दिनांक
5 अगस्त, 1978;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
सूत्र:
बौरे, जामा
पहिरि न
जाना।
को
तैं आसि
कहां ते आइसि, समुझि न
देखसि ज्ञाना।।
घर
वह कौन जहां
रह बासा, तहां
से किहेउ पयाना।
इहां
तो रहिहौ
दुई—चार दिन, अंत
कहां कहं
जाना।।
पाप—पुन्न
की यह बजार है, सौदा
करु मन
माना।
होइहि
कूच ऊंच नहिं जानसि, भूलसि
नाहिं हैवाना।।
जो
जो आवा रहेउ
न कोई, सबका
भयो चलाना।
कोऊ फूटि टूटि
गारत मा, कोउ
पहुंचा
अस्थाना।।
अब
कि संवारि
संभारि बिचारि ले, चूका
सो पछिताना।
जगजीवन
दृढ़ डोरिलाइ
रहु, गहि मन
चरन अडाना।।
पैयां पकरि मैं लेहुं मनाय।।
कहौं कि तुम्हहीं
कहं मैं जानौं, अब
हौं तुम्हरी
सरनहिं
आय।
जोरी
प्रीत न तोरी कबहूं, यह
छबि सुरति बिसरि
नहिं जाय।।
निरखत रहौं निहारत
निसु—दिन, नैन
दरस—रस पियौं
अघाय।
जगजीवन के समरथ तुमहीं, तजि
सतसंग
अनत नहिं
जाय।।
झमकि चढ़ि जाऊं
अटरिया री।
ए
सखी पूछों
सांई केहिं
अनुहरिया
री।।
सो
मैं चहौं रहौं तेहिं
संगहि निरखि
जाऊं बलिहरिया
री।
निरखत रहौं पलक
नहिं लाओं, सूतों
सत्त—सेजरिया
री।।
रहौं तेहि संग
रंग—रसमाती, डारौं
सकल बिसरिया
री।
जगजीवन
सखि पायन परिके, मांगि लेऊं तिन सनिया
री।।
साधो
नाम तें रहु लौ लाय, प्रगट
न काहू कहहु
सुनाय।
झूठै परगट कहत
पुकारिं, तातें
सुमिरन जात बिगारि।
भजन
बेलि जात कुम्हलाय, कौन
जुक्ति
कै भक्ति दृढ़ाय।
सिखि पढ़ि जोरि
कहै बहु ज्ञान, सो
तौ नाहिं
अहै परमान।।
प्रीति—रीति
रसना रहै
गाय, सो तौ नाहिं
अहै परमान।।
प्रीति
रीति रसना रहै
गाय, सो तौ राम कों
बहुत हिताय।
सो तौ मोर
कहावत दास, सदा
बसत हौं तिनके
पास।।
मैं मरि मन तें
रहे हैं हारि, दिप्त
जोति तिनकै
उजियारि।
जगजीवनदास
भक्त भै
सोइ, तिनका
आवागमन न
होइ।।
स्वामी
आनंद मैत्रेय
ने एक प्रश्न
पूछा है : "जगजीवन
तो चरवाहे थे, अपढ़,
फिर ऐसे
प्यारे शब्द
कहां से खोज
पाए? फिर
ऐसी बहुमूल्य
अभिव्यक्ति
कैसे हो सकी?
पूछना
अर्थपूर्ण
है। और अनेक
बार यह प्रश्न
पूछा गया है
अतीत में भी; आज
ही नहीं, सदियों—सदियों
में। जीसस भी
चरवाहे थे——गड़रिए।
और जैसे शब्द
जीसस ने बोले
वैसे शब्द
पृथ्वी पर
किसी और ने
बोले नहीं थे।
जैसा उनका
बोलने का ढंग
था, वह बस
उनका ही था।
उसकी कोई
तुलना नहीं
है। उनकी
तुलना बस उनसे
ही दी जा सकती
है। बहुत महाकाव्य
लिखे गए हैं
लेकिन जीसस के
छोटे—छोटे
वचनों में
जैसा काव्य है
वैसा काव्य
शेक्सपियर और
कालिदास और भवभूति
में भी नहीं
है।
कबीर
जुलाहे थे, लेकिन
ऐसी वाणी फूटी,
ऐसी गंगा
बही कि बड़े—बड़े
मात हो गए।
पंडित फीके पड़
गए।
शास्त्रों के
जाननेवाले
अंधकारपूर्ण
मालूम होने
लगे तुलना में
कबीर की, जुलाहे
की तुलना में।
और कबीर ने
कहा है, "मसि
कागद छुओ नहीं।'
कभी स्याही
छुई नहीं, कभी
कागज छुआ
नहीं। लेकिन
कुछ और जान
लिया : "ढाई
आखर प्रेम का पढ़े सो
पंडित होय।' वह जो ढाई
अक्षर है
प्रेम का, पढ़
लिया, उससे
सब हो गया।
सारे वेद आ गए
उसमें। सारे उपनिषद् आ
गए उसमें।
कुरान, बाइबल,
सब
समाविष्ट हो
गया।
यह
प्रश्न जगजीवन
के संबंध में
ही सच नहीं है, यह
प्रश्न अनंत
संतों के
संबंध में सच
है। यह कैसे
होता होगा? यह चमत्कार
कैसे घटता है?
इसके पीछे
एक
महत्त्वपूर्ण
सूत्र है। समझ
में आ जाए तो
समस्या सुलझ
जाएगी। जब
कहने को कुछ होता
है, जब
प्राण कहने से
भरे होते हैं,
जब प्राण
बहने को आतुर
होते हैं, जब
रस की गागर
पूरी भर जाती
है तो शब्द
अपने आप खोज
लिए जाते हैं।
तुमने
देखा, जब तुम
क्रोध में
होते हो तब
तुम किस तेजी
से बोलने लगते
हो! अक्सर ऐसा
हो जाता है कि
जो लोग हकलाते
हैं वे भी
क्रोध में
नहीं हकलाते।
भूल ही जाते
हैं हकलाना।
क्रोध का एक
ताप होता है।
विस्मरण ही हो
जाता है, हकलाने
की फुरसत कहां?
सुविधा
कहां? और
गालियां ऐसे
बहने लगती हैं
जैसे सदा—सदा
उनको सोचकर
सम्हाला हो।
मैं क्रोध से
उदाहरण दे रहा
हूं क्योंकि
क्रोध से
तुम्हारी पहचान
है। क्रोध में
मूक भी वाचाल
हो जाते हैं।
मैं
तुम्हें प्रेम
का उदाहरण
नहीं दे रहा
हूं क्योंकि
उससे तुम्हारी
पहचान नहीं
है। क्रोध से
जैसे अंधेरे
शब्द निकलने
लगते हैं——गंदे
और दुर्गंधयुक्त, सरलता
से गालियां
प्रवाहित
होने लगती हैं,
ऐसे ही
प्रेम की घड़ी
में गीत भी
प्रवाहित
होते हैं।
शब्द अपने आप जुड़ने
लगते हैं। जब फूल
खिलता है तो हवाएं मिल
ही जाती हैं
जिन पर चढ़कर
अपनी सुगंध
भेज दे दिग—दिगंत
तक। जब गीत
इतना घना हो
जाता है कि
सम्हालना
मुश्किल हो
जाता है तो
द्वार मिल ही
जाते हैं।
दुनिया
में दो तरह के
लोग हैं बोलनेवाले।
एक : जिनके पास
बोलने को कुछ
नहीं है। वे
कितने ही सुंदर
शब्द जानते
हों,
उनके शब्द
निष्प्राण
होते हैं; उनके
शब्दों में
श्वास नहीं
होती। उनके
पास शब्द
सुंदर होते
हैं, जैसे
कि लाश पड़ी हो
किसी सुंदर
स्त्री की।
जैसे क्लिओपात्रा
मर गई है और
उसकी लाश पड़ी
है। उनके शब्द
ऐसे ही होते
हैं। असली बात
तो उड़ गई। पिंजड़ा
पड़ा रह गया
है। पक्षी तो
जा चुका; या
पक्षी कभी था
ही नहीं।
पंडित
सुंदर—सुंदर
शब्द बोलता
है। उसके
शब्दों में
श्रृंगार
होता है, कुशलता
होती है, भाषा
होती है, सब
होता है, प्राण
नहीं होते। बस
एक ढांचा होता
है, आत्मा
नहीं होती।
संत भी
बोलते हैं, शायद
शब्द ठीक—ठाक होते
भी नहीं, व्याकरण
का शायद पता
भी नहीं होता।
व्याकरण छूट
जाती है, भाषा
बिखर जाती है
लेकिन जो मधु
बहता है जो मदिरा
बहती है वह
किसी को भी डुबा
दे; सदा को डुबा दे।
शब्द तो
बोतलों जैसे
हैं। बोतल
सुंदर भी हो
और भीतर शराब
न हो तो क्या
करोगे? और
बोतल कुरूप भी
हुई और भीतर
शराब हुई तो डुबा
देगी। तो
तुम्हारे
भीतर भी गीत
पैदा होगा और नाच
पैदा होगा। आत्मापूर्ण
हों शब्द तो
तुम्हारे
भीतर भी आत्मा
को झंकृत करते
हैं।
जगजीवन
जैसे बेपढ़े—लिखे
संतों की वाणी
में जो बल है
वह बल शब्दों का
नहीं है, वह
उनके शून्य का
बल है। शब्दों
की संपदा उनके
पास बड़ी नहीं
है, कामचलाऊ
है; बोल—चाल
की भाषा है।
लेकिन बोल—चाल
की भाषा में
भी अमृत ढाला
है। पंडितों
के शब्द
मूल्यवान
होते हैं
लेकिन शब्दों
को उघाड़ोगे
तो भीतर कुछ
भी नहीं, चली
हुई कारतूस
जैसे। ऋषियों
के शब्द
मूल्यवान हों
न हों, शब्दों
को उघाड़ोगे
तो भीतर परम
संपदा को
पाओगे; एक प्रगाढ़ता
पाओगे; एक
घनीभूत
प्रार्थना
पाओगे; एक
रस—विमुग्ध
चैतन्य
पाओगे।
सीधे—सादे
शब्द हैं, जगजीवन
जो बोल रहे
हैं। कुछ जटिल
नहीं हैं। लोकभाषा
है——जैसा सभी
लोग बोल रहे
होंगे। इनमें
एक भी शब्द
ऐसा नहीं है
जो पारिभाषिक
हो; कि
जिसे देखने के
लिए तुम्हें
शब्दकोष
उलटना पड़े।
अगर तुम्हें
कुछ कठिन
मालूम पड़ते
हों तो उसका
कारण यह नहीं
है कि वे शब्द
कठिन हैं, उसका
कुल कारण इतना
है कि वे लोकव्यवहार
के बाहर हो गए
हैं। उस दिन
की लोकभाषा
के हैं। आज
उनका उपयोग
नहीं होता।
अन्यथा बिल्कुल
कामचलाऊ हैं। गाड़ीवान
बोलता था, दुकानदार
बोलता था, चरवाहा
बोलता था, लकड़हारा बोलता था, जुलाहा
बोलता था, कुम्हार
बोलता था।
उन्हीं के
शब्द हैं
लेकिन शब्द
ज्योतिर्मय
हैं।
पंडित
के शब्द ऐसे
होते हैं——कोरे
पंडित के शब्द——जैसे
दीया तेल—भरा, बाती
लगा, मगर
ज्योति नहीं। संतों
के शब्द ऐसे
होते हैं——दीया
मिट्टी का, टेढ़ा—मेढ़ा, किसी ने गढ़
दिया होगा; तेल भी गरीब
का; शायद
शुद्ध भी न हो;
बाती भी बस ऐसीत्तैसी
बनी लेकिन
ज्योतिर्मय।
और मूल्य तो
ज्योति का है,
दीये का तो
नहीं। दीया
सोने का हो, हीरे—जवाहरात
जड़ा हो, क्या करोगे?
दीया मिट्टी
का हो, ज्योतिर्मय
हो, काम आ
जाएगा।
इसलिए
यह चमत्कार
जैसा मालूम
पड़ता है मगर
चमत्कार है
नहीं, जीवन का
एक सामान्य
नियम है।
प्रेम में तुम
कभी अगर किसी
के पड़े हो तो
तुम्हारे से
भी काव्य प्रवाहित
होने लगता है।
तुम खुद भी चौंकोगे।
ऐसे रसभरे
शब्द तुमने
कभी बोले न
थे। वही शब्द
हैं जो तुम
रोज बोलते थे,
पर उन्हीं
शब्दों में आज
कुछ नया भरा
है। आज उन्हीं
शब्दों पर
सवार होकर कुछ
नया चला है।
पैर तो
वही हैं जिनसे
कि दफ्तर से
लेकर घर तक आए—गए, लेकिन
जब नाचते हैं
वही पैर तो
वही पैर नहीं
हैं। दफ्तर से
आना घर, घर
से जाना दफ्तर
एक बात है; और
जब धुन मस्ती
की छा जाती है,
जब प्रेमी
से मिलन होता
है, वे ही
पैर जब नाचने
लगते हैं तो
क्या तुम कहोगे
ये वे ही पैर
हैं, जो
दफ्तर जाते थे?
सब बदल गया।
इन पैरों की
रौनक और, रंग
और। इन पैरों
में बहता हुआ
रक्त और। इन
पैरों में
बहती हुई
ऊर्जा और। इन
पैरों के पास
आज एक आभा—मंडल
है। आज ये
मस्ती में
नाचे हैं।
कहां दफ्तर
जाना! घसीटते
थे। नाच कहां
था? चलना
तक नहीं था।
जाते थे
क्योंकि जाना
पड़ता था।
मजबूरी थी, विवशता थी।
और आज जब
मृदंग बजी है
प्रेम की और पैरों
में आनंद के
घुंघरू बांधे
हैं और नाच उठे
हो.....नहीं, ये
पैर वही मालूम
होते हैं मगर
वही नहीं हैं।
आज इन्हीं
पैरों पर कोई
और चढ़ आया है।
आज आत्मा और
है। वस्त्र
वही होंगे, प्राण और
हैं। भीतर का
सब बदल गया
है।
ये
शब्द जगजीवन
के साधारण ही
हैं लेकिन इन
शब्दों में
असाधारण
समाया है। उस
असाधारण के
कारण साधारण
शब्द भी
बहुमूल्य
मालूम होते
हैं। जैसे बुद्ध
के हाथ में
कोई साधारण—सा
गुलाब का फूल।
क्या तुम
सोचते हो किसी
और हाथ में
यही फूल इसी
मूल्य का होगा? नहीं
होगा। संदर्भ
बदल गया।
बुद्ध के हाथ
में बात और
है। हाथ—हाथ
की बात और है।
बुद्ध के हाथ
में यही साधारण—सा
फूल असाधारण
हो गया है।
इसकी गरिमा और
है। इसकी
महिमा और है।
जैसे सारे
अस्तित्व का
सौंदर्य इससे
प्रकट हो उठा
है।
बुद्ध
जिस वृक्ष के
नीचे बैठे हों
वह सूखा भी हो
तो कहानियां
कहती हैं, हरा
हो जाता है।
वे कहानियां
सार्थक हैं, ऐतिहासिक
नहीं हैं। इस
बात को खयाल रखना।
बौद्ध कथाएं
कहती हैं कि
बुद्ध जिस
वृक्ष के नीचे
बैठ जाते हैं
वह अगर सूखा
भी हो, तत्क्षण
हरा हो जाता
है। घनी उसके
नीचे छाया हो
जाती है। करनी
ही पड़ेगी छाया
बुद्ध आकर
बैठे हों तो।
फूल खिल आते
हैं।
इस्लाम
में कथाएं हैं
कि मुहम्मद
जहां भी चलते
हैं.....रेगिस्तान, मरुस्थल
की दुनिया!
आकाश की
बदलियां उनके
ऊपर छाता बन
जाती हैं।
इतिहास नहीं
है यह। इतिहास
समझा तो चूक
हो जाएगी।
इतिहास से
बहुत ज्यादा मूल्यवान
हैं ये बातें।
इतिहास तो
सिर्फ तथ्यों
का जोड़ होता
है। अखबारों
की कटिंग से
बनता है
इतिहास। यह
इतिहास से
बहुत ज्यादा
है। तथ्य ही
नहीं है, सत्य
है इसमें।
इतिहास
तो क्षणभंगुर
होता है। अभी
है,
अभी अतीत हो
जाता है। और
जैसे ही
इतिहास अतीत हो
जाता है, फिर
उसे सत्य
सिद्ध करने का
कोई उपाय नहीं
बचता। फिर तुम
लाख सिर मारो,
ज्यादा से
ज्यादा इतना
ही तय हो सकता
है कि संभवतः
ऐसा हुआ हो।
बस, संभावना
तय हो सकती
है। फिर दृढ़तापूर्वक
कुछ भी नहीं
कहा जा सकता
कि ऐसा हुआ
हो।
राम
हुए थे? दृढ़तापूर्वक इतिहास के
पास कोई
प्रमाण नहीं
है। कृष्ण हुए
थे? दृढ़तापूर्वक इतिहास के
पास कोई निश्चयता
नहीं है।
बुद्ध चले थे?
महावीर घटे
थे? संभावना
मात्र है। ऐसा
हुआ भी हो, न
भी हुआ हो।
जीसस के संबंध
में भी वही
बात है।
ये तो
दूर की बातें
हो गईं, इंग्लैंड
का एक बहुत
बड़ा
इतिहासज्ञ
एडमंड बर्क
विश्व—इतिहास
लिख रहा था।
उसने उस पर
कोई तीस साल
मेहनत की थी।
सारा जीवन उस
पर लगाया था।
और एक दिन ऐसा
हुआ कि उसने
पूरी की पूरी
जीवनभर की
मेहनत आग में
डाल दी एक
छोटी—सी घटना
के कारण। उसके
घर के पीछे, घर के ठीक
पीछे हत्या हो
गई। वह तो
अपना इतिहास
लिखने में लगा
था। शोरगुल
सुना, भीड़—भाड़
इकट्ठी हुई तो
वह भी बाहर
निकलकर
पहुंचा। भीड़
लग गई थी, लाश
पड़ी थी। जिस
आदमी ने हत्या
की थी, रंगे
हाथों पकड़ा
गया था। उसको
भी लोग पकड़े
हुए थे। उसके
हाथ में छुरा
था, उसके
कपड़ों पर खून
की धार थी।
अभी—अभी
घटना घटी थी, ताजी
थी। खून अभी
गरम था। और
कोई दो सौ
आदमियों की
भीड़ लग गई थी।
सारा मोहल्ला
इकट्ठा हो गया
था। और बर्क
ने अलग—अलग
लोगों से पूछा
कि हुआ क्या? एक ने कुछ
कहा, दूसरे
ने कुछ कहा, तीसरे ने
कुछ कहा। अभी
खून भी गरम
था। अभी लाश भी
गरम थी। अभी
हत्यारा रंगे
हाथ पकड़ा
सामने खड़ा था,
लेकिन
लोगों के
वक्तव्य अलग—अलग
थे, विपरीत
थे, विरोधी
थे; एक—दूसरे
का खंडन
करनेवाले थे।
और वे सब
चश्मदीद गवाह
थे।
बर्क
गया अंदर, उसने
अपनी तीस साल
की मेहनत आग
में डाल दी।
उसने कहा, अगर
मेरे घर के
पीछे एक घटना
घटती है, आंखों
देखे लोग
मौजूद हैं, अभी—अभी घटी
है, खून भी
सूखा नहीं है,
ठंडा भी
नहीं हुआ है, लाश अभी गरम
है, आदमी
पकड़ा गया है
और उनसे भी
मैं यह
निष्कर्ष नहीं
निकाल पाता कि
वस्तुतः हुआ
क्या है! और
मैं दुनिया का
इतिहास लिखने
बैठा हूं कि
पांच हजार साल
पहले वेद किसने
लिखा था! उसे
बात ही फिजूल
मालूम पड़ी।
उसने कहा, मेरे
तीस साल
व्यर्थ गए।
इतिहास
तो क्षुद्र
घटनाओं से
बनता है। उन
घटनाओं के लिए
प्रामाणिकता
नहीं है। और
जैसे—जैसे
अतीत होता
जाता है वैसे—वैसे
मुश्किल होता
जाता है तय
करना कि ऐसा
हुआ था कि
नहीं हुआ था?
ये
घटनाएं
ऐतिहासिक
नहीं हैं, ये
घटनाएं
पौराणिक हैं।
पुराण बड़ी और
बात है इतिहास
क्षणभंगुर
तथ्यों पर
निर्भर होता
है, पुराण
शाश्वत सार
है। बुद्ध के
बैठने से वृक्ष
हरा हुआ या
नहीं, यह
सवाल नहीं है,
वृक्ष को
हरा होना
चाहिए। इससे
अन्यथा हो तो
यह जगत्
अर्थहीन है।
बुद्ध भी हुए
या नहीं, यह
भी सवाल नहीं
है। यह प्रश्न
संगत ही नहीं
है पुराण में।
पुराण की
संगति तो और
है। पुराण की
संगति तो यह
है कि बुद्ध
जैसे व्यक्ति
के ओठों
पर सूखे शब्द
भी हरे हो
जाएंगे।
बुद्ध जैसे
व्यक्ति के
हाथों में मरा
हुआ पक्षी भी
पंख फड़फड़ाने
लगेगा। और
तुम्हारे
हाथों में
जिंदा पक्षी मर
जाते हैं।
और तुम
जानते हो। और
रोज तुमने
देखा है। रोज
तुम अनुभव
करते हो, तुम्हारे
हाथों में
जीवित से
जीवित शब्द
जाकर दो कौड़ी
के हो जाते हैं।
सुंदर से
सुंदर शब्द!
परमात्मा
जैसा प्यारा
शब्द भी
तुम्हारे ओठों
पर क्या अर्थ
रखता है? कोई
भी तो अर्थ
नहीं। कोरा, खाली, व्यर्थ!
तुम्हारे ही
परमात्मा के
लिए तो नीत्शे
ने कहा है कि
मर गया। मुझे
नीत्शे कहीं
मिल जाए तो
उनसे मैं कहूं
कि मर गया
कहना ठीक नहीं,
जिंदा ही
कभी न था।
मरते तो वे
हैं जो जिंदा
रहे हों। जिन
लोगों के
परमात्मा की
तुम बात कर रहे
हो वह मर भी
नहीं सकता; वह सदा से
मरा हुआ है, प्लास्टिक
का है। और
जिनका
परमात्मा
जिंदा है उनके
परमात्मा के
मरने का कोई
उपाय नहीं है क्योंकि
वह सारे जीवन
का प्रतीक है।
बुद्ध
अगर बैठें, वृक्ष
को हरा होना
ही चाहिए। और
मुहम्मद अगर चलें
तो बदली को
छाया करनी ही
चाहिए। और
महावीर अगर
चलें तो कांटा
सीधा पड़ा हो
तो उसे उल्टा
हो ही जाना
चाहिए। यह
पुराण है, इतिहास
नहीं है। ये
संकेत हैं, कि अस्तित्व
उसका सम्मान
करता है जिसने
अस्तित्व का
सम्मान किया
है; कि
अस्तित्व
प्रत्युत्तर
देता है; कि
प्रेम के
उत्तर में
प्रेम बरसता
है; कि गीत
के उत्तर में
गीत
प्रतिध्वनित
होता है; कि
एक फूल खिले
तुम्हारे
जीवन में तो
हजारों फूल
उसके साथ—साथ,
समवेत खिल
जाते हैं।
ये
शब्द तो
साधारण हैं।
चरवाहे के शब्द
हैं,
पर असाधारण
हो गए क्योंकि
चरवाहा बुद्ध
हो गया। फिर
बुद्ध राजा का
बेटा हो जाए
तो, और
चरवाहे का
बेटा हो जाए
तो। बुद्धत्व
की महिमा है।
बुद्धत्व का
मूल्य है।
फिर एकेक
शब्द में रस
बहने लगता है।
बौरे, जामा
पहिरि न
जाना
जगजीवन
कहते हैं, रे
पागल, एक
बात खयाल कर
ले, मैं
शरीर हूं ऐसा
ही मानते—मानते
मत मर जाना।
शरीर तो जामा
है, वस्त्रमात्र है, परिधान
है। शरीर ही
मैं हूं ऐसा
ही सोचते—सोचते
मर गया तो फिर
शरीर में आ
जाना पड़ेगा। क्योंकि
हम जो सोचते
हैं वही हमारा
भविष्य बन जाता
है।
विचार
के बीज भविष्य
के वृक्ष हैं।
मरते क्षण अगर
तुम यही सोचते
मरे कि मैं
शरीर हूं तो
मर भी न पाओगे
और नए गर्भ
में प्रवेश कर
जाओगे।
क्योंकि
तुम्हारा
विचार ही
तुम्हें दिशा
देता है।
बौरे, जामा
पहिरि न
जाना
जाते
समय तक इतनी
तैयारी कर
लेना कि तू यह
जानता हुआ जा
सके कि मैं
देह नहीं हूं, देह
तो वस्त्रमात्र
है। कि मैं घर
का मालिक हूं।
जब देह टूटने
लगे तो ऐसा मत
समझना कि तू
टूट रहा है।
जब देह मरने लगे
तो ऐसा मत
सोचना कि मैं
मर रहा हूं।
तेरी कोई
मृत्यु नहीं,
तू अमृत है।
अमृतस्य
पुत्रः।
मृत्यु तो बस
आवरण की है।
यही देह जन्मती
है, यही
देह मरती है। न
तो तू कभी
जन्मता है, न कभी तू
मरता है।
जो ऐसा
जानकर विदा
होता है, फिर
दुबारा नहीं
आता। फिर इस
दुबारा पीड़ा
और नरक में
उसे नहीं
उतरना पड़ता।
वह मुक्त हो
जाता है उसकी
सारी सीमाएं
गिर जाती हैं।
देह सीमा है।
वह असीम हो
जाता है। उसकी
बूंद सागर हो
जाती है। वह
इस अनंत आकाश
का अंग हो
जाता है।
बौरे, जामा
पहिरि न
जाना
को
तैं आसि
कहां ते आइसि
तू
आया कहां से
है?
तू कौन?
समुझि न देखसि ज्ञाना
न तो
तूने देखा, न
समझा, न
जागा और फिर
भी तू सोचता
है कि तुझे
ज्ञान है? तेरा
ज्ञान दो कौड़ी
का है। कर
लिया होगा
कंठस्थ वेद; इससे कुछ
सार नहीं।
मृत्यु के
क्षण में
कंठस्थ किए
हुए वचन चाहे
वे वेद के हों
और चाहे कुरान
के, काम
नहीं आएंगे।
कंठ ही साथ
नहीं जाएगा तो
कंठस्थ कैसे
साथ जाएगा? सिर यहीं
पड़ा रह जाएगा
तो सिर में जो
भरा है वह भी
यही पड़ा रह
जाएगा। सिर के
भरे में बहुत
भरोसा मत
करना। सिर में
तो जो भी भरा
है, भूसा
है।
तुम्हारे
जीवन में कुछ
ऐसा अनुभव
होना चाहिए जो
बुद्धि से
अतीत अनुभव
है। जो बाहर
से नहीं आया
है। बुद्धि
में तो जो भी
आया है बाहर
से आया है।
किताब पढ़ी, किसी
को सुना, किसी
से बात की, स्कूल—विश्वविद्यालय
सीखा, वही
सब तुम्हारी बुद्धि
में भरा है।
बुद्धि तो एक
कंप्यूटर है जिसमें
बाहर से
सूचनाएं डाली
जाती हैं।
बुद्धि तो एक टेपरिकॉर्ड
है, एक
ग्रामोफोन
रेकॉर्ड है, जिसमें बाहर
से सूचनाएं भर
दी जाती हैं
फिर बुद्धि
उसे दोहराती
रहती है।
और बड़ा
मजा है। हम
इसी को बड़ा
मूल्य देते
हैं। जो जितना
अच्छा
ग्रामोफोन
रेकॉर्ड है
उसको हम कहते हैं
उतना ही
बुद्धिमान।
विश्वविद्यालय
उसे स्वर्णपदक
देते हैं। और
उसने प्रमाण
क्या दिया है
बुद्धि का? एक
ही प्रमाण
दिया है कि जो
भी साल—भर
शिक्षकों ने
उसकी खोपड़ी
में भरा था, उसने
परीक्षा की
कॉपी पर उसका
वमन कर दिया, उल्टी कर
दी। परीक्षा
की कॉपी पर
ठीक उसने वैसा
ही का वैसा, बिना पचा——।
पच जाता तो
वमन कैसे करता?
सम्हाले
रहा, सम्हाले
रहा, सम्हाले
रहा, फिर
सारी परीक्षा
की कॉपी गंदी
कर दी। स्वर्णपदक
मिल गया उसको।
उसका बड़ा
सम्मान है।
उसने
कौन—सी कुशलता
दिखाई? यह
कोई बुद्धि की
कुशलता है? हां, इतना
कहा जा सकता
है, उसके
पास अच्छी
स्मृति है।
मगर स्मृति और
बुद्धि बड़ी
भिन्न बातें
हैं।
मनोवैज्ञानिक
जिसको बुद्धि
का माप कहते
हैं, इंटेलिजंस कोशिएंट
कहते हैं, वह
वस्तुतः
बुद्धि का माप
नहीं है, केवल
स्मृति का माप
है। और
याददाश्त का
अच्छा होना और
बुद्धि का
अच्छा होना
पर्यायवाची नहीं
हैं। अक्सर
ऐसा होता है
कि जिनकी
याददाश्त
बहुत अच्छी
होती है उनके
पास बुद्धि
जैसी चीज नहीं
होती। और
जिनके पास
बुद्धि जैसी
चीज होती है
उनकी
याददाश्त
बहुत अच्छी
नहीं होती।
तुमने
बहुत
कहानियां
सुनी होंगी कि
बड़े—बड़े
बुद्धिमान और
याददाश्त
उनकी बड़ी
कमजोर। इमेन्युअल
कांट की
याददाश्त
इतनी कमजोर कि
एक सांझ अपने
घर आया, द्वार
पर दस्तक
दिया। सांझ है,
सूरज ढल गया
है, घूमकर
लौटा है अपने
ही घर। नौकर
ने छज्जे से झांका, समझा
कि कोई आया
होगा मालिक को
मिलने। तो
उसने कहा, मालिक
घूमने गए हैं,
थोड़ी देर
बाद आना तो वह
वापिस लौट
आया। कोई मील—भर
चलने के बाद
उसे याद आया
कि हद हो गई!
मालिक तो मैं
ही हूं।
और भी
मैंने एक
कहानी सुनी है
जो इससे भी
ज्यादा
अद्भुत है। एक
रात लौटा
घूमने के बाद, बूढ़ा
हो गया था
कांट। जो छड़ी
लेकर घूमने
गया था उसको
तो बिस्तर पर
सुला दिया और
खुद, जहां
छड़ी को खड़ा
करता था कोने
में, वहां
जाकर खड़ा रहा।
जब नौकर ने
देखा कि
प्रकाश बुझा
नहीं मालिक का,
जो कि नियम
से दस बजे बुझ
जाता है, साढ़े दस
बज गए, ग्यारह
बज गए, तो
नौकर ने आकर झांका, देखकर
हैरान हुआ।
छड़ी सो रही है
कंबल ओढ़े
और कांट खड़ा
है कोने में
आंख बंद किए।
चूक हो गई। भूल
हो गई कौन—कौन
है! और इमेन्युअल
कांट उन थोड़े—से
बुद्धिमान
लोगों में से
एक है, जिनके
पास प्रतिभा
थी।
स्मृति
से कुछ सिद्ध
नहीं होता।
लॉर्ड कर्जन
ने अपने
संस्मरणों
में राजस्थान
में एक आदमी के
संबंध में
उल्लेख किया
है जिसके पास
अद्भुत
स्मृति थी मगर
वह महामूढ़
था। उसकी
स्मृति ऐसी थी
कि शायद पहले
भी किसी के
पास नहीं हुई।
उसके बाद भी
बहुत लोगों के
पास
स्मृतियां
हुईं लेकिन
वैसी नहीं
हुई। उसकी
स्मृति
अद्भुत थी, जैसे
पत्थर पर कोई
खींचे। एक बार
जो सुन ले वह भूलता
ही नहीं था।
अब तुम
सोच ही सकते
हो कि वह आदमी
बुद्धिमान कैसे
हो पाएगा? जो
बात एक बार
तुम सुन लो, भूल ही न सको
तो इतना कचरा
इकट्ठा हो
जाएगा। विस्मरण
वरदान है। जरा
सोचो तो, सुबह
से लेकर सांझ
तक कितना
बकवास सुनते
हो, कितना
उपद्रव सुनते
हो, ट्रैफिक
की आवाजें, और कोई हॉर्न
बजा रहा है और
इंजन की भकभक
हो रही है और
सब सुन रहे हो
तुम। और यह सब
याद ही रहे तो
तुम सोचोगे
क्या खाक!
विचार क्या
करोगे? तुम्हारे
पास अवकाश
कहां रह जाएगा?
वह
आदमी इतना
अद्भुत था
स्मृति की
दृष्टि से, पर
महामूढ़
था। उसे कर्जन
के दरबार में
बुलाया था
वाइसराय ने
देखने के लिए।
उसकी स्मृति
की खबरें पहुंची
थीं। और फिर
एक प्रयोग
किया गया। कर्जन
के दरबार में
जितनी भाषाओं
को जाननेवाले
अलग—अलग लोग
थे, तीस
लोग खोजे
गए और उन तीस
लोगों को
बिठाया गया।
और उन तीसों
ने अपने—अपने
मन में अपनी—अपनी
भाषा का एकेक
वचन खयाल में
रखा। और यह
आदमी, यह
राजस्थानी
आदमी पहले
नंबर एक के
पास जाएगा, वह अपनी
भाषा के, जो
वचन को उसने
अपने भीतर सोच
रखा है, उसके
पहले शब्द को
कहेगा। तब एक
जोर का घंटा बजाया
जाएगा। फिर यह
आदमी दूसरे के
पास जाएगा, वह अपनी
भाषा का पहला
शब्द कहेगा।
ऐसा यह तीस आदमियों
के पास चक्कर
लगाएगा और हर
बार घंटा
बजेगा। फिर यह
नंबर एक के
पास आएगा, अब
वह अपने वचन
का दूसरा शब्द
इससे कहेगा।
ऐसा यह घूमता
रहेगा।
और
उसने सबके
वाक्य अलग—अलग
बता दिए कि
किसने उससे
क्या कहा है!
और उनमें से
एक भी भाषा
उसकी भाषा
नहीं। एक भी
भाषा वह जानता
नहीं। मारवाड़ी
के सिवा वह
दूसरी भाषा
कोई जानता
नहीं था। बस, जो
उसके सर में आ
जाता, बैठ
ही जाता; फिर
उसे भूलता ही
नहीं था। मगर
था बिल्कुल
बुद्धू आदमी।
जिंदगी में
उसके कोई
प्रतिभा नहीं थी।
उसकी आंखों
में कोई चमक
भी न थी। उसके
चेहरे पर कोई
ओज भी न था।
अगर
स्मृति ही
बुद्धि हो तो
यह आदमी बुद्ध
हो जाता। और
क्या चाहिए? मगर
स्मृति
बुद्धि नहीं
है। और मैं जो
तुमसे कह रहा
हूं, अभी
कुछ चार—छह
दिन पहले, जिन
व्यक्तियों
ने पश्चिम में
बुद्धि—अंक : इंटेलिजंस
कोशिएंट
की खोज की थी
उनमें से एक
अभी जिंदा है,
उसने चार या
पांच दिन पहले
ही यह घोषणा
की है कि वह
हमारी धारणा
गलत थी। वह जो
हमने अब तक
खोजा था
बुद्धि के
संबंध में, वह बुद्धि
के संबंध में
नहीं है, केवल
स्मृति के
संबंध में है।
कहां
से आए हो? कौन
हो? न इसे
देखा, न
इसे पहचाना और
सोचते हो कि
ज्ञानी हो
क्योंकि वेद
याद है, कुरान
याद है, गीता
रोज पढ़ते हो।
यह ज्ञान दो कौड़ी का
है।
ग्रामोफोन
रेकॉर्ड बनने
से तुम मुक्त न
हो जाओगे।
तुम्हें उस
ज्ञान की तलाश
करनी होगी
जिसका झरना
तुम्हारे
भीतर से ही
बहे, बाहर
से नहीं।
तुम्हें स्वस्फूर्त
ज्ञान को
खोजना होगा।
और जब तक तुम स्वस्फूर्त
चैतन्य को न
खोज लोगे, तब
तक तुम्हें
शरीर की तरह
जीना पड़ेगा और
शरीर की तरह
मरना पड़ेगा।
चुन
लिए औरों ने गुलहा—ए—मुराद
रह
गए दामन ही
फैलाने में हम
ऐसा न
हो कि मरते
वक्त तुम्हें
लगे कि दूसरे
तो फूल चुन
लिए और हम
दामन हीफैलाते
रहे। अधिक लोग
ऐसे ही मरते
हैं दामन
फैलाते—फैलाते
ही। फूल तो
मुश्किल से
थोड़े—से लोग
चुन पाते हैं।
जब कि सच्चाई
यह है कि सभी
का हक था, सभी
चुन लेते फूल।
तुम
बुद्ध होने को
पैदा हुए हो।
उससे कम पर राजी
मत होना।
तुम्हारे
दामन में भी
फूल भर सकते
हैं,
मगर जरा होश
से चलना होगा,
जरा
सम्हलकर चलना
होगा। जरा जिंदगी
से व्यर्थ की
दौड़—धूप को कम
करना होगा।
जिंदगी की
ऊर्जा को निरर्थक
आपाधापी से
थोड़ा मुक्त
करना होगा।
थोड़ी घड़ियां अंतर्खोज
के लिए देनी
होंगी।
बौरे, जामा
पहिरि न
जाना
क्या
ही शरमिंदा
चले हैं इस
दिल—ए—मजबूर
से हम
आए
थे उनकी ज़ियारत
को बहुत दूर
से हम
बड़े
दूर से तुम आए
हो। और जो
खरीदने आए हो, बिना
खरीदे लौट
जाओगे? बड़े
दूर से तुम आए
हो। जिसकी
तलाश में आए
हो उसको बिना
तलाशे लौट
जाओगे? और सम्हलो!
यहां कोई
दूसरा
तुम्हें नहीं सम्हालेगा।
मैकदा है
यह समझ बूझ के
पीना ऐ रिंद
कोई
गिरते हुए पकड़ेगा
न बाज़ू
तेरा
यहां
तो सब पिए
बैठे हैं——कोई
मद,
कोई पद, कोई
धन। यहां तो
लोगों की
आंखों में नशा
चढ़ा हुआ है।
और वह नशा
नहीं, जिसकी
मैं बात करता
हूं या जगजीवन
बात करते हैं।
धन का और पद का
नशा चढ़ा हुआ
है।
तुमने
देखा, जब कोई
आदमी पद पर
पहुंच जाता है
तो उसकी अकड़, उसका
अहंकार। तुमने
देखा, जब
किसी आदमी के
पास धन इकट्ठा
हो जाता है तो
उसके पैर जमीन
पर नहीं पड़ते।
ये सब नशे
हैं। और शराब
से कहीं
ज्यादा बदतर
नशे हैं।
क्योंकि शराब
तो तुम्हारी
देह को ही
नुकसान पहुंचाती
है, ये
तुम्हारी
आत्मा को भी सड़ा देते
हैं।
इसलिए
तुम्हारा
शराबी
तुम्हारे राजनीतिक
से लाख गुना
बेहतर होता
है। क्योंकि शराबी
हो सकता है
एकाध साल
जल्दी मर
जाएगा, और
क्या होगा? शरीर थोड़ा
कमजोर होगा, और क्या
होगा? लेकिन
राजनीतिक
खोखला हो जाता
है, अपनी
आत्मा को बेच
देता है। बेचनी
ही पड़ती है
उसे; नहीं
तो पद की सीढ़ियां
नहीं चढ़ सकता।
उसे सारी चालबाजियां,
बेईमानियां,
सारे पाखंड
करने ही पड़ते
हैं। झूठे
आश्वासन देने
ही पड़ते हैं।
उसे धोखे देने
ही पड़ते हैं। जो
जितना धोखा
देने में कुशल
है उतना ही
सफल हो जाएगा।
और जिसको नशा
लग जाता है पद
का, जिंदगी—भर
नहीं उतरता; लगा ही रहता
है। वह जो भी
करता है, बस
उसी नशे के
लिए करता है।
एक धुन सवार
हो जाती है।
मैकदा है
यह समझ—बूझ के
पीना ऐ रिंद
कोई
गिरते हुए पकड़ेगा
न बाज़ू
तेरा
तुम
अपने को सम्हालों
तो सम्हाल
सकते हो, कोई
और तुम्हें सम्हालनेवाला
नहीं है।
इसलिए कहते
हैं, ऐ
पागल, ऐ बौरे,
जामा पहिरि
न जाना।
घर वह
कौन जहां रह
बासा, तहां
ते किहेउ पयाना
कहां
से तू आ रहा है? किन—किन
घरों में रहा
है? यह घर, जिसमें तुम
अभी हो——यह देह
तुम्हारा
पहला घर नहीं
है। तुम न
मालूम कितनी
देहों में रहे
हो, न
मालूम कितनी
योनियों में
भटके हो।
यात्रा लंबी
है तुम्हारी।
तुम्हारी
आत्मा पर बड़ी
धूल है, लंबी
यात्रा की धूल
है। और स्नान
को तो तुम भूल
ही गए हो।
शरीर को तो धो
भी लेते हो, आत्मा को तो
कभी निखारते
नहीं, धोते
नहीं।
आत्मा
को निखारने
की कला का नाम
ही ध्यान है।
आत्मा को
सुवासित करने
की कला का नाम
ही प्रेम है।
आत्मा के दर्पण
से धूल को
बिल्कुल पोंछ
देने का नाम
ही भक्तिभाव
है,
प्रभु—स्मरण
है।
इहां
तो रहिहौ
दुई—चार दिन——इस
घर में भी दो—चार
दिन रहोगे।
ऐसे ही और
बहुत घरों में
भी रहे हो।
अंत
कहां कहं जाना——और
फिर जाना
पड़ेगा। और—और
घरों में
भटकते ही
रहोगे, भटकते
ही रहोगे। कब
अपने को पहचानोगे?
कब झांककर
देखोगे
इस मालिक को? और जिस दिन
तुम देख लोगे
मालिक को उस
दिन तुम चकित
हो जाओगे। इस
सारे जगत का
स्वामी
तुम्हारे
भीतर बैठा है।
कुछ कमी नहीं
है तुम्हारे
भीतर । सब भरा—पूरा
है। सब
परिपूर्ण है।
घट भरा है और
तुम भिखारी
बने घूम रहे
हो। तुमने
अपनी बड़ी दुर्दशा
कर रखी है
सिर्फ इसी
खयाल से कि
तुम भिखारी
हो। और यह भिखारीपन
जारी रहेगा जब
तक तुम देह से
अपना
तादात्म्य नहीं
तोड़ लेते हो।
सुनी
हिकायते—हस्ती
तो दर्मियां
से सुनी
न
इब्तिदा की
खबर है है न
इंतिहा मालूम
न तो
पता प्रारंभ
का और न अंत
का। जिंदगी की
कहानी तो बस
बीच से शुरू
हो गई है।
जैसे कोई
उपन्यास बीच
से खोल दे और
शुरू कर दे; या
पहुंच जाओ
फिल्म में और
इंटरवल से
देखने लगो। न
तो कुछ
प्रारंभ का
पता है, न
अंत का कुछ
पता है। बस, बीच में आंख
खुलती है और
जिंदगी शुरू
हो जाती है।
इसीलिए
तो जिंदगी में
अर्थ नहीं मालूम
होता। बिना
प्रारंभ जाने
अर्थ मालूम
कैसे हो? बिना
अंत जाने अर्थ
कैसे मालूम हो?
प्रथम और
अंत का पता चल
जाए तो मध्य
का भी रहस्य
खुल जाए। और
इन मध्य की
बातों में तुम
इतने उलझ गए
हो! इनको
तुमने जरूरत
से ज्यादा तूल
दे दिया है।
छोटी—छोटी
चीजों को बड़ा
बना लिया है।
राई के पर्वत
खड़े कर लिए
हैं।
तुझे
ऐ बज्मे—हस्ती
कौन काफिर याद
रक्खेगा?
मुसाफिर
राह की बातों
को अक्सर भूल
जाते हैं
और अंत
में सब भूल
जाएगा। कुछ
काम न आएगा।
मौत आएगी और
तुम्हारा सब
बसाया हुआ उजाड़
जाएगी। तब तुम
अचानक देखोगे
कि रेत में घर
बनाते रहे। कागज
की नावें
चलाते रहे।
कैसे पागल थे!
और कितने लड़े—झगड़े
कि मेरी नाव
आगे;
कि
तुम्हारी नाव
पीछे; कि
यह रेत का जो
मकान मैं बना
रहा हूं, मेरा
तुमसे ऊंचा
बनकर रहेगा।
और रेत के
मकान हैं। और
हवा का झोंका
आएगा और गिर
जाएंगे। ताश के
पत्तों के महल
खड़े कर रहे हो
और दूसरे से
ऊंचा कर लेना
है, दूसरे
को पीछे छोड़
देना है। इसकी
तुम्हें फिक्र
ही नहीं है, हवा का
झोंका आता
होगा; सब
गिरा जाएगा——छोटे
महल, बड़े
महल।
पाप—पुन्न
की यह बजार है, सौदा
करु
मनमाना
और
यहां दोनों
चीजें बिक रही
हैं——पाप भी
बिक रहा है, पुण्य
भी बिक रहा
है। इस बाजार
में सब कुछ
मिल रहा है।
सोच—समझकर
सौदा कर लो।
दूसरे को दोष
मत देना। तुम्हें
पूरी
स्वतंत्रता
है, मनमाना
सौदा कर लो।
यहां से कुछ
लोग परमात्मा को
खरीदकर लौट गए
हैं और यहां
से कुछ लोग
अपने को भी गंवाकर
लौट गए हैं।
यही दुनिया, यही बाजार।
कुछ लोग हीरे
खरीद लेते हैं,
कुछ कंकड़—पत्थर
बीनते रहते
हैं। कुछ
फूलों से भर
लेते हैं झोली
और कुछ तय ही
नहीं कर पाते,
बिबूचन में
ही पड़े रहते
हैं क्या करें,
क्या न
करें! ऐसे ही
समय बीत जाता
है।
एक
मित्र यहां
मेरे पास आते
हैं। आज भी
मौजूद हैं। आज
तीन साल से
निरंतर सोच
रहे हैं
संन्यास लूं
कि न लूं। बार—बार
मुझे पत्र
लिखते हैं कि
आप कहें कि
लूं या न लूं।
यह भी खूब रही!
मुझसे पूछते
हो,
आप कहें।
लेना तुम्हें
है। जिंदगी का
तुम्हारा है
सवाल। और मेरे
कहने से तुम
लेते होते तो तीन
साल से मुझे
सुनते हो, मैं
और कह क्या
रहा हूं? निरंतर
यही तो कह रहा
हूं कि लगा लो
डुबकी। रंग
जाओ। हो लो
रंगीन जीवन के
रंग में, चैतन्य
के रंग में।
अब तुमसे अलग
से कहूं कि ले
लो? उससे
भी क्या फर्क
पड़ेगा? फिर
तुम सोचोगे कि
इनकी मानना कि
नहीं मानना!
फिर
किसी और से
पूछोगे, भई
इनकी मानना कि
नहीं मानना? क्या करना?
पाप—पुन्न
की यह बजार है, सौदा
करु
मनमाना
होइहि
कूच ऊंच नहिं जानसि भूलसि
नाहिं हैवाना
यहां
से तो जाना
पड़ेगा। जाना
सुनिश्चित
है। यहां
रुकना
होनेवाला
नहीं है। एक
ही बात तय है जीवन
में कि यहां
से जाना
पड़ेगा। और तब
न कोई ऊंचा
होगा, न कोई
नीचा होगा। न
कोई आगे होगा,
न कोई पीछे
होगा।
दिखावे
के हैं सब ये
दुनिया के
मेले
भरी बज्म में
हम रहे हैं
अकेले
कितना
ही तुम सोचो
कि संगी हैं, साथी
हैं.....
भरी बज्म में
हम रहे हैं
अकेले
दिखावे
के हैं सब ये
दुनिया के
मेले
यह भीड़भाड़
सब दिखावे की
है। हो तो तुम
अकेले। भीड़ में
भी बिल्कुल
अकेले। अकेले
ही आए हो, अकेले
ही जाना
पड़ेगा।
भरी
महफिल में दम
घुटता है उफ़
रे दर्द—एत्तनहाई
सब
अपने हैं मगर
सच है किसी का
कौन होता है!
बस, कहने
की बातें; सपने
की बातें।
जो
जो आवा रहेउ
न कोई, सबका
भयो चलाना
जो आया
है,
गया है। जो
जन्मा है, मरेगा।
तुम अपवाद
नहीं हो, स्मरण
रखना। एक
भ्रांति रहती
है प्रत्येक
व्यक्ति के मन
में कि दूसरे
मरते हैं, मैं
थोड़े ही मरता
हूं। और इस
भ्रांति के
लिए कारण भी
मालूम होते
हैं। जब भी
तुम देखते हो
किसी की अर्थी,
दूसरे ही की
अर्थी देखते
हो, अपनी
अर्थी तो
देखते नहीं।
अपनी अर्थी तो
दूसरे
देखेंगे, तुम
कैसे देखोगे?
तुम्हें तो
सदा दूसरा ही
मरता मालूम
पड़ता है। आज अ
मरा, कल ब
मरा, परसों
स मरा। और तुम
निश्चिंत
होते जाते हो।
मुल्ला
नसरुद्दीन
बीमा दफ्तर
में गया। सौ
साल का हो गया
है! दफ्तर के
लोगों ने कहा, बड़े
मियां, अब
बीमा नहीं
करेंगे। सौ
साल..... अब कौन
बीमा
तुम्हारा
करेगा! कौन
बीमा कंपनी इतनी
हिम्मत करेगी?
नसरुद्दीन ने कहा कि आप
नासमझ हैं।
आंकड़े उठाकर
देखो, सौ
साल के बाद
कभी कोई मरता
है? जिनको
मरना होता है
पहले ही मर
जाते हैं। सौ
साल के बाद तो
मुश्किल से
कोई मरता है।
तुम फिक्र न
करो। और मैं
तुमसे यह कहता
हूं, मेरे
सौ साल का
अनुभव है कि
सदा दूसरे लोग
मरते हैं, मैं
कभी नहीं
मरता। सौ साल
में न मालूम
कितनों को
मरघट पहुंचा
आया हूं। और
हर बार यही
सोचते लौटा
हूं, गजब!
सब मरते हैं, एक मैं नहीं
मरता।
प्रत्येक
के मन में
कहीं यह
भ्रांति है कि
मृत्यु सदा
दूसरे की होती
है,
मेरी नहीं
होती। जागो!
दूसरे की
मृत्यु
तुम्हारी
मृत्यु का
इशारा है, इंगित
है। हर मृत्यु
तुम्हारी ही
मृत्यु है क्योंकि
हर मृत्यु
तुम्हारी
मृत्यु को
करीब ला रही
है। क्यू छोटा
होता जाता है।
एक आदमी मरा, क्यू आगे
सरका। तुम और
मृत्यु के
दरवाजे के
करीब पहुंचे।
जो
जो आवा रहेउ
न कोई, सबका
भयो चलाना
कोऊ टूटि फूटि
गारत मा, कोउ
पहुंचा
अस्थाना
लेकिन
मरने में भी
कला है, जैसे
जीने की कला
है। कुछ लोग
जीने की कला
जानते हैं और
उनका जीवन
महोत्सव हो
जाता है, स्वर्ग
हो जाता है।
स्वर्ग कहीं
और नहीं है, जो लोग जीने
की कला जानते
हैं उनके लिए
यहीं है। और
नरक भी कहीं
और नहीं है, जो लोग जीने
की कला नहीं
जानते उनके
लिए यहीं है।
नरक है जीवन
को बिना समझे बूझे जीने
का परिणाम।
स्वर्ग है
जीवन को समझ—बूझकर
जीने का
परिणाम।
तुम्हारे
हाथ में कोई
वीणा दे दे
तुम्हें
बजाना न आता
हो तो वीणा का
कोई कसूर नहीं
है। और तुम
तार छेड़ोगे
तो मोहल्ले के
लोग पुलिस में
फोन कर देंगे
कि यह आदमी
हमको पागल किए
दे रहा है। और
तुम्हारे तार छेड़ने से
सिर्फ शोरगुल
पैदा होगा, संगीत
पैदा नहीं
होगा। बस, ऐसा
ही जीवन में
तुम कर रहे
हो। वीणा तो
मिली है मगर
बजाना नहीं
आता। नरक पैदा
हो रहा है।
इसी वीणा पर
कुशल हाथ पड़
जाएं, अपूर्व
संगीत पैदा
हो। वही संगीत
निर्वाण है, समाधि है, ईश्वर है।
और फिर
जैसे जीने की
कला होती है
वैसे मरने की कला
होती है। और
जिसने ठीक से
जिया है वही
मरने की कला
सीख पाता है।
क्योंकि मरना
जीवन की
पूर्णाहुति
है। वह जीवन
का अंतिम शिखर
है,
गौरीशंकर है।
किन
व्यक्तियों
को जगजीवन
कहते हैं मरने
की कला
जाननेवाले
लोग?
कोउ फूटि
टूटि गारत
मा..... कुछ लोग तो
बस टूट—फूटकर
मिट्टी हो
जाते हैं। कोउ
पहुंचा
अस्थाना। लेकिन
कुछ लोग उस
परम स्थान पर
पहुंच जाते
हैं। कुछ तो
यही मिट्टी थे,
मिट्टी में
ही गिर जाते
हैं, फिर
मिट्टी में ही
बंध जाते हैं;
फिर मिट्टी
में ही सन
जाते हैं। इधर
एक देह छूटी, उधर दूसरी
देह मिली। इधर
एक शरीर हटा, उधर दूसरे
गर्भ में
प्रवेश हुआ।
इधर एक मिट्टी
से छुटकारा
हुआ, दूसरी
मिट्टी मिली।
पुराना घड़ा
टूटा, नया
घड़ा बना। बस, यहीं मिट्टी
में ही भटक
जाते हैं।
लेकिन
कुछ लोग हैं
जिनका घड़ा तो
टूटता है लेकिन
फिर वे किसी
और घड़े
में अपने को
आबद्ध नहीं
करते, आकाश के
साथ एक हो
जाते हैं। घड़े
के भीतर भी
आकाश है। घड़े
के टूटते ही
दीवाल हट जाती
है। घटाकाश,
घड़े के भीतर का
आकाश घड़े
के बाहर के
आकाश से एक हो
जाता है। उस
परम मिलन की
वेला को ही
मोक्ष कहा है।
अब
कि संवारि
संभारि बिचारि ले, चूका
सो पछिताना
जगजीवन
दृढ़ डोरि लाइ रहु, गहि मन
चरन अडाना
जगजीवन
कहते हैं, अब
सम्हाल लो।
बहुत दिन हो
गए बिना सम्हाले।
अब कि संवारि
संभारि बिचारि ले——अब
तो सम्हलो!
अब तो जागो!
अब होश से भरो!
चूके तो बहुत
पछताओगे।
लोग
सुन भी लेते
हैं मगर समझ
नहीं पाते।
जिंदा तो गलत
रहते ही हैं, मरकर
भी गलत। लोग
जिंदगी में भी
दूसरों से आगे
रहने की कोशिश
में रहते हैं,
मरने के बाद
भी इंतजाम कर
देते हैं कि
मेरी कब्र ऐसी
बनाना, संगमरमर
की हो, कि स्वर्णाक्षरों
में नाम लिख
देना। अपने
मरने के बाद
कब्र पर जो
पत्थर लगेगा
वह भी लोग
तैयार करवाकर
रख जाते हैं।
तुम ही मिट गए,
कब्र बचेगी?
कितने दिन
बचेगी? तुम
न बच सके, कब्र
बचेगी?
अज़ीजो
सादा ही रहने
दो लौह—एत्तुरबत
को
हमीं
नहीं तो यह
नक्श—ओ—निगार
क्या होगा
सजाने
से क्या
प्रयोजन है? हमीं
नहीं तो यह
नक्श—ओ—निगार
क्या होगा!
फिर फूल—बूटी चढ़ाओ, फूल—पत्तियां
चढ़ाओ, संगमरमर
पर सुंदर—सुंदर
नाम खोदो,
मूर्तियां
खड़ी करो। मगर
असली चला गया,
अब प्रतिकृतियों
से क्या होगा?
मगर आदमी का
मोह! आदमी गलत
जिंदा रहता है,
गलत मरता
है।
हुए मरके हम जो रुसबा हुए क्यूं न गर्क़—ए—दरिया
न
कहीं जनाज़ा
उठता न कहीं मज़ार होता
समझदार
तो कहते हैं, अगर
नदी में डूब
मरे होते, जहाज
डूब गया होता
सागर में तो
अच्छा होता। न
कहीं जनाजा
उठता न कहीं
मजार होता।
चिह्न भी मिट
जाते।
क्योंकि सब
चिह्न हमारे
जीवन के हमारे
अज्ञान के ही
चिह्न हैं।
हमारे सब
पगचिह्न
हमारी
भ्रांतियों
के ही प्रमाण
हैं।
जगजीवन
दृढ़ डोरी लाइ
रहु——अब तो
ऐसे प्रेम का
धागा बांधो
ईश्वर से, ऐसी
डोरी बांधो.....
गहि मन
चरन अडाना——कि
उस ठिकाने पर
पहुंचना
सुनिश्चित ही
हो जाए। अब तो
डोर परमात्मा
से जोड़ो।
कौन—सी डोर? ध्यान की
डोर, होश
की डोर, जागरण
की डोर, प्रीति
की डोर। इसे
मजबूत करो।
कोई
आदमी कुएं में
गिर जाए, तुम
डोर फेंकते हो
बाहर निकाल
लेने को। अगर
दार्शनिक
किस्म का आदमी
हो तो पूछेगा,
डोर किसने
बनाई? हिंदू
ने कि मुसलमान
ने, ब्राह्मण
ने कि शूद्र
ने? हर
किसी की डोर
नहीं पकड़ूंगा।
डोर क्यों
बनाई? बनाने
का कारण क्या
है? डोर
क्यों कुएं
में डाली? मुझे
बचाने का हेतु
क्या है? इतनी
सारी बातों का
उत्तर जब पा
जाए, तब
अगर कोई डोर पकड़ने को
राजी हो तो
शायद मरेगा ही;
डोर पकड़ ही
नहीं पाएगा।
इन सारी बातों
का क्या उत्तर
है?
लेकिन
कुएं में
डूबता आदमी ये
बातें पूछता
ही नहीं, डोर
पकड़ लेता है।
मरते को तो
तिनके का
सहारा बहुत हो
जाता है, डोर
आ गई है। तो
तुम भी यह मत
पूछो कि डोर
किसकी है? जहां
से डोर पकड़
में आ जाए!
मस्जिद से तो
मस्जिद, मंदिर
से तो मंदिर, गुरुद्वारे
से तो
गुरुद्वारा।
जहां से डोर पकड़
में आ जाए——बुद्ध,
महावीर, कृष्ण,
कबीर, नानक,
जहां से डोर
पकड़ में आ
जाए। बस डोर
पकड़ लो। इस व्यर्थ
ऊहापोह में मत
पड़े रहो।
मैं
अमृतसर जाता
था तो एक
ज्ञानी सिक्ख
सदा मुझे मिलने
आते थे। उनका
काम एक ही था
कि मैं जो कहूं, वे
तत्क्षण
गुरुग्रंथ
साहब से उसके
प्रमाण में
कोई वक्तव्य
दे दें कि हां,
ऐसा ही
गुरुग्रंथ
साहब में भी
कहा है। मैंने
उनसे कहा कि
गुरुग्रंथ
साहब में कहा
है या नहीं
कहा है यह
सवाल नहीं है।
मैं जो कह रहा
हूं वह तुम्हारी
समझ में आया
कि नहीं? गुरुग्रंथ
साहब में भी
कहा है और
कुरान में भी
कहा है और वेद
में भी कहा है——क्या
होगा? नहीं,
उन्होंने
कहा कि आप जो
कहते हैं, जब
मुझे
गुरुग्रंथ
साहब में उसका
सहारा मिल जाता
है तो मुझे
मानना आसान हो
जाता है।
लोगों
को इसकी फिक्र
है कि किसने
डोर बनाई। अगर
नानक के हाथ
की सील लगी हो
तो डोर पर तो
मान लेंगे।
डूबने में
इतनी फिक्र
नहीं लग रही
है उन्हें।
डूब रहे हैं
इसका शायद पता
भी नहीं है।
और अगर नानक
की सील न लगी हो
तो?
तो वे इंकार
कर देंगे। और
नानक ने क्या
कहा है इसे
क्या खाक
समझोगे तुम! इसे
तो वे ही समझ
सकते हैं जो
जागे और बचे।
जो उबरे
वे ही समझ
सकते हैं।
लोग
तालमेल
बिठाते रहते
हैं। मैं यहां
बोलता हूं, वे
तालमेल
बिठाते रहते
हैं अपनी
किताब से कि हां,
ठीक है। अगर
किताब से मेल
खाया तो ठीक
है। अगर किताब
से मेल नहीं
खाया तो ठीक
नहीं है।
तुम्हें बचना
है कि तुम्हें
किताबों के
मेल बिठालने
हैं? मैं
तुम्हारी तरफ
डोर फेंक रहा
हूं। तुम फिक्र
छोड़ो, डोर
का कोई मूल्य
नहीं है। एक
दफा कुएं के
बाहर निकल आओ
फिर भूल जाना
डोर को। कोई
डोर को लेकर
सिर पर थोड़े
ही घूमता है।
नाव से नदी
पार हो गए, फिर
नाव को सिर पर लेकर
थोड़े ही बाजार
में घूमना
पड़ता है। फिर
नाव किसने
बनाई थी, इसकी
फिक्र छोड़ो।
नाव है इतनी—भर
बात समझ में आ
जाए।
पैयां पकरि मैं लेहुं मनाय
बस, उसके
चरण तुम्हें
जहां भी दिखाई
पड़ने लगें, जहां भी
उसका इशारा
मालूम होने
लगे, जिनकी
आंखों में भी
तुम्हें थोड़ी—सी
उसकी आभा
दिखाई पड़ने
लगे, जिनके
हाथों में
थोड़ी तुम्हें
उसके हाथों की
पहचान मालूम
होने लगे, जिसकी
वाणी पर
तुम्हें
भरोसा आ जाए।
और बात भरोसे
की है, बात
श्रद्धा की
है। क्योंकि
तुम्हें पता
नहीं है उस
लोक का। इतना
ही हो सकता कि
जो उस लोक से आया
हो, जो उस
लोक में जी
रहा हो, जो
उस लोक से
जुड़ा हो, जरूर
उसकी आंखों
में उस लोक की
कुछ छाया
होगी।
बगीचे से
कोई गुजरता है
तो फूलों की
गंध कपड़ों में
बस जाती है।
जरूर उसमें
कुछ सुवास
होगी। बस उसी
से परोक्ष
तुम्हें
प्रमाण मिल
सकता है। उतना
जहां प्रमाण
मिल जाए वहां
पैर पकड़ लेना।
जगजीवन
को बुल्लेशाह
में ऐसा
प्रमाण मिल
गया। ये वचन
बुल्लेशाह के
लिए कहे हैं, अपने
गुरु के लिए
कहे हैं।
पैयां पकरि मैं लेहुं मनाय
बस
मुझे झलक मिल
गई,
अब मैं छोड़ूंगा
नहीं। अब तो
मैं मानाकर
ही रहूंगा। अब
तो जब तक मुझे
न पहुंचा दो
तब तक छाया की
तरह पीछा करूंगा।
पैयां पकरि मैं लेहुं मनाय
ऐसे भी
बहुत देर हो
गई है। यह
जीवन भी खो न
जाए। यह जीवन
भी चूक न जाए।
अब
के भी तुम दूर
रहे
अब
के भी बरसात
चली!
यह
सावन भी खो न
जाए। मिलन
होना चाहिए।
एक—एक पल
मूल्यवान है।
इसका
रोना नहीं
क्यों तुमने
किया दिल
बरबाद
इसका
ग़म है कि
बहुत देर में
बरबाद किया
कहौं कि तुम्हहीं
कहं मैं जानौं, अब
हौं तुम्हरी
सरनहिं
आय
——कि अब
तो मैं तुमसे
कहता हूं, गुरु
को कह रहे हैं
कि तुम्हारे
अतिरिक्त मैं किसी
को नहीं
जानता। कहीं
मुझे जाना
नहीं है। अब
हौं तुम्हारी सरनहिं आय——अब
मैं तुम्हारी
शरण आ गया
हूं। अब तुम
मुझे ठुकराओ,
तुम मुझे
भगाओ, भगा
न सकोगे।
दिल
की मजबूरी
क्या शै है कि
दर से अपने
उसने
सौ बार उठाया
तो मैं सौ बार
आया
गुरु
भगाए भी, हटाए
भी, भागना
मत। गुरु भगाएगा,
हटाएगा भी।
क्योंकि
इन्हीं कसौटियों
से गुजरकर डोर
मजबूत होती
है। इन्हीं चुनौतियों
को पार
करनेवाला
समर्थ होता है,
पात्र बनता
है।
कहौं कि तुम्हहीं
कहं मैं जानौं, अब
हौं तुम्हरी
सरनहिं
आय
जोरी
प्रीत न तोरी कबहूं, यह
छबि सुरति बिसरि
नहिं जाय
मैंने
तो जो प्रीति
जोड़ ली, अब तोड़ूंगा
नहीं और यह
छबि को बिसरने
नहीं दूंगा।
अब तो यही मेरी
संपदा है। तुम
चाहे कितनी ही
नजरें चुराओ
और तुम चाहे
कितनी ही
नजरें बचाओ, मैं यह भिक्षापात्र
लिए तुम्हारे
सामने बैठा
हूं। ये मेरे
आंसू गिरते
रहेंगे
तुम्हारे
चरणों पर। मैं
तुम्हें पुकारूंगा।
बस
एक लतीफ
तबस्सुम, बस
एक हसीन नजर
मरीज़—ए—गम
की यह हालत
सम्हल तो सकती
है
जरा एक
बार देखो तो
यह मरीज भी
ठीक हो सकता
है। यह दुःख, यह
पीड़ा जा सकती
है। यहां भी
फूल खिल सकते
हैं।
जोरी
प्रीत न तोरी कबहूं, यह
छबि सुरति बिसरि
नहिं जाय
परदे
से इक झलक जो
वो दिखलाके
रह गए
मुश्ताक—ऐ—दीद
और भी ललचाके
रह गए
और फिर
जब थोड़ी—थोड़ी
झलक मिलने
लगती है, थोड़ा—थोड़ा
रस मिलने लगता
है, बूंदाबांदी होने लगती
है तो फिर और
भी प्रगाढ़
प्यास जगती है,
ज्वलंत
अग्नि जगती
है।
निरखत रहौं निहारत
निसु दिन.....
फिर
तो चौबीस घंटे
देखता ही
रहूं।
निरखत रहौं निहारत
निसु दिन, नैन
दरस—रस पियौं
अघाय
फिर तो
जितना बन सके, पूरी
तरह तृप्त
होकर वह जो
तुम्हारी
आंखों से दरस—रस,
दर्शन का रस
झलक रहा है
उसे पी लूं।
गुरु
ने देखा है
परमात्मा को, उसकी
आंखों में
उसके दर्शन का
रस है। उसकी
आंखों में
मस्ती है।
शिष्य में
नहीं देखा है
लेकिन गुरु की
आंखों में तो
शिष्य देख
सकता है। गुरु
की आंखों में
तो शिष्य झलक
पा सकता है।
जैसे चांद को
तुम झील में
देख सकते हो
ऐसे ही परमात्मा
को गुरु की
आंख में देख
सकते हो।
जगजीवन के समरथ तुमहीं, तजि
सतसंग
अनत नहिं जाय
अब यह
सत्संग नहीं छोड़ूंगा।
जान ली है
तुम्हारी
सामर्थ्य।
जान लिया है कि
तुम उससे जुड़
गए। इतनी बात
पहचान ली है, अब
कहीं और जाने
का कोई कारण
नहीं रह गया
है। गुरु से
आंख मिलती है
तो एक अपूर्व
घटना घटती है;
एक ऐसा
प्रेम जो फिर
कभी टूटता
नहीं। टूट जाए
तो समझना कि
था ही नहीं।
हमने
पाला मुद्दतों
पहलू में और
हम कुछ भी
नहीं
तुमने
देखा एक नजर
और दिल
तुम्हारा हो
गया
तुम्हारा
ग़म, तुम्हारी
याद जब तक साथ
देती है
कठिन
हो कितनी ही
मंजिल, कदम
बोझिल नहीं
होते
और
गुरु की याद
के सहारे
यात्रा शुरू
हो जाती है।
दूर है मजिंल।
अपनी आंखों से
देखना उस परम
को पता नहीं
कब होगा, पर उन
आंखों से तो
हम जुड़ ही सकते
हैं जिनको
घटना घटी हो।
हमारा दीया जब
जलेगा, जलेगा,
लेकिन किसी
जले के दीये
के पास तो हम
सरक सकते हैं——और
पास..... और पास।
और पास—और पास
आ जाने का नाम
सत्संग है।
ऐ
दर्द ये चुटकियां
कहां तक?
उठ
और जिगर के
पार हो जा
और पास!
पीड़ा बढ़ती जाए, प्यास
जगती जाए, प्रार्थना
सघन होती जाए।
झमकि चढ़ि जाऊं
अटरिया री
कैसा
अद्भुत वचन
है! जगजीवन
कहते हैं कि
और जब बिल्कुल
पास आना हो
जाता है तो
क्या होता है
मालूम है? झमकि चढ़ि जाऊं
अटरिया री।
जैसे बस एक ही
छलांग में चढ़
जाऊं अटरिया।
सारी सीढ़ियां
एक ही छलांग
में चढ़ जाऊं।
झमकि चढ़ि जाऊं
अटरिया री
ए
सखि पूंछों
सांई केहिं
अनुहरिया री
बस यही
पूछता हूं कि
यह कैसे घट
सके कि एक ही
छलांग में बात
हो जाए, ऐसी
कोई सूरत बताओ,
ऐसा कोई
मार्ग बताओ। ए
सखि पूंछों
सांई
केहि
अनुहरिया री।
कैसे, किस
सूरत से, किस
ढंग से, किस
विधि से झमकि
चढ़ि जाऊं
अटरिया री।
तुम जिस शिखर
पर बैठे हो
वहां कैसे आ
जाऊं? तुम्हें
देख लिया है गौरीशंकर
पर बैठे। वहां
मैं कैसे आ
जाऊं? मैं
इस अंधेरी झील
में पड़ा हूं।
मैं इस अंधेरी
घाटी में भटका
हूं।
सो
मैं चहौं रहौं तेहिं
संगहिं निरखि
जाऊं बलिहरिया
री
कुछ
ऐसा मार्ग बता
दो कि सो मैं चहौं रहौं
तेहिं संगहिं।
चाहे कुछ भी
हो जाए, तेरा
साथ बना रहे
ऐसा कुछ मार्ग
बता दो। कुछ भी
हो जाए, वहां
पहुंच जाऊं
जहां तू है। झमकि चढ़ि
जाऊं अटरिया
री।
देखते
हो?
सीधे—सादे
सरल गांव के
ग्रामीण आदमी
के वचन, पर
बुद्ध को भी
ईष्या न हो
जाए? झमकि चढ़ि जाऊं
अटरिया——कोई
कठिन शब्द तो
नहीं हैं। कोई
व्याख्या की जरूरत
नहीं है। कुछ
समझाने की बात
नहीं है, सीधी—सीधी
है, साफ—साफ
है।
मैं
समझता हूं तिरि
इशवागरी
को साकी
काम
करती है नजर, नाम
है पैमाने का
गुरु
के पास जो
मदिरा पी जाती
है वह मदिरा
तो आंख से
बहती मदिरा है।
गुरु से जुड़ने
का ढंग उसकी
आंख से जुड़ने
का ढंग है, उसकी
दृष्टि से जुड़ने
का ढंग है, उसके
दर्शन से जुड़ने
का ढंग है।
कभी
जो दिल को
उठाया कदम उठा
न सका
गरज—मैं
कूच—ए—जानां
से उठके
जा न सका
और एक
बार सत्संग हो
जाए,
एक बार. .
.सुनते हो इस
कोयल को? ऐसी
एक बार किसी
के हृदय से
उठती हुई आवाज
सुनाई पड़ जाए,
फिर कहां
जाना है? फिर
कैसा जाना है?
निरखत रहौं पलक
नहिं लाओं, सूतों
सत्त—सेजरिया
री
फिर तो
देखता रहूं, पलक
भी न झपे।
सत्य की सेज
बनाऊं।
तुममें डूब
जाऊं, एक
हो जाऊं।
रहौं तेहिं संग
रंग—रसमाती, डारौं
सकल बिसरिया
री
तेरे
रस में डूबूं, तेरे
संग में डूबूं।
सब और भूल जाए,
बस तू एक
याद रहे।
जगजीवन
सखि पायन परिके, मांगि लेऊं तिन सनिया री
और तो
मैं कुछ जानता
नहीं, तेरे
पैर पकड़ता
हूं। तेरे पैर
पकड़कर
मांगता हूं कि
ही राह बता दे,
तू ही मार्ग
बता दे।
और
जिसने गुरु के
भीतर झांक
लिया पूरा—पूरा, उसने
परमात्मा के
भीतर झांकना
शुरू कर दिया।
गुरु तो खिड़की
है। उस खिड़की
से जिसने झांका
उसे आकाश
दिखाई पड़ा।
खिड़की के पास
आओ तो आकाश दिखाई
पड़े, यही
सत्संग का
अर्थ है।
वो मैगुसार
थी साक़ी
निगाह—ए—मस्त तिरी
तमाम
बज्म में
जाम—ए—शराब
होके फिरी
और जब
किसी गुरु का
सत्संग जम
जाता है, जब पीनेवाले
उसके पास
इकट्ठे हो
जाते हैं तो
कुछ ऐसा थोड़े ही
है कि एक के
पीने से गुरु
चूक जाता है!
चूकता ही नहीं
क्योंकि गुरु
तो है नहीं, अब तो अनंत
स्रोत उससे बह
रहा है।
वो मैगुसार
थी साक़ी
निगाह—ए—मस्त तिरी
तमाम
बज्म में
जाम—ए—शराब
होके फिरी
सारी
महफिल पिए।
सारा संसार एक
गुरु से पी
सकता है, पीनेवाले चाहिए।
मैकशो, मै
की कमी बेशी प'
नाहक़ जोश है
यह
तो साक़ी
जानता है
किसको कितना
होश है
और फिर
जिसको जितनी
जरूरत है उतनी
उसे मिल जाती
है। यह तो साक़ी
जानता है
किसको कितना
होश है।
साधो
नाम तें रहु लौ लाय, प्रगट
न काहू कहहु
सुनाय
यह जो
प्रभु—स्मरण
है,
इसे चुपचाप
करना। यह जो
संबंध बने, अनंत से
तुम्हारी जो
भांवर पड़े, इसे चुपचाप
डाल लेना।
साधो
नाम तें रहु लौ लाय
गुरु
से पूछा कि
मार्ग बता दो।
तुम्हारे पैर
पड़ता हूं, तुम्हारे
पैर गिरता हूं,
मुझे मार्ग
बता दो। और
मर्ग तो एक ही
है कि प्रभु
का स्मरण करो।
तो गुरु ने
कहा, नाम
का स्मरण करो।
जगजीवन
कहते हैं कि
नाम से लौ को
लगा दो। लेकिन
खयाल रखना, प्रकट
न काहू कहहु
सुनाय।
लोगों को
बताते मत
फिरना, उछलते
मत फिरना कि
देखो मैं
कितना भजन कर
रहा हूं, कितना
कीर्तन कर रहा
हूं, कितना
ध्यान कर रहा
हूं। चुपचुप
हो यह बात।
गुपचुप हो यह
बात। जितनी
गुपचुप हो
उतनी गहरी
होगी। छुपाकर
रखना। हीरा
जितना
बहुमूल्य हो,
हम उतना ही
गहरा गड़ा
देते हैं।
झूठे परगट कहत
पुकारिं——वे
जो झूठे हैं, जिन्हें
न प्रार्थना
आती है, न
कीर्तन न भजन,
वे
विज्ञापन
करते फिरते
रहते हैं।
झूठै परगट कहत
पुकारिं, तातैं
सुमिरन जात बिगारि
थोड़ा—बहुत
सुमिरन बनता
भी हो तो मिट
जाता है। कहना
मत,
इसे
सम्हालकर
रखना।
एक बात
तुम जानते हो? इस
दुनिया में
कुछ कठिन
बातों में एक
बात यह है कि
अगर कोई चीज
तुमसे कही जाए
कि गुप्त रखना,
तो रखना
बहुत मुश्किल
हो जाता है।
तुमसे किसी ने
कहा, इस
बात को गुप्त
रखना, किसी
को कहना मत।
बस, बड़ी
मुश्किल हुई।
अब सम्हलती
नहीं, बार—बार
जबान पर आती
है। कह देने
का मन हो—हो
जाता है। और
आखिर में तुम
कहोगे ही।
मुल्ला
नसरुद्दीन
ने अपनी पत्नी
को कुछ कहा और
कहा,
किसी से
कहना मत। देख,
याद रख।
सम्हालकर
रखना। यह
गुप्त ही रहनी
चाहिए बात।
लेकिन दूसरे
दिन गांव—भर
में फैल गई।
मुल्ला बहुत
नाराज आया और
पत्नी से बोला
कि तूने जरूर
किसी को कहा
होगा। बात गांव—भर
में फैल गई।
उससे कहा, मैंने
कहा था लेकिन
साथ में कहा
था, किसी
से कहना मत।
और फिर जब तुम
खुद ही न रख
सके अपने भीतर
और मुझसे कह
दिए तो तुम
क्या आशा रखते
हो कि मैं रख
सकूंगी अपने
भीतर?
किसी
भी चीज को
भीतर रखना
कठिन होता है।
लेकिन अगर
भीतर रख लो तो
अपने आप गहराई
में उतरने लगती
है। जितना भीतर
रखो उतनी
गहराई में
उतरती है।
इसलिए जो लोग
किसी बात को
गुप्त रख सकते
हैं उनमें एक
गहराई होती है, जो
उन लोगों में
नहीं होती जो
किसी बात को
गुप्त नहीं रख
सकते।
इसलिए
सदियों से यह
प्रक्रिया
रही है कि
गुरु जब मंत्र
देता है तो वह
कहता है, गुप्त
रखना। मंत्र में
कुछ खास नहीं
होता। हो सकता
है उसने तुमसे
यही कहा हो, राम—राम
जपो। अब मंत्र
क्या सारी
दुनिया को पता
है राम—राम
जपो। लेकिन
गुरु कान में
कहता है और
कहता है, गुप्त
रखना। अब तुम
बहुत हैरान
होओगे, तुम
बड़े चौंकोगे
कि यह मामला
क्या है?
कल ही
मैं एक लेख पढ़
रहा था। कोई
अमरीकन
हिमालय आया और
किसी गुरु से
दीक्षा लेकर
गया और उसने
मंत्र दिया और
कहा कि देखो, इसे
गुप्त रखना।
और वह अमरीकन
हैरान है कि
इसको गुप्त
क्या रखना? "हरे कृष्ण
हरे राम'——सारी
दुनिया जानती
है। सड़क—सड़क
पर लोग गा रहे
हैं, इसको
गुप्त क्या
रखना? तो
उसने लेख लिखा
है कि यह बात
फिजूल बकवास
है। इसमें गुप्त
रखने—योग्य
कुछ है ही
नहीं। हरे
कृष्ण हरे राम
कौन नहीं
जानता?
चूक
गया। उसे पता
नहीं कि बात
क्या है? सवाल
यह नहीं है कि
मंत्र में कुछ
गुप्त रखने को
है, सवाल
गुप्त रखने
में कुछ
महत्त्व की
बात है। जब
तुम किसी चीज
को गुप्त रखते
हो, आती है
जबान पर और
नहीं आने देते,
लौटा—लौटा
देते हो तो
बाहर जाने की
बजाय भीतर
जाने लगती है।
जाएगी तो
कहीं। अगर
बाहर जाने दी
तो बाहर चली
जाएगी। अगर
बाहर न जाने
दी तो भीतर जाएगी।
अगर सब तरफ से
द्वार—दरवाजे
बंद कर दिए तो
तुम्हारे
प्राणों में
गहरे से गहरे
उतरने लगेगी।
गति तो होने
ही वाली है।
दो ही द्वार
हैं——या तो
बाहर या भीतर।
या तो ऊपर की
तरफ उठे या गहराई
में जाए।
तो
ध्यान रखना, मंत्र
का मतलब यह
नहीं होता कि
उसमें कुछ
छिपाने—जैसा
है। मंत्र में
क्या छिपाने
जैसा है? बंधे—बंधाए
मंत्र हैं।
कोई कहता है
ओम्, कोई
कहता है नमोकार,
कोई कुछ और।
बस सब बंधे—बंधाए
मंत्र हैं, सब किताबों
में लिखे हैं।
गुप्त कुछ भी
नहीं है।
लेकिन गुप्त
रखने की कला
में कुछ बात
है। रसायन
वहां है।
वह
बेचारा
अमरीकन, जब
मैं कल उसका
लेख पढ़ रहा था,
चूक ही गया
बात से। वह
समझ रहा है कि
उसको बुद्धू
बनाया गया। और
अक्सर ऊपर से
दिखाई पड़ेगा
कि हां, बात
तो यही है। जब
ऐसा साधारण—सा
मंत्र है, इसको
छिपाना क्या?
धर्म के
जगत् में
जल्दबाजी मत
करना निर्णय
लेने की; नहीं
तो चूकोगे।
साधो
नाम तें रहु लौ लाय, प्रगट
न काहू कहहु
सुनाय।
झूठै परगट कहत
पुकारिं, तातें
सुमिरन जात बिगारि
भजन
बेलि जात कुम्हलाय, कौनि जुक्ति कै
भक्ति दृढ़ाय
सिखि पढ़ि जोरि
कहै बहु ज्ञान, सो
तौ नाहिं
अहै परमान
सम्हालकर
रखना। भीतर गड़ते
जाना। गहरे
में खोदते
जाना, खोदते
जाना। एक दिन
मंत्र वहां
पहुंच जाएगा जहां
तुम्हारे
प्राणों का स्रोत
है। और जिस
दिन प्राणों
के स्रोत पर
पहुंच जाती है
चिंगारी
मंत्र की, आग
भभककर
उठती है। सब
व्यर्थ राख हो
जाता है और
सार्थक प्रकट
होता है।
सिखि पढ़ि
जोरि कहै
बहु ज्ञान——कुछ
लोग हैं जो
सीख लेते हैं, पढ़
लेते हैं, ज्ञान
को जोड़ते
रहते हैं और
सोचते हैं, ज्ञानी हो
गए। ऐसे कोई
ज्ञानी नहीं
होता। जब तक
चिंगारी बोध
की तुम्हारे
भीतर जाकर
तुम्हारी
ज्योति को न
जगा दे तब तक
कोई ज्ञानी
नहीं होता।
सो तो
नाहिं अहै परमान——खयाल
रखना, यह पढ़ा—लिखा,
सुना हुआ, गुना हुआ, दूसरों से
सीखा हुआ उधार
ज्ञान
परमात्मा का प्रमाण
न है, न हो सकता
है। उसका तो
सिर्फ एक ही
प्रमाण है और
वह है स्वयं
का
साक्षात्कार।
प्रीति—रीति
रसना रहे गाय, सो
तौं राम कों
बहुत हिताय
सुनते
हो?
कैसा रसभरा
वचन है!
सिखि पढ़ि जोरि
कहै बहु ज्ञान, सो
तो नाहिं अहै परमान
प्रीति—रीति
रसना रहै
गाय,.....
लेकिन
प्रेम से, भीतर—भीतर
रस उमगे, रस में
डूबे। ऐसा
डूबे कि भीतर
का रस एक दिन
बाहर गीत बनकर
प्रकट होने
लगे।
प्रीति—रीति
रसना रहै
गाय, सो तौ राम कों
बहुत हिताय
ऐसा
व्यक्ति
परमात्मा को
बहुत प्यारा
हो जाता है।
तुम्हारे पढ़े—लिखे
ज्ञान से तुम
परमात्मा के
प्यारे नहीं होते।
पांडित्य
तुम्हें दूर
रखता है, निकट
नहीं लाता।
प्रेम पास
लाता है। ढाई
आखर प्रेम का पढ़े सो
पंडित होय।
सो तौ
मोर कहावत दास——जिसने
प्रीति की
रीति सीख ली, वह
तो उसका दास
हो जाता है।
सो तौ मोर
कहावत दास, सदा
बसत हौं तिनके
पास
परमात्मा
उनके पास बसने
लगता है। फिर
भक्त को
परमात्मा को
खोजने नहीं
जाना पड़ता, परमात्मा
ही भक्त को
खोजता आने
लगता है।
मैं—मरि
मन तें
रहे हैं हारि——जो
मर गया अपने
मैं—भाव में, जिसने
अपनी मन की
हार मान ली, स्वीकार कर
ली, दिप्त ज्योति तिनकै
उजियारि——उसके
भीतर ही
ज्योति जलती
है और उजियारा
होता है।
जगजीवनदास
भक्त भै
सोइ,
तिनका
आवागमन न होइ
ऐसा
व्यक्ति ही
भक्त है। और
ऐसे भक्त का
फिर आवागमन
नहीं होता।
उसकी ज्योति
महाज्योति में
लीन हो जाती
है। उसे मरने
की कला भी आ
गई। उसने जिया
भी उत्सव से, वह
मरा भी उत्सव
से। जीवन भी
जब उत्सव हो
और मृत्यु भी
जब उत्सव हो
जाए, जब
जीवन भी प्रभु
का गुणगान हो
और मृत्यु भी
प्रभु का
गुणगान बने, तभी जानना, तुम व्यर्थ
नहीं गए; तुम
सार्थक हुए।
बौरे, जामा
पहिरि न
जाना
बहुत
बार इन्हीं
कपड़ों में
डूबे—डूबे चले
गए हो, इस बार जगकर
चैतन्य को
पहचान कर
जाना।
चुन
लिए औरों ने गुलहा—ए—मुराद
रह
गए दामन ही
फैलाने में हम
देर न
करो। और कल की
प्रतीक्षा मत
करो। कल का कोई
भरोसा नहीं।
कल कभी आता
नहीं।
सूत्र
सीधे—साफ हैं।
ज्ञान से नहीं
मिलता है
परमात्मा, प्रेम
से मिलता है।
ज्ञान तो अकड़ा
देता है, अहंकार
से भर देता
है। प्रेम
उसके चरणों
में झुका देता
है। पैयां
पकरि मैं लेहु मनाय।
प्रेम ही मना
सकता है पैयां
पकड़कर।
ज्ञान तो
दावेदार होता
है। कहता है, मैं इतना
जानता हूं
इसका मुझे
पुरस्कार
चाहिए। प्रेम
दावेदार नहीं
होता, प्रेम
विनम्र होता
है। प्रेम
कहता है, मेरी
क्या योग्यता?
मैं अपात्र
हूं। तेरी
करुणा का
भरोसा है, अपनी
पात्रता का
भरोसा नहीं
है।
और एक
बार तुम उसके
चरणों में
अपने को छोड़ो, तुम
हैरान हो
जाओगे। उसका
हाथ तुम्हारे
सिर पर आ जाता
है। उसका हाथ
तुम्हारे हाथ
में आ जाता
है।
सबा
के हाथ में
नमी है उनके
हाथों की
ठहर—ठहरकर
यह होता है आज
दिल को गुमां
वह
हाथ ढूंढ़ रहे
हैं बिसाते—महफिल
में
कि
दिल के दाग
कहां हैं, नशिस्ते—दर्द कहां
तेरा
जमाल निगाहों
में ले—लेके
उट्ठा
हूं
निखर गई
है फिज़ा
तेरे पैरहन की—सी
नसीम
तेरे शबिस्तां
से होके आयी
है
मेरे
सहर में महक
है तेरे बदन
की—सी
फिर तो
सब तरफ उसी का
अनुभव होने
लगता है। सब
के हाथों में
नमी है उनके
हाथों की। हवा
आती है, हल्के
से एक झोंका
दे जाती है और
लगता है, उसके
हाथों का
स्पर्श हुआ।
लगता ही नहीं,
होता है।
हवा उसके ही
हाथ हैं। नहीं
पहचाना तो हवा
है, पहचाना
तो उसके हाथ
हैं।
सबा
के हाथ में
नमी है उनके
हाथों की
ठहर—ठहरके यह
होता है आज
दिल को गुमां
अब तो
धीरे—धीरे
विश्वास होने
लगा। ठहर—ठहरकर
विश्वास आ रहा
है,
श्रद्धा आ
रही है।
वह
हाथ ढूंढ रहे
है बिसाते—महफिल
में
इतनी
बड़ी महफिल में, लेकिन
वे हाथ भक्त
को ढूंढने
लगते हैं, अपने
प्यारे को
ढूंढने लगते
हैं कि दिल के
दाग कहां हैं,
नशिस्ते—दर्द कहां
है। कि कहां—कहां
दाग हैं, कहां—कहां
घाव हैं ताकि
मलहम—पट्टी हो
सके। नशिस्ते—दर्द
कहां! कहां—कहां
दर्द के स्थान
हैं, ताकि
वे हाथ आएं और
घावों को भर
दें। कहां—कहां
रोग है, ताकि
उपचार हो सके।
वह
हाथ ढूंढ रहे
है बिसाते—महफिल
में
कि
दिल के दाग़
कहां हैं, नशिस्ते—दर्द कहां
तेरा
जमाल निगाहों
में ले—लेके
उट्ठा
हूं
फिर तो
उसी का रूप
दिखाई पड़ता
है। वृक्षों
की हरियाली
में उसकी
हरियाली और
फूलों के रंग
में उसका रंग।
इंद्रधनुषों
में वही तना
है। सूरज की
किरणों में
वही फैला है।
सागर की लहरों
में वही गूंजा
है। उसी की
गुंजार!
पहाड़ों में
वही सिर उठाए
खड़ा है। सब
तरफ उसका रूप।
तेरा
जमाल निगाहों
में ले—लेके
उट्ठा
हूं
निखर गई
है फिज़ा
तेरे पैरहन की—सी
सब कुछ नहा गया
है। तुझे
नहाया हुआ
देखता हूं
चारों तरफ।
क्योंकि सारे
रंग तेरे, सारे
रूप तेरे।
नसीम
तेरे शबिस्तां
से होके आयी
है
और
मुझे अब पक्का
भरोसा है कि
यह हवा, जो
सुवास लेकर आ
रही है, यह
तेरे
निवासस्थान
से आ रही है, यह तेरे
मंदिर से आ
रही है।
नसीम
तेरे शबिस्तां
से होके आयी
है
मेरे
सहर में महक
है तेरे बदन
की—सी
और
मेरी सुबह में
जो महक मुझे
मिल रही है, वह
तेरे देह की
महक है; वह
तेरी महक है।
फिर तो वर्षा
होती है और
जमीन से सोंधी
गंध उठती है, उसी की गंध
है। फिर तो सब
उसका है। एक
बार पहचान। और
पहचान की रीति——प्रीति,
ज्ञान
नहीं। जो
ज्ञान में
भटके, अज्ञानी
रह गए। और
जिन्होंने
अपने अज्ञान
को पहचाना, उसके चरणों
में झुके और
कहा,
पैयां पकरि मैं लेहु मनाय
कहौं कि तुम्हहीं
कहं मैं जानौं, अब
हौं तुम्हरी
सरनहिं
आय
जोरी
प्रीत न तोरी कबहूं, यह
छबि सुरति बिसरि
नहिं जाय
पैयां पकरि मैं लेहु मनाय
जो ऐसा
कह सकता है, ऊपर—ऊपर
नहीं, प्राणों
से; अपनी
समग्रता से, उसे देर
नहीं लगती। चढ़
जाता है
अटरिया उसकी। झमकि चढ़ि
जाऊं अटरिया
री।
रास्ता
साफ है। तुम
जरा सरल होओ।
तुम जरा सम्हलो।
रास्ता साफ है, तुम
जरा होश से
भरो। तुम भी
चढ़ सकोगे उसकी
अटरिया। और
उसकी अटरिया
जो चढ़ गया, अमृत
को पा गया।
सच्चिदानंद
उसकी अटरिया
का दूसरा नाम
है।
झमकि चढ़ि जाऊं
अटरिया री
उठने
दो इस भाव को
गहरे
तुम्हारे
भीतर। रोएं—रोएं में
समाने दो।
कहते मत फिरना, गुप्त
रखना।
साधो
नाम तें रहु लौ लाय, प्रगट
न काहू कहहु
सुनाय
झूठै परगट कहत
पुकारिं, तातें
सुमिरन जात बिगारि
भजन
बेली जात कुम्हलाय.....
कहना
मत। भजन की
बेल कुम्हला
जाएगी। जैसे
कोई जमीन से
बेल को उखाड़
ले देखने जड़ों
को और लोगों
को दिखाने को
कि देखो, मेरी
बेल की जड़ें
कितनी मजबूत
हैं। उसकी बेल
कुम्हला
जाएगी। जड़ें
तो अंधेरे में
छिपी रहनी चाहिए।
ऐसे ही
तुम्हारे
अंतस्तल में,
तुम्हारे
गहरे प्राणों
में तुम्हारे
भजन की जड़ें समायी
रहनी चाहिए।
सिखि पढ़ि जोरि
कहै बहु ज्ञान, सो
तो नाहिं अहै परमान
उसका
प्रमाण उससे
मिलता है
जिसने उसे
प्रेम किया।
उससे नहीं, जिसने
शास्त्रों से
उसके संबंध
में जानकारी इकट्ठी
की। रामकृष्ण
से किसी ने
पूछा, ईश्वर
का प्रमाण
क्या है? रामकृष्ण
ने कहा, मैं
प्रमाण हूं।
मेरी तरफ
देखो। मेरी
आंखों में
झांको। मेरे
हाथ को अपने
हाथ में लो।
मैं प्रमाण
हूं।
उस दिन
को दिन कहना
जिस दिन तुम
भी कह सको, मैं
प्रमाण हूं।
जब तक वैसा
दिन न आ जाए तब
तक समझना, सब
रात है। और
रात भी रात—सी
रात——अमावस की
रात है।
आज
इतना ही।
thank you guruji
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