसर और दो।’
फकीर
ने कहा, 'क्या
भूल हो गयी?' उसने कहा, 'यही कि मुझे
क्या लेना था!
दिखता था मुझे
कि बिना पेंदी
की बालटी में पानी
भरेगा नहीं।
मुझे बोलना
नहीं था। चुप
खड़े रहता।
वायदा किया था,
पूरा करना
था। मैं वायदे
से स्मृत हुआ।’
फकीर
ने कहा, 'अगर
इतना तुझे
दिखाई पड़ गया
कि बिना पेंदी
की बालटी में
पानी नहीं
भरता, तो
मैं तुझसे
कहना चाहता
हूं कि तेरे
भीतर भी पेंदी
नहीं है, इसलिए
ऊर्जा इकट्ठी
नहीं होती।
ऊर्जा इकट्ठी
न हो, तो तू
कैसे ब्रह्म
को जानेगा? ब्रह्म को
जानने के लिए
ऊर्जा चाहिए—ऐसी
ऊर्जा कि ऊपर
से बह उठे, अतिरेक
चाहिए।’
ऊर्जा
के अतिरेक को
बल कहा है
छांदोग्य उपनिषद
ने। ऐसी ऊर्जा
चाहिए कि तुम
सम्हाल न सको, कि
तुम्हारे ऊपर
से बहने लगे।
इतनी ही ऊर्जा
हो, तो ही
सत्य को जाना
जा सकता है।
निर्वीर्य
सत्य को नहीं
जान सकते।
तुमने कभी
सुना न होगा
कि कोई नपुंसक—और
ब्रह्मज्ञान
को उपलब्ध हुआ
हो! वीर्यवान,
ऊर्जा से
भरे हुए लोग।
वृक्ष
पर फूल कब
खिलते हैं? जब
वृक्ष के पास
इतनी ऊर्जा
होती है कि अब
उमंग में लुटा
सकता है, तब
फूल खिलते हैं।
अगर वृक्ष को
ठीक खाद न
मिले, ठीक
जल न मिले, रोशनी
न मिले—फूल न
आयेंगे। फूल
तो विलास है, वैभव है, ऐश्वर्य
है। और इसलिए
मुझे 'ईश्वर'
शब्द
प्यारा है।
'ईश्वर' शब्द
ऐश्वर्य से ही
बना है। ईश्वर
को वे ही लोग
जान पाते हैं,
जिनके भीतर
इतनी ऊर्जा
होती है कि
जैसे वृक्षों
की ऊर्जा फूल
बन जाती है।
ऊर्जा जब
न्यूनतम होगी,
तो फूल तो
दूर, पत्ते
भी मुश्किल से
पैदा होंगे।
फूल तो बहुत
दूर, पत्ते
भी कुम्हलाए—कुम्हलाए
होंगे। ऊर्जा
अतिरेक होनी
चाहिए।
पश्चिम
के बहुत बड़े
रहस्यवादी
कवि विलियम
ब्लेक का वचन
महत्वपूर्ण
है;
उपनिषद के
सूत्रों जैसा
है। विलियम
ब्लेक आदमी था
भी कि उसे कवि
नहीं, ऋषि
ही कहना चाहिए।
उसका सूत्र
है. 'एनर्जी
इज डिलाइट—ऊर्जा
ही आनंद है।’ पते की बात
कही। ऊर्जा ही
आनंद है।
ऊर्जा की कमी
ही दुख है।
ऊर्जा की
दीनता और
क्षीणता ही
पीड़ा है, नर्क
है। क्योंकि
फूल खिलते
नहीं; सुगंध
बिखरती नहीं।
जैसे दीये में
तेल चुक जाये,
तो बाती बुझ
जाये।
दीये
में तेल चाहिए, बाती
चाहिए, तो
ज्योति जले।
और जितना तेल
हो, उतनी
ही प्रगाढ़ता
से ज्योति जले।
और तुमने एक
खूबी की बात
देखी : हवा आती,
अंधड़ आता—छोटे—मोटे
दीये बुझ जाते
हैं, जंगल
में लगी आग और
भी धू — धू करके
जल उठती है।
छोटे दीये बुझ
जाते हैं; हवा
का झोंका आया
कि गये! लेकिन
बड़ी आग और बड़ी
हो जाती है!
तुम्हारे
भीतर ऊर्जा हो, तो
परमात्मा की
ऊर्जा भी
तुम्हारी
ऊर्जा में संयुक्त
हो जाती है।
तुम्हारे
जीवन में यूं
आग लग जाती है,
जैसे जंगल
में आग लगी हो।
छोटा—मोटा
दीया हो, तो
जरा—सा हवा का
झोंका और उसे
बुझा जाता है।
इसे स्मरण
रखना।
क्षुद्र
ऊर्जा से नहीं
चलेगा, विराट
ऊर्जा चाहिए।
आकाश की
यात्रा पर
निकले हो, ईधन
तो चाहिए ही
चाहिए। पंखों
में बल चाहिए।
इसलिए
छांदोग्य ठीक
कहता है. 'बलं
वा
विज्ञानाद्
भूय: —विज्ञान
से बल श्रेष्ठ
है।
क्या
करोगे जानकर—गणित, भूगोल,
इतिहास? क्या
करोगे जानकर—
भौतिकी, रसायन?
इससे
ज्यादा
श्रेष्ठ है—अपनी
जीवन ऊर्जा को
संगृहीत करना;
जीवन ऊर्जा
को ऐसे
संगृहीत करना
कि तुम सरोवर
हो जाओ—लबालब
भरे हुए।
तुममें कोई
छिद्र हो न; जिससे ऊर्जा
बहे न।
तुम्हारा घड़ा
जब पूरा भरा
हो, ऐश्वर्य
से भरा हो तो
ईश्वर को
जानने की
क्षमता है।
मेरी
बात लोगों को
अखरती है, क्योंकि
लोग समझते
नहीं। लेकिन
मैं तुमसे फिर
दोहराकर कहना
चाहता हूं कि
ईश्वर को
जानना इस जगत
में सबसे बड़ा
विलास है। यह
धन का विलास
कुछ भी नहीं।
यह पद का
विलास कुछ भी
नहीं। ईश्वर
को जानना सबसे
बड़ा विलास है,
क्योंकि वह
परम ऐश्वर्य
की अनुभूति है।
और उस परम
ऐश्वर्य की
अनुभूति के
लिये पहले तुम्हें
ऊर्जा को
बचाना होगा, संगृहीत
करना होगा। और
तुम व्यर्थ
गंवा रहे हो!
तुम्हारी
निन्यान्नबे
प्रतिशत
ऊर्जा कचरे घर
में जा रही है।
फूल उगें तो
कैसे उगें।
ज्योति जगे तो
कैसे जगे? नृत्य
हो तो कहां से
हो? थके—मांदे
तुम क्या
नाचोगे? टूटे—फूटे
तुम क्या
नाचोगे? और
जब नाच नहीं
पाते, तो
बहाने खोजते
हो। कहते हो : आंगन
टेढ़ा! 'नाच
न जाने आंगन
टेढ़ा!'
अब
आंगन के टेढ़े
होने से कुछ
नाचने में
बाधा पड़ सकती
है?
अरे, जिसको
नाचना है, अपान
टेढ़ा हो कि
सीधा हो, नाचेगा।
अगर नाच है, तो आंगन..... आंगन
को ही सीधा
होना पड़ेगा।
नाचनेवाले की
ऊर्जा आंगन को
सीधा कर देगी।
आंगन का तिरछा
होना कहीं
नाचने वाले को
रोक सकता है!
लेकिन क्या—क्या
बहाने हम
खोजते हैं!
ऊर्जा
की कमी है; पूछते
फिरते हैं कि
जीवन में दुख
क्यों है! दुख
का कारण सिर्फ
इतना है कि
सुख होता है
ऊर्जा के
अतिरेक से, महाअतिरेक
से आनंद होता
है। और
तुम्हारे
जीवन में बूंद—बूंदकर
सब चुका जा
रहा है और
खयाल रखना
बूंद—बूंद
गिरता है, लेकिन
गागर ही नहीं,
सागर भी
खाली हो जाती
है। बूंद—बूंद
गिरता रहे, तुमसे अलग
होता रहे, बूंद—बूंद
टपकती रहे, तो गागर तो
खाली होगी ही—सागर
भी खाली हो
जाता है।
और
तुम किस—किस
तरह से अपनी
ऊर्जा को
व्यर्थ कर रहे
हो! तुम्हारे
पास जितनी
इंद्रियां
हैं,
उन सबसे तुम
दो तरह के काम
ले सकते हो।
एक तो ऊर्जा
को भीतर ले
जाने का; और
दूसरा—ऊर्जा
को बाहर
फेंकने का।
यही
अंतर्मुखी और
बहिर्मुखी का
भेद है।
बहिर्मुखी
मूढ़ है।
दरवाजा
तो एक ही होता
है। उसी
दरवाजे पर एक
तरफ लिखा होता
है—'प्रवेश', 'एंट्रेंस',
उसी दरवाजे
पर दूसरी तरफ
लिखा होता है—'एग्जिट'।
उसी से तुम
भीतर आते, उसी
से तुम बाहर
जाते। कोई दो
दरवाजों की
जरूरत नहीं
होती। एक ही
दरवाजा काफी
होता है।
तुम्हारी आंख
से तुम्हारे
देखने की
ऊर्जा बाहर भी
जाती है और
भीतर भी आती
है। जो समझदार
हैं, वह आंख
से ऊर्जा को
इकट्ठा करता
है। और जो
नासमझ है, वह
गवाता है। जो
नासमझ है, आंख
उसके लिए छेद
हो जाती है।
और जो समझदार
है, आंख
उसके लिए
संग्राहक हो
जाती है।
बुद्ध
ने कहा है. 'राह
पर चलो तो चार
कदम से ज्यादा
मत देखना।’ क्यों? क्योंकि
ज्यादा की
क्या जरूरत
है! चलना है, तो चार कदम
देखना
पर्याप्त है।
जब चार कदम चल
लोगे, तो
चार कदम आगे
दिखाई पड़ने
लगेगा। चार
कदम देखते—देखते
तो हजारों मील
की यात्रा
पूरी हो जायेगी।
लेकिन
तुम?
—चार कदम
छोड्कर सब
देखते हो! वे
चार कदम भर
नहीं दिखते, जो चलते हैं।
दीवाल पर लिखा
है—'डोंगरे
का बालामृत!' पढ़ो। इधर
फिल्म का
पोस्टर लगा है—पढो!
इधर कोई
खोमचेवाला
खड़ा है। उधर
कोई स्त्री
गुजर गयी। इधर
किसी छैल—छबीले
ने कोई फिल्मी
धुन छेड़ दी, क्या—क्या
हो रहा है
चारों तरफ!
तुम करो भी
क्या! आंखें
भागी फिर रही
हैं; सब
तरफ ऊर्जा भटक
रही है। वैज्ञानिक
कहते हैं कि आंख
से मनुष्य की
अस्सी
प्रतिशत
ऊर्जा बाहर
जाती है।
फिर
कान भी वही कर
रहे हैं। तुम
क्या सुनते हो? गलत
हो, तो
जल्दी सुनते
हो! ठीक हो, तो
सुनते नहीं।
अरे, ठीक
में कोई
समाचार होता
है? गलत
में समाचार
होता है।
किसकी स्त्री
किसके साथ भाग
गयी इसमें कुछ
समाचार होता
है। मजा आ
जाता है! पास
सरक आते हैं
लोग, जब
ऐसी बातें
होने लगती
हैं! गुफ्तगू
होने लगती है।
फुसफुसाकर
बातें करने
लगते हैं। और
जब दो आदमी
फुसफुसाकर
बातें करें तो
जितने आदमी
हैं सब सुनने
लगते हैं।
क्योंकि जब
बात
फुसफुसाकर हो
रही तो जरा
गहरी हो रही
है। कोई बात
गहरी हो रही
है!
जिस
बात को सबको
सुनाना हो—फुसफुसाकर
कहना; किसी के
कान में कह
देना। और उससे
यह भी कह देना
कि भैया किसी
को बताना मत।
कि कसम है
तुम्हें मेरी,
अगर किसी को
बताया।’ बस,
वह बात पूरे
गांव में
पहुंच जायेगी।
वह हरेक के
कान में पहुंच
जायेगी!
कचरा
सुन रहे हो!
कचरा देख रहे
हो! कचरा पढ़
रहे हो! और फिर
कहते हो, 'दुख
क्यों है!' कचरा
खा रहे हो!
कचरा पी रहे
हो! तुमसे
शुद्ध जल न
पीया जायेगा।
कोकाकोला
चाहिए! अब यह
कभी सोचोगे ही
नहीं—यह
कोकाकोला है
क्या? इसमें
है क्या? मगर
सारी दुनिया
पी रही है। और
अखबारों में
बड़े—बड़े
पोस्टर छपे
हुए हैं।
अखबार पढ़ रहे
हो; लोग
कोकाकोला पी
रहे हैं और
लोग अखबार पढ़
रहे हैं, फिल्में
देख रहे हैं, रेडिओ पर
सुन रहे हैं!
और सब जगह एक
ही चर्चा है कि
अगर जिंदगी का
मजा लेना है
तो कोकाकोला
के बिना नहीं! 'लिब्बा
लिटिल हाट
सिप्पा गोल्ड
स्पॉट!' नहीं
तो जिंदगी
बेकार गयी!
किसी काम न
आयी।
लोग
क्या खाते हैं, क्या
पीते हैं? क्या
सुनते हैं? क्या देखते
हैं? —अगर
तुम जरा हिंसाब
रखो, तो
तुम्हें साफ
दिखायी पड़ेगा.
तुम क्यों
दुखी हो।
जो
सुनने योग्य
हो,
अगर वही
सुना जाये; और जो देखने
योग्य हो, अगर
वही देखा जाये,
तो
तुम्हारे
जीवन की नब्बे
प्रतिशत
ऊर्जा तो अपने—आप
सुरक्षित हो
जायेगी—अपने
आप! तुम्हारे
घर में कोई
कचरा डाले, तो तुम
इनकार करोगे
लेकिन
तुम्हारी
खोपड़ी में कोई
कचरा डाले तुम
कहते हो—' आइये,
विराजिए, पधारिए! बड़ी
कृपा की। ऐसे
ही आया करते
रहिए। कैसी—कैसी
प्यारी खबरें
ले आये हैं!
धन्यवाद कि आप
पधारे।
कृत्यकृत्य
हो गये, कृतार्थ
हुए!'
फिल्में
देखने जा रहे
हो,
जिनमें
सिवाय हंगामे
के और कुछ भी
नहीं! पैसे भी
खर्च करोगे; टिकिट
खरीदने में
धक्के—मुक्के
भी खाओगे; पिटोगे—कुटोगे
भी। मगर लोगों
ने तय ही कर
रखा है—सौ—सौ
जूते खायें, तमाशा घुसकर
देखें! और मजा
यह है कि जब
तुम सौ—सौ
जूते खा रहे
हो, तब
तमाशा दूसरे
देख रहे हैं!
और तमाशा ही
क्या है? जब
तुम पर जूते
पड़ रहे, वे
तमाशा देख रहे
हैं! जब उन पर
जूते पड़ रहे
हैं, तब
तुम तमाशा देख
रहे हो! और
तमाशा ही क्या
है!
छांदोग्य
जिस बल की बात
कर रहा है, वह
वही ऊर्जा है,
जिसको
ब्लेक ने कहा,
'अतिरेक
ऊर्जा का आनंद
है।’ जिसको
बुद्ध ने कहा,
'ऊर्जावान
बनो।’ शक्ति
को भीतर सरोवर
बनने दो। यह
खाली घड़ा शोभा
नहीं देता। इस
खाली घड़े को
लेकर तुम
परमात्मा के
द्वार पर भी
जाओगे, तो
क्या मुंह
दिखाओगे! कम
से कम घड़ा तो
भरा हो। इसलिए
हमारे देश मे 'पूर्ण—कलश' स्वागत का
प्रतीक बना।
भरा हुआ कलश
स्वागत का
प्रतीक हो गया।
लेकिन यह भीतर
के भरे कलश की
सूचना है।
'बलं वाव
विज्ञानाद्
भूय:
—विज्ञान
से बल श्रेष्ठ
है।
अपि
ह शतं
विज्ञानवता
एको बलवान
आकम्पयते
—क्योंकि
एक बलवान
मनुष्य, एक
ऊर्जावान
व्यक्ति सौ
विद्वानों को
डराता है।’ यह कोई
पहलवान के लिए
नहीं कहा गया
है। एक
ऊर्जावान
व्यक्ति सौ
पंडितों को
डराता है।
विद्वान यानी
पंडित; जिन्होंने
उधार ज्ञान
इकट्ठा कर रखा
है। इसलिए तो
पंडित सदा ज्ञानी
के दुश्मन
होते हैं—होंगे
ही। क्योंकि
ज्ञानी उनके
धंधे को जड़ से
ही काटे डालता
है।
पण्डितों
का धंधा क्या
है?
पण्डितों
का सिक्का
चलता है अंधों
में। और
ज्ञानी लोगों
को आंखें देने
लगता है। अब
जिनका धंधा ही
अंधों में
चलता हो, वे
कैसे
बर्दाश्त
करें कि कोई
लोगों की आंखों
की चिकित्सा
करने लगे! आंखों
की चिकित्सा
हो गयी, तो
उनका धंधा
कैसे चलेगा? ये झूठे
सिक्के कैसे
चलेंगे?
इसलिए
जीसस को
पण्डितों ने
सूली लगायी—वे
रबाई थे, यहूदी
पण्डित थे, जिन्होंने
जीसस को सूली
लगायी। लगानी
पड़ी, क्योंकि
उस एक व्यक्ति
ने सारे
यहूदियों के पण्डितों
को कंपा दिया।
सुकरात को
एथेन्स के
पण्डितों ने
सूली लगायी, क्योंकि उस
एक व्यक्ति ने
पूरे एथेन्स
के सारे
तथाकथित थोथे
ज्ञानियों के
प्राण संकट
में डाल दिये।
बुद्ध को
तुमने पत्थर
मारे। महावीर
के कानों में
तुमने सींकचे
ठोके।
तुम्हारा
पण्डित सदा से
ही प्रबुद्ध
जनों का दुश्मन
रहा है—रहेगा, सदा
रहेगा।
क्योंकि उन
दोनों का धंधा
साथ चल नहीं
सकता। सुकरात
को अदालत ने
कहा था, 'अगर
तुम सत्य
बोलना बंद कर
दो, तुम
चुप हो जाओ—तो
हमें कोई
एतराज नहीं।
तुम जीओ—मजे
से जीओ।’ लेकिन
सुकरात ने कहा
कि ' अगर
मैं चुप हो
जाऊं, तो
फिर जीकर भी
क्या करूंगा!
सत्य बोलना ही
तो मेरा धंधा
है।’
अब
यह 'धंधा' बड़ा
खतरनाक है।
ठीक 'धंधे'
शब्द का ही
उपयोग किया है
सुकरात ने।’यह सत्य
बोलना ही मेरा
धंधा है।’ अगर
सत्य बोलना ही
सुकरात का धंधा
है, तो जो
असत्य पर जी
रहे हैं—और
असत्य पर बहुत
जी रहे हैं—वे
स्वभावत:
सुकरात को
जिंदा न रहने
देंगे। जब
उनके जीवन पर
बन आएगी, उनकी
आजीविका पर बन
आएगी, तो
इस आदमी को
हटाना ही होगा।
यह रास्ते का
रोड़ा है। यह
खतरनाक है। यह
तो लोगों को
बिगाड़ रहा है।
सुकरात
पर जुर्म क्या
थे?
वे ही जुर्म
जो मुझ रार
हैं! वही के
वही जुर्म हैं
सदा। क्योंकि
बात वहीं के
वहीं है, आदमी
बदलता ही नहीं।
आदमी सीखता ही
नहीं। आदमी हर
बार घूमकर
वहीं आ जाता
है।
सुकरात
पर जो जुर्म
थे..... पहला
जुर्म यह था
कि सुकरात ऐसे
सत्य बोलता है, जो
परम्परा के
विपरीत है। अब
सत्य ने कोई
कसम खायी है
परम्परा के
अनुकूल होने
की। परम्परा
दो कोड़ी की
चीज है। सत्य
को क्या पड़ी
है कि परम्परा
के अनुकूल हो।
अगर परम्परा
को कुछ पड़ी हो,
तो सत्य के
अनुकूल हो जाए।
लेकिन सत्य
किसी के
अनुकूल नहीं
हो सकता। सत्य
तो सिर्फ अपने
अनुकूल होता
है। सत्य का
तो अपना छंद
होता है। सत्य
स्वच्छंद
होता है।
यह
'छांदोग्य उपनिषद
शब्द प्यारा
है।
जिन्होंने
अपने छंद को
पा लिया है, उनके वचन
इसमें
संग्रहीत हैं।
सत्य तो
स्वतंत्र
होता है। उसका
अपना ही तंत्र
होता है। उस
पर किसी और का
शासन नहीं। वह
अनुशासित
नहीं होता
किसी से; आत्मानुशासित
होता है। तो
पहला जुर्म था
सुकरात पर कि
तुम सत्य बोलते
हो जो परम्परा
के विपरीत है।
सुकरात ने कहा,
'लेकिन सत्य
सदा परम्परा
के विपरीत
रहेगा। इसमें
मेरा कसूर
नहीं है। कसूर
परम्परा का है।’
परम्परा
होती है सड़ी—गली; परम्परा
होती है अतीत
की, मुर्दा।
परम्परा होती
है पण्डितों
के हाथ में, पुराहितों
के हाथ में।
और सत्य होता
है
प्रबुद्धजनों
के हाथ में।
प्रबुद्ध तो
कभी कोई एकाध
होता है।
पण्डितों का
तो व्यवसाय है—परम्परागत,
वंशानुगत।
दूसरा
जुर्म था
सुकरात पर कि 'तुम
युवको को
बिगाड़ते हो'। निश्चित
ही सुकरात
जैसे
व्यक्तियों
की बातें युवको
को ही जम सकती
हैं, क्योंकि
युवको में ही
थोड़ी अभी
ऊर्जा होती है,
थोड़ी शक्ति
होती है, थोड़ा
कुछ कर गुजरने
का अभी साहस
होता है। थोड़ा
अभियान, थोड़े
अज्ञात की
यात्रा अभी
उनके लिए
पुकारती है, चुनौती देती
है। जैसे—जैसे
आदमी बूढ़ा
होने लगता है,
शक्ति
क्षीण होने
लगती है, दीन
होने लगता है,
मृत्यु
करीब आने लगती
है—तो परम्परा
के अनुकूल
होने लगता है।
अकसर
नास्तिक मरते—मरते
आस्तिक हो
जाते हैं।
इससे तुम यह
मत समझना कि
जीवन के अनुभव
ने उन्हें
आस्तिक बना
दिया। मरते—मरते
आस्तिक होने
लगते हैं, क्योंकि
मरते—मरते पैर
डगमगाने लगते
हैं। जवानी
में
नास्तिकता
बड़ी सहज है, क्योंकि अभी
पैरों में बल
होता है।
बुढ़ापे
में मौत
दरवाजे पर
दस्तक देने
लगती है। भय
पकड़ने लगता है।
लगता है. हो न
हो,
परमात्मा
हो! कोन जाने
परमात्मा हो!
मैं इनकार
करता रहा, पोछे
किसी मुसीबत
में न पडूं।
अभी भी कुछ
देर नहीं हुई।
सुबह का भूला
सांझ भी घर आ
जाये, तो
भूला नहीं।
अभी भी याद कर
लूं। माफी
मांग लूं।
क्षमा मांग l। मरते— मरते
गंगा स्नान कर
आऊं, काशी
हो आऊं कि
काबा हो आऊं! हाजी
हो जाऊं—मरते—मरते
हाजी हो जाऊं!
कुछ कर लूं।
अगर परमात्मा
होगा, तो
ठीक। न हुआ, तो कोई
हर्जा नहीं; काा बिगड़
जायेगा।
समझेंगे कि चलो,
एक यात्रा
कर आये, काशी
की, कि
कैलाश 'की,
कि काबा की।
क्या बुरा—क्या
बिगड़ गया!
थोड़ा भौगोलिक
ज्ञान .ही बढ़
जायेगा। नये —नये
देश देखने को
मिल जायेंगे।
नये—नये लोग
से मिलने को
है। जायेगा।
कुछ हानि तो
होनेवाली
नहीं है। और
पकार
परमात्मा हुआ,
तो पास मे
अपने एक
प्रमाणपत्र
भी हो जायेगा।
मरते—मरते
आदमी आस्तिक
होने लगते हैं।
सुकरात
जैसे
व्यक्तियों
से तो युवा
व्यक्ति, ही
आकर्षित होते
हैं। हां, जरूर
कुछ वृद्ध लोग
भी आकर्षित
होते हैं।
लेकिन वे
वृद्ध वे ही
होते हैं, जिनका
शरीर बूढ़ा हो
गया —होगा, लेकिन
जिसकी आत्मा
में अभी भी
कवक होने की
क्षमता है।
जिनमें अभी भी
दुस्साहस है।
जो अभी भी
अज्ञात की
यात्रा पर
निकल सकते हैं।
जो अपनी छोटी—सो
डोगी को लेकर
अभी भी उस
सागर में उतर
जा सकते हैं, जिसका —दूसरा
किनारा दिखाई
नहीं पड़ता।
सत्य
तो थोड़े
दुस्साहर्सा
लोगों की ही
बात है। भीड़
तो असला में
जीयैगी, क्योंकि
भीड़
संत्त्वना
चाहती है—सत्य
नहीं चाहती।
इसलिए एक भी
सत्य को
जाननेवाला
व्यक्ति हजारों
गिण्डतो के
लिए संकट बन
जाता है। और
कैसा मजा है!
हिन्दू
पण्डित
मुसलमान
पण्डित के
खिलाफ।
मुसलमान
पण्डित ईसाई
पण्डित के
खिलाफ। ईसाई
पण्डित यहूदी
पण्डित के
खिलाफ। यहूदी
.पण्डित पारसी
पण्डित के
खिलाफ। लेकिन
सुकरात जैसे
व्यक्ति कै
संबंध में ये
सारे पण्डित
एक साथ राजी
हो जाते हैं।
यह राजू भरी
बात है!
मेरा
विरोध करने
में हिन्दू
पण्डित।
मुसलमान
पण्डित, जैन
पण्डित, बौद्ध
पण्डित, सिक्ख
पण्डित—सब
राजी। एक बात
पर कम से कम
राजी हैं। मैं
इससे ही खुश
हूं। चलो, मेरे
द्वारा कम से
कम इतना
भाईचारा तो बढ़
रहा है! चलो, मेरे एक मुद्दे
पर इनकी
दुश्मनी तो
मिटी! चलो, इतनी
बात पर तो कम
से कम
इन्होंने
हत्या बढ़ाए; एक दूसरे की
तरफ इकट्ठे हो
हुए।
क्या
राज है? इनकी
एक दूसरे से
जो दुश्मनी है,
वह केवल ओपचारिक
है। वह दो
दुकानदारों
की दुश्मनी है।
वह
प्रतिस्पर्धा
है
दुकानदारों
की। लेकिन
मेरे जैसा व्यक्ति
तो उनकी दोनों
की ही दुकान
की कड़ी को काट
रहा है; एक
साथ काट रहा
है। मेरे
खिलाफ तो वे
दोनो इक्कठे
हो जायेंगे।
—यह छांदोग्य
उपनिषद ठीक
करता है : 'क्योंकि
एक ऊर्जावान
व्यक्ति सौ
विद्वानों को
डराता है, आकंम्पित
कर देता है ....।’
'आकंम्पित'
शब्द डराने से
भी
महत्वपूर्ण
है। उनके
प्राण थरथरा
जाते हैं।
भूकंप आ जाता है।
उनका भवन
गिरने लगता है।
भवन ही उनका क्या
है! ताश के
पत्तों का है उनकी
नाव डूबने
लगती है। नाव
ही कागज की है।
खिलौने से खेल
रहे हैं, और
दूसरों को भी
खिलौनों में
भरमा रहे हैं।
क्या—
क्या मजा चल
रहा है धर्म
के नाम पर!
कैसे—कैसे खेल' चल
रहे हैं? और
कितनी गंभीरता
से चल रहे हैं।
रामलीला
होती है : हर
साल —होती
रहती है! वही
रामलीला— वही
देखनेवाले
लोग! हजारों
बार देख चुके
हैं;
हजारों बार
देख रहे हैं!
एक—एक शब्द
याद है। वह
रामलीला मैं
जो अभिनय कर
रहे हैं, उनको
भी शायद भल
जाये। फार
देखनेवालों
को एक—एक शब्द
याद है। पक्का
पता है कि अब
दशरथ जी क्या
कहेंगे, कि
अब राम जी
क्या बोलेंगे,
कि अब सीता
मैया पर क्या
गुजरेगी! सब
पता है, फिर
भी देख रहे
हैं। और जानते
है भलीभांति
कि यह छोकरा
जो राम बना है,
कोन है।
गांव का ही
छोकरा है। मगर
उसके पैर
पड़ेंगे, फूल—मालाएं
पहनाके। शोभायात्रा
निकलेगी! रामचंद्र
जी की बारात
निकलेगी, और
फूल—माला चढ़ायी
जायेंगी और
पैर छुए
जायेंगे, और
पैर धो— धोकर
लोग पानी
पीयेंगे। और
सबको मालूम है—यह
छोकरा कोन है।
यही गांव का
लफंगा है। यही
इनकी
छोकरियों को
सताता है। मगर
इस समय वे
बातें छेड़ने
की जरूरत नहीं।
अभी मुकुट
बांधे हुए राम
बना बैठा है।
अभी बात और है।
क्या
अभिनय में पड़े
हो?
क्या खेल
खेल रहे हो? बच्चों जैसे
काम! जैसे
बच्चे गुड्डा—गुड्डी
का विवाह करते
हैं, ऐसे
तुम राम और
सीता का विवाह
करवा रहे हो।
मंदिरों
में क्या हो
रहा है? कृष्ण
जी को झूला
झुलाया जा रहा
है! अब बेचारे कृष्ण
जी कुछ कर भी
नहीं सकते।
अगर उनको न भी
झूलना हो.....।
जैसे
मुझे झूलना
पंसद नहीं—बिलकुल
पंसद नहीं!
मुझे बचपन से
ही झूले से नफरत
है। अब पता
नहीं कृष्ण जी
को पसंद था कि
नहीं। उनको
चक्कर भी आ
रहा हो, तो
कोई बात नहीं!
भक्त लोग झूला
झुला रहे हैं,
तो झूलना पड़
रहा है।
और
भक्तों के हाथ
में सब है। जब
लिटा दें, तो
लेट जाओ। जब
उठा दें, तो
उठ जाओ। जब पट
खोलें मंदिर
के, तो खुल
जायें; जब
बंदकर दें, तो बंद हो
जायें! क्या
खेलकर रहे हो!
मूर्तियां
बना ली हैं।
अपनी ही
कल्पना के जाल
हैं सब। कोई
राम को पूज
रहा है, कोई
कृष्ण को पूज
रहा है; कोई
बुद्ध को, कोई
महावीर को!
पत्थर की
मूर्तियां
यूं पूजी जा
रही हैं, जैसे
इनकी पूजा से
तुम्हें सत्य
मिल जायेगा।
क्योंकि
कोई पूछता है
नहीं कि
महावीर ने
किसी की मूर्ति
पूजी थी! यह
पूछना शायद
शिष्टाचार
नहीं।
जैनियों
की एक सभा में
मैंने एक बार
पूछ लिया। वे
बहुत नाराज हो
गये। मैंने
उनसे पूछा कि 'तुम
महावीर की मूर्ति
पूजते हो। तुम
कम से कम यह तो
पता लगाओ कि
महावीर ने कभी
किसी की
मूर्ति पूजी
थी? और जब
महावीर ने ही
नहीं पूजी; तो तुम
महावीर की
मूर्ति पूजकर
महावीर के अनुयायी
नहीं हो—दुश्मन
हो। अगर
महावीर के
सच्चे
अनुयायी हो, तो पूजो मत।’
महावीर
ने तो शिक्षा
दी है—अशरण—
भावना.....। बड़ी
अद्भुत
शिक्षा! किसी
की शरण ही न
जाना। पूजने
का तो सवाल ही
नहीं उठता। क्योंकि
तुम्हारे
भीतर ही बैठा
है परमात्मा, तुम
किसको पूज रहे
हो? खोजो—पूजो
मत। आविष्कार
करो अपने भीतर।
जिसे तुम बाहर
पूज रहे हो, वह बाहर
नहीं है। वह
तुम्हारे
भीतर है। वह
पूजा
करनेवाले में
छिपा है।
खोजनेवाले
में ही खोज का
गंतव्य है।
तुम्हारे
जाननेवाले
में ही वह
छिपा है, जिसे
जानना है।
तो
महावीर ने कहा—अशरण—
भावना। मगर
बड़ा मजा है!
महावीर की गइrतयां
ही शतइrयां
हैं सारे देश
में!
बुद्ध
ने कहा कि 'मुझ
पर मत अटक
जाना। मुझसे
इशारे ले लो।
चलना तो
तुम्हें होगा।
बुद्ध तो केवल
इशारे करते
हैं।’ लेकिन
बस, बुद्ध
की जितनी मूर्तियां
बनीं, किसी
की भी नहीं!
इतनी
मूर्तियां
बनीं कि अरबी
में, उर्दू
में 'मूर्ति'
शब्द के लिए
जो
पर्यायवाची
शब्द है, वह
है 'बुत'! बुत 'बुद्ध'
का ही
अपभ्रंश है, इतनी शतइrयां बनी कि
बुद्ध शब्द ही
बुत का
पर्यायवाची हो
गया, मूर्ति
का
पर्यायवाची
हो गया।
सबसे
पहले बुद्ध की
मूर्तियां
बनीं। और
बुद्ध ने
इनकार किया था
कि 'मेरी बात को
इसलिए मत
मानना कि
मैंने कहा है।
मेरी बात को
तब मानना, जब
तुम जान 'लो।’
और
बुद्ध ने
किसकी मूर्ति
पूजी थी? किसी
की भी मूर्ति नहीं
पूजी थी।
बुद्ध का कसूर
ही यही था।
अगर वे किसी
की मूर्ति पूजे
होते, तो
आज भारत में
हिंदू उनको
अपने सिर पर
धारण करते।
उनकी भी पालकी
निकलती! लेकिन
हिंदुस्तान
से बुद्ध को
हिंदुओं ने
उखाड़ फेंका।
कारण क्या था?
—क्योंकि
बुद्ध ने न
राम को पूजा, न कृष्ण को
पूजा। बुद्ध
ने किसी को
पूजा ही नहीं।
बुद्ध ने
परंपरा को कोई
सहारा न दिया।
बुद्ध ने तो
भीतर के सत्य
को, नग्न
सत्य को वैसा
का वैसा रख
दिया, जैसा
था। लगे किसी
को चोट, तो
लगे।
प्रीतिकर लगे
तो ठीक, अप्रीतिकर
लगे तो ठीक।
सत्य को तो
कहना ही होगा।
स्वभावत:
पंडित
थरथराते हैं।
'बलवान होने
पर ही मनुष्य
उठकर खड़ा होता
है।’ 'बलवान'
शब्द की जगह
हमेशा तुम
पढ़ना 'ऊर्जावान',
तब
तुम्हारे लिए इस
सूत्र का अर्थ
बिलकुल
स्पष्ट हो
जायेगा।’ऊर्जावान
होने पर ही
मनुष्य उठकर
खड़ा होता है।’
तुम कहोगे,
'यह भी क्या
बात हुई! हम सब
तो उठकर खड़े
होते!' यह
कोई उठकर खड़ा
होना नहीं।
तुम्हारी
चेतना तो सोयी
हुई है; तुम
भला खड़े हो
गये हो, मगर
तुम्हारी
चेतना तो
बिलकुल सोयी
हुई है।
जब
ऋषि उठकर खड़े
होने की बात
करते हैं, तो
तुम्हारी
चेतना के खड़े
होने की बात
करते हैं।
वैज्ञानिक
कहते हैं—चार्ल्स
डार्विन और
उनके अनुयायी—कि
बंदर से आदमी
बना। और बनने
में सबसे बड़ा
कारण क्या था? सबसे
बडा राजू क्या
था? क्योंकि
बंदर तो चारों
हाथ —पैर से
चलता है। आदमी
दो पैर पर खडा
हो गया। आदमी
का खड़ा हो
जाना दो पैर
पर, विकास
में सबसे बड़ा
चरण सिद्ध हुआ।
दो पैर पर खड़े
हो जाने के
कारण ही आदमी
और बंदर में जमीन
आसमान का अंतर
हो गया। कहां
बंदर और कहा
आदमी!
आज
तो कोई कहता
भी है कि बंदर
से आदमी पैदा
हुआ,
तो तुम्हें
अपमानजनक
मालूम होता है।
लेकिन क्रांति
घटी सिर्फ
छोटी—सी बात
से कि आदमी का
शरीर साधा खड़ा
हो गया।
सीधा
खड़े होने से
बहुत—से फर्क
पड़ गये। सबसे
बड़ा फर्क तो
यह पड़ा कि जब
जानवर, कोई
भी जानवर, चारों
हाथ पैर से
चलता है, तो
उसके
मस्तिष्क में
खून की मात्रा
ज्यादा पहुंचती
है। इसलिए खून
की अधिक
मात्रा
पहुंचने के
कारण सूक्ष्म
तंतु विकसित
नहीं हो पाते।
खून के बहाव
के कारण' टूट—टूट
जाते हैं।
बनते भी है, तो टूट जाते
हैं।
और
तंतु बहुत
सूक्ष्म हैं
मस्तिष्क के।
तुम्हारे इस
छोटे—से सिर
में सात करोड़
तंतु हैं। बड़े
बारीक हैं, इतने
बारीक हैं कि
तुम्हारा बाल
भी इतना बारीक
नहीं। वैज्ञानिक
कहते हैं कि
अगर मस्तिष्क
के तंतुओं को
एक के ऊपर एक, एक के ऊपर एक
रखा जाये, तो
एक हजार तंतुओं
को रखने से
तुम्हारे बाल
की मोटाई के
बराबर तंतु
बनेगा।
इतने
सूक्ष्म
तंतुओं को जरा
ही खून की गति
ज्यादा हुई कि
वै टूट जाते
हैं। उनके टूट
जाने से
मस्तिष्क
विकसित नहीं
हो पाया
जानवरों का।
आदमी खड़ा हो
गया दो पैर से, इसका
परिणाम सबसे
बड़ा तो यह हुआ
कि गुरुत्वाकर्षण
के विपरीत
होने के कारण
उसके सिर तक
खून कम
पहुंचने लगा।
स्वभावत:, क्योंकि
गुरुत्वाकर्षण
नीचे की तरफ
खींचता है
वस्तुओं को, खून को भी
नीचे की तरफ
खींचता हें—मस्तिष्क
की तरफ खून कम
जाने लगा।
इसलिए
तो तुम बिना
तकिए के रात
में सो नहीं
सकते। अगर
बिना तकिए के
सोओगे, तो
जागे ही रहोगे।
क्योंकि खून
इतना पहुंचता
रहेगा
मस्तिष्क में
कि वह तुम्हें
सोने नहीं
देगा; जगाये
रखेगा; तंतुओं
में हड़बड़ी
मचाये रखेगा।
इसलिए तकिया
चाहिए। तकिया
तुम्हारे सिर
को ऊंचा कर
देता है, शरीर
को सिर से
नीचा कर देता
है, खून कम
पहुंचता है।
खून कम
पहुंचता हैं—तुम
आराम से सौ
पाते हो।
इसलिए
मैं शीर्षासन
के पक्ष में
नहीं हूं।
क्योंकि
शीर्षासन
मस्तिष्क को
निश्चित नुकसान
पहुंचाता है।
और मैंने अभी
तक एक ऐसा
शीर्षासन
करनेवाला व्यक्ति
नहीं देखा, जिसमें
कोई प्रतिभा
हो! बुद्ध
बहुत तरह के
देखे। खोपड़ी
के बल खड़े हुए
लोग बुद्ध ही
हो सकते हैं।
पहले तो बुद्ध
होना ही चाहिए,
तब वे खोपड़ी
के बल खड़े
होंगे। दूसरा
: फिर खोपड़ी के
बल खड़े होने
से और बुद्धपन
पैदा होगा! और
जितनी ज्यादा
देर खड़े होंगे,
उतने बुद्ध
होंगे।
हां, यह.
बात जरूर है
कि उनमें
पशुओं जैसा बल
आ सकता है। क्योंकि
मस्तिष्क के
प्रतिभा के
तंतु तो टूट
जायेंगे, तो
लट्ठ ही लट्ठ
बचेगा।
बुद्धि तो
गयी! तो हो
सकता है शरीर
के लिए तो स्वास्थ्यप्रद
हो, लेकिन
मस्तिष्क के
लिए तो
हानिप्रद है।
और
यह तो पक्की
बात है। बंदर
से जूझकर देख
लो,
तो पता चल
जायेगा। एक
बंदर
पर्याप्त है तुम्हारे
बड़े से बड़े
पहलवान को भी
ठंडा कर देने
के लिए।
विवेकानंद
के पीछे एक
बंदर पड गया
था। बंदर भी
अजीब होते हैं।
कुछ जानवरों
में खूबी होती
है। बंदर और
कुत्तों में खासकर—कि
वर्दीधारियों
के खिलाफ होते
हैं।
पुलिसवाला हो, पोस्टमेन
हो, संन्यासी
हो—वर्दी वाला
दिखा कि
कुत्ते भौंके,
कि बंदर
नाराज हुआ!
विवेकानंद
चले जा रहे
होंगे अपना
लट्ठ लिए—वर्दीधारी!
एक बंदर उनके
पीछे हो लिया।
उन्हें
डरवाने लगा।
विवेकानंद
घबड़ाये। यूं
तो बहादुर
आदमी थे। पूरे
—पूरे 'क्षत्रिय'
तो नहीं, मगर 'खत्री'
तो थे ही! अब
तुम पूछोगे — 'क्षत्रिय' और 'खत्री'
में क्या
भेद होता है?
भेद
भारी है। सच
तो यह है 'क्षत्रिय'
अब दुनिया
में कोई नहीं;
खत्री ही
खत्री हैं।
क्योंकि
क्षत्रिय तो
परशुराम ही
खतम कर गये!
तुमने
कहानी तो पढ़ी
है कि परशुराम
ने अठारह बार
पृथ्वी को
क्षत्रियों
से खाली कर
दिया। सारे
क्षत्रिय मार
डाले—अठारह
बार,
एक बार भी
नहीं! मगर फिर
भी क्षत्रिय
तो हैं। तो ये
क्षत्रिय
कहां से आये? ये 'खत्री'
हैं! खत्री
का मतलब यह
होता है कि ये
पूरे —पूरे
क्षत्रिय
नहीं हैं।
उन
पुराने दिनों
में ऋषि—मुनियों
से यह काम
लिया जाता था।
इसलिए तो
तुमको लोग
कहते हैं—'ऋषि—मुनियों
की संतान!' क्योंकि
जब परशुराम ने
सारे
क्षत्रिय मार
डाले तो अब
क्या करना? स्त्रियों
को तो मार
नहीं सकते थे
परशुराम। वह
जरा उनको 'हेटा'
काम मालूम
पड़ा होगा—कि
क्या
स्त्रियों को
मारना! तो
ब्राह्मणियां
तो बच गयीं।
विधवाएं बच गयीं।
उस
समय का यह
नियम था कि
अगर कोई विधवा
या कोई भी
स्त्री जिसको
बच्चे पैदा न
होते हों, किसी
कारण से, वह
ऋषि—मुनियों
से जाकर
प्रार्थना
करे तो वे
दयावश बाल—बच्चे
पैदा करवा
देते थे। उनका
काम वही था, जो कि हम
शिवजी के नंदी
से लेते हैं!
ऋषि—मुनि थे, समाज की सेवा
ही उनका कार्य
था। परोपकार
के लिए ही
जीते थे!
सो
खत्री यानी
ऋषि—मुनियों
की संतान!
विवेकानंद
खत्री थे; पक्के
खत्री थे।
डंडा लिए और
अकड़कर चले जा
रहे! वह डंडा—और
अकड़ आदमियों
को प्रभावित
करे भला, बंदरों
को नाराज कर
देती है। एक
बंदर पीछे हो
लिया। वह
डरवाने लगा।
विवेकानंद को
घबड़ाहट लगी!
एकांत था। यूं
तो
ब्रह्मज्ञानी
थे कि सब
संसार माया है।
मगर यह बंदर!
बहुत मन में
दोहराया. 'ब्रह्म
सत्य, जगत
माया', मगर
यह बंदर —वह
एकदम पीछे ही
पड़ा हुआ था।
वह करीब ही
आता जा रहा था।
सो वे भागने
लगे। वहां कोई
था भी नहीं
देखनेवाला।
भागे, तो
बंदर को और
मजा आ गया! तो
बंदर भी भागने
लगा। दो—चार
बंदर और झाड़ों
से उतर आये।
उन्होंने कहा,
'अच्छा, अरे
तमाशा जब हो
रहा हो.....।
विवेकानंद के
तो छक्के छूट
गये। रास्ता
लंबा, पहाड़ी
का रास्ता—हिमालय
की यात्रा पर
गये थे। यह
नहीं सोचा था
कि यह झंझट होगी।
गये थे ब्रह्म—दर्शन
को, और ये
मिल गया बंदर!
एकदम
से खयाल आया
कि ऐसे भागने
में तो झंझट
है। और बंदर
उतरते आ रहे
हैं झाडों से!
ऐसे अगर भागते
रहे,
तो थोड़ी देर
में ये लोग
मुसीबत कर
देंगे। अब तो
कुछ करना
पड़ेगा। तो
रुककर खड़े हो
गये। लौटकर
खड़े हो गये
डंडा टेककर, कि अब जो कुछ
होगा—होगा।
कड़ी कर ली
हिम्मत। संयम
साधा। मंतर—तंतर
पढ़ा होगा!
स्मरण किया
होगा कि हे
परमहंस रामकृष्ण
देव! अरे, अब
तो काम आओ! ये
दुष्ट बंदर, और अपने
वाले—लाल मुंह
वाले! काले
मुंह बंदर
होते, तो
भी ठीक था—कि
रावण के भक्त
हैं, चलो, कोई बात
नहीं! मगर
अपने वाले, रामजी के
सेवक, हनुमान
जी के वंशज—ये
इस तरह की
हरकत कर रहे
हैं! कलियुग
बिलकुल निश्चित
आ गया है!
मगर
वे खड़े हुए
डंडा टेककर, तो
बंदर भी रुक
गये, बंदर
होते हैं
नकलची, उन्होंने
देखा—ये आदमी
रुक गया, वे
भी रुक गये।
तब जरा
विवेकानंद की
हिम्मत बढ़ी। विवेकानंद
जरा दो कदम
उनकी तरफ बढ़े,
तो बंदर जरा
पीछे हटे।
विवेकानंद
जरा डंडा
बजाकर उनके
पीछे भागे, तो बंदर
भागे।
तो
विवेकानंद ने
अपने
संस्मरणों
में लिखा है कि
उस दिन मुझे
समझ में आया
कि भागने से
कोई सार नहीं।
मुसीबत आये तो
टिककर सामना
ही कर लेना
ठीक है, मुसीबत
की चुनौती
स्वीकार कर
लेना ठीक है।
चार्ल्स
डार्विन और
उनके अनुयायी
कहते हैं कि
मनुष्य
विकसित हुआ, क्योंकि
खड़ा हुआ—शरीर
की दृष्टि से।
एक तो
मस्तिष्क को
खून कम मिला; उससे
सूक्ष्म तंतु
विकसित हुए।
दूसरा.
उसके दो हाथ
मुक्त हो गये—चलने
के काम से।
उन्हीं दो
हाथों से सारी
संस्कृति
विकसित हुई है।
फिर आदमी के
दो हाथ मुक्त
हो गये, तो
कुछ भी करने
की सुविधा हो
गयी—चित्र
बनाये, झूइrत बनाये, मकान
बनाये, जयराम
जी करे, हाथ
मिलाये, गले
मिले।
सारी
संस्कृति, सारी
सभ्यता उन दो
हाथों का खेल
है। अब वे
चलने में ही
उलझे रहते, तो यह विकास
नहीं हो सकता
था। फिर विकास
होते—होते बात
बढ़ती चली गयी—विज्ञान
खोजा, यंत्र
बने। आदमी के
हाथ खाली थे, उनके लिए
काम चाहिए था।
तो
मनुष्य का
सारा विकास
शरीर के सीधे
खड़े होने से
है। लेकिन उपनिषद
के ऋषि कहते
हैं. अगर शरीर
के सीधे खड़े होने
से इतना विकास
हुआ,
तो जिस दिन
तुम्हारी
चेतना भी सीधी
खड़ी हो जायेगी,
उस दिन
कितना विकास न
होगा!
यह
सूत्र बड़ा
प्यारा है:
'स यदा बली
भवति
अथोत्थाता
भवति'
—बलवान होने
पर मनुष्य
उठकर खडा हो
जाता है।
चेतना उसकी
खड़ी हो जाती
है, जैसे
ज्योति आकाश
की तरफ उठने लगे,
ऐसी उसकी
चेतना
ऊर्ध्वगामी
हो जाती है।
और जिसकी
चेतना
ऊर्ध्वगामी
है—अथोत्थाता
भवति—जो
ज्योति की तरह
ऊपर की तरफ
बढ़ा जा रहा है,
उसी के जीवन
में ये सारी
अद्भुत
घटनाएं घटती हैं।
'उत्तिष्ठन
परिचारिता
भवति।’
ऐसी
जिसकी चेतना
ऊपर की तरफ
उठने लगी, वही
गुरु के सान्निध्य
को उपलब्ध हो
सकता है।
क्योंकि गुरु
वह है, जो
ऊपर जा चुका।
उससे संबंध
उन्हीं का हो
सकता है, जो
स्वयं भी ऊपर
की तरफ जाने
लगें, कुछ
तो समानता
होनी चाहिए।
कम से कम दिशा
की समानता
होनी चाहिए।
तुम
नीचे की तरफ
जा रहे हो तो
फिर कैसे गुरु
से मिलन होगा?
उठने
पर वह गुरु की
सेवा करता है।
यह 'सेवा' शब्द
तुम्हें किसी
भांति में न
डाल दे। यह
जरा खयाल रखना।
'उत्तिष्ठर
परिचारिता
भवति।’
इस
देश में हमने 'सेवा'
के बड़े और
अर्थ लिए थे।
जब से ईसाइयत
देश में आयी, तब से सेवा
का अर्थ
बिलकुल विकृत
हो गया। सेवा
का जो सौंदर्य
था, वही
नष्ट हो गया।
सेवा बड़ी और
चीज हो गयी।
इसलिए अच्छा
हो कि दो
शब्दों का
प्रयोग अलग —
अलग करो — 'परिचर्या'
और 'सेवा'।
'परिचारिता
भवति।’
वह
गुरु की सेवा
में संलग्न हो
सकता है—जिसकी
चेतना उठकर
खड़ी हो गयी।
हम
इस देश में
सेवा उनकी
करते थे, जो
हमसे ऊपर हैं।
ईसाइयत ने
सेवा का एक
नया रूप इस
देश में प्रवेश
करवाया. सेवा
उनकी करनी, जो हम से
नीचे हैं।
सेवा करनी है
दरिद्र की, दीन की, बीमार
की, दुखी
की। सेवा करनी
है कोढ़ी की, केंसर के
मरीज की, सेवा
करनी है—अनाथों
की, विधवाओं
की, वृद्धों
की। कुछ बुराई
नहीं इस सेवा
में। लेकिन यह
सेवा सामाजिक
घटना है। यह
सेवा धार्मिक
घटना नहीं है।
इसलिए
मैं कलकत्ता
की मदर टेरेसा
को कोई धार्मिक
व्यक्ति नहीं
मानता। धर्म
से क्या लेना—देना
है! सामाजिक
सेवा है।
अच्छा काम है।
ठीक है किसी
अनाथ बच्चे को
पाल लेना।
बुरा काम तो
निश्चित ही
नहीं है। अच्छा
काम है। लेकिन
इससे कुछ धर्म
नहीं
होनेवाला है।
धर्म
तो तब घटता है, जब
तुम उसके चरण
पकडते हो, जो
तुमसे ऊपर है।
जो तुमसे नीचे
है, उसके
चरण पकड़ोगे, इससे तो
अहंकार ही
बढ़ेगा। जब
तुमसे जो ऊपर
है, उसके
चरण पकड़ोगे, तो अहंकार
गिरेगा।
जो
तुमसे ऊपर है, वही
तुम्हें ऊपर
की तरफ ले जा
सकता है। इसको
परिचर्या
कहें हम। छांदोग्य
कहता है :
'क्ष—त्ति
ष्ठन्
परिचारिता
भवति—
जिसकी
चेतना उठकर
खड़ी हो गयी, वह
गुरु की सेवा
करता है। गुरु
की!
सेवा
तो हम इस देश
में सिर्फ
गुरु की करते
थे,
और किसी की नहीं।
सेवा गुरु की
ही हो सकती है।’गुरु' शब्द
का अर्थ होता
है, अंधकार
को
मिटानेवाला।
सेवा उसकी ही
करनी है, जिसका
अंधकार मिट
गया हो, ताकि
हमारा अँधकार
मिट सकै। अरे,
उस दीये के
करीब आओ, जो
जल चुका है, ताकि
तुम्हारी
बुझी ज्योति,
तुम्हारा
बुझा दिया, तुम्हारी बुझी
बाती भी सुलग
उठे।
'सेवा करने
से वह गुरु के
पास बैठने
योग्य बनता है।’
क्या लाभ
होगा गुरु की
सेवा का? —उसके
पास बैठने की
योग्यता
आयेगी।
समर्पण से
योग्यता आती
है। गुरु के
पास बैठना इस
जगत का अभूततम
अनुभव है, अपूर्व
अनुभव है।
'परिचरन्
उपसत्ता भवति।’
उपसत्ता—सिर्फ
पास बैठना ही
नहीं। जब तुम
गुरु के पास
बैठते हो, तो
किसी अर्थों
में गुरु की
सत्ता से
आच्छादित हो
जाते हो; उसकी
आभा से मंडित
हो जाते हो।
उसकी तरंगों
में डूब जाते
हो। जैसे कोई
नदी में स्नान
करता है, शीतल
जल में, तो
शीतल हो जाता
है। ऐसे ही
गुरु के पास
भी एक शीतल
उर्जा है। वह
स्वयं शीतल
हुआ है। वह
स्वयं शांत
हुआ है, मौन
हुआ है—कि
उसके पास एक
सरोवर है। तुम
उसमें डुबकी
लगाओ। यही
गंगा—स्नान है।
यही वस्तुत:
तीर्थ—स्नान
है।
गुरु
के पास होना
ही तीर्थ में
होना है। और
गुरु को जिसने
पा लिया उसने
तीर्थंकर को पा
लिया।
उसकी
सत्ता
आच्छादित
करने लगती है
तुम्हें।
जैसे कि तुम
निकलोगे—रात
रानी के फूल
खिले हों, उनके
पास से—सिर्फ
पास से गुजर
जाओगे या थोड़ी
देर खडे हो जाओगे,
तो तुम चकित
होओगे। दूर भी
निकल आये, फिर
भी तुम्हारे
वस्त्रों के
साथ लिपटी हुई
रातरानी की
गंध चली आयी है।
घर भी पहुंच
गये, लेकिन
गंध की कोई
स्मृति तुमको
अब भी आच्छादित
किये हुए हैं,
.अब भी
तुम्हारे
नासापुटों को
भरे हुए है।
ऐसे
गुरु के पास
जो बैठेगा, वह
गुरु की सत्ता
से आच्छादित
होता है।
'उपसीदर
द्रष्टा भवति—,
और
पास बैठने से
द्रष्टा बनता
है।’
उपसीदन् 'शब्द से ही उपनिषद
बना है।
उपसीदन् यानी
पास बैठना।
यह
जानकर तुम
हैरान होओगे
कि उपसीदन्
शब्द से उपनिषद
निर्मित हुआ। उपनिषद
का अर्थ है :
गुरु के पास
बैठकर जो पाया, पास
बैठ—बैठकर जो
मिला। कभी
बोलने से मिला।
कभी न बोलने
से मिला। कभी
गुरु को देखने
से मिला; कभी
गुरु के पास आंख
बंद करने से
मिला। कभी
गुरु के उठने
से मिला। कहना
कठिन है।
मगर
गुरु के पास
होने पर अनेक—अनेक
रूपों में
मिलता है।
अनेक—अनेक तरह
से सँग बैठता
है,
संगीत
बैठता है। तार
छिड़ने लगते
हैं वीणा के।
कुछ
शब्द इसी के
जैसे हैं।’उपासना'
—उपासना का
भी वही अर्थ
होता है—पास
बैठना; उप—
आसन। तुम अगर
सोचते हो कि
तुम जाकर
मंदिर में और
परमात्मा की
उपासना कर रहे
हो, तो तुम
गलती में हो।
जब तक तुम
जीवित गुरु के
पास न बैठोगे—उपासना
का अर्थ ही न
जानोगे। वहा
तो पत्थर की
मूर्ति है।
उसके पास बैठ—बैठकर
तुम भी पत्थर
हो जाओगे।
पत्थर हो ही
गये हो।
इस
देश में जितने
पाषाण हैं, शायद
कहीं और न
होंगे।
क्योंकि
पत्थरों के
पास बैठकर और
होगा क्या! तुम
भी पत्थर जैसे
ही कठोर हो
जाओगे।
तुम्हारे
भीतर से भी
करुणा खो
जायेगी, प्रेम
खो जायेगा। रस
सूख जायेगा।
जरा सोच समझकर
बैठना—किसके
पास बैठते हो।
क्योंकि
जिसके पास
बैठोगे, वैसे
ही हो जाओगे।
सदा
अपने से ऊपर
को खोजना। और
खयाल रहे : मन
चाहता है—सदा
अपने से नीचे
को खोजना।
क्योंकि जब
तुम अपने से
नीचे आदमी के
पास बैठते हो, तो
तुम्हारे
अहंकार को
तृप्ति मिलती
है कि 'अहा,
मैं कितना
बड़ा!' इसलिए
राजनेता
चमचों से घिरे
रहते हैं, 'चमचों'
का अर्थ है :
जिनके पास
बैठकर उनको
लगता है कि मैं
कितना महान!
छोटे—छोटे
आदमी, कीड़े—मकोड़ों
की तरह उनके आसपास
घूम रहे हैं; खुशामद कर
रहे हैं। तो
उनको रस आता
है।
अहंकार
की इच्छा यही
होती है कि
सदा अपने से छोटे
को खोजो।
क्योंकि छोटे
के सामने
तुलना में तुम
बडे मालूम
होते हो।
और
गुरु के पास
बैठना यूं है, जैसे.
ऊंट पहली दफे
हिमालय के
पास. आये!
इसलिए अकसर
ऊंट पहाड़ों के
पास नहीं पाये
जाते; मरुस्थलों
में पाये जाते
हैं! उन्होंने
भी खूब चुना
है. मरुस्थलों
में रहते हैं,
तो वहां
पहाड़ मालूम
होते हैं!
स्वभावत:
मरुस्थल में
ऊंट ही सबसे
ऊंची चीज है।
उससे ऊंचा और
क्या!
जब
ऊंट पहाड़ के
पास आता है, तब
उसको बेचैनी
होती है, अड़चन
होती है। पहले
तो वह कहता है——पहाड—वहाड़
कुछ नहीं; सब
कल्पना है; सब झूठ है।
पहले तो इनकार
करता है, खंडन
करता है, विरोध
करता है।
क्योंकि उसके
अहंकार को चोट
लग रही है।
गुरु
के पास आकर भी
अड़चन खड़ी होती
है। आकर भी
लोग चूक जाते
हैं। एक सज्जन
ने मुझे लिखा
है कि 'मैं
आपको अपने
मित्र की तरह
मानने को राजी
हूं!'
बड़ी
कृपा! मुझे
कोई अड़चन नहीं।
यह भी मेरा
सौभाग्य! मैं
तो इसको भी
सौभाग्य
मानता हूं कि
जब कोई मुझे
अपना शत्रु भी
मान लेता है।
यह भी क्या कम!
कुछ तो माना।
उपेक्षा तो न
की।
चलो
बड़ी कृपा कि
मित्र की तरह
मुझे मानने को
तैयार हो।
लेकिन चूक
जाओगे। मुझे
कुछ हर्ज न
होगा, मगर
तुम्हें हर्ज
हो जायेगा।
उपासना न हो
पायेगी।
और
मित्र ही
मानना है, तो
कहीं भी मिल
जायेंगे
मित्र। इतनी
दूर आने की क्या
जरूरत? मित्रों
की कोई कमी है!
यार—दोस्तों
की कोई कमी है!
एक खोजो हजार
मिलते हैं। मत
खोजो, तो
तुम्हें
खोजते हुए चले
आते हैं!
इतने
दूर—वें सज्जन
कलकत्ता से
यहां आये हैं।
बड़ा कष्ट किया।
कलकत्ते में
कोई मित्रों
की कमी है? लेकिन
उन्होंने ऐसा
लिखा है, जैसे
मुझ पर बड़ी
कृपा कर रहे
हैं; अनुकंपा
कर रहे हैं!
बड़ा
दयाभाव प्रकट
किया है कि 'आपको
मित्र— भाव
में स्वीकार
कर सकता हूं!' लेकिन उनको
शायद खयाल भी
न हो, शायद
चेतना में
उनके बात भी न
हो कि यह
उपासना को
इनकार करना है।
मैं
तो राजी हूं—जिस
भाव में
स्वीकार करो।
मेरा क्या
बनता—बिगड़ता
है! मित्र तो
मित्र! शत्रु
तो शत्रु! कुछ
नहीं, तो कुछ —नहीं!
न मेरा कुछ
खोता है, न
मुझे कुछ
मिलता है। न
मुझे कुछ लेना,
न मुझे कुछ
देना। जो कुछ
होना है, तुम्हारा
है।
उपासना
शब्द का अर्थ
मंदिर की पूजा
नहीं है। वह
भी गुरु के
पास बैठना है।
और वही उपवास
शब्द का भी
अर्थ है।
उपवास का भी
अर्थ होता है, पास
निवास करना, पास वास
करना। वह भी
गुरु के पास
ही हो सकता है।
'अनशन' उपवास,
नहीं है।
भूखे मरना
उपवास नहीं है।
हां, गुरु
के पास ऐसी
तल्लीनता से
बैठना कि न
भूख याद रहे, न प्यास याद
रहे'। भूख
भूल जाये, प्यास
भूल जाये। कुछ
भी याद न रहे।
शरीर भी भूल
जाये, यूं
बैठने का नाम
उपवास है।
गुरु के पास
यूं बैठने का
नाम उपवास है।
और ऐसी उपासना
में, ऐसे
उपवास में जो
सुन पड़ेगा, जो समझ आ
जाएगा, जो
किरण तुम्हारे
प्राणों में
उतर जायेगी, वही उपनिषद
बन जाती है। उपनिषद
का अर्थ है, पास बैठकर
जो पाया।
'उत्तिष्ठर
परिचारिता
भवति परिचरर
उपसत्ता भवति
उपसीदर
द्रष्टा भवति।’
और
जो पास बैठेगा, उसे
आंख मिलती है;
वह द्रष्टा
हो जाता है।
उसे नजर मिलती
है देखने की—अपने
को देखने की।
और सब देखने
की नजर तो
तुम्हारे पास
है। बस, अपने
को देखने की
नजर नहीं है।
और सब तो तुम
देख लेते हो, अपने से चूक
जाते हो!
'गुरु के पास
बैठने से
द्रष्टा बनता
है, श्रोता
बनता है।’ ये
बहुमूल्य
शब्द हैं।’ श्रोता' का
अर्थ इतना ही
नहीं होता है
कि तुमने सुन
लिया। सुनते
तो सभी हैं, मगर सभी
श्रोता नहीं
होते। सुनते
सभी हैं, सभी
'श्रावक' नहीं होते।
सुन
तो कोई भी
लेता है, जिसके
पास कान हैं।
लेकिन एक कान
से गयी बात, और दूसरे
कान से निकल
जाती है! अगर
तुम पुरुष हो
तो, एक कान
से जाती है, दूसरे कान
से निकल जाती
है! अगर
स्त्री हो, तो दोनों
कान से जाती—और
मुंह से निकल
जाती है! मगर
निकल जाती है!
रुकती नहीं, अटकती नहीं,
ठहरती नहीं।
ठहर
जाये—हृदय में
उतर जाये। और
हृदय में तभी
उतर सकती है, जब
तर्क से न
सुनी जाये, वितर्क से न
सुनी जाये, विवाद से न
सुनी जाये, जब संवाद
घटित हो, जब
संगीत बजे, तब शिष्य और
गुरु के हृदय
एक साथ धडकते
हैं; जब
उनके बीच कोई
भेद नहीं रह
जाता, जब
अभेद सधता है—तब
व्यक्ति
श्रोता बनता
है, सुनता
है, देखता
है; पहली
बार देखता है।
और हिंदी में
अनुवाद ठीक
नहीं किया
तुमने। तुमने
लिखा सहजानंद,
'मनन
करनेवाला
बनता है।’ नहीं,
'मता' शब्द
ठीक है। वह
तुम देखो।
खयाल करो मूल
में।
'उपासीदर
द्रष्टा भवति
श्रोता भवति
मता भवति।’ सुननेवाला
नहीं बनता, श्रोता बनता
है।
देखनेवाला
नहीं बनता, द्रष्टा
बनता है। मनन
करनेवाला
नहीं बनता, मता बनता है।
फर्क क्या है?
मनन
तो सभी करते
हैं,
लेकिन मनन
हमेशा किसी और
चीज का किया
जाता है—किसी
विषय का किया
जाता है।
दर्शन तो सभी
को होता है, लेकिन किसी
और चीज का
होता है।
श्रवण तो सभी
करते हैं। कान
हैं तो सुन
लेते हैं, आंख
हैं, तो
देख लेते हैं।
मन है, तो
मनन कर लेते
हैं। लेकिन यह
कुछ और बात है।
द्रष्टा—श्रोता—मता—बाहर
से इसका संबंध
नहीं है। आंख
भीतर मुड़ जाये—तो
द्रष्टा।
श्रवण भीतर
मुड़ जाये—तो
श्रोता। और
मनन भीतर मुड़
जाये—तो मंता
यह अंतर
यात्रा है।
और
जब यह तीन
घटनाएं घटती
हैं,
तो इन तीन
घटनाओं का
इकट्ठा जो
अर्थ है, वह
है—बुद्ध।’बुद्ध
बनता है— बोद्धा
भवति।’
और
जो बुद्ध बन
गया,
उसके जीवन
में पहली दफा
कर्त्तव्य
पैदा होता है— 'कर्ता भवति।’
बड़ा अनूठा
सूत्र है।
पूरा विज्ञान
आ गया—जीवन क्रांति
का। जीवन
रूपांतरण की
सारी सीढ़ियां
आ गयीं और बड़े
क्रम से आयीं,
बड़ी
व्यवस्था से
आयीं।
तुम
भी कर्म करते
हो,
लेकिन तुम
कर्ता नहीं हो।
तुम्हारा
कर्म असल में
कर्म नहीं
कहना चाहिए—उपकर्म
कहना चाहिए; एक्शन नहीं —रिएक्शन।
किसी
ने गाली दी, तो
तुमने गाली दी।
इसको कर्म
नहीं कहना
चाहिए। यह
प्रतिकर्म है।
न वह गाली
देता, न
तुम गाली देते।
उसने गाली दी,
तो उसकी प्रतिक्रिया
हुई तुम्हारे
भीतर। तुमने
भी गाली दी।
और उसने
प्रशंसा की—तुम्हारे
भीतर
प्रतिक्रिया
हुई; तुमने
भी प्रशंसा की।
मालिक वह है।
उसने चाबी
चलायी। उसने
बटन दबायी, तुम्हारा
पंखा बन्द हो
गया। तुम
मालिक नहीं हो।
इसलिए तुम
कर्ता नहीं हो।
हां, क्रिया
हो रही है, मगर
क्रिया तो
बिजली के पंखे
से भी होती है।
तुम बिजली के
पंखे को
कर्त्ता नहीं
कह सकते।
तुम
बटन दबाओ, और
बिजली का पंखा
कहे कि 'आज
नहीं! आज तो
छुट्टी का दिन
है। कि आज तो
जवाहरलाल का
जन्मदिन है।
झूला झूले
जवाहरलाल! आज
हम काम— धाम
करेंगे नहीं।
नहीं, तुम
बटन दबाते हो,
पंखे को
चलना ही पड़ता
है।
कोई
तुम्हें गाली
दे और तुम कहो
कि 'आज नहीं भाई।
आज छुट्टी पर
हैं। कल आना।’
तो कुछ
मालकियत पता
चलेगी। उसने
गाली दी, तुम
भनभना गये।
भूल ही गये
छुट्टी—वुट्टी।
उठा लिया डंडा।
याद ही नहीं
रही कि आज
छुट्टी का दिन
है, कि आज
विश्राम करने
की तय की थी, कि आज सोचा
था—अनहद में
विश्राम
करेंगे! और यह
उपद्रवी आ गया।
तुम
कर्त्ता नहीं
हो,
प्रतिकर्त्ता
हो।
बुद्ध
को किसी ने
गाली दी।
बुद्ध ने सुना
और कहा कि 'अगर
बात पूरी हो
गयी हो तो मैं
जाऊं! क्योंकि
मुझे दूसरे
गांव पहुंचना
है। लोग
प्रतीक्षा
करते होंगे।’
गाली
देनेवालों ने
कहा कि ' हमने
गालियां दी
हैं। यह कोई
बात नहीं!'
बुद्ध
ने कहा, 'तुम्हारी
तरफ से
गालियां
होंगी। मेरी
तरफ से तो बात
ही है। तुमने
कहीं, मैंने
सुनी। लेकिन
मुझे इसमें
कुछ रस नहीं
है।
लोगों
ने कहा, 'यह
क्या बात कह
रहे हैं आप!
हमने ऐसी कठोर
गालियां दीं।
आपको कुछ रस
नहीं!'
बुद्ध
ने कहा, 'अगर
रस का मजा
लेना था, तो
दस साल पहले
आना था। तब
मेरी तलवार
खिंच जाती। तब
तुम्हारी
गर्दन जमीन पर
पड़ी होती। तब
यहां लहू बह
जाता। मगर बड़ी
देर करके तुम
आये। अब मैं
अपना मालिक
हूं। अब तुम्हारी
गाली देने से
मैं परिचालित
नहीं होता।
'अभी पिछले
ही गांव में
कुछ लोग
मिठाइयां
लेकर आये थे।
और मैंने उनसे
कहा, मेरा
पेट भरा है।
मैं तुमसे
पूछता हूं :
उन्होंने
मिठाइयों का क्या
किया होगा?'
एक
आदमी ने भीड़
में से कहा, 'क्या
किया होगा! घर
ले गये होंगे।
बच्चों को
बांट दी होंगी।’
बुद्ध
ने कहा, 'वही
तो मुझे तकलीफ
हो रही है, कि
अब तुम क्या
करोगे! तुम
गालियां लाये,
मैं कहता
हूं मैं लेता
नहीं। मेरा
पेट भर चुका।
अब तुम क्या
करोगे? ले
जाओ भाई!
बच्चों को
बांट देना।
पत्नी को दे
देना। भाई
बन्धुओं को
बांट देना!
मैं तो नहीं
लेता। तुम
देते हो, यह
तुम्हारी
मस्ती।
धन्यवाद! मगर
मैं लेता नहीं।
और जब तक मैं न
लूं तुम मुझे
कैसे दे सकते
हो! मालिक हूं
मैं अपना।
यह
सूत्र कहता
है. पहले
व्यक्ति
द्रष्टा बनता—गुरु
के पास बैठकर।
श्रोता बनता, मन्ता
बनता, फिर
बुद्धत्व को
उपलब्ध हो
जाता। यह
त्रिकोण पूरा
हो गया कि
बुद्धत्व
घटित हो जाता
है। और तब
कर्त्ता बनता
है। सिर्फ
बुद्ध ही
कर्त्ता होते
हैं।
और
जो कर्त्ता बन
गया,
वही
विज्ञानी है।
उसने ही जानने
योग्य जो है, उसे जाना।
उसने अपने को
जाना। अपने को
जाना, तो
सब जाना।
सहजानंद, मैं
तुम्हारी तकलीफ
समझता हूं।
तुम्हें यह
सूत्र अजीब
लगा। क्योंकि
विज्ञान के
विरोध से शुरू
होता है—और
विज्ञानी की
प्रशंसा पर
पूर्ण होता
है!
मगर
विज्ञान है—पर
को जानना। और
विज्ञाता
होना है, स्व
को जानना।
विज्ञान है, साइंस; विज्ञाता
है धर्म। और
यह बीच की
सारी सीढ़ियां
समझने योग्य
हैं—बहुमूल्य
हैं।
मगर
हम अपने ही
ढंग से समझते
हैं तो हमें
कीमती से
कीमती बातें
भी अजीब सी
लगने लगती हैं।
हमारी भी
मुसीबत है।
सेठ
चंदूलाल ने
अपने मित्र
ढब्यू जी से
कहा,
'मेरे दात
में बहुत दर्द
है। ढब्यू जी
क्या करूं?'
ढब्यू
जी ने कहा, 'कुछ
करने की जरूरत
नहीं। मेरे भी
दात में एक
बार ऐसा दर्द
हुआ था। मैं
अपने घर गया
और मेरी पत्नी
के एक चुम्बन
मात्र से ही
सारा दर्द खतम
हो गया। इसलिए
मेरी मानो और
जैसा मैंने
किया, वैसा
करो!'
सेठ
चंदूलाल बोले, 'बात
तो बिलकुल ठीक
है। लेकिन
क्या
तुम्हारी
पत्नी इस बात
के लिए राजी
हो जाएगी!'
मुल्ला
नसरुद्दीन
बेटा फजलू से
कह रहा था, 'पापा,
मैं पढ़ी —लिखी,
बुद्धिमान,
कुशल, सुशील
और सुंदर लड़की
से शादी करूंगा।
नसरुद्दीन
ने कहा, 'मतलब!
फजलू पांच
लड़कियों से एक
साथ शादी करना
चाहते हो!'
एक स्त्री
ने किसी फोटोग्राफर
से मेले में
पूछा, बच्चों
की फोटो किस
रेट से उतारते
हो!' फोटोग्राफर
ने कहा, 'दस
रुपये में
बारह!'
'तब तो मैं
बाद में आऊंगी।’
फोटोग्राफर
ने कहा।’ क्यों?
'
उसने कहा, ' अभी
तो मेरे दो
बच्चे हैं!'
समझने के
ढंग! अपनी —
अपनी समझ!
एक युवती
जैसे ही नदी
में कूदने को
थी कि चौकीदार
ने उसे टोक
दिया, रोक
दिया। बोला कि,
'नदी में
नहाने की
मनाही है।’ युवती ने
गुस्से में
कहा, 'जब
मैं कपड़े उतार
रही थी, तभी
तुमने यह बात
क्यों न बतायी?'
चौकीदार
बोला, 'सिर्फ
नहाने की
मनाही है, कपड़े
उतारने की
नहीं!'
एक
डाकखाने के
पोस्टमास्टर
छुट्टी लेकर
अपने घर आराम
कर रहे थे।
बाहर से
पोस्टमैन ने
आवाज दी, 'बाबूजी,
रजिस्ट्री
ले
पोस्टमास्टर
साहब कमरे के
अंदर से ही आंखें
मूंदे
चिल्लाकर
बोले, 'अरे
कमबखत! आज तो
मुझे चैन से
रहने दे। मैं
छुट्टी पर हूं।
वे बेचारे
अपने दफ्तर
में ही अपने
को समझ रहे थे!
समझ
तुम्हारा
पीछा नहीं छोड़ती।
वह हमेशा खड़ी
है वहा—और
प्रत्येक चीज
की व्याख्या
करती रहती है।
एक अत्यंत
सुंदर
नवयुवती ने एक
नवजवान भिखारी
को पेटभर खाना
खिलाकर कहा, 'और
कुछ?' भिखारी
ने कहा, 'जीसस
का वचन याद
करो : मनुष्य
केवल रोटी के
लिए ही नहीं
जीना चाहता
है!'
किसी गुफा
में तीन साधु
ध्यानमग्न
बैठे थे। एक
दिन उधर से
शेर गुजरा। छह
महीने बाद एक
साधु बोला, 'कितना
सुंदर शेर थ।’
एक साल बाद
एक साधु बोला, 'वह
शेर नहीं चीता
था!'
दो साल बाद
तीसरा साधु
बोला, 'यदि
तुम दोनो इसी
प्रकार लड़ते—झगड़ते
रहे तो मैं
किसी दूसरे
स्थान पर चला
जाऊंगा!'
'अनहद में
बिसराम' प्रवचनमाला
से
दिनांक
17 नवम्बर 1980; श्री
रजनीश आश्रम
पूना
thank you guruji
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