प्यारे
ओशो!
उत्तमा
तत्वचिन्तैव
मध्यम
शास्त्रचिन्तनम्।
अधम? तंत्रचिन्ता
च
तीर्थभ्राज्यधमाधमा।।
अनुभूति
विना मूखो
वृथा
ब्रह्मणि
मोदते।
प्रतिबिम्बतशाखाग्रफलास्वादनमोदवत्।।
तत्व
का चिंतन
उत्तम है, शास्त्र
का चिंतन
मध्यम है, तंत्र
की चिंता अधम
है
और
तीर्थों में
भटकना अधम से
भी अधम है।
जैसे
कोई पेडू की
छाया में
प्रतिबिम्बत
फल को खाकर
प्रसन्न हो,
वैसे
ही वास्तविक
अनुभव के बिना
मूढ़ मनुष्य ब्रह्म
का
आनंद
पाने की
व्यर्थ
कल्पना करता
है।
प्यारे
ओशो! हमें
मैत्रेयी
उपनिषद् के इन
दो सूत्रों का
अभिप्राय
समझाने की
अनुकंपा करें।
पूर्णानंद!
तत्व का चिंतन
उत्तम है, क्योंकि
तत्व का चिंतन
हो ही नहीं
सकता। तत्व का
चिंतन असंभव
है। तत्व
वस्तु नहीं है,
विषय नहीं
है; तत्व
तो तुम्हारी
जीवन ऊर्जा है,
तुम्हारा
स्वरूप है, तुम्हारी
चेतना है।
तत्व
का चिंतन नहीं
होता—तत्व की
चेतना होती है।
तत्व का अनुभव
ही तब होता है, जब
सब चिंतन छूट
जाता है, सब
चिंता छूट
जाती, सब
विचार शून्य
हो जाते हैं।
जहां कोई तरंग
नहीं होती
चित्त पर, जहां
चित्त
निस्तरंग
होता है—वही
अनुभूति है
तत्व की।
इसलिए
मैत्रेयी
उपनिषद् का यह
सूत्र महत्वपूर्ण
है;
इशारा कर
रहा है। लेकिन
शब्दों में
इशारा करना
असंभव नहीं, तो कठिन तो
है ही। उन्हीं
शब्दों का
उपयोग करना
होता है, जो
उपलब्ध हैं।
और सभी शब्द
आदमी के गढे
हुए हैं और
तत्व तो आदमी
का गढ़ा हुआ नहीं
है। इसलिए
किसी शब्द में
तत्व समाता
नहीं।
एक
होटल में
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
प्रवेश किया।
गर्मी के दिन
हैं,
सूरज से आग
बरसती है। थका—मादा
पसीना—पसीना
आकर होटल में
बैठा। मैनेजर
ने आकर कहा कि
क्या आपकी
सेवा करें?
मैनेजर
था कुछ
दार्शनिक
वृत्ति का
व्यक्ति।
फुरसत के समय
में दर्शन पढ़ा
करता था।
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
कहा,
'कुछ और
नहीं। सबसे
पहले तो पानी
का एक गिलास।’
मैनेजर
ने कहा, 'क्षमा
करें। कांच का
गिलास तो दे
सकता हूं पानी
का गिलास कहां
से लाऊं!'
पानी
का गिलास होता
ही नहीं। कहते
हम सब हैं—'पानी
का गिलास', काम
चल जाता है।
समझनेवाला
समझ लेता है।
ऐसे
ही समझना इस
सूत्र के
प्रारंभ को 'पानी
के गिलास' की
भांति। इस पर
अटक मत जाना।’उत्तम? तत्वचिंतैव—उत्तम
है तत्व का
चिंतन।’
ऐसा
मत सोच लेना
कि तत्व का
कोई चिंतन
होता है। तत्व
का कोई चिंतन
होता ही नहीं; तत्व
का तो अनुभव
होता है। और
अनुभव भी तब
होता है, जब
चिंतन शून्य
हो जाता है।
लेकिन
किसी भी शब्द
का उपयोग करो, कठिनाई
खड़ी हो जाती
है। अगर कहो, तत्व का
ध्यान—उपद्रव
शुरू हुआ
क्योंकि
ध्यान भी तो
तुम किसी विषय
का करते हो।
धन का लोभी, धन का ध्यान
करता है। काम
से पीड़ित, काम
का ध्यान करता
है। तत्व का
कैसे ध्यान
होगा? ध्यान
भी तो विषय —का
होता है।
मेरे
पास लोग आकर
पूछते हैं, 'किसका
ध्यान करें? राम का, कृष्ण
का, बुद्ध
का, महावीर
का—किसका
ध्यान करें? कौन—सा
ध्यान सार्थक
होगा?' शब्द
ने भरमाया।
शब्द ने खूब
भरमाया है, सदियों से
उलझाया है। जंगलों
में भटके लोग
तो कभी न कभी
घर लौट आते
हैं ,शब्दों
में भटके लोग
जन्मों—जन्मों
तक भटकते रहते
हैं। फिर
शब्दों में और—और
शब्द लगते चले
जाते हैं।
शब्दों
में और नयी—नयी
शाखाएं निकल
आती हैं, नये—नये
पत्ते, नये—नये
फूल। शब्दों
की शृंखला का
कोई अन्त ही
नहीं है।
यह
पूछना कि 'किसका
ध्यान करें?' बुनियादी
रूप से गलत
सवाल है। मगर
मैं उनकी
मजबूरी समझता
हूं। वे हमेशा
बाहर की भाषा
में ही सोच
सकते हैं, क्योंकि
सारी भाषा ही:
बाहर के लिए
है। भीतर तो
मौन है। भीतर
की तो कोई
भाषा होती
नहीं। भीतर तो
भाषा की कोई
जरूरत नहीं।
भाषा
का उपयोग ही
तब है, जब हम
किसी और से
बोल रहे हों।
भाषा संवाद है।
जहां मैं और
तू है, वहा
भाषा की
उपादेयता है।
जहां दो हैं, वहां भाषा
है। और जहां
एक ही बचा, वहां
कैसी भाषा!
वहां तो मौन
रह जाता है।
इसलिए
मैं कहता हूं.
परमात्मा की
तो एक ही भाषा
है—मौन। वहां
बोलकर चूक
जाओगे। न बोले—पा
जाओगे। वहां
एक शब्द भी उठ
गया,
तो जमीन और
आसमान का
फासला हो
जाएगा। वहा
बोलना ही मत।
पश्चिम
के बहुत बड़े
विचारक, यहूदी
दार्शनिक, मार्टिन
बूबर ने अपनी
प्रसिद्धतम
पुस्तक में
लिखा है.......।
पुस्तक का नाम
है—'मैं और
तू—आइ एण्ड
दाऊ।’ इस
सदी में लिखी
गयी
महत्वपूर्ण
से
महत्वपूर्ण किताबों
में एक है।
लेकिन बूबर एक
दार्शनिक हैं—ऋषि
नहीं, विचारक
हैं—मनीषी
नहीं। सोचा है,
समझा है—जाना
नहीं, पहचाना
नहीं, अनुभव
नहीं, स्वाद
नहीं, पीया
नहीं। प्यास
वैसी की वैसी
है। शब्दों से
प्यास बुझ भी
नहीं सकती है।
किसी
को प्यास लगी
हो और तुम
सिर्फ पानी की
बातें करो, सुंदर—सुंदर
बातें करो; वर्षा के
गीत गाओ, मेघ
मल्हार छेड़ो—तो
भी प्यास न
बुझेगी।
भूख
लगी हो, तो
पाक शास्त्र
किसी काम के
नहीं हैं।
रूखी—सूखी
रोटी भी
ज्यादा
उपयोगी।
लेकिन
परमात्मा के
संबंध में हम
पाक शास्त्रों
में उलझे हैं।
और क्या हैं
वेद? और
क्या हैं
कुरान? और
क्या हैं
पुरान? और
क्या हैं
बाइबिलें?
ब्रह्म
की भूख है, सत्य
की भूख है, और
शब्दों के थाल
सजे रखे हैं!
सुंदर—सुंदर
थाल! तुम भूखे
बैठे हो, और
रंगीन से
रंगीन छपा हुआ
मेनु भी
तुम्हारे हाथ
में पकड़ा दिया
जाये, तो
क्या करोगे!
उलटोगे—पलटोगे।
पेट तो न
भरेगा! मेनु
से तो कभी
किसी का पेट
भरा नहीं।
वैसी ही
स्थिति
दार्शनिक की,
चिंतक की
होती है।
रूर
ने किताब तो
बड़ी
महत्वपूर्ण
लिखी। लिखा है
कि 'परमात्मा और
व्यक्ति के
बीच जो
प्रार्थना का संबंध
है, वह मैं
और तू का संवाद
है।’ लेकिन
जहां 'मैं'
हो और 'तू,
हो, वहां
संवाद होता है?
वहां तू —तू
मैं —मैं होती
है! वहां
विवाद होता है।
संवाद तो वहां
है, जहां 'मैं' और 'तू, मिलकर
एक हो जाते
हैं। जहां मैं
—मैं नहीं, तू
—तू नहीं; जहां
दोनों गये; जहां अद्वय
बचा। लेकिन
फिर वहां, जब
विवाद नहीं है,
तां संवाद.
भी कहां!
संवाद भी क्या
जरूरत! मौन में
ही बात कह दी
गयी, मौन
में ही बात
समझ ली गयी।
परमात्मा की
भाषा मौन है।
अर
जिस
प्रार्थना की
बात कर रहे
हैं,
वह
प्रार्थना
सच्ची नहीं।
मैं और तू का
संवाद—वह कहते
हैं—प्रार्थना
है। मैं तुमसे
कहता हूं : मैं
और तू जब तक है
तब तक कहां
प्रार्थना? जहां मैं
नहीं, तू
नहीं, जहां
दोनों गये, जहां कोई
नहीं, जहां
घर में
सन्नाटा हो
गया; जहां
विवाद क्षीण,
जहां संवाद
क्षीण; जहां
शून्य का
साम्राज्य
स्थापित हो
गया—उस शून्य
में जो संगीत
बज उठता है, जो
हृदयतंत्री
कंपित हो उठती
है; जो
शब्द—शून्य, जो मौन
गद्गद्
अवस्था होती
है—आंखें आनंद
से गीली हो
आती हैं; प्राण
आनंद से पुलक
उठते हैं; एक
नृत्य घेर
लेता है—उस
घड़ी का नाम
प्रार्थना है।
उसी घड़ी का
नाम ध्यान है।
ये
शब्द ही अलग—अलग
हैं।’प्रार्थना'
प्रेमी का
शब्द है।’ ध्यान'
ज्ञानी का
शब्द है।
प्रार्थना
मीरा का, चैतन्य
का, राबिया
का, जीसस
का, जरथुस्त्र
का। ध्यान
पतंजलि का, लाओत्सु का,
महावीर का,
बुद्ध का।
शब्द का ही
भेद है, लेकिन
अर्थ? अर्थ
तो एक ही है।
अर्थ में जरा
भी अंतर नहीं
है।
एक
जर्मन
सेनापति
दूसरे
महायुद्ध के
बाद अपने
अंग्रेज
सेनापति से
बातें कर रहा
था और उसने
कहा कि 'पता
नहीं, हम
क्यों हारे
हैं? यह
बात राज ही
बनी रहेगी। यह
रहस्य कभी
खुलेगा या
नहीं! क्योंकि
शक्ति हमारे
पास ज्यादा थी।
वैज्ञानिक, तकनीकी
दृष्टि से हम
तुमसे ज्यादा
सम्पन्न थे।
फिर भी हम
हारे! और तुम
जीत गये! यह बात
गणित में
बैठती नहीं!'
अंग्रेज
सेनापति
मुस्कुराया
और उसने कहा, 'उसका
राज मैं
तुम्हें बताए
देता हूं। राज
छोटा है। बात
छोटी है, मगर
गहरी है। हम
इसलिए जीते
हैं कि हर
युद्ध के दिन
की शुरूआत में
हम प्रार्थना
करते थे। हम
परमात्मा की
प्रार्थना
करके ही युद्ध
में उतरते थे।
माना कि
तकनीकी
दृष्टि से, वैज्ञानिक
दृष्टि से हम
तुमसे पीछे थे,
मगर
परमात्मा जब
साथ हो, तो
फिर किसी और
चीज की जरूरत
नहीं है।
इसलिए हम जीते
और तुम हारे।’
जर्मन
सेनापति ने
कहा,
'यह बात तो
और भी उलझा
देती है मामले
को—सुलझाती
नहीं।
क्योंकि
प्रार्थना तो
हम भी करते थे—रोज
करते थे। नियम
से करते थे।
प्रार्थना के
बाद ही युद्ध
पर जाते थे।
अगर
प्रार्थना से
ही निर्णय
होना था, तो
हमारी
प्रार्थना
तुमसे कुछ
कमजोर न थी!'
अंग्रेज
सेनापति तो
खिलखिलाकर
हंस पड़ा। उसने
कहा,
'तुम समझते
नहीं बात। तुम
प्रार्थना
किस भाषा में
करते थे?' स्वभावत:
जर्मन ने कहा
कि 'हम
जर्मन भाषा
में करते थे!'
अंग्रेज
ने कहा, 'बस
बात साफ हो
गयी। अरे, भगवान
जर्मन भाषा
समझता है? हम
अंग्रेजी में
करते थे, इसलिए
हमारी बात
पहुंच गयी, और तुम्हारी
बात नहीं
पहुंची।’
हंसो
मत इस पर।
सेनापति तो
बुद्ध होते हैं।
बुद्ध न हों, तो
सेनापति न
हों!
सेनापतियों
को माफ किया
जा सकता है, लेकिन
तुम्हारे
पंडित—पुरोहित
भी तो यही
कहते रहे। वे
कहते हैं, 'संस्कृत
देव— भाषा है!
वह ईश्वर की
अपनी भाषा है।
संस्कृत में
बोलोगे तो
समझेगा।’ और
जैन कहते हैं,
'प्राकृत
में बोलोगे तो
समझेगा।’ और
बौद्ध कहते
हैं, 'पाली
में बोलोगे तो
समझेगा।’ और
यहूदी कहते
हैं, 'हिब्रु
के सिवाय उसे
कोई भाषा आती
नहीं!' और
मुसलमान कहते
हैं, 'अरबी
ही बस, उसकी
भाषा है। और
सब तो आदमियों
की ईजादें
हैं! अगर अरबी
उसकी भाषा न
होती, तो
कुरान अरबी
में क्यों
उतरता?'
सारी
भाषाएं आदमी
की हैं। उसकी
कोई भाषा नहीं।
मौन ही उसकी
भाषा है। और
चिंतन मौन का
अभाव है। तत्व
को जानना हो
तो शून्य होना
होता है।
इसलिए इस पहली
बात को ठीक से
समझ लो।
'उत्तमा
तत्वचितैव
—तत्व
के चिंतन को
उत्तम कहता है
ऋषि,
क्योंकि
तत्व का चिंतन
चिंतन ही नहीं
होता। तत्व का
चिंतन
अर्थात्
चिंतन से
रिक्त हो जाना,
अचिंत्य हो
जाना। तत्व का
चिंतन
अर्थात्
निर्विचार, निर्विकल्प,
निर्बीज—इसलिए
उत्तम। उत्तम
होने का कारण?
क्योंकि
जहां शून्य है,
वहा पूर्ण
है। तुम शून्य
हुए और पूर्ण
उतरा। पूर्ण
उतरता ही
शून्य में है।
घड़े
को भरना हो, तो
पहले उसे कूड़े—करकट
से तो खाली कर
लेना होगा न!
घड़ा खाली हो, तो ही भर
सकता है।
इस
प्रकृति का एक
नियम है कि यह
खालीपन को पसंद
नहीं करती। यह
खालीपन को तत्क्षण
भर
देती है।
तुमने कभी
देखा : नदी की
जलधार में
अंजुलि बनाकर
पानी को भरा
है! और जैसे ही
अंजुलि को ऊपर
उठाया है, वैसे
ही चारों तरफ
से जल दौड़ा है।
और अंजुलि में
भरे जल के
कारण जो थीड़ा—सा
गड्डा पैदा हो
गया था, वह
फिर भर गया है।
तत्क्षण भर
जाता है। देर
ही नहीं लगती।
ऐसे
ही तुम जरा
शून्य तो होओ
और तुम पाओगे :
तुम्हारे
शून्य से
चारों तरफ से
परमात्मा की
ऊर्जा दौड़
पड़ती है; तुम्हारी
तरफ प्रवाहित
होने लगती है।
तुम्हें भर
देती है।
तुम्हें ऐसा
भर देती है कि
तुम कभी भी न
भरे थे। लेकिन
यह भराव
तुम्हारे 'मैं'
का भराव
नहीं है। इस
भराव में तुम
तो गये, तुम
तो मिटे—परमात्मा
बचा। यह भराव
यूं है जैसे
कोई बांसुरी में
गीत को बजाये,
जैसे कोई
बांसुरी में
सुर छेड़ दे।
बांसुरी तो
खाली है और
इसलिए तो स्वर
उससे प्रवाहित
हो पाते हैं।
तत्व
के चिंतन को
उत्तम कहा, क्योंकि
तत्व का चिंतन
चिंतन ही नहीं
है।
मैं आप
अपनी तलाश में
हूं मेरा कोई
रहनुमा नहीं
है।
वो क्या
दिखाएंगे राह
मुझको, जिन्हें
कुछ अपना पता
नहीं है।
मुसर्रतों
की तलाश में
है, मगर यह
दिल जानता
नहीं है।
अगर गमे
जिदंगी न हो, तो
जिदंगी में
मजा नहीं है।
शुऊर—ए—सजदा
नहीं है मुझको, तो
मेरे सजदों की
लाज रखना,
यह सर तेरे
आस्तां से
पहले, किसी
के आगे झुका
नहीं है।
ये इनके मंदिर, ये
इनकी मस्जिद,
ये
जरपरस्तों की
सजदागाहें,
अगर ये
इनके खुदा का
घर है, तो
इनमें मेरा
खुदा नहीं है।
बहुत
दिनों से मैं
सुन रहा था, सजा
वो देते हैं
हर खता पर,
मुझे तो
इसकी सजा मिली
है, कि मेरी
कोई खता नहीं
है।
यह
सूत्र बड़ा क्रांतिकारी
है। इस सूत्र
में बड़ी आग है।
जल सको तो नये
हो जाओ। जल
सको इसमें तो
नया जीवन मिल
जाये।’उत्तमा
तत्व चिन्तैव—उत्तम
है तत्व का
चिंतन।’ ' मध्यम
शास्त्रचिन्तनम्
—और शास्त्र
का चिंतन
मध्यम, नम्बर
दो का। क्यों?
क्योंकि
शास्त्र के
चिंतन का अर्थ
होता है—उधार,
बासा; किसी
और ने जाना, किसी और ने
जीआ—तुमने तो
सिर्फ सुना।
किसी ने स्वाद
लिया, तुम्हारे
हाथ तो सिर्फ
शब्द पड़े, किसी
ने अमृत पीया,
अमृत हुआ और
तुम्हारे हाथ
में तो बस यह
कोरी बात रह
गयी।
जैसे
कोई नदी के तट
पर चलता है, तो
रेत पर
पदचिह्न बन
जाते हैं।
आदमी तो गुजर
जाता है, पदचिह्न
पड़े रह जाते
हैं। शास्त्र
पदचिह्न हैं।
समय की रेत पर
बुद्धों के
पैंरों के
चिह्न। मगर
समय की रेत पर
बुद्ध भी चलते
हैं! और बुद्धों
के और बुद्धओं
के पैरों के
चिह्नों में
कुछ बहुत भेद
नहीं होता। एक
तो बुद्धों के
भी पैरों के
चिह्न ही हैं
वे, उन पर
अगर चले भी तो भी
तुम न पहुंच
पाओगे।
क्योंकि दो
व्यक्ति एक
जैसे नहीं
होते। इसलिए
जिसने भी किसी
दूसरे
व्यक्ति का
अनुसरण करने
की चेष्टा की,
उसने अपने
भाग्य में हार
लिख ली। उसने
अपने को बरबाद
करने का
इंतजाम कर
लिया।
सुनना
सबकी—गुनना
अपनी। समझो, बुद्धों
ने जो कहा हो, मगर लकीर के
फकीर न हो
जाना। और
शास्त्रों का
अध्येता लकीर
का फकीर हो
जाता है। उसकी
आंखों पर
शास्त्रों के
चश्मे चढ़ जाते
हैं। और इतने
शास्त्रों के
शब्द उसकी आंखों
पर इकट्ठे हो
जाते हैं कि
उसे दिखायी ही
पड़ना बंद हो
जाता है।
शास्त्रों
ने जितने
लोगों को अंधा
किया है, उतना
किसी और चीज
ने नहीं। इस
दुनिया में
शास्त्रीय
अंधों की भीड़
है, जमघट
है! अलग—अलग
शास्त्रों के
कारण अंधे हैं.......!
मगर किताबों
को आंखों पर
रख लोगे, तो
देखोगे कैसे?
और फिर
किताबें एकाध
दो हों, तो
भी ठीक। बहुत
किताबें हैं!
और किताबों पर
किताबें हैं!
पहाड
खड़े हो जाते
हैं तुम्हारी आंखों
पर—सिद्धांतों
के,
शब्दों के,
जालों के।
और फिर तुम
उन्हीं
शब्दों के
जालों को
गुनते—बुनते
रहते हो। फिर
तुम्हें वह
नहीं दिखायी
पड़ता, जो
है—जो सामने
खड़ा है, जो
चारों तरफ से
तुम्हें घेरे
हुए है; जो
तुम्हारे
भीतर भी है और
तुम्हारे बाहर
भी है; जिसके
अतिरिक्त कुछ
भी नहीं है—वह
तत्व फिर
तुम्हें
दिखायी नहीं
पड़ता।
शास्त्र
का चिंतन
मध्यम है, नम्बर
दो का। जिसकी
हिम्मत न हो
तत्व में
उतरने के लिए,
उस कायर के
लिए शास्त्र
हैं। चलो, कुछ
न बने, तो
बुद्धों के
वचन ही
दोहराते रहो।
हालाकि कितना
ही दोहराओ, तुम तोते ही
रहोगे। तोते
कितना ही
रामनाम जपें,
तो भी
परमात्मा की
अनुभूति को
उपलब्ध न हो
जायेंगे। और
तुमने सुना ही
है कि
वाल्मीकि तो
राम का उल्टा
नाम जपकर भी परमात्म—
अनुभव को पा
लिये! मरा—मरा
जपा—और पहुंच
गये। और तोते
तो शुद्ध राम—राम
जपते हैं! फिर
भी नहीं
पहुंचते! क्या
है बात?
सवाल, तुम
क्या जपते हो,
इसका नहीं
है— भाव का है, प्रगाढ़ता का
है, तन्मयता
का है, तल्लीनता
का है; ओतप्रोत
होने का है; डूबने का है,
रंग जाने का
है।
तोता
कहता तो राम—राम
है,
मगर बस, कह
ही रहा है।
मैंने
सुना : आधी रात
एक व्यक्ति
थका—मादा एक
होटल के द्वार
पर खटखटाया।
मैनेजर ने कहा, 'आधी
रात है, तुम्हें
लौटाऊं, यह
भी अच्छा नहीं
लगता। थके—मांदे
दूर से आये हो,
भूखे—प्यासे
हो——यह मैं देख
सकता हूं
चेहरे से
लेकिन सब कक्ष
तो भरे हुए
हैं। इतना ही
कर सकता हूं
अगर तुम राजी
होओ, एक
कक्ष में दो बिस्तर
हैं, लेकिन
एक यहूदी
धर्मगुरु, एक
रबाई उसमें
ठहरा हुआ है।
आदमी भला है।
इसलिए इनकार न
करेगा। तुम भी
सो सकते हो।’
वह
युवक इतना थका—मादा
था कि उसने
कहा कि 'मुझे
सिर्फ सोना ही
है। कुछ थीडा
खाने—पीने को
दै दो और फिर
मैं जाकर सो जाऊं।
वह
ऊपर कमरे में
पहुंचाया गया।
देखकर हैरान
हुआ। थीड़ा
चिन्तित भी
हुआ। थीड़ा
किंकर्तव्यविमूढ
भी मालूम पड़ा, क्योंकि
रबाई, यहूदी
धर्मगुरु
अपने पलंग के
बगल में घुटने
टेके
परमात्मा की
प्रार्थना
में लीन था।
दो पलंग थे
कमरे में। कौन
सा पलंग मैं
चुनूं? उस
युवक के मन
में सवाल उठा।
धर्मगुरु से
पूछ लेना
जरूरी है, क्योंकि
वह पहले से
यहां रुका हुआ
है। और पता
नहीं, उसने
कोई बिस्तर
चुन ही रखा हो!
मगर वह कर रहा
है प्रार्थना,
टोकूं भी तो
कैसे टोकूं!
और पता नहीं, यह
प्रार्थना
कितनी देर
चलेगी, क्योंकि
वह ऐसा लीन
मालूम हो रहा
है कि जल्दी तो
टूटनेवाली नहीं
मालूम होती।
सो
उसने सोचा, हिम्मत
की, और
उसने कहा कि 'परम पूज्य, बाधा तो
नहीं देनी
चाहिए आपकी
प्रार्थना
में, लेकिन
मजबूरी है।
सिर्फ इतना
इशारा कर दें
कि कौन—सा
बिस्तर मैं
चुनूं?'
डरते—डरते
ही पूछा था।
लेकिन
धर्मगुरु ने
प्रार्थना भी
जारी रखी और हाथ
से इशारा भी
कर दिया कि वह
दूसरा बिस्तर
तुम चुन लो
युवक
निश्चित हुआ।
बिस्तर ठीक—ठाक
करके लेटने जा
रहा था, फिर
उसके मन में थीड़ी
परेशानी हुई।
प्यास लगी थी।
क्या उठकर खटर—पटर
करे, पानी
पी ले? प्रार्थना
में बाधा
पडेगी। पूछ
लेना उचित है।
उसने कहा, 'परम
पूज्य, प्यास
लगी जोर से।
क्या पानी पी
सकता हूं?'
धर्मगुरु
ने प्रार्थना
जारी रखी और
हाथ से इशारा
किया कि हा—हां, पीओ।
तब
जरा युवक की
हिम्मत भी बढ़ी
और उसने कहा
कि 'महामहिम, इतना और बता
दें कि क्या
मैं अपनी लड़की
को भी, अपनी
प्रेयसी को भी
ला सकता हूं?' धर्मगुरु ने
प्रार्थना
जारी रखी और
हाथ से इशारा
किया कि दो ले
आना!
प्रार्थना
चल रही है और
यह सब कारबार
भी चल रहा है!
अब कितनी ही
शुद्ध
प्रार्थना
पढ़ी जाये, बिलकुल
हिब्रु में
पढ़ी जाये, तो
भी क्या होगा!
यह प्रार्थना
कंठ तक भी
नहीं जा रही
है, हृदय
तो बहुत दूर!
इस प्रार्थना
में कुछ भीग
ही नहीं रहा
है। यह तो
व्यर्थ की
बकवास है।
शास्त्रों
को तुम दोहरा
सकते हो, कंठस्थ
कर सकते हो, लेकिन काश
इतना आसान
होता कि हम
औरों के शब्दों
को सीखकर सत्य
को जान लेते, तो दुनिया
ने भी कभी का
सत्य जान लिया
होता! सारे
लोगों ने जान
लिया होता। एक
भी अज्ञानी न
बचता। इस
पृथ्वी पर सब
जलते हुए दीये
होते। दीवाली
मनायी जा रही
होती। हर फूल
खिला होता।
सुंगध ही
सुगंध होती।
हर वीणा बजती
होती। संगीत
ही संगीत होता।
अनाहतनाद
होता। अनहद
में विश्राम
होता।
शास्त्र
तो सभी जानते
हैं। हिंदू
गीता पढ़ रहा
है। मुसलमान
कुरान पढ़ रहा
है। ईसाई
बाइबिल पढ़ रहे
हैं। लेकिन
कहीं कुछ
भीगता नहीं।
हृदय कहीं
डुबकी नहीं
मारता।
शब्दों में
डुबकी लगाओगे
भी कैसे?
अंधेरे
कमरे में दीये
की तसवीर 'टल
भी लो, तो
रोशनी नहीं हो
जायेगी! लाख
सुंदर तसवीर
हो, तो भी
तसवीर तसवीर
है।
और
शास्त्रों के
साथ बहुत खतरा
है। खतरा यह
है कि जब कोई
व्यक्ति
प्रबुद्धता
को उपलब्ध
होता है, तो
अनुभूति होती
है मौन में, और जब वह उस
अनुभूति को
शब्दों में
उतारता है, तभी विकृत
हो जाती है; तभी बहुत
कुछ खो जाता
है।
बूंदाबांदी
रह जाती है।
कहां सागर और कहां
बूंद! और फिर
जब वह बोलता
है, तो और
भी कुछ बचा
होता है, वह
भी खो जाता है।
बूंद का भी
हजारवां
हिस्सा नहीं
रह जाता है!
फिर
जब दूसरा
सुनता है, तब
कुछ अगर बचा
भी हो थीड़ा—बहुत,
वह भी खो
जाता है।
क्योंकि
दूसरा अपने
हिसाब से
सुनता है।
उसकी अपनी
धारणाएं हैं,
अपने पूर्व
से ही लिए गए
निष्कर्ष हैं।
वह उनके आधार
से सुनता है।
और
अकसर दूसरों
ने शास्त्र
लिखे हैं।
कृष्ण ने गीता
बोली—लिखी
नहीं। जीसस ने
पर्वत का
प्रवचन दिया—लिखा
नहीं। बुद्ध
बोले —लिखा
नहीं।
आज
तक समस्त
सद्गुरुओं की
यह प्रक्रिया
रही कि
उन्होंने
बोला—लिखा
नहीं। क्यों? क्योंकि
बोलने में थीडी—सी
संभावना है कि
अगर
सुननेवाला
प्रीति—फट्ट
हो, अगर
सुननेवाला
भावाविष्ट हो,
अगर
सुननेवाले ने
अपने हृदय के
द्वार खोल रखे
हों, अगर
सुननेवाला
गुरु के पास
बैठने की कला
जानता हो—उपसीदन
की कला, उपनिषद्
की कला, उपासना
की कला; अगर
गुरु के पास
बैठना उसे आता
हों—मौन में, चुप्पी में,
अहोभाव में,
आनंद में, मस्ती में, अगर वह किसी
बुद्ध— ऊर्जा—
क्षेत्र का
हिस्सा हो; किन्हीं
रिंदों की
जमात में
सम्मिलित हो
गया हो; किन्हीं
दीवानों से
उसका संग—साथ
हो गया हो; किन्हीं
परवानों के
साथ परवाना हो
गया हो—और चल
पड़ा हो किसी
ज्योति में मर
मिटने को—तो
शायद गुरु जो
कह रहा है, वह
तो शब्द ही —होगा,
लेकिन गुरु
की भाव—
भंगिमा, उसकी
मुद्रा, उसकी
आंखें, उसका
उठना, उसका
बैठना; उसकी
सांसों की
धड़कन उसके
शब्दों के साथ—साथ
लिपटी श्रोता
के, द्रष्टा
के, मन्ता
के भीतर पहुंच
जायेगी।
लेकिन
लिखा हुआ शब्द
तो मुरदा होता
है—बिलकुल
मुरदा होता है।
उसमें न तो
गुरु की
उपस्थिति
होती है, न
गुरु की
भावभंगिमा
होती है, न
गुरु का उठना—बैठना
होता है।
उसमें तो गुरु
की दूर की भी
कोई छाप नहीं
होती।
छापेखाने की
छाप होती है!
स्याही होती
है—कागज पर
फैली। लाश
होती है।
जीवंत कुछ भी
नहीं होता।
इसलिए
सारे गुरुओं
ने सदा से
बोलने के
माध्यम को
चुना है, क्योंकि
बोलने में थीड़ी—सी
संभावना है कि
शायद शब्दों
के आसपास
लिपटी कोई
किरण पहुंच
जाये। कोई
लेनेवाला ले
ले।
कबीर
कहते हैं : 'है
कोई लेवनहारा!
है कोई
लेवनहारा?' अगर है कोई
लेनेवाला तो
शायद उसकी आंखों
में झांककर ही
बात हो जाये!
शायद वह गुरु
के चरणों में
सिर रख दे और
बात हो जाये।
शायद उसका हाथ
हाथ में लेकर
ही बात हो
जाये। जो नहीं
कही जा सकती, वह कह दी
जाये।
शास्त्र
तो सद्गुरुओं
ने लिखे नहीं; जिन्होंने
सुने हैं, उन्होंने
लिखे हैं।
इसलिए
बुद्धों के
सारे शास्त्र
बड़े ठीक ढंग से
शुरू होते हैं।
बुद्धों के
सारे
शास्त्रों का
जो प्रथम वचन
होता है, वह
यह : 'ऐसा
मैंने सुना है।’
यह किसी
शिष्य की
टिप्पणी है।’ऐसा मैंने
सुना है कि
भगवान
आम्रकुंज में
विचरते थे, कि निरंजना
के तट पर रुके
थे, कि
फलां—फला नगर
में ठहरे थे, कि
श्रावस्ती
में उनका
वर्षाकाल
व्यतीत होता
था—ऐसा मैंने
सुना है। फिर
वे जो बोले, वह मैं
लिखता हूं। वह
मैं अपनी
सामर्थ्य से
लिखता हूं। वे
बोले थे अपनी
सामर्थ्य से,
मैं लिखता
हूं अपनी
सामर्थ्य से।’
फर्क
तो बहुत हो
जानेवाला है—बहुत
हो जानेवाला
है!
तुमने
कभी देखा! एक
सीधी लकड़ी के
डंडे को पानी में
डाला और तुम
तब चकित होकर
देखोगे : पानी
में पहुंचते
ही डंडा तिरछा
दिखाई पड़ने
लगता है! तिरछा
हो नहीं जाता।
खींचकर देखो—सीधा
का सीधा है!
फिर पानी में
डालो, फिर
तिरछा दिखाई
पड़ने लगता है।
पानी उतनी
विकृति तो ले
आता है—सीधा
डंडा तिरछा हो
जाता है।
बुद्धों
के सीधे—सीधे
वचन भी
तुम्हारे
भीतर जाकर
बहुत तिरछे हो
जाते हैं—आड़े
हो जाते हैं; कुछ
के कुछ हो
जाते हैं!
तो
शास्त्रों की
बात तो दोयम
है—नम्बर दो।
'मध्यम
शास्त्रचिन्तनमू
अधमा
तंत्रचिता।’ और उससे भी
अधम है—तंत्र,
मंत्र, यंत्र
की चिंता, विधि—विधान,
यज्ञ —हवन—कुंड,
पूजा—पत्री!
यह धर्म के
नाम पर जो
क्रियाकाण्ड
चलते है—उन
सबका नाम
तंत्र। यह तो
बिलकुल ही गयी
बीती बात हो
गयी। यह तो
बिलकुल तृतीय
कोटि की बात
हो गयी। लेकिन
दुनिया इस
तीसरी कोटि
में उलझी है।
कोई
सत्यनारायण
की कथा करवा
रहा है! कोई
विश्व—शांति
के लिए यज्ञ
करवा रहा है।
अभी
किसी
तांत्रिक ने
चंडीगढ़ में
विश्व—शाति के
लिए यज्ञ
करवाया। और
यज्ञ हो जाने
के बाद घोषणा
कर दी कि यज्ञ
सफल हुआ; विश्व
में शांति हो
गयी! और
पंद्रह दिन
बाद फिर दूसरा
यज्ञ दिल्ली
में करवाने
लगे वे। जब
खबर मुझे मिली,
तो मैंने
कहा, अब
किसलिए करवा
रहे हो!
दुनिया में तो
शांति हो
चुकी! वह तो
चंडीगढ़ में यह
जब हुआ तभी हो
गयी। अब यह
कौन—सी दूसरी
दुनिया है, जिसमें
शांति करवानी
है! मगर फिर
शांति करवा रहे
हैं वे।
और
यहीं, खतम
नहीं हो
जायेगा।
उन्होंने कसम
खायी है कि वे
एक सौ बीस
यज्ञ करवाकर
रहेंगे। मतलब
एक सौ बीस बार
दुनिया में
शांति करवाकर रहोगे!
बहुत ज्यादा
शांति हो
जायेगी! आदमी
को जिंदा रहने
दोगे कि मार
ही डालोगे? मरघट हो
जायेगा! एक सौ
बीस बार शांति
होती ही चली
गयी, होती
ही चली गयी—तो
लोगों की
सांसें निकल
जायेंगी!
शोरगुल ही बंद
हो जायेगा!
बोलचाल ही खो
जायेगा!
मगर
ये क्रियाकाड
हैं।
मैत्रेयी
उपनिषद् का यह
वचन कहता है, 'अधमा
तंत्रचिता—अधम
है तंत्र की
चिंता।’ अब
तो 'चिंतन'
भी न रहा....... 'चिंता' हो
गयी!
पहला
तो था अचिंत्य; तत्व
का अनुभव; शास्त्र
का 'चिंतन'
होता है—वह
नीचे गिरना
हुआ। और अब तो
बात और बिगड़
गयी। अब तो
चिंतन से भी
गिरे। अब तो
चिंतन भी न
बचा। अब तो
चिंता हो गयी!
अब तो परेशानी
और बेचैनी आ गयी।
अब तो लोभ—मोह
का व्यापार
शुरू हुआ। यह
पा लूं वह पा
लूं! गंडे
ताबीज की
दुनिया आ गयी।
'और तीर्थों
में भटकना अधम
से भी अधम— च
तीर्थ
भ्रात्त्वधमाधमा।’और तीर्थो
में भटकने को
तो मैत्रेयी
उपनिषद् कहता
है, यह तो
अधम से भी अधम!
इसके पार तो
गिरना ही नहीं
हो सकता।
कोई
काशी जा रहा
है! कोई काबा
जा रहा है! कोई
कैलाश—कोई
गिरनार! क्या पागलपन
है?
परमात्मा
भीतर बैठा है,
और तुम कहां
जा रहे! जिसे
तुम खोजने
निकले हो, वह
खोजनेवाले के
भीतर छिपा है।
और जब तक तुम
उसे कहीं और
खोजते रहोगे—खोते
रहोगे। जिस
दिन सब खोज
छोड दोगे, और
अपने भीतर
ठहरोगे—अनहद
में विश्राम
करोगे, उस
क्षण पा लोगे।
खोया
तो उसे है ही
नहीं। वह तो
तुम्हारे
भीतर मौजूद ही
है। एक क्षण
को नहीं खोया
है। सिर्फ भूल
गए हो।
विस्मरण किया
है। स्मरण भर
की कोई
आवश्यकता है।
और यह स्मरण
शायद किसी
सद्गुरु के
सत्संग में तो
मिल जाये, लेकिन
तीर्थों में
क्या है?
तीर्थ
बने कैसे? कभी
कोई सद्गुरु
वहां था, तो
तीर्थ बन गए।
लेकिन
सद्गुरु तो जा
चुका कभी का!
बुद्ध कभी बोधगया
में थे, तो
तीर्थ बन गए।
अब सारी
दुनिया से
बौद्ध आते हैं
बोधगया की यात्रा
करने। क्या
पागलपन है!
कोई समझाए
यह क्या रंग
है मैखाने का,
आंख साकी
की उठे नाम हो
पैमाने का।
वह
तो किसी साकी
की आंख थी, जिससे
नशा छा गया था,
खुमारी आ
गयी थी।
कोई
समझाए यह क्या
रंग है मैखाने
का,
आंख साकी
की उठे नाम हो
पैमाने का।
गर्मि—ए—शम्मा
का अफसाना
सुनाने वालों,
रक्स देखा
ही नहीं तुमने
अभी परवाने का।
किसको
मालूम थी पहले
से खिरद की
कीमत,
आलमे—होश
पर एहसान है
दीवाने का।
चश्मे—साकी
मुझे हर गाम
पै याद आती है,
रास्ता
भूल न जाऊं
कहीं मैखाने
का।
अब तो हर
शाम गुजरती है
उसी कूच में,
यह नतीजा
हुआ नासेह
मेरे समझाने
का।
मजिले—गम
से गुजरना तो
है आसी इकबाल,
इश्क है
नाम खुद. अपने
से गुजर जाने
का।
बात तो
अपने से गुजर
जाने की है।
ही,
किसी
बुद्धपुरुष
की आंख में
शायद झलक मिल
जाये। मगर
तीर्थों में
क्या रखा है? तीर्थ तो
मजार हैं।
कोई
समझाए यह क्या
रंग है मैखाने
का,
आंख साकी
की उठे नाम हो
पैमाने का।
गर्मि—ए—शम्मा
का अफसाना
सुनाने वालों,
रक्स देखा
ही नहीं तुमने
अभी परवाने का।
तुम्हें
तो मस्तों की
कोई महफिल
खोजनी चाहिए।
अगर रक्स ही
देखना हो, अगर
नाच ही देखना
हो, तो
परवाने का
देखना चाहिए।
ही, जब
कोई बुद्ध
मौजूद होता है,
तो मधुशाला
जीवित होती है।
तो वहां झरने
फूटते हैं
शराब के। वहां
पियक्कड़
इकट्ठे होते
हैं। कभी काबा
में इकट्ठे
हुए थे। वह
काबा के पत्थर
की बात न थी।
वह मोहम्मद की
मौजूदगी थी।
मोहम्मद की
मौजूदगी में
काबा का पत्थर
भी लोगों को
नशा देने लगा
था। आंख साकी
की थी और नाम
पैमाने का हो
गया! तीर्थ
यूं बन जाते
हैं और फिर
सदियों तक लोग
तीर्थों में
भटकते हैं!
सूत्र
ठीक कहता है :
'अधमा
तंत्रचिंता च
तीर्थभ्रात्त्वधमाधमा।।
अनुभूति
विना पूछो
वृथा
ब्रह्मणि
मोदते।
प्रतिबिबतशाखाग्रफलास्वादनमोदवत्।।’
प्यारी
बात है! 'जैसे
कोई पेड़ की
छाया में
प्रतिबिंबित
फल को खाकर
प्रसन्न हो!'
पेड़
के नीचे बैठो।
छाया में फल
दिखाई पड़ता हो; छाया
में! आम लगे
हों वृक्ष पर
और छाया में
भी आम दिखाई
पड़ेंगे। और
उन्हीं को, छाया में
आमों को खा—खाकर
कोई
प्रफुल्लित
होता रहे, ऐसे
तुम पागल हो—अगर
शास्त्रों
में उलझे हो, अगर तीर्थों
में उलझे हो, अगर तंत्रों
और मंत्रों
में उलझे हो।
वास्तविक
अनुभव के बिना
सिर्फ मूढ़
मनुष्य ही
कल्पना करता
रहता है—ब्रह्म
को पा लेने की।
अनुभव
हो सकता है—अभी
और यहीं।
अनुभव के लिए
एक क्षण भी
ठहरने की कोई
जरूरत नहीं है।
लेकिन अनुभव
होगा— 'उत्तमा
तत्वचिंतैव।’अनुभव तो
उत्तम बात है,
श्रेष्ठतम
शिखर है। वह
तो ध्यान में होगा,
शून्य में
होगा, मौन
में होगा। आंख
से सारे पर्दे
हटाओ। बाहर से
आंख बंद करो, भीतर आंख
खोलो। ठहरो
चुप्पी में, मौन में, शून्य
में। भीतर जब
सारा जल ठहर
जाये, तरंग
भी न उठे—तो
प्रतिफलित
होगा
परमात्मा।
सारा
अस्तित्व
अपने सारे
सौंदर्य के
साथ तुम्हारे
भीतर झलक
उठेगा। वह झलक—बस
एक झलक—और
काफी है।
जन्मों—जन्मों
की भूली—बिसरी
याद फिर आती
है। जिसे कभी
खोया नहीं था,
वह फिर मिल
जाता है।
आज
इतना ही।
'अनहद
में बिसराम' प्रवचनमाला
से
दिनांक
18 नवम्बर 1980; श्री
रजनीश आश्रम
पूना
जय ओशो
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