प्यारे
ओशो।
सत्येनन
स्वर्गाल्लोकात्
च्यवन्ते
कदाचन।
सतां
हि सत्यम्।
तस्मात्सत्ये
रमन्ते।
अर्थात
सत्य परम है,
सर्वोत्कृत
है, और जो
परम है वह सत्य
है।
जो सत्य
का आश्रय लेते
है वे स्वर्ग
में, आत्मोत्कर्ष
की स्थिति से
च्युत
नहीं होते। सत्पुरूषों
का स्वरूप ही
सत्यमय है।
इसलिए वे
सदा सत्य में
ही रमण करते
है।
प्यारे
ओशो! श्वेताश्वतर
उपनिषद् के इस
सूत्र को
हमारे
लिए विशुद्ध
रूप से खोलने
की अनुकंपा
करे।
चैतन्य
कीर्ति!
'सत्यं परं
परं सत्यम्।’
परम
का अर्थ
सर्वोत्कृष्ट
नहीं होता।
वैसा
भाषान्तर भूल
भरा है।
सर्वोत्कृष्ट
तो उसी शृंखला
का हिस्सा है।
सीढ़ी का आखिरी
हिस्सा कहो, मगर
सीडी वही है।
पहला पायदान
भी सीढ़ी का है
और सबसे ऊंचा
पायदान भी
सीढ़ी का है।
सर्वोत्कृष्ट
में गुणात्मक
भेद नहीं होता,
केवल
परिमाणात्मक
भेद होता है।
परम का अर्थ
सर्वोत्कृष्ट
नहीं है।
परम
का अर्थ है : जो
शृंखलाओं और
श्रेणियों का अतिक्रमण
कर जाए। जिसे
किसी श्रेणी
में और किसी
कोटि में रखने
की सम्भावना न
हो। जो
स्वरूपत:
अनिर्वचनीय
है। जिसके
संबंध में कुछ
भी नहीं कहा
जा सकता।
जिसके संबंध
में कुछ भी
कहो तो भूल हो
जाएगी।
लाओत्सु
का प्रसिद्ध
वचन है : सत्य
को बोला कि बोलते
ही सत्य असत्य
हो जाता है—बोलते
ही। क्योंकि
सत्य है विराट
आकाश जैसा और
शब्द बहुत
छोटे हैं, आंगन
से भी बहुत्
छोटे हैं, शब्दों
में सत्य का
आकाश कैसे
समाए?
और
हमारी
कोटियां
हमारे मन के
ही विभाजन हैं।
इसे कहते
पदार्थ, इसे
कहते चेतना, लेकिन कोन
करता है
निर्णय? कोन
करता है भेद? भेद करने की
प्रक्रिया तो
मन की है। और
सत्य है
मनातीत, मन
के पार। इसलिए
सत्य को मन की
किसी कोटि में
नहीं रखा जा
सकता।
सर्वोत्कृष्ट
कहने की भूल
में मत पड
जाना। सबसे
ऊंचा भी हो तो
भी नीचे से ही
जुड़ा होगा—वृक्ष
कितना ही आकाश
में ऊपर उठ
जाए तो भी उन्हीं
जडों से जुड़ा
होगा जो गहरी
जमीन में चली
गयी हैं।
फ्रेड्रिक
नीत्शे का
प्रसिद्ध वचन
है कि अगर किसी
वृक्ष को आकाश
के तारे छूने
हों,
तो उसे अपनी
जड़ें पाताल तक
भेजनी होंगी।
और वृक्ष एक
है। पाताल तक
गयी जड़ें, स्वर्ग
को छूती हुई
शाखाएं अलग—अलग
नहीं हैं; एक
ही जीवनधारा
दोनों को जोड़े
है। तुम्हारे
पैर और
तुम्हारा सिर
अलग— अलग नहीं
हैं। यह अलग—अलग
होने की
भ्रांति ने
बड़ा पागलपन
पैदा कर दिया।
मनुस्मृति
कहती है :
ब्राह्मण
ब्रह्मा के
मुख से पैदा
हुए। क्यों? क्योंकि
मुख
सर्वोत्कृष्ट।
और शूद्र
ब्रह्मा के
पैरों से पैदा
हुए। क्योंकि
पैर अत्यन्त
निकृष्ट।
वैश्य जंघाओं
से पैदा हुए।
शूद्रों से
जरा ऊपर! मगर
फिर भी निम्न
का ही अंग।
क्योंकि आदमी
को दो हिस्सों
में बांट दिया।
कमर के ऊपर जो
है, वह
श्रेष्ठ और
कमर के नीचे
जो है, अश्रेष्ठ।
कैसा मजा है!
एक ही रक्त की
धार बहती है, कहीं कोई
विभाजन नहीं
है, हड्डियां
वही हैं, मांस
वही है, रक्त
वही है, सब
जुडा हुआ है, सब संयुक्त
है, लेकिन
इसमें भी
विभाजन कर
दिया। फिर
क्षत्रिय हैं,
वे बाहुओं
से पैदा हुए।
और थोड़ा ऊपर।
और फिर
ब्राह्मण है,
वह मुख से
पैदा हुआ।
लेकिन
शूद्र हो या
ब्राह्मण, अगर
पैर और मुंह
से ही जुड़े
हैं, तो
उनमें कुछ
गुणात्मक भेद
नहीं है।
गुणात्मक भेद
हो नहीं सकता।
क्योंकि वे एक
ही शरीर के
अंग हैं।
मेरी
परिभाषा में
तो सभी
व्यक्ति
शूद्र की तरह
पैदा होते हैं।
और जो व्यक्ति
मन की सारी
शृंखलाओं के
पार चला जाता
है,
जो उस अज्ञात
और अज्ञेय में
प्रवेश कर
जाता है जिसे कहने
के लिए न कोई
शब्द है, न
कोई सिद्धांत,
जिसे कहने
का कोई उपाय
नहीं, जिसे
जाननेवाला
गूंगा हो जाता
है, गूंगे
का गूड है जो, वही
ब्राह्मण है।
ब्राह्मण वह
है : जिसने
ब्रह्म को
जाना। जिसने
जीवन के परम
सत्य को जाना,
वह
ब्राह्मण है।
पैदा सभी
शूद्र होते
हैं। फिर कोई
ध्यान की
प्रक्रिया से
समाधि तक पहुंचकर,
मन के पार
होकर
ब्राह्मण हो
जाता है।
ब्राह्मण
होना उपलब्धि
है। जन्म से
कोई ब्राह्मण
नहीं होता है।
यह
सूत्र प्यारा
है :
'सत्यं परं..... '
सत्य
परम है। मगर
फिर याद दिला
दूं तुमने परम
का अर्थ किया है
:
सर्वोत्कृष्ट।
नहीं, वह तो
अहंकार की ही
भाषा है।
सर्वोत्कृष्ट!
सबसे ऊपर। तो
जो सबसे ऊपर
है, वह
किसी को नीचे
दबाएगा, वह
किसी की छाती
पर चढ़ेगा।
मैं
कल ही श्री
मोरारजी
देसाई का एक
वक्तव्य देख
रहा था। किसी
ने उनसे पूछा
एक पत्रकार
सम्मेलन में
कि यदि लोग
आपसे कहें
पुन:
प्रधानमंत्री
हो जाने के
लिए,
तो आप राजी
होंगे? उन्होंने
कहा, निश्चय
ही!
प्रधानमंत्री
तो क्या, अगर
लोग मुझसे गधे
पर बैठने को
कहें तो भी
मैं राजी हो
जाऊंगा। मैं
थोड़े सोच—विचार
में पड़ गया।
लोग कोन हैं? पहले गधे से
भी तो पूछो!
गधा भी इनको
बिठालने को
राजी होगा!
और
तब मुझे याद
आया
सेठ
चंदूलाल का
बेटा उनसे पूछ
रहा था, पापा,
दुल्हा को
लोग घोडे पर
क्यों
बिठालते हैं,
गधे पर
क्यों नहीं
बिठालते? तो
चंदूलाल ने
कहा, बेटा,
घोडे पर
इसलिए बिठालते
हैं ताकि पता
चलता रहे कोन
दुल्हा है और कोन
घोड़ा है। गधे
पर बिठाल दें
तो कैसे पता
चलेगा कोन
दुल्हा है, कोन गधा है? वरमाला
किसके गले में
पहनाएगी। वधू
बड़ी मुश्किल
में पड़ जाएगी,
किंकर्तव्यविमूढ़
हो जाएगी। एक
गधे पर दूसरा
गधा चढ़ा बैठा
है! इसलिए
घोड़े पर बिठालते
हैं।
ये
मोरारजी
देसाई गधे पर
बैठने को राजी
हैं। मगर कोई
गधा इनको
बिठालने को
राजी है? और
लोग कोन हैं, जो इनको
कहें कि तुम
गधे पर बैठ
जाओ। गधे का
हक सिर्फ गधे
को है। मगर
कोई गधा इतना
गधा नहीं है
कि इनको
बिठालने को
राजी हो जाए।
मगर क्या
आतुरता है
किसी के ऊपर
बैठने की! चलो,
गधा ही सही,
मगर ऊपर बैठ
जाएं!
ऊपर
बैठने की जो आकांक्षा
है,
वह अहंकार
है। सत्य और
अहंकार का कोई
संबंध नहीं। जहां
अहंकार गिर
जाता है, वहां
सत्य है। जब
तक तुम हो, तब
तक सत्य नहीं।
जब तुम नहीं
हो, तब
सत्य है।
तुम्हारी
शून्यता की
सुगंध सत्य है।
तुम्हारी राख
पर खिलता है
फूल सत्य का।
तुम खाद बन
जाते हो, तब,
केवल तब ही
सत्य की
अनुभूति शुरू
होती है। जब
तक तुम हो, तब
तक सत्य के
संबंध में
विचार कर सकते
हो, लेकिन
सत्य को न जान
पाओगे। और
सत्य के संबंध
में कितना ही
जानो, वह
सत्य को जानना
नहीं है। कोई
लाख जान ले
प्रेम के
संबंध में, अगर प्रेम
का नाद उसके
प्राणों में न
छिड़ा हो, तो
सारे शास्त्र
पढ़ डाले प्रेम
के संबंध में,
फिर भी
प्रेम से
वंचित ही रह
जाएगा। कोई
प्रकाश के
संबंध में सब
पढ़ ले, सब
गुन ले, मगर
अगर आंखें न
हों उसके पास,
या आंखें भी
हों और बंद
हों, तो
प्रकाश को न
जान सकेगा।
इस
भेद को खयाल
में रखना, प्रकाश
को जानना और
प्रकाश के
संबंध में
जानना दो अलग
बातें हैं।
प्रकाश के
संबंध में
जानना
दर्शनशास्त्र
है और प्रकाश
को जानना :
धर्म।
सत्य
के संबंध में
जाना जा सकता
है। बहुत जाना
जा सकता है।
सारे विश्व के
पुस्तकालय
भरे पड़े हैं, पटे
पड़े हैं। मगर
वह सत्य को
जानने की
व्यवस्था
नहीं है। सत्य
को जानने की
प्रक्रिया तो
ठीक उलटी है।
सब कोटिया तोड
देनी होंगी, सब शृखलाएं
विसर्जित कर
देनी होंगी, सारी
धारणाओं को
नमस्कार कर
लेना होगा—
आखिरी
नमस्कार!
हिंदू की
धारणा, मुसलमान
की, ईसाई
की, जैन की,
बौद्ध की, सिक्ख की, पारसी की, सारी
धारणाओं को
विदा कर देना
होगा।
क्योंकि जब तक
तुम्हारी
धारणाए हैं, जब तक तुम्हारे
पक्षपात हैं,
जब तक तुम
कुछ मानकर चल
रहे हो, तब
तक तुम उसे न
जान सकोगे जो
है, तुम्हारी
मान्यता उस पर
आरोपित हो
जाएगी। तुम्हारी
आंखों पर
चश्मा लगा है
तो उसका रंग
तुम्हें
भ्रांति देगा
क्योंकि उसका
रंग तुम्हारे
चारों तरफ हावी
हो जाएगा। और
क्या है हिंदू
होना और
मुसलमान होना
और जैन होना? चश्मे हैं, अलग—अलग रंग
के। और जिस
रंग से तुम
देखोगे, वही
रंग सारे
अस्तित्व का
दिखाई पड़ने लगेगा।
अस्तित्व
को देखना हो
तो चश्मे उतार
देना जरूरी है।
शास्त्रों के
बोझ से मुक्त
हो जाना जरूरी
है। और जब
तुम्हारे
भीतर कोई भी
ज्ञान नहीं रह
जाता तब
निर्दोषता का
जन्म होता है।
तब तुम्हारे
भीतर वही हृदय
होता है, जो
तुम बच्चे की
तरह लेकर आए
थे। वही सरलता,
वही
उत्सुकता, वही
जिज्ञासा, वही
जानने की
आतुरता।
पंडित
में जानने की
आतुरता नहीं
होती। वह तो
जाने ही बैठा
है!
एक
मित्र ने
प्रश्न पूछा
है. प्रमोद पंडित
उनका नाम है.....
कि आपको समझना
इतना कठिन
क्यों है?
मुझे
समझना कठिन
नहीं है, मैं
तो बहुत सीधी—सादी
भाषा बोल रहा
हूं लेकिन वह
जो प्रमोद के
साथ 'पंडित'
शब्द जुडा
है उस 'पंडित'
ने उपद्रव
कर दिया है।
वह 'पंडित'
नहीं समझने
देगा।
पांडित्य ने
कभी किसी को
नहीं समझने
दिया। जीसस को
किसने सूली पर
चढाया? पंडितों
ने—यहूदी धर्म
के पंडित थे
वे—पुरोहित थे।
किसने मंसूर
के हाथ—पैर
काटे, गर्दन
काटी? मुसलमान
पंडितों ने, मौलवियों ने,
इमामों ने,
अयातुल्लाओं
ने। वे उनके
पंडित थे।
मंसूर से चूक
गये, जीसस
से चूक गये।
बुद्ध को
किसने इनकार
किया इस देश
में? इस
देश से कैसे
बुद्ध की
अद्भुत सुगंध
तिरोहित हो
गयी? पंडितों
का जाल! उनके
बर्दाश्त से
बाहर हो गया।
और
कारण हैं उनके
बर्दाश्त के
बाहर होने का।
पंडित का एक
स्वार्थ है, बहुत
गहरा स्वार्थ
है। उसका शान
खतरे में है।
अगर वह
बुद्धों की
सुने, तो
उसे पहली तो
बात यह करनी
होगी कि ज्ञान
को छोड़ने का
साहस जुटाना
होगा। और
ज्ञान को
छोड़ना यूं है
जैसे कि कोई
उससे प्राण
छोडने को कह
रहा हो। वही
तो उसकी
सम्पदा है।
वही उसकी
धरोहर है। उसी
के बल पर तो
उसके अहंकार
में सजावट है,
शृंगार है।
वही तो उसका
आभूषण है। वही
तो है उसके
पास, और तो
कुछ भी नहीं
है। वह
शास्त्रों का
बोझ ही तो उसे
भ्रम दे रहा
है—जानने का।
लेकिन
जानना बड़ी और
बात है, जानने
का भ्रम और।
अज्ञान
से आदमी कम—से—कम
इतना तो अनुभव
करता है कि
तुझे पता नहीं।
इतनी तो उसमें
प्रामाणिकता
होती है कि
मुझे पता नहीं।
लेकिन पंडित
में यह
प्रामाणिकता
भी नहीं होती।
पता तो नहीं
है,
मगर उसे
खयाल होता है,
मुझे पता है।
उसने बिना
जाने मान लिया
है कि जान
लिया। अब कैसे
जानेगा? उसके
जानने की
दीवार बीच में
खड़ी हो गयी।
ज्ञान से नहीं
जाना जाता
सत्य, सत्य
ध्यान से जाना
जाता है। और
ध्यान का अर्थ
होता है : मन का
अतिक्रमण—मनातीत
हो जाना।
नानक
ने उसे अ—मनी
दशा कहा है—मन
से मुक्त हो
जाना। नीचा और
ऊंचा, ऐसा और
वैसा, ये
सब मन के ही
खेल हैं। जहां
मन बिलकुल चुप
हो गया, जहां
एकदम सन्नाटा
छा गया, वहां
सत्य का अवतरण
होता है।
सत्यं परं परं
सत्यम्। और तब
तुम जानते हो
पहली बार
विराट को। तब
तुम जानते हो
पहली बार उसको,
जो है। वह
निश्चित ही
परम है।
परम
का अर्थ : उसे
जाननेवाला, सब
जान लिया जो
जानने योग्य
है। परम का
अर्थ : उसे
जिसने पी लिया,
अमृत पी
लिया। परम का
अर्थ उसने
परमात्मा को
जान लिया, उसने
आत्मा की
आत्यन्तिक
सुगन्ध पहचान
ली। उस सुगन्ध
के जीवन में आ
जाते ही क्रांति
हो जाती है।
उस क्रांति को
ही स्वर्ग
कहते हैं।
स्वर्ग
कोई भौगोलिक
अवस्था नहीं
है।
जिसने
सत्य को जाना, जिसने
सत्य को जीआ, वह स्वर्ग
में प्रविष्ट
हो गया। और
ऐसे स्वर्ग
में, जहां
से कोई पतन
नहीं होता।
जहां से कभी
कोई गिरता
नहीं।
तुम
जिस स्वर्ग की
बातें करते हो, वहां
से तो लोग
गिरते हैं।
वहां तो वही
भय है; वहा
तो वही
राजनीति है।
तुम्हारे
पुराण कथाओं
से भरे पड़े
हुए हैं। वे
सब कथाएं झूठ
हैं। झूठ
इसलिए हैं कि
जिस स्वर्ग की
बात की गयी है,
वह भौगोलिक
है। और जिस
स्वर्ग की बात
की गयी है, वह
वह स्वर्ग
नहीं है जिसकी
यह उपनिषद
चर्चा कर रहा
है। नहीं तो
इन्द्र को
क्यो भय हो
सकता है? कोई
ऋषि, कोई
मुनि ध्यान
करे, समाधि
के निकट
पहुंचने लगे,
तो इन्द्र
का आसन क्यों
डावाडोल हो
जाता है? इन्द्र
को क्या भय
होने लगता है?
क्या
घबड़ाहट होने
लगती है? घबड़ाहट
होती है, पुराण
कहते हैं, कि
कहीं मेरा
सिंहासन न छिन
जाए। सत्य कहीं
छिना है! और जो
छिन जाए, वह
सत्य नहीं है।
जो छिन सकता
है, वह छिन
ही गया। उसका
कोई मूल्य
नहीं है, वह
दो कोड़ी का है।
तुमने तिनके
का सहारा पकड़ा
है। तुम सोच
रहे हो कि तुम
बच जाओगे। तुम
भी डूबोगे और
तुम्हारे साथ
तिनका भी डूबेगा।
तिनके को
पकड़कर कोई बचा
है? मगर कहावत
है : डूबते को
तिनके का
सहारा। आशा
लगा रखता है।
तिनके ही से
आशा लगा लेता
है। तिनके को
ही पकड़ लेता
है। आंख बंद
कर लेता है कि
दिखाई न पड़े
कि तिनका है।
ये
तुम्हारे
इन्द्र
तुम्हारी
कल्पनाएं हैं।
ये तुम्हारे
देवी—देवता
तुम्हारी
कल्पनाएं हैं।
यह तुम्हारा
स्वर्ग
तुम्हारी
अधूरी
आकांक्षाओं
का प्रक्षेपण
है। जो तुम
वहां नहीं
पूरा कर पाए
हो—चाहा तो था
कर लेना पूरा, मगर
नहीं पूरा कर
पाए। क्योंकि
जिंदगी में
सभी इच्छाएं
कैसे पूरी हों?
इच्छाएं
अनंत हैं और
जीवन छोटा—सा।
यह सत्तर साल
की छोटी—सी
जिंदगी और
इच्छाओं का तो
कोई अंत ही
नहीं। और एक
एक इच्छा भी दुष्पूर
है। और अनंत
इच्छाएं! बहुत
कुछ अधूरा रह
जाता है। सभी
कुछ अधूरा रह
जाता है। हर
आदमी अधूरा ही
मर जाता है।
तो अब इस
अधूरी
इच्छाओं के
लिए कुछ तो
आशा चाहिए, कि आगे कहीं
पूरी हो
जाएंगी।
स्वर्ग
तुम्हारी
इन्हीं अधूरी
इच्छाओं की
आधारशिला पर
खड़ा है।
यहां
तुमने सुंदर
स्त्रियां
चाही थीं, नहीं
मिलीं। यहां
तुमने सुंदर
पुरुष चाहे थे,
नहीं मिले।
यहां
सौन्दर्य
मृगमरीचिका
है। दूर से
देखो तो
स्त्री
सुन्दर मालूम
होती है, पुरुष
सुन्दर मालूम
होता है, पास
आओ और फूल
काटो में बदल
जाते हैं, यह
समझ में भी
नहीं आता।
प्यारे—प्यारे
ओंठ और कैसे—कैसे
कठोर शब्द
बोलने लगते
हैं! प्यारी—प्यारी
आंखें और कैसे
दग्ध अंगारे
बन जाती हैं!
सुन्दर—सुन्दर
देहें, किस
तरह जंजीरें
बन जाती हैं!
यह तुम सबका
अनुभव है। और
तब आदमी आशा
के फूलों की
मालाएं
पिरोने लगता
है। स्वर्ग
में अप्सराएं
होंगी—उर्वशी
होगी, मेनका
होगी—स्वर्ण
उनकी काया
होगी, कंठ
उनके कोकिलकंठ
होंगे, उनके
जीवन में
सुवास—ही—सुवास
होगी..... पसीना
भी नहीं बहता
स्वर्ग में
अप्सराओं को! अप्सराएं
बूढ़ी भी नहीं
होतीं!
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
स्त्री के
प्रेम में था और
कहता था कि
सदा तुझे
प्रेम करूंगा।
स्त्रियों को
ऐसी बातों पर
भरोसा नहीं
आता। सुन लेती
हैं,
इनकार भी
नहीं करतीं—क्योंकि
इनकार करने का
मन नहीं होता—मगर
भरोसा नहीं
आता। बहुत बार
सुन चुकी तो
एक दिन उसने
पूछा कि तुमसे
सच पूछती हूं
ईमान से कहो, खाओ
परमात्मा की
कसम, छाती
पर हाथ रखकर
कहो, सदा
मुझे प्रेम
करोगे? जब
मैं बूढ़ी हो
जाऊंगी, जीर्ण—जर्जर
हो जाऊंगी, तब भी तुम
मुझे प्रेम
करोगे? जब
मैं बीमार हो
जाऊंगी, रुग्ण
हो जाऊंगी, हड्डी—मांस
सूखने लगेगा,
तब भी तुम
मुझे प्रेम
करोगे? मुल्ला
नसरुद्दीन
थोड़ा झिझका।
उसने नहीं
सोचा था कि
बात यहां तक
पहुंचेगी।
उसने कहा, हां—हा,
जरूर प्रेम
करूंगा! और
फिर कुछ सोचकर
कहा, लेकिन
एक बात बताओ, तुम अपनी
मां जैसी तो
नहीं मालूम
होने लगोगी?
मां
जैसी तो मालूम
होने ही लगेगी।
इतनी शर्त
उसने बचा ली, कि
इतना भर खयाल
रखना कि मां
जैसी मालूम मत
होने लगना!
लोग
प्रेम में जो
बातें कह देते
हैं,
फिर पीछे
पछताते हैं।
इस जगत में धन
इकट्ठा हो
जाता है, निर्धनता
नहीं मिटती।
महल बन जाते हैं, मगर मौन सब
छीन लेता है।
तो स्वर्ग की
कल्पना की है।
वह स्वर्ग और
उपनिषद के
ऋषियों का, द्रष्टाओं
का स्वर्ग बड़े
भिन्न हैं। तुम्हारे
पुराण
कपोल-कल्पनाएं
हैं। कचरा हैं।
लेकिन उपनिषद
मणि-माणिक्य
हैं।
यह
सूत्र
कोहिनूर जैसा
है। यह सूत्र
कह रहा है:
सत्य में जीना
स्वर्ग है। यह
बात और हो
गयी। इसका
भूगोल से नाता
न रहा। यह बात
आध्यात्मिक हो
गयी। इसका
बाहर से कोई
संबंध न रहा, बात भीतर की
ही हो गयी।
सत्य में जीना
स्वर्ग है।
समाधि मैं
जीना स्वर्ग
है। मन के पार
होना स्वर्ग
है। और
तुम्हारा
स्वर्ग तो मन
की ही
आकांक्षाएं है,
मन की ही
एषणाएं है। वह
तो हारे-थके
मन की ही आखिरी
आशा है कि चलो,
यह नहीं तो
मौत के बाद।
चलो, यहां
नहीं तो आगे।
कहीं न कहीं
मिलेगा। और
आदमी आशा के
बल जीए चला
जाता है। हजार
तरह के दुख, झेले चला
जाता है। पहाड़
जैसे बोझ ढोए
चला जाता है।
आशा बनी रहती
है कि आगे।
तुमने
कहावत सुनी है
कि आशावादी
व्यक्ति जब रेलगाड़ी
के पहाड़ों के
बीच में खुदे
हुए बोगदों में
से देखता है, तो उसे दूर
उस पर किनारे
पर रोशनी
दिखाई पड़ती
है। और वह चल
पड़ता है, मीलों
लंबे अंधेरे
बोगदे में, इस आशा में
कि वह दूर जो
रोशनी दिखाई
पड़ रही है, अभी
नहीं कल, कल
नहीं परसों, नहीं तो
नरसों...! और इसी
आशा में तो
हमने अनेक जन्मों
की कथा गढ़ ली
है। क्योंकि
एक जन्म में
तो भरोसा नहीं
लगता कि यह
बोगदा पार
होगा, यह
अंधेरा पार
होगा। तो
चौरासी करोड़
योनियों की
हमने कल्पना
की है। सोचो
तुम जरा, चौरासी
करोड़ योनियां!
इसका मतलब यह
है कि कभी न
कभी तो यह
अंधेरा पार
होगा! कभी न
कभी तो यह रात
कटेगी, सहर
होगी, सुबह
होगी!
मगर
अक्सर यह होता
है कि अंधेरा
तो कटता नहीं
और वह जो
प्रकाश बोगदे
के उस किनारे
पर दिखाई पड़ता
है, वह किसी
ट्रेन के आने
का प्रकाश
सिद्ध होता है।
आ तो जाता है, मगर तुमको
कुचलता हुआ
निकल जाता है।
तुम्हारी
हड्डी-पसली
तोड़ता हुआ
निकल जाता है।
तुम्हारी
सब आशाएं
दुराशाएं
सिद्ध होती
हैं। तुम्हारी
हर आशा हताशा
में परिणित हो
जाती है। मगर आदमी
फिर नयी-नयी
आशाएं संजो
लेता है, फिर
सोचने लगता है,
फिर सपने
देखने लगता
है।
पुराणों
में जिन
स्वर्गों की
चर्चाएं हैं, वे चाहे
हिंदुओं के
हों, चाहे
मुसलमानों के,
चाहे
ईसाइयों के, यह सिर्फ
मनुष्य की
एषणाओं की ही
विस्तार है।
लेकिन उपनिषद
जिस स्वर्ग की
बात कह रहा है,
वह बात ही
और। सत्य में
जीना स्वर्ग
है। और निश्चित
ही जिसने सत्य
में जीना जान
लिया, वहां
से कोई कैसे
च्युत हो सकता
है? उस
आलोक से, उस
आनंद से, छंद
से कोई कैसे
नीचे गिर सकता
है? वह
संगीत मिला एक
बार, तो मिला
सदा को।
बुद्ध
ने कहा है: दुख
का प्रारंभ
नहीं है, अंत
है, और
आनंद का
प्रारंभ है, अंत नहीं।
बहुत गहरी बात
कहीं!
तुम्हारे दुख
का कोई
प्रारंभ नहीं
है, अनंत
काल से तुम
दुख भोग रहे
हो। प्रारंभ
खोजने
निकलोगे, मिलेगा
नहीं। जैसा
खोदते जाओगे,
उतना और आगे,
और आगे, पता
चलेगा कि जड़ें
और भी पीछे
चली गयी हैं, और भी पीछे
चली गयी हैं।
दुख का कोई
प्रारंभ नहीं
है, बुद्ध
कहते हैं, लेकिन
अंत है। चाहो
तो अभी अंत हो
जाए। चाहो तो
यही अंत हो
जाए। इसी क्षण
अंत हो जाए।
दुख का अंत है,
क्योंकि मन
के पार होने
का उपाय है।
बुद्ध
ने चार सत्य
कहे हैं। पहला
सत्य दुख है।
अधिकतर लोग तो
इसको अंगीकार
ही नहीं करते।
इसको झुठलाते
हैं, छिपाते
हैं, दबाते
हैं। तुम किसी
से पूछो, कैसे
हो? वह
कहता है: बड़े
मजे में हैं।
और इसकी आंखों
में देखो, इसके
चेहरे पर देखो,
कहीं कुछ
मजा दिखाई
पड़ता है! जो
देखो वही
मुसकरा कर
कहता है:
प्रभु की बड़ी
कृपा है! सब ठीक-ठाक
चल रहा है।
तुम भी यही
कहते हो। कहीं
कुछ ठीक-ठाक
नहीं चल रहा
है! सारी
पृथ्वी उदासी
से भरी हुई है,
दुख से भरी
हुई है, नर्क
बनी हुई है--और
हर आदमी कह
रहा है: सब
ठीक-ठाक चल
रहा है! प्रभु
की बड़ी कृपा
है! आनंद ही
आनंद है! झूठ
ही लोग बोल
रहे हैं। एक
दिखावा है। और
दिखावे का भी
कारण है। क्या
सारे है अपने
घाव दूसरों के
सामने प्रकट
करने से? अपनी
मवाद किसी के
सामने उघाड़ने
से सार क्या है?
कौन बंटा
लेगा? तो
छुपाए ही रखो!
मवाद है, घाव
हैं, फूल
ले जाओ बाजार
से खरीद कर, उनके ऊपर
फूल सजा दो।
लोगों को तो
फूल दिखने दो।
तुम भी
लोगों को देख
कर
मुस्कुराते
हो, वह भी
मुस्कुराते
हैं, न
तुम्हारे
भीतर
मुस्कुराहट
है, न उनके
भीतर
मुस्कुराहट
है। तुम्हारे
भीतर भी आंसू
भरे हैं और
उनके भीतर भी
आंसू भरे हैं।
मगर एक चेहरा
बना कर रखना
पड़ता है। इसको
लोग कहते हैं:
शिष्टाचार, सभ्यता , संस्कृति।
एक पाखंड बना
कर रखना पड़ता
है।
बुद्ध
कहते हैं:
पहले तो
स्वीकार करो
कि दुख है।
क्योंकि अगर
तुम दुख को
स्वीकार ही न
करोगे, तो
फिर आगे तो
यात्रा चलेगी
ही नहीं।
फिर
दूसरी बात
बुद्ध कहते
हैं: समझने की
कोशिश करो कि
दुख के कारण
हैं। अकारण तो
कोई नहीं
होता। मत टालो
भाग्य पर!
भाग्य तो
बहाना है।
कारण से बचने
का बहाना है।
मत कहो विधाता
ने लिख दिया है!
मत कहो कि
किसी और की
जिम्मेवारी
है। कारण हो
तो तुम हो।
कारण हैं तो
तुम्हारे
भीतर हैं, तुम्हारी
मूर्च्छा में
हैं। अब क्रोध
करोगे तो दुख
न होगा तो
क्या होगा? और लोभ
करोगे तो दुख
न होगा तो और
क्या होगा? दूसरों को
दुख दोगे, सताओगे,
तो क्या तुम
सोचते हो
तुम्हारे
जीवन में सुख
की वीणा बजेगी?
तुम जो
दूसरों को
दोगे, वही
तुम पर लौट
आएगा। यह जगत
तो प्रतिफल
करता है। यह
जगत तो यूं
हैं कि तुम जो
इसे देते हो, उसी को हजार
गुना करके
लौटा देता है।
सब तुम पर ही आ
जाता है
वापिस। जो
गङ्ढे तुम
औरों के लिए
खोदते हो, एक
दिन सिद्ध
होता है कि
तुम्हारे लिए
ही, तुम्हारी
ही कब्र बन
जाती हैं।
तो
कारण हैं।
लेकिन हम
कारणों को भी
बचाते हैं।
पहले तो हम
दुख है, यह
मानने को राजी
नहीं होते।
आने से भी
छिपाते हैं, औरों से भी
छिपाते हैं।
यूं भ्रांति
बनाए रखते हैं,
ऐसा भरम
बनाए रखते हैं
कि सब ठीक है।
भीतर आग लगती
रहती है, ज्वालामुखी
उबलता है और
बाहर एक
मुखौटा ओढ़े रखते
हैं। फिर
दूसरे अगर यह
स्वीकार भी कर
लें कि दुख है,
तो हम सदा
कारण दूसरों
पर थोपते हैं।
पति अगर दुखी
है तो पत्नी
के कारण।
पत्नी अगर
दुखी है तो
पति के कारण।
बाप अगर दुखी
है तो बेटे के
कारण। बेटा
अगर दुखी है
तो बाप के
कारण।
मुल्ला
नसरुद्दीन का
बेटा फजलू
परीक्षा में असफल
हो गया सो घर
से भाग गया।
अखबारों में
विज्ञापन
निकलवाएं:
तुम्हारी मां
दुखी हैं, तुम्हारे
पिता दुखी हैं,
बेटा घर लौट
आओ! तुम्हारे
बिना मर
जाएंगे। मगर
फजलू न लौटा
सौ न लौटा।
आखिर फजलू की
मां की मां ने
एक रामबाण
विज्ञापन
छपाया। कि
बेटा अब एकदम
आ जाओ! तुम इसी
डर से भाग गये
हो कि परीक्षा
में उत्तीर्ण
नहीं हुए। अब
घबड़ाओ मत; तुम्हें
डर था कि
तुम्हारे
पापा
मारेंगे-पीटेंगे,
तुम्हारे
पापा भी अपने
डिपार्टमेंट
की परीक्षा
में असफल हो
गये हैं--अब
तुम घर आ जाओ!
और फजलू उसी
दिन घर आ गया।
एक-दूसरे
से घबड़ाहट है!
एक-दूसरे पर
टाले हुए हैं!
एक-दूसरे पर
हटा रहे हैं!
और जो
व्यक्ति कारण
दूसरों पर छोड़
देता है, उसने
फिर बचाव का
उपाय खोज
लिया। वह कहने
लगा कि मैं
करूं तो करूं
क्या! समाज
बुरा, समाज
की व्यवस्था
बुरी, यह
परिवार का
ढांचा बुरा, यह अर्थनीति
बुरी, यह
राजनीति
बुरी। मैं
अकेला आदमी इस
भवसागर में
फंसा हूं!
कैसे हो
छुटकारा? कूल
दिखाई पड़ता
नहीं, किनारे
का कुछ पता
नहीं। और हरेक
जान लेने को तत्पर
है।
यूं
तुम बच जाते
हो, मगर यह
कुछ बचना न
हुआ। यह अपने
हाथ से फांसी
लगा लेना हुआ।
कारण
तुम्हारे
भीतर हैं।
इसलिए
बुद्ध ने
दूसरा
आर्य-सत्य
कहा--पहला: दुख
है, और दूसरा
कि दुख के कारण
हैं, कारण
तुम्हारे
भीतर हैं। और
तीसरा कारणों
को काटने के
उपाय हैं।
हताश मत हो
जाना! विधियां
हैं, जिनसे
कारण उखाड़े जा
सकते हैं। एक
बार पता चल जाए
कि जड़ कहां है,
तो गङ्ढे
खोदे जा सकते
हैं, घास-पात
उखाड़ी जा सकती
है, काटी
जा सकती है।
उसी विधि का
नाम धर्म है, ध्यान है, योग है, तंत्र
हैं। अलग-अलग
नाम हैं, मगर
प्रक्रिया एक
ही है।
प्रक्रिया है:
किसी भी तरह
अपने को मन का
साक्षी बना
लेना। जैसी ही
साक्षी
तुम्हारे
भीतर हुआ, अतिक्रमण
हो जात है।
तुम परम
अवस्था को
उपलब्ध हो
गये। और बुद्ध
ने कहा: चौथा
आर्य सत्य है
कि कारण
व्यर्थ नहीं
हैं और उपाय
भी व्यर्थ
नहीं जाते, वह अवस्था
भी है जहां
दुख बिलकुल
समाप्त हो जाता
है, शून्य
हो जाता है।
वह परम आनंद
की अवस्था भी
है। उसका मैं
गवाह हूं।
बुद्ध ने कहा:
उसका में गवाह
हूं। मैंने
जाना है, इसलिए
तुमसे कहता
हूं।
सत्य
में जो जीएगा, उस
जीवन से फिर
गिरना असंभव
है। सत्य में
जो जीएगा, वह
कैसे असत्य
में गिर सकता
है?
'सतां हि
सत्यम्'।
और
फिर सत्य क्या
है?
सत्युरुषों
का स्वरूप ही
सत्य है। सतां
हि सत्यम्।
उनकी जो सत्ता
है, वही
सत्य है। सत्य
कोई सिद्धांत
नहीं, कोई
निष्कर्ष
नहीं, प्रबुद्ध—पुरुषों
के भीतर जो
आभा है, जो
उनका
अस्तित्व है,
जो उनका
स्वरूप है, उनके भीतर
जो कलकल नाद
हो रहा है, उनके
चारों तरफ जो
किरणें
विकीर्ण हो
रही हैं, जो
गंध उड़ चली है,
वही सत्य है।
तो सत्य कुछ
ऐसा नहीं है
जैसे विज्ञान
के सत्य होते
हैं, जिनको
प्रयोगशालाओं
में प्रयोग
करके पाया जाता
है। सत्य
तुम्हारे
जीवन की
आत्यंतिक अनुभूति
है। तुम क्या
हो, इसकी
अनुभूति सत्य
है। तुम्हारा
स्वरूप क्या
है, तुम्हारा
वास्तविक
होना क्या है,
इस सत्य को
न वेदों से
पाया जा सकता
है, न
कुरानों से, न बाइबिलों
से। इसे पाना
हो तो अपने
भीतर ही उस
आखिरी गहराई में
डुबकी लगानी
जरूरी है। जिन
खोजा तिन
पाइया।
जिन्होंने
खोजा, जरूर
पाया है।
जिन
खोजा तिन
पाइया, गहरे
पानी पैठ।
कबीर ठीक कहते
हैं। मगर बड़ी
गहराई में
पैठना होता है,
ताकि तुम
अपनी
आधारभूमि को
खोज लो, अपने
स्वरूप को खोज
लो। और
तुम्हारे
स्वरूप पर
बहुत—सा कचरा
लाद दिया है
दूसरों ने, उस सबको
काटना पड़ेगा,
हटाना
पड़ेगा। न—मालूम
कितने पत्थर
तुम्हारे ऊपर
रख दिये हैं!
तुम्हारा
स्वरूप तो न—मालूम
कहा खो गया है,
पत्थर पर
पत्थर रख दिये
हैं। कि तुम
हिन्दू हो!
बच्चा पैदा
हुआ नहीं कि
जल्दी से इसका
यज्ञोपवीत
करो! बच्चा
पैदा हुआ नहीं
कि इसका खतना
करो, इसको
मुसलमान बनाओ!
बच्चा पैदा
हुआ नहीं कि
इसका
बपतिस्मा करो,
इसको ईसाई
बनाओ। रखने
लगे लोग
पत्थर! चढ़ाने
लगे चट्टानें
तुम्हारे ऊपर।
तुमसे कहने
लगे, तुम
ईसाई हो।
जब
भी कोई बच्चा
पैदा होता है, न
तो ईसाई होता
है, न
हिन्दू होता
है, न जैन
होता है।
बच्चा तो
सिर्फ एक
शुद्ध चेतना,
एक कोरी
किताब की तरह
पैदा होता है।
मगर लोग बैठे
हैं स्याही में
अपनी—अपनी
कलमें डुबोए
हुए कि इधर
बच्चा पैदा हो
कि वे उसकी
कोरी किताब पर
लिखावट शुरू
करें! कोई लिख
देगा गीता को,
कोई लिख
देगा कुरान को,
कोई लिख
देगा बाइबिल
को। कर दी
खराब उसकी
कोरी किताब!
उसे मौका ही न
दिया कि वह
अपने को पहचान
लेता। इसके
पहले कि वह
अपने को
पहचानता, तुमने
उसके ऊपर
धारणाएं थोप
दीं। कि तुम
भारतीय हो, कि तुम चीनी
हो, कि तुम
जर्मन हो। तुम
लादने लगे, कि तुम
ब्राह्मण हो,
कि तुम
क्षत्रिय हो,
कि तुम
वैश्य हो, कि
शूद्र हो। और
फिर वर्गों
में बंटे हुए
हैं। शूद्र भी
सभी अपने को
समान नहीं
मानते।
शूद्रों में
भी नीचे शूद्र
हैं और ऊंचे
शूद्र हैं।
मैं
एक चमारों की
सभा में बोलने
गया। रैदास की
वह जयन्ती
मनाते थे, तो
उन्होंने
मुझसे कहा कि
आप आएं, रैदास
पर कुछ कहें।
तो मैं गया।
वहां देखा कि
बस थोड़े —से
चमार इकट्ठे
हैं। मैंने
कहा कि इस
गांव में इतने
शूद्र हैं— भंगी
हैं, कुम्हार
हैं—वे सब
कहां हैं? चमारों
ने कहा, क्या
आप कहते हैं!
हम भंगियों के
साथ बैठें! मैंने
कहा, फिर
मैंने गलती की
जो मैं
तुम्हारे साथ
बैठा। मुझे यह
पता नहीं था
कि तुम्हारे
भीतर भी वर्ग
हैं, श्रेणियां
हैं। चमार
अपने को ऊंचा
मानता है भंगी
से। भंगी के
साथ कैसे बैठ
सकता है!
उन्होंने
ब्राह्मणों
को निमंत्रण
दिया था, मगर
ब्राह्मण
कैसे आएं? मैंने
उनसे पूछा कि
तुमने मुझे
किसलिए बुलाया?
उन्होंने
कहा, हमने
आपको इसलिए
बुलाया कि
आपको
सुननेवाले इतने
लोग हैं, वे
सब कम—से—कम
आएंगे मगर वे
कोई नहीं आए।
मैंने कहा, वे तुम्हारे
साथ कैसे
बैठें? जब
तुम भंगियों
के साथ बैठने
को राजी नहीं
हो, तो हद
हो गयी, यह
मुझे पता नहीं
था अब तक कि
शूद्रों में
भी श्रेणियां
हैं! उसमें भी
ऊंचे शूद्र
हैं, नीचे
शूद्र हैं।
आदमी
सिर्फ आदमी है।
क्यों उस पर
भूगोल लादते
हो?
क्यों
इतिहास लादते
हो? क्यों
उस पर जमानेभर
की गदगिया
लादते हो? मगर
ये लाद दी गयी
हैं। और जिस
व्यक्ति को
खोजना हो अपने
स्वरूप को, उसे इस सारी
गंदगी को
काटना होगा।
इस कूड़े करकट
को अलग करना
होगा—इसको आग
लगा देनी
होगी! इतना
साहस न हो, तो
कोई सत्य को
उपलब्ध नहीं
हो सकता है।
'सतां हि
सत्यम्।’तुम्हारा
स्वरूप सत्य
है। और स्वरूप
के ऊपर बहुत
पर्तें जम गई
हैं, बहुत
धूल जम गयी है।
दर्पण पर इतनी
धूल जम गयी है
कि दर्पण का
पता ही नहीं
चलता। यह सारी.....
धूल—दर्पण साफ
करना है।
कष्टपूर्ण
है।
क्योंकि
किसी से भी
कहो कि
तुम्हारा
हिन्दू होना
बाधा है
स्वरूप को
जानने में, या
मुसलमान होना,
या जैन होना,
वह झाड़ा
करने को तैयार
है। वह मरने—मारने
को तैयार है।
क्योंकि वह यह
नहीं सोचता कि
ये थोपी गयी
चीजें हैं, यह उसका
स्वरूप नहीं
है, ये
विकृतियां
हैं, यह
धार्मिकता
नहीं है।
धार्मिक
व्यक्ति
सिर्फ
धार्मिक होता
है। इसमें कोई
विशेषण नहीं
होते।
धार्मिक
व्यक्ति की
कोई
राष्ट्रीयता
नहीं होती।
धार्मिक
व्यक्ति न
गोरा मानता
अपने को, न
काला मानता।
क्योंकि वह
अपने को शरीर
ही नहीं मानता।
वह अपने को
चेतना मानता
है। धार्मिक
व्यक्ति न
अपने को पुरुष
समझता, न
स्त्री।
क्योंकि चेतना
कहीं स्त्री
और पुरुष होती
है! आत्मा भी
कहीं स्त्री
और पुरुष होती
है! मगर क्या—क्या
पागलपन हैं!
जैनों की
धारणा है कि
स्त्री की देह
से मोक्ष नहीं।
मोक्ष क्या
देह का होता
है? देह तो
यहीं पड़ी रह
जाती है—पुरुष
की हो कि
स्त्री की हो।
मोक्ष अगर
होगा तो आत्मा
का होगा। और
मोक्ष अगर
होगा तो
साक्षीभाव
में होगा। तो
पुरुष की
आत्मा देखेगी
कि मेरे चारों
तरफ पुरुष का
शरीर है और
स्त्री की
आत्मा देखेगी
कि मेरे चारों
तरफ स्त्री का
शरीर है। मगर
आत्मा थोड़े ही
स्त्री है!
आत्मा तो
साक्षी है—दोनों
की। एक—सी
साक्षी है। हां,
गोरे आदमी
की आत्मा
देखेगी कि
मेरे चारों
तरफ गोरी चमड़ी
है और काले
आदमी की
देखेगी कि
मेरे चारों
तरफ काली चमड़ी
है, लेकिन
आत्मा चमड़ी
नहीं है।
लेकिन हम बस न—मालूम
किन—किन बातों
में आत्मा को
गंवा बैठे
हैं! धन गंवा
दिया है, कंकड़—पत्थर
इकट्ठे कर
लिये हैं।
स्वरूप को खो बैठे
हैं, शास्त्रों
से लद गये हैं।
सत्य का तो
कोई बोध नहीं
है, लेकिन सिद्धांतों
में बडे हम
प्रवीण हो गये
हैं।
'सतां हि
सत्यम्'
और
सत्य है
तुम्हारा
स्वरूप।
'तस्मात्सत्ये
रमन्ते।’
इसलिए
रमो सत्य में।
इसलिए जीओ
सत्य में। और
सत्य में जो
जीता है, वही
संत है। इसलिए
मैं तुमसे यह
कहना चाहता
हूं कि अगर संत
कहे कि मैं
हिन्दू हूं तो
समझ लेना कि
संत नहीं है।
अगर संत कहे
कि मैं जैन
हूं तो समझ
लेना कि संत नहीं
है। संत तो
वही है जो
सत्य में जीता
है। और सत्य न
हिन्दू है, न मुसलमान
है; न जैन
है, न ईसाई
है। सत्य न तो
मंदिरों में
है, न
गिरजों में, न
गुरुद्वारों
में। सत्य
तुम्हारे
भीतर है। सत्य
आत्मान्वेषण
है।
यह
सूत्र प्यारा
है! यह सूत्र
जीने योग्य
है!
'दीपक
बारा नाम का' प्रवचनमाला
से
दिनांक
9 अक्टूबर 1980; श्री
रजनीश आश्रम
पूना
thank you guruji
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